________________
जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४७'
१४. ब्रह्मदेव-ये आश्रम पट्टन (केशोरयपाटन) में निवास करते थे। इन्होंने सोमराज श्रेष्ठी के लिये मुनि नेमिचंद्र के "बृहद्र व्यसंग्रह' एवं "परमात्मप्रकाश" पर टीका लिखी । "द्रव्यसंग्रह" की प्राचीनतम पांडुलिपि १३५९ ई० की जयपुर के ठोलियों के मन्दिर में है। "द्रव्यसंग्रह" एवं "प्रवचन सार" टीकाओं में अमृतचंद्र, रामसिंह, अमितगति, डड्ढा, प्रभाचंद्र आदि के ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं, जो १०वीं एवं ११वीं शताब्दी के विद्वान् है। इसलिये ब्रह्मदेव का समय ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या १२वीं शताब्दी का पूर्वाद्धं माना जा सकता है ।
१५. मुनिचंद्र सूरि-ये बृहद्गच्छ के थे। इन्होंने १११७ ई० में नागौर में "उपदेश पदवृत्ति" रचना का प्रारम्भ किया, जिसे पाटन में समाप्त किया गया।
१६. विजयसिंह सूरि-ये राजगच्छ के मुनि थे। इन्होंने ११५८ ई० में पाली में "जम्बूद्वीप समास टीका" की रचना की।
१७. मल्लधारो हेमचंद्र सूरि-ये मलधार गच्छ के आचार्य थे। "द्वयाश्रय काव्य" व "कुमारपाल चरित्र'४ इनकी प्रख्यात रचनाएँ हैं। इन्होंने ११२३ ई० में मेड़ता में "भवभावना" स्वोपज्ञ टीका की भी रचना की ।
१८. पद्मानंद श्रावक-ये खरतर मतानुयायी थे। इन्होंने १२वीं शताब्दी में नागौर में 'वैराग्यशतक" की रचना की।
१९. वर्द्धमान सूरि-ये खरतर गच्छाचार्य थे । इन्होंने १११५ ई० में “धर्मरत्न. करकंड स्वोपज्ञ टीका सह" की रचना की । संस्कृत अभिलेख
विद्वत्ता के क्षेत्र में सुख्यात होने के कारण जैनाचार्य अभिलेख आदि का लेखन भी करते थे । कुमारपाल का ११५० ई० का चित्तौड़ अभिलेख, ११६८ ई० का बिजौलिया अभिलेख तथा अन्य कई अभिलेख इनके द्वारा लिखे गये। इन अभिलेखों का, ऐतिहासिकता के साथ काव्य-पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। हथूडी के ९१६ ई०, ९३९ ई० और ९९६ ई० के अभिलेख, तथा इस काल के अन्य कई अभिलेख सुन्दर संस्कृत में निबद्ध हैं । विधि-चैत्य आन्दोलन के प्रमुख आचार्य जिनबल्लभ सूरि (१११० ई०) ने मठों एवं मन्दिरों में रहने वाले चैत्यवासी साधुओं को धार्मिक वृत्ति अपनाते हुए आदर्श जीवन.
१. राजसा, पृ० ९८ । २. जैसासइ, पृ० २४२ । ३. राजैसा, पृ० ८१ । ४. जैसासइ, पृ० ३०७-३०८ । ५. राजैसा, पृ० ८० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org