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________________ जैन शास्त्र भंडार : ४७३ स्थानीय आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का आयात करना था। आयात-निर्यात के प्रमुख पदार्थ रेशम, बढ़िया कपड़ा, नील, चीनी, लोहा, तम्बाकू, अफीम, खजूर, सूखे मेवे, गेहूँ, चावल, फल, मसाले, नारियल, दवाइयां आदि थे। स्थानीय व्यापारी कपड़ा, कपास, अनाज, किराना, घी, गल्ला आदि का विनिमय करते थे। जैन श्रेष्ठी वर्ग का एक महत्वपूर्ण अर्थोपार्जन का साधन रुपयों का लेन-देन व ब्याज अर्जन भी रहा । १८वीं शताब्दी तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी इस प्रकार का साहूकार वर्ग ही रहा, जो समयानुकूल कृषकों की मदद करता रहा। इस प्रकार कृषि, व्यवसाय एवं उद्योग तीनों में भागीदार रहकर जैन व्यापारियों ने प्रदेश के आथिक उन्नयन में अत्यधिक योगदान 'दिया। ९. शैक्षिक एवं बौद्धिक उन्नयन में योगदान : जैन मतावलम्बी व्यापारी होने के साथ ही ज्ञान-पिपासु वर्ग भी रहा है । शैक्षिक मूल्यों को कभी विस्मृत नहीं किया। प्राकृत एवं संस्कृत शिक्षण के लिये मन्दिर में या -पृथक् से पाठशालाएं चलाई जाती थीं, जहाँ शिक्षण विधि सरल एवं सुग्राह्य होती थी। जैनियों ने सहशिक्षा को भी लड़कियों के लिये एक उचित अवस्था तक सही माना है, अतः ११-१२ वर्ष तक लड़कियों को भी शिक्षित किया जाता था। जैनमत में स्वाध्याय तप का अंग माना गया है, जिसके लिये शिक्षित होने के साथ-साथ ग्रन्थों एवं साहित्य का होना भी आवश्यक था अतः मंदिरों में या पृथक् से पुस्तकालय या ग्रन्थागार भी होते थे, जहाँ स्वाध्याय की सुविधा होती थी। ग्रन्थों की उचित देखभाल की जाती थी और सतत् रूप से ग्रन्थों की प्रतिलिपियां व नये ग्रन्थों का सजन होता रहता था। मध्यकाल में और विशेषतः पूर्व-मध्यकाल में शैक्षिक मूल्यों को विकसित करने में जैनधर्म का -महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । सम्पूर्ण विवेच्य काल में विविध धर्मावलम्बियों का सापेक्ष अध्ययन करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि शैक्षिक मूल्यों, पाठशालाओं, साहित्य अध्ययन, साहित्य सृजन, उसके रख-रखाव आदि को जितना संरक्षण जैनियों ने दिया है, उतना अन्य किसी वर्ग ने नहीं । इनके द्वारा स्थापित व संरक्षित शास्त्र भंडार सम्पूर्ण देश के लिये अनमोल हैं। १०. साहित्य सृजन में योगदान : जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने देश, काल एवं परिस्थिति के यथारूप चित्रण के साथ ही 'धार्मिक साहित्य का भी विपुल सृजन किया। प्राकृत, अपभ्रश, संस्कृत, राजस्थानी एवं हिन्दी में रचा गया, साहित्य बहुविषयक था। आगम, दर्शन, इतिहास, राजनीति, कथा, काव्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, भूगोल, खगोल, व्याकरण, एवं छन्दशास्त्र, शब्द कोष आदि सभी विषयों पर अनेक कृतियां रची गई। मूल रचनाओं के साथ ही इन पर भाष्य, टीकाएं', बालावबोध आदि रचकर इनको सामान्य जनों के अवगाहम के लिये उपयोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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