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३४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
व्यतीत करने की शिक्षा दी थी । एतदर्थ उन्होंने अनेक ग्रन्थ भी लिखे, जिनमें "अष्टसप्त टीका", "संघपट्टक" व "धर्मशिक्षा" प्रमुख हैं। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि इन तीनों ग्रन्थों को शिलाओं पर उत्कीर्ण करवाकर चित्तौड़, नागौर, मारोठ आदि के विधिचैत्य जैन मन्दिरों में लगवाया गया था।' इनके शिष्य जिनदत्त सूरि को "अप्रभ्रस काव्यत्रयी" में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है ।२ इन्हीं को चित्तौड़ प्रशस्ति, ग्रन्थ रूप में प्राप्त हो चुकी है।
विग्रहराज के अनुज तथा सुप्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के २ अभिलेख बिजौलिया की चट्टानों पर उत्कीणं हैं, जिनकी तिथि ११६९ ई० है। इनमें से एक तो बृहद प्रशस्ति है, जिसमें चौहानों को वंशावली एवं इतिहास है। इसके रचयिता माथुर संघ के मुनि गुणभद्र थे, जिन्हें “कवियों के गले के आभूषण" की संज्ञा दी गई है। पास की चट्टान पर प्राग्वाट श्रेष्ठी लोलार्क, जो श्रीधर के पुत्र थे, ने सिद्धसूरि विरचित "उत्तमशिखर पुराण" नामक जैन दिगम्बर ग्रन्थ को ११६९ ई० में चित्रसुत केशव द्वारा शिलांकित करवाया। इस ग्रन्थ में पाँच सर्ग और २९३ श्लोक
(४) राजस्थानी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार:
अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं की भाँति राजस्थानी भाषा का विकास भी तत्कालीन गुजरात और राजस्थान में लोक प्रचलित अपभ्रंश से हुआ है। गुर्जर अपभ्रंश में पश्चिमी अपभ्रंश की सभी विशेषताएं होने से मारुगर्जर या पुरानी राजस्थानी का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से माना जाता है।६ ११वीं शताब्दी से ४ शताब्दी पश्चात् तक का साहित्य, “मारूगुर्जर" साहित्य है। इसके “पुरानी राजस्थानी", "पुरानी पश्चिमी राजस्थानी", "जूनी गुजराती", "मारू सौरठ" आदि नाम भी दिये गये हैं। उल्लेखनीय है कि १५वीं शताब्दी तक पुरानी गुजराती और पुरानी राजस्थानी एक ही थी। १४५० ई० के लगभग दोनों पृथक् हुईं। इसलिये मारू-गुजर का साहित्य, गुजराती और राजस्थानी दोनों का साहित्य है । इस काल में रचित साहित्य की चर्चा,
१. गाओसि, ७६, पृ० ८। २. अपभ्रश काव्यत्रयी। ३. एइ, २६, पृ० १०५ । ४. प्राचीन भारतीय लिपिमाला, पृ० १५० । ५. राजैसा, पृ० १६३ । ६. वही। ७. वही, पृ० १६४।
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