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३६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं
२०. भट्टारक पमनन्दि :- ये प्रभाचन्द्र के मुख्य शिष्य थे और १३२८ ई० में भट्टारक बने । इन पर सरस्वती की असीम कृपा थी । कहा जाता है कि इन्होंने सरस्वती की पाषाण प्रतिमा को मुख से बुलवा दिया था इनका कार्यक्षेत्र चित्तौड़ मेवाड़, बून्दी नैनवा, टोंक, झालावाड़ आदि थे । ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे ।
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शास्त्र भण्डारों में इनकी कई रचनाएँ उपलब्ध होती हैं ।" इनमें से कुछ निम्न हैं"पद्मनन्दी श्रावकाचार", "अनन्तव्रतकथा ", " वर्धमान चरित्र" २ " द्वादशव्रतोद्यापन पूजा", "पार्श्वनाथ स्तोत्र", "नंदीश्वर भक्ति पूजा", "लक्ष्मी स्तोत्र", " वीतराग स्तोत्र", "श्रावकाचार टीका '3, "देवशास्त्र गुरुपूजा", "रत्नत्रय पूजा”, “भावना चौबीसी", "परमात्मराज स्तोत्र", "सरस्वती पूजा", "सिद्धपूजा", 'शांतिनाथ स्तवन", "जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन", "भावना पद्धति" आदि ।
२१. तरुण प्रभाचार्य :- ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १४ वीं शताब्दी में जैसलमेर में " जैसलमेर पार्श्व स्तवन" की रचना की" ।
२२. जिनवर्द्धन सूरि :- ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य और १५वीं शताब्दी के आचार्य थे। इनका कार्यक्षेत्र जैसलमेर और मेवाड़ था । इन्होंने “ सप्तपदार्थी टीका" १४१७ ई०, " वाग्भटालंकार टीका", "प्रत्येक बुद्धचरित्र", और " सत्यपुरमंडन महावीर स्तोत्र" की रचना की ।
२३. जिनभद्र सूरि : ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य थे । इन्होंने जैसलमेर, जालौर, देवगिरि, नागौर, पाटण, मांडवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर शास्त्र भण्डार स्थापित किये थे। इनकी प्रमुख कृतियाँ - " सूरि मंत्रकल्प", "शत्रु ंजय लघुमाहात्म्य", तथा कई स्तोत्रादि हैं । संस्कृत रचना " अपवर्ग नाममाला कोष" भी है । "
इनकी एक अन्य
२४. जघसागरोपाध्याय (१३९३ ई०-१४५८ ई० ) :- ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य थे । इनका कार्यक्षेत्र जैसलमेर, आबू, गुजरात, सिंघ, पंजाब व हिमाचल
१. कासलीवाल, राजसा, पृ० १०३ ।
२. जैग्रप्रस, पृ० २१ ।
३. वही, पृ० १४ ।
४. राजेसा, पृ० १०२ ।
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५. वही, पृ० ७२ ।
६. वही, पृ० ६५ ।
७. वही, पृ० ६६ । ८. जैग्रग्र, पृ० १६ ।
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