________________
साधन स्रोत : ३
यद्यपि किसी शासक के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष उल्लेख किसी अभिलेख मैं नहीं हुआ है, लेकिन किसी जैन मत विरोधी शासक का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता है | वस्तुतः स्थानीय शासन में जैन मतावलम्बियों को प्रतिष्ठित पद प्राप्त थे, अतः उनके द्वारा जैन धर्म को प्रोत्साहन दिया गया । इन्हीं के प्रभाव से जैन धर्म को राजकीय समर्थन पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुआ । इसका स्पष्ट उल्लेख जैन अभिलेखों से प्राप्त होता है ।
यहाँ प्राप्त होने वाले जैन अभिलेखों में प्रायः मुनियों के नाम, श्रावकों के नाम, मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिर के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार का उल्लेख मिलता है । इनमें मन्दिर के निमित्त दिये गये स्थायी दान तथा नियमित अनुदान का भी उल्लेख मिलता
। इस नियमित अनुदान की व्यवस्था स्थानीय शासकों द्वारा भी की जाती थी । जैन अभिलेखों का राजस्थान में प्रचलित जैन मत के विभिन्न संघ, गण व गच्छ-भेदों का सतत् इतिहास निर्मित करने के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान है । प्रमुख एवं प्रतिष्ठित जैन आचार्यों का नामोल्लेख एवं उनकी शिष्य परम्परा का उल्लेख भी अभिलेखों में उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त, विभिन्न जातियों एवं गोत्रों के अस्तित्व एवं उत्पत्ति विषयक जानकारी भी प्राप्त होती है ।
मोटे तौर पर राजस्थान के जैन लेखों को निम्न भागों में विभक्त कर सकते हैं ' :
(क) मन्दिरों के पुननिर्माण एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी लेख : मन्दिरों के निर्माण, प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्धार सम्बन्धी लेख महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्रदान करते हैं । मध्यकाल में, ११वीं शताब्दी से ही जैन मन्दिरों को मुस्लिम विध्वंस का सामना करना पड़ा, किन्तु जैन श्रेष्ठियों एवं राज्य-शक्ति के धर्मानुराग के कारण इनका बार-बार नवीनीकरण होता रहा । कुछ मन्दिर पूर्णतः ध्वस्त कर दिये गये । उनकी जानकारी भी भग्नावशेषों व अवशिष्ट शिलाखण्डों से ज्ञात होती है । चित्तौड़ क्षेत्र में, गम्भीरी नदी के पुल में, अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र एवं गवर्नर खिज्र खाँ द्वारा कुछ शिलालेख भी चुनवा दिये गये थे, जो महत्त्वपूर्ण जानकारी के स्रोत हैं । कई खण्डित एवं अखण्डित लेख पुरागारों में भी सुरक्षित हैं ।
पूर्ववर्ती काल में मन्दिर की निर्माण योजना सामान्य होती थी, किन्तु १०वीं शताब्दी के पश्चात् से इनमें त्रिक-मंडप, रंग मण्डप, देव कुलिकाएँ आदि भी बनवाये जाने लगे । अलंकरणों व सज्जा की प्रचुरता के कारण एक ही श्रेष्ठी द्वारा सम्पूर्ण रचना करवाना कठिन था, अतः विभिन्न व्यक्तियों द्वारा छोटे-छोटे निर्माण कार्य करवा कर लेख अंकित करवाने की प्रथा प्रारम्भ हो गई थी । पूर्व - मध्यकाल में लेख अंकित करवाने के कोई निश्चित मानदण्ड नहीं थे; बड़ा निर्माण कार्य करवाने के १. सोमाणी, आर० वी० - जैन इंस्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org