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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४३ (३) हाड़ोती क्षेत्र में जैनधर्म : मध्यकाल में हाड़ौती क्षेत्र में जैन मत श्रावकों में पर्याप्त लोकप्रिय था किन्तु यहाँ राज्याश्रय प्राप्त करने के अधिक अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। १३वीं शताब्दी में बून्दी में हाड़ौती राज्य की स्थापना हो चुकी थी तथा कोटा व झालावाड़ के क्षेत्र भी इसी के अन्तर्गत थे। मध्यकाल में यह प्रदेश मुगल सम्राटों के दिल्ली से मालवा जाने के मार्ग में था । मुगल अभियानों का इन शताब्दियों में इस प्रदेश में. बाहुल्य रहा, अतः जैन मत व्यापक रूप से राजाओं का संरक्षण ग्रहण नहीं कर पाया, किन्तु स्थानीय शासक जैन धर्म के विरोधी भी नहीं थे। इसका स्पष्ट प्रमाण हमें हाड़ौती की राजधानी बन्दी में देखने को मिलता है, जहाँ वर्तमान में १२ दिगम्बर जैन मन्दिर, एक नसियाँ व २ श्वेताम्बर जैन मन्दिर हैं। इनमें बहुत से मंदिर मध्यकाल में निर्मित हुये। गढ़ के निकट ऋषभदेव जैन मन्दिर, अभिनन्दन स्वामी मन्दिर, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि के मन्दिर रचना शैली से अतीव सादगीपूर्ण तथा मध्यकालीन प्रतीत होते हैं । ऋषभदेव मन्दिर में १२५७ ई० की काष्ठासंघीय भट्टारक द्वारा प्रतिष्ठित सम्भवनाथ की प्रतिमा है । यहाँ के जैन मन्दिरों में मध्यकाल में प्रतिष्ठित अनेकों प्रतिमाएं हैं। हाड़ौती का प्रसिद्ध जैन तीर्थ केशोरायपाटन १४वीं शताब्दी में बून्दी रियासत के अन्तर्गत आ गया था । यहाँ अनेक सन्तों एवं आचार्यों का बिहार होता रहता था । नेमिचन्द्र सिद्धान्ति-देव जैसे तपस्वी मुनि का यह स्थान साधना केन्द्र था। उन्होंने २६६ "गाथात्मक पदार्थ-लक्षण रूप लघु द्रव्य संग्रह" एवं विशेष तत्व ज्ञान के लिये "बृहद् द्रव्य संग्रह" की इसी मन्दिर में रचना की थी। यह नगर उस समय मालवा शासन के अन्तर्गत था एवं मालवा एवं धाराधिपति परमारवंशीय भोजदेव के प्रांतीय शासक, परमारवंशीय श्रीपाल द्वारा शासित था। सोम नामक राजश्रेष्ठी श्रीपाल का विश्वसनीय अधिकारी था। इसी धर्मानुरागी श्रेष्ठी के अनुरोध पर उक्त ग्रन्थों की रचना हुई थी। इस मन्दिर में कई मध्यकालीन जैन प्रतिमाएं हैं और कुछ तो १२७० ई०, १२९३ ई० को भी है। इसी प्रकार इस क्षेत्र में नैनवां प्राचीनकाल से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा। यहाँ के मन्दिरों में शास्त्र भण्डार भी हैं, जिनमें १४१२ ई० की 'प्रद्युम्न चरित्र" की प्रति प्राचीनतम है। केशवसिंह नामक कवि ने “भद्रबाहु चरित्र" की रचना यहीं समाप्त की थी। जैनवां में ६ जैन मन्दिर व एक नसिया है । यहां से प्राप्त १२९४ ई० के एक अभिलेख में दिगम्बर भट्टारक प्रतापदेव का सन्दर्भ है। १. अने०, वर्ष १९, अंक १-२, पृ०७० । २. वही, कासलीवाल, के० पाटन, पृ० १३ । ३. वही, पृ० ५२। ४. वरदा, १४, पृ० २२-२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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