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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६५ महत्त्वपूर्ण सूचना दी है, कि शहाबुद्दीन गोरी ने इस मन्दिर में विराजमान मूल नायक प्रतिमा को भंग किया, मन्दिर को नहीं; एवं अधिष्ठायक देव की इच्छा नहीं होने से दूसरी मूर्ति स्थापित नहीं की जा सकी।' यह घटना लगभग ११७८ ई० में घटित हुई थी। किराड के ११७८ ई० के अभिलेख में तुरुष्कों द्वारा मूर्ति विध्वंस का विशेष रूप से उल्लेख है। २ साँचौर से अचलगढ़ में लाई गई जैन प्रतिमाओं के ११७९ ई० के लेखों से स्पष्ट होता है कि मन्दिर के ध्वस्त कर दिये जाने के परिणाम स्वरूप, १०७७ ई० में स्थापित प्रतिमाओं की पुनर्स्थापना की गई थी और मन्दिर का भी ११७९ ई० में जीर्णोद्धार किया गया था । पाली के मन्दिर के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वर्तमान में मूलनायक पार्श्वनाथ का मन्दिर मूलतः महावीर के निमित्त निर्मित करवाया गया था। यह परिवर्तन सम्भवतः मुसलमानों के पाली पर हये आक्रमण में प्रतिमा को ध्वस्त करने के उपरान्त हुआ होगा। तारीख-ए-फरिश्ता से भी यह सिद्ध होता है कि मोहम्मद गोरी का दास ही एकमात्र मुस्लिम शासक था, जिसने पाली को अधिकार में लिया था। ११९६ ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अन्हिलवाड़ा जाते समय पाली और नाडौल के किले अधिकार में लिये थे। निश्चित रूप से इसी अवसर पर मूर्ति भंजन का दुष्कृत्य सम्पन्न हुआ होगा। जीर्णोद्धार के पश्चात् नयी मूर्ति की प्रतिष्ठा करते समय इस तथ्य को कि यह मन्दिर मूलतः महावीर स्वामी को समर्पित था, भुला दिया गया। मोहम्मद गोरी के ११९५ ई० के आक्रमण के समय इसकी सेनाएँ किराडू को ध्वस्त करती हुई बढ़ी थीं। इसने नाडौल में पृथ्वीराज तृतीय को परास्त करके चौहान साम्राज्य के समस्त नगरों को निर्दयतापूर्वक विध्वंस किया था ।" "उपकेश गच्छ प्रबन्ध" से ज्ञात होता है कि मोहम्मद गोरी की सेनाओं ने ११९५ ई० में इधर से गुजरते हुये ओसिया में विध्वंस लीला मचाई थी और स्थानीय जनता भयग्रस्त होकर नगर छोड़ गई थी। आशाधर रचित "धर्मामृत टीका" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आशाधर ने मुस्लिम आक्रमण के भय के कारण माण्डलगढ़ से धारा नगरी को प्रस्थान किया था। चौहानों की पराजय के कारण सांभर, नाडौल, नरैणा, नरहद आदि अनेक स्थानों पर मुस्लिम विध्वंस का ताण्डव हुआ था । बयाना क्षेत्र में भी बहाउद्दीन तुगरिल ने जैन मन्दिरों को १. वितीक, पृ० १०६ । २. इए, ६२, पृ० ४२ । ३. अजैलेस, क्र० ४६५-४६६ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०७-८, पृ० ४३-४४ । ५. एसिटारा, पृ० ५७६ । ६. एइ, ९, पृ० १२ । ७. जैसाओइ, पृ० ३४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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