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जैनधर्म भेद और उपभेद : १११
राजस्थान में कुछ स्थान ऐसे थे, जो इस संघ से अत्यधिक सम्बन्धित थे। उदयपुर के पास धुलेव के प्रसिद्ध ऋषभदेव मन्दिर में इस संघ के भट्टारकों की गादी रही है । काष्ठा संघ के भट्टारकों ने इस मन्दिर में बहुत सा निर्माण कार्य और प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाया । यहाँ से प्राप्त लेखों में काष्ठा संघ के भट्टारकों के सम्बन्ध में गच्छगणादि का विवरण इस क्रम में दिया गया है-काष्ठा संघ, नंदीतट गच्छ, विद्यागण, रामसेनान्वय । किसी मूर्ति लेख में लोहाचार्यान्वय भी मिलता है । १६९६ ई० के शिलालेख में लाड़बागड़ गच्छ और भट्टारक प्रतापकीर्ति आम्नाय का भी उल्लेख है।
ऋषभदेव में काष्ठा संघ की शाखा, नंदी तट गच्छ के भट्टारकों का प्रभाव प्रारम्भ से ही रहा है। कई शताब्दियों से इस क्षेत्र को व्यवस्था भी इनके हाथ में रही । इस संघ के प्रारम्भिक उल्लेख का १३७४ ई० का शिलालेख यहाँ उपलब्ध है, जिसमें भट्टारक धर्मकीर्ति के पदेश से मंदिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है। इस अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि साह बीजा के पुत्र हरदान ने यह जीर्णोद्धार करवाया था। इस क्षेत्र में उपलब्ध शिलालेखों और मूर्तिलेखों में काष्ठा संघ की एक शाखा नंदीतट गच्छ विद्यागण के निम्नलिखित भट्टारकों का उल्लेख मिलता है
भट्टारक रामसेन, धर्मकीर्ति, यशकीति, विश्वभूषण, त्रिभुवनकोति, भीमसेन, गोपसेन, राजकीर्ति, लक्ष्मीसेन, इंद्रभूषण, सुरेन्द्र कीर्ति, प्रतापकीर्ति, श्रीभूषण, शुभचंद्र, जयकीति, सुमति कीर्ति, देवेन्द्र कीर्ति, ज्ञान कीर्ति आदि । । काष्ठा संघ के माथुर गच्छ के मध्यकालीन आचार्य :
ललित कीर्ति (११७७ ई०), माधवसेन, उद्धर सेन, देवसेन, विमल सेन, धर्म सेन, भावसेन, सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति (१४११ ई०-१४१६ ई०), यशकीर्ति (१४२९ ई०१४४० ई०), मलय कीर्ति (१४४५ ई०-१४५३ ई०), गुणभद्र (१४५३ ई०-१५३३ ई०), गुणचन्द्र (१५१९ ई०), भानुकीति (१५४९ ई०), कुमारसेन (१५५८ ई०-१५७५ ई०), विजयसेन । काष्ठा संघ के लाड़बागड़ गच्छ के मध्यकालोन आचार्य :
अनंतकीर्ति, विजयसेन, चित्रसेन, पद्मसेन, त्रिभुवन कोति, धर्मकीति (१३७४ ई०), मलय कीर्ति (१४३६ ई०), नरेन्द्र कीति, प्रताप कीति, त्रिभुवन कीर्ति । १. भादिजैती, ४, पृ० १२४ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. जैसेस्कू, पृ० ११७ । ६. वही, पृ० १२० ।
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