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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५३ १५वीं व १६वीं शताब्दी में खानजादाओं के शासनकाल में मन्दिर भी निर्मित हुये और उनमें मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित को गई। १५१६ ई० के एक जैन अभिलेख में वर्णित है कि बहुद्रव्यपुर के आदिनाथ चैत्य का निर्माण श्रीमाल संघ के द्वारा करवाया गया था और उसमें एक प्रतिमा की स्थापना पुण्यरत्न सूरि के द्वारा की गई थी।' १५३१ ई० में अलवर के उपकेश जाति के एक श्रावक ने सिद्धसूरि के माध्यम से सुमतिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। (स) उत्तर मध्यकाल : १७वीं व १८वीं शताब्दी में भी जैन धर्म की राजस्थान में बहुत सुदृढ़ स्थिति रहो एवं यह प्रगतिशील रहा । यद्यपि इस काल तक जैन मत विभिन्न संघों एवं गच्छों के अतिरिक्त लोकप्रिय पंथों में भी विभक्त हो चुका था, जिनमें से कुछ पूर्ववर्ती शताब्दियों के मुस्लिम विध्वंस के प्रभाव के कारण अमूर्तिपूजक भी थे, फिर भी मन्दिरों को स्थापना और प्रतिष्ठाओं का क्रम राजकीय संरक्षण में निरन्तर जारी रहा। अकबर के धर्म सहिष्णु विचारों के परिणामस्वरूप १६वीं शताब्दी के अन्त तक एवं १७वीं शताब्दो के पूर्वाह्न में जहाँगीर के काल तक जैनाचार्यों को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था, किन्तु तत्पश्चात् से हो मुस्लिम कट्टरता के पुनर्जागृत होने से, १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अर्थात् औरंगजेब के शासनकाल में, जैनधर्म के प्रतिमानों को मूर्ति भंजक विप्लव का सामना करना पड़ा। १८वीं शताब्दी में मुगल सल्तनत के ह्रास के साथ ही जैन धर्म को निर्बाध प्रगति में नयी प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगी एवं समाज में जैन मत की लोकप्रियता व वर्चस्व अक्षण्ण बना रहा । (१) मेवाड़ में जैनधर्म : महाराणा प्रताप के उत्तराधिकारी उनके पुत्र अमरसिंह हुये । १६०२ ई० के मेवाड़ी भाषा के एक विस्तृत अभिलेख में अमरसिंह के द्वारा विशाल धनराशि के अनुदान का उल्लेख है। इसी वर्ष के नाणा गांव के अभिलेख में राणा अमरसिंह द्वारा नाणा गांव मोहता नारायण को दिये जाने का उल्लेख है। इसी गांव से नारायण ने महावीर पूजा के लिये एक रहट अनुदान दिया था। नाणा गाँव उस समय मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत था। महाराणा जगतसिंह के काल में जैन धर्म को विशेष राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ । नाडौल में १६२९ ई० में एक प्रतिमा जयमालती द्वारा स्थापित की गई थी।" १. आसरि, २० पृ० ११९ । २. नाजैलेस, १, क्र० १४६४ । ३. प्रोरिआसवेस, १००७-८, पृ० ४८-४९ । ४. नाजैलेस, १, क्र० ८९० पृ० २३० । ५. प्रोरिआस, वेस, १९०८-९ पृ० ४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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