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६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ई० में शिवचन्द्र ने “विदग्ध-मुखमण्डन-वृत्ति" व १६२५ ई० में लालचन्द्र के द्वारा "देवकुमार चौपई' की रचना की गई । अलवर में १६१९ ई० में काष्ठासंघ के भट्टारक भूषण ने एक प्रतिमा का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । १६२८ ई० के एक जैन मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण प्रस्तर लेख में वर्णित है कि मूलरूप से दिल्ली निवासी एवं वर्तमान में आगरा के निवासी ओसवाल जाति के हीरालाल के द्वारा मन्दिर में एक प्रतिमा का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था। वर्तमान समय में यह मन्दिर एक ठाकुर के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त है। इसी लेख में रावण पार्श्वनाथ के मन्दिर निर्माण का भी उल्लेख है ।२ (द) मुस्लिम शासक और जैन धर्म : (१) मुसलमानों द्वारा किया गया विध्वंस :
राजपूत शासकों के संरक्षण में जैन धर्म मुस्लिम आक्रमणों से बहुत कुछ सुरक्षित रहा, फिर भी मुस्लिम धर्मान्धता के विनाशकारी दुष्परिणामों से बच नहीं पाया । ११वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य मुस्लिम विध्वंस के बवंडर में अनेक जैन मन्दिर ध्वस्त हुए, सुन्दर प्रतिमाएँ टुकड़े-टुकड़े कर दी गईं, अमूल्य ग्रन्थों को जला दिया गया और असंख्य धर्मानुरागी व्यक्तियों को यातनायें दी गईं। ध्वस्त जैन मन्दिरों के ऊपर ही या उनकी अवशिष्ट सामग्री से मस्जिदें बना दी गईं, जिनसे झाँकती हुई सुन्दर नक्काशी, गुम्बद, स्तम्भ आदि अभी भी मुस्लिम पाश्विकता की गवाही दे
__ महमूद गजनी अपने आक्रमणों के मध्य राजस्थान से होकर गुजरा और उसने बहुत विध्वंस किया। १००९ ई० में उसने नरैना में मूर्तियों व मन्दिरों को निर्दयतापूर्वक तोड़ा। १०२४ ई० के आक्रमण के समय उसकी सेनाएँ राजस्थान के मरु प्रदेश से होकर गुजरी, जिन्होंने लोद्रवा, साँचौर, चन्द्रावती आदि मार्ग के नगरों को लूटा और मन्दिरों एवं मूर्तियों को धन प्राप्ति की आशा से टुकड़े-टुकड़े कर दिया। इसी प्रकार अजयराज चौहान के समय से ही तुरुष्कों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे और मुहम्मद बहलीम ने १११२ ई० के पश्चात् नागौर को अपने विध्वंस का केन्द्र बनाकर यहां सत्ता स्थापित कर ली थी। ये लोग अजमेर तक भी पहुँच गये थे। अतः इन्होंने बहुत विध्वंस लीला की होगी।
फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ के बारे में जिनप्रभ सूरि ने "विविधतीर्थकल्प" में
१. भट्टारक सम्प्रदाय, क्र० ६८६ । २. एरिराम्यूअ, १९१९-२०, क्र० १५ । ३. एसिटारा, पृ० ५७५ ।
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