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जैन तीर्थ : २४३
होता है, जैसे--- ओझा इसे १४वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का मानते हैं ", कामता प्रसाद ८९५ ई०, टॉड ८९५ ई० व शीतल प्रसाद १०५० ई० के लगभग मानते हैं । कुछ विद्वान् इसे कुमारपाल निर्मित मानते हैं, तो कुछ इसे श्वेताम्बर स्तम्भ मानते हैं ।
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यह मानस्तम्भ शिल्पकला का अनुपम उदाहरण है । इसके चारों कोनों पर आदिनाथ की दिगम्बर मूर्तियाँ, खड्गासन, ध्यान-मुद्रा में, ५ फीट अवगाहना की स्थित हैं । बाह्य भाग में अनेक जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । पाषाणों के अलंकरण पारम्परिक हैं, जो उस काल में हिन्दू व जैन स्थापत्य में व्यवहृत होते थे । इनका शिल्प सौन्दर्य पश्चात् - कालीन विजय स्तम्भ से अधिक उत्कृष्ट है ।" इसकी ऊपरी छतरी बिजली गिरने से टूट गई थी, जिसे उदयपुर नरेश फतहसिंह ने ८०,००० रुपये की लागत से पुनः
बनवाया था ।
(ब) मध्यकाल :
(१) जैसलमेर की पंचतीर्थी :
जैसलमेर जैन तीर्थ, प्रकारान्तर से राजस्थान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धर्म, कला और साहित्यिक तीर्थ है । पीत प्रस्तर के स्वर्णिम शिल्प वैभव से दीप्त जैन मन्दिर, पटुवों की हवेलियाँ, देरासर, उपाश्रय, दादास्थान आदि के अतिरिक्त इस तीर्थ का महात्म्य यहाँ की शास्त्र भण्डारीय सम्पदा से भी | इनका दर्शन तीर्थं यात्रा के समान पवित्र माना जा सकता है। धार मरुस्थल के हृदय प्रदेश में अवस्थित यह क्षेत्र, प्रारम्भ से ही राजस्थान में जैन धर्मं का गढ़ रहा । इसका श्रेय उदारमना जैन आचार्यों, राजाओं, श्रेष्ठी, श्रावकों एवं प्रजा को ही नहीं, अपितु इस क्षेत्र की मरुस्थलीय स्थिति, प्राकृतिक विषमताओं, वनस्पति, जल का अभाव एवं परिणाम स्वरूप मुस्लिम एवं अन्य आक्रामक व विध्वंसक शक्तियों के मार्ग से परे अवस्थिति, अर्थात् भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित स्थिति को है । इस मरुभूमि में यहाँ के कुशल शिल्पियों ने छेनी और हथौड़ी के माध्यम से नीरस पाषाणों में जिस प्रकार कला की रस धारा बहाई है, वह अद्वितीय है । कागज पर की गई कोरनी की तरह हो, यहाँ के कारीगरों ने पत्थर पर बारीक
१. ओझा - उदयपुर राज्य ।
२. शीतल प्रसाद, मध्यभारत व राजपूताना के जैन स्मारक, पृ० १३३-१४१ ।
३.
जैसासइ, पृ० ४५५ ।
४. जैस, ७, अंक १, पृ० २-३ ।
५. गैरिक, रिपोर्ट- ट्यूर पंजाब एवं राजपूताना, २३, पृ० ११७ ।
६. वासुदेव शरण अग्रवाल, भूमिका, जैसलमेर दिग्दर्शन, दीनदयाल ओझा ।
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