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२८: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महावीर मन्दिर निरन्तर तीर्थ क्षेत्र बना रहा। मन्दिर समिति के अनुनय पर ९५७ ई० में जिन्दक नाम के व्यापारी ने महावीर मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया ।' मन्दिर के तोरण का निर्माण ९७८ ई० में हआ।२ ९५४ ई० के अभिलेख युक्त एक भग्न घातु-प्रतिमा, निकट ही धर्मशाला की नींव के उत्खनन में प्राप्त हुई है । एक प्रतिमा का १०४३ ई० के लेख युक्त भग्न अंश भी प्राप्त हुआ है। १०११ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि कर्काचार्य के शिष्य देवदत्त द्वारा शान्तिनाथ की एक प्रतिमा उपकेशीय चैत्य में स्थापित की गई थी।३ ११८८ ई० के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पालिह्या की पुत्री और यशोधर की पत्नी ने अपना मकान महावीर का रथ रखने के लिए रथागार बनाने हेतु भेंट में दिया था। कक्क सूरि द्वारा १३३८ ई० में रचित "नाभिनन्दन जिनोद्धार" से ज्ञात होता है कि "नर्दम" नामक स्वर्णिम रथ, शहर में, वर्ष में एक बार घुमाया जाता था। कक्क सूरि की यह कृति ओसिया के निवासियों, ओसवालों के १८ गोत्रों, नगर के जल स्रोतों, कुण्डों आदि की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है।
१२वीं शताब्दी के आचार्य सिद्धसेन सूरि ने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में ओसिया जैन तीर्थ का सन्दर्भ दिया है। १०३१ ई०, ११७४ ई०, ११७७ ई०, १२०२ ई०, १३८१ ई०, १४३३ १०, १४५६ ई०, १४७७ ई०, १४९२ ई०, १५५५ ई०, १६२६ ई०, १७०१ ई० आदि वर्षों के यहाँ से खोजे गये विभिन्न अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर शताब्दियों से श्वेताम्बर जैनियों का पवित्र तीर्थ रहा है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उपकेश गच्छ की उत्पत्ति ओसिया से हुई। १२०२ ई० का, उपकेश गच्छ के उल्लेख वाला अभिलेख ओसिया से ही खोजा गया है। इस गच्छ का उल्लेख सिरोही के अजारी गांव के ११३७ ई. के अभिलेख में भी मिलता है। यह गच्छ १३वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक जैसलमेर, उदयपुर व सिरोही राज्यों में विशेष
१. बासइएरि, १९०८-०९, पृ० १०९। २. नालेस, क्र० ७८९ । ३. जैरा, पृ० ९७ । ४. नाजलेस, क्र० ८०६,८०७ । ५. भपापइ, पृ० १५९ । ६. गामोसि, ७६, पृ० १५६ । ७. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०२। ८. नाजैलेस, १, क्र० ७९१ । ९. अप्रजैलेस, क्र० ४०४ ।
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