________________
४२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
नगरों का वर्णन है ।'
६. विकास की पिछली शताब्दियों में साहित्य के विभिन्न स्वरूपों, व काव्य रूपों की जानकारी शास्त्र भण्डारों में प्राप्त होती है । इनके प्रारंभ, विस्तार व विकास को शोध परक जानकारी शास्त्र भण्डारों के गहन साहित्यिक अध्ययन से प्राप्त की जा सकती है ।
७. कुछ ग्रन्थों की कई-कई प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं जो लेखक व उनकी कृतियों की लोकप्रियता की द्योतक हैं । स्वयं ग्रन्थकारों की मूल पांडुलिपियों की उपलब्धि भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । पं० टोडरमल के 'आत्मानुशासन' की विभिन्न भण्डारों में ४८ प्रतिलिपियाँ, किशनसिंह के 'क्रियाकोश' की ४५, द्यानतराय के 'चर्चाशतक' की ३७, 'पद्मनंदी पंचविशति' की ३५, शुभचंद्र के 'ज्ञानार्णव' की ३४ तथा सर्वाधिक भूधरदास के 'पार्श्वपुराण' को ७३ प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं |3
८. शास्त्र भण्डारों में इतिहास विषय पर ही नहीं अपितु ऐतिहासिक तथ्यों से सम्पन्न भी अनेकों ग्रन्थों की प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । ग्रंथों की प्रशस्तियों में वर्णित लेखक, शासक, नगर, ग्राम, आचार्य, संरक्षक, रचनाकाल, रचनास्थल आदि तथ्य प्रामाणिक इतिहास सृजन में बहुत सहायक हैं । चूँकि १०वीं शताब्दी के पश्चात् का साहित्य शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध है, अतः पिछले १००० वर्षों का प्रामाणिक इतिहास सृजित करने में ये सहायक हैं ।
९. ग्रन्थ भण्डारों के विशाल कोष में जैन कला एवं चित्रकला की प्राथमिक जानकारी देने वाली विपुल सामग्री है । कलाप्रेमी जैनाचार्य व श्रावक ग्रंथों के सौंदर्यीकरण पर बहुत ध्यान देते थे । ताड़पत्रीय कागज पर निर्मित तथा वस्त्रांकित चित्रों एवं अलंकरण के विविध स्वरूपों का दिग्दर्शन शास्त्र भण्डारों में होता है । चित्रित काष्ठ फलक भी जैसलमेर में हैं । ताड़पत्रीय चित्र बहुत कम उपलब्ध हैं जबकि अन्य चित्रित ग्रन्थ एवं रंगीन अलंकरण मुख्यतः जयपुर, अजमेर, मौजमाबाद, नागौर, भरतपुर, बसवा, बूवी आदि के भण्डारों में हैं । यद्यपि चित्रित ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक नहीं है, किन्तु भारतीय चित्रकला व लघु चित्रशैली के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते हैं ।
१०. ये शास्त्र भण्डार अजैन ग्रन्थों के भी अच्छे संग्रह हैं । कुछ ग्रन्थ तो केवल जैन भण्डारों में ही उपलब्ध होते हैं । जैनाचार्यों ने न केवल उन्हें सुरक्षित रखा, अपितु
१. राजैसा, पृ० ५७९-५९३, ग्रन्थ संख्या ५४०२ ।
२. वही, ४, वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा प्राक्कथन, पृ० ४ ।
३. राजेशाग्रसू, ५, पृ० ३ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org