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________________ -४२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मुनि जिनकृपाचंद्र सूरि व अगरचन्द नाहटा जैसलमेर गये एवं शास्त्र भण्डारों का पुनर्परीक्षण किया । ( क ) बृहद ज्ञान भण्डार, जैसलमेर : पांडुलिपि सबसे प्राचीन , इस ग्रन्थ भण्डार को सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त है । आचार्य जिनभद्रसूरि ने इसे १४४० ई० में संभवनाथ मन्दिर के तलघर में स्थापित किया था । इसीलिये इसे 'जिनभद्र सूरि शास्त्र भण्डार' भी कहा जाता है। यह ज्ञान भण्डार कई आचार्यों एवं विद्वानों की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा, जिनमें कमलसंयम उपाध्याय, १४८७ ई० एवं समय सुन्दर ( १४वीं शताब्दी ) के नाम उल्लेखनीय हैं। जिनभद्र सूरि ने यहाँ बहुत से ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाईं तथा बहुत से ग्रन्थों को सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ लाकर संग्रहीत किया । यहाँ के ताड़पत्रीय ग्रन्थों की संख्या ८०४ है, जिसमें - द्रोणाचार्य द्वारा १०६० ई० में रचित 'ओघनियुक्ति वृत्ति' की है । इसकी नकल पाहिल के द्वारा की गई थी। इसके अतिरिक्त १२वीं १३वीं शताब्दियों में सृजित ग्रन्थों की संख्या भी अच्छी है । जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त यहाँ जैनेतर विद्वानों की कृतियाँ भी संग्रहीत हैं । ऐसी पांडुलिपियों में 'काव्य मीमांसा' ( राजशेखर), 'काव्यादर्श' ( सोमेश्वर भट्ट ), 'काव्य प्रकाश' ( मम्मट ) एवं 'नैषधचरित' (श्री हर्ष ) के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी में विमल सूरि के 'पउमचरिय' ( ११४१ ई०), परमानंद सूरि को 'हितोपदेशामृत' ( १२५३ ई०), संघदास वाचक 'रचित 'वासुदेव हिण्डा', देवेन्द्र सूरि रचित 'शांतिनाथ चरित', विद्याधर रचित 'नैषध टीका', विशाखदत्त रचित 'मुद्राराक्षस' नाटक की १२५७ ई० में तैयार प्रतिलिपि, यशोदेव सूरि द्वारा १९६० ई० में रचित 'चन्द्रप्रभ स्वामी चरित', जयकीर्ति द्वारा ११३५ ई० में रचित 'छंदोनुशासन' आदि दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं । अन्य दुर्लभ कृतियाँ - कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' पर १४वीं शताब्दी की टीका, ११७३ ई० में धनपाल कृत 'तिलक मंजरी', 'भोजकृत 'शृंगार- मंजरी', जिनदत्त सूरि की प्राकृत रचना 'संवेगरंगशाला' तथा ११६४ ई० में बौद्ध दार्शनिक दिगनाग द्वारा रचित 'न्यायप्रवेश' नामक ताड़पत्रीय ग्रन्थ हैं, जो विश्व में अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं । ( ख ) खरतरगच्छ का पंचायती भण्डार : इसमें ताड़पत्रीय ग्रन्थों की १४ प्रतियाँ और कागज पर लिखे ग्रन्थों की १००० प्रतियाँ संग्रहीत हैं । कागज के ग्रन्थों में सर्वाधिक उल्लेखनीय कल्पसूत्र स्वाध्याय पुस्तिका की १५०५ ई० की सचित्र प्रति है । इसमें १३वीं व १४वीं शताब्दी के २ चित्रित काष्ठ फलक भी हैं । १७८१ ई० में अमृतधर्मं एवं उनके शिष्य क्षमाकल्याण गणी ने यहाँ कई ग्रन्थों की प्रतियाँ रखवाईं । यहाँ कुछ दुर्लभ ग्रन्थ भी हैं, जैसे १४१९ ई० में प्रतिलिपि - कृत 'नारदीय पुराण', ज्ञानसागर सूरि की टीका सहित 'उत्तराध्ययन सूत्र' की १४२९ ई० की प्रतिलिपि आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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