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________________ १४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं से ये गोत्र कम रहे होंगे, जो धीरे-धीरे बढ़ गये । जाति के विभिन्न गोत्र गाँवों के नामों, व्यवसायों एवं उपनामों पर आधारित प्रतीत होते हैं । इस क्षेत्र में अधिकांश क्षत्रिय राजपूत थे अतः उनके विभिन्न वंशों एवं गाँवों के आधार पर गोत्रों के नाम हुए । (क) क्षत्रिय वंशोत्पन्न गोत्र : खण्डेला के चौहानवंशीय राजाओं का शाह गोत्र बना । पाटनी गाँव के तँवर राजपूत पाटनी गोत्र के, पापड़ी गाँव के चौहान पापड़ीवाल गोत्र के, दौसा के राठौर दोसा गोत्र के, सेठानी के सोमवंशीय क्षत्रिय सेठी गोत्र के, भैंसा के चौहान बड़जात्या गोत्र के, गोधानी गाँव के गोधड़वंशीय क्षत्रिय गोधा या ठोलिया, चन्द्रवाड़ के चन्देला राजपूत चन्द्रवाड़ गोत्र के, मोठिया गाँव के ठीमर राजपूत मोठिया तथा अजमेर के गौड़ राजपूत अजमेरा गोत्र के हुये । इसी प्रकार दरड़िया, गधैया, पांड्या, छाबला गोत्र चौहानों से, भूच सूर्यवंशी क्षत्रियों से बज और महराया हेमवंशियों से, रॉका सोमवंशियों से, पाटौदी तेंवर वंशियों से, गंगवाल कछवाहों से, सोनी सोलंकियों से, बिलाला सोमवंशियों से, बिरलाला कुरूवंशियों से, बिनायका गहलोत वंशीय, बाकलीवाल व कासलीवाल मोहिल वंशीय, पापड़ीवाल परमारवंशीय, सोगानी सूर्यवंशीय, झांझरी और कटारिया कछुवाहों से, बंद सोरठ वंशीय, टोंगिया पंवारों से, बोहरा सोढ़ा क्षत्रियों से, काला कुशवंशियों से, लुंगिया सूर्यवंशियों से, लुहाड़िया मोरठ वंशीय, भण्डसाली और दगड़ावत सोलंकियों से तथा चौधरी तँवरवंशीय क्षत्रियों से उत्पन्न हुये हैं । यहीं खण्डेला का कुल श्रावक वर्ग प्रसिद्ध है, जिसको " सरावगी " भी कहते हैं ।" (ख) प्रादेशिक गोत्र कुछ गोत्र क्षेत्रीय व स्थानों से सम्बन्धित हैं । अजमेरा गोत्र सम्भवतः अजमेर के नाम पर हुआ । इस गोत्र के अजमेर के साह सुर्जन की पत्नी ने १५३८ ई० में "प्रद्युम्न चरित्र" की प्रति लिखवा कर साध्वी विजयश्री को भेंट में दी थी । १५९४ ई० के अभिलेख में भी इस गोत्र का उल्लेख है । पाटौदी गोत्र शेखावाटी में पाटौती गाँव से उत्पन्न हुआ । १७६४ ई० की एक प्रशस्ति में इसका उल्लेख हैं । दोसी गोत्र जयपुर राज्य के दौसा नामक स्थान से उत्पन्न हुआ इस गोत्र के अजमेर निवासी बोहित ने १६०१ ई० में चौबीसी प्रतिमा स्थापित करवाई थी । कासलीवाल गोत्र जयपुर राज्य में सीकर के निकट कासली गाँव से अस्तित्व में आया । इसका उल्लेख १५२४ ई० की । १. गुणार्थी, पृ० ५३ । २. वही, पृ० ५३ । ३. प्रस, पृ० १३८ । ४. वही, पृ० १७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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