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१८४: मध्यकालीन राजस्थान में बनधर्म - मूंगथला, जैनियों के महातीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा । जिनप्रभ सूरि ने १३३२ ई० में लिखित "विविध तीर्थ कल्प" में इस स्थान के महावीर मन्दिर का वर्णन किया है।' ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ महावीर छदमस्थ अवस्था में आये थे। महातीर्थ मूंगथला के "जीवित स्वामी श्री महावीर जैन मन्दिर" के मुख्य गम्भार के दरवाजे पर पाया गया १३६९ ई० का अभिलेख बताता है कि भगवान महावीर अर्बुद भूमि में आये थे और महावीर के जीवन की ३७वीं वर्षगाँठ पर, केशीगणधर के द्वारा एक प्रतिमा की प्रतिष्ठा आयोजित की गई थी। यह तथ्य साहित्यिक प्रमाणों से भी पुष्ट होता है । १३वीं शताब्दी के एक लेखक ने "अष्टोत्रयी तीर्थमाला"3 में वर्णन किया है कि महावीर के जीवन के ३७वें वर्ष में वीर मन्दिर का निर्माण हुआ था। जैन तीर्थमालाओं में यह महावीर मन्दिर "जीवित स्वामी के मन्दिर" के रूप में वर्णित किया गया है। जीवित स्वामी के मन्दिर से अभिप्राय है, कि वह मन्दिर जो महावीर के जीवन काल में निर्मित हुआ। उक्त सभी कथन पश्चातवर्ती समय के हैं। अतः आसानी से विश्वसनीय नहीं माने जा सकते हैं।
मूंगथला का महावीर मन्दिर समय-समय पर पुननिर्मित होता रहा और इसमें प्रतिमाएँ स्थापित की जाती रहों। सभा मंडप के ४ स्तम्भ ११५८ ई० में बीसल के द्वारा बनवाये गये थे।४ १३३२ ई. में मंत्री धांधल ने इस मंदिर में जैन प्रतिमाओं के २ बड़े जोड़े रखवाये थे।" पोरवाल जाति के महीपाल के पुत्र श्रीपाल ने १३५९ ई० में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और इसी वर्ष सर्वदेव सूरि के द्वारा प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह व कलश समारोह सम्मन्न हुआ । कान्हडदेव के पुत्र वीसलदेव ने इस मन्दिर के निमित्त १३८५ ई० में एक गांव और अन्य भेंट आदि दी थी। वीसलदेव सम्भवतः चन्द्रावती का शासक राजा देवड़ा चौहान प्रतीत होता है। मूंगथला में बड़ी संख्या में श्रावक रहते थे, वे नेमिनाथ के मन्दिर की वार्षिकी को समारोह पूर्वक मनाते थे । १४६० ई० में रत्नमन्दिर गणी द्वारा लिखित "उपदेश तरंगिणी" से ज्ञात होता है कि इस स्थान के श्रावक विमल वसहि मन्दिर के ध्वजारोहण और नित्य स्नान पूजा
१. वितीक, पृ० ८६ । २. अप्रजैलेस, क्र० ४८। ३. वही, पृ० ४७ । ४. वही, क्र० ४४, ४५, ४६ एवं ४७ । ५. वहो, क्र० २५४, २५५ । ६. वही, क्र० ५० । ७. वही, क्र० ५१। ८. वही, क्र० २५१ ।
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