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५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके पश्चात् यह प्रदेश मेड़ता के राठौर शासक वीरमदे के नियन्त्रण में आ गया था। अन्त में आमेर के राजा भारमल ने यहाँ शासन किया, जैसा कि उनके शासन काल में लिखित "उपासिका-अध्ययन' से ज्ञात होता है ।
(८) अलवर राज्य में जैनधर्म :
अजबगढ़', नौगामा और राजगढ़ से प्राप्त जैन प्रतिमाओं के अभिलेखों तथा कतिपय प्राचीन जैन-स्मारकों के अभिलेखीय अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि इस प्रदेश में जैन धर्म प्राचीन काल से ही अस्तित्व में था । गुर्जर प्रतिहारों के पश्चात् खानजादाओं के शासनकाल १५वीं व १६वीं शताब्दी में भी, यहाँ जैन मत लोकप्रिय बना रहा। खानजादा मूलतः हिन्दू थे, जो १४वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक के शासनकाल में धर्मान्तरित होकर मुसलमान हो गये थे, अतः स्वभाव एवं संस्कारवश ये सहिष्णु थे एवं जैन धर्म के प्रति आदर भाव रखते थे। मध्यकाल में अलवर तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध हो गया था और असंख्य तीर्थयात्री यहाँ आते रहते थे। मध्यकाल में लिखित तीर्थमालाओं में यह स्थान 'रावण पार्श्वनाथ तीर्थ' के रूप में उल्लिखित है । सम्भवतः रावण ने उस स्थान पर कभी पार्श्वनाथ पूजन किया होगा। यद्यपि यह तथ्य काल्पनिक व पारम्परिक है, किन्तु अलवर क्षेत्र में जैन धर्म का प्राचीनता को तो सिद्ध करता ही है। यह भी सम्भव है कि अलवर के निकट "पारा नगर" कस्बे का नामकरण जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाम पर ही हुआ हो, क्योंकि यहाँ असंख्य जैन भग्नावशेष उपलब्ध हैं और सम्भवतः प्राचीनकाल में इस स्थान का तीर्थकर पार्श्वनाथ से कोई सम्बन्ध रहा हो ।' तीर्थ क्षेत्र होने के कारण भ्रमणशील जैन सन्त और विद्वान् यहाँ आते रहते थे। अलवर क्षेत्र में कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, जैसे-१५६७ ई० में साधु कीर्ति के द्वारा "मौन एकादशी स्तवन", १५४३ ई० में "लघुसंघत्रयी" व "हंसदूत" और १५४६ ई० में "लघुक्षेत्रसमास वृत्ति" की प्रतियाँ तैयार की गई। खानजादाओं के शासनकाल में तिजारा और बहादुरपुर में भी हस्तलिखित ग्रन्थों की कई प्रतियाँ निबद्ध की गई।
१. एरिराम्यूअ, १९१८-१९, क्र० ४, ९एवं १० । २. वही, १९१९-२०, क्र० ३ एवं ४ । ३. आसरि, २०, पृ० १२४ । ४. जैसप्र, १०, पृ० ९९ । ५. जैइरा, पृ० ५०। ६. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ० ९६, १०८, ११५ एवं १२५ । ७. वही, पृ० ३५ एवं ५४ ।
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