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२३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
से ही सम्बद्ध रही होंगी।' दिगम्बर जैन खण्डेलवालों के एक जागा के रिकार्ड के अनुसार, पाटण में क्षत्रिय कुल तेंवर वंशीय पृथ्वीराज शासक थे, जिन्होंने खण्डेला में जाकर "४४ ई० में श्रावक व्रत ग्रहण किया था। इन्हीं की वंश परम्परा में मोहनदास पाटणी ने "पाटण तँवरा" में मुनि सुव्रत नाथ की प्रतिष्ठा २७८ ई० में सम्पन्न करवाई थी। इसी वंश परम्परा में जीवराज के पुत्र विक्रमसिंह ने ३९८ ई० में पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई । “बृहद द्रव्य संग्रह" की एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मुनि सुव्रत जैन मन्दिर में नेमिचन्द्र ने श्रेष्ठी सोमा के आग्रह पर इस ग्रंथ की रचना की, उस समय इस स्थान का शासक भोज का एक निकट सम्बन्धी श्रीपाल मंडलेश्वर के रूप में नियुक्त था। सोमा एक भांडागारिक था ।४ नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने इसी चैत्यालय में “लघु द्रव्य संग्रह" की भी रचना की। मूलनायक प्रतिमा के चमत्कारों के संदर्भ में अनेक किंवदन्तियाँ जनता में प्रचलित हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार मुहम्मद गोरी की सेनाओं द्वारा यहाँ विध्वंस करने पर मूर्ति पर प्रहार करते समय पैर के अंगूठे से दुध की तोन धार निकली व सभी आक्रमणकारी भाग गये । अन्य एक चामत्मकारिक प्रकरण यह बताया जाता है कि एक बार प्लेग फैलने पर निवासियों द्वारा तीन चार माह के लिये नगर त्यागने के पूर्व जलाई गई जोत, बाद में भी जलती हुई मिली।
अतिशय क्षेत्र का मन्दिर चम्बल तट से ४० फीट ऊँची टेकरी पर निर्मित है। ऊँचे-नीचे धरातल के कारण विस्तृत परिसर में होते हुये भी निर्माण योजनापूर्ण नहीं है । मन्दिर के बाह्य भाग में दो कमरे, दालान व दो चौकी हैं। मन्दिर के ऊपरी भाग व भूगर्भ गृह में वेदियां निर्मित हैं। ऊपर पाँच वेदियाँ हैं-प्रथम वेदी पर नेमिनाथ को श्याम पाषाण की सवा फुट पद्मासन मूर्ति १६०७ ई० की, पुष्पदन्त की श्वेत पाषाण की १४९७ ई० की मुंडासा शहर में भट्टारक जिनचन्द्र से प्रतिष्ठित प्रतिमा, ९७५ ई० में प्रतिष्ठित महावीर की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा तथा नन्दीश्वर जिनालय, दूसरी वेदी पर १ फुट ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन महावीर प्रतिमा, १५२४ ई० को श्वेत पाषाण की चन्द्रप्रभु प्रतिमा तथा दो धातु प्रतिमाएँ, तीसरी वेदी पर पार्श्वनाथ की कत्थई वर्ण की पद्मासन प्रतिमा, १७६९ ई० की सवाई माधोपुर में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन मूर्ति, चन्द्र प्रभु की १४९२ ई० की मूर्ति, पांच छोटी-छोटी श्याम वर्ण प्रतिमाएँ, संभवतः ७वीं या ८वीं शताब्दी की भूरे वणं के शिलाफलक में परिसर में अन्य आकृतियों सहित पद्मासन मूर्ति तथा १३६२ ई० की प्रतिष्ठित एक प्रतिमा, चौथी वेदी पर आदिनाथ की
१. एसिटारा, पृ० ४१५ । २. कासलीवाल, के० पाटन, पृ० ५८-५९ । ३. वही, पृ० ५९ । ४. वीरवाणी स्मारिका, पृ० १०९ ।
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