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२२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
धार्मिक गतिविधियों के आधिक्य के परिणामस्वरूप, चौहान व परमार शासकों के अन्तर्गत, कला एवं साहित्य की अत्यधिक प्रगति हुई और चन्द्रावती कला केन्द्र बन गया था। यहां बड़ी संख्या में मन्दिर, द्वार, तोरण एवं प्रतिमाएँ थीं। यह सम्पन्न नगर मुस्लिम सेनाओं द्वारा हमेशा लूटा जाता रहा और कालक्रम में परित्यक्त एवं नगण्य जनसंख्या वाला अधिवास रह गया । १०३८ ई० में धनेश्वर सूरि ने प्राकृत में “सुर सुन्दरी कथा" यहीं पर लिखी ।" १२४६ ई० में अजितप्रभ सूरि द्वारा रचित "शांतिनाथ चरित्र" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चन्द्र गच्छ के विजय सिंह सूरि की "उपदेशमालावृत्ति" और पंचाशक वृत्ति" की प्रतियाँ क्रमशः ११८६ ई० और १२३१ ई० में रची गई थीं । १२५६ ई० में उदय सूरि ने चन्द्रावती के रावल धन्धुक के दरबार में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को शास्त्रार्थ में हराया। उन्होंने यहाँ “पिण्डविशुद्धि विवरण", "धर्मविधि वृत्ति" और "चैत्यवंदन दीपिका" भी लिखी।
चन्द्रावती में विशाल संख्या में श्रावक रहते थे, जिनमें से कइयों को महत्त्वपूर्ण पद भी प्राप्त थे। लूणगवसहि के निर्माता तेजपाल को पत्नी अनुपमादेवी चन्द्रावती के श्रेष्ठी घरणिग की पुत्री थी । महामात्य तेजपाल ने खीबा सिंह, आबासिंह और ऊदल नाम के अपने तीन सालों को मन्दिर का ट्रस्टी बनाया था । १२३० ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ के श्रावकों ने आबू के अष्ट दिवसीय वार्षिकी समारोह में भाग लिया था । ( ३६ ) मीरपुर तीर्थ :
मीरपुर तीर्थ, अनादरा-सिरोही मार्ग पर सिरोही से २० कि० मी० दूर है । सिरणवा पहाड़ की गोद में तीन तरफ पहाड़ों से घिरा हुआ, यह सिंह दुर्ग की परिकल्पना प्रस्तुत करता है । प्राचीनकाल में इसका नाम "हमीरपुर" था। यहाँ मुख्य मंदिर के अलावा चार मन्दिर और हैं । हमीरपुर की स्थापना ७५१ ई० में हुई थी। प्राचीन तीर्थमालाओं में इसका नाम "हमीरगढ़" मिलता है। ज्ञानविमल सूरि द्वारा १. अबुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ४३ । २. वही। ३. वही । ४. जैसासइ, पृ० २४०-३३० । ५. गाओसि, ७६, पृ० २३, ९८, २०८ । ६. जैसाइस, पृ० ४३४-६३८ । ७. एइ०८, पृ० २१७ । ८. वही, पृ० २२० । ९. वही, पृ० २०६ । १०. असावै, पृ० ३२ ।
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