SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८१ ७७. हेमश्री-ये बड़तपागच्छ के नयसुन्दर की शिष्या थीं। इन्होंने १५८७ ई० में "कनकावती आख्यान" की रचना की।' ७८. हेमसिद्धि-इनका सम्बन्ध खरतरगच्छ से था। इन्होंने “लावण्य सिद्धि पहुतणो जीतम" तथा "सोमसिद्धि निर्वाण गीतम" की रचना की। __७९. ठक्कुरसी--इनकी लिखी ५ रचनाएं अब तक उपलब्ध हुई हैं -“पार्श्वनाथ सत्तावीसी" १५२१ ई०, "शील बत्तीसी' १५२८ ई०, “पंचेन्द्रिय बेलि" १५२८ ई०, "कृपण चरित्र" एवं 'नेमिराजमती वेलि"। ८०. छोहल-अभी तक इनकी ५ कृतियाँ उपलब्ध हैं-"पंचसहेली गीत" १५१८ ई०, "उदरगीत", "पंथीगीत", "बेलि", "बावनी' १५२७ ई०, गीत आदि । (ख) गद्य साहित्य : प्रारम्भिक राजस्थानी में गद्य बहुत कम मिलता है। राजस्थानी भाषा के विकास की कुछ शताब्दियों तक काव्यों की परम्परा अधिक रही। कुछ गद्य रचनाएँ लिखी अवश्य गईं, किन्तु सुरक्षित न रह सकी। गद्य की उपादेयता प्राकृत, संस्कृत आदि भाषा की रचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिये टीका, टब्बा, बालावबोध, प्रश्नोत्तर आदि के रूप में विकसित हुई । मौलिक रचनाएँ बहुत कम लिखी गईं। १४वीं शताब्दी के पूर्व बहुत कम गद्य मिलता है। गद्य का कुछ अंश शिलालेखों आदि में भी मिलता है। पद्य में लयबद्धता और काव्य सौष्ठव होता है, जिससे उसको याद रखने में अधिक सुविधा होती है । गद्य को लम्बे समय तक मौखिक रूप से याद रखना सम्भव नहीं होता। १३वीं शताब्दी- इस शताब्दी में गद्य का कुछ चलन प्रारम्भ हुआ, जो ग्रन्थों के अर्थ को जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाने, भाषा सीखने की सुगमता आदि की दृष्टि से रचा गया। १२७९ ई० में 'बालशिक्षा", १२७३ ई० में "प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह" में लिखी हुई "आराधना" में और "प्राचीन गुजराती पद्य सन्दर्भ" आदि में गद्य का स्वरूप देखने को मिलता है। १४वीं शताब्दी-१३०१ ई० का "नवकार व्याख्यान", १३०२ ई० का "सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन" और १३१२ ई० का लिखा हुआ "अतिचार"-ये कतिपय लघु गद्य रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। इनका महत्त्व केवल गद्य की परम्परा को प्रकट करने के लिये ही है। इनमें सूत्रों व गाथाओं का राजस्थानी गद्य में विवेचन किया गया । १. जैगुक, ३ खण्ड १, पृ० २८६ । २. नाहटा, ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पृ० २१०-२११ । ३. राजसा, पृ० २०५ । ४. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy