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________________ . जैन तीर्थ : १९५ है।' ११वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि, धनपाल ने अपनी कविता "सत्यपुरिय महावीर उत्साह" में यहां की महावीर प्रतिमा का उल्लेख किया है। जिनप्रभ सूरि ने अपने "विविध तीर्थ कल्प" में इसे “वीरका तीर्थ" वर्णित किया है । इस तीर्थ पर कई जैन मन्दिर थे। यहां से प्राप्त १२७६ ई० के शिलालेख से ज्ञात होता है कि महावीर छद्मस्थ अवस्था में यहाँ आये थे। श्रीमाल में जैनधर्म के प्रसार सम्बन्धी विवरण की १३वीं शताब्दी की एक कृति, "श्रीमाल माहात्म्य" से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है । गौतम गणधर जब काश्मीर से वापस श्रीमाल आये तो उन्होंने वैश्यों को जैनधर्म में दीक्षित किया तथा “कल्पसूत्र", "भगवती सूत्र", "महावीर जन्म सूत्र" आदि कृतियों की रचना की।" ये सभी प्रमाण पश्चाद्वर्ती हैं और आसानी से विश्वसनीय नहीं हैं, किन्तु इनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि १२वीं शताब्दी तक श्रीमाल में जैनधर्म काफी प्राचीन व लोकप्रिय था । उद्योतनसूरि रचित 'कुवलयमाला" को ७७८ ई० को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि शिवचन्द्र गणी पंजाब से श्रीमाल तीर्थ यात्रा पर आये थे तथा उनके शिष्य यक्षदत्त सहित अन्य श्रावकों ने गुर्जर प्रदेश को मन्दिरों से सज्जित कर दिया था। यहाँ के महावीर मन्दिर को समय-समय पर अनुदान मिलते रहते थे। १२७६ ई० के, चौहान चाचिगदेव के शासनकाल के, एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि महावीर देव के मन्दिर को कर्मसिंह, साँचौर के राज्यपाल, रतनपुरा; राधाधर आदि के द्वारा पूजार्थ कुछ भेटें दी गई थीं।' इस मन्दिर के अतिरिक्त श्रीमाल में शान्तिनाथ और पार्श्वनाथ के मन्दिर भी थे। "कल्पसूत्र" की १४८९ को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि शाह कुलधर ने १३वीं शताब्दी में यहां एक जैन मन्दिर निर्मित करवाया। "उपकेश गच्छ प्रबन्ध" के अनुसार यहाँ पर १४वीं शताब्दी में उपकेश गच्छ के दो मन्दिर थे। १६वीं शताब्दी में श्रेष्ठी टोडा के शान्तिनाथ मन्दिर का गोष्ठिक होने का उल्लेख भी मिलता है ।१० मध्यकाल में यहाँ १. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । २. जैसंशो, ३ अंक । ३. वितीक, पृ० ८६ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८ पृ० ३९ । ५. श्रीमाल पुराण, पृ० ६३३-६३ । ६. जबिउरिसो, १९२३, मार्च, पृ० २८ । ७. एरि सरदार म्यूजियम जोधपुर, १९२२, क० २० । ८. श्री प्रशस्ति संग्रह, ४७ । ९. शोप, ३, क्र० १। १०. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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