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जेन मं भेद और उपभेद : १४७
उपलब्ध होते हैं । १२५३ ई० में इस जाति के दीदा ने चन्द्रगच्छीय यशोभद्र से मल्लिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । इस जाति के लोग समय-समय पर पाली से विभिन्न तीर्थ स्थानों को जाने वाली संघ यात्राओं का नेतृत्व भी करते थे ।
(५) खण्डेलवाल जाति :
खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति खण्डेला नामक स्थान से मानी जाती है । जैन परम्परा के अनुसार खण्डेलगिरी नामक चौहान राजा ने खण्डेला नगर बसाया, जो वर्तमान में 'जयपुर राज्य में है । एक बार महामारी फैलने पर ब्राह्मणों के कहने से एक जैन मुनि की यज्ञ में आहुति दे दी गई, जिससे राजा की बहुत बदनामी हुई तथा महामारी ने भी भयंकर रूप धारण कर लिया । सन्त अपराजित के मत के जिनसेनाचार्य के प्रतिबोध से राजा को ज्ञान हुआ, तब राजा सहित ८२ क्षत्रिय गाँवों के जागीरदार तथा २ स्वर्णकार गाँवों के समूह ८४ जातियों के रूप में धर्मान्तरित हुए । इस प्रकार खण्डेलवाल जाति जैन धर्म की जाति के रूप में अस्तित्व में आई । इस मत के अनुसार वीर संवत् एक में खण्डेलवाल जाति की स्थापना हुई । एक अन्य मत के अनुसार विक्रम संवत् १७३ (११६ ई० ) में खण्डेला के ८४ गाँवों के क्षत्रिय जैन बने, जिनमें दो सुनार भी थे । इन प्रकरणों में दिया गया उत्पत्ति काल सही प्रतीत नहीं होता है । इस जाति के ८वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व में होने के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं । इस जाति का सर्वप्रथम उल्लेख शेरगढ़ से प्राप्त ११०५ ई० के अभिलेख में मिलता है । सांगानेर के ११७३ ई० के जैन मन्दिर के लेख में भी इस जाति का नामोल्लेख है । इस जाति का उल्लेख १९९७ ई० के अभिलेख में भी देखने को मिलता है । शेरगढ़ खण्डेला से पर्याप्त दूर है, अतः उत्पत्ति स्थान से यहाँ तक प्रसारित होने में इस जाति को पर्याप्त समय लगा होगा । इस आधार पर भी इसकी उत्पत्ति ८वीं शताब्दी के लगभग ही होनी चाहिये ।
इसी प्रकार ८४ गाँवों के आधार पर ८४ गोत्रों की एक ही समय, एक ही साथ उत्पत्ति सही प्रतीत नहीं होती है । ८४ की संख्या रूढ़िवादी प्रतीत होती है । मूल रूप
१. नार्जलेस, क्र० १७७८ ।
२. भाइ, पृ० ५४४ ।
३. गुणार्थी, राजस्थानी जातियों को खोज, पृ० ५३ ।
४. अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हस्तलिखित ग्रन्थ ।
५. सेंसस रिपोर्ट मारवाड़, १८९१, पृ० २३० ।
६. एइ, ३१, पृ० ८९ ।
७. जैहरा, पृ० १०३ ।
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