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प्रकाशकीय
राजस्थान की सांस्कृतिक गरिमा की सभी विशेषताओं को समाहित करते हुए जैन धर्म ने उसके इतिहास-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया हैं। राजस्थान के धार्मिक इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि ८ वी से १८ वीं शताब्दी तक मध्यकालीन की सांस्कृतिक धारा में जैनधर्म एक महत्वपूर्ण जीवन्त केन्द्र रहा है । लेखिका ने विशेष श्रमपूर्वक 'मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म' विषय पर जो शोध प्रबन्ध लिखा था उसी का यह मुद्रित रूप है। इसे ग्रन्थ रूप में पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत करते हुए हम अतीव प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।
किसी भी धर्म अथवा संस्कृति की जीवन्तता का प्रतीक उसका साहित्य होता है । साहित्य एक ऐमा दर्पण है जो अतीत को प्रतिविम्बित करता है, वर्तमान स्वरूप का बोध करता है और भविष्य का निर्धारण करता है। मध्यकाल में राजस्थान जैन साहित्यिक साधना का प्रमुख केन्द्र था। तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल के कारण भी यहाँ की साहित्य-साधना विशेष प्रभावित नहीं हुई। कतिपय मुगल शासकों की बर्बरता के कारण यद्यपि यहाँ के जैन मन्दिरों और शास्त्र भण्डारों की अपूरणीय क्षति हुई, फिर भी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में विपुल जैन साहित्य सुरक्षित रहा । आज भी यहाँ के भण्डारों एवं मन्दिरों आदि में इतनी अधिक मात्रा में जैन साहित्य एवं कलाकृतियाँ विद्यमान हैं, जिनसे तत्कालीन धर्म एवं संस्कृति को सहजता पूर्वक समझा जा सकता है । प्रस्तुत ग्रन्थ डा० (श्रीमती ) राजेश जैन के शोध प्रबन्ध का मुद्रित रूप है उन्होंने इसमें मध्यकालीन ( राजस्थान में ) जैन धर्म एवं संस्कृति के विविध पक्षों का विवरण दिया है । प्रस्तुत कृति पर श्रीमती जैन को विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा पी-एच. डी० की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी इस कृति को पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्रकाशनार्थ दिया, एतर्थ हम उनके आभारी हैं। हमें आशा है कि उनकी इस कृति से पाठकगण मध्यकालीन राजस्थान के जैनधर्म के विविध पक्षों से परिचित होंगे और उनके शोध-श्रम का सम्यक् मूल्यांकन कर सकेंगे।
प्रस्तुत कृति के प्रकाशन हेतु कलकत्ता निवासी जैनविद्या प्रेमी श्री भंवरलाल जी वैद्य ने ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की, विद्याश्रम परिवार उनकी उस उदारता के प्रति कृतज्ञ है। प्रस्तुत कृति के सम्पादन एवं प्रकाशन में संस्थान के निदेशक प्रो० सागरमल जैन का विशेष योगदान रहा है, हम उनके प्रति आभारी हैं। इसी प्रकार प्रफ संशोधन आदि कार्यों में संस्थान के डा० अशोक कुमार सिंह एवं डा० इन्द्रेशचन्द्र सिंह का भी हमें विशेष सहयोग प्राप्त हुआ अतः हम इनके भी आभारी हैं । अन्त में सुन्दर कलापूर्ण मुद्रण के लिए हम वर्द्धमान मुद्रणालय को भी धन्यवाद ज्ञापित करते हैं ।
भूपेन्द्र नाथ जैन
হী
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