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________________ १५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म स्थान है । ये उच्च शिक्षित व प्रगतिशील हैं । अग्रवाल वैष्णव व जैन मतावलम्बी दोनों प्रकार के हैं। यह मध्यम-वर्गीय व्यापारिक जाति प्राचीनकाल में जैनमत की अत्यधिक समर्थक थी। इन्होंने असंख्य प्रतिमाओं की स्थापना और ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई थीं। जैन परम्परानुसार, अग्रवाल जाति की उत्पत्ति १६० ई० में जैनाचार्य लोहित्याचार्य द्वारा अगरोहा नगरी (पंजाब) से हुई। आचार्य ने नगर के संस्थापक राजा अग्रसेन व उनके पुत्रों को अहिंसा का उपदेश दिया और जैन मत में धर्मान्तरित किया। पट्टावलियों के अनुसार' लोहित्याचार्य ने राजा दिवाकर सहित प्रजा को व अन्य राजाओं को जैन मत में परिवर्तित किया। मुनि के अहिंसा-उपदेशों से प्रेरित होकर राजा ने पुनः यज्ञ किया, जिसमें भारत के कई राजा आमंत्रित थे, किन्तु पूर्वी राजपूताना के १७ राजा ही आये जो कि पृथक्-पृथक् गोत्रों के क्षत्रिय थे। ये सब उपदेश के सुप्रभाव से वैश्य बन गये । नागेन्द्रनाथ वसु के अनुसार यह अग्रसेन वह उग्रसेन है, जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त के इलाहाबाद अभिलेख में देखने को मिलता है । लोहित्याचार्य, देवद्धिगणी के शिष्य थे, जिन्होंने ४५३ ई० में वल्लभी में वाचना का आयोजन करवाया था । लोहित्याचार्य का काल निर्धारण देवद्धिगणी के ३० वर्ष पूर्व किया जा सकता है। इस प्रकार आचार्य ने अग्रवालों को ४२३ ई० में धर्मान्तरित किया होगा किन्तु यह विचार विश्वसनीय नहीं है । प्रथम तो यह कि यह उग्रसेन उत्तरी भारत का राजा था, जबकि इलाहाबाद अभिलेख में वर्णित राजा दक्षिण में शासन करता था। अन्ततः हमारे पास ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, जो कि ८वीं शताब्दी से पूर्व इस जाति के अस्तित्व को सिद्ध करे । प्रारम्भ में १७ देशों के राजाओं के यज्ञ में आने के कारण, उनके । ७ गोत्रों की उत्पत्ति मानी जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार अग्रसेन के १८ पुत्र थे, जिनके नाम पर १८ गोत्र बने, किन्तु यह अनुमान गलत है, क्योंकि एक ही पिता के पुत्र परस्पर विवाह नहीं करते हैं । सम्भवतः राजाओं ने राजा अग्रसेन को पितृवत् मानकर अग्रवाल समाज में प्रविष्ट होना स्वीकारा होगा। अग्रवालों के १८ गोत्र विभिन्न राजाओं के नाम तथा उनके असली क्षत्रिय गोत्र के आधार पर नव-सृजित हुये। गुलाबदेव के मूल क्षत्रिय गर्ग गोत्र से गर्ग, गेंदूमल के गोभिल से गोहिल गोत्र, करण के कश्यप गोत्र से कंछल, मणिपाल के कौशिक गोत्र से कांसल, यन्देव के वशिष्ठ गोत्र से विदल, द्राहकदेव १. भपापइ, पृ० ५५० । २. गुणार्थी, पृ० ५६ । ३. भपापइ, पृ० ५४८ । ४. गुणार्थी, पृ० ५६ । ५. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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