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________________ जैन तीर्थ : १७५ अनुदान दिया था।' १३वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य दिलवाड़ा में विपुल संख्या में श्रावक रहते थे । मुनियों के बारम्बार यहाँ चातुर्मास व्यतीत करने से भी यह तथ्य सिद्ध होता है ।२ श्रावक वार्षिक समारोहों के अतिरिक्त प्रतिमाओं को स्थापना भी करवाते थे। विमल वसहि के मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा ११६५ ई० में देवचन्द्र के द्वारा स्थापित की गई थी।३ पार्श्वनाथ की ही दुसरी प्रतिमा आमवीर के द्वारा ११८८ ई० में स्थापित करवाई गई थी। इस स्थान के निवासी छाँजण द्वारा बनवाई गई महावीर की धातु प्रतिमा रोहिद के जैन मन्दिर में उपलब्ध है।" (२) लोद्रवा तीर्थ : जैसलमेर नगर से १० मील तथा अमरसर से ७ मील दूर स्थित, जैसलमेर पंचतीर्थी का प्राचीनतम व प्रसिद्ध जैन तीर्थ, लोद्रवा, जैसलमेर की प्राचीन राजधानी व लोद्र शाखा के राजपूतों का गढ़ था। भाटी रावल देवराज के द्वारा १०२५ ई० में लोद्र राजपूत्रों को हराने के पूर्व तक यह नगर बहुत समृद्धिशाली था और इसके चारों ओर १२ प्रवेश द्वार थे, किन्तु आज मन्दिरों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । १०३४ ई० में सागर नामक राजा के शासन काल में वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि यहाँ आये और उन्होंने सागर के पुत्रों श्रीधर एवं राजधर को पार्श्वनाथ मन्दिर निर्मित करवाने की प्रेरणा दी। यह मन्दिर ११वीं शताब्दी का है और स्थापत्य की दृष्टि से इसकी शैली, नीचे हिस्से में दक्षिण भारतीय हिन्दू व ऊपरी हिस्से में उत्तर-पश्चिम भारतीय प्रकार की दृष्टिगत होती है। यहाँ अजन्ता-ऐलोरा की तरह कम ऊँचाई के स्तम्भ तराशे हुए हैं। सम्भवतः मोहम्मद गोरी के आक्रमण के समय यह मन्दिर ध्वस्त कर दिया गया था, किन्तु बाद में इसकी मरम्मत खीमसी और उसके पुत्र पूनसी ने १६१८ ई० में करवाई, जैसाकि सहज कीति द्वारा लिखित "शतदल पार्श्वनाथ यन्त्र" प्रशस्ति से ज्ञात होता है । १६१८ ई० में ही खीमसी के वंशज थारूशाह ने इसे पुननिर्मित करवाया और जिनराज सूरि से स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । सम्भवतः इस अवसर पर ही १६२० ई० में रावजेठी ने "लोद्रवजी तीर्थ मण्डन श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ" की १. राइस्त्रो, पृ० २०४ । २. अप्रजैलेस, क्र० ५५ । ३. वही, क्र० १७१। ४. वही, क्र० ५५ । ५. वही । ६. एरिराम्यूअ, १९३५-३६, क्र० ८। १७. नाजैलेस, क्र० २५४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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