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जैनधर्म भेद और उपभेद : १४५
सिद्ध गोत्र' का उल्लेख १५वीं शताब्दी के अभिलेखों से मिलता है। धीना गोत्र, पाटनी गोत्र और मुहवना गोत्र भी १६वीं शताब्दी के अभिलेखों में उल्लिखित हैं। (३) पोरवाल :
यह जाति भी ८वीं शताब्दी में श्रीमाल नगर से श्रीमाल जाति के साथ ही उत्पन्न हुई, ऐसा माना जाता है। नगर के पूर्वी द्वार के लोग जिन्होंने जैनाचार्यों से जैनधर्म स्वीकार किया-पोरवाढ़, पोरवाड़ या पोरवाल कहलाने लगे।५ "प्रबन्ध पट्टावली" के अनुसार ११७८ ई० में प्रौढ़ सूरि ने प्लेग की बीमारी दूर कर दी थी, अतः पूढ़वाल जाति अस्तित्व में आई, जो पोरवाड़ या प्राग्वाटक कहलाये । पट्टावली का यह मत सही प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस काल के पूर्व भी पोरवाल अस्तित्व में थे। इसीप्रकार श्रीमाल नगर से इनकी उत्पत्ति का विचार भी सही प्रतीत नहीं होता है। प्राचीन अभिलेखों एवं ग्रन्थों में पोरवाल के लिये 'प्राग्वाट' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्राग्वात, मेवाड़ ( मेदपात ) का दूसरा नाम था । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वात प्रदेश के लोग ही जैन मत स्वीकार कर लेने पर प्राग्वात या पोरवाल कहलाने लगे। पोरवाल अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के 'पुर" नामक गाँव से बताते हैं । सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि इस जाति को चित्तौड़ में हरिभद्र सूरि ने प्रतिबोधित किया था। उसके बाद से ही यह जैन जाति हुई। अभी तक इस जाति का १०वीं शताब्दी से पूर्व का कोई लेख उपलब्ध नहीं था । इन्द्रगढ़ से प्राप्त ७१० ई० के लेख में पाशुपत शैव से सम्बन्धित प्राग्वाट जाति के कुमार द्वारा दान देने का उल्लेख है।' सम्भवतः उस समय के पूर्व तक यह जाति शैव मतानुयायी रही होगी। इस जाति के उल्लेख सम्बन्धी अधिकांश अभिलेख पश्चिमी राजस्थान व उत्तरी गुजरात से प्राप्त होते हैं । अतः इनका प्रारम्भिक अधिवासन इन क्षेत्रों में ही रहा होगा ।१ १०३४ ई० के कासिन्द्रा अभिलेख में श्रेष्ठी
१. नाजलेस, २२९२ । २. वही, २४२९ । ३. वही, ७५० । ४. वही, २३७०। ५. श्री उज्जगोत्र संग्रह, पृ० १३-२३ । ६. पप्रस, पृ० १४ । ७. ओझा निबन्ध संग्रह, पृ० २५ । ८. जेकोबी, "समराइच्चकहा" की भूमिका । ९. एइ, २२, पृ० ११२ । १०. शोप, वर्ष ३५, अंक १, पृ० ५५ । ११. जैरा, पृ० ६१ ।
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