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________________ जैन तीर्थ : १७७ था। यहाँ वैष्णव धर्म के साथ-साथ जैन मत भी अत्यधिक लोकप्रिय था। बिजौलिया के ११६९ ई० के शिलालेख में लोलार्क के पूर्वज वैश्रवण द्वारा बघेरा एवं अन्य स्थानों पर कई जैन मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । यह स्थान १२वीं शताब्दी में मूल संघ के भट्टारकों को गादी भी रहा। उन्होंने यहाँ के मन्दिरों में कई जैन प्रतिमाएं स्थापित करवाई। यहाँ से उपलब्ध अम्बिका, पद्मावती, ब्रह्माणी और सरस्वती की जैन देवियों की प्रतिमाएँ कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ पूर्व मध्यकालीन मूर्ति कला के सुन्दर नमने हैं। बघेरा का महत्त्व इस तथ्य से और बढ़ जाता है कि ८वीं शताब्दी में यहाँ से जैन मत की बघेरवाल जाति की उत्पत्ति हुई। यह स्थान ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व का है। समय-समय पर यहाँ प्राचीन मूर्तियाँ भूगर्भ से निकाली जाती रही हैं, जो अधिकांशतः ११वीं से १३वीं शताब्दी के मध्य की जैन प्रतिमाएं हैं । मूर्तियाँ पाषाण एवं धातु निर्मित हैं तथा ८-९ इंच से लेकर ७-८ फीट तक ऊँची हैं। जैन प्रतिमाओं की निरन्तर अत्यधिक उपलब्धि के कारण ही संभवतः यह स्थान जैन तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। यहाँ शान्तिनाथ व आदिनाथ के दो मन्दिर हैं, एवं भूगर्भ से निकाली गई सभी जैन मूर्तियाँ इन्हीं मन्दिरों में रखी हुई हैं। इनमें से शान्तिनाथ मन्दिर अतिशय क्षेत्र कहलाता है, जो मनोकामना पूर्ति की दृष्टि से जैन-अजैन दोनों में ही लोकप्रिय है। मूलनायक शान्तिनाथ की प्रतिमा ८-९ फुट अवगाहना की है। एक किंवदंती के अनुसार यह भू-गर्भ से निकली थी। प्रतिमा लेख से विदित होता है कि "लाडवागड, साधु संघ" में पद्मसेन गुरु के द्वारा किसी श्रावक ने ११९७ ई० में प्रतिष्ठित करवाई थी। मन्दिर का निर्माण किसने करवाया, यह तथ्य अज्ञात है। बिजौलिया शिलालेख में उल्लिखित वैश्रवण द्वारा व्याघ्ररक आदि स्थानों पर जिनालय निर्मित करवाने के तथ्य से अनुमान होता है कि लोलक श्रेष्ठी की ८वीं पीढ़ो में वैश्रवण ने लगभग २०० वर्ष बाद यह मन्दिर निर्मित करवाया होगा। इस दृष्टि से यह मन्दिर १०वीं शताब्दी को निर्मिति है । मन्दिर की अनेक मूर्तियों में से कतिपय ११५६ ई०, ११४० ई०, ११७४ ई०, ११८८ ई०, ११३२ ई०, ११५८ ई०; ११४६ ई०, ११८८ ई०, ११७४ ई०, ११९३ ई०, ११०२ ई० की तथा कुछ १२वीं व १३वीं शताब्दी की हैं । बघेरा ग्राम के बाहर “पार्श्वनाथ टेकरी" है, जहाँ शिलाओं में उत्कीर्ण ५-६ फीट ऊँची कई पार्श्वनाथ १. एसिटारा, ३२६ । २. एइ, २४, पृ० ८४ । ३. इए, २१, पृ० ६१ । ४. अजमेर शास्त्र भण्डार के एक ग्रन्थ से प्राप्त सूचना । ५. भादिजैती, ४, पृ० ५६-५८ । ६. वही। १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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