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________________ - जैन तीर्थ : २२१ मिलता है-"प्रिय ग्रन्थ के समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में इस नगर में ३०० जैन मन्दिर, ४०० विहार, १८०० ब्राह्मणों के घर, ३६,००० वणिकों के गृह, ९०० उद्यान, ९०० कुएँ और ७०० दान गृह थे।" राजा का नाम सुभट पाट दिया हुआ है, किन्तु इतिहास में अन्यत्र इसका उल्लेख नहीं मिलता। १७वीं शताब्दी की रचना से उद्धृत उक्त कथन को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। उक्त कथन यद्यपि नगर के बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि यह नगर पूर्वकाल में समृद्ध अवस्था में था । यहाँ चौहानों के संरक्षण में जैनधर्म उत्कर्षशील रहा । सिद्धसेन सरि ने इस स्थान का नाम अपनी १२वीं सदी की कृति "सकलतीर्थ स्तोत्र" में दिया हुआ है।' श्री पाश्वनाथकुल की एक शाखा हर्षपुरा गच्छ, सम्भवतः इस स्थान से ही उत्पन्न हुई। इस गच्छ के कुछ आचार्य अत्यधिक प्रभावशाली थे और समकालीन शासकों पर अच्छा प्रभाव रखते थे । अभयदेव सूरि के आग्रह पर, शाकंभरी के चौहान शासक, पृथ्वीराज प्रथम ने ११०५ ई० के आसपास रणथम्भौर के जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश स्थापित करवाये थे । इनके शिष्य हेमचन्द्र मलधारी का गुजरात के सिद्धराज जयसिंह पर अत्यधिक प्रभाव था । यहाँ पर 'ओसवालों का मन्दिर" नामक वसि मुहल्ले में स्थित पूर्वाभिमुख एक प्राचीन जैन मन्दिर है। निःसन्देह यह १३वीं शताब्दी का है, किन्तु इसका कुछ हिस्सा दर्शाता है कि यह और भी पूर्व का निर्मित होना चाहिए। इस स्थान से एक जैन प्रस्तर प्रतिमा खोजी गई है, जिस पर ९९६ ई० का अभिलेख अंकित है।३ मध्यकाल में भी यहाँ जैनधर्म अस्तित्व में था, क्योंकि रत्नभूषण सूरि ने १७४३ ई० में "जिनदत्तरास" हरसूर में हो रची थी। किसी समय हरसूर अधिक जनसंख्या वाला कस्बा अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाजनों की एक जाति "हरसूरा" यहीं से उत्पन्न हुई ।" अवशिष्ट स्मारकों एवं भग्नावशेषों से स्पष्ट ही प्रमाणित होता है कि हरसूर का विध्वंस किया गया, जो सम्भवतः मुगल काल में ही हुआ होगा और नगर ह्रासमान हो गया। (३१) रणथम्भौर तीर्थ : ___ रणथम्भौर, भारत के सुदृढ़ दुर्गों में से एक है, जो सवाई माधोपुर के निकट अवस्थित है । यह नगर ११वीं शताब्दी में अस्तित्व में था और शाकंभरी के चौहान राजाओं १. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । २. वही, पृ० ३१२ । ३. एसिटारा, परि० क्र० ३२ । ४. सम्भवनाथ जै० म० उदयपुर, ग्र० स० ९६ । ५. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, १, पृ० २३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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