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________________ जैन तीर्थ : १९७: एक प्रगतिशील नगर था । ९वीं शताब्दी के मध्य में आभोरों के विध्वंस के फलस्वरूप यह नगर उजड़ गया । ८६१ ई० में कक्कुक ने आभीरों से इसे वापस हस्तगत किया | 2 कुछ समय पश्चात् श्रीमाल के राजकुमार ने यहाँ के प्रतिहार शासकों के पास शरण ली और इस नगर को पुनः आबाद करवाया । प्रतिहारों व चौहानों के शासन में ओसिया जैन व ब्राह्मण धर्म का गढ़ हो गया । यहाँ १८ जैन व ब्राह्मण मन्दिर हैं, जो दो क्षेत्रों में संकेन्द्रित हैं । पहले क्षेत्र में प्राचीन ११ मन्दिर व दूसरे क्षेत्र में पश्चाद्वर्ती मन्दिरौ का समूह है । प्राचीन मन्दिर एक जैसी शैली से निर्मित हैं तथा झालरापाटन, आवां के मन्दिरों जैसे शिल्प सौष्ठव वाले हैं । ये मन्दिर ७०० ई० के बाद व ८०० ई० के पूर्वं के प्रतीत होते हैं, जैसा कि महावीर मन्दिर के शिलालेख से भी प्रमाणित होता है कि यह वत्सराज प्रतिहार के काल ( ७८३ ई-७९२ ई० ) का निर्मित है। ये प्राचीन मन्दिर छोटी संरचनाएँ हैं, किन्तु सादगी और मनोरमता इनकी मुख्य विशेषता है । कोई भी दो मन्दिर, योजना की दृष्टि से एक जैसे नहीं हैं । प्रत्येक को अपनी मौलिकता है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती । ओसिया मन्दिर समूह का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व महावीर जैन मन्दिर करता है । यह मन्दिर एक घेरे के बीच में जगती पर स्थित है । घेरे से सटे हुये अनेक कोष्ठ बने हुए हैं । मन्दिर सुन्दराकृति है तथा मंडप के स्तम्भों की कारीगरी दर्शनीय है । इसकी शिखरादि संरचना नागर शैली की है । मन्दिर में तोरण, सभा मण्डप, रंगमण्डप व गर्भगृह हैं । ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित इस मन्दिर में समय-समय पर परिवर्द्धन, संशोधन व परिष्कार कार्य होता रहा, किन्तु उसका मौलिक रूप नष्ट नहीं होने पाया । उसका कलात्मक संतुलन बना हुआ है एवं ऐतिहासिक महत्व रखता है । महावीर मन्दिर में ८९५ ई० का अभिलेख -युक्त एक मानस्तम्भ था, जो अब क्षतिग्रस्त है । एक अन्य मन्दिर सच्चिय माता का है । इसकी स्थापना भी ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की प्रतीत होती है, किन्तु इसका अधिकांश भाग जैसा अभी दृश्य है, के अनुसार १२वीं शताब्दी के मध्य का प्रतीत होता है । इस देवी को भी जैनियों में बहुत अधिक मान्यता है । 1 ओसिया जैन धर्म से विशेष रूप से संबद्ध रहा। जाति ओसवाल की उत्पत्ति यहीं से, के उपदेशों से हुई । 3 रत्नप्रभसूरि के और ओसिया, जो ब्राह्मण धर्म का गढ़ १. नाजैलेस । २. एइ, ९, १०२७९-२८१ । ३. एसिटारा, पृ० १८३ ॥ उत्तरी भारत की प्रमुख जैन सम्भवतः नवीं शताब्दी के पश्चात् रत्नप्रभसूरि उपदेशों से जैन धर्म की प्रभावना में वृद्धि हुई था, वहाँ जैन मत बहुत लोकप्रिय हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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