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२९. : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
में ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, मंत्र शास्त्र तथा तंत्र शास्त्र की ज्ञान गरिमा छिपी पड़ी है।
(५) जैन चित्रों में अनेक रहस्यवादी तत्त्व छिपे रहते हैं उदाहरणार्थ-देव, दानव और मानवीय आकृतियों का रूप निर्माण एक नियम के अनुसार है । सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रधान चित्रों के अपने-अपने अभिप्राय एवं प्रतीक हैं। छोटी-सी आकृति का जैन चित्र सम्पूर्ण पुस्तक के समान होता है। इन्द्रसभा, चौदह स्वप्न, जन्माभिषेक, जन्म महोत्सव, शक्रस्तव, पंचमुष्टि लोंच, पार्श्वनाथ, क्षीर समुद्र, पद्म सरोवर, पूर्ण कलश, तृष्णा, निर्वाण, आयं कालक की कथाएँ, रानी सोमा, कल्पवृक्ष एवं विभिन्न कथाओं के कथानक जैन चित्रों के प्रमुख विषय रहे हैं । कदली, कुम्भ, तोरण, मयूर, वृषभ, सिंह, हंस, हाथी, कलश, चामर, ध्वजा, सरिता, लता वेष्टिका, वृक्ष, मेघमाला, लड़ते हुये वृषभ, कच्छप, वानर, विडाल, सर्प, शुक, पुष्पमालिका, सरोवर, रथ, हरिण आदि का जैन चित्रों में प्रतीकात्मक आलेखन हुआ है ।
( ६ ) इन चित्रों में मयूर कण्ठ के समान नीला, हिंगलू, पीत, सुनहरी, रजत आदि रंगों का सफल प्रयोग किया गया है। इनमें १३०० ई० से १४५० ई० तक पीत व रक्तिमलाल पृष्ठभूमि, १४५० ई० से १६०० ई० तक लाल और १६०० ई० से १८०० ई० तक नीली पृष्ठभूमि का आलेखन विशेष तौर पर हुआ है । जैन ग्रन्थों में सुनहली, रूपहली स्याही, अष्टगंध व यक्ष कर्दम ( यन्त्र, मन्त्र, तंत्रादि लेखन हेतु ) व चित्रकला के विविध रंग बनाने की विधियाँ भी लिखी हुई मिलती हैं। सचित्र पुस्तक लेखन में चित्र बनाने के लिए काले, लाल, सुनहरे, रूपहले रंगों के अतिरिक्त हरताल
और सफेदा का भी उपयोग होता था । हरताल और हिंगलू मिलाने पर नारंगी रंग, हिंगलू और सफेदा मिलाने से गुलाबी रंग, हरताल और काली स्याही मिलाकर नीला रंग बनता था । हस्तलिखित ग्रन्थों पर चित्र बनाने के लिए रंगों में गोंद का जल मिलाया जाता था। इनके अतिरिक्त सैकड़ों रंग-संयोजन के प्रयोग पुस्तकों में वर्णित हैं । लेखन के बीच में स्थान इस प्रकार छोड़ा जाता था कि स्वस्तिक, कमल, कलश आदि चित्र अपने आप बन जाते थे । वस्त्र पर चित्रण या लेखन के लिये पहले गेहूँ या चावल की लेई से छिद्र बन्द करके सुखाकर घुटाई की जाती थी।
(७) जैन लघु चित्रों की रेखाएँ अत्यन्त पतली, समान, शक्ति सम्पन्न एवं साधना युक्त होती हैं । इसमें अर्ध चन्द्राकार रेखाओं का बाहुल्य और मेघ-मलिका के समान क्षिप्रता है। इन रेखा प्रधान शैली वाले चित्रों में संयोजन और गतियुक्त, १. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० को जैन लघु चित्र शैली, लब पृ० ३५-४२ । २. वही । ३. वही।
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