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जैनधर्म भेद और उपभेद : १५१
रॉवका गोत्र' और सोगाणी गोत्र हैं। १५८४ ई० के अभिलेख में "कुरकुरा गोत्र" का भी उल्लेख है । इसके अनुसार इस गोत्र के कालू ने अपने पुत्रों एवं पौत्रों के साथ "ऋणकार यंत्र" स्थापित करवाया था । यह गोत्र खण्डेलवाल जाति के चौरासी गोत्रों की सूची में उपलब्ध नहीं होता । प्रशस्तियों एवं अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि खण्डेलवाल जाति के लोग सामान्यतः मूल संघ के आचार्यों से ही सम्बद्ध थे । यह तथ्य इङ्गित करता है कि राजस्थान में 'मल संघ' गतिविधियों का केन्द्र रहा । (६) बघेरवाल जाति: __इस जाति की उत्पत्ति केकड़ी के निकट पुरातन महत्त्व के स्थान बघेरा से ८वीं शताब्दी में मानी जाती है । कई प्राचीन जैन प्रतिमाओं, मंदिरों और शिलालेखों में इस जाति का उल्लेख है । बिजौलिया के ११७० ई० के शिलालेख में भी इसका उल्लेख है। बघेरा, १२वीं शताब्दी में मूल संघ के भट्टारकों की पीठ भी थी। ऐसा माना जाता है कि दिगम्बर आचार्य रामसेन और नेमसेन ने इस नगर के राजा को प्रजा सहित जैन मत में धर्मान्तरित किया", पण्डित आशाधर, जो १२वीं शताब्दी में मोहम्मद गोरी के आक्रमण के भय से माण्डलगढ़ से धारा नगरी को चले गये थे, बघेरवाल जाति के ही थे । पुण्यसिंह, जिसने १५वीं शताब्दी के कुंभकर्ण के शासनकाल में चित्तौड़ के प्रसिद्ध जैन कीर्ति स्तम्भ को पूर्ण करवाया था, इस जाति का ही था । विभिन्न अभिलेखों एवं प्रशस्तियों के अनुसार इस जाति के विभिन्न गोत्र इस प्रकार है-राय भण्डारी, शांखवाल', शानापति', ढोला'', कोटवा'', प्रभा२ और सिवांड्या ।१3 (७) अग्रवाल जाति :
राजस्थान में अग्रवाल बड़ी संख्या में हैं तथा समाज में इनका बहुत सम्मानजनक १. प्रस, पृ० १७७ । २. वही, पृ० ४४ एवं ७७। ३. एइ, २४, पृ० ८४, श्लोक ८२-८३ । ४. इए, २०, पृ० ५७ । ५. अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत । ६. जैसाओइ, पृ० १३४ । ७. नाजैलेस, क्र० ४३८ । ८. वही, क्र० ७२७। ९. वही, क्र० ६२८ । १०. प्रस, पृ० १४७ । ११. वही, पृ० ९८॥ १२. जैइरा, पृ० १०५।
१३. जैइरा, पृ०७२
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