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जेन तीर्थ : २१५
विजय और जिन विमल सूरि ने भी अपनी-अपनी तीर्थ मालाओं में इस तीर्थ का वर्णन किया है । " जैसलमेर के शांतिनाथ मन्दिर की एक प्रशस्ति, जो १५२६ ई० में देवतिलक सूरि के द्वारा लिखी गई थी, से यह ज्ञात होता है कि उपकेश वंश के आम्बा के पुत्र कोचर ने कोरंट में एक बड़ा जैन मन्दिर निर्मित करवाया था । इस स्थान के कई लोगों ने तीर्थ यात्रा संघों का नेतृत्व भी किया। उन्होंने जैनाचार्यों के द्वारा प्रतिमाओं के स्थापनासमारोह भी सम्पन्न करवाये तथा यहाँ पर कई दीक्षा समारोह भी आयोजित हुए ।
कोरंट गच्छ की उत्पत्ति इस स्थान से ही हुई। यह उपकेश गच्छ की एक शाखा हैं । कोरंट गच्छ, सम्भवतः कनक प्रभा सूरि के द्वारा प्रारम्भ किया गया था । (२६) संडेरा तीर्थ :
जोधपुर सम्भाग में, पाली से १६ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में, संडेरा स्थित है । इसकी स्थापना सम्भवतः १०वीं शताब्दी में यशोभद्रसूरि ने की थी । अनुश्रुति के अनुसार काठियावाड़ से लौटते समय यशोभद्रसूरि एक तालाब के किनारे रुके, जहाँ सिंह एवं साँड़ के युद्ध में, साँड़ को विजयी देखकर, उन्होंने इस स्थान का नाम " संडेराव" रख दिया । सिद्धसेन सूरि ने अपने "सकल तीर्थं स्तोत्र" में तीर्थ स्थानों की सूची में संडेरा का नाम भी दिया है । यहाँ पर संडेरक गच्छ के महावीर और पार्श्वनाथ के दो जैन मन्दिर थे । १०९२ ई० के अभिलेख के अनुसार इस कस्बे की एक गोष्ठी ने संडेरक गच्छ के मन्दिर में, जिनचन्द्र के द्वारा एक मूर्ति की स्थापना करवाई । " नाडौल के चौहान शासकों ने संडेरा में जैन धर्म की गतिविधियों को संरक्षण दिया । ११६४ ई० के कल्हण के शासन काल के अभिलेख में वर्णन है कि केल्हण देव को माता रानी आनलदेवी ने महावीर के कल्याणक को मनाने के लिये, राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति में से एक हाएल ज्वार का अनुदान स्वीकृत किया था। इसी कल्याणक के निमित्त पाटू, केल्हण उसके भाइयों, पुत्रों तथा अन्य राष्ट्रकूटों ने, कोटवाल गाँव के लगान में से एक द्रम का अनुदान दिया था । इसी प्रकार रथकारों आदि ने भी कल्याणक के अनुदान दिया था । केल्हण के राज्यकाल के ही १९७९ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि ढांढा के पुत्र राल्हा और पाल्हा ने अपनी माता की स्मृति में स्तम्भ भेंट में दिया
लिये १ द्रम का
१. जैनतीर्थं सर्वसंग्रह, पृ० २२८ ।
२. नाजैलेस, ३, क्र० २१५४ ।
३. भपापड, पृ० ४१४, ४१५, ४८०, ५०९, ६६३, ६८०, ६८१ आदि ।
४. प्रभावक चरित्र मानदेवप्रबन्ध, पृ० १९१ ।
५. नाजैलेस, १, क्र० ८८ ।
६. एइ, ११, पृ० ४७ ॥
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