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________________ २४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उत्कीर्ण है । प्रवेश द्वार पर तीन तोरण व इनसे बनी कलामय छत विभिन्न आकृतियों से आच्छादित है । इनमें उत्कीर्ण तीर्थंकरों की मूर्तियां, वस्तुतः सजीव व द्रष्टव्य हैं। सोलंकी व बघला शैली के अनुरूप इस मन्दिर में सभा मण्डप, गर्भगृह, गूढ़ मंडप, छ चौकी व भमति की कुल ५१ देवकुलिकाओं का संयोजन है। इन कुलिकाओं में सुन्दर मूर्तियां स्थित हैं । सभा मंडप की छत में विभिन्न मुद्राओं में वादिनियों को इस प्रकार सजाया गया है कि रासलीला नृत्य का आभास होता है। नृत्य मुद्राओं पर रंगीन चित्रकारी से उनकी शोभा द्विगुणित हो गई है। सभा मंडप के अग्रभाग के खम्भों व उनके बीच कलात्मक तोरण पर विभिन्न आकृतियाँ तक्षण कला के अनुपम नमूने प्रस्तुत करती हैं । इस मन्दिर में कुल नौ तोरण हैं, अतः इसे नौ तोरणिया मन्दिर भी कहा जाता है । सभा मंडप में पीले पाषाण के ५४४३ फीट की ऊंचाई वाले ४ पट्ट हैं । इन पर १४६१ ई० के लेख उत्कीर्ण हैं । ये पट्ट शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं मनोहर हैं । मन्दिर की बाह्य दीवारों पर भी विविध मूर्तियों का रूपांकन है । मन्दिर के जांच क्षेत्र में काम मुद्राओं में किशोरियों की मूर्तियों के साथ मैथुन चित्रों का भी अंकन मिलता है। इस मन्दिर के ऊंचे वक्ररेखीय शिखर के साथ अनेक लघु शिखर भी जुड़े हुये हैं। इन पैडीदार शिखरों का निर्माण ऐसे समानुपात से हुआ है कि इन सबका संयुक्त दृश्य अत्यन्त चित्ताकर्षक है। लघु रूप शिखरों से मन्दिर के ऊपर का कमर कोटा सज्जित है । इस मन्दिर की छत में एक मूर्ति अपने एक सिर और उसके पाँच धड़ों की निराली शोभा लिये प्रदर्शित की गई है, किसी भी दिशा से देखने पर दर्शक को यह अपने सम्मुख ही प्रतीत होती है। इस मन्दिर के बाँयी ओर से दूसरे मन्दिर में प्रवेश करते समय एक पत्थर पर अनेक छोटे-छोटे मन्दिर व मूर्तियाँ अंकित हैं । यहाँ जी के आकार जितने मन्दिर में एक लघुत्तम मूर्ति निर्मित है, जिसको देखने के लिये दूरबीन की आवश्यकता होती है। यह वस्तुतः कला की अनुपम कृति है । यह मन्दिर श्रावकों व मुनियों के लिये विशेष श्रद्धा केन्द्र रहा है। १४७९ ई० में पाटन के धनपति श्रेष्ठी ने इस मन्दिर में शांतिनाथ की एक प्रतिमा स्थापित की। इसी मन्दिर में हाम व भीमसी ने जिनवरेन्द्र पट्टिका निर्मित करवाई । १६०६ ई० में एक स्तम्भ का प्रतिष्ठा महोत्सव इस मन्दिर में सम्पन्न हुआ। १६१५ ई० मे कल्याण दास के शासन काल में जिनसिंह सूरि ने यहाँ जिनचन्द्र सूरि की “पादुका" स्थापित करवाई । १६२१ ई० में लोद्रवा से चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति लक्ष्मण विहार नामक मन्दिर में लाई. १. अग्रवाल, हिस्ट्री ऑफ आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ जैसलमेर, पृ० ३९-४० । २. वही। ३. नाजैलेस, ३, क्र० २१२० । ४. वही, क्र० २५०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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