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जेन कला : २९॥
लयात्मक सौष्ठव भी पाया जाता है।'
(८) जैन चित्रों का आलेखन राजस्थान में मुख्यतः नागौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, चित्तौड़, उदयपुर, जैसलमेर, पाली, कुचामण आदि क्षेत्रों में हुआ है। जहाँ भी जैन धर्मावलम्बियों की सत्ता थी, वहीं ये चित्र और ग्रन्थादि निर्मित होते रहे। जैन साधुओं में चित्रालेखन की परम्परा अद्यतन जीवित है। अतः यह निर्विवाद है कि जैन चित्र शंली, कला चित्रों की शास्त्रीय पद्धति के अनुसार एक स्वतंत्र विद्या है, जिसकी अपनी मर्यादा और विशिष्ट चितन परम्परा है। (ख) जैन मूर्ति कला:
राजस्थान में जैन धर्म में मूर्ति पूजा प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। राजस्थान में कई स्थानों पर अशोक के पौत्र सम्प्रति द्वारा निर्मित मन्दिर एवं प्रतिमाएँ बतायीजाती हैं । ८वीं शताब्दी से पूर्व की कई प्राचीन जिन मूर्तियां राजस्थान में खोजी गई हैं। ८वीं शताब्दी के पश्चात् जैन मूर्ति कला की समृद्धि के परिचायक विभिन्न तीर्थ एवं महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिर, जैसे गोडवाड़ प्रदेश में नाणा, नाडलाई, नाडौल, घाणेराव, बरकाणा, सादड़ी, पाली, जैसलमेर में लोद्रवा, बाड़मेर में नाकोड़ा जी व जूना, बीकानेर में चिन्तामणि, नमिनाथ व भाँडासार, जोधपुर में ओसियां, घंघाणी, कापरडा आदि हैं। जैन प्रतिमाओं की सामान्य विशेषताएं :
तीर्थंकरों की समस्त मूर्तियां दो प्रकार की पाई जाती हैं-खड़ी हुई अर्थात् खड्गासन या कायोत्सर्ग मुद्रा एवं दूसरी बैठी हुई पद्मासन मुद्रा। समस्त मूर्तियां नग्न या कौपीन सहित, नासाग्र दृष्टि, ध्यान मुद्रा, लांछनायुक्त (जो गुप्त काल से पूर्व की मूर्तियों में नहीं पाये जाते), वक्षस्थल पर श्री वत्स चिह्न, हस्ततल, चरण तल एवं सिंहासन पर धर्मचक्र या कुशनीश या अन्य चिह्न पाये जाते हैं । खड्गासन प्रतिमाओं में सामान्य आकार, युवा शरीर, नग्नता एवं आजानुभुज निरूपण किया जाता है । शरीर को बनावष्ट योग सिद्ध होती है । मूर्ति में भव्यता, प्रतिष्ठा, शान्ति, अनुपात, संयम, सौम्यता आदि तत्त्व झलकते हैं ताकि भक्त की कलात्मक प्यास बुझ सके व साकार बिम्ब में अनन्त की कल्पना जाग्रत कर सके । जिन-बिम्बों के साथ कई बार चमर वाहक, यक्ष, यक्षिणी, मृदंग वादक, मृग, कुबेर, अम्बिका, अष्ट या नवग्रह, अष्ट प्रतिहार्य आदि भी अंकित किये जाते हैं । मूर्तियों के ऊपर कई बार छत्र भी बनाया जाता था। प्रत्येक तीर्थकर को मूर्ति के लिये स्पष्ट लांछना या चिह्न चैत्य वृक्ष, यक्ष व यक्षिणी जैन मान्यतानुसार निर्धारित हैं।
१. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२ । २. त्रिलोक प्रज्ञप्ति, ४, ६०४-६०५, ९१६-१८, ९३४-४० के अनुसार ।
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