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________________ १९२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जीर्णोद्धार करवाया। १४वीं व १५वीं शताब्दियों में इस तीर्थ की सुख्याति से प्रभावित होकर विभिन्न स्थानों से लोग यहाँ आने लगे। माण्डवगढ़ के संघवी पेथड़ और झॉझण ने यहाँ की तीर्थयात्रा की और एक जैन मन्दिर बनवाया, जिसके भग्नावशेष उपलब्ध नहीं हैं ।२ झांझण के ज्येष्ठ पुत्र चाहड़ ने आबू और जीरापल्ली की तीर्थ यात्राओं पर अपार धन व्यय किया और अनेकों दान दिये । झांझण के ५वें पुत्र ने पार्श्वनाथ मन्दिर का मण्डप बनवाया और छठे पुत्र संघवी पाहु ने जिनभद्र सूरि के साथ तीर्थ यात्रायें कीं। लक्ष्मी सागर सूरि के सान्निध्य में संघवी समदाक भी इस तीर्थ के दर्शनार्थ आये । इसके अतिरिक्त रतलाम, सिरोही, जैसलमेर एवं विभिन्न स्थानों के श्रावक १४वीं एवं १५वीं शताब्दियों में इस तीर्थ पर आये एवं देवकुलिकाओं, शिखरों, रंगमण्डपों आदि का निर्माण करवाया । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रदेश में ओसवाल, पोरवाल एवं श्रीमालों का विशाल जन समुदाय था । तपागच्छ के जयचन्द्र सूरि, भुवनचन्द्र सूरि एवं जिनचन्द्र आदि आचार्यों ने इस तीर्थ की लोकप्रियता के लिये बहुत प्रयत्न किये। १४२६ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि तपागच्छ के भुवनचन्द्र, कृष्णषि गच्छ के जयसिंह सूरि, धर्मघोष गच्छ के विजयचन्द्र सूरि और मल्लधारी गच्छ के विद्यासागर सूरि के विभिन्न श्रावकों ने एक ही दिन, अपने-अपने गच्छों के आचार्यों द्वारा नवनिर्मित देव कुलिकाओं का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया । ऐसा प्रतीत होता है कि १४२६ ई० में इन आचार्यों ने चातुर्मास यहीं व्यतीत किया था। जीरावला गच्छ या जीरापल्ली गच्छ, जो बृहद गच्छ की एक शाखा है, इसी स्थान से उत्पन्न हुई। यह गच्छ सिरोही राज्य तक ही सीमित रहा। १४वीं शताब्दी में यह गच्छ इसके उत्पत्ति स्थान तक ही सीमित था। इस गच्छ के आचार्यों ने प्रतिमाओं के प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाये । इसी गच्छ के रामचन्द्र सूरि ने पाश्वनाथ मन्दिर में १३५४ ई० में एवं १३५६ ई०९ में देव कुलिकाओं का निर्माण करवाया। वीरचन्द्र १. अप्रजैलेस, क्र० १६७, पृ० ५७ । २. उपदेश तरंगिणी पृ० १७८ । ३. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, ३, पृ० ३६ । ४. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ३६ । ५. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, ३, पृ० ६५ । ६. गाओसि, २१, पृ० १०० । ७. अप्रजैलेस, पृ० ३६-६१ । ८. श्रीजैप्रलेस, क्र० ३०९ । ९. वही, क्र० ३१०! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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