SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६. चक्रेश्वरी : वैष्णवी का ही दूसरा नाम चक्रेश्वरी बताया जाता है । चक्रेश्वरी को विद्यादेवियों में स्थान प्राप्त होने के कारण जैन-मूर्ति विज्ञान में इनको महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्टः लोकप्रियता प्राप्त हुई और उनका अंकन मन्दिरों में आवश्यक हो गया । ओसिया, घाणेराव, सेवाड़ी, आहड़ आदि के महावीर मन्दिर में इनका सुन्दर चित्रण किया हुआ है । १९७४ ई० में भरतपुर के पास कुम्हेर में चक्रेश्वरी की भव्य मूर्ति मिली है, जो तहसील कार्यालय में सुरक्षित है । पेन कला : ३०६ ७. सच्चिका देवी : ओसिया में सच्चिया माता मन्दिर में पूजित प्रतिमा महिष मर्दिनी की ही है । इस मन्दिर में ११७७ ई० तथा ११७९ ई० के लेख विद्यमान हैं । इन अभिलेखों में मन्दिर को क्रमशः " सच्चिका देवी प्रासाद" एवं "श्री सच्चिका देवी देवगृह" की संज्ञा दी गई है । ११७७ ई० के लेख में साधु माल्हा द्वारा आत्म श्रेयार्थ, इस मन्दिर के जंघा पर, चन्द्रिका शीतला सच्चिका क्षेमंकरी, क्षेत्रपाल की प्रतिमा बनाने का उल्लेख है । इसी स्थल के एक अन्य अभिलेख में रत्नप्रभ सूरि द्वारा चामुण्डा को सच्चिया रूप में परिवर्तित करने का उल्लेख है । यह लेख १५९७ ई० का है। जोधपुर संग्रहालय में खेड़ा महिष मर्दिनी का निचला भाग सुरक्षित है । इसके ११८० ई० के लेख में वर्णित है कि गणिनी चरण मत्या द्वारा सच्चिका देवी की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा, ककु ( कक्क सूरि ) के द्वारा करवाई गई । जूना में भी सच्चिया माता का मन्दिर है । इसमें भी उक्त आशय व सन् का अभिलेख है । प्राप्त ८. मरुदेवी : राजस्थान में तीर्थंकरों की माताओं की प्रतिमाएँ भी पाई गई हैं । जैसलमेर में. ऋषभदेव के मन्दिर में देवकरण के शासनकाल में मरूदेवी की एक प्रतिमा १४९७ ई० में बनवाई गई थी । मरुदेवी की एक गजारूढ़ प्रतिमा घुवेल ग्राम के केसरियानाथ मन्दिर में भी है । ९. यक्ष : तीर्थंकरों के अतिरिक्त देवताओं की मूर्तियों में यक्ष महत्त्वपूर्ण हैं । जयपुर में लूणकरणजी पंड्या के जैन मन्दिर में १८वीं शताब्दी की बनी हुई, कबूतर पर बैठी हुई, बाँयें हाथ में कुल्हाड़ी व दाहिने में माला लिये हुये एक देव मूर्ति है, उसके हाथों में चूड़ियाँ व कानों में बालियाँ हैं । सिर पर मुकुट है । उक्त मंदिर में ही गजारूढ़ व करबद्ध एक अन्य देव की मूर्ति भी है । यह भी उसी काल की है । ये मूर्तियाँ यक्षों की ही हैं । १, वीनिस्मा, पृ० २-३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy