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________________ २३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं यहाँ शहर के मध्य विस्तृत परिसर में शान्तिनाथ का भव्य मन्दिर है, जिसमें शान्तिनाथ की १२ फुट ऊँची सौम्य एवं सातिशय खड्गासन प्रतिमा है । इस मन्दिर का निर्माण १०४६ ई० में शाह पापा हूमड ने करवाया था और उसकी प्रतिष्ठा भावदेव - सूरि से करवाई थी । ' सातसलाकी पहाड़ी पर स्थित स्तम्भ के ११०९ ई० के शिलालेख में श्रेष्ठी पापा की मृत्यु का वर्णन मिलता है । सम्भवतः ये श्रेष्ठी पापा हो शान्तिनाथ मन्दिर के निर्माता थे । प्राचीन काल में इस मन्दिर की बहुत ख्याति थी । अनेक श्रावक एवं मुनि दर्शनों के लिये आते रहते थे । १०४७ ई० के एक शिलालेख में एक यात्री के • नाम का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त मन्दिर के स्थान पर ही वर्तमान मन्दिर का निर्माण हुआ है । मूलनायक शान्तिनाथ की मूर्ति प्राचीन मन्दिर की ही मूर्ति है और • इसकी प्रतिष्ठा ११०३ ई० में हुई थी, ऐसा विश्वास है, क्योंकि इस मूर्ति का लेख पढ़ा नहीं जा सका है । मन्दिर के द्वार पर विशाल श्वेत वर्ण हाथी बने हुये हैं । इतने विशाल पाषाण गज अन्यत्र देखने को नहीं मिलते हैं । यहाँ हस्तलिखित ग्रन्थों का एक विशाल शास्त्र भण्डार भी है, जिसमें अनेक अप्रकाशित एवं दुर्लभ ग्रन्थ हैं । मन्दिर के बाहर - तीनों ओर बने बरामदे में १५ वेदियाँ हैं, जिन पर कई प्रतिमाएँ आसीन हैं । मन्दिर में कुछ प्राचीन प्रतिमाएँ १४३३ ई०, १४३५ ई०, १४६७ ई०, १४७८ ई०, १५६३ ई० की हैं, जिनकी प्रतिष्ठा बलात्कार गण की ईडर शाखा के विभिन्न भट्टारकों ने करवाई थी । जैन नसिया, झालावाड़ मार्ग के किनारे विशाल परिसर में अवस्थित है । इसमें पुरानी नसिया से लाई गई एक चौबीसी है, जो बायीं ओर की वेदी पर स्थापित हल्के लाल वर्ण की पार्श्वनाथ प्रतिमा है । इसका आकार २ फीट ८ इंच है । यह प्रतिमा पाँच फुट ऊँचे व तीन फुट चौड़े एक शिलाफलक पर है । प्रतिमा के ऊपर सप्त फणावली उत्कीर्ण है । परिकर में छत्र, गज, मालाधारी देव, चमरेन्द्र, दोनों पार्श्वो में ७ पद्मासन तथा छत्र के ऊपर ८ खड्गासन प्रतिमाएँ, पद्मासन प्रतिमाओं के नीचे धरणेन्द्र और पद्मावती उत्कीर्ण है । मूर्ति का प्रतिष्ठा काल ११६९ ई० का है । दायीं वेदी पर मूल नायक पार्श्वनाथ की १ फुट ९ इंच अवगाहना की और १४८८ ई० में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा । इसके अलावा १६०८ ई० व १६१२ ई० की मूर्तियों सहित ७ और प्रतिमाएँ हैं । मन्दिर के बाहर ३ निषेधिकाएँ व उन पर छतरियाँ बनी हुई हैं । एक, १००७ ई० की है, जो आचार्य भावदेव के शिष्य श्रीमंत देव के निधन पर, दूसरी ११२३ ई० में आचार्य देवेन्द्र के लिये एवं तीसरी कुमुदचन्द्राचार्य आम्नाय के १. अने, १३, पृ० १२५ । २. एरिराम्युम, १९१२-१३, पृ० ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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