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जैन शास्त्र भंडार : ४७५
भी जैनाचार्यों द्वारा लिखे गये। कर्नल टॉड के द्वारा राजस्थान के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास जैन यति ज्ञानचन्द और जैन स्रोतों की सहायता के बिना कदापि सम्भव नहीं था। यह तथ्य स्वयं टॉड ने भी स्वीकार किया है। अभी भी जैन ग्रन्थ भंडारों की अपार सामग्री अशोधित पड़ी है, जिसके सूक्ष्म अध्ययन से इतिहास के अनेक तिमिरावृत्त पृष्ठों को प्रकाश में लाया जा सकता है। राजस्थान व भारत में पूर्व-मध्यकाल की साहित्य
और चित्रकला के इतिहास की लुप्त कड़ियों की खोज जैन अपभ्रंश साहित्य व जैन चित्रकला शैली में पूर्ण हुई है। अतः इतिहास के गुम्फन में जैन स्रोतों का निर्विवाद रूप से महत्त्वपूर्ण योगदान है। १३. जैन जातियों का उद्गम स्थल :
हर्ष की मृत्यु के पश्चात् बहुत से शक, हूण एवं शस्त्रोपजीवी समुदाय राजस्थान में ही बस गये। स्थानीय समुदायों के सम्पर्क एवं जैनमत की महत्त्वपूर्ण प्रभावना के असर से ये स्थानीय समाज में अच्छी तरह से घुल-मिल गये थे । इसका प्रमाण हरिभद्रसूरि द्वारा भीनमाल में कई विदेशियों को यहां के समाज में मिलाया जाना प्रसिद्ध है। पश्चात्वर्ती जैनाचार्यों के योगदान से कई कृषक एवं युद्धोपजीवी वैश्य, क्षत्रिय एवं अन्य जातियाँ जैन मत में दीक्षित हुई, जिनका व्यवसाय व्यापार व वाणिज्य होने से इन्हें विभिन्न क्षेत्रों में प्रसारित होना पड़ा। नई जैन जातियाँ व गोत्र अस्तित्व में आये । व्यापार के निमित्त ये समुदाय राजस्थान के बाहर भी सर्वत्र फैले जिससे राजस्थान में उत्पन्न ये जातियाँ एवं गोत्र देश के विभिन्न हिस्सों में भी देखने को मिलते हैं। जैन मत में विभिन्न जातियों एवं बहुसंख्य गोत्रों की उत्पत्ति में राजस्थान का योगदान इस दृष्टि से अतुलनीय है। १४. स्थापत्य कला में योगदान :
मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से जैनधर्म राजस्थान में अग्रणी रहा है। श्रेष्ठी वर्ग की संपन्नता व विपुल धन व्यय करने की सामर्थ्य के कारण भव्य, कलात्मक, वास्तुशिल्प सिद्धांतों के अनुकूल, अनुपम तक्षण, कुराई व उत्कीर्णन के अलंकरणों से सज्जित उत्कृष्ट मंदिर बनवाये गये। दिलवाड़ा के विमलवसहि, लूण वसहि, राणकपुर, चित्तौड़ का जैन कीति स्तंभ, जैसलमेर के स्वणिम शिखरों वाले मंदिर संपूर्ण विश्व में अनुपमेय कलातीर्थ हैं। जैनाचार्यों की प्रेरणा, वास्तुशिल्पियों के धैर्य और साधना, श्रेष्ठियों की उदारता और श्रावकों की भक्ति के प्रतीक ये जैन संस्कृति के प्रतिमान पश्चात्वर्ती कई जैन-अजैन मंदिरों को निर्मिति के लिये आदर्श रहे । यद्यपि जैन स्थापत्य समकालीन वास्तु शैली से भिन्न नहीं है, किन्तु इनकी पवित्रता, सादगी, कामुक दृश्यों का अभाव, विपुल अलंकरण और सात्विक वातावरण में एक अनोखा आकर्षण है, जो अन्य मंदिरों के संदर्भ में इनके पृथक् अस्तित्व की उद्घोषणा करता है।
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