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________________ ३६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म हैं । एक पांडुलिपि १५२३ ई० में प्रतिलिपि करवाकर ब्रह्म बूचराज को प्रदान की गई थी। ये शेरशाह द्वारा सम्मानित किये गये थे। ५१.५० जिनदास-ये पं० खेता के पुत्र और रणथंभौर दुर्ग के निकट नवलक्षपुर के रहने वाले थे । ये भी आयुर्वेद विशारद थे। इन्होंने १५५१ ई० में "होलोरेणुका चरित्र"२ की रचना पूर्ण की । इन्होंने "कथाकोष" की भी रचना की । ५२. पं० राजमल्ल-ये जयपुर के निकट बैराठ के रहने वाले थे तथा व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द शास्त्र और स्याद्वाद विद्या में पारंगत थे एवं संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान थे। इन्होंने १५७५ ई० में "जम्बूस्वामी चरित्र"४ की रचना संपन्न की । इसके अति'रिक्त इनकी "आध्यात्मकमलमार्तड", "लाटी संहिता", "छन्दोविद्या" एवं "पंचाध्यायी" भी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं।" ५३. विशाल सुन्दर-ये तपागच्छीय आचार्य थे। इन्होंने १५९८ ई० में नागौर में "तन्दल वैयालिय पयन्ना" अवचरि की रचना की। ५४. साधुरंग-ये खरतरगच्छ के आचार्य थे। इन्होंने १५४२ ई० में "सूत्रकृतांग" व “सूत्रदीपिका" की रचना की। ५५. राजकुशल-ये तपागच्छीय मुनि थे। इन्होंने १५९३ ई० में जालौर में "सूक्ति द्वात्रिंशिका विवरण" की रचना संस्कृत भाषा में की।' ५६. नयरंग-ये भी खरतरगच्छीय थे । इन्होंने १५६८ ई० में बीरमपुर में "विधि कंदली स्वोपज्ञ टीका सह" की रचना की। १५६७ ई० में "बालपताकापुरी परमहंस सम्बोध चरित्र" की रचना की। ५७. श्री बल्लभोपाध्याय-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १५९८ ई० में बीकानेर में "उपकेश शब्द व्युत्पत्ति" की रचना की। १. कासलीवाल, राजैसा, पृ० ११३ । २. जैग्रप्रस, क्र० ४५ । ३. वही, भूमिका। ४. अने०, ४, क्र० २ । ५. अरावली, १, क्र. १२ । ६. राजैसा, पृ० ७४-८२ । ७. वही। ८. जैसासइ, पृ० ५८९ । ९. राभा, ३, क्र० २। १०. राजसा, पृ० ७४-८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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