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जैन तीर्थ : १९१ एक मत के अनुसार जीरावला पार्श्वनाथ का यह मन्दिर कौडी नगर के सेठ अमरासा ने २६९ ई० में बनवाया था। जनश्रुति के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा स्वप्न के आधार पर जमीन से निकाली गई थी। जैनाचार्य देवसूरि ने २७४ ई० में जीरापल्ली में इसकी प्रतिष्ठा को।' ६०६ ई० में प्रथम बार सेठ जैतासा खेमासा ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया । वे १० हजार तीर्थ यात्रियों के साथ दर्शनार्थ आये थे। यह कार्य मुनि भैरू सूरीश्वर की प्रेरणा से सम्पन्न हुआ। गुप्तकाल के प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिगुप्त सूरि के प्रशिष्य शिवचन्द्र गणी महत्तर ने इस मन्दिर की यात्रा की थी। उद्योतन सूरि कृत "कुवलयमाला" की प्रशस्ति के अनुसार उनके शिष्य यक्षदत्त गणी ने अपने प्रभाव से यहाँ कई जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था। ये मन्दिर आसपास के क्षेत्र में आज भी विद्यमान हैं । यक्षदत्त गणी के एक शिष्य बटेश्वर सूरि ने आकाशवप्र नगर में एक रम्य जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था। यह आकाशवप्र सम्भवतः जीरावल ही था, क्योंकि जैन तीथं प्रशस्ति में इस तीर्थ को ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है। बल्लभीपुर के राजा शिलादित्य को जैन मत में दीक्षित करने वाले धनेश्वर सूरि ने भी इस मन्दिर की यात्रा की थी। ८वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान् जैनाचार्य हरिभद्र सूरि ने जीर्णोद्धार के पश्चात् इस मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी। तत्त्वाचार्य वीरभद्र सूरि, "सिद्ध-सारस्वत-स्तोत्र" के रचयिता बप्पभट्ट सूरि, जैनाचार्य सिद्धर्षि और उनके गुरु दुर्गस्वामी ने भी यहाँ की यात्रा की थी। विमलशाह एवं वस्तुपाल-तेजपाल ने भी इस मन्दिर में अपना धर्म-द्रव्य लगाया था। मन्दिर का तीसरी बार जीर्णोद्धार ९७६ ई० में तैतलीनग के श्रेष्ठी हरदास ने करवाया एवं जैनाचार्य सहजनन्दि ने इसकी प्रतिष्ठा को । एक जनश्रुति के अनुसार १०५२ ई० में वरमाण स्थान के धांधल नामक श्रेष्ठी ने स्वप्न के आधार पर समीप के किसी स्थान से पार्श्वनाथ को मूर्ति को भूमि से निकाला था। इसी मूर्ति की प्रतिष्ठा जीरापल्ली में, धांधल द्वारा पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा कर, ११३४ ई० में की गई । प्रतिष्ठा करवाने वाले आचार्य अजितदेव सूरि थे। इसके पश्चात् अलाउद्दीन खिलजी ने १३११ ई० में अपने आक्रमण में इस मन्दिर एवं मूर्ति को क्षति पहुँचायी, इस तथ्य की पुष्टि "श्री जीरापल्ली मण्डन पार्श्वनाथ विनती" नामक प्राचीन स्तोत्र से भी होती है ।
तेरहराई अड़सट्ठा (१३६८) वरिसिंह असुरहदलु ।
जीत उजिनि हरिसिहि मसय ग्रह विकरोल ॥ "कान्हडदे प्रबंध" एवं अन्य ऐतिहासिक तथ्यों से भी इस विध्वंस की पुष्टि होती है। इसके बाद १३८६ ई० में अहमदाबाद निवासी श्रेष्ठी रत्ना ने इस मन्दिर का
१. असावे, पृ० ८८। २. उपदेश सप्ततिका, पृ० ३६-३७ ।
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