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६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
बहुत क्षति पहुँचाई और उनके अवशेषों पर कई मस्जिदें बनवाईं ।' १२१८ ई० में रचित "जिनदत्त चरित्र" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि लक्ष्मण त्रिभुवन गिरी से "कृष्ण विलास " इन्हीं कारणों से आये
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आबू पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण व मन्दिरों को क्षति पहुँचाने का उल्लेख ओझा जी ने किया है । १३३२ ई० में लिखित, जिनप्रभ सूरि के "विविध तीर्थ कल्प" के " अर्बुदकल्प" में विमल वसहि तथा लूण वसहि दोनों मन्दिरों का भंग, मुसलमानों के द्वारा किये जाने का उल्लेख है । एक समकालीन रचना "नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबंध " में भी अलाउद्दीन के द्वारा किये गये विध्वंस का वर्णन मिलता है । विमल वसहि की देहरी संख्या ५२ के १३२१ ई० के लेख में "मन्दिर के विध्वंस" सूचक वाक्यांश का उपयोग हुआ है । विमल वसहि में बहुत सी देव कुलिकाओं, शिखर, मंडोवर, मुख्य मन्दिर, गर्भगृह आदि अलाउद्दीन के आक्रमण के दौरान ध्वस्त कर दिये गये थे, जिनका जीर्णोद्धार १३२१ ई० से १३३८ ई० के मध्य सम्पन्न हुआ । "
१२०० ई० के पूर्व तक " अढ़ाई दिन का झोंपड़ा" एक सुन्दर जैन मन्दिर था जो ११९२ ई० में मोहम्मद गोरी की अज्ञानता, धर्मान्धता व पैशाचिक संस्कारों की बलि बन गया । उसकी सेना ने इसे ध्वस्त कर इसे मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया । १२०० ई० के फारसी लेख में स्पष्ट उल्लेख है कि अजमेर विजय के साथ ही इमारतों के परिवर्तन का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया गया था । इसमें कुछ नई मेहराबें, मीनार और दीवार आदि बनवा दी गईं । श्वेत संगमरमर से बनी इमामगाह ११९९ ई० में एवं आगे की दीवार, इल्तुतमिश के शासनकाल में १२१३ ई० में निर्मित करवाई गई है ।
१३वीं शताब्दी में मुस्लिम शासन सुस्थापित हो जाने के पश्चात् भी विध्वंस लीला समाप्त नहीं हुई । इल्तुतमिश ने मेवाड़ को रौंद डाला तथा गुहिल राजधानी नागह्रद ( नागदा ) को नष्ट कर दिया । इस समय असंख्य जन-धन की हानि भी हुई । १२२६ ई० में रणथम्भौर और मण्डोर तथा १२२८ ई० में इसने जालौर को ध्वस्त किया । १२२४ ई० में फिरोजशाह खिलजी ने भी विनाश लीला की । १३०१ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर को हस्तगत कर नगर के मन्दिरों को नष्ट कर दिया । जैसलमेर
१. एसिटारा, पृ० ५७७ ।
२. अने०, ८, पृ० ४०० ।
३. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ७० ।
४. अर्बुदकल्प, पृ० १५ ।
५. जैरा, पृ० ३१-३२ ।
६. एपिग्राफिका इंडो मोहस्लेमिका, १९११-१२, पृ० १५, ३०, ३३ आदि ।
७. एसिटारा, पृ० ५७७ ॥
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