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________________ जैन कला : ३२७ भी उपयोग में लाया गया है एवं कुछ चित्रों में पृष्ठभूमि पीले तथा लाल रंग के मिश्रण से निर्मित है। वस्त्र चित्रों पर रंगों का प्रयोग करते समय छोटे-छोटे धब्बे भी हैं। (३) रेखाओं की दृष्टि से जैन चित्र बहुत सम्पन्न है। रेखाओं का उद्देश्य भावों को अभिव्यक्त करना होता है। इस दृष्टि से ताड़पत्रीय चित्रों की रेखायें इतनी सधी हुई और सुन्दर है कि कलाकार की प्रतिभा और दक्षता प्रशंसनीय लगती है। (४) स्वर्ण व रजत सामग्री से बहुमूल्य चित्र निर्माण भी जैन शैली की विशेषता है। कागज के चित्रों में, ग्रन्थों के हाशिये में किया गया प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर अंकन, इससे पूर्व कहीं देखने को नहीं मिलता है। बेलबूटों का चित्रण तो अद्वितीय है। राजपूत एवं मुगल शैली में इस प्रकार का चित्रण जैन शैली से ही लिया गया। ग्रन्थों में लिपि लेखन के मध्य छत्र-कमल, स्वस्तिक आदि के अंकन उनकी शोभा में चार चाँद लगा देते हैं। (५) धर्म प्रधान जैन चित्रों में नारी रूपों का अंकन निश्चित सीमा तक ही हुआ है, फिर भी जैन शैली में इनका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। जैन तीर्थंकरों के पार्श्व में यक्ष-यक्षिणियों आदि के चित्रों में सौम्यता व शालीनता है। तीर्थंकरों की आनुषंगिक देवियों के चित्र उज्ज्वल व लोक शैली में हैं और उनकी वस्त्रसज्जा और हस्तमुद्राओं में कलात्मकता व माधुर्य है । (६ ) वस्त्राभरणों के चित्रण में भी जैन चित्रों में वैशिष्ट्य है । धोतियों की सज्जा एवं वस्त्रों पर स्वर्ण कलम से उभारे गये बेलबूटे, दुपट्टे और मुकुट दर्शनीय हैं । स्त्रियों के शरीर पर चोली, चूनर, रंगीन धोती और कटि उत्तरीय दर्शाये गये हैं । आभूषणों में मुकुटों और मालाओं की अधिकता है । स्त्रियों के भाल पर बिंदी, कानों में कुण्डल, बाँहों में बाजूबंद प्रदर्शित हैं । सभी चित्र रत्नमालाओं से अलंकृत हैं। (७) चित्रों का आकार एक चश्म, डेढ़ चश्म और दो चश्म है । इनमें ठोड़ी सेव की तरह बाहर की ओर उभरी हुई है और उसकी नीचे की रेखा में गर्व तथा अभिमान प्रकट करने के उद्देश्य से झोला दिया गया है। जैन मुनियों की ठोड़ियाँ त्रिशूल की भाँति तीन रेखाओं से दर्शायी गयी हैं। नासिका शुक चंचु की तरह नुकीली और अनुपात से अधिक लम्बी है। (८) जैन चित्रों में तत्कालीन लोक कला सच्चे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है, लोक कला का सम्मान इसमें इसलिये हुआ, क्योंकि यह धार्मिक सीमाओं से बँधी रही तथा राज्याश्रयों के विलासमय वातावरण से भी मुक्त रही। इस लोक कला के चित्रण का आधार तीर्थंकरों की जीवनियां व मनोरंजक कथाएँ रहीं, जिनमें तत्कालीन लोक-जीवन, लोक-संस्कृति और लोक-विचारों की अभिव्यंजना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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