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जैन तीर्थ: : १९३
सूरि ने १३७८ ई० में शांतिनाथ का प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित करवाया । ' वीरचन्द्र सूरि के पश्चात् शालिभद्र पट्टधर हुये, जिन्होंने १३९६ ई०२ में श्री चतुर्विंशति जिनपट्ट और १४०५ इ० में पार्श्वनाथ का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । १४५९ ई० में उदयचन्द सूरि ने प्रतिमाएँ स्थापित करवाईं। इनके उत्तराधिकारी सागर चन्द्र सूरि ने १४७० ई० में समारोह पूर्वक मूर्तियाँ स्थापित की ।" कालप्रवाह में जीरावला, तीर्थ क्षेत्र के साथ-साथ जैन संतों व विद्वानों का भी केन्द्र रहा । यहाँ कई तीर्थ स्तोत्र व तीर्थ स्तवनों जैसे "जीरापल्ली मण्डन पार्श्वनाथ विनती६, "जीरावल्ली पार्श्वद्वात्रिंशतिका ७ एवं " जीरावल्ली पार्श्व स्तवन"" आदि की रचना हुई । १५वीं शताब्दी में प्रभाचन्द के शिष्य भट्टारक पद्मनन्दि ने "जीरावल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र" की रचना को ।" इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर तीर्थों पर दिगम्बर जैन भी कभी-कभी जाते थे । विनयप्रभा सूरि, मेघ, शांतिकुशल १२, शील विजय आदि ने अपनी तीर्थं मालाओं में अन्य तीर्थों के साथ-साथ इस तीर्थ का भी भव्य वर्णन किया है | १४
१७९४ ई० के शिलालेख के अनुसार इस मन्दिर में मूलनायक पार्श्वनाथ ही थे । किन्तु इसके बाद किसी कारणवश नेमिनाथ को मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया । सम्भवतः मूर्ति मुसलमानों द्वारा विध्वंस कर दी गई या ऐसी भी मान्यता है कि अमूल्य प्रतिमा वहीं खंडित न कर दी जावे, अतः रामसीन (जालौर) में विराजमान कर दी गई, जो आज भी मौजूद है । उस समय अन्तरिम व्यवस्था के लिये नेमिनाथ को प्रतिष्ठित कर दिया गया होगा । अब इस मन्दिर में पार्श्वनाथ की नई मूर्तियाँ स्थापित हो गई हैं ।
१. श्रीजैप्रलेस क्र० ९९ ।
२. वही, क्र० ६२ ॥
३. अप्रजैलेस, क्र० ७४ ।
४. श्री जैप्रलेस, क्र० २५६ ॥
५. वही, क्र० १३८ ।
६. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ९२ ।
७. जैसप्र, १९, पृ० १६२ ।
८. वही, ७, पृ० ५६३ ।
९. अने, ९, पृ० २४६ ॥ १०. जैस, १७, पृ० १५ । ११. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ९६ । १२. जैसिभा, ५, पृ० ३६६-६८ ।
१३. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० २४६ ।
१४. खंडेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार का ग्रन्थ संख्या ७२ ।
१५. असावे, पृ० ९१ ।
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