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१९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का पार्श्वनाथ मन्दिर बहुत प्रसिद्ध था, जिसके चमत्कारों के वर्णन विभिन्न तीर्थ मालाओं में मिलते हैं।' इस मूलनायक की प्रशंसा में १६०५ ई० में पुण्य कमल ने "पार्श्वनाथ स्तवन" को रचना की ।२ महिमा ने अपनी "चैत्यपरिपाटी" में श्रीमाल के ६ जैन मन्दिरों का विवरण दिया है।3 मध्यकाल में रचित विभिन्न तीर्थ मालाओं से श्रीमाल की श्री सम्पन्नता के बारे में विविध जानकारी प्राप्त होती है। ___ श्रीमाल पूर्व मध्यकाल एवं मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण साहित्यिक केन्द्र था। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री ब्रह्मगुप्त ने "ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त" की रचना यहीं पर ६२८ ई० में की। शिशुपाल वध के लेखक माघ भी ६८० ई० में यहीं रहते थे। श्रीमाल के ही मूल निवासी एवं उद्भट विद्वान् सिद्धर्षि ने ९०५ ई० में "उपमितिभवप्रपंचाकथा" की रचना की। इसी प्रकार १३२७ ई० में शान्ति चरित्र" की एक प्रति भी लिखी गई ५ गुण विजय ने "विजय प्रशस्ति काव्य" की टीका का कुछ भाग यहीं पर लिखा तथा १५९५ ई० में विजय गणी ने यहीं पर “जैन रामायण'' रची।६।।
जैनियों एवं ब्राह्मणों में, श्रीमाल जाति यहीं से अस्तित्व में आयो। ८वीं शताब्दी में, श्रीमाल के कतिपय निवासियों को, जैन मत में परिवर्तित किया गया था । पोरवालों की उत्पत्ति भी ८वीं शताब्दी में यहीं से बताई जाती है। श्रीमाल नगर के पूर्वी द्वार के निवासी धर्मान्तरण के पश्चात् पोरवाल कहलाये । बिजौलिया जैन मन्दिर का निर्माता लोलाक पोरवाल वंशी व श्रीमाल पहन का निवासी था। (१५) ओसिया तीर्थ :
ओसिया, जोधपुर से ५२ कि० मी० उत्तर-पश्चिम में है और मन्दिरों का नगर है। प्रशस्तियों एवं अभिलेखों के आधार पर इसके प्रारम्भिक नाम उवकेश', उपकेश', ज्ञात होते हैं। यह एक प्राचीन नगर है। ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस पर गुर्जर प्रतिहार वत्सराज का शासन था। यह तथ्य महावीर मन्दिर से खोजे गये एक अभिलेख से ज्ञात होता है। उस समय ओसिया मन्दिरों से वेष्टित, विभिन्न धर्मानुयायियों से पूर्ण, १. शोप । २. जैसप्र, ९, पृ० ११४ । ३. वही। ४. वही। ५. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ६. शोप, ३, क्र० १ । ७. एइ, २६, पृ० ९९ । ८. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ९. नाजैलेस, क्र० ७८८, श्लोक ९ । १०. वही।
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