________________
२३० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं
२
आचार्य विनयप्रभ सूरि ने अपने 'तीर्थयात्रा उपवन" में इस स्थान के पार्श्वनाथ बिम्ब का वर्णन करते हुए, इस तीर्थ का उल्लेख किया है ।" यहाँ पर चौहानों के शासनकाल में जिनदत्त सूरि ने पार्श्वनाथ की एक नौफणी प्रतिमा स्थापित की थी, जो कालक्रम में एक चामत्कारिक मूर्ति सिद्ध हुई और यह स्थान जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ । इस क्षेत्र से उत्तर गुप्त काल की नेमिनाथ और शांतिनाथ की दो प्रतिमाएँ खोजी गई हैं | इससे सिद्ध होता है कि यहाँ जैन मत प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में था ।
१३१८ ई० में यहाँ के श्रावकों ने नागौर में जिनचन्द्र सूरि के तत्वावधान में हुए " नन्दि महोत्सव" में भाग लिया था । पूर्व मध्यकाल में यहाँ विभिन्न क्षेत्रों से तीर्थयात्री आते रहते थे । जिनचन्द्र सूरि के साथ १३१८ ई० में हस्तिनापुर जाने वाला बृहद् यात्रा संघ यहाँ भी दर्शनार्थ एवं पूजार्थं रुका था, जिसका भव्य स्वागत किया गया था । " कुछ स्थानीय श्रावक भी इस संघ में तीर्थ यात्रा के लिए शामिल हो गये थे । १३१९ ई० में दिल्ली से मेड़ता लौटते समय जिनचन्द्र सूरि नरहद में रुके थे । १३२३ ई० में उज्जयन्त आदि तीर्थों की यात्रा पर जाते समय जिनकुशल सूरि नरहद में, जिनदत्त सूरि द्वारा १२वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ प्रतिमा के दर्शन के लिए रुके थे ।७ नरहद का पार्श्वनाथ मन्दिर सम्भवतः फिरोज तुगलक के द्वारा हिसार का किला स्थापित करवाते समय, १४वीं शताब्दी में ध्वस्त किया गया था '
( ३८ ) आरासण तीर्थ :
इसका नाम कुम्भेरिया तीर्थं भी है । कुम्भेरिया गाँव का असली नाम आरासण था, जिसकी पुष्टि प्राचीन शिलालेखों में भी होती है । यह अर्बुद मण्डल की तलहटी में है | यहाँ पाँच भव्य मन्दिर हैं । नेमिनाथ का मन्दिर सबसे बड़ा है । इसका शिखर उन्नत एवं प्रशस्त है । मन्दिर के तोन दरवाजे हैं । इसमें तीर्थकर नेमिनाथ की श्वेत संगमरमर की १६१८ ई० के लेख वाली प्रतिमा है, जिसके उपकेश गच्छीय विजयदेव सूरि द्वारा प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख है । इस मन्दिर में कई मूर्तियाँ हैं और कुछ
१. जैसप्र १७, पृ० १५ ।
•
२. खबुगु, पृ० ७२ ।
३. इए रिपोर्ट, १९५६-५७ ।
४. खबुगु, पृ० ६५ । ५. वही ।
६. वही, पृ० ७२ ॥
७. एसिटारा, पृ० ३२५ । ८. वही ।
९. जैन तीर्थ गाइड, पृ० १०६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org