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जैन कला : २९३
१. केन्द्र में केवल एक ध्यानावस्थित पद्मासन मूर्ति-एक तीर्थी, २. केन्द्र में ध्यानस्थ मूर्ति एवं दोनों तरफ दो खड़ी जिन मूर्तियाँ-त्रितीर्थी,
३. बीच में मूलनायक-उभयपक्ष दो खड़े हुये जिन व उनके ऊपर दो पद्मासनस्थ जिन-पंचतीर्थी,
४. बीच में ध्यानमग्न जिन, उभयपक्ष में दो खड्गासन जिन तथा परिकर में या ऊपर अन्य इक्कीस पद्मासनस्थ जिन-चतुविशतीर्थी या चौबीसी।
प्रायः चार तीर्थंकरों वाली सर्वतोभद्र मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं। प्रतिमाओं के परिकर में गजाभिषेक, गंधर्व आदि तथा पीठासन पर सिंह, गज, धर्मचक्र एवं नीचे श्रावक-श्राविकाओं तथा नवग्रहों के लिये स्थान होता है। विभिन्न प्रतिमाओं के अतिरिक्त नन्दीश्वर द्वीप, सिद्ध प्रतिमा, बावन चैत्यालय प्रतिमा, अष्ट कमलाकार प्रतिमा आदि भी धातु निर्मित होती हैं । (१) पूर्व मध्यकाल :
८वीं शताब्दी के पूर्व व गुप्तकाल से ही राजस्थान में प्रस्तर एवं धातु प्रतिमाएँ उपलब्ध होने लगीं। (क) प्रस्तर प्रतिमाएँ:
भरतपुर क्षेत्र में जबीना से प्राप्त सम्भवतः चौथी शताब्दी की एक सर्वतोभद्र आदिनाथ दिगम्बर की मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें समवसरण विधि के जटाधारी आदिनाथ को चारों ओर प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार ८वीं, ९वीं शताब्दी की पारे व पत्थर को उकेर कर बनाई गई कुबेर की मूर्ति भी विलक्षण है । इसमें कुम्भोदर कुबेर के पीछे गज वाहन, उनके दाहिने हाथ में बिजौरि फल, बायें हाथ में नौलि व शोर्ष मुकुट के बीच लघु जिनाकृति व उसके भी ऊपर एक अन्य लघु तीर्थकर आकृति से इसके जैन मूर्ति होने की पुष्टि होती है । भरतपुर क्षेत्र में जबीना से ही २ फीट ४ इंच ऊँची नेमिनाथ प्रतिमा बद्धपद्मांजली मुद्रा में मिली है, जो गुप्तकालीन कला परम्परा की है। नागौर जिले में खींवसर से प्राप्त १०वी, ११वीं शताब्दी की महावीर की यह विशालकाय प्रस्तर प्रतिमा अलौकिक है। मूर्ति के सिर पर मुकुट व शरीर पर अन्य आभूषण आदि हैं, जो जीवन्त स्वामी स्वरूप के प्रतीक हैं।" इस पर लघु लेख भी उत्कीर्ण है, “वीरणा चालुक्य स्या कारित"। ऐसी ही एक प्रस्तर मूर्ति सिरोही के जिनालय में गर्भगृह के
१. भरतपुर संग्रहालय में । २. प्रताप संग्रहालय, उदयपुर । ३. जैसरा, पृ० १८९ । ४. जोधपुर संग्रहालय में । ५. जैसरा, पृ० १९०।
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