________________
जैनधर्मं भेद और उपभेद : ११३
२. देवसेन संघ- नागौर में आदिनाथ मन्दिर हीराबाड़ी की सम्भवनाथ प्रतिमा के १४९६ ई० के लेख में इस संघ का उल्लेख है । इसी मन्दिर की १४९६ ई० की एक अन्य मूर्ति पर भी इस संघ का नामोल्लेख मिलता है |
३. मूल संघ - राजस्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय में मूलसंघ हो १३वीं से १६वीं शताब्दी तक अधिक प्रचलन में रहा । इसके अनुयायी मुख्यतः खण्डेलवाल जैन थे । राजस्थान से प्राप्त विभिन्न अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मूल संघ के साथ बलात्कार गण, नन्दि संघ और सरस्वती गच्छ भी अंकित किया जाता था । कुछ अभिलेखों में इस परिचय के अतिरिक्त "कुन्दकुन्दाचार्यान्वय" भी देखने को मिलता है ।
राजस्थान में मूल संघ के बलात्कार गण की उत्तर शाखा आचार्यों का वर्चस्व रहा । इन्हीं आचार्यों की परम्परा में राजस्थान में प्रवेश के पश्चात् से विभिन्न स्थानों पर गादियाँ स्थापित कर कई शाखाओं की स्थापना की गई। इनके निवास, प्रवास व उत्तराधिकार के सम्बन्ध में पट्टावलियों में परम्पराओं की विविधता देखने को मिलती है । ४ पट्टावलियों में मुख्य बिन्दुओं पर एकरूपता है, किन्तु ५वीं पट्टावली भिन्न परम्परा बतलाती है । ५वीं पट्टावली १४४३ ई० तक शुभचन्द्र के आचार्यत्व के उल्लेख के साथ समाप्त होती है और प्राचीनतम है, अतः यह पर्याप्त विश्वसनीय है। पट्टावलियों के अनुसार प्रथम २६ आचार्य भद्द्द्दलपुर में हुए, जो प्रथम चार पट्टावलियों के अनुसार मालवा में है, जबकि वस्तुतः यह दक्षिण में है, जो ५वीं पट्टावली से ज्ञात होता है । २७वें आचार्य ने अपनी गादी भद्दलपुर से उज्जैन स्थानांतरित कर ली । सभी पट्टावलियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं । उज्जैन से १०८३ ई० में ५३वें आचार्य माघचन्द्र ने अपनी गादी कोटा क्षेत्र के बारों नगर में स्थापित कर ली । ६३वें या ६४वें आचार्य बारों में ही हुये । इसके पश्चात् ७७वें क्रम तक के आचार्य ग्वालियर में रहे । ६३ से ७७वें अर्थात् १४ आचार्यों के बारे में उक्त तथ्य ४ पट्टावलियों में उल्लिखित है, किन्तु ५वीं पट्टावली के अनुसार १० आचार्य चित्तौड़ में और ४ बघेरा में प्रतिष्ठित हुए, जो सत्य प्रमाणित होता है । इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि कुमारपाल के समय चित्तौड़ दुर्ग में दिगम्बर जैनों की एक सम्पन्न बस्ती अस्तित्व में थी । "
१. प्रलेस, क्र० ८७१ ।
२. वही, क्र० ८७२ ।
३. जैसे स्कू, पृ० ९४ ।
४. प्रथम पट्टावली १८८३-८४ की पीटरसन रिपोर्ट में प्रकाशित हुई थी, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पट्टावलियाँ इ० ए०, जिल्द २० में दी गई हैं तथा पाँचवीं पट्टावली इए जिल्द २१ के पृ० ५८ पर दी गई है ।
५. प्रोरिआसवेस, १९०३-४, पृ० ४६ ।
८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org