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जैन तीर्थ : २३५.
ही महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है। अजारी तीर्थं पिंडवाड़ा से ५ कि० मी० दूर है । यहाँ पर जैन व हिन्दू मन्दिरों के विस्तृत भग्नावशेष हैं, जिससे प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में यह बड़ा नगर था । यहाँ के जैन मन्दिर से ९६९ ई० से १३९७ ई० तक के कई अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि इस तीर्थ को जैन धर्मावलम्बियों में महत्त्वपूर्ण मान्यता थी । १३९७ ई० में पिप्पलाचार्य गच्छ के वाचक सोम प्रभ सूरि ने इस मन्दिर में सुमतिनाथ की प्रतिमा निर्मित करवाई थी । "
(४६) लोटाणा तीर्थं :
विजयराजेन्द्र सूरि द्वारा सिरोही क्षेत्र से संग्रहीत अभिलेखों के, दौलत सिंह लोढ़ा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में इस तीर्थं का उल्लेख है । यहाँ से चार अभिलेख प्राप्त हुये हैं | शान्तिनाथ पंचतीर्थी का १०५४ ई० का लेख प्राचीनतम है, जिसमें उपकेश गच्छीय देवगुप्त सूरि का भी उल्लेख है । 3 इससे सिद्ध होता है कि यहाँ का जिन मन्दिर पूर्व के मध्यकाल में भी अस्तित्व में रहा होगा । १०७३ ई० के प्रतिमा लेख से निवृत्ति कुल श्रीनन्द और आसपाल द्वारा शेखर सूरि के माध्यम से पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है । मण्डप में स्थापित वर्धमान की सपरिकर प्रतिमा के १०८७ ई० के लेख में देवाचार्य द्वारा प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है ।" १८१२ ई० का लेख ऋषभदेव की पादुका पर अंकित देखने को मिलता है ।
(४७) झालरा पाटन तीर्थं :
श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र झालरापाटन, झालावाड़ जिला मुख्यालय से ५ मील दूर है । झालरापाटन का प्राचीन नाम "चन्द्रावती" था, जो काली सिंध की सहायक नदी चन्द्रभागा पर अवस्थित था । विभिन्न पुरातात्त्विक अवशेषों से सिद्ध हुआ है कि यह एक पुरातन नगर था, किन्तु प्राप्त प्रमाणों एवं भग्नावशेषों के आधार पर यह छठी या ७वीं शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं है ।" यह स्थान प्रारम्भ से ही शैववैष्णव व जैन तीर्थं रहा है । "
१. जैइरा, पृ० ८९ ।
२. श्री जैप्रलेस, पृ० १९ । ३. वही, क्र० ३२१ ।
४. वही, क्र० ३१८ ।
५. वही, क्र० ३२० ।
६. वही, क्र० ३१९ ।
७. एसिटारा, पृ० १३१ । ८. वही, पृ० १३४ ॥
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