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जैन तीर्थं : २४७
गई तब जिनसिंह सूरि इसका प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाने हेतु जैसलमेर आये ।' १७१२ ई० में बुद्धसिंह के राज्यकाल में, तत्वसुन्दर गणि की प्रेरणा से गंगाराम ने अपने परिवार के साथ प्रतिमाओं की स्थापना करवाई । २
(ख) सम्भवनाथ मन्दिर :
इस मन्दिर का निर्माण जिन सूरि के उपदेश से चोपड़ा गोत्रीय हेमराज पूना आदि ने १४३७ ई० में ही प्रारम्भ करवाया था । यहाँ के कुशल कारीगरों ने बड़ी तत्परता तीन वर्ष अर्थात् १४४० ई० में ही निर्माण कार्य पूरा कर दिया | जिनभद्र सूरि के उपदेश से ही १४४० ई० में मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव, ३०० जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा तथा ध्वज शेखर प्रतिष्ठा आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुये, जिसमें तत्कालीन शासक
रिसिंह एवं उनके सभासदों ने भी भाग लिया तथा सहयोग प्रदान किया था। इस मन्दिर में दो शिलालेख १४४० ई० के हैं ।" इन लेखों में जैसलमेर राजाओं की वंशावली, खरतर विधि पक्ष की पट्टावली व चोपड़ा वंशीय श्रेष्ठियों की वंशावली दी हुई है । प्रशस्ति की रचना आचार्य सोमकुँवर ने, पत्थर पर लेख- भानुप्रभ गणी ने, व उत्कीर्णन शिवदेव सिलावट ने सम्पन्न किया । इसी मन्दिर की तप पट्टिका पर १४४८ ई० का एक शिलालेख है, जो वैरिसिंह के उत्तराधिकारी चाचिगदेव के समय का तथा पीत प्रस्तर पर उत्कीर्ण है । इसमें बांयी तरफ २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा और ज्ञान चार कल्याणक तिथियाँ तथा दायीं तरफ तप के कक्ष निर्मित हैं । नीचे ही १४ पंक्तियों का लेख खुदा हुआ है, जिसमें खरतरगच्छ के उद्योतन सूरि से जिनभद्र सूरि तक के आचार्यों के नाम व पंक्ति २ में शंखवाल गोत्र के श्रेष्ठी पाता द्वारा “तप पट्टिका" बनाने का उल्लेख है । १४६९ ई० के एक अन्य लेख में चोपड़ा गोत्रीय श्रेष्ठ द्वारा शत्रुंजय और गिरनार पट्ट स्थापित करने का उल्लेख है। जिन सुख सूरि के अनुसार इस मन्दिर की बिम्ब संख्या ५५३ और वृद्धिरत्न ने ६०४ लिखी है ।
शिल्प एवं स्थापत्य की शैली में, यह भी पूर्वोक्त मन्दिर के समान है । इस मन्दिर के रंगमण्डप का गुम्बद विशेष दर्शनीय है । छत के मध्य में दिलवाड़ा के मन्दिरों के
१. नाजैलेस, क्र० २४९८ । २. वही
३. वही, क्र० २१३९ ।
४. वही, ३, पृ० ८
५. वही, ३, क्र० २१३९ ।
६. वही, ३, क्र० २१४४ । ७. वही, क्र० २१४० ।
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