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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ संस्कृत ग्रन्थाङ्क १७ ]
पूज्यपाददेवनन्दिविरचितं
जैनेन्द्रव्याकरणम्
तस्य टीका आचार्य अभयनन्दिप्रणीता
जैनेन्द्रमहावृत्तिः
सम्पादक
पण्डित शम्भुनाथ त्रिपाठी, व्याकरणाचार्य, सप्ततीर्थं
सहायक
पण्डित महादेव चतुर्वेदी, व्याकरणशास्त्राचार्य
भारतीय ज्ञानपीठ काशी
प्रथम आवृत्ति ६०० प्रति
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मार्गशीर्ष बीर नि० सं० २४८३ वि० सं० २०१३
नवम्बर १९५६
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सूक्ष्य १५ रु०
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भूमिका [ लेखक-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ] भारतवर्ष व्याकरणशास्त्रका अध्ययन लगभग तीन सहस्र वर्षसे चला आ रहा है। भाषाके शुद्ध ज्ञानके लिए व्याकरणका महत्त्व सर्व सम्मनिसे स्वीकृत हुआ. अतएव व्याकरणको 'उनरा विन्द्या' अर्थात् अन्य विद्याओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ कोटिम माना गया। किसी भी भाषाके इतिहासमें धातु और प्रत्ययों की पहचान उस गौरवपूर्ण स्थितिको सूचक है जिसमें सूक्ष्म दृष्टिसे भापाके अान्तरिक संगठनका विवेक कर लिया जाता है, और शब्दोंकी उत्पत्ति और निर्माणको जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्यको आत्मसात् कर लिया जाता है। यों तो सभी मनुष्य अपनी अपनी मातृभाषामैं घोलकर अपना अभिप्राय प्रकट कर लेते हैं। किन्तु व्याकरणकी प्रक्रियाका जन्म उस राजपथका निर्माण है जिसपर चलकर निर्भय भाक्से हम भाषाके विस्तृत साम्राज्यमें जहाँ चाहे पहुँच सकते हैं और शब्दोंमै भावप्रकाशनकी जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्रात कर सकते हैं। संस्कृत वैयाकरणोंने संसारमैं सर्वप्रथम इस प्रकारका महनीय कार्य किया | शब्दोंके विभिन्न रूपोंके भीतर जो एक मूल संज्ञा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूपका निश्चय और प्रत्यय जोड़कर उससे बननेवाले क्रिया
और संज्ञा रूपी भनेक शब्दोकी रचना एवं प्रत्ययोंके अर्थों का निश्चय-इस प्रकारके विविध विचारको पद्धतिका जिस शास्त्र में प्रारम्भ और विकास हुआ उसे शब्दचिया या न्याकरणशास्त्र कहा गया ।
संस्कृत साहित्यमै पाणिनिको अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्रका सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहन सूत्रों में लौकिक और वैदिक संस्कृतका जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है । पाणिनिने संस्कृत व्याकरणका जो स्वरूप स्थिर किया उसीका विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, माय, न्यास, टीका, प्रक्रिया
आदिके रूपमें लगभग इस शती तक होता आया है। किन्तु पाणिनिके अतिरिक्त, पर मुख्यतः उन्हीकी निर्धारित पद्धतिसे और भी व्याकरण-मन्थोंका निर्माण हुआ । इस विषयमें एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है.
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरमैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ यह श्लोक मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेवका कहा जाता है। इस सूची में चैयाकरणोंकी दो कोटियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती है। पहली कोटिमें इन्द्र, शाकटायन, श्रापिशलि, काशकृस्न और पाणिनि, ये पाँच . प्राचीन वैयाकरण थे। दूसरी कोटिमैं अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिकोंकी गणना है। पाणिनीय सूत्र 'तूक्थादिसूत्रान्ताह' [॥२॥६०] के एक वार्तिकपर काशिकामें 'पञ्चव्याकरण:' यह उदाहरण पाया जाता है। इसका अर्थ था पाँच व्याकरणोंका अध्ययन करनेवाला या जाननेवाला विद्वान् तदधीते तद्वेद] । इसमै जिन पाँच व्याकरणों का एक साथ उल्लेख है, वे यही पाँच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए जिनकी सूची मुग्धबोधके इस श्लोक है। इसपर सूक्ष्म विचार करनेसे यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनिसे पूर्व. कालमें व्याकरणका अध्ययन अध्यापन व्यापक रूपसे हो रहा था, जैसा कि पाणिनीय न्याकरणके इतिहास से शात होता है । प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायीमें लगभग ६४ श्राचायोंके नाम आये हैं जिन्होने शब्दशास्त्र के सम्बन्धमैं उस प्राचीनकालमें ऊहापोह किया था। इनमेंसे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि और 'काशकरस्नके व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु पाणिनिसे पहले वे अवश्य विद्यमान थे। शात
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भूमिका होता है कि उन प्राचीन व्याकरणको अधिकांश सामग्रीके आधारपर एवं स्वतः अपनी सूचमेक्षिका द्वारा लोक्से शब्द-सामग्रीका संग्रह करके पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीका निर्माण किया । वह शास्त्र लोकमैं इतना महान् और सुविहित समझा गामिनीयं पर निहितात, आप ३६६ णिनिके उत्तर कालमै नये व्याकरणोंको रचनाका क्रम एक प्रकारसे बन्द सा हो गया | उसके बाद व्याकरणका परिष्कार केवल वार्तिक, भाग्य और वृत्तियों द्वारा चलता रहा । कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिशाली प्राचार्य ने पाणिनि ध्याकरणपर लगमग सन्ना चार सहस्र वार्तिकोंकी रचना करके उस महान शास्त्र के प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र व्याकरण रचने का उपक्रम नहीं किया | इसी प्रकार भगवान् पतञ्जलिका महामाष्य भी पाणिनीय व्याकरणकी सोमाके भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था | पाणिनि लगभग पांचवीं शती विक्रम पूर्व में नन्द राजाओं के समग्रमें हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्यपर श्राश्रित जान पड़ती है जैसा कि हमने अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थम प्रदर्शित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनिके बाद लगभग एक सहस वर्षतक नूतन व्याकरणकी रचनाका प्रयत्न नहीं किया गया ।
भारतीय साहित्यिक इतिहासका यह सुविदित तथ्य है कि कुषाण कालके लगभग संस्कृत भाषाको पुनः सार्वजनिक रूपमै साहित्यिक भाषा और राजभाषाका पद प्राप्त हुश्रा ।कनिष्कके समयमें अश्वघोषके काव्योकी रचना और कद्रदामाके जूनागढ़ लेवसे यह स्पष्ट विदित होता है। वस्तुतः इस समय भाषाके क्षेत्रमैं जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठोक स्वरूप कुछ इस प्रकार था-ब्राह्मण साहित्यमें तो संस्कृत भाषाको परम्परा सदासे अक्षुण्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त बौद्ध और जैन श्राचार्योंने भी संस्कृत भाषाको उन्मुक्त भावसे अपना लिया और उसके अध्ययनसे दोनोंने अपने अपने क्षेत्रमैं विपुल साहित्यका निर्माण किया जिसमें किसी समय सइसो ग्रन्थ थे। कुषाण कालसे नो भारा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ या वह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहाँ तक कि लगभग चौथी-पाँचत्रीं शती ईस्वी में संस्कृत भाषाको न केवल भारतवर्ष में अखएड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वरच मध्य एशिवासे लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तक देश में पारस्परिक व्यवहारके लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई । |
इस पृष्ठभूमिमें शब्दविद्याका पुनः वह छूटा हुआ सूत्र आरम्भ हुआ और नये व्याकरणशास्त्र लिखे बाने लगे । स्वयं पाणिनीय व्याकरणों पर वामन अयादित्य कृत काशिका वृत्ति और जिनेन्द्रमुद्धि कृत न्यासकी रचना हुई। यह टीकाके मार्गसे प्राचीन व्याकरणका ही विशदीकरण था; किन्तु बौद्ध और जैन जो दो बड़े समुदाय संस्कृत भाषाकी नई शक्ति से परिचित हो रहे थे, उन्होंने अपने अपने क्षेत्र में दो नये व्याकरणों का निर्माण किया । बौद्धोंमें आचार्य चन्द्रगोमी कृत चान्द्र व्याकरण और जैनों में प्राचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरण गुन युगमैं अस्तित्व में आये। ज्ञात ोता है कि दोनों की ही रचना लगभग ५. वी शती ईस्वीके उत्तरार्धमें हुई। चान्द्र च्याकरणकी स्वोपज्ञ वृत्ति में 'अजयद् जो हणान् [१२८ ] उदाहरणसे सिद्ध है कि पाँचवीं शतीके मध्य में स्कन्दगुप्तने होंपर जो बड़ो विजय प्रात की थी उसकी समकालीन स्मृति इस उदाहरणमैं अवशिष्ट है। इससे चान्द्रव्याकरणके रचनाकाल पर प्रकाश पड़ता है। पूज्यपाद देवनन्दीने दो सूत्रों में प्रसिद्ध आचार्य, सिद्धसेन [ वेत्तेः सिद्धसेनस्य, ५।११७ ] और समन्तभद्र 'चतुष्टय समन्समद्स्य' [ ४०] का उल्लेख किया है, ये दोनों देवनन्दीसे कुछ समय पूर्व हो चुके थे। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकरका समय भी सर्वथा निश्चित नहीं है किन्तु अनुश्रुति के अनुसार उन्हें विक्रमादित्यका समकालीन माना जाता है। विक्रमके नवरत्नों की सूचीम जिस क्षपणकका उल्लेख है उन्हें विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर ही मानते हैं। श्री राइसने सिद्धसेनका समय पाँचवीं शतीके मध्यभागमें माना है; किन्तु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य [ ३७५-४१३ ]
और सिद्धसेनकी समसामयिकताका आधार यदि सत्य हो तो सिद्ध सेनको चौथी शतीके अन्त मानना ठीक होगा। लगभग यही समय समन्तभद्रका होना चाहिए । श्री प्रेमीजीने अपने पाण्डित्यपूर्ण लेख में देवनन्दीके
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जैनेन्द्र-व्याकरणम समयके विनय में जो प्रमाण संगृहीत किये हैं उनकी सम्मिलित साक्षीसे भी यही सूचित होता है कि प्राचार्य देवनन्दी लगभग पाँचवी हातीके अन्तमें हुए हैं 1 इस सम्बन्ध में एक विशेष प्रमाणकी ओर ध्यान दिलाना अावश्यक है । इसके अनुसार संवत् ६६० में बने हुए दर्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थमें कहा है कि पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीने दक्षिण मधुरामैं ५२६ विक्रमीम [ ४६६ ई० ] द्राविष्ट संघकी स्थापना की । इससे भी पूज्य पादका समय ५ वी शतीके उत्तरार्ध में सिद्ध होता है | इसीका समर्थन करनेवाला एक अन्य प्रमाण है-कर्नाटक कविचरित्र के अनुसार गंगवंशीय राजा अविनोत [वि० सं० ५२३] के पुत्र दुनिीत [वि० सं०५३८, ईस्वी ४८१ श्राचार्य पूज्यपादके शिम्य थे; अतएव पूज्यपाद ५ वीं शतीके उत्तरार्धके सिद्ध होते हैं। महाराज पृथिवीकोंकणके दानपत्र में लिखा है-श्रीमकोकणमहाराजाधिराजस्याविनीतनाग्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देषभारसीनिवन्ध वृहत्कन्धेन किरातार्जुनीयपंचदशसर्गटीकाकारेण दुर्भाितनामधेयेन.'; अर्थात् अविनीतके पुत्र दुविनीतने शब्दावतारनामक ग्रन्थकी रचना की थी। जैसे प्रेमीजीने लिखा है शिमोगा जिलेकी नगर तहसीलके शिलालेख में देवनन्दीको पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यासका को लिखा है। अनुमान होता है कि दुर्विनीसके गुरु पूज्यपादने वह ग्रन्थ रचकर अपने शिष्यके नामसे प्रचारित किया था ।
जैनेन्द्र व्याकरण उस शृंखलाको पहली कड़ी है जिसमें गुप्तकालसे लेकर मध्यकाल तक उत्तरोत्तर नये. नये व्याकरणों की रचना होती चली गई । जैनेन्द्र पांचवीं शती], चन्द्र [पांची शती], शाकटायन नवमी शती का पूर्वाद्ध ], सरस्वतीकण्ठाभरण । म्यारहवी शताका पूर्वार्द्ध ] और प्रसिद्ध हैमशब्दानुशासन [ बारहवीं शतीका पूर्वा ] इन सबने उन्मुक्त मनसे और अत्यन्त सौहार्द भावसे पाणिनीय व्याकरणको मुल साममीका अवलम्बन लिया। इनमें भी जैनेन्द्र व्याकरणने भोजके सरस्वतीकण्ठाभरणको छोड़ कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रोंक सबसे निकट रखा है। किसी भी प्रकरण के अध्ययनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्रने पाणिनि सामग्रीकी मायः अविकल रक्षा की है। केवल स्वर और वैदिक प्रकरणों को अपने युगके लिए आवश्यक न मानकर उन्होंने छोड़ दिया था । जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ताने पाणिनीय गणपाटकी बहुत सावधानीसे रक्षा की थी । मूल व्याकरणमैं पाणिनिके गण सूत्रोको प्रायः स्वीकार किया गया है। यद्यपि वैदिक शाखाओवाले और गोत्र सम्बन्धी गणेसे सिद्ध होनेवाले नामोंका जैन साहित्यके लिए उतना उपयोग न था, किन्तु जिस समय इस व्याकरणकी रचना हुई उस समय भाषाके विश्यमें लोकको चेतना अत्यन्त स्वच्छ और उदार भावसे युक्त यो; अतएव जैनेन्द्र व्याकरणकी प्रवृत्ति पाणिनि सामग्री के निराकरणमें नहीं, वरन् उसके अधिकसे अधिक संरक्षणमैं देखी जाती है। जैनेन्द्र व्याकरण के साथ उसका अलग गणपा किसी समय अवश्य ही रहा होगा, यद्यपि अच बह पृथक् रूपसे उपलब्ध न होकर अभयनन्दी कृत महावृत्तिके अन्तर्गत ही सुरक्षित है | कात्यायनके वार्तिक
और पतञ्जलिके भाग्यको इटियोंमें जो नये नये रूप सिद्ध किये गये थे उन्हें देवनन्दीने सूत्रों में अपना लिया है। इस लिए भी यह व्याकरण अपने समयमै विशेष लोकप्रिय हुआ होगा। यह प्रवृत्ति काशिकामें भी किसी अंश में आ गई थी और चन्द्र श्रादि व्याकरणों में भी बराबर पाई जाती है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठौकी परम्परा इस समय पाई जाती है—एकमे तीन सहस्त्र सूत्र हैं। दूसरे में लगभग ७०० सूत्र अधिक है। इस विषय में श्रीप्रेमीजीका निष्कर्ष यथार्थ है कि मूल जैनेन्द्र सूत्रपाठकी संख्या ३ सहल हो थी जिसपर अभयनन्दीको टीका पाई जाती है।
. अभयनन्दी कृत महावृत्ति लगभग १२ सहस्र श्लोक परिमारणका बड़ा ग्रन्थ है। काशीसे १६२८ में इसके प्रथम ३ अध्यायों का एक संस्करण प्रकाशित हुआ था। किन्तु वह केवल एक प्रतिके श्राधारपर तैयार किया गया था, अतएव इस बातकी बहुत अावश्यकता थी कि सम्पूर्ण जैनेन्द्र व्याकरण तथा उसकी महावृत्तिका एक संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जाय । हर्षकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठके सत्प्रयत्नसे इस मूल्यवान् ग्रन्थका यह संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है जिसके तैयार करने में पूनाके भण्डारकर ओरिएण्टल इंस्टीट्यइमें सुरक्षित प्रतियोंका और काशी में ही प्राप्त ३ प्रतियोंका उपयोग किया गया है । आशा है, व्याकरण
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भूमिका शास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन के लिए जैनेन्द्रका वह वर्तमान संस्करण अधिक उपयोगी सिद्ध होमा, विशेषतः गणपाठसे तुलनात्मक अध्ययन के लिए इस संस्करणका विशेष उपयोग हो सकेगा ।
आचार्य अभयनन्दीकी महावृत्ति लगभग काशिकाके समान ही वृहत् ग्रन्य है। इसके कर्ताने कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके माध्यसे बहुत अधिक उपादेय सामग्रीका अपने ग्रन्थमें संकलन कर लिया है । महावृत्तिका काल पाठवीं शताब्दीका प्रारम्भ माना जाता है और सम्भावना ऐसी है कि अभयनन्दीने काशिका वृत्तिका उपयोग किया था । वस्तुतः किसी भी पाठकसे यह तथ्य छिपा नहीं रह सकता कि अष्टाध्यायी और काशिकाका ही रूपान्तर जैनेन्द्र पञ्चाभ्याची और उसकी महावृत्तिमें प्राप्त होता है। फिर भी काशिका और महावृत्तिको सूक्ष्म तुलना करनेपर यह प्रकट हो जाता है कि अभयनन्दीने कुल ऐसे उदाहरण दिये हैं जो काशिकामें उपलब्ध नहीं होते औन फलस्वरूप ऐसी सामग्रीकी रक्षा की है जो काशिकासे प्रास नहीं हो सकती। उन्होंने जहाँ सम्भव हो सका वहाँ जैन तीर्थकरॉके, महापुरुषोंके, या अन्यों के नाम उदाहरणों में डाल दिये हैं। जैसे, सूत्र श१५ के उदाहरणमें 'अनु शाविभाहम् प्राश्याः, अनुसमन्तभद्रं तार्किकाः; सूत्र १।४।१६ के उदाहरण में 'उपसिंहनन्दिनं कवयः, उपसिद्धसेनं वैयाकरयाः'; सूत्र १।४।२० की वृत्तिमैं 'अकुमारभ्यो यशः समन्तभद्रस्य'; सूत्र १।४।२२ की टीकामै अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति'; सूत्र १११६८ की टीकामै 'भरतगृखः, भुजबलिगमाः'; ग १० की वृत्निमें 'आकृमारं यशः समन्तभद्रस्य' ऐसे उदाहरण हैं जो वृत्तिकारने मुलग्रन्थके अनुकूल जैन वातावरणका निर्माण करनेके लिए, अपनी प्रतिमासे बनाये हैं। सूत्र ११३५ की वृत्तिमें 'प्राभृतपर्यन्तमधीते' उदाहरण महत्त्वपूर्ण है, उमौके साथ 'समन्धम् , सटीकम् अधीते' भी च्यान देने योग्य हैं। यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्राभूतसे तात्पर्य महाकर्मप्रकृति प्राभूतसे या जिसके रचयिता श्रा० पुष्पदन्त तथा भूतबलि माने जाते हैं [प्रथम-द्वितीय शती] | इसीका दूसरा नाम पट्खण्डागम प्रसिद्ध है। इसीका भागविशेष 'बन्ध' या महानन्ध [महाधवल सिद्धान्तशास्त्र] था जिसके अध्ययनसे यहाँ अभयनन्दीका तात्पर्य ज्ञात होता है। अर्थात् उस समय भी विद्वानों में प्रामृत या पट खण्डागमसे पृथक् महाबन्धका अस्तित्व था और दोनोंका अध्ययन जोक्नका आदर्श माना जाता था । 'सरीकमधीते' में जिस टीकाका उल्लेख है वह धवला टीका नहीं हो सकती क्योंकि उसकी रचना बोरसेनने ८१६ ई० में की थी। श्रुतावतारके अनुसार महाकर्मप्राभृतपर प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी एक बड़ी प्राकृत टीका लिस्त्री श्री जो इस समय अनुपलब्ध है। संभवतः वही टीका प्राभूत और बन्धके साथ पढ़ी जाती थी। इनके स्थान पर पाणिनि सूत्रके उदाहरणों में किप्ती समय इष्टि, पशुबन्ध, अग्नि, रहस्य नामक शतपथ ब्राह्मणके तत्तद् काण्डौंका अध्ययन विद्याका आदर्श माना जाता था। देवनन्दीने सूत्र ११४३४ में जिन श्रीदत्त आचार्यका उल्लेख किया है उन्हें कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते हैं, परन्तु अभयनन्दीकी महावृत्तिसे सूचित होता है कि श्रीदत्त कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण ये जिनका लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इतिश्रीदत्तम्', यह प्रयोग 'इतिपाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार 'तच्छ्रीदत्तम्', 'अहोश्रीदत्तम्' प्रयोग भी श्रीदत्तकी लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते हैं [श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशते; महावृत्ति १:३५] । सूत्र ३।३।७६ पर 'सेन प्रोक्तम्' के उदाहारणम अभयनन्दीने श्रीदत्तके विरचित ग्रन्धको श्रीदत्तीयम् कद्दा है। इससे ज्ञात होता है कि श्रीदत्तका बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था। सूत्र २४/४ की वृत्ति में 'शारदं मथुरा रमणीया, मासं कल्याणी कानी' वे दोनों उदाहरण अभयनन्दीकी मौलिकता सूचित करते हैं। पाणिनि सूत्र 'कालावनोरस्यन्तसंयोगे' २३.५] की काशिका वृत्ति में 'मासं कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'मासं कल्याणी काडी' यह ऐतिहासिक सूचना अभयनन्दीने किसी विशेष स्रोतसे प्राप्त की थी। जिस काञ्चीपुरीके मासव्यापी उत्सर्वोकी विशेष शोमाकी ओर इस उदाहरणमैं संकेत है वह महेन्द्रवर्मन् , नरसिंह वर्मन् आदि पल्लवनरेशों की राजधानीके सम्बन्ध होना चाहिए । अतएव सप्तम शतीसे पूर्वं यह उदाहरण भाषा में उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४।६।११४ को दृत्तिमै अभयनन्दी. ने मायके 'सटाइटामिनधनेन बिभ्रता'श्लोकका उद्धरण दिया है। मापके दादा मुगभदेव बर्मलातके मंत्री
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है। अतएव माचका समय सप्तम शतीका उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही अभयनन्दीने महावृत्तिका निर्माण किया होगा | सुत्र ११४१६९ पर 'चन्द्रगुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिका में जो 'पुष्पमित्रसभा ' दूसरा उदाहरण है उसकी जगह महावृत्तिकारने 'सातवादनसभा' उदाहरण रक्खा है । उसी प्रकार काशिकामे [२/४/२३] में केवल 'काइसभा' उदाहरण है, किन्तु श्रभयनन्दीने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये हैं। कहीं-कहीं अभयनन्दीने काशिकाकी अपेक्षा भाष्य के उदाहरणोंको स्वीकार किया है। जैसे सूत्र १|४ | १३७ में 'औडालकिः पिता, श्रौद्दालकायनः पुत्रः' यह भाष्यका उदाहरण था जिसे बदलकर काशिकाने अपने समय के अनुकूल 'आर्जुनिः पिता, आर्जुनायनः पुत्रः [काशिका २०६६ ] यह उदाहरण कर दिया था । 'आर्जुनायन' काशिकाकारके समय अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्ति में आर्जुनायनगा के उल्लेख से ज्ञात होता है। कहीं-कहीं महावृत्ति काशिका की सामग्रीको स्वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये हैं जो सूचित करते हैं कि श्रभ्यनन्दोकी पहुँच अन्य प्राचीन वृत्तियों तक थी, जैसे सूत्र १/४/८३ की वृत्ति में 'उदय रावति' तो काशिका में भी है किन्तु 'विपाद्चक्रमिदम्' [विपाशा और चक्रभिद नदका संगम] उदाहरण नया है। ऐसे ही एक २४/२९ में सरिकाकन्ध, कञ्चन्ध, कन्ध, कूम्भ उदाहरण महावृत्ति और काशिका में समान हैं, पर Testones और महिकिबन्ध उदाहरण महावृत्ति में नये हैं। काशिकाका मुष्टिबन्ध महावृत्ति दृष्टिबन्ध और वोरकयन्ध चारकक्ष हो गया है | सूत्र १/३/३६ में भी चारवन्त्र पाठ है। सूत्र ५/४१९६ 'पानं देशे' की वृत्तिमैं काशिका के 'क्षीरपाणाः उशीनराः' को 'क्षीरपाणाः आम्धाः' और 'सौवीरपाणा वाह्रीका:' को 'सौवीरपाणाः दुत्रिणाः 'कर दिया है। 'द्रविगाः' द्रमिल या द्रमिङका रूप है। ये परिवर्तन भयनन्दीने किसी प्राचीन वृत्तिके आधार पर या स्वयं अपनी सुचनाके श्राधारपर किये होंगे । आन्ध्र देशमें दूध पीने का और तामिल देश में hat fire व्यवहार लोक में प्रसिद्ध रहा होगा । कीं कहीं महावृत्ति में कठिन शब्दोंके नवे अर्थ संग्रह करने का प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २/४११६ का 'षडक्षीण' शब्द है । पानि सूत्र ५|४/७ की काशिकावृत्ति में 'अक्षय मन्त्रः' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मंत्र या परामर्श जो केवल राजा और मंत्री बीचमें हुआ हो [ यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभिः ] 'षट्कर्यो भियते मन्त्रः' के अनुसार राजा और मुख्य मंत्रीकी 'चार आँखों' या 'चार कानों' से बाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जाने की आशंका रहती थी । अभयनन्दीने काशिका के इस अर्थको स्वीकार तो किया है, किन्तु गौण रीतिसे । उन्होंने 'अषडक्षीणो देवदत्तः' उदाहरणको प्रधानता दी है। अर्थात् कोई देवदत्त नामका व्यक्ति जिसने अपने पिता, पितामह और पुत्रमेंसे किसीको न देखा हो । अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामहकी मृत्यु के बाद उत्पन्न
हो और स्वयं ऋपने पुत्र जन्मके कुछ मास पहले गय हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंद को भी अक्षीणा कहा है [ येना कन्दुकेन द्वौ कीद्रतः सोऽप्येवमुक्तः ] । या तो ये अर्थ अभवनन्दीके समय में लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है । महावृत्ति में 'पक्षी' का एक अर्थ मछली भी किया है पर उसमें खींचतान ही ज्ञान पड़ती है | सूत्र ३१४ १३४ में 'अयानवोन' शब्द के अर्थका भो महावृत्तिमें विस्तार है !
महावृत्ति सूत्र २/२/६२ में इतिहासको विशेष महत्त्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गई है । उसमें ये दो उदाहरण आये हैं
'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । अरुणद् यवनः साकेतम्'
व्याकरणकी दृष्टिसे यह आवश्यक था। कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध घटनाका सूचक हो, जो कहनेवालेके परोक्षमें घटित हुआ हो किन्तु जिसका देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन कालकी ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो | भाष्यकार पतनलिने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओं का उल्लेख किया था- 'अरुणद
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भूमिका यवनः साकेतम् , अरुण यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमें शाकलके यवन राजाओं द्वारा किये हुए उन दो श्मलोंका उल्लेख है जिनमेंसे एक पूर्वकी ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिममें मध्यमिका पर। मध्यमिका चित्तौड़ के पासका यह स्थान था जिसे इस समय नमरो कहते हैं और जहाँ खुदाई में प्राप्त पुराने सिक्कों पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है । ये इमले किस राजाने किये थे उसका नाम पतजलिने नहीं दिया, किन्तु गूनानी इतिहासलेखकोंके वर्णनसे शात होता है कि उस राजाका नाम मिनन्ष्टर था जिसे पाली भाषामें मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्कों पर तत्कालीन बोलचालको प्राकृत भाषामें उसका नाम मेनन्द्र मिलता है। महाबृत्तिके 'अरुणान्महेन्द्रो मथुराम्' इस उदाहरणमें दो महत्वपूर्ण सूचनाएँ हैं। इसमें राजाका नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी सम्मतिमैं इसका मूलपाठ 'मेनन्द्र' या । पीछेके लेखकोंने मैनन्द्र नामको ठीक पहचान न समझ कर उसका संस्कृत रूप महेन्द्र कर डाला | इस उदाहरणसे संस्कृत साहित्यकी भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्वकी ओर अभियान करनेवाले यवनराजका नाम मेनन्द्र या मिनन्डर या । वानराज मेनन्द्रने पाटलिपुत्र पर दाँत गड़ा कर पहले धक्के में मथुरा पर अधिकार जमाया और फिर श्रागे बढ़कर साकेतको बैंक लिया। साकेत पहुँचने के लिए मथुराका जीतना यावश्यक था। अब यह सूचना पक्के रूपमें अभयनन्दीके उदाहरणसे प्राप्त हो जाती है। इससे यह भी पता लगता है कि काशिकाके अतिरिक्त भी अभयनन्दी के सामने पाणिनि व्याकरणकी ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुश्रा । सूत्र १४३१३६ की वृत्तिमें प्रारण्यक पर्व १२६।८-१० का यह श्लोक पठित है
उलखलराभरणः पिशाची यदभापत् । एतत्तु ते दिवा नृसं रात्री नृत्तं नु द्रश्यसि ।।
काशिका १४५ में यह श्लोक किन्हीं प्रतियों में प्रक्षिप्त और किन्हीं में मूलके अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्तिसे सिद्ध हो जाता है कि वह काशिकाके मूलपाटका भाग था । श्लोकके उत्तरार्धमें जो दिवानृत्त रात्रौ नृतं पाठ है उसका समर्थन महाभारतकी कुछ प्रतियौसे होता है पर कुछ अन्य प्रतियों में 'वृत्त पाठ है जैसा कि काशिकामें और महाभारतके पूना संस्करण में भी स्वीकार किया गया है । श्राचार्य प्रभयनन्दीने अपनी महावृत्तिको जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरणकी पुष्कल सामग्रीसे भर दिया है वह सर्वथा अभि.. नन्दनके योग्य है। श्राशा है जिस समय काशिकावृत्ति, अभयन दीकृत महात्ति और शाकटायन व्याकरणको अमोघवृत्ति इन तीनोंका तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूपसे जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकारने परम्परासे प्राप्त सामग्रीकी कितनी अधिक रक्षा अपने अपने अन्य की थी। यह सन्तोषका विषय है कि इन कृतियोंने सावधानीके साथ प्राचीन सामग्रीको बचा लिया ।
श्राचार्य देवनन्दीने पाणिनीय अष्टाध्यावीको आधार मानकर उसे पञ्चाथ्यावीमें परिवर्तन करते समय दो बातों की ओर विशेष ध्यान रखा था-एक तो धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरणमें इतनी स्पष्टता और स्वारस्य श्रा सका था, डीने बोजगणितके जैसे अतिसक्षिप्त संकेतों में बदल दिया है जिनकी सूची परिशिष्ट दे दी गयी है। दसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको प्रा० देवनन्दीने छोड़ दिया है । किन्न ऐसा करते हुए इन्होंने उदारतासे काम लिया है, जैसे आनाग्य, धाच्या, सानाव्य, कुण्डपाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, [ २११११०४.१०५]: प्रावस्तुत् [२१२।१५६ ] श्रादि वैदिक साहित्यमैं प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंको रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण [३।२।२१.२८] में शुक्र अपोनात, महेन्द्र, सोम, यावाप्रथिवी. शुनासीर, मरत्वत् , अग्नीषोम, बास्तोस्पति, गृहमेध आदि गृह्यसूत्रकालीन देवतायोके नामों को पाणिनीय प्रकरणके अनुसार हो रहने दिया है। प्रत्ययोंमें आनेत्राले फ, द, ख, छ घऔर यु, त्रु, एवं उनके स्थान में होनेवाले आदेशोंको भी ज्योंका त्यों रहने दिया है। [५११११:५३१२ ] | 'तेन प्रोफम्' प्रकरण [ ३।३७६-८० में वैदिक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम भी ज्यों के लों जैनेन्द्र व्याकरणमें स्वीकृत कर लिये गये हैं। कहीं कहीं जैनेन्द्रने उन परिभाषाओंको स्वीकार किया है जो प्राक् पाणिनीय व्याकरणों में मान्य थी और जिनका
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१२
जैनेन्द्र-च्याकरणम् उल्लेख माध्य या वर्तिकों में प्राधा है। उदाहरण के लिए जैनेन्द्र खूब १४३१०५ में उत्तरपदकी संज्ञा मानी गई है। पतञ्जलिके महाभाष्यमैं सूत्र ७।३।३ पर श्लोकवार्तिकमैं घु पाठ है और वहां किमिदं छोरिति उत्तरपदस्येति' लिखा है। सूत्र ७१।२१ के भावमैं अघुको अनुत्तरपदका पर्याय माना है पर कोलहान का सुझाव था कि त्रु का शुद्ध पाट यु होना चाहिए । वह बात जैनेन्द्र के सूत्र १।३।१०५ 'उत्तरपदं धू' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है। और अब भायमैं भी वही शुद्ध पाठ मान लेना चाहिए।
___ सबसे श्राश्चर्यकी बात यह है कि पाणिनिके 'पूर्वनासिद्धम् [२३] सूत्र और उससे संबंधित असिद्ध प्रकरणको भी जो पाणिनिके शास्त्रनिर्मागा कौशलका अद्भुत नमूना है, जैनेन्द्र व्याकरण में 'पूर्वश्रासिम सूत्र [५॥३॥२०] में स्वीकार किया है । तदनुसार जैनेन्द्र के साढ़े चार अध्यायोंके प्रति अन्तके लगभग दो पाद असिद्ध शाके अन्तर्गत आते हैं। देवनन्दीने अपनी पञ्चाध्यायीमें पाणिनीव अष्टाध्यायीके सूत्रक्रममें कमसे कम फेरफार करके उसे जैसेका तैसा रहने दिया है। केवल सूत्रों के शब्दों में जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है | जैनेन्द्र और पाणिनीय व्याकरणों की तुलनात्मक पाद सारणीसे वह स्पष्ट हो जाता है । विशेष तुलनात्मक सूत्रसूची अन्य के अन्त में परिशिष्ट रूप में दी गयी है। जैनेन्द्र पाणिनि
जैनेन्द्र पाणिनि श ११-२
४|३-४|४|१०३ ३१४
५।१-धारा४७ १३ २१-२
५/२/४८-५३१११० २।३-४
४२ २।१
४।३ २।२
६४ ५१
७/१-२।११३ ३।४
પા૨
७/१९१४-७४
१/४
२।३
२४
४१
३२ કાર ५४
३-४ पूज्यपाद देवनन्दीने आचार्य गद्धपिच्छ उमास्यातिके तत्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि नामक टोकाका निर्माण किया था जो ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुकी है। उस ग्रन्थमें उन्होंने कई स्थलोंपर व्याकरणके सूत्रोंका उद्धरण दिया है। उनमें बिना पक्षपातके जैनेन्द्र सूत्रोको भी और पाणिनीय सूत्रोंको भी उद्धृत किया गया है। उदाहरणके लिए अध्याय ४ सूत्र १६ की सर्वार्थसिद्धिः टीकामें दो सूत्रोंका उल्लेख है—'सदस्मिन्नस्तीति'
और 'तस्य निवासः' । इनमें पहले के विषय में यह कहना कठिन है कि वह किस व्याकरणसे लिया गया है किन्तु दूसरा पाणिनीय व्याकरणका ही है [४।२।६९] श्योंकि उसका जैनेन्द्रगतपाठ 'तस्य निवासादूरभवी' रूप में मिलता है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृष्ठ ५०] | पूज्यपादने न केवल नवीन व्याकरण सूत्रों की रचना की, वरन् उनपर जैनेन्द्रन्यास भी बनाया था। उन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर शब्दावतार न्यास भी लिखा था किन्तु अभी तक ये दोनों अन्य उपलब्ध नहीं हुए हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्राचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके भाष्यके पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैनधर्म और दर्शनपर भी उनका असामान्य अधिकार या । वे गुप्त युगके प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनक तत्कालीन प्रभाव कोकणके मरेशीपर था, किन्तु कालान्तरमें बो सारे देशको विभूति बन गये। काशी विश्वविद्यालय !
५ जुन १९५६
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दो शब्द मुग्धबोध व्याकरण के रचयिता बोपदेवके नामसे एक श्लोक प्रसिद्ध है; यथा
“इन्मश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशी शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्दा जयन्त्यष्टौ च शारिदकाः ॥" इसमें मुख्य आठ व्याकरणों के साथ जैनेन्द्र व्याकरणका भी उल्लेख है। इस समय यद्यपि इस व्याकरणका पूर्ण रूपसे अध्ययनाध्यापन आदिमें उपयोग नहीं दिखाई देता तथापि ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से इसका अपना विशेष महत्व है। इतना होने पर भी जैनेन्द्रव्याकरणका कोई प्रामाणिक संस्करण अद्यावधि उपलब्ध न हो सका । लाजरस कम्पनी बनारसकी ओरसे इसका प्रकाशन हुआ भी तो भी वह अध्याय ३ पाद २ सूत्र ६० तकका ही हो सका। और इसलिए इस प्रन्यके सर्वाङ्गपूर्ण सुन्दर प्रकाशनको आवश्यकता बनी रही।
लगभग ८-१० वर्ष भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोंका ध्यान इस कमौकी ओर आकृष्ट हुआ। फलस्वरूप इसके सम्पादनका गुरुतर कार्य इसके अधिकारी विद्वान् श्री पं० शम्भुनाथ जी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य समतीर्थको सौंपा गया । श्री त्रिपाठीजीने इसका पूरा प्रामाणिक सम्पादन करने का प्रयत्न तो किया किन्तु प्रेसमें देनेके पूर्व ही वे यहाँसे चले गये और उन्होंने यहाँ आनेका विचार ही त्याग दिया । तब भी ज्ञानपीठके मुयोग्य मन्त्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीयने अपने प्रयत्नमें कमी न आने दी। उन्होंने श्चित किया कि यदि त्रिपाठी बी यहाँ नहीं आ सकते हैं तो श्राप इमे उनके पास ले जाकर सम्पादन सम्बन्धी सारी बातें समझ लीजिए और इसे पूर्ण निर्दोष बनाकर प्रकाशनके लिए दे दीजिए । तदनुसार मैं त्रिपाठी जीके मूल निवास स्थान दोस्तपुर [फोजाबाद] भी गया किन्तु उनसे साक्षात् भेंट न हो सकने के कारण मन्त्री जीकी सम्मतिसे मुझे ही इस कार्यमें लग जाना पड़ा। अभी तक सम्पादित शेकर मेरे नामसे कोई ग्रन्थ प्रकाशित तो नहीं हुआ है किर भी ज्ञानपीठम रहते हुए मैंने जो सम्पादन भन्यो शान प्रति किया है उसपर विश्वास करके मैंने माननीय मन्त्रीची, श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री एवं डा. वासुदेवशरण अग्रवालके उत्साहपूर्ण श्रादेशसे यह कार्य अपने हाथमें ले लिया | 'अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्' इस वचनके अनुसार यह शब्दशास्त्र अनन्त और अगाध है-इसका पार पाना कठिन है। फिर भी त्रिपाठी जी द्वारा किये गये सम्पादनरूप सेतुके रहनेसे उसपरसे चलने में मुझे विशेष कठिनाईका अनुभव नहीं करना पड़ा। इन सब प्रवल के फलस्वरूप जो भी कार्य हुआ है वह सामने है।
__सम्पादनकी विशेषताएँ यह तो पहले ही निर्देश कर आये हैं कि इसका सर्वप्रथम सम्पादन श्रीमान् त्रिपाठी जीने किया था। उन्होंने भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट पूना और स्यादवाद विद्यालय काशीकी हस्तलिखित प्रतियो तथा लाजरस कम्पनी बनारसकी मुद्रित प्रतिके श्राधारसे प्रस्तुत संस्करणका सम्पादन किया है। प्रतियोका परिचय ग्रन्थमें अन्यन्त्र दिया है। यद्यपि उपर्युक्त सभी प्रत्तियों में वृत्तिमें आये हुए सूर्तीको अध्याय व पादके अनुसार संख्याका उल्लेख नहीं किया है तथापि आवश्यक समझकर [ ] कोष्ठकमें उन्होंने उसका निर्देश कर दिया था जिसमें हमें बहुत कुछ अंशोधन भी करना पड़ा है।
प्रायः सत्र प्रतियोंमें कुछ पाठ त्रुटित व अशुद्ध हो गये हैं। इस सम्बन्धमै वहाँ अशुद्ध पाठको वैसा ही रखकर उसके सामने अन्य ग्रन्यों के आधारसे शुद्ध पाठ देनेका प्रवास किया गया है; यथा--'अनियता [नियतवृत्तयः उरसेधजीविनः', 'रशोर [दृश्यमानेन] सम्भाध्यमानेन' [पृष्ठ ३०३] आदि ।
वृत्ति प्रायः वार्तिको और परिभाषाओं का उल्लेख किया गया है। उनके परिज्ञानके लिए बार्तिकों के अन्तर्ने [०] तथा परिभाषाओंके अन्तमै [प०] या परि० पेसा संकेतात्मक निर्देश कर दिया है ।
यद् तो मानी हुई बात है कि श्रीमान् विपाठीजीने इसके सम्पादन में बहुत भम किया है तथापि हमें जो अन्य विशेषताएँ लानी पड़ी हैं उनका विवरण इस प्रकार है
१. किसी भी उपलब्ध प्रतिमें अध्याय व पादके साथ सूत्रसंख्या नहीं दी गई थी, किन्तु आवश्यक समझकर हमने अध्याय तया पादको संख्याका प्रत्येक सूत्र के साथ उल्लेख कर दिया है।
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जैनेन्द्र-न्याकरणम्
२. अध्याय ४ तथा ५ में अनेक स्थलों पर सूत्र तथा उनकी वृत्ति खण्डित है। हमने उन स्थगे पर मुद्रित जेनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अनुसार सूत्रपाठ देकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न किया है।
३. श्री त्रिपाठीजीने परिशिष्ट तैयार नझे किये थे जिनकी पूर्ति हमें करनी पड़ी है। जो परिशिष्ट दिये गये हैं वे ये हैं-[१] जैनेन्द्र सूत्रोंकी अकारादि अनुक्रमणिका, [२] जैनेन्द्र वार्तिकोंकी अकारादि अनुक्रमणिका, [३] जैनेन्द्र परिभाषाौकी अकारादि अनुक्रमणिका, [५] जैनेन्द्र गणपाठ सूची, [५] जैनेन्द्र संज्ञा सूची [इस सूची में विद्वानों की जानकारीके लिए जैनेन्द्र संज्ञानों के माथ तत्समकक्ष पाणिनि संशात्रों का भी उल्लेख कर दिया है], [६] जैनेन्द्र तथा पाणिनिके सूत्रों की तुलनात्मक सूत्र-सूची और [७] जैनेन्द्रधुपाठ ।
प्रत्याहार-विचार उपलब्ध किसी भी प्रतिमें प्रत्याहार-सूत्रोंका उल्लेख नहीं मिलता। मालूम पड़ता है कि जैनेन्द्र व्याकरणमें लेखक परम्पराको भूलसे उनका उल्लेख होना छूट गया है, क्योंकि शब्दानुशासनके सूत्रोंमें प्रत्या हारोंका आश्रय लेकर शास्त्रोकी प्रवृत्ति दिखलाई गई है। इस समय हमारे सामने दो प्रकार के प्रत्याहार-सूत्र उपस्थित हैं-प्रथम पञ्चाध्यायोके प्रारम्भमें श्राये हुए और दूसरे शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारम्भमें पाये हुए।
पञ्चाध्यायीके प्रारम्भमें आये हुए प्रत्याहार-सूत्र ये हैं
"अहउण् ।। ऋलक् २। एत्रो ३। ऐऔच । । हयवस्ट ५ । लण ।। अमजनम् । कम ८ । घढधष् है । जबगडदश् । ०। खफकठ्यचरत 111 कपय १२ । शघसर १३ हल १४।"
किन्तु शब्दार्णवचन्द्रिका श्राये हुए प्रस्याहार-सूत्रों में पञ्चाध्यायीके प्रत्याहार-सूत्रोंसे कुछ अन्तर है। यहाँ पर वैविध्यका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके लिए शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रत्याहार-सूत्र भी दिये जाते हैं
"इठण ।। ऋक् २ । प्रमोखा। ऐशौच । । हयपरलण ५। अमलणनम् ६ । मभन्। घढवः = जगददश । ५ खफछउथचरतब ३० । कपय् 11 | शपस अं अः क पर १२ । हल १३।"
शब्दाणवके ये प्रत्याहार-सूत्र शाटकायनके प्रत्याहारसूत्रों से बहुत कुछ साम्य रखते हैं। जानकारोके लिए शाकटायन के प्रत्याहार-सूत्र भी यहाँ उद्धृत किये जाते हैं
"अइउण् १ । ऋक् २। एसोङ ३ । ऐऔच ४ । इयवरलञ् ५ बमएनम् ६ | जनगडदश् । झमघट । खफछठवट ह । घटत 10 । पय् ११३ शपस अं अः क पर १२ 1 इल् ।३।"
यह तो सुनिश्चित है कि महावृत्तिके आधारसे पञ्चाध्यायों में जो सूत्रपाठ उपलब्ध होता है उससे शब्दाणव चन्द्रिकाका सूत्रपाठ बहुत अंशमै भिन्न है और इसी सूत्रपाठके अनुसार प्रत्याहार-सूत्रोंमें अन्तर हुआ है। उदाहरणार्थ- सन्धिसूत्रों में पश्चाध्यायों में 'शरकोटि' ५। ४ । १७३सूत्र आता है उसके अनुसार श्रट प्रत्या
से 'श' के स्थानमें ''आदेश होता है किन्तु शब्दावकारने उसके स्थानमें 'शरछोऽमि' [' । ४ । १५६] सूत्रको रखकर अट् प्रत्याहारको नहीं माना है और इसलिए 'हयवरट , जण' इन दो सूत्रोंके स्थानमैं शब्दार्णवकारने 'हयवरलण' यह एक हो प्रत्याहार-सूत्र माना है। इसी प्रकार अन्यत्र भी अट प्रत्याहारके निमित्तसे होनेवाले कार्यों में शब्दार्णवकारने अन्य प्रकारसे निर्याद करनेका प्रयास किया है।
ऋ और लू मैं अभेद मानकर 'कल' के स्थान में शब्दार्णवकारने 'ऋ' प्रत्याहार-सूत्र रखा है।
अनुस्वार, बिसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा यमको व्याकरण शास्त्र में अयोगवाद संज्ञा है । पाणिनिके प्रत्याहार-सूत्रों ने तथा जैनेन्द्र-पञ्चाध्यायीगत प्रत्याहार-सूत्रों में इनका उल्लेख नहीं हैं किन्तु शब्दार्णवआले पाठ में अयोगवाहका भी शर् प्रत्याहारके अन्तर्गत समावेश किया है। शाकटायन व्याकरणके प्रत्याहारवोंसे शब्दार्णबके प्रत्याहार-सूध बहुत कुछ साम्य रखते हैं। शात होता है कि शब्दाणवकारने शाकटायन ब्याकरणके सूत्रों के अाधारसे ही अपने प्रत्याहार-सूत्रौंची रचना करके तदनुसार ही जैनेन्द्र शब्दानुशासनके सूत्रोंमें परिवर्तन या परिबर्धन किया हो । सिद्धान्तकौमुदीके हल्सन्धि प्रकरणमैं एक वाक्य मिलता है- अनुस्वारविसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीययमानामकारोपरि शघु च पाठस्योपसंख्यानलेन...' | शात होता है कि शाकटायन तथा शब्दार्णवके प्रत्याहार-सूत्रों को ध्यान में रखकर ही भद्दोभिदीक्षितने उपर्युक्त याक्य लिखा हो ।
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दो शब्द
सात विभक्तियोंका विचार
साधारणतया पाणिनीय अष्टाध्यायीसूत्रपाठ में ७ विभक्तियों के लिए प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि शब्दोंका ही निर्देश किया है । पृथक किन्हीं संज्ञाओंका निर्देश नहीं किया है, किन्तु जैनेन्द्रकारने 'विभक्ती' दाब्दके प्रत्येक अक्षरको अलग करके स्वरके आगे 'पू' और व्यञ्जनके आगे 'श्री' जोड़कर सात विपक्तियोंकी संज्ञा निर्दिष्ट की हैः यथा - 'बा' [ प्रथमा ] हूप् [द्वितीया ], मा [तृतीया ] [] का [पचमी ता [ष्ठी] और ई [ससमी]। इस प्रकार 'विभक्ती' शब्द के आधारसे ही इन संज्ञार्थो का उल्लेख भन्यत्र कह देखने में नहीं आता !
१.५
जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ
१. पानी
में वैदिक एवं स्वरप्रक्रिया इन दो प्रकरणों के सूत्रों का स्वतन्त्र रूपमें उल्लेख है किन्तु जनेन्द्रकारने इन दोनों प्रकारणों के सूत्रों का उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि वैदिक शब्दों व प्रयोगों की सिद्धि और स्वरविधानका प्रश्न जैनेन्द्रकार के समक्ष उपस्थित नहीं था ।
२. पाणिनीय व्याकरण में एकशेष प्रकरणके सूत्रोंका स्वतन्त्र रूप से उल्लेख है । किन्तु जैनेन्द्रकार इस प्रकरण के सूत्रों की आवश्यकताका अनुभव नहीं करते हुए मालूम देते हैं। उन्होंने इस प्रकरणको ध्यान में रखकर 'स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भ:' इस सूत्र की रचना की है। इससे विदित होता है कि उनका मत रहा है कि लोक व्यवहार में जो चीज याचाल वृद्ध प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करके शास्त्र के कलेवर को बढ़ाना उचित नहीं है। और इसी लिए उन्होंने एकशेप प्रकरणको नहीं रखा है ।
३. पाणिनीय व्याकरण से सम्वद्ध स्वतन्त्र रूपसे चार प्रकरण मिलते हैं-लिङ्गानुशासन, पाणिनीय शिक्षा धातुपाठ और गणपाठ । ग्रह कह सकना तो कठिन है कि इन सबका निर्माण स्वयं पाणिनिने किया होगा | उदाहरणार्थं — पाणिनीय शिक्षाको ही लीजिए। इसके प्रारम्भके प्रथम श्लोक में कहा है--' अथ शिक्षा प्रवच्यामि पाणिनीयं मतं यथा ।' अर्थात् पाणिनिके मतानुसार शिक्षाका निरूपण करते हैं । तथा इसी प्रकरण के अन्तमें एकाधिक बार पारिमुनिके लिए नमस्कार भी किया गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि इस प्रकरणका संकलन पाणिनीय व्याकरणको आधार मानकर किसी अन्य समर्थ विद्वान् ने किया हो । स्वामी दयानन्द सरस्वतीने विक्रम संवत् १६३६ में 'वर्णोच्चारण शिक्षा के नामसे भापानुवाद सहित एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, उसमें उन्होंने किसी प्राचीन प्रतिके आधारसे पाणिनीय शिक्षा सूत्रोंका संकलन किया था 1 बहुत सम्भव है कि ये शिक्षासूत्र ही वर्तमान श्लोकबद्ध पाणिनीय शिक्षा के आधार रहे हों।
४, पाणिनीन लिङ्गानुशासनका समावेश अष्टाध्यायी में नहीं किया गया है । उपलब्ध पाणिनीय लिङ्गानुशासन में कुल १८१ सूत्र हैं। उनमें कुछ ऐसे भी सूत्र हैं जो अष्टाध्यायी में भी उपलब्ध होते हैं; परन्तु अधिकतर सूत्र श्रष्टाध्यायींसे सम्बन्ध नहीं रखते। इन सूत्रोंका निर्माण किसने किया यह प्रश्न विचारणीय है । बहुत सम्भव है कि पाणिनि व्याकरण में शब्दसिद्धि के आधार पर अन्य किसी विद्वान्ने लिङ्गानुशासनको सूत्रबद्ध कर दिया हो ।
जैनेन्द्र ब्याकरणमै लिङ्गानुशासन तथा जैनेन्द्र शिक्षा नामके तो प्रकरण अभी तक उपलब्ध नहीं हुए । ५. 'भूवादयो धातव:' [ १/३/१ ] 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः [ २२४।७२ ] इत्यादि सूत्रों द्वारा गणशः प्रत्यय-विधान तथा 'हृदितो नुम् धातो:' [ ७|११५८ ], प्रयन्तक्षणश्व जागृणिश्व्येदिताम्' [ ७/२५ ], 'रुद्रश्च पञ्चभ्य:' [ ७|३|१८ ] आदि सूत्रों द्वारा अनुबन्ध तथा गणपाठका आश्रय लेकर धातुओंसे कार्य विधान किया गया है । इसी प्रकार गणपाटका आश्रय लेकर भी प्रकृति-प्रत्ययका विधान किया हुआ है । इससे यह सुनिश्चित है कि पाणिनिके समक्ष उनके स्वनिर्मित गणपाठ और धातुपाठ अवश्य ही विद्यमान थे ।
यही स्थिति जैनेन्द्र धातुपाठ तथा गणपाठके विषय में भी है। वहाँ भी 'भूवादयो धुः ' [ ११२१ ] 'उज्जुहोत्यादिभ्यः ' [ १|४|१४५ ] 'हदिद्धोर्नुम' [ ५/१/३७ ] श्रादि सूत्रों द्वारा धातुओं से संज्ञा, प्रत्यय और आगम एवं आदेश श्रादिका विधान किया गया है। तथा गणपाठके निमित्त से भी शास्त्र प्रवृत्ति देखी जाती है।
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रक्ष
जैनेन्द्र-व्याकरणम् अतः सुनिश्चत है कि जैनेन्द्र के समक्ष भी अपने स्वरचित धातुपाठ तथा गणपाठ अवश्य रहे होंगे किन्तु कालक्रम वे आज अनुपलब्ध हो गये हैं।
६. पाणिनि व्याकरण, उपादि-सिद्ध कार्यों के लिए "उणावयो बहुखम्" [ ३१३।१] सूत्र आता है। जैनेन्द्र ध्याकरणमें भी इसी रूपमै इस सूत्रका उल्लेख है [२१२।१६ । इन दोनों मूल व्याकरणों में इस प्रकरण में आये हुए प्रयोगों की सिद्धि के विषयमें इससे अधिक कुछ नहीं कहा गया है। मात्र जैनेन्द्र महावृत्तिमें इस सूत्रकी व्याख्या करते समय कुछ सूत्रों के उल्लेखके साथ उनके द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोगोंके कतिपय प्रकार दिखलाये गये हैं । यह निश्चित कहना कठिन है कि जैनेन्द्र महावृत्तिमें ये उणादि सूत्र कहाँ से आये। यदि इन्हें जैनेन्द्रकारका माना जाय तो शंका होती है कि पञ्चाध्यायी में इनका संकलन क्यों नहीं हुआ ? यद्यपि महावृत्ति में उल्लिखित उणादि सूत्रों में कहीं-कहीं जैनेन्द्रव्याकरणकी संज्ञाओंका प्रयोग किया हुआ दिखाई देता है यथा 'भस् सर्वधुभ्यः' [ पृष्ठ १७ ]; पर जबतक कोई निश्चित आधार नहीं मिलता तश्तफ इन सूत्रों को स्वयं जैनेन्द्रकारका मान लेनेको मन नहीं होता। उणादि प्रकरणका संकलन करते हुए भट्टोजिदीक्षितने सिद्धान्तकौमुदी में ७५५ सूत्र प्रमाण पञ्चपादी उणादि सूत्रोंकी सोदाहरण व्याख्या दी है। किन्तु पाणिनिकी अष्टाध्यायीमें ये सूत्र उपलब्ध नहीं होते। उणादिका निर्देश करनेवाला 'उणादयो बहुलम् [३।३.१] सूत्र अष्टाध्यायीमें उपलब्ध होता है किन्तु उसका संकलन भट्टोजिदीजितने नणादि किया : हे सगर कटन में किया है। विद्वानों का मत है कि ये उणा दिसूत्र शाकटायन प्रणीत हैं जिनके समयका उल्लेख करते हुए. श्रीयुधिष्ठिर मीमांसक ने लिखा है कि 'इस्का काल विक्रमसे लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा। [ संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास पृष्ठ ११६ ]
पातञ्जल महाभाष्यमें एक वाक्य मिलता है; यथा--'नाम व धानुजममह निरुक्त व्याकरणे शकरस्य च तोकः।
इसका आशय यह है कि 'निरुक्तमें सभी संज्ञाशब्दोको धातुम कहा है और व्याकरण शास्त्रमें शकटके पुत्र [शाकटायन] भी ऐसा ही कहते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि शाटकाधन विरचित कोई ऐसा प्रकरण अवश्य रक्ष होगा जिसमें धातुश्रों के निमित्तसे प्रत्यय विधान करके संज्ञाशब्दोंकी सिद्धि की गई हो । वह प्रकरण उणादिके सिवा और क्या ले सकता है ? उणादिके दश पादौ तथा त्रिपादी पाठ भी उपलब्ध होते हैं। विशेष विवरण के लिए इसो ग्रन्थमें प्रकाशित श्री युधिष्टिर मीमांसकका 'जैनेन्द्र शब्दानुशान और उसके खिलपाठ' शीपक निबन्ध देखिए।
श्री डा. वासुदेवशरणजी अग्रवालने ज्ञानपीठके अनुरोधसे इसकी अनुसन्धानपूर्ण भूमिका लिखकर इसके महत्त्वको बढ़ाने की कृपा की तथा इनके ही अनुरोधसे ऐतिहासिक सामग्रीको पूर्णताके लिए श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' में मुद्रित 'देवनन्दि तथा उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक गवेषणापूर्ण निबन्ध छापनेकी अनुमति-पूर्वक उसके दूसरे संस्करणके फार्म भिजवानेकी कृपा की जिससे अन्धकारके विषय में ऐतिहासिक अन्वेषणके कठिन कार्यसे मुझे छुट्टी मिल गई। श्री युधिष्ठिर मीमांसकने भी 'जैनेन्द्रशब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ शीर्षक अनुसन्धानपूर्ण निबन्ध लिखकर हमारी बहुत बड़ी सहायता की है। इतना ही नहीं, उन्होंने, प्रस्तुत संस्करणमैं जो थोड़ी बहुत त्रुटियाँ रह गई है, उनका उल्लेख करके अात्मीयतापूर्वक सौहार्द भी प्रदर्शित किया है। अतः उक्त तीनों विद्वानों का विशेष श्राभारी हूँ।
श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने भी समय समय पर उपयोगी सुझाव देकर इस प्रन्यको शुद्ध, सर्वाङ्गपूर्ण तथा सर्वोपयोगी बनाने में सहायता दी तया मेरे उत्साहको बढ़ाया इसलिए मैं उनका भी विशेष आभारी हूँ।
कार्य बहुत बड़ा था और सम्पादनका मेरा यह पहला अवसर है, इसलिए सम्भव है कि इसमें अभी भी कुछ दोष रह गये हों। मेरा विश्वास है कि विद्वान् पाठक इसके लिए क्षमा करेंगे।
वाराणसी
दीपावली वि० सं० २०१३ ।
—महादेव चतुर्वेदी
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देधनन्दिका जैनेन्द्र ब्याकरण अध्यायके पहले पादका १६ वाँ सूत्र है । यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्ध है परन्तु श्रागसे झुलसी हुई है । दूसरी प्रतिमें केवल तीन अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या १२००० है। इससे जान पड़ता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ १६००० के लगभग होगा ।
अभयनन्दिकी वृत्तिसे यह बड़ा है और उससे पोछे बना है। इसमें महावृत्ति के शब्द ज्यों के त्यों ले लिये गये हैं और तीसरे अध्यायके अन्तके एक श्लोक में अभयनन्दिको नमस्कार भी किश है।
इसके कर्ता प्रभाचन्द्र है और वे प्रमेयकमल मार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के ही कर्ता मालूम होते हैं। क्योंकि इसके प्रारंभमें ही यह कहा गया है कि अनेकान्तकी चर्चा उक्त दोनों ग्रन्थों में की गई है, इसलिए यहाँ नहीं करते । अवश्य ही इसमें उन्होंने अपने ही अन्धोको देखनेके लिए कहा है, "अथ कोऽयमनेकान्तो मामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यासामान्याधिकरण्याविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासाबनेकान्तः, अनेकान्तात्मक इत्ययः । तत्र छ प्रतिष्ठितमिथ्याविकल्पकल्पिताशंषविप्रतिपत्तिः प्रत्यचा. दिप्रमायमेव प्रत्यस्तमयतीसिं (1) सद्धिततया तदात्मकरवं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानदिश्च यथा सिधति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयक्रमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रतिरूपितमिह दृष्टश्यम् ।"
इसके मंगलाचरण में पूज्यपाद और अकलंकको नमस्कार किया गया है।
३-पंचवस्तु-भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटप टमैं इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एक ३००-- ४०० वर्ष पहलेकी लिस्त्री हुई है और बहुत शुद्ध है और दूसरौः संवत् १६२० को । पहलीपर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय श्रादि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुआ है--"कृतिरियं देवनद्याचार्यस्थ परचादिमयनस्य पछ|| शुभं भवतु लेखकपाठकयोः 11 श्रीसंघस्य ।।"
दूसरी प्रति स्नकरण्डश्रावकाचारक्चनिका आदि अनेक भाषाग्रन्यों के रचविता सुप्रसिद्ध पण्डित सदासुखजीके हाथकी संवत् १९१० की लिखी हुई है।
___ यह टीका प्रक्रिया-बद्ध है और बड़े अच्छे दंगसे लिची गयी है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० के लगभाग है। प्रारंभके विद्यार्थियों के लिए बड़ी उपयोगी है।
___ इस ग्रन्यके श्रादि-अन्तमैं कहीं भी कर्ताका नाम नहीं है । केवल एक जगह पाँचवें पत्रमें नाम अाया है, जिससे मालूम होता है कि इसके रचयिता श्रुतकीर्ति है ।
१. नमः श्रीवर्धमानाय महत्ते देवनन्दिने | प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ।। २. नं० १०५६ सन् 158-की रिपोर्ट ।
३. नं० ५६० सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट । इस ग्रन्थकी यक प्रति परतापगढ़ (मालया ) के पुराने दि. जैनमन्दिरके भंडार में भी है। देखो जैनमिन ता. २६ अगस्त १३१५ ।
४. अब्दे नभश्चन्द्राविधिस्थिरांके शुद्ध सहय॑म (१) युक् चतुर्थ्याम् ।
सत्प्रक्रियावन्धनिबन्धनेयं सद्बस्नुवृतीरवनात्समामा (1)॥ श्रीममराणामधिपेशराजि श्रीरामसिंहे विलसत्यलेरिख । श्रीमद्धेनेह सदासुखेन श्रीयुक्फतेवालनिजात्मबुद्धप ।। शब्दीयशास्त्रं पठितं न यस्तैः स्वदेहसंपाखनभारभिः । किं दर्शनीय कमनीयमेतत् वृथांगसंधावपलापवह्निः ।। यह प्रति भी प्रायः शुच है।
५. याम वैर-वर्ण-कर-थरणादीनां संधीना बहुनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः संपृच्छति स्म । कस्सन्धिरिति ।
संज्ञास्वरप्रकृतिहरूजविसर्गजन्मा संधिस्तु पंचक इतीस्थमिहाहुरन्थे । तन स्वरप्रकृतिहरुजविकरुपतोऽस्मिन्संधि त्रिधा कपयति श्रुतकीसिरायः ।।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
कनड़ी भाषाके चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थ के कर्ता अग्गल कचिने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बतलाया है - " इदु परमपुरुमा कुल भूभृत्समुद्भूतमवचनसरित्सरिनाथ - घुसकीर्तित्रैविद्यच कतिपदपद्म निधानदीपवर्तिश्री मदग्गलदेव विरचिते ६न्द्रनवर "इत्यादि। और यह चरित शक संवत् २०११ ( वि० सं० १९४६ ) मैं बनकर समास हुआ है । अतएव यदि श्रुतकीर्ति और श्रुतकीर्ति त्रैविद्य चक्रवर्ती एक ही हो तो पंचवस्तुको भीमनन्दि महावृत्तिके पीछेकी - विक्रमकी चारहवीं शताब्दि के प्रारंभकी- रचना समझना चाहिए। नदिसंघको गुर्वावली में श्रुतकीर्तिको वैयाकरण - भास्कर लिखा है ।
२६
१--- लघुजैनेन्द्र-इसको एक प्रति अंकलेश्वर ( भरोच) के दिगम्बर जैनमन्दिर में है और दूसरी अधूरी प्रति परतापगढ़ ( मालवा ) के पुराने दि० " जैनमन्दिर में । यह अभयनन्दिकी वृत्तिके आधार से लिखी गई है। पद्धित माचन्द्रजी विक्रमकी इसी बीसवीं शताब्दिमें हुए हैं। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और भाषामै कई ग्रंथ लिखे हैं ।
५ - जैनेन्द्र- प्रक्रिया – यह पं० वंशीधरजी न्यायतीर्थं न्यायशास्त्रीने हाल ही लिखी है। इसका केवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है।
शब्दार्णवकी टीकाएँ
जैनेन्द्र सूत्र- पाठके संशोधित परिवर्तित संस्करणका नाम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका है - शब्दाव है। इसके कर्ता गुणनन्दि हैं। यह बहुत संभव है कि सूत्र पाठ के सिवाय उन्होंने इसकी कोई टीका या वृप्ति भी बनाई हो जो कि उपलब्ध नहीं है।
1
नन्दि नामके कई विद्वान् हो गये है। एक गुणनन्दिका उल्लेख श्रवणगोल ४२ ४३ और ४७ वें नम्बरके लिखालेखों में मिलता है। ये बलाकपिच्छके शिष्य और गृध्रपिच्छके प्रशिष्य थे । तर्क, व्याकरणा और साहित्य शास्त्रों के बहुत बड़े विद्वान् थे । इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें ७२ शिष्य सिद्धान्तशास्त्री थे । श्रादि पंपके गुरु देवेन्द्र भी इन्हींके शिष्य थे। कर्नाटक- क. विचरित के कर्ताने इनका समय वि० संवत् ६५७ निश्चय किया है। क्योंकि इनके प्रशिष्य देवेन्द्र के शिष्य आदि का जन्म वि० सं० ६५६ में हुआ था और उसने ३६ वर्षकी अवस्थामै अपने सुप्रसिद्ध कनड़ी काव्य भारतचम्पू और श्रादिपुराण निर्माण किये हैं । हमारा अनुमान है कि ये हो गुणनन्दि शब्दाविके कर्त्ता है ।
चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्ता वीरनन्दिका समय शक संवत् ९०० के लगभग निश्चित होता है । क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथ चरितमें उनका स्मरण किया है और बीरनन्दिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार
१. चिद्यः श्रुतकीत्यख्यो वैयाकरणभास्करः ।
२. देखो जैन मित्र सा० २६ अगस्त २६१५ |
३. महावृति शुंभत्सकल मुधपूज्य सुखकरी, विलोक्यज्ञानप्रभुविभयन न्दिप्रवहिताम् ।
अनेकैः सच्छुदैर्भमविगतकैः संदभूतां (१) प्रकुर्वेऽहं (टीकां ) तनुमतिमहाचन्द्रविबुध: ( ? ) ||
४. जैनेन्द्रकी एक टीका प्रक्रियावतार नामकी और है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र हैं। डिस्क्रिप्टिव कैटलाक
ture दि ० ० गवर्नमेण्ट ओरियन्टल मेनु० लायबेरी मद्रास, घोल्यूम III में उसका परिचय दिया हैसर्वशाय नमस्तस्मै वीतश्लेशाय शान्तये । येन भव्यात्मनश्चेत स्तमस्तां मश्चि कित्सितः || किं वाचतुरानः किमथवा वाचस्पतिः किं न्त्री, विद्यानां विभवात्सहस्रवदनस्सानादनन्तः किमु । इथे संसदि साधयः समुदितात्संशेरते सादरं विद्वत्पुङ्गवनेमिचन्द्रभवति व्याख्यानमातन्वति ॥ ५. च्चियो गुणनदिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः, सर्फयाकरणादिशास्त्रनिपुषः साहित्यविद्यापतिः । मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरबा संघातकण्ठीरवो, भव्याम्भोज दिवाकरो विजयतां कन्दर्पदः ॥
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण है-१ श्री गुणनन्दि, २ विबुध गुणनन्टि, ३ अभयनन्दि और ४ वीरनन्दि | यदि पहले गुणनन्दि और वीरनन्दिके बीच में हम ७८ वर्षका अन्तर मान ले, तो पहले गुण नन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५.७ के लगभग आ जायगा । इससे यह निश्चय होता है कि बीरनन्दिको गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदि पम्पके गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे।
गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] में हुए हैं जो मेषचन्द्र विद्यके गुरु थे।
शब्दार्णवकी इस समय दो टीकाएँ उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातनजैन ग्रन्थमालामें छप चुकी है१-शन्दार्णवचन्द्रिका, और २-शब्दाव प्रक्रिया ।
१-शब्दार्णव-चन्द्रिका-इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूट में है। यह ताइपत्रपर नागरी लिपिमैं है। इसके श्रादि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं। छपी हुई प्रतिमें जो गद्य-प्रशस्ति है, वह इसमें कहा है और अन्य कोक हे मी पूरा नहीं पढ़ा जाता
इन्द्रश्चन्द्रः शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यस्प्रोवाचापिशलिस्मरः काशकृत्स्न""""शब्दपारायणस्येति ।
इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं । ये शिलाहार बंशके राजा भोजदेव [द्वितीय के समयमै हुए हैं और अर्जु रिका मामक प्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिरमैं-जो कि महामण्डलेश्वर गंहरादित्यदेवका बनवाया हुआ था। इसे शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२७२] में बनाया है । यह ग्राम इस समय अाजरें नामसे प्रसिद्ध है और कोल्हापुर राज्य में है। वादीभवनांकुश श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयामृत्यसे इस अन्यकी रचना हुई है।
इस अन्धके मंगलाचरण के पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और सोमदेव ये विशेषण वीर भगवान् को दिये हैं और दूसरे श्लोकमें कहा है कि यह टीका मूलसंधीव मेघचन्द्र के शिष्य नागचन्द्र (भुजंगसुधाकर) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई गई ।
गुणनन्दिकी प्रशंसा चुरादि धातुपाठके अन्तमें भी एक पद्यमें की गई है, जिसका अन्तिम चरण यह है"शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिप्रतीशस्सुसौख्यः ।" इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दिको शब्दार्णव व्याकरण का फर्ता ही प्रकट किया गया है।
ये मेधचन्द्र आचारसारके कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु ही मालूम होते हैं। इन्हें श्रवणबेलगोलके नं. ४७ के शिलालेख में सिद्धान्तद्धतामें जिनसेन और वीरसेनके सदृश, न्यायमैं अकलंकके समान और व्याकरणमें साक्षात् पूज्यपादसदृश बतलाया है। श्रवणबेल्गोलके नं० ५० और ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६८ [वि० सं० १२०३] में हुआ था। इसके सिवाय उनके दूसरे शिष्य प्रभाचंद्रदेवने शक सं० १०४१ [वि० सं० ११७६ ] में एक महापूजाप्रतिष्ठा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिका मेषचन्द्र के प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शफ सं० ११२७ [वि० सं० १२६२] में बनाई थी, तब मेघचन्द्रका समय वि० सं० १९४२ के लगभग माना जा सकता है।
1.नं. २५ सन् १८८०-5 की रिपोर्ट । २. श्रीपूज्यपादममवं गुणमन्दिदेवं सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् । __ सिद्धं समुन्नतपदं धूपभं जिनेन्द्र सच्छब्बलक्षणमहं धिनमामि वीरम् ॥ १ ॥ ३. श्रीभूनसंघजलजप्रतिबोधभानोमधेन्दुदीक्षितभुजङ्गसुधाकरस्य ।
राहाम्ततोयनिधिजिकरस्य पुसि भे हरीदुपतये घरदारिताय ॥२॥
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् नागचन्द्र नामके दो विद्वान हो गये हैं, एक पम्प रामायणके कर्ता नागचन्द्र जिनका दूसरा नाम अभिनव पम्प था, और दुसरे लब्धिसारटीकाक्रे कर्ता नागचन्द । पहले गृहस्थ थे और दूसरे मुनि । अभिनव पम्पके गुरुका नाम बालचन्द्र था जो मेषचन्द्र के सहाध्यायी थे और दूसरे स्वयं बालचन्द्र के शिष्य थे। इन दूसरे नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्र के लिए, यह वृत्ति बनाई गई है। इन्हें जो 'राधान्तसोयनिधिवृद्धिकर' विशेषण दिया है उससे मालूम होता है, कि ये सिद्धान्तचक्रवर्ती या टीकाकार झेंगे।
२-शब्दार्णव-प्रकिया यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके नामसे छपी है, परन्तु वास्तवमें इसका नाम शब्दारणव-प्रक्रिया ही है । हमें इसकी कोई इस्तलिखित प्रति नहीं मिल सकी। जिस तरह अभयनन्दिको वृत्तिके वाद उसीके आधारसे प्रक्रियारूप पंचवस्तु टोका बनी है, उसी प्रकार सोमदेवकी शब्दार्णव-चन्द्रिकाके बाद उसीके आधारसे यह प्रक्रिया बनी है। प्रकाशकोंने इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि प्रकट किया है। परन्तु जान पड़ता है कि इसके अन्तिम श्लोकमै गुणनन्दिका नाम देखकर ही भ्रमवश इसके कर्ताका नाम गुणन्दि समझ लिया है।
इनमेंसे पहले पद्यसे यह स्पष्ट है कि गुणनन्दिके शब्दार्णवके लिए यह प्रक्रिया नायके समान है और दूसरे पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुण नन्दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहें। यदि इसके कर्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो स्वयं ही अपने लिए, यह कैसे कहते कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहे ? अतः गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वे श्रद्धास्पद समझते हैं ।
तीसरे पद्यमें भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे मेरे मनरूप मानसरोवरमें राजहंसके समान चिरकालतक विराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्ता अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे अतिकीर्तिदेवके कोई शिष्य होंगे और संभवतः उन अतिकीर्तिके नहीं जो पंचवस्तुके कर्ता है। ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके कर्तासे पृथक जान पड़ते हैं। क्योंकि इन्हें प्रक्रियाके कर्ताने 'कविपति' बतलाया है, व्याकरणज्ञ नहीं। ये वे ही श्रुतिकीर्ति मालूम होते हैं जिनका समय प्रो. पाठकने शक संवत् १०४५ या वि० सं० ११८० बतलाया है । श्रवणबेल्गोलके जैन गुरुयोने 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य' का पद शक संवत् १०३२ के बाद धारण किया है और पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पुत्र थें । श्रवणबेलगोलके १०८ वें शिलालेखमें इनका जिक्र है और इनकी बहुत ही प्रशंसा की गई है।
प्रक्रियाके कर्त्ताने इन्हें भट्टारकोप्तम और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेखमें भी भट्टारकति लिखा है। अतः ये दोनों एक मालूम होते हैं । आश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति पण्डि. ताचार्य ही इस प्रक्रियाके कर्ता हो ।
१. छपी हुई प्रति के अन्तम "इति प्रक्रियावत्तारे कृद्विधिः समाप्तः। समाप्तेयं प्रक्रिया ।" इस तरह छपा है । इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र-प्रक्रिया नहीं जान पड़ता ।। २. सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनामोन्नतं नितिं बहुत हितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयं नावित्याश्रयता विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रकिया ।।। दुरितमभनिशुम्भकुम्भस्थलभेदनसमोग्रनखैः । राजन्मृगाधिराजो गुणनम्दी भुधि चिरं जीयात् ॥२॥ सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सदने दिग्बासस्सु चरित्रवानमलकः कान्तो विवेकी प्रियः । सोऽयं यः श्रुतकीर्ति देवयतिपो भद्वारको संसको रंरम्यान्मम मानसे कविपतिः सदाजहंसश्विरम् ॥३॥ ३. देखो 'सिस्टिम्स आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ट ६७ । ५. देखो 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २० । ५. तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । सिद्धशासनवर्धनप्रतिक्षधकार्तिकालापकः ॥२२॥ विश्रुतश्रुतकीर्तिभद्वारफयतिस्समजायत । प्रस्फुरदचनामृतांशुविनाशिताखिलाह तमाः ॥२३॥
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
देवनन्दिका समय
देवनन्दिने अपने किसी ग्रन्थ में न तो कोई रचना तिथि दी है और न अपनी गुरुपरम्परा | इसलिए उनके समयका निर्णय उनके ग्रन्थोंके उल्लेखों तथा दूसरे साधनों से ही करना पड़ेगा ।
२९
जैनेन्द्र व्याकरणके ‘बेलेः सिद्धसेनस्य' [५-१-७ ] सूत्र सिद्धसेनका मत दिया है और प्रज्ञाचतु पं० सुखलालजीने सिद्धसेनका समय दिक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है। उनके लेखका सारांश आगे दिया जाता है—
"जैसलमेर के जैन मएद्वार में विशेषावश्यक भाष्यकी जो श्रतिशय प्राचीन प्रति मिली है उसके अंत में ग्रन्थकार जिनभद्र गणिने स्वयं ही ग्रन्थ-रचना-काल दिया है। और उसके अनुसार उक्त ग्रन्थ वि० सं० ६६६ मैं वल्लभी में समाप्त हुआ है। उन्होंने अपने इस विशेषावश्यक भाष्य में और द्वितीय लघुग्रन्थ विशेषावती में सिद्धसेन श्रौर मल्लवादिके उपयोगाभेद-वादको विस्तृत समालोचना की है। मल्लबादि सिद्ध सेनके सन्मतितर्क के टीकाकार हैं। इससे सिद्ध होता है कि मल्लवादि और सिद्धसेन जिनभद्रगणिते क्रमशः पूर्व और पूर्वतर हैं। मल्लवादिके विनष्टमूल द्वादशार नयचकके जो प्रतीक उसके विस्तृत टीका ग्रन्थ में मिलते हैं उनमें सिद्धसेन दिवाकरके उल्लेख तो हैं, परन्तु जिनमद्रगणिके नहीं है। इससे फलित होता है कि मल्लवादि बिनभद्र से पहले हुए हैं और मल्लवादिने सिद्धसेन के सम्पतितर्कपर टीका लिखी थी, उसका निर्देश आचार्य हरिभद्रने किया है। अतः यह सिद्ध है कि सिद्धसेन मल्लवादिसे पहले हुए हैं। इसलिए मल्लवादिको विक्रमकी छठी शताब्दि के पूर्वार्ध में माना जाय, तो सिद्धसेनका समय पाँचवीं शताब्दि ठीक लगता है ।
"सिद्धसेन के मत के अनुसार 'विद्' धातुमें 'र' का आगम होता है, भले ही वह सकर्मक हो । उनकी नवीं द्वात्रिंशतिका के २२ पथ में 'र' श्रागमवाला 'विद्वते' प्रयोग मिलता है । अन्य वैयाकरण 'सम्' उपसर्गपूर्वक कर्मकविद् धातुमें 'र' आगम मानते हैं जब कि सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक बिद् धातुमें 'र' श्रागमबाला प्रयोग किया है। इसके सिवाय पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि टीका के [श्र० ७ सूत्र [१३] में सिद्ध सेन की तीसरी द्वात्रिंशिका १६ वें पाको 'उक्तं च' शब्दके साथ “वियोजयति वासुभिर्न वधेन संयुज्यते" पंक्ति उत की हैं। द्वात्रिंशिका में यह पूरा पत्र इस प्रकार है
वियोजयति वासुभिर्न वधेन संयुज्यते शियं च न परोपम [प] रुस्मृतेर्विद्यते । बधायतनमभ्युपैति परान निघ्नमपि स्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रथ[स] महेतुरुद्योतितः ॥ १६॥
"पूज्यपाद देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध माना जाता है । परन्तु मेरी समझ मैं अभी इसपर और भी गहराई से विचार होने की जरूरत है । यदि सिद्धसेनको देवनन्दिते पूर्ववर्ती अथवा उनका वृद्धसमकालीन माना जाय, तो भी उनका समय पाँचषीं शताब्दिले अर्वाचीन नहीं जान पड़ता ।”
सिद्धसेन से देवनन्दि कितने बाद के हैं, इसका निर्णय करनेके लिए देवसेन के दर्शनसार से भी कुछ सहायता मिल सकती है। यह ग्रन्थ उन्होंने वि० सं० १६० में धारानगरी में निवास करते हुए पूर्वाचार्यकी बनाई हुई गाथाओं का एकत्र संचय करके - 'पुण्याहरियकयाई गाहाई संचिया एत्थ' लिखा गया है। अर्थात् इस ग्रन्थको गाथाएँ देवसेनसे भी पहले की हैं और इस दृष्टिसे उनकी प्रामाणिकता अधिक है। उसके अनुसार श्री पूज्यपाद का शिष्य पाहुडवेदि बज्रानन्दि द्राविड संघका कर्ता हुआ और तब दक्षिण मथुरा [ मदुरा ] मैं
१ देखो भारतीय विद्या, भाग ३, अंक ५ में 'श्री सिद्धसेन दिवानां समयनी प्रश्न' शीर्षक लेख ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
वि० [सं० ५२६ | यह महामाती संघ उत्पन्न हुआ । बज्रनन्दि चूँकि देवनन्दिके शिष्य थे, इसलिए इस संघ स्थापना काल के लगभग या दस बीस वर्ष पहले देवनन्दिका समय माना जा सकता है। सिद्धसेन के पूर्वोक्त निश्चित किये हुए समय से भी यह असंगत नहीं जान पड़ता ।
पं० युधिष्ठिर मीमांसकने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास" लिखा है । उन्होंने जैनेन्द्र के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्रपरसे अनुमान किया है कि सिद्धसेनका कोई व्याकरण मन्थ अवश्य होगा। उज्ज्वलदत्तकी उणादि सूत्रवृतिमैं 'क्षपणक' के नामसे एक ऐसा सूत्र उद्धृत है जिससे प्रतीत होता है कि क्षपणकने भी उणादि सूपर कोई व्याख्या लिखी थीं और उससे यह भी संभावना होती है कि क्षपकने अपने शब्दानुशासनपर भी कोई वृत्ति रत्री होगी। मैत्रेयरक्षितने तंत्रप्रदीपमें भी क्षपाकके व्याकरणका उल्लेख किया है
1
बहुतसे विद्वानोंकी राय है कि ज्योतिर्विदाभरण में बतलाये हुए विक्रमके नौ रत्नों में जो क्षपणक है, सिद्धसेन है और गुप्तवंश के चंद्रगुप्त (द्वितीय) ही विक्रमादित्य हैं। इतिहासज्ञ विर्मेंट स्मिथ के अनुसार चन्द्रगुप्तका समय वि० सं० ४३२ से ४७० तक है और इस तरह सिखेनका समय जो पं० सुखलाल जी ने विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है, और भी पुष्ट हो जाता है ।
द्देन्चुरुके श्वानपत्रमैं गंगबंशी महाराजा श्रविनीत के पुत्र दुर्विनीत को "शब्दावतारकारः देव भारती निबद्धबृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः " ये तीन विशेषण दिये हैं जिनका अर्थ होता है - शब्दावतार के कर्ता, पैशाचीसे संस्कृतमैं गुणाढ्य की वृहत्कथाको रचनेवाले और किरातार्जुनीय काव्य के पन्द्रह सगों के टीकाकार | इन विशेषणों में कोई ऐसी बात नहीं जिससे यह प्रकट हो कि देवनन्दि दुर्विनीतके शिक्षागुरु थे या उनके समकालीन थे | परन्तु चूंकि शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुकेके ४६ शिलालेख में पूज्यपादको पाणिनीयके शब्दतारका कर्ता बताया है, इसलिए दुर्विनीत के साथ लगे हुए "शब्दावतारकार" विशेषण से कुछ विद्वानोको भ्रम हो गया और दोनोंको समकालीन समर शिया सम्बन्ध खड़ा कर दिया है। दुर्विनीता राज्यकाल वि० सं० ५३९ से शुरू होता है, इसलिए इसीके लगभग पूज्यपादका समय मान लिया गया, परंतु मैसूरके आस्थान विद्वान् पं० शान्तिराज शास्त्रीने भास्करनन्दिकृत तत्त्वार्थटीकाको प्रस्तावना में इस भ्रमको स्पष्ट कर दिया है। इसलिए भले ही पूज्यपाद देवनन्दि दुर्विनीतके राज्यकाल में रहे हो, परन्तु केवल इस दानपत्र से वह सिद्ध नहीं किया जा सकता |
चैनेन्द्र व्याकरणके एक और सूत्र “चतुष्टयं समन्सभद्रस्य” [ ४-४- १४०] में सिद्ध सेनके ही समान श्राचार्य समन्तभका उल्लेख है, जिससे समन्तभद्रका देवनन्दिते पूर्ववती होना सिद्ध होता है, परन्तु साथ ही
१. सिरिपुज्नपादांसो विसंघस्स कारणो दुट्टो । णामेण षज्जणंडी पाहुडवेड़ी महासतो || पंचसए से विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दविणमहुरा-जादो दाविवसंचे महामोहो ।।
२. प्रकाशक- भारतीय साहित्यभवन, नवाबगंज, दिल्ली ।
३. धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशं कुबेताल भट्टघट परकालिदासः । व्यासो वराहमिहरो नृपतेः समायाः रत्नानि वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥
४. मैसूर पुण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम भाग पृ० ३७३.
५. इस शिक्षालेखका वह 'न्यास जैनेन्द्रसंतं' आदि पद्य इसके पहले पृष्ठ ३३ पर उद्धृत किया है । ६. बौद्धाचार्य कीर्तिने "समन्तभद्र" नामका एक व्याकरण जिला था और चन्द्रकीर्ति धर्मकीर्तिले भी पूर्ववर्ती है । १४ वीं शताब्दिमें लिखे हुए बौद्ध धर्मके इतिहास से जो तिब्बती भाषा में है, और जिसका
दलसुख मालवणिया ने अपने एक
अंग्रेजी अनुवाद हो गया है इस बातकी सूचना मिलती है। पं० श्री पत्रमें मुझे यह लिखा है ।
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मेघनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
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सर्वार्थसिद्धि टीका 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' यादि
पर समाधानामय अन् लिखा है। इससे जान पड़ता है कि दोनों समकालीन एक दूसरेका आदर करनेवाले हैं और एक दूसरेके ग्रन्थोंसे सुपरिचित होने के कारण ही यह संभव हुआ है कि देवनन्दि अपने जैनेन्द्र व्याकरण में समन्तभद्र का व्याकरणविषयक मत देते हैं और समन्तभद्र देवनन्दिकी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरणपर अपनी आस मीमांसा निर्माण करते हैं ।
आचार्य विद्यानन्द ने अपनी प्राप्त परीक्षा के अन्त में लिखा है
श्रीमत्तस्वार्थशास्त्राद्भुत सलिलनिधेरिद्वरस्नोद्भवस्य प्रोस्थानारम्भकाले सकलमलमिदे शास्त्रकारः कृतं यत् ।
स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितयशं स्वामिमीमांसितं तत्,
विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै ।। १२३ ।।
अर्थात् प्रकाशमान रत्नों के उद्भवस्थान तत्वार्थशास्त्र रूप अद्भुत समुद्रके उत्थान या बढ़ाय आरम्भकालमै शास्त्रकार ( देवनन्दि ) तीर्थके तुल्य जो प्रसिद्ध और श्रुति यशस्वी स्तोत्र ( मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि) बनाया और जिसकी स्वामि ( समन्तभद्र ) ने मीमांसा की, उसीका अपनी शक्ति के अनुसार सत्यवाक्यार्थसिद्धि के लिए विधानन्दने बड़े आदर के साथ कथन किया । इसमें यह बिकुल स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि 'मोतमार्गस्य नेता' इस मंगलाचरण पर हो मीमांसा रची गई है और उसपर विद्यानन्द परीक्षा ( आसपरीक्षा ) लिखते हैं ।
परन्तु उक्त पद्य में जो 'शास्त्रकारैः पद पड़ा हुआ है, उसपर एक बड़ा भारी विवाद खड़ा कर दिया गया है और उसका अर्थ किया जाता है- तत्वार्थसूत्रकार उमास्वाति जय कि वास्तवमै मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धिका है। मूल तत्रार्थसूत्रका नहीं। क्योंकि यदि यह मंगल्यचरण तत्वार्थसूत्रका क्षेता तो उसकी टीका सभी दिगम्बर श्वेताम्बर टीकाकार जो प्राचीन हैं - श्रवश्य करते' । और कोई न करता तो देवनन्दि पूज्यपाद तो [सर्वार्थसिद्धि] अवश्य करते । सर्वार्थसिद्धि टीकाका पहला संस्करण स्व० पं० कलाप भरमाप्पा निटवेने प्रकाशित किया था। उसमें इसे टीका मंगलाचरणके रूपमें ही दिया है और भूमिकामैं भी उन्होंने इसे टीकाका ही बतलाया है। शोलापुरके पं० वंशीधरजी शास्त्रोके संस्करण में भी वह टीकाका है और यह संस्करण उन्होंने गरेकी तीन प्राचीन प्रतियोंके आधारसे सम्पादित किया है। उसकी एक प्रतिको तो वे ५०० वर्ष पुरानी बतलाते हैं। अकलंकदेव और विद्यानन्द ने भी राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक इसकी टीका नहीं की है, श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन और हरिभद्र आदिने भी नहीं की । तत्त्वार्थसूत्रपाठ [मूल] की भी अधिकांश लिखित प्रतियाँ इस मंगलाचरण से रहित हैं । सनातन ग्रन्थमाला प्रथम गुच्छक, जैननित्यपाठ संग्रह श्रादि मुद्रित प्रतियों में भी यह नहीं है । तत्त्वार्थसार में भी, बो तत्त्वार्थका एक तरहसे पल्लवित पद्यानुवाद है, अमृतचन्द्रने इस मंगल पथका अनुवाद नहीं किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धि टीका कर्ता पूज्यपाद देवनन्दिका है, इसीपर समन्तभद्रने श्राप्तमीमांसा और विद्यानन्दने आप्त परीक्षाको रचना की ।
३. दिगम्बर टीकाकारोंमें श्रुतसागर और भास्करनन्दिने 'मोतमार्गस्य' श्राविकी टीका की है। इनमें श्रुतसागर विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि के अन्तमें हुए हैं और भास्करनन्दि १३-१४ वीं शताब्दि ।
२. जिन पोथियों या गुटकों में मूल तत्वार्थसूत्र लिखा मिलता है, उसमें इस मंगलाचरणकं साथ ही प्रायः "कायषट्क" आदि संस्कृत पथ और भगवती आराधना के प्रारम्भकी 'सिव जयस्य सिद्ध' आदि दो गाथाएँ भी लिखी रहती हैं और उनके बाद 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोजमार्गः शुरू होता है । वास्तव से जो लोग नित्यपाठ करते हैं, उन्होंने यह परम्परा चला दी है।
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सैनेन्द-च्याकरणम् अतएव समन्तभद्र और देवनन्दि छठी शताब्दिके हैं और समकालीन हैं। सिद्धसेन उनके पूर्ववती हैं।
जैनेन्द्रोक्त अन्य प्राचार्य पाणिनि अादि बयाकरणों ने जिस तरह अपने से पहले के वैयाकरणों के नामों का उल्लेख किया है, उसी तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे पूर्वाचार्यों का उल्लेख मिलता है
राद् भूतमलेः [३-४-८३], २ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् [:-४-३४], ३ कृवृषिमुजां यशोभद्रस्य [२-५-१६, ४ रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [५-३-१८०], ५ वेत्ते सिन्द सेनस्य [५-१-७], ६ चतुष्टयं समन्तभवस्य [५-४-१४०] ।
जहाँतक हम जानते हैं इन छहों आचार्यों से शायद किसीने भी कोई व्याकरण अन्य नहीं लिखा है | इनके ग्रन्थोमैं कुछ भिन्न तरहके शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्हीको लक्ष्य करके उक्त सब सूत्र रचे गये हैं। शाकटावनने भी इसीका अनुकरण करके तीन प्राचार्योक मत दिये हैं।
१-भूतबलि-भूतबलिका टीक-ठीक समय निश्चित करना कठिन है। इतना ही कहा जा सकता है कि वे बीर नि० सं० ६८३ के बाद हुए हैं।
२-स्वामी समन्तभद्र' और ३-सिद्धसेन प्रसिद्ध है।
४-श्रीदत्त-विद्यानन्दने अपने तत्वार्यश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'इल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है । मालूम होता है कि ये बड़े भारी वादि-विजेता थे। श्रादि पुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने भी इनका स्मरण किया है । संभव है ये श्रीदत्त दूसरे हों और जल्प-निर्णयके कर्ता दूसरे, तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख छैनेन्द्र में किया गया हो।
५-यशोभद्र-आदिपुराणमें यशोभद्र का स्मरण करते हुए कहा है कि विद्वानों की सभामैं बिनका नाम कीर्तन सुननेसे ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता है।'
६-प्रभाचन्द्र-आदिपुराणमें जिनसेन स्वामीने प्रमाचन्द्र कविकी स्तुति की है, जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना की थी। हरिवंशपुराणमें भी इनका स्मरण किया गया है। ये कुमारसेनके शिष्य थे।
उपलब्ध ग्रन्थ जैनेन्द्रके सिवाय पूज्यपादले केवल पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं।
१-सर्वार्थसिद्धि-प्राचार्य उमास्वातिकृत तत्वार्थसूत्रपर दिगम्बर सम्प्रदायकी उपलब्ध टीकाओं में सबसे पहली टीका।
२-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, इसलिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं।
३-इयोपदेश-यह केवल ५१ श्लोकौका छोटा-सा ग्रन्थ है। पं. अशाधरने इसपर एक संस्कृत टीका लिखी है।
४-दशभक्ति [ संस्कृत ]-प्रभाचन्द्राचार्यने अपने क्रियाकलापमें इसका कर्ता पूज्यपाद या पादपूज्यको बतलाया है। परन्तु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
. १-२. इसके लिए प्रो० हीरालालजीकी धवलाकी 'भूमिका' और पं. जुगलकिशोरजा मुख्तारका 'स्वामी स्मन्त भद्र' देखिए।
३. द्विप्रकारं जगौ जल्पं तरव-प्रातिभगोचरम् । निषष्टे दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये । १. श्रीदसाय नमस्तस्मै तपाश्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवाषितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४५॥ ५. विदुश्विणीषु संसस्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखषयत्ति नद्गर्ष यशोभद्रः स पातु नः ॥४६॥
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण ५-सिद्धप्रियस्तोत्र-निर्णयसागरको काव्यमाला सितमगुच्छ] में उप चुका है। २६ पद्योंमें चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति है।
अनुपलब्ध ग्रन्थ शब्दावतार न्यास और जैनेन्द्र न्यास--पूज्यपादका पाणिनि व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामका न्यास है और जैनेन्द्र पर स्वोपश न्यास भी है।
वैद्यक प्रन्य-शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवके 'अपाकुर्वन्ति' श्रादि श्लोकके 'काय' शब्दसे ध्वनित होता है कि पूज्यादका कोई वैद्यक ग्रन्थ होगा।
सार-संग्रह मला [ग : ९० ६i] के एक उद्धरणके आधारसे 'सारसंग्रह' नामक एक और ग्रन्थके होनेका अनुमान है-“तथा सारसग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपाद। अनन्तपर्यायास्मकस्य वस्तु नोऽन्यत्मपर्यायाधिगमे कर्तव्ये आत्महत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।" यह कोई न्याय या सिद्धान्तका ग्रन्थ जान पड़ता है। उक्त वाक्यका 'पूज्यपाद' किसी अन्य पूज्य आचार्यका विश्वेषण भी हो सकता है ।
'जैनाभिषेक' नामके एक और ग्रन्थका जिकर श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ४० के 'जैनेन्द्रं निजशब्द भागमतुलं' आदि श्लोकमें किया गया है।
इस लेखके लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजय और एं० बेचरदास जीवराजको न्याव-याकरातीर्थसे बहुत अधिक सहायता मिली है। इसलिए इम उक्त दोनों सज्जनौंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। मुनि महोदयकी कृपासे हमको जो साधन सामग्री प्रास हुई है यदि न मिलती तो यह लेख शायद ही इस रूपमे पाठकों के सम्मुख उपस्थित हो सकता।
परिशिष्ट १
पूज्यपाद-चरित कनड़ी भाषाके हस चरितको चन्द्रय्य नामक कविने जो कारक देशके मलयनगरको 'ब्राह्मणगली' के रहनेवाले थे । दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें समाप्त किया है। चरितका सारांश यह है
1. अपाकुर्वन्ति यवाचः कायवाचितसम्भवः । कलङ्कमसिन सोध्यं देवनन्दी नमस्यते ।।
पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्य टमें 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ है, परन्तु वह आधुनिक कनड़ीमें लिखा हुआ कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है। उसमें न कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न वह उनका बनाया हुआ है। “वैद्यसार' नामका एक और अन्य अभी जैन-सिद्धान्त-भास्कर में प्रकाशित हुआ है, पर वह भी उनका नहीं है।
विजयनगरके राजा हरिहरके समय में एक मंगराज नामके कनड़ी कवि हुए हैं। वि० सं० १४१६ के लगभग उनका अस्तित्व-काल है। स्थावर विषोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उनका खगेन्द्रमणिदर्पण नामका ग्रन्थ है। वे उसमें अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाते हैं और यह भी कि यह ग्रन्थ पूज्यपाद वैद्यक अन्यसे संगृहीत है । अभी हाल ही शोलापुरसे उमादित्याचार्यका 'कल्याणकारक' नामका ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। उसमें भी अनेक जगह 'पूज्यपादेन भाषितः कहकर पूज्यपादके घेचक ग्रन्थका उल्लेख किया गया है। उमादित्य राष्ट्रकूट अमोधवर्षके समयके बतलाये गये है, परन्तु हमें इसमें सन्देह है। उसकी प्रशस्तिकी भी बहुत-सी बातें सन्देहास्पद है जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है।
२. इसके लिए प्रो. हीरालालजी जैन लिखित धवला (पुस्तक) की भूमिकाके पृष्ठ ६०-६१ देखिए ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
कर्नाटक देश के 'कोले ' नामक ग्रामके माधव भट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणी से पूज्यपादका जन्म हुआ। ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यवाद रक्खा गया । माघ भने पनी स्त्रीके कहने से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। भट्टनीके सालेका नाम पाणिनि था उसे भी उन्होंने जैनी बनने को कहा, परन्तु प्रतिष्ठा के खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंड ग्राम में वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई, और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुधा ।
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पूज्यपादने एक बगीचे में एक सॉपके मुँहमें फँसे हुए मैडकको देखा। इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये ।
पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरण काल निकट नाया जान कर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने घूरा करना स्वीकार कर लिया ।
पाणिनि दुर्ध्यानवश मरकर सधैं हुए। एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूँगा । इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया।
इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, श्रईत्य तिष्ठा लक्षण और वैद्यक ज्योतिष यादिके कई प्रन्थ रच चुके थे । गुणभ के मर जानेसे नागार्जुन श्रतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावती का एक मन्त्र दिया और सिद्ध करने की विधि भी बता दी । उसके प्रभाव से पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी ।
इस सिद्ध-रस से नागार्जुन सोना बनाने लगा | उसके गर्वका परिहार करनेके लिए पूज्यपादने एक मामी वनस्पति से कई बड़े सिद्ध-रस बना दिया । नागार्जुन जब पर्वतको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरन्द्रपद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेको कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की |
पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जावा करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा करके द्राविड़ संघको स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया। एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई जो गाने नाचने में कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित शे गया । वे वहीं रहने लगीं और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं।
पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देव विमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीथोंकी यात्रा की। मार्गमै एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्योकी त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने आममैं आकर समाधिपूर्वक मरण किया ।
इस वरिपर कोई टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है । इस तरह के न जाने कितने मनगढन्त और ऊलजलूल किस्से हमारे यहाँ इतिहासके नामसे चल रहे हैं ।
परिशिष्ट २ हेम्बूरुका दानपत्र
श्रीमन्माधवमद्दाधिराजः, तस्य पुत्रः श्रविच्छिनाश्वमेघाषभृथाभिषिकः श्रीमष्कदम्बकुलगगनगभस्तिमालिनः श्रीमत्कृष्णा महाराजस्य प्रियभागिनेयः जननीदेवताकपर्यङ्क एवाधिगतराज्यः विह्नकविकाञ्चननिकपोपलभूतः सम्भावनमित समस्तसामन्तमण्डलः अविनीतनामा श्रीमत्कोङ्ग थिमहाराजः तस्य पुत्रः पुनाडराजप्रियपुत्रिकापुत्रः विजभमाण शक्तित्रवोपन मित्तसमस्तसामन्तमण्डलः अन्यर्यालस रुपीरुल रेपेनं गरायनेकसमर
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३५
. देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण मुखमखहुतप्रधानपुरुषपशूपहारः विघसविहस्तीकृतकृसान्ताभिमुखः शब्दावसारकारः देवभारतीनिबद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः दुनिनीतनामा..... -सूर एण्ड कुर्ग गजेटियर, प्रथम पृ. ३७३
परिशिष्ट ३
[भगववाग्वादिनीका विशेष परिचय] इसके प्रारंभमें पहले 'लघमीरात्यन्तिकी यस्य' श्रादि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया था | परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है और उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका लिख दी गई है--
ओं नमः पाश्र्वाय त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनाद्भुतात्मा, विषममपि मघोना पृछता शब्दशास्त्रम् ।
श्रतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दापणीनां परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ।। अष्टवार्षिकोऽपि सधाविधभक्ताभ्यर्थनामांसः स भगवानिई प्राह-सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१।
इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिन में एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणों को अप्रामाणिक ठहराया है
"प्रमाणबदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीतसूयाणि स्यात्कारचादिप्रदरत्या परिवाजकादिभाषितबन् अप्रमाणानि च कपोलकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वात्तदेव ।"
इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और अादिमें इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भगवत्प्रणीत होने में कोई सन्देह बाकी न रह जाय
"इति भगघद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य वितीयः पादः । श्रीनमः पार्याय । स भगवानिदं प्राह।"
सर्वत्र 'नमः पार्थाय लिखना भी हेतुपूर्वक है | अब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान् हैं तब उनके ग्रन्थमैं उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमत्कार किया जा सकता है। देखिए, कितनी दूरतक विचार किया गया है!
श्रा अध्याय २ पाद २ के 'सह वह चल्यपतेरिः' [३४] सूपर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध हैमके अमुक सूत्रको उपपत्ति नहीं बैठ सकती
"इई शब्दानुशासनं भमवकर्तृकमेव भवति । 'सह वह चल्यपतेरिधामकृसृजनमेः कीलिट चवत्-को सासहिचावाहचाचलिपापति, सस्त्रिचाविधिधशिनेमीति सिद्ध हमसूत्रस्थाऽन्यथानुपपत्तेः। शर्ववर्मपाणिन्योस्तु आहवपधालीपिन किट्ठेच, श्रागमहनजनः किकिनी लिट् घेति २।" इसके याद ३-२-२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्पणी दी है
"कथं न मचः प्राग्भरतेष्वादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यानामाश्विन मासमूचिवान् । मैथुनं तु भिवक्तंने बाचक मधुसर्पिषः।।।
इस्यायन्यथानुपपत्तेरिति बौटिकतिमिरोपलक्षणम् ।” इसके बाद ३-४-४२ सूत्र [ स्तेयाहत्यम् ] पर फिर एक टिप्पणी दी है
"इदं शब्दानुशानं भगवत्कर्तृकमेव भवति । अर्हतस्तोन्त च १, सहावा २, सविशिम्भूनाग्रः ३, स्तेनानलुक चे ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादी स्वाहत्यशब्दं प्रति सूत्राभावात् । कथ सरस्वतीकंठाभरणे तदासिः । ऐन्दानुसारादर्हतशब्धयश्चेति पश्य ।
फिर ३-४-४० सूत्र [रानेः प्रभाषन्द्रस्य] पर एक टिप्पणी है। इसमें औटिको या दिगम्बरि मौका सत्कार किया गया है
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
"इथं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । राधेः प्रभाचन्द्रस्य सूत्रस्य प्रक्षेपता स्कुटरबात । अतो योटिक सिमिरोपसणे -
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देवनन्दिमसां मोह प्रक्षेपरजसोऽपि चेत् ।
चिराय भवता रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य जीव्यताम् ॥
पोत्तरः कः स्वचानासीः प्रमेन्द्रोः नग्न यस्य यः [1] | विस्मयो रमयेः शिष्या स तं खेद्देवनन्दिनम् ॥ इति ।
विक्रमातुखयुगाब्दे ४०५ देवनन्दी, तत्तो गुणन न्दि कुमारनंदि-लोक चंद्रानंतरं मुनिरैयुगाब्दे प्रथमप्रभाचन्द्र इति बौटिके ।"
इसी तरह ४०३ - ७ [केसे: सिद्धसेनस्य ] सूत्रपर लिखा है
"वेत्तेः सिद्धसेनस्य बौटिकनिमिरोपलक्षणे । "
चतुष्टयं समंतभद्रस्य प्रक्षेपेऽवस्यता स्फुटत्वात् रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य वदिति
अन्त ५-४-६५ [शको मि] सुपर एक टिप्पणी दी है जिसमें पाणिनि आदि वैयाकरणोंकी - शता सिद्ध की गई है—
"अयोगाशातना माभूदनादिसिद्धा हि प्रयोगाः । ज्ञानिना सु केवलं ते प्रकाश्यन्ते न तु क्रियन्ते इति । अतएव शोटीति पाणिनीयसूत्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वस्य वरपरः शकारखकारं नवेति शर्वत्रर्मकर्तृ कंकालापकसूत्रानुसारि । अत एव पाणिन्यादयोऽसर्वज्ञा इति सिद्धम् । श्रतएव तेषां तवत प्राप्तस्वाभाव इति सिद्धिः । नभ्यः प्रभृतीनिसूत्रे निर्जरसैर्मुख्या यदि युनिस्ते मस्करिणैव भवष्कृतमास्ते न तु सारस्वतवाग्देव्या । शरछोटिप्रमुखैः सूत्रेत छत्रुप्रभृतिपदादर्शी कालापका युपजीवी पाणिनिरजिनत्वं प्रति नाव्यक्तः ।” जहाँ सूत्रपाठ सभास होता है, वहाँ लिखा है :
इत्याख्यद्भगयानार्द्वन्श्रुत्वेन्द्रस्तु मुदं वहन् । वादिवत्राजचन्द्रः स्वमंदिराभिमुखोऽभवत् ।।
आगे अन्य प्रशस्ति देखिए-
"श्रीं नमः सकलकला कौशल पेशखशीलशालिने पाय पार्श्वपादय । स्वस्ति तत्प्रवचनसुधासमुद्रलहरीस्नायिभ्यो महामुनिभ्यः । परिसमाप्तं च जैनेनं नाम महाव्याकरणम् । तदिदं श्रीधरप्रभुर्मघोने पृच्छते प्रकाशयांवकार | सपादलक्षव्याख्यानकपर मतमदांधकारापहारपरममिति । नमः श्रीमच्चरमपरमेश्वरपादप्रसादविशदस्याङ्कादन समुपासनगुणको टिकटिकगणाविर्भूत विविभूतिविमलचंद्र चान्द्र कुलचिपुलबृहत्त - पोनिगम निर्गत नागपुरीय स्वच्छ गच्छसमुत्थमुत्पत्रिपार्श्व चन्द्र शाखासुखाकृत सुकृतसु कृतिपररामेन्दूपाध्यायचारु घरयारविन्दर जोराजी मधुकरा नुकरवाचकपदद्वीप वित्रिताश्यचंद्रवरणेभ्यः ससुधी रक्त चंद्रम् | श्रीवीरात् २२६७ चिक्रमनृपात सं० १०६७ फाल्गुन सितत्रयोदशी भौमे तक्षकाव्यपुरस्येन स्तर्षिणा दर्शनपावित्र्याय लिखितं चिरं नंद्यात् । "
ग्रन्थके पहले पत्र की खाली पीठपर भी कुछ टिप्पणियाँ हैं और उनमें अधिकांश वे ही हैं जो ऊपर दी जा चुकी हैं। शेष इस प्रकार हैं-
ॐ नमः पार्श्वय
जैनेन्द्र मैन्द्रतः सिद्ध मतो जयमवत् । प्रकृतत्यंतर दूरच्या मान्यता मेतुमर्हति ॥ कथं । इंदचंद्र: काशकृत्स्नाविशली शाकटायनाः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयंत्यष्टौ हि शाब्दिकाः ।। इति ( ? ) चतुर्थी तद्धितानुपलक्षणात् ।
१ यह 'वौटिकमततिमिरोपलक्षण' नामका कोई ग्रंथ है और संभवतः वाग्वादिनीके कर्ताका ही है
बनाया हुआ
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वेवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण यहिंद्राय जिनेंद्रेण कौमारेऽपि निरूपितं । ऐनं जैनेंद्रमिति तत्माहुः शब्दानुशासनं ॥ पदावश्यकनियुक्तिः
श्रह तं अम्मापिअरो जाणित्ता अहियग्रहवासं नु । कयकोउअलंकारं लेहायरित्रस्स उणिति ॥ सको अतस्समकं भयवंतं श्रासणे निवेसित्ता ।
सहस्य लक्खणे पुच्छे घागरणं अवयवा इदं ॥ इनि ।। सवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः । ततश्चन्द्रं व्याकरणं संजातमिति हरिभद्दः ।। यत्तु देवनंदिवौटिक पूज्यपाद
इच्छितस्तद्गुरुकाः पूज्यपादस्य लक्षणे ।
द्विसंधानको कान्य रनम्रयमपश्चिमम् । इति धनंजयकोपात्तदयुकं । नेति चेत्कथं जैनेन्द्रमिति । द्वादशस्वरमध्यमिति चेन इतरोपपदस्याभावात् । जैनकुमारसम्भववद्गतिरिति चेन्न । कुमारवदिदं प्रसि श्लेपाभावान थारीतिकततद्धिसभावाच तहि
___ लक्ष्मीरास्यतिकी यस्य निरवद्यावभासते। देवनंदितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयंभुवे ।। का गतिशित। लक्ष्मीरात्यंतिकोपद्यनुपज्ञ शस्य किंतरां । ऐनुत्वजि तत्वार्थे मोक्षमार्गस्य पवत ॥
मिनादयश्चेत्प्रथमं अदि हैमल्वपेच्यते ।
कालापकादि न तथा पट्वेन्द्र महते कृतिः ।। पूर्वत्र । मिप बस् मम् 1 सिप थरस थ २ निम् तस् झि ३ हडू वहि महि । थस् आथां ध्यं २ त श्राताम् मा ३ इति ।
श्राख्यातरीति प्रति देवराजे मिन्यस्मसो यः पितः रादितीदाः ।
जी प्रपन्नाहममारध विश्वे तयारिमं स्वां कतिमान्मनाथं ।। तहि सिद्धसेनादिविशेषोऽपि दुर्निवार इति चेन्न
जातामातोपि चित्रीय प्रस्यास्मशरणोऽसि यः ।
जनताका पराकीयं पराप्मन् वीर सत्पुर ।। इति बौटिकमततिमिरोपलक्षणस्य मुर्येऽवकाशे इद जिनेन्द्रौ प्रत्युत्तरिणी यटनो दातद्वितनस्त्वमसि मियिक दौरेयमद्रं जैनेन्द्रं व्याकरणानां । सिद्धिमनेकांतादिच्छों अः क x पाई त्यतथारीते हैमागीकृतवर्मन्प्रक्षेपार्यविजेग्रचिरंजीया इति प्रसवचन्द्रोत्पले [?]
इसके आगे ४-३-७ सूत्रकी टिप्पणी जैसा ही लिखा है और फिर ३-४-४० सूत्रकी टिप्पणीके 'देवनन्दिमा' भादि ही श्लोक दिये हैं।
२ इसके प्रागे ५-४-६५ सूत्रकी टिप्पणी दी है।
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जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ
[श्री युधिष्ठिर मीमांसक. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, दिली ] संसारमें वाङ्मयके प्रादुर्भावका श्रादिस्थान पुगभूमि भारत है । उसका विशाल संस्कृत वाङ्मय मुख्यतः तीन धाराओंमें विभक्त है। इस बाङ्मयकी समृद्धि में वैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों तथा श्राचाोंने मुक्तहस्तसे सहयोग प्रदान किया है। भगवान् महावीरसे पूर्व के जैन तीयङ्करोंने उपदेश और अन्ध-रचनामें किस भाषाका आश्रय लिया था, इसके प्रमाण अभी नहीं मिले । उनका कोई अन्य उपलब्ध अथवा ज्ञात नहीं। इसलिए उपलब्ध संस्कृत वाङ्मयमैं वैदिक वाङ्मय हो प्राचीनतम कहा जा सकता है । भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध तथा उनके अनुयायी मनीषियोंने अपने विचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए उपदेश और अन्ध-रचनामे तात्कालिक जनभाषा प्राकृत तथा पालीका आश्रय लिया । कालान्तरमें, सम्भवतः विक्रमकी प्रमय शतीके लगभग जैन तथा औद्ध प्राचार्योंने भारतीय जनताके हृदयमें संस्कृतके प्रति युग-युगसे वर्तमान विशिष्ट अनुराग और बादरकी भावनाको अनुभव किया और उदारचेता होकर उन्होंने भो विद्वज्जनोपयोगी विशिष्ट अन्योंकी रचनाके लिए संस्कृत भाषाको अपनाना प्रारम्भ किया।
नये युगके प्रवर्तक इस नो युगके प्रवर्तक जैन सम्प्रदायमै आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर तया बौद्ध सम्प्रदायमें भदन्त अश्वघोष थे | ये सब वैदिक सम्प्रदायके विशिष्ट ज्ञाता थे। इसलिए उभय सम्प्रदायके शास्त्रज्ञानकी ओ प्रौढ़ता इनके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, यह अन्यत्र दुर्लभ है। इन आचार्योंने अपनी अगाध विद्वत्ताके कारण अपने-अपने सम्प्रदायों में नये युगका सूत्रपात किया । इनका अनुकरण करके उत्तरवर्ती अनेक सुहृद आचार्योने अपने-अपने उत्तमोत्तम ग्रन्यो-द्वारा संस्कृत वाङ्मयको आगे बढ़ाया ।
संघर्ष युग-दोनों सम्प्रदायोंमें संस्कृत भाषाके प्रति अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। प्रत्येक विषय पर संस्कृतमें ग्रन्य-रचनाएँ होने लगी। विक्रमकी प्रथम शतीसे १२ वी शती तकका युग संस्कृत वाङ्मयके इतिहासमें अपना स्वतन्त्र स्थान रखता है। इस काल में चैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों के पारम्परिक तार्किक बाद-प्रतिवादने वाङ्मयके पल्लेक क्षेत्रको, विशेषकर न्यायशात्रको परिबृहित करने में विशेष योग प्रदान किया। इस कालमैं चैदिक न्यायशास्त्रकी तो प्रवृत्ति ही बदल गई। वह अपने मूल प्रयोजनमे हटकर अर्थात प्रमेय निर्णायक न रहकर केवल प्रमाण लक्षण-
निय तक ही सीमित हो गया और अन्त में उसने नव्य न्यायके रूपमें केवल बौद्धिक श्रमका रूप धारण कर लिया।
जैन व्याकरण-वाङ्मय संस्कृत वाङ्मवमें व्याकरणशास्त्र अपना प्रमुख स्थान रखता है। प्राचीन शास्त्रों में इसे स्वतन्त्र विद्या. स्थान माना है। इसलिए, जन जैन विद्वानौने संस्कृत भाषाको अपनाया, तब जैन सम्प्रदायमें भी इस शास्त्रका महत्त्व बढ़ा | अनेक जैन आचार्योंने व्याकरण के क्षेत्र में भी अनेक उत्तम कृतियाँ प्रदान की। उनमें से अधिकांश विकराल काल द्वारा कवलित हो गई, अनेक प्रन्यों का नाम भी स्मृति-पटलसे नष्ट हो गया। कइयोंका नाममात्र शेष रहा। बहुत स्वल्प कृतियाँ दोष अची। जो कृतियाँ कम्चिन कालकवलित होने से इस समय तक बच भी गई वे अन्यागारों में चेष्ठनों में श्री, प्रकाश यानेकी तिथिर्की प्रतीक्षा कर रही हैं। सम्भव है उनमें से अधिकांश कृतियाँ 'शीर्यते वन एव वा नियम के अनुसार विद्वजगतको तुरभित न कर, वनोपम ग्रन्यागारों में ही
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
शीर्ण हो जायें । ईंट पत्थरोंसे बने भौतिक कृतियों को बचाने अथवा उनके उद्धारकी चिन्ताको अपेक्षा न सांस्कृतिक और बौद्धिक कृतियों का बचाना, उनका उद्धार करना परम आवश्यक है। जो विद्वान् महानुभाव, धनीमानी श्रेष्ठ वर्ग तथा संस्थाएँ इस कार्यमें लगी हुई हैं वे देश, जाति तथा धर्मकी वास्तविक सेवा कर रही हैं। देशके स्वतन्त्र हो जाने पर युगयुग उपार्जित प्राचीन वाङ्मयकी रक्षाका भार मुख्यतया राज्यको ही वहन करना चाहिए, नुम्हारी है।
उपलब्ध जैन व्याकरण
जैन अस्यों द्वारा लिखे गये ६, ७ व्याकरण इस समय उपलब्ध हैं। उनमें से केवल तीन व्याकरण प्रमुख हैं— जैनेन्द्र शाकटायन और सिद्ध हैम । इनमें आचार्य देवनन्दी, अपर नाम पूज्यपाद, इतर नाम जिनेन्द्रबुद्धि द्वारा प्रोक्त जैनेन्द्र व्याकरण सबसे प्राचीन है ।
इन प्रमुख तीन व्याकरणों के ग्रन्थ भी अभी तक पूरे प्रकाशित नहीं हुए। सबसे अधिक हैम व्याकरण के ग्रन्थ प्रकाशनें आये हैं' । शाकटायन व्याकरण केवल चिन्तामणि नामक लघुवृत्ति सहित प्रकाशित हुआ है [परिशिष्ट में मूल गणपाठ, लिङ्गानुशासन तथा धातुपाठ भी छपे हैं ] । सूत्रकारको स्वोपज्ञ अमोघ महावृत्ति अभी तक लिखित रूपमें ही क्वचित् उपलब्ध होती है। जैनेन्द्र व्याकरण भी तृतीय अध्यायके द्वितीय पाद के ६० सूत्र तक श्रभयनन्दी विरचित महावृत्ति सहित कुछ वर्ष पूर्व लाजरस कम्पनी काशी से प्रकाशित हुआ। था [अब भी दुर्लभ है]। यह प्रथम अवसर है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस भारी कमीको पूर्ण करने का बीड़ा उठाया और वह उसे भवनन्दीकी महावृत्ति सहित प्रकाशित कर रहा है। जैनेन्द्र से प्राचीन व्याकरण
शब्दानुशासनने निम्न ६ पूर्ववर्ती याचायों का उल्लेख किया है— १ - गुणे श्रीदन्तस्यास्त्रियाम् [ १ । ४ । ३४ ] २- कृषिजां यशोभद्रस्य [ २ । १ । ३६ ३ - रादु भूतबलेः [२ । ४ । ८३ ]
1
]
४- रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [ ४ । ३ । १८० ५- वेतेः सिद्धसेनस्य [ ५।१७ ]
६ – चतुष्टयं समन्तभद्रस्य [ ५४ । ५४० ]
आचार्य पूज्यपाद ने अपने
इन छ आचार्यों में से किसीका भी अन्य इस समय उपलब्ध नहीं है। अनेक विद्वानोंको इन श्राचार्योंके व्याकरण-शास्त्र-प्रवक्तृत्वमैं भी सन्देह हैं। जैसा कि जैन इतिहास - विशेषज्ञ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' [ पृष्ट १२० ] में लिखा था
"इन छ आचार्यनिये किसोका भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके अन्य ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरह के शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्होंको व्याकरण सिद्ध करने के लिए वे सत्र सूत्र रचे गये हैं ।"
१ सम्प्रति हैम व्याकरयाकी केवल लघुवृचि सुप्राप्य है, अन्य सभी मुद्रित ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये । इनका पुनर्मुद्रण अत्यन्त श्रावश्यक है ।
२ यह महावृत्ति भी शीघ्र ही भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे ही प्रकाशित होगी ।
३ यद्यपि माननीय प्रेमीजीने इस विचारकी निस्सारता को समझकर अपने ग्रन्थके द्वितीय संस्करण में उक्त अंश निकाल दिया, पुनरपि जिनकी ऐसी धारणा अभी भी है उनके विचारोंके प्रतिनिधित्व रूपमें उस पहियों उद्धृत की है।
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ पं० फूलचन्द्र सि० शा ने भी सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामैं लगभग इसी मतका प्रतिपादन किया है।
पाणिनीय व्याकरणा में स्मृत शाकल्य प्रापिशलि शाकटायन प्रादि १० प्राचीन शाब्दिकोंके विषयमें भी अनेक विद्वानों की ऐसी ही धारणा है।
हमारे विचारमें इस प्रकारको धारणाओंका मूलकारण भारतीय प्राचीन ग्रन्थों और ग्रन्थका के विषयमें पाश्चात्य विद्वानों द्वारा समुत्पादित अविश्वास की भावना और अनर्गल कल्पनाएँ ही हैं।
हम अपने 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्रका इतिहास' ग्रन्थ. याणिनिसे पूर्ववर्ती आपिशलि काशकृत्स्न और भागुरि अादि अनेक शाब्दिक श्राचायाँके सूत्र, धातु और गरणके बचन उद्धृत करके सिद्ध कर चुके हैं कि पाणिनिसे प्राचीन आचार्यों के भी पाणिनिके समान ही सर्वांगपूर्ण व्याकरण थे । अब तो काशकृत्स्न व्याकरणका समग्र धातुपाठ चनवीर कवि कृत कन्नड' टीकासहित प्रकाशमें आ गया है। उसमें काराऋत्ल शब्दानुशासनके लगभग १४० सूत्र भी उपलध हो गये हैं। ये [ धातुपाठ तथा सूत्र ] न केवल उनके सर्वाङ्गपूर्ण होनेके, अपितु पाणिनीय व्याकरणसे अधिक विस्तृत होनेके भी प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादके शब्दानुशासनमें उद्धृत प्राचीन वैयाकरणों के विषयमें भी हमारी यही धारणा है कि उन आचाोंने भी अपने-अपने शब्दानुशासन रचे थे | उन्हींके शब्दानुशासोंसे आचार्य पूज्यपादने उनके मतों का संग्रह किया। इसके विपरीत कल्पना करना पृज्यपाद जैसे प्रामाणिक श्राचार्यको मिथ्यावादी कहना है [ आः शान्त पापम् ] | जब हमने पाणिनिसे पूर्वी अनेक शाब्दिक प्राचार्योंकि बहुतसे वचन प्राचीन ग्रन्थों में ढूंढ लिये, यहाँ तक कि आद्य शब्दतन्त्र-प्रणेता इन्द्र के भी 'प्रथ वर्णसमूहः', 'अर्धः पदम्' दो सूत्र उपलब्ध कर लिये, ऐसी अवस्थामै हमें पूर्ण निश्चय है कि यदि जैन वाङमयका सावधानता पूर्वक अवगाहन किया जाय तो इन आचार्योंके शब्दानुशासनों के सूत्र भी अवश्य उपलब्ध हो जायेंगे।
___ या सिइसेसका व्यापारव-पावा सिद्धसेनके व्याकरणविषयक मतका उल्लेख प्राचार्य पूज्यपादने तो फिया ही है। उसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनसे उनके व्याकरण प्रवक्ता होने की पुष्टि होती है । यथा
१ सर्वार्थ सिद्धि प्रस्तावना पू० ५३ । २. देखो 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास के सतत् प्रकरण ।
३. श्री डा. वासुदेवशरण जी अग्रवालने "पाणिनि कालीन भारतवर्ष [ हिन्दी संस्करण ] पृष्ठ ५ पं० २२, २३ पर पाणिनिपूर्ववर्ती व्याकरणों को बिना किसी प्रमाणके एकाही लिखा है । पृष्ठ २६ पं० ६ पर
सामग्रीको पाणिनिकी मौलिक देन बताया है। परन्तु पृष्ठ २१ पं०१६.१ में भर्तहरिके प्रमाणसे पाणिनि-पूर्ववर्ती प्रापिशालिके गणपाठकी सत्ता भी स्वीकार की है। डा. कीलहानका भर्तृहरि कृत महाभाष्य टीका संबंधी लेख हमें सुलम नहीं हुश्रा । अतः नहीं कह सकते कि उसमें प्रापिशल गरापाठका उलेख था या नहीं। परन्तु हमने अपनी भर्तृहरिकृत महाभाग्य टीकाकी प्रतिलिपिके प्राधारसे 'सं व्या. शास्त्रका इतिहास' पृष्ठ १०२ पर प्रापिशल गणपाठमा उल्लेख किया है। तथा इसी अन्धके पृष्ठ २७४-२४८ पर महाभाष्यटीकाके इतिहासोपयोगी समी वचन एकत्रित कर दिये है।
१. इन सूत्रोंका प्रकाशन हम शीघ्र ही कर रहे हैं।
५, सं० व्या० शा का इतिहास पृष्ठ ६२ । महाभाग्य मराठी अनुवाद प्रस्तावना खण्ड [ भाग, सन् १९५४ ] पृष्ठ १२१, १२६ पर श्री पं० काशीनाथ अभ्प्रङ्करजीने हमारे द्वारा प्रथमतः [सन् १९५५] प्रकटीकृत दोनों सूत्रोंका उल्लेख किया है। दूसरे सूत्रका पाठ भी हमारे द्वारा परिष्कृत हो स्वीकार किया है। लेखकने अन्यन भी हमारे ग्रन्थके पर्याप्त दुर्लभ सामनी स्वीकार की है, परन्तु हमारे ग्रन्धका कहीं निर्देश नहीं किया।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् १. अभयनन्दी जैनेन्द्र १।४।१६ की वृत्ति में एक उदाहरण देता है—'उपसिद्धसेनं चैयाकरणाः' अर्थात् सब वैयाकरण सिद्धसेनसे हीन हैं।
इस उदाहरणसे स्पष्ट है कि अभयनन्दी श्राचार्य सिद्धसेनको न केवल वैयाकरण ही मानता है, अपितु उस कालतक प्रसिद्ध वैयाकरणों में उसे सर्वश्रेष्ठ कहता है।
जैनेन्द्र व्याकरण आचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दीने जिम शब्दानुशासनका प्रवचन किया वह लोकमें जैनेन्द्रनामसे विख्यात है।
इस शब्दानुशासनका जैनेन्द्र नाम क्यों पड़ा, प्राचार्य पूज्यपादका काल कौन सा है, जैनेन्द्र व्याकरण का मूल सूत्रमा कौन सा है, इसपर किराने व्याख्या ग्रन्थ लिखे गये और आचार्य पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरणके अतिरिक्त और कितने अन्य लिरत्रे इत्यादि विषवापर हम यहाँ विशेष चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि इन विषयोंपर माननीय श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थमें विस्तारसे लिस्वा है [यही अंश पुनः परिष्कृत करके इस ग्रन्थ के अादिम पृष्ठ १७-३७ तक छपा है ] | पश्चात् हमने भी अपने संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास' अन्य विस्तारसे विवेचना की है' [ हमने श्री प्रेमीजीके ग्रन्थसे पर्याप्त सामग्री ली है ]। इसलिए हम वहाँ केवल उतना ही अंश लिखेंगे, जो उक्त दोनों लेखोंके पश्चात् परिज्ञात हुआ है।
जैनेन्द्र नामका कारण-इस शब्दानुशासनको सर्वत्र जैनेन्द्र नामसे स्मरण किया है। इसके नामकरणके सम्बन्ध भो प्रेमीजीने जैनग्रन्थोसे जो कथाएँ उधृत की हैं, वे प्रायः ऐतिहासिक तवरहित हैं। श्री प्रेमीजी भी उत कथाओंसे सन्तुष्ट नहीं हैं। हमारे विचारने इस नामकरणका निम्न कारण है
आचार्य देवनन्दीका एक नाम जिनेन्द्रबुद्धि भी था जैसा कि श्रवणबेलगोलके ४७ वे शिलालेखमें लिखा है
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेवधुद्धिः ॥२॥
श्री पूज्यपादोऽमनि देवताभियंत्यूजितं पादयुगं यदीयम् ॥३॥ अर्थात्-आचार्यका प्रथम नाम देवनन्दी था, बुद्धिको मह्त्ताके कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणों की पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ ।
जिस प्रकार 'पदेषु पदेकदेशान् नियम अथवा 'बिनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्या खं चकत्यम्' [४|१११३ बार्तिकके अनुसार प्राचीन ग्रन्थकार देव अथवा नन्दी नामसे देवनन्दीको स्मरण करते हैं, उसो प्रकार जिनेन्द्र एक देश भी जिनेन्द्रबुद्धि अपरनाम देवनन्दीका वाचक है। अतः "जैनेन्द्र' की व्युत्पत्ति होगीजिनेन्द्रण प्रोक्तं जैनेन्द्रम् । अर्थात् जिनेन्द्र - जिनेन्द्रबुद्धि देवनन्दी द्वारा प्रोक्त व्याकरण |
आचार्य देवनन्दोका काल और उसका निश्चायक नूतन प्रमाण-प्राचार्य देवनन्दीक कालके विषय ऐतिहासिकाका परस्पर चैमत्य है। यथा
१----कीथ अपने हिस्ट्री अफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' में लिखता है
The जैनेन्द्र व्याकरण serilrsd to the Jinendra renly wristi:11 by पूज्यपाद देवनन्दी perhsD WEAK COILup(35cd C. O78. P. 432.
1. देखो पृष्ठ ३२३-३२८ तथा ४२१-४३१ ।
२. जिनसेन तथा वादिराज सूरि 'देव' नामसे स्मरण करते हैं। देखो श्री प्रेमामाका लेख, यही ग्रन्थ, पृष्ठ १६, दि० ३, ।
३. इसके उबरण आगे शिकानुशासन के प्रकरण में देंगे।
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाट
अर्थात् —-जैनेन्द्र व्याकरण सन् ६७८ [ ७३५ वि० ] के समीप लिखा गया 1
२- श्री प्रेमी जीने अनेक प्रमाण उपस्थित करके देवनन्दीका काल सामान्यतया विक्रमकी पर शताब्दी निश्चित किया है। [ख मी अन्य के साथ मुद्रित उनका लेख ] ।
३ - श्री लाई एस० पत्रतेने अपने 'स्ट्र कवर श्राफ दो अध्यायी' में लिखा है
'महामहोपाध्याय नरसिंहाचार्यने कर्णाटक कवि चग्निके ईस्वी सन् ४७० [ ५२७ वि०] मैं बताया है और दूसरे परन्तु मुझे २१|१२|१९३३ को लिखे एक पत्र में लिखा है आसपास है' ।
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प्रथम भाग के प्रथम संस्करण में पूज्यपाद को संस्करण में सन् ६०० = ६५० वि० ] का । कि पूज्यपाद ४३० ई०
[
[ = ५०० त्रि० ] के
४ -- हमने श्रपने व्याकरण शास्त्र के इतिहास में श्री प्रेमीजी द्वारा उद्धृत प्रमाणीक आधारपर आचार्य पूज्या काल विक्रमकी पर शताब्दीका पूर्वाद्ध माना था । अथ हम उसे टोक नहीं समझते । विक्रमकी पष्ठ शताब्दीसे पूर्व हमें जो नृन प्रभाग उपलब्ध हुआ है, उसके अनुसार पूज्यपाद विक्रम पठ शताब्दी पूर्ववर्ती हैं, यह निश्चित होता है।
कात्यायनने एक विशिष्ट प्रकार के प्रयोग के लिए नियम बनाया है-परोक्षे व लोकशि प्रयोक्तुर्दर्शनfare [महा ३२/१६ ] । अर्थात् — ऐसी घटना जो लोकविज्ञान हो, प्रयोक्ताने उसे न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ता दर्शनका विषय सम्भव हो [अर्थात् वह घटना] प्रयोक्ता के जीवन काल में घटी हो] उस घटनाको कहने के लिए भूतकाल मेँ लङ् प्रत्यय होता है ।
पतञ्जलिने महाभाष्य में इस वार्तिकपर उदाहरण दिये हैं- अरुण यवनः साकेतम् श्ररुणद् यनो माध्यमिका | वार्तिके नियमानुसार साकेत [ = अयोध्या] और माध्यमिका [ = चित्तौड़ समीपवर्ती नगरी ग्राम] पर वह लोकप्रसिद्ध आक्रमण पतञ्जटिके जीवनकाल में हुआ था । प्रायः सभी ऐतिहासिक इस विषय में सहमत हैं ।
इसी प्रकारका नियम पाणिनिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याकरण-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है और उसका उदाहरण देते हुए अन्धकार प्राचीन उदाहरणों के साथ साथ स्वसमकालिक किन्हीं महती घटनाओं का भी प्रायः निर्देश करते हैं। यथा-
अजयद् जत हूणान् । चान्द्र
महेन्द्रो मधुराम् । जैनेन्द्र० [२२३६२ ] श्रदोषवर्षोऽरातीन् । शाकटायन [४।३।२०८ ] अरुण सिद्धराजोऽन्तिम् । म० [२]
इन अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा राष्ट्र हैं । आचार्य पाल्यकीर्ति [शाकटायन] महाराज अमोघवर्ष और वाम महाराज सिद्धराजके कालमें विद्यमान थे। इसमें किसीको विप्रतिपत्ति नहीं। परन्तु चान्द्र के जर्त और जैनेन्द्र के महेन्द्र नामक व्यक्तिको इतिहास प्रत्यक्ष न पाकर पाश्चात्य मतानुयायी विज्ञानीने
गुप्त र महेन्द्रको मेनेन्द्र-मिनण्डर बनाकर धनर्गल कल्पनाएँ की हैं। इस प्रकारको कल्पनाओं से इतिहास नष्ट हो जाता है । हमारे विचार में जैनेन्द्रका 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम' पाठ सर्वथा टीक है, उसमें किञ्चिन्मात्रान्तिको सम्भावना नहीं है। आचार्य पूज्यपाद के कालकी यह ऐतिहासिक घटना इतिहास में सुरक्षित है।
१. देखो, स्ट्रक्चर ग्राफ दी अष्टाध्यायी, भूमिका, पृष्ठ १३
२, यद्यपि ये उदाहरण क्रमशः धर्मदास तथा श्रभ्यनन्दी की वृत्तिसे दिये हैं, परन्तु इन कृतिकारोंने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपाद की स्त्रोपञ्च वृत्तिसे लिये हैं ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् महेन्द्र और उसका मथुरा-विजय-जैनेन्द्र में स्मृत महेन्द्र गुप्तवंशीय कुमारगुप्त है। इसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमितं पूर्वोत्तरपदयोर्चा खं अक्तव्यम्' [११३५] वार्तिक अथवा 'पद्देषु पदैकदेशान्' नियमके अनुसार उसीको महेन्द्र अथवा कुमार कहते थे। उसके सिक्कोंपर श्री महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्रधर्मा, महेन्द्रकुमार श्रादि कई नाम उपलब्ध होते हैं।'
तिव्वतीय नन्ध चन्द्रगर्भ सूत्रमें लिखा है--"यवनों पलिहकों शकुनी [कुशनों] ने मिलकर तीन लाख सेनासे महेन्द्र के राज्यपर आक्रमण किया | गलाके उत्तरप्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेन के युवा कुमारने दो लाख सेना लेकर उनपर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की । लौटनेपर पिताने उसका अभिषेक कर दिया ।
चन्द्रगर्भ सूत्रका महेन्द्र निश्चय ही महाराज कुमारगुप्त है और उसका युवराज स्कन्दगुम । मञ्जु श्री मूलकल्प श्लोक ६४६ मैं श्री महेन्द्र और उसके सकारादि पुत्र [स्कन्दगुत] को स्मरण किया है।
चन्द्र गर्म-सूत्र में लिखित घटनाकी जैनेन्द्र के उदाहरणमें उल्लिखित घटना के साथ तुलना करनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के उदाहरण इसी महत्वपर्ण घटनाका संकेरा है। उक्त उदाहरणसे यह भी विदित होता है कि विदेशी आक्रान्ताओंने गङ्गाके आस-पासका प्रदेश जोतकर मथुराको अपना केन्द्र बनाया था | इस कात्या महेन्द्रकी सेनाने मथुरा का ही घेरा डाला था।
महाभाष्य, शाकमधन तथा सिद्ध हैम व्याकरणों में निर्दिष्ट उदाहरणों के प्रकाशमें यह स्पष्ट हो बाता है कि आचार्य पूज्यपाद गुमवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुहा अपर नाम महेन्द्र कुमारके समकालिक हैं। पाश्चात्यमतानुसार कुमारगुप्तका काल वि० सं० ४७०-५१२ [=४१३-४५५. ई. तक था। अतः पूज्यपादका काल अधिक से अधिक विकारकी ५ वीं शतीके चतुर्थ चरणसे पष्ठ शताब्दीके प्रथम चरण तक माना जा सकता है, इसके पश्चात् नहीं । भारतीय ऐतिहासिक काल गणनानुसार गुप्तकाल इससे कुछ शताब्दी पूर्व ठहरता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुणग्महेन्मो मथुराम्' उदाहरणमें महेन्द्रको मेनेन्द्र= मिमएडर समझना भारी भ्रम है।
जैनेन्द्र शब्दानुशासन अब हम जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धमें संक्षेपसे लिखते हैं
जैनेन्द्र शब्दानुशासनका परिमाण-जैनेन्द्र शब्दानुशासनमें ५ अध्याय, २० पाद और ३०६७ सूत्र [प्रत्याहार सूत्रोंके बिना है।
जैनेन्द्रका प्रधान उपजीव्य ग्रन्थ-प्राचार्य पूज्यपाद के समय निश्चय ही पाणिनीय और चान्द्र शब्दानुशासन विद्यमान थे। पूज्यपादने अपने शब्दानुशासन को रचना पाणिनीय शब्दानुशासन के आधार पर की है, यह पाणिनीय चान्द्र तथा जैनेन्द्र माब्दानुशासनों को सूत्र-रचना और प्रकरण-विन्यासको तुलनासे स्पष्ट है। कही-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूज्यपादने चान्द्र शब्दानुशासनसे भी कुछ सहायता ली है।
जैनेन्द्र में प्रत्याहार सूत्राका सदभाव-अभयनन्दीकी महावृत्तिके साथ 'अहउ' श्रादि प्रत्याहार सूत्र उपलब्ध नहीं होते, परन्तु जैनेन्द्र शब्दानुशासनके मूल पाटमें वे अवश्य विद्यमान थे। इसमें निम्न हेतु है।
फ-जैनेन्द्र सूत्रपाठमें जहाँ अनेक वणों का निर्देश करना होता है, वहाँ संक्षेपार्थ पाणिनीय अनुशासन के समान प्रत्याहारोंका प्रयोग किया है । यथा--अच् [१ । ११ ५६], इक् [१ | १ | १७], यण [११११४५],
1. श्री पं० भगधहत्तजी कृत भारतवर्ष का इतिहास सं० २००३], पृष्ठ ३५४ । २. वही, पृष्ट ३५५ । ३. महेन्प्रनृपवरो मुख्यः सकाराद्यो मतः परम् । ४. जैनेन्द्र और पाणिनीय सूत्रोंकी तुलनात्मक सूची इस प्रन्थ के अन्तमें छपी है।
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाट
ऐच् [१ । १ । १५], एङ् [१ । १।७०] । थे प्रत्याहार पाणिनीय प्रत्याहारोंके समान हैं। किस प्रत्याहारमें कितने वर्गोका निर्देश समझना चाहिए अथका प्रत्याहार कैसे बनाया जाता है, इसका नियम-प्रदर्शक "अन्त्ये नेतादिः" सूत्र जैनेन्द्र शब्दागुशासन [१।१ । ७३] में विद्यमान है। इस सूत्र द्वारा अच् प्रत्याहारोंका परिज्ञान तभी सम्मव है, जब ग्रन्थके आरम्भमै पाणिनीय प्रन्यवत् प्रत्याहार सूत्र पठित हो। अन्यथा 'अन्स्येनेतादिः' सूत्र तथा इसकी वृत्ति कभी समझ नहीं पा सकतो।
ख–जैनेन ? । ४. परनामा गन्दी प न्त इति जुणो लकारेण प्ररलेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् ।' अर्थात् 'रन्त' इस निर्देशमै लण सूत्रके लकारमें पठित अकारसे र प्रत्याहार लिया गया है । "ल" यह पाणिनिके समान प्रत्याहार सूत्र ही है।
--प्रभयनन्दी १ । १। ३ सूत्रकी वृत्ति के अनन्तर उदाहरण देता है.--'अ उ –णकारः । अर्थात् 'प्रहउण्' सूत्र में '' इत् संज्ञा है। वहाँ भी पाणिनिके समान ' उण्' सूत्रको उद्धत किया है।
इन प्रमाणोसे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र व्याकरणके आरम्भमें भी प्रत्याहार सूत्र थे। हमने प्रत्याहार-सूत्रों के विषवने इस महावृत्तिके सम्पादक महोदयसे पूछा था कि किसी हस्तलेखमें ये सूत्र मिलते हैं, अथवा नहीं। श्री सम्पादक जीने २६ । ६ | ५६ के उत्तरमें लिखा--"प्रत्याहार सूत्रों का पाठ किसी भी हस्तलिखित प्रतिमें उपलब्ध नहीं है । मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायो तथा शब्दार्णव-चन्द्रिकामें कुछ हेर फेरके साथ पाणिनीय व्याकरण सदृश [ इ उ ए अादि] दो प्रकारके सूत्रपाठ मिलते हैं।"
हमारा विचार है कि प्रत्याहार सूत्रोकी व्याख्याको आवश्यकता न समझकर अभयनन्दीने इनकी व्याख्या नहीं की । अव्याख्यात होने के कारण महावृत्ति के हस्तलेखोंमें इनका अभाव हो गया । अथवा वह भी सम्भव है-जैसे अन्यत्र कई स्थानों पर सूत्रोंको वृत्ति उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार इन प्रत्याहार-सूत्रों की भी व्याख्या नष्ट हो गई और व्याख्याके न रहने पर महावृत्तिके दस्तलेखोंमें सूत्र पाठका भी प्रभाव हो गया। जो कुछ भी कारण उनके अभावका हो, परन्तु इतना निस्सन्दिग्ध है कि भवनन्दी जैनेन्द्र प्रत्याहार-सूत्रोसे परिचित या ।
सूत्रपाठके पाठान्तर-पहावृत्ति के साथ जो जैनेन्द्रसूत्र पाठ छुपा है उसमें तथा अभयनन्दीकी व्याख्याने उधृत सूत्र पाट कतिपय पाटान्तर उपलब्ध होते हैं। कई पाठान्तर अभयनन्दीको वृत्ति के गम्भीर अनुशीलनसे विदित होते हैं। यथा
- अभयनन्दी ने १।१।८५ की व्याख्या में ५।११७९ का पाठ उद्धृत किया है-'बदनज' इत्यादिनैपू । परन्तु ३.२७६ पर सूत्रपाट छपा है-'अजवदल्योऽतः' [ इस पर वृत्ति अप्राप्त है ।
ख-जैनेन्द्र १।२।। १४ सूत्रका मुद्रित पाठ है-साधकतम करणम् | इसकी व्याख्या अभयनन्दी लिखता है-'पुलिङ्गनिर्देशः किमर्थः ? परिक्रयणम् [ ३१२१११२ ] इत्यनवकाशया संप्रदानसंशया बाधा मा भूत ।' अर्थात्--पुलिंग निर्देश क्यों किया .... |
इस सूत्र में दो पद हैं। दोनों ही नपुंसक लिङ्ग पढ़े हैं । ऐसी अवस्थामें न तो शंका ही उपपन्न होती है और न उनका समाधान हो । क्योंकि 'नव्याध्य भासम्' [ १।२।६१] सूत्रानुसार नपुंसक लिंगसे निर्दिष्ट संज्ञाका अनवकाश संज्ञासे बाघ होता है। अतः 'करण' संज्ञाका नपुंसकसे निर्देश होने के कारण अनवकाश सम्प्रदान संशा [१२।१११२ ] से निश्चय ही बाध होगा। इस कारण प्रतीत होता है अभयनन्दीका सूत्रपाठ "साधकतमः करण;" था, जो पीछेसे विकृत हो गया । 'करणः' पुल्लिंग निर्देश होनेपर ही
१. शाकटायनकी चिन्तामणि घृत्ति में भी प्रत्याहार सूत्र व्याख्यात नहीं हैं। २. पृष्ट २ , ३३७,३२८ ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
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'पुलिंगनिर्देशः किमर्थः ' यह शंका तथा उसका समाधान उत्पन्न हो सकता है। पुंलिंग निर्देश [करणः ] होनेपर अनवकाश संप्रदान संज्ञासे भी करण संज्ञाकी बाधा नहीं होगी और 'शतेन परिक्रीतः ' प्रयोग भी उपपन्न हो जायगा |
जैनेन्द्र में एक विवेचनीय स्थल- जैनेन्द्र माकया लेकिकमलाका व्याकरण है। इसलिए उसमें स्वर और वैदिक प्रक्रियाका अंश छोड़ दिया है। प्रथमाध्याय के प्रथम पादमें आचार्यने तीन सूत्र पड़े है – कौवैतौ, उन्नः क्रम् [ २४-२६ ] [ यहाँ शुद्ध पात्र 'ॐ' चाहिए] इन सूत्रोंके पाठ तथा इनकी वृत्तिसे प्रतीत होता है कि इनका प्रयोग विषय लोकभाषा है । परन्तु इनका वास्तविक प्रतिपाद्य विषय वैदिक [पपाठ ] है । यह बात पाणिनिके 'संबुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे, उमः ॐ [१/१/१६-१७] सूत्रोंसे स्पष्ट है । पाणिनि ने प्रथम सूत्रमें वैदिक सम्प्रदाय के पारिभाषिक 'अनार्थ इति' का निर्देश किया है [ इसकी अनुवृत्ति अगले सूत्र मैं भी जाती है ] | पदकारों द्वारा पदपाठ मगृह्य आदि संज्ञाका निदर्शन करानेके लिए मन्त्र से बहिर्भूत जिस 'इति' शब्दका प्रयोग किया जाता है यह अनार्ष इतिकरण कहाता है। इसीको उपस्थित भी कहते हैं । इस शब्दका व्यवहार भी पाणिनिने ६ | १|१२६ में किया है। ये संज्ञाएँ प्रातिशाख्यग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं । पपाठ नार्थ इतिकरणका प्रयोग कहाँ करना चाहिए इसका प्रतिपादन प्रातिशाख्यों में विस्तारसे किया है। ऋग्वेद के पदपाद शाकल्यने प्रगृह्य संज्ञक [जैनेन्द्र अनुसार 'दि' संज्ञक] पदसे परे सर्व इति शब्दका प्रयोग किया है। यथा— अग्नि इति [ ० ५/४५ ४] मेथेते इति [ ऋ० १।११३।३ ] युप्मे इति [ऋ० ४११०२८] वायो इसि [ऋ० ११२।१], ॐ इति [ऋ० २४], गौरी इति [ ऋ० १२ २] । पाणिनिने शाकल्य का अनुवाद अपने शास्त्र में किया है। इससे स्पष्ट है कि जैनेन्द्रके उक्त सूत्रों द्वारा प्रतिपात्र विषय भी वैदिक नियमके अर्न्तगत आता है। इसलिए आचार्यको चाहिए था कि उसने जैसे पाणिनिके " " [१।१।१३] और "इदूतौ च सप्तमी” [१११।१८] सूत्रोंके प्रतिपाद्य विषय के लिए सूत्र रचना नहीं की, बैले ही इनका भी समावेश न करता । समावेश करने से विदित होता है कि श्राचार्यने इन सूत्रों के प्रतिपाद्य विपयको लौकिक समझा है । परन्तु लोक मैं चाया इति ॐ इति ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं हैं ।
के
भूलका कारण - इस भूलका कारण भगवान् पतञ्जलिकी पाणिनीय उनः ॐ [ ११।१७ ] सूत्र की व्याख्या है । पतञ्जलिने शाकल्य ग्रहणको विकल्पार्थ मानकर और उमः ॐ का योग विभाग करके 'दायो इतेि वायविसि, वाय इति, ॐ इसि उ इति विति' इतने काल्पनिक रूप बनाये हैं। पतञ्जलि ने भी पारि भाषिक 'अना इति' को 'लौकिक इति' मान लिया, ऐसा प्रतीत होता है, परंतु है यह समस्त प्राचीन वैदिक साम्प्रदाय के विपरीत। इस विषय भाष्यकार पतञ्जलिका अनुकरण करनेसे ही जैनेन्द्र में यह भूल हुई प्रतीत होती है।
जैनेन्द्र के सम्बन्ध एक भ्रम --- जैनेन्द्र शब्दानुशासन के सम्बन्ध में भ्रम है कि जैनेन्द्र हो प्रथम व्याकरण है जिसमें एकशेष प्रकरण नहीं है। इसका कारण महावृत्ति में निर्दिष्ट 'देवोपज्ञमनेकशेष व्याकरणम्' [ १|४|१७ ] उदाहरण है । हमने सं० व्या शास्त्रका इतिहास' मैं [ पृष्ठ ४२४ ] इस भ्रमका निराकरण किया है । जैनेन्द्रसे प्राचीन चान्द्र मैं भी एकशेष प्रकरण नहीं है।
सर्वार्थसिद्धि और जैनेन्द्र शब्दानुशासनका पौर्वापर्य --- श्राचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक व्याख्या में कहीं पाणिनीय शब्दानुशासन के और कहीं खरचित शब्दानुशासनके सूत्र यत्र तत्र उद्धृत किये हैं। उससे विदित होता है कि जैनेन्द्र शब्दानुशासनकी रचना आचार्यने सर्वार्थ सिद्धिके पूर्व ही कर
१. इसकी विशद विवेचमाके लिए देखो हमारे द्वारा सम्पादित 'अष्टाध्यायीप्रकाशिका' का 'उभः ॐ' [ १ । १ । १७ ] सूत्र |
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ ली थी | तत्वार्थसूत्र अध्याय १ ० रात्र ४ की समिति टीकाः पनाये प्रत्यपादने शतमी बिभक्तिके लिए स्त्रनिर्मित 'का' संशाका निर्देश किया है। हमसे भी उक तथ्यको पुष्टि होती है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ०५१
जैनेन्द्र शब्दानुशासानके खिल पाठ वैयाकरण वाङ्मयमै शब्दानुशासन पद केवल सूत्रपाठके लिए प्रयुक्त होता है । सूत्रपाठको लयु मनानेके लिए उससे सम्बद्धं विस्तृत विषयोको सूत्रकार जिन ग्रन्थों में संग्रहीत करते हैं के शब्दानु. शासनके खिल अथवा परिशिष्ट कहाते हैं। प्रायः प्रत्येक शब्दानुशासनके धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन ये चार खिल होते हैं। इन्हें मिलाकर व्याकरणकी पञ्चपाठी बनती है। जैनेन्द्र व्याकरण के भी ये चार ग्विल थे [ उणादि और लिङ्गानुशासन उपलब्ध नहीं हैं ] ।
धातुपाठ-आचार्य देवनन्दी प्रोक्त धातुपाठका मूल ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । गुरणनन्दी प्रोक्त शब्दार्णव व्याकरण [ जैनेन्द्रका परिवर्धित संस्करण ] का चन्द्रिका टीकासहित जो संस्करण काशीसे छपा है, उसके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ भी मुद्रित है। यह धातुपाठ जिनेन्द्र [ पूज्यपाद ] प्रोक्त मूल रूपमें है अथवा शब्दार्णवके समान परिवर्धित है, यह हम नहीं कह सकते | अभयनन्दी को महावृत्ति में जैनेन्द्र धातुबाट के अनेक सूत्र' उधृन हैं उनकी मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठकी तुलनासे कुछ परिणाम निकाला जा सकता है । परन्तु सम्प्रति मेरे पास मुद्रित जैनेन्द्र धानु बाट नहीं है | अतः मैं इसके निर्णयमें इस समय असमर्थ हूँ।
___ मैं इसी वर्ष ६ अगस्तको काशीमें भारतीय ज्ञानपीठके व्यवस्थापक तथा महवृत्तिके सम्पादक महोदयोंसे मिला यो [ यह मेरा प्रथम मिलन था] और उन्हें ग्रन्थके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ छापनेका सुझाव दिया था । दोनो महानुभाोंने बड़ी साहयतासे मेरे सुझावको स्वीकार किया और वह इस अन्धके अन्तमें दिया जा रहा है [अभी छपा मेरे पास नहीं पहुँचा] ।
__ घातुपारायण-आचार्य हेमचन्द्रने स्वीय लिङ्गानुशासनके स्वोपज्ञ विवरणमें पृष्ट १३२ पं० २० पर नन्दिधातुपारायण तथा पृष्ठ १३३ पं० २३ पर नन्दिपारायण उदधृत किया है । इस नामके साथ हैमघातुपारायण नामको तुलनासे प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य देवनन्दीका अपने धातुपाठ पर स्वोपज़ विवरण रहा होगा।
गणपाठ-जैनेन्द्र गणपाठ अभयनन्दीकी महावृत्ति में यथास्थान सन्निविष्ट है, पृथक छपा नहीं मिलता।
उणादिसूत्र-जैनेन्द्र उणादिसूत्रका कोई हस्तलेख अभी तक हमारी दृष्टि में नहीं आया | महावृत्तिके सम्पादकजीसे भी इसके विषयमें पूछा था। उन्होंने २६ । ६ । ५६ के पत्रमैं लिखा—"उणादि सूत्र तथा परिभाषाओंका मी संकलन कहीं नहीं उपलब्ध हो सका। लिङ्गानुशासन भी जैनेन्द्रका अनुप लभ ही है।
अभयनन्दीको महावृत्तिमें अनेक उणादि सूत्र उद्धृत हैं। कुछ प्राचीन पञ्चपादीसे पूर्णतया मिलते हैं, कुछमें पाठान्तर है। अनेक सूत्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रत्यक्ष जैनेन्द्र संज्ञानोंका प्रयोग हुश्रा है । इसलिए यह निश्चित है कि जैनेन्द्र प्रोक्त उगादि सूत्र भी थे। उदाहरणके लिए हम कुछ सूत्र उद्धृन करते हैं । यथा
1. काशिका १३२२ में खिल शब्द इसी अर्थमें प्रयुक्त है।
२. प्राचीन परम्परानुसार 'भू ससायाम' एध वृद्धी' आदि वामय सूत्र माने जाते हैं। हर-अस्मत्संपादित खीरतरकिणी, पृष्ठ १, टि० २ ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् १-तनोसेउः सम्यच । पृष्ठ ३ ।
५-अण्डो जकृस्वृतः । पृष्ठ ११ । २-अप्स सबंधुभ्यः । पृष्ठ १७ ।।
६-गमेरिन् । पृष्ट११६ । ३-कृवापाजिमिस्त्रदिसाध्यशूभ्य उण । पृष्ट 1931 -श्राहि णित । पृष्ठ ११६ |
४-वृतदिहनिकमिकषिभ्यः सः । पृष्ठ ११८। E-भुवश्च । पृष्ठ ११ ।
जैनेन्द्र उणादि सूत्रों का आधार-जिस प्रकार आचार्य पूज्यपादने अपने शष्टानुशासन के प्रवचनमें पाणिनीय शन्दानुशासनका प्रधान आश्रय लिया, उसी प्रकार उणादि सूत्रोंके प्रवचन में भी निश्चय ही क्रिसी प्राचीन उणादिको मुख्य आधार बनाया होगा | जैनेन्द्र उणादि पाटके उपराध न होनेसे वदापि हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते कि श्राचार्य ने किस प्राचीन उणादि पाठको मुख्यता दी, पुनरपि हमारा अनुमान इस प्रकार हैमाणिनीय दारा
भार उणादि पाठ उपलब्ध होते हैं। एक है पञ्चपादी और दूसरा देशपादी | पञ्चपादी पाट भी रामायण महाभारत आदि ग्रन्थों के समान अनेक शाग्वा प्रोमें विभक्त है। एक है श्रौत्तर. पाट, दूसरा पश्चिमोत्तर, तीसरा दाक्षिणात्य | उज्वलदत्त तथा तदाश्रिन भट्टोजिदीक्षित
आदिकी वृत्तियाँ औत्तरपाठ पर हैं [ उज्ज्वलदत्त वगीय या, अतः इसे वाङ्ग पाठ भी कह सकते हैं। श्वेत. वनवासी तथा नारायणकी वृत्ति दाक्षिणात्य पाठ पर हैं । क्षीरस्वामी अपनी क्षीरतरङ्गिणी में पश्चिमोत्तर पाठको उद्धृत करता है [ इसे काश्मीर पाठ कह सकते हैं ] । दशपादी पाठ पञ्चपादीके सम्भवः पश्चिमोनर पाटके श्राधार पर रखा गया है। पञ्चपादी पाठका भी मूल कोई त्रिपादी पाठ प्रतीत होता है। उणादि के ये सभी पाठ श्राचार्य पूज्यपादसे प्राचीन है | अभवनन्दीने १११।७५ सूत्रकी वृत्ति में एक जैनेन्द्र उणादि सूत्र उद्धृत किया है—“अस् सर्वधुभ्यः" । पञ्चपादीका श्रौत्तरपाठ-सर्वधातुभ्योऽसुन् । [ उज्ज्वस्त ० ४।१८]
दाक्षिणात्य पाठ-असुन् [ श्वेत० ४।१६४ ]
" पश्चिमोत्तर पाठ-असुन [ भारतरङ्गिणी पृष्व ९३ पं० १६ ] दशपादीका पाठ असुन [ १/४९] इन सब सूत्रों की तुलनासे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र उगादि पाठका मुख्य उपजीव्य श्रोत्तर पाठ है जिसमें जैनेन्द्र के 'सर्वधुभ्यः' समान 'सर्वधातुभ्यः पद विद्यमान है। अन्यमाटों में 'सर्वधातुभ्यः' पद है ही नहीं
उणादि सूत्र व्याख्या-श्राचार्य देवनन्दी कुत उणादि सूत्र व्याख्याका हमें कोई साश्चात् प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ, परन्तु जिप प्रकार श्राचायने अपने धातुपाठको तथा लिशानुशासनको व्याख्या की उसी प्रकार उणादिकी व्याख्या भी अवश्य रची होगी।
१. महावृत्तिका मुद्रित पाठ है-'एडः । कृमृद्ध हः' । यह अशुद्ध है। सुलना को'अण्डन् कृसमृवृक्षा' [पञ्चपादी उ० १। 115 ॥ द० उ०५| ॥] सूत्र से ।
२. हमने इसका अनेक हस्तलेखौके श्राधारपर सम्पादन किया है। सरस्वती भवन प्रन्थमाला काशीसे [१४२ में ] यह प्रकाशित हुआ है।
३, हमने वशपादी-उणादिके उपोद्धातमें दोनों पाठों तथा इनकी वृत्तियों का संक्षिप्त इतिहास १९४२ में लिखा था। उस समय पञ्चपादीके इतने विभिन पाठका बोध हमें नहीं था। उणादि सूत्र और उनकी व्याख्याओंका विस्तृत इतिहास हम अपने सं० च्या शास्त्राका इतिहासके दूसरे भाग लिखेंगे।
१. सीरतरमिणीके सम्पादनके प्रारम्भमें हमें इसका ज्ञान नहीं था, अतः हमने वहाँ परापादीके
पते दिये हैं।
५, खिङ्गानुशासनकी व्याख्याका वर्णन आगे करेंगे।
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ
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लिङ्गानुशासन --- आचार्य देवनन्दो प्रोक्त लिगानुशासनका कोई मन्थ हमारी दृष्टि में नहीं श्राया, परन्तु जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन था अवश्य । इसमें निम्न प्रमाण हैं
१ - वामन अपने लिकानुशासन के अन्त में प्राचीन आचार्य प्रोक्त लिङ्गानुशासनका निर्देश करता हुआ लिखता है - व्याडप्रणीतमथ चाररूचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणयतं विविधं तथाऽन्यत् । जिङ्गस्य लक्ष्म...... ॥ ३० ॥ इसमें जैनेन्द्र लिङ्गानुशासनका उल्लेख स्पष्ट है ।
२ - अभयनन्दी अपनी महावृत्ति १|४|१०८ में लिखता है - गोमय कषायका पाठागमः कर्तब्य श्रादिनमें उभयलिंगता देखी जाती
है,
पकृत पक्षाशंखादि
उनका ज्ञान पाटसे कर
लेना चाहिए ।
यहाँ पाठसे अभिप्राय लिङ्गानुशासनका ही है, क्योंकि 'पुंसि चार्धर्चा:' [ १|४|१०८ ] सूत्र पर पाणिनिके समान जैनेन्द्र में कोई गण नहीं है । अतः इनका पाठ लिङ्गानुशासन में ही सम्भव हो सकता है | ३. आचार्य हेमचन्द्रने अपने लिङ्गानुशासन के स्त्रोपस विवरण में नन्दीके नाम से एक पाठ उद्धृत किया है - "भ्रमरं तु भवेश चौदं तु कपिलं भवेत्” इति नन्दी | पृष्४० ८५ पंक्ति २५ ।
हमारे विचार यह पाठ देवनन्दीके लिङ्गानुशासनका है और पूर्वीलिखित नियम के अनुसार यहाँ नन्दी शब्द देवनदीका ग्रहण है । हर्तवर्धनीय लिङ्गानुशासन के सम्पादक पं० बेङ्कट राम शर्माने अपनी निवेदनामें २३ प्राचीन लिङ्गानुशासनों का उल्लेख किया है। उसमें संख्या १८ पर 'नन्दिकृत लिङ्गानुशासन' का निर्देश है। इससे भी हमारे विचारकी पुष्टि होती है कि श्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा नन्दी नामले स्मृत श्राचार्य देवनन्दी ही है ।
लिङ्गानुशासन छन्दोबद्ध था---हैमलिङ्गानुशासन विवरण में उदधृत पूर्व वचन से प्रतीत होता है। कि देवनन्दी प्रोक्तानुशासन छन्दोबद्ध था ।
लिङ्गानुशासन व्याख्या - श्राचार्य देवनन्दौने अपने लिङ्गानुशासनपर कोई व्याख्या भी लिखी थी । हेमचन्द्र अपने लिङ्क विवरण लिखता है - "नन्दिनः गुणवृसंस्वाश्रयनिङ्गता स्वादुरोदनः स्वाझी पेया, स्वादु पयः । श्राचार्य हेमचन्द्रने यह पहूक्ति अथवा अभिप्राय निश्चय ही जैनेन्द्रलिङ्गानुशासन की व्याख्याले लिया होगा ।
व्याकरणके अन्य ग्रन्थ
पूर्वलिखित धातुपाट, गापाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन इन ४ खिलों के अतिरिक्त चैनेन्द्र शब्दानुशासन से संबन्ध रखनेवाले न्यूनातिन्यून तीन अन्य श्रौर थे । उनके नाम हैं - बार्तिकपाठ, परिभाषा पात्र शिक्षा |
वार्तिक-पाठ - अभयनन्दीकी महावृत्तिमें जैनेन्द्र शब्दानुशासन से संबन्ध रखनेवाले बहुत से वार्तिक व्याख्यात है। ये वार्तिक किसके है, अज्ञात है। इसी प्रकार महावृत्तिने समस्त वार्तिक व्याख्यात हैं अथवा उसमें काशिका के समान अधिक उपयोगी जातियोंका ही सन्निवेश है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जैनेन्द्र वार्तिक पाटका स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं श्राया ।
आर्य श्रुतकीर्तिने अपनी पञ्चवस्तुप्रक्रिया के अन्त में जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर रचे गये किसी भाष्य ग्रन्थको सूचना दी है। यह भाग्य इस समय अनुपलब्ध है। स्वयं श्राचार्य पूज्यपाद भी अपने शब्दानुशासनपर एक न्यास लिखा था, वह भी अप्राप्य है। अतः जैनेन्द्र से संबद्ध वार्षिक पात्रको रचना किसने की यह श्रज्ञात है । वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं--महावृत्ति व्याख्यात वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं, क्योंकि उसमें स्थान-स्थानपर पातञ्चल महाभाष्यके समान वार्तिकां का निराकरण करके सूत्र द्वारा कार्यका
१. अग्रेजीमें पृष्ठ ११ पर, संस्कृत में पृष्ठ ३४ पर !
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् निर्वाह दर्शाया है । यथा--उदित्कार्य वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति वक्तम्यं भवती, अतिभवती, वाषिः । नैतद वसन्यम्..... | पृष्ठ १५ । यदि बार्तिक अमानटी विरनित होते तो वह सई अनर्थक हार्तिक रनकर उनका खण्डन न करता। इतना ही नहीं, अभयनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्यानन्द जैनेन्द्र महावृत्ति ११४३७ में पठित 'प्यस्खे का वक्तव्या' वार्तिकका अष्टसहस्री [ पृष्ठ १३२ ] में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' इस रूपमें अर्थतः अनुवाद करता है । 'प्य, ख' ये जैनेन्द्र के पारिभाषिक प्रयोग हैं।
अभयनन्दोकी वृत्तिमें वार्तिकों के व्याख्यात होने तथा श्रष्ट सहस्री में उद्धृत होनेसे इतना तो निश्चय है कि ये अभयनन्दीसे प्राचीन हैं। हमारा विचार है कि व्याकरण संबंधी अन्य अन्योंके समान बार्तिकपाठ भी आचार्यने स्वयं रचा होगा ।
परिभाषा-पाठ- परिभाषाएँ व्याकरण शास्त्रका महत्त्वपूर्ण भाग हैं। परिभासएं दो प्रकार की हैं। कुछ सूत्रकार द्वारा स्वयं सूत्रों में पटित होती हैं। यथा - इको गुणवृन्धी [अष्टा० १।१।३ ] इकस्तो [ जैनेन्द्र० १११।१७ ] | कुछ सूत्रसे बहिर्भूत होती हुई मी सूत्रकार-द्वारा स्वीकृत होती हैं । पाणिनीय ब्याक रणसे संबद्ध परिभाषाएँ व्यालिकृत मानी जाती हैं। भाष्यकार पतञ्जलिने अनेक परिभाषाओंको सूत्रोंसे ज्ञापित किया है, अनेकको वे बिना ज्ञापकके प्रमाण मान लेते हैं । अभयनन्दीकी महावृत्तिमैं अनेक परिभाषाएँ उद्धृत है। कतिपय परिभाषाओंके ज्ञाक भी लिखे हैं। इन परिभाषाओंका पाठ पाणिनीय परिभाषाओंके समान होते हुए भी स्वतन्त्रानुसार परिवर्तित है । जैनेन्द्र संबद्ध परिभाषाओंका प्रवक्ता कौन है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता | परिभाषा पाठका स्वतन्त्र ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया ।
परिभाषाओंकी व्याख्या-इन चैनेन्द्र परिभाषाओं की व्याख्या भी किसी प्राचीन ग्रन्धकारने की थी । अभयनन्दो १।१।६१ पर लिखता है-- सन्निपातपरिभाषाया अनित्यता वचयति । यहाँ 'वश्यति' क्रियाका कर्ता कौन है, य अज्ञात है । परन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि अभयनन्दीसे पूर्व किसीने परिभाषाओंको व्याख्या रची यौ । इस प्रकारका विचार परिभाषा वृत्तिमें ही सम्भव हो सकता है।
श्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरणसे संबद्ध परिभाषाओंको स्वयं ही रचना की और स्वयं ही उनकी व्याख्या की । इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादने भी स्त्रयं परिभाषा पाठ और उसकी व्याख्या लिखी हो यह सम्भव हो सकता है।
शिक्षा-अभयनन्दीने १ । १ । २ की वृत्तिमें लाभग ४. शिक्षासूत्र उद्धृत किये हैं। ये अधिकांश में प्रापिशल शिक्षासूचीसे मिलते है । पुनरपि इनका प्रवचन जैनेन्द्र व्याकरण की प्रकियानुसार किया हुआ है, यह दोनों की तुलनासे स्पष्ट है। यद्यपि ये जैनेन्द्र सम्बन्धी शिक्षासून किसके द्वारा प्रोक्त है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, तथापि जैसे आपिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमीने अपने अपने शब्दानुशासनौसे सम्बद्ध शिक्षासूत्रों का प्रवचन किया। इसी प्रकार सम्भव है श्राचार्य देवनन्दीने इन शिक्षासूत्रोका भी प्रवचन किया हो। इसका विशेष वर्णन हम 'शिक्षाका इतिहास' नामक अन्धमें करेंगे [पाण्डुलिपि प्रायः तैयार हो चुकी है।
१. देखो, श्री प्रेमीजीका 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख, ग्रही ग्रन्थ पृष्ठ २४ । २. सं० व्या शा० का इतिहास पृष्ठ २०७।
३. देखो महावृत्ति पृष्ठ ५५५, ४५६ । इस सूची में कुछ परिभाषारह गई हैं । यथा-पृष्ठ १२ पर उरत-"अनुबन्धकृतमनेकालत्वं न" परिभाषा ।
४. देखो हमारे द्वारा सम्पादित तथा प्रकाशित 'शिक्षा-स्त्राणि' [प्रापिशल, पाणिनीय तथा कान्द] ।
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जैनेन्द्र- शब्दानुशासन और उसके खिलपाट श्राचार्य पूज्यपाद अन्य ग्रन्थ
श्री पं० नाथूरामनी प्रेमीने अपने लेखमें आचार्य पूज्यपादके निम्न प्रन्थोंका उल्लेख किया हैउपलब्ध ग्रन्थ - १. सर्वार्थसिद्धि २. समाधितन्त्र ३, इप्टोपदेश, ४. दशभक्ति |
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अनुपलब्ध, परन्तु ज्ञात ग्रन्थ - १. शब्दावतार न्यास, २. जैनेन्द्र न्यास, ३. वैद्यक ग्रन्थ [नाम अज्ञात ], ४. सार-संग्रह, ५. जैनाभिषेक।
वैद्य अन्धके सम्बन्ध में नये प्रमाण - १. आचार्य पूज्यपाद रचित वैद्यक अन्यका उल्लेख श्री प्रेमीजी के लेखके पृष्ठ १९ ० १ पर उद्भुत श्रवणचेल्गोलके ४० वै शिलालेखके चतुर्थ श्लोक के तृतीय चरण के 'स्वाभ्यं यदीयम्' पदों में भी मिलता है।
२. जैन आचार्य उग्रादित्यविरचित कल्याणकारक नामक ग्रन्थमें भी पूज्यपादकेनैवक ग्रन्थका निर्देश हैं ऐसा ज्ञात हुआ है [स्वयं नहीं देखा ] |
आचार्य पूज्यपादका नूतन परिज्ञात ग्रन्थ छन्दः शास्त्र - आचार्यने छन्दः शास्त्र पर भी कोई ग्रन्थ लिखा था, इसकी सूचना श्रवणबेलगोलके ४० वें शिलालेखके चौथे श्लोक के तृतीय चरणके 'छन्दः ' पदसे मिलती है। श्री प्रेमीजीले इसका संकेत रह गया प्रतीत होता है। जैनेन्द्र छन्दःशास्त्रका विस्तृत वर्णन हम अपने 'छन्दशास्त्रका इतिहास' में करेंगे। यह लिखा जा रहा है।
इस प्रकार आचार्य पूज्यपादके व्याकरणातिरिक्त उपलध और अनुपलष प्रन्थोंकी संख्या १० हो जाती है ।
हमारे विचारानुसार आचार्य विरचित जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी निम्न ग्रन्थ थे—
जैनेन्द्र सूत्रपाठ, जैनेन्द्रन्यास, धातुपाठसूल, धातुपारायचा, गणपाठ, उणादिसूत्र, लिङ्गानुशासन, लिङ्गानुशासन प्याच्या चार्तिकपाठ, परिभाषापाठ और शिक्षासूत्र !
सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रन्थोंको ढूँढनेका प्रबल प्रयत्न होना चाहिए । | ग्रन्थ निश्चय ही किन्हीं जैन ग्रन्थागारों में छिपे पड़े होंगे। उनका उद्धार परम श्रावश्यक है। धातुपाठ और पाठके हस्तलेखको भी उपलब्ध करनेका प्रयत्न करना चाहिए। जिससे इनकी पाठशुद्धि में सहायता मिले ।
जैनेन्द्र के व्याख्याग्रन्थ
जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर अनेक ग्रन्थ लिखे गये। उनमें से जैनेन्द्रन्यास, भाष्य श्रभयनन्दोकी महावृत्ति, प्रभाचन्द्रका शब्दाभोजभास्कर न्यास, पञ्चवस्तु, लघुजैनेन्द्र और जैनेन्द्र प्रक्रिया नामक ग्रन्योका उल्लेख श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' नामक लेखमें किया है। इनमेंसे न्यास और भाष्य ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध ग्रन्थों मैं अभयनन्दीको वृत्ति ही सबसे प्राचीन है।
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अभयनन्दीसे प्राचीन श्रनेक वृत्तियाँ - श्रभयनन्दीने महावृत्तिके आरम्भमें एक श्लोक लिखा हैयच्छुहइलक्ष णम सुत्र जपारमन्यैरव्यक्तमुकमभिधानविधौ दरिद्रः ।
तस्सर्वलोकहृदय प्रियचा स्वावचैर्व्य की करोत्य भयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥
अर्थात् - कठिनता से पार पाने योग्य जिस शब्दलक्षणको दरिद्रोंने व्याख्या करने में स्पष्ट नहीं किया, उस सम्पूर्ण शब्दलक्षणको अभयनन्दी मुनि सबके हृदयोको प्रिय लगनेवाले सुन्दर वाक्योंसे स्पष्ट करता है । उक्त के पूर्वाष्ट है कि श्रभयनन्दीसे पूर्व इस जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर ऐसी अनेक वृत्तियाँ बन चुकी थीं, जिनमें सूत्रोंकी पूर्ण स्पष्ट व्याख्या नहीं थी । ये व्याख्याएँ लघुवृत्ति के रूप में थीं, वह 'दरिद्वैः' पसे व्यक्त होता है ।
अभयनन्दीका काल—अभयनन्दीका काल विवादास्पद है। डाक्टर बेल्बेलकरने अपने 'सिस्टम आफ संस्कृत आमर में श्रभवनन्दीका काल सन् ७५० [वि०८०७] माना है [पैराप्राफ ३०] । श्रभयनन्दी की
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जैनेन्द्र च्याकरणम् महावृत्ति ३ । २ । ५.५ में भट्ट अकलंक [जिनका कास्न ८०० विक्रम माना जाता है] के तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख है। इससे यह वृत्ति उसके बाद की है, यह निश्चित है। हमने अपने संव्या . शास्त्रका इतिहास अन्ध, अभयनन्दीका काल विक्रम संवत् १०००.१०५० के मध्य में लिखा है [पृष्ठ ४२६] । अभी इस विषयमें अनुसंधान की आवश्यकता है।
अभयनन्दीकी महावृत्ति-जैनेन्द्र व्याकरण के वाङ्मयमें महावृत्तिका वही गौरवपूर्ण स्थान है जो पाणिनीय व्याकरणमें काशिका का है। यह महावृत्ति काशिकासे भी अधिक विस्तृत है। इसका ग्रन्थ परिमाण १२ सहस श्लोक है। ग्रन्थ कारने अपनी वृत्तिके सम्बन्धमै पूर्वनिर्दिष्ट श्लोकमें जो लिखा है वह पूर्णतया सल्प है, उसमें यस्किचित् अतिशयोक्ति नहीं है।
अभयनन्दीका पारिहत्य-निश्चय ही अभयनन्दी व्याकरण शास्त्रमें परम निपुण थे। उनका व्याकरण विषयक ज्ञान केवल जैनेन्द्र तक सीमित नहीं था, अपितु पाणिनीय व्याकरण में भी उनकी अप्रत्यादत गति मी। यह इस वृत्तिके सूक्ष्म अध्ययनले पदे-पदे स्पष्ट होता है। महावृत्तिमें कई स्थल उनके घ्याकरण विषयक अभूतपूर्व पाण्डित्यका निदर्शन कराते हैं। यथा शरा९६ सूबकी व्याख्यामें "प्रविनय्य" प्रयोगको सिद्धिके सम्बन्धमें जो विचार किया है, वह हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुया ।
महावृत्तिके उपजीव्य ग्रन्थ-यद्यपि अभयनन्दीने अपनी महावृत्तिकी रचनामें निस्सन्देह जैनेन्द्र न्यास, प्राचीन लघु वृत्तियों, पातञ्जल महाभाष्य अादि सभी अन्धोंसे सहायता ली है, तथापि सूत्र व्याख्या शैली और वाक्य विन्यासमें काशिकावृत्तिका प्रभान अधिक प्रतीत होता है ।
पालिके परचिलोपर-का पतञ्जलिने जिस प्रकार पाणिनि और कात्यायनके प्रति सम्मानकी भावना रखते हुए उनके सूत्र तथा वार्तिककी सूक्ष्म विवेचना करते समय पाणिनि और कात्यायनके गौरवसे प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय प्रकट किया है, उसी प्रकार अभयनन्दी मुनिने मी अनेक स्थलों पर जैनेन्द्र वार्तिकौंका निष्प्रयोजनात्व दर्शाया है। वथा-पृष्ठ १५ पर "उगित् कार्यम्' तथा पृष्ठ २६ पर 'दाणश्च सा' वार्तिक का।
ख] जैसे पत्तालिने पाणिनीय सूत्रों से साक्षात् असिद्ध प्रयोगोंका साधुत्व दर्शानेके लिए. योगविभाग रूपी कौशल दिखाया है। उसी प्रकार अभयनन्दीने भी योगविभाग द्वारा अनेक पदोंका साधुत्व दर्शानका प्रयत्न बहुत स्थानोंपर किया है ।।
महावृत्तिकी एक महती विशेषता--महावृत्तिकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पाणिनि पतन्जलि चन्द्र तथा पूज्यपाद द्वारा असंगृहीत प्राचीन व्याकरण-नियमों का यत्र तत्र संग्रह उपलब्ध होता है। यथा [१।२।१]
'भूचादीनां चकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते। इको परिमळवधानमनेकेषामिति संग्रहः।"
अर्थात्-'भूवादयो धुः' [१।२।१] सूत्रमै 'भू+श्रादवों के मध्यमें वकारका निर्देश ब्याकरणका लक्षण बतलानेके लिए रखा गया है। अनेक आचार्योंके मनमैं 'इक् से परे यणका व्यवधान होता है, इस लक्षणका संग्रह वकारसे दर्शाया है।
१. कलकताके श्री पं० क्षितीशचन्द्र जी चट्टोपाध्यायने 'टेक्निकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' [पृष्ठ ७१] में इस कारिका तथा महावृत्तिमें आगे व्याख्यात दो चरणोंका पाठ इस प्रकार उधत किया है-"भूवादीनां कारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यरिमायुक्म्परयोरिव ॥ भूत्रो वार्य वदतीति वदेरौणादिके इति । भूयाश्य इति ज्ञेया भूत्रोऽर्था वादयोऽथवा ।"
२. इस सन्धि तथा इससे पदसिद्धि-प्रक्रियापर पड़नेवाले प्रभावके लिए हमारा सं० न्या. शा. का इतिहास, पृष्ट २१-२५ विशेष रूपसे देखना चाहिए।
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जैनेन्द्र- शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ
हमारी दृष्टि अभीतक सबसे प्राचीन यही ग्रन्थ है, जिसमें व्यवधान-सन्धि का साक्षात् उल्लेख किया है।' श्रागे वृत्तिकारने महाभाष्योक्त वकारके मंगलार्थत्वकच खरडन किया है। हमारे विचार में 'मङ्गलार्थः प्रयुज्यते' लेखमें पतञ्जलिका 'मंगल' का वह भाव नहीं है जो जनसाधारण में प्रसिद्ध है। अपितु यहाँपर अध्येता छात्रोंका मंगल अभिप्रेत है। इसकी व्याख्या मैं स्पष्ट कहा है- श्रध्येतारश्च मंगलार्था यथा स्युः । अध्येताका मंगल लक्षण ज्ञानसे ही सम्भव है । '
महावृत्ति मध्यमध्य में त्रुटि - यद्यपि महावृत्तिका यह संस्करण पाँन हस्तलेखों के आधार छपा है, परन्तु इसमें अनेक स्थलोंपर कई-कई सूत्रोंकी व्याख्या खण्डित है। देखो पृष्ठ २८, २१७, ३५८ । इससे स्पष्ट है कि ये पाँचों हस्तछेत्र किसी एक हो मूल प्रतिकी प्रतिलिपियाँ हैं । अतः इसकी पूर्ति के लिए अन्य हस्तलेख प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए ।
जैनेन्द्र व्याकरण नामुद
आजसे ४६ वर्ष पूर्व काशीकी लाजरस कम्पनीकी ओरसे सन् १६१० मैं महावृत्ति सहित जैनेन्द्र व्याकरणका मुद्रण प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादक थे, विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी । इसका मुद्रण तृतीय अध्याय द्वितीय पादके ६० चे सूत्र तक ही होकर रह गया। तब से वह परमोपयोगी ग्रन्थ अधूरा ही रहा । यह परम सौभाग्यका विषय है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस प्रत्यरत्नको प्रकाशने लानेका महान् प्रयत्न किया । उसका यह फल है कि ४६ वर्ष के अनन्तर यह अन्य पूरा कर प्रकाश में आया है। इसके लिए उक्त संस्था अन्त धन्यवादकी पात्र है। इस संस्थाने इसी प्रकार के अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंका प्रकाशन करके समस्त भार तीयों, विशेषकर जैन मतानुयायियों का महान् उपकार किया है। हमारी यही कामना है कि यह संस्था भविष्य में भी इसी प्रकार अपना कार्य करने में समर्थ हो, दिन दूनी रात चौगुनी फले फूले ।
महावृत्तिका नूतन संस्करण - भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित महावृत्तिका यह संस्करण निस्सन्देह महान् परिश्रम का फल है। इसके सम्पादन में ५ हस्तलों से सहायता की गई है। इतना प्रयत्न करनेपर भी इसके सम्पादन में कुछ कमियाँ रह गई हैं। उनकी ओर भी संकेत कर देना हम उचित समझते हैं, जिससे आगामी संस्करण में उसका परिमार्जन हो सके ।
क - अनेक स्थानों पर उद्धृत जैनेन्द्र सूत्रोंके पते देने रह गये हैं। यथा-पृष्ठ ११५० २ - जेरिति दीवम् — 'जे' ४ | ३ | २३४ का सूत्र है, यहीं पृष्ठ पं० १३- शास इत्येवमादिषु – 'शास' यह ४१४ | ३३ का प्रतीक है।
स्व-वृत्तिमै उद्धृत उद्धरणों के पते देने रह गये। यथा पृष्ठ २४ पङ्क्ति २६ – 'एति जीवन्तमानन्दः ' । यह रामायण सुन्दरका ३४ श्लोक ६ का तृतीय चरण है । पृष्ठ ११६ पं० ६ पर निर्दिष्ट 'बाहुलकं प्रकृतेस्ततुष्टेः' कारिका महाभाष्य ३।३।१ की है। इसी प्रकार १/२/१२१ सूत्रपर उद्धृत कारिकाएँ भी भाष्य को हैं ।
ग- कई स्थानों पर कुछ अधिक सावधानता वर्ती जाती तो अनेक पाट ठीक हो सकते थे। वथा -- पृष्ठ ११६ ० ३ पर मुद्रित 'अण्ड: । कृवृद्धः' पाठ 'अण्डो जुड: ' चाहिए। ८० ५-६ - कृतः । कृतवान् । भूतवर्तमाने । यहाँ 'कृसः । कृतवान् । "तः " [ २२२२६५ ] भूत इति वर्तमाने -
१. यद्यपि शाकटायन लघुवृत्ति [पृष्ठ २३] में यह नियम उल्लिखित है। उसका काल अनिश्चित है । अमोघवृत्तिमें इसका उल्लेख है या नहीं यह हमें ज्ञान नहीं ।
२. महाभाष्यकी पंक्ति का यह अभिप्राय हमें महावृत्तिके प्रकाशमें ही समझ में श्राया ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् पाठ चाहिए । 'भूत इति वर्तमाने' आदि पदों द्वारा जिस सूत्रको बृत्ति लिखी है वह, 'त:' [२१२१८५] सूत्र यहाँ श्रुटित है।
___घ - अनेक स्थानों पर वृत्तिमें उद्धृत जैनेन्द्र सूत्र तथा परिभाषा आदिको भिन्न टाइपमें करना रह गया है।
-कहीं कहीं सम्पादकीय टिप्पणियों में भी भूल प्रतीत होती है। क्या--पृष्ठ १६ पं०१६ पर [४ अन्यथा अनिदित इति उकः खस्य प्रतिषेधः स्यात् ।] पर टिप्पणी है-५. कोष्ठ स्थितः पाठोपासंगिक इव भाति । "लुछ:-विछत्यनिदितः" इत्यस्यात्राप्रवृत्तः । प्रत'न होता है यह पति पाणिनीय व्याकरणकी प्रक्रियाको भ्रान्तिसे लिखी गई है। 'हस्त' इस अवस्थामै 'त' के परे रहने पर 'यस्ये तदादि गुः' [जे० शरा१०२] सूत्रसे 'इन् स्' को 'गु' [पाणिनीय अंग] संज्ञा है। जैनेन्द्र प्रक्रियानुसार २११।३८ सूत्रसे 'सि' प्रत्यय होता है, उसका इकार इत् है। गुके इदित् झनेसे 'हलुकः शिल्यनिदितः' [४।४।२३] सूत्रकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसकी प्रवृत्ति न होने से उङ [= उपधा] के 'न् का लोप नहीं हो सकता। अतः कोष्टान्तर्गत पक्ति सर्वथा शुद्ध है।
इन सब कमियोंने रहने पर भी जो संस्करण प्रकाशित हुआ है, वह निस्सन्देह महान् प्रयत्नका फल है । प्रथमबार इतना सुन्दर संस्करण प्रकाशित हो गया, यह महान संतोषपकी बात है।
ग्रन्थके सम्पादनमें कितना परिश्रम पड़ता है, यह भी भुक्तभोगी ही जान सकता है। हाँ, ग्रन्थको सर्वाङ्गसुन्दर बनानेका लक्ष्य तथा उसके लिए सविध प्रवन सम्पादकका अवश्य होना चाहिए। तत्पश्चात् जो कार्य हो जाय उससे सन्तुष्ट रहते हुए अगले संस्करणको सर्वात्मना श्रेष्ठ बनानेका प्रयन्य होना चाहिए ।
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प्राचार्यदेवनन्दिप्रणीतम् जैनेन्द्र-व्याकरणम् अभयनन्याचार्यकृतमहात्तिसहितम्
देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्वामयप्रदम् |
शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिर्विरच्यते ।। १ ॥ या सामसुवामा १५ र क्लबमधामविय: पानी
नत् सर्वलोकदयप्रियचारुवाश्यैयक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ २ ॥ शिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मङ्गलमिदमाहाचार्य:--
लक्ष्मीयत्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते।
देवनन्दितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयम्भुवे ।। लक्ष्मीः श्रीः । सैव विशिष्यते-अन्तमतिक्रान्तः कालोऽत्यन्तः तन्त्र भवा प्रान्तिको अविनश्वरी आत्मत्वभावाधीना केवलज्ञानादिविभूतिरित्यर्थः । अवद्याद् गनिष्क्रान्ता निरवद्या निदोश, अवभासते शोभते, यस्य भगवतः, यस्येति सर्वनामपदस्य सामान्यवाचिचेऽपि अन्यस्यैवंविधा श्रीन सम्भवतीति पारिशेज्यादई मारकस्य ग्रहणम् । यच्छब्दाभिहितोऽर्थस्तच्छन्देन परामृश्यत इति तस्मै देवनन्दितपूजेशे स्वयम्भुवे नमः । 'अस्तु' इत्यध्याहारः, देवाः सुराः तैनन्दिता अभिवर्द्धिता सा चासौ पूजा च तस्याः, 'ईट' इति स्विपि कृते देवनन्दितपूजेट, तथा स्वयमात्मना भवतीति स्वयम्भूः । नमःशब्दयोगे सर्वत्र हेर्भवति ।
लोके प्रसिद्ध साधुत्वानां शब्दानामन्याख्यानाश्रमिदमारभ्यते । अन्वाख्यानश्च प्रकृत्यादिनिभागेन सामा न्यविशेषवता लक्षणेन शब्दानां व्युत्पादनम् । तच्च शब्दार्थसम्बन्धमान्तरेण न सम्भवति । शब्दार्थसम्बन्धसिद्धि श्वानेकान्ताधीनेत्यत नाह
सिद्धिरनेकान्तात् ॥शशा प्रकृत्यादिविभागेन व्यवहाररूपा श्रोत्रग्राह्यतया परमार्थतोपेता प्रकृत्या'दिविभागेन च शब्दानां सिद्धिः अनेकान्ताद्भवतीत्यर्थाधिकार श्रा शास्त्रपरिसमाप्तर्वेदितव्यः । अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकः अन्तः स्वभावो यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः अनेकामा इत्यर्थः । तस्यावग्रहहाबायधारणात्मकं प्रत्यक्षं तद्व्यवहारान्यथानुपपत्तेरितीदमनुमानञ्च साधकम् । अथास्तित्वनास्तित्वादीनां परस्परविरुद्धानां कथमकाधिकरण्यमसङ्कीर्णरूपता च ? यथा भवतामेकत्र हेती अन्वयव्यतिरेक्योः जनके रसे वा जन्यमानरूपरसापेक्षयोः सहकारित्यासहकारित्वयोः । अथ हेतौ सपक्षविपक्षापेक्षया रूपवयं रसे च सभागासमागकार्यापेक्षवा; अत्रापि तर्हि स्वरूपपररूपापेक्षयाऽस्तित्वनास्तित्वे द्रव्यपर्यायापेक्षया च नित्यत्वानियत्ये, द्रव्यपर्याययोश्चान्वयव्यतिरेकाम्यां सिद्धिरित्यास्तां तावदेतत् । अनेकान्तादितीदमेव शापफम, हेतौ कापि भवति । तेनानित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादि सिद्धम् ।
1. दुस्तरम् । २. तस्मै नमः इति शेषः । ३. सम्बन्धान्तरण ०, मु०। ५. 'प्रकृत्यादिविभागेन' इति पुनरुक्तः । ५. -मैक्याधि-मु०। ६. जनकपोरपि मु. । ७. च भागा-१०। ८. पन्चम्पपि ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० १ ० १ सू० २
उत्तरत्र वैकदेशाद्व्यवायोऽधिकार इति । वच्यति - " सरपानक्रियं स्वम् [१] १२] इति । एतच्च वस्तुना साधर्म्य - वैधर्म्यात्मकेऽनेकान्ते सत्युपपद्यते । तथा हि अकाराकारयोः ह्रस्वदीर्घकालभेदेन वैऽपि तुल्यस्थान करणत्वेन साधर्म्यमस्तीति स्वसज्ञाव्यवहारः सिध्यति । यदि हि साधर्म्यमेव स्यात् तदास्तित्वेनेवान्यैरपि धर्मैः साधर्म्ये सर्वमेकं प्रसज्येत। यदि च वैधर्म्यमेव तदा कस्यचिदस्तित्वमपरस्य नास्तित्वमन्यस्य चान्यत् स्यात् । “अधु मृत्” [१] १[५] इति श्रन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थवच्छब्दरूपं मृत्सञ्ज्ञकमनेकान्तात् सिध्यति । तथा हिविभक्त्यन्तस्य च शब्दस्य प्रयोगादर्थे ज्ञानमुत्पद्यत इति सङ्घाता अर्थवन्तो दृष्टाः तदवयवानामप्यन्वयव्यतिरेकास्वार्थ जायते । वृतावित्यत्र विसर्जनीयाभावादेकत्वार्थो निवृत्तः, श्रकारभावाद् द्विलं जातम् । अकारान्तत्रूक्षशब्दान्वयान्नातिरत्वयिनी प्रतीयते । श्रन्वयव्यतिरेकी च भावाचेकान्तवादे न स्तः । तथा "यपाये ध्रुवमपादानम् ” [१|२|११०] इत्यादिषट्कारकी नित्यक्षणिक पक्ष्योनोपपद्यते व्यपायौव्याद्यभावात् । उक्तं च" इदं फलमये किया करणमेतदेष क्रमो
व्ययोयमनुषङ्गजं फलमिदं दशेयं मम । अयं सुहृदयं द्विषन् प्रयतदेशकालाविमा
fe प्रतिवितर्कयन् प्रयतते बुधो नेतरः ।।"
सस्थानकियं स्वम् ॥ ११११२ ॥ स्थानं ताल्वादि, क्रिया सृष्टतादिका । समाना स्थाने किया यस्य, सामर्थ्यात् स्थानमपि समानं लभ्यते । श्रथवा नयिंग सानोभागार मातेशः, तत् सस्थानक्रियं स्वसंज्ञ भवति । श्रात्मलाभमापद्यमाना वर्णास्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं वर्णोत्पत्तिस्थानमित्यर्थः । तदष्टविधम्-"
"warara anaासुरः कण्ठः शिरस्तथा ।
जामूलं च दन्ता नासिकोष्ठौ च तालु च ॥* इति ।
द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुरान्तरः परिस्पन्दः क्रिया । सा चतुर्विधा स्पृष्टता ईषत्स्पृष्टता विश्रुतता ईषद्विवृतता चेति । ध्वनावुत्पद्यमाने यया स्थानानि स्पृशति या स्पृष्टता । मनाकू स्पर्शे ईपस्पृष्टता । दूरेण स्पर्शे विवृतता | समीपेन स्पर्शे ईषद्विवृता । कस्य पुनः किं स्थानम् ? अकुहविसर्जनीयाः कराख्याः । हविसर्जनीयावरस्याचेकेषाम् । जिह्वामूलीयो जियः । सर्वमुखस्थानमवर्णमेके मन्यन्ते । इशयच्वेदैतस्तालव्याः । एतौ कण्ठतालब्यावेकेषाम् । उवोदुपध्मानीया श्रोष्ठ्याः । श्रोदौती कटावे के सम् । कारो दन्तोष्ठ्यः । सस्थानमेके बाञ्छन्ति । वा मूर्धन्याः । रेफो दन्तमूल्य एकेोराम् | स्मृतुलसा दन्त्याः । नासिक्यो ऽनुस्वारः । ञमङणनाः स्वस्थानाः । नासिकास्थाना एकेषाम् । तेषां स्वसञ्ज्ञाप्राप्तिर्दोषः । स्पृष्टिः सृष्टं स्पृष्टानुगतं करणं कृतिस्वारणमेत्रामिति स्पृष्टकरण वयोः । ईपत्करणा श्रन्तःस्थाः । ईषद्विवृत्तकरया ऊष्माणः । विवृतकरणणः स्वराः । तेभ्य एदोली विद्यूततरौ । तेन दध्येतत् मध्वोदनमति स्वेऽको दीत्वाभावः । ताभ्यामंदीतो विवृततरौ । तेन दिश्यैन्द्रयां मध्वोषधम् । ताभ्यामवर्ण इति । तेन पित्रर्थः, दध्यत्र, मध्वत्र । अन्ये संवृतमकारमिच्छन्ति लोके । शास्त्रव्यवहारे तु विवृतम् । एतच्चायुक्तम्, लोकशास्त्र योरुच्चारणं प्रत्यविशेषात् । श्रयं च प्रपञ्चश्चिन्तनीयः । स्वरेभ्यो विवृततराः " आवर्णैच ष्ठति । इयत्यपि निर्देशे न दोषं पश्यामः । श्र इत्य कार उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितः । स प्रत्येकं ङसञ्शकोऽङसंशकः " । एवं दी, एवं पः । एवमष्टादशप्रभेदोऽवर्णः तथा इवर्गः, तथा उबर्णः, तथा ॠवर्णः, तथा लुबर्णः । कथं लृकारो द्विमात्रः ? शक्तिजानुकरणापेक्षया । सन्ध्यक्षराणां आ न सन्ति, तान्यतो द्वादशममेदानि । अन्तःस्था यवता द्विप्रभेदाः नासिक्येतरभेदात् । एवमर्थ २
१. उत्तरसूर्य क - य० । उत्तरसूत्र कदेशाध्याचायो मु० । २. अनुवृत्तिरित्यर्थः । ३. नकारण- प्र०, ल०, ४.-न्यत् । अत्रु ध०, मु० | ५. व भावावेकान्त-मु० ६ प्रतिषु द्विषत इति पाठः । ७. पा० शि० १३॥ ८. पाणिनीयानाम् । ६. श्रन्तयोः कम् | १०. अवर्णेच ३०, स० मु० १५ एवं प्र एवं दी,
अ०, ब०, स० ११२. -मन्त्र - घ० ।
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अ० पा० १ सू० ३-६ ]
महावृत्तिसहितम्
चैतेऽग्सु पठ्यन्ते । अण् स्वं गृह्णातीति यथा स्यात् । रेफोध्मणां स्वा न सन्ति । वर्यः स्ववर्येण स्वसशो भवति । उदाहरणं लोकाग्रम् | मुनीशः । स्थानग्रहणं किम् ? कचटतपानां सम्मानक्रियाणां भिन्नस्थानानां मा भूत् । तस तमिति । अत्र करो मरि स्वे" [४|४|१३६] इति पकारस्य तकारे से प्रसज्येत । क्रियाग्रहणं किम. १ चुवशानां समानस्थानानां भिन्नक्रियाणां मा भूत् । तत्र को दोषः ? अरुश्श्च्योततीत्यत्र "झरि स्व" [ ५४१३१] इति शकारस्य चकारे स्रं प्रसज्येत। "ऋकारयोः वसा वक्तव्य" [व] । पितृ लुकारः पितृकारः । स्वप्रदेशाः “स्वेऽको दी:” [४] इत्येवमादयः : शास्त्र लाघवार्थे संज्ञाकरणम् । हलोऽनन्तराः स्फः ||११११३ ॥ हलोऽनन्तराः विजातीयैरभिरव्यर्बाद्दताः 'सम्बद्धचारणाः स्कसंज्ञा भवन्ति । समुदाये वाक्यपरिसमातिराश्रयते । तेन प्रत्येकं रसज्ञा न भवति । इल इति जात्यपेक्षो चत्वनिर्देशानां रक्षा गर्न कर्मेति रमौ । इन्द्रश्वन्द्र इति नदराः । हल इति किम् ? तितजः | "सनेष्ट' : सन्वच्च" इति उः । श्राका रोकाय वनन्त सान्त प्रसज्येत। श्रनन्तरा इति क्रिम ? पचति पनसम् । श्राच रूपं प्रत्युदाहरणं पनसमित्यत्र "स्फाने: स्कोइसे " [ ४३२४६ ] इति सस्यात् । स्फ इति वर्णपिण्डेन सज्ज्ञाकरणं किम् ? एवंरूपः समुदायः स्मो यथा स्यादित्येवमर्थम् | स्फप्रदेशाः “स्फेरुः” [१२/१०० ] "लिडस्फात किन्” [१।१७९ ] इलेवमादयः । नासिक्यो ङः ||१|१|४|| नासिकायां भवो वर्णों हसो भवति । नासिकायाश्वावनगर पोर्न सादेशो ये विहितः । श्रमङणना उदाहरणम् । परस्परं स्वसञ्शा स्यात् इति चेत् नैवम् स्वस्थानप्रभवा एवामी । उपचारान्नासिक्यत्वम् । यथा मुत्रप्रभवोऽपि स्वर उपचारादंशे भवो वंश्य इत्युभ्यते । तथापि सति मुख्येऽ नुस्वारे नासिकये कथमुपचरितमाम् । तस्य संज्ञायां प्रयोजनं नास्तीत्यग्रहणम् । सज्ञाकार्य शान्तो दान्त इति “हस्य विषझलोः ङ्गिति” [४/४/१३] इति दौत्यम् । नासिक्य इति किम ? तप्तम् । अनुद, तोपदेश" [४|४|१७] इत्यादिना खञ्च प्रसज्येत | पक्कः पकवान् इत्यत्र "स्य विवझटो: " [ ४|४|१३ ] शंत स्यात् । वत्वस्य चासिद्धत्वात् "अनुदासोपदेश' ' [ ४।४।३७ ] इत्यादिना ङखं च प्रसज्येन ।
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मृत् ||१|१|||वर्जितमर्थवदरूपं मृत्मज्ञ भवति । धोरर्थवतः पर्युदासाचा [द] वत्वं लभ्यते । अर्थवाभिमावाभावरूपः । तत्र भावरूपो जातिगुणक्रियाद्रव्यमेदेन चतुर्विधः । गौः | शुकः । पाचकः । इति । अद्रव्यवित्रज्ञायां जात्यादिनार्थवत्त्वम् । द्रव्याभिधाने तु द्रव्यगुणलिङ्गसंख्याकर्मादयो व्यपदिश्यन्ते । तेषां श्रोतनार्थं टाबादः स्वादयश्वोत्पद्यन्ते । एवं डिल्भो इक्थिः । कुण्डं पीठम् । अभावरूपाभिधाने प्रभावो विनाशः | शशविषाणम् । श्रध्विति किम् ? श्रहन् । मृत्ये नखं स्यात् । पर्युदासादर्थवदिति किम् ? धनं वनम् । नकाराबधे सञ्ज्ञायां नखं प्रसज्येत । लू: पूरिति वध्यन्तस्य धुप कृदन्तत्वान् मृत्सञ्ज्ञा । मृत्प्रदेशाः "चम् [ ३|१|१] त्येवमादयः |
कृदुधृत्साः ||१|१|६|| कृदन्तं हृदन्तं ससञ्च नृत्सञ्ज्ञं भवति | कृत् ज्ञाता । ज्ञातव्यम् । हृत्प्राजापत्यः । श्रकम्पनिः | सः - जिनधर्मः । साधुवृत्तम् । "सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थ:' [परि० ] नियमश्च "विधिमुखः प्रतिषेधफल:' इति त्यान्तेषु वृदन्तस्यैव मृत्संज्ञा । इह मा भूत् । असिन्वन् | अभवन् । उत्पन्नानां स्वादीनामेकत्वादिनियम इत्यस्मिन् दर्शने' स्वात्पत्तिः स्यात् । इह च कामडे कुबे रमते राजकुलमिति "प्रो नपि " [१।११७] इति वाच्यादेशः स्यात् । सग्रहमपि नियमार्थम् । श्रर्थवत्संवातानां ससंज्ञकस्यैव मृत्संज्ञा, वाक्यस्य मा भूत् । साधुर्भ्रमं ब्रूते इति, “सुपी धुम्दो: " [१।४।१४२ ] इति सुप उप् प्रसज्येत । सग्रहणात् तुल्यजातीयस्यैव सुबन्तसमुदाग्रस्य वाक्यस्य निवृत्तिः न प्रकृतित्यसमुदायस्य । तेन "वा सुपो बहुः प्राक्तु' ' [ ४।१।१२७ ] इति बही के - कन्चि च कृते बहुतृणं कुमारिका उच्चकैः पटतीति मूखं न निवर्तते । ननु च "सुम्मिन्तं पदम् [91२1१०३ ]
१. - सम्बन्धी - इति पाठः । २ - ति नै अ० । ३. स्वम्प्रस - इति सुवचम् । ४. -ना चुनं च मु० । ५. स्यात् । अथ वत्पर्यु - अ०, स०|| अवतः मर्यु- ब० । ६. न्यायर्स० । ७. मु०, स०
प्रतिषेधफलम
मते । कचि कृ-मु० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् प्रिपासू००-१. इत्यत्रान्तग्रहणादन्यत्र"संज्ञाविधौ त्यग्रहणात्तदन्तषिधिनास्ति परि० इत्युक्ततत्कथं कृदन्तहदन्तग्रहणम् ? नायं संशाविधिः । पूर्वेण विड़िताया मूसंज्ञाया नियमोऽयम् । अथवा "सात्" [५।११७७]इति षत्वप्रतिपधादिह तदन्तविधियिते । अन्यथा सादित्येतस्य केवलस्य मृत्त्वे 'नाद्यन्ते"[५७६] इत्यनेनैव प्रतिषेधः सिद्धः स्यात् । अथ "कृग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्य [परि० इति कृग्रहणं समुदायविध्यर्थ न नियमार्थम । तेन देवदतेन कृतमित्यादेः समुदायस्य मृत्वात् "सुपो धुम्वोः [३१४१५२] इति सुपः उम् प्रसज्येत । नैष दोषः, "साधनं कूता बहुलम् [ ११३।२६] हत्यल्यानर्थत्य प्रसङ्गात् । सर्वशब्दानां व्युत्पत्तिरस्तीत्वस्मिन् पते. पूर्वस्त्रे नास्त्युदाहरणं, संज्ञार्थमेव तत् |
प्रो नपि ॥११जा मुदिति वर्तमानमर्थात्तान्तं सम्पद्यते । प्रादेशो भवति नपि वर्तमानस्य मृदः । नबिति नपुसकलिङ्गस्य संज्ञा पूर्वेषाम् । श्रियमतिकान्तमतिथि | अतिरि । अतिवथु कुलम् । अतिनु जलम् । ईकारकारौ तालव्यौ । ऊकारौकारौ च अोष्ठयावस्माकम् , ततः "स्थानेऽन्तरसमः [२॥१॥४७] इति परिभाषया अन्त्यस्याचः प्रादेशः । नपीति फिम् ? राजकुमारी । अग्रणी | मृद इति किम् ? रमने कुलम् | नन्वलिङ्गत्वादाख्यातस्यात्र प्रादेशाप्रासिरत एबानापि न प्रादेशः काण्डीभूतमिति । इह तर्हि मा भूत् । फाण्डे तिष्ठतः, कुष्य तिष्ठत इति । अत्र मृदधिकाराद् मृदभृदोरेकादेशो मृदन्न भवति ।
स्त्रीगोर्नीचः ।। १। न्यग्भूतो यः स्त्रीचः गोशब्दश्च तदन्तस्य मृदः प्रादेशो भवति । स्त्री इति स्वरितचिहितनिर्देशात् त्रिषामित्येवं विहितस्य त्मस्य प्रणम् | निष्कौशाम्बिः । निर्मथुरः । उभयगतिरिह शास्त्रे । तेन एकविभक्तिवादप्रधानत्वाच्च शास्त्रीवं लौकिकं च व्यक्त्वं गृह्यते । "स्यग्रहणे यस्मात्स तदा हतीयं परिभाषा स्त्रीत्यग्रहणान्नेष्यते । तेन–अतितिलपीठनिः । अतिराजकुमारिः। चित्रगुः । श्वेतगुः । चोक्लत्वादप्रधानत्वाच्च न्यक्त्वम् । स्त्री इति स्वरितचिहितग्रहणं किम् ? अतिलक्ष्मीः । अतिथीः | नीच इति किम् ? साधुविद्या । सुगौः। इह राजकुमारीपुः, मुगोकुलमिति यदपेक्षं न्यावं तत्प्रति तदन्तत्त्वं नास्तीति न प्रादेशः। मृद इत्यधिकारः किमर्थः ? कुमारीपुत्रः गोकुलम् "बोकं म्यक ३।१३] इति प्रादेशः प्रसज्वेत । "ईयसो बसे प्रतिषेधो वक्तव्या (वा) अधः श्रेयस्यो बस्य बहुश्रेवसी पुरुषः । विद्यमानश्रेयसी | सान्तो बिधिरनित्य इति "ऋन्मो:" [४॥२११५३] इति कपि न भवति ।
दुप्युप् ॥ ११ ॥ स्त्रीग्रहणं नीच इति चानुवर्तते । हृद्यपि सति स्त्रीत्यस्य नीच उन्भवति । शामलकम् । कुवलम् । बदरम् | आमलक्या अक्वतः फलम् । "नित्यं दुशरादेः" [३।३।१०४] इति मयट् । इतराभ्यां "प्राग होस्' [३.११३८] तयोः "उप फले" [३।३।१२३] इत्युप् । स्त्रीत्यल्प पूर्वेण प्रादेशे प्राप्ने उबनेन क्रियते । तस्य "परेऽच: पूर्वविधी" [१०] इति स्थानिवद्राबाद् “यस्य व्या च" [1111१३६] इत्यकारस्य खं मातमीविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिधान्न भवति । एवं पञ्चेन्द्रः । पञ्चशष्कुलः । पञ्चेन्द्राण्यो देवता अस्य "वृदथ-" [१॥३॥३६] इति धस: "संख्यादी रश्व” [११३५४७] इति रसंज्ञः, “माग्दोरण' [ ३ ८] इति, तत्य "रस्योबनपत्ये" [1] इत्युप् । स्त्रीत्ययोपि "सन्नियोगशिष्टानामन्यवरापाये उभयारण्यभाष:" [परि०] इत्यानुको निवृत्तिः । पञ्चभिः शषकुलोभिः कीतः पाहांडयः "रादुरली [३।२६] मृत्युप् । हदिति किम् १ गार्गीपुत्रः'। सुप उबत्र । उपौति किम् । गागौं त्वम् | नीच इत्येव अवन्ती । कुन्ती । कुरूः। अबन्तेरपल्यं स्त्री "द्विकरूनामजादकोशलान्यः" [३।१।१५३] इति त्र्यः । तस्य "कुन्स्यवनितकुरुभ्यः स्त्रियाम्' [३/१५५५५] इत्युप् । "हत्तो मनुष्यजातेः" [३।११५५] इति डी । "उरुतः[३|१|५६] इति ऊः 1 अत्र उपि सतीत्युच्यमाने प्रसज्येत ।
पद् गोण्याः ॥१३१६१०।। इकारादेशो भवति गोण्या हृदुपि सति । पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीतः पञ्चगोणिः । दशगेरिणः । आहियो "रादुबखौ श२५] इत्युपि कृते स्त्रीत्यस्य पूर्वेणोपि प्राप्त ऽनेन इकारः । गोण्या इति सूत्रे प्रकृतप्रादेशेन सिद्धे इद्वचनं किम् ? क्वचिदन्यत्रापि यथा स्यात् । पञ्चभिः सूचिभिः क्रोतः पञ्चसूचिः । सप्तसूचिः।
1. चोक-मु० । २, गौरीपुत्रः २० ।
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म. १ पा० । सू. ११-१] महावृत्तिसहितम्
आकालोऽच प्रदीपः ॥११॥ या इति मात्रिकवि मात्रिकत्रिमात्राणां संहितया निर्देशः । प्रदीप इति "सूत्रेऽस्मिन् सुध्विधिरिष्टः" [५।२।११४] इति जसः स्थाने सुः । अा अा३इत्येवं काल इव कालो यस्य सोऽच् यथासंख्यं प्रदीप इलेधंसंज्ञो भवति । अकालः–दधि । मत्रु । पितृ । श्राकातः-खट्वा । गौरी । वामोरूः । श्रा ३ काल:--प्रागच्छ भो माणव जिनदत्ता ३ इत्यादयः । कालग्रहणं प्रत्येक परिमाणार्थम् । ततः अकाल इति विशेषणाद् भिन्नकालयोपयोहणं न भवति । अज्ग्रहणं किमर्थम् ? हलचा संघातनिवृत्यर्थम् । प्रतक्ष्य । तितउच्छमिति । प्र-दी-पप्रदेशाः "प्रो नपि [11310 ] इत्येवमादयः ।
अचश्च ॥१॥१॥१२॥ परिभाषियम् । अचः स्थाने ते प्र-दी पसंज्ञका भवन्ति । “भो नपि" [1] इति । अतिनु | अतिथि । इन्छाती विशेषणविशेष्यभाष इति अजन्तस्य प्रदिशा अच इति किम् ? सुवाक् पूतकुलम । इलः प्रो न भवति | "दीस्कृद्गे" [पा२।१३५] इति । चीयते । स्यने । अच इनि किम् ? भिद्यते । "शमित्यामदोदी:: [५।२१७२] इत्यत्र गृह्यमाणेन शमादिना विशिष्यत इत्यनजन्तस्यापि दीत्वम् | शाम्यति । वाक्यटेः प इत्यत्रापि गृह्यमाणेन टिना अविशिष्यते । आगच्छ भो माणक जिनदत्ता ३ 1 अच इति किम् ? धर्मवी३त् । तकारस्य मा भूत् । चकारः किमर्थः १ संजाविधी नियमार्थः । इह मा भूत् । यौः । पन्थाः । सः । शुभ्याम् शुभिः ।
उच्चनीचाबुदात्तानुदात्ती ॥११॥१३॥ अजित वतते । उच्चैरुपलग्यमानोऽच् उदात्तसंशो भवति । नौचैरुपलभ्यमानोऽनुदात्तसंशोभवति । स्थानकृतमुचलं नीच च गुणः संज़िनो विशेषणम । समान एव स्थाने ऊर्ध्वमागींनष्पन्नोऽच उदात्तसंज्ञो भवति, नीचभागनिव्यन्नोऽनुदात्त इति । “नित्याः शब्दापंसंबन्धाः। इति यैरिभ्यते तेषां निरवयवस्य नित्वस्य शब्दस्य अवयवोपचयापचयाभावात् उदात्तादिव्यपदेशो न घटते, सावयवच्चे च तेषामनित्यत्वं प्राप्नोति । न च नित्यस्य स्थान करणव्यापारविशेषाविशेषः प्रसज्यते । क्षणिकपक्षेऽपि नैका नित्या स्त्ररजातिरस्ति यामपेक्ष्यायमत्रोच्च रयं नीचैरिति परस्परपेक्षो व्यवहारो भन्नेत् । तस्मादक्रमनेकान्तमाश्रियोटात्तादयः समर्थनीयाः । न च लोकमतीतेषु शब्देषु विभागेनोदातादयः प्रतीवन्ते केवलं शास्त्रे व्यवहारार्थ प्रति संज्ञायन्ते । भू इति उदात्तत्वादिद् । भविता । एध सर्च इत्येतयारन्तोऽनुदात्त इति "इनुदात्त तो दः [राचा इति दो भवति । एधते । स्पर्धते । उदान्तानुदान्तप्रदेशेषु उच्चनीचगुणविशिष्टस्य ग्रहणं प्रत्येतन्यम् ।
व्यामिश्रः स्वरितः ॥१४॥ उच्चनीचगुणब्यामिनोऽच स्वरितसंज्ञो भवति । पच यज इत्यन्तस्य स्वरितत्वात् “अस्वरितेत; कन्न प्य फले' [१।२।६८] इति दो भवति । पचे | यजे । स्वरितप्रदेशाः "स्वस्तेिनाधिकारः" [१२।५ ] इत्येवमादयः |
आदैगैप ॥२१५॥ प्रत्येक वाक्यपरिसमाप्तिराश्रीयो । प्रत्येकमादैचा वर्णानामैत्यिोपा संज्ञा भवति । पारिशेष्यात्संज्ञासंझिसम्बन्धी ज्ञायो। तथा हि नानर्थकमिदमाचार्यप्रामाण्यात् । 'साधनानुशासनमपि न भवति, श्रादेचा प्रत्याहारे उपदेशात् । ऐपशब्दस्यापि मूगंशा सिद्धा । नापि पूर्वीपरप्रयोगनियमार्थम् । "सावैम्मे" [५1१1०७] इत्यन्ययापि प्रयोगदर्शनात् । स्थान्यादेशार्थमपि न संभवति | "अवथात् [अक्षयवारतो:][५/२०१६] "रायो हलि। [५।१।१४] "नाची" रात"३।२।१०२]"मृजेरप्"[५।२।१]इति च उभयदर्शनात् । लिङ्गाभावान्तगमार्गामभावः । विशेषणविशेष्यभावोऽपि प्रतीतपदार्थवोभवति नीलोत्पलम् । एवमन्यस्यार्थस्यासम्भवान् संज्ञासंशिसम्बन्धः । लघ्वक्षा संज्ञा । आदैचामपा तद्भावितानामतभावितानां च मामान्येनैसंज्ञा । तद्भावितानामु
१ हलामचा च संघातस्य प्र-दी-पसंज्ञानिवृत्यर्थः । २ 'क्ष' इत्यस्य हलसमुदायस्य 'प्र' संज्ञायां यपि परतस्तुक प्रसज्वेत । ३ तितउच्छन्नमित्यत्र 'उ' इति अ-उसंघातस्य दीसंज्ञायां 'धा पवस्य' [४।३।६४ ] इति विभाषया तुक प्रसज्यत । ५. विशेष्यते श्र०, २०, स०। ५. परिशेषा-प० । ६. साध्वनुशास-स०। ७ 'नाचो रात्' १०, २०, स. । एतच्च नोपलभ्यते । 'नावो रात्' इत्युपलभ्यते परन्तु नोचितमिदमन । प्रन्यस्वारस्याप्त 'मतो नाव: [ ५111८३ ] इति प्रतिभाति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
दाहरणम् —–नाडायनः । दैवदत्तिः | औपगवः । तद्भावितानाम् — मालामयम् | रेमयम् 1 नौमयम् । विका राऽर्थे "नित्य ं दुःशरादेः”[२|३|१०१ ] इति मयट् । श्रादिति तपरकरण मैजर्थम् । तादपि परस्तपर इति । तेन तवैषा महौषभिरित्यादि त्रिमात्रचतुर्मात्राणां निवृत्तिः । "आई" [१।१।१५] इत्यत्र "सूत्र े ऽस्मिन्
" इति सः स्थाने सः । ऐप्रदेशाः "मृजेरेप्” [५।२।१] इत्येवमादयः ।
अदे || १|१|१६ || देशं वर्णानां प्रत्येकमेवित्येा वंज्ञा भवति । त्रायतद्भावितानां तद्भावितानाममेशा ! श्रावितानाम् पचन्ति । पत्ते | एधन्ते | "पुण्यतोऽपदे [४३८४ ] इति पररूपम् । तद्भावितानाम् -- कर्ता | चेता दो। ऋलीप सागतोऽदतमौ काराकारौ भवतः । तौ च प्रसज्यमानावे रन्तौ । श्रदिति तपरकरणं दी पनिरृत्त्यर्थमेइर्थं च । तेन मालेयं स्वय्बोदा इत्यत्र त्रिमाचतुर्मात्राणां नित्तिः । एवदेशाः “मिवेश्पू" [५।२७१] इत्येवमादयः |
I
इकस्तौ ।। १।१।१७ || परिभाषेयम् । ऐषौ संज्ञया विधीयमानौ इक एव स्थाने भवतः । स्थानिनियमोऽयं न विधिनियम इति । कुत एतत् ? "सक्थ्य स्प्रिदध्यक्ष्णाम्” [५।१।५४ ] इतीको निर्देशात्, एत्रैपोर्लक्षणान्तरेण विधानाच्च । प्रत्यासत्तेः पूर्वमेचुदाहरणं वदति । “गाइगयोः " [२] | करें | नयति । भविता | "सावैग्मे' [५/१/७७ ] | कार्यत् । अनैधीत् । ग्रहषीत् । इच्छासो विशेषणविशेष्यभावः ।“मिदेरेषु” इत्यत्र गृह्यमाणेन मिदादिना इविशेष्यते । तेनानन्त्यस्य भवति । “जुसि" [ ५१२१८० ] "गाऽगयोः” [५२८१] इति गृह्यमाणमिका विशेष्यते इतिगन्तस्य भवति । इक इति किम् ? श्रात्संभ्यख्यन्वनानां मा भूत् । यानम् । ग्लायति । उमिता । श्रजित्यन्त्रावर्तनादेवेोः सम्बन्धे सिद्ध 'तो' ग्रहणं संज्ञाविधाने नियमार्थम् 1 द्यौः | पन्थाः । सः | वत्र स्थानी निर्दिश्यते तत्र ने व्यामिश्रते । यथा "ष्णित्यचः ”[५।२।३] इति ।
- नधुखेऽगे ॥ १११ ॥ १८ ॥ प्रतिषेधसामर्थ्यादेकदेशे दुर्वर्तते । घोः स्वं यस्मिन्न स मुखः । तन्निमित्ताभक्तः । लोलुः । पोपुवः । मरीसृजः । यन्तेभ्यः पचाद्यच् । "थोऽचि” [१1४२१४४] इति य उप । श्रतः खात् प्रागेव च यङ उद्वेषितव्यः । अन्यथा इत्यत्र श्रखमजा देश इति कृत्वा तस्य स्थानिवद्भावात् "चि क्ङिति युट्” [४।४।६२] इति युद् प्रसज्येत । धुग्रहणं किम् ? लूञ् - लविता | खविधिर्बलवानिति प्रागेव ज्ञावा अनुबन्धनाशः । अत्रागनिमित्तं खं नास्तोति द्व्यङ्गवैकल्यं नाशङ्कनीयम् । यतो धुग्रहणे सति बसो लभ्यतो धोः खं यस्मिन्निति । चसेन ग इत्यस्य विशेषणं किम् १ क्नूयी, कोपर्यात । अत्र कमाश्रित्य यखं नागनिमित्तमिति न प्रतिषेधः । पिसे तु प्रसज्येत । श्रग इति किम् ? रोरवीति । गनिमित्त पन्भवत्येव । अत्रापि श्रखमग निमित्तं न भवतीति व्यङ्गवैकल्यं न मन्तव्यम् : यतोऽगग्रहणे सति धुवनिमित्तत्वं लभ्यते । इक इत्येव । श्रभाजि | रागः ।
[ अ०
० पा० १ सू० १६-२०
कूङिति ॥ १|१|१९|| गिति किति ङिति च निमित्तभूते याचेप प्राप्नुतस्तौ न भक्तः । गिति"भूस्थि: क्स्नु:" [ २/२/११५ ] इति भूष्णुः । जिष्णुः । किति - चितम् । स्तुतम् | भिन्नम् | मृष्टम् । हिति – चिनुतः । चिन्वन्ति । मृएः । भुजन्ति । इक इत्येव । कामयते । अचिनवमित्यत्र लङो बिश्वात्कस्मान्न प्रतिषेधः, "सूभवत्योर्मिहि" [५/२/८६] इति । अभूत् । भवते लादी मिये प्रतिषेधवचनं शापकं ङितो लकारस्यादेशो किन्न भवतीति । यासुटो ङित्करणं च ज्ञापकम् ।
ईदूदेदुद्विर्दिः || १.१.२० ।। ईत् त् त् इत्येवमन्तो यो द्विः स दिसंज्ञो भवति । अग्नी इति । वायू इति । खट्वे इति । तद्वदित्यनेन खरचैकादशो द्विग्रहणेन गृह्यत इतीदाद्यन्तश्च भवति व्यपदेशिकद्भावेन | मुख्यरूपेणायं त्रिंरेकारान्तः । पचेते इति । पचेथे इति । सत्यां दिसंज्ञायाम् “प्रकृत्याऽवि दिपा:" [४३१०३]
1
१. श्रनि- अ०, ब०, स० । २. अकारस्येत्यर्थ: 1 ३ चकारनाश इत्यर्थः । : ४. स्थानिका देश नृत्यर्थः । ५. विध्यगत्रै २० । ६. जसे तु अ० अ० मु० । ७. यः स प्र०, ६०, स० । ८. नि मित्त' न' इस्यन्न 'अनिमित्त' न' इति पाठः स्वरसः | १. 'अस्तु' मु० | १०. अभूत् इत्यस्य 'लूभवत्योर्मिद्धि' इत्यतः पूर्वमेव पाठो युक्तः । 'अभूत् इत्यस्या 'इत्यत्र' इत्यपि योज्यम् ।
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बा १ पा० १ सू. २१-२७]
महावृत्तिसहितम्
इति प्रकृतिभावः । ईदू देदिति किन् ? वृक्षावध । तपकरणमनन्देहाभ "भणीघादिपु नेप्यते" मणीव | दम्पतीन । रोदसीय शोमते । "संज्ञाविधी त्यग्रहणे तदन्सविधिनास्ति' इति अशुक्ले शुक्ले सम्पन्ने शुक्लधास्तां वो इति त्वखे त्वाभयन्यावर दिसंज्ञा न भवति ।
॥राश२१॥ एदिति निवृत्तम् । दकारस्य स्थाने यो मकारस्तस्मात्पराबीइतो दिसंज्ञौ भवतः । अमी आसते । अपी अत्र । अम् अासते । अभू अत्र | "बहावीरेत;" [ पारामा ] इति मत्वमीत्वं च । "दादुर्यो मोऽवसोऽसे: ' ( ५३इति मम । विमानस्य ओंकारस्य विमात्र ऊकारः। आश्रयान्म कारादीनां सिद्धिः । द इति किम् ? शम्बत्र । दाडिम्पन्न | म इति किम् ? द इति तानिर्देशपक्षे तेऽरेत्यत्र दकारादेशस्य परेणापि कृते स्थानिवद्भावात्तद्वद्भावाच दिसंज्ञा प्रसज्येत । कानिर्देशपक्षे चतुष्पद्यर्थ इत्यत्र स्यात् । ईदूदित्येव । इमेऽत्र ! एकयोग निर्दिष्टानामेकदेशोऽनुवर्तते निवर्तते चैक देश इति पद्मइण् निवृत्तमिति । अन्यथा अमुकेऽत्रेत्वत्रानुवर्तनसामर्थ्यादुकारककाराभ्यां व्यवधानेऽपि बचनप्रामाण्याद्दिसंज्ञा प्रसज्येत ।
निरेकाजनाङ॥११॥२॥निसंशएकाच अनाङ दिमंझो भवति | अपहिइन्द्रं पश्य । ज अपसर । निरित किम् ? चकारान। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रकृतेस्त्यस्य च विभागः । अपायना बनुबन्धलिङ्गेन निरनुबन्धादकागद भिद्यते पल । एकश्चासावच्च एकाजिति किम् ? प्रश्नाति । अनाइिति किम् ? श्रा उद कान्तात् । श्रोदक्रान्तात् । इित्करणं येघधैगु डिदयं वर्तते तत्र प्रतिरोधो यथा स्वादन्यत्र दिमन व मयनि ।
"ईपदर्थ क्रियायोगे मर्यादा ऽभि विधौ च यः।
एतमात ङित विद्याद् वाक्यस्मरणयोरडित् ॥” यथाक्रमम् । आ उष्णम् ओष्णम् । श्रा इहि एछि। आ उदकान्तात् श्रोदकान्तात् । श्रा अर्भकेभ्यः श्रा केभ्यः । श्रार्भकेभ्यो यशः प्रतीतम् । बाक्यपूरो स्मरणे चाथै डिस्वाभावाद्दिसंज्ञा । श्रा एवं नु मन्यसे । श्रा एवं किल तत् ।
ओत् ॥११॥२३॥ अनेकाजर्थ श्रारम्भः | अोदन्तो निर्दिसंज्ञो भवति । अहो इति । उताहो इति । अत्र प्रोदिति प्रधानम् । वचनान्तु प्रधानेनामि तदविधिः । तेनेह लाक्षणिकप्रान्न भवति । श्रदोऽभवत् । तिरोऽभवत । अनुपदेशेऽदः ।।१३६] "तिरोऽन्तधी १२।१५०] इति निर्मज्ञा । इह तु गौणत्वान्न भवति । अमौर्गाः सम्पन्नो गोभवत् । "स्थितार्याधिः" [ १।२।१३२ ] इति निगंज्ञा । गौणत्वाद्वाहीके गोशब्दस्य कथमैबादिकार्यमिति चेत् १ सामान्येन संस्तु तस्य पदस्य प्रयोगाददोषः ।
को धेतौ ॥१॥९॥२४॥ किनिमित्तो य श्रोकारस्तदन्त इतौ परतो वा दिसंशो भवति । पटो इति । पटमिति । साधो इती । साविती । काविति किम् ? मवित्ययमाह । गोरिति वक्तव्यमशक्त्या गो इत्युक्तमनुक्रियतेऽनेकान्ताश्रयणात् । अनुकार्यानुकरणयोरभेदविवक्षायामसत्यर्थवस्त्रे विभक्त्यनुत्पादः । इताविति किम् ? पटोऽत्र। .
उमः ॥१९॥२५॥ उञित्येतत्स वा दिसंज्ञा भवतीतो परतः 1 उ इति, विति । "निरकाजना" [१।१।२२] इति नित्यं दिसंज्ञा प्राप्ता । सानुबन्धनिर्देशः किमर्थः १ अहो इति । उताही इति । निसंघातपक्षे निरनुबन्धस्य मा भूत् ।
ऊम् ॥१।२।२६॥ उत्रः मित्ययमादेशो भवतीतो परतः । इति द्विमात्री नासिक्यो दिसंज्ञकश्च के इति यद्यपठितोऽपि निर्मज्ञकोऽस्ति तस्येतावेवः प्रयोगो यथा स्वादित्यारम्भः ।
दाधा भ्वपित् ॥११॥२७॥ दा धा इत्येवंरूपा धयो मुसंज्ञका भवन्ति पितौ वर्जयित्वा । दारूपाश्च
१.-यात्मका--प्र०, स०, मु. । २.प्रकारेण इत्यर्थ: । ३. योगे निदि-म। -को हे-स। ५. निरिति महणे कस्मास भवतीत्यत भार-अपायिनेत्यादि । ६. लिहगेन निरनुबन्धलिङ्गेन निर-मन, मु। परमसमीचीन एष पाठः । ७. एव-मु०। ८. तेन बिना मर्यादा । १. तेन सहाभिविधिः । १० मा कि-०,०स०।११,संस्कृतस्य म०।
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [म.. पा० । सू० २५-३५ त्वारः । प्रणिददाति । दाण। प्रणिदाता । प्रणिदयते । प्रणिति । धारूपो द्वौ । प्रणिदधाति । प्रणिधयति । दैपः पित्करणं ज्ञापकम् । अत्र प्रतिपदोक्लपरिमापा नाश्रीयो । भुसंज्ञाकार्य "नेदन" [५११..] इल्यादिना गुत्वं "मुभा" [१।६५] इत्यादिना इलीत्वं च । दीयते । धीयते । धीतं कसन । अपिदिति किम् १ दायते बर्दिः । अवदायते माजनम् । 'भुप्रदेशाः “मुस्थीः” [1111] इत्येवमादयः ।
क्लकवत तः ॥ २८॥ क्लश्च क्तवतुन तसंजौ भवतः । रूपसंज्ञेयम् । कृतः । कृतवान् | भूत इति वर्तमाने इति तलवतुरूपौ त्यो भवतः । कारितः। कारितवान् । "ते सेटि' [४५५] इति णेः खम् । मिन्नः । भिन्नवान् । "बान्तस्य तो नः" ५।३१५६] इति नत्यम् | ककारः कित्कार्यार्थः । उकार उगित्कार्यार्थः । तप्रदेशाः ग्ते सेटिं" [ ५४] इत्येवमादयः ।।
संशाः खुः ॥शश२।। मंज्ञाशब्दवाच्योऽर्थः खुसंज्ञो भवति 1 खुपदेशाः "खावन्यपदार्थे" [11३।१] इत्येवमादयः ।
भावकर्म डिः ॥११॥३०॥ भावकर्मशब्दवाच्योऽर्थो डिसंज्ञो भवति । हिप्रदेशाः “मिकों" [२।१।१२] इत्येवमादयः । तत्र भावकर्मणोम्रहणं प्रत्येतव्यम् ।
शि धम् ॥ १३१।। शि इत्येतद्धसंज्ञ' भवति । शि इति नपुंसके जश्शसोरादेशस्वार्थवतो ग्रहणम् । कुएडानि तिष्ठन्ति । कुण्डानि पश्व । धप्रदेशाः "धेऽको' [ ३] इत्येवमादयः ।
सुडनपः ॥२१॥३२।। सुडिति प्रत्याहारेण स्वौजसमौटां ग्रहणम् । सुट् धसंशो भवति नपुंसकलिङ्गादन्यस्य । राजा । राजानौ । राजानः । राजानम्। राजानौ। "धेऽकी" [१६] इति दीत्यम् । सुद्धिति किम् १ राज्ञः पश्य । अनप इति किम् ? सामनी । वेमनी । अनप इति पर्युदासात् स्त्रीपुंसम्बन्धिनः सुटो धमंशा नपुंसके न विधिन प्रतिषेधः । तत्र पूर्वेण जश्शसोरादेशस्य शेर्धसंज्ञा भवत्येव । ननु व्यक्तं स्त्रीपुंसग्रहणमेव कर्तव्यम् ? एवं तनप इति निर्देशात् सापेक्षत्यापि नजः सविधिर्भवतीति ज्ञाप्यते । तेन अश्राद्धमोजी अलवणभोजीत्येवमादयः सिद्धाः ।
कतिः संख्या ॥ १।११३३ ।। फतिशब्दः संख्यासंज्ञो भवति । कतिकृत्वः । कतिधा । कतिकः । कि परिमाणमेघा "किम:" [३।१।१६२] "सण्यापरिमाहे इतिश्च' [३११६३] इति इतिः। कति वारान् भुत । कतिभिः प्रकारैः । कतिमिः क्रीत इति । यथाक्रम "संख्यामा भ्याभूत्ती कृत्वस" [१२।२४] "संख्याया विधार्थ धा" [१1१1१०६] "संख्यायाः कोऽतिशत:" [३११११] इति क इत्येते भवन्ति । ननु प्रदेशेषु संख्याग्रहणेनान्वर्थविज्ञानात् संरख्यायतेऽनयति कृत्वा कतिशब्दस्यापि ग्रहणे सिद्ध क्रिमर्थमिदम् ? नियमार्थम् । अनियमितेषु कतिराब्दस्पैत्र संख्यारूपता । तेन भूरिप्रभूतादोनां निवृत्तिः "संख्याबाहोऽबहुगणात्" [१।२।११] इत्यत्र बहुगणयोः प्रतिषेधावति संख्याग्रहणम् । बलुकृत्वः । गणकृत्वः । वैपुल्यसङ्घयोर्न संख्यात्वम् । "वसोइँट् [३।१२०] इति वचनं लापकं भवति वत्वन्तत्य संख्याग्रहणेन ग्रहणम् । तावतिकः । तावत्कः । संख्याप्रदेशाः "संख्यायाः कोऽतिशत:" [शा१६] इत्येवमादयः ।
ष्णान्तेल ।। १५१३४ ।। कतिः संख्येति वर्तते । षकारनकारान्ता मंख्या कतिशब्दश्च इल्संझौ भवतः । wणान्तति पदस्य संख्यापेक्षः स्त्रीलिङ्गनिर्देशः। कतेरनुवर्तनसामादिलसंज्ञा | षट् । पञ्च । सप्त । कति तिष्ठन्ति । "इबिलः" [41 ] इति जस उप । ष्णान्नेति संख्याविशेषणं किम् ? विग्रुप. पामान इति अन्तग्रहण बसनिर्देशेन संख्याप्रतिपत्यर्थमोपदेशिकाध च । तेन शतानीत्यादी न भवति । इल्पदेशाः "उनिखः" [41१1१५] इत्येवमादयः ।
सर्वादिः सर्वनाम ।। १।११३५ ।। सर्वादयः शब्दाः प्रत्येक सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । सर्वे । सर्वस्मै । सर्वेषाम् । स्त्रियाम्-सर्वस्वै । विश्वे । विश्वस्मै । उभशब्दस्य सर्वनाम्नो भा'[१/३६] इत्येवमः पाठः।
१. भिखा-40, स०। २. स्त्रीपुंससम्ब-१०, स.। ३. नपः २० । . या अभ्या-मु० । २.-दि स-मु० । ६. मो भावत्ये-च० । -म्नो भावस्ये-सः।
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we 1 पा० १ सू० ३६-३८] महावृत्तिसहितम् उभाभ्यो हेतुभ्याम् । उभयो, त्योसति । द्विवचनटाप्यरश्वायम् । उभो पनौ। उभे कुले । उभे विद्ये । उभे। उभयस्मिन् । उभयेषाम् ] जम “प्रथमचरम'' [111४१] आदिग्रिकल्पात् पूर्वनिर्णगेनायमेव विधिः । उभये इति । उत्तरडतम इति त्यो । कतरस्मै । इतर अन्य अन्यतर | इतरस्मै । अन्यस्मिन् । अन्यतरस्मै । वं प्रत्ययं शब्दोऽन्यवाची | त्वे । त्वेषाम् । नेम । नेमस्मिन् | जसि वक्ष्यमाणो विकल्यः । नेमे । नेमाः । समशब्दः सर्वशब्दस्यार्थे । समे । समम्मिन । अन्यत्र यथासंख्यं समाः । समेटेशे तिष्यतीति भवति । सिमः । सिमस्मै । पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्" "स्वमज्ञान्तिधनाव्यायाम" " "अन्तर बहिर्योगोपसंज्यानयो;" त्सद् तद् यद् पतद् अदम् इदम् एक द्वि | अलविधि प्रति द्विपर्यन्नासत्यदादयः। युष्मद् अस्मद् भवत् किम् ।' त्यदादीनां यद्यत्परं तत्तनुभयवाचि । सर्वनामेल्बन्वर्थसंज़ारिशानात नंकोपसर्जनानां न भवति ! स! नाम कश्चित्तस्मै साव देधि । अतिक्रान्तः सर्वमतिमर्वनन्मै अतिसर्वाय । "पूर्वर दात् खावगः" [४] इति यात्वं न भवति । सर्वनामप्रदेशाः "आम्या सर्वनाम्नः'' [११।२४] इत्येवमादयः ।
था दिक्तये ॥ ३६॥ दिगुपदिष्टे से वसंज्ञके सर्वादीनि चा सर्वनामर्मज्ञकानि भवन्ति । "न" [111३७] इति प्रतिषेधे प्रासे वचनम् | दक्षिणपूर्वत्यै । दक्षिणपूर्वाय । उत्तरपूर्वस्यै। उत्तरपूर्वायै । दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालमिति विरह्म' 'दिशोऽन्तराले" [३८] इनि यमः । “सर्वनाम्मो वृत्तिमाने पुवनावः" [वा०] इति पूर्वपदस्य वदावः | उत्तरपदस्य "बीगोपीच:" [11111] इति प्रा । पुनष्टाप । प्रतिपदोक्लस्य दिक्सस्य' प्रहशादिह नास्ति विकल्पः । दक्षिणैव पूर्वा अन्य मग्धस्य दक्षिणपूर्वाय देहि । दनिया च सा पूर्वा च सा अस्मिन्नपि विहे परत्वात् "दिशोऽन्तराजे" [११३मम] इतीयं प्रातिर्न राज्ञा दण्डवारितेत्ति कर्तव्यमेवेदं सूत्रम् । दिग्ग्रहणं किम् ? "न थे' इति प्रतिषेधं वक्ष्यनि तस्य प्रतिपेधल्यास्य च विकल्पस्य विषयज्ञापनार्थम् । सग्रहणं किम् ? साधिकाविहिते बसे विकल्पो यथा स्यादातिदेशिके मा भूत् । दक्षिणातन्ति गमै देहि । मानाभे" !] पति हिला । बदतिदेशश्च "म बे" इत्यत्रापीट समहणमनुवर्तते रोनापि न प्रतिरोधः । बग्रहणं किन ? दक्षिणोत्तरीणाम् | दुन्हे विकल्पो मा भून 1 ननु प्रतिपदोक्लल्य ग्रहणमत्रोक्तं ततो "इन्द्र" [ २६] इत्येव प्रति वेधः सिद्धः । उत्तरार्थ तहि ग्रहणम् ।
नये ॥१२॥३७॥ ते सर्वादीनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति । हयन्याप | व्यन्याय | "सर्वनामसंख्ययोः" इति वक्तव्येन पूर्व निपातः संख्याया एवं । प्रियविश्वाय । प्रियोभवाय । इदमेव प्रतिरोधवननं ज्ञापकमत्र नदन्तविघिरस्तीति । तेन परमसर्वस्मै इत्यत्रापि सर्वनामसंज्ञा । ननु सर्वनामसंज्ञायामन्वर्थविज्ञानासंज्ञोपसर्जननिवृत्तिरहा सर्वोपसर्जनश्र अस इति सर्वनाम संशायाः प्राप्त्यभावात्सूत्रमिदमनर्थकम् । नानकमान्, प्रयोजनमद्भावात् | त्य फ्तिाऽस्य ग्राहक पिताऽस्य खत्कपिनकः । मत्कपिनका । बसानग्मदस्य सर्वनाममज्ञाविहादग्मा गन 1 कुल्साद्यर्थे के परतः "स्यधोश्व'' [२५/३५५] इति समादेशौ । स इत्येव । एकैफन्मन् ! "एको यवन्" [शश७] इत्यातिदेशिके बसे प्रतिषेधो मा भूत् । बाऽधिकारे पुनर्वग्रहणं बसगर्ने द्वन्द्व गप नित्यप्रतिधार्थम् । वस्त्रान्तरगृहान्तग इति ।
मासे ॥११॥३८॥ भासे सर्बादीनि सर्वनामसंचानि न भवन्ति । मासपूर्वाय । संवत्सरपृ.बाय । मासेन पूर्वः । "पूर्वावरसाश' [३२] श्रादिसूत्रेण भासः । सः इति वर्तमाने पुनः राय हा भासाथै वाक्येऽपि तत्संशाप्रतिषेधार्थम् । मासेन पूर्वाय । मुख्ये च "पूर्वाधर" [३८] इत्यादि भामे यद् वाक्यं तत्र प्रतिषेधो न । "साधन कृता बहुलम्" [१/३/२६] इति भासे | लयका कृतम् । मयका कुतम् । अन्यथा लत्केन कृतं मत्तेन फुलमित्यनिष्टं स्यात् । लयका मयकेति पूर्व लमादेशौ । ततः सुबन्तादक । नया हाग्विधौ वक्ष्यति । मृदः सुपः इति च द्वयमपीहानुवर्तते । अभिधानतश्च व्यवस्था । सत्र मृदः प्राक् सुपोऽभवति । युष्मकाभिः । असकाभिः ।
१. एकशेषवादिनी हि "त्यहावीनाम्मिथः सहोती यस्परं नच्छिाप्यते" इति वचनेन परस्य पूर्वाधपाश्चितामभ्युपगच्छन्ति । परं स्यन्दानीना अद्यत्परं तत्तद्ध पयवाचि' कशेषम वैषायमात्राय एकाशेषप्रयोजन निर्वाहयति । २. 'सर्वनाम इत्यन्त्र' इति शेषः । ३. सौमत्वात् इति शेषः । ५. 'प्रदाय' म.। ५. "न बे" सूत्राथमित्यर्थः । ६. 'एवं' मु.।
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जैनेन्द्र ज्याकरणम् [म. १ पा० १ ० ३१-९ युष्मकासु | अस्मकासु । युवकयोरावकयोरिति | क्वचित्त, सुचन्तस्याक् । त्वयका | भयका । त्ववकि । मयकि।
द्वन्दे ।।१।१।३९।। द्वन्द्व से सर्वादिनि सर्वनामसंशानि न भवन्ति । कतरकतमाय । कतरकतमात् । कतरकतमानाम् ।
या जसिश द्वन्छे से सबंदिया सर्वनामसंज्ञा वा भवन्ति । कतरकतमे । कतरकतमाः । पूर्वेण नित्यप्रतिषेधः प्राप्तः । जसील्याधार निर्देशाज्जसि कार्य शौभावो विभाष्यते । अक् तु पूर्वेणैव प्रतिषिद्धः । यदि जति परतस्तत्मंशा विकल्प्येत तदा सेज्ञापक्षेऽग्भवेत् , कतरकतमके इत्यनिष्टं प्रसज्येत । कृत्साद्यविवक्षायां नु के सति तद्व्यवधानान्न शीभावः । अतः कतरकतमका इति सिध्यति । न च केऽपि सति स्वार्थिकस्य प्रकृतिमहणेन ग्रहणम् । अन्यथा सर्बादौ उतरछतमग्रहणमनर्थकं स्यात्, सर्वनाम्न एव तयोर्विधानात् ।
प्रथमवरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः॥१।१४।। प्रथमादयः शब्दा नसि या सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । प्रथमे. प्रथमाः 1 चरमे, चरमाः । तय इति व्यग्रहणं तेन वचनासंगविधावपि तदन्तविधिः । द्वावयवयापा मिति द्वितवे. द्वितया: 1 "संख्याया अवयवे तयट" [३|१५] इति तयट् । एकविकृतवानन्यत्वाद्विकल्पः द्रये, याः । उभये । श्रयमुभयशब्दः सर्यादित्वान्नित्यं सर्वनामसंज्ञः । अल्पे, अल्पाः । अधे, अर्धाः। कतिपये, कतिपयाः । नेमे, नेमाः । नेमशब्दस्य प्राप्ते ऽन्येषामप्राप्ने विभाषा | अत्रापि जसः कार्य प्रति विकल्पः । कुत्साद्यर्थे के कृते तेन व्यवधानात्पनेऽपि सर्वनामसंज्ञा न भवति । तेन प्रथमका इत्यादि सिद्धम् ।
पूर्वादयो नव ॥१।१।२२॥ पूर्वादयो नव सर्यादौ व्यवस्थिता जसि वा सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । तथा हिपूर्वपरावरदक्षिणोसरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्" "स्वमशातिधनास्यायाम" "अन्तरं बहियोंगोपसंख्याभयोः" इति । पूर्वे, पूर्याः । परे, पराः । अवरे, अवराः । दक्षिणे, दक्षिणाः । उत्तरे, उत्तराः । अपरे, अपराः। श्रघरे, अधराः । व्यवस्थायामिति किम ? दक्षिणा इमे गायकाः | अपरा वादिनः । नात्र दिग्देशकालकतोऽवधिनियमो व्यवस्था प्रतीवरी; किं तर्हि १ प्रावीण्यमन्यार्थता च । असंज्ञायामिति किम् । उत्तरा कुरवः । व्यवस्थायामपीयं संशा | तेषां स्खे शिष्याः स्वाः । यदा जातिधन्नयोः मंशारूपेण वर्तते स्वशब्दस्तदा नास्ति सर्वनामसंशा । उन्मुकानीव स्वा दहन्ति | विद्यमाना अपि स्वा न दीयन्ते । अन्तरे गृहाः । अन्तरा गृहाः । नगरवाडा इत्यर्थः ।
अपुरीति वक्तव्यम् [ वा०] | अन्तरायाः पुर अागताः । बाह्याला इत्यर्थः। अन्तरे शाटकाः । अन्तराः शाटकाः । उपसंच्यानमित्युत्तरीयवत्रस्य संशा | बदियोंगोपसंख्यानयोरिति किम् ? इमं प्रामाणामन्तराः । अयमनयोरन्तरे स्थितः। जसि कार्य विभाज्यते; अक्तु भवत्येव प्रतिपेधाभावात् । पूर्वके, पूर्व काः । इत्येवमादि शं यम् |
डिस्योरतः।।१।११.३।। पूर्वादयो नव वेति चानुवर्तते। अकारान्तानि नब पूर्वादीनि छिटस्योगं सर्वनामसंज्ञानि भवन्ति । पूर्वस्मिन्, पूर्वे । पूर्वस्मात्, पूर्वोत् । परस्मिन् , परे । परस्मात, परात् ! इत्यादि योज्यन् । डिस्याश्रयं कार्य विभाष्यते; अक्तु भवत्येव । अत इति किम् ? पूर्वस्याम् । पूर्वस्याः ।
तीयस्य किति ॥१२४४॥ तीयत्यान्तस्य खिति का सर्वनामसंज्ञा भवति । द्वितीयस्मै, द्वितीयाय । तृतीयस्याः, तृतीयाया । इह मुखादागतः पाश्वादागतः "मुखपार्वतसोरीयः" शिश१५ ग.] इतीयः । मुखतीयः । पार्श्वतीयः । पर्वते जातः पर्वतीय इति । अमीषा लाज़गिकत्वादग्रहणाम् | कितीति किम् ? द्वितीयायाम् । किति कार्य विकल्यते; अक्तु न भवत्येव । कुत्साद्यर्थे के कृते द्वितीयकाय ।
इग यणो जिः॥शक्षा इक्यो यरएर स्थाने मृतो भावी वा स जिसंज्ञो भवति । इक् यणः स्थाने भावित्वेनासत्वात् कथं जिसंज्ञ इति चेत् ; संशिनो भाविवासंशापि भाविनी । ययाऽस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति __ भाषी । यथा "व्यस्य पुत्रपस्मोजि':" [PAR] "सोर्जि:" [ 11] इति । कारीषगन्धीपुत्रः ।
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w• पा० । सू० ४६-४] महावृसिसहितम् विदुषः पश्य । शाखान्तरेण भूतो यणः स्थाने इक् स जिपंशो यथा '' [ ५] इति परपूर्वत्वम् , जेरिति दीत्वम् । हूतः । गृहीतः । यदि यणः खाने इक् भाव्यमानो जिसंज्ञ इहापि स्यात् , अनुहितराम् । अक्षयभ्याम् । अक्षावा । दुह आत्मकर्मणि लङ्। "स्नोक्ष मिच" [ २/११६ ] इति जियको प्रतिधिः । शप तस्यो । अत्र लस्य स्थाने इस बकारस्य स्थाने उदूठो ? ततब "जः'' [३५] इात परसूर्वखं "हलः" [ २] इति दील्यं च प्रसज्येत । नायं दोषः, भाविन्धा संज्ञवा विधीयमानस्यको जिवात् । "कार्यकावं संज्ञापरिभाषम" इति । जिप्रदेशाह "थे व्यस्य पुत्रपत्योः '' [३।५) इत्येवमादयः
ताशा रोपमन्यूत्रम् शारिता ता सा स्थान एव ज्ञातव्या । बहवो हि तार्थाः । स्वस्वामिसंबन्धसमीपसमूहविकारावयवस्थानादवः । तेषु प्रासेषु नियमः क्रियते अन्याथसंप्रत्ययो मा भूदिति । नित्यशब्दार्थसंबन्धविवदायां स्थानशब्दः प्रसङ्गवाची । प्रसङ्गश्व प्राप्ताह त्वं स्वार्थप्रत्यार्यकावसरो वा। पथा गुरोः थाने शिष्य उपचर्यते इति गुरोः प्रसङ्ग इति गम्यते । एवमस्तेः स्थाने प्रसङ्गं भूः। भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । बजः प्रसने बचिर्भवति | बला। वक्तुम् | वक्तव्यम् । अनित्यशब्दार्थसम्बन्धविज्ञायामपकार्यवाची स्वानशब्दः । यथा गोः स्थाने अश्वं धनाति । एवमस्तेः स्थानऽपको भूर्भवति । अनेरनन्तरमस्नेः समीप इत्येवमादयो निवर्तिता भवन्ति । यत्र तानिर्देशे सम्बन्धविशेषो न निर्मातस्तत्रयं परिभाषोपतिष्ठते । शास इत्येवमादिषु तु शासो य उङ् तस्येत्यवयवयोगो निशात इति नेयं न्याप्रियते ।
स्थानेऽन्तरतमः ॥१॥१॥४७॥ अन्तरः प्रत्यासन्नः । स्थाने प्राप्यमाणानामन्तरतम एवादेशो भवति | आन्त च शब्दस्य स्थानार्थगुणप्रमाणतः । स्थानतः-लोकामम् । "स्वको दी:''[ ४/३/८८ ] इति कण्ठय एनाकारो दीर्भवति । अर्थतः-वतण्वस्यापत्यं स्त्री "सण्डात्''[३३१/t.] इति यञ् । तन्य “सियामुप्' [१८] इत्युप् । बतराठी चासौ युवतिश्च वातएज्ययुवतिः । “पोटायुबत्तिस्तोक'' [३॥३॥६०] आदि सूत्रेण यसंज्ञः षसः, "रभ्युक्तपुंस्क' (१३१५६] श्रादिना पुंवद्भावः प्राप्तो "जानिध'' [१३] इति प्रतिषिद्धः "पुंधग्रजातीयदेशीये" [४३।१५४] इति । अर्थतो वातपयशब्दो भवति । गुणतःपाकः । त्यागः | अल्पमाणस्य घोषवतस्तादृश एव । प्रमाणतः-अमुष्मै । अभूभ्याम् । प्रस्य प्रः। दीसंज्ञकस्य दीः । स्थान इति वर्तमाने पुनः स्थानग्रहणं यत्रानेकमान्तय सम्भवति तत्र स्थानत एव भवतीति । चेता । स्तोता । प्रमाणतोऽकारः प्रातः स्वानतोऽन्तरतमावकारोकारौ च । तत्र पुनः स्थानग्रहणात्स्थानकृतमेवान्तर्य चलोय इत्येकारौकारौ भवतः । तमग्रहणं किम् ? वाग्धसति । इकारस्य पूर्वस्वत्वे सोष्मणस्सोष्मा द्वितीयः प्राप्तो नादक्तो नादबास्तुतीयः | तमग्रहणाद्यः सोष्मा नादवांश्च स चतुर्थो भवति ।
रन्तोऽणुः ॥राशा उः स्थानेऽण् प्रसज्यभान एवं रन्तो भवति । लक्षणान्तरेण विधीयमान पवाण विधान बलेन तत्सहायर्फ प्रतिपद्यमानेन रन्तो भाव्यत इत्यर्थः। अतरीति- निर्देशात्सर्वादेशो न भवति । कर्ता । किरति । गिरति । द्वैमातुरः । भरतः। शातमातुरः । द्वयोर्मात्रोरपत्यं [ शतमातुरपत्यम् ] 'तस्यापस्यम' [३! १७७] इत्यणि परतो “मातुमसंन्याऽसम्भनादेः" [३।५।१०४] इत्युकारादेशः । उरिति किम् ? गेयम् । पन्थाः । अणिति किम् ? मातापितरौ । सौधातकिः । श्रानडअकडो संघातानेतौ । नाणौ । महर्षिरित्यत्र द्वयोः स्थाने एप् कथं रन्तः ? यो हि द्वयोस्तानिर्दिष्टयोः खाने भवति सोऽन्यतरेणापि व्यपदिश्यते । नरस्य पुत्रः । नार्याः पुत्रः | कारलुकारयोः स्वसंज्ञोक्ता । तेन तक्कारः। कथं लन्तत्वम् ? रन्त इति लणी लफाराकारेण प्रश्लेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् । तेनादोषः।
1. स्थाने इग्भूतो जि-मु०। २. प्रत्यायनावसरो वा अ०स०। ३. उस्तस्य मु.1 ५. "रन्तोऽशुः" सूत्रारम्भसामथ्य नेत्यर्थः । ५. अनेमेति शेषः । ६. यस्य शतमातृसामपत्यं तस्या, अ०, प., स.।
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अनेन्द्र-व्याकरणम्
[.. पा. १ सू०११-५६
अन्तेऽलः ॥॥१॥४६| नानिर्दिष्टस्य य उव्यते विधिः सोऽन्ते वर्तमानस्यालः स्थाने भवति । "ता स्थामे" इति तास्थाने निर्मातस्थानेनाले उपसंहारः क्रियते । टिकिन्मितस्त्ववयक्सम्बन्ध तानिर्दिष्टस्य विधीयभाना अन्तस्य न भवन्ति । "इद् गोण्याः" [ १1१110] पञ्चगोरिथः । दशगोणिः । अन्त्यस्येद् भवति । ननु "पुसीदोऽ" [११।१६३] इति वर्तमाने "हलि खम्" [११।१७१] हतीपस्य योऽन्त्यस्तस्य प्राप्नोति । "नानकेन्तेऽलो विधिः"इति न भवति ।"ता स्थाने" इत्यस्य योगस्य कि प्रयोजनम् ? यस्तानिर्दिष्टस्तस्य स्याने आदेशो यथा स्यादधिकरस मा भूत् । “पादः पत्" [[31] इति । द्विपदः पश्य । पादन्तस्य न भवति ।
बित | |: संघनकारी उन आदेशोऽनेकालू सोऽन्तेऽलः स्थाने भवति । वक्ष्यति । "युष्मदस्मदोऽकाह खम्" [३।२।१२५ ] यौष्माकीणः । यास्माकीनः । दकारस्याकङ् । अकारोबारासामया सररूपाभावः 1 "सिने सत्यारम्भी नियमाय" डिदेवानेकालन्यस्य स्थाने । अतोऽन्यः सर्वस्य । "अस्तिगोभूधची' [ १/४/१२४ ] इत्येवमादयः सा देशाः ।
परस्यादेः ॥२११५१॥ परस्य कार्य शिष्यमाणमादेरलः स्थाने वेदितव्यम् । क्व च परस्य कार्यम् । यत्र कानिर्देशेन "ईकेत्यन्यवाय पूर्यपरयोः [ १६० ] इति परस्य तापक्लूप्तिः । "ईदासः "२११४२] आसीनो भुको । धनगरीदपः" [४/३२०२ ] द्वीपः । अन्तरीपः । समीपः ।
शिन्सर्वस्य ॥१९॥५२॥ शिदादेशः सर्वस्य स्थाने वेदितव्यः । “अश्शसो; शिः" [ १७] पनानि तिष्ठन्ति । वनानि पश्व । इदमेव सापकमनुबन्धकृतमनेकाल्वं न भवतीति । तेन "दिव उत्'' [ ४।३।१०८ ] इत्येवमादिनु मदिशो न भवति । ण अल लिति प्रश्लेषनिर्देशारणलादयः सर्वादेशाः । "महाभ्य भौर" [२११/१८] इति " परस्यादेः' इतीमं बाधित्मा शित्वेन परत्वाद्वा सर्वा देशः ।
दिदादिः ।।११।५३ रियः स सानिर्दिष्टस्यादिर्भवति । "बलाधगस्येम [११] लविता । लत्रिनुम् । लचितव्यम् । "ता स्थाने" इत्यस्यायभपवादः । "वरेष्टः" [२२२१२१] इत्येवमादौ तानिर्देशाभावानादौ विधिः । अथव्या "मध्योऽपवादाः पूर्वास्थिधीन् बाधन्ते' इति "ता स्थाने" इत्यस्यैव अवो न तु त्यपरत्वस्य ।
किदन्तः ॥२॥१॥५४ विद्यः स तानिर्दिष्टस्यान्तो भवति । मुरद्धी भोपयो । जटिल। भीग्यते । भियो णिच् हेतुभवायें । "ईत: पुग्नित्यम्'' [४।३।४५] इति शुक् । "गोभीस्मेहेतुभय" [२३] इति दः । 'पूचाक्लपरिहाराइ "आसः कः'' [२२२१३] इत्येवमादिषु नातिप्रसङ्गः ।
परोऽचो मित् ॥११॥५५ अन्त इति वर्तते ! अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः । मियः स तानिर्दिस्यान्त्यादन्यः परी भवति । अन्तग्रहणानुवृत्तेह लन्तस्यापि भवति । अन्यथा अच इति विशेषणम् ,तेन तदन्तविधिः स्वयमेव लभ्येति बच्यति । "इदिदोन म्' [ ५/१॥३७] नन्दिता । नन्दितुम् । नन्दितव्यम् । व्यपदेशिवद्भावादनान्यस्यम् । रुचितुवाविभ्या श्नम्झौ" [२/१/७३] मद्धि । भिनत्ति । "ता स्थाने" ENIN६] पल्य;"[२।१११] "परः "[२३] इत्यनघोरयमपवादः । “मध्य ऽपयादाः पूर्धान विधीन बाधन्ते" इत्यानित्या परिभाषा भतृण" [१२0१०] इति निर्देशात् ।
स्थानीवादेशोऽनल्विधौ ॥११॥५६|| स्थान प्रसङ्गोऽस्यास्तीति स्थानीय भवत्यादशः । स्थान्याश्रयेषु कार्येभ्धनलाश्रयेषु स्थान्यादेशयोन नात्यात्' स्थानिकार्यमादशं न प्राप्नोतीत्यतिदिश्य । धुगुनहृत् मुम्मिडपदगादेशाः प्रायः भोजयन्ति । धोयदेशी धुरिव भवति । अस मावे घोधिहितान्तव्यादयः सिद्धाः । भवितव्यम् । भविता । गोरादेशो गुरिव भवति । त्रयाणाम् | "गो:' [४|४|१] "नामि'' [ ३] इति दीत्वं सिद्धम् । कदादेशः कुदिव । प्रकृत्य । प्रहृत्य । प्यादेशे कृते पिति नुक्सिद्धाः | हृदादेशो इंदिध । अदीव्यति आक्षिकः ।
1. नानुबन्धेति परिभाषा एतत्सामाग्निष्पना । २. "वाधा' अ., ब०, स. । ३. तानिर्देशाभाषावित्यर्थः।
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१०१ पा० १ ० ५७-५८] महावृत्तिसहितम् शालामिकः "पाग्याट' [२१११२६ ] इकादेशे कृते "कत्साः " [ III६] इति मूत्संज्ञा सिद्धा। सुबादेशः मुबिव । वृक्षाय । हे वादेशेऽपि "सुपि"NRI३७] इति दीत्वं सिद्धम | मिझदेशो मिडिय । अषतः । बभ्धः । अतस्यसि च कृते "सुम्मिङन्त पदम" [ १/२/१०३ ] इति पदसंज्ञायां 'पदस्येति रित्वं सिद्धम । पदादेशः पदमिव भवति । ग्रामो का खम् । ग्रामों नः स्वम् । वस्नसोः कृतयोः पदस्यनि रित्वं सिद्धम् । गादेशो ग इव । अचिनुत । हिलातेप्रतिपत्रः । श्वेति किम् ? स्थानी श्रादेशस्य संज्ञेति मा विज्ञाय 1 अत्र को दोषः ? "माछो यमहमः" १२।२३] इति बधेरेव दविधिः त्याद्धन्तरत्वाश्रयस्य न स्यात् । इनग्रहणानुभवत्र भवति । आहत । आवधिष्ट । श्रादेशग्रहणं किम् ? विकारमात्रेऽपि यथा स्यात् । पचनु । पन । मिङन्तं पदं सिक्षम । अनल्विधाविति किम् ? द्यौः । पन्थाः । स्यः । अधित्यदादेशा न स्थानिषद भवन्ति । स्थानिवद्भावे "हस्छयाप:' [ ४।३।१६] इति मी: खं प्रसज्येत । अलः परो विधिरयं प्राप्तः । क हए इयत्रेकारम्य स्थानिकमाये हशि रेरुत्वं प्रसज्येत । अलि विधिरयम् । प्रदीव्येति क्त्वात्या स्थानिवद्राचे "वलादागायट" [! ! अमन्येत । गलः म्याने विधिरयम ! अलानयो विधिः अल्विधिः । शाक पार्थिवादिचन्मयूरल्यंतकादित्वात्तः ।
___ परंऽचः पूर्वविधों ॥३॥५७॥ यादशः स्थानीति वर्तते । अजादेशः पानिमित्तकः पूर्वविधौ कतै सानीच भवति । नटुमान पति । शिनमित्तस्य स्थानिवद्रावात् “उहोऽत:" | १२|५] मृत्युम्न मनांत । अवधीत् । अगनिमित्तस्त्रातः खा स्थानिवद्भावात् “अतोऽनादेः' [१९८३] इति हलन्तलना शिल्पो न भवति । पूर्वण "अनविधी" ५६] इति प्रतिबंध उक्तऽल्बिध्यमिदम् । परे इति किन ? योधपदः । पादस्य खमजादेशः परनिगिनो न भवतीत पाये स्थानीय न भवति । शुवतियास्व युवनानिः । जायावा निछन परनिमित्तक इति "वलि व्योः खम्" [ ३५५ ] न प्रतिबनाति । अच इति किगू ? मान्य । प्ये परतो ङास्य खं परनिमिन प्रस्य तुकि कर्तव्ये स्थानीय न भवति । पुविधाविति किम् ? नधेपः । निधेरपत्यं "हरच;" [३।१।११०] "इतोऽनिमः" [३।१।१] इति दणि परविधी कर्तव्ये
आस्वस्थ न न्यानिवद्भावः । अन्यथा व्यचो हण् न स्यात् । हे गौः । परविधी सुखे कर्तव्ये ऐपो न स्थानिवद्भायः । अचोऽनादिष्टात् पूर्वविधौ स्थानिवद्भावः । इट मा भूत् । अचीकरन । अजोहरत् | अब हि "णो कम्युङ:"[२२।११५] इति प्रादेशे कृते द्वित्ये च प्रादेशव स्थानिवद्भावात् "शो कच्यनक्खे सन्वत्" [ |२|१६० शांत सन्बगायो न प्राप्नोति । अादिष्टादेयोऽचः पूर्व इति स्थानिवद्भावाद्भवति । वाम्बोरध्वररित्यः। यविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्' "बलि व्योः सम्" [४३१५] इति या प्राप्नोति । कर्तव्योऽत्र यानः ।
न पदान्तद्वित्ववरेयखस्वानुस्वारदीवविधौ ॥१९॥५८पदान्तादिविधिध्वजादेशः स्थानीय न भवति । पृचण प्राप्तस्य स्थानिवद्भावस्य प्रतिषेधोऽयम् । पदान्तविधी—को स्तः । कानि सन्ति । अतः खं विकनिमित्तमावादशे यणादशे च कर्तव्ये स्थानीत्र न भवति । अथ नात्र नियमः पूर्वविधैः । स्तः की, सन्ति कानि इत्यपि प्रयोगात् | आदिष्टाचायः पूर्वमौकारादि । इदं लघु दाहरण-अभिपन्ति । निपन्ति । द्वित्वविधी मध्यत्र । मध्वत्र | वणादेशस्य स्थानिवद्भावग्रतिधात "अनचि [ २७] इति धकारस्य दिवं सिद्धम् । "सिवू, बहिरंगमन्तरंगे' इति समान्तस्य खं न भवति । वरविधी - यायावरः । यानेयन्तात्
"यो यः' [२/२0१५५] इति वरे कृततः खस्मागनिमित्तस्य स्थानिवद्भावप्रति धायग्ने च कृते अका. रस्व स्थानिय भावात "इटि चारस्वम्" [ ४४।६३ ] इत्याखं न भवति । ईविधौ–श्रामलकम् । पञ्चदक्षिः ।
१. पछत्वात् "ससचुपो निः" इति शिवं सिमित्यर्थः। २, ध्यानस्येव पादावस्येति से "सम्पादस्यारत्मादः' इत्यतः खे ततोऽपत्याथें “गर्गादेव' इति यजि "पाचः पत्' इति पदादेशे ऐचि रैयान पद्य इति | ३. "दी यलोपे च लोपाजावेश एव न स्थानिवत्' इत्येवंरूपो यत्नः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम
[अ० १ पा० १ सू० १३ - ६१
श्रामलक्या अवयत्रः फलं' “नि दुवारादे: [२३ १०६] इति मयट् । तस्य "उम्फल्ले” [३|३|१२१] इत्युप् । "दुष्युपू" [शश ] इति खोत्वस्योम् परनिमित्तस्तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् "यस्य कथा च " [४|४|१३६] इत्यले न भत्रति । पञ्चभिर्दान्तीभिः क्रीतः "रादुबखौ” [३।४।२६] इति ठण उपि स्त्रीत्यस्योम् । तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधादिकारल्य न भवति । यग्वविधौ – कराइतिः । कण्डूयतेः “च्किी खी" [ २१५० ] इति क्लिचि तेऽतः खयागनिमित्तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् "बलि म्योः खम् " [ ४|३|११ ] इति यतं भवति । उवादेशं प्रति स्थानिवद्भावः सादिति चेद् भवतु । च्छवोः शुडू भविष्यति । ततः स्वेऽको दीनम् । योऽनादित्रात्पूर्वं प्रति न्यायात्पुनस्त्रादेशो न भवति । स्वविधौं - शिद्रि । पिeि | इनस खस्व स्थानिवद्भावप्रतिषेधादत्रानुस्वारस्य परस्वत्वं भवति । श्रनादिष्टादचः पूर्वस्थानी नकारस्तस्यैवायं विधिः । अनुस्वारविधौ -- शिमन्ति । पिंषन्ति । “नश्वापदान्तस्य लि" [५/४/८ ] इत्यनुस्वारे कर्तव्ये नकारः ‘“श्नसः खेस्र’'[४|४|१० १] इत्यनादिष्ठादत्रः पूर्व इत्यवं न स्थानिवद्भवति । दीविधी - प्रतिदीनः । प्रतिदीन्ना । अनः स्वस्य परनिमित्तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् “हस्य भकुखुर:" [ ५३८६] इत्यनुवृत्ती "उ" [५/३/८७ ] इति दीख सिद्धम् । वकारो हल्परोऽस्मादेव वचनात् । चर्चिधौ – जक्षतुः । जक्षुः । "महनजनखन बसोऽनकि विति' [ ४/४/६३ ] इत्युङः खं घकारस्य चलें कर्तव्ये स्थानीव न भवति । गियोति प्रकृतिपूर्वयेनान्तरङ्गं दील कर्तव्ये वणादेशो ऽसिद्धः |
द्वित्वेऽनि ||१|१|५६ ॥ पदान्तद्विवेत्यतो द्वित्वग्रहणमनुवर्तते । तत्कार्यविशेषणम् । द्वित्वनिमित्ते - ऽच्यजादेशो द्विले कर्त्तव्ये स्थानीय भवति । रूपातिशोऽयम् । आदुणिग्वान्तःस्थायाद्यादेशाः प्रयोजनम् ।
सम्पतुः । पपुः | "इठि चात्खम्" [ ४|४|६३ ] इत्यात्खस्य स्थानिवद्भावादेकाचो लिटि द्वित्वं सिद्धम् | उङः खम्--जग्मतुः । जग्मुः | "गमहनजनखन वस्त्रोऽनकि " [ ४/४/६३] इत्युः खस्य स्थानिवद्भावाद् द्वित्वं भवति । खिम् - आटित् । लुङि कचि शिखे च कृते शिवस्य स्थानिवद्भावादव इति द्वितीयस्पैचो द्वित्वं भवति । अन्तःस्यादेशः चक्रतुः । चक्रुः । यणादेशस्य स्थानिवद्भावादेकाचो द्वित्वं भवति । याद्यादेशाः ग्रहं निनय निनाय । अहं लुलब खुलाव | अयायादेशानां स्थानिवद्भावादस्य पलि ने नै, लोलौ इति द्वित्व' भवति । द्वित्वनिमित्त इति किम् ? दुयषति । ऊटिं यणादेशो धोर्न तू द्वित्वनिमित्तमिति स्थानिवद्भावो न भवति । चीति किम १ जेत्रीयते । देभीवते । यदि द्वित्वनिमित्ते माध्मोरीकारादेशः स्थानीव न भवति । द्वित्वे कर्तव्य इति किम । जग्ले | मम्ले 1 धोराकारस्याचस्थानं न भवति ।
ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः ॥ १ । १ ६० || इबिति यत्र निर्दिश्यते तत्र पूर्वस्याव्यवहितस्य कार्य भवति । केति यत्र निर्दिश्यते तत्र परस्याव्यवहितस्य कार्य भवति । तापक्लुतिर्भवतीत्यर्थः । इतिकरणोऽर्थनिर्देशार्थः । ईष्केति इमे संज्ञे द्वयोर्विभक्त्योः प्रत्यायिके प्रसिद्धं । ताभ्यामितिशब्दः परः प्रयुब्यमानो विभक्तिप्रतिपाद्यो योऽर्थस्तं प्रत्याययति । ईर्थी यत्र निर्दिश्यते कार्यों यत्र निर्दिश्यत इत्यर्थः । ईवर्थनिर्देशः "कोया' [४|३|६५ ] दध्युदकम् । मध्वियत् । श्रव्यवाय इति किम् ? धर्मविदत्र | कार्यनिर्देश:अस्यात् । ददति । दधति । अव्यवाय इति किम् ? चिकीर्षन्ति । शपा व्यवायाज्मेरदादेशो न भवति ।
नाशः खम् ||१|१|६१ || नाशोऽनुपलब्धिरभावोऽप्रयोग इत्यनर्थान्तरम् । एतैः शब्दः प्रतिपायमानस्यार्थस्य स्वमित्येोगा संज्ञा भवति । इतिकरणोऽनुवर्तते । तेन नाशार्थस्य संशयं लभ्यते । स्थानिग्रह चानुवर्तते । प्रसङ्गवांश्च स्थानी । तेन प्रसक्कस्य नाशः खसंज्ञो भवति । भाविनो नाशस्य संज्ञित्वं मंशापि भावि नीति नेतरेतराश्रयदोषः । वक्ष्यति वलियोः खम् [४१३५५] दासेरः । काश! 'क्षुद्राभ्यो वा [ २।१।१२० ] इति द्र । "हृदि चारखम् [४/४६३] विखम् । जह्यात् । खप्रदेशाः "वलि व्योः खम् [४/३/५५ ] इत्येवमादयः ।
१. समित्यखं न अं०, स० । २. प्रतिदीना [अ०, स० १३ प्रतिदन्ने अ० स० । ४. प्रकृतेः “गिरि" इत्यस्य पूर्वभागस्य "गिर" हस्वस्यापेक्षवेनेरर्थ: । २ वादेका द्विप० । ६. भायाच्चां स० ।
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म. पा. १ सू० ५२-१७] महावृत्तिसहितम्
उबुजुल ॥१श६२॥ तस्यैव नाशस्य उप उच् उस् इत्येताः संज्ञा भवन्ति । संशासंकरप्रसङ्ग इति चेत् उप उच् उस् संज्ञाभिर्भावितस्य नाशस्य एताः पृथक् संज्ञास्तेनादोषः । "नोमता गो:" [1111६४ ] इति प्रतिरेधी ज्ञापकः खसंशाया अन समावेशी भवति । ततः पञ्च सप्लेति त्याश्रयं पद सिद्धम् | "क्सस्याचि सम्" [५/२१६६ ] इति वर्तमाने "बोब् दुइदिह" [ ५१७०] आदिसूत्र उब्वचनं शापकमुजुसः सर्वस्य त्याने भवन्ति नान्तस्य । एता अपि भाविन्यः संज्ञाः । उदाहरणम्-पञ्चशष्कुलम् | पञ्चभिः शकुलीभिः क्रीतम् । "पावसौ" [३।।२६] इल्याहीस्प ठरण उम् । ततो "हदुप्युप्' [ 13/] इति स्त्रीस्यस्योप् । जुहोति । विभेति । "उज् झुट्टोत्यादिभ्यः" [ १।४।१४५] इति शप उच् । तत उचि द्विलम् । पञ्चालानां निवासो जनपद इल्यागतस्याण"जनपदे उस्' [२२१६१] इत्युस् । ततो "युक्तबदुसि लिइसंस्थे' [19 ] इति लिनसंख्यातिदेशः । उबुजुस्प्रदेशाः "हृदुप्युप्' [ ११५६ ] इत्येवमादयः ।।
त्यखे त्याश्रयम् ॥११॥६३॥ त्यस्य खे कृतेऽपि त्यान कार्य भवति । सुम्मिङ् विपया शिवानि प्रायः प्रयोजन्ति । सुपः ख धर्मवित् । सोः खेऽपि पदसंज्ञा भवति । मिकः खम्-अधोक् । "हल्याप:" [ ४४३५६ ] इति तिपः खेऽपि पदसंशायामेधत्वनवजवनानि ममता -अग्निांचा विपो नाशेऽपि तुक् । वडः खम्पापचीति । यडो नाशेऽपि द्वित्वादिकार्य भवति । रिएखम् कार्यते । हार्यते । ऐरभावयन्भवति । प्रथम त्यग्रहगां किम् ? आप्नीत । श्राजू: पूनाद्धन्तर्विध्यदिलिज । "अाछो यमहनः" [ रा२३ ] इति दः । “लिकोऽनन्त्यससम्' [११३८ ] इति सीयु कदेशल्स सक्रारस्य त्रेऽपि त्याश्रय कार्ये झलि विकति डस्य खं न भवति । द्वितीयं त्यग्रहणं किम् ? वश्रियं मा भूत् । गवे हितम् गोहितम् । त्यखे सत्यपि अचीति वर्णाश्रया अवादयो न भवन्ति ।
नशेमता गोः ॥११६४॥ उमला वचनेन नाशिते त्ये यो गुस्तस्य त्याश्रयं न भवति । मृष्टः । जुहुवः । शबानवावैबेपो न भवतः । गर्गा इति बहुत्वविवक्षायां यजिशोपि कृते तदानय श्रादरम्न भवति । गोरिति किम् ? पाक्षि । जरीगृहीत । द्वित्वं निश्च भवतः। नोमतेति योगविभागः । तेन गोरन्यवापि क्वचिच्याभयं न भवति । परमवाचः । परमवाचा । अन्तर्वर्तिनी विभक्तिमाश्रित्य पदस्याकुलं प्राप्त नोमतेति प्रतिषिध्यते ।
अत्याधचष्टिः॥१॥६५॥ श्रय इति जातिनिर्देशः। निर्धारणे च ता। समानजातीयस्मैवं लोके निर्धारण प्रसिद्धमिति द्वितीयमजग्रहणं लभ्यते । अचां योऽन्स्योऽच् तदादि शब्दरूपं टिसंज्ञ भवति । धर्मविदत्र इच्छब्दः । ज्ञानमुदत्र उच्छन्दः । श्राताम् , अाथामित्यत्र उच्छब्दः । पचेते । पचेथे "
टिंढरे" (२१४६५ ] इति टेरेत्वम् । अहं पचे इति व्यपदेशिवद्भावात्तदादित्वम् । टिप्रदेशाः "टिवटरे" [२।४/६५] इत्येवमादयः ।
उपान्त्याला ॥११॥६६॥ अलामन्त्यस्य समीपोऽलू उड्संज्ञी भवति । अन्त्यग्रहणादलां समुदायो लभ्यते । अल्समुदायापेक्षया बन्योऽल् भवति न केवलः । पच् इत्यकारः । भिद इतीकारः । पाचकः। भेदकः । उपान्त्य इति किम् ? व्यवहितस्यान्त्यस्य च मा भूत् । अलिति किम् ? समुदायस्य मा भूत् । उङप्रदेशाः "उकोऽतः" [५।२।४ ] "युधः" [ ५।२।८३ ] इत्येवमादयः।
येनालि विधिस्तदन्ताद्योः ॥१॥श६७॥ येन शब्देन यो विधिविधीयते स तदन्तस्य भवति । अलि यो विधिः स तदादी भवति । "योऽचोरासुयुवः" [१४] इत्यचो यविधिर्विधीयत इत्यजन्ताअवति । चेयम् । जेयम् । केवलाद्व्यपदेशिवदायेन । एयम् । अध्येयम् । "प्रातः कः" [ २१२।३] इत्याकारान्ताकः । गोदः । कम्बलदः । "सत्य-विधौ न तदन्तविधिः" [वा०] | सविधी-कष्टं परमश्रित इति ईसो न भवति । त्यविधो—सूत्रनडस्यापत्यं सौत्रनाडिः | “नडादेः फण्" [1] इति फए न भवति । “इगित्का वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति वरुव्यम्'' [वा०] भवती । अतिभवती । दाक्षिः। नैतद्वक्तव्यम् ।
1. कार्य सद-म०, म., स.। २. वती | मैत—०, ५०, स.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० 1 पा० १ मू०६८-१२ सुपा श्रितादयो विशेष्यन्ते न तु श्रितादिभिः किञ्चिविशेषणेन च तदन्तविधिः । मृदा नादयो दिशेयले न नडादिभिमदः । उगिरा च चशेन मृद् विशेष्यते । अलीति वर्णनिर्देशः । अलि यो सिंधिः स नादी भवति । "मनुधुवा श्वोरचीयुचौ" [४]४/७२] चिक्षियनु: । चिनिशुः । व्यपदेशिवद्भावेन विलेप तदादिला । चिनिये । येनेति करणे भा । विधिशब्दः कर्मसाधनः ।
अवाधैः ।। १:६८।। अश्विात जातिमा निर्भर ने। अक्षु अादिननाऽन् । यस्य समुदायस्य स दुसशो भवति । ऐतिकायनम्य शिष्य एतिकायनीयः "दोश्छ:'" STRIE] निः । श्राम्बरस्यापत्यमाम्बठ्यः "द्वित्कुरुमाग्रजादकोशलाभ्यः" [३१३।१५३] इति व्यः । दुघ-या रिम-देश सन्ति “घुम्छयकलेत" [शरा६० ] अादिसूत्रे अरीहणादिलाट् बुञ् । द्रधिकं जाती द्रौघगणकीयः "होः कखोक" [३।२।११७] इति छ: | अक्ष्विति किम् ? हलाविवक्षार्थम् । श्रोपगवीयः : कामटवीपः। नान्यतया बहुत्वं किम् ? यच एकाचश्च दुसंज्ञा यथा स्यात् । मालामयम् । वाङमयम् । अतिर्गित कि!! नभानन्यन जातः साभासन्नयनः । छः प्रसीत । एबिति किम् ? दत्तस्यायं दात्तः । दुपदशा पदोश्नः'' : .] प्रत्येवमादयः ।
त्यदादि ।।२।११६ । त्यदादीनि शब्दरूपारिशु दुसंशानि भवन्ति । अक्ष्यादिति नहीं दी। वामिसंबध्येत तदोपसर्जनत्वे सत्याप वचनात्तंदाव दुसंज्ञा स्यान केवलानामिति । त्यदीयः । ती यशपत्यं खादायनिः । मादायर्यानः | "धा वृन्दाद दोः" [३।१।१४४ ] इति फि । स्यदादिः सादर :: त्रा परिसमाप्त।
एक प्राग्देशे।। १।१।७० ॥ अक्ष्यादेरिति वर्तते । एङ, यस्याचामादिस्सद् दुसंज्ञ भवति प्राची दाऽ भिधाने । एणीपचने जात एणोपचनीयः । एवं गोनदीयः । भोजकीयः। डांति किम ? नाछियः । कान्यकुब्जः । प्राग्ग्रहां किम् ? देवदत्तो नाम बाहीकेतु ग्रामस्तत्र भवो देवदत्तः । देश इति किम् ? गोमतः नाम नदी तल्या भवो गौमतः । “या नाम्नः" [१।७१] इति यदा दुसंज्ञा नास्ति तदेदमुलाम । "भिन्नलिकगो नदीदेशोऽमामोऽपुरम् [१४८३ ] इति ज्ञापकान्नही देशनहरणेन न गृह्यते । शरावती नाम नदी नम्याः पृवों देशः माग्देशः । उत्तरस्तूदीयां देशः।
बा नाम्नःश७१ || पुरुषैर्व्यवहाराव सङ्केतितः शब्दः संज्ञा नाम । नामधेयस्य वा दुसंज्ञा भवति । पद्मनन्दीयम् । पाअनन्दिनम् । देवदत्तीवन् । देवदत्तम् । नाम्न इति किम १ दवेदन इति यः क्रियानिमित्तको देवदत्तशब्दस्तस्य काश्यादिधु पाठाइक्टजायेव भवतः । ति व्यवस्थितयिभाषा । जैन धानो रौदिः धृतरौदिः । संज्ञे यम् । तस्य शिष्या घृतसैदीयाः । एवमोदनपाणीयाः। शाम्भीयाः । युद्धकाश्यपीयाः । नित्यं दुसंज्ञा | "जिह्वाकात्यहरितकात्ययो भवत्येव" [ वा० ] जैढाकाताः। हारितकाताः ।
अणुदित् स्वस्यात्मनाऽभाव्योऽतपरः ॥ १।११७२ ॥ अगा, उदिच गृह्यमाणः स्वस्य ग्राहकों भवति श्रात्मना सच भाव्यमानं समरं च वर्जयित्या । इदमणग्रहणं परेण णकारेण | "प्रतः ।फादर'[श।१२२] इति तपरनिर्देशाज्जायते । “य:य यो च" [ ४४।१३६ ] दाक्षिः । चौतिः । दैत्यः । कौमारः । "अस्य स्वौ" [ श२०१४ ] शुक्लीभवति । मालीभवति | उदित्-"स्तो: चना :" [ ५१४|११६ ] "छु मा छुः" | ४|१२० ] 1 अमाव्य इति किम् ? भाव्यन्ते उत्पाद्यन्ते त्यादेशान्किन्मितस्ते स्वस्व ग्राहका न भवन्ति । "प्रस्थात्" [२।३।८४ ] "त्यहादेवः" [ ११६. ] टिन्-लविता। कित-बभूव । मित् । "जिशोर" [४३५३] । अतपर इति किम् ? भिसोऽत ऐस." [ A1% ] | वृक्षः । खवामिरित्यत्र न भवति । तकार इद्यस्य सोऽयं तिदिति सिई परग्रहणमुभयार्थम् | तः परोऽस्मात्तपरस्ताठाप परस्त
१. इसिकस्यापत्यं पुमान ऐसिकायनः । नहादेः फणिति फण् । ३. प्रश्नादेत्यिर्थः । ४. बुद्रान्तीयाः बक, स.।
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०१ पा० १ सू० ७१ ७६ ]
महावृत्तिसहितम्
१७
परः । इदमेव शापकं सविधौ केति योगविभागोऽस्ति । “आई” । [ १११११५] “देहेप्” [ १।१।१६] तपरत्यादैादिपु त्रिमात्रचतुर्मात्राणां निवृत्तिः । " अभाभ्योऽपरः" इति पृथग्भावानशुच्चारणं किम् ? क्वचिद्वाच्योऽपि स्वं गृह्णातीति ज्ञापनार्थम् । अमूभ्याम् । संज्ञासूत्रमिदं न परिभाषा | साहि नियमार्था भवति । न चादितां स्वस्यास्यस्य च ग्रहणं प्राप्तं येन स्वस्यैवेति नियमः स्यात् ।
अन्त्येतादिः ॥ १|१|७३॥ अन्त्येने संशवेन गृह्यमाण आदिस्तन्मध्यपतितानां ग्राहको भवत्यात्मना सह। आद्यन्तौ सम्बन्धिशब्दों । श्रतः सामर्थ्यादायन्तव्यतिरेकेण तन्मध्यपाति वस्तु प्रत्येक मंजित्येनाक्षिप्तम् । इ उ इत्येतेषां प्रत्येकमरिणति संज्ञा । एचमकू अच् अर् इत्येवमादयः । अन्त्येनेति किम् ? सुडिल्यत्र श्रादिना टा इल्येतस्य टकारे ग्रह मा भूत् । अन्त्येनैनीदमेव ज्ञापकं सहार्थं गम्यमानेऽपि भा भवति ।
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श्रसंख्यं झः ॥ १|१२|७४ || संख्या एकत्वादिका सा वस्व न विद्यते तदसंख्यं भिज्ञ भवति । एकत्वा दिनिबन्धना विभक्तयुत्पत्तरसंख्यादप्राप्ता "सुपो केः " [१४] १५०] इति वचनाद्भवति । के पुनरसंख्याः ? स्वर् । अन्तर् । प्रातर् । सनुतर् । पुनर् | साथन् । नक्तम् | अस्तम् | यस्तोः । दिवा | दोषा । ह्यः । श्वः । कम् । शम् । योर्मयः (१) च । न । अम्नस् । विहायसा । रोदसी । ओम् | भूः | भुवः । स्वस्ति | समया । निका । अन्तरा । हिस्' | साम्प्रतम् | श्रद्धा | सत्यम् । इद्धा । मुधा । मृषा । था । मिथ्या । मिथो | मिथु मिथुनम् | मिश्रम् | श्रनिशम् । नुहुः । श्रभीक्ष्णम्। मङ्छु । झटिति । उच्चैस् । अवश्यम् । सामि । साचि । विष्वक् । अन्वक । आनुषक् । साजं॑ । द्राक् । प्राक् । ऋधकू | पृथक् । धिक् । हिरुक् । ज्योक् । मनाक् । शनैः । ईयत् । जोषम् । तूष्णीम् । कामन् | निकामम् | प्रकामम् । श्रारात् । श्ररम् | बरम् | परम् । चिरम् । तिरः नमः | स्वयम् । भूयः । प्रायः । प्रबाहुकम् ।। श्राहलम् । कुः अलम् बलवत् । अतीव । सुष्ठु | दुष्ठु । ऋते । सपदि । साक्षात् 1 सनात् । सना | आशु । सहसा । युगपत् । उपांशु । पुरा । पुरतः पुरस्तात् । पुरः । इत्येवंप्रकाराः, निसंज्ञकाश्च सर्वे "च वा छ " एवम्प्रभृतयो हृतश्च तसादयस्तत इत्यादयश्च्व्यर्थाः, कृतः मुमाम्तुमान्यः कत्वाच्यादेशश्चेति । हमश्चेति केचिसठन्ति तत्तु चिन्ताम् । उपानिकमित्यकोऽसम्भवात् । उपकुम्भमन्यम् इति मुमो दर्शनात् । उपकुम्भीकृत्यति स्वविधानाच्च । सामान्यविषयाभिसंज्ञा । विशेोपविषया निसंज्ञा 1 असंख्यग्रहणं किम् ? यत्रासंख्यत्वं प्रतीयते तत्र भिसंज्ञा । उच्चैः । परमोच्चैः । श्रस्ति | स्वस्ति । उपसर्जने मा भूत् । श्रत्युचैः | अच्युच्चैसौ । श्रत्युच्चैसः । अन्वस्तिः । झिप्रदेशाः “सुणे : " [ ४ | १५० ] इत्येवमादयः ।
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गाङ्कटादेरङित् ||१|१|७३५ || गाडित्येतस्मात् कुर्यादिभ्यश्च घुभ्यः परेऽतिस्या ङितो भवन्ति । विनापि तमतिदेशो गम्यते । गाङिति व्याख्यानादिङादेशो गृह्यते । कुर्यादिस्तुदादेरन्तर्गणो यावत् वृत्यध्द इति । माङ् — अध्यगीष्ट । अध्यगीषाताम् । अध्यगीषत । लुङ्लोति हङो गाङादेशः । “भुमा" [४/४१६१ ] श्रादिसूत्रे त्वम् | कुटा दे - कुटिता | कुटितुम् । कुटितव्यम् । पुटिता । पुटितुम् । पुटितव्यम् । व्यचेरनसि कुटादित्त्रम् — विचिता | त्रिचितुम् । विचित्तव्यम् | अनसीति किम् ? उद्बधचाः । “श्रसू सर्वधुभ्यः' इत्यस् । अदिति किम् ? उत्कोटयति । उत्कोटो वर्तते । द्वितीब हिद्वत् । इंचन्ताद्वदर्थों गम्यते । तेन उच्चुकुटिपति इत्यत्र "नुदान ती : " [११२१६] इति दो न भवति ।
इचिजः ||१|१(७६ ॥ अन्येनेतादिरित्यत श्रादिरिति वर्तते । विजेर्वोत्तर इडादिस्त्यो विद्भवति । उद्विजत्वा । उद्विजितम् । उद्विजितव्यम् । इडिति किम् ? उद्वेजनम् । उद्वेजनीयम् । विज इति किम् ? लविता |
१. "म" सु०। २. “ नाम्नो" इति अ०, ब०, स०, पुस्तकेषु तत्र "च" "न" "बामू" "मो” इति वच्छेदो युक्तः | ३. 'बहिर्' अ०, ब०, स० । ४. “भाजकू " इति श्र० । "ताजळू" इति स० । "साजळू" इति ब०मुत्रितयोः । परमयं शब्द मेदोऽन्वेष्यमाणोऽन्यव्याकरणकोशेषु च नोपखब्धः । ५. अदर्शनादिति युक्तम् । ६. "हिदूच - श्र०, ब०, स० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ०
० . सू. ७७-१
वोर्णोः ॥१२७॥ ऊोतेः पर हडादिस्यो' वा डिद्भवति । प्रोणु विता | प्रोविता | अप्रासे २ विकल्पोऽयम् । दसैज्ञके तु लङ इटि परत्वान्नित्यो विधिः । प्रौणु वि। अत्रिणदित्येव । भिदिदि-गोवियते । इवादिरित्येव । प्रोविनम् । प्रोविनीयम् ।
गोऽपित् ॥ ११॥७८ ॥ अपिट् गसंशको हिद्भवति । कुरुतः । कुर्वन्ति । चिनुतः । चिन्त । मुष्टः । मृजन्ति । ग इति किम् ? फर्ता । मार्श | अपिदिति किम् ? करोति । मार्टि | अपिदिति प्रसज्यप्रतिषेधः । यद्येवं तुदानि लिखानीत्यत्र पिदपितोरेकादेशः पिन्द्रवतीति "युल:" [[३] एप्रसज्येत | नायं दोषः । लोडादेशस्य पित्वं न चाट': । अथवावं पर्युदासः । इह तहिं च्यवन्ने 'लवन्त इति परापेक्षपिदपितोरेकादशस्य पितोऽन्यत्वमस्तीत्ये प्रतिषेधः प्रसज्येत । नैष दोपः-"वार्णाद् गात्रं बलीयः" इति, प्रागवेकादेशादे ।
लिडस्फारिकत् || १७ ||अपिदित्येव । अस्फान्तात्परोऽपिल्लिट् बिद्भवति । विभिदतः। विभिष्टुः । ममूजतुः । ममृनुः । लिडिति किम् ? यष्टा | अस्मादिति किम् ? ममन्यतुः । ममन्युः । ननु ररचिव रन्धिम इत्यत्रास्फाद्विहितो लिट् । नैवम् । भुम्विधावुपदेशग्रहमाश्रयणात् । एवञ्च कुण्डा हुण्डेत्यत्र "सरोहलः" [२।३।२] इति अस्त्यो भवति | अपिदित्येव । विभेदिय । विदिति वर्तमाने किग्रहण किम् ? ईजतुः । हजुः । डिति जिन स्यात् । नायव किद्विषयः । ववृते. वृधे इत्यत्र परलादेपि कृते स्फान्तत्वमिति चेत्, इष्टवाचित्वास्परशब्दत्येत्त्यदोषः । अस्फादिति प्रसज्यप्रतिषेधः । न चेत् स्कान्ताद्विहित इति पर्युदासे हि हलन्तादेव लिट फित् स्यात् | "धोयो:" [शरा] इत्यतो बेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तते । ततः अन्थिन्विदम्भिप्यमी. न्धिभ्योऽपि किद्भवतीत्येके । श्रेषतः । श्रेथुः । प्रेयतुः । मेथुः । देभतुः । देभुः । परिषस्वजे । परिपस्वजाते । समीधे । समीधाते | समाधिरे।
मृडमृदगुधकुषवदवसः क्त्वा ॥११॥०॥ मृह मृद गुध कुष यद वस इत्येतेभ्यः परः क्त्वा त्यः किनवति । मृइित्या । मृदित्या । गुधित्ला | कुपित्वा । उदित्या । उघिल्ला | सिद्ध बिधिगरभ्यमाणो नियमार्थः । तुल्यजातीयस्य च नियमः । सेट क्या तुल्यजातीयः, तेन मृदादिम्य एव क्त्वा भेट किद्रवति नान्येभ्यः । देविला । सेवित्रा । वर्तित्वा । सेडिति विशेष किम् ? मुक्त्वा । मुक्या । मृडादिभ्यः क्त्वैव किनवतीति" विपरीतो नियमो नाशङ्कनीयः । एवं हि "क्लिशः'" [1१1८१] इति फित्त्ववचनमनर्थक स्यात्, प्रतिरोधाभावात् | गुभिकुष्योस्तु "म्युछोऽधो हलः संच" [११६७] इति दिकल्पे प्राप्त नित्यार्थः पाठः ।
लिशः ॥ १० ॥ क्लिशः परः क्त्वा सेट् किनवति । क्लिशित्वा । पूर्वेण नियमेन कित्ये निवर्तिते "युद्धोऽवो हल: संख" [1'१।७] इति विकल्पः प्रासः । पूर्व सूत्र इष्टतोऽवधारणार्थ योगान्तरम् ।
मुषग्रहिरुदविदः संश्च ॥११॥५२॥ मुष ग्रहि रुद विद इत्येतेभ्यः परः संश्च (सन् क्त्वा च सेट् किनवति । मुमुषिपति । जिघृक्षति । सदिति । विविदिपति | मुधिया। गृहीत्वा । *दित्या | विदित्वा । अहेर्मूडादिनियमानिवृत्तौ विध्यमितरेषा "मयुङोऽवो इल: संश्च" [11] इति विकल्प प्राप्ते बचनम् ।
झलिकः ॥१०८३॥ क्वेति निवृत्तम् । अन्त्येनेतादिरित्यत आदिरिति वर्तते । इगन्ताद्धोः परो झज्ञादिः सन्द्रियति । सामर्यासमिहितस्य धोरिका तदन्तविधिः। चिचीपति । निनीपति । रुरूपति । चिकीर्षति । शुलपति । यदि मुनि दीत्यवचनसामर्थ्यान्मात्रिकदिमात्रिक्योरेनभावः सिद्ध इत्यस्यानर्थक्यम् । शिखमपि तर्हि न स्पा । झाप्सति । एतस्मिंस्तु सनि चिचीपत्यादिषु साधकाशं दीत्वं परल्वागिणरवेन बाध्यते । भालादिर्शित किम् ? "शियिषते । इक इति किम् ? पिपासति । सनीत्येव । कर्ता ।
1-दिस्यो", स०, मुक। २.-प्तविक-प० । ३, पिवद् भ–१०, ब०, स०] १. स्वाटः ० । १.-पति विप-०, ०, स. प. पूर्वे सूने मु० ।।७. रुदित्या इति नास्ति सा. ब. स. पुस्तकेषु । म, शीप्सतीति म०, ०, सः |
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अ : पा० १ सू० ४-31] महावृत्तिसहितम्
हलन्तात् ॥ २०॥ सन् झलिक इति वर्तते । अन्तशब्दः समीपवचनः । इकोऽन्तः समीयो यो हल तदन्ताद्धोशलादिः सम्बिद् भवति । बिमित्सति । बुभुत्सते । विवृत्सति | अन्तग्रहए किम् ? यियक्षति । जिन भवति । नाडेक्समीपाद्धलः परः सन् । एवं वा सूत्रायः । इकः परी हलन्तो हलवयवो यो धुस्तस्मादुत्तरी झलादिः सम्किन्नधति । अन्तग्रहण स्पष्टार्थमुक्तमस्मिन् व्याख्याने । इफ इति कानिर्देशः किम् ? यियक्षति | झलित्येव । निर्विषते । "निरेकाजनाक" [१।१।२२] इत्यत्र एकग्रह ज्ञापकमुक्तम्, "अन्यत्र वर्णग्रहणे जातिग्रहणमिति । तेनेह हाहणेन भिन्नेष्वभिन्नाभिधानप्रत्ययानमित्तं हलू जाति बते । ततो घिसतीति सिद्धम् ।
सिलिङ, दे॥ शश८५ ॥ सन्निति निवृत्तम् । झलिकः हलन्तादिति च वर्तते । सिश्च लिक च दें इको हलन्तायरी फलादी किती भवतः । सेरेव दपरत्वं विशेषणं न लिडोऽसन्मवात् । द एव हि लिङ मलादिः । अभित्त । अबुद्ध । भिसीष्ट । मुत्सीष्ट | द इति किम् ? असाक्षीत् । अद्राक्षीत् । किल्वे सृजिशोरमागमो न स्यात् । "वद्धज (बजवद)" [स ] इत्यादिनै । इक इत्येव । अयष्ट । यक्षीष्ट । जिः प्रसज्येत । हलन्तादिरयेव । अचेष्ट । चेषीष्ट । एम्न त्यात् । भलादिरित्येव । अवतिष्ट । बर्तिपोष्ट । एम्च स्यात् ।
उः ॥ १।१६ ॥ अव्याख्यानादग्रहणम् । मृवर्णान्तादोः परौ सिलिको दे मलादी कितौ भवतः | अकृत । अहत | कृषीष्ट | हवीष्ट । द्विमात्रस्य । अस्तीाम् | स्तीपोष्ट | "लिइस्योदें" [NHI.] इत्यनिटपक्षे द्रष्टव्यम् । मलादिरियेव । अस्तरिष्ट । स्तरीषीष्ट ।
गमो वा ॥ १ ७॥ गमेधोंः परौ सिलिडौ दे मलादी वा किती भवतः । समगत । सङ्गसीष्ट । वा गमः किल्वे "अनुदात्तोपदेश" [॥१॥३७] इत्यादिना ङखं "माद् गो:" [१३।४५] इति सेः खम् ! पदेसमगस्त । सङ्गसीष्ट ।
हनः सिः ॥ १ ॥ हन्तोः परः सिद किद्भवति । आहत । श्राइसाताम् । श्राहसत । मेः किरयान्डस्य स्त्रम् । [अन्यथा अनिदित इति उङ खस्य प्रतिषेधः स्वात् ।] पुनः सिंग्रहयां लिनिवृत्यर्थम् । दग्रहणमनुवर्तते । एवं नित्यो बधादेश इति इह प्रयोजनं नास्ति ।
यमः सूचने ॥ शश६ ॥ वमेधः सूचनेऽर्थे वर्तमानात्परः सिदें फिद्रवति । सूचनं गन्धनमाविष्करणमित्यर्थः । उदायत । उदायसाताम् | उदायसत | अकर्मकचे "पाको यमहनः" [१।२।२३] इति दः । सूचन इति किम् । अायंस्त कूपातज्जम् । सकर्मकचे "समुदायमोऽग्रन्थे" [१॥२/७०] इति दः ।
वोपयमे ॥२॥१६०॥ उपयमो दारस्वीकारः। उपयमेऽर्थे वर्तमानाद्यमे|ः परः सिर्दे या किद्रवति । उपायत कन्याम् । उपार्यस्त कन्यान् । “स्वीकृतानुपायमः'' [१॥२१४] इति दः । इयमप्राप्ते विभाषा । स्वीकारसूचने पूर्वविप्रतिषेधेन पूर्वेण नित्यो विधिः ।।
भुस्थोरिः ॥२॥१६॥ द पति वर्तते । भुसंशकाना त्या इत्येतस्य च धोरिकारोऽन्तादेशो भवति सौ सिश्च दे कित् । अदित । अधित । उपास्थित । "प्रात्" [४३।२६] इति सेः खम् । सन्निपातपरिभाषाया अनित्यतां वक्ष्यति । तिष्ठते: “उपान्मन्त्रकरणे' [१२।२०] "धे" [१२१२१] इति दः । इलवचनसामर्थ्यादेपो निवृत्तिः सिद्धति किग्रहणभुत्तरार्थमनुवर्चमान सेरपि विशेषणम् ।
1. इति च घसते 80, ब०, स०। अन च शब्दोऽप्यर्धकः । २. अन्तःशब्द : 4.1 ३. मनाक्षीत् वृत्ति मुजितपुस्तके नास्ति । ५. कोष्टकस्थितः पाठोप्रासंगिक इव भाति । “लुख विकृत्यनितिः" इत्यस्यात्राप्रवृत्तः । ५, इन्धीः "हनो बध लिहि' इसि नित्यवधादेशविधानात् "हमः सिः” इत्या लिइनुवृत्त प्रयोजनं नास्ति किरवप्रयुक्न नख-रूप-फलस्य लिहि नित्ये वधादेशेऽभावात् । ६.-षणं विहितम् । त: सेट-अ०, २०, स० ।
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जैनेन्द्र व्याकरणम्
[म.
पा० . सू. १२-
से पूरा हो सिन्जिश्विन ||११|२शोङ् स्विद् मिद दिवद् शृष्ष इत्यंतेभ्यः परस्तसंशः सेट न किङ्गवति । पवितः । पवितवान् । भ्युक: किति" [शा१] इतीटि प्रतिषिद्धे "पूरुः" [TAR] इति तत्वोरिङ्ग विभाषितः । शीङ्-शथितः । शयितवान् । अनुबन्धो यचन्तनिवृत्य. र्थम् । शेश्वितः । शेश्यितवान् | "एनिवाक्चादुकोऽसुधियः' [१८] इति यत्वम् । स्विदा । प्रस्वेदितः । प्रस्बेदितवान् । प्रमेदितः । प्रमेदितवान् । प्रक्ष्येदितः । प्रक्ष्यदितत्रान् । प्रधर्षितः । प्रधर्षितवान् । वैयालये धृष्ट इत्येव भवति । पूछः "तयोयतखार्थः" [२ ] इति कर्मणि का शीः "धिगस्थर्यान्च" [शारम] इति कर्तरि (क:) चेति । स्विदादीनां "कर्तरि चारम्भेक्तः"[२१ ] इति कर्तरिक मादितः" [NU१२२] इति प्रतिषेधे ( षिद्धे ) "धा भावारम्भयोः" [शा१२३] इति पक्षे भवति । त इति किम् ? पवित्वा । ":" [२११५६१] इती पन्ने मूडादिनियमादकित्वम् । सेडिति किम् १ घृतः । पूतवान् ।।
मृषः स्वार्थे ॥१९॥४३॥ स्वार्थस्तितिक्षा । भूषेर्धाः स्वार्थे बर्तमानात्तसंशः मेट् न किद्भवति । मर्पितः। मर्षितवान् | स्वार्थ इति किम् ? अपमृधित वाक्यमा । धूनामनेकार्थत्वात् स्वार्थग्रहणं पठितापेक्षम् । पाठस्तूपलक्षणम् | सेंडित्येव । मृा सहने चास्योदित्वात् “यस्य वा" [ १२१] इतीटि प्रतिषिद्धे मृष्टम् ।
वोदुङो भाषारम्भयोःशपः ॥२४ातः सेएन किदिति वर्तते । उदुको घोः शन्त्रिकरणात्परो मात्र चारम्भे च तः गड् वा न किद्भवति । भावग्रहां हास्य विशेषणम् । प्रारम्भ अानः क्रियाक्षणः । म धोर्विशेषणम् । युतितमस्य । द्योसितमस्य । सम्बन्धे ता । कर्तृत्वांववक्षायां "न झित" [9111७२] इत्यादिना ताप्रतिषेधः। द्युतितमनेन । छोतितमनेन । प्रलुटिनः । प्रलोठितः। प्रलुठितवान् । प्रलोठितवान् | "कसरि चारम्भे सः" [२।४।१६] इति कतरिक्तः। उदुष्ठः इति किम् ? विदितमनेन ! प्रविदितः । भावारम्भयोरिति किम् ? रुचितः कापिणः । शनिकरणादिति किम् ? गुधितमस्य | प्रगुधितः । भाविकरणोऽयम । सेडित्येव । रूढमस्य | प्ररूढः । तपरकरणमसन्देहाथम् । निकुचित इति नकारस्य दे कृते "सम्मिपातलक्षणो विधिरनिमिल तद्विघातस्यः' इत्युतुको बिकल्पो न भवति । चिहितविशेषणादा।
नोउस्थफात् क्त्वा ॥११॥६५॥ सेडिति वर्तते वेति च । नकारोडोधोस्थकारान्तात् फकारान्ताच क्त्वा सेड् वा किद्भवति । श्रथिवा | श्रन्थित्वा । प्रथित्वा । प्रन्थित्वा । गुफिलवा । गुम्फित्वा । मृडादिनियमान्नित्यमकित्त्वे प्राप्ने विधिविभाष्यते । नोक इति किम् ? गोफिया । नन्वत्रापि "म्युकोऽवो हलः संश्च' [ 10 ] इति विकल्पेन भाव्यम् | एवं तहि फेरफित्वा प्रत्युदाहरणम् । थफान्तादिति किम् ? न सित्वा ।
यश्चिलुच्युत षिमृपिकृषः ॥११॥६६॥ वश्चि लुचि ऋति तुषि मुषि कृष् इत्येतेभ्यः परः क्या सेट वा किद्भवति । वचत्वा । वञ्चित्वा | लुचित्वा । लुचिस्वा । तेऽर्ग इति यदा ईयङ् न भवति तदा ऋतित्वा । अर्तित्वा। तृषित्वा । सर्षित्वा । मृधित्वा । मर्षित्वा । कृषित्वा । कर्षित्वा । मूलादिनियमानित्यमकित्त्वं प्रासम् । सेधित्येव । बक्त्वा । मृष्ट्वा । "बोक्तिः [ १।१०४] इति पवे नेट् ।
व्युडोऽयो हला संश्च ॥राजा सेडिति वर्तते वे ति च । उकारोङ इकारोडश्न धोरवकारान्ताद्धलादेः परः संश्च क्त्वा च सेटो बा कितो भवतः । उकारकारोछोऽजन्तत्वासम्भवाद्धलग्रहणमादिविशेषणम् । दिद्युतिषते । दिद्योतिषते । “पुतिस्वाप्योर्जि: "[१२।१६७] इति चंस्य जिः | युतित्वा | द्योतित्वा । लिलिखिपति | लिलेखिघति । लिसित्वा । लेनित्वा । सन्नकिदेव क्यापि सेएमृडादिनियमादकित् । तयोरप्राप्त कित्वमनेन विघीयमानं
1. भातुपाठपठिततितिक्षार्थस्य प्रहणमित्यर्थः । २. मृष्टः च । ३,-क्रि-ब०। ४. "सत्यो. णिकीय' २/३।२८। इति निस्पं शिडीयौ | अन्न वागे' इत्यनुवृत्त अगे विकरुपेन णिलीयको इति तम्रत्यवृस्यभिप्रायः । एतदाशयेनैवान तेर्वाग इति इत्याध क्तम् । नस्वित्यं किमपि सूत्रम् । १. स्वेसि ब०, स०। ६. अभ्यास्त्रस्य ।
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अ० [१] [फा० १ सू० ६८-६१]
महावृत्तिसहितम्
विकल्प्यते । व्युङ इति किम् ? विवर्तिषते । वर्त्तित्वा । अव इति किम् ? दिदेविषति । देवित्वा । इलादेरिति किम् ? एविधिप्रति । एषित्वा । सनि एपि कृते द्वित्वम् । सेडित्येव । लुमुक्षते । भुक्त्वा ।
1
२१
युक्तवदुसि लिङ्गसंख्ये ||१|११६८॥ युक्तः प्रकृत्यर्थः । प्रत्ययार्थेन सम्बन्धात् । उसोऽर्थं उस् । उसि युक्त इव लिङ्गसंख्ये भवतः । इवार्थे बत् । उसिति नाशस्य संज्ञा | उसा नष्टस्य त्यस्यार्थः साहचर्यादुम् । तत्रोसचें प्रकृत्यर्थं इव लिङ्गसंख्ये विधीयेते । लिङ्ग' स्त्रीषु नपुंसकानि । संख्या एकत्वद्वित्वबहुत्वानि । पञ्चालो नाम राजा तस्यापत्यं “राष्ट्रशब्दाद्राज्ञेोऽज्” [३।१।१५० ] इत्यम् । बहुत्वे तस्योपि कृते पञ्चालाः क्षत्रियाः पुंल्लिङ्गा बहुसंख्याः । तेषां निवासो जनपद: "तस्य निवासादूरभवी [३३२|५१] इत्यागतस्यारा: "जनपद उस्' [३ |२| ६१] • इत्युस् | क्षत्रियेषु ये लिङ्गसंख्ये ते जनपदेऽपि भवतः । पञ्चालाः । कुरवः । श्रङ्गाः । वङ्गाः । कलिङ्गाः । एवं वरणानामभवः । गोदो नाम हृदौ तयोररभवः । "वरणादेः " [२२२६२] इति उस् | वरणः | शिरीषाः । गोदी ||" अर्थातिदेशाद्विशेषणानामपि तद्वत्ता सिद्धा" (वा० ) पञ्चाला रमणीया श्रन्ना बहुक्षोरघृता बहुमाल्यफलाः। वरा रमणीयाः । गोदौ रमग्रीयो । “जातेरिति वक्तव्यम् (वा० ) । पञ्चाला जनपदः । गोदौ ग्रामः । श्रत्र जनपदमामयोजतित्वान्नातिदेशः । जात्वर्थो जातिः । तेन तद्विशेषणानामपि प्रतिषेधः । पञ्चाला बनपदो रमणीयः। नेदं वक्तव्यम् । सञ्ज्ञाप्राम्नास्यात् । यथा वर्षा आपो दारा ग्रहाः सिकता इत्येवमादीनां संज्ञाशब्दानां संज्ञायामा एवादेव त्वलिङ्गेन स्वसंख्यया च साधुत्वमेवं जातेरपि भविष्यति । पञ्चालादीनां तु संज्ञा शब्दानामन्वाख्यानप्रदर्शनार्थमुस्तिङ्गसंख्यातििदशश्च विधीयते इत्यदीपः । उसीति किम् ? आमलकं फलम् | उपि कृते फलेऽर्थे आपलकशब्दस्य स्त्रीलिङ्ग मा भूत् । लिङ्गसंख्ये इति किम् ? यो अदूरभवो ग्रामः । वरणादित्वादुस् तस्य वनं बदरीबनन् । वनरमतित्वातिदेशां मा भूत् । "विभाषैौषधिवनस्पतिभ्यः " [५/४/६० ] इति त्वं प्रसज्येत। वेति व्यवस्थितविभाषानुवृत्तेर्मनुष्यार्थे उसि विशेषणानां न लिङ्गसंख्यातिदेशः । पञ्चाला श्रभिरूपः । बहीका दर्शनीयः । चत्र मनुष्यः । "इवे प्रतिकृती : " [ ४।१।१५० ] इति कः । तस्य " उस मनुष्ये" [ ४२३१५२ ] इत्युक्त् । खलतिकादिषु संख्यातिदेश पत्र | खलतिकस्य पर्वतस्यादूरभवानि चलतिकं वनानि । हरीतक्यादिषु सिद्धातिदेश एवं | हरीतक्या अवयवः फलानि । “हरीतक्यादे:" [ ३/३/१२४ ] दत्थुस् । हरितक्यः फलानि ।
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तिष्यपुनर्वसूनां भद्रे द्वित्वम् ॥ १॥६६६६६॥ तिष्य एकः पूनर्वसू द्वौ । तेषां भद्वन्द्वे द्वित्वं भवति । उदितौ विष्यपुनर्वसू । तिष्यपुनर्वसूनामिति किम् । राधानुराधाः । श्रवधनिष्ठाः । भग्रहणं किम् । तिष्ये जातः । पुनर्वस्योर्जातौ तत्र जात छत्यागतल्यायो 'भेभ्यो बहुलम् [ ३।३।१३ ] इत्युपू । तिष्यश्व पुनर्वसू च तिष्यपुनर्वसवो मायकाः । ननु गौणादेवात्र न भविष्यति । पर्यायार्थं तर्हि भग्रहणम् । पुष्यपुनर्वसू सिद्धपुनर्वसू इति । बहुवचननिर्देशः किमर्थः ? एकवद्भावे मा भूत् । इदं तिष्यपुनर्वसु । इदमेव शापर्क "वा तरुमृग ०" [ ४ ] श्रदिति योगविभागोऽस्ति । द्वन्द्र इति किम् । श्रस्तिध्यस्ती पूनर्वसू येषां ते तिष्यपुनर्वसवो मुग्धाः तिष्यादय एवात्र विपर्ययेण प्रतीयन्त इति भविषयत्वमस्ति । "आत्याख्याया मेकस्मिन् बहुवचनमन्यतस्याम् | [१।२।१८ पा० सू० ] इति न वक्तव्यम् । सामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः । विशेपेष्वनुवृत्ताकार बुद्धिनिमित्तं सामान्यम् । व्यावृत्ताकार बुद्धिहेतको विशेषतः । तत्र सामान्यविवक्षायामेकत्वं भवति । सम्-नो बीहिः । विशेषविवक्षायां बहुलम् । सम्पन्ना श्रीहयः । संख्वानुप्रयोगे जातिविवक्षैव । एको बीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं कोति । श्रस्मदो द्वयोरेकस्य च वा बहुत्वं न वक्तव्यम् । कथमहं ब्रवीमि आवां बूचः, वयं ब्रूम इति श्रात्मन इन्द्रियाणां च वातन्त्र्यं पारतन्त्र्यं विवक्षया भविष्यति । कदाचिदात्मा स्वतन्त्रो भवति । अनेनाणापश्यामि | कदाचिदिन्द्रियाणां स्वातन्त्र्यम् । इदम्मेऽति पश्यति । तत्रात्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षाया
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१. विकरूपेन विधीयत इत्यर्थः । २ "वधिका " ० "वत्रिका " मु० । ३. अस्मदो द्वयोश्र ( पा० सू० १/२५६ ) इति सूत्रं लक्षयति वृतिकारः ।
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अभि-ज्याकर जम्मू
[अ०] १ पा० १ सू० १००
मेकत्वमिन्द्रियाणां स्वातन्त्र्ये बहुलम् । सविशेषणस्यात्मविवक्षैच । श्रहं देवदत्तो त्रयीमि । श्रहं साधुयीमि ।
मदिरावुभविक्षा । त्वं मे गुरुः । यूर्य में गुखः । एतच्च शब्दशक्ति स्वाभाव्यात् । फैल्गुनीप्रोष्ठपदानां नक्षत्रे द्वयत्वं बेति न वक्तव्यम् । कथं कदा पूर्वे फल्गुन्यौ कदा पूर्वाः फल्गुन्यः । कदा पूर्वे प्रोष्ठपदे कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदाः १ यदा फल्गुनसमीपगते चन्द्रमसि फल्गुनीशब्दो विवक्ष्यते तदा बहुत्वमन्यदा द्वित्वम् ।
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स्वाभाविकरवादभिधानस्यैकशेषानारम्भः ॥ १|१|१००|| स्वभावत एव शब्द एकशेषमनपेक्ष्य एक द्विषु वर्तते । श्रत एबैकशेपानारम्भः । एकत्वादीनां प्रकृत्युपात्तानामभिव्यक्तये विभक्त्युपादानम् । यथा एको द्वौ बहवः पञ्च समेति । एवं वृद्धः वृक्षौ वृक्षाः । अथ प्रत्यर्थ शब्दनिवेशाकेनानेकरूपाभिधानं तत्रानेकार्थाभिधानेऽनेकशब्दत्वं प्रसक्तमत एकशेषः । श्रत्रोच्यते यदि भिलेष्यमिन्नाभिधान प्रत्ययहेतुर्जातिः शब्दार्थः । तस्पाः प्रत्यायने एक एव शब्दः समर्थः । अथ द्रव्यं शब्दार्थः । तच्चानेकं व्यावृत्ताभिधानबुद्धि लिङ्गम् । तस्याभिधित्सावामनेकशव्दले प्राप्त एकशेष इति । एतदप्ययुक्तम् । अवशिष्टः शब्दो निरृत शब्दस्य यद्यर्थमभिधत्ते तदास्य द्वित्वेऽपि वृत्तिरिति किमेकशेषेण । अथ नामिते तदा पश्चादपि स एवार्थः । कथमनेकार्थे वृत्तिः १ सरूपाणां द्रन्दनिवृत्यर्थमेकशेष इत्यपि नास्त्यनभिधानात् । न हि भवति द्वौ च द्वौ च द्वाविति । अथ विरूपशब्दार्थ एकशेफ । तथाहि "वृद्धो यूना एकक्षणश्चेदेव विशेषः" [० सू० १/२/६३ ] श्रत्यन्तर्हितं वृद्धम्' । एत्रकारो भिन्नक्रमः । विशेष बैरूप्यम् । वृद्धः शिष्य यूना सह वचने वृद्धयुक्ला एवं वाद विशेषः समानायां प्रकृतौ । गार्ग्यक्ष गार्ग्यायश्च गयौ । दाक्षुिश्व दाक्षायणश्च दादी । बुद्ध इति किम् ? श्रपगवश्चानन्तर श्रीपगविश्व युवा श्रोपगबोपगावी । गार्गिगावौ | यूनेति किम् ? गर्ग गार्ग्य गर्भगाय | तलक्षण एवेति किम् ? गार्ग्यवात्स्यायनी । अत्र प्रकृतिविशेषोऽप्यस्ति । एवकारः किमर्थः । भागवित्ति भागवतिका। भागवित्तेरपत्यं युवा । "दोष्ठणू सौर्वारेषु प्राय:” [ ३।१।१३६ ] इत्यत्र पस्यापि भावान्न तलक्षण एव । विशेष इति किम् ? वेदश्च वृद्धो वेदश्व युवा बैदवेदौ । तल्लक्षण वैरूप्याभावात् द्वन्द्वो भवत्येव । "श्री पुंबच्च" [ पा० सू० १/२/६६ ] स्त्री वृद्धा यूना सह वचने शिष्यते पुंवद्भावास्या भवति तल्लक्षण एव यदि विशेषः । गार्गी च गार्ग्यायश्च गायों । दाक्षी च दाक्षायणश्व दादी | नेदं द्वयं वक्तव्यभू 1 जीवति वंश्ये वृद्धं द्वयमभिधत्ते । अजीवति वृद्धयूनोर्द्वन्द्वो नास्त्यनभिधानात् । जीवति वंश्ये वृद्धी स्त्रीं युवान सामान्येन वृद्धशब्द एवाभिधत्ते । द्वन्द्वस्य चानभिधानम् । पिपुमान् स्त्रिया सह वचने शिष्यते तल्लक्षण एवं यदि विशेषः । क कठी च कटौं मयूरच मयूरी मयूरौ । प्राणिधर्मयोः स्त्रीपुंसयोर्ग्रहणादिह न भवति । नदनदीपतिः । घटपटीसरायोदचनादि । तल्लक्षण इत्येव । कुक्कुटमयूर्यौ । एवकार इत्येव । इन्द्रेन्द्राण्यौ । भवभवान् । पुंयोगलक्षणोऽप्यत्र विशेषः । इदमवि जातिमात्रविवक्षया सिद्धयति । द्वन्द्वस्य न्वानभिधानम् । अभिधाने द्वन्द्वोऽस्ति । नदनदीपतिः । ब्राह्मणवत्साब्राह्मणी (ग) वत्सी । भातृपुत्री स्वदुहितृभ्यां शिष्यत इति न वक्तव्यम् । भ्राता च स्वसा च भगिनी वा भ्रातरौ । पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ । श्रपत्यमात्रविवक्षया द्वन्द्वानभिधानञ्च । इदं तर्हि वक्लव्यम् । नपुंसक" मनपुंसकेनैकमञ्चास्यान्यतरत्यान्त अक्षय एव यदि विशेष इति । शुभख वस्त्रं शुरू कम्बलः शुक्ला च साटी तदिदं शुभम् । तानीमानि शुक्लानि । नेदं ज्यायः त्रिपु लिङ्गेषु नपुंसकस्य प्रभादौ प्राधान्यात् । तेन (नपुंसकत्वं )
१. प्राण बहु- अ०, ब०, ख० । २. स्विवात् । फल्गु अ० । ३. "फल्गुनीप्रोपदान नक्षत्रे" पा० सू० ११२/६० । ४. प्रत्यर्थशब्द - अ० । ५. खाने प्रत्य-म० | ६. - तस्य शब्दअ०, ब०, स० । ७. - कार्थे च स० । "पुमान् खिया" पा० सू० ११२६७] इत्यभिलक्ष्य खण्डयति । १. "आतृपुत्री स्वसृदुहितृभ्याम्" पा० सू० ११२६८ इति खण्डयति । १०. "नपुंकमनपुंसकेनैकवच्चास्यान्यतरस्याम्" इति पा०
सू० १ | २ | ६२ ।
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: पपा २ सू०१-३
महावृत्तिसहितम् सामान्यविशेषापेक्षया च वचनभेदः । पिता मात्रा श्वशुरः श्वश्वाऽन्यतरस्यामित्यपि न वक्तव्यम् । सामान्यषियक्षया फ्तिरी श्वशुराविति । इन्द्रोडप्यस्ति । मातापितरौ । श्वश्रुश्वशुरौ। श्वश्रूशब्दः स्त्रियामिहेव निपातितः । "त्यदादीनि सवैनित्यम् ।" [ पाच सू० ११२१७२] सधैं रिति त्यदादिभिरन्यैश्च सहवचने त्यदादीनि शिष्यन्त इत्येतदपि नास्ति । स्यदादीनामन्यापेक्षया सामान्यबाचित्वम् । त्यदादिषु च यद्यत्परं तत्तसामान्यवाचीति तत्प्रयोगो युक्तः । स च देवदत्तश्च तौ। कश्च देवदत्तश्च को । स च यश्च यौ । ऋथात्र कस्य लिङ्गम् । स च वाली च कुएइञ्च । स च देशदत्ता च कुण्डं चेति | उच्यते-द्वन्द्वा पवादोऽयम् । द्वन्द्वे चान्त्यलिङ्गम् । अत्रापि तदेव युक्तम् । इदं चापि न वाच्यम् । “ग्राम्यपशुसवतरुणेघु खी" [ पा० सू० १।२।१] ग्राम्या ये पशवस्तेषां साकडे स्त्री शिष्यते अतरुणाश्चेद् ग्राम्पपशवः । गावश्च स्त्रियो गावश्च पुमासः गाव एमाः । अना इमाः माह लि। प्रारयान मा गत । रुरव हमे । पृषत इमे | पशुप्रष्टणं किम । नाममा प्रमे। स?स्विति किम् ? एतौ गात्रौ चरतः । अतरणेविति किम् ? यत्सा इमे । वर्करा इमे । कथं नंदं वचव्यम ? लिङ्गमशिष्य लोकानयत्नालिङ्गस्येति । अन्यथा अश्वा इमे इत्येयमादिषु एशेषेणु अनिष्ट स्त्रीलिङ्ग प्रसज्येत इत्यभयनन्दि मुनिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याभ्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।
भूवादयो धुः ॥ १।२।१॥ भू इत्येवमादयः शब्दाः प्रत्येक धुसज्ञा भवन्ति । भूएध स्पर्द्ध इत्यादि । धोरित्यधिकृत्व लडादिविधिः कार्यम् । भवति । एधते । स्पद्धते । आदिशब्दो व्यवस्थावाची । तेन औरणचयत्यादीनां निरासः । अर्थपदोपलक्षितानाञ्च व्यवस्था । ततो धुसमानशब्दानां यात्रामादिपित्येवमादीनां सर्वनामविकल्पप्रतिषेधस्वर्गादिनाचिनामग्रहणम् । भूशब्द आदिरेपमिति वसे भ्यादय इति प्राप्नोति । नैवम् | "भूषादीना वकारोऽयं लक्षणाः प्रयुज्यते । इको मभिध्यवधानमेकेषामिति संग्रहः" । तेन त्रियम्बकं यजामहे घायुवम्बरयोरिबेल्यादि सिद्धम् | "भुवो वार्थ बदन्तीति' भवतेः सम्पदादिपाठाक्षिप् । भुवं भवनं क्रियों वदन्तीति बहुलवचनादण्य न्तादपि वदेरौणादिके इजि कृते. भूवादयः । अस्मिन् पक्षे शिष्टाप्रयोगादाणवयत्वादीनां क्षेपः । "स्वर्था वा वादयः स्मृताः । अथवा वा गतिगन्धनयोरित्यस्मात्पर आदिशब्दः । भुवो वादयो वाच्यवाचकभावसम्बन्धे ता स्वर्थ इत्यर्थः । ये तु बकारो मझलार्थ इति पठन्ति' । त इदं वाच्याः । यद्याधिक्यादकासे मङ्गलमतिप्रसङ्गः स्यात् । एतेन तत् ज्ञान प्रत्युक्तम् । मङ्गला भिधेयश्च धकारो नाममालादिषु न पल्यते । वृत्ती मर्थ्यानपात्तश्च चिन्त्यः । धुप्रदेशा: “धोया क्रियासमभिहारे' [२॥ १।१३] इत्येवमादयः ।
अकर्मको धिः ॥ २२ ॥ अकर्मको धुर्घिसज्ञो भवति । "काप्यम्" ॥२॥१२०] हायादिना लक्षणेन विदितं कर्म तदविवक्षित वा नास्या (नास्यस्य वाऽ) कर्मकः । धिप्रदेशाः "अनोधेः [ARI] इत्येवमादयः ।
कार्यार्थोऽप्रयोगीत् ॥ १।३ ॥ शास्त्रऽन्यस्य कार्यार्थमाश्रीयते प्रयोगे च न भूयते यः स इस शो भवति । अहउण यकारः । जिमिदा स्नेहने, टुनदि समृद्धौ, डुकुम, करण इत्यादिषु भिटुडवो छेडस्यादिषु द्वकारः । कार्यार्थ इति किम् ? कुलात्खः कुलीनः । परमकुलीन इत्यत्र खकारस्याऽप्रयोगित्यात् "खियो।
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1."पिता माना, श्वसुरः अश्वा' पा० सू० १।२१७०,७७ इत्यभिलक्ष्य खरपति । २.-सा । सच कु-म०, स० । 1. इसमेकशेषवादिना मते संगच्छते । एकशेषानारम्भवादिना तिकृया सिंग मशिष्य लोकाश्रयस्वाल्लिंगस्प" इति वाच्यम् । ४.-न्दिविर-१०, 40, स. । ५. भाहपयत्त्वा-प्र., स. आणययत्या-ब० । ६.-वाया यय-प्र०, ब०. स. | ७. निरास इत्यर्थः । . "भूकादीनां वकासेऽयम्मंगसार्थः प्रयुज्यते' (१।३१। पा० म. मा०) इति खण्डनपरः सन्धर्भः।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [001 पा०२ सू० १-- मचा" [१३।७३, १४७] इति मुम् प्रसज्येत । अअयोगीति किम् ? परमकुलीनः । ईनादेशः कामिति मुम् स्पात् । ननु कार्यार्थोऽप्रयोगी च खः कथं नेसज्ञः ? उभयविशेषणोपादानात् । अन्यस्य कार्यार्थो भूत्वा योऽप्रयोगीत्यदोषः । अन्वर्था चेयमिमंशा । एति गच्छति नश्यतीत् तेन "तस्य लोपः" पा. स. १३१] इति न वक्तव्यम् । प्रयोगानुसारेणाप्रयोगित्वावगतेः। प्रतिपत्तिगौरवर्भाित चेत् "उपदंशेऽजनुनासिक इत" [पा० सू० ११३२] इत्यनुनासिकन्नमपि प्रयोगादेवावसीयत इति समानम् । प्रदेशाः "टिदादिः" [स इत्येवमादयः । ___ यथासंख्य समाः ॥ १।२।४ ॥ यथासंख्यं यथाक्रम समाः शिष्यमाणा भन्ति' । यथामख्वं "यावयथावधुस्यसाश्ये" [१॥३॥६] इति हसः । समास्तुल्याः । तुल्यावश्च द्विष्ठमतः पृवोद्दिष्टानाम दृष्टाः समा ज्ञेयाः। "मिप्यस्थतसोऽस्ततनाम :
रू सको त्यो सादि योज्यम् । समा इति किम् १ "सवाक्कलक्षणवोऽव्यणिमामण [३३] सवादयश्चत्वारोऽथा अमादयस्त्रयः, वैषम्यात् सवादिषु चतुर्वर्थेष्वमंतादण् भवति, तथा यजन्तादिजन्ताच्च । समशब्दस्य साये युक्तार्थ च सर्वनामसशोक्ता न तुल्यार्थे ।
स्वरितेनाधिकार ।। ।५ ॥ स्वरितेन लिङ्गेनाधिकारी वेदितव्यः । "त्यः" |21113] “परः" [ शा२] "याम्मुदः" [३।१।१] इत्येवमादिः । स्वरित इति प्राचार्यप्रतिज्ञाया लिङ्गम् । "व्यामिश्रः स्वरितः। [ १५] इत्यस्याची धर्मत्वेन " हि [शाम इत्येवमादिषु हल्स्वसम्भवादग्रहणम् । अधि कारो विनियोगा व्यापार इत्यर्थः । त्वरितेनेति योगविभागाद्यथासंख्यमपि स्वारतेन संयम् ।
___ अनुदारोतो दः ॥ शश६ ॥ डकारेतोऽनुदात्तेतश्च धोर्द एव भवति । हितः। पूछ । सूते । शाह । शेते । इङ् । अधीते । अनुदारोतः । आस । आस्ते । वस | बस्ते । चक्ष । श्राचष्टे । चर्डिकरणमनर्यकम् । अनुदात्तेत्त्याधुन् । विचक्षणः । “ल कर्मणि च भावे च धे" [२४॥५५] इति धोलकारा विहिताः । तद्द्वारेण दविधी मविधी च प्राप्त प्रकृतिनियमोऽयम् | हनुदात्तेतो द एव भवति । दलवनियतः । सोऽन्येभ्योऽपि प्राप्तः । “मम्" [१॥२१७५] इति द्वितीयो नियमः । यत्र मञ्च दश्च प्राप्नोति तत्र ममेव भवति । यदि स्यनिवमः स्याद् अनुदातेत एव दो भवति नान्येभ्यस्तदान्यत्र मस्य सिद्धत्वात् “मम्" [२५] इति सूत्र मनर्थकं स्यात् । तदारम्भादियशवधारणं सिद्धम् । किञ्च त्यनियमे हि अनुदानतोऽपि में प्राप्नोति तन्निवृनये शेषान्ममिति शेषग्रहणं कुर्यात् । तदकरणं च ज्ञापर्क प्रकृतिनियमस्य ।।
डौ।। २२।७ ।। डिरिति भावकर्मणाः सज्ञा । ङौ द एव भवति । प्रास्यते भवता | सुप्वले भवता । भावस्वैकत्वं युष्मदस्मदर्थाऽसम्भवश्च । कारकेभ्यः पृथग्भूतो घोरर्थः स्वप्रधानको भावः । एति जीवन्तमानन्द इत्यत्र आनन्दो राह्य एतेः कर्तृत्वेन विवक्षित इति दो न भवति । कर्मणि । क्रियले करः । कमंकरि । लूयते के सरः । भिद्यते कुसूलः स्वयमेव । अर्थनियमोऽयम् । दस्तु कर्तयपि प्राप्तः स ममित्यनेन नियमेन निवर्वते । यदि आवेत्र दो भवतीति त्यनियमः स्याद् मावकर्मणोपनियतवान्मेऽपि प्राते तन्निवृत्त्यर्थ शेषात् कर्तरि ममिन्युध्येत शेषाऽकरणं ज्ञापकमर्थनियमस्य | एवं प्रतिनियमेऽर्थनिय मे च सति "मम्" [२५] इत्यत्र कर्तृग्रहणं शेषग्रहणश्च प्रत्याख्यातम् ।
कर्तरि ॥ श८ ॥ कर्तरि आयें दो भवति । "कर्मभ्यतिहारे म;" [२।३०६] इति ओ चिहितस्तंसहचरितः कर्मतिहारो बाथः । कर्मव्यतिहारश्च कर्मग्रहणसामर्थ्यात् क्रियाव्यतिहारः। अन्यस्य कर्तुमिष्टां क्रियां यदान्यः करोति तदिष्टां चेतरस्तदा क्रियाव्यतिहारः । व्यतिलुनीते । व्यतिपुनीते । श्रारम्भसामात्
१.-न्ति । बायासङ्ख्या यथा-अ., 40, स०। २. इत्यत्र दो अ., ब०।३, केदारः म० ब०, स०। ४. उत्सवाक्यस्वारस्येन शेषाकरणं ज्ञापर्क प्रकृतिनियमस्य, कर्तृग्रहण्याकरणशापकममियमस्येति पाठो युक्तः । ५. बसहचरित इत्यर्थः । ६. व्यतिलुनते । व्यतिपुनते म०, ब० ।
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म० ! पा० २ ० ६-१५] महावृत्तिसहितम्
२५ कर्येव सिद्ध कप्रहणमुत्तरार्थम् "न गतिहिसार्थेभ्यः" [२] इति । कर्तरि फर्मव्यतिहारे विहितस्य दस्य प्रतिषेधो यथा स्यादिह मा भूत् । व्यतिभ्यते सेनया। व्यतिगम्यन्ते प्रामाः । व्यतिहन्यन्तै दस्यवः । क्रियाव्यतिहार इति किम् ? पारिभाषिककर्मव्यतिहारे मा भूत् । देवदत्तस्य धान्य व्यतिलुनन्ति ।
न गतिहिसार्थेभ्यः ॥ शराः ॥ गत्यर्थेभ्यो हिंसार्थेभ्यश्च धुभ्यो आयें दो न भवति । व्यतिगच्छन्ति । व्यक्तिधावन्ति । हिंसार्थेभ्यः । व्यतिहिंसन्ति । व्यतिभिन्दन्ति । व्यतिछिन्दन्ति । व्यन्तिपिषति । बहुवचननिर्देशो हमादिसंग्रहणार्थः । व्यतिहसन्ति । व्यतिजल्पन्ति | व्यतिपटन्ति । व्यतिकथयन्ति | "वसोरप्रतिषेधो वकम्यः" [वा०] सम्प्रहरन्ते राजानः । व्यक्तिवहन्ते नद्यः । गतिहिंसयोः प्रतिषेधो गतिहिंसाहेतौ न भवति । व्यतिगमयन्ते । ध्यतिभेदयन्ते ।
परस्परान्योन्येतरतरे ॥ १० ॥ परस्पर अन्योन्य इतरेतर इत्येतेषु प्रयुक्त प्रायें दो न भवति । परस्परस्य व्यतिलुनन्ति । अन्योन्यस्य व्यतिलुनन्ति । इतरेतरस्य व्यतिलुनन्ति । व्यतिभ्यां द्योतितेऽपि कर्मव्यतिहारे परस्परादिपदप्रयोगो द्वाययूपौ भक्षयोति यथा । परस्परादिशब्दानः कथं सिद्धिः । द्वित्वप्रकरणे कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्वित्वम् । “सवश्च बहुलम् [चा. ] इति वक्ष्यति ।।
निधिशः । शरा११॥ नि इति स्वरूपस्य ग्रहण न निमञ्ज्ञाया । निपूर्वादिशो दो भवति । निविशते । निविशेते । निविशन्ते | लावस्यायामागमः। ततो न ट्यवधायकः । न्यविशत । "मम्' [ ५] इति में प्राप्तम् । सनिर्देशः समर्थार्थः । सामर्थञ्च धोगिना । तेनेह न भवति । मधुनि विशन्ति भ्रमराः । अनर्थकवादा ।
परिव्यवकियः ॥१२॥१२॥ परि वि अव इत्येवंपूर्वात् क्रीणातेदो भवति । परिक्रीणीने । विकोणीते । अवक्रोणीते । अकर्मण्ये फले विधिरयम । अनयंकवादिह न भवति । उपरि क्रोणाति । गवि कोणाति । अपचाव कोणीवः । की इति अनुकरणम् | अनुकार्येणार्थवत्त्वान्मृत्वे सनि स्वादिविधिः । "प्रकृतिबदनुकाणम्" इति धुलातिदेशादियादेशः । उत्तरत्र जेरिति निर्देशान्' बकरणादपि स्वाश्रयोऽपि कचिदेव ।
विपराजे ॥१२॥१३॥ नि परा इत्येवपूजयतेः भवति । विजयते । पराजयते । अत्रापि सनिदशः समर्थस्य गेम्र हरणार्थः । तेनेह न भवति । बहुविजयति वनम् । पराजयति सेना ।।
आओ दोऽव्यसने ॥१२॥१४॥ व्यसन विकसनं विवरण वा। अन्येषां दारूपाणां व्यसने वृत्तिर्नास्ति | आपूर्वाद्ददातरव्यसनेऽये दो भवति | विद्यामादत्त । अकाप्ये फले प्रापणार्थमिदम् । अव्यसनमिति किम् ? आस्य याददाति । पिलकं व्याददाति । विपादिकां व्याददाति | "स्वाभकर्मकादिति वकम्यम्' [वा ] यह मा भूत् । व्याददते पिपीलिकाः पतङ्गमुखम् । यद्यक प्ये फले प्राप्तस्याव्यसन इति प्रतिषेधः काप्ये फले व्यसने दः प्राप्नोति । नैवम् । अव्यसन इति योगविभागाद् वेन केनचिव्याप्तस्य प्रतिषेधः। प्राथिति डिस्करणं किम् । श्रा ददात्यसौ भिक्षामिवानीमहमस्मार्षम् । श्राडिति योगविभागः । तेन स्थः प्रतिज्ञाने दो भवति । अनित्यं शब्दमातिष्ठन्ते । “गमयते: कालहरणे" [वा०] आगभवस्व तावहेवदत्त । "भुप्रविलम्यान' [वा.] । श्रानुते शृगालः । आच्छते गुरुमिति सिद्धम् ।
क्रीडोऽनुपर्याः ||१५॥ अनु परि आङ् इत्येवंपूर्वात् क्रीडो दो भवति । अनुक्रीडते । परिक्रीडते । आक्रीडते । गिसाहचर्यादनोर्गे रेव प्रदणादिह न भवति । माण्वकमनु क्रीडति | माणवकन सहेत्यर्थः । "मा' [1 ] इत्यनुना योग इप गितिसञ्चाप्रतिषेघश्च । “शिक्षेजिज्ञासायाँ दो वक्तव्यः" [वा. ] शके सन्नन्तस्येदं ग्रहणम् । विद्यासु शिक्षते । धनुषि शिक्षते । कर्मविवक्षायां विद्याः शिक्षांचक्रं । "हरतेगेतिवाच्छील्ये" बा०] पैतृकमश्वा अनुहरन्ते मातुकं गावः | मातुरागतम् "ऋतम्" [२।३।१२ ] इति ठा)
1. बहु भुवि जय-१० । २. अपरा अ० । ३. -मासिष्ठते १०,०, स.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ०१ पा० २ सू०१६ - १३ गतिताछील्य इति किम् ? मातरमनुहरन्ति । " शप उपलम्भन इति च वक्तव्यम्” [ वा० ] याचा शरीरस्पर्शनमुपलम्भः । देवदत्ताय शपते । उपलम्भन इति किम् ? शपति ।
समोऽकूजे ||१|२| १६ || सम्पूर्यात् क्रौडो ऽकूजेऽर्थे दो भवति । संक्रीडते । मंकीते । संक्रीडन्ते । अकृत इति किम् ? संक्रीडन्ति शकटानि । श्रव्यक्तं शब्दं कुर्वन्तीत्यर्थः ।
स्थोऽवविश्व || १ |२| १७॥ अव विप्र इत्येवंपूर्वात् सम्पूर्वाच्च तिष्ठोदों भवति । अवतिष्ठते । वितिष्ठते । प्रतिष्ठते । सन्तिष्ठते ।
श्रीप्सास्थेयो || १ |२| १८ || परपरितोषार्थमात्मरूपादिप्रकाशनं ज्ञीप्सा । स्थीयतेऽग्नि नियरूपेखेति स्थेयः । बहुतवचनादधिकरणे यः । ज्ञीप्सायां स्थेयोनौ च तिष्ठतेों भवति । ज्ञी सायाम् तिष्ठते कन्या छात्रेभ्यः । तिष्ठते ब्राह्मणी छात्रेभ्यः । स्वाभिप्रायप्रकाशनेनात्मानं रोचयतीत्यर्थः । शौष्मनक्रियया कर्मव्यपदेशभाजां छात्राणामुपेयात् संप्रदानत्यम् । स्थेयोक्तौ - देवदत्ते तिश्रुते । त्वयि तिष्ठते । मयि तिष्ठते । संशयानिवयं करोतीत्यर्थः ।
उद हे ||१/२/१६ ॥ उत्पति तेरीटर्थे वर्तमानादो भवति । गेहे उत्तिष्ठते । धर्मे उत्तिष्ठते । घटत इत्यर्थः । ई इति किम् ? श्रस्माद् ग्रामाच्छतमस्तिष्टति । उत्पयत इत्यर्थः । ई६ इति ईहतेः पर्यायग्रहणात् गम्यमानायामायां न भवति | आसनानुतिष्ठति । उत्तिष्टति सेना । श्रस्माद् ग्रामाद्विष्टि: ( १ ) | पञ्च पुरुषा उत्तिष्ठन्ति ।
I
उपान्मन्त्रकरणे ||११२२२०॥ उपपूर्वाप्तिष्ठते मंन्त्रकरणे दो भवति । जगत्योपतिते । त्रिष्टुपतिष्ठते । मन्त्रकरण इति किम् ? भर्तारमुपतिष्ठति भार्या यौवनेन । उपादिति योगविभागः । तेन देवपूजासङ्गतिकरणमित्रकरणपथि दो भवति । देवपूजायाम्- सीमन्धरमुपतिष्ठते । सङ्गतिकरणे - रथिकानुपतिष्ठते । मित्रकरणेमहामात्रानुपतिष्ठते । सङ्गतिकरणमुपश्लेषः । मित्रकरणं मानसः सम्बन्धः । पथि श्रयं पन्थाः स्रुध्नमुपतिष्ठते । "वा लिप्सायामिति वकस्यम्" [ वा० ] | भिक्षुको दातृकुलमुपतिष्ठते । उपतिष्ठति वा ।
धेः ||१|२|२१|| अकर्मको धिरिति । उपपूर्वात्तिष्ठतेर्दो भवति । यावदमुक्तमुपतिष्ठते । यावदोदनमुपति छते । भोजने भोजने श्रदने श्रोदने उदीक्षत इत्यर्थः । घेरिति किम् ? स्वामिनमुपतिष्ठति ।
युत्तपः ॥ ११२२ || घेरिति वर्तते । वि उदित्वेवम् पूर्वात्ततेो भवति । वितपते । ज्वलतीत्यर्थः । उत्तपत्ते । धेरित्येव । उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः । वितपति पृथ्वीमादित्यः । दहतीत्यर्थः । व्युद इति किम् ? निष्टपति । दीयत इत्यर्थः । "स्वाङ्गकर्मकाच्चेति वक्तव्यम्" [वा ] क्तिपते पाणिम् | उत्तपते पाणिम् । श्रात्मीयम स्वाङ्गं न पारिभाषिकं तेनेह न भवति । वितपति परपाणिम् । उत्तपति देवदत्तो यज्ञदत्तस्य पृष्ठम् ।
आङो यमहनः ॥ ११२|२३|| श्राङ्पूर्वाभ्यां वम हन इत्येताभ्यां विभ्यां दो भवति । श्रयच्च्यते । दीर्घो भवतीत्यर्थः । श्राह । श्राप्नाते । श्रानते । यमः कर्त्राप्ये फले " समुदाक यमोऽग्रन्थे” [ १/२/७०] इति दः सिद्धो ऽन्यत्रेदम् । धेरित्येव । यच्छति रज्जुम् । श्रान्ति पापम् | "स्वाङ्गकर्म का वेति वरुम्यम् [ वा० ] | आयच्छते पाणिम् । आते वचः । स्वाङ्गादिति किम् ? परकीया कर्मणि मा भूत् । शिरः परकीयम् ।
इन्द
१. हेऽर्थे अ०, ब०, स० । २ श्र० स० पुस्तकयोः "विष्टिः" इति पाठः । ब० मु० पुस्तकयोः "दिष्टिः" इति । परं "विष्टिः" इति पाठः प्रतिभाति । विवि कर्मकृत् "आजूवेतनयोषिष्टिः कर्मकृत्कर्मो रवि" इति शाश्वतवचनात् । पूर्ववाक्याच्चात्र "उत्तिष्टति" इत्यध्याहारः । " गृष्टिः" इत्यपि पाठः सम्भवति । गृष्टिय सकृत्प्रसूता गौ: । ३ दानिक-म० । ४- दामोद-प्र० । २. दीर्वोभव-व०, स० ।
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अ० १० २०२४-३१ ]
महावृत्तिसहितम्
समो गच्छस्वच्छ विद्यशः || १ | २|२४|| घेरिति वर्तते । सम्पूर्वेभ्यो गमः प्रच्छ---ऋषिश्रु-विद्-दृश्-इत्येतेभ्यो दो भवति । ते पृच्छत । संस्वरतै । इति ऋच्छतेरियर्तेश्च ग्रहणम् | समृच्छते । समियुते । समरिष्यते । ऋच्छतेरनादशल्य ग्रहणम् । श्रादशस्य महयेन सिद्धत्वात् । समृच्छिष्यते । संवते । विदरादादिकस्य ग्रहणं मबद्धत्साहचर्यात् । विसं । संपश्यते । धेरित्येव । सङ्गच्छति सुहृदम् । संवेति धर्मन् | "पोरस्यत्यू झांबीक वक्तव्यम्” [ चा० ] | निरस्यते । निरस्यति । समूहति । समूहते ।
ܪ
निसंन्युपाद ः || १२|२५|| पुनः संग्रहणाद्ध शिते निवृत्तम् । नि-सं-विन्वय इत्येवम्पूर्वात् इयतेदों भवति । नियते । संयते । चिह्नयते । उपवते । तेरान विकृतनिर्देशेऽपि प्रकृतिप्रहणम् "न व्यो हिि [४।३।२१] इति निर्देशात् ।
आङः स्पर्द्धं ||१|२|२६|| सः पराभिभवेच्छा | पूर्वात् यतेः स्पद्ध विषये दो मति । मझो मयते । छात्रछात्रमाह्वयते । स्पर्द्धयाह्नानं करोतीत्यर्थः । स्पंद्ध इति किन ? गामायति ।
धनक्षेप सेवा न्याय प्रतियत्नमकथोपयोगे अः ||१२|| गन्धनं सुचनम् । श्रवक्षेपो भर्त्सनम् । सेवा संश्रयः । अविधिना प्रवृत्तिरन्यायः । श्रविद्यमानार्जनं विद्यमानसंस्कारो का प्रतियत्नः । प्रबन्धेन कथनं प्रकथा | उपयोगो धर्मादिनिमित्तो व्ययः । गन्धनादिष्वर्थेषु वर्तमानात् कृञो दो भवति । गन्धनेउत्कुरुते श्रयमिमम् | सूचयतीत्यर्थः । अवक्षेपे स्वेनो वर्तिकामुपकुरुते । भर्त्सयतीत्यर्थः । सेवायाम् -गणकानु पकुरुते । सेवत इत्यर्थः । श्रन्याये - परदारानुपकुरुते । न्यायमनपेच्य तेषु प्रवर्तत इत्यर्थः । प्रतियन्त्रे - एवो दकस्योपस्कुरुते । “प्रतियत्ने कृञः [ १।४।६० ] इति कर्मरिण सा । उपात्प्रतियत्नवैकृत” [ ४।३।११२] इत्यादिना सुट् । प्रकथायाम्-जनापवादान् प्रकुरुते । उपयोगे -रात प्रकुरुते । धर्माद्यर्थे विनियुक्क्त इत्यर्थः । यति किम् ? कटं करोति । आविष्करोतीत्यत्र श्राविः शब्द एव गन्धने वर्तते न करोतिः । अपकारप्रयुक्त वा सूचनं गन्धनमित्यदोषः ।
प्रसदनेऽधेः ||११२|२६|| प्रसनमभिम | विपूर्वोत्कृञः प्रसहनेऽर्थे दो भवति । शत्रूनधिकुरुते । वादिनोऽधिकुरुते । श्रभिभवतीत्यर्थः । प्रसदन इति किम् ? अधिकरोति । ये फले समेत्र भवति ।
शब्दकर्मणो वेः ||१|२|२६|| कर्मेह कर्माप्यम् । त्रिपूर्वात् करोतेः शब्दकर्मकादो भवति । ध्व विकुरुते स्वरान् । कोष्टा विकुरुते खरान् । शब्दकर्मण इति किम ! विकरोति कटम् । शब्दग्रहणेन शब्दविशेषाः स्वरादयो गृह्यन्ते । तेनेह न भवति । वकरोति शब्दम् । विकरोत्यनुवाकम् । विकरोत्यध्याय मसाला ।
धे ॥ २३० ॥ विपूर्वात्करोतेर्धे भवति । विकुर्वते सैन्धवाः । साधुदान्ताः । श्रइनस्य पूर्णाश्छात्रा विकुर्वते । “सृप्यर्थे योगे उपसंख्यानम्" [बा०] इति करता ।
सम्मानोत्सञ्जनोपनयनज्ञानवृति गणनव्यये नियः || १२|१|३१|| सम्मान: पूजनम् । उत्सञ् नमुल्वेपः । उपनयनमाचार्यकरणम् । शानमवगमः । वतिर्वेतनादानम् । श्रवणशुल्कादिनिर्यातनं गणनम् । व्ययो धर्मादिष्यर्थवनियोगः । सम्मानादिषु यथासम्भवं विशेषणेषु नयतेचौदों भर्थात । सम्माने - नयते चार्वी स्याद्वादे | चावीं बुद्धिस्तचागदाचार्या तथोक्तः । विनेयेषु प्रतिपादनेन सम्मानं करोतीत्यर्यः । उत्सञ्जनेबालमुदानयते । उत्क्षिपतीत्यर्थः । उपनयने - माणवकमुपनयते । श्रात्मनः शिष्यभावेन माणवकं प्रापयतीत्यर्थः । शाने - नय ते चार्वी तत्त्वार्थे । तच्चपदार्थान् निश्चिनोतीत्यर्थः । मृत कर्मकरानुपनयते | बेतनादानेन पुष्णातीत्यर्थः । गणने-मद्रकाः करं विनयन् । निर्वातयन्तोत्यर्थः । व्य- रातं विनयते । सहस्र चिनयते । एतैविति किम् ? जां नयति ग्रामम् ।
१. अत्र गन्धनस्य वर्तमानत्वेन दो वक्तव्य इत्याशङ्कायामुत्तरद्वयम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० १ पा० २ सू० १२-०१
कर्तृस्थे कर्मण्यमूर्ती ||१|२|३२|| नयतैः कर्ता लकारवाच्यः । रूपाद्यात्मिका मूर्तिः । कर्तृस्थे कर्मणि मूर्तिवर्जिते सति नयतेर्दो भवति । को विनयते । हर्ष विनयते । श्रमं विनवते । शमयतीत्यर्थः । कर्तृस्थ त्वात्कर्मणः कर्त्राऽभ्यफलता कर्मता । तेन कर्त्रान्ये क्रियाफले सिद्धेऽपि ने नियमार्थमेतत् । कर्तृस्य इति किम् १ देवदत्तो जिनदत्तस्य क्रोधं विनयति । कर्मणीति किम् ? बुद्धया विनयति । श्रमूर्तीति किम् ? गड विनयति ।
किरते जीविकाकुला यकरणे || १ | २|३३|| किरतेदों भवति हर्षजीविकाकुलायकरण इत्यतेषु गम्यमानेषु । पस्किरते वृषभो हृष्टः । जीविकामाम् अपस्किरते कुक्कुटो भक्षार्थी । कुलायो निवासः - कुलायकरणे – अपस्किरते श्वा श्राश्रयार्थी । "चतुष्पा छुकुमिवादर्षाद” [ ४३ ११२] इति सुद् ।
वृतिसर्गतायने क्रमः ॥ ११२/३४ ॥ वृत्तिरविघातः । सर्ग उत्साहः । तायनं पृथूभावः । वृत्त्यादिष्ववर्तमानात् क्रमे भवति । वृत्तौ नयेष्वस्य क्रमते बुद्धिः । न प्रतिबध्यत इत्यर्थः । सर्गे -क्रमते जैनेन्द्राध्ययनाय । उत्सहत इत्यर्थः । तायने - नास्मिन्भू दे शास्त्राणि क्रमन्ते । न तायन्त इत्यर्थः । एतेष्विति किम् १ क्रामति । "क्रमो से” [१२७४] इति दीत्वम् । I
परोस् || १२|३५|| दिन पर उप- इत्येवम्पूर्वात् क्रमेद भवन । पराक्रमते । उपक्रमते । सिद्ध सत्यारम्भो नियमाय परोपाभ्यामेव नान्यस्माद्रेः । अनुक्रामति । वृत्यादिष्वित्येव । पराक्रामति । उपक्रामति ।
ज्योतिरावाः ||११/३६ ॥ श्राङपूर्वात् कमेज्योतिषामुद्रमने दो भवति । श्राक्रमते सूर्यः । आक्रमले चन्द्रमाः । श्राक्रमन्ते ज्योतींषि । ज्योतिरुद्वताविति किम ? श्राक्रामति धूमो इस्तलम् । श्राक्रामति माणवकः कुतपमित्यत्रोद्द्वतिरपि नास्ति ।
वेः खार्थे ॥ १|२|३७|| स्वार्थः पादविक्षेपः । विपूर्वात् क्रमः स्वार्थी दो भवति । ( श्रश्वः ) सुष्ठु विक्रमते । साधु विक्रमते । विक्रमणमश्वादीनां शिक्षाविशेषाद् गतिविशेषः । स्वार्थ इति किम् ? विक्रामत्यजिनसन्धिः । स्फुटतीत्यर्थः ।
प्रादारम्भे ||११२|३८|| आरम्भः प्रथमं कर्म । प्रपूर्वात् क्रम श्रारम्भे दो भवति । प्रक्रमते भोक्नुम् । परोपादित्यत उपादित वर्तते । उपक्रमते भोक्कुम । श्रारभते मोक्तुमित्यर्थः । श्ररम्भ इति किम् ? पूर्वेय प्रक्रामति । श्रपरेद्युरुपक्रामति । पूर्वस्मिन्नहनि यदनेन गतं तदपरस्मिन्नागच्छतीत्यर्थः ।
घाडगेः ||११२३६ ॥ श्रगेः क्रमो वा दो भवति । क्रभते । क्रामति । इयमप्राप्ते विभाषा । वृत्यादिषु पूर्वेण नित्यो विधिः । श्ररोरिति किम् ? संक्रामति ।
झोप || १२|४० ॥ श्रपवोऽपलापः | अपवेऽर्थे जानातेर्दो भवति । शतमपजानीते | सहक्षमपजानीते । श्रपह्नव इति किम् ? ' किंचिदपि जानासि ।
धेः ॥ १२॥४१॥ जानातेर्भेदों भवति । सर्पिषो जानते । दध्नो जानीते । सर्पिषः दध्ना चोपायनेन सम्पश्यतइत्यर्थः । "शोऽस्वार्थे करणे” [१।४।१८ ] इति करणे ता । श्रप्ये फले इदं दविधानम् । बेरिति फिम १ स्वरेण पुत्रं आनाति |
I
संप्रवेरस्मृती ||१२|४२ ॥ स्मृतिराध्यानं चिन्तनं वा । सम्प्रतिपूर्वजानातैरस्मृत्यर्थे दो भवति । शतं सम्मानीते। शतं प्रतिजानीते । श्रस्मृताविति किम् ? मातुः सञ्जानाति । पितुः सञ्जानाति । "स्त्रददयेश
" [११] इति वा ।
दीप्त्युपक्तिज्ञानेहवि मत्युपमन्त्रणे वदः || १ |२|४३|| दीप्तिः प्रकाशनम् । उपेत्योतिषपोक्तिः । उपसान्त्वनमित्यर्थः । शानं पदार्थावगमः । ईहो यतः । नानामतिर्विमतिः । उपमन्त्रणं रहस्यनुकूलनम् । दीप्या
१. न त्वं किजिद
- अ०, स० १
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01 पा० २ ० ०४-५३ ] महावृतिसहितम् दिष्यर्थेषु वदतेदों भवति । दीप्तौ-वदते चार्वी तत्त्वार्थे । 'दीप्यमानो 'बदतीत्यर्थः । उपोक्ती-कर्मकगनुपपदते । उपेत्य सम्भाषेत प्रत्यर्थः । ज्ञाने-वदते चार्वी चन्द्रोदये। जानाति बदितुमित्यर्थः । ईहे-कोऽस्मिन् क्षेत्रे वदते । को यतत इत्यर्थः । विमतौ-हे विवदन्ते । गोष्ठे विवदन्ते । विचित्रं भाषन्त इत्यर्थः । उपमत्रणे-कुलभार्यामुपवदते । परदारानुपत्रदते । अनुकूलप्रतीत्यर्थः । प्तेष्विति किम् १ वदति देवदत्तः ।
व्यवधायसमुतौ ॥४४॥ व्यक्तवाची व्यक्तवर्णत्वान्मनुष्यादयः प्रसिद्धाः । सम्भय वचनं समुक्तिः | व्यक्तवाचा समुक्तो गम्यमानायां वदतेदो भवति । सम्प्रवदन्ते मान्याः। सम्प्रवदन्ते साधवः । सम्भय भाषन्त इत्यर्थः । व्यक्तवागिति किम् ? अप्रवदन्ति कुक्क दाः । समुताविति किम् | देवदत्तो वदति जिनदत्तम् ।
छानार्धः १।२।४५॥ अनुपूर्वाद बदतेधैर्दो भवति | अनुक्दते जिनदत्तो देवदत्तस्य । अनुः साश्ये पुनरर्थे वा । धरिति किम् ? पूर्वभुक्लमनुवदति । व्यक्तवासभुक्तावित्येत्र । अनुबदन्ति वीणा।
वा विवादे ॥१॥२॥४६॥ धिवादो विप्रलापस्तत्र बर्तमानाद्वदा दो भवति । विप्रवदन्ते सांवत्सराः । विप्रवन्त सांवत्सराः। विप्रयदन्ते वादिनः । विप्रवदन्ति वादिनः । युगपविरुद्ध वदन्तीत्यर्थः । व्यक्त वाग्नहरणमनुवर्तते । ततो व्यक्तत्राक्समुक्ताविति नित्ये प्राप्त विकल्पः । विवाद इति किम् ? सम्प्रवदन्ते साधयः । व्यक्तवागित्येव । सम्प्रवदन्ति शकुनयः । समुक्तावित्येव । सम्प्रवदन्ति पादिनः क्रमेण ।
मोऽवात् ।।१।२।४७॥ अवादि रतेदों भवति । अगिरते । अधगिरते । अवगिरन्ते । गृणातैरवपूर्वस्य प्रयोगो नास्ति । अयादिति किम् ? गिर्रात । निगिरति ?
प्रतिशाने समः ॥१२ प्रतिज्ञानमभ्युपगमः प्रतिज्ञानेऽथे सम्पूर्वागिरतेदों भवति । अनेकान्तास्मक वस्तु सङ्गिरते । शते सङ्गिरते । प्रतिज्ञान इति किम् ? सङ्गिर्यत ।
उपरोधेिः ॥१॥राह|| उत्पूर्वाञ्चरतेरधेर्दो भयति । गुरुवचनमुच्चरते । उलम्य चरतीत्यर्थः । अधेरिति किम् १ धूम उच्चरति । उर्ध्व गच्छतीत्यर्थः ।
समो भया ॥१॥२।५०॥ सम्पूर्वाञ्चरतेभन्तेन योगे दो भवति । रथेन संचरते। अश्केन संचरते । भान्त प्रयुक्त दो भवति, न तु गम्यमाने । भायुक्तादिति किम् ? त्रीलोकान् संचरति जिनधर्मः । अत्र स्वात्मनेति करणं गम्यमानम् । प्राणश्च सा चेदवशिष्टव्यवहारे इति वक्तव्यम्" [वा०] सम्पूर्वाहाणो भायोगे दो भवति. सा चेदयर्थे भा | इदमेव ज्ञापकमशिष्टच्यपहारे भाऽपि भवतीति । दास्या संप्रयच्छते । वृषल्पा संप्रयच्छते कामुकः । सम इति संबन्धे ता । तेन प्रशब्देन व्यवधानं न भवति । अबर्थ इति किन् । पाणिना सम्प्रयच्छति । नेदं वक्तव्यम् । कर्मव्यतिहारे दः । सहार्थे च भा द्रष्टव्या ।
स्वीकृतावुपाद्यमः ॥१२॥५२॥ पाणिग्रहणमविरोधो वा स्वीकृतिः। उपपूर्वाद्यमः स्वीकृतापर्थे दो भवति । कत्यामुपयच्छते । भार्यामुपयच्छते । स्वीकृताविति किम् ? परभार्यामुपयच्छति ।
शुस्मृरशः सनः ॥१२॥५२॥ श्रु-स्मृ-दृश इत्येतेभ्यः सन्नन्तेभ्यो दो भवति । शुश्रूषते शास्त्रम् । सुस्मर्षते पूर्ववृत्तम् । दिदृक्षते देवम् । श्रुशिभ्यामकर्मकावस्थायां "समो गम्मच्छि." [१२।२५] इत्यादिना दो विहितस्तत्र "सनः पूर्वबस् " [ ५] इत्येव दः सिद्धः सफर्मकार्थमिदम् । स्मरतेरप्राप्त विधानम् ।
___ ॥२॥५३॥ जानातेः सन्नन्तात् दो भवति । जिज्ञासते धर्मम् | "ज्ञोऽपहवे" [२।४०] ":" [१।२।१] "संप्रतेरस्मृती" [३।२।४२] इति जानतेदों विहितः । तथा का फले "होऽगे:" [१२५७१] इत्यत्र पूर्ववत्सम इति सिद्धस्ततोऽन्यत्रं 'दं वचनम् ।
१. तयेति शेषः । २..प्यमाना बद-थ०, ब०, स० । ३. 'गोष्ठे विवदन्ते' पुस्तके नास्ति । ४. -ति सांवत्सरः । स्थल-प्र.। ५. पाप्यः ब० स०, मु. । ६. सझिरन्ते मु.। ७. -रते । कुटुम्मामुच्चरसे । उष्क्रम्य-म०, ब०, स० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. . ० स. २४-40 नानोः ॥१॥२॥५४|| अनुपूर्वाज्जानातः सन्नन्ताहो न भवति । पुत्रमनुजिज्ञासति । भृत्यमनुजिशासति । सकर्मकादिति वक्तव्यम् [at] इह मा भूत् । अनुजिजासते मनसा ! नो वक्तव्यम् । पूर्वेण प्रातस्यायं प्रतिषेधः । पूर्वेण च सकर्मकादेव सन्नन्तादो विहितः 1 धेस्तु "सन: पूर्ववत्" [१॥२॥५८] इति दः । अनोरिति किम् ? पुत्र जिज्ञासते।
प्रत्याचवः ॥१२॥५५॥ नेति वर्तते । प्रति श्राङ् इत्येवम्पूर्वात् शृणोतेः सन्नन्ताहो न भवति । प्रतिशुभूषति । प्राशु भूषति शास्त्रम् । “श्रुस्मशः सनः" [१।२।२२] इति प्रातस्यानेन प्रतिषेधः। सनिर्देशः समर्थार्थः | सामर्थ्यच्च धोर्गिना । तेनेह न प्रतिषेधः । देवदत्त प्रतिशुभूपते ।।
शदेत् ॥११२१५६|| नेति निवृत्तमसम्भवात् । गनिमित्तभूतः । शदिस्पचाराद्गः । शदेगविषयाद्दो भवति । शीयते । शीयेते । शीयन्ते । "पात्रा' [श२।३६] श्रादिना शीयादेशः । गादिति किम् ? शत्स्यति । अशत्स्यत् । शिशसति ।
मृको लुलिनेश्च ॥१॥२॥५७ म्रियते लिहोगपरान दो भवति | अमृत । मृपोष्ट । आशिषि लिङ् | 13:" [111८६] इति सिलिको क्रित्वम् । गपत् खल्बाप । म्रियते । नियस्य । "रिङ् यगलिकशे"
१२१३०] इति रिकादेशः । विन्मादेव मिद्ध नियमामिदमन्यत्र दो न भवति । मरिष्यति । अमरिष्यत् । ममार | सनः पूर्ववत् ॥
१ ८॥ पूर्वण तुल्यं वर्नत इति पूर्ववत् । पूर्व-वञ्च प्रत्यासत्तं ।। सनः पूवों यो धस्तद्वत्समन्तादो भवति । येभ्यो धुभ्यो येन विशेषणेन दो वितस्तेभ्यः सनधिकेभ्योऽपि दो भवतीत्यर्थः । यथा जिनदारोतो दः" [१२।६] हति । शेते । श्रास्ते । एवं सन्नन्तादपि शिशयिषले । आसिसिपते । गिविशेषऐन निविशः" [I] निविशते । नित्रिविक्षते । अर्थविशेषेण "गन्धना." [१।२।२५] श्रादिना उत्कुसते । श्रमिममुचिकीर्षते । उभयविशेषेण "ज्योतिरुद्गतावाला;" [११२।३६] श्राक्रमते । प्राचिसते । " स्नोर्थात्" [२११/१५५] "क्रमः" [५।१।११२] इतीप्रतिषेधः। कारकविशेषेश "ज्ञोऽपदवे" [ १ ०] "धे" [१।२१४१] । सर्पिनी जानीते | सपिषो जिज्ञासते। इह जुगुप्सते मीमांसत इति गुप्तकृतेरवयवस्यानुदात्तेतकरणं सन्नन्तसमुदायस्य विशेषणमिति दः सिद्धः। यद्येवं गोपायल्यादावपि स्यात् । कर्तव्योऽत्र 'यत्नः । पूर्ववदिति किम् ? शिशत्सति । मुमूर्षति । अत्र दनिमित्त नास्ति ।
आम्वत् तत्कृत्रः ॥२॥५६॥ आम्हणोन यस्मादाम् विहितस्तस्य ग्रहणम् । श्राम इव प्राम्वत् । तस्य कृञ् तत्कृत्र । यस्मादाम् तस्येव धोस्तस्कृजो दो वेदितव्यः । ईटाञ्चके | ईक्षाञ्चनं । लिटि परतः "सरोरिसाद" [२१११३२] इत्याम् | "आमः" [१॥४/३४६] इति परस्थोप् । लस्य कृत्वान्मृत्वे सति स्वादिविधिः । “सुपो झे:" [ १५०] इति तस्वोए । “लिड्वत् कृषि' [२१११३६] इत्यनुप्रयोगस्य करोतेरनेन दः । विधिनियमश्चात्रेभ्येते | पूर्चयदिति बर्तते । अकांध्ये फले पूर्ववद्दो भवतीति विधिः । कत्राप्ये फले
आम्धदेव दो नवति । तैन दाहस्यैवामन्तत्व प्रयोगे दो भवत्तीति नियमादिह न भवति । उदुम्भाञ्चकार । तद्ग्रहणं किम् ? आमन्तानुप्रयोगस्य ग्रहणं यथा स्यादिह मा भूत् । ईहते । करोतीति कृग्रहण किमर्थम् ! करोतेरेव यथा स्यादिइ मा भूत् । ईक्षामास । ईवा बभूव । इह कुग्रहणादन्यनिरासार्थाज्जायते "लिड्वतकृमि"[२ ] इत्यत्र प्रत्याहारग्रहणं "कृभ्वस्तियोगे: [४१२।१५] इत्यत आरम्य "कृमो विसीय' [१।२।६२] इत्ति प्रकारेण ।
युजोऽयक्षपाने गेः ॥१२।६०॥ अकाप्यफसार्थोऽयमारम्भः । युजेगिंपूर्वांदो भवत्ययशपात्रक्पिारे ।
१. "मासिसिपते" इति अ. पुस्तके नास्ति १२, विशेषकमिति भ०,व०स०। ३. "अनुदाशेय. रूपयो दोऽनिल्यः' इति परिभाषारूपो यत्नः ।
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०पा० २ सू० ३१-७० ]
महावृत्तिसहितम्
३१
प्रयुक्त के । त्रियुङ्क्ते' । नियुङ्क्ते । पात्र इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । गति किम् १ युनक्ति । "समाधी" इत्यस्यानुदान्तं वादग्रहणम् ।
उद्ः ॥ १|२|६१॥ उत्पूर्वाद्य जेरयज्ञपात्रे दो भवति । उच्च छ । नियमोऽयं इलन्तेषूद एव नान्य स्मात् । निर्युनक्ति । दुर्युनक्ति : संयुनक्ति ।
संक्ष्णोः ||१|२|६२ || सम्पूर्वात् दवो दो भवति । संदते । संवाते । संदणुत्रते शखन् ।
भुजोऽसौ ||११२२६३|| राजे कार्यमात्य ग्रहणम् । भुजेस्यर्थं वर्तमानादो भवति । भुङ्क्ते । भुञ्जते । भुञ्जते । अर्थासम्भवान्तादादिकस्य भुजेरग्रहणम् । निभुजांत पाणिम् । श्रदाविति किम् ? भुनक्ति वसुधां भरतः । पालयतीत्यर्थः ।
भस्मेर्हेतुभये ॥ १२६४ ॥ एयन्ताभ्यां भी मि इत्येताभ्यां तुम दो भवति । "तद्योजको हेतु:" [११२।१२६] इति हेतुः । तस्य भयशब्देन भावसाधनेन " का भीभिः ' [91३/३२] इति सः । भगमहन विस्मयोऽपीह लक्ष्यते । मुराडो भीषयते । "ईतः पुङ नित्यम्” [ ४.३ | ४१] इति भू | मुण्डो विस्मापयते । जटिलो विस्मापयते । "स्मिङ: " [४/३/२०] इत्यात्वम् । हेनुभव इति किम् ? कुविकयैनं भाययति । वाचा विस्माययति । कयफलार्थोऽयमारम्भः ।
वञ्चने गृधिवश्चैः ||१|२| ६५ || ऐरिति वर्तते । वचनं विसंवादनम् । राधिवखि इत्येताभ्यां एयन्तावञ्चनेऽर्थे दो भवति । माणवकं गर्द्धयते । माणवकं वञ्चयते । विसंवादयतीत्यर्थः । वञ्चन इति किम् ? श्रानं गर्द्धयति । काङ्क्षामस्योत्पादयतीत्यर्थः । श्रहिं वञ्चयति । गमयतीत्यर्थः ।
लियोऽधासम्मानने च ॥ ११२२६६ ॥ गोरिति वर्तते । न चाष्टयं मधाट्य शालीनीकरणम् । सम्माननं पूजनम् । लिना तेलीयतेश्व रयन्तादधाट्य सम्माननयोश्च च वर्तमानादो भवति । अधष्ट्य -- श्येनो वर्तिकामपलापयते । अभिभवतीत्यर्थः । सम्मानने– जयभिरालापयते । ती भा । अत्मानं पूजयती त्यर्थः । वञ्चने च | कत्वामुल्लापयते । प्रलम्भवतीत्यर्थः । "विभाषा लियो" [ ४।३।४४ ] इति व्यवस्थिभाषाश्रयणादेषु त्रिषु नित्यमास्वम् । श्रधाष्टर्थ्यादिष्विति किम् ? बालकमुल्लापयति ।
मो मिथ्यायोगेऽभ्यासे ॥ ११२२६७॥ रोरिति वर्तते । अभ्यासो गुणनिका । करोतेर्यन्तान्मि या शब्दयोगेऽभ्यासेऽर्थे दो भवति । मिथ्या कारयते । स्तुतिं मिथ्या कारयते । सदीपं पुनः पुनरुच्चारथ तीत्यर्थः । कुत्र इति किम् ? पदं मिथ्या वाचयति मिथ्यायोग इति किन् । स्तीचं सुष्ठु कारयति । अभ्यास इति किम् ? सकृत्पदं मिथ्या कारयति । एकवारनुच्या रयतीत्यर्थः ।
अस्वरितः ये फले || १ | २|६ = || रोरिति निवृत्तम् । उत्तरत्र शिव इति निर्देशात् । ञितः स्वरिततश्च ये धवस्तेभ्यो दो भवति कर्तारमा मोति चेत् क्रियाया फलम्। फलं सर्वे क्रियाती भवतीति सामर्थ्यात् किंवा लभ्यते । फलग्रहगां मुख्यफल परिग्रहार्थम् । त्रितः पुनीते । लुनीते । कुरुते । स्वरितेतः पचते । यजते । वपते । मुख्यं क्रियाफलमंत्र कर्तारमाझोति । कर्त्राये फल इति किम् ? पचन्ति भक्तकराः । वपन्ति मृतकाः । नात्र मुख्यं फलं किन्तु भृतिरानुषङ्गिकं वा फलम् । अत्वरितेत इति किभू ? याति । वाति ।
दोऽपास् || १२२६६|| पपूर्वादते भवति कर्त्रान्ये फले । एकान्तवादमपवदते । काप्ये फले इस्येन । अपवदति । इतः प्रभृति कर्त्रान्ये फरले दो वेदितव्यः ।
समुदायमोऽग्रन्थे ॥ ११२२७० ॥ सम उत् आङ् इत्येवम्यरमन्यविषये दो भवति । श्रीहीन् संयच्छते । श्रात्मनश्चद् त्रीयो भवन्ति । भारमुद्यच्छते । पापमायच्छते । अन्ध इति किम् ? उद्यच्छति
१. विद्युत इति अ० पुस्तके मास्ति |
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३२
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[य. १ पा० २ ० १-२ चिकित्सां वैद्यः । निकित्सांत वैद्यकान्यः । काप्य इलेव । मयच्छति उद्यमति प्रायच्छति परस्य वस्त्रम् । "आलो यमहन:' [ ११२।२३ ] इत्यनेन प्रेर्दविधानमुक्तम् ।
सोऽगेः ॥२७॥ जानातेरगिपूर्वाद्दो भवति काप्ये फले । गां जानीते । अगेरिति किम् ? स्वर्गलोकं प्रजानाति । कम्वेि फले इत्येव । परस्य गां जानाति ।
णिचः ॥११११७२|| जिन्ताहा भवति का ये फले । कटं कारयते । श्रोदनं पाचयते । लक्षः स्वरितेल्करणाज्जायते हेतुमण्णिचो ग्रहणमिदम् । कर्वाप्ये फल इत्येव । परस्य कटं कारयति । . पादम्याचमाझ्यसपरिमुहरुचिनृशेवयसः ||१२|७३॥ विच इति वर्तते । पा दमि श्राङ्यम श्राब्यस परिमुह रूचि-नृत्-धेट् बद् बस इत्येतेभ्यो ण्यन्तेभ्यः काप्ये फले दो भवति । पाययते । दमयते । अायामयते । “यमोऽपरिवेषणे" इति मित्रज्ञाप्रतिषेधात् प्रोन भवति । आयासयते । परिमोहयते । रोचयते । नर्तयते । धापयते। बादयते। वासयते | पाधेटोरयर्थ वान्नतियोश्चल्यर्थत्वात् "चल्यथर्षात्" [१२] इति में प्राप्तम् । अन्येपाम् “अणी धेः प्राणिकर्तृकात्" [ १२।८५] इति । तत प्रारम्भः ।
वा चारगम्ये ॥१॥रा७४॥ बागिति नेदं पारिभाषिकस्य "ईपाऽत्र वाक' [11] इत्यस्य ग्रहणं किं तर्हि वाक्छन्दः । पदान्तमित्यर्थः । बागगम्बे काप्ये फले वा दो भवति । स्वं धान्यं पुनीते । स्वं धान्यं पुनाति । पड्भियोगैर्नित्यं दे प्राप्ते विकल्पोऽवम् ।
मम् ॥११२।७५॥ निर्ममार्थम् । यस्मान्मं दश्च प्राप्नोति तस्मान्ममेव भवति । पूर्वेण प्रकरणेन प्रकृतिनियमः कृतो दस्त्वनियत इत्युभयप्रातिरस्ति । याति । वाति । प्रविशति । आक्रामति धूमः । ॐ द एव भवतीति अर्थनियमो व्याख्यातः । ततः कतरिमं द्रष्टव्यम् | यदि वा "करि [ 10 ] इत्यतः कतरि तेनेह न भवति । गम्यते । रम्यते ।
परानुरुत्रः ॥राराक्षापरा अनु इत्येवंपूर्वान् कृत्रो मं भवति । गन्धनादिषु दः प्राप्तस्तदपवादोध्यम् | पराकरोति । अनुकरोति । कम्प्ये फले ममेव भवति । कस्मान्न नियमः । तत्रापूर्वो विधिरस्तु नियमो वास्त्वित्य पूर्व एव विधिर्भवति ।
प्रत्यभ्यतितिपः ॥२२७७|| प्रति अभि अति इत्येवम्पूर्वात् क्षिपो मं भवति । प्रतिक्षिपति । अभिक्षिपति । अतिक्षिपति । स्वरितेत्वादः प्राप्तः । एतेभ्य इति किम् ? आक्षिपते ।
प्रवाहः ॥२|| अपूर्वाद्वइतेः का ये फले मं भवति । प्रवति । मृषः परः ॥
१७॥ परिपूर्वान्मूषतेम भवति । परिमृष्यति । परिमृध्यतः । परिमृष्यन्ति । वहिमपि फेचिदनुवर्तयन्ति । परिवहति । परेरिति किम् । मृष्यते परीषहान् साधुः ।
न्याऊश्च रमः ||शरा०॥ विश्राङ, इत्येवम्पूर्वान् परिपूर्वाच्च रमेमै भवति । विरमति । श्रारमति । परिरमति । अनुदात्तेखादः प्राप्तः । एतेभ्य इति किम् । रमते । अभिरमते ।
उपात् ।।१।२।८।। उपपूर्वाश्च रमेम भवति । मार्यामुपरमति । पृथग्योग उत्तरार्थः।।
वा धेः॥१२१८२॥ उपपूर्वाद्रमेधैर्वा में भवति । यावद्भक्तमुपरमति । उपरमते । निवर्तत इत्यर्थः । विरिरसतीत्यत्र पूर्वस्य दनिमित्ताभावात् "सनः पूर्ववत्" [ ११२११८] इति दो न भवति ।
बुध्युनश्जनेप्रन्न स्रोणेः॥१२८३॥ कावे फले णिच इति दे प्रासेऽयमारम्भः । बुध युध नश जन इङ्पद्रु प्रत्येतेभ्यो एयन्तेभ्यो मं भवति । येऽत्राकर्मकारतेषाम् "प्रणौ धेः प्राणिककात्'' [111८५]
जानीते । अव जानीते। अगे-अ, ब, H० | २. "लन दर्शनाङ्कनयोः' इति भोः स्वस्तेित्करमादित्यर्थः । ३. नियमोऽयम् अ०, स० । १, प्रथइति । प्रवहतः । प्रवहन्ति ।" म०,०, स.। ५. "परिषहास्" म०, “पापभक्तमुपरमति" ब |
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म.पा. १०8-01 महावृत्तिसहितम् प्रति सिद्धे प्रमाणिकर्तृफार्थ ग्रहणम् । प्रवत्यादीनामचल्यद्यर्थम् । बोधयति पद्मम् । योधयति कामानि । नाशयति पापम् । जनयति पुण्यम् । अध्यापमति शास्त्रम् । प्रावयति ग्राम । प्राप्यतीत्यर्थः । द्रावयति छोहम् । वितापयतीत्यर्थः । स्रावयति तैलम् । स्पन्दयतीत्यर्थः ।।
चल्यद्यर्थात् ॥२॥२८॥ गरिति वर्तते | चलेरर्थः कम्पनम् । अदेरर्थोऽभ्यबहारः | चल्ययम्योऽद्यथेभ्यश्च धुभ्यो ण्यन्तेभ्यो मं भवति । चल्यर्थेभ्यः-चलयति | चोपयति । कम्यवति । "कम्पने चलेः" (!) इवि मित्सज्ञायां प्रादेशः । अद्यर्थेभ्यः-निगारयति । भोजयति | श्राशयति । सर्वत्राद्यर्थकार्यमदेनेष्यते । श्रादचन्ते देवदत्तेन । इह पय उपयोजयते देवदत्तेनेति भक्षणार्थाभावान्मं न भवति | सकर्मकार्यममाणिकर्ट कार्यश्च सूत्रम्।
श्रणौ धेः प्राणिकर्तृकात् ॥ARIEN अण्यन्तावस्थायां यो धुधिः प्राणिकर्तृकतमाएएयन्तान्म भवति | आस्ते देवदत्तः । अासवति देवदत्तम् । शेते देवदत्तः । शाययति देवदत्तम् । अयाविति किम् ? चेत. यमान प्रयोजयति । चेतयते । मनु च "गिच:' [१२।१२] इत्यत्र हेतुमरिणची ग्रहणं व्याख्यातम् । अणाविति तस्यायं प्रतिषेधः । तेनात्र में भवत्येव चेतयतीति । इदं तर्हि प्रत्युदाहरणम् । आरोइयमाणं प्रयोजयति आरोहयते | अथवाऽणाविति धेर्विशेषणम् | अणौ यो घिस्तस्य प्रणं यथा स्यात् । अन्यथा विग्रहणे एयन्तविशेषणे इहैव में स्याञ्चेतयमानं प्रयोजयति चेतयति । श्रासयति इत्यादौ न स्यात् । धेरिति किम् ? फटं कुर्वाणं प्रयोजयति कारयते । प्राणिकर्तृकादिति किम् ? शुष्यन्ति व्रीह्यः । शोषयतै श्रीहीनातयः । "प्राप्योपपिवृक्षेभ्योऽवयचे छ' [३।३।१०३] इति पृथा निर्देशादिह शब्दशास्त्रे वनस्पतिकायाः पाणिग्रहणेन न ग्रान्ते ।
क्यषो या ॥१२॥८६॥ क्यषन्तावा मं भवति । वावचनसामात् पझे दोऽपि भवति । अपटरपरवि पटपटायति । पटपटायते । "मव्यतानुकरणादनेकाचोऽनिलो डाच्' [१६] इति डाच । "हाधि इति द्वित्वम् । "म्रौ डाचि नित्यम्" [३] इति तकारस्य पररूपत्वम् 1 टिखम् । "बाळोहितमक्य [A ] इति काम् । एवमलोहितो लोहितो भवति लोहितायते ।
घु यो लुधि ।।१।२७|कृपूपर्यन्ता यतादयः । वेति वर्तते । धुतादिभ्यो वा में भवति छि परतः । व्यय वत् । व्ययोविष्ट । अलुटत् । अलोटिष्ट । मविधिपक्षे "धु घुषादिलित्सरिशास्त्पतम' [स ] इत्यङ्। यद्यपि मेऽविधानसामान्मविधिलब्धस्तथाप्यनुदासत्करण लुकोऽन्यत्र सायफाशमिति नित्यं म स्यादिति विकल्पाथै वचनम् । तुलीति किम् ? योतते । द्यु ता सहचरिता इतरेऽपि तयोच्यन्त इति बहुवचननिर्देशः।
स्यसनोवृद्भ्यः ॥१।।८८॥ द्यु तादिष्वन्तर्भूता वृतादयः । वृतादिभ्यो वा में भवति स्पे उनि च सति । वति । अवगत् । विवसति | वर्तिष्यते । अवति यत । विवर्तिषते । एवं मृध सुध स्यन्दू इत्येते योज्याः । मविधी “न वृतादेः" [५।१।१०५] इतीप्रतिषेधः ।
लुटि च क्ल,पः॥राल पेटि स्यसनोश्च वा में भवति । कलप्ता 1 कन्तारौ । कल्सारः । कल्प्स्यति । अकलस्यत्' । चिल सति'। कल्पितारः। कल्पिष्यते । अकल्पिष्यत । चिकल्पिषते । ल.पे ता. दिल्यादेव हासनोर्विकल्पे सिद्धे चकारेणानुकरणमसन्देहाथम् । रूप इति लत्वं किमर्थम् ! अकारस्थस्य रेफभागस्य रेफमहणेन ग्रहवं यथा स्यात् । कृप्तः । क्लप्तवान् । मातृणाम् । पितृणाम् । लत्व णत्वञ्च सिद्धम् ।
स्पः परम् ॥१।२।६०॥ स्पर्द्ध परं कार्य भवति । द्वयोः प्रसङ्गयोरन्यायो रेकस्मिन् युगपदुपनिपाते सङ्घर्षः स्पद्धः। “यन्यतो दी: [शरा३६] "सुपि" [शरा३५] इति दीत्वस्याक्काशः । देवाभ्याम् । वृक्षाभ्याम् । “बहौ भवेत् [18] इत्यस्यावकाशः । देवेषु । वृक्षेषु । इडोभयं प्राप्नोति देवेभ्य इति । सूत्र विन्यासे परमेत्वं भवति । अप्रवृत्तौ फ्याये वा प्राप्ते वचनम् । "कार्यकाल सम्झापरिभाषम्" [परि०]इति । यान्ति
१. पापम् । जनयति पापम् । जन-ब०, स०। २'भादयते' म.,ब०, स०३, चिप्सति । कषिपता । करिपतारौ । करिपतार:-80, ब.
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जैनेन्द्र व्याकरणम्
[.
पा.३ खू०१५-१६
कार्याणि तावद्या सूत्रस्य भेद इति विधिनियमश्चेदं सूत्रम् । यत्र परस्सिन्कायें कृते "पुनः प्रसंगविज्ञानात्" पूर्व तत्र विधिः । यत्र परमेव कार्ये दृश्यते "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एवं" [परि०] इति तत्र नियमः । तद्यथा द्वित्वस्यावकाशः । भिद्यते । जेरबकाशः । विचति । वेदिव्यते इति परत्याजो कृते पुनः प्रसाद द्वित्वम् । "जरशसो शि: [१७] इत्यस्यावकाशः । कुण्डानि । “सुटोरम् [श/२४] इत्यस्यायकाशः । यूयं राजानः। इष्ट यूयं गुरुकुलानि इति पर एवाम्भावः । अतुल्यबलयोः स्पद्धों न भवति । उत्सर्गादपवादः परनित्यविचारणे भवेन्नित्यम् । नित्यात्तथान्तरङ्गम् । तस्मादप्यनवकाशं यत् । एकार्थयोरपि नास्ति विरोधः । घोत्रिहितास्तव्यादयः पर्यायेण भवन्ति ।
नब्बाध्य आसम् ॥१॥२६॥ नपा निर्दिो बाध्यो भवति श्रा साधिकाररिसमाप्त रित्योषोऽधिकारो वेदितव्यः । लोके संज्ञासमावेशो दृष्टः इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति । शास्त्रेऽपि त्यः कृद् व्य इति । "शेषोऽग एवं" [२||१५] इत्यवधारणाज्ञापयति इहाप्पि संज्ञासमावेशः स्यादिति यत्नः क्रियते । यत्र नपः समावेश इष्यते तत्र नशब्दोपादानमस्ति । यथा "यश्च काश्रये" [१३]४५] इति । वक्ष्यति "प्रो घिच" [स] विदि' । भिदि । "के रू" [१२।१०.] | शिक्षि। मिति । नपा निर्दिष्टा धिसंज्ञा रुसंज्ञया बाध्यते . समीवेशे हि अततक्षेदित्यत्र “धौ कच्यनक्से सन्वत्" [१२११६०] इति कपरे धौ परतः सन्वदावः प्रसव्येत । अविवजदित्यत्र घेदर्दीत्वं स्यात् । नपिति किम् ? बाभ्रव्यः । पुल्लिङ्गा गुसंज्ञा पुल्लिङ्गया भसंज्ञया न माध्यते ।
खौ स्त्र्याख्यौ मुः ॥१राशा स्त्रियमाचक्षाते इति त्राख्यो । '' [राध] इति नियमादप्राप्तः "सुषि" [२१२१७] इति योगविभागात्कः । यावीकारोकारो स्याख्यो तदन्तं शब्दरूपं मुखं भवति । "सुम्मिमन्तं पवम्। [१।२।१०३] इत्यवान्तप्रणमन्यत्र संज्ञाविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधार्थमिह नाश्रीयते "मामीयुयो:" [१२।१५] इति नियमारम्भात् । वाविति यणादेशादूकारो द्विमात्रस्तत्साहचर्यादीकारोऽपि द्विमात्रः । ईकार:कुमारी। गौरी । लक्ष्मीः। ऊकारः ब्रह्मबन्धूः । वामोरूः । यवागूः । "मण मोः" [५।२।१०७] इत्यादि मुसंज्ञाकार्यम् । य्वाविति किम् ? मात्रे । दुहिने । व्याख्याषिति किम् ? हे प्रामणीः । हे खलपूः । नेमौ त्रियमेवाचक्षाते । श्राख्याग्रहणं किम् ? शब्दार्थे स्त्रीचे यथा स्यात् पदान्तरगम्ये मा भूत् । ग्रामण्ये स्त्रियै। स्खलवे स्त्रियै। उभयलिनानामिध्वसनिप्रभृतीनां शब्दार्थ एवं स्त्रीत्वम् । इचे असन्यै स्त्रियै । तथा गुणशब्दानां पर स्त्रिदै । इदवाख्याग्रहणस्य प्रयोजनम् । कुमारीभिवात्मानमाचरति (कुमारोवाचरति ) "माचार सर्वमृद्भ्यः क्विप्" इति किम् । कुमार्य देवदत्ताय । लक्ष्मीमतिकान्ताय अतिलक्ष्म्यै । प्रागेव मुसंशा वृत्ता तदन्तान्भुकार्य भवति । इह अतिकुमारये देवदत्ताव | प्रादेशे कृते "अनल्विधौ' [111५६] इति प्रतिषेधान्मुकायें न भवति ।।
स्त्री ॥१२२०६३।। स्त्रीशब्दश्च मुर्सशो भवति । 'प्रामीयुधो;" [१॥२॥१४] "वा" [१॥२0१५] हिप्ति प्रश्च १२।१६] इति नियमविकल्पयोः सामान्येन पुरस्तादयमपवादः । हे स्त्रि । स्त्रीणाम् । स्त्रिये । प्रादेशमुंडाडागमाः सिद्धाः।
आमीयुवोः ॥ १॥२॥४४॥ श्रामि परत इयुषोः स्थानिनौ वो स्त्र्याख्यो मुसज्ञो भवतः । सिद्धे सत्यारम्भो नियमाः, प्राम्येव मुसंज्ञा नान्यत्र । हे श्रीः । हे । इयुवोरिति किम् ? प्रध्यै । वर्षावै ।
षा ||१|३५|| बा' मुसंज्ञा भवतीत्यामीयुवोः । श्रीणाम् । श्रियाम् | भूणाम् । ध्रुवाम् ।
किति प्रश्च ॥१२॥६६॥ वोयः प्रः व्याख्य इयुबोश्च स्थानिनो यौ यो तेषां डिति वा मुसंशा भवति । कृत्यै । कृतये । धेन्वै । धेनधे । पक्षे "स्वसखि" [२५] इति सुसंशा । "सोक्ति'
1. 'छिदि ०, प, स०। २.-तदात् । अररक्षावित्य-१०, स.1 ३. कापरधौ प-मः। १, भामोः' स०। ५. डागमाहागमाः सिद्धाः-१०, ब०, स० । . 'या च भु-40, स. ।
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म० पा० २ सू० १७-१८२] महावृत्तिसहितम्
१०] एप् | इयुवौ । श्रियै । श्रिये । भ्रुवे । 'दुवे । स्याख्याविल्येव । अग्नये । अतिकृतये । अतिश्रिये । अति वे दवदत्ताय । टवौ स्याः प्र हाते किम् ? मात्रे | दुहित्रे ।
स्वसखि ॥२।७।। प्रो योरिति वर्तते । वोः प्रस्तुसंज्ञो भवति सखिशब्दं वर्जयित्वा । असखीति प्रतिषेधात् सिद्धो प्रेति निर्देशाच्चास्त्र्याख्यत्व स्याख्यस्य च प्रस्पेह ग्रहणम् । अग्नवे | बायो । ख्याख्यश्च यो मुसंज्ञो न भवति तस्य ग्रहणम् | कृतये । धेनवे । मुसंज्ञाविषये "नब्बाध्य नासम्" [ ११] इति सुसंज्ञा बाध्यते । कृत्याम् | धेन्वाम् । असखीति किम् ? सख्युः । सख्यो । असखीति पर्युदासोऽयम् । तेन शोभनः सखा सुसखा । अतिसखा । अतिसखेरागच्छति । अतिसखेः स्वम् । सखिशब्दादन्यत्वमस्तीति सुसंज्ञा | मृद्ग्रहणेन तदन्तविधिरिति बा | स्वोः प्र इत्येव । पित्रे । मात्रे। सुप्रदेशाः "सोडिंति" [५४२११०६ इत्येवमादयः।
पतिः से ॥२८॥ पतिशब्दः स एव सुसंज्ञो भवति । प्रजापतिना | प्रजापतये । पतिरेव स इति कस्मान्न नियमः । एवं हि 'द्वन्द सुः" [१॥३६] इति पूर्वनिपातवचनमनर्थकं स्यात् द्वन्द्वे पतिरिति यात् । नान्यस्य से सुसंज्ञासम्भवः । अपि चानेकमाप्तावेकस्य निवम इति वचनमवर्थकं स्यात् । पटुमूदुगुप्सपटव इति । स इति किम् ? पत्या । पत्ये ।
प्रो घि च ॥१२॥६६॥ इति मात्रिकस्य संज्ञा । प्रो घिसज्ञो भवति । मेत्ता | बोशा । धीति नपा निर्देशः किमर्थः ? पुल्लिङ्गया सज्ञया बाधा यथा स्वात् । प्रयोजनमने वक्ष्यते । चशब्दः सझान्तरसमावेशार्थः । घिच भवति बच्चान्यत्प्राप्नोति तच्च भवति । इह प्रबिनय्य गत इति सुसंज्ञासमावेशः । विश्च ना च विनरौ तावाचष्टे णिच् । “णाविष्ठवन्मृदः'' [ १४] इति इष्ठवद्भावः । रिखम् । प्रशन्देन योगः | तवः 'यादेशे णिग्ने प्रात घिसंज्ञायां सत्यां प्ये घिपूर्वात्"[ १६] इति स्यादेशः सिद्धः । सुसंज्ञायाञ्च पूर्वनिपातः । अन्यथेकारोकाराभ्यामन्यत्र सावकाशा घिसंशा इकारोकारवषक्त्वादनवकाशया सुसंज्ञया बाध्येत ।
स्फेरः ॥१०॥ इति वर्तते । स्रुसज्ञे परतः प्रो संसजो भवति । कुएडा। हुण्डा । स्पर्धा । तुमत्रिधावुपदेशाश्रयणात्यागेव नुम् । “सरोह लः" [२।३।८५] इति अस्त्यः । “मजायतष्ठाप्" [३४ ]
दीः ॥११२।१०१।। दीरिति द्विमात्रस्य सज्ञा | दीश्च सज्ञो भवति । ईहाञ्चके । लिटि परतः "सरोरिजादे:" [२११३२] इत्याम् । शेषम् "आम्वत्तस्कृतः" [१२१५६] इत्यत्रोक्तम् । मरिति पुल्लिङ्गनिर्देशः किमर्थः १ ईकारोकारविषक्या मुसज्ञया बाधा मा भूत् । द्वयोः समावेशे हे परमवासीक इत्यत्र "सन्मो;" [४।२।११५] इति मुसज्ञाश्रयः कप्। रुसशाश्रयो "अनृतोऽनन्तस्याप्येकैकस्य रोः" [२ ४ ] इति पविधिश्च सिद्धः ।
यत्त्य तदादि गुः ॥३।२१०२॥ यो हि यस्मायः स तस्येत्युच्यते । यस्य धो दो या त्यः यस्यस्तस्मिन् परतस्तदादिशब्दरूपं गुसञ्ज्ञ भवति । केबलावाः प्रकृतेव्यपदशिवडावात्तदादित्वम् ! दोग्धि | जुहोति । करिष्यति । कुएखानि । गुकार्वमेबिडागमो नुमागमश्च । जसि "नोछ:" [11] इति दोत्वश्च । यदिति सज्ञिनिर्देशार्थम् । अन्यथा तदादीति न लभ्येत तथा च त्ये सति पूर्वमानस्य गुसञ्चा स्यात् । तत्र को दोषः? इह न्यविशत प्राकरोदिति सगेरडागम: स्यात् । यत्त्य इति यच्छब्देन त्यस्य विशेषणं किम् । अस्यापत्यमिः। देवदत्त इं पश्येत्वत्र श्रादरेण स्यात् । अखस्य स्थानिवद्भाबाद व्यवधानमिति चेत् योऽनादिष्टादचः पूर्वस्तं प्रति स्थानिवदानः। अदिवाच्चैपोंऽचः पूर्वो निष्पन्नस्य पदस्य पदान्तरेणाभिसम्बन्धात् । पत्य इति ईम्निदंशः
१. निर्देशात्' इत्यस्य 'अनुवृत्त' इत्यर्थः । प्रसङ्गस्वारस्यात् । २, 'वा' अनित्यमित्यर्थः । ३. नोक इत्यस्मिन्चनुवर्तमाने 'बेडकौ' इति दी।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. , पा० २ ० १०३-1.. किमर्थः १ यत्त्यस्तदादि गुरित्युच्यमाने यस्य त्यः सम्भवति तस्यान्यस्मिन्नपि शब्दे गुसंज्ञा स्यात् । तथा च लियै इदं स्त्र्यर्थे भुवे इई भ्वर्थम् । इयुवौ प्रसज्येयाताम् । तदादिवचनं किमर्थम् ? यत्रानेकरूपः सम्भवति तत्र तदादेगु संज्ञा यथा स्यात् । करिष्यति । कुण्डानि । स्थान्तस्य सनुम्कस्य च गुसंज्ञायां “थव्यतो ही श२१६६] "धेड़की"[eren६] इति दीत्वं सिद्धम् । गुरिति पुल्लिङ्गनिर्देशो भपदसंज्ञासमावेशार्थः । इह चाभ्रव्य इति गुसंशाश्रय आदेरैः । मसंज्ञाश्रयः "कन को रोऽस्वयम्भुवः" [४४/१३५] इति प्रोकारः । इह च यजुः परयमस्य याजुष्कः । गुसंशाश्रय आदेरैप "स्वादामधे" [१२।१०६] इति पदत्वे पदसंज्ञाश्रयाणि रिसत्वरत्वानि सिद्धानि । नपुंसकलिङ्गा चेद् गुसंज्ञा होतरपत्य हौत्र इत्यत्र सावकाशा सती पदसंज्ञया बाध्येत । ।
सुम्मिङन्तं पदम् ।।१।२।१०३|| "न: क्ये" [11२।१०४] इति नियमारम्भात् सुचिंति प्रत्याहारग्रहणं नेपो बहोः । मिछा साहचर्याद्वा । सुबन्तं मिङन्तं च शब्द रूपं पदसंज्ञ' भवति । सूपकारः पचति । पदसंज्ञाश्रयो रित्वादिविधिः । खरि सादेशविधिश्च भवति । ननु सुम्मिङी त्यौ । त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेग्रहणमित्यन्तग्रहणं किमर्थम् ? अन्यत्र संज्ञाविधौ तदन्तविध्यभावज्ञापनार्थम् । तेन दृषत्तीत्यत्र क्लान्तस्य "फक्तवर्ष [ २८] इत्यनेन तसंज्ञा नास्तीति "द्वान्सस्य तो ना" [५।३।५१] इत्येप विधि षदकारापेक्षा या में भवति । इह च कुमारीगौरितरा "तादी मः" [१११११०] इत्यनेन तरान्तस्य झसंज्ञा नातीति "मरूप' [४।३।१५५] इत्यादिना प्रादेशो न भवति । पदमिति नपा निर्देशो भसंज्ञया बाधा यश स्यादि. स्येवमर्थः । अन्यथा राज्ञः राजन्य इत्यत्र भसंज्ञाश्रयमनोऽखं पदसंज्ञानय नखश्च स्यात् : पदप्रदेशाः "पदस्य" [पा।१५] इत्येवमादयः ।
नाक्ये ॥१।१०४|| क्य इति क्यच्क्वक्यपामविशेषग्रहणम् । क्ये परतो नान्तस्य पदसंशा भवति । राजानमिच्छति राजीयति । राजेनाचरति राजायते । अचर्म चर्म भवति चर्मायते । पदत्ये सति नवं सिदम् । "नर्च सुबिधि कृत कि" [ ५३२८] इति नियमादन्यत्र सिद्धमिति "क्यचि' [ ५।२।१४२] इतोत्वं "वीरकृद्गे" [५/२।१३३ ] इति दीवश्च भवति । 'त्यस्त्रे त्याश्रयम्" [१।६३] इति पदये सिद्ध नियमार्य: मिदम् । नान्तमेव क्ये पदसंज्ञ भवति नान्यत् । वाच्यति । शुध्यति । कुत्वं न भवति । नान्त क्य एवेति विपरीतो नियमी नाशङ्कनीयः । "अको'' [२२३३०] इति को नखप्रतिषेधात् ज्ञायते पदत्वे हि नखप्राप्तिः ।
सिति ॥२२२१०५॥ सिति त्ये परतः पूर्व पदसंज्ञ भवति । भवतोऽवं भवदीयः । "भवतष्ठ सौ [ 1] इति छस् । “यचि भः" [ ११२५१०७] इति पदसंज्ञायां बाधितायां पुनरारम्भः । एवमूर्ण अस्यास्तीति अर्णायुः । "काहंशुमभ्या युस् " [४।१।३२] इति युस् । “यस्य क्याज [ ४।४।१३६ ] इति खं न भवति । अहँ य्युः । अहंयुः । शुमँय्युः । शुभंयुः | "वा पदान्तस्य' [शा१२३] इति परस्वविकल्पः ।
स्वादायधे ॥१।२।१०६।। अध इति प्रतिरोधाद्वावा एकस्य सोहणम् । स्वादौ पवर्जिते परतः पूर्व पदसंज्ञ' भवति । राजभ्याम् । राजभिः । राजत्वम्। राजता । अध इति किम् ? राजानौ । राजानः । यद्यवं राजेत्यत्रापि प्रतिषेधः स्यात् । नैवं शङ्कयम् । अघ इवि पर्युदासोऽयं धादन्यत्र पदसंज्ञा विधीयत । धे तु पूर्वेष भविष्यति । यद्यवं सुवाची सुवाच इत्यत्रान्तर्वर्तिनी विभक्तिमाश्रित्व पदत्वं प्राप्नोति । अस्तु तईि प्रसज्यप्रतिषेधः । राजेत्यत्र "अकी [५१३१३०] इति प्रतिषेधात् ज्ञायते सौ पदसंज्ञा भवति । एवमप्यध इति अनन्तररूप स्वादो विधेः प्रतिषेधोऽयं मुवाचौ सुवाच इत्यत्र पूर्वेण प्राप्तिरल्येव | कर्तव्योऽत्र यत्नः । "उत्तरपदत्वे चापदादिविधौ स्यलक्षणं न भवतीति ।
यधि भः ॥१२।१०७॥ स्वादावध इति वर्तते । यकागदावजादौ च स्यादौ धवर्जिते पूर्व भसंज्ञ मवति । गार्थः। वात्स्यः । दाक्षिः । प्लाक्षिः । पूत्रेण पदसंशा प्रासा भत्वाद् “यस्य स्थाश्च" इत्यखम् । "नमोऽकिरो.
1. भ्रघे अ०, ब०, स. २. भवर्थम-१०, २०, स.। ३. इति नायनि-, सः । .. म सम्भ-म० ।५. बुध्यति म०, स० ।
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. . पा० ५ सू० १०८-11] महावृत्तिसहितम् मनुषां पत्थुपसङ्ख्यानम् । [बा०] नभसा तुल्यं वर्तते इति नभस्थत् । अनिरस्वत् । मनुष्वत् । षष्णो पवश्वयोवोर्मसंसेति केचित् । वृष्णो वसुः वृषण्वसुः । वृषणवः ।
मत्यर्थे स्तौ ॥२॥१८॥ मत्वर्थे त्ये परतः सकारान्तं तकारान्तश्च ममशं भवति । तपस्वी । यशस्वी । "विस्मायामेघानज:" [११४०] इति विन् | मतोर्विशेषणत्वेऽपि मत्त्वर्यग्रहयोन ग्रहणम् । यथा देवदत्तशासापण्डिता प्रानीयन्तामित्युक्त देवदत्तो विशेषणभूतोऽपि यदि पण्डितः सोऽपि प्रानीयते । मास्वान् । विद्युत्वान् । मरुत्वान् । स्ताविति किम् ? राजवद् गृहम् ।
कारके ॥१॥२।१०६॥ कारक इत्ययमधिकारः | यदित उर्ध्वमनुक्रमिष्यामः कारक इत्येवं वदितव्यम् | कारक निर्वर्तकं हेतुर्वा । काय ? क्रियायाः । का च क्रिया ? ध्वर्थः । कारक इति निर्धारणलक्षणेयमीप्। जात्यपेक्षकवचनम् । सौत्री वा निर्देशः । कारकेषु यद वं तदभादानं, यः कर्मणोपेयोऽर्थः स सम्प्रदानमित्यादि योज्यम् । वक्ष्यति धपाये ध्रुवभपादानम्" । [ ॥२॥१०] ग्रामादागच्छति । स्वर्गादवरोहति 1 अपायक्रियाया प्रामोऽपि निर्वतकः देवदतोऽपि । ६ वत्वाद् ग्रामोऽपादानम् । कारक इति किम् ? वृक्षस्य पर्ण पतति । कुझ्यस्व पिण्डः पतितः। अपायक्रियामा निर्वर्तकत्वेन वृक्षः कुड्यञ्च न विवक्षितम् । “अकथितम्म" [॥२॥१२१] अयादानादिमिरकथितं च कारक रंज' भवति । श्राचार्य धर्म पृच्छति । फारक इति किम । आचार्यस्य शिष्यं धर्म पृच्छति । आचार्यस्य शिष्यविशेषणत्वादकारकत्वम् । यदा कारकचाकारपञ्च सर्वमकथितमप्रतिपादितमित्यर्थस्तदेदं प्रत्युदाहरणम् । असकीर्तितमिति व्याख्याने कारकमेव लभ्यते । प्रदेशेषु करकाभिधानेsपादानादीनां ग्रहणम् ।
ज्यपाये ५ वमपादानम् ॥१।२।११०॥ धीबुद्धिः। प्रातिपूर्वको विश्लेषोऽपायः । चिया कृतो अपायो ध्यपायः । धीप्राप्तिपूर्वको विभाग इत्यर्थः । धीग्रहणे ह्यसति कायप्रातिपूर्वक एवापायः प्रतीयेत धीग्रहरणेन सर्वः प्रतीयते । भुवमबिचलम् , अवधिभूतं वा । ध्यपाये साध्ये यद् भुवं तदपादानसंज्ञ' भवति । ग्रामादागच्छति | ग्रामो देवदत्तं नानुपतति इति ध्रुवः । अथवा अपायात्मागपि ग्रामः । अपायेऽपि प्राम एव । देवदत्तस्त्वपाये प्रामग्रहणेन न गृह्यत इति ग्रामो ध्रुवः । एनमश्वा धावतः पतितः । गच्छुतः सार्थादवहीनः । देवदत्तो जिनदत्तादागतः । मेषी परस्परतोऽयसर्पतः । शृङ्गाच्चरो जायते । गङ्गा हिमवतः प्रभवति । इह प्रामानागछतीति पूर्वमपादानसंज्ञा पश्चात्प्रतिषेधः । विवाऽपायस्य विशेषणं किम् ? अधर्माजुगुसप्ते । प्रेक्षापूर्वकारी दुःखहेतुरधर्म इति बुद्ध्या सेग्राभ्य ततो निवर्तत इति अपादानस्वम् । एवमधर्माद्विरमति प्रमाद्यति । व्याघ्रादिभेति । चौरेम्यस्त्रायते । अध्ययनात् पराजयते । न शक्कोतीत्यर्थः। यवेभ्यो गो वारयति । अकार्यान्सुतं वारयति । मादन्धं वारयति । उपाध्यायादन्तद्धसे । मयं सञ्चिन्त्य निवर्तत इत्यर्थः। वित्रातः कारकाणि भवन्ति । उपाध्यायादधीते। उपाध्यायाच्छ पोति । अधिवक्षायां नटव शृणोति । अधिकस्य णोति । नवमिति किम् १ अरण्ये बिभेति । नात्र भयावधिभूतमरण्य किं तर्हि चौराः । नपा निर्देशः किमर्थः। वक्ष्यमाणाभिः संज्ञाभिधा यथा स्यात् । धनुषा विश्वति । पुलिङ्गया फरणसंशया बाधात् । कांस्यपात्र्यां भुते । पुलिझाऽधिकरणसंज्ञेव । धनुर्विध्यतीति कर्तृ संशा । इह गां दोग्धि पब इति परत्वात्पर्मसंश। अपादानप्रदेशाः "काऽपादामे [11 ] इत्येवमादयः ।
कर्मणोपेयः सम्प्रदानम् ॥१२१११॥ उपप_दिडो ये कृते उपेय इति भवति । कर्मणा य उपेयोऽर्थस्तस्कारकं सम्प्रदानसंज्ञ भवति । उपाध्यायाय गा ददाति । देवाय बलि प्रयच्छति । कर्मणेति किम् ? गवा उपाध्यायमुपैति । सम्प्रदानमित्यन्वर्थसंज्ञाकरणात् ददात्यर्थानां धूनां द्रव्येण कर्मणा उपेयोऽर्थः सम्प्रदानमिति । तेनेह न भवति । देवदत्तस्य बन्नं दर्शयति । मित्रस्य कायें कथयति । अजां नयति ग्रामम् । सम्यक् प्रदान सम्दानमिति चाश्रितम् । तेनेह न भवति । नतः पृष्ठं ददाति । रजकस्य वन्न ददाति । राज्ञो दण्डं ददाति । इह तहि कथं श्राद्धाय निग्रहते । युद्धाय सन्नह्यति । तिष्ठते ब्राह्मणी छात्रेभ्यः ? तादर्थ्यात् सिद्धम् । अथवा
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[.. पा. २ . , २-11
कथञ्चिद्विवक्षितभेदाभिः सन्दर्शनग्रार्थनाऽध्यवसायक्रियाभिः क्रियापि व्याया सती कर्मतयोग्यत्वात् सम्प्रदानत्वम् । सेनेहापि भवति । रोचते देवदत्ताय मोदकः । स्वदते देवदत्ताय मोदकः । पुष्पेभ्यः स्पृहयति । मिवाय कथयति । मित्राय कुध्यति । मित्राय द्रुह्यति । भित्राय ईष्यति । मित्रापासूयति | मित्राय कुर्सत | कोपादन्यत्र क्रुधादीनां प्रार्थनादिभिः क्रियाविशेषैर्भेदो न विवक्षित इति क्रियायाः कर्मव्यपदेशो नास्ति । भार्यामीष्यति । औषधं द्वेष्टि । शप उपलम्भनेऽर्थे भेदः। देवदत्तात्र शपते । इष्ट आत्मनिहधे मैदः । मित्राय हुते । अन्यत्र मित्रं हुते । राधीक्ष्योर्दैवालोचने । पुत्राय राध्यति । पुत्राब इक्षते। अन्यत्र पुत्रस्य राध्यति | पुत्रमीक्षते । यत्र च प्रत्यापर्वः पृणोतिरभ्युपगमे बर्तते । देवदत्ताय प्रतिशृणोति । अनुप्रतिपूर्वश्च गृणातियदि कथयितुः प्रोत्साहने वर्तते । आचार्याय अनुगृयाति । प्राचार्याय प्रतिगृणाति । इइ भेदाभेदविवक्षा । देवदत्ताय श्वापते । देवाय प्रणमति । गत्यर्थानां चेष्टायामसम्प्राप्लावुभे (घा०] । यथा मामाय गच्छति मामं गच्छति । प्रामाय ब्रजति । ग्राम ब्रजति । चेष्टायामिति किम् ? मनसा पाटलिपुत्रं गच्छति । असम्प्राप्ताविति किम् ? पन्थानं गच्छति । भार्या गच्छति । श्रन्यत्राभेदविवव । कटं करोति । श्रोदन पचति । शास्त्र पठति । "सग्योश्च क्रुधिनसोः" [चा. मित्रमभिः कभाति। मित्रमभितहत "सिदिलोनात" [EETir ] इत्यतो भेदाभेदोभयविवक्षा प्रत्येतन्या । परेषामपि प्रतिपत्तिगौरवं तुल्यम् । क क्रियाया व्यायस्वमिष्ट क्व च नेति दुर्बोधम् ।
धाररुत्तमणः ॥१२॥११२।। ऋणे उत्तम उत्तमणः। निपातनात् सविधिः । धारयतेरुत्तमणों योऽर्थस्तस्कारकं सम्प्रदानसंज्ञ' भवति । देवदत्ताय गां धारयति । उत्तमर्ण इति किम् ? देवदत्ताय शतं धारयति दरिद्रः।
परिक्रयणम् ॥११२।१९।। परिक्रीयतेऽनेनेति परिक्रयणम्: तत्कारकं सम्प्रदानसंज्ञ भवति । शताय परिक्रीतः । सहस्राय परिक्षीतः । साधक्तमत्वात् करणसंज्ञा प्राप्ता ।
साधकतमं करणम् ॥१२॥११४॥ क्रियावामतिशयेन साधकं साधकतमम् , तत्कारक करणसशं मवति ।
"दानेन भोग दयया सुरूपं ध्यानेन मोक्षं तपसेप्टसिद्धिम् ।
सत्वेन वाक्यं प्रशमेन पूजां वृत्तेन जन्मानमुपैति मर्त्यः ।।" तमग्रहणं किमर्थम् ? यथा रूपास्तावे अभिरूपाय कन्या दयेत्युक्त ऽभिरूपतमायेति । एवमिहापि कारकाधिकारादकारके संज्ञावृत्तिर्नास्वोति 'साधकं करणम् इत्युक्तेऽपि साधकतममिति गम्यते तदेतत् तमग्रहणंज्ञापकमन्यत्रतमग्रहांन विना प्रकर्षो न लभ्यते । तेना "आघारोऽधिकरणः' [11]इत्यनेन मुख्यामुख्ययोरधिकरणलं .सिद्धम् । विलेजु तेलम् । गायां घाषः। साधकतमस्याविवक्षायां स्वातन्त्र्याद्धनुर्विव्यतीति भवति । पुंल्लिङ्गनिदशः किमर्थः ? पारेकवणमित्यनवकाशया सम्प्रदानसम्ज्ञया बाधा मा भूत् । शतेन परिक्रीतः । वचनात् साऽपि भवति । शताय परिक्रीतः । “विनः कर्म' [२५] इत्यत्र च समावेगो यथा स्यात् । अदीव्यति ।
दिवः कर्म ॥१।२।११।। दिवे साधकतम कारकं कर्मसञ्ज्ञ भवति । अक्षान् दोव्यति । शलाका दीव्यति । नपा निर्देशात् करणत्वमपि ।
आधारोऽधिकरणः ॥११२२११६|| आध्रियतेऽस्मिन् क्रियेत्याधारः । इदमेव निपातनमधिकरणे पः। आधारो यस्तत् कारकमधिकरणसञ्ज्ञ भवति । यद्येवं कर्तृ कर्मणोरधिकरणसंजा प्राप्ता तदाश्रितत्वात् क्रियायाः। एवं तर्हि कर्तु कर्मणोः क्रियाश्रययोर्धारणादाधारोऽभिप्रेतः। पूर्व तमग्रहणेन शापितं गौण
१. 'शक्षाका विभ्यति १०, ब०, स० ।
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०पा० २ सू० ११७- १२१]
महावृतिसहितम्
३६
स्याप्याधारस्याधिकरणत्वम् । कर्तृकर्मणोः सत्यपि क्रियाधारत्वेऽनवकाशत्वात् कर्तृकर्मसञ्ज्ञं भविष्यतः । भेदविवक्षायामधिकरणत्वमपि । श्रशनक्रिया देवदत्तं वर्तते । विदनं तण्डुले ।
"औपर लेपिकवैषयिकाऽभिध्यापक इत्यपि । आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः कटरकाशखिलेषु च ।। "
1
श्रपश्लेषिकः कटे श्रास्ते । स्थाल्यां पचति । वैषयिकः - श्राकाशे शकुनयः । गङ्गायां घोषः । गुरौ वसति । यदधीना यस्य स्थितिः स तस्याधारः । अभिव्यापको विभागाप्रतीतेः । तिलेषु तैलम् । दधनि सर्पिः । श्रधिकरण प्रदेशाः "ईधिकरणे च " [१।४।४४ ] इत्येवमादयः ।
कर्मैवाऽधिशी स्थाऽसः ॥ १/२/११७ ॥ अधिपूर्वाणां शीङ्स्था श्राम् इत्येषामाधारो यस्तत् कारक कर्ममेव भवति । ग्राममधिशेते । पर्वतमधितिष्ठति । प्रासादमध्यास्ते । एवकारः पुंल्लिङ्गाऽधिकरयासंशासमावेशनिवृत्त्यर्थः । कर्मप्रदेशाः "कर्मणीपू" [118|२] इत्येवमादयः |
सोऽनूपाध्याः ||१|२| ११८ ॥ अनु उप अधि श्राङ्ग् इत्येवम्पूर्वस्य बसतेराघाये यस्तत् कारकं कर्मसंज्ञ ं भवति | ग्राममनुवसति । गिरिमुपवसति । गृहमधिवसति । वनमावसति । इह कथं ग्रामे उपवसति ! भोजननिवृत्तिं करोतीत्यर्थः १ अत्रापि त्रिरात्रादेराधारस्य कर्मत्वं प्रतीयते ।
अभिनिविशुध ॥ ११२ ॥ ११६ ॥ अभिनि इत्येवंपूर्वस्य विशतेराधारो यस्तत् कारकं कर्मसंज्ञ भवति । आममभिनिविशतॆ । गेद्दमभिनिविशते । चकारात् कचिदधिकरणसंज्ञाऽपि भवति । या या संज्ञा यस्मिन्नभिनिविशते । श्रर्थेष्वभिनिविष्टः । कल्याणेऽभिनिवेशः ।
यम् ||१|२||२०|| कर्त्रा क्रियया यदाप्यं तत् कारकं कर्मसंज्ञ भवति । कर्तृग्रइणादाप्यग्रहण• सामर्थ्याद्वा क्रिया लभते । तत्र कर्म ।
“प्राप्यं विषयभूतं व निर्वत्यं विक्रियात्मकम् । कर्तु क्रियया व्याभ्यमीप्सितानीप्सितेतरत्॥" सामान्यं सर्वत्र विद्यते । प्राप्यम्-ममं गच्छति । श्रादित्यं पश्यति । विषयभूतम् - जैनेन्द्रमधीते ! हिमवन्तं शृणोति । निर्वर्त्यन् घटं करोति । श्रोदनं पचति । विक्रियात्मकम् - काष्ठानि दइति । पटं भिनत्ति । ईसितम्-गुडं मदयति । श्रोदनं भुक् । श्रनीप्सितम् - ग्रामं गच्छन् व्याध पश्यति । कण्टकान्मृगाति | अनुभवम् - प्रामं गच्छन् षुक्षनूलान्युपसर्पति । कर्त्रेति किम् ? मावेष्वश्वं बध्नाति । अश्वेन कर्मणा भक्षणक्रियया माषाणामाप्यानां कर्मसंज्ञा मा भूत् । श्रथ सर्वाणि कारकाणि कर्त्राऽप्यन्त इति कर्मशा प्राप्नोति नैष दोषः । सर्वेषु कारकेश्वान्येषु काप्यग्रहणसामर्थ्यादान्यतमे संप्रत्ययः । तेन करणादिषु न भवति । पयसा श्रोदनं भुङ्क्त े । इह कथं कर्मलं गेहूं प्रविशतीति १ आधारस्याविवक्षया ।
श्रकथितञ्च ॥ ११२।१२१॥ श्रकथितमसङ्कीर्तितम् । अपादानादिभिर्विशेषकारकादिभिरकथितं च यत् कारकं तत् कर्मसंज्ञ ं भवति । श्रकथितमप्रधानमिति गृह्यमाणे इह देवदत्ताद् गां याच्त इत्यप्रधानतयाऽपादानसंज्ञा कर्मसंज्ञया माध्येत ।
"दुहिया चिरुचिभिक्षिचिया मुपयोग निमित्तमपूर्वविधौ । विशा सगुणेन सचते तदुकीर्तितभाचरितं कविना | "
दुहि दोग्धि पयः । गौः कारकमपादानत्येनासङ्कीर्तितमपायस्याविवक्षितत्वात् । गोरप्याप्यलेन सिद्ध कर्ममिति चेत् परिगणनार्थमिदं वक्तव्यम् । इद्द मा भूत् । नटस्य शृणोति श्लोकम् । याचि माणवकं गां याचते । याचनमात्रेणापायस्याविवचितलात् । रुधि - गामवरुणद्धि वजम् । सतोऽप्याधारस्याविवचा । अनुदरा कन्येति यथा । मच्छि· आचार्य धर्म पृच्छति । प्रश्नमात्रेणापायत्याविवक्षा । मिचि देवदत्त गा भिक्षते । चिञ्-वृक्षमवचिनोति फलानि । उपयोगनिमित्तं प्रयोगनिमित्तम् । श्रथवा उपयोग दुग्धादि दन्निमितं गवादि । इहापि तर्हि स्यात् । पाणिना कांस्यपाध्यां दोग्धि । पापयादिकमप्युपयोगनिमिचमित्याह ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
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[. ! पा० २२० १२५
अपूर्वविधी-यस्य पूर्वो विधिनोंकः । इह तु पूर्वमेव करणसञ्ज्ञा अधिकरणसञ्ज्ञा च विहिता । ब्रुविशास्योर्गुणेन च क्रियया कर्मणा वा यत् सचते सम्बध्यते तदकीर्तितमित्युक्तमाचार्येण । वि-माणवक धर्म
ते । शासि-माणवकं धर्ममनुशास्ति | माणवकस्य सम्प्रदानत्वेनाविवक्षा। अकथितमिति किम् ? देवदत्तात गां यायो। चारोमारामारा: देव कालभावानगन्तग्याः कर्मसंज्ञा सकर्मणामिति लम्भम् । काले-मासमारते । संवत्सरं वसति । भावे-गोदोहं स्वपिति । अध्या च स गन्तव्यश्चेति इच्छया विशेषणत्वम् । कोशमारते। क्रोशं स्वपिति । देशोऽपि कर्मसंज्ञ इति केचित् । कुरूनास्ते । कुरून् स्वपिति । श्रय नीवहिहरतिकृषि जयत्यादयो विकर्मका उपलभ्यन्ते । तेषां कथं द्विकर्मकत्वं प्रधानाप्रधानकर्मणोः सामान्येनाऽप्यत्वात । ग्रजां नयति ग्रामम् । भारं बहति ग्रामम् । भारं हरति ग्रामम् । शाखां कति प्रामम् । देवदत्तो जिनदत्त शतं जयति । देवदत्तो प्रामं शतं दण्डयति । अयं तु विशेष: -
"प्रधानफर्मण्यभिधेये लादीनादुर्दिकर्मणाम् । अप्रधाने दुहादीनां ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मणः ॥
नीयते अना ग्रामम् । उपते भारो ग्रामम् । हिवते भारो ग्रामम् | कृष्यते शाखा प्रामम् । जीयते जिनदत्तः शतम् । दरख्यते जिनदत्तः शतम् । अप्रधाने कमणि दुहादीनाम् । दुखते गौः पयः | याच्यते माणयको गाम् | अवरुध्यते गां बजः | पुच्छयते श्राचार्श धर्मम् । भिक्ष्यते देवदत्तो गाम् । अवचीयते वृक्षः फलानि । उच्यते माणवको धर्मम् । शिष्यते" माणवको धर्मम् । स्वन्ते कर्तुश्च कर्मण इति उत्तर सूत्रेणाऽण्यन्तावस्थायां यः फर्ता एयन्तावस्थायां कर्मतामापन्नः प्रयोज्यस्तस्यामिधाने लादौनाहुः । योध्यते माणवकः शास्त्रम् । गम्यते माणवको प्रामम् । भोज्यते माणवक श्रोदनम् । श्रास्यते माणवको मासम् । अध्याप्यते माणवकर जैनेन्द्रम् । ननु एयन्तेषु धुषु ण्वन्तवाच्यया क्रियया प्रेषणाऽध्येषणलक्षणया यदाप्यते तत् प्रधान कर्म । अवयवक्रिवया यदाप्यते तदप्रधानम् | एत्रं च सत्ति प्रधानकर्मण्यभिधेये लादीनारित्यनेनैव सिद्ध लादनर्थकमिदं एयन्ते कर्तुश्च कर्मण इति ? मानर्थक समुच्चयार्थमेतत् प्रधाने कर्मणि लादयो भवन्त्यप्रधाने च । लेन बोध्यते माणवकं धर्मः । भोज्यते माणवकमोदनः । अध्याप्यते माणक्क जैनेन्द्रः । श्रकर्मणां गत्यर्थानां च प्रधान एव फर्मणि लादयः । श्रास्यते माणवको मासम् । श्रास्यते माणबको गोदोहम् । गम्यते माणवको प्रामम् । प्राप्यते माणवको प्रामम् ।
शागम्यद्यर्थधेरणि कर्ता पौ ॥।१२२॥ शार्थानां गम्यर्थानामद्यर्थानां धीनाच धूनामश्यन्तानां यः कर्ता सणौ सति कर्मसंशो भवति । ज्ञार्थानाम्-जानाति माणवको धर्मम् । ज्ञापयति माणवक धर्मम् । बुध्यते माणवको धर्मम् । बोधयति माणवकं धर्मम् । पश्यति माणवको प्रामम् । दर्शयति माणवक ग्रामम् । गम्यानाम् गच्छति माणवको प्रामम् । गमयति माणवकं प्रामम् । यति मायावको ग्रामम् । यापयति माणवकं प्रामम् । अर्थानाम्-भुङ्क्त ओदनं माणवकः । भोजयति माणवकमोदनम् । श्रश्नाति माणषक श्रोदनम् । श्राशयति माणवकमोदनम् । धीनाम्-श्रास्ते माणवकः। श्रासयति माणवकम् । शेते माणवकः । शाययति माणवकम् । अत्रापि पूर्ववरिणजन्तवाच्यया क्रियया प्रेषण ध्येोषणलक्षणया प्राप्यत्वात् कर्मसंज्ञा सिद्धा । यद्यपि स्वातन्यमाप्यखञ्चास्ति तथापि कमैत्रेत्यवधारणात् कर्तृ संशा न भवतीति । एवं सिद्ध नियमार्थमिदं तेषामेवाणौ कर्ता एयन्ते कर्मसंज्ञो भवति नान्येषाम् । पचत्योदनं देवदत्तः । पाचयत्योदनं देवदवेन । अनि कति किम् गमयति देवदत्तो जिनदत्तम् । तमन्यः प्रयुक्त । गमयति देवदत्त न जिनदत्तम् । नवत्यादयः प्रापणार्था न गत्यर्थास्तेनेह कर्मसंज्ञा न भवति | अजा नयति देवदत्तः । नाययति देवदत्ते न । भार
१. गन्तव्यः क-मु०, ब०। २. कालः प्र०, स.। ३. भावः भ०, स.। १. कृरज-मु.। १, जिनरत्तो प्राम भारं हरति न०, २०, स. १६, कृषसि अ०, २०, स. 10. "शिष्यते माणवको धर्मम्' इति व पुस्तके नास्ति | म. मध्माप्यते माग्यवको जैनेन्नम् अ०,०, स.।
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अ० पा० २ सू० १२३-१२८]
महावृतिसहितम्
४१
वहति वाहकः । वाहयति वाहीकेन । यदा गलार्थतासंभवस्तदा भवति कर्मसंज्ञा । वहन्ति बलीवर्दा यवान् । वाहयन्ति बर्दानवान् । प्रहृत्युदकं देवदत्तः । प्रवादयत्युदकं देवदत्तम् | "अद्यर्थेषु अदिखाद्योः प्रतिषेधो वक्ष्यः [ ० ] त्ति देवदत्तः । दमेन | () | दत्तेन । अथवा "सर्वमथधकाम भवतीति वक्तव्यमधिकरयो तविधि मुक्त्वा" [ वा० ] दयते माणवकेन । "स्वमचर्थात् " [ १ [२२८४ ] ममपि न भवति । "भक्षिरहिंसार्थः कर्मसंज्ञो न भवतीति वक्तव्यम्" [ वा० ] भक्षयति पिराडी देवदत्तः । भक्ष्यति पिएडीं देवदत्तं न । हिंसार्थस्येति किम् ? भन्नयति बलीवर्दी वषम् । भक्षयति बलीवर्दी सवम् । अत्र हिंसाऽस्ति । बनस्पतिकायानां प्राणित्वात् । प्रकृतेन कर्मणा - का ग्रहान्ते तेन श्रिग्रहणे कालादिकर्मणः कर्त्ता कर्मसंज्ञो भवति । आस्ते मासं देवदत्तः । श्रासयति मासं देवदत्तम् । श्री गोदो देवदत्तः । श्रस्यति गोदोहं देवदत्तम् | आस्ते कोशं देवदत्तः । श्रास्यति क्रोशं देवदत्तम् ।
शब्दे च || १२|१२३ ॥ शब्दे कर्मभावेन क्रियाभावेन व वो धुर्वर्तते तस्यास्यन्तस्य कर्ता हौ कर्मसंशो भवति । शब्दकर्मणः शृणोति देवदत्तः शब्दम् । श्रवयति देवदत्तं शब्दम् । उपलभते देवदत्तः शब्दम् । उपलम्भयति देवदत्तं शब्दम् । श्रधीते माणवकस्तम्। अध्यापयति माणवकं तर्कम् । शब्दक्रियस्य- जल्पति देवदत्तः । जल्पयति देवदत्तम् । विलपति देवदत्तः । विलापयति देवदत्तम् । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन इयत्यादिषु न भवति । ह्वयति देवदत्तः । द्वाययति देवदत्तेन । क्रन्दति देवदत्तः । क्रन्दयति देवदत्तेन ।
कोने वा ॥ ११२१२४||
कृ इत्येतयोरएयन्तयोर्यः कर्ता स एयन्तयोर्न वा कर्मसंशो भवति । न वेति निर्देशात् प्राप्त चापात च विकल्पः । मासं प्रभ्यवहरति देवदत्तः । श्रभ्यवहारयति देवदत्त देवदत्तेनेति वा । विहरति देवदत्तः । विहारयति देवदत्तं देवदत्ते नेति वा । विकुर्वते सैन्धवाः । विकारयन्ति सैन्धवान् सैन्यवैरिति वा । गग्यर्थे विज्ञायां पूर्वेण प्राप्तिः । श्रप्राप्ते हरति मारावको भारम् | हारयति माणावकं माणवक्रेन वा । करोति तं देवदत्तः । कारयति कटं देवदत्तं देवदत्तेन वा । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थेऽनुवर्तते । तेन श्रभिवदिश्योदविषये विकल्पः । अभिवदति गुरुं देवदत्तः । श्रभिवादयते गुरु देवदत्तं देवदत्तेन वा । पश्यन्ति भृत्या राजानम् । दर्शयते भृत्यान् भृत्यैरिति वा । "शियः " [ १२२०२ ] इति दविधिः !
स्वतन्त्रः कर्ता ।। ११२ १२५ || स्वतन्त्र श्रात्मप्रधानः । क्रियासिद्धी स्वतन्त्रो योऽर्थस्तत् कारकं कर्तृसंज्ञ भवति । देवदत्तः पचति । देवदत्तेन कृतम् । प्रेषितः करोतीत्यत्रापि स्वातन्त्र्यं गम्यते । अनिच्छामरणात् । इद्द स्थाली पचतीति स्वातन्त्र्यं विवक्षितम् ।
तद्योजको हेतुः ॥ १|२|१२६ ॥ योजकः प्रेरकः, तस्य स्वतन्त्रस्य योजको योऽर्थस्तत् कारकं हेतु ' संज्ञ ं भवति । पुल्लिङ्गकर्तृ संशासमावेशात् कतु संज्ञा च । कारयति । भोजयति । हेतुत्वात् " हेतुमति” [२।११२४] इति णिच् । कर्तुत्वाल्लकारवाच्यता । गौणस्यापि योजकस्य हेतुत्वम् । भिक्षा वासयति । कारीषोऽग्निरध्यापर्यात । तद्योजक इति वचनं शापकं "सृजका" १३७८ ] “कर्तरि [ ३३।७४ ] इत्यस तासप्रतिषेधस्यानित्यत्त्रम् ।
निः || २|२| १२७ ।। अधिकारोऽयम् । "प्राग्वोस्ते” [१।२।१४६] इत्यतः प्राक् । श्रानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो निसंज्ञास्ते वेदितव्याः । वदयति चादिरसस्ये । का वा एब । निरिति पुल्लिङ्गनिर्देशः किमर्थः १ गितिसंज्ञाभ्यां समावेशो वा स्यात् । निप्रदेशाः "निरेकाजनाळू' [१।१२२२] इत्येवमादयः ।
चादिसत्त्वे ||१|२|१२|| सीदत श्रमि लिङ्गसंख्ये इति सत्त्वम् | लिङ्गसंख्याबद् द्रव्यमित्यर्थः । श्रादयो निसंज्ञका भवन्ति न चेत् तत्त्वे वर्तन्ते । च वा ह श्रह एव एवम् नूनम् शश्वत् सुपत् कूषत् कुत्ि
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० १ ० २ सू० १२१-१३२
नेत् चेत् चण् कचित् यत्र नह इन्त माकिम् नकिम् माङ् । उकारो "माङि लुहि" [२१२११२१] इति विशेषणार्थः । प्रदिति माशब्दे माऽभवत् मा भविष्यति । न नत्र | अकारो " म" [१|३|६८ ] इति विशेषणार्थः । नहि वा त्या ननु च तु द्वे नै न वै रूने रेवै श्रौषट् चौपट् वधर् स्वाहा स्वधा श्रीम् तथाहि खलु किल श्रथ अव म अस्मि इ उ ऊ ऋ लृ ए ऐ श्री श्री उअ सुत्र श्रादह श्रान बेलायमा मात्रायाम यावत् यथा किम यत् तत् यदि पुरा चिकू है" हो पाट प्यार उताहो श्राहो अथ श्री मानो ननु नाना मन्ये अति हि हिनु तु इति इव यत चॅन धावत एवं श्रा यां शं हिकम् दिरुक शुभम् सुकम् शुकम् तुम नहि कम ऋतम् सन्ग हा नो हि मुचेत् जातु कथम् ऋते कुत्र अपि ( ऋषि) श्रादक श्रावहन् भोस् चित् वाह्य संवत् दिष्ट्या पशु युगपत् फट सह श्रनुवक् लाज नाजक अङ्ग पुत्र श्रये श्र देवाश्वति मर्या ईप कीम् सीम् गिविभक्तीस्वरप्रतिरूपकाश्च । गिप्रतिरूपका श्रदत्तमित्यादौ । दुतं दुर्नय इति णत्वं न भवति । असत्त्व इति किम् १ श्रस्यापत्यमिरिति ।
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४२
प्रादिः ॥ ११२१२६ ॥ प्रादयो निसंज्ञा भवन्त्यसत्ये । प्रपराऽपसमुनिदु र्व्याहन्यधयोऽप्यनिसूदभ्यश्च । प्रतिना सह लक्षयितव्याः पर्युपयोरपि लक्षणमत्र । श्रसत्व इत्येव । विप्रातीति विप्रः । पराजयति सेना । पृथक्करणामुतरार्थम् । प्रादीनामेव गिशा यथा स्याच्चादीनां मा भूत् । उत्तरत्र प्रादिग्रहणे क्रियमाणे अक्रियायोगे निशा न स्यात् । श्रा एवं नु मन्यते । श्रा एवं किल तत् ।
क्रियायोगे गि|| १२|१३० ॥ क्रियायोगे प्रादयो गिलंज्ञा भवन्ति । प्रणामति । परिणायकः । "रसेऽपि विकृते' [११४५६६ ] इति णत्वं सिद्धम् | क्रियायोग इति किम् ? प्रगता नायका अस्माद्देशात् प्रनायको देशः । नन्वत्रापि क्रियाऽस्ति । योगग्रहणसामर्थ्यात् यत्क्रियायुक्तास्तं प्रति गितिभंज्ञा भवति । गमिक्रियया चात्र योगः । "मरुदस्योपसंख्यानम्" । मरुतः ] "गोस्वोऽच: " [५२ / १४१ ] इति श्रनन्तत्येऽप्युपसंख्यानसामर्थ्यात्तादेशः । “प्रशाथद्वाच्चावृत्तिभ्यो यः " [४/१/२८ ] इति निर्देशादविषये श्रतो गिल्लम 1 "तिरोऽन्ताद" [१/२/१४] इति निर्देशादन्तःशब्दस्यापि क्यादिविषये ।
ति ||१२|१३१ ॥ तिसंशाश्च प्रादयो भवन्ति क्रियायोगे । प्रकृत्य । प्रस्तुत्य । तिसंज्ञायां "तिकुप्रादयः " [शश८१] इति षसः । "ध्यस्तिवाक्से तवः " [५] १/३१ ] इति प्यादेशः । पुंल्लिङ्गा विसंज्ञा समाविशति । श्रभिषिच्य । प्रणम्य । त्वत्वे सिद्धे । योगविभागः किमर्थः १ उत्तरत्र तिसंशेव यथा स्यात् गिसंज्ञा मा भूत् । इह ऊरीस्यादिति । “गिप्रादुभ्यो यष्यस्ते " [ ५१४ | ६८ ] इति पत्वं स्यात् ।
चिवडाजूर्यादिः ||११२११३२|| क्यन्तो डानन्व ऊरीप्रभृतयश्च शब्दाः क्रियायोगे तिसंज्ञा भवन्ति । शुक्ल शुक्ल कला शुक्लीकृत्य | डाच् अपटत् पटत् कृत्वा परपाकृत्य । कृभ्वस्तियोगे विचो विद्दितौ तत्साहचर्यादूर्यादीनामपि कृम्बस्तिभिरेव योगे तिसंशा भवति । अर्थादिषु पर्थो न संभचत । ऊरीकृत्य । उररीकृत्य । ऊरीभूय । उररीभूय । करीडररीशब्दावङ्गीकरणे विस्तारे च । पापौशब्दी विध्वंस माधुर्य्यं करणबिलापे च । ताली आताली शब्दौ वर्षे । वेताली वैरुये । धूसी शब्दः कान्तौ वाञ्छायाञ्च । सकलाशंसकलाध्वंसकलाभ्रंस्रकला एते हिंसायाम् । गुलुगुथाशब्दौ पीडायाम् । सजूः सहार्थे । फलू फली बिल्ली की एते विकारे । श्रालम्बी आलोष्टी केवासी केवाली वर्षाली भरमसा मसमसा एते हिंसायाम् । श्रोष वौषट् स्वाहा
१. वैय० । २. तुवे म० । तुवै ब०, स० । ३. है ०, ब० । ४, ६ घ० । २. है स० । ६. मधो अ०, ब०, स० [ ७, चन । घ । बत अ० ! वत | ध | वत स० । वस । भवत । मु० । म भो शिवत् प्र० । १० । १०. इप् अ०
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भ० । पा० २ सू० १३३-१४२ ] महात्तिसहितम् स्वघा एते दानार्थाः । चादिषु च पाठादक्रियायोगेऽपि निसंज्ञा । प्रादुस् श्रत् आविस् । प्रादुःकृत्य | प्रादुर्भुय । अडाय ! श्राविर्भूय ! प्राविःशब्दः साक्षादादौ च पश्यते । तस्य "वा कृषि" [॥२११४.] इति करोतियोगे विसंशविकल्पः । श्राविष्कृत्य । आविष्कृत्या |
अभियानुकरण ॥रा अपलो यो कस शब्दोऽनुक्रियतेऽनेनेत्यनुकरणम् । अनितिपरमनुफरणं क्रियायोगे तिसेज भवति । 'खाकृत्य | पकृत्य । अनिताविति किम् ? खाईिति कृत्वा निरठी. वत् । खाछब्दस्य धोः प्राक् प्रयोगः सविधिश्च प्रसज्येत । "यावे यः सः" [ ५] इत्यत्र सुषष्ठीवतिथ्यकतिव्यायतीनां प्रतिषेध उक: 1
सदादरानादरयोः ॥१।१३।। श्रादरः सम्भ्रमः । श्रवज्ञानमौदासीन्यं वाऽनादरः । सच्छन्द आदरानादार इत्येतयोरर्थयोरिल मंझो भवति । आदर-सत्कृत्य । अनादरे-असत्कृत्य । अनादर इत्यर्थनिदैशात् सच्छन्दस्य तदन्तविधिरिष्टः । तेनेहापि भवति । परमसस्कृत्य । तिसंज्ञायां निसंशासमावेश । निसंज्ञस्यासंख्ययाभिसज्जा । श्रादरानादरयोरिति किम् ? सत्कृत्वा काण्डं गतः । विद्यमानं कृत्वेत्यर्थः ।
भषाऽपरिग्रहेऽलमन्तः ॥२२॥१३५॥ अलमन्तरित्येतो शब्दो भूषायामपरिग्रहे चार्थे यथासंख्यं तिसंशौ भवतः । अलङ कुत्य । भूषयित्वेत्यर्थः । अन्तकृत्य । मध्ये इत्येत्यर्थः । भूपाऽपरिग्रह इति किम ! अलं कृत्वा । अन्तर्हवा मूषिका गताः। पर्याप्तं कृत्वेत्यर्थः । परिग्रहोत्यर्थः | "तिरोन्तो " [10] इति शापकादन्तःशब्दस्य गिमंज्ञाऽपि । अङ्किविधिणत्वेषु प्रयोगदर्शनात् । अन्त । अन्तर्दिः । अन्तर्णेयः ।
करोमनः श्रद्धाघाते ॥१९२।१३६॥ अदाघातोऽभिलापनिवृत्तिः। करणेमनःशब्दौ अदाघातेऽर्थे तिसंझौ भवतः । कणेशब्द ईनन्तप्रतिरूपको निसंशोऽभिलापातिशये वर्तते । मनःशब्दोऽपि तत्साहचर्यादिह तादृशः । करणेदत्य भुङ्क्ते । मनोहत्य भुक्तं । श्रद्धाधात इति किम् ? चन्दुलावयवे करणे हत्या गवः । मनो हत्वा गतः । चेतो हवेत्यर्थः ।
पुरोऽस्तं मिः ॥१।२१३७॥ पुरस् अस्तमित्येतौ झिसंशी क्रियायोगे विसंजी भवतः । पुरशन्दः "पूर्वाधरावराणों पुरधाऽसि" [४।१११०३] इत्यत्र सावितः | अस्तंशब्दोऽनुपलब्धौ परते । पुरस्कृत्य गतः । अस्तबल्य पुनरुदेति । "नमःपुरसोल्योः " [५।४।२३] इति सत्वम् । झिरिति किम् ? पू: पुरो पुरः कुल्ला गतः। अस्त' कृत्वा कापडं गतः । गत्यर्थवदेऽच्छुः ॥
११३८|| झिरिति वर्तते। अच्छशब्दो झिसंशः गत्यर्थे मदतो चतिसंशो भवति | अच्छगत्य । अच्छगम्य । "ध्ये" [ ३८] "वा मः" [ २६] इति वा मल्य खम् । अच्छोत्र । अच्छशब्दो दृढार्थे श्राभिमुख्ये च वर्तते । मिरित्येव | उदकमच्छं गला ।
अनुपदेशेऽवः ।१३६॥ श्रवचनामिका प्रतिपत्तिरमुपदेशः। श्रदःशब्दोऽनुपदेशे तिसंशो भवति । अदाकृत्य । अनुपदेश प्रति किम् ? अदः कृत्वा गतः । एतत् कृत्वा गत इति परस्य अचयति ।।
तिरोऽस्तो ।।।२।१४०॥ तिरःशब्दोऽन्ताने तिसंज्ञो भवति । तिरोभूय । अन्ताविति किम् ? तिरो भूत्वा स्थितः । तिर्यम्भूला स्थित इत्यर्थः ।
घा कृषि ॥ १।२।१४१॥ तिरःशब्दोऽन्तौ कृषि या तिसंशो भवति । प्राप्ते विकल्पः । विरस्कृत्य । तिरः कृत्वा । "तिरसो वा" [शा३०] इति सत्वम् | अन्तर्वावित्येव । विरः कृला काष्ठं गतः।
उपाजेऽन्याजे ||१२।१४२॥ उपाजे श्रन्याजे ईबन्तप्रतिरूपकावेतौ कृषि या तिसंशी भवतः । उपाकृत्य । उाजे कृखा ! अन्धाजे कृत्य । अन्याजे कृत्वा । दुर्बलस्य भग्नस्य या घशाधानं कृत्वेत्यर्थः ।
1. जात्कृत्य W०, १०, स०।२, खादिति भ०, २०, स० । ३. अन्तथि: प० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० पा० १ सू० १४३ - १५२
साक्षादादिः || १२|१४३॥ वेति वर्तते । खात्प्रभृतीनि शब्दरूपाणि कृत्रि वा तिसंज्ञानि भवन्ति । “विडाजूर्यादि : " [१२।१३२] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या स्त्रिमहणमर्थपरमनुवर्तते । तेन व्यर्थे तिसंज्ञादिकल्पोऽयम् । साक्षात्कृत्य । साचात्कृत्वा । मिथ्याकृत्य । मिथ्याकृला । यदा च्चित्पयते तदा "चिचाज्यदिः” इत्यनेन नित्यं तिसंज्ञा भवति । साक्षात् । मिथ्या चिन्ता । भद्रा रोचना । लोचना ! श्रमा । आस्था । श्रद्वा । आखा । मानय । प्राजरहा | श्रीजय | बीजरुहः । संसर्या । श्रर्थे । लवणम् । उष्णम् । शीतम् । उदकम् । श्रार्द्रम् | तिसन्नियोगे लवणादीर्ना मकारान्तत्वं निपात्यते । श्रग्नौ । बसे । विकसने । विकम्पने । विज्ञ निपातनं वा । देति व्यवस्थितविभाषानुवर्तनात्ल्लवणादीनां भव्यन्तानां मकारौकारनिपातनं न भवति । लवणीकृत्य । घधीकृत्य । नमस् | प्रादुराविःशब्दो ऊर्यादिष्वपि पते । तयोः कृषि विकल्पार्थ ग्रह पाठः ।
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मनस्युरस्यनत्याधाने ॥ १|२| १४४ ॥ मनसिटरसिशब्दी ईवन्तप्रतिरूपको निपातनं च । अत्याधानमुपश्लेषः । मनसि उरसि इत्येतौ अनत्याधानेऽर्थे कृषि वा तिसंज्ञो भवतः । उरसिकृत्य । उरसि कृत्वा । मनसिकृत्य | मनसि कृत्वा । निश्चित्येत्यर्थः । श्रनत्याधान इति किम् ? उरसि कृत्वा पापि शेते ।
मध्ये पदे निवचने || १ |२| १४५ || अनत्याधान इति वर्तते । मध्ये पदे निवचने इत्येते शब्दाः कृमि वा तिसंज्ञा भवन्ति अत्याधाने एकारान्तता पूर्ववद्वेदितव्या । मध्येकृत्य 1 मध्ये कृत्वा । पदेकृत्य । अत्याधान इत्येव । पदे कृत्वा । नित्रचने इति वचनाभावे वर्तते । निवचने कृत्य । हस्तिनः पदे कृत्वा हस्तमास्ते ।
निवचने कृत्वा ।
हस्ते पाणे स्वीकृतौ तिः ॥ ११२१४६|| हस्ते पाणी इत्येतौ स्वीकृतावर्थे कृत्रि तिसंशौ भवतः । हस्तेकृत्य | पाणौकृत्य । भार्या कृत्वेत्यर्थः । स्वीकृतात्रिति किम् १ हस्ते कृत्वा कार्षापणं गतः । नात्र दारस्वीकारः । पुनस्तिग्रहणं नित्यार्थम् ।
प्राध्वं बन्धे || १ |२| १४७|| प्राध्वमिति मकारान्तो भिसंज्ञः शब्द अनुलोम्ये वर्तते । प्राध्वंशब्दः कृषि तिसंज्ञो भवति बन्धो निमित्तं चेत् । प्राध्यंकृत्य । बन्धनिमित्तमानुलोम्यमिह प्राध्वंकरणम् । चन्ध इति किम् ? प्रगतमध्वानं प्राध्वं कृत्वा शकटं गतः । "तिकुप्रादय:" [११३८१] इति यसः | "गेरध्वनः " [४/२८०] इति सान्तोऽकारः । प्रतिपदोक्त परिभाषानाश्रयणे प्रत्युदाहरणमिदम् |
जीविकोपनिषदाविवे ||११२१४८ ॥ उपनिषद्रहस्यम् । जीविका उपनिषदित्येतौ शब्दाविवशब्दस्यार्थे कृमितिसंज्ञौ भवतः । जीविकाकृत्य । उपनिषत्कृत्य । जीविकामिव उपनिपदमिव कृत्वेत्यर्थः । इवाथ इति किम् ? जीविकां कृत्वा गतः ।
प्राग्धोस्ते ॥ ११२ ॥१४६॥ प्रयोगनियमो ऽयम् । ते गितिसंज्ञा घोः प्रागेव प्रयोक्तव्याः । तथा चैवोदाहृतम् । ते इति वचनं किमर्थम् । श्रनन्तरायां तीनां गीनां च ग्रहणार्थम् ।
लो मम् ॥ ११२/१५० ॥ नवानां लकाराणामनुबन्धापाये ल इति सामान्येन निर्देशः । लादेशो मसंज्ञो भवति । मि बस् मस् सिप यस् थ विप् तस कि शह नपा निर्देशः पुंल्लिङ्गया दसंशया बाधा यथा स्यात् । समावेशे हि क्रमत आदित्यः सङ्गस्थत इत्यत्र "क्रमो मे" [ ५७ ] दीचं "गमेरिमे" [1१1१०६ ] कृति इट् प्रसज्येत । शतरि भसंज्ञा सावकाशेति मिङ् तु वक्ष्यमाणाभिरस्मदादिभिः संज्ञाभिर्वाध्यत्वं नाशङ्कनीयम् । "सावैम्मे'' [ ५/१1७७ ] इति वचनं ज्ञापकं मित्रां मसंज्ञाऽपि भवतीति ।
इक्कानं दः ||११२११५६॥ इति प्रत्याहार इंडित्यतः प्रभृति श्र ङो ङकारेण । इड् च श्रानश्च दसंज्ञौ भवतः । इट् हि महि था श्राथाम् ध्यम् त श्राताम् भङ । श्रान इति शानो गृह्यते ।
मिरिशोऽस्मथुष्मदत्याः || १२ | १५२ || मिडो मसंज्ञानि च त्रीणि त्रीणि वचनानि श्रस्मद्युष्मदन्य इति संज्ञानि भवन्ति । मिप् वस् मसित्यस्मद् । सिप् थस् येति युष्मद् । तिप् त भीत्यन्यः ।
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प. 1 पा० ९ सू० ११३-१५] महाधिसहितम् दानामपि । इट् वहि महि इत्यस्मद् । थाम् श्राथां ध्वमिति युष्मद् । त आतां झहित्यन्यः । मिड इति किम् ? अनुत्तरस्य दस्य मस्य च महणार्थम् । त्रिश इति "संस्काद्वीप्सावाम [TIVE] इति शस्।
साधने स्वार्थे ॥१२॥१५३।। अस्मदादयोऽन्वर्थसंज्ञा अनुवर्तन्ते । लस्येत्यधिकृत्याविशेषेण मिलादयो विहितास्तनियमोऽयम् । स्वस्यार्थः स्योऽर्थो वा स्वार्थस्तस्मिन् स्वार्थे साधनेऽस्मदादयो वेदितथ्याः । अस्मापदस्यार्थे साधनेऽस्मत्रिक युष्मत्पदस्यार्थे साधने युष्मत्त्रिकमाभ्यामन्यस्यार्थे साधनेऽन्यन्त्रिक भवति । अस्मदाद्यर्थानां साधनत्वे सति नियमोयम् । ततोऽस्मदादिपदानामनुप्रयोगे सत्यसति चास्मदादयो भवन्ति । श्रहं पचामि । आवो पचावः । वयं पचामः । पचामि। पचावः । पचामः । त्वं पचसि । युवा पचयः । पूर्य पचथ । पचसि | पचथः । पचथ । स पचति | तो पचतः। ते पचन्ति । पचति । पचतः । पचन्ति । एवं विधावपि योज्यम् । भावेऽस्मयुष्मदर्थयोरभावात् भावस्य चाभ्यामन्यवादेकालाच तस्मिन् साधनेऽन्य एव भवति । आस्यते भवता । ग्लायते भवता । यत्रास्मदायर्था युगपत् साधनं तत्र क इष्यते ? पूर्वनिर्णयमेव यः पूर्वः । अत्र किमस्मदर्थ एवं साधनेऽस्मद् भवतीत्यध्रियते श्राहोस्विदस्मदर्थे साधनेऽस्मदेव भवतीति । उभयथाऽप्यदोषः सर्वेषां नियतत्वात् । ननु द्वितीये पड़े त्वया (मया) कुर्वाणेनेत्यत्र दोषः । मैवम् । त्रिकापेक्षया नियमो न साधनापेक्षया ।
प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्मयतेरस्मदेयच्च ॥शरा१५४॥ मन्य इति मन्यतेरेकदेशः । ते rida मन्यो वामः महानिद मगनानि प्रतासे गम्यमाने युष्मद्भवति मन्यतेश्चास्मद्भवति एकवच । अस्मन्नमदोर्व्यत्ययार्थोऽवमारम्भः । पहि' मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्वसि यातस्ते पिता । एहि मन्यसे रथेन यास्यामीति प्राप्तम् । एवमेहि मन्ये अोदनं भोक्ष्यसे न हि भोक्ष्यसे भुक्तः सोऽतिथिभिः । द्वित्वबहुविवक्षायामपि मन्यतेरेकवद्भावो भवति । एवं मन्ये रथेन यास्यथ न यास्यथेति । प्रहास इति किम् ? एहि मन्यसे श्रोदनं मोक्ष्य इति सुष्ठु मन्यसे साधु मन्यसे ।
एकद्धिबहवाश्चैकशः ॥१२।१५५॥ यान्यस्मयमदत्यसजानां संशियेनोपात्तानि बट निकाणि तान्यकश एक दि बहु इत्येवमंझानि भवन्ति । मिबित्येकः । बसिति द्विः । मसित्ति बहुः । एवं शेषेषु योज्यम् । अस्मदादिसंशः पुल्लिङ्गा पकादिभिः सह समाविशन्ति ।
सपाय ॥२१५६।। त्रिश इति वर्तते । मुपश्च त्रिकारिण एकदिबहुसंशानि भवन्त्येकशः । सु इत्येक श्रौ इति द्विः । जसिति बहुः । एवं शेषेषु त्रिकेषु नेयम् । उभयत्र चशब्दः “साधने स्वार्थे" २१] इत्यस्यानकर्षणार्थः। एकार्थे साधने एको मिन्भवति । द्वयर्थे द्विवस् । बबर्थे बहुर्मस । एवं भिक्षु सुम्सु च योज्यम् । ननु व "साधने स्वार्थे" इत्येतन्मिङ उपपद्यते यतः माधनं कारक क्रियाया निवर्तक क्रिया च ध्वर्थः । धोश्च मिङो विहिता इति साधनयाचित्वोपपत्त:। सुपरत्व क्रियावाचिनो प्याम्मृदो विधीयन्त इति तत्र साधने स्वार्थ इत्येतन्न घटते । नैष दोषः । श्रक्रियावाचिनोऽपि विधीयमानाः सुपः क्रियाशचिपदान्तरमाकाक्षन्ति । पदान्तरवाच्यायाः क्रियायाः साधनभावोपपने सुप्स्वपि "साधने स्वार्थे" इत्यर्य व्यवहारो युज्यते । देवदत्तः पचति देवदत्तौ पचतः । देवदत्ताः पचन्ति । यत्रापि क्रियापदं न प्रयुज्यते वृक्षः लक्ष इति तत्राप्यस्ति भवतीति परः सन्निहितस्तदपेक्षया व्यवहारः । मिडः सामान्येन धुमात्राद्विधीयन्ते सुएश्च मृन्मात्रात पा संकरेणु प्राप्तौ नियमोऽयम् । त्यनियमोऽधनियमो वा । एकार्थ एव साधन एको भवति द्वयर्थ एव साधने द्विभवति बबर्य एवं (साधने, बहुर्मवतीति त्यनियमः । एकार्थे साधने एक एव भवति द्वयर्थे द्विरेव भवति बहुर्थे बहुरेख भवतीत्यर्धनियमः | त्यनियमपदे "सुपो मेः" [ १०] इति वचनं ज्ञापकमेकत्वादीनामभावेऽप्युत्पद्यन्ते में: सुप इति । अनियमपदे एकत्वादयो नियतात्यान्न व्यभिचरन्ति त्याः पुनरनियता एकत्वादीनामभाचे व्यतिकरणेन मिसञ्जक्रेभ्यो भवन्ति । तत्र "सुपो मे;" [ १०] इत्युपि कृते सुनन्तं पदं भवति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
०पा० ३ सू० १-३
विभक्ती ||२२|१४७॥ सुप इत्यनुवर्तते त्रिश इति च । सुपां त्रीणि त्रीणि वचनानि विभक्तीसंशानि भवन्ति । सु श्री जसिति त्रिको वर्गस्तस्य विभक्ती इति संज्ञा । त्रिकसमुदाये संज्ञा । विहिताऽवयवेऽप्युपचर्यते । एवं सर्वत्र सुपां त्रिषु योज्यम् । मियां विभक्तीसंज्ञायां न गुणो नापि दोषः । विभक्तीशब्दस्य कथं सिद्धि: । विपूर्वादभजे: “तिको खो" [२|३|१५० ] इति क्विच् । तस्मात् "कृदिकारादत्तेः " [३६१ । ३१ । म० सू०] इति ङीविधिः । महासंज्ञाकरणमुत्तरार्थम् ।
પર
तासामाप्पग्रस्तद्धलच ॥ १/२/१५= ॥ तस्य विभक्रीशब्दस्य हलोऽवश्च श्राकारपका रपरास्ता सां विभक्तीनां यथासंख्यं संज्ञा भवन्ति । धा इप् मा अप्का ता ईप् इति एताः संज्ञाः । सुपस्त्रिश इति चानुवर्तते । सुश्री जसिति वा । अम् औटू शसिति इप् । दाभ्यां भिखिति भा डे म्यां स्वसिति अप् । ङसि म्यां म्यमिति का। ङस् ओत् श्रामिति ता । ङिओस् सुप् इति ईप् । तासां ग्रहणं सुब्बिभक्त्युपादानार्थम् । "सपूर्वाया जायाः” [१ ।३ । २३] इत्येवमादयो निर्देशाः सौत्राः ।
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इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ||२||
समर्थः पविधिः ॥ १३१ ॥ परिभाषेयम् । समर्थपदाश्रयत्वात् समर्थः । पदसम्बन्धी विधिः पदविधिः | सर्वः पदविधिः समर्थो वेदितव्यः । समर्थानां पदानां विधिवैदितव्य इत्यर्थः । द्विविधं सामर्थ्यमेकार्थीभावः परस्परख्यपेक्षासविधिधिमा एकार्थी चामर्थ्यमन्यत्र व्यपेक्षा | एकार्थीभावे सङ्गतार्थः संस्युष्टार्थो वा समर्थः । व्यपेक्षायां सम्बद्धार्थः सम्प्रेक्षितार्थो वा समर्थः । वक्ष्यति इप् तष्छ्रितातीतपतितगतात्यस्तैः [२/२१] धर्मे श्रितो धर्मश्रितः । समर्थग्रहणं किम् ? व्याचष्टे मुनिर्धमें श्रितः शिभ्यो गुरुकुलम् | छात्र व्यपेक्षा नास्ति । “भा गुणोक्त्याऽर्थेनोमैः " [११३२७] । मदेन पटुर्मदः । समर्थग्रहणं किम् ? दन्ती भ्रर्मात मरेन पटुः शास्त्रेण । "अलदयार्थयति हितसुखरक्षितै:" [१४३३३९] | रथाय दारु रथदारु | समर्थग्रहणं किम् । गच्छ त्वं रथाय दाद देवदत्तस्य गेहे । "का भीभिः [१३:३२ ] । संखारायं संसारभयम् । समर्थन किभू ? ध्यानी निष्क्रामति संसाराद्भयमरणये । "ता" [11१1७०] । मोक्षस्य मार्गों मोक्षमार्गंः । समर्थप्रहणं किम् ? अनन्तसुखं मोक्षस्य मार्गः स्वर्गस्य व्रतम् | "ईच्छौण्णैः [२] | ray itesisai एडः । समर्थग्रहणां किम् । मूढः शक्नोऽक्षेत्र शौरडः पिवति पानागारे | पदग्रहणं किम् ? तिष्ठतु दध्यशानं खान । तिष्ठतु कुमारी, छत्रं हर देवदत्तात् । वर्णविधी समर्थपरिभाषा नावतरतीत्यानन्तर्यमात्रेण यणादेशस्तु विधिश्च भवति । "वा पदस्य [४/३/६४ ] इत्यत्र पदग्रहणं द्विमात्रस्य विशेषणमिति पदविधिरयं न भवतीति विकल्पेन तुक् ।
सः ॥ १३२ ॥ स इत्ययमधिकारो वेदितव्य श्री पादपरिसमासः । समुदाये वाक्यपरिसमाप्तिश्वाश्रयते तेन पदसमुदाये ससंज्ञा न प्रत्येकमिति । वक्ष्यति "याचचथावत्यसादृश्ये [१।३।६] | यथावृद्धमतियन् भोजय । नित्पत्वात् सविधे रस्वपवित्र देणार्थः प्रदर्श्यते ये ये वृद्धा इति । बीसायां यथाशब्दः । इति पुंलिंगनिर्देशः किमर्थः १ द्वादिभिर्विशेषसंज्ञाभिः समावेशी यथा स्यात् ।
खुप सुपा ॥ ११३ ॥ ३ ॥ सुबन्तं सुबन्तेन सह सो भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यमापादपरिसमाप्तेः । वदयति"इ" [१।३।२१] इत्यादि । धर्मश्रितः । लक्षणचं दं सुबन्तं सुत्रन्तेन सह सो भवति । यदृच्छया इतर्कितोपस्थिते चित्रीकरणे वाऽयमिष्यते । तेन काकतालीयादयः सिद्धाः । तथाहि यदृच्छ्या तालस्य पतनं सन्निहितं का श्रातर्कित उपस्थितः स काकस्तेन तालेन पतता इतः । अस्मिन्नर्थेऽनयोः सामान्येन सः । काकश्च वलव काकतालं तदिव काकतालीयम् | "इसे प्रतिकृती" [ ४१११५० ] इत्यधिकृत्य "कुशा. प्रा:" [ ४|१| ११६] इति चानुवर्तमाने "सातद्विषयात् " [ ४ | ३ | ३६० ] इति छो भवति । एवमआकृपाणीयमन्धकवर्तकीयम् ।
|| १३ | ४ || श्रधिकारो ऽयम् । यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो संत्रास्ते वेदितव्याः श्रमित्यतः प्राक् । १. न्दिरचि- अ० । २. महा अ० स० । ३. द्विविधम् इति अव० स० पुस्तकेषु नास्ति ।
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म. पा०३ सू० ४-६]
महावृत्तिसदितम्
वक्ष्यति "सहोके प्रसिना" [११] सूपप्रति । शाकप्रति । अस्वपदेन विग्रहः । प्रस्त्यत्र किंचित् सूपस्य मात्रा स्तोकमिति वा । अमान्ये मन्यन्ते नव्ययस्याल्ययभवनभव्ययोभाव इत्यन्वर्थसंज्ञा कर्तव्या । एतच्चायुक्तम् । असंख्यय झिसंगा युज्यते । अस्य च संख्या विद्यते । उपकुम्भेन । उपकुम्भाभ्याम् । उपकुम्भैः । दोषः खल्वपि मिसंज्ञायां "मिसर्वनाम्नोऽक प्राक्टेः" [१]११३०] हात येहाग्मति । उच्च । नापारति । पभिशाप प्राप्नोति उपानिकं प्रत्यमिकमिति । तथा "खिल्यो: "[३।१७६] "मुमचः" [१७५] इति झेः प्रतिषेध उच्यते दोषामन्यमहः दिवामन्या यत्रिः। स इहापि प्राप्नोति । उपकुम्भमन्य | उपमणिकमन्यः । इह च "मस्य च्वो"[२२५१५१] इति में प्रतिषेधो वक्ष्यत्ति दोषाभूतमहः शिवाभूता रात्रिरिति । स इहापि प्राप्नोति । उपकुम्भीभूतः । उपमणिकीभूतः। तस्माल्लघीवमी ह इति संज्ञा युक्ता । यद्येवं "कृकमिसम्भकुशाकीपाडवो मे: ५।३४] इत्यनेन सत्वस्य प्रतिषेधो न प्राप्नोति उपपय कार इति । अद्य स्थत्येति तत्र वर्तते । इसे च छु स्थो भवतीति प्रतिषेधः सिद्धः । पूर्वपदप्राधान्याच हसस्याभिधानवशाज्ञ यम् । हप्रदेशाः "हात्" [11१५५] इत्येवमादया । ____ झिविभक्त्यभ्यासवर्थाभावातीत्यसंप्रतिव्यद्धि-शब्दप्रभवपश्वायथानुपूष्ययोगपद्य-संपस्साकल्यान्तोकी ॥ १७३५ । विभक्ती-अभ्यास-ऋद्धि-अंर्थाभाव-प्रतीति-अप्रिति न्यूद्धि-शब्दप्रभव-पश्चात् यथा-त्रानुपूर्य-योगपद्य-सम्पत्-साकल्य-अन्तोक्ति इत्येतेष्व गु यत् झिसंज्ञ वर्तते तत् मुचन्तेन समथेन सह हसंशका सो भवति । विभक्त्यर्थः कारकमधिकरणादि । स्त्रीषु कथा वर्तते । अधिस्त्रि। अधिकुमार । ईबन्तेन वृत्तिः । "हश्च' [१।। ३५ ] इति नपुंसकलिङ्गातिदेशः । “प्रो नपि [91110] इति प्रादेशः ! "हात्" [१। ५ । १५१ ] इति सुप उप । अभ्यास:-समीपम् । उपकुम्मम् । उपगुरु । कुम्भल्याभ्यास इलर्थप्रदर्शनम् , तान्तेन वृत्तिरिति केचित् । तदयुक्तम् । उपशब्दोऽयं द्योतक: स उत्तरपदार्थव्यतिरेक न जनयति अभ्यासादीनान्तु शब्दानां वाचकानां सन्निधाने व्यतिरेकः प्रतीयते यथा घवश्च खदिरश्चेत्यस्यार्थे समुच्चयो धवखदिरस्य | तस्माद्वान्तन वृत्तिः । विभूतेरापिस्वं ऋद्धिः । मद्राणां ऋद्धिः सुमद्र मुमगधं वर्तते । पूर्वपदार्थस्य प्राधान्ये हसः । यदा तु मद्रा ऋद्धया विशिष्यन्ते तदा शोभना मद्राः सुभद्रा इति "तिकुमादयः" [१ | ३ | ८१] इति प्रसः | अर्थाभाव उत्तरपदार्थप्रध्वंसः । अभायो मक्षिकाणामक्षिकम् । विमक्षिकम् । निर्मक्षिकम् । अर्थग्रहणं किम् १ धर्माभावे इतरेतराभाये च मा भूत् । न भवति साक्षणो गौरश्वो न भवतीति । अतीतिरतीतत्वम् । स्वत एवातिक्रान्तत्वमित्यर्थः । अतीतानि तृणानि अतृणम् । नितगम् । एवं निशीतं निवातं वर्तते । न सम्प्रति असम्प्रति नेदानीमित्यर्थः । न सम्प्रति तैसकमतितसूकम् । नायं तैसूकस्याच्छादनत्योपभोगकाल इत्यर्थः । तिसका नाम ग्रामस्तत प्रागर्त तैस्कम् । विगम ऋद्धत्वृद्धिः । गन्दिकानामुर्विगमो दुर्गब्दिकम् | दुर्यवनम् । शब्दप्रभवः शब्दस्य प्रकाशमानता । श्रीदत्तस्य शब्दप्रमवः इविश्रीदत्तम् | तच्छीदत्तमहो श्रीदत्तम् । श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशत इत्यर्थः । पश्चात्-स्थानां पश्चादनुरथ पादातम् । यथार्थो योग्यता | अनुरूपं सुरूपी वहति । सादृश्यमपि यथार्थः । उत्तरत्रासादृश्य इति प्रतिषेधाज्जायते । सदृशं प्रतस्य सनतम् । सशीलम् । "हेकाले" [३/१८४] इति सदस्य सादेशः । पूर्व पूर्वमनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्त्यम् । अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु भवन्तः । ज्येष्ठानुक्रमेणेत्यर्थः । आनुपूर्व्य विन्यासविशेष इति यथार्यात् पृथगुक्तम् | योगपंद्यसम्पत्साकल्यान्तोतिषु सहशब्दो वर्तते । योगपद्ममेककालता । सचक्र धेहि । युगचक्रे घेहीत्यर्थः । सधुर प्राज । युगप रौ प्राजेत्यर्थः । सम्पत् सिद्धिः। श्रात्मभावनिष्पत्तिरित्यर्थः । वृत्तस्य सम्पत् क्षत्रस्य सम्पत् सवृत्तं साधूनाम् | सक्षत्र शालङ्कायनानाम् । साकल्य–सतुणमभ्यवहरति । सर्वेण सहाभ्यवहरतीत्यर्थः । श्रन्तः समातिः-प्राभूतपर्यन्तमधीते। एवं सबन्धं सटीकम् । अत्र परिसमाप्सिरसाकल्येऽप्यध्ययने प्रतीयत इति साफल्येऽनन्तर्भावः । इह आचण्डालं प्रवच्छतीति अन्तोक्किरभिविधिरप्यति ! परत्वात् "पर्यपाबहिरम्धवः कया [१३/१०] इति विभाषा भवति । वाचण्डालमाचण्डालेभ्य इति । कीप्सारी या हसो वसम्या:" [वा०] प्रत्यर्थम् । प्रतिपर्यायम् । अर्थमधं प्रति । पर्यायं पर्यायं प्रति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ०] १ पा० ३ सू० ७-१२
यावद्यथाधधृत्य सादृश्ये || १ | ३ | ६ || प्रसक्तस्य परिमाणमयधृतिः । सादृश्यं तुल्यता । यावत् यथा इत्येतौ शब्दात्रवृति श्रसादृश्य इत्येतयोरर्थयोः सुपा सह यथासंख्यं हसो भवति । यावदमत्रं यावदवकाशमति - थीन् भोजय । यावन्त्यमत्राणि तावतो मोजयेत्यवधायते । यथावृद्धं साधूनर्चय । यथापटु । यथाध्यापकम् । वृद्धानतिक्रमेणेत्यर्थः । उत्तरपदार्थानतिवृत्तिर्यथाशब्दलार्थी कसा सादृश्यञ्च । श्रवत्यसादृश्य इति किम १ याबद् दतं तावद्भुक्तम् । यथा देवदत्तस्तथेन्द्रदत्तः । पूर्वेणैव यथार्थे इसे सिद्धं सादृश्ये प्रतिषेधार्थमिह यथाशब्दोपादानम् । गुणक्रियामासादृश्ये हसो वक्रव्यः [वा ] गुणः - यथाशक्ति । यथाबलम् | किया—यथोपदेशम् | छाया -यथासुखम् । न वक्तव्यम् । श्रत्राप्युत्तरपदार्थानतिवृतिर्गभ्यते ।
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स्वोके प्रतिना ||१|३|७|| भौति निवृत्तम् । स्तोकं मात्रा । स्तोकेऽर्थे प्रतिना सह सुबन्तं सो भवति । सूपस्य मात्रा सुपधति । शाकप्रति । स्वोक इति किम् १ वृक्षं प्रति विद्योदते विद्युत् । लक्षयोऽत्र प्रतिशब्दी वर्तते ।
परिणाक्षशलाका संख्याः ॥ १३८ ॥ श्रतशब्दः शलाकाशब्दः संख्या परिणा सह हसो भवति । परिणाक्षशलाकासंख्यमिति सिद्धे बहुवचननिर्देशादिष्टसंग्रहो लब्धो वेति सिंहावलोकनद्रा । श्रतादयो यदा भान्ता एकलञ्चानशलाकयोः पूर्वोक्तस्यान्यथावृत्तौ परिशब्दो यदा वर्तते कितवव्यवहारविषये तदा वृत्तिरिव्यते । तथाहि पञ्जिका नाम घृतं यत्र पञ्चाक्षाः शलाका वा पात्यन्ते पञ्चस्वेषरूपासु पातयिताः जयत्यन्यथा पाते जीयते । श्रक्षेणेदं न तथा वृत्त ं यथा पूर्व जये । श्रपरि । शलाकापरि । संख्या - एकपरि । द्विपरि । त्रिपरि । चतुःपरि । परिशेति किम् ? सुबन्तमात्रे मा भूत् । श्रचादय इति किम् ? पाशकेनेदं न तथा वृत्तम् । एकत्वेऽशलाकयोरिति किन ? श्रज्ञाभ्यां न तथा वृत्तम्। कितवव्यवहार इति किम् ? देखेदं न तथा वृत्तं शकटे ।
या ॥ १|३|९|| वेल्पयमधिकारः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तद्रा भवतीति वेदितव्यः । इत उत्तरः सचि धिर्वा भवति पक्षे वाक्यमपि साधु भत्रति । पूर्वस्तु सविधिर्नित्यः । तेनास्वपदेन तत्र विग्रहो जं वः ।
पयंपाकूब हिरञ्चवः कया || १३|१०|| परि अप श्रा बहिस् अञ्च इत्येते सुबन्ताः कान्तेन सह वा सो भवति । परित्रिगर्ते वृष्टो देवः । वाक्यपक्षं परेवर्जने वा वचनमिति वा द्वित्वम् । परि परि त्रिगर्वभ्यः । परि त्रिगर्तेभ्यः । श्रप त्रिगर्तेभ्यः । " वर्जनेऽपपरिभ्याम् [ १/४/२१ ] । इति का। श्रापालिपुत्रं दृष्टो देवः । पाटलिपुत्रात् । श्राकुमारं यशः समन्तभद्रस्य । श्र कुमारेभ्यः | "का मर्यादाच वने" [१|४|२० ] | इति मर्यादाभिविध्योः का । बहिर्ग्रामम् । बहिर्ग्रामात् । हृदमेव ज्ञापकं बहि:शब्दयोग का भवति । श्रख । प्राग्ग्रामम् । प्राग्ग्रामात् । प्राची दिग् रमणीया इति विगृह्य "दिदेभ्यो वा केभ्योऽस्ताद्दिग्देशयोः काले" [१२] इति श्रस्तात् । तस्य "वेरु” [४] १६६] इत्युम् | "सुपो केः " [१ |४| १५० ] इति सुप उप् । पदत्वात् कुत्वम् । तेन योगे ता मासा सां बाधित्वा दिक्छन्दत्वात् का प्राप्ता तां बाधित्वा "तातसर्थे त्येन" [२९] इति वायां प्राप्तायाम्, “अम्बु” [११४३८ ] इति का भवति । कयेति किम् ? परिगतः । अपगतः । वर्जनार्थाभावात् का नास्तीति "तिकुप्रादयः [११] इति नित्यं षो भवति ।
लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती ॥ ११३१६१ ॥ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् | तद्वाचिना सुबन्तेन सह श्रभि प्रतिशळावाभिमुख्ये वर्तमानौ वा हसो भवति । श्रभ्यग्नि शलभाः पतन्ति । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति । अग्निमभि पतन्ति । अग्निं प्रति पतन्तीति वाक्यम् । अत्राग्निना चिह्नन शलभपातो लक्ष्यते । "बीप्सेत्थग्भूत[१४ [१३] इप | "भागे चानुप्रतिपरिणा । [ १।४।१२ ] इति चेप् । लक्षणेनेति किम् ? लुनं प्रति गवः । दिङ्मोदात्तत्रैव पुनरागत इत्यर्थः । श्राभिमुख्य इति किम् श्रभ्या गावः । श्रभिनवः प्रतिनवोऽङ्को याममिति । यद्यपि पूर्वपदार्थप्रधानो इसस्तथापीदा र्यविशेषाभावेऽन्यपदार्थेऽपि स्यात् । अभिप्रती इति किम् १ येनाग्निस्तेन गतः । येनेत्यस्याग्निना सद् इसो न भवति ।
क्षणे
।
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[सं०] १ पर० ३ सू० १२-१७]
महावृत्तिसहितम्
समयाऽलुः ||१|३|१२|| समयावाची अनुशब्द उपचारात् समया । यस्य समया यत्समया । मुख्येन समयाशब्देन योगाभावादिभ्न भवति । श्रत एव "न झित" [ १/४/७२ ] इत्यादिनाऽपि न तासप्रति बेधः । श्रनुर्वत्समवावासी न लक्षमतेन सह वा हसो भवति । अनुवनं गतोऽशनिः । बनमनुगत इति वाक्यम् । “भागे चानुप्रतिपरिया" [१।४।१२ ] इति लक्षणा इपू । बनेन समीपस्थमशनिगमनं लक्ष्यते । "म्हि विभवत्यभ्यास " [१५] इत्येवं सिद्धे विकल्पार्थं वचनम्। श्रत्समयेति किन ? वृक्षमनु विद्योतते ।
आग्रामिना ||१|३|१३|| अनुरिति वर्तते । लक्षणेन च । श्रनुनाऽऽयामिना लक्षणभतेन सह वा सो भवति । द्वयोः प्रकृष्टहीनयोर्दी योगेऽनुः प्रयुज्यमान उसवोर्दोर्घत्वमाह । तत्र प्रसिद्ध SSयामेन लक्षणेनातिशयेन दीर्घेण वासवृत्तिर्भवति । अनुगङ्ग' वाराणसी । अनुशोनं पाटलिपुत्रम् । वाक्यमपि साधु भवति । गङ्गामन्वायता नाराणसी | नयावामेन पत्तनायामो लक्ष्यते । लचणं इप् । अथवा "हेतावनुमा” [११४|१३] | 'भाइ' [ १|४|१४ ] हत्तीञ् । गङ्कया सहायतेत्यर्थः ।
तिष्ठद्ग्वादीनि च ॥ १|३|१४|| तिष्ठद् इत्येवमादीनि च शब्दरूपाणि हसंज्ञानि भवन्ति । समुदाया एते संज्ञाः कार्या (कार्यार्थः) पाठादेवं निपात्यन्त इत्यर्थः । तिष्ठद्गु कालविशेषेऽन्यपदार्थे । तिष्ठन्ति गावो बस्मिन् काले दोहाव तिष्ठद्गु । " त्यो [५| १ | १५७ ] इति लटः शत्रादेशो निपातनाद्वा । 'स्त्रीगोर्लीच: ''[११११८] इति प्रादेशः । वहन्ति गावो यस्मिन् काले वहा । श्राथतीगवम् । पूर्वपदस्य निपातनात् पुंवद्भावाभावो ऽकारश्च सान्तो निपात्यते । खलेसम्। निपातनादीपोऽलुप् । लूनश्रवम् । लूकमानश्रवम् । तूयन्ते यवा यस्मिम् काले त्यद्योरिति लटः यानादेशः । पूराववम् । पूयमानत्रवम् । संहृतश्रवम् । संहियमाण्यवम् संहृतबुसम्, संह्रियमाणवुसम् | एतॆ कालविशेषेऽ पदार्थ उक्ताः । समभूमिसमपदातिशब्दौ पूर्वपदार्थप्रधान समत्वं भूमेः समत्वं पदातैरिति । उत्तरपदार्थप्रधाने तु समा भूमिः समभूमिति स एच । इमे पूर्वपदस्य केचिन्मकारान्तत्वमपीच्छन्ति | समम्भूमि । समम्पदाति । सुषमम् । विषमम् । निष्यमम् | दुष्प्रमम् । श्रवरसमम् | समशब्देन पूर्वपदार्थप्राधान्ये हसः । अत्र शोभनलं समस्येत्येवमादिवाक्यमप्यहम् । उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु सः । समाशब्दः संवत्सरयान्वि । तेन बक्ष्यमाणो हसः | आयतीसमा । श्रायतीसमम् । पापसमम् । पुण्यतमम् । केचित्तु समशब्देनैव भासमिच्छन्ति । श्रावया सममायतीसमम् | प्रगतमहः प्राहृम् (प्राह्णम्) | उत्तरपदार्थप्राधान्ये सः । प्राह्णे (हृ) कल्याणन[मानावुदितौ तिष्यपुनर्वसु । प्रस्थम् । प्रमृगम् । प्रदक्षिणम् । श्रपदक्षिणम् । सम्प्रति ।
सम्प्रति । इच् दण्डादशिड | मुसलामुसति । " इच्" [४ । २ । १२८ ] इति इच् सान्तः । “अन्यस्यापि " [४/३/२१२] इति पूर्वपदस्य दीत्वम् । शब्दोऽवधारणार्थः । तिष्ठद्ग्वादीन्येव नान्यैः सह वृत्ति लभन्ते । परमं तिष्ठद्गु | "सन्महत्परमो० " [ ३१२१५६ ] इत्यादिना सो न भवति |
पारे मध्ये तया वा ॥ १|३|१५|| पारे मध्ये शब्दों तान्तेन सह हसो भवति वावचनात्तासोऽपि । प्रकृ तेन वामन वाक्यस्य साधुत्वमभ्यनुज्ञायते । सन्नियोगेन वानयो रेकारान्तता निपात्यते । पारं गङ्गायाः । मध्ये गङ्कायाः | पारेगङ्गम् | मध्येङ्गम् । तासपक्षे गङ्गापारम् । गङ्गामध्यम् |
संख्या वंश्येन || १३|१६|| विद्याजन्मादिकृतः सन्तानो वंशः । तत्र भवो वंश्यः । संख्या वंश्यवाचिना सह इस्रो भवति । द्वो मुनी व्याकरणत्थ वंश्यों द्विगुनि व्याकरणास्य । अत्र सम्बन्धे ता । यदा ब्याकरास्याचार्चयोरभेदवित्रन्ज्ञा यावेतौ द्वौ मुनी तात्रैव व्याकरणमिति सुनी वंश्वो द्विमुनि व्याकरणमिति तदासामानाधिकरण्यं भवति । एवं सप्तकाशि | त्रिकोशलम् । एकाश्रयस्य वसस्य चापवादोऽयम् ।
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नदीभिः || १३|१७|| बहुवचननिर्देशादर्थस्यदं ग्रहणम् । नदीवाचिभिः शब्दैः सह संख्या इस भवति । स सिन्धवः समाहृताः सप्तखिन् । सप्तगङ्गम् । द्विवभुनम् | तिलो गोदावर्यः समाहृताः चिंगो दावरम्। “कृष्णोवपणपूर्वांया भूमेः सान्स इप्यते । गोदावर्याश्च नद्याश्न संख्याय उत्तरे यदा ॥” इति
१- वाक्यमभ्यूयम् अ०, ३०, स० ॥
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
प्रत्यः सान्तो भवति । नदीशब्दोऽपि नदीवचन इति तेनापि वृत्तिः । पञ्चनदम् । श्रञाऽप्यः सान्तः । चकारः किमर्थः ! समाहारे यथा स्यादि मा भूत् । द्वीरायतीको देशः । एका नदी एकनदी |
खान्यपदार्थे ||१३|१८ ॥ संग्येति नित्रनम् । नदीभिरिति वर्तते । श्रन्यपदार्थे खुविषये नदीभिः सह सुमन्तं स भवति । उन्मत्तगयंदेशः । लोष्टितगङ्गम् । शनैर्गङ्गम् । तूभ्योगङ्गम् । अत्र वृत्तिपरेन संज्ञा गम्यत इति सामर्थ्यानित्यः सविधिः । उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन् देशे इति सादृश्यमात्रेरणार्थकथनं यथा गौरिय स्यार्थे गच्छतीति । खाविति किम् ? शीघ्रा गन्ना वस्मिन देशे स शीघ्रगङ्गो देशः । श्रन्यपदार्थ इति किम् ? कृष्णावेणा । कृष्णावेण्या नाम नदीविशेषलक्षणः ।
५०
[ श्र अ० १ पा० ३ सू० १८-२६
षम् ॥ १।३।१६ ॥ श्रधिकारोऽयं यागु बसात् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः संज्ञः सो भवति इत्येवं वेदितव्यम् । वक्ष्यति "इस च्छ्रिसातीवपतितस ताश्यस्तै [ १ ३२१ ] | धर्म थितो धर्मश्रितः । नपा निर्देशः किमर्थः १ दह वीरपुरुपको ग्राम इति पूर्वापरप्रथमादिसूत्रेण प्राप्तः स्वपदार्थविषयत्वादन्तरङ्गः पम्रो बहिरङ्गं न बसेन वाध्य यथा स्यात् । उत्तरपदार्थप्रधानचं पसस्याभिधानवशात् ।
इपा च प्रतापन्नं ॥ १२० ॥ इन्तेन सह प्रताप ने शब्दरूप घसो भवति । प्राप्तो जीविकां प्रास जीविकः । श्रापन्नी जीविकामापत्रजीविकः ।' 'खीगोनच : ' [919) ८ ]इति प्रादेश: । चकारः किमर्थः । अकार - देशसमुच्चयार्थः । प्राता जीविकां प्रामाजीविका । ग्रापन्ना जीविकामापन्ना नोनिका । प्रपञ्चार्थमिदं सूत्रम् । बसेनायेतत् सिध्यति । यदा कर्मणि तदा मामा जीनिका येनेति विग्रहो यदा कर्तरि तदा पाता जीविका यं पुरुषमिति 1 इताितीत पतितगतात्यस्तैः ॥ १|३|२॥ तच्छब्देन प्राप्तापन्नयो इन् । इन्तं श्रित श्रतीत पतितगत अत्यस्तइत्येतैश्च सह पसां भवति । जीविकां प्राप्तो जीविकाप्रात: । सुख्खापन्नः । धर्मश्रितः । संसारमतीतः संसारातीतः । नरकं पतितो नरकपतितः । मोक्षं गतो मोक्षगतः । तुद्दिनमत्यभ्यस्तुहिनायतः । इचिति पदं सूत्रे वानिर्दिष्ट "शोकं न्यकू” [ ५।३।३३] इति न्यक्संज्ञ' तस्य वृत्तौ पूर्वम्" [१३३/६७ ] इति पूर्वनिपातः । महान्तं धर्मश्रित इति सापेक्षखाद्वृत्यभावः । यदा मांश्वासी धर्मश्च महाधर्म इति तदा महाधर्मश्रित इदि भवति ।
स्वयं क्लेन ||२||२२|| स्वयमित्येतत् भिज्ञ कान्तेन सह सो भवति । इयधिकारोऽसम्भवादिमं योगमुलुत्य गच्छति । स्वयन्धातौ पादौ । स्वयंगुप्ताः । “कृद्ग्रहणे विकारकपूर्वस्थापि महणम् ।" स्वयंविलीनमाज्यम् । ऐकपचं प्रयोजनम् । स्वयंधौतस्येदं स्वायं धौतम् ।
खट्वाऽकमे ||१|३|२३|| आचार्यासनं खट्वा । उत्पथगमनमक्रमः । खट्वाशब्द इन्तः क्तान्तेन हो भवति क्रमे । खट्वा जाल्मः । याचितः । खट्वा युतः । सर्व एते धनीत पर्यायाः । गुरुभिरनुज्ञातेन खट्वा प्रारोहया तदन्यथाकरणममात्र प्रतीयते । अत्रापि वृत्तिपदनाक्रमों गम्यत इति नित्यः विधिः । वाक्यं सादृश्यमात्रेण । ग्रक्रम इति किन खट्वामादोऽध्यापकोऽध्यापयति ।
सामि ||१||२४|| सामि इत्यद्धवाचिभिसंज्ञ वत् सुबन्तं क्लान्तेन घसो भत्रति । सामिकृतम् । सामिमुक्तम् | सघावादुत्पत्तिः प्रयोजन | बियु पेक्षया गच्छति ।
कालाः ||१|३|२५|| कालवाचिनः शब्दा इन्ताः कान्तेन सह पसो भवति । "कालाध्वन्यविच्छेदे " [४] इत्यनेन या विहितेषु तस्या उत्तरसूत्रेणाक्तान्तेन वृत्तिं यति । विच्छेदे क्लान्तेनेदोदाहरणम् । पण्मुहूर्त्ताश्चराः । ते उत्तरायणेऽहर्गच्छन्ति । दक्षिणायने रात्रिम् । तेन नास्त्यविच्छेदः । श्रहविसृता मुहूर्त्ताः । श्रहःकान्ताः । "रोऽसुपि [२३७८] इत्यो नकारस्य रेकादेशः । रात्र्वारूढाः । रात्रिनंक्रान्ताः । मासं प्रमितो मासप्रमितश्चन्द्रभाः । मासं प्रभातुमारब्धः प्रतियन्द्रमाः । तेन विच्छेदः ।
अविच्छेदे ||१३|२६|| कान्तेन निवृत्तन् । श्रविच्छेदोऽत्यन्तसंयोगः । कालाः इयन्ताः सुबन्तेन सह पो भवति अविच्छेदे । विच्छेदश्च कालस्य द्रव्यक्रियागुणैः सम्बन्धिभिर्व्याप्तिः । श्रत्यन्तं मुखमत्यन्त
– प्राप्तः । सुखमापनः । सुखा-म०, स० ।
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अ० १ पा० ३ स० २७.३१] महावृत्तिसहितम् सुखम् । अत्यन्तरमणीयम् । सर्वरात्र कल्याणी । सर्वरात्रशोभना | "कालाध्यन्यविच्छेद [
१५] इतीप् । भा गुणोत्तयाऽनोनैः ॥१॥३।२७॥ मान्तं गुग्णोक्ल्या अर्थशब्देन गुणवाचिभिश्च शब्दैः सह पसो भवति । शङ्कलया खण्डः शङ्कलाखगवः । “गुणवचनादुप्" [वा० १२३]" इति मतोरुम् । एवं गिरिणा काण: गिरिकाणः । मदेन 'पटु दपटुः । कुसुमैः सुरभिः कुसुममुरभिः । कार्यकारणभावलक्षणमत्र सामर्थ शकुलादिकृतत्वात् खण्डलादीनाम् । उक्लिग्रहणं किमर्थम् ? उच्यते इत्युक्तिः । गुणनोक्तिगुणोक्तिः । गुणद्वारेण द्रव्ये यः शब्दो वर्तते तेन वृत्तिर्वथा स्यात् केवलेन गुणन मा भूत । मदन पाटकम् । वृत्तेन पाटरम् । अर्थेन-धान्येनाथों धान्याशः। पुण्येनार्थः पुण्यार्थः । अर्थशब्दोऽत्र प्रयोजनवाची । जनैः-मापेणोनो माषोनः । माषविकलम् । एतैरिति किम् ? गोभिपावान् । अन्यत्र कार्यकारणभावः । गोभिः कृतत्वादपावस्वस्य | इह करमान भवति ? अक्षणा कागुः । असामर्थ्यात् । मात्र कायलमति कृतमन्येन केनापि काण: कृतः । केवलमक्षणा काणखयुक्तो लक्ष्यते । इह कमान्न मलति । दाना पद्धः । तेन परः । अभिधान्गत ।
पूर्वावरसदशकलहनिपुणामअश्लचणसमैः ॥१३॥२८॥ पूर्व अवर-सहश-कलह निपुग्ण-मिश्रा श्लदण सम इत्येतैः सह भान्तं पतो भवति । मासेन पूर्वो मासपूर्वः । संवत्सरपूर्वः । मासवरः । संवत्सरावरः । अस्मादेव वचनाद्रा। हतो त्रा। पित्रा सहशः पितृसहशः। "भाऽतुळोपमाभ्यां तुल्यायः" [1] इति भा । विश्या सदृशी विद्यासहशः। असिना कलहोऽसिकताहः | बाचा निपुग। वानिपुग्णः। गुईन मिश्रा गुडमिश्राः । तिलमिश्रा धानाः। बाचा श्लक्ष्णो वाक्श्लक्ष्यः । जिह्वाश्लक्ष्यः । मात्रा समो मात. समः । कुलेन समः कुलसमः ।
साधनं कृता बढुलम् ॥१॥२६॥ साधन कारक तत् कृदन्तेन बहुलं षसो भवति । कत-अहिना इत्तोऽहिहतः । करणंम्-विपण हतो विषड्तः । "कृष्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि । ( ननिर्मिनः ) नखनिभिन्नः । नया देवदतन नखनिर्मिनः देवदत्त ननिर्भिन्नः। कर्म-ग्राम गमी पामगमी। श्रादनं बभतरोदनभुतः। अपादानम् अामनिर्गतः। अधमजुगुप्सुः । सम्प्रदानन्-बादाभ्यां वियते पादहारको भूपः । अधिकरणगले बोपने गलचीपकः । "युब्या बहुला' [२।३।६४] इति बहुलवचनादुभवत्र कर्मणि एच् । क्वचिन्न भवति | दात्रेण लूनत्रान् । परशुना छिनवान् । व्यान्तरधिकार्थवचन इध्यते । कुक्कु सम्पात्याः कुक्कुटसम्पात्या ग्रामाः । अत्यासन्नताकथनम् । काकपया नदी | श्वलेखः कूमः । कपटक संचेय श्रोदनः । बाष्पच्छेद्यानि तणानि । क्वचिन भवति । काः पातव्याः। काकः पानाया नदी। कांचदधिकाथाभावेऽपि । सांप तृणोपेन्व्यम् । पूर्वमुतरच कार कधिमालवणं सावधानमःसंध प्रपञ्चः । साधनांर्मात किम् ? भिक्षाभिषितः । हेतौ भा। कदमहगां किम् ? कृदन्तेनव वृत्तियथा स्यात् सुबन्तेन मा भूत् । अभ्रावलिप्ती । "तादल्पे" [३११/४५] इत्यकासन्तान विधिः सिद्धः । सुलिङ्गयुक्तादपति !
भक्ष्याशाभ्यां मिश्रणव्यजन ॥१॥३॥३०॥ मिश्रणयजनवाचिन। सुबन्तन भक्ष्यान्नवाचिम्यां यथासंख्यं षसो भवति । गुइन मिश्रा धाना गुडधानाः । वृत्तो किथाया अन्तावादप्रयोगः । एवं गुहपृथुकाः । तिलपुथुकाः। ब्यन्जनम्-दना उपसिक आंदना दध्यादनः । धृतादनः ।
प्राप्तदर्थार्थलिहितसुखरक्षितैः ॥१३॥३१॥ तस्मै छदं तदर्थम् । अवन्तं तदर्थनार्थशन्दन च बलि-हित-सुख-रक्षित इत्येतश्च सह पसो भवति । रथाय दारु । रथदार । कुण्डलीय हिरण्यभू । कुण्डलाइरएयम् । बहुलग्रहणानुवृत्तः प्रकृतिवितिभाव तदर्शन वृत्तिः । विकृतिः प्रकृत्या सह इत्यर्थः । इह न भवति । न्धनाय स्थाली । अवहननायोलूखलम् । इदमेव शापकं तादध्ये अब् भवति | कथमश्वघासो इस्तिविद्यात । तासेन सिद्धम् | अर्थशब्देन निल्य वृत्तिः । मात्रे इदं मात्रयम् । त्रिलिङ्गता लोकाश्रयत्वाल्लिकस्य । आतुरार्थ
१. मानर्थम् । पिनं इदम, पित्रर्थम् । विधि-ब० ।
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और यारमा
[अ० । पा० ३ सू. ३२-1
यवागूः । श्रातुरायः रूपः । देवाय बलिः देववलिः । गृहमलिः । तादर्थे अप् । गोभ्यो हितं गोदितम् । अश्कहितम् । हितयोगे इदमेव ज्ञापकमपः । गोभ्यः सुखं गोसुखम् । "मप चाझिच्या" [11४/७५] हत्यादिना अप् । गोभ्यो रक्षितं गोरक्षितम् । तादाऽप् ।
का भीभिः ।।९।३।३२॥ बहुवचनादर्थविज्ञानभ् । फान्तं भीवचनैः सह घसी भवनि । वृकेभ्यो भोः वृकभीः। वृकेभ्यो भीतो वृकभीतः । वृक्रेभ्यो भयं वृकभयम् । वृकेभ्यो भौतिः वृकभीतिः । सुष्टनुग्रहार्थ पूर्वस्यायं प्रपञ्चः ।
__ मुक्ततापतापोढपतितापत्रस्तः प्रायः ॥१३॥३३॥ मुक्त-अपेत-अपोद-पतित-प्रपत्रस्त इत्येतैः सह कान्तं प्रायः घसो भवति । भवान्मुक्तो भयमुक्तः । पापापेतः। सुतापोदः । स्वर्गपतितः । तरनापत्रस्तः । सर्व त्रापादाने का । प्राय इति किम् ? प्रासादात् पतितः । भोजनादपत्रस्त इत्येवमादी न भवति ।
स्तोकान्तिकदार्थकच्छू लेन ॥९॥३॥३४॥ स्लोक-अन्तिक-दूर इल्वेवमर्थाः शब्दाः कृच्छ्रशब्दश्च कान्ताः कान्तेन सह घस्त्री भवति । स्तोकानक्तः। अन्तिकादागतः। अम्बासादागतः । दूरादागतः। विपकृष्टादागतः। कृच्छ्रान्मुक्तः । कृच्छ्राल्लब्धः । "स्तोकार्थकृष्छु भ्योऽपादाने का" । दूरान्तिकार्थेभ्य इन्चति का । "कायाः स्तोकादेः" [४॥३/१२] इत्यनुप् ।
ईपछौण्डः ॥१॥३॥३५॥ ईबन्तं शोएडादिभिः सह पसो भवति । शौण्डैः सहचारताः शौएडाः । अक्षेषु प्रसक्तः शौएडोऽवशोएडः । पानशौण्डः। वृत्तो प्रतिक्रियाया अन्तर्भावादप्रयोगः । सर्वत्र अधिकरणे ई । शौण्ड, धूर्त, कितब, व्याड, संवीत, समोरण, अन्त' बने अन्तर्वनान्तः । अधि राज्ञि अधि गजाधीनम् । "अपडलासितवधियो:'' [१२।१६] पति खः । यदा पूर्वपदार्थप्राधान्य विभक्त्यर्थश्च तदा हसः । श्रन्तखम् । अधिस्त्रि । पण्डित । कुशल { चपल । निपुण ।
सिखशुष्कपकवन्धैः ॥२३॥३६॥ सिद्ध-शुष्क पक्र-बन्ध इत्येतैरीबन्तं घसो भवति । काम्पिल्ये सिद्धः काम्पिल्यसिद्धः । सांकास्यसिद्धः । ऊके शुरुकः । अशुष्कः । छायाशुष्कः । कुम्भीपकः । स्थालीपक्वः । चक्रबन्धः । चारकबन्धः । "साधनं कृता" [१।३।२३] इत्यस्यैव प्रपञ्चः।
ऋणे व्यैः ॥१३॥ ईवन्तं व्यान्तैः सह पसो भवति णे गम्यमाने । मासे देयमूणं मासदयम् । मासैकदेशे मासशब्दः । अधिकरणे ईपू । एवं संवत्सरदेयम् | नियोगतः कार्यमुणम् । तेनेहापि भवति पूर्वाह्नज्ञेयम् । प्रातरध्येयम् । अत्र यत्यान्तेनैवाभिधानादिह न त्यात् । मासे दातव्यम् । मासे दानीयम् । भूण इति किम् १ मासे देया भिक्षा।
खौ ॥१॥३॥३८॥ खुवषये ईबन्तं सुबन्तेन सह पसो भवति । अरण्येतिलकाः । वृत्तिपदेन संज्ञा गम्यत इति नित्यः सविधिः । "ईपोऽदलः'' [१३।१२५] इत्यनुम् । एवमरण्येमाषकाः । वनेकसेरुकाः । बनेवल्वजकाः । पूर्वाह स्फोटकाः । पेपिशाचिकाः ।
नाहोरात्रमेवाः ॥१३॥३६॥ भेदा अवयवाः । क्लान्तेन सह अहोरात्रभेदा ईबन्ताः घसा भवति । पूर्वाङ्गकृतम् । अपराह्नकृतम् । पूर्वरात्रभुक्तम् । अपरयत्रभुतम् । भेदाहणं किम् ? "उलूखलेराभरणः पिशाची यदभाषत । एतत्तु ते दिवा नृत्त रात्रौ नृत्तन्नु द्रक्ष्यसि ।"
तत्र ॥१॥३॥४०॥ के नेति वर्तते । तत्रेत्येतत् क्लान्तेन सह पसी भवति ! तऋकृतम् । तत्रभुक्तम् | तत्रपीतम् । ऐकपद्यं प्रयोजनम् ।
क्षेपे ॥१॥३॥४१॥ क्षेपः कुत्सा । क्षेपे गम्यमाने ईवन्तं क्लान्तेन सह बसो मवति । "कूद्माणे विका
१.-हयार्थम् प० । २. बने अन्तः ( वनान्तः ) वसति म०, १०, स.। ३.-हकाः । वने हरिद्वषाः । वने १० ।-एकाः । बने हरिनुकाः । धने ब०, ख।
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म०१ पा० ३ सू० ४२-४३] महावृत्तिसहितम् रकपूर्वस्यापि ।" अगोमनस्थितं । परमात् । काम पनि तोटीग: । "पे कृति बहुलम्" [३।३।१३२] इत्यनुप् । एवमुदकेविशीर्ण भस्मनिहुतम् । निष्फलं तवेदमित्यर्थः ।
ध्वाः ।।शहर|| के नेति निवृत्तम् । क्षेप इति वर्तते । बहुवचनादनिर्देशः । ध्वास्यचिमिः सुबन्तं बसो भवति क्षेपे। तार्थे ध्वात इव तीर्थध्याक्षः। वृत्तविवार्थस्यान्तर्भावः । तीर्शकाकः। प्राइवायसाः। अनवस्थित एवमुच्यते । ध्याक्कैरिस्यनिर्देशात्तत्सदशानामपि ग्रहणमिति केचित् । तीर्थश्वा । तीर्थसारमेयः । तीर्थशृगालः । क्षेप इति किम् ? तीर्थ भ्वासो बास्यते ।
पासमितादयश्च ॥२॥४३॥ क्षेप इति वर्तते । पात्रेसमितादयश्च शब्दा गणपाठादेव निपातिताः षसंज्ञा भवन्ति क्षेपे । पात्रे एव समिताः पात्रेसमिताः । पात्रेबहुलाः । न क्वचित्कार्य इति क्षेपो गम्यते । निपातनादनुप्। उदुम्बरे मशक हव उदुम्बरमशकः | उदुम्बरकृमिः । पकच्छपः । अवटकच्छपः । पमराफः । उदपानमण्डूकः । नगरकाकः । नगरवायसः। एतेयिवार्थो वृत्तावन्तर्भूतः । मातरिपुरुषः । अयुक्तकारीत्यर्थः । पिण्डीशरः। निरुत्साह इत्यर्थः । गेहेष्वेडी। गेहेनदीं। गेहेनती। गेहेविजिती । गेष्ठेव्याडः। गर्भनृप्तः । गर्भेडसः । श्राखनिकवकः । गोष्टेशरः । गोष्ठेविजिती । गोष्ठेचेडी। गेहेशूरः । गेहेमेही । गेहेदासः । गोष्ठेपटुः । गोष्ठेपण्डितः । गोष्ठेप्रगल्भः । कर्ण चुरुनुराः। चकारोऽवधारणार्थः । पात्रेसमितादय एव न वृत्त्यन्तरं लभन्ते । परमाः पात्रेसमिताः । अत एव क्वान्तेनापीह वृत्तिः सार्षिका अन्यथा 'क्षेपे' [३३३१४] इत्यनेनैव सिद्धा स्यात् ।
पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलं यश्चैकाधये ॥४४॥ एकाश्रयः समानाधिकरणम् । पूर्वकाल बाचि-एक्सर्व-जरत्-पुराण नव-फेवल इत्येते सुबन्ता एकाश्रये सति सुबन्तेन सह यसंशः सो भवति पसं शश्च । पूर्घः कालो यस्य स पूर्वकालः । सम्बन्धिशब्दत्वादपरकालेन तस्य वृत्तिः । पूर्व स्नाताः पश्चादनुलिता स्नातानुलिसाः । कृष्टसमीकृतम् । छिन्नारुटम् । दग्धप्ररूढम् 1 एकराटी । एकचर्या । एकभिक्षा । सर्वदेवाः । सर्वपदार्थाः । जरद्धस्ती । जरतवः । पुरा भवं पुराणम | "सायबिरम्प्राहे प्रगेमिभ्यस्तनद" [३।२।१३१] इति तनट । श्रत एवं निपातनात्तखम् । पुराणान्नम् । पुराणशास्त्रम् । नवावसथः। केवलमसहावं ज्ञानं यलगानम् । विशेषणवृत्रयं प्रपञ्चः। चशब्दः पसंशासमावेशार्थः । अन्यथा राजपुरुषादी कृतार्था पसंज्ञा बाध्येत । भोधिका गौः मोरकगची। "युक्तपुंस्क" [३:११६] आदिना पुंवद्भायः,"न वुहृत्कोड:"[३।१४६] इति प्रतिषिद्धो असंज्ञायां "पुंबध जातीयदेशीये" [१:३।११४] ति पुनर्भवति । घसंशाश्रयो "गोरहदुपि'' [UN६४] इति टः सान्तः । इत उत्तरमैकाभयाधिकारो यावत् "मयूरयंस कादयरच.' [३।३।६६] इति । एकाश्रय इति किम् १ एकस्या साटी ।
दिपसंख्यं खौ ॥२३॥४५॥ दिग्वाचि संख्यावाचि च सुबन्तमेकाश्रये सुबन्तेन सह यसो भवति खुविषये । पूर्वेषुकामशमो । अपरेपुकामशमी । पूर्वकृष्णामृत्तिका । अपरकृष्णमृत्तिका । दक्षिणपञ्चालाः। उत्तरपञ्चालाः। संख्या: पञ्चाम्राः। पञ्चवटाः । सप्तर्षयः । खाविति किम् १ दक्षिणा ग्रामाः। पश्च ग्राम्नाः।
हृदर्थयुसमाहारे ॥१३॥४६॥ दिसंख्यामिति वर्तते । हृदविण्ये धौ परतः समाहारेऽभिधेये दिक्संख्यमेकाश्रये सुबन्तेन सह षसो मर्वात । दिक । हृदपूर्वस्यां शालायां भवः पसे कृते समुदायात् "दिगादेखी''[३.२।८५] इति णः । पौर्वशास्तः । श्रापरशालः । धौ-पूर्वा शाला प्रिया नस्य पूर्वशालाप्रियः । अपरशालाप्रियः | अवयवापेक्षया षसः। पूर्वपदस्य पुंबद्भावः । दिशां समाहारो नास्ति । क्रियागुणापेक्षयाऽपि समाहारे अनभिधानम् । संख्या । हृदर्थ-पञ्चभिः शकुलीभिः क्रीतः पक्षशष्कुलः। अनेन
1. गेल्हेवाही अ०, बा । २.-प्रगल्भः । कर्ण दिरिटिशः । कर्णे प्र०, ब०, स० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [.. पा० ५ ५०५०-२॥ पसे कृते तस्य "संज्ञावी रश्च' [१।३।४७] इति रसंज्ञायां अाहींन्यस्य टणो "राहुबखौ ३।४।२६] इत्युप् । "चुप्युप्' [1986] इति स्त्रीवस्योप । पञ्चानां नापितानामपत्यं पाञ्चनापितिः। 'रस्थोवनपत्ये [
३ ४] इति वचनं ज्ञापकं हृदर्थेऽपि से हद पत्तिर्भवति । यौ-यच गावो धनमत्येनि पञ्चगवधनः। अवयवसापेक्षया
पोरदुपि'' [४२११४] इति रः सान्तः सिद्ध । देऽहनी नातन्य द्वयानः । “एभ्योऽशोकः'' [१९/] भूत्यहादेशः । समाहारे-पञ्च गुलाः समाहताः पचपूली । अनेन पसः । उत्तरसूत्रेण रमशायां "रात्" [३।१,२५] इति डीविधिः । कथं घएणगरी ? यत्रापि क्रियागुणापेक्षया समाहारोऽस्ति । लब्धा शोभना चेति गभ्यो समाहारन्यैकत्वादेकवचनम् । ननु समाहारः समूहः स तु हुदर्थ एव न पृथक समाहार निर्देशात् । समूहार्थस्य त्यस्यानुपपत्तिः पञ्चानां कुमारीणां समाहारः पञ्चकुमारि । त्योत्पत्तौ हि "रस्योबनपस्ये' [२।७/७४] इत्युप् प्रसज्येत । ततश्च "हवुप्युपा [3/118] स्त्रीत्यस्योप स्वान् ।
संख्यादी रश्च ॥१॥३७॥ हृदथा समाहार इत्यत्र संपादियः ग उक्तः स रमंशो भर्वात हृदथे । द्वावनुयोगी वेत्त्यधी का दूत्रनुयोगः । "रस्योधनपत्ये [३।१७४] इत्यस उप । पञ्चसु कपालेगु संस्कृतः पञ्चकपालः | यौ-पञ्च गायः प्रिया अस्य पञ्चनावप्रियः । "नाघो रात्" [५२१०२] इति ः सान्तः। समाहारे-पञ्चपूली। चशब्दः पसंज्ञासमावेशार्थः । द्वे अंगुली समाह द्वयङ्गुली। "वेऽङ्गुलेर्मि संख्यादेः" |४२८] इति नः सान्तः । “रात्" [३।१।२५] इति छोविधिश्च सिद्धः।।
कुत्स्यं कुत्सनैः ॥११॥४८॥ कुत्स्यबाचि सुचन्तं कुत्सनवाविना पसो भवति । वैयाकरणखसूचिः । प्रत्यासत्त: शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य कुत्सायामयं सविधिः। रूपसिद्धि' पृष्टो निःप्रतिभः सन् यः सं सूचयति वीक्षते स वसूची ! स्त्रसूचित्र कुत्सनम् । विशेषणस्य पनिपातार्थ प्रारम्भः । एवं क्षत्रियभीरुः । श्रोत्रिर्याकतवः । भिक्षुधिटः । मीमांसकदुदु रूद्धः । कुत्स्यमिति किम् ? वैयाकरणः कितवः । न हि वैयाकरणत्वं कितवत्वेन कुत्स्यते। कुत्सनैरिति किम् ? कुत्सितो ब्रामणः ।
पापाणके कुत्स्यैः ॥२॥३॥४९॥ पापाएकशब्दौ कृत्सनवचनौ कुत्स्यवचनैः यसो भवति । पापकुलालः । श्रापकमापितः । पूर्वयोगेन कुत्स्यस्य पूर्वनिपाते प्राप्त परनिपातार्य आरम्भः ।
__ सामान्येनोपमानम् ॥१५॥५०॥ लपमानोपमेययोः साधारणो धर्मः सामान्यम् । उपमीयते परिच्छिद्यते अनेन सादृश्यनार्थ इत्युपमानम् । उपभानवाचि सुबन्तं सामान्यबाचिना सुबन्तेन सह षसो भवति । निराधार सामान्यं न प्रतोयत इति सामान्यधर्मेण विशिष्ट यदुपमेयं तैनात्र वृत्तिः । शस्त्रीव श्यामा शस्त्रीश्यामा देवदत्ता ! शस्त्रीशब्दः श्यामगुणमुपादाय देवदत्तायां वर्तत इति एकाश्रया वृत्तिन विरुभ्यते। मृगीव चपला भृगचपलेति पुकद्भावश्च भवति । एवं कुमुदस्येनी हंसगमनी न्यग्रोधपरिमण्डला दूर्वाकाण्डश्यामा सरकाण्डगोरी। सामान्येनेति किम् ? फला व तण्डुलाः । पर्वता इव बलाहकाः। उपमानमिति किम् ! देवदत्ता श्यामा।
व्याने रुपमेयोऽतधोगे ॥शश५॥ तस्य सामान्यस्य योगः प्रतिषिध्यते । उपमेयार्थवाचिव्याधादिभिः सह षसो भवत्यतद्योगे । उपमेयशब्दस्य सम्बन्धिशब्दत्यादुपमाने न वृत्तिः । साधारणधर्मः सामान्य हि वृत्तावन्तर्भूतम् । असयोग इत्यनेन विशिष्टः साधारणधर्मः प्रतिषिभ्यते । पुरुषोऽयं न्यान इव पुरुषव्यामः । पुरुषविशेषणात्य परनिपातार्थ प्रारम्भः । व्याघ्र सिंह ऋषभ चन्दन तूक कृषभ वृष वराह हस्तिन् कुमार कर पुण्डरीक स्त्री पलाविका । प्राकृतिगमोऽयम् । तेन मुखकमलं ककिशलयं पुरुषचन्द्रादि सिद्धम् । प्रत्याग इति किम् ? पुरुषोऽवं व्याघ्र इव शूरः । इदमेव प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं भवति-प्रधानस्य सापेक्षस्यापि पूचिः । तेन राजपुरुषो दर्शनीयः । राजपुरुषः पण्डित इत्येवमादि सिद्धम् ।
१.-योगः । ध्यनुयोगः । रस्यो-थ० । २. मीमांसकदुईरूटः स० । ३. सम्बन्धित्वादुप-मु० ।
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अ० १ पा० ३ ० ५२-१४ ]
महावृत्तिसहितम्
विशेषणं विशेष्येति || १ |३|१२|| एकाश्रय इति वर्तते । यत् सामान्याकारेण प्रवृत्तं सत् श्रनेकप्रकाeारभूतं वस्तु प्रकारान्तरेभ्यो व्यावत्यैकय प्रकारे वस्थापयति तद्विशेषणम् । अनेकप्रकारा धारभूतं वस्तु विशेष्यम् । विशेषणं विशेष्यवाचिना सह पो भवति । कृष्णश्च स कम्पलश्च स कृष्ण कम्मलः । लोहिता च सा शाटी च सा लोहितशाटी । श्रच तत् पिपली च सा श्रद्धपिप्पली । यदा पियल्यवयवे पिप्पलीशब्दस्तदेयं शृतिरेकाभवाधिकारात् । यद्म समुदापे वर्तते तदा पिप्पल्यन मिति तासः । भिक्षैकदेशे भिक्षाशब्दः । द्वितीया भिक्षा द्वितीयभिदा । तृतीय भिक्षा | चतुर्थभिज्ञा । तुर्यभिक्षा । इह भिक्षाद्वितीयमिति तासो नोपपद्यते । "वधूगुणवृतार्थ [१।३।७५] श्रादिप्रतिषेधस्य बलीयस्यात् । कायैकदेशे कायशब्दः । पूर्वः कायः पूर्वकायः । परः काय: श्रपरकायः । उत्तरकायः । एवं मध्याह्नः । सायाहः । पूर्व कायस्येति श्रवश्रवसम्बन्धे ताखानभिधानं पूर्व कायादिति प्राप्नोति । विशेषविशेष्यवोरन्यतरस्य अऽपि सम्बन्धिशब्दवादभयोः प्रतिपत्तिरिति द्वयनिर्देशो व्यर्थः १ नैवम्; यत्र पूर्वोत्तरपदयोः प्रत्येकं विशेषणविशेष्यभावस्तत्र यथा स्यादिद्द मा भूत् । वृक्षः शिंशपा । शिशपा हि वृक्षार्थं न व्यभिचरतीति न तस्या विशेष्यत्वम् । यदा शिशपादिशब्दाः फलादिष्वपि वर्तन्ते तदोभवोविशेष्यत्वे सविधिर्भवत्येव । शिशपावृक्षः । पलाशवृक्षः । उभयोर्विशेषणत्वे कस्य पूर्वनिपात इति चेत् प्रधानद्रव्यपेयान्वर्थस्य नीचो गुणस्त्र पूर्वनिपातः । यद्ययुत्पलादिशब्दो जातिशब्दस्तथापि जातिद्रव्यस्योत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशादात्मभूता प्रतीयत इति जातिनिभितः शब्दो द्रव्यशब्दो व्यवस्थाप्यते । श्रत एव विशेष्यत्वमुत्तरपदार्थ द्रव्यद्वारे जातेरनीलत्वादनाधेयातिशयत्याच, सामानाधिकरण्यं तु जात्यपेक्षया, जातेर्भेदाभेदविवक्षा अनेकान्ताधिकाराल्लभ्यते । विशेषणमिति किम् ? तक्षकः सर्पः । संज्ञा । श्रस्य विशेष्यत्वमेव न विशेषणम् । विशेष्यति किम् ? लोहितक्षकः । तस्य लोहितत्वाव्यभिचारादविशेष्यत्वम् । श्रुतिशब्दः किमर्थं यत्र लोके विवक्षा तंत्र यथा स्यात् । इह न भवति राम जामदग्न्यः । अर्जुनः कार्तवीर्थः । इह कृष्णसर्पः लोहिताहिः लोहितशालिरित्येवमादिषु संज्ञाश-षु नित्यः सविधिः । वाक्यं तु साह - श्यमात्रेण । नीलोत्पलादिषूभवन् । नीलमुत्पलं नीलोत्पलम् । इच्छवा विशेषणत्वम् । खञ्जकुटः | कुएटख खः ।
५५
पूर्वाऽपरप्रथमचरम जघन्य समान मध्य मध्यमवोराः ॥ १२२५३॥ पूर्व-पर-प्रथम चरम नघन्यसमान-मध्य-मध्यम-वीर इत्येते एका सुपा सह समस्यन्ते यसो भवति । पूर्वपुरुषः | अवरुपः । प्रथमपुरुषः । श्ररमपुरुषः । जयन्यपुरुषः । समानपुरुषः । मध्यपुरुषः । मध्यमपुरुषः । वीरपुरुः । एत्रमाद्यनुक्रमण पूर्व योगप्रपञ्चार्थः । उपसर्जनानां परोपसर्जनार्थम् प्रधानानां परधानार्थञ्च । इह सूत्रे पूर्वसन्दो वीरशब्दश्वोपसर्जनं तयोर्वृत्तौ परखात् वीरशब्द उपसर्जनम् । वीरपूर्वः । "वृन्दारकनाग कुज्जरैस्तत्" [३७] इत्यत्र नागशब्दः प्रधानं "पोटायुवति [१३६० ] इत्यत्र प्रवक्तुशब्दः प्रधानं तयो तो परत्वात् प्रवक्ता प्रधानम् 1 नागप्रवक्ता ।
1
श्रेण्यादि कृतैः || १ |३|१४|| श्रेण्यादयः कृतादिभिः सह एकाश्रये सो भवति । वैषम्यायथासङ्ख्यं न भवति । श्रेयादिषु व्यर्थग्रहणं कर्तव्यं न कर्त्तव्यमितिशब्दानुवृत्तेस्तत्रैव वृचिः । श्रश्रेणयः श्रेणयः कृताः श्रेणिकृताः । अनूका ऊकाः कृताः कृताः । व्यथादन्यत्र वः कृताः । करोतेरनेकार्थत्वादसिद्धता पूजिता वेति गम्यते । विकल्पेन विर्विधारयते यदा त्रिस्तवा परत्वात् तिकुशादय: [१।२८० ] इति नित्यं सः | श्रेणीकृताः । अकीकृताः । श्रेणि ऊ पूग कुन्दुम राशि निचय विषय विशिष्ट निर्धन देव मुण्ड श्रमण भूत वदान्य अध्यापक ब्राह्मण स्त्रिय पटु पण्डित कुशल चपल निपुण इति श्रेण्यादिः । कृतादिराकृतिगणः । कृत मित मत भूत उक्त समाज्ञात समाख्यात समाम्नात सम्भावित अवधारित संसेवित कति निराकृत उपकृत इत्येवमादि । क्रियाकारकसम्बन्धोऽत्र न विशेषणविशेष्यभाव इति ।
३. म आधेयोऽतिशयो यस्मिन् तस्य भावः तस्मात् । २. तक्षकस्य अ० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० १ पा० ३ सू० १५- ६०
विसमाप्ती कोन || ३ | ३|१५|| विगता समाप्तिः विसमाप्तिः । ईपनिष्पत्तिरित्यर्थः । श्रनत्रविसमा सामर्थ्यात् क्तान्तेन समस्यो बसो भवति । एकस्यां हि क्रियायां विसमाप्तिर्भवति न क्रियाभेद इति सामर्थ्यम् । क्तान्तस्यानमिति प्रतिषेधान्नम् पूर्व पंतानेन सविधिः । कृतञ्च तदकृतञ्च कुता कृतम् । कृतभागसम्बन्धात् कृतम् । अकृवभागसन्भ्रातरेवाकृतम् । एवं भुक्ताभुक्तम् । पोतानीतम् । अशितानशितम् । क्लिष्टाक्लिशिराम् । “क्लिशस्तक्त्वो: " [५/१/६८ ] इति वै । मुक्तचिमुक्तम् । पीतविपीतम् । कृतापकृतम् । विसमाप्ताविति किम् ? सिद्धं चामुक्तं च । क्रियाभेदे विसमातिर्नास्ति एकस्याः समाप्तत्वादपरस्या अननुष्ठानात् । क्त इति किम् ? कर्तव्यं तदकर्तव्यं च अनजिति किम् ? श्रकृतं च तत्कृतञ्च । ननु कद्ये तिकारकपूर्वस्यैव ग्रहणमनञिति किमर्थम् ? नञ् पूर्वेणापि नृत्यर्थमिति शेषः । इह गतप्रत्यागतः यातानुयात इत्येवमादिषु “पूर्वका लैक'" [१|३ | ४४ ] इत्यादिना घसः ।
T
सम्मत्परमोत्तमोत्कृष्ट पूज्येन || १२ |३|५६ || सत् महत् परम उत्तम उत्कृष्ट इत्येते सुबन्ताः पूज्यवचनेन सह समस्यन्ते षसो भवति । संश्च सः पुरुषश्च सत्पुरुषः । महापुरुषः । परमपुरुषः । उद्गचत्तमः उत्तमः । अत एव निपातनात् किमेन्मिमिमादामद्रव्ये [ ४/२/२०] इत्याम् न भवति । उत्तमपुरुषः । उत्कृष्टपुरुषः । पूज्येनेति वचनादन सदादयः पूजाऋचना ज्ञातव्याः । पूज्येनेति किम् ? उत्कृष्ट गौः । कर्द मादुद्धृत इत्यर्थः ।
३
वृन्दारकनागकुञ्जरैस्वत् ॥ १९१३.५७ ॥ पूज्येनेति वर्त्तमानमर्थं त्रशाद्वान्तं संपद्यते । वृन्दारकादिभिः सह वत् पूज्यवाचि सुबन्तं समस्यते षसो भवति । तदित्यनेन पूज्यवचनेनाभिसम्बन्धात् वृन्दारकादयः पूजावचनान्ते । मोरवा दारका गांवृन्दारकः । पुनानः कुः प्ररुकुञ्जरः । व्याघांदराकृतिगणत्वात् श्राद्यैरुपमेोगे" [१|३|११] इत्येव सिद्धं सामान्यप्रयोगेऽपि यथा स्यादित्यारम्भः । गोनागो बलवान् । तदिति किम् ? शोभना शीमा फणा श्रस्य सुशीमों नागः |
|
कतरकतमौ समर्थौ ॥११३॥५८॥ किंशब्दात् "किंयन्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य उत्तर:" [४|१|१४७ ] “खा बहूनां जातिप्रश्ये उत्तम:" [४/१/१४८ ] तयोः परराष्टिखे कृते कतरकतमशब्दौ सिद्धयतः 1 समर्थी सङ्गतार्थी समानार्थी वेकार्थावित्यर्थः । तौ सुत्रन्तेन सह समस्येते प्रसो भवति । कदा चानयोः समानार्थत्वं यदा जातिप्रश्ने तौ व्युत्पाच ते तदा तयोः समानार्थत्वन् । कतरश्च स गार्ग्यश्च कतरगार्ग्यः । कवमगार्ग्यः । क्व. रकठः । कतमकठः । वृद्धं चरणैः सहेति जातिवाचित्वन् । समर्थाधिति किम् ? कतरो भवतोर्देवदत्तः । द्रव्यप्रश्नोऽयम् | समर्थग्रहणं हिं कतरस्यैव विशेषणं इतरस्याविशेषेण विधानान्न कतमस्य । इतमस्य जातिप्रश्न एव नैर्विधानात् । श्रतः कतमो भक्तां देवदत्त इति व्यावृच्युदाहरणमत्रानुपपन्नम् । कतर कतमयोः प्रश्ने विहितयोः सविधिना न गायदिर्विशेष्यव्यवस्थेति वचनम् ।
I
क्षेत्रे किम् ॥ ११३॥१६॥ क्षेपः कुत्सा । यो हि यदर्थस्तस्य तदर्थाननुष्ठानं क्षेपः । किमेतत् क्षेपे गये सुबन्तेन समस्यतै सो भवति । को नाम राजा किंराजा । यो न रक्षति । "न स्वति किम:" [२२२६६] इति सान्तप्रतिषेधः । किंसखा । योऽभिद्र ुह्यति । किंगोः । यो न वहति । "गोरपि [४/२/६४ ] इति सान्ते प्राप्ते "न स्वति किम:" [ ४।२०६६ ] इति प्रतिषेधः । सर्वत्र स्वकार्याभावात् क्षेपः । क्षेप इति किम् ? को राजा पाटलिपुत्रे । किमिति योगविभा: । तेन संज्ञायां शुकादिभिः सह किंशब्दः समस्यते बसो भवति । किंशुकः पलाशः । किंशुलुकः पर्वतः । किंपुरुषी मयुः । किन्नरः स एव किञ्जल्कः पुष्परेणुः । किङ्कितः । किंवदन्तीत्यादयः सिद्धाः ।
पोटायुवति स्तोककतिपय गृष्टिधेनुवशाचे द्वष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापक धूर्जातिः ||१| ३।६०॥ पोटादीनामितरेतरयोगो द्वन्द्वः । पोथदिभिः सहेकाश्रये जातिः समस्यते पो भवति । विशेषयस्य परनिपातार्थ आरम्भः । जातिद्वारेण यः शब्दो द्रव्ये वर्तते स इद्द जातिशब्दोऽभिप्रेतः । इभ्या च सा पोटा
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... पा० ५५० ६०-६५] महावृत्तिसहितम् च इभ्यपोय । इभ्येति जातिशब्दः । स्त्री भूत्वा राज्यपालनार्थ या पुंवेपेण युज्यते सा रोटा । यापि गर्भ एव वास्यं गता साऽपि पोटा । "मयुक्तस्क [३५] इत्यादिना पुंवद्राचे प्राते "जातिरच' [VA५] प्रति प्रतिषिो "वद्यजातीयदेशी" [४१३,१५५] इति पुंवद्भावः । एवमार्यपोटा | युवतिस्तरुणी । इम्ययुवतिः। शनिवयुवतिः । अग्निश्च स स्तोकञ्च तदग्निस्तोकम् । दधि च तत् फतिपयच्च दधिकतिपयम् । स्तोककतिपयशब्दावेकार्थ | सकृत्परता गृष्टिः । गौश्च सा एटिश्च गोष्टिः । धेनुभिनयप्रसवा | गोधेनुः । वशा वन्ध्या | गोवशा । वहत् गर्भधातिनी। गर्मचारिहत्यन्थे। गोवहन् । महता वत्सेन या दुह्यते सा बष्कयिणी। गोबष्कयिणी । प्रवक्ता उपाध्यायः । कठप्रवक्ता | कटश्रोत्रियः । अध्यापकोऽध्येता। कटाध्यापकः। करबूतः। बुद्धिमानित्यर्थः । धूर्तग्रहणमिहाकुत्मार्थम् । अथवा अाश्रमिभु कुस्सितेषु तद्भवति । आश्रयेषु तु कुत्त्वेषु इदम् | ब्राह्मणधूतः क्षत्रियधूर्त इति यदा हि ब्राह्मणत्वमाथि कुल्यते तदा तेनैव सिद्ध भविधानम् । यदा तु ताक्लो देवदतः कुत्स्यते तदमिदम् | जातिरिति किम् ? देवदत्तः प्रवक्ता । देवदत्तशब्दस्यानातिवचनत्वादवृत्तिः । जातैर्विशष्यायाः पूर्वनिपातार्थ प्रारम्भः ।
चतुष्पादर्भिण्या ॥२३६॥ जातिरिति वर्तते । चत्वारः पादा यस्याः सा चतुष्पाद्यादिजातिः । "सुसंम्पादेः [१२/१३०] इत्यकारस्य खम् | चतुष्माज्जातिर्गर्भिणी शब्देन सहकाश्रये समस्यते यसो भवति । गौश्व सा गर्भिणौ च गोगर्मिणी । अजगर्भिणी । “वद्यजासीयदेशीये" [१॥३/१५५] इति पुनद्भावः । चतुष्पादिति किम् ? ब्राझणी गर्मिणो । जातिरित्येव । कालाक्षी गर्भिणी। वस्तिमती गर्मिणी। चनुष्यदः संशैषा | न तु जातिः । विशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थे वचनम् ।।
प्रशंसोत्या ॥शश६२॥ जातिरिति वर्तते । उच्यते इत्युक्तिः शब्दः । प्रशंसाशब्देन सह जातिवाचि सुबन्तं समस्यले षसो भवति । गौश्व स प्रकाण्डञ्च तत् गोप्रकार इम् | प्रशस्तो गौरित्यर्थः । एवमश्वप्रकाएइम् । गोमतल्लिका' । अचमचर्चिका । गोकुमारी । गोतल्लजकः । श्नभिधा आतिरित्येव । देवदत्ता कुमारी ।
युवा खलतिपलितवलिनजरद्भिः ।।१।।६३॥ खलति पलित वलिन जदित्यतैरेकाश्रयैयुत्रशब्दः समस्यते घसो भवति । युवा खलतिः युवखलतिः । युवतिः खलती युधखलती । युवा पलितः युवपलितः । युवतिः पलिता युवपलिता | बलयोऽस्य सन्ति वलिनः । पामादिखानः । युवा बलिनः युवलिनः ! युवतिर्वलिना युवालना । "जयोऽतृ"[२१२।७] इति अतृत्ये कृते जरदिति भवति । युवा जरन् युवजरन् । युवतिजैरती युवजरती । "मृग्रहणे लिझविशिष्टस्यापि प्रहणम् ।" "वद्यजातीयदेशीये" [४/३११४] इति पुंवभावात् तिशब्दस्य निवृत्तिः ।
___ व्यतुल्याख्या प्रजात्या ॥१३६४ा व्यान्तास्तुल्याख्याश्च अजातिवाचिना सह समस्यन्ते पसो भवति । परनिपातः फलम् । मोज्यञ्च तदुषणञ्च भोज्योष्णाम् । भोज्यलवणम् । पानीयशीतम् । हरणीवपूर्णी घटः । तुल्याख्याः । तुल्यश्च स श्वेतश्च स तुल्यश्येतः । सदृशश्वेतः । तुल्यमहान् । सदृशमहान् । अजात्यति किम् । भोज्य प्रोदनः । तुल्यो वैश्यः । इह तुल्यसन्निति पूज्यवाभावात् परसादानेन सः । इह कथमकाया
चिः । कृष्णसारङ्गः । लोहितसारतः। कृष्णशबलः । लोहितशत्रल: । याद साराांदशब्दा जातिवचना जाते: कथञ्चिद्रव्यादभिन्नखमित्येकाश्रयत्वमस्ति ततो विशेषणलक्षणः सः । अथ पूर्वोत्तरपदयाविशेषवाचत्वं तत्रापीच्छातो विशेषणविशंध्यभावः । कृष्णश्वेतः । श्वतकृपाः ।
कुमार: श्रमणादिमि ॥१॥२६॥ कुमारशब्दः श्रमणादिभिः सह समस्यते षसों भवति । कुमारशब्दो भूत् । स्त्रीलिङ्गैहत्तरपदैः स्त्रीलिङ्गः। अध्यापकादिभिरुभयथा समस्यते । कुमार श्रमणा कुमारश्रमणा ।
1. महिलका । अश्वमतक्षिका । गोमचर्चिका ! गोकुमा-म० ।-लिका । भरषमस्तिका ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० पा० ३ ० ६६-१६
कुमारी प्रत्रजिता कुमारप्रत्रजिता । कुमारश्च स अध्यापकश्च स कुमाराध्यापकः । कुमारी अध्यापिका कुमाराध्यापिका | श्रमणा पत्रजिता कुला गर्भिणी तापसी बन्धकी दासी एते स्त्रीलिङ्गाः । अध्यापक अमिरूपक पटु मृदु पण्डित कुशल चपल निपुण ।
५८
मयूरव्यंसकादयश्च ॥ १२३ ॥ ६६ ॥ मयूरव्यंसकादयश्व शब्दा गणपाटादेव निपातिताः पसंशा भवन्ति । विशिष्टावंतावस्यव्यंसः । वार्थे कः । व्यंसको मयूरो मयूरव्यंसकः । छत्रव्यंसकः । कम्पोनमुण्डः । rators: | एतेषु परनिपातः प्रयोजनम् । "एडीडादयोऽन्य पदार्थ ' एही मिति यत्र कर्मणि एहि यवैरिति महीम् | "हियवं वर्तते। एहिवाणिजेति यस्यां क्रियायां सा एहिवाणिजा । मेहिवाणिना । पहिस्वागता । अपेहिस्वागता । एहिद्वितीया । अपेहिद्वितीया । प्रोषri प्रोहका | प्रोद्दकर्दमा | उद्धमचूडा । श्राहरबेला । श्रारवसना | आहरवितता । भिन्निलवरणा । उद्धर उत्सृजेति यस्यां सा उद्धरोत्सृजा । उद्धमविधमा । उद्धरविसृजा । उत्तनिपता । उत्पचनिपचा । श्राख्यातमाख्यातेन सिद्धेऽप्यसात त्या वचनम् । उदरच अवाक्च उच्चावचम् | उच्चैश्च नीचैश्च उच्चनीचम् । श्राचितञ्चोपचितच आचोपचम्। श्राचितपराचितस्य पराम् । निश्चितप्रचितस्य निश्चप्रचम् । अकिञ्चनम्। स्नात्वा कालकः । पोखास्थिरकः । भुक्तवा सुहितः । प्रोष्यपापीयान् । उत्पल्यपाकला जाता | निपत्य रोहिणी जाता । निषद्यश्यामा जाता। अपेहिप्रावर्तते । पञ्चमी । दहद्वितीया । जहि कन्या बहुलमाभीक्ष्ये कर्तारं चाभिदधाति ।" नहि जोडमित्याह बहिजोडः । उज्जहिजोटः । नहिस्तभ्यः । ब्रतमिति कि :वलम्। ""श्नपत्रता वर्तते । पचतभृज्जता । खादतमोदता । खादात्रामाः । श्राहरविवसा । आहरनिष्किरा । श्रविहितलक्षणं सवि'धानमिद द्रष्टव्यम् । तेन शाकप्रधानः पार्थिवः शा पार्थिवः । कृतपसौश्रुतः । श्रज्ञातीवतिः । धृतरौहीयाः । श्रोदनपाणिनीया इत्येवमादि सिद्धम् । चकारोऽवधारणार्थः । परमो मयूरव्यंसकः । नृत्यन्तरं न भवति ।
काला मेयैः || १३|६७ ॥ कालवाचिनः शब्दा मेयैः परिच्छेयः सह समस्यन्ते रसो भवति । मेयैरिति सम्बन्धात् काला मानवचना गृह्यन्ते । यद्यपि मुख्यं मानत्वं व्यवहारकालस्य मासादेन सम्भवति तथापि वचनात् परिच्छेदहेतुत्वमात्रं साधर्म्यमुपादायोपचारात् कालः परिमानयम् । मासादयो जातादेः सम्बन्धिनीमादित्यगतिं परिच्छिन्दन्तीति जातत्यापि परिच्छेदहेतव उच्यन्ते । एकाश्रय इति निवृत्तम् । मासो जातस्य मासजातः । संवत्सरजातः । तासापवादोऽयम् । काला इति बहुवचननिर्देशः किमर्थः १ द्वे हनी जातस्य द्वयहआतः । त्रिपदोऽपि पसो यया स्यात् । "हृदयंध समाहारे' [१/३/४६ ] इत्यत्रयक्षले "राजाहः सखिभ्यष्ट: " [४/२/१३] इति टः | "एभ्योऽहोऽह्नः” [४ / २ / ६०] इति श्रादेशः । यदा द्वयोरहोः समाहार इति विप्रहस्तदा "न समाहारे" [ ४ २१] इत्यह्नादेशप्रतिषेधः सिद्धः । द्वयहो जातस्य द्वयजातः । त्र्यहजातः |
नीं ॥ २१३२६८ ॥ नञ् सुपा सह समस्यते घसो भवति । श्रब्राह्मणः । श्रधर्मः । सर्वशः । । नेयं पूर्वपदार्थप्रधाना वृत्तिरलिङ्गा संख्यत्वप्रसङ्गात् । किञ्च पूर्वपदप्रधानो हस उक्तः । श्रमक्षिकमिति । श्रन्यग्दार्थप्राधान्ये तु व हेमन्त इत्यत्र प्रादेशादि प्राप्नोति । श्रस्तूतरपदार्थप्रधानेयं वृत्तिः । यथे मगामानयेत्युक्तं गोमात्रस्यानयनं स्यात् । श्रथ स्वयमेव निवृत्तिपदार्थको गोशब्दः स नमा केवलं द्योत्यते । एवं सति न कर्त्यांचदानयनं स्यात् । नायं दोषः । द्वाविह गोशब्दो प्रवृत्तपदार्थको निरृत्तपदार्थ कश्च । सारूप्यात्तयोर्भेदापरिशाने निवृत्त पदार्थकस्य द्योतनार्थं नञः प्रयोगः प्रतिषेधे सत्युत्तरपदार्थसदृशो वृत्यर्थो जायते । “मञिदयुक्तमन्यसद्दशाधिकरणे तथा अभंगति:" [परि०] इति वचनात् । अन्यपदार्थं तु परत्वाद्वसो भवति । अशालिको देशः । ञकारो नञोऽनित्यत्र विशेषणार्थः । वामनपुत्रादि वनादेश मा भूत् ।
गुणोक्त्येषद् ॥११३॥६६॥ उच्यते इत्युक्तिः शब्दः । गुणशब्देन सह ईषच्छन्दः समस्यते स भवति । ईषत्कारः । ईषत्पिङ्गलः । ईषद्विक्टः । ईषदुन्नतः । ईषद्रकः । ईषत्पीतः । इदुत्पत्तिः प्रयो
9. वाणिजा | अपेक्षिवाणिजा । एहिस्वा अ०, ब०, ख० । २. निवन्यरेखामा सु० ।
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अ०] १ पा० ३ सू० ७०-७५ ]
महावृतिसहितम्
अनम् | गुणोक्त्येति किम् ? ईषत्कारकः । ईषद्गार्ग्यः । जात्येकार्थसमवायिक्रियागुणापेक्षया जातैरपि बुद्धिहासी ।
ता ॥ ११३॥७०॥ तान्तं सुत्रन्तेन सह घसो भवति । मोक्षमार्गः । स्वर्गसुखम् | राजपुरुषः |
KE
कृति ॥ १|३|७१|| कृप्रयोगे या ता तदन्ते सुपा सह बसो भवति । "न प्रतिपदम् [११२७३] इति प्रतिषेधं वक्ष्यति । तस्यायं पुरस्तान्निरासः । इध्मनां त्रश्वनः इध्मनश्वनः । पलाशसातनः । श्रविल वनः । श्मश्रुकर्तनः । करणे युट् । “कर्तृकर्मणोः कृति'' [१।४।६८ ] इति ता ।
याजकादिभिः || ११||७२ || याजकादिभिश्र सह तान्तं समस्यते षसो भवति । पूर्वण प्राप्तः तूजकाभ्यां कर्त्तरीति प्रतिषिद्धः पुनरनेन सः । देवानां याजको देवयाजकः । साधूनां पूजकः साधुपूजकः । याजक पूजक परिचारक परिवेषक नापक अध्यापक उद्धर्क्षक उत्सादक होतु भर्तृगणक पतिगणक ।
न प्रतिपदम् ||१ | ३|७३ ॥ प्रतिपदं विहिता वा ता तदन्तं न समस्यते । शेषलक्षणां तां मुक्त्वा सर्वान्याता प्रतिपदविधाना। सर्पिषो ज्ञानम् । पयसो ज्ञानम् 1 "ज्ञो स्वार्थे करणे" [१|४|१८ ] इति ता । इहापि धर्मानुस्मरणम् । धर्मचिन्तनमिति । "स्कार्थदयेश कर्मणि" [1] ४|११ ] इत्यनेन शेषलचणा तानूद्यते । वनस्वामी | वनेश्वरो विद्यादायाद इत्येवमादिषु "स्वामीश्वर" [१]४/४७ ] आदि सूत्रे चकारेण शेषलचणा वा समुच्चयते ।
निर्धार || १ |३|७४ || निर्धारणे या ता तदन्तं न समस्यते । जातिगुणक्रियाभिः समुदायादेकदेशस्य निष्कृष्य चारणं पृथक्करणं निर्धारणम् । क्षत्रियो मनुष्याणां शूरतमः । श्वामा नारीणां दर्शनीयतमा | कृष्णा गवां सम्पन्नक्षीरतमा | धावन्तोऽध्वगानां मितमाः । क्षत्रियादिशब्देन सह वृप्तिर्न भवति । "यता निर्धा राम" [ १।४।४३] इति चकारेण शेषलक्षणायास्तायाः समुच्चयः । प्रतिपदविधानत्वे हि पूर्वयोव सिद्धः प्रतिवेध इतीदमनर्थकं स्यात् । इह पुरुषेश्वर इति शेषलक्षणा ता विवक्षिता न निर्धारणलक्षणा ।
डड् गुणसृतार्थं सराव्यैकद्रव्यैः || १ | ३२७५ ॥ उदन्त गुणार्थं तृप्तार्थं सत्संश' तव्य एकद्रव्य इत्येतेः सह तान्तं न समस्यते । तस्य पूरखे वद्दित्यतः प्रभृति तमदृष्टकारेण वडिति प्रत्याहारः । चक्रधराणां पञ्चमः । तीर्थंकराणां षोडशः । बलदेवानां नवमः । समुदायसमुदितसम्बन्धे शेषलक्षणा ता । गुणार्थ:- चलाकायाः शौक्ल्यम् । काकस्य कार्यम् । कण्टकस्य वैदण्यम् । गुणगुणिसम्बन्धे ता । " एक पररूपम् [४/३/८१] इत्यत्र परस्य रूपं पररूपमिति वृत्तिपदं ज्ञापकं यो गुप्यद्वारे पूर्व द्रव्ये वृत्तो भवत्यन्ते गुणमाह तेन गुणशब्देनेह प्रतिषेधः । यस्तु सर्वदा गुणवचनस्तेन वृत्तिर्भवत्येव । इस्तिरूपम् । कपित्थरस: | चन्द्रनगन्धः । श्रग्निस्पर्शः । गुणशब्देनेह लोकप्रसिद्धा रूपरसगन्धस्पर्शा गुणा अभिप्रेताः । ततस्तद्विशेष्यैरय प्रतिषेधः तेन यत्नगौरवं सूत्रलाघवं करणपाटवं वचनप्रामाण्यं गोविंशतिरित्येवमादिषु न प्रतिषेधः । वृषलस्य धाष्टर्यमित्यत्र वृत्तेरनभिधानम् । तृतार्थः - फलानां तृतः । सक्कनां पूर्णेः । फलानां सुहितः । सक्तनां प्रीतः । " तृप्यर्थे तपसंख्यानम्" [बा०] इति ता । सदिति शतृशानयोः संज्ञा । चोरस्य द्विषन् । "कर्तृकर्मणोः कृति" [ २४/६८ ] इति कर्मणि ता प्राप्ता न वि० [१।३।७२] इत्यादिना प्रतिषिद्धः । द्विषः शतुर्वा वचनम्” [ वा ] इति ता । इह तु शेषलक्षणा वा । देवदत्तस्य कुर्वन् । देवदत्तस्य कुर्वाणः । तव्यः - देवदत्तस्य कर्तव्यम् । जिनदत्तस्य कर्तव्यम् । अत्रापि "ध्यस्य वा करि" [11४/७५] इति शेषलक्षणा ता । तव्येन केन्विद्विकल्पमिच्छन्ति । देवदत्त कर्तव्यम् । एकं द्रव्यमस्य एकद्रव्यम् । राज्ञः पाटलिपुत्रकस्य । शुकस्य मारविदस्य । श्राचायेस्य श्रीदत्तस्य । पूर्वनिपातस्थानियमः प्रसज्येत । विशेषणादिसूत्रे इतिशब्दोऽस्ति तेन नीलस्योत्पलस्य नीलो
1. पूर्वनिपातस्येत्यादि न भवतीत्यन्तसन्दर्भस्यायमभिप्राय:
"एकव्ये तसाङ्गीकारे उभयोः पदयोस्तान्तत्वेन वोकात्पूर्वनिपातस्या नियमः प्रसज्येत । ननु नीलोत्पलस्य नीलोत्पथस्येत्यन्न कद्रव्यत्वेन वासनिषेधः कुतो न गुणगुणिभावस्थले एकद्रव्यस्वानङ्गी
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ [अ०] १ पा० है सू० ०६-१
पलस्येति । गुणगुणिसम्बन्धे सविधिर्भत्रति । एकद्रव्येण गुणगुणिविवक्षा नास्तीति विशेषणवृत्तिरपि न भवति । मिना प्रतिषेधो वक्तव्यः । देवदत्तस्य साक्षात् । देवदत्तस्योपरि ।
कर्मणि च ॥ १|३|७६॥ चकारोऽवधारणार्थः । कर्मये या ता विहिता तदन्तं सो न भवति । आश्रय गवां दोहोऽगोपालकेन । रोचते मे श्रोदनस्य वदन्तेन । तेन ! “युद्” [२।३।३७] इति नावे युद्ध | "कर्तृकर्मणोः कृति" [ १४:६६ ] इत्युभयत्र तायां प्राप्त "मी परे" [१।४।६१] इति कर्मयेव भवति । कर्तरि तु भा । कर्मण्येवेति किम् इध्मत्रश्वनः ।
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कर्तरि क्रेन || १३२७७॥ कर्तरीति तावा विशेषणम् । कर्तरि या ता विहिता तदन्तं क्रान्तेन सो न भवति । अस्मिन्नस्यते स्म इदमेषामासितम् । इदमेषां यातम् । हृदमेषां भुक्तम् । तयोरेव भावकर्मणोः के प्रासे "ग" [२18|१८] "अधिकरणे चार्थाच्य' [२/४/११] इति अधिकरणे क्तः । अधिकरणस्योक्तत्वात् | इदमित्येतस्मादीम्नान्ति “मिका वा " [१।४।२४ ] इति चैव भवति । "कर्तृकर्मणोः कृषि" [१४६८६] इति ता प्राप्ता न मितलोक" [११४७२] इत्यादिना प्रतिषिद्धा । तस्याधिकरणे” [१/४/७० ] इत्यनेन एत्रामिति कर्त्तरि ता । एवं राज्ञां मतः राज्ञां शुद्ध, राज्ञां पूजितः "मतिबुद्धिपूजार्थाच्च [२।२।१६६ ] इत्यनेन वर्तमाने काले क्तो नियम्यते । स चेह कर्मणि कारके विहितः "कर्तृकर्मणो. " [२४६८] इति तंरिता प्राता "नमित० [१४/७२ ] इत्यादिना प्रतिषिद्धा भवतीत्यनेन सूत्रेया प्रत्यवस्थाप्यते । अथ यदा सकर्मकेभ्योऽधिकरणं क्तस्तदा कर्तृकर्मणोरनुक्तत्वात् "कस्याधिकरणे” [१६७०] इत्यनेन या ता कर्तरि तस्याः प्रतिषेधः सिद्धः कर्मणि या ता तस्याः कथं वृत्तिप्रतिषेधः । इदमोदनस्य मुक्तमिति । नैष दोषः । कर्मणि चेति वर्तते तेने कर्त्तरि कर्मणि च ता क्तान्तेन न समस्यते । इह शेषलक्षण। ता । छात्रइसितम् ।
काभ्यां योगे ||११३७८ ॥ कर्तरि या ता तदन्तेन सो न भवति । तृचैव कत्तु रुत्वात् । तद्यगेकर्तरि ता नास्ति | तृजुप्रहणमुत्तरार्थम् । भवत श्रासिका । भवतः शायिका । भवतोऽगामिका । " पर्यामाईको त्पत्तौ घुण्” [२|३|१२] इति भाये स्त्रीलिङ्गे बु | "कर्तृकर्मणोः कृति” [ १४६८ ] इति कर्तरि वा । कर्तरीत्येव | इक्षुभक्षिकां में धारयसि । पूर्ववद्वण् । अभेक्षुयन्दात् कर्मणि ता "कृति" [ ११३७१] इति तासः । महति सम्प्रदानमेतत् ।
कर्तरि ॥१३॥७६॥ कर्तरि यो तृषकौ ताभ्यां सह तान्तं न सो मति । श्रपां लष्टा । पुरं भेत्ता । वज्रस्य भर्ता । याजकादिषु पतिपर्यायो भर्तृशब्दः । यवानां लावकः । सक्तूनां पायक 1 कर्तरीति शक्यमकर्तुं तृचोऽकस्य च कर्तरि विधानात् । नन्धकस्य भावेऽपि विधानमस्ति । सत्यम् । तद्योगे कर्तरि चिह्नितायास्तायाः पूर्वेण वृत्यभावः सिद्धः सामर्थ्यादिह कर्तरि विह्नितस्याकस्य ग्रहणाम् । तदेतत्कर्तृग्रहणं शापकं पूर्वप्रतिषेधो नित्यः श्रयम नित्यस्तेन तीर्थंकर्तारमर्हन्तमित्येवमादि सिद्धम् । तृनन्तेन वा "साधनं कृता" [१/३/२६ ] इति सः ।
कोडाजीविक योनित्यम ॥ १३३८०॥ नेति निवृत्तम् । तृचः क्रीडाजीविक्रयोरसम्भवानानुवृत्तिः । क्रीडायां जीविकायाञ्च दान्तमकेन सह नित्यं षसो भवति । क्रीडायाम् उद्दालकपुष्पमक्षिका । भावे खुविषये ण् । "कर्तृकर्मणोः कृति" [ ३३४६८ ] इति कर्मणि ता । जीविकायम् — दन्तलेखकः । नखलेखकः । श्रवस्करखुदकः । क्री द्वायां कृतीति विकल्पः प्राप्तः । जीविकायां कर्तरीति प्रतिषेधः प्राप्तः । क्रीडायां प्रारम्भादेव नित्यत्वं सिद्धं नित्यत्र नीविकार्थमुत्तर्यञ्च ।
तिकुप्रादयः ॥ २३८१ ॥ विसंज्ञाः कुशब्दः प्रादयश्च समर्थेन नित्यं षसो भवति । करीकृत्य । ऊरीकृतम् | पटपटाकृत्य | प्रादिसाहचर्यात् कुशब्दो भिज्ञो गृह्यते । कुत्सितो ब्राह्मणः कुब्रह्मणः । ईषन्मधुरं काम
कारात् । ननु भेन सः विशेषणं विशेषश्रेणेतिशब्दस्य कवचिदन्यत्रापि विवक्षितस्थले सभासार्थत्वेनात्रेतिशब्दबलेन सः । विशेषयवृत्तिस्तु न गुणगुणिवद्भावे विशेषावृतेरप्यमकारात् ।"
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० पा० सू० ८१-८६ ]
महावृत्तिसहितम्
६१
धुरम् । “क्रियायोगे गि. लि” [१।२११३० - १३१] इति प्रादयोऽपि क्रियायोगे तिसंज्ञा श्रक्रियायोगार्थ प्रादिप्रहणम् । स्वती पुजार्थम् । शोभनः पुरुषः सुपुरुषः । श्रतिपुरुषः । श्रतिशयेन स्तुतं सुस्तुतम । श्रतिक्रमेण स्तुतमतिस्तुतम् । दुः पापाद्यर्थे । पापः पुरुषो दुप्पुरुषः । कृच्छ्रेण कृतं दुष्कृतम् । श्रापदायर्थे । ईषत्कार आकारः । क्रियायोगे श्राद्धमाभरणम् । प्रादय एवमात्मका यत्र क्रियापदं प्रयुज्यते तत्र क्रियाविशेषमाहुः | यत्र न प्रयुज्यते तत्र ससाधनां क्रियामाहुरिति । “प्रादयो गतार्थ च वया' [वा०] प्रगत श्राचार्य: प्राचार्यः । वृत्तिविषये प्रशब्दो गारादत्यर्थ साधनमभितो गुरु | प्रपितामहः । सङ्गतार्थः समर्थः । “अत्यादयः क्रान्ताथ इषा" [ वा० ] श्रतिक्रान्तः खट्वामतिखट्वः । उत्क्रान्तो बेलामुझे लः । "श्रादयः कुष्टाद्यर्थे भया'" [वा०] अवक्रुष्टः कोकिलया कोकिलः । परिषद्धो वीद्भः परिवीत् । "पर्यादयो रानाद्यर्थे अपा'' [वा०] परिग्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययनः । उयुक्तः संग्रामाव उत्संग्रामः । पर्यादिराकृतिगण इत्येके | अलं कुमारिः | ''निरादयः क्रान्ताद्यर्थे कया'' [वा०] निःष्क्रान्तः कौशाम्च्या निष्कौशाम्बः । श्रपगतः शाखामा पशास्त्रः । लक्षणादिष्वर्थेष्वनभिधानादद्वृत्तिः । वृक्षं प्रति विद्योतते ।
वागमिङ ॥ १३८२॥ बाक्संज्ञममितं समर्थेन नित्यं प्रसो भवति । कुभं करोतीति कुम्भकारः । शरलाबः | अमिङिति किम् ? एधानाहारको व्रजति । "चुपतुमौ क्रियायां तदर्थायाम् [२३८] इति ण् । श्रमिडिति प्रतिषेधवचनं ज्ञापक्रम योर्योगयोः "सुप्पा'' [ १२३] इति नाभिसंबध्यते । एवञ्च सत्येतल्लब्धम् “तित्राकारकायां प्राक सुश्रुत्पत्तेः कृद्भिः सविधि ” [ परि० ] इति । इह मापत्रापिणी । व्रीहियापिणी स्त्री । कृदन्तेन त्रुप्तौ ‘“भृदन्तनुम्/विभक्त्याम्" [४] [५] इति णत्वं सिद्धम् । अन्यथा सुबुत्पत्तिः स्त्रीत्येन बाध्येत । अव च प्रयोजनम् | यदि सुबुत्पत्तेः प्राकृ तिवाक्कारकारणां कुता वृत्तिः । श्रदःकृत्य तमोपहः राजश्रित इत्यत्र पूर्वस्य पदकार्यं न स्यात् । "काया: स्तोकादेः " [४|३|१२१] इत्येवमादि अनुविधानं वानर्थकं कचिदेव जीविभिणत्यादिविषये ज्ञापकात् सिद्धिः ।
मिलाऽमै ||१|३|६३॥ पूर्वेश सिद्धे नियमोऽयम् । झिसंशकेनामन्तैनैव वागमिङ् घसो भवति । स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । लवणङ्कारं भुङ्क्ते । स्वाद्वर्थेषु याशु "स्वाभिम” [२|४|१२] इति णम् भवति । स्वादुमीति निर्देशात्यसन्नियोगे मान्तता निपात्यते । श्रमैवेति किम् ? कालो भोक्तुम् । समयो मोक्तुम् । "काळसमयवेलासु तुम्बा " [ २|३ | १४३ ] इति तुम् । श्ररम्भादेव नियमः सिद्धः । भिनैवेति विपरी तावधारये व्याव नास्तीत्येवकारः किमर्थः ? श्रमैव यत् सह निर्दिष्टं वाक्संज्ञ तस्य वृत्तिर्यथा स्यात् । श्रमा चान्येन च यत् सहृ निर्दिष्टं तस्य मा भूत् । अत्रे भोजं गच्छति । भुक्त्या । प्रथमम्भोजम् । पूर्वं भोजम् । 'वामे प्रथमपूर्वे' [२|४|१० ] इति स्वामी विहितौ । भिनेति विस्पष्टार्थम् । व्यावर्त्याभावात् ।
बाभदि ॥ १३८८४|| "रूपदेशो मायाम् [२४/३३] इत्यतः प्रभृति वाक्संज्ञ भादीत्युच्यते । भादीनि वाक्संज्ञानि श्रमासह वा समस्यन्ते घलो भवति । मूलको दशं भुङ्क्ते । “उपदेशो भायाम्” [ २/४/३३] इति णम् । पार्श्वोपपीडम् । पार्श्वेनोपपीडं पार्श्वे उपपीडं शेते । ईप चोपपीरुधकर्ष: [२।४/३५] इति णम् । श्रमन्तेनेत्येव । पर्वासरे मोक्तम् । प्रभुभक्तुम् | "पर्यासवचने अमर्थे [२०७२१] इति तुम् । एवकारो नानुवर्तते तेन भादिषु यदमा सह निर्दिष्टं वाक्संच वदमा चान्येन च सह निर्दिष्टं तदपि समस्यतॆ । उन्न्त्रैःकारमाचष्टे उच्चैःकारं "भावनिष्टोक्तौ कृन: क्यायमौ [२।४।४४] इति णम् ।
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क्त्वा ||१|३|८५॥ क्त्वान्तेन सह वा भादि समस्यते यसो भवति । उच्चैःकूत्याचष्टे । उच्चैः कृत्वा । भादीत्येव । प्रदेशान्तरवाचो वृद्धिर्न भवति । अलंकृत्वा । क्या ।
अन्यपदार्थेऽनेकं बम् ॥१३॥८६॥ वानिर्दिष्ट सुग्रहणमनुवर्तते । भानिर्दिष्टं निवृत्तम् । श्रन्यस्य पदस्यार्थे वर्तमानमनेकं मुत्रन्तं संशः सो भवति । चित्रगुः | लम्बकर्णः । दर्शनीयरूपः । श्रन्यग्रहणं किम् ? स्वपदार्थे बसो मा भूत् । लम्बश्च स कर्यश्च म लन्चकः । पदग्रहणं किम् ? अन्यवाक्यार्थे मा भूत् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. पा. ३ • ८०-१ अर्थग्रहण किमर्थम् ? यावता शन्दे कार्यस्यासम्भवादर्थ कार्य विज्ञास्यते । अन्यपदार्यस्य ये लिङ्गसंख्ये ते यथा स्यातामिल्वेत्रमर्थम् | बहुयत्रं कुलम् । चयवा भूमिः । बहुयवो। बहुयवाः । वाविभक्त्यन्ते अन्यपदार्थे वृत्तिर्न भवत्यनभिधानात् । अनेकग्रहणं बहूनामपि प्रापणार्थम् । सामानाधिकरण्याभावेऽपि असो भवति । कराटेकालः । उरसिलोमा । उच्चैर्मुखो देवदत्तः । अस्तिक्षीरा गौः । झीनामसंख्यत्वादसामानाधिकरण्यम् । इटाभिधानाभावान्न भवति । पञ्चभि कमस्य । सामानाधिकरण्येऽप्यमिधानम् । पञ्च भुक्तवन्तोऽस्य । नपा निर्देशः किमर्थः १ उन्मत्तगङ्गम् । लोहितगलम् । 'सावन्यपदार्थे" [ 1] इति हस एव भवति । इह वीरपुरुषको ग्राम इति परत्वावसः बसस्य बाधकः । शस्त्रीश्यामा देवदत्तेत्येवमादिषु "यश्चैकाभये" [१॥३।४४] इति प्रकृतमस्ति तेन बसस्य बाधः । "प्रादयो गतामधे कमा" [बा०] इत्येवमादि वार्तिकवचनं प्रमाणम् । तेन निष्कौशाश्चिरित्येवमादिषु बसो न भवति । “बुपमानपूर्वस्य चुने बकम्पम्" [वा०] उदरे स्थितो मगिरस्य उदरेमाणः । "षे कृति बहुलम्" [३।१३२] इति ईपोऽनुपू । उष्ट्रमुखमिव मुस्वमस्य उष्ट्रमुत्रः। उपमानात्रयबत्वादुष्ट्रोऽप्युपमानम् । इह केशचूड़ः सुवलिङ्कारो देवदत्तः इति केशसम्भारे केशशब्दः । सुत्रर्णचिकारे मुत्रर्णशब्दो वर्तते । सङ्गतार्थः समर्थ इति निर्देशादेवंजातीयस्य वा अ॒ग्न ब्रष्टव्यम् । प्रपतितपर्णः प्रपर्ण। अविद्यमानभाः श्रमार्यः ।
संख्येये संख्यया झ्यासन्नादरसंख्यम् ॥१३८७॥ सख्थेथे या संख्या वर्तते तया कि श्रासन्न अदूर इत्येतानि संख्या च बसो भवति । अनन्याय वान्तेऽप्यन्यपदार्थ प्रापणार्थञ्च । समीपे दशानाभिमे उपदशाः । उपविंशाः । समीपप्राधान्ये तु हसः । श्रासन्ना दशानामिमे आसन्नदशाः । श्रासनविंशाः । अदूरदशाः। अदूरच वारिंशाः । द्वौ वा त्रयो वा इमे द्वित्राः। यो वा चत्वारो वा इमे त्रिचनुयः । "मविसूपत्रिभ्यश्चतुरः' [UTRI] इति अस्त्यो निपात्यते । त्रिर्दश इमे त्रिदशाः । वृत्यैवाभ्यावृत्तेमक्लत्वात् सुत्रोऽप्रयोगः। संख्यासंजाविधानेऽधिकशब्दस्यापि संख्यात्वमुक्तम् । अधिका दशानामिमेऽधिकदशाः । संख्येय इति किम् ? अधिका विंशतिर्गवाम् । संख्योति किम् ? पञ्च पदार्थाः। झ्यासन्नादूरसंख्यमिति किम् ? पार्थिवाः पञ्च ।
विशोऽन्तराले ॥१॥३८॥ दिक्छब्दाः सुचन्ता अन्तरालवचने बसंज्ञकः सो भवति । अन्तराल एवं यथा स्यादिति निवमार्थ प्रारम्भः । दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तराल दक्षिणपूर्वा । "सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पूर्वपदस्य बद्भावः' [a] इति पुवावः । उत्तरपदस्य "स्त्रीगोनी:" [INE] इति प्रादेशः । अन्तरालादशः स्त्रीलान्' पुनष्टाप् । अनेकमित्यशुवर्तनात् न्यसंज्ञायों द्वयोः पर्यायेण पूर्वनिपातः 1 एवं दक्षिणपरा | उत्तरपरा । उत्तरपूर्वी । प्रसिद्धानां दिक्छब्दानां ग्रहणादिह न भवति । वारुण्याश्च कौर्याश्च दिशोरन्तरालम् । तवमिति सरूपे ॥
१ ६॥ तत्रेति ईबन्ते द्वे सरूपे इदमित्येतस्मिन्नर्थे उसो भवति । इतिकरयात् ग्रहणविशिष्ट युद्धे विवक्षा । केशेषु केशेषु च गृहीखा इदं युद्ध वृच केशाकेशि । कचाकचि । " इच्' [२२] इति इच् सान्त इजिति तिष्ठद्वादी हसंशार्थ पठ्यते । “अन्यस्यापि' [३।२३२] इति पूर्वपदस्य दीलम् । अत्र सापेक्षत्यात् पूर्वेण वृत्तिन प्राप्नोति । सरूपे इति किम् ? केशेषु च कचेषु च गृहीत्वा इदं युद्ध वृत्तम् ।
तेन ॥२०॥ इदमिति सरूपे इति वर्तते । तेति भान्ते सरूपे इदमित्येतस्मिन्नर्थे बसो भवति । इतिकरणानुवृत्तेर्यत्तेनेति निर्दिष्ट प्रदरणं चेत्तद्भवति । दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहत्येदं युद्धं वृच दण्डादण्डि । मुसलामुसलि । सरूपे इत्येव । दण्डैश्च कमण्डलुभिश्च प्रत्येदं युद्ध वृत्तम् । योविभाग उत्तरार्थः । सहेति तुल्ययोगे ॥
१६॥ तुल्ययोगः समानक्रियादियोगः । तेनेति वर्तते । सह इत्येतत् सुदन्त तुल्ययोगे वर्तमानं तेनेति भान्तेन सह समस्यते बसो भवति । सह छात्रेण सच्छात्र प्रागतः । सशिष्यः ।
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• पा० ३ सू. १२-१७] महावृत्तिसहितम् सपुत्रः । "या नीचः' ( 180] इति महशब्दस्य सादेशः । तुल्पयोग इति किम् ? प्रत्यहं सट् शान भार वहति राखभी । विद्यमानताऽत्र सहाः। श्राद्य नैव सिद्ध हसनिवृत्यशं करभावार्थञ्च वचनम् । इनिशब्दो योगनिमागार्थः । तैनातुल्ययोगेऽपि क्वचिदूसः का च । तेन सकर्मकाचरेदों भवति । सपक्षको वादी बन इत्यादि सिद्धम् । अत्र हि चरेरेव देन योगो न कर्मणः । तथा बादिन एव च तेन योगो न पक्षस्य ।
___ चार्थे द्वन्द्वः ॥१॥३॥१२॥ यकृतोऽर्थवाघः । तस्मिन् वर्तमानमनेकं सुबन्तं द्वन्द्वसंज्ञः सो भवति । चत्वारश्चार्थाः। सभुच्चयोऽन्याचय इतरेतरयोगः समाहारश्चेति । तत्रानियतकमयोगपद्यानां द्वयादिवस्तूनामेक त्राध्यारोपः समुच्चरः । "गामा पुरुषं पशुराणालो वरतो न तृप्यति, सुरया व दुर्मदो ।' गुणप्रधानभावमाविशिष्ट : समुच्चय एवान्याचयः । यथा भिक्षामट गां चानयेति । इतरेतरयोगसमादारावपि समुश्चयस्य मेदौ । परस्परं सापेक्ष रामवयवभेदानुगत इतरेतरयोगः। अनपेक्षिता अवयवभेदाः संहतिप्रधानाः समाहाराः । श्रादयोश्वमन्तरेणापि क्वचित् प्रयोगात् । असामर्थ्याच नास्ति सविधिः । इतरेतरयोगे । 'लनन्यग्रोधौ छायां कुरुतः । समाहारे प्लक्षन्यग्रोधं सिध्यति । वास्त्वचम् । वाम्हषदम् | छत्रोपानहम् । इह द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिंशद्गणितेत्येवमादिपु समाहारेऽपि लिङ्गमशिध्वं लोकाश्रयत्वादिति नपुंसकत्याभावः । द्वन्द्र प्रदेशः "द्वन्द्वाच्चुवहषो राय' [२।१०८] इत्येवमादयः ।
वोक्त म्यक् ॥१॥३॥६३॥ सलक्षणसूत्रेषु यानिर्दिष्टं न्यमश भवति । तस्य प्रयोजनं पूर्वमित्यनेन पूर्वनिपातः। अधिस्ति । अधिकुमारि । भौति वोक्तम् । कष्टश्रितः । इबिति बोक्तम् । शकलाखएदः । मेति बोक्तम् । एवं सर्वत्र बोद्धव्यम् । वसेऽनेक सुबन्तं तस्य पूर्वनिपातनियममुत्तरत्र वक्ष्यति । इह राज्ञः पुरुषं श्रिव इति यत् प्रति यदप्रधान तत् प्रति तन्न्यसंज्ञ' भवति । कथमयं विभागो लभ्यते । न्यगितीयमन्वर्थसंशा। नीचैरञ्चतीति न्यगप्रधानमित्यर्थः।।
एकविभक्ति ॥३४॥ विभतिशब्दः पूर्वाचार्येष्टो निर्दिष्टः एका विभक्तिर्यस्य तन्यकर्म भवति । निष्कौशाम्बः । निर्मथुरः । “परम्" [३६५] इत्यनेन परनिपातार्यमेतत् । प्रादेशस्तु "नीयोनींच:" [1] इत्यत्र अन्वर्थस्य नीचः समाश्रयणात् सिद्धः।
परम् ॥ ६५॥ एकविभक्ति न्मकम्ज्ञ परं प्रयोक्तव्यम् । पूर्वमित्यनेन पृवैनिपाने प्राप्तेऽपादः । इइ धर्मश्रितः । धर्म नितेन धर्मश्रिताय इत्येवमादिपु 'योक्तम्" [३।११०] इत्यनेनैव न्वकर्मज्ञा म. स्पननकाशवात्ततस्तक
राजदातादौ ॥२३॥६६॥ राजदन्तादिषु म्यक् परं प्रयोक्तव्यम् । उत्तरसूत्रः प्राप्तस्य पूर्वनिपातस्यापवादोऽयम् | दन्तानां राजा राजदन्तः । वनस्याने अग्रेवणम् । गणपाटादनुप् । लिमबासितं नग्नमुषितम् अक्लिन्नपक्कं सिक्तसमृष्ट भष्टलुञ्चितम् अर्पितोप्तम् उप्तगाढभेतेषु पूर्वकालस्य परनिपातः । उलूखल मुसलं तन्दुलकिएवम् । श्वारग्बायनियन्धकी। चित्ररथभाहलीकम् | अविश्मकम् । शर् दार्यम् । स्नानकराजानौ। विष्वक्सेनार्जुनौ । अक्षि श्रुवम् । दारगवम् । शब्दायौं। धर्मार्थो | कामाों। अक्षु व्यत्ययोऽपि । अर्यशब्दो। अर्थधौं । अर्यकामौ । चैयाकरणमराम् । भोजवानी। गोपाल धानीप्लासम् । पुलास. करण्डम् । उशीरथीजम् । सिजस्थम् । शिक्षास्त्री। चित्रास्वाती। भार्थापती | जायाफ्ती। जम्पती । दम्पती। बायाशब्दस्य जम्माबो दम्भावश्च निपात्यते । पुत्रपती । पुत्रपशू । केशश्मश्रुः । शिरोबिन्दु । सपिर्मधुनी। मधुसर्पिषी । श्राद्यन्तौ । अन्तादी । गुणवृद्धी । वृद्धिगुणौ ।
पूर्वम् ॥१॥३।६७॥ न्यगिति वर्तते । न्यसंज्ञ पूर्व प्रयोक्तव्यम् । वाक्यवद् वृत्तानियमो मा भूदित्यारम्भः। उक्लान्युदाहरणानि । यत्र दे अपि तान्ते रासः पुरूपस्योत तत्र कस्य न्यक न्यगियन्त्रर्थमंशाअयणादाजशब्दस्य ।
- 1. सर्वकाकस्य २०, स.
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जैनेन्द्र-ज्याकरणम् [.. पा. ३ घू. 11-10५ इन्छे सुः ॥२॥३॥६॥ द्वन्दे से स्वन्तं पूर्व प्रयोक्तव्यम् | मुनिगुतौ । यद्गुप्तौ। अनेकप्राप्तावनियमन मुनिपटुगुप्ताः। पट्टमुनिगुप्ताः । पटुगुप्तमुनयः। न्यागत्यन्वर्थसंशा । द्वन्द्वे च न कस्यचिदप्राधान्यमित्यप्राप्ते पूर्वनिपात इदं सूत्रम् ।
अजायत् ॥१।३।६६॥ अजादि अदन्तं शब्दरूपं द्वन्द्व से पूर्व प्रयोक्लय्यम् । इन्द्रचन्द्रौ । उष्ट्रखरम् । उष्ट्रशशम् । इह इन्द्राग्नी । इन्द्रवायू इति सुलक्षणात् परत्वादनेन पूर्वनिपातः । उभयत्र वायोः प्रतिषेध इति श्रानङ् न भवति । बहुप्वनियमेन इमरथाश्वम् । अश्वरथेभम् । तपरकरणं किम् ? वृक्षाश्चे । श्रश्वानुक्षौ ।
अल्पान्तरम् ॥१॥३॥१००॥ अल्पाचतरं शब्दरूपं द्वन्वे. पूर्व प्रयोक्तव्यम् । धवखदिरौ। धवाश्चकणम् । “बहुधनियमः" [वा०]। वीणादभिवाः । शलमिलीग : "Tenानाझरा. यामामुपूर्येच पकम्पम् [वा०] 1 शिशिरवसन्तौ। हेमन्तशिशिरक्सन्ताः। अश्विनीभरण्यः। कृत्तिकारोहिण्यः । समानाक्षाणामिति किम् १ ग्रीष्मसन्तौ । “अक्षरस्य पूर्वनिपातो वक्तव्यः' वा०] 1 कुशकाशम् । ता. काष्ठम् । "वर्णानामानुयेण" [घा०]। ब्राह्मण क्षत्रियविशुद्राः । 'भ्रातुश्च ज्यायसः" [गा.] युधिष्टिरार्जुनौ । "संख्याया अल्पीयसो वाचिकायाः" [वा०] द्वित्राः । एकादश । नतिशतम् | माहितस्य च' [वा०] मातापितरौ । श्रद्धामधे । दीक्षातपसी।
इविशेषणे चे ॥३३॥१०॥ ईनन्त विशेषणं च बसे पूर्व प्रयोक्तव्यम् | बसे अनेक सुधन्तं न्य संमित्यनियमे प्राप्तेऽयमारम्भः । कएठेकालः । उरसिलोमा । उदरेमणिः | बहेगडः । “अकामेमस्तकात् स्थानम्। [३।१३१] इत्यनुस् । चित्रगुः । लम्बकर्णः। "सर्वनामसंख्ययोः पूर्वनिपातो बकम्म:।' [वा० । सबै श्वेतमस्य सर्वश्वेतः । सर्वगौरः । द्विशुक्लः । द्विकष्णः । सर्वनामसंख्ययोः परस्पर वृत्तिः । वास्ये संख्यायाः परत्वात् पूर्वनिपातः । दूधन्यः | त्र्यन्यः । “धा नियस्य'' [41] । प्रियदधिः । दधिप्रियः । कथं गहु. कण्ठः । गडशिराः । श्राहिताग्न्यादिषु द्रष्टव्यः ।
तः ॥६॥३॥१०२॥ तान्तं बसे पूर्व प्रयोक्तव्यम् । कृतकटः । मिक्षितभिक्षः । अवमुक्तोपानत्कः । तान्तस्य विशेषणत्वेनाविवक्षितत्वात् पूर्वेण न सिध्यति । कथं क्वचिजातिकालसुम्बादिभ्यश्च तान्तस्य परप्रयोगः (प्रातः) । सारङ्गजन्धी। पलाण्डुभक्षिती । कालालू-मासजाता । संवत्सरजाता। सुखादिभ्यश्च सुखं नाते यस्याः सुखजाता । दुःखबाता । वाऽहिताग्न्यादिषु व्यवस्श्रयेदं भविष्यति । प्रहरणार्थेभ्यः परे चेपो वक्तव्ये । उद्यवोऽसिरनेन अस्युद्यतः । मुसस्तोद्यतः । असिः पाणावस्य असिपाणिः । दण्डपाणिः । कथमुद्यतगदः । उग्रतासिः । इदमपि वेति सिंहावलोकनात् ।
वाऽऽहितान्यादौ ॥१॥३१०३॥ श्राहिताग्न्यादिषु बसे तान्तं वा पूर्व प्रयोक्तव्यम् । अाहिताग्निः । नम्न्याहितः । एवं जातपुत्रः । बातदन्तः । जातश्मश्रुः । तेलपातः । घृतपीतः। मद्यपोतः। ऊदभार्यः । अर्थगतः । प्राकृतिगणोऽयम् । तेमेष्टयो न वक्तव्याः।
ये कडाराः ॥१३॥१०४॥ ये कहारादयो का पूर्व प्रयोक्तव्याः । कडारश्च स भद्रश्च स कडारभद्रः। भद्रकशा । विशेषणस्य "वोकं स्य" (१॥३/१३] पूर्वनिपातः प्रासो विभाष्यते । कबार गहुल कूट काण खख कुण्ट खोड खलति गौर वृद्ध भिक्षुक पिङ्गल तनु नट बधिर ।
उत्तरपर्व धु ॥१॥३।१०५॥ से यदुत्तरपदं तद्य संच भवति । पञ्चगवधनः । द्यौ परतः पाप (थ) असमाहारे [ ४] इति पूर्वस्य स) संज्ञायां टः सान्तः सिद्धः । एवं दे अहनी घातस्य घाइपावः । "काला मेयः" इति समुदायस्य घसंज्ञा द्यौ परतः पूर्वस्यापि षसंज्ञायां टः सान्तः ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य तृतीया पदः समाः।
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भ. पा. सू. 1-]
महावृत्तिसहितम् अनुफ्ते ॥११॥ अनुक्त इत्ययमधिकारः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्याम अनुक्त इत्येवं तद्वेदितव्यम् । स्वार्थद्रव्यलिङ्गानि त्रिको मृदर्थ इति अस्मिन् दर्शने स्वार्थिकाष्टात्रादयः संग्ळ्याकर्मादयो विभत्यर्थाः। एवं च "कर्मणी' [१२] इत्येवमादीनां 'साधने स्वार्थे" [११२।१५३] इत्येतस्य च गुणप्रधानभावेनैक्यता । स्वार्थंकवादिविशिष्ट कर्मानियाकधिचादयो भवन्ति । अथवा अनुक्काबाश्रयेप्येकन्यादिष्विवादयो भवन्ति । इह परिसंख्यानमिति केचित् । मिऋद्वत्सैरनुक्त कांदाकिने । वयति 'कर्मणप्" [१२] । कटं करोति । प्रोदनं भुत । अनुकते इति किम् ? क्रियते करः । मिडोक्तं कर्म । कृतः कटः । तोक्तं कर्म ।
आद्धिको देवदत्तः । " भुक्त टीsनन'' [vii111) इति उः । हतारतः कर्ता । शतेन क्रीतः ! "शता. पस्वाऽसे ठयौं [३।४।१८] इति यः । इतोक्तं करणमिति । कर्तरि करणे च भा न भवति । प्राप्तमुदकं यं ग्राम स प्राप्तोदको ग्रामः । सेन काक्तिम् । मिड कद्भुत्लैरिति परिसंख्यानं किम् ? कटं करोति भोष्मभुदार दर्शनी यम् | अत्र कटशब्दादुत्पद्यमानया इपा उक्ते कर्मणि भीष्मादिभ्य इम्न स्यात् । तदेतत्परिगणनमयुक्तम् । कटोऽपि कर्म भीष्मादयोऽपि न ह्यसौ कटमान्ने सन्तोषं करोतीत्यनेक कम गृह्यते । समुदायस्य चामृत्त्वात् प्रत्यवयवाद्विमत्युत्पत्तिः । इह आसने अास्ते शयने शेते इति अन्यो हाधिकरणप्रत्ययः सामान्येन युटाऽभिहितो अन्यश्च विशेषरूपेण विभक्त्योच्यते इति न दोषः ।
कर्मणीप ॥२४२॥ कर्माण कारके अनुक्त इय् विभक्तिभंति । कटं करोति । ग्रामं गच्छति । श्रादित्यं पश्यत्ति । अविशे। या मृदः स्वादयो वक्ष्यन्ते | तन्निबमोऽयं कर्मादिष्वेव इबादयो भन्ति । इबादयो नियताः। कर्मादयस्वनियताः । ताऽपि प्राप्नोति । तत इदमुच्यते "ता शेषे" [१५] इति शेष ता भवति' नोक्ते कर्भादौ ।
अन्तरान्तरेण यांगे ॥१४॥३॥ प्रतिपदाकत्यादिहान्तसन्त रंगाश-दौ निमंजौ नाम्यां योगे इविभक्रीभवति । अन्तरा गन्धमादनं माल्यवतन्य कुरवः । कुमधिशेषणात्वन ताय प्राप्सायामिविधीयते 1 कुरुशब्दार्थ वर्तमानात् मृदर्धातिरेकाभावात् इम्न भवति । अन्तराशब्दो मध्यमाघेवप्रधानं व्रते । अन्तरेणशब्दः तन्न विनार्थ च । अन्तरेण मौमनसे विद्युअमञ्च देवरवः । मोनमन्तरेण नात्यन्तिक सुखम् । निसंज्ञयोर्ग्रहणादिह न भवति । अन्तरावां पुरि यसति । किं ने धावाणां सालङ्कायनानां चान्तरेण गतेन । योग इति किम् ? अन्तरा तक्षशिलाञ्च पाटलिपुत्रश्च सनष्य प्राकारः । ननु पदविधिरयं अन्तराशब्द सामर्थ्यान
घ्नशब्दादिग्न मयिष्यति योगाहणमनर्थकम् । क्वचिदम्पेरपि योगे यथा स्थादित्येचमर्थम् । "अभितः परितः समयानिकपाहाप्रतियोगेषूपसंख्यानम्' धा०] अभितो ब्रामम् । परिवों ग्रामम् । समया ग्राभम् | निकरा ग्रामम् । हा वदत्तम् । वृणीष्व भद्रं प्रतिभाति चेत्वम् । बुमुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित् । “उभसर्वतसो: कार्यों चिगुपर्यादिषु निषु । कृतद्वित्वेचिपा योगस्ततोऽन्यत्रापि दृश्यते" [वा०] उभयतो ग्रामम् । सर्वतो प्रामम् । घिग्देवदत्तम् । उपर्यादिष्विति सूत्रोपलक्षणम् । सामीप्येऽधोऽध्युपरि ["उपर्यध्यधसः सामीप्ये"] [३५] इति द्वित्ले कृते त्रयाणां ग्रहणम् । अधोऽधो प्रामम् । उपर्युपरि प्रामम । अभ्यधि ग्रामम् | "सन्पनाऽपि रश्यते" [वा०] बिना धर्म कुतः सुन्नम् । आप शब्दान्न च दृश्यने । हा तात हा पुत्र वत्सल ।
कालाध्वन्यविच्छेदे ॥ २४ाट ॥ अविच्छेदोऽत्यन्तसंयोगः । द्रव्यगुणक्रियाभिः कायंन कालाधनो सम्बन्ध इत्यर्थः । कालाधनोरविच्छेने वर्तमानयोः सतोरिन् भवति । अन्यस्याश्रुतत्वात कालाध्वया चिभ्यामेवाधिकरणत्रिपक्षायामीपि प्राप्तायां तदविवक्षायां सम्बन्धलक्षणायां तायां प्राप्तायामयं विधिः । कालस्य द्रव्येगा योगे-मासं गुडापूपाः । संवत्सरं क्षीरोदनम् । गुणेन-शरदं मथुरा रमणीया । मार्स कल्याणी काम्ची | क्रियया-मासमधीते । सेवत्सरमधीते । श्रध्वनो द्रव्येण योगे-क्रोशं सिकताः । योजनं वनराजिः । गुग्णन
१. कौरवेन विवक्षन्या मेत्यर्थः । २.-म्बान्तर कुरवः मुन् । ३.-विग्न भवति ५०, स.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् म. पा० । सू. ५-११ जोशं कुटिला नदी। योजनं दीर्घः पर्वतः। क्रियया-क्रोशमधीते । योजनमधीते । अविच्छेद इति किम ! मासस्य द्विरधीते । कोशस्यैकदेशे पर्वतः।
सिद्धौ भा ॥१॥४॥५॥ अविच्छेद इति वर्तते । सिद्धिः क्रियाफलनिष्पत्तिः । अविच्छेदे यो कालाध्वानी तद्वाचिभ्यां भा भवति सिद्धी गम्यमानायाम् । मासेन प्रामृतमधीतम् | योजनन प्रातमधीतम् । सिद्धाविति किम् ? मासमधील प्राभूतं न चानेनावधारितम् । नात्र क्रिया फलनिष्पत्तिरस्ति पूर्वण इवेव भवति ।
क्रियामध्ये केपौ ॥शा॥ कालध्वनीति वर्तते । क्रिययो मध्ये यौ कालाध्वानौ ताभ्यां को विभक्त्यो भवतः । अद्य भुक्त्वा मुनि हासोक्ता यहे भोक्ता । इहस्थोऽयमिष्वासः कोशाद् विध्यति क्रोशे विध्यति लक्ष्यम् । चापाच्छरस्य निर्गमनं धानुष्काचस्यानं वा एका क्रिया द्वितीया व्यधनक्रिया तयोमध्ये कोशशब्दात्ता $1&1 i
सुः पूजायां न मिति ॥रावा॥ सुशब्दः पूजायामर्थे गिसंशस्तिसंज्ञश्च न भवति । सुस्थितं भवता । मुसित भक्ता। गिसंज्ञाश्रयं षत्व' न भवति | तिसंज्ञाप्रतिषेधे यद्यपि तिसंज्ञाश्रयः सविधिन भवति, तथापि प्रादिलक्षणो भविष्यति । स्वती पूजापामिति वचनात् । सुसिव्य गतः । तस्मादुत्तरार्थ तिसंज्ञाप्रतिपंधवचनम् । पूजायामिति किम् ? सुषिक्तं किं तवाऽत्र ।।
अतिक्रमे चाति ॥शक्षा॥ अतिक्रम प्राधिक्यम् । अतिक्रमे पूबायाञ्चातिशब्दो गितिसंज्ञो न भवति । अतिरिक्तमेव भवता । अतिस्तुतमेव भवता । गितिसंशाश्रयः प्रादिलक्षणश्च सविधिन भवति । अतिसितवैव गतः। पूजायाम्-अतिसितमतिस्तुतं भवता । स्वती पूजायामिति प्रादिलक्षणः सविधिः । अतिसिच्य गतः । "प्यस्तिबाक्से क्वः" [ ३३] इत्यत्र तिग्रहामुपलक्षणं प्रादियऽपि प्यादेशः।
पदार्थसंभावनाऽनुशागहासमुच्चयेऽपिः ॥९॥ अप्रयुज्यमानस्य पदस्यार्थः पदार्थः । समावनं सामाविष्करणम् | अनुशा अभ्युपममः | गर्दा निन्दा। एकत्रानेकस्य नियोजन समुच्चयः । एतेष्वर्थेष्वपिर्गितिसंशो न भवति । पदार्थे-सर्पिषोऽपि स्यात् । पयसोऽपि स्यात् । बिन्दुः लोक मात्रा चेत्यस्यार्थेऽपिशब्दः । सम्बन्धे च ता । संभावने-अपि सिञ्चन्मूलकसहस्त्रम् | अपि स्तुयाद्राजानम् । अनुज्ञायाम्-- अपि सिश्च । अपि स्तुहि । अतिसमें लोट् । गहीयाम्-घिग बाह्मणमपि सिञ्चत्पलाण्डुम् । अपि स्तुयादपलम् । "अनववस्तुपयम" [२१३।१२३] इति लिङ्क | समुच्चये-अपि सिञ्च | अपि स्तुहि । सिञ्च च हि चेत्यर्थः । गिसंगाश्रयं प्रत्यादिकार्य न भवति ।।
अधिपरी अनर्थको शार०॥ ननर्थकावनान्तरस्वाचिनौ । अधि परि इत्यती अनर्थको गितिसंशो न भवतः । कुतोऽभ्यागतः । कुतः पर्यागतः। गितिसंशाश्रय सविधाने न भवति । "प्रार धोस्त" [॥२१॥] शति प्रयोगनियमश्च न भवति । इह च पर्यानद्धामति एवं न भवति ।।
वीप्लेथम्भूतलक्षणे भिनेप् ॥१४॥११॥ न गितिरिति वर्तते योग इति च । त्रीप्सा इत्यम्भूत लक्षण इत्येतेश्वर्थेषु अभिना योगे इविभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । वीप्सायाम् – वृक्ष वृक्षमाभसिन्चति । इत्थम्भूते- साधुर्देवदत्तो मातरमभिस्थितः । इत्थम्भावोऽमिना गम्यते 1 लन्नणे-वृक्ष मभिसिञ्चति । वृक्षमभिविद्योतते । गितिसंज्ञापतिपेधात् पत्र "प्रागधोस्ते' [११२।१४५] इति नियमन न भवति ।
भागे चानुप्रतिपरिण ।।१।४।१२।। भागेऽथे वीप्सेत्याभूतलक्षणेषु च अनु प्रति परि इत्येतांगे प्रत् भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । भागोऽत्रांशः । यदा मामनुस्यात् मां प्रति स्यात् मा परि स्यात् वहीयताम् । वीप्सायाम- वृक्ष वृक्षम् अनुसिञ्चति प्रतिसिञ्चति परिसिञ्चति । इत्यम्भूते-साधुदेवदत्तः मातरम
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स.।
१. सु २०, मु.। २. चाति भ., स.।।, येऽपि स.। . पर्यानतमिति , १. वृक्षमभिसजति म०,40, स.।
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अ० १ पा० ४ सू०१३-२२]
महावृत्तिसहितम्
नुस्थितः मातरं प्रति मातरं परि । लक्षणे-~-वृक्षमनुसिञ्चति प्रतिसिञ्चति परिसिञ्चति । वृक्षं प्रति वियों तते । एतेविति किम् ? अोदनं परिपिचति । अनुमतिपरिणेति किम् ? यदत्र मामभिष्यात् । अभेभांगे गितिसंज्ञा भवत्येव सगित्वात् सकर्मकस्य कर्मणीप षत्वं च भवति ।
हेतावनुना ॥२११३॥ हेतावर्थे अनुना योगे इश्विभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । जिनस्य ज्ञानोत्पत्तिमन्यागमन्सुराः । मुराणामागमनत्य जिनज्ञानोत्पत्ति तुः। एवं शान्ति वरितपट्टकप्रसारण गनु प्रादघन् पर्जन्यः । यदपि इन्धभुते लक्षणे धार्थेऽनुना योगे सिद्ध वेप तथापि येन नामाप्सन्यायेन शेषलक्षणश्या. स्तायाः सोऽपवादः । हेत्वर्थे तु परत्वाझा प्रसज्येत तद्वाधनार्थमिदम् ।
भार्थे ॥११४।१५। भार्थः सदशब्दस्वार्थः । भाऽनुना योगे इजु भात गितिसंज्ञाप्रतिधश्च । नदीमन्वयसिता सेना । नदीमन्ववसिता नगरी । नया सह सम्बद्धेत्यर्थः । एवं पर्वतमन्त्र यसिता सेना |
हीने ॥शा१५॥ अनुनेति वर्तते | होनार्थे छोत्ये अनुना योगे इव भवति गितिसंशापतिपंधश्च । उत्कृष्टापेक्षया हीनो भवतीति सामर्थ्यादुत्कृष्टादिप् । अनु शालिभद्रमायाः । श्रनु समन्तभद्रं तार्किकाः ।
उपेन ।।१।४।१६। हीना) उपेन योगे इद् भवति न गितिरांज्ञा च | :पसिंहनन्दिनं कवयः । उपसिद्धसेन वैवाकरणाः ।
ईयधिके ।। ११४॥१७॥ ईटिवभक्ती भवति अधिकार्थे द्योत्ये उपेन योंगे। उप खार्या द्रोणः । उपनिएके कार्षापणम् | यस्मादधिकं मृदातिरेकात्तत ईपू ।
ईश्वरेऽधिना ॥ ११ ॥ ईश्वरशब्द ईश्वरेंशितव्यमंबन्धभुपलभवति । ईश्वरे द्योल्यै अधिना योगे ईश्वभक्ती भवति न गितिसंज्ञा च । उत्तरसूत्रात विभाषाऽवलोकते । तत ईश्वरादीशितव्याच पर्यायेणेप् । अघि मैश्वरे कुरवः । अधि कुषु मेरेश्वरः । इह विभक्त्यर्थं हसः कस्मान्न भवति विभ कीशब्देन तत्र कारकं गृह्यते । ईश्वरेशितव्यसंबन्धश्चात्र न तु कारकम् ।
या कृमधिः ॥१४॥२६॥ ईश्वर इति वर्तते । अधिशब्दः करोती वा गितिसंशो भवति । तमधिकृत्य तमधिकृत्या । ईश्वर कृत्वेत्यर्थः । अत्र कर्मणीप् | पुनरधिग्रहणं गितसंज्ञाप्रतिषेधार्थमेव न यीचर्थम् ।
फाउला मर्यादाबचने ॥रासा२०॥ काविभक्ती भवति प्राडा योगे मयांदावचने गितिसंज्ञाप्रति पंधश्च । श्रा पाटलिपुत्रात् वृष्टो देवः । श्रा मथुरायाः । मर्यादायामिति सिद्ध वचनग्रहणमभिविधिसंग्रहा. र्थम् । श्रा कुमारेभ्यो यशः समन्तभद्रस्य । मयांदायचन इति किम् ? ईषदर्थ क्रियायोगे च मा भूत् । आकडारः। श्रावद्वमाभरणम् ।।
वजनेऽपपरिभ्याम् ॥१४॥२१॥ विक्षि तेनामबन्धी वर्जनम् । पर्जनेऽर्थे अप परि हत्यताभ्यां योगे काविभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिपंपश्च । अप त्रिगतेभ्यो दृष्टो देवः । "परेवर्जने' [३४] इति वा द्वित्यम् । परि परि त्रिगर्तेभ्यः । बर्जन इति किम् १ श्रीदनं परिषिञ्चति ।
यतः प्रतिदाप्रतिनिधी प्रतिना ॥१॥२२॥ प्रतिदान प्रतिदा प्रतिनिधीयत इति प्रतिनिधिः मुख्यस्य सदृशः। प्रतिना योगे यतः प्रतिदा यतश्च प्रतिनिधिस्ततः काविभही भगति न मितिसंज्ञा च । प्रतिदायाम-मावानस्पै तिलेभ्यः प्रतियच्छति । तिलान् गृहीखा माषान् ददातीत्यर्थ । एवं सर्पिषोऽस्में तैले प्रतिसिंञ्चति । सर्पियोऽत्मै नलं प्रतिसितवा व्रजति-प्रतिनिधौ अर्फकोतिर्भरततः प्रति ! अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति । प्रतियोगे "कायास्तसिः [ स्तस् ]' [111७३] इति तसिः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[20पा0 ४ सू. २५-२.
संप्रयानेऽप् ॥१॥२३॥ संप्रदागे कारके अब्बिभली भवति । त्रिपृष्ठाय स्वयंप्रभामदान् । क्रिययाऽपि कर्मभूतया यदाप्यते तदपि संप्रदानमुक्तम् । देवदत्ताव रोचने । पत्ये शेते । श्वभ्यो वर्षति । भिक्षकेभ्यो वर्षति । तदर्थेन सविधिवचनं ज्ञापकं तादर्थेऽब् भवतीति । स्थाय दारु । स्धनाय थाली । अवहननायोलूस्खलम् ।
वर्थवाचः कर्मणि स्थानिनः ॥१४॥२४॥ वर्थः क्रिया । विथों बागम्य स ध्वर्थयाक । तस्य स्थानिनोऽप्रयुज्यमानस्य धोः कर्मणि कारके अब्धिभक्ती भवति 1 यत्र यस्यार्थः प्रयोगमन्तरेण प्रतीयते स तत्र स्थानी। एवेभ्यो व्रजति । अत्र आह मित्येतत्त मन्तं पदं स्थानि। तदेव च ध्वर्थवाकः । कर्मणीगेऽपवादोऽयम् । तादयन सिमिति चेत् स्थानिनो यथा स्यात् प्रयुज्यमानस्य मा भूत इत्येवममिदम् । ध्यर्थयाच इति किम् ? प्रविश पिण्डीम् । प्रनिश तर्पणम् | अल्पत्र भनय सिश्चेति च स्थानी न तु वर्षवाक् । कर्मणीति किम् ? पधेभ्यो ब्रजति शकटेन । स्थानिन इति किम ? एधानाहते व्रजति ।
तुमर्याङ्गाये ॥१॥४॥२५॥ तुमा सगानाऽयस्तुमर्थः। तुमर्था मावे वर्तमानो यस्त्यस्तदन्तान्मृदोऽव भवत्ति । "दुण्तुमौ कियायाँ तदर्धायाम्' [२।३।८] इति वर्तमाने भावे "भाववाधिनः" [२३] इनि वक्ष्यति तेषां घत्रादीनामिह ग्रहणम | पाकाय जति । मतये व्रजति । पुष्टये मजति । अत्र तदर्थायां क्रियायां त्यस्य विधानात् तादर्थ्य तेनैवोक्तमिति तायें अय् न प्राप्नोति । तुमर्थादिति किम् ! पाकः | त्यागः । भाव । चति किम् ? कारको जति ।
नमःस्वस्तिस्वाहावधालंचषड्योगे ॥१४१२६॥ नमम् स्वस्ति स्वाहा स्वधा अलं कपट इत्ययोग अधिभक्ती भवति । नमो देवेभ्यः । स्वास्त प्रजाभ्यः । अाशीविवक्षायां कुशलाथै योगे ताडपो प्रासे ताभ्यां पूर्वनिर्णयेनायमेव नित्यो विधिः । स्वस्त्यस्तु गोभ्यः । स्वरित प्रजाभ्यो भूयात् । स्वाहा इन्द्राय | स्वाहा अनये । स्वधा पितृभ्यः । अलं मल्लो मल्लाय | अलमिति पर्याप्त्यर्थानां ग्रहणम् । “तस्मै प्रभवति" [३६] इति निर्देशात् । प्रभुमल्लो मल्लाय | समर्थो मल्लो मल्लाव । अन्यत्रापि कस्लान भवतीति ? कन्यामलङ्क रुते । अलं रोदनेन । "वाग्विभकः कारकविभक्ती' बलीयसी' इति कर्मणीपू । करणे च भा भवति । बधइग्नये। वर्षाइन्द्राय । योगग्रहणं किम् ! नमो जिनानामायतनेभ्वः । ननु थाम्मृदः स्वादयो विहिताः। तदन्तविषयोऽयं नियमः पविधिः। ततोऽसामर्थ्य देव जिनशब्दान्न भविष्यति योगग्रहणमनर्यकम् । अन्यैरपि योगे यथा स्यात् इत्येवमर्थम् । “हितशब्दयोगे उपसंख्यानम्" [वा०] अरोचकिने दित्तम् ।
मलप्त्यर्थंधुप्रयोगेऽन्वतम्या" वा ] मूत्राय प्रकल्पते यवागूः। मूत्राय संपद्यते । प्राय जायते । भिन्न विकारापत्तौ चेदं वक्तव्यम् | अभेदे मूत्र संपद्यते यवागूरिति बैच भवति । विकारग्रहणं किम् ? देवदत्तस्य संपवते यवागूः । मूत्र संपद्यते यवाग्वाः । "उत्पातेन झाप्यमानेऽवक्तव्या [वा. ] 4
"वाताय कपिला विद्युदातपायातिलोहिनी। पीता वर्षाय विक्षया दुर्भिकाय भवेरिसता ।
तेनैतत् सर्व लब्धम् । प्रकृष्धगहें मन्यकर्मण्यजीवे घा ||१४२७|| प्रकृष्यगऽतिशयतिरस्कारः। प्रकृष्यगहें गम्ये मन्यतेः कर्मणि जीववजिते वा अब्धिभक्ती भवति । न त्वा तृणुं मन्ये । न वा तृणाय मन्ये । न त्वा बुर्स मन्ये । न त्वा नुसाय मन्ये । प्रकूष्यति किम् ? काष्ठं त्वां मन्ये । लोष्ठं वा मन्ये । न त्वा नावं मन्ये । यावतीर्ण नात्यम् | न वा अन्नं मन्ये । यावद् भुक्तं श्राद्धम् | गई इति किम् । इन्द्रनीलात् पद्मरागम
१.-किमही-म०, 40, स० ।
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अ० पा० ४ ० २८-३४ ]
महावृतिसहितम्
६६
विगुणं मन्ये । प्रशंनेयम् । उभयग्रहणं किम् ? प्रश्मानं दृषदं मन्ये । स्वरूपकथनमेतत् । मन्यग्रहणं किम् ? न त्वा तृणं चिन्तयामि । विकरमा निर्देशः किए १ं ये अजीव इति किम् ? न त्वा श्वानं मन्ये । मालं मन्ये । श्रवाचित्वाद् युष्मदस्मदादेरविभक्ती न भवति ।
संशोभा || १४|२८|| कर्मणीति वर्तते । संपूर्वस्य जानातेः कर्मणि भा भवति । मात्रा संजानीते । मातरं संजानीते । पित्रा संजानीते । पितरं संजानीते । " संप्रतेरस्मृतौ” [१।२।४२ ] इति दा । वेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तते । तेन दविषये भाविकल्पः । स्मृत्यर्थे मविधिः । तत्र मातुः संजानाति । मातरं पंजानाति । "स्त्रददयेश कर्मणि' [१|४|११] दयत्र ताविकल्पं वक्ष्यति । कृत्प्रयोगे परत्वात् "कर्तृकर्मणोः कृति " [१४६८ ] इति तैय भवति । मातुः संज्ञाता |
कर्तृकर भा ||११४१२६ ॥ कर्तरि करणे च कारके भाविभक्ती भवति । देवदत्तेन भुक्म् । जिन दत्तेन भुक्तम् । करणे - दात्रेण लुनाति । भेति वर्तमाने पुनर्भाग्रहणं किम् ? प्रकृत्यादिभ्यो यथा स्यात् । प्रकृत्याऽभिरूपः । प्रकृत्या दर्शनीयः । प्रायेण वैयाकरणः। काश्यपोऽस्ति गोत्रेण । समेन धावत । विषमेण धावति । द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति । पञ्चकेन पशून् क्रीणाति । सहस्रेण श्रश्वान् क्रीणाति ।
सहार्थेन || १|४|३०|| योग इति मण्डूकप्लुत्याऽनुवर्तये । सहशब्दार्थेन योगे भाविभक्ती भवति । प्रधानस्य मृदतिरेकाभावादप्रधाने भवति । पुत्रेण सहागतः । पुत्रेण सह पिङ्गलः । पुत्रेण सह धनवान् । अत्र प्रधानाप्रधानयोः क्रियागुणद्रव्यसम्बन्धे सति सहयोगः | अर्थग्रहणं किम् ! पुत्रेण सार्द्ध भागतः । पुत्रेण समम् । पुत्रेण साक्रम् । पुत्रेणाभा । " तस्य द्रोणस्य संग्रामः सारणेन गदेन च । युगपत् कोषकामाभ्यां मनीषिण इवाभवत्" | विनाऽपि सहशब्देन तदर्थसंप्रत्ययमात्रे च भवति । "अन्त्येनेताऽदि : ” [1111७३] अन्त्येन सह श्रादिरित्यर्थः । योग इत्येव । शिष्येण सहोपाध्यायस्य गौः । पुत्रेण सह स्थूलो ग्रामें । उपाध्याय शब्दस्य प्रामशब्दस्य च नास्ति सहशब्देन योगः ।
येनाङ्गिविकारेत्थम्भावी || १ |४| ३१ ॥ श्रङ्गिविकारः शरोरविकृतस्त्रम् । अनेन प्रकारेण भवनमिस्भावः । कचिदेव छात्रादौ प्रकारे वृत्तिरित्यर्थः । येनाङ्गिनी विकार इत्थम्भावश्च लक्ष्यते ततो भाविभक्ती भवति । श्रच्णा काव्णः । पाणिना कुणिः । पादेन खञ्जः । इत्थम्भावेऽपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् । या परिवाजकमद्राचीत् । सहार्थेनेत्यस्याविवक्षायामिदं द्रष्टव्यम् । श्रह्निविकारेत्थम्भावाविति किम् ! अक्षि कारणमस्य वृक्ष प्रति विद्योतते ।
सौ ||१|४|३२|| तात्रित्यर्थनिर्देशः । देवावर्थे भा [च] भवति तद्वाचिनः । अन्नेन वसति । धनेन कुलम् 1 विद्यया यथः । इह लौकिकफलसाधनयोग्य: पदार्थों हेतुग्टह्यते । "तच्चो को हेतुः " [१।२।१२६] इत्यस्य पारिभाषिकस्य प्रयोगे सिद्धत्र भा । उत्तरसूत्रे त्वविशेषण हेतोय इयं द्रव्यम् ।
कर्त्तरि || १ | ४|३३|| हताविति वर्तते । कर्तृ वर्धिते ऋणे हेतौ काविभक्तीत भापयादोऽयम् । शताद्वद्धः । सहस्राद्धः । उत्तमणोऽत्र कर्ता । कर्तरीखि किम् ? बद्धस्त्वया देवदत्तः । नाऽहं बध्नामि । शतं मे धारयति । शतेन बद्धः । बन्धितस्त्वथा देवदत्तः । नाऽहं बन्धयामि शतं मे धारयति । शतेन चन्वितः । कथं देवदत्तेन शर्तेन बन्धितः । एकस्य हेतुकर्तृत्वपरस्य प्रयोज्यकर्तृ लमित्य दोषः । केति योगविभागः । तेन हेतौ काऽपि भवति । कृतकत्वादनित्यः । श्रनुपलब्धेर्नास्तीति ।
गुणे श्रीदत्तस्याऽस्त्रियाम् ||१|४|३४|| देताविति वर्तते । अस्त्रीलिङ्गे गुणे हेतौ श्रीदत्तस्याचास्भतेन कामक्की भवति । अन्येषां मतेन हेताचिति भा । नाच्याद्वद्धः | जाड्येन बद्धः | पारिख्यात्यान्मुक्तः ।
१. व सु० । २. व मु० । ३. कृतम् अ०, ब०, स० ४ मम्यस्य म०, ब० स० । ५. " मिति न दोषः " ० २० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० पा० ॥ सू० ६५-३६
पारिख्यात्ये न मुक्तः । गुण इति किम् ! धनेन कुलम् । अस्त्रियामिति किम् ? बुद्धया मुक्तः ।
ता हेतौ ॥१॥४॥३५॥ हेताविति शब्दनिर्देशोऽयं हेलर्थस्य तु प्रकृतवात् । हेनुशन्दे प्रयुक्त हेत्वा ता भवति । अन्नस्य हेतोत्रसति । अध्ययनस्य हेतोर्वसति । भिक्षाया हेतोर्वसति । हेतुशब्दोऽपि हेत्वर्थे वर्तते । तस्मादपि ता । सामानाधिकरण्याद्वा ।
सर्वनाम्नो भा च ।।१।४३६॥ हेतुशब्दे प्रयुक्ते सर्वनाम्नो भाविभक्ती ता च । केन हेतुना वसति । कस्य हेतोर्वसति । येन हेतुना वसति । यस्य तोर्वसति । पूर्वेण तायामेव प्राप्तायामयमारम्भः 1 अथवा पाउनुस्तमजमार्य गितारमाय बाहेता प्रयुक्त सर्वासां प्रायो दर्शनमित्येतल्लन्धम् । किं निमित्तं वसति । केन निमित्तेन असति । कस्मै निमित्ताय वसति । कस्मानिमित्तात् । कस्य निमित्तस्य ! कस्मिन्निमित वसति । एवं कारण प्रयोजनहेतुपूदाशर्यम् । प्रायोग्रहणादिन भवति ।
काऽपादाने ॥१४॥३७॥ अपादाने कारके काविभक्ती भवति । ग्रामादागच्छति। श्राचार्यादधीते । रथात् पतितः । केति योगविभागादन्यत्राऽपि भवतीति । तेनेदं बहु वक्तव्यं न भवति । "प्यले कर्मणि कावक्तव्या' [ वा० ] प्रासादमारय प्रेहाते । प्रासादात् प्रेक्षते । प्रासादाच्छृणोति । "प्रधिकरणे प्यखे का वक्तव्या' [चा.] आसने उपविश्य प्रमाने । आसनात प्रेक्षते । शयनात् प्रेक्षते । "प्रश्नाल्यामयो । पातम्या" [ वा०] किं देवदत्तो व्याकरणात् कथयत्ति ? प्रारुपाने-व्याकरणात् कथयति । “यतबाध्यकालपरिच्छेदस्ततः का वसपा" [वा.] गयेवुमतः साङ्कास्यं चत्वारि योजनानि ! कार्तिक्या अामहायणी मासे ! "कायुत् पराध्वनो दा चेप् च वक्त" [वा. ] गोमतः साकाश्यं चत्वारि योजनानि, चतुर्ष योजनेषु ।
दिक्दाऽन्यारादितरसञ्चध्वाहियुक्त ॥६॥४॥३८॥ दिक्छब्द अन्य आरात् इतर ते अञ्च धुश्रा आहि इत्येतेषुल्ले काविभक्तो भवति । दिक्ऋब्द-इयमस्याः पूर्वा । इयमस्या उत्तरा । शब्दग्रहणं किम् ? दिशि यो यः शब्दो देशकाल वृत्तिनाऽपि तेन योगे यथा स्यात् । पूर्वी प्रामात् । उत्तरों प्रामात् । पूर्वो ग्रीष्माद्वसन्तः । अन्यदित्यर्थग्रहणम् । अन्यो देवदत्तात् । व्यतिरिक्तो देवदत्तात् । भिन्नो देवदत्तात् । अर्थान्तरं देवदत्तात् जिनदत्तः । देवदत्त मूदातिरेकात् तायां प्राप्तायां का विधीयते । श्राराचशब्दो भिसंझको दूरेऽन्तिके च वर्तते तद्योगे "दान्तिकास्ता च [१।४।४२) इति अस्मिन् प्राप्ते काविधिः 1 पाराद् गृहात् क्षेत्रम् 1 पाराद्देवदत्तात् पौठम् । इतरो निर्दिश्यमानप्रतियोग्यर्थः । इतरो देवदत्तात् | ऋते इति झिसङ्ग पदम् । भूते धर्मात् कुतः सुखम् | अच छ । प्राग्ग्रामात् । प्राची दिग्रमणीया । इत्येवमाद्यर्थे प्रागतस्य अस्तात: “मम्वेरुप्" [21१1३५] इत्युप् । श्रस्य दिक्छब्दत्वेऽपि ''ताऽतसर्थ त्येन [११४।३१इति ता प्राप्ता तदपवादोऽयम् । श्रा दक्षिणा प्रामात् । उत्तरा ग्रामात् । आहि । दक्षिणाहि सामान् । उत्तराहि ग्रामात् । अस्तादर्थे "पक्षिणादा [11030. “माहि च दूरे' [११११०३] "उत्तराञ्च" [४।१११०२] इति अाअा त्यो । अत्रापि "ता तसर्थ श्येन [ 10 ] इति ता प्राप्ता । "अवयवयोगे प्रतिषेधो वक्तभ्यः" [ वा० ] पूर्वाञ्छात्राणामा मन्त्रयस्व ।
ताऽशसणे स्येन ॥१४॥३६ || वक्ष्यति दन्ति रणोत्तराभ्यामतस् । तत्समानार्थेन त्येन युक्ने ता विभकी भवति । दक्षिातो मामस्य 1 उत्तरतो ग्रामस्य । उपरि ग्रामस्य । उपरिष्टाद् ग्रामस्य । उपर्युपरिष्टात्पश्चादिति श्रतसर्थे निपातिती। पुरो ग्रामस्य । पुरस्ताद् प्रामम्स | "पूर्धाधराधराणा पुरवधोऽसि [ 1 ] "प्रस्ताति" [४।१।१०४ ] इति च पुरादेशः ।
1. "पावेधुमतः' इत्यारभ्य साधुमतः' इत्यत:पूर्वम् प्र. पुस्तकें नास्ति । २. पूर्व ग्रामात् म. ! ३. उत्तरे प्रामात् प० ।
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म. पा. सू४०-४३] महावृत्तिसहितम्
वेनेन॥१४॥४०॥ इविभक्ती भवति एनेन योगे। दक्षिणेन विजयाध वसति । "दक्षिणोतरा धरादात्" [ 1] इत्यधिकृत्य । "दैनोऽदूरेऽकायाः" [/11६६] इति अस्तादर्थे एन ड्रत्ययं त्यः । पूर्वसूत्रे नेति योगविभागादनेन योगे तापि भवति इति केचित् । दक्षिणन ग्रामस्य | उत्तरेण प्रामस्य ।
पृथग्विनानानाभिर्भा वा ॥ १॥४॥४१॥ पृथग्विना नाना इल्वेतैर्युक्त वा भाविभक्ती भवति । पृथग्देवदत्तेन । पृथग्देवदत्तात् । विना देवदत्तेन । विना देवदत्तात् । नाना देवदत्तन । नाना देवदत्तात् । पन्ने अन्यार्थत्यात् कापि भवति । अथ पृथगादयोऽसहायार्थे वर्तन्ते नान्यार्थे । एवं तधिकारात का एटव्या । त्रयाणां ग्रहणं पर्यायनिवृत्यर्थम् । हिरुम्देवदत्तस्य | "करणे स्तोकाल्पताष्ट्रकतिपयेभ्योऽसश्ववचनेभ्यो भाके धकम्ये" [पा० ] तोकेन मुक्तः। स्तोकान्मुक्तः । अल्पेन मुक्तः। अल्यान्मुक्तः । कृच्छ्रेण मुक्तः । कच्छाममुकः। कतिपयन मुक्तः। कतिपया मुक्तः । अत अमेय इति किम् ? स्तोरेन विदेण हतः । नेदं वक्तव्यम् । विवक्षातः कारकाणि भवन्ति इत्युभयं सिद्धम् ! ""क्रियाविशेषणविवक्षायो भाके न भवतः" [वा.] स्तो चलति । अल्पं जल्पति ।
रान्तिकार्थस्ता च ॥ ४२॥ केति वर्तते । दूराफरन्तिकार्यश्च युक्त ताविभक्ती भवति का च । दूरं ग्रामस्य । दूरं प्रामात् । विप्रकृष्टं ग्रामत्य । विप्रकृष्टेन प्रामात् । अन्तिकं ग्रामस्य । अन्तिक प्रामात् । अभ्यास ग्रामस्य । अभ्यास ग्रामात् ।
तेभ्यइप च ॥१४॥ तेभ्यो दूरान्तिकार्थेभ्य इञ्चिभली भवति का च। दूरं प्रामस्य । द्राद् ग्रामस्य । विप्रकृष्ट ग्रामस्य । विमकृष्टाद् प्रामस्य | अन्तिकं ग्रामस्य ] अन्तिकाद् ग्रामस्य । समीपं ग्रामस्य । समीपादः ग्रामस्य । काऽनुवर्तनादेव सिद्धा। चकारोऽनुक्समुच्चयार्थः । तेन भापि भवति । दूरेण ग्रामस्य । अन्तिकेन ग्रामस्य । असत्ववचनेभ्य इति वक्तव्यम् । इह मा भूत् । दूरात् पथ यागतः । दूरस्य पयः शम्बलम् । अन्तिका प्रामाः। यधसत्ववचनेभ्य इत्युच्यते इण्यिधानमनर्थकम् 1 लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात् । नपुंसके सोरम्भावेन सिद्धम् । इदं प्रयोजनं "सपूर्वान्या वायाः" [५।३।२३] इत्येष विकल्पो मा भूत् । ग्रामो दूरं वा पश्यति । ग्रामो दूरं मः पश्यति ।
ईवधिकरणे च ॥४॥४४॥ ईत्रिभक्ती भवति अधिकरणे कारके दूरान्तिकार्थेभ्यश्च । को श्रास्ते । शयने शेते । दूरान्तिकार्थेभ्यः । दूरे प्रामस्य । विमकृष्टे ग्रामस्य | अन्तिके ग्रामस्य | समीपे ग्रामस्त्र | "कस्येविषयस्य कमणी धक्कच्या' [वा ] अधीती व्याकरणे । अधीतमनेन व्याकरणमित्यस्मिन्नर्थे "इटावः'' [ २२] इतीन् । एवमाम्नाती छन्दसि । परिगणिती ज्योतिपि । "निमित्तात् कर्मसंयोगे ईब वक्तव्या" [घा०] "चर्मणि दीपिनं हन्ति दन्तयोहन्ति कुमरम् । केशेषु चमरी हन्ति सीम्नि पुष्कलको हतः॥" नेदं बहु वक्तव्यम् । ईत्रिति योगविभागात् सिद्धम् ।
यद्भावाझावमतिः ॥१४४५॥ भावः क्रिया । ईबिति वर्तते । यस्य भावाद्भावान्तरगतिर्भवति तत्र ईबू भवति । गोषु दुखमानासु गतः । दुग्धास्वागतः | अन्न प्रसिद्धन गोदोहनभात्रेन गमनक्रिया लक्ष्यते । एवं देवाचनायां क्रियमाणायां गतः । कृतायामागतः । इदं बदरमात्रष्यानेषु गतः परवागतः । सामर्थ्याजातेविति प्रतोयते । यदावादिति किम् ? यो जटाभिः स मुक्त । जटा द्रव्यम् । पुनर्भावग्रहणं किम् ? यो भुक्तवान् । देवदत्तः ।
ता चाऽनादरे ॥१॥४६॥ अनादरोडक्शा । यद्भावाद् भावान्तरगतिभवति तत्र नाविभक्ती भवति ईप चानादरे गम्यमाने । देवदत्तस्य कोशतः प्रामाजीत् । देवदत्त कोशति प्रामाजीत् । रुदतः प्रानानीन् । सति प्रावाचीत् । अत्रावशानेन क्रोशनेन प्रनजनभावो लक्ष्यते ।
1. 'सन्ट्या ' प० । २. "प्रामो दूर मा पश्यति" इति य० पुस्तके मास्ति ।
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जैनेन्द्र व्याकरणम् [प्र. पा० ४ सू०४७-५६ स्वामोश्यराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैश्च ||१४|४७॥ स्वामिन ईश्वर अधिपति दायाद सात्तिन प्रतिभू प्रसूत इत्येतैर्युके तेपो बिभत्त्यौ भवतः । गवां स्वामी । गोमु स्वामी । गामीश्वरः । गोबी श्वरः। गवामधिपतिः । गोप्यधिपतिः । दायमादत्त दावादः । “प्रे" [२।२१७] इति नियमादन्यस्मिन् गाव प्राप्त के अत पव निपातनात् कः | गवां दायादः । गोधु दायादः | गयां साक्षी । गोषु साक्षी । गवां प्रतिभूः । गोधु प्रतिभूः । गवां प्रसूतः । गोत्रु प्रसूतः । चकारः किमर्थः ? तेपोरनु वर्तनाथः। अन्यथा पूर्वत्र चानुकृष्टाया ईपोऽनुत्तिर्न स्यात् । उत्तरसूत्रयोरपि नकारस्पेदमेत्र फलम् । प्रसूनयोगे ईथेच प्रामा इतरोगे ता पाता।
कुशलायुक्त न चासेवायाम् ॥१४:४८|| आसेवा मुहुर्मुहुः सेवा तात्पर्य च' । कुशल श्रायुक्त इत्येताभ्यां युक्त आसेवायो गम्यमानायां तेपो विमत्तयौ भवतः । कुशलो विद्याग्रहणस्य | कुशलो विद्यामहणे । आयुक्तस्तपश्चरणस्य अायुक्तस्तपश्चररणे। ग्रासेवायामिति किम् ? आयुक्तो गौः शकटे । आकृष्य युक्त इत्यर्थः । अधिकरणलक्षणेयमीप् ।
यतश्च निर्धारणम् ॥११॥४६॥ जातिगुणक्रियाभिः समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निधारणम् । यतश्च निर्धारण ततस्तैपी विभक्तथौ भवतः । मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः । मनुष्येषु क्षत्रियः शूरतमः । नारीणां श्यामा दर्शनीयतमा । नारीषु श्यामा दर्शनीयतमा । अध्वगाना धावन्तः शीतमाः । अश्वमेषु धावन्तः श्रीमतमाः। प्रपञ्चार्थमिदं समुदाये अवयवोऽन्तर्भूतः | अधिकरणविवक्षायामीप सिद्धा अवयव सम्बन्धविवक्षायां तापि सिद्धा अत एवापादाने कापि भवति । गोभ्यः कृष्णा निर्धार्यते इति ।
विभक्त का ॥१४॥५०॥ यतश्च निर्धारणमिति वर्तते । भिन्नजातीयात् समुदायाद्गणादिना पृथक्करणं विभकनिर्धारणं तत्र का विभक्ती भवति । पूर्वेण तेपोः प्राप्तयोरयमपवादः । माथुराः पाटलिपुत्रकेम्य आयतराः । दर्शनीयतराः। अयमस्मादधिकः । अयमम्मानिलक्षण: 1 इदमपि प्रपञ्चार्थम् । पाटलिपुवकारणामबघिभावेन बुद्धि प्राप्तानामपादानखमस्ति ।
साधुनिपुणेनाचार्यामीवप्रतः ॥१४॥५१॥ साधु निपुण इत्येताभ्यां युक्ते अर्चायां गम्यमानायामीनिदभक्ती भवति प्रतिशब्दस्याप्रयोगे । मातरि साधुः । पितरि साधुः । भ्रातरि निपुणः । पितरि निपुणः । तापवादोऽयम् । अायामिति किम् ? साधुनिपुणो वाऽमात्यो राशः । अप्रतेरिति किम् ? साधुदेवदत्तो मातरं प्रति । प्रतिग्रहणमगितिसंज्ञानाममिपर्यन्तानामुपलक्षणम् | मातरममि। मातरं परि। मातरमनु । कयमसाधुः गितरि | अनिपुणो मातरि । पूजाप्रयुक्तसाधुनिपुणप्रतिषेधोऽयम् । असमर्थस्यापि नञः सविधिरस्ति ।
__ प्रसितोत्सुकाभ्यां मा च ||१.४॥५२॥ प्रसित उत्सुक इल्वेताभ्यां युक्त भाविभक्ती भवति । ईप. च । केशः प्रसितः । केशेषु प्रसितः । प्रसक्त इत्यर्थः । केशरुत्सुकः । केशेसुकः। पले भार्थमिदम् । इनधिकरण स्वादेव सिद्धा।
पसि मे ॥१४॥५३॥ ईबनुवर्तते मा च । उस्विषये भत्राचिनि भेपी विभक्त्यौ भवतः। "भायु का काल: १२१४] इत्यागतस्याणः "उसभेदे" [१२५] इत्युसि कृते यदा भवाची शब्द: काले वर्तते तदा तस्मादा च ईप च भवत इत्यर्थः । पुरोगा पायसमभीयात् । पुष्ये पायसमश्नीयात् । मघाभिः पललोदनम् । मनासु पललौदनम् । उसोति किम् ? मघासु ग्रहः । नात्र मघाशब्दः काले वर्तते । म इति किम्? पञ्चालेषु वसति । पञ्चालस्यापत्यानि पञ्चालाः तेषां निवासः पञ्चालः। निवासार्थे श्रागतस्याएः “धनपद उस्" [शश६] इत्युस । इह करमान्न भवति ? अद्य पुष्यः । मिडकार्थत्वात् । चानुकृष्टाया ईपः कयमनुवृतिः । ईवधिकारे सूत्रारम्भसामर्थ्यात् । अत्राप्यधिकरणवादीप सिद्धा पने भाथै वचनम् । यद्यधिकरणस्यापि करणविक्दा यया स्थाल्या पचति तदेदं प्रपञ्चार्थम् ।
1. या म०, २०,०।२, विधायन्ते म०, २०, स.|
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अ० पा० १ सू० ५४-६१ ]
महावृत्तिसहितम्
७बे
मिका र ११२|४|१४|| भिन्तेन पदेन कार्ये वर्तमानान्मृदो वा विभक्ती भवति | गौश्वरति । कुमारी तिष्ठति । श्रोदनः पच्यते । खारी मीयते । एकः । द्रौ । बहवः । इत्यत्रोक्तेष्वप्येकत्वादिषु वा भवतीत्युक्तप्रायम् | च वा ह् उच्चैरित्येवमादिषु अनर्थकेषु च प्रादि भिन्तेनेकार्थत्वाभावेऽपि सुपो के " [१४ [१०] इति ज्ञापकाद्भवति । भावे वर्तमानेन मिङन्तेन स्वभावादन्येनेकार्थत्वं नास्ति । श्रास्यते देवदत्तेन । नन्वे कत्वादिविशिष्टेषु कर्मादिषु कर्मादिविशिष्षु वा एकचादिषु शुत्रादिनां नियमात् परिशेषात् वृक्षः स इत्येवमा. दिनु वादिषु च "हचा मृदः " [११] इत्यनेनैव बायाः सिद्धत्वादनर्थकमिदम् १ नानर्थकम् । एकद्विबहुवच नानां व्यतिकरनित्यर्थं चायास्तायाश्च विषयभेदार्थ चेदम् । विसर्जनीयो विभास सन्देहनिवृत्त्यर्थम् ।
सम्बोधने बोध्यम् ||५|४|१५|| सम्बोधनमभिमुखीकरणम् । सम्बोधने या वा तस्या चोध्यमित्येषा संज्ञा । सम्बोधनेऽपि मङेकार्थत्वमस्ति इति पूर्वेरा बाविधानम् । हे देवदत्त आगच्छ । हे देवदत्तौ । हे देवदताः । हे पचन् । हे पचमान | "सम्बोधने " [२/२/१०३ ] इति शत्रुशानौ । बोध्यसंज्ञाप्रयोजनम् "बोध्यमसद्वत्' [१।३।२४] इत्येवमादि |
एकः कः || ९|४|५६ ॥ बोध्यसंज्ञायां वाया एकवचनं किसं भवति । हे कन्धे । हे बटो । किप्रदेशाः "करेल: " [४/३/२७] इत्येवमादयः ।
ता शेपे || १४|१७|| कर्मादिकारकाणां विवक्षा कर्मादिभ्योऽन्यो वा मृदर्थातिरेकः स्वस्वामिसंबन्धादिः शेषः । ता विभक्ती भवति शेषे अर्थविशेषे नटत्व शृणोति । अन्धिकत्व शृणोति । स्वस्वामिसम्बन्धसमीप - समूहविकारावयवस्थानादयस्वार्थाः । राज्ञः स्वम् । मद्राणां राजा । देवदत्तस्य समीपम् । यत्रानां राशिः । यवानां धानाः । देवदत्तस्य हस्तः | गोः स्थानम् । शेषग्रहणं किम् ? श्यादयो नियताः कर्मादयस्त्वनियतास्तेभ्यस्ता मा भूत् ।
झोsस्वार्थे करसे || १४८॥ स्वार्थोऽवयोधनं तत्पर्युदस्यतो जानातेरस्वार्थे वर्तमानस्य करणे तात्रिमक्सी भवति । सर्पिषो जानीते । परसो जानीते । सविंधा करणभूतेन अवेक्षते प्रवर्तते वा इत्यर्थः । शोऽपचे: " [ २४ ] इति दविधिः । करणस्य शेषत्वविवक्षायामविवक्षायां न तैव भवति । श्रस्वार्थ इति किम् ? स्वरेण पुत्रं जानाति ।
स्वां कर्मणि ॥|| १४|५६ ॥ शेष इति वर्तते । स्मृ इत्यनेन समानार्थानां धूनां दय ईश इत्येतयो कर्मणि येन विवाहते ता विभक्ती भवति । मातुः स्मरति । पितुरध्येति । सर्पिषो दवते । सर्पिष ईष्टे । कर्मणीति किम् ? मातुर्गुणैः स्मरति । क्षेत्र इत्येत्र । मातरं स्मरति । यग्रेवं नार्थोऽनेन "ता शे" [8] ७] इत्येव सिद्धम् । लादेशे न ”ि [१/४१७२ ] इति प्रतिषेधोऽपि कर्तृकर्मणोः कृषि' [ १/४/६८ ] इत्येतस्याः प्राप्तेरनन्तरस्यात् । नापि "प्रतिपदम्" इति सविधिप्रतिषेधार्थम् । नेयं प्रतिपदविघाना का । वृचिरपि दृश्यते । अर्थानुस्मरणं धर्मानुचिन्तनम् । एवं तर्हि कर्मराः शेषत्वेन विक्षितत्वादकर्मकत्वोपपतेर्लव्यस्त स्वार्थाः भावे सिद्धा भवन्ति । मातुः स्मर्यते । मातुः स्मर्तव्यम् । सकर्मकविवक्षायां कर्मणि भवन्ति । माता स्मयं । माता स्मर्तव्या ।
प्रतियक्षे कृञः || १४८६०॥ करोतेः कर्मणि ताविभक्तो भवत प्रतियत्रे गम्यमाने । अतोऽर्थस्य प्रादुर्भावाय सतो गुणान्तराधानाय समीहा प्रतियनः । एधोदकस्यो कुरते | काएवं गुणस्योपस्कुरुते । "गन्ब नरवशेष [ १/२/२७ ] श्रादिना दः । प्रतियत्न इति किम् ? कई करोति बुद्धया । शेष इत्येव । एधो द परकुरते ।
"
रुर्थस्य मायवाचिनोऽज्वरिसन्ताप्योः ॥ ११४॥ ६१ ॥ रुज्जर्थानां धूनां भावकर्तृकाणां कर्मणि ताविभक्ती भवति ज्वरिसन्तापी वर्जयत्रा । चोरस्य रुजति रोगः । जर्थस्येति किम् ? एति जीवन्तमानन्दः । १. रोगः । वृषलस्यामयति रोगः । राज- अ०, ब०, स०
१०
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जैनेन्द्र ज्याकरणम्
[म. पा० . सू. १२-१८
गत्यर्थोऽसौ। भाववाचिन इति किम १ श्लेष्मा मधुराशिमं रुजति । अपरिसन्ताप्योरिति किम् ? आयूनं ज्वरपति ज्वरः | घटादित्वात् प्रादेशः । अत्याशिनं सन्तापयति श्वरः । शेष इत्येव । चोरे रुजति रोगः ।
आशिषि नाथः ॥१४॥ प्राशी क्रियस्य नाथः कर्मणुि ता विभक्ती भवति । सर्पियो नायते । एयसो नाथते । सर्पिमें भूयात् इत्यर्थः ] 'आशिषि नाथः' इत्युपसंख्यानेन दविधिः । आशिषीति फिम् ! माणवकमुपनाथति अङ्ग पुत्राधीध्वेति । शेष इत्येव । सर्पि थते ।
जासनिग्रहणनाटकाथपिषां हिसायाम् ॥१४/६३॥ जास निप्रइण नाट क्राय पिच इत्येतेषां हिंसा. क्रियाणा कर्मणि ता विमस्ती भवति । "जस ताहने" इति चौरादिकः । चोरस्योज्जासति । पृषलस्योन्जासति । 'जसु मोक्षण' इत्येतस्य देवादिकस्याहिंसार्थवादग्रहणम् | जास इति कृतदीत्वोच्चारणं किम् ? प्रादेशे मा भूत् । दस्युमजोजसम् । निप्रहण इति निप्रयोः समुदितयोः व्यस्तयोर्विपर्यस्तयोहणम् । चोरस्य निग्रहन्ति' । चोरस्य निहन्ति । चोरस्म प्रहन्ति । चोरस्य प्रणिहन्ति । नर अवस्यन्दने चरादिः। चोरस्योनारयति । दीत्वोच्चारणं किम् ? दस्युमनीनटत् । निथ ऋध क्लथ दिसार्धा:" "हेतुमति" [२११।२५] इति णिच । चोरस्योत् काथयति । दोल्वं हि किम् ? दस्युमा चक्र थत् । घटादित्वेऽपि निपातनादुद्धः प्रादेशबाधनार्थे च । चोरस्य पिनष्टि । वृषलत्य पिनष्टि । हिंसायामिति किम् ? धानाः पिनष्टि । शेष इत्येव । चौरं निहन्ति । कवर्थत्वादेतेषामपोति चेदभावकर्तृकार्थं वचनम् । चौरस्पोजासयति राजा ।
व्यवहपणोः सामर्थे ॥१४६४॥ सामर्थ्य समानार्थत्यं व्यवहः पण इत्येतयोः सामध्ये स्तुतिकर्मणि ता भवति कविनये धृते च सामयम् । शतस्य व्यवहरते। सहसस्य व्यवहरते । सहलस्य पणते । श्रायः कस्मान्न भवति गुपादिभिः साहचर्यात भौवादिकस्य स्तुत्यर्थस्य तत्र ग्रहणम् । इह तु तोदादिकस्यानुदाप्तेतः । सामय इति किम् । शलाका व्यवहरति । गणयतीत्यर्थः । देवान् पण यति । शेष इत्येष । शतं व्यवहरति । सहस्स' पाते।
दियश्च ॥१॥४३५॥ “व्यवहपणोः लाम' [१६] इति वर्तते । दिवश्व व्यवहपरिणसमानाथस्य कर्मणि ता भवति । शतस्य दीव्याते । सहलस्य दीव्यति । चकारः किमयः ? सामर्यानुकरणार्यः । ननु विकारादेव सामर्यग्रहणमनुवर्ततेऽन्यथा चानुकृष्ट मुत्तरत्र च नानुवर्तते "वा गौ" इत्यत्र सामथ्यांनुचिर्न स्यात्, अनुक्तसमुच्चयार्थस्तहि कचिदन्यस्यापि प्रयोगे यथा स्यात् । सक्तूनां पूर्णः । श्रीदनस्य तृप्तः । सामर्थ्य इत्येव । साधन दोव्यति ।
मागो ॥६६॥ सामर्थ इति वर्तते । गिपूर्वस्य दिवः कर्मणि वा ता विभक्ती भवति । शतस्य अंदी व्यांत । शत प्रेदाच्याश । सहल प्रक्षाव्यात सिहंस प्रेदाच्यात ५ या प्राप्तिावमाधान शेषावनक्षया तापि भविष्यति इति व्यर्थीमदम् । एवं तहि इदमेव शापकमगिपूर्वस्य शेषविवक्षा नास्ति इति । रावस्य दीव्यति ! सामर्थ इत्येव 1 शलाका प्रतिदीव्यति ।
कालेऽधिकरणे सुजणे ॥१४॥७॥ कालेऽधिकरणे ता विभक्ती भवति सुजय से प्रयुक्ते । द्विरोऽधीते । त्रिरहोऽधीते । पञ्चकृत्वोऽलो भुत | "स्याया स्वभ्याय ती कृत्वा शरति
बस । द्वित्रिचतुभ्यः सुच्" [धारा२५] इति सुच् | काल इति किम् । दिः कांसपान्यो भुक्ते । अधिकरण इसि किम् १ द्विरह्रो भुड्क्ते । सुजथं इति किम् १ अनि भुङ्क्ते । रात्रौ भुङ्क्ते । नम्बत्रापि द्विः त्रिवेति सुक्कों गम्यते ? प्रयुक्ताहणं दूरादनुवर्तते तेन गम्यमाने सुजणं न भवति । शेष इत्येव । द्विरमधीते ।
कर्टकमणोः कृति ॥१॥५६॥ कृति प्रयुक्त कर्तरि कर्मणि छ ता विभक्ती भवति । अनुक्व इति वर्तते । भवत श्रासिका | भवतः शायिका । स्त्रीलिङ्गे भावे "पर्यायाहस्पत्तौ पुण्" [२२] इति पुष।
१. चोरस्य निप्रशान्ति इति ब० पुस्तके नास्ति । २. व्यवहपणे; समा-श्र० । ३. प्रतिदम्पति का
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० पा० ४ सू० ६१-७४] महावृत्तिसहितम् यवानां लाकः । श्रोदनस्य भोजकः । विश्वस्य ज्ञाता । तीर्थस्य कर्ता 1 वृतीति किम् ? श्रोदनं पर्चात । ननु "नमित"१७२] इत्यादिनान प्रतिषेधो भविष्यति । एवं तहिं हृति मा भूत् । कृतश्वी कटम् । कृतं पूर्वमनेन "इन्" [|३।११] "पूर्वात्" [१।२०] “सपूर्वाम्' [५५१ २१] इतीन् । पुनः कर्माहगादिह शेषस्य ग्रहणं नाभिसंबध्यते ।
विप्राप्ती परे ॥१॥४॥६६॥ पूर्वसूयिन्यासापेक्षया परशब्देन कर्माऽभिप्रतम् । द्विप्राप्ती कृति पर एव कर्माण ता विभक्ती भवति न करि । श्राश्चयों गवां दोहोऽगोपालकन । रोचते में प्रोदनस्य भोजनं देवदर्शन । साधु खलु पयसः पानं जिनदत्तेन । द्वयोः प्रामियस्मिन् कृताति व्यधिकरणस्य बसस्याश्रयणाट् भिन्न कृति नियमो न भवति । आश्चर्वमिदमतिथीनां प्रादुर्भावः अोदनत्य च नाम्म पाकः | "अकाकारयोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम्" [वा०] मेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम् । चिकीर्घा जिनदत्तस्व काळयानाम् । अकारग्रहणेन निरनुम-धस्य "अस्त्यात्" [राश८४] इत्यस्यैव ग्रहणम् । “ोधे विभाषा" वा अकाकारापेक्षया शेषस्य स्रोत्यस्य प्रणम् | विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्यस्य आचार्वण वा । केचिदविशेषणेच्छन्ति । विचित्र शब्दानुशासनमानार्थव प्राचायण वा 1
अस्याधिकरणे ॥१५॥७॥अधिकरणे यः स्तत्तस्य प्रयोगे ता विभक्ती भवति । “अधिकाणे चानपश्चि"[२||५१इति अर्थेभ्यो विभ्यो गत्यर्थेभ्यश्च लो वक्ष्यते तस्य प्रयोग कर्तृक गोः कृति''[१३३1३८] इति ता माता "न मित्त'' [ इत्यादिना प्रतिविद्धा पुनः प्रसूया । इयमेपामारातम् । इदमेप भुक्तम् । इदमेषामासितम् । इदमेषां शक्तिम् । इदमेषां नृतम् | इदमेषां पराकान्तम् | एपमिति कतरि ता । अधिकर गुस्य क्तेनोक्तत्वादिदंशब्दादीन भवति | "अधिकरणे च.' [२११५६] इला चकारेण यथा प्रातः समुच्चीयते । कर्तरि इहेमे श्रासिताः । भावे-इह एभिरासितम् । शेषधित्रागामिए पनामासिनन् । एवं सर्वत्र योज्यम् ।
भवति ॥४७॥ भवति काले विहितस्प क्तस्य प्रयोगे ता विमस्ती भपति । अयमपि प्रतिषेधापबादः । राज्ञां मतः । राज्ञा बुद्धः । सतां पूजितः । "मतिबुद्धिपूजा(च्च [२१२११६६] इति सम्प्रतिकाले स्तः। शेषविवदायां वद्यपि ता सिद्धा तथापि कविवक्षायां भावाधनार्थमिदम् | सा प्रतिकाले चकारेण लम्धेषु शीलि. तादिषु प्रयुक्तेषु ता नेष्यते । देवदत्तेन शीलितः । कथं मयूरस्य नृत्तं छात्रस्य हसिमिांस ? शेविवक्षवेदम् । कर्तरि तु मयूरेण नृत्तम् । हात्रेण हतितम् ।
न मिसलोफखार्थतनाम् ||१||७२।। मि त ल उ उक खार्थ तुन् इत्येतेषां प्रयोगे ता विभक्ती न भवति । "कर्तृकर्मयोः कृति'' [1/६८] इति तायाः प्राक्षायाः प्रतिरोधोऽयम् । झि-करं कृत्वा । कटं कर्तुम् । तसंज्ञा-देवदतेन कृतन् । देवदत्तः क कृतवान् । ल-कटं कुर्वन् । कट, कुर्वाणः। अनूपियान् श्रीदत्तं धान्यसिंहः । कटं कारयामास | धर्म दधिश्चित्तम् । “सहिचाहिएतीनामिर्यङ:' इत्यधिकृत्य धाञ्ज नितानम्यो लिवदित्युपसंख्यानेन शीलादिष्यर्थेषु इरित्ययं त्यो भवति । कटं चिकीर्षः। प्रोदनं भुतः। कन्यामलङ्कारिष्णुः। उफ-आगामुको घारापासीम् | उकप्रतिषेधे कमेरप्रतिषेधः । दास्याः कामुकः। खार्थ:-सुकरः को भवता । सुपानं पयो भवता । तुनिति प्रत्याहारः शस्तूशानावित्यत आरभ्य तृगो नकारेण । धान्यं पवमानः · अधीयन् जैनेब्रम् । "पूक यजोः शान "२२/१०६] इति शान: ! "धारीकः शनकृषिणि'' [२१२१०] इति शतृत्यः । कर्ता कटान् । वदिता जनापवादान् । शीलाद्यर्थे तृन्निति नृन् । “द्विषः हासुर्वा वचनम्" [at] चोर द्विषन् । चोरस्य द्विपन् । "द्विषोऽरौ'' [२१२।१०६] इति शतृत्यः ।
वत्स्यत्यकस्य ।।१।४।७३॥ वस्यति काले विहितस्याकस्य वोगे ता विभली न भवति । कर कारको प्रजति । प्रोदनं भोजको गच्छति । "बुतुमौ क्रियायाम्" [२।३८] इति बुण् । वय॑तीति किम् ! भोवनस्य भोजकः । वय॑तीति विहितस्याकस्य प्रणादिह न भवति । वर्षशतस्य पूरकः । पुत्रपौत्राणां दर्शकः ।।
अधमराय चेनः ॥४४॥ श्राधमाचे वयति च काले विहितस्येनः प्रयोगे ता विभक्ती न
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [अ०. पा० ॥ सू०७५-८० भवति । शतं दायो । सइस दायी | "आवश्यकामयेयोगिम्[२।३.१४६] इति णिन् । वस्य॑ति । ममी ग्रामम् । आगामी नगरम् । “गस्यादिबस्यति" [२।३।१] इति पयतिकाले साधुखम् । श्राधमण्ये चेन इति किम् ? अवश्यंकारी कटस्य ! श्रावश्यकेऽर्थे कालसामान्य णिन् ।
___ व्यस्य चा फर्सरि ॥शा७५॥ ब्यसंशस्य प्रयोगे कर्तरि या ता विभक्ती भवति । भवतः कटः कर्तव्यः । भवता कटः कर्तव्यः । कर्तृकर्मणोः कृतीति ता प्राप्ता विभाष्यते । कर्तरीति किम् १ गेयो माणयको गाथानाम् । "मम्मोय." [२॥४॥५३] श्रादि सूत्रे कर्तरि गेयशब्दो निपातित । अत्र कर्मणि नित्यं ता भवति । इह कस्माता न भवति ऋठव्या ग्राम शाखा देवदत्तेन । नेतन्या प्राममना देवदत्तेन । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेन "विप्राप्ठौ परे' ] इत्यस्यास्ताया व्यप्रयोगे प्रतिषेध एव ।
भाऽतुलोपमाभ्यां तुल्याथैः ॥१।४।७६॥ वेति वर्वते । तुलोपमाशब्दाभ्यामन्यैस्तुल्याथैः शब्दैयुत वा भाविभकी भवति । तुल्यो देवदत्वेन । तुल्यो देवदत्तस्य । पक्षे शेषलक्ष हा ता । अतुलोपमाभ्यामिति किम् ? नास्ति तुला देवदत्तस्य । उपमा नास्ति सनत्कुमारस्य ।
अप चाशिष्यायुज्यमद्रभकुशलसुखहितार्थः ॥१४७७॥ वैति वर्तते । वा अविभक्ती भवतिआशिषि गम्यमानायाम् | श्रायुषी निमित्तं संयोगः । निमित्तं संयोगोत्पादो" [३:४३.] "यासंक्या परिभागाश्वादेः'' [३।२८ रात यः। श्रायुष्य मद्र भद्र कुशल सुख हित इत्यवमथैर्युक्तं | आयुष्यमिदमस्तु देवदत्ताय देवदत्तस्य वा। चिरमस्तु जोत्रितं देवदत्ताय दवदचस्य वा । मद्रं भवतु जिनशासनाय जिनशा. सनस्य वा । भद्र देवदत्ताव देवदत्तस्य वा । कुशलं साधुभ्यः । कुशलं साधूनाम् | नियमयं साधुभ्यः । निरामयं साधूनाम् । सुस्त्रं सात्रुभ्यः । सुर्ख साधूनाम् । शमस्तु साधुभ्यः । शमस्तु साधूनाम् । हितं देवदत्ताय । वितं देवदत्तस्य । पथ्यं देवदत्ताय । पथ्र्य देवदत्तस्त्र । पक्षे शेषलक्षणा ता। चकार: किमर्थः१ अ पि योगे यथा स्यात् । अर्थो देवदत्ताय । अर्थो देवदत्तस्य | प्रयोजनं देवदत्ताय । प्रयोजनं देवदत्तस्य । तापक्षे वृत्तिन मवति अगमक वात् । न हि वृत्याऽशोर्गम्यते । आशिषोति किम् १ आयुष्यं देवदत्तस्य । अत्र नाप् ।
प्राणितूर्य सेनाङ्गाना द्वन्ध पकवत् ॥२ ॥ प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गाना सेनाकानां च द्वन्दू एकवद्भवति । एकार्थवावतीति अर्यनिर्देशाविशेषणानामपि तद्वत्ता । पाहो च पादौ च पाणिपादम् । दन्तौछम् । शिरोपीयम् । यदि प्राण्य प्राणिग्रहणेन ग्रह्यते "भप्राणिजाते. [शा२] इति प्रतिपंधे प्राप्त अथ न गृह्यते तदा "अप्राणिजाते:' इत्येव सिद्ध व्यतिकरनिवृत्यर्थ वचनं प्राण्यङ्गानामन्येन इन्द्रो मा भूत् । पूर्वम्-मार्द झिकाश्च पाणविकाश्च मार्दङ्गिकपादिकम् । सेना-रथिकाश्च अश्वायेहाश्च रधिकारवाहम् | रथिकपादातम् । “सेनाङ्गेषु बहुले' [वा.] इति तेन रथिकाश्वारोहो । हस्पश्चादित्रु परत्वात् पशु विभाषा । यद्यप्यभिधानवशादिह समाहारे द्वन्द्वः, दधिपयवादिषु इतरेतरयोगे, तरुभूगादिषु उभयत्र, सथापि तद्विषयविभागशापनार्थमिदं प्रकरणम् ।
परणानामनूक्तौ ॥४७॥ चरणं कठादिप्रोक्तोऽध्ययनविशेषः । तादा पुरुषवध्येनृषु वर्तते वदेह गृह्यते । अक्तिरनुबादः । चरणानां द्वन्द्व एकवद्भवति अनूक्तौ । स्थणो अन्तयोः प्रयोगे चेदमिध्यते । उदगात् कटकालापम् । प्रत्यष्ठात् कटकौथुमम् । अनूपत्ताविति किम् १ उदगुः कठकालापाः । प्रथमोपदेशोऽयम् । कठेन प्रोक्तमधीयते कलाः । प्रोक्तार्थे "शौनकाविभ्यश्छन्दसि णिन् [३४३.७] इति गिन् । तस्य "कठचरणा का दुप्' इत्युप् । अध्येतृविषयल्याणः "उप प्रोक्तात्" [३।२।१४] इत्युप् । फलापिना प्रोतमधीयते कालापाः । प्रोक्लार्थे "कलापिनोए"। टिस्खम् । परस्याणः "उप्पोक्कार" [२] इत्युप् । "वन्दो माहाणानि चानव' [३२२६] इत्यध्यतृविषयता।
अश्वयुकतुरन राहा०॥ श्रध्यमिच्छन्ति अवयवो यजुर्वेदविदः । अतएव निपातन्मत् क्यव्य
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भ० पा० ४ सू. 51-८५ ] महावृत्तिसहितम् फारस्य स्वम् । क्यजन्तस्य उश्च त्यः । अध्वर्यु कतुरनपुंसकलिङ्गो द्वन्द्व मेकवद्भवति । येषां ऋतना यजुबंदशाखासु लक्षणं प्रयोगश्च शिष्यते प्राधान्येन तेफाम व ऋतूनामनांसकलिङ्गानां इन्ध एकवद्भात इत्यर्थः । अश्च अश्वमेधश्व अर्वाश्वमेधम् । सामाहातिरात्रम् | पौगइरीकातिगत्रम् । अव कनुरिति किम् ? पञ्चौदनदशौदनाः । इषुवन्नौ । उनिहलभिदौ । एते सामवेदविहिताः । अनबिति किम् ? राजसूर्य च वाजपेयं च राजसूयवाजपेये । इह कस्मान भर्धात दर्शपौर्णमासी । दधिपयादिषु द्रष्टव्यः ।
अधीस्याऽतुराख्यानाम् ॥१॥४१॥ श्राख्या नामधेयम् । अधी. या निमित्तभूतया अदूराख्यानां द्वन्द्व एकवद्भवति । पदमधीते पदकः ! प्राममधीते क्रमकः । पदकामक्रम । क्रमकवात्तिकम् । पदाप्ययनसासन्न माध्ययनम् । अधीत्येति किम् ? आन्यदरिद्रौ। अदूराख्यानामिति किम् ! याज्ञिकवैयाकरणो । यशमधीते याशिकः ।
अप्राणिजातेः शा२|| अप्राणिजातिवाचिनां दून्द्र एकवद्भगति । अागरात्र । धानाशलि । युगवरत्रम् | अपाणिग्रहणं किम् ? गौपालिशालकाधनाः । गोत्रं चरण: सहेति जानिः । जारित किम् ? शिमवद्विन्ध्यो। नन्दकपाचजन्यौ । संज्ञाशब्दा एरो। नसशस प्रत्य पहेतुः । तेन व्यजातीनामेकय.
द्राबादिह न भवति । रूपरसगन्धस्पर्शाः । गमनागमने | जातेरविवक्षायां न भवति । पदरामलकान तिष्ठन्ति ।
भिन्नलिलो नदीदेशोऽग्रामोऽपुरम् ॥शाम ॥ भिन्नलिदानां नदी देश याचिनाममामारणामपु. राणां द्वन्द्व एकवद्भवति । नदी-उदयश्चरावती च उद्धवं राति । विवाटचक्रमिदम् । गङ्गाशेणम् । देशाः कुरवश्व कुरुक्षेत्रं च कुरुकुरुक्षेत्रम् । कुरकुरुजाङ्गलम् । दावाश्च अभिसारं च दााभिसारम् । कामसमभारम् । बितिक इति : मुने ! कयाः । नदीदेश इति किम् ? कुक्कुटमपर्यो । अनाम इति किम् । जाम्बवश्व शालूकिनी च जाग्यवशालू किन्यो । ननु नाप देश इति पृथग्रहणं क्रिमथम् ! ज्ञापनार्थं जनपदो देशोऽभिपतो न नदीपर्वतादिः । तेनेह नैकवदाकः । कैलासश्च गन्धमादनं च कलासगन्धमादने । अपुरमिति किम् ? लोके ग्रामप्रहणेन पुरमपि रायते ततोऽपुरमिति प्रतिषेधः । मथुरापाटलिपुत्रम् । अग्राम इति प्रसज्यप्रतिषेधः । तेन यत्र पुरनामयोईन्द्रतत्रापि नैकाचम् । नासौर्य केतकी पुरग्रामी।
चन्द्रजीयाः शिक्षा| इहाल्पशरीर शुद्रः । क्षद्रजीवानां दन्दू एकवद्भवति । जुद्रजीवाश्रयो द्वन्द्ध उपचारात् क्षुद्रजीवा इति निर्देशः । युकालिक्षम् | शतस्वध उत्पादकाश्च शतगूत्पादकम् । देशमशकम् । _ "हंद्रजीवा अकाला येषां स्वं नास्ति शोपितम् । ना जलियत्सहस्र ण केचिदानकुलादपि ॥"
"केचित् शब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । क्षुद्र मीत्रा इति बटुवचननिदेशात् द्वित्वधिपये नमिति यूालक्षौ । दंशमशको।
थेषाञ्च श्रेषः शाश्वतिकः ॥१॥२५॥ द्वेषोऽप्रीतिः । येषां च देपः शाश्वतिकस्तद्वाचिना द्वन्द्र एकवद्भवति । शश्वद्भवः शाश्चतिकः । कालाज" [३।२।१३१] इति लज । निपातनादिकादेशः ! "मेर्भमाश्ने टिखम्" इति स्त्रं च न भवन्ति । अहिनकुलम् | बराहम् । "अन्यस्यापि' [४।३।२३२] इति दीत्वम् । शाश्चतिक इति किम् ? गोपालशालकायनाः। केनचिनिमित्तेन केलेहायन्ते । चकारोऽवधारणार्थः । अयमेव निल्य एकवद्भावो यथा स्याा पश्चादिविभाषा मा भुरा । अश्वमहिपम् । काकोलूकम् ।
१. पा० महाभाष्ये-"क्षुद्रजन्नुरनस्थि: स्यादध धात एवं यः। भाजलियंसहस्त्र ण केचिदानकुल्हादपि ।” २/४।८ । २. श्ववाराहम अ० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० १ पा० सू० ८६१-२२
नाव पायग्यानाम् ॥ १४८६॥ वर्णेनार्हद्र पस्वायोग्यास्तेषां द्र कवद्भवति । येन रूपे यान्त्यमवाप्यते तदिड् नैयन्श्यमद्र प्रमभितम् । श्रतिशयोपेतस्यार्हद्र पस्य प्रातिहार्यसमन्वितस्य बहुतरमयाम्यमिति नेह तद् धते । तदायस्कारम् । कुलालवदम् | रजकतन्तुवायम् । नन्वेतेष्वप्येकवद्भावः ग्रामोति । चण्डालमृताः । न दधिपत्रादिष्वन्त वो द्वन्द्वो द्रष्टव्यः । वर्णेनेति किम् ? मृकवधिराः । एते करणदोषेणायोग्याः । अर्हद्र प्रायोग्यानामिति किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियो ।
ॐ=
गवाश्वादीनि च || ६ |४| = ७ ॥ गवाश्वादीनि च गणपाठे द्वन्द्ररूपाणि च एकवद्भवन्ति । गवा श्वम् । गडकम् । गवाविक्रम् । श्रजाविकम् । पशुविभाषा प्राप्ता । कुब्जवामनम् । कुब्बकैराकतम् । पुत्रपौत्रम् | श्वचाण्डालम् । श्रद्वेषे श्रीकुमारम् । दासीमाणवकम् । शाटीपिच्छिम् । इदं जात्यविवक्षाथाम् | उष्ट्रखरम् | उष्ट्रशशम् ! पशु विभाषा प्राप्ता । मूत्रशकृत् । मूत्रपुरीषम् ! यकृन्मेदः । मांसशोणितम् । इमानि लायविवक्षायाम् । दर्भशरम् । दर्भपूतीकम् । श्रर्जुनपुरुषम् । तृणोपलम् । एतेषां तृणविकल्पः प्राप्तः । दासीदासम् । कुकुटम् । भागवती भागवतम् । एषां सरूपाणां लिङ्गमात्र कृतविशेषाणां निपातनाद् इन्द्रः । चकारोऽवधारणार्थः । गवाश्वादीनि पठितान्येवैकवद्भवन्ति नान्यथा । गोऽश्वौ । गोऽश्वम् ।
चा तरुमृगतृणधान्यव्यञ्जनपश्वश्वव डवपूर्वापराधरोत्तरपक्षिणः ॥११४॥ ८८॥ तद-भृग-तृणधान्यव्यञ्जन नमश्चन पूर्वापर वरोत्तर इत्यषां पक्षिविशेषाणां च द्वन्द्वो वा एकवद्भवति । प्लचन्यग्रोधम् | 'वनृन्ययोधाः । आरश्या मृगाः । रुरुपृषतम् । रुरुपृषताः । कुशकाशम् 1 कुशकाशाः 1 ब्रोहिययम् । श्रीदेवाः 1 दधिघृतम् । दधिघृते । ग्राम्याः पशवः । वृष्णिस्तभम् । वृष्णिस्तभाः । श्रश्ववदम् ।
ववव । पर्यायनिवृत्त्यर्थं च श्ववमहम् । पूर्वापरम् । धूर्बापरे । श्रधरोत्तरम्। श्रधरोत्तरे । तिचि रिकापिञ्जलम् । तित्तिरिकापिञ्जलाः | अत्रेष्टिः । 'सेना फलक्षुद्र जीवतरुमृगतृणधान्यपरिहाँ प्रकृत्यर्थबहुत्वे एकवद्भावः” [त्रा०] तेन रथिकाश्वारोही। बदामलके । इदमेव ज्ञापकम् 'श्रप्राणिजाते: " [1181=२] इत्यत्र न बहुवचनान्त एव विप्रदोऽमिवेतः । यूकालिदे । ज्ञन्ययोधौ । वृषतौ । कुशकासो । मीहियवी । हंसचक्रवाक । ति योगविभागोऽयम् । इन्द्रमात्रे कृतो भवेत् । पूर्वो विधिस्तु नित्यार्थः तुल्यजात्यर्थ उत्तरः । वह मा भूत् —'लक्षयचाः । हंसपृषताः ।
विरोधि चानाश्रये ॥१४६॥ वेति वर्तते । श्राथमो द्रव्यं विरोधो येषामस्ति तद्वाचिनामनाश्रयाभिधायिनां द्वन्द्व एकवद् भवति । विरोधीत्यामः खे कृते सौत्रो निर्देशः । सुखदुःखम् । सुखदुःखे । जननमर हम् । जननमरणं । शीतोष्णम् । शीतोष्णे । विरोधीति किम् ? कामक्रोधौ । अनाश्रय इति किम् ? सुखदुःखो आमौ। शीतो" उदके । चकारादविरोधेऽपि । वधूवरम् | वधूवरौ । स्थावरजङ्गमम् । स्थावरजङ्गमे ।
न दधिपय आदीनि ॥ १|४|१०|| विप्रादीनि द्वन्द्वरूपाणि नैकवद्भवन्ति । येन केनचित् प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् । दधिपवती । सर्पिर्मधुनी । मधुसर्पिषी । व्यञ्जनवात् प्राप्तिः । ब्रह्मप्रजापती । शिववैश्रबौ । स्कन्दविशाख । परिवाजककौशिक | प्रवर्म्यापसदौ । बेतिप्राप्तिः । शुक्लकृष्णो । इध्मावर्हिषी | निपातनात् पूर्वस्य दौखम् । योगानुव के दीक्षा तपसी । श्रद्धातपसी । अध्ययनतपसी । उलूखलमूसले । श्रावसाने श्रद्धाने | ऋक्सामे । वाङ मनसे । वेति योगविभागात् प्राप्तिः । चण्डालमृतपादयश्व ।
अथैता च ॥ १|४| ६१ ॥ एतावत्वमियत्ता । वृत्त्यवयवार्थानामेतावत्त्वे च द्वन्द्रो नैकवति । द्वादश में मार्दङ्गिकपाणविकाः । चकारः प्रतिषेधानुकार्थः ।
वा समीपे ||११४६२ ॥ नेति निवृत्तम् | अर्थानामेतावस्य समीपे वा द्वन्द्व एकवद्भवति । उपदर्श दन्तोष्ठम् । उपदशा दन्तोष्ठाः । एकवद्भावपचे हलोऽनुप्रयुज्यते अन्यत्र वसः 1 इसे "नः [४२११० ] इति नः सान्तः । बसे तु डा।
नशिरीप इति काशिका | २. शुक्लकृष्णे भ, ब०, सं० ।
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म. पा० ४ सू० ६३-१..]
महासिसहितम्
स नए ॥१॥४३॥ यस्यायमुक्त एकवद्भावः स नम्भवति । तथा चैवोदाहृतम् । समाहारे रसो नम् भवतीति वन्यम् । पञ्चाग्नि । पञ्चायु । श्रकासन्तप्रकरणं "सत्" [३।१।२५] इति डीविधान शारकम् । अकारान्तोत्तरपदो र स्त्रियां बर्तत इति । पञ्चपूली । बएणगरी । 'वाबन्त इति पक्रव्यम्' (10] पञ्चखट्वी | पञ्चखट्दम् | "स्त्रीगोर्नीच' [9115] इति प्रादेशः | "अनन्तस्य नखं स्त्रिया वा वृत्तिः" [वा०] पञ्चतक्षम् । पञ्चतक्षी । "पानानि प्रतिषेधः" [.] पमाणगा । भुवन। उतर गम् । पञ्चगवम् । दशगवम् । “गोरहबुषि" [२१६४] इति टः सान्तः।
हुश्च ॥१॥४॥६४॥ हसंशश्च नब्भवति । अधिस्त्रि । उन्मत्तगङ्गम् । द्विमुनीदम् । "प्रो नपि" [1] इति प्रादेशार्थमनुप्रयोगार्थ च वचनम्। पूर्व पदार्थप्रधानस्वालिङ्गत्वं प्रामम् । अन्यत्राभिधेयजिनं प्रामम् । चकारोऽनुरुसमुच्चयार्थः । तेन क्रियाविशेषणानां नपुंसकले सिद्धम्। शोभनं पचति ।
बोनत्र यः ॥१।१६।। नम्सं यसञ्च वर्जयित्वा नम्भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यम् । पति पुंल्लिङ्गन निर्देशः सौत्रः। बाच्चप्रकरणादन्यत्र कामचारी बा वक्ष्यति । सेनासुराश्छायाशालानिशा वेति । क्षत्रियमेना । क्षत्रियसेनम् । प इति किम् ? महती सेनाऽस्य महासेनः। अनभिति किम् ? असेना । श्रय इति किम् ? परमसेना ।
__ स्लो कन्थोशीनरेषु ॥१४॥६६॥ खुविषये कन्थान्तः पसो नभवति उशीनरेषु चेत् सा कन्था । सौसमीना कन्था सौसमिकन्थम् । आहरकन्थम् | अासमिकन्थम् | चकन्थम् । एते उशीनरेणु मामाः । विग्रहवाक्यं सादृश्यमात्रेण । खाविति किम् ? वीरणकन्था। उशीनरेश्विति किम् ? दक्षिकन्या । अन्यत्र ग्रामसम्ञ यम् ।
पापकर्म तबाधुक्ती ||१७|६७॥ ठपज्ञायत इति उपज्ञा उपदेशः । उपक्रम्यत इति उपक्रमः प्रारम्भः। उपज्ञोपक्रम इत्येवमन्तः पसा नन्भवति तयोरुपज्ञा पक्रायोराचुलो गन्यमानाधाम् । स्वायम्भुवस्योपज्ञा स्वायम्भुवोपजमाकालिकाचाराध्ययनम् । दवापशमनकशेषव्याकरम् । कुरुराजस्योपक्रमः कुरुरानोपक्रम दानम् । अकम्पमापक्रम स्वयंवरावधानम्। उपज्ञापक्रमामति किम् ? यादिवतपस्या तीव्रा । तदाधु क्लाविति किम् १ देवदत्तोपशा । देवदत्तोपक्रमो गणितम् । उत्तरपदस्थ प्राधान्यल्लिङ्गम् । घ इत्येव । सम्यगुपशो भगवान् स्वायम्भुवो यस्येदमाकालिकाचाराध्ययनम् । वाम्येन तदायुक्तो गम्यमानायांमदं प्रत्युदाहरणम् |
काया बहूनाम् ।।१।४॥६॥ बहूनां या छाया तदन्तः पलो नम्मवति । इकुरणां छाया इचुच्चायम् । सलभन्छायम्। बहूनामिति किम् १ कुझ्यत्य छाया कुड्यच्छायम् । कुक्ष्यच्छाया । “सेनासुरा. "[11111०१] इत्यादिना विकल्पः। प इत्येव । बहवश्छाया अस्मिन्बहुब्छायो वनखएडः ।
सभाऽरामआमनुष्यात् ॥१४/६६|| श्रराशः अमनुष्याच्च परा या सभा तदन्तः पो न भवति । अराज्ञः 1 इनस्य सभा इनसभम् । ईश्वरसभम्। इन्द्रसभम् । पार्थिवसभम् । राजशब्दपर्युदासात् तत्पर्या
न विशेषाणाम। तेनेहन भत्रति । सातवाहनसभा। चन्द्रगुप्तसभा। अमनुध्यात्-नक्षसां सभा रक्षःसभम्। पिशाचसभम् । अमनुध्यशब्दस्य च रक्षाभूतिम्वेव रूढत्यादिह न भवति । काष्ठसभा । पाषाणसमा । पक्केष्टकासभा । यद्येवं "उगमनुष्ये' (२१२।५०] इत्यत्र कथम् ! जायाग्नस्तिलकः । पित्तनं घृतम् । “युझ्या बहु लम् [२।३।३५] इति बहुलवचनात्तनान्यस्यापि ग्रहण | "श्रराजामनुष्यात्" इति किम् १ राजसभा । देवदत्तसभा। प इत्येव । ईश्वरा सभाऽस्य ईश्वरसमः ।
अशाला ||१०|| अशाला च या सभा तदन्तः पो नन्भवति । गोपालसमम् । दासीसभम् । स्त्रीयभम् । अत्र समुदाय समाशब्दः । अशालेति किम् ? देशिकसभा ।
1.-ति । मृदु परति । प० ।
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मेन्याकरणम्
[म.पा.
० १01-12
सेनासुराच्छायाशालानिशा वा ॥१४|१०१॥ सेना सुरा छाया शाला निशा इत्येवमन्तः पो वा नमवति । देवानां सेना देवसेनम् । देवसेना । पिष्टसुरम् । पिष्टसुरा । कुछपच्छायम् । कुख्यछाया । गोशालम् । गोशाला । श्वनिराम् । निशा । चोरनिशम् । चोरनिशा | ए इत्येव । मूरसेनो राजा। अनन्य इत्येव । असेना । परमसेना।
छन्द्र थपल्लिङ्गम् ॥ १०२॥ द्वन्द सेद्योरिव लिङ्गं भवति । इतरेतरयोगद्वन्दस्यह ग्रहणम् । तत्र सर्वेषामवयवाना प्राधान्यात् पर्या श्रेण समुदाय लङ्ग प्राप्ते वचनम् | कुक्कुटमयूर्माविमे रमणीये । मयूरीकुक्कुटाविमौ । यथा “हश्च" [१४IE५] इति नपुंसकलिङ्गातिदेशः संघातस्य भवति म चावयवस्य निवर्तकः । अधिस्ति । अधिकुमारीति । एवामहाप समुदाये लिङ्गातिदेशोऽनुप्रयोगार्य क्रियमाणो नावयवस्य स्त्रीत्यस्य निवतकः । षसस्य छुवाङ्गातिदेशो न बक्तव्यः । विशेष्यवल्लिङ्गवचनानि भवन्ति विशेषणानामित्यनेन सिद्धत्वात् ।
वर्थस्य तु विशेष्यत्वात् प्राधान्यम् | अर्द्धपिप्पली । अर्द्धकौशातकी शोभना । यत्र पूर्वपदार्थः प्रधानं तत्र पूर्ववलिङ्गमेव । यया "प्राप्तापन्मालम्पूर्वतिसकक्षागेषु' । प्रासो जीविकां प्राप्तजीविकः । श्रापनीविकः । अलं जीविकायै अल जीविकः I "निरादयः क्रान्तावर्षे कया वा०] निष्कान्ता कौशाम्च्या निष्कौशामिः ! हृदथे रसस्य अन्वपदार्थप्राधान्यादभिधेयलिङ्गम् । पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पञ्चकपालः पुरोडासः ।
प्रश्ववडयो पूर्ववत् ॥१।४।१०३।। अश्ववडवयोरितरेतरयोगे पूर्ववल्लिङ्ग भवति । अश्वश्न वडवा च अश्ववश्वौ । समुदाये लिङ्गातिदेशेऽनुप्रयोगार्थ पूर्वन्ति निवृत्तिर्नास्तीत्युक्तम् । कथं टापो निवृत्तिः । अश्ववव इति निपातनात् । पूर्ववदिति किमयम् ? अतिदंशार्थम् । श्रश्ववडवाचित्युच्यमाने वचनान्तरे न स्यात् । श्रश्चवडवान् पश्य । अनवडवैः कृतम् ।
रात्राहो पुसि ॥१।४।१०। रात्रग्रहशन्टौ कृतमान्तौ निर्दिष्टौ एतौ पुंसि भवतः । दयो रायोः समाछार विरात्रः। “सहःसर्वकदेशसंख्यातपुण्याच्च रानः" [ARINE] इत्यः सान्तः । पूर्वमहा पूर्वाद्रः । अपराह्नः। "पूर्वापरप्रथम" [३।१३] इत्यादिना पसः । “राजाइःसखिभ्यष्टः'' [/२/६३] इति टे कृते 'एभ्योऽहोस [४।२।१०] इत्यहादेशः । उत्तरपदप्राधान्यात् स्त्रीनपुंसके प्राप्त ।
श्रहः ॥ १०॥ श्रह इत्ययं शब्दः पुंसि भवति । द्वयोरलो समाहारः वहः । न्याहः । " समाहारे' [v] इत्यादेशप्रतिषेधः । टिखम् । "अनुबाकादयश्चेति वरूध्यम [ घा० ] अनुवाकः । सम्मवाकः । सूक्तवाकः ।
पुण्यसुदिनाभ्यां नप ॥१।४।१०६॥ पुण्यसुदिनाभ्यां परः अहशब्दो नम्भवति । पुण्यमहः पुण्याहम् । पुण्यग्रहणं सूत्र उपलक्षणम् । एकाइमिति च भवति । विशेषणसविधिः । "पुण्यकाभ्याम्" [२२] इति अलादेशप्रतिषेधः । सुदिनमः मुदिनाहम् ।
अपथम् ॥१४॥१०॥ अपर्ध शब्दो नन्मयति । न पन्थाः श्रपथम् । "पथो वा" [२ ] इति प्रतिषेध विकल्पः । “प्रापरवधू पयोऽनशे' [२१७०] इति असान्तः । ष इत्येव । न विद्यते पन्या अस्मिन् अरथो देशः । अयथा अटवी । "झिसंपादेरिति वक्तव्यम्" [पा०] उत्पथम् । "
तिमादयः" [१॥३॥८॥ इति घसः । त्रिपथनःपथमिति तासः |
पुंसि चाधाः ॥१४१०८॥ अर्धर्चादयः शब्दाः पुसि नपि च वेदितव्याः । अर्ध च तत् भृक् च सार्द्धः । श्रई चम् । गोमयकवावकापिणकुतपकवाटशलादिपाठादवगमः कर्तव्यः ।
"शब्दरूपाश्या चेयं प्रणीतोभयलिङ्गता । क्वचिदप्यर्थभेदेन शब्देष व्यवतिष्ठते ।।"
पयशस्वशब्दो निधिवचनौ पुंल्लिली । जलजे द्विलिङ्गो । भूतशब्दः प्रारिणति द्विलिः । क्रियाशब्द. स्यामिधेपवल्लिङ्गम् । सैन्धवशन्दो लवणे द्विलिङ्गोऽन्यत्रामिधेयवल्लिङ्गः। सारशब्दोऽन्याय्येऽर्थे नपुंसकलिङ्गः । उत्कर्षे ऽथे पुंल्लिङ्गः। धर्मशब्दोऽपूर्व पुल्लिङ्गः। तत्साधने नपुसकलिङ्गः।
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अ० १ पा० ४ ० ३०२-११६]
महावृत्तिसहितम्
अगे ||१|४११०३॥ अगे हत्ययमधिकारो पक्ष्यते । "हनो यथ किकि" [१/७/११४ ] इति । वध्यात् । यध्यास्ताम् । वध्यासुः । "अतः जम्" [४/४/५० ] इत्यकारस्य खम्। श्रग इति किम् १ हन्यात् । श्रग इति विषयनिर्देशः । श्रादेशे कृतै यो यतः प्राप्नोति स ततो यथा स्यादित्येवमर्थः । श्राख्येयम् । भव्यम् । प्रवेयम् । परनिर्देशे हि ययः प्रसज्येत ।
म १
ति किये दो जग्धिः || १४|११०॥ तकारादौ किति प्ये चागे परतोऽदेग्धिरादेशो भवति । जग्ध्वा । जग्धिः । जग्धवान् । इकार उच्चारणार्थः । तथोऽचः" [२५६] इति तकारस्य घत्त्वम् | "छो जशू शि' [ ५|४|११ ८ ] इति धकारस्य दत्वम् । “भरि स्वे" [२१४१३६] इति दखम् । कथमन्नम् ? "थोऽनग्ने' [ २।२।२० ] इति निपातनात् । ये - प्रजग्ध्य | "मनविधी" [११] इति स्थानिवद्भावो नास्ति । इदमेव ज्ञापकम् “एकपदाश्रमस्नातरानपि जग्ध्यादिविधान् वहिरङ्गः प्यादेशो बाधते" [१०] तेन प्रधायेत्यत्र द्वित्वं न भवति । प्रखन्येति "जनसनखनाम्" [४४०३] इति नित्यमात्वं न भवति । प्रदायेति "दो दभोः " [५१२१४८ ] इति दवं नास्ति । प्रस्थायेति "व्यविस्थतिTerr [21२1१४४ ] इत्यादिनेत्वं नास्ति । प्रशम्येति "कस्य किलो ः " [ ४/४/१३] इति दीत्वं नास्ति । प्रपृच्छ्रय प्रदीव्येति शठौ न भवतः । प्रपठ्येति इडभावः ।
घस्ल लुङ्धञ्सनतु ॥१|४|१११॥ श्रदेर्घस्लृ इत्ययमादेशो भवति लुङि पनि सनि श्रचिच परतः । जुङि - अघसत् । श्रघसताम् । अवसन् । निपातः । सनि । विषत्सति । श्रजिति पश्चाद्यश्चः [२/१/१०६ ] “मायव:" [२/३/२३] इत्यस्य च सामान्येन ग्रहणम् । प्रातिः प्रादनं
वा प्रधखः ।
लिटि या ||१|४|११२ ॥ लिटि परतः प्रदेर्घस्तादेशो भवति वा । जघास । जक्षतुः | अक्षुः । श्राद । श्रादतुः । श्रदुः ।
वयः ॥ ११४ ॥ ११३ ॥ वेळी वधिरादेशो लिटि वा भवति । इकार उच्चारणार्थः । उवाय । जयतुः । ऊयुः। गलि “चस्यैषां हिदि" [४।३।१३] इति वकारस्य जिः । “लिटि शो य:' [४|३३२ ] इति यकारस्य जिप्रतिषेधे "होमादेः " [५।२।१६१] इति खम् । श्रतुसि उसि च "वचिस्वपियजादीन कि" [ ४।२।११] इति निः प्राप्तः । "ध्ये च" [ ४१३ १४] इति प्रतिषिद्धिः । यो का किलि" [२०१२] इति विभाषया प्राप्तः । “अहिज्यावयि" [४/३/१२] इति नित्यो निर्भवति । यदा न वयिस्तदा “प्ये च" [४३३।१४] इति जिप्रतिषेधे – वदौ । द्विबहोः "दो वा किवि' [२१३२३] इति जपते--- कवतुः । अत्रुः 1 जौ कृते द्विले च "वागावं बकीय:" [१०] इति उवादेशे कृते "स्वेऽको' [४३८ ] दीत्वम् । श्रजिपक्षे - ववतुः | वबुः
हनो बध लिङि ॥ १|४|११४॥ हन्तेबंध इत्ययमादेशो भवति लिङ्गे परतः । वध हृत्यदन्तः उदात्तश्च्चा रेशः । वध्यात् । वध्यास्ताम् । वध्यासुः । श्रखस्य स्थानिवद्भावावधीरित्यत्र इलन्तलचणः “अतोऽनादेः " [२११६३] इत्यै न भवति । इह वेति न स्मर्यते । बधक इति प्रकृत्यन्तरस्य ।
लुङि ॥ १|४|११५|| लुङि परतो हन्तेर्बंध इत्ययमादेशो भवति । अवधीत् । श्रवधिष्टाम् । श्वधिषुः । उत्तरत्र वा निर्देशादिह नित्यो विधिः ।
वे || १४ | ११६ ॥ ङि लुङि परतो हन्तेर्ववादेशो वा भवति । श्रावविष्ट । श्रावधिषाताम् । श्रावति । श्राहत । श्रासावाम् । श्रहसत | "अहो यमहनः " [१।२।२३] इति दविधिः । "इन सि” [११] इति से: किश्वम् । कर्मणि - अवधि । श्रवधिराताम् । अवधिषत | विद्भावे श्रपानि । अघानिषाताम् । श्रधानियत ।
११
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ . पा० ४ सू०१७-२५ तुक येत्योः ॥१॥४|११७॥ लुलि परतः एत्योर्गा इत्ययमादेशो भवति । गात् । अगाताम् । अगुः। अध्यगात् । अध्यगाताम् । अध्यगुः । "स्थेपिर" [१६] इत्यादिना “इश्वदिकः" इति च सेरुप् । "यास:" [२/६.] इति झर्जुस् । पुनर्लुङग्रहस्पमिट्यपि नित्यार्थम् । अगायि भक्ता । अध्यगायि भवता । गात्रमिति गायतः।
णो गमछाने ||४|११॥ यो परत एल्पोर्ममित्ययमादेशो भक्त्यनानेऽथे। गमयति । गमयतः । गमयन्ति । अनेकार्थत्वादिकोऽप्यशाने वृत्तिः । अधिगमयति । अधिगमयतः ! अधिगमयन्ति । "होऽत:" [५।२६] हत्यैप् । “जनीजुषक्मसुरम्जोऽमन्ताश्च" इति मित्वम् । "निगमोमिताम" [] :" [I ] इति प्रादेशः । अशान इति किम् । अर्थान् संप्रत्याययति ।
सनि ॥१॥४॥११६॥ सनि च परत एत्योरज्ञानेऽर्थे गमित्ययमादेशो भवति । जिगमिषति । अधिजिगमिषति । “गमेरिरमे" [4/11१.६] इतीद । अज्ञान इत्येव । अर्थान् प्रतीषिषति । श्रच इति वर्तमाने 'सन्यको" ! ति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम । योगविभाग उत्तरार्थः ।
इक ||४|१२०॥ सनि परत इको गमित्ययमादेशो भवति । अधिजिगांसते । इडिकावधिगि न व्यभिचरतः । “हनिलाम्बचो सनि" [11] इति दीत्वम् ।
गालिटि ॥१॥४॥१२१॥ हो गाजित्ययमादेशो भवति लिटि परतः । अधिक्षगे। अधिजगाते । अभिजगिरे । सोपिञ्च" [२१४।७४] इति शापकादादेशस्य डिल्ले गाडी डिस्करण किमर्थम् । “गाडकटादेरपिम्हित्" | [१५] इत्यत्र विशेषणार्थः। गायतेग्रहणं मा भूत् । अगासीगायकः इति ईलं
प्रसन्येत ।
लुङलो ॥१॥४१२२॥ तुझ्नु कोः परत इको वा गाडादेशो मवति । लुङि- अयगीष्ट । अध्यगीषाताम् । अध्यगीषत । "गार कुटादेः" [119/७५] इति हित्वं “भुमारपागा'' [ १] इत्यादिनेल्वम् । पक्षे अध्यैष्ठ । अध्यैषाताम् । अध्यैरत । लुङि-अध्यंगोव्यत । अध्यगीष्येताम् | अध्यगीध्यन्त । पत्रे अध्येभ्यत । अथ्यैष्येताम् । अध्ययन्त ।
णी सन्कयोः ॥१।४।१२३॥ गौ सम्परे कन्परेच परतः इलो वा गादेशो भवति । अध्यापयितुमिच्छति अधिनिगापयिषति | "प्रकायापवादविषयं तत उत्खोऽभिनिषिशते' [प०] इति गाहादेशपये "क्रीको [१४] इत्यावं न भवति। अन्यत्र अध्यापिपयिपति । प्रच" [A] इति द्वितीयस्यैकाचो वित्वम् । कपरे-अध्यजीगपत् । अन्यत्र अध्यापिपत् । माझ्योगे - मा भानध्यापिपदिति भवति । "यो कम्युः " [२।११इति प्रादेशे कृते द्वित्वम् । कथं ज्ञायते । ओणतेः ऋदिकरणं ज्ञापकं यदि द्विव प्रामेव स्यात् श्रोण उकारस्यानुभूतत्त्वात् प्रादेशप्रतिषेधार्थ ऋदित्करणमनर्थकं स्यात् ।
अस्तित्र प्रोभूवची ॥२१२४॥ अस्तिवृजित्येतयोर्यथासंख्यं भूचि इत्येताचादेशो मक्तः । भविता । भवितुम् | भवितव्यम् । अस्तीति तिपा निर्देशः किमर्थः १ यस्य केवलस्य अस्तीति रूपं तस्य यथा स्यात् अनुप्रयोगस्य लिटपरस्य मा भूत् । ईहामास | ब्रूज - वक्ता । वाम् । वक्तव्यम् । बचेरिकार उच्चारबार्यः । स्थानिवदावादः । ऊचे ।
वक्ष एशान ॥१३४६१२५॥ चक्षः ख्शाप्रित्ययमादेशो भवति अगे। श्राख्याता । प्राख्याता । माको यो बा[शा१] इति वा यकारादेशः। पर्याख्यानमित्यत्र यकायदेशस्यासिद्धत्वात् शफारेश्य ध्यवहितत्वात् "कृस्यचः" [ATIVITIE] इति शत्वं न भवति । स्थानिवद्वान हनुपावेतो दः'' [२६] इति नित्यं दो मा भूतु इति भित् क्रियते ।
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म. सू० १२६-१३३]
महावृतिसहितम्
मवर्जने ॥१४१२६॥ वजनेऽर्थे चक्षः शानादेशो न भवति । गां संचक्ष्य । वर्मयित्वेत्यर्थः । कएटका संचयाः । नेति योगविभागादसि युचि च प्रतिषेधः । नृचक्षाः राक्षसः । विचक्षणः ।
घर सिटि ॥१॥४१२७॥ लिटि परतो वा चक्षः ख्शानादेशो भवति । प्राचल्यो । प्राचल्ये । पाचचः । पूर्वेण नित्ये प्राप्त ऽयमारम्भः ।
व्यजोऽधत्रयोः ॥१४१२८॥ अर्कोः वी इत्ययमादेशो भवति अपनचोः परतः । अनुदात्तोऽ यमादेशः | प्रवेता । प्रवायकः। श्रश्नचोरिति किम् ? समाजः । उदाजः | समजः | उदवः । “पशुध्वजः समुदी;'' [२।३।५५] इति पशुविषयेऽन् । अन्यन एन्। अधिति सामान्यग्रहणं तेन पचादिलक्षणेऽप्यचि प्रतिषेधः । अजतीत्यनः ।
यहुलं खौ ॥२४|१२६॥ खुविषये बहुलमजेवीभावः । प्रवयणो दए: ( प्राजनः।) बहुलग्रहणाधुवलादी च विकल्पः | प्रवेता । प्राजिता । प्रचेतुम् । प्राजितुम् | प्रवयणम् । प्राजनम् । अबिरमित्योपादिकः शब्दः । समज्या | "समजनिषद" [२॥३८४] इत्यादिना क्यप् । अत्र बहुलवयनान्न भवत्येव ।
भिण्यराजा युन्युबणिजोः ॥१२॥१३०॥ भिदन्तात् एयन्तात् राजविशेषशचिवृद्धात् वृष्यणन्ताच परयोरपिसोः यूनि उम्र मयति । जित:-तिकस्यापत्यं वृद्ध तैकानिः । तेकायनेरपत्यं प्राग्दोरण उपितेकायनिः पिता तैकानिः पुत्रः । विदस्यापत्यं वैदः । वैदस्यापत्यं युवा इज उपि वैदः पिता वैदः पुत्रः । ण्यः । करोत्सल्य कौरख्यः | "कुर्वादयः" (३/१0३३] प्रति एमः । कोरन्यस्यापत्यं इञ उपि कौरव्यः पुनोऽपि । इहोवचनसामर्थ्यात् कौरपशब्दादिल । तिकादी पाठात् जिपि भवति । कौरव्याणिरिति । राज्ञः स्वफलकस्यापत्य स्वाकल्कः । “कुश्यन्धवृष्णे: "[३।१।१०३] इत्यण् । तदन्तादिन उपि स्वाफल्कः पिता । स्वाफस्क: पुत्रः। एवं कलिङ्गस्यापत्यं कालिङ्गः। अजमगधकलिगपूरमलादण' [३।११५२] इत्यः । तदन्तादिन उपि कालिङ्गो युवाऽपि । इह पाञ्चालः पिता पाञ्चालः पुत्रः इति । "शिवः" इति वा "राज्ञः' इति वा उप । श्रार्षात् । वशिष्ठस्थापत्यं "कुश्यन्धवृष्यो;" [३३१०३] हत्यम् । वाशिष्ठः । तदन्तादिन उपि वाशिष्ठः पुत्रोऽपि । जिएएयराजापदिति किम् । कुहहस्यापत्यं कौहडः । “शिवादिभ्योऽण" [11] इत्यण् । अस्याप्ययत्वं कौद्धिः । यूनीति किम् ? वामरथस्यापत्यं वामरथ्यः । "कुर्यादेपर्यः" [३।१।१३१] । तस्य शिध्या वामस्थाः । वामध्यस्प "शकलादिवत्" इत्यतिदेशात् “शकलादिभ्यो वृद्ध" [१२१८७] इति
शैषिकोऽण "क्यच्यना' [ver १४१] इत्यादिना यखम् । अरिज़ोरिति किम् ? दक्षस्थापत्यं दाक्षिः। दारपत्यं दाक्षायणः ।
पैलादेः ॥॥५॥१३॥ पैलादेः परस्य युक्त्यस्योस् भवति । पीलाया अपत्यं पैनः । “पीछाया पा" [३११११०७] इत्यण् । पैलस्थापत्वं "दयचोग्णः" [ १३] इति फित्र । तस्यो । पैलः पुत्रोऽपि । अन्य इलन्तासेभ्यः परस्य फणः "प्राचामित्रोऽतौल्चलिम्पः” [।१३२] इति प्राप्ते उपि अप्रागर्थमिदम् । पैलः। सालक्षिः । सात्यकिः पिता। सात्यकिः पुत्रः। सात्यकामिः । श्रौदञ्चिः । बाहादिषु उदनुशन्दः सनकारः पठ्यते । औदमन्जिः । श्रीदवजिः । औदमेधिः । औदशुद्धि । देवस्थानिः । पैङ्गलायनिः । राणायनिः । रोइक्षितिः । भौलिङ्गिः। राजाऽयं शाल्वावयवः । सौमिनिः । श्रौद्धाहमानिः । औचिजहानिः। औज्ज्ञायिनिः। द्रिसंशाचागणः परस्य युक्त्यस्योप् । श्राङ्गः । “ययोऽणः” इति किल । तस्योप। आकृतिगणोड यम् । तेन चौविजावालिग्रीदम्बरि एतेभ्यः साल्यावयवत्वादि । भाडीप्रशिः इत्यादि द्रष्टव्यम् ।
प्राथामिनोऽतौल्यलिभ्यः ॥१४१३२॥ प्राची पृढे य छन् तदन्तायुवत्यस्यो भवति दौल्वलि. प्रभृतीन बर्जयित्वा । पानागारिः पिता । पान्नागारिः पुत्रः । मान्थरेषणिः पिता | मान्यरेषणिः पुत्रः ।
1. "मौदगोहमानि::' म., स.]
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [..पा. १ ० १३१- क्षेकशम्भिः पिता। क्षरफलम्भिा पुत्रः । "यमियोः'' [३६१/६०] इत्यस्य फण उप् ! प्राचामिति किम् ! दाक्षिः पिता । दाक्षायणः पुत्रः। अतौल्बलिन्य इति किम् १ तौल्वलिः पिता । तौल्वलायनः पुत्रः। तौल्बलिः। धारणिः । स्वालिम्पिः । दैलीपिः | देवतिः । दैवमितिः। दैवमतिः । दैवशिः । प्राडाइनिः । मोधातफिः । श्रानुरापतिः । बाहादिरयम् | आनुतिः। श्राहि सः । श्रासुरिः। नैषिः । प्रासिवन्धकिः । वैत्रिपौष्पिः । पौष्करसादिः । अषं बालादी चैरकिः । वैयकिः ( वैल्यकिः)। वैइतिः । वैकणिः । कारेशुपालिः |
बहुषु उपास्त्रिया ॥ ५१४१५३ दिसशकस्त त्यस्य वहथेषु वर्तमानस्य उब् भवति तेनैव द्रिसजकेन कृतं बहुत्वं भवति अत्रियाम् । श्राङ्गः। आङ्गौः । अङ्गाः। ऐवाकः । ऐनाको । इक्ष्वाक्यः । श्रणः अभश्च द्रिरित्यधिकारेण दिसम्शा स्वार्थिानामपि "ते यः" [२] इति द्रिसज्ञा । लौहत्वज्यः । लौहत्वज्यौ । लोहध्वजाः । हिमत्यः। हिमत्यौ। ब्रीहिमताः । "पूगाभ्योऽप्रामणीपूर्वात् [शश] इति व्यः । द्वन्ऽपि सामान्येन द्रिसज्ञा कृते बहुत्वे भवति अङ्गवङ्गसुमाः । ट्रेरिति किम् ? औपगवाः । बहुम्विति किम् ? श्रानः । श्राङ्गो। तेनैवेति किम् ? प्रियो वाने एपामिति प्रियवानाः । अत्र इत्या बहुत्वं गम्यते । अतोऽनुवईत्यान्तानामन्येषां च द्वन्द्व तेनैव कृतं न बहुत्वमित्युम्न भवति | गायंगस्यौपगावाः । शापकादुवयत्र भवतीति केचित् । गर्गवत्सोपगवाः । किं सापकमिति चेत् “मखरघुनदर्माद् भूगुव. सामायणेषु" [Ins] इति वचनम् । भार्गवात्स्यामायणेस्थिति निर्देश: स्यात् । उभयमाऽपि साधुः प्रयोगः । अस्त्रियामिति किम् । श्राङ्गयः वामथः स्त्रियः ।
__ यस्कादिभ्यो सुद्धे ॥ १३४॥ यस्क इत्येवमादिभ्यः परस्य वृद्ध त्यस्य बहुषु वर्तमानस्योच् भवति अस्त्रियां तेनैव चेत् कृतं बहुत्वम् । उभयगतिरिह शास्त्रे लौकिकमपि वृद्धं गृह्यते तेनानन्तरापत्येऽम् भवति । यास्कः । यास्को । यस्का ! 'शिवादिभ्योऽण' [३।१।१०.] इत्यागतस्याय उप । यस्क लुष दुमअयस्थूण तृणकर्ण भलन्दन एतेषां शिवादिषु पाठः। कम्बलहार अहियोग कर्णाटक पर्णाटक सदामत्त पिण्डीवध चकसक्य रक्षोमुख सञ्चारण उल्कास कटुक मन्थक पुष्करसत् । अस्य "न गोपवनादेः" [11४।३१८] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । विषपुट उपरिमेखल पदक मटक भडिल भगिहा एतेभ्यः "अश्वादेः फल" [३ ] इति कम् । कुद्रि अजवस्ति विभि मित्रयु एतेषः "गृठ्यादेः" [I11२५] इति ढण् । वृद्ध इति किम् । यस्को देवता एषां यास्काः । बहुवित्येव । यात्कौ । तेनैव चेत्येव । प्रिययास्काः । अस्त्रियामित्येव । यास्यः ।
यत्रोः ॥१॥४११३५॥ यत्रश्च अञश्च वृद्धे बहुषु वर्तमानस्यो भवति तेनैव चेद्बहुत्वमस्त्रियाम् । गर्गाः । कसाः । अषः। विदाः । ऊर्वाः । “विवादिभ्योऽनृच्यानन्तयेऽन" [१३] इति अग । बहुधिस्येव । गार्ग्यः । वैदः । तेनैवेत्येव । प्रियगााः । वृत्त्याऽत्र बहुत्वं गम्यते । यत्र नृत्यकल गम्यते यत्रा बहुत्वं सत्रापि भवति । गर्गानतिकान्तः प्रतिगर्गः । अस्त्रियामित्येव । गार्ग्यः स्त्रियः । "यन: [ Jइति
विधिः। “यस्य रून्याञ्च" [५१३६] इति खम् । "इलो तो कयाम्" [ १४] इति वकारस्य खम् | “यत्रादीमामेकरवद्विस्वयोवा सासे इति वक्तव्यम्" [चा. ] गार्थस्य कुलं गार्यकुलम् । गर्गकुलम् | गार्ययोः कुल गार्यकुलम् । गर्गकुलम् । वैदस्य कुलं वैदकुलम् । विदकुलम् । वैदयोः कुल वैदकुलम् । निदकुलम् । न वक्तव्यं यदा यादयो न भूयन्ते तदा मूलप्रकृतेस्तासः निपतविषयत्वात् शब्दानां तत उभयं सिध्यति ।
भृग्वत्रिकुस्सवशिष्टगोतमाझिरोभ्यः ॥२४१३६॥ वृद्ध इति वर्तते । भृग्वादिभ्यः परस्य वृद्ध त्यस्य नहुन्भवति । भार्गवः | भार्गवौ ! भृगवः । श्रायः । आत्रेयौ । अत्रयः । एवं कुत्साः वशिष्ठाः गोतमाः
१. लिः । तेस्पतिः । धार-ब०, सः ।
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भ० पा० ४ सू० १३७-१४१] महावृत्तिसहितम् अङ्गिरसः। अत्रिशब्दात् "इतोऽनिमः'' [३।१।११] इति दम् । अन्येभ्य ऋष्यछु । बहावत्येव । भार्गक । श्राङ्गिरसः । तेनैवेत्येव प्रियभार्गवाः । अखियामित्येव । भार्गव्यः स्त्रियः । वृद्ध इत्येव । भृगुर्देवता पषामिति भार्गवाः।
इओ बखचःप्राच्यभरतेषु ॥२४॥१३७॥ बह्वचो मृदो य इज. तस्य प्राधभरतेषु वृद्धे बहुम्भवति । प्रान्नागारिः । पानागारी । पन्नागाराः । पूर्व भान्थरेपरिणः । मान्थरेषगी। मन्यरेषणाः । बहुच इति किम् ? पोष्पयः । प्राच्यभरतेविति किम् ? वासाकयः । शास्तिदासयः । ननु भरतः प्राच्य एव तेषां पृग्ग्रहां किमर्थ १ ज्ञापकार्थमन्यत्र प्राच्पग्रहणे भरतग्रहणं न भवतीति । तेन "प्राचामिनोऽतौरवलिभ्य;" 1.३२] इति अत्र भरतानां युबत्यस्योग भवति । यौधिष्ठिरिः पिता यौधिष्ठिसणः पुत्रः । ननु युधिष्ठिरादिभ्य इव नास्ति' "कुर्तृप्यन्धकवण: [३।११०३] रत्यणा भवितव्यम् । इह वहिं उम्न भवति औहाल कः पिता श्रौद्दालकायनः पुन्न । अत्र प्राचामिमोऽसौरवालिभ्यः इति युवत्यस्यो प्रसज्येत । एतद्धि प्राच्यभरतगोत्रम् ।
न गोपवनादेः॥१४१३८॥ विदाहान्वर्गणो गोपवनादिः । गोपवन इत्येवमादेः परस्य वृद्धत्यस्यो न भवति । गोपानस्यापत्यानि गौपवनाः । “यनजो" [१॥३।१३५] इत्यु प्राप्तः । गोपवन शिबिन्दु माजन अश्वावतान श्यामक श्यामाक श्यापर्ण एते गोपवनादयः । प्राग्धरितशब्दात् परत उन्भवति । हरिताः । किंदासाः । सौल्बलिप्रभूतयोऽत्र पठ्यन्त इति केचित् । तौल्बलयः । अनन्तरेण उप्राप्तः ।
घोपकादिभ्यः ।।१४१३६॥ उपक इत्येवमादिभ्ध उत्तरस्य वृद्धत्यम्य वा बहुम्भवत्ति । उपकस्यापत्यानि उपकाः । श्रौपकायनाः । लमका: । लामकायनाः । पतौ नबादी । भ्रष्टकाः । भ्राटकयः । कपिटलाः । कापिष्ठलयः 1 कृष्णाजिनाः ! काष्णाजिनयः । कृष्णसुन्दराः । कार्यासुन्दरसः । वेति व्यवस्मितविभाषा । तेनैषामद्वन्द्वे विकल्पः । परिशिष्टानां द्वन्द चाद्वन्द्व च । सुनिष्ट मयूरक कक पर्णक पिङ्गलक अटिलक बधिरक एतेषां शिवादिपु पाठः । अनुलोमप्रतिलोम एतौ बाहादी । बटारक नारक अभुक्तक [ अबन्धक ] उद्दक सुपर्चक सुवर्चक मुवर्मक खरीजङ्च शलाबच शलागल पतञ्जल कमन्दक कण्ठेरगि कुपीतक काशकृत्स्न निदाव कलशीकष्ट दामकण्ठ कृष्णपिङ्गस जनुक अविरग्ध कपिझलक प्रतान अनभिहित ।
तिककितवादियो बन्छे ॥१॥४॥१५०॥ वेति नानुवर्तते । कतिकितय इलेवमादिभ्यो द्वन्द्व वृद्धस्य बहुञ् भवति । कायनयश्च कैतवायनयश्च तिककिया। तिवादिलक्षणस्य किन उम् । वाङखस्यश्च भागहीरथयश्च शून उपि बलरभएडोरयाः । पाटक्रयश्च नारकयश्च पटकनरकाः । बाकनखयश्च श्रागुदपरिणद्वयश्च वकनखश्वगुदपरिशद्धाः। औजयश्च काकुमाश्च ककुभशब्दः शिवादिषु विदादिषु वास्ति उम्बककुमाः। लाइयश्च शान्तमुखियन लङ्कशान्तभुलाः । उरसशब्दस्तिकादौ । औरसायन यश्च साङ्कटयश्च उरसलङ्कटाः । अग्निवेशशब्दो गगादो । अग्निवंशाश्च दाशेरकयन अग्निधेशदाशेरकाः। प्रोपकायनाश्च लामकायनाथ फण उपि उपकलमकाः । भ्राष्टक्यश्व कापिष्ठलयश्च भ्रप्रकापिष्ठलाः। कापाभिनयश्च कासोन्दरयश्च कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः।
कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती ॥२॥१४॥ कौडिन्य भागस्त्य इत्येतयोद्वत्यस्य बहुपूत्रु भवति कुपिद्धन अगस्ति इत्येतो चादशौ यथासङ्ख्यं भवतः। अगस्त्यशब्दात् ऋष्यण् । कुएइमस्यास्तीति कुण्डिनी नाम काचित् गर्गादौ पञ्ज्यते ! कौण्डिन्य :। कौण्डिन्योः । कुरिखनाः । आगल्यः । आगस्त्योः । अग. स्तयः । यद्यपि "यजलो"[४१३५] इति या उप सिद्धस्तथापि कुण्डिनशब्दोऽकारान्त श्रादेशो विधीयमानो बाधकः स्यादिति पुनर्वचनम् । अगस्तीनां छात्रा अागस्तीया इत्यत्र अस्तिरादेशो भवति । प्रान्द्रवीविषये "वृद्धऽच्यनुपू' [३।११७३] इति अनुपि सति “बोरछ:'" [२०] इति छः सिद्धः । कौण्डिन्यशब्दाच्छस्प बाधकः "शकलादिभ्यो घुई" [स] इति अण् भवति । कोरिडनाश्चात्राः।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० १ ० ४ सू० १४२ - १२९
पोदो ||१|४|१४२ ॥ मृदोरन्तस्यावयवस्य सुप उन्भवति । पुत्रमित्यात्मनः पुत्रीयति । पटीयति । मृदः -- राशः पुरुषः राजपुरुषः । धर्मे भितो धर्मश्रितः । दन्ता य:" [२।१।२९] इति धुशायां “कुबूला :" [१६] मृत्संज्ञायां च सुप उम् । एवं तस्मात्ततः । तस्मिन् तत्र । धुमृदोरिति किम् ? वृक्षः । श्रत्र “कृञ्चलाः" इति नियमात् विभक्त्या मृत्यशा नास्ति ।
शपोऽदादिभ्यः ||१|४|१४३ ॥ श्रदादिभ्यो घुम्यः परस्य शय उन्भवति । अति । हन्ति । दोग्धि ।
दर्द
योऽचि ॥ ११४ ॥ १४४ ॥ यह उन्मवति श्रचि परतः । लोलूय पोपूय मरीमृज्य इत्येतेभ्यः पचायचि लोल्लवः पोपुवः मरीमृजः । न धुखेऽ' [3|१|१८ ] इति वैपोः प्रतिषेधः । "यको वा " [ ५५२/१२] इत्यत्र वक्ष्यत्यविशेषेण यङ उच् भवति । तेन वावदीति इत्येवमादि सिध्यति ।
छज्जुहोत्यादिभ्यः ||१|४|१४५ || शप इति वर्तते । जुहोत्यादिभ्यः परस्य शाप उज्भवति । क्षुहोति । मेनेक्ति ! बिभर्ति । उत्रिति वर्तमाने उग्रहणं द्वित्वाद्यर्थम् ।
स्थेपिभ्यः सेमैं ||१ |४| १४६ ॥ थाइ पिंच संज्ञक भू इत्येवमादिभ्यः परस्य तेरुब्भवति मे परतः । अस्थात् । श्रस्याताम् । श्रस्युः । श्रत: "[श ४६०] इति लुस् । श्रमात् । इ इशित प्रश्लेषनिर्देशात् इकोऽपि ग्रहणम् । अध्यगात् । अपात् । पित्र इति विकृतनिर्देशात् शोषणार्थस्य निवृत्तिः । प्रतिपदोक्त परिभाषा चानित्या । तेन "ग्रामादाग्रहणेव विशेषः " [ प० ] इतीदं लब्धम् । भुइति संज्ञानिर्देश: पित्" [१११।२७] इति । श्रदात् । श्रदाताम्। श्रतुः । भुइति भवतैरस्त्यादेशस्य च ग्रहणम् । अभूत् । “सूभवत्यो सिंहि" [२६] इत्येप्रतिषेधः । म इति किम् ? उपास्थिषाताम् । उपास्थिषत । “उपान्मन्प्रकरणे" [10] “बः [शश२१] शतं दविधिः । “मुस्थोरि:" [ave१] इत्याकारस्येव से: फिल्लम् ।
।
वाघादाशासः || १ |४| १४७॥ मा धेट् छा शा सा इत्येतेभ्यः परस्य सेर्वा उन्भवति मे परतः । अत्रात् । अनुप पक्षे "थमरमनमातः स च [ ५३१।१३२ ] इति सगियौ भवतः । “हत्यस्से:" [ ५/२/६३ ] इतीट् | "बुटीट: " [४/४/२०] हृदि से: खम् । श्रमात् । श्रप्रासीत् । अधात् । श्रधासीत् । श्रदधत् । अच्छात् । श्रच्छासीत् । न्यशात् । न्यशासीत् । श्रष्ठात् । श्रसासीत् । ये भुतंशात्वात् पूर्वेण प्राप्त इतरेषामप्राप्ते विकल्पः । म इत्येव । अत्राद्याताम् । श्रमासत । "स्तुसुपुत्रो मे [ २११ | १३१] इत्यधिकारादे सगियै न भवतः ।
वनादिभ्यस्तथासोः ॥ १|४|१४८ ॥ तनादिभ्य उत्तरस्य सेर्वा उब्भवति तथासोः परतः । थासा सहचरितो दसंज्ञस्तो गृह्यते । श्रतत । श्रतनिष्ट | उपपचे "अनुदानोपदेश" [४।४।३७ ] इत्यादिना खम् । तथाः । श्रतनिष्ठाः । षप् । असात । असनिष्ट । उपपचे "जमसनखनाम्" [ ४४४३] इत्यात्वम् । असाभाः । श्रसनिष्ठाः ।
आमः ॥११४१४६॥ ग्राम उत्तरस्य संभवात्मकारस्यो भवति । ईहांचके । ईक्षाञ्चक्रे । लकारस्य कलात् मुत्त्वे सति स्वाद्युत्पत्तिः । “सुपो के [१|४|१५० ] इति सुप. उप् । श्रामन्तस्य पदसंज्ञा । "वा पदान्तस्य " [२|४|१३३] इत्येतत् प्रयोजनम् ।
सुपोः ॥ ११४॥ १५० ॥ भिज्ञादुत्तरस्य सुप उन्भवति । च वा ग्रह कृला कर्तुम् । इदमेव शापकम् | असंख्यादपि सुपो भवन्ति । यदि वा "कर्मणीपू” [१/४/२] इत्येवमादिषु श्रर्थनियमपक्षे विभक्तीनामनियतत्वात् भिज्ञभ्योऽयुसत्तिः ।
छात् ॥ १|४|१५१|| सादुत्तरस्त्र सुप उब्भवति । श्रधिस्त्रि । श्रधिकुमारि । इसस्य भियंता नास्तीयुक्त तेनायमारम्भः ।
नतोऽम् स्वकायाः ||१|४|१५२|| हसस्य संख्यायोगात् कर्मादियोगाच्च सर्वासां विभक्तीनां सम्भवः ।
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अ० २ ० १ सू० १ ३ ]
महावृतिसहितम्
हादकारान्तात् परस्य सुप उम्न भवति । श्रमादेशस्तु भवति सुपः कां विभक्तौ वर्जयिता । उपकुम्भं तिष्ठति । उपकुम्भं पश्य । लपकुम्भं देहि । श्रत इति किम् १ उपाग्नि । काया इति किम् । उपकुम्भादानय ।
ईन्भयोर्विभाषा ॥ १|४|१५३२॥ ई५ मा इत्येतयोर्विभाषा श्रमादेशो भवति । उपकुम्भं कृतम् । उपकुमेन कृतम् । उपकुम्भं कृतम् । उपकुम्भाभ्यां कृतम् । उपकुम्भं निधेहि । उपकुम्भे निधेहि । व्यवस्थितविभाश्रेयम् । तेन श्रद्धिनदखसंख्यावयवेभ्यो नित्यममादेशः । ऋद्धौ सुमद्र कृतम् । सुमगधं कृतम् । नदीसे-"नदीभिश्च" [१३] १७ ] इति सः । उन्मत्तगङ्गम् । द्वियमुनम् । संख्यावयवः पर वंश्येन" [११६/१६] इति सः । द्विकौशलम् । त्रिकौशलम् । एकविंशति भारद्वाजम् ।
1
लुटोम्यस्य डारौरसः ॥ १|४|१५४ || लुटोऽन्यसंज्ञस्य त्रिकस्य डा रौ रस् इत्येते श्रादेशा भवन्ति । अर्थद्वारकमत्र यथासंख्यम् | श्रोता । श्रोतारौ । श्रोतारः । अध्येता । अध्येतारौ । अध्येतारः । डा इत्यन्तादेशः । डा श्रा इति प्रश्लेषनिर्देशाद्वा ने काल सर्वोदेशः । द्वित्यभस्यापि डिस्करणसामर्थ्याडिखम् । रौरसोः परतः "रि" [५।२।१९३] इति सखम् ।
इत्यभयनन्दिमुनिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्ती प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ ४ ॥
अध्यायश्च समासः ।
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द्वितीयोऽध्यायः
त्यः ||२|१११॥ अधिकारेण संज्ञेयमा कपः । यदित ऊर्वमनुक्रमिष्यामः अपूर्व शब्दोपजननं प्रकृतिवाग्विशेषयविकारागमबर्जे यत् त्यसंज्ञ तद वेदितव्यम् । प्रकृतिर्गुपादिः । वाक् “कमभ्यय्' [२/२) १ ] इत्येवमादाबीपा निर्दिष्टम् । विशेषणं "हृतिनाथयोः पक्षौ : " [ २/२/३०] इत्येवमादौ पश्वादि । विकारः सतो भावान्तरावाप्तिः । "हो घश्च" [२१२३] इत्येवमादिषु चकारादिः । श्रागमः परतन्त्रः । "पुजतुनोः चुक. [३३१०६] इत्येवमादिः । युक्तिरुच्यते निर्मित्ति कार्येण निमित्तिस्प्रेति प्रकृतिवागुपाधीनामग्रहणम् । अथवा भाव्यमान विभक्लोनिर्दिष्टं सन्नादि प्रधानं भूतविभक्लोनिर्दिष्टं प्रकृत्याद्यप्रधानं प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययः । विकारामयोस्तु " परः " [१२] इत्यनेन निरासः; नहि तयोः परत्वसम्भवः । वक्ष्यति तव्यानीयौ । कर्तव्यः । करणीयः । प्रतियन्ति तैनार्थमिति प्रत्ययः । “पु'खोधः प्रायेण” [ २|३|१०० ] इति घः । एवं यद्यन्वर्षा संज्ञा क्रियेत तदा प्रकृतेः सविभक्तिकस्य वा पदस्य संज्ञा स्वात् । त्यप्रदेशाः “यस्त्ये तदादि गुः " [११२.१०२ ] इत्येवमादयः ।
।
परः ||२|१|२|| परिभाषेयं नियमार्था । पर एव भवति धो दो वा यस्त्यसंज्ञः । कर्त्तव्यः । करणीयः । श्रीपगवः । धोरित्येवमादौ दिग्योगलक्षय्यकानिर्देशेऽपि पूर्वशब्दस्याध्याहारः स्यादिति परत्वं न लभ्यते "ईकेल्यव्यवाये पूर्वपरयोः " [१११।६०] इत्यत्र यदि कार्य परमुच्यते तत्तानिर्दिष्टस्येति । न च सनादयस्तानिर्दिष्टाः । काथासतः प्रादुर्भावः पर उच्यते एवं सति नियमार्थमिदं त्यपरैव प्रकृतिः प्रयोकृष्पा न केवला ।
गुप्तिकिद्दुभ्यः सन् ||२|१|३|| त्य इति वर्तते। गुप् विघ् कित् इत्येतेभ्यः परः सन् भवति । जुगुप्सते । तितिक्षते । चिकित्सति । धुवं शब्दनेनाविधानात् श्रगसंज्ञा नास्ति । तेन र नेडागमः । "निन्दाक्ष मारोगापनयेषु यथाक्रमं सम्बिध्यते " [ वा० ] गोपननिशाननिवासादिषु न भवति । गोपनं गोपायति । तेनं तेजयति । निकेतनं निषेतयति । भुवादिषु पाठः किमर्थः १ "अस्स्यात् " [२४] इत्यकारो यथा स्यात् ।
१. विधिर- अ०, ब०, स० । २. स्तीति ने प्र० । ३. जुगुप्स विक्षि चिकित्सेत्या स्वादिषु पृथक् पाठाकरणम् वस्स्थादित्यर्थमित्याशयः कथचिन्नेयः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[.२ पासू. -
जुगुप्सा । तितिक्षा। चिकित्सा । सनोऽकारोपदेशः प्रतीपिषतीत्यादौ श्रवणार्थः ।
"एकदेशकृत लिन समुदायविशेषग्यम् । अनुदानेवमायाभ्यां तेनायं यो विधीयते ।" मान्अधदानशानभ्यो वीश्वस्य ॥
२४॥ मान् वध दान शान इत्येतेभ्यः सन् भवति दी चस्येफारस्य । मीमांसते । भीभत्सते । दीदांसते | शीशांसति । शीशांसते । श्राधावनुदाप्तेतौ । परी खरितेती । "घविकारेवपवादा उत्सान्न साधन्ते" [प०] इति कृतकारस्य चस्स दीत्वम् । अत्रापि "जिज्ञासारूप्याजेय. निशानेषु यथाक्रमं समिष्यते"[चा०] । पूजानधनावरखण्डनतेजनेषु न भवति । मानयति । बाधयति । दानयति । निशानवति । दान उत्तरत्र वैति व्यवस्थितविभाषा । तदवलोफनादयं विभागः ।
तुमीच्छायां धो?प ॥२॥१॥५॥ इच्छायां तुमि यो धुस्तस्मात् सन् वा भवति तुमश्चोम्भवति यदा सन् । कर्तुमिच्छति चिकीर्षति । बुभुक्षते । अयं 'हीच्छाया तुम् विहितः । हेतुफलयोरित्यधिकृत्य "इच्छाधे लिलोटो" [२१११३] "तुमेककनके" (२१३/१३५] इति वचनात् । इहापि सामान्यविशेषभावेन हेतुफलभावोऽस्ति । एपितुमिच्छति एपिषियति । मिति किम् ? इच्छायामित्युच्यमाने हच्छार्थानामिपियाञ्पादीनां ग्रहणं स्पात् । तुम्हणे सति नभ्यामित्येतत्तुमो विशेषयाम् ! दहयामुएलन्हित दुमति । तेन यत्र तुमो निमित्तं हेतुफलभावो नास्ति तत्र न भवति । इच्छति कटं करोति चैनम् । मिन्नकन कत्वे च न मवति । इच्छति देवदत्तः करं कुर्याज्जिनदत्तः । यत्र तुम् नास्ति तत्र च न भवति । इच्छायामिति क्रिम् ! कत्तुं गच्छति । अत्र "बुग्णसुमौ क्रियायो वपर्यायाम्" [२३] इति तुम् | धोरिति किम् ? प्रकर्नु मैच्छत् प्राचिकीर्षत् । लोकपतिर्मा भूत् । अगसंज्ञार्थ च धुग्रहणम् । घाग्रहणावाक्यस्यापि साधुत्वम् । इहोपचारात् सिद्धम् । पिपतिषनीव पिपविषति कूलम् । मुमूर्षतीव मुमूर्षति श्वा । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेनेच्छासन्नन्तात् सन्न भवति । चिकीर्षितुमिच्छसि । अनिच्छासन्नन्ताद्भवति । जुजुगुप्सियते ।
"मस्वपषिकाच्चापि मत्वधः शैषिकस्तथा । सरूपत्यविधिर्नेयः समन्तान सनिष्यते ॥"
स्वेपः क्यच ॥२१॥६॥ स्वस्य यदिबन्ते तस्मादिच्छायां वा क्यज् भवति । श्रात्मनः पुत्रमिच्छति पुत्रीयति । पटीयति | ककारो "क्ये"[१।२।१०४] इत्यत्र सामान्यग्रहणार्थः । चकारः सामान्यग्रहणाविषातार्थः 1 तेन 'एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्या०] इत्यर्य विधातो नास्ति । स्वग्रहणं किम् ? पुत्रमिच्छति ब्रह्मचारी मरणमिच्छति दुर्जनः। अत्र परस्येति गम्यते । इनिति किम् ? पुत्र इच्छति । पुत्राय हन्छति । वाक्यात् कस्मान्न भवति । महान्तं पुमिच्छति वाक्यस्यानिवन्तत्वात् । अययवादसामान भवति । कर्मोक्तमन्त्र क्यचा तेन कर्तरि भावे च प्रयोगः । पुत्रोयति । पुत्रीयते अनेन । वेत्यनुवृत्तेझिमन्तभ्यो न भवति । उच्चरिच्छति । इदमिच्छति । किमिच्छति ।। काम्यः ॥
२७॥ स्वस्य यदिबन्तं तस्मादा काम्यो भवतीच्छायाम् । पुत्रमिच्छत्यात्मनः घुप्रकाम्यति । पटकाम्यति । ककारस्य प्रयोगाई वादिसंशा नास्ति । योगविभागादुत्तरत्र क्यच एवानुवृत्तिर्न फाग्यस्य ।
गौणावाचारे ॥२॥राम!! गौणममुख्यमाचरणक्रियायामुपमानमित्यर्थः । गौणादिचन्तादाचारेऽयं वा क्यज् भवति । पुत्रमिवाचरवि पुत्रीयति छात्रम् । प्रावारीयति कम्बलम् । व्यवस्थितविभाषाधिकारादीप्यपि भवति । प्रासादीयति कुट्य।
कई : कासखं विभाषा ॥२१॥६॥ कतुं गौणादाचारेऽर्थे वा क्यङ् भवति यन्तै सकारस्तस्य च खं विभाषया । इह कतृ ग्रहणादिन सम्भवति सुबन्तात् क्यङ्गः । श्येन इव पाचरति काकः श्येनायते । कुमुदं पुष्करायते । व्यवस्थितविभाषेयम् । 'मोजोऽप्सरसोनियं पयसस्तु विभाषया ससम् [ दा०] ।
.. यदीच्छा-या । २. पा० भायो-"शैषिकान्मतुषर्षीयाच्छधिको मतुर्थिकः । सरूपः प्रत्ययो नेष्टः सन्तान सनिष्यते।" इस्येवंक्षपः।
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पा. १ पा० । सू० १०-१५]
महावृतिसहितम्
औजखीवाचरति श्रोबायते । वृत्तिविषये मत्वर्थीयः क्यडोक्तः । अप्सरायते । मथितं पयायते पयस्यते । श्रसखपचे "म। ये" [१२/१०४] इति नियमात् पदलाभावे रित्यादिविधिन भवति । कतुरिति सखापेक्षया वया विपरिणम्यते तेनान्त्यस्य खम् । इह न भवति । सारसायते । "माचारे सर्वमृभ्यः किम्चा मक्त्ये के" [वा०] अश्व हवाचरति अश्वति । अश्वायते ।
सूशावेश्च्चो इलो भुवि ॥राक्ष२०॥ कर्तु रिति वर्तते । भृश इत्येवमादिभ्यः व्यर्थ वर्तमानेभ्यो ना वा क्या: पबति प्रयन्ते हसू सस' च नित्यं खम् । चिर्विकल्पेन विधीयते । यत्र नोत्पद्यते तत्रायं क्या । अभ्यो भृशो भवति भृशायते । भृश शीघ्र चपल पण्डित उत्सुक । नात्र गेर्बहिर्भावः । उन्मनस् सुमनस् दुर्मनम् अभिमनस् । संग्राम युद्ध इति ज्ञापकादुदादीनामहागमादिषु यहि कः । रेहत् वेहत शश्वत् तृपत् वर्चस् अोजस् प्राण्डर शुचि मन्द नील मद फेन हरित ।
डाउलोहितात् क्या ॥२॥१॥११॥ द्वाजन्तालोहितशब्दाच्च व्यर्थाद्भवत्यर्थे वा क्यष् भवति । व्यर्थग्रहणं लोहितस्य विशेषणं न हाजन्तस्याव्यभिचारात् । पटपार्यात । पटपटायते । यदा न क्यम् तदा पटपटाभवतीति प्रयोगः । अलोहितो लोहितो भवति लोहितायति | लोहितायते । एवं हि "नः स्ये" [1110] इत्यत्र सामान्यग्रहणार्थः ककारः शोमेत यदि चर्मादिभ्योऽपि स्यात् । चर्मायति । चर्मायते । निद्रायति । निद्रायते । करुणायति । करुणायते । कृपायति । कृपायो । वृत्तिविषये मल यः क्यघाऽभिहितः ।
कष्टाय ॥२॥१२॥ क्यछु अनुवर्तते । कटायेति तादर्थ अप। कष्टाय ये शब्दा वर्तन्ते तेभ्यः क्या भवति । कष्टार्थादिति वक्तव्यम् । अनन्तनिर्देशः समर्थविभक्त्युपादानार्थः । अभिधानवशात् कमणेऽनावे क्या द्रष्टव्यः । यथा 'नमोवरिपशिनकः क्य" [२११६] इत्पत्र पूजाधनियमः । फाशय कर्मणे कामति कष्टायते । अनार्जवं पापं करोतीत्यर्थः। सत्राय कर्मणे कामति सत्रायते | कक्षायते । गहनायते । अनार्जव इति किम् १ अजः कष्ट कामति । नात्र पापं गम्यते ।
पापोष्मफेनादुरमे ॥२॥१॥१३॥ छप इति वर्तते । वाष्प ऊष्मन् फेन इत्येतेभ्यः उद्यम इत्यर्य क्य भवति । वाष्पमृद्ध मति बापायले । ऊष्माणमुद्रमत्ति ऊष्मायने । केनायते ।
रोमन्यतपःशब्दवैरकलहाभ्रक पवमेघात् कृति ॥२॥१४॥ रोमन्य तपस् शब्द वैर कलह अन कपब मेष इत्येतेभ्यः करोत्यर्थे क्यङ् भनति | शेमन्थं करोति रोमन्थायते गौः । अत्र करोतिः क्रियासामान्ये वर्तमानोऽपि अभ्यवहतचर्वणक्रियायां गृह्यते । तेने न भवति । कीटको रोमन्थं वर्तयत्ति | "तपसो मञ्चति वकपम्'' [वा. ] तपः करोति तपस्यति । तपश्चरतीत्यर्थः । शब्दं करोति शब्दायते 1 वैरायते । काहायते । अनायते । कण्वायते । पापं करोतीत्यर्थः । मेधायते । तत्करोतीत्यस्मिन्नर्थे णि अपि भवति । शब्दयति । वैरयति ! "सुविनधुदिननीहारेभ्यश्चेति वक्तव्यम्" [वा०] सुनायते । दुर्दिनायते । नोहारायते । “टाझीझाकोटापोटासोटाब्रुष्टाभ्योऽपीति केचित् ।" वा. ] अायते । अट्टायते | शीकायते । कोटायते 1 पोयायते । सोरायते । मुधायते।
सुखादे स्वभोगे ॥२१॥१५॥ भोगोऽनुभयो वेदना वा । सुख इत्येवमादिभ्य इवन्तेभ्यः स्खभोगे क्या भवति । सुखमात्मनः करोति सुखायते । सुखं भुत अनुभवति वेदयतीत्यनान्तरम् | एवं दुःस्वायते । सुख दुःख तृप्त कृच्छ्र अस्र अलीक करण कृपण सोद प्रतीप | स्वभोग इति किम् ? सुख करोति प्रसाधको देवदत्तस्य।
". वम नित्यं नाम 40, ख०, मु.। २. कण्ठ म., बैल, स० । ३. फण्ठ ४. काढायते' ० ०, स..
, प., स. ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. २ पा० । सू. १५-११ नमोघरिपश्चिम क्यच् ॥२२॥१६॥ कृमीति वर्तते । नमस् वरिवस् चित्रङ, इत्येतेभ्यः क्यन् भवति करोत्यर्थे । पजापरिचर्याश्चर्यविशेषे । नमः करोति नमस्यति देवान् । अत्र नमःशब्दस्यानर्थकत्वात्तद्योगे नाब् भवति । वरिवः करोति वरिषस्यति गुरून् । चित्रङ् करोति चित्रीयते । ङित्त्वादः । पूजादिभ्योऽन्यत्र नमः करोतीति भवति ।
पुच्छभाण्डचीवराण गिङ ॥२।११७॥ पुच्छ भाण्ड चीचर इत्येतेभ्य इअन्तेभ्यो गिद् भवति करोत्यर्थविशेषे। कोऽसौ विशेषः । "पुच्छादुइसने पयसने वा" [वा०] उत्पुयते । परिपुच्छयते । "माण्डर
सायने परिचयमे वा" [41] संभाण्डयते परिमाण्डयते । "चीवरादर्जने परिवाने वा'[पा..] संचीवरयते भिक्षुः । कारः "गारविष्ठवमृदः" [ ४५] इत्यत्र सामान्यग्रहणाविधातार्थः । अर्थविशेषादन्यत्र थिजेव भवति ।
मुण्डमिश्रश्शक्षणलवणव्रतवनहलकलकततस्तेभ्यो णिच् ॥२१३१८॥ मुण्ड इत्येवमादिभ्य इबन्तेभ्यो णिज भवति करोत्यर्थे । चुरादिषु "मृतो ध्वई' इति गिचि सिद्धे अर्थविशेषपरिग्रहार्थमिदम् । च्यर्थे वायमिति केचित् | अमुण्डं मुएई करोति मुण्डयति । मिश्रयति । श्लक्ष्णयति । लवण्यति । "प्रसा. ओबने तम्निस्तो छ[पा०] पयो व्रतयति । पयो भुत इत्यर्थः । सावयं व्रतयति । सावा न मुके इत्यर्थः। "वसात् समान्छादने" [वा ] वस्त्रेण सेच्छादयति संवस्त्रयति । हलिं गृह्णाति हलयवि ! कलि गृह्णाति कलयति । "हलिकश्योरकारान्तता णिचा योगे निपात्यते" [वा.] "धौ कच्यनक्खे सन्मस्' [११] इति सन्वद्भावप्रतिषेधार्थम् । कलि गद्दीतवानचकलत् । अजहमत् । अन्यथा परत्वादैपि कृते टिखं स्यात् ततः सन्बद्भावः प्रसज्येत । यथा अलीलपत् अपीपटत् इति । कृतं गृह्णाति कृतयति । तूस्तानि केशजाः विहन्ति वितूस्तयति ।
घोर्य क्रियासमभिहारे ॥२।१।१६|| पौनःपुन्यं भृशार्थो वा क्रियासमभिहारः । घोर्यङ् भवति क्रियासमभिहारे। पुनः पुनः पचति भृशं वा पापच्यते। बोभुज्यते । क्रियान्तरैरव्यवहितायाः प्रधानभृतविक्ले. दनक्रियायाः पुनः पुनरारम्भः पीनःपुन्यम् । गुणभूताधिश्रयणादिक्रियाणां क्रियान्तरैरव्यवहितानां साकल्येन करणं भृशार्थता। सूचिसूत्रिभून्यट्यवंशपोतोनां ग्रहणं नियमाथे कर्त्तव्यम् । सोसूच्यते । सोसून्यते । मोमच्यते । अनेकाभ्य एव नान्यस्मात् । प्रत्ययं जागतीति । अदास्यते । अपर्यते । "यकि" [२१] इत्येप् । श्रत्यर्थमश्नुते अशाश्यते । प्रोनियते । अट्यादिग्रहणं किमर्थम् । श्रन्यस्मादजादेर्मा भूत् । भृशमीक्षते । पुनः पुनरौहते। क्रियासममिहारे सर्वस्य द्वित्वे वेति दिभाषानुवर्तते । तेन यान्तस्य द्वित्वं न भवति । तत एव क्रियासमभिहारे यो लोट् तदन्तस्य भवति | लोलूयस्व लोलूयस्व इत्येवायं लोलूयते । घोरिति किम् ! सरोक्त्पत्तिर्मा भूत् । अगसंज्ञार्थ च धुग्रहणम् । पेपीयते । "शुभिरुचिभ्या प्रतिषेधो वक्तव्यः" [०] 1 अत्यर्थ शोभते । प्रत्यर्थं रोचते ।
नित्यं गतिविशेषे ॥२१२०॥ नित्यं बङ् भवति गतिविशेष गम्यमाने । चक्रम्यते । दन्द्रम्पते । श्रावनीवच्यते । गतिविशेषो हि यङन्तवाच्यः । तेमास्वपदेनार्थमात्रकथनमिदं कुटिलं क्रामतीति । नित्यग्रहणं तु विषयनियमार्थम् । एतयोोगयोगतिविशेष एव गर्दै एव च यङ् यथा स्यात् क्रियासमभिहारे मा भूत् । भूशं फ्रामति । भृशं लुम्पति ।
लुपसदचरजपजमदहगृदशो गहें ॥२॥१॥२१॥ लुपादिभ्यो गर्दै गम्यमाने नित्यं यह भवति । प्रत्यासत्तेव॑र्थस्य गर्यो गृह्यते न साधनल्य । अनर्थक लुम्पति लोलुप्यते । सासद्यते । चञ्चूर्यते। जप्यते । प्रजभ्यते । दन्दयते । निजेगिल्यते । ददश्यते । दशेः कृतनखस्य निर्देशाग्रस्यपि खं भवतीति केचित् । दंदशीति । तदयुक्त क्षेत्रवान्निर्देशस्य । गई इति किम् ! सुखं सीदति स्वगरे ।
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म. २ पा० । सू०२२-२७] महावृत्तिसहितम्
पाशरूपवीणातलश्लोकसेनालोमत्वचचर्मवर्णचूर्णचुगदेणिच् राश२२॥ पाशरूपवीणातुलश्लोकसेनालोमत्यचर्मवर्ण चूर्णचुरादिभ्यश्च णिज् भवति । चुरादौ "मृदो अर्ध" इति सिद्धेऽपि अर्थविशेषपरिमार्थे पाशादेः पृथग्ग्रहणम् | "पाशाद्विमोचने" [घा०] पाशं विमोचयति विपाशयति । "रूपाइर्शने [पा०] रूपं दर्शयति रूपयति । वीणया उपगायत उपवीणयति । तूलैरनुकुष्णाति अनुतूलयति । श्लोकैरुपस्तौति उपश्लोकर्यात । सेनया' अभियाति अभिषेणयति । लोमान्यनुमाष्टिं अनुलोमयति । स्वचं यहाति स्वचयति | स्वच इति अकारान्तनिपातनात् परेऽचः पूर्वविधी" [11११५७] इत्यखस्व स्थानिवद्रावात् "डकोऽत:" शर] इत्यै न भवति । वर्मणा सन्नह्यति संवर्मयति । वर्णान् गृह्णाति वर्णयति । चूर्णरवकिरति अवध्वंसयति वा अवचूर्ण यति । चुरादिभ्यः चोरयति । मन्त्रयते ।
आचार्थवेदसत्यानाम् ।।२।२३॥ अर्थ वेद सत्य इत्येतेषां आकारश्चान्तादेशो भवति रिणच । अर्थमाचष्टे अर्थापयति । वेदापयति । सत्यापयति ।
हेतुमति ॥१॥२४॥ हेनुस्तद्योजकः । हेतुमति ध्वर्थे ऽभिधेये णिज् भवति अन्येषां दर्शनं प्रयोजकन्यापारः प्रेषणाध्यषणरूपो हेतुमान् तस्मिन्नभिधेये गिज भवति । कटं कारयति । अोदनं पाचयति । अत्र वाग्विसों हेतुल्यापारः। चित् समर्थाचरण ! या भिवा वामगति ! कारीयोऽग्निरभ्यापति ! "पाख्यानात् कृतस्तवायष्ट इति दुपूप्रत्यापत्तिः प्रकृतिवच्च कारकमिति' [वा. अारख्यायते यत्तदाख्यातं तस्मात् कृदन्तात् प्राचष्ट इत्यस्मिनथें णिज् बक्तव्यः कृदुष्प्रकृतिप्रत्या पत्तिः, प्रकृतिवच्च कारकं भवतीति वक व्यम् । कसबघभाचष्टे कंसं घातयति ! बलिंबन्धमाचष्टे बलिं बन्धयति । राजागममाचष्टे राजानमागमयति । "माख्यामशब्दाप्रतिषेधो वक्तव्यः" [पा०] आख्यानमाचष्टे इति वाक्यमेव भवति । मृगरमणमाचष्टे मृगान् रमयति । यदा ग्रामे मृगरमणमाचष्टे सदा नेष्यते 1 "पानिवृत्तिाच कालास्यन्तसंयोगे महायाम् पा०] कृदन्तात् णिच् तदाचष्टे इति कदुप्पकृतिप्रत्यापत्तिः प्रकृतियच्च कारकमिति वर्तते । श्रारात्रिविवासमाचष्टे रात्रि विवासयति । चित्रीकरणे च प्रापयर्थे णिच् वक्तव्यः' [घा०] उज्जयिन्याः प्रस्थितो माहिष्मत्या सूर्योद्रमने सम्भावयति सूर्यमुद्रमयति । "नक्षत्रयोगे हाथै" [वा०] पुष्येण योग जानाति पुष्येण योजयति | चन्द्रमसा मघाभियोग जानाति मघाभिर्योऽयति । नेदं बहु वलव्यमत्रापि कथञ्चितुव्यापारोऽस्ति बहुलग्रहणाद्वा सिद्धम् ।
करपादेयक ॥२।१२शा काढून् इत्येवमादिभ्यो यक् भवति । यकः किकरणं एपप्रतिषेधार्थ शापकमिह काड्वादयो धवो गृह्यन्ते न मृद्पाणि (मृद्रूपाः)। कएलसीडादिषु दीत्वोच्चारणं आपकं विकल्पेन धुरूपतैषामन्यया "दोरहद गे" [शस१३] इति दीत्वेनाप्येतस्सियत । तेन मृत्पचे फयद्गुः मन्तुः वल्ः इत्यादिप्रयोगा ज्ञातव्याः : कगयति । कण्डूयते । कण्डूतिः । मन्तूयति । कराडून् मन्तु वल्गु असङ हणीक महोङ वेटलीङ् । कारो दबध्वर्थः । इयम् धरस् तिरस् मगधस् पम्पस् कुशुभ उपस तन्तस् मुख दुःख भिषन् मिथ्णुज् अरर चुस्य तुरण तरण सरण (चरण) सपर इषुध इषुभ गदगद पला बेला केला खेला खेट् लोट उरस् । अकारान्तानाम् अतः स्वम् ।
गुपूधूपविच्छिपणिपनेरायः ॥ २६॥ गुयू धूप विछि पणि पनि इत्येतेभ्यो धुम्य अायो भवति । गोपायर्यात । धूषायति । विछेरन्तरङ्गत्वान्तुति कृते श्रायः। विच्छायति । अनुदात्तत्वं केवले चरितार्थमिति दो न भवति । गुपादिभिर्भावादिकैः साहचर्यापणे वादिकस्य ग्रहणं न तौदादिकस्य । शतस्य पणते | "यवाहपयोः सामथे' [१५] इति कर्मणि ता । पनिरिदैव पणिना समानार्थः उपदिश्यते । पनाति ।
घाऽगे ॥२१॥२७॥ अगविषये गुपादिभ्यो वा वायो भवति । गोपायिता । गोला। गोपायांचकार । जुगोप । गोपाया । गुप्तिः । इत्येवमादि योज्यम् ।
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जैनेन्द्रख्याकरणम् [४० २ पा० । सू. २८-३९ फमृत्योर्णिहोय ॥२॥१॥२८॥ सूत्रत्वात्कायाः स्थाने ता कृता । कम् ऋति इत्येताभ्यां बिक ईयह इत्येतो त्यो भवतः । कामयते । गकारः ऐवर्थः । “न कम्यभिचमाम्' इत्यत्र कमेमिसंज्ञाप्रतिषेधः किमर्यः ! "मिणमोदीमिताम्' [[१५८६] इति वा प्रादेशो मा भूदित्येवमर्थः । अकामि | कामं कामम् । "या" [१५] इति थिङोऽनुत्पत्तौ गिनिमिसस्यैपः प्रादेशनिवृत्यर्थश्च । डकारो दविध्यर्थः । विडतीत्येप्रतिषेधार्थ न भवति इकरतत्रानुवृत्तेः । ऋतिरिहैव घृणार्थमुपदिश्यते ऋतीयते । वाऽग इति च वर्तते । तेन कमिता । कामयिता ! अर्तिता । मृतीयिता ।
तवन्ता घवः ॥२११२६॥ येऽनुकान्ताः सनादयस्ले अन्ता येषां ते धुसन्जका भवन्ति । तथा चैवीदाहृतम् । पदसंज्ञायामन्तग्रहणं नियमार्यमुक्तम् । अन्यत्र "संज्ञविधी त्यप्राणे तदन्तविधिनास्ति"[प.] इति एष प्रतिषेधो मा भूदित्यन्तग्रहणम् ।
स्यतासी लल्लुटोः ॥२॥१॥३०॥ इति लुल्ल टोः सामान्येन ग्रहणम् । धोः स्वतासी इत्येतो मध्ये त्यौ भवतः लुलुटोः परतः । शब्दापेक्षमत्र यथासंख्यम् । धोरधिकारात् पूर्वभवतानिवृत्तिः । अगा संशा च । भाषकर्मकतषु लो विहितः । तत्र यशपावत्सगौ स्यादयस्तदपवादाः । करिष्यति । अकरिष्यत् । फर्ता | तासेरिदितूकरयां किम् ? "हलुकः क्छिस्यनिहितः'' [४।७१२३] इति नवप्रविषेधार्थम् । इन्ता | मन्ता।
कास्यनेकाच्याल्लिट्याम् ॥२१॥३२॥ कासेरनेकाचस्त्यान्ताच्च लिटि परतः श्राम्भवति । कामाचके। अनेकारभ्यः-चकासाञ्चकार । चुलुम्प इति सौत्रो धुः । बुलु पाञ्चकार । दरिद्राञ्चकार । त्यान्तात्-लोलूयायके । कारयाचक्रे गवाञ्चकार । "आचाराधे समृद्भ्यः " इति कि । अनेकामहलमत्यान्तार्थम् । प्रामिति नायमागमः । कासेविधानात् ।
सरोरिजाः ॥२॥३२॥ सह कणा वर्तते इति सरुः | सरोरिजादेोः लिट्याम्भवति । इहायके । इन्दाकार । उपदेशावस्थायां नुम् । कहाञ्चक्रे । उञ्चाञ्चकार । उदाभाञ्चकार । सरोरिति किम् ! इयेष । उबोष । एपि कृते समरिति चेत् ; "समिपातलक्षणो विधिरनिमिर सद्विधातस्य” [३०] इति न भवति । एनादेरिति किम ! ततक्ष | "छत्यताम्" [५।२।२६] इति लिट ये वजनं शापकं भुच्छेराम्न भवति । श्रानर्छ। श्रानफ़सुः । श्रानन्दुः । कथं प्रोणु नाक ? "वाच्य अर्णोर्गुचनायो यमसिद्धि प्रयोजनम् । नामश्च प्रतिबेधार्थमेकाचरनिवृत्तये । प्रोणुनूषति । "सनिग्रहरचा' [ १८] हतोट्यतिषेधः।
व्यायासः ॥३३॥ दय श्रय पास इत्येतेभ्यश्च लिटि प्राम्भवति । दवाञ्चके । पक्षावाञ्चके | पोरयतो [श३।३०] इति लखम् | आसावके ।
घोषजागृधिदात् ॥२॥१॥३४॥ उप जाग चिद् इत्येतेभ्यश्च लिटि परतो वा श्राम् भवति । भोषाचकार । उघोष । जागराञ्चकार । जजागार । विदाञ्चकार । विवेद । विदेराग्यकारान्तत्व निपातमात् पम्न भवति । जागृसाहचर्यादादादिकस्य ग्रहणम् ।
भोलोभूहवामुज्वत् ॥२१॥३॥ भी ही भू हु इत्येतेभ्यो लिटि श्राम भवति उचोप कार्य भवत्येपाम् अधि कार्य द्वित्वमित्येव । तदतिदिश्यते । लिइपेक्षं द्वित्वमामा व्यवधानान प्राप्नोति । बिभ्याञ्चकार | विभाय । बिछ्याञ्चकार | जिहाय । बिभराञ्चकार । बभार । "भृला त्रयाणाम् [५२१५७५] इति पस्ये त्वम् । जुहकाञ्चकार । जुहाव ।
लिड्पत् कृमि ॥२१॥३६॥ कृजिति प्रत्याहारेण कृभ्वस्तीनां त्रयाणां प्रणम् । मण्डूकप्लत्या वेति विभाषाऽपेक्षणीया | तेन सम्पदो बहिर्भावः । य उक्त श्राम् स लिड्वस्कृमि प्रयुक्त साधुर्भवति । लिन् कृमीतीनिर्देशात् आमन्तस्याव्यवहितस्य पूर्व प्रयोगः । ईहाञ्चक्रे । “माग्वत् तमः " [ १६] इति दः । इहाम्बभूव । ईहामास | "अस्तियोभुवी'' [11/१२५] इत्यत्रोतमस्तेरनुप्रयोगस्य भूभावो न भवति । कृषि प्रत्याहारमहणसामद्विा ।
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० २ ० १ सू० ३७-४४]
महावृत्तिसहितम्
६३
विदान्तु वा ||२||३७|| बिदाकवैन्विति एतद्वा निपात्यते । किमत्र निपात्यते ! लोटि या आम् एवभावों लोद्दन्तस्य करोतेरनुप्रयोगश्च निपात्यते । विदार्वन्तु । विदन्तु । सर्वेषु लोडवचनेषु निपातनमिदं प्रायेण । ल्यन्तस्य प्रयोगान्ते निर्देशः । दिवाकरणि । शनि । दिवान। देश | वन वेदाम । विशङ्कुरु । विद्धि 1 विदारुतम् । विसम् । विशङ्कयत | वित्त | विदारो | वेत्तु | विदारुताम् । विताम् । ( विदान् विदन्तु ।
सिलुंङि || २|१|३= ॥ धोः तिर्भवति लुङि परतः । अकार्षीत् । श्रभैत्सीत् । अकृषातां कटौ देवदन | किरणं किम् १ श्रमंस्त । "अनिदित:" [ ४/४/२३ ] इति प्रतिषेधात् नोङः खं न भवति ।
स्पृशमृशषटपटप वा ||२११३६ ॥ स्पृश मृश कृष लूप हप इत्येतेभ्यो लुङि वा विर्भवति । तुहियोः पुषादित्वान्नित्यम प्राप्तः । श्रन्यत्र " : " [ २२/४० ] इति क्सः 1 अस्माक्षीत् । अस्म तन् । “थाऽनुदान्तस्यर्दुङ:' [ ४ २ २२ ] इति नामागमः । यणादेशे कृते "वह" [१७] इत्यै । पत्रे -- श्रस्पृक्षत् । अनाक्षीत् । श्रमाक्षीत् । श्रमन् | अकाक्षीत् । श्रकाक्षत् | अक्षर । अत्रासीत् । श्रतासत् । अनुपत् | अद्रासीत । श्रासीत् । अहपत् ।
"
गुरुः शलोऽनिटोऽदृशः सः || २|१|४०|| गुड् शलन्तो यो धुः श्रनिट् तत्माद् दृशिवर्जितात् मेक्सो भवति हि श्रधित् । दुष्ट-क्षत् | लिह - श्रलिक्षत् | गुरु इति किम् ? दह-भाक्षीत् । शल इति किम् । अभैत्सीत् । अनि इति किम् १ प्रकोपीत् | "नेट" [ ८० ] इत्यैप्रतिषेधः । श्रदृश
इति किम् श्रदर्शत् । श्रद्राक्षीत् । " बेरिव " [ २|१|४६ ] यङ् ।
शिक्षा ||२१|४९ || अनि त्यधिकारात् शिक्षय दाहे इत्यस्य ग्रहणं न भवति । शिलः सो भवति लुष्टि परतः । श्रश्चित् । पूर्व मासस्य बाधके पुदित्वादति प्रा श्रयमारम्भः । "पुरखादपवादा - भ्रान् विधद् बाधन्ते नोतवान्" [ ० ] इत्यङ एव बाधा न ञः । श्वाश्लेषि ।
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स्थायें ||२३|१|४२ || स्वार्थः श्रालिङ्गनम् । श्लिषः स्वार्थ एव क्सो भवति । आश्लिक्षत् कन्यां देवदचः । स्वार्थ इति किम् ? समाश्लिषत् जनु च साउं च ( अनुकारम् ) । दविग्ये सिखे समष्टिस्त्वं धवखदिरे 1 "" [ ५३४४ ] इति से: खम् ।
विभिक्षुकः करि कच् || २ | ११४३ ॥ णिजन्तेभ्यः श्रिद्रुश्रु कमि इत्येतेभ्यः कर्तृवाचिनि भिषति | ककार कार्यार्थः । चकारः 'लुखि कवि धो: [ किचि ] [ ७२७] इति विशेषणार्थः । श्रचीकथत् । अवीपवत् । "झोनयत्यादेः प्रतिषेधो वक्रभ्यः" [चा०] श्रनयत् । श्रशिश्रियत् । श्रवत् । कमिमइयां "वाऽगे'' [ २।११२७ ] इति यदा खिङ् न भवति तदा प्रयोजयति । श्रमत् । कः खं यस्मिन् याविति तत्र विग्रहात् सद्भावो न भवति । पिते सन्वद्भावः । श्रचीकमत् । आत्मकमेणापि च भवति । अन्वीकरत् कटः स्वयमेव । " णिथि अन्थिमन्धिनां दवित्री श्रीनाथ" [ या ] इति जिथकोः प्रतिषेधं वक्ष्यति ।
यः ॥ २१ ॥ ४४ ॥ ट् शिव इत्येताभ्यां वा कञ्भवति कर्तार लुङि परतः । श्रधत् । “द्वित्वेऽचि” [11] इत्यात्वस्य स्थानिवद्भावाद् द्वित्वं यदा सिस्तदा "वर घाधेदूच्छाशासः [१|४|१४७] इति वा सेवप् । अधात् । श्रधासीत् । अनुपि "यभरमनमातः सक्च' [२/१/१३२] इति सगिटी । श्रशिश्विवत् | "न जो जि:' [४|३|११] इत्यत्रेकाराश्लेपात् जिप्रतिषेधः । कचा मुक्त पक्षे " जश्वि" [२१११५० ] इत्यादिना चिकल्पेनाङ् । श्रश्वत् । श्रश्वयीत् । "याचक्षण" [ ११ ] इत्यादिना साचैप्रतिषेधः । कर्तरीत्येव । तां वत्सेन ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. २ ० १ ० १५-१॥ वक्त्यसुख्यातेरा ॥२।१।४५ यति असु ख्याति इत्येतेभ्यो लुङि परतः श्रड भवति । इदमेव वशिवचनं ज्ञापर्क गेऽपि ओ चिरादेशो भवतीति । अयोचत् । अवोचत । "श्व्यस्पदचोऽथुक्पुमुमोहि" [१।१२८] इत्युमागमः । अस् । उदास्थत । उदास्थेताम् | उक्षास्थन्त । "ओरस्त्यस्यगीर्वचनम् [पा) इति दः । मविषये पुषादिवादेवा सिद्धः। ख्यातिरिति ख्या प्रकथन इत्यस्य चक्षादेशस्य च कृतयकारस्याविशेषेण ग्रहणम् । आख्यत् । श्रारख्यताम् । श्राख्यन् ।
हाशिसिवः ॥२१ जिम्मा पतन्यबामपति लुहि परतः । अाहत् । अलिपत् । असिचत् । पृथगारम्भ उत्तरार्थः ।
देवा ॥२॥४७॥ हा लिप सिच् इत्येतेभ्यो लुङि दे वा अष्ट्र भवति । अाहत । आहास्त । अलिपत । अलिप्स | असिचत । असित । "सिलिछ् । [ १] इति कित्यादेप्रतिषेधः । पूर्वेण निले प्रासे विकल्पोऽयम् ।
शुत्पुषादिलित्सर्तिशास्त्यते ॥ २१४८॥ शुतादिभ्यः पुत्रादिभ्यः स्तू कारेदम्यः सति शास्ति अर्ति शा इत्येतेभ्यश्च लुटि मे परतः अङ् भवति । वेति नानुवर्तते । द्युतादयः कृपूपर्यन्ताः । व्यद्युतन् । व्यनुय्त् । अश्वितत् । “घु यो लुरि [२७] इति वा मम् । पुपादयः श्रा गणपरिसमाप्तेः । अपुषत् । अशुषत् । सः प्राप्तः लुकारेयः । श्रापत् । अगमत् । अशकन् । श्रसरत् | मशिषत् 1 आरत् । म इति किम् । यद्योतिष्ट | व्यल्यपुन्नत । अतेरपि दविषये --मा समृषाता मा सम्पल ।
पेरिसः ॥२१॥४६॥ म इति वत्तते । इरशब्नेतो धो ऽहम् भवति तुहि मे परतः । अरुधन् । अरौत्सीत् । अभिदत् । अभैरसीत् । म इत्येव । अरुद्ध । अमित्त ।
जश्विस्तम्भुनुचम्लुचन चम्लुचः ||२॥१॥५०॥ घेति वर्तते । जश्वि स्तम्भु मुच् म्लुच पुच् ग्तु इत्येतेभ्यः कतरि लुङि वाङ् भवसि । जम् । अाजरन् । अाजारीत् । अडि "शुरेप [ पाश६] अश्वत् । अश्वयीत् । फजपि विभापितः । अशिश्चियत् । स्तम्भुरिहैवोपदिष्ठः। अस्त मत् । अस्तम्भीत् । न्यम्रचत् । भ्यम्रोचीत् । न्यग्लुचत् । न्यम्लोचीत् । अग्रुचत् । अयोचीत् । अग्लुचत् । अम्लोचोन् । ग्लुग्वेनोंडो ग्रहणमनर्थकम् । अझक्षे विशेषाभावात् नोझहासामध्यान्नखं न भवति इत्यपि न युक्त न्यग्लुञ्चदिति लङा सिद्धयति ।
मिस्ते पदः ॥२१११५१॥ वेति निवृत्तमुत्तरत्र दाग्रहणात् । कर्तरीति वर्तते | पदाङि ते परतः जिभवति । उपादि भैक्षम् ! समपादि शस्यम् । त इति किम् ? उदपसाताम् । उपत्सत ।
दीपजनयुधपूरितायिप्यायो वा ॥१॥५२॥ दीपादिभ्यः लुडि ते परतः वा निभवति । अदीपि । श्रापिष्ट । अनि । अजनिष्ट ! शो "जमिवध्योः'' [ ५२१५० ] हत्य प्रतिषेधः । साहचर्याद बुधेरनुदात्तेतो ग्रहणम् । प्रबोधि । अबुद्ध। अपूरि। अपूरिष्ट । अतायि । अतायि | अप्यायि | अग्यापिष्ट । अयं कर्तरि विकल्पः । अन्यत्र "भिकों'' [२॥१॥२] इत्यनेन निल्यो निः ।
कमण्यात्मनि ॥२१॥५३॥ श्रात्मशब्देन कर्ताऽभिप्रतः। यदा झोकात् कर्म कर्तुत्वेन विवक्ष्यते तदा कर्मणि आत्मनि चिहिते तशब्दे परतः वा जिर्भवति । अकारि कर: स्वयमेव । अकृत कटः स्वयमेव । ":" [ ६] इति सेः कित्वम् । अलावि केदार स्वयमेव । अलविष्ट केदारः स्वयमेव | "निकों" [२१६२] इति निल्ये नौ प्राप्ते विकल्पोऽयम् । श्रात्मकर्मणीति किम् ? अकारि को देवदत्तेन ।
दुश्च ॥२१॥५४॥ चशब्दो विकल्पानुकर्षणार्थः । दुहेर्वा निर्भवति तश परतः कर्मण्यात्मनि । नियमोऽयं हलन्तेषु दुहेरेन विकल्पा, तेन पूर्वसूत्रजन्तेषु विकल्पी द्रव्यः । अदोहि गौः स्वयमेव । अदुग्ध गाः स्वयमेव । “चोप दुहदिहलिहगुहो दे दन्त्ये" [२२१७० ] इति क्सस्योप । श्रात्मकर्मणोल्येव । अदोहि गौगोपालकेन ।
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म. २ पा० . ० १५-६३ ] महावृत्तिसहितम्
न रुषः ।। २।११५५ ॥ त्रिनिति प्रासे प्रतिषेधोऽयम् | भावे कर्मण्यात्मनि जिनं भवति । अन्वबारुड गौः स्वयमेव ।
तपोऽनुतापे च ॥ २॥१॥५६ ॥ तपतेरनुतापे च कर्मण्यात्मनि च विनं भवति । अनुतापः पश्चातापः तत्र तावत् भावकर्मणोरनुपि प्रतिषेधः । अन्ववातप्त पापेन कर्मणा । फर्मर यात्मनि । श्रतप्त तपः स्वयमेव । साधुस्तावदुपवासादिलक्षणं तपस्तभ्यते । तद्यदा तीयत्वात् कर्तृत्वेन विवक्षितं तदाऽयं प्रयोगः ।
यग दुहः ॥ २११५७ ॥ नेति वर्तते । दुहेः कर्मण्यात्मनि यङ् न भवति । दुग्धे गौः स्वयमेव । लदि-अदुग्ध गौः स्वयमेव ।
नमः शतु ॥ २॥११५८ ॥ नमः कर्मश्यात्मनि यङ् न भवति शप् तु भवति । नमते दण्डः स्वयमेव । अनमत दण्डः स्वयमेव । कर्नाश्रयः शम्न स्यात् ।
_स्मोरच भिश्च ॥२॥५९॥ स्नोश्च नमश्च कर्मण्यात्मनि निर्यग, च न भवतः । प्रास्नोष्ट गौः खयमेव । प्रस्तुते गौः स्वयमेव । लाङ प्रास्लुत गौः स्वयमेव । विप्रतिषेधार्थ नमोऽनुकर्षणम् । यक् तु पूर्वणव प्रतिषिद्धः । अनंत दगडः स्वयमेव । “जियकोः प्रतिषेधे णिन्धिप्रन्धिमा दधिधौ धीनां चोपसंख्यानं कर्तम्यम्' [घा०] पिरिति हेतुमरिणचोऽन्यस्य चाविशेषेण महणम् । श्रचीकरत कटः स्वयमेव ! कारयते कटः स्वयमेव । अश्रन्धिष्ट मेखला स्वयमेव । श्रनीते माला स्वयमेव । अग्रन्थिए मेखला स्वयमेव । मध्नीते मेखला स्वयमेव । श्रवोचत बाक् स्वयमेव । बूते वाक् स्वयमेव । दविधी धीनाम् व्यकृषत सैन्धवाः स्वयमेव । व्यकुर्वत सैन्धवाः स्वयमेव । विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव । त्रियकोः प्रतिपंधे कथं काश्रयाः कजादयः । "नमः शप्त' [] इत्यतस्तु शब्दोऽनुवर्तते तेन काश्रयविकरणसिद्धिः । अत इदमपि सिद्धम् । श्रारोहन्ति इस्तिनं इस्तिएकाः । श्रारोहयते इस्ती स्वयमेव 1 सिञ्चन्ति हस्तिनं इस्तिपकाः । सेन्चयते हस्ती स्वयमेव । "हो" [11] इति दविधिः । यदान्यत्कर्म प्रति स्वातन्त्र्येण विवक्षा तदा कर्जाश्रया विधयो भवन्ति । प्रारोहयमाणो इस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यान् । यथा भिद्यमानः क्रुशूजः पात्राणिमिनत्ति । इह कस्माद्दो न भवति । स्मरति चनगुल्मस्य कोकिलः । स्मरयत्येनं वनगुल्मः खयमेव । कर्मस्थभाषकानां कर्मस्थक्रियाणां चात्मकर्म विवक्षा । कर्तृ. स्वभावकं चाऽध्यानमिति दो न भवति ।
फुषिरजेः श्यो मे वा ।।२९।६०|| कुषिरीत्येताभ्यां कर्मण्यात्मनि वा श्यो भवति मे परतः । कथं मविधिः वूद्धकुमारीघरवाश्यन्यायेन वथा बहुचीरपृतमोदनं मम पुत्रा भुतीरनित्यत्र परादिलन्धिः । कुष्यति पादः स्वयमेव । रज्यति वस्त्रं स्वयमेव । यदा श्यो न भवति तदा यग दविधी भवतः । कुष्यते पादः स्वयमेव | रज्यते वस्त्रं स्वयमेव । यगनुवर्तते तदपवादोऽयं तेन लिब्लिमः स्यादिविषये च मायं विधिः ।
तपस्तपःकर्मकस्य कर्मषत् ॥ १६॥ सपतेस्तपःकर्मकस्य कर्ता कर्मवश्वति । कर्मातिदेशस्य यग्दविधी प्रयोजनम् । तप्यते तपः साधुः । अर्जयतीत्यर्थः । श्रतप्यत तपः साधुः। श्रतप्त तपः साधुः । वपःकर्मकस्येति किम् ? उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः ।
बिङ । २०६२ ॥ मगलूकतुल्याते इति वर्तते जुरीति च । मिरित्ययं त्यो भवति हावर्षे लडि ते परतः । भावे-आसि भवता । अशायि भवता । कर्मणि-अकारि कटो भवता । अलाव केदारो भवता । पुनर्भिग्रहणं किम् ? भिरेव यया स्यात् । यदन्यत्प्राप्नोति तन्मा भूत् । उपाश्लेषि कन्या । "रिपः" RI111] इति क्सो न भवति ।
गे यक् ॥२२१४६३॥ अाविति वर्तते । डियाचिनि गे यक् भवति ! श्राख्यातवाच्यस्य भास्कलात्
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० २ पा० १ सू० ६.1
अभयुष्मसम्माऽभावाच्च अन्यसज्ञक एक एव च भवति । प्रात्यते भवता । सुप्यते भवता ! फर्मणि-क्रियते कटः । भुज्यते श्रोदनः । ऋकारस्य दील्वे प्राते "रिझ्यग्लिशे" [१२।१३७] इति रिङ् । कर्ममामान्यात् प्रात्मकर्मण्यपि यम् भवति । क्रियते कटः स्वयमेव । भिवते कुशूलः स्वयमेव । कथं भिद्यते कुशूलेन स्वयमेवेत्यत्र कतरि भा। अत्राफर्मकमतिरना ! तेन भावे लकारः ! लान्तायो (नम्यो भयविवहा । व्यक्तखायेंष्वकर्म कविवर्तव (वैव) । मेत्तव्यं कुरालेन स्वयमेव । मिन्नं कुशूलेन लयमेव । ईपदं कुशलेन स्वयमेव ।
फर्तरि शप् ॥२१६४॥ कर्तृवाचिनि गे परतो धोः शब्भवति । अयति । भवति । तरति । शकार: "मिशिगः" [२१/१३] इति विशेषणार्थः । पकारः "गोऽपित्" [1] इति विरोपणार्थः ।
विषादे श्यः ॥२शक्षu दिव इत्येवमादिभ्यः श्यो भवति गे परतः। दीव्यति । सीव्यति । श्रीव्यति । "हस्यभकुमारः" [५।३।८६] इति उको दौत्वम् 1 हमे श्यादय शपोऽपवादाः ।
वा भ्राशालाशचमुकमुत्रसित्रुटिलपः ॥२१॥६६॥ भ्राश भ्लाश भ्रम् कम् बसि त्रुटि लष हत्येतेभ्यो धुभ्यो वा श्यो भवति । उभयत्र विभाषेयम् | भ्राशते । नाश्यते । म्लाशते । लाश्यते । भ्रमति । भ्रम्यति । श्ये (शिति) भौवादिकम्याशमादिलाद्दीत्वं नास्ति । देवादिकस्य दीलम् । भ्रमति । भ्राम्यति । क्रमति । काम्यति । "क्रमो मे" [शरा७५] इति दीत्वम् । असति । त्रस्यति । त्रुटति । त्रुट्यति ! लपति । लष्यति । क्वमित्रहरणं न कर्तव्यम् । दिवादिपाठात् श्वे सति "शामित्यामदो दी:" [शस०२] इति दोवं सिद्धम् | “टिबुक्सम्बादमा शिति" [५१२।७३] पुनीलवचन ज्ञापकं शयपि भवतीति ।
यसः ॥२।१।६७॥ यसु प्रयत्न हत्यस्माद्वा श्यो भवति । यसति । यस्यति ।
समः ॥२॥१॥६॥ संपूर्वाञ्च यसः च श्यो भवति । संयत्सन्ति । संयसति । नियमोऽयं सम एव च गर्विकल्पो नान्यस्मात् । श्रायस्यति । प्रयस्यति । दिवादिपाठानियः श्यः !
स्वादनुः ॥२२॥६६॥ पुञ् इत्येवमादिभ्यो चुभ्यः श्नुरित्ययं त्यो भवति । सुनोति । सिनोति ।
भ्रवःश ॥२॥१७०॥ य इत्येतस्मात् शुर्भवति श्रृइत्ययं चादेशः । भु इति भुवादी स्वादौ च पश्यते | शृणुतः । शृण्वन्ति ।
वाऽक्षः ॥२।१।७१।। अक्ष इत्येतस्माडोः वा भुर्भवति । अक्ष्णोति । अक्षति । भौवादिकोऽयम् ।
ततः स्वार्थ ॥२।१।७२॥ स्वार्थ स्तनूकरणम् । तनु इत्यस्मात् स्वार्थे वा श्रुभवति । तक्ष्णोदि काचम् | तक्षति काठम् । स्वार्थे इति किम् ? सन्तक्षति बाग्भिवुर्जनः ।
रुधितुदादिभ्यां नम्शो ॥२।११७३।। रुधादिभ्यस्तुदादिभ्यः श्नम्शौ त्यौ भवतः शिकार बनाया. सम्" [४।४।२२] इति विशेषणार्थः । मकारः “परोऽचो मित्' [३।१५५] इति विशेषणार्थः । स्पादि। भिनत्ति । तुदादिभ्यः शः। तुदति | क्षिपति ।
कमतनादेरुः ॥ २।१।७४ ॥ फुक इत्येतस्मात्तनादिभ्यश्च उरित्ययं त्यो भवति । करोति । कुरुतः । कुर्वन्ति । तनादिभ्यः-तनोति । सनीति | क्षणोसि । तनादित्वादेव सिद्ध पृथक् कृयो ग्रहण किम् १ अन्यत्रनादिकार्यं करोतेर्मा भूत ! "तनाविभ्यस्तधासोः" [१|१४८ ] इति विभाषया सेझम्न मर्यात । श्राइन । अकृथाः। न चानुप्पा "प्राव गो: [३५] इति खं सम्भवति ! तस्मिन् प्राप्ते उप प्रारम्माले भरणं प्रसऽमेत !
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महावृत्तिसहितम्
६७
धिविण्योर च ॥ २११ ॥७५॥ 'त्रिवि प्रीणने', 'कृवि हिंसाकरणयोः' इत्येताभ्यां उरित्य त्यो भवति अकारश्रान्तादेशः । धिनोति । कृणोति । अतः खम् । न खेओ" [१११८] इति प्रतिषेधात् “परेऽचः पूर्वविधौ [१।२७] इति स्थानिवद्भावाना (एष) न भवति । सनुम्कोच्चारणं ज्ञापकं त्योत्पत्तेः प्रागेव नुम्भवतीति । तेन कुण्डा हुण्डेति सिद्धम् ।
प्रयादेः श्ना || २|१|७६ ॥ की इत्येवमादिभ्यो धुभ्यः श्रा इत्ययं त्यो भवति । क्रीणाति । प्रीणाति ।
स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुमभ्यः शुश्च ॥ २ । १७७ ॥ सम्वादिभ्यः शुर्भवति श्राच | स्तनोति । स्वभाति । स्तुनोति । स्तुभाति । स्नोति । स्कुनाति । स्कुनोति । स्कुनाति । स्कुनोति । स्कुनाति ।
दिपते । इतरेषामिहैवोपदेशः । उदित्करणादन्यत्रापि प्रयोगः ।
हौ दलः श्नः शानः ||२२६७८ || हल उत्तरस्य भा इत्येतस्य शान इत्ययमादेशो भवति हो परतः । अशान | पुषाण | दायिति किम् ? अभाति । इल इति किम् ? क्रोणीहि । अ इति स्थानिनिर्देशः किमर्थः ? सम्भादीनां यदा भुस्तदा मा भूत् । स्तभ्नुहि । त्यान्तरं वा सर्वेभ्यः सम्भाव्यते । शानस्य शित्करणं ज्ञापकम्अनित्यनुबन्धस्य स्थानिवद्भाव इति । तेन लङादीनां मित्रादिषु स्थानिवद्भावाद्वित्वं ङित्वं च न भवति । पचमाना स्त्री । अचिनत्रम् | असुनवम्
ईपा वाक् ||२| ११७६ ॥ श्रोरिति वर्तते । श्रत्र धोरधिकारे ईपा निर्दिष्टं वाक्संज्ञ भवति । गम्यमानक्रियापेक्षया ईपेत्यस्य करालम् । वक्ष्यति "कर्मण्य" [रारा१] कुम्भकारः । शरलात्रः । मृद्रूपस्थेयं वाक्संज्ञा तेन "कर्तृकर्मणोः कृति " [१४/६८ ] इति कर्मणि ता भवति । तासाद्वाक्सः परत्वेन । यत्रयां विस्पष्टार्थम् । वागितीयमन्वर्था संज्ञा । ब्रूतेऽर्थं वायिति तेनासामर्थ्यं वाक्संज्ञा नास्ति । पश्व कुम्भं करोति कटम् । मृत्पिण्डं कुम्भं करोति । महान्तं कुम्भं करोति । सविशेषणानां च न भवति । हरते हतिनाययोः पौ" [२।२।१० ] इति पशुशब्दस्य न भवति । यत्र वाचकत्वं तत्र भवति । कारा कटकारः ।
कृदभि || २|११८६० ॥ श्रत्र धोरधिकारे मिङ्वर्जितात्याः कृत्संज्ञा भवन्ति । श्रत ऊर्वे ये वक्ष्यन्ते तेषामधिकारेयं सञ्ज्ञा । वक्ष्यति "तव्यानीयौ " [२] १८३] कर्तव्यः । करणीयः । श्रत्र मृ-सञ्ज्ञाप्रयोजनम् । इत्यः । स्तुत्यः | "रिति कृति" [४३५६] इति लुक् । श्रमिङिति किम् ? चीयात् । स्यात् । श्रकृवकारादीत्वं सिद्धम् ।
प्राक्तेर्वाऽसमः || २|११८६१|| स्त्रियां क्लिरिति वक्ष्यते । प्रागेतस्मादसभो यस्त्यः कृत् स वा भवतीत्येोऽधिकारो वेदितव्यः | सरूपस्वनवादी चालक एवेति भावः । विक्षेपकः । विक्षेप्ता । विक्षिपः । गुलक्षयकविषये णत्रुतूचावपि भवतः । प्राक्लेरिति किम् ? चिकीर्स | "वस्त्यात्" [२३८४] इत्यकारः शेषः । व्याक्रोशी । व्याकुष्टिरित्येवमादिषु यो विधेयः । श्रसम इति किम् ? गोदः । कम्बलः । "तः कः" [२२] इति को भवति । श्रणोऽपवादः । श्रनुबन्धापाये रूपगतं समत्वमत्र ।
ण्वोष्यः ॥२॥१८२॥ प्रागिति वर्तते "चौ" [२|१|१०६ ] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्माचं त्यास्तै व्यखंज्ञा वेदितव्याः । देवदत्तस्य कर्तव्यम् । देवदत्तेन कर्तव्यन् । व्यदेशाः "ध्यस्य वा कर्तरि [१] ७५] इत्येवमादयः |
तव्यानीथौ ||२||८३॥ तव्य अनीय इत्येतौ सौ भवतः । कर्तव्यः । करणीयः । कथं वास्तव्यः १ वास्तु क्षेत्रं तस्माद्भवाद्यर्थे दिगादित्वाद्यः । एवं वस्तुनि भवो वस्तव्यः ।
योsatsरायुषः ॥१२॥१२८४ ॥ इत्यवं यो भत्रत्यनन्ताद्धोः सुवर्णान्त श्रासु यु इत्येतान् वर्जयित्वा । देयम् । गेयम् । “ईथ [४।४।१४] इति ईत्वम् | "गामयो: '' [ ५४२१८१] इति पुनरेप् । " देयमृणे" [३/३/२२] इति निर्देशादीखे गुकार्ये निवृत्ते पुनरेप् । दित्स्यं वित्स्यमित्यत्र गे ये परतोऽतः खम् । श्रच इति किम् ? पाक्यम् । सुयुव इति किम् । कार्यम् १ दार्यम् । श्रसाव्यम् । याव्यम् |
१६
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० २प० १ सू० ८५-१२
पोरनेsपिपिरपिलपिचमः || २|११८५ ॥ पवर्गान्ताद्वोरङ य इत्ययं
भवति
पि
रपिपिच मीनू वर्जयित्वा । रम्यम् । लभ्यम् । यमन रागापवादोऽयम् । शेरिति किम् ? वाच्यम् । दुङ इति किम् ? डेप्यन् । कुर्यादिखादेन स्पात्। तपरकरणमसन्देहार्थम् । अत्रविपिरपिलपिचन इति किम् ? त्रयम् ।
रा! लगाम | साचाम् ।
६८
शकिसच ||२||६६ ॥ शकि सह इत्येताभ्यां यो भवति । शक्यम् । सह्यम् । चकारो ऽनुकसमुच्चयार्थः । तेन ससितकिचतियतियजिनगीनां संग्रहः । सस्यम् । तक्यम् 1 न्चलम् । यत्पम् । यज्यम् | जन्कन् । ''हो वा वध इति च वक्कष्यम्" [वा०] त्रभ्यमत्यभू
प्रवाभ्यम् । श्रमः "पोर
मोगे |२| १ | ८ || गद गद चर यम इत्येतेभ्योऽगिपूर्वेभ्यः स्थो भवति । गजम् । मद्यम् । चर्यम् | यस्यम् । श्रगेरिति किम् ? निगाधम् । प्रमाद्यम् । अभिचार्यम् । [२१] इति सिद्धे नियमार्थमिदम् । अगेरेव यथा स्यात् । इतरेपामा निधिः । " राविति वक्तव्यम्" [त्रा०] श्राचर्य व्रतम् । अगुराविति किम् ९ श्राचार्य गुरुः ।
"1
यागु
जयं
पर्यावह्याऽर्योपसर्याऽजर्याणि ॥१८॥ पण्य अवयव बाप इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । पश्यमिति निपात्यते व्यवहर्तव्यं चेद्भवति । पण्यः कम्बलः । पयागौः । पाश्यमित्यन्यत्र | अबधं गवति गह्यं चेत् । अवधं श्रुतम् । ये पापम् । न उद्यते इत्यनुष्यगन्यत् । कति वृङो यो भवत्यनिरोधेऽर्थं । शतेन वयां | सहा वर्षा । स्त्रीलिङ्गादन्यत्र एवं एव भवति । ऋषयः धनसंविभाग रूपोऽत्रानिरोधोऽस्ति । श्रतिरोध इति किम् ? वार्या गौः शस्त्रेषु । चह्यमिति निपात्यते करणं चेद्रयत्ति । वहति तेन वहां शकटम् । बाह्यमन्यत् । श्रर्य इति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये न श्रर्यः स्वामी |
। अन्यत्र य एव । आर्य साधु । उपसर्येति निपात्यतै काल्या प्रजने चेत् । प्रजनी गर्भग्रहणकाल : मानोऽस्याः काल्या । "सवरूव शतम्' [३।४।१७] इति वर्तमाने "कालाध:" [३/४/१० ] इति यः । उप गोः ! उपसर्वा डबा । उपसार्या शरदि मधुरा अन्यत्र | श्रमिति नः कर्तरि यो विषय सङ्गतेऽर्थे । न जीर्यत इत्यर्यमर्थमुङ्गतम् । श्रजरिता कम्बल इत्यन्यत्र ।
बदः खुपि क्यप् च ॥२१८॥ श्रगेरिति वर्तते । वदतेः वयन्भवति यश्च गिर्जिते सुपि वाचि । सत्यमुद्यत इति सत्योद्यम् । सत्यवयम् । मिथ्योद्यम् । मिथ्या वाम् । “आगमि [३२] इति सः सुपीति किम् ? वायम् । गेरित्येव । श्रनुवाद्यम् ।
भूयहयें ||२||६० ॥ सुप्बगेरिति वर्तते । भृग हल इत्येते शब्द निपात्येते सुवाचि । देवभूषतः | देवंगत शर्थः । सानुकूखं गतः । कयपत्र निपात्यते । दरिद्रननं दरिद्रहत्या | बोरहत्या | हन्तेः स्त्रीलिङ्गभानें क्या || ध्यम् । वातो वर्तते । श्रगेरित्येव । प्रभव्यमुपमाः ।
स्तुशासिणवृद्दजुषः क्यप् ॥ २१२१६१॥ सुप्यगेरिति निवृत्तम् । सामान्येनायं विधिः । स्तु शास् इग् वृणोति तु इत्येतेभ्यः भवति । स्तुत्यः । शिष्यः । श्रुत्यः । श्रानृत्यः । श्राहत्यः । पुनः क्यव्यहणं किमर्थम् ? ''श्रोर/वश्यके" [२] १. १०२] इत्यस्यापि धाधनार्थम् । श्रवश्यन्तुलः । "शंसिटु डि गुहिभ्यो वेनि वक्तव्यम्” [वा०] शयम् । कुञ्चन् । शंस्यम् । दोह्यम् । गुधम् | गोहान् | पूर्वादन्नः सन् श्यय् चभ्यः " [वा०] ग्राज्यम् । न वक्तव्यम् । पुनः स्याद्योगविभागाद्भविष्यति । उपेयमिति ईङ रूपम् 1 ऋकारो घोः भवति कृषिसी बचा। सम् । कृषिचुरिति किन ? कल्यम् । चर्यम् । "पाणी समवशन्ते च सृ वक्तव्य:' [वा०] पास रज्जुः । समासः कट |
ऋक्परा म्यापवादोऽयम् ।
१. पद्यम् श्र० ।
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०२ पा० सू० १३-१०३ ]
महावृचिसहितम्
६६
गरेऽसौ ॥२९॥६३॥ भृञः क्य भवति श्रखुविषये । भृत्याः कर्मकशः । भृत्याः शिशकः । मर्तव्या इत्यर्थः । श्रखाविति किम् १ भार्या नाम क्षत्रियाः केचित् । देवदत्तस्य भार्या स्त्रियां "समजनिषद, [१] इत्यादिना मावे क्यप् । कर्मणि चार्य मार्याशब्दः । 'पूर्वाद्र ेति वक्तम्यम्" [बा०] सम्भृत्या सम्भार्याः कर्मकराः ।
वेयराजसूयसूर्य मृषोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपत्र्याव्यय्याः ॥ २३९॥६४॥ खेयादयः शब्दा निपात्यन्ते । खेयमिति खनतेयों निपात्यते कारश्रान्तादेशः । श्रादेप् । 'ये बा' [ ४/४/४५] इत्यात्वं नाशङ्कनीयं निपातनादेव । राजसूयमिति राजशब्दे वान्ते भान्ते सुनोतेः क्यप् दील्वं च निपात्यते । राजा सूयते राजा वा श्रस्मिन् सू इति राजसूयम् 1 सरति कर्माणि सुबतीति वा सूर्यः । सत्वं सूपतैर्वारुडागमः कयच नाय | पूर्वए दनित्यं क्यग्निपात्यते । मृषोद्यम् । रुच्यमिति कर्त्तरि क्यप् निपात्यते । कुप्यमिति संज्ञार्या गुद्देशीक क्यप्च निपात्यते | कुप्यं फल्गु भाएडमियः । गोप्यमन्यत् । कृष्टुं पच्यन्ते स्वयमेन कृष्टपच्या त्रयः । श्रात्मकर्मणि क्यप् । न व्यथतेऽसान्यभ्यः । नम्पूर्वादव्ययतेः कर्त्तरि कापू निरात्यते ।
मिथोद्ध्यौ नदे ||२||१५|| भियउ इत्येतौ निपात्येते नदेऽभिधेये । भिनत्ति कूलानि भियः । उज्झत्युदकमिति उद्धनः । कर्तरि कारके क्यप् उज्र्घत्वं च निपात्यते । नद इति किम् ? मिदः । उज्झः 1 गुलक्षणः कः पचाद्यश्च यथाक्रमम् ।
पुष्यसि
मे ||२||६६ ॥ पुष्य सिध्य इत्येती निपात्येते ऽभिधेये । पुष्यन्यस्मन्नर्था आरभमाखानामिति पुष्यः । सिध्यन्त्यस्मिन्नर्या इति सिद्धयः | अधिकर क्यनिपात्यते नक्षत्रे वाच्ये । अन्यत्र पोषणः सेधन इति च भवति ।
विपूयविनीयजिल्या मुजकलकहलिए || २/२/६७॥ त्रिधूय विनीय जित्या इत्येते शब्दा निपात्यन्ते यथासंख्यं मुञ्ज कल्क दलि इत्येतेषु वाच्येषु । विधूयते इति त्रिपूयो मुखः । पवतेः क्यनिपात्यते । विपव्यमयत् । त्रिनयतेऽसौ घृतादिना विनयः । त्रिफलादिकफः । विनेयमन्यत् । जित्यो इलिः । जेथमन्यत् ।
पदास्वैरिबाहाापत्येषु ग्रहः || २|१ | ६८६ ॥ पदे स्वैरिणि वाधायां पक्ष्ये चार्थे ग्रहेोः क्यष्यति । ह्यते इति यं पदम् । अव पदम् | अस्थैरी परवशः । गृहका इमे । अनुकम्पायां कः । परतन्त्रा इत्यर्थः । बहिर्भवा चाखा | गृह्यते इति गृह्या ग्रामस्य रह्या ग्रामग्रह्णा नगरगृह्या सेना । ताभ्यां वहिर्भूता इत्यर्थः । स्त्रीलिङ्गादन्यत्र न भवति । पच्छे भवः पयः । भरतगृह्यः । भुजचलिग्रह्यः । तत्पक्ष्य इत्यर्थः ।
कृषिजां यशोभद्रस्थ ॥२१॥६६॥ कार्ये ता । कृ ऋषि मृज् इत्येतेभ्यः कथम् भर्चात यशमद्रस्याचार्यस्य मतेन । कृत्यम् । कार्यम् । नित्यं एयः प्राप्तः । वृध्वम् । वर्धम् । परिगृज्यम् । परिमार्थम् । "दुङ: " [२१६२ ] इति नित्यं क्यप् प्राप्तः ।
युग्यं पत्रे १२९१००॥ पतति अनेनेति पत्रं वाहनम् तस्मिन्नर्थं युग्यमिति निपात्यते । युज्यते इति युग्योऽश्वः । युग्यो गौः । क्यप् कुत्वं च निपात्यते । पत्रादन्यत्र योग्यमिति ।
यः ॥ २।१।१०१ ॥ राय इत्ययं त्यो भवति घोः । श्रयमुत्सर्गः | अजन्ताद्यः क्यप् चास्यापवादौ । कार्यम् | हार्यम् | पाक्यम् । पाठयम्
ओरावश्यके || २|१|१०२ || उवार्णान्ताद्धययों भवत्यावश्यके द्योत्ये । अवश्यमित्यस्य भावः श्रावश्यकम् । मनोज्ञादित्वाद् ञ । लाव्यम् । पाव्यम् । यद्यावश्यके ऽर्थे ऽवश्यलाव्यमिति कथं सविधिः १ मयूरव्यंसकादित्वाद्विभाषया । आवश्यक इति किम् ? लव्यम् | पच्यम् |
अमावस्या वा ॥ २२११०३ ॥ मात्रस्य इति वा प्रादेशो निपात्यते । श्रमावसतः सूर्याचन्द्रमसावस्यां
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१००
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० १ सू० १०३ - ११०
अमावस्या । श्रमावास्या । श्रमाशब्दे सहार्थे वाचि वसेरधिकरणेऽर्थे रायो विभाषया उहः प्रदेशश्च निपात्यते । प्रदेशेषु एकदेशविकृतस्य ग्रहणार्थम् |
पाय्यसान्नाय्य निकाय्यधाय्याऽऽनाय्यप्रणाय्या मानद विनिवाससामिधेन्य नित्याऽसम्मसिषु || २|१|१०४ ॥ पाय्य सान्नाय्य निकाय्य धाय्य श्रानाय्य प्रणाय्य इत्येते शब्दा निपात्यन्ते यथासंख्यं मान हविर्निवास सामिधेनी नित्य श्रसम्मति इत्येतेष्वर्थषु । भीयतेऽनेनेति पाभ्यं मानम् । माङः करणे एयः । श्रादिपत्यञ्च निपात्यते । मानमन्यत् । सन्नीयते इति सान्नायं हविः । सम्पूर्वनियतेः रायः श्रायादेशो गर्दीत्वं च निपात्यते । सन्नेवमन्यत् । निश्चीयते इति निकाय्यो निवासश्चेत् । निपूर्वचित्रः एयावादेशावादिकत्वं च निपात्यते । निवेयमन्यत् । धोयते इति धाय्या सामिधेनी । दधातेयों निपात्यते । विशिष्टा ऋचः सामिधेन्यः | तत्र रूदिवशात्काचिदेवोच्यते । धेयमन्यत् । श्रानाय्य इति नयतेराङ्पूर्वीश्रायायादेशो निपात्यानित्येऽर्थं । श्रानाय्य दक्षिणाग्निः । रूढिरेषा दक्षिणाग्निविशेषस्त्र । आनेयोऽन्यः । अविद्यमानसम्मतिरसम्मतिः प्रपूर्वानयतेर्यायादेशो निपात्यो । प्रणाय्यश्वरः । प्रणेयोऽन्यः ।
कुण्डपाय्यसंचाय्य परिचाय्योपचाय्यचित्याग्निचित्याः || २|१|१०५ ॥ कुण्डपाय्य सचाय्य परिचाय्य उपवाय्य चित्य श्रग्निचित्या इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । कुण्डेन पीयतेऽस्मिन्सोम इति कुण्डपाय्यः क्रतुः । कुण्डशब्द भान्ते रायो ऽधिकरणे निपात्यते । कुण्डपानमन्यत् । सञ्चीयते इति सञ्चाय्यः कतुः । सञ्चेयमन्यत् | परिचयपचाच्या निपात्येते नाभिधेये । परिचय उपचेय इत्यन्यत्' । चित्याग्निचित्याशब्दा निपात्येते श्रग्नावभिधेये । चीयतेऽसौ चियोऽग्निः । श्रग्निश्वयन मग्निचित्या । अन्त्ये स्त्रीलिके भावे क्यनिपात्यः ।
तृखौ ||३३१०९ ॥
भोजकः । भोक्ता |
नन्दिमपिचिभ्यो ल्युणिन्यचः || २|१|१०७॥ नन्द्यादिभ्यो महादिभ्यः पचादिभ्यश्च यथासंख्यं युगिन् श्रच् इत्येते त्या भवन्ति । नन्दयतीति नन्दनः । लकारः "युवोराको [ ५|१|१] इति सामान्यग्रहणाविघातार्थः । नन्दिवाशिमदिन दिभूषिताधिशोभिवर्द्धिभ्यो एयन्तेभ्यः संज्ञायां सहितपिदमिज्वलिरुचिजल्पिहरिसिदिङ्काभ्यः संज्ञायामण्यन्तेभ्यः । जनार्दनः । मधुसूदनः । लवण इति निपातनाएहलम् | विभीषणः । पवनः । वित्तनाशनः । कुलदमन एतावणोऽपवादी इति नन्द्यादिः । ग्रह उत्सह उद्दास स्था उद्धास मंत्र संमर्द निरक्षी निभावी निवापी निवेशी एतेभ्यः निपूर्वभ्यः । श्रयाची अव्याहारी असंन्याहारी
·
यादी अवाजी वासी एतेभ्यः प्रतिषिद्धेभ्यः । श्रचामचित्तकर्तृकाणां प्रतिषिद्धानामिति वर्तते । अकारो महारो श्रविनाथ विशयी विषयोशब्दौ देशे निपतनात् श्रद्विभावी प्रविभाव भूते भवतः । अपराधी उपरोधी परिभवी परिभावी इति ग्रहादिः । पच पठ वप वद चल पत तथा चार चलि पतिवदीनामच्या क्वस्येति वच्यते । नदट् अषद् खरद चरद्र चार वेलट् गा इट् देवट् टिक्कर स्त्रियां ङघर्थम् । जर मर चर सेन्द्र मेष कोष दर्भ सर्प नर्त प्रण डर । आणि त्रिषयेऽपि । श्वपच चक्रधर । पचादिराकृतिगणः ।
शाकृमीगुङः कः ॥ २२१११०८ ॥ शा कृ श्री इत्येतेभ्यः मृगुश्व घोः को भवति । बानातीति शः । आकारान्तलक्षणो णः प्राप्तः । इह अर्थ जानातीति श्रज्ञः । परखादातः के सति नित्यः सविधिः । उत्किरतीति उत्किरः । विकिरः । प्रीणातीति प्रियः । गुहः । विक्षिपः । विबुधः । विकृतः । इड् काष्ठभेदः इति परत्वादय् । आतो गो ॥२१॥१०६ ॥ श्राकारान्तादो को भवति गौ चाचि । खापवादोऽयम् । प्रस्यः । सुग्लः । हृद्द बडवासन्दाय इति परखादय् ।
पाषाध्याधेद्दशः यः ||२/१/११० ॥ गाविति वर्तते । पादिभ्यः शो भवति । पा इति साहचर्यादाणिवा पित्रहणम् । उत्पित्रः । विपित्रः । उज्जिनः । विजिघ्रः । संज्ञायां तु "व्यापमेये ऽतयोगे"
१ इत्यन्यत्र अं० ब० स० । २. अन्विषयेऽपि म०, स० ।
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. २ पा० । सू० ११-१२३] महावृत्तिसहितम्
१०१ [१।३।१५] इति निर्देशात् कः। ध्यानः । उद्धमः । विधमः 1 उद्धयः । विधयः । उत्पश्यः। विपश्यः । गापिति केचिदिह नाभिसम्बध्नन्ति । तेन पश्यतीति पश्यः । जिनः ।
सिम्पविन्दधारिपारिवेधुदेजिचेशिसात्तिसाहिभ्योऽगेः ॥२।१।११॥ लिम्प विन्द भारि पारि वैदि उदेशि चेति साहि इत्येतेभ्यः श्रगिपूर्वेभ्यः शो भवति । लिम्पतीति लिम्पः । कषं कुरुपलेप प्रति । "मध्येऽपवावा: पूर्वान्वर्धन बाधत नाप्सरा'" [प०] इति इगुङः कस्यायं शो बाधको नाणः । विन्दतीति विन्दः । लिम्पविन्द इति सानुषङ्गानिर्देशादन्यत्राम्ययं विधिभवति । संज्ञायां गावपि । निलिम्पा नाम देवाः । अरविन्द गोविन्द इत्या विषयेऽपि शः सिद्धः। धारयतीति धारयः। पारयः । वेदयः । उदेजयः । निर्देशादेव गिपूर्वस्य ग्रहणम् । चेतयः । सातं करोतीति णिच् । सातयः । साक्ष्यः । प्राधाभ्यां के इतरेभ्योऽचि प्राप्त बच्चनम् ।
दाबधामोर्चा ॥२११९॥ कार्थे ताविमली । दाम् धाम, इत्येताभ्यां अगिपूर्वाभ्यां च शो भवति । ददः । २धः । दायः । धायः । अगावित्येव । प्रदः। प्रधः। अनुबन्धनिर्देशो यचन्तयोः शो मा भूदित्येवमयः।
ज्यलितिकसन्ताणणः ॥२२॥११३॥ इतिः श्राद्यर्थे अविभक्लिकच निर्देशः । ज्वलादिभ्यः कस गती इत्येवमन्तेभ्यो वा सो भवति । ज्वालः । ज्वलः । कासः । फसः । चालः। चलः। अगावित्येव । प्रज्वलः1
20382श्याव्यधासंलिइश्तिषश्वसतीएः ॥२।१।११४॥ श्यैङ् श्राकारान्त व्यध प्राप्त संस लिह श्लिष श्वसू अतीय इत्येतेभ्यो ही भवति । वेति निवृत्त अगाविति च । श्रवश्यायः । आदिति सिद्धे पुनः श्याग्रहणम् "मातो गौ" [10] इत्यस्य बाधनार्थः । श्रात् । दायः। घायः । व्याधः । श्रासाः । संसाया । लेहः । श्लेषः । श्वासः । अत्यायः 1 "प्रवादिभ्यस्तरिति वक्तव्यम्" [पा०] अक्तनोतीत्यक्वानः ।
हसोऽवे ॥२१११११५॥ सा इत्येताभ्यामवपूर्वाभ्यां शो भवति । अबहारः । अबखापः।
दुम्योरगो ॥२११।११६॥ दुनी इत्येवाभ्यां णो भवति । दुनोतीति दायः । नायः । अगाविति किम ! मदवः । प्रणयः ।
विमापा ग्रहः ॥२॥१॥११७॥ अहेर्विभाषवा रणो मदति । ग्राहः । प्रहः । व्यवस्थितविमाषेषम् । जलचरे माह एव । ज्योतिषि ग्रह एव । विभापति योगविभागाद् भवतीति भावः ।
गेई कः ॥२९।११८॥ मद्देगेहेऽभिधेये को भवति । गेहं सद्म | तात्स्याहारा अपि । गई गहाः ।
शिल्पिनि ट्वः ॥२।१।११६॥ शिल्पियभिधेये ट्दुभत्रति धोः । नर्तकः । खनकः । रपकः । रजकरजनरजसा नखं वक्ष्यति । एत एव धवः प्रयोजयन्तीति केचित् ।
गौ युथको ॥२॥१॥१२०॥ गायतेश्यु थक इत्येतो त्यौ भवतः । शिल्पिनौति वर्तते । गायनः । गाथकः ।
हायनः ॥२२॥१२॥ हायन इति निपात्यते बीहिकालयोः फोः । जहात्युदमिति हायना नाम ग्रीहयः । जहन्ति सहवृताः क्रियाः हायनः संवत्सरः ।
असल्वः साधुकारिणि बुन् ॥२।१।१२२॥ गुस्. लू इत्येतेभ्यः धुभ्यः साधुकारिणि कर्तरि बुन् भवति । साधु प्रवते यः स प्रवकः । एवं सरकः । लवकः । साधुकारिणीति किम् ! प्रबः।
आशिपि ॥२१॥१२३|| आशिषि चार्थे धुन् भवति धोः । जीवतादिति य उच्यते स जीवकः । एवं नन्दकः । वर्धक
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्ती द्वितीयस्याभ्यायस्य प्रथमः पादः
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० २ पा० १ सू० १ १०
कर्मण्यण् ॥ २२२ ॥ कर्मणि कारके वाचि धोरमित्ययं त्यो भवति । कुम्भकारः । शरलावः । चर्चापारः । दिशदात् "कको कृति " [] इदिता । " वागमिङ" [ १३३८२ ] इति षसः । “शीचिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्ष मिभ्यो हो वक्तव्यः " [वा०] धर्मशीलः । धर्मशीला । धर्मकामः । वायुभक्षः । धर्माचारः । धर्मापेक्षः । क्लेशक्षमः । नेदं वक्तव्यम् । घञन्तेन बसे सति सिद्धम् । धर्म शोलभस्य धर्मशीलः । धर्मे कामोsस्य धर्मकामः । धर्म शीलयतीत्येवमादिविग्रहे अनभिधानादय् न भवति यथा श्रादित्यं पश्यति हिमवन्तं शृणोतीत्येवमादौ न भवति । कुम्भकारादिध्वस्वजन्तेन च बस इत्युभयं भवति । हायामः ||२||२ || ह्वावा मा इत्येतेभ्यश्चाय् भवति कर्मरिण वाचि के प्राप्त इदं वचनम् । स्वर्गह्नाथः । तन्तुवायः । वातिवाय त्यो मतिश्चाकर्मकत्वादप्रहणम् । धान्यं मिमीते मयते वा धान्यमायः । मीना तिमिनोत्योः कप्रातेरभावात् पूर्वेणैवाणू ।
૦૨
अतः कः || २२|३|| आकारान्तादोः कर्मणि वाचि क इत्ययं त्यो भवति । गोदः । श्रर्थः । पाषियंत्रम् । श्रृङ्गुलित्रम् । ज्या वयोधनावित्यस्य ब्रह्म जिनातीति ब्रह्मण्यः ।' के कृते परत्वादातः से पश्चाजिः । “असिद्धवदत्राभात्" [४/४/२१] इत्यात्वस्यासिद्धत्वादिया देशो न भवति । यणादेशः सिद्धः । जुहुत्रतुः जुहुवुरित्यत्र हुञ श्राखमकृत्या जिः क्रियते इत्यात्वं नास्तीत्युवादेशः सिद्धः । श्रहः । प्रहः । इत्याकारान्तात् "तो गौ" [२३] इति कः । प्रागालं पश्वाजिः ।
प्रे ||२४|| प्रपूर्वादात्तः को भवति कर्मणि वाचि । तत्त्रप्रशः । मोक्षप्रज्ञः । नियमार्थोऽयमारम्भः । म एव गौ नान्यस्मिन्नातः को भवति । गोसंदायः । वत्रासंदायः ।
दाशः ॥||५|| अयमपि नियमः । दा शा इत्येताभ्यामेव प्रपूर्वाभ्यां कर्म को भवति । धर्मप्रदः । धर्मप्रज्ञः । नियमादिह न भवति । पाणिप्रत्रायः । प्रभुलिप्रत्रायः । कथं भाष्ये प्रयोगः "अभिज्ञश्च पुनरे+त्वादीनामर्थानाम्" इति । अत्राभिधानवशात् "ध्यासो गौ" [२८] इति को भविष्यति ।
संख्यः ||२|२|६|| प्र इति नियमेन निवर्तते के पुनरारम्भः । सम्पूर्वात् ख्या इत्येतस्मात्कर्मणि च को भवति । पशून् सञ्चष्टं पशुसंख्यः । श्रश्वसंख्या |
सुपि ॥ २२|७|| सुबन्ते वाचि धोरातः को भवति । पादैः पिवति पादपः । कच्छेन पित्रति कच्छपः । द्वाभ्यां पिवति द्वीपः । समस्यः । विषमस्थः । धर्माय प्रददाति धर्मप्रदः । शास्त्रेण प्रजानाति शास्त्रप्रशः । कर्मण्यपि बान्वि यथा स्वादिति सुमहणम् । इह केचिदात इति नानुवर्तयन्ति । तेन भूलविभुजादिष्यभिधानवशात् कः सिद्धः । मूलान् विभुजति मूलविभुजो रथः । जलवहम् । नखमुचानि धनूंषि । काकगुहास्तित्वाः । स्थः ॥ २२८ ॥ सुपि वाचि तिष्ठतेः को भवति । कर्तरि पूर्वी योगः । प्रनिर्दिष्टा खात् भावेऽपि यथा स्यादित्यारम्भः । आखूनामुत्थानमात्यः । शतमोत्थः । " स्थास्तभोः पूर्वस्योदः " [ २/४/१३५] इति सका रस्थ पूर्ववत्वम् ।
हो घर ||२२|| इतः प्रभृति कर्मणीति सुपीति च द्वयमनुवर्तते । कर्मणि वाचि दुहेः को भवति कारादेशः । कामान्दोग्धि कामदुधो धर्मः । कामदुधा धेनुः ।
तुम्हशोकयोः परिमृजापनुदोः ॥ २२२॥१०॥ तुन्द शोक इत्येतयोः कर्मणोर्वाचोः परिमृज अपनुद इत्येताभ्यां को भवति । श्रविशेषेण "सुपि " [रारा७] इत्येतेनैव के सिद्धे श्रालस्यसुखाहरणयोरर्ययोर्यथा स्वादित्यारम्भः । तुन्दपरिभृतः अलसश्चेत् । शोकापनुदः पुत्री जातः । पूर्वी "तिकुप्रादय:" [११३३८१] इति सः पश्चाद्वाक्सः । श्रालस्य सुखाइरणयोरिति किम् ? तुन्दपरिमार्ज आतुरः । शोकापनोदो धर्माचार्यः ।
१ के कृते परश्वादेारम्य मागात्वं पश्चाविजः इत्यतः पाठविन्य: 1
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अ० २ ० १ सू० ११ - २१]
महावृतिसहितम्
I
गष्टक् ॥२|२|११॥ गा इत्येतस्माद्वोः कर्मणि वाचिरमित्ययं त्यो भवति । कः स्त्री 1 [२४] "दाङ्गः " [२२] इति निश्मादगिपूर्वादातः कर्मणि को विहितस्तस्मिन्नेव विषये टक् । श्रन्यत्राव भवति । वक्त्रसंगायः ।
१०३
सुराशीध्वः पिषः || २२ |१२|| सुरा शीधु इत्येतयोः कर्मणोः पितेः भवति । सुरापः । सुरापी । शीधुपः | शीधुप । श्रवमपि कापवादः । सुराशीध्वोरिति किम् । क्षीरं पिवतीति क्षीरमा कन्या । पिच इति विकृत निर्देशः किम् ? सुरां पातीति सुरापा ।
प्रहरः ||२||१३|| प्रदेधः कर्मणि वाचि इत्ययं त्यो भवति । शहिलाङ्गजाङ्कुशयष्टितो मरघटघटी धनुःश्रु वाक्षु प्रायेणाभिधानम् । शक्तिग्रहः । लाङ्गलमहः । श्रकुशग्रहः । वष्टिग्रहः । तोमरग्रहः । प्रदः । ग्रहः | अंहः । सूत्रमहो भवति धारयति चेत् । सूत्रग्राहोऽन्यः ।
जोऽनुत्सेधे ||१४|| उत्सेध उत्क्षेपणम् । हृञो ऽनुत्सेचे वर्तमानात् कर्मणि वाचि प्रत्यो भवति । श्रंशं हरति श्रंशहरः भागहरः । रिक्थहरः । श्रनुत्सेधे इति किम् ? भारहारः । न केवलमुच्छ्राये उत्क्षेपणेऽप्युरदेव इति शब्दो वर्तते तद्यथा नानाजातीया श्रनियता ( तवृत्तवः ) सत्सेधजीविन इति ।
वयसि ||२२|१५|| शरीरिणां कामकृतावस्था वयः, तत्र त्यो भवति वयसि गम्ये । श्रयमुत्सेधाचे आरम्भः । कवचहरः क्षत्रियकुमाराः । अस्थिरः श्वशशुः । ईशोर ( दृश्यमानेन ) संभाव्यमानेन वा भारोक्षेपोन वयो गम्यते ।
श्राङि शीले ||२/२/१६ ॥ शीलं स्वाभाविकी प्रवृतिः । श्राङि च वाचि हृमोऽत्यो भवति शीले मम्यमाने । पुष्पाहरः । फलाहरः । सुखाइरः । उत्सेधानुत्सेधयोरयं विधिरिष्यते । अनुत्सेधे पूर्वेण कस्मान्न भवति ! शीले परत्वात्तृन् स्यात् । शील इति किम् ? भारमाहरति भाराहास |
श्रः ॥ २२११७ ॥ श्रतेः कर्मण वाचि त्यो भवति । पूजा प्रतिमा ।
||२९८ ॥ स्तम्बेरम करोंजा इत्येतो शब्दों हस्ति पू चकयोरर्थयोर्निपात्येते । स्तम्बेरमो हस्ती । कर्णेजाः सूचकः । स्तम्बकयो रमिजपोरिति सूत्रं कर्त्तव्यं सुपीति वर्तते । "ये कृति बहुकम् [४।३।१३२] इत्यनुपा सिद्धम् । अर्थविशेषपरिग्रहार्थं निपातनम् । इह मा भूत् । स्वम्बे तृणस्तव के रा गौः । कर्णे जपिता वैद्यः ।
1
रामि घोः खौ ॥२२॥१५॥ शमिवाचि धोः खुविषये प्रत्यो भवति । शम्भवः | शंवदः । शङ्करः 1 ग्रहणेऽनुवर्तमाने पुनधु ग्रहणं बाधकबाधनार्थम् । शङ्करा नाम परिब्राजिका | खुविषये कृञो देत्यादिषु परत्वाट्ट मा भूत् । खाविति किम् ? शङ्करी जिनविद्या ।
I
शोकोऽधिकरणे ॥ २शश२०|| शेतेरधिकरणे सुबन्ते वाचि प्रत्यो भवति । खे शेते खशयः । खेशवः । गर्तशयः । गर्तेशयः । " कृति बहुरुम् " [४/३/ १२२] इति पचेऽनुम् । शौद्ध इति योगविभागात् पार्श्वादिसुरन्तेषु चातु श्रत्यो भवति । पार्श्वाभ्यां शेते पार्श्वशयः । पृष्ठशयः । उदरशयः । "उत्तानादिषु च कर्तृषु" [व] उत्तानः शेते उत्तानशयः । श्रवमूर्द्धशयः । दिग्वसह पूर्वास्यो भवति [वा०] दिग्धेन सह शेते दिग्वसहयः । कथं गिरिश: लोमादिपाठान्मत्वर्थीयः शः । यो हि गिरी शेते गिरिस्तस्यास्ति ।
चरेष्टः || २|२|२९ ॥ चरेधरधिकरणे वाचि ये भवति । कुरुषु चरति कुरुचरः । मद्रचरः । मद्रचरी | अधिकरण इत्येव | कुरूंश्वरति कुरुचारा ।
१. वक्त्रं छन्दोविशेषः । २ यो सम्भा अ, स० । ३ प्रकृतिः ब० स० मु० 1
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२०४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[१० २ पा० २ सू० २२-३॥
भिक्षासेनादाये ॥राश२२॥ अनधिकरणार्थमेतत् । भिक्षा सेना आदाय इत्येतेगु वाक्षु चरेष्टो भवति । भिक्षाचरः । सेनाचरः । श्रादायशब्दः प्यान्तः । श्रादाय चरति श्रादायचरः ।
पुरोऽग्रतोऽप्रेषु सुः ॥२२॥२३॥ पुरस, अग्रतस् अग्ने इत्येतेषु सुबन्ते चातु सररोटो भवति । पुरःसरः । "मग्रतस् प्राथादिम्य उपसंख्यानम्" [वा ] इत्येवन्तात्तसिः । श्रग्रतःसरः । अग्रेसरः | अग्रेसरी । अनीवन्तत्वेऽप्येकारो निपातनात् |
पूर्वे कर्तरि शरा२४॥ कर्तृग्रहणं कर्मनिवृत्यर्थ पूर्वशब्दे कर्तृयाचिनि सुबन्ने याचि सोप्टो भवति । पूर्वः सरवि पूर्वसरः । क्रियाया विशेषणेऽपीष्यते । पूर्व प्रथम सरति पूर्वसरः । कर्तरीति किम् ? पूर्व देश सरति पूर्वसारः।
को हेतुशीलानुलोम्येऽशब्दश्लोककलहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदे मास२५॥ शब्द. श्लोकादिवर्जिते कर्मणि वाचि कृतः ट इत्ययं त्यो भवति हेती शीले प्रानुलोम्मे च गम्यमाने । तुशब्दोपादानात् इइ हेतुः प्रकृष्ट कारयाम् । विद्या यशस्करी। धनं कुलकरम् । शील स्वभावः । समासकरः । अर्थवरः । भानुलोम्यमनुकूलता । प्रेषकरः । वचनकरः । एतेविति किम ? कुम्भकारः। अशब्दादिष्विति किम् ? शब्दकारः । श्लोककारः । कलहकारः । गाथाकारः । वैरकारः । चाटुकारः । सूत्रकारः । मन्त्रकारः । पदकारः ।
दिवाविभानिशाप्रभाभास्करान्तानन्तादिनान्दोलिपिलिविवलिभतिकर्तचित्रक्षेत्रसंख्याजवाबाहर्द्धनुरराषु ।।२।२६॥ अहेत्वाद्यर्थ प्रारम्भः । दिधाशब्दे सुबन्नो वानि वभादिषु कर्मसु वास्तु फरोतेष्ट इत्ययं त्यो भवति । दिवति मिटा दम् । किराँत दिपार विभा करोतीति विभाकरः । निशाकरः । प्रभाकरः । भासनं भाः । भार्ग करोति भास्करः । सूत्रे भास्करान्रोति सकारस्य निपातनात् जिह्वामूलोवविसर्जनीयौ न भवतः । कारं करोगीति कारकरः । अन्तकरः । अनन्तकरः । अन्तकरस्य नन से अन्योऽर्थः प्रतीयते इत्यनन्तग्रहणम् । श्राधिकरः । नान्दीकर: | लिपिकरः । लिविकरः । भलिकरः । भक्तिकरः । कर्तृकरः । चित्रकरः । क्षेत्रकरः । संख्या एकस्वद्भित्यादिका । एककरः । बहुशब्दोऽपि नानाधिकरण वाची संख्याशब्दः । बहुकरः । जंघाकरः । बाहुकरः । इस्करः । "रोऽसुपि" [१॥३॥७८] इति रेफः । तस्य "कृमि" [ १३३ ] नादि सूत्रेण सत्वम् । धनुष्करः । अगष्करः । “सस्लेऽध स्थस्य" [२४३३ ] इति सत्वम् । "इण्णः षः' [ १२० ] इति षत्वम् ।
कर्मणि भृतौ ॥रारा२७॥ कर्मशब्दे चाचि कृत्रष्टो भवति भृतो गन्यमानावाम् । भृतर्निया कर्ममूल्यम् । कर्म करोति कर्मकरः । मृताविति किम् ? कर्मकारः ।
किंचिद्गुष्कः ॥२२२८॥ किम् यद् तद् बहु इत्येतेषु वाच कुजः अ इत्ययं त्यो भवति । किङ्करः किकरा । यत्करः । यत्का । तस्करः । तत्करा । चौयें तस्करः । बहुकरा । इह बहुशब्दो वैपुल्यवाची । इत्वादिषु ट एव भवति । किरणशीला किङ्करी ।
सकृत्स्तम्बे वत्सीयोरिः ॥२२२२२६॥ सकृत् सम्ब इत्येतयोः कर्मणोः कृम इरित्वयं त्यो भवति वत्सबीलोः कत्रोः । सकृत्करिवत्सः । स्तम्बकरिः बोहिः । उत्सवीह्योरिति किम् १ सरकारः । सम्बकारः ।
द्दतिनाथयोः पशौ हजः ॥२॥२॥३०॥ दृति नाथ इत्येतयोवांचीः पशौ कर्तरि हुन इरित्ययं त्यो भवति । इतिहरिः । नाथहरिः पशुः । पशाविति किम् ? हतिहारः । नाथहारः।।
फलेनह्यात्मम्भरिकुक्षिम्भरयः ॥२।२३१॥ फलेग्रहि आत्म भरि कुक्षिम्भरि इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । फलानि गृह्णाति फलेपहिः । वाच एत्वमिश्च निपात्यते । अात्मानं वितिं श्रारम भरिः । कृक्षिभरिः । वाचो मन्तवमिश्च निपात्यते ।
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०२ पा० २ सू० १२-४१ ]
महावृत्तिसहितम्
२०५
पजेः खश् || २|२|३२|| एजवेर्यन्तात्वशित्ययं त्यो भवति कर्मणि वाचि । वकारः "खित्यझे; " [ ४।३।१७६ ] इति विशेषणार्थः । शकारो गर्मज्ञार्थः । श्रङ्गान्वेजयति श्रमेयः । जनमेजयः । "बावतिसार्धेषु अजातिभ्यः खश्यकभ्यः " [ ० ] बातमजाः मृगाः । तिलन्तुदः काकः । साहा मृगाः ।
नासिकादी धेट्ध्मः ||२|२|३३|| नासिकादिषु कर्मसु धेट् ध्मा इत्येताभ्यां खय् भवति । नाखिकान्यति नाखिकन्धयः । नासिकान्धमः । स्वरिन्धयः । स्वरिन्धमः । नाडिन्धयः । नाडिन्धमः । मुष्टिन्वयः । मुष्टिन्धमः । घटिन्धयः । घटिन्धमः । घातन्वयः । वातन्धमः । शुनीस्तनयोर्भेट एव । शुनिन्धयः । स्तनन्धयः | आदिशब्दः प्रकारवाची ।
उदि क्रूले रुजिचहोः || २ | २|३४|| उदीति कास्याने ईप् । उत्पूर्वाभ्यां रुचि वहि इत्येताभ्यां कूले कर्मणि स्वशु । कूलमुद्र, जः । कूलमुद्वद्दः ।
हा लिहा ||२२|३५|| वह अभ्र इत्येतयोः कर्मणोः लिहेधः खश् भवति । वहं लेदि वह लिहो गौः । श्रभ्रंलिङ्गः प्रासादः ।
मितनखपरिमाणे पचः ||२२२|३६|| मितशब्दस्य पृथग्निर्देशात् परिमाणं प्रस्थादि गृह्यते । मित न परिमाणवत्येतेषु कर्मसु पचेधः खश् भवति । मितं पचते मितम्पचा कन्या । नखम्पचा यवागूः 1 प्रस्थम्पचा । श्राढकम्पचा । द्रोणम्पचा ।
विध्वरुपोस्तुदः सखम् ||२|२|३७|| विधु श्ररुष इत्येतयोः कर्मणोः तुदेवः खश् भवति । सकारस्य च खम् । त्रिधुन्तुदः ! मुदः |
वाचंयमासूर्य पश्योग्रम्पश्य ललाटन्तपपरन्तपद्विषन्तपेरम्मदपुरन्दर सर्व सहाः ॥१२/२/३८ ॥ एवे शब्दा निपात्यन्ते । मालुदे कण वधः खो निपात्यते व्रते । वाचं यच्छति वाचंयमस्तपस्वी । वाग्यामोऽन्यः । सूर्य न पश्यति श्रसूर्यपश्यं भुखम्। असूर्य पश्या राजदाराः । निपातनादसामर्थ्यंऽपि नन्सः दृशेः खशू । उम पश्यति उग्रपश्यः । उग्रे कर्मणि हरोः खश् निपात्यते । ललाटन्तपति ललाटन्तपो मास्वान् | खश् निपात्यः । परस्त । पयति परन्तपः । द्विषतस्तापयति द्विस्तपः । परद्विषतोः कर्मोस्तापेः खनिपात्यते । तकारस्य च खम् । “खचि” [४|४|८८ ] इति प्रादेशः । स्त्रियामनभिधानम् । द्विषतीतापः । इरया माद्यवि इरम्मदम् । स्वनिपात्यः । पुरो दास्यति पुरन्दरः । खच् बाचो मन्तता च निपात्यते । सर्वं सहते इति सर्वं सहः । खश् निपात्यः । कथं पाण्यो ध्यायन्ते तु पाणिन्धमा पन्थान इति ? नासिकादो पाणिशब्दः तत्र पाणिन्धमाः पथिकाः तात्स्य्यात्पन्थानोऽपीत्यधिकरणे खश् न वक्तव्यः ।
प्रियवशे वदः खच् ||२२|३|| प्रिय वसू इत्येतयोः कर्मणोः वदतेः सजित्ययं त्यो भवति । प्रियंवदः । वरांबदः । स्वकारो वागर्थः ( मुमर्थः ) । चकारः " खधि" [ ४४८ ] इति विशेषणार्थः । त्यान्तरकरणं किमर्थम् ? खशि सति उत्तरत्र करोतेर्श्वभर्तेश्च विकरणः स्यात् । धोरिहोङः प्रादेशश्च न स्यात् । सर्वकूला भ्रकरीषेषु कषः || २|२२४० ॥ सर्व कूल न करीष इत्येतेषु वातु सर्वंकष विप्रः । कूलङ्कषा नदी । अभ्रकषो वायुः । करीषङ्कषा बात्या । "भगे वारेः ख भगन्दरः ।
भवतिभयेषु कृञः ||२| २२४१ || मेघ ऋति भव ऋतिङ्करा । भवङ्करः ] "अभयाच्चेति वरूष्यम्” [ वा ] अणोऽपवादोऽयम् | परत्वेन हेत्वादिटस्य च बाधकः ।
૪
कषतेः खज् भवति । वक्तव्यः " [ ० ]
इत्येतेषु कर्मसु करोतेः खच् भवति । मेघङ्करः । श्रभयङ्करो जिनः । नञ से श्रन्योऽर्थः प्रतीयते ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प० २ पा० १ ० १२-१२ क्षेमप्रियमद्रेण च ॥२२॥४२॥ क्षेम प्रिय मद्र इत्येतेषु कर्मसु करोतेरणित्ययं सो भवति सच । बेति सिद्धे कृषी क्षेत्रादिष्यपि टपतिषेधार्थमयाग्रहणम् । क्षेमकारः। क्षेमकरः । प्रियकारः । प्रियङ्करः । मद्रकारः । मद्रङ्करः ।
पाशितम्भकः ||२२|शा अाशितम्भव इति निपात्यते । श्राशितशब्दे सुबन्ते वाचि भवतेर्भावभरायोः खा निपात्यते । श्रासित इति कर्तरि को दीत्वं चात एव निपालनात् । श्राशितस्य भवनमाशित भयो वर्त्तते । श्राशितो भवत्यनेनासममा शिशानद श्रोषणा । प्रत्यारोहित गुडस भगत । गवे घनः समत्वादयं बाधकः।
भृतवृजिधारिसहितपिवमः खौ ॥शरा४॥ भृ त वृ जि धारि सहि तपि दमि इत्येतेभ्यः खुविषये खम् भवति । कर्मणि सुपि वाचि यथासम्भवमयं विधिः। विश्वम्भग। वसुन्धम। रथन्तरो नाम रामा। वडाओः-पतिवरा कन्या । अरिजयः। युगं धारयति इति युगन्धरः | "खचि"[11] इत्युङः प्रादेशः। शत्रुसहः । शत्रुन्तपः । दभिरन्तर्गतपयर्थः । अरिन्दमः | खाविति किम् ? कुटुम्बभारः।
गमः ॥२२॥४५॥ खाविति वर्तते । सुअन्तवाचि गमेोः खज् भवति । मुतङ्गमो नाम फश्चित् । कषिदखानपीध्यते । मितगमोऽश्व । अमितङ्गमा इस्तिनी । "विहायसो विद्वग्नेशः स्वच्छ वा विद्वक्तव्यः" [वा०] विहावमा गच्छति विहङ्गः । विहङ्गमः। "तुरमुसयोम्य" [वा. ] तुरङ्गः । तुरङ्गमः । भुजङ्गः। भुमङ्गमः।
डः ॥१२॥४६॥ स्थाविति निवृत्तं गम इति वर्तते । गभेडों भवति सुबन्ते वाचि । मन्तादिषु वाढु प्रायेणाभिधानम् । अन्तगः । अत्यन्तगः | श्रध्वगः । दूरणः । पारयः। अनन्तगः | गुरुतल्पगः । त्यागारगः | ग्रामगः । सर्वत्र गच्छति सर्वगः । पन्नं गच्छति पन्नगः। "उरसः सखञ्चति पतन्यम्" वा "विहायसो विच" [वा०] उरसा गच्छति उरणः | विहायसा गच्छति विहगः । “सुदुरोरधिकरणो गे वक्तव्यः" [वा.] सुखेन गच्छति अस्मिन् सुगः । दुर्गः। "निसो देशे' [चा०] निर्गो देशः । हित्यभल्यापि डिस्करणसामा: खम् ।
आशिषि हनः ॥रारा| आशिष्यर्थे हन्ते? भवति फर्मणि वाचि । तिमि इन्ति तिमिहः । शापहः।
अपे फ्लेशतमसोः ॥२२॥४८॥ अप इति कास्थाने ई। अपपूर्वात् हन्तः क्लेशतमयोः कर्मणो चिोडों भवति । अनाशोरोंऽयमारम्भः । क्लेशापहः । तमोपहः ।
कुमारशीर्षयोणिन् ॥२॥४५॥ कुमार शीर्ष इत्येतयोः कर्मणोहन्तेणिन् भवति । अशीलापोंडयमारम्भः । कुमारधाती। शोधाती 1 शीर्षशब्दोऽकारान्तः शिरःपर्यायोऽस्ति ।
___टगमनुष्ये ॥२।२।५०॥ हन इति वर्तते । हन्तेः कर्मणि बाचि टम् भवति अमनुष्ये कर्तरि । पित्वं हन्ति पित्तनं घृतम् । श्लेष्मघ्नमौषधम् । जापानतिलकः । पतिष्नी रेखा । अमनुष्य इति किम् ? पापशत. स्तपम्वो । चौरपातो हस्तीत्यत्र "युझ्या बहुलम्'' [२।३।६४] इति बहुलवचनादण् ।
जायापत्योलक्षणे ॥२२॥५२॥ लक्षणं चिह्न तदस्यास्तीति लक्षणः । अर्शश्रादिपाठादः । जाया पति इत्येतयोः कर्मचाहन्तलक्षणति कर्तरि टग्भवति । बाबानो ब्राह्मणः। लक्षणमस्य तद्विधमस्ति । पतिप्नी कन्या ।
__ शकि हस्तिकवाटे ॥२२॥५२॥ शकनं शक् शक्तिरित्यर्थः । हस्ति कवाट इति एतयोः कर्मणोः इन्तेष्टग भवति शकि गम्यमानायाम् । अयं पूर्वश्च मनुष्यक कार्य प्रारम्भः । इतिनं इन्ति इखिनो मनुष्यः । इस्तिनं हन्तुं शक्ल इत्यर्थः । कबाट नो मनुण्यः। शकीति किम् ? हस्तिषाचो व्यापः उपायेन ।
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०२ पा० २ सू० १३ - ५९ ]
महावृत्तिसहितम्
पाणिघताड घराज घाः || २२|१३|| एते शब्दा निपात्यन्ते । पात्रता शिल्पिनि निपात्येते । अन्यत्र - पाणिघातः । ताइघातः । राजत्र इत्यविशेषेण । टग्घत्वं टिखं च निपाध्यम् ।
१०७
सुभगाढ्य स्थूलपति नग्नान्धप्रियेऽच्यो स्नुख्खुको भुवः || २ |२| ५४ ॥ श्रच्वाविति ज्वन्तप्रतिषेधात् ञिमुक्तकन्यायेन पर्थविज्ञानम् | अच्यन्तेषु व्यर्थे वर्तमानेषु सुभगादिषु वातु भवतेः स्तुं खु इत्येतौ त्यौ भवतः । असुभगः सुभगो भवति सुभगम्भविष्णुः । सुभगम्भावुकः । श्राव्यम्भविष्णुः । श्राढ्यम्भा बुकः | स्थूलम्भविष्णुः 1 स्थूलम्भात्रुकः । पलितम्भविष्णुः । पतितम्भावुकः । नग्नम्भविष्णुः । नग्नम्भावुकः । अन्धम्भविष्णुः । श्रन्धम्भावुकः । प्रियम्भविष्णुः । प्रियम्भावुकः । अत्र तदाविभिष्टिः । श्रसुभगम्भविष्णुः । श्रीसुभगम्भावुकः । श्रच्वाधिति f+ ? सुभगोभविता । यायीभांवता । ननिर्दिष्टे सदृश संप्रत्ययादिह न भवति - सुभगो भविता |
कृञः करणे ख्युट् ॥२/२३५॥ कृञः करणे कारके ख्युट् भवति श्रच्यन्तेषु व्यर्थे वर्तमानेषु सुभगादिषु चाक्षु । श्रसुभगं सुभगं कुर्वन्त्यनेन सुभगङ्करणम् । श्राव्यकरणम् | स्थूलङ्करणम् । पलितङ्करणम् । नग्नङ्करणम् 1 अन्धङ्करणम् । प्रियङ्करणम् । सुभगङ्करणी विद्या । श्रच्व्यन्तेषु इत्येव । सुभर्गीकुर्वन्त्यनेन । नन्वत्र ख्युटि टि वा नास्ति विशेषः । सत्यम् । अच्यन्तानुवृत्तेस्तु युटोऽयंत्रार्थः प्रतिषेधः । व्यर्थे वर्तमानेवित्येव । श्राज्धं कुर्वन्ति तैलेन । श्रभ्यञ्जयन्तोत्यर्थः ।
स्पृशोऽनुदके कः ॥२२॥ ५६ ॥ उदकवर्जिते सुपि वाचि स्वशेधः किर्भवति । ककारः कार्यार्थः । वकारः सति साम्ये किपो बाधनार्थः । मन्त्रेण स्पृशति मन्त्रस्तृक् । दलं स्पृशति दलस्पृक् ।"" [५/३/५१] आदि सूत्रेण पत्वं अस्त्रं "किश्व कुः " [५/३७५] इति कुत्वम् । अनुदक इति किम् १ उदकं स्पृशति उदकस्पर्शः ।
ग्दधृग्ाग्विगुणिज्युजिक ञ्चः ॥२२२/५७॥
लि दधृक् स्रक् दिक् उभिएक् इत्येते कन्यन्ता निपात्यते । श्रञ्चु युजि कुद्धि इत्येतेभ्यस्तु किर्भत्रति । ऋतौ यजते ऋतुप्रयोजनो वा बघते खिम् । ऋतुशब्दे वाचि यजेः क्विनिपात्यते । वृष्णोतोति दधृक् । धृषेः किर्द्वित्वं च निपात्यते । सुमन्ति तामिति । सृजेः कर्मणि किरमागमश्च निपात्यः । दिशन्ति तामिति दिकू | दिशेः कर्मणि क्विः । उत्स्निह्यतीति उष्णिाक् | उत्पूर्वा स्निहः ग्यन्तख त्वं च । उपोषेण नातीति वा उष्णिक् । धनखं प्रश्च । अम्चु 1 प्राङ् । दध्यङ् | तुवन्तमात्रे किमवति । युजेः केवलादेव किः 1 युङ् । युञ्जौ । युञ्जः । क्रुङ् । क्रुझौ । क्रुञ्चः । क्रुश्रपि केवलात् क्विः । नखं न भवति । स एष विशेषो निपातनैः सह निर्देशालभ्यते ।
त्यदादी दृशोऽनालोके टक् च ॥ २२५ ॥ त्यदादिषु वासु शेर्धोरनालोकेऽर्थे यग् भवति किश्च | आलोकश्चतुर्विषयः पर्युदस्यते । व्याह । व्याहशः । ग्क्षवती [४/३११५] इति निर्देशाकोऽपि भवति । त्यादक्षः "शासनाम्नः " [ ४ २३/११७ ] इत्यात्वम् । एवं तादृक् । तादृशः । तादृक्षुः । यादृक् । यादृशः । यादृक्षः । रुदिशब्दा एते तेन नैतेष्वत्रयवार्थोऽस्ति । तमिव पश्यति अथवा इश्यते इति कथञ्चिद्वाक्यम् । समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम्' [ वा० ] सदृशः । सहकू । सहस्रः । श्चन्यादृक् । अन्यादृशः । श्रन्याक्षः । वती [ ४ | ३ | ११५ ] इति समानस्य सभावः । श्रनालोक इति किम् 1 यं पश्यति यद्दशः । तद्दर्शः ।
ससूत्र, हयुजविभिचिजिनोराजो गावपि किं वि भत्रति गौ वाचि श्रभियात् सुते । प्रसन्। दिवि सीदतीति
३. युटोऽप्यत्रार्थतः प्रसि-म०
॥ २२५६ ॥ खादिम्यो धुम्व षत् । अन्तरिक्षष्ठत् । इति
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२०८
जैनेन्द्र व्याकरणम्
[प्र. २ पा० २ ० १०-६६
विषा सहचरितः श्रादादिकः । प्रसूले प्रस्ः | अएडं सूते अण्डसूः । शतसः । गर्भगृ: । विद्वष्टोति विद्धिट । मित्रद्विट् । प्रद्र यतीति प्रध्रुक् । मित्राय द्रुह्यति मिश्ध्र क् । प्रदोग्धि प्रथुक । युजिर योगे युन समाधाषिति चाविशेषेण ग्रहणम् । प्रयुनक्ति प्रयुक् । अश्वयुक् । युजेण्यन्तस्याऽपि युज इनि निपातनात् गोरुप । प्रयोजय तीति प्रयुक् । -अश्वान् योजयति-अश्वयुक् । विदेशविशेषेण ग्रहणम् । प्रवित् । धर्मवित् । अभिन् । बलभित् । प्रच्छित् । रजच्छित् । प्रजि । कर्मजित् । प्रणौः। ग्रामणीः। विराजो विराट् । सम्राट् । 'मन्वनकनिविचः कच्चिता २।२।६२] "किपा [२।२।६३] इति किपि सिद्ध नियोगार्थमिदम् । मुपीत वर्तमाने गिनहणं किमर्थम् ? अन्यत्र सुप्रणे गिग्रहणं गास्तीति ज्ञापनार्थम् । तेन “वदः सुपि क्यप च' [२।११t] इति गे क्यम्न भवति । प्रवासमनुवाद्यम् ।
अदोऽनन्ने ॥२॥६०॥ अदेोः बिभवति अनन्ने सुबन्ने वाचि । श्राममत्ति प्रामात् । वृक्षात् | अनन्न इति किम् ? अन्नादः ।
कव्ये ॥३२॥ क्रव्यनारमा पाँच विस्मयति । कन्यमान अव्यात् । पूर्वणैव सिद्ध पुनरारम्भः असरूपस्याणो बाधकः । कथं ताई यादः ? पृषोदरादिषु त्तविकृतादः अव्याद इति द्रष्टव्यम् ।
__ मम्बन्धनिम्वित्रः कचित् ॥शरा६॥ मन् वन् वनिप् विच् इत्येते त्याः कचिद् दृश्यन्ते । भावपीत्यनुवर्तते । सुशर्मा । मुवर्मा । क्वचिदिति वचनात् केवलादपि । दामा । पामा । वामा । हेमा । वन् । विजाया | अमेगावा । धन्माः" [१२] इत्याखम् । नि५ । प्रारित्वा । प्रारिवानी। केवलादपि । कला | कलानौ । धीवा । पीवा । विच् । विशतीति वेट । रेट् । वकार कायार्थः । इकार उच्चारणार्थः । घकारः एवर्थः । जागति जागः । विरित्युच्यमाने "जागुरविमिणमिति' पारा२] इरि पप्रतिषेधः राक्येत ।
किए ॥२॥श६३॥ विप् धोः क्वचिट् दृश्यते गावपि । उखेन ( उखायाः ) संसने 'उखात् । वाहात् भ्रश्यति वाहाट्' । “अन्यस्यापि" [३३२३२] इति दौलम् । अचिदधिकारात्केवलादपि । याति याः । वातिवाः।
स्थाः कः शिश६४|| गावपीति वर्तते । तिष्ठतेः को भवति । शन्तिप्रति शंस्थः। मुस्थः । ननु "सुपि" [स] "क्ष्यः' [ ] इत्यनेनैव कः सिद्धः। न सिध्यति । "शमि घो: खौ' [२ ] इत्यत्र धुमशास्त्र प्रयोजनमुक्त समत्वेन पूर्वस्य ऋस्य बाधनमिति । यथा शङ्करा परिवाजिकेत्यत्र हेल्लादिलक्षणस्य टस्य बाधात्कस्याकारस्य बाधनार्थं पुनः कविधानं चिपोऽसमवादस्यो न बाधक इति पूर्वेण चिप्सिद्धः । शंस्थाः ।
मजो ण्विः ॥२२॥६५॥ भजतेरिवर्भवति मपि गावपि । श्रद्ध भाक् । प्रभाक् । गकार एंवर्थः । वकारः सति साम्ये बाघार्थः । इकारः उच्चारणार्थः । समत्वेन विविचोर्याधकोऽस्ति शिवः ।
__ सुपि शीलेऽजाती णिन् ॥ ६६॥ चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिरित्यस्मिन् दर्शने जातिप्रतिषेधोऽ यम् । अजातिवाचिनि सुबन्ते वाचि शीले गम्यमाने घोणिन्भवति | सुपीति वर्तमाने पुनः मुग्रहणं सुम्मापार्यम् । अन्यथा अजाताविति सत्ववाचिनः प्रतिषेधादन्यस्यापि सत्त्ववाचिनी ग्रहणं न स्यात् । उध्य भुक्त
1, "पिठरस्थायुखाकुपटम्" इत्यमरादिप्रामाण्यादुखाशब्दस्य नित्यत्रीयात् "उखाया: अंसते" इति वक्तुमुचितम् । मूले "खेन अंसते" इति काणनृतीयामोरच घ चिन्यम् । २. बहाद् भ.,०। २. पाहामट-स०,०
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२०२०६७-७१ ]
महानुतम्
१०६
इत्येवंशीलः उष्णभोजी । उदासारिएयः । प्रत्यासारिएवः । श्रताविति किम् ? शालीन् मुङ इत्येवं शीलः शालिभोजः । साधूनामन्त्रयिता । शोल इति किम् ? उष्णाभोजः आतुरः । कचिदित्यनुवृत्तेः साधुकारिएयशिन् । साधुकारी । साधुदायी । "ब्रह्मणि यदेखिन् वक्तव्यः " [ वा० वादिनो वदन्ति । ] श्रसमरयाणो वाषकः । ब्रह्म
कर्तरीवे ॥ २२६॥ करि वाचि इवार्थे घोशिन् भवति । उपमानभूते कर्तरीत्यर्थः । जात्यर्थमशीलार्थं चेदम् । उष्ट्र इव क्रोशते उनकोशी । ध्वाङ्कुरावी । खरनादी । सिंहनदीं । वृत्यैवार्थस्योत्वा दिवशब्द. स्याप्रयोगः । कर्त्तरीति किम् ? तिलानिव भुक कोद्रवान् । देव इति किम् ? उष्ट्रः क्राशति ।
व्रते ॥ २२/६८ ॥ मुचन्ते वाचि धोर्णिन् भवति समुदायेन चेद् वतं गम्यते । शास्त्रपूर्वको नियमो तम् । पार्श्वशायो । स्थण्डिलशायी । वृक्षमूलवासी । श्राद्ध न भुङ्क्त मतमस्य श्राद्धभोजी । श्रवणभोजी | सापेक्षस्यास्यापि न वृत्तिर्व्याख्याता । मत इति किम् ? डिले थेते कामचारे ।
प्रायो (य) मोक्ष्ये ॥ २२६॥ सुबन्ते वाचि धोराभीक्ष्यये गभ्ये प्रायोगिन् भवति । शोल गुणान्तरे द्वेषः । ततोऽन्यन्मुहुर्मुहुः सेवनमा भीक्ष्ण्यम् । कायपावियो गान्धारयः । सौवीरपाणि दपिताः । क्रपाणि श्रन्त्राः । क्षीरपायिख उशीनराः । " मृदन्तनुविभक्त्याम् ' ' [ ३|४|११ ] इतेि शनम् । प्रायोग्रहणादिह न भवति । कुल्माषखादाश्चालाः ।
मनः ॥२/२७० ॥ मन्यतेः सुपि काचि शिन् मति । शीलार्थवत् । शोभनं मन्यते परं शोभ नमानी | दर्शनीयमानी | मन इति श्यविकरणस्य प्रणं व्याख्यानात् । उत्तरत्र खशि विशेषो भविष्यति । खश्चात्मनः ॥२|२|७१॥ आत्मनो यत्सुबन्तं तस्मिन् वाचि मन्यतेः खश भवति शिश्च । शोभ. नमात्मानं मन्यते शोभनम्मन्यः । शोभनमानी । पखितम्मन्यः । पण्डितमानी ।
भूते ॥२२७२॥ भूत इत्यधिकारो वेदितव्यः । घोरिति वर्तते । अर्थवशाद् भूर्ते ध्वर्थे वच्यमाणा विषय भवन्तीत्यर्थः । वक्ष्यति दृशेः क्रनिप् । मेरुं दृष्टवान् मेहश्रा । भूत इति किम् ? मेरुं द्रक्ष्यति । न च भूतशब्दस् तरेतराश्रयत्वेनासिद्धिः श्रनादिलान्दव्यवहारस्य । भूत इति निसंशको का शब्दः । “दयन्त इति संस्थानं निसंज्ञानां न विद्यते । प्रयोजनवशादेते निपात्यन्ते पदे पदे ||"
फरणे यजः ||२|२|७३ ॥ न्निति वर्त्तते । करणे सुबन्ते नाचि यजेोभू शिन् भवति । अग्निटोमेनेष्टवान् श्रग्निष्टोमयाजी । वाजपेययाजी । विशेषस्य करणत्वम् । जनसामान्यं यजेरर्थः ।
कर्मणि नः || २२|७४ ॥ कर्मणि नाचि हन्तेर्णिन् भवति भूते । पितृव्यं हतवान् पितृन्ती । मातुलघाती । कुत्साविशेष इति वक्तव्यमिह मा भूत् । देवदत्तं हतवान् देवदत्तघातः ।
ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु किप् ॥ २१२२७५ ॥ ब्रह्म भूख
इत्येतेषु कर्मसु हन्तेः कन्भवति । ब्रह्मां हतवान् । ब्रह्मा । भृणहा । वृत्रहा | सामान्येन किपि सिद्धं नियमार्थमिदम् | त्रह्मादिष्वव कर्मसु हन्तेः निम्नान्यस्मिन् | भित्रं हतवान् मित्रघातः । उभयथा नियमश्चायम्। ब्रह्मादिषु कर्मसु भूते विदेव नान्यस्त्यः । उभयथा शिष्यैः प्रतिपन्नलात् उभयया नियमो लभ्यते । कथं मधुहा ! चिन्त्यमेतत् । न इत्येव । ब्रह्माणं कृतवान् । भूत इत्येव । ब्रह्माणं सन्ति इनिष्यति वा ।
सुकर्मपापमन्त्रपुण्ये कृञः ॥ २७६॥ किमिति वर्तते । सुशब्दे वाचि कर्मादिषु च करोतेः चिन्भवति भूते । गुण्डु कृतवान् कृत् । कर्मकुर । परपत् । मन्त्रकृत् । पुण्यकृत् । एषोऽप्युभयथा नियमः ।
१. ममिका अ
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० १ पा. १०७७-41
स्वादिष्वेष बातु कृषः किम्मवति नान्यस्मिन् । सूत्रं कृतवान् सूत्रकारः । स्वादिषु च भूते विवेव नान्यस्त्यः । कृन इति किम् ? पापं दितवान् । भूत इत्येव | कर्म करोतीति कर्मकारः । स्वादिष्वेव भूते किन्भक्तीति नायमिह नियम इत्येके । तेन भाष्यकृत शास्त्रकृत तीर्धकदित्येवमादि सिद्धम् । वर्तमान कालविक्क्षा वा तेनानियमः।
__सोमे सुमः ॥२२॥ सोमे कर्मणि सुनोतेः किन्भवति भुते । सोमं सुतवान् सोमसुत् । सोमसुतौ । सोमसुतः । एषोऽप्युभयथा नियमः | सोम पव वाचि सुनोतेः क्विम्नान्यसिन् । सुर सुतवान् सुपसावः । सोमे वाचि भूते किनेव नान्यस्त्यः । सुअ हति किम् ? सोमं कृतवान् । भूत इत्येव । सोमं सुनोति सोमसावः ।
अग्नी चेः ॥२७॥ अग्मो कर्मणि चिनोतः किम्भवति भूते । अग्नि चितषान् अमिचित् । अनिचितो । अप्रिचितः । श्रयमप्युभयथा नियमः। अनावेव बाचि नान्यसिन् । कुख्य चितवान् कुश्यचायः। अग्नी याचि भूते क्रियेव नान्यस्त्य: । चेरिति किम् ? अग्नि कृतवान् । भूत इत्येव । अग्नि चिनोति अग्निचायः।
कर्मण्यन्याख्यायाम् ॥२२७९॥ कर्मणोति प्रकृतं वर्तते । कर्मणि वाचि चिनोतेः कर्मणि कारके किन्भवति समुदायेन चेदग-याख्या गम्यते । श्येन इव चितः श्येनचित् । काक इव चितः काकचित् । रयचक्रचित् । आख्याग्रहग्यं किमर्थम् १ रूढ़ेः परिग्रहार्थम् । अग्न्यर्थ इष्टकाचयः श्येनचिदुव्यते ।
कर्मणोन्धिक्रियः ॥राश०॥ कर्मणि वाचि इनित्ययं त्यो भवति । विपूर्वान् क्रीयातेः । कर्मणीति वर्तमाने पुनः कर्मम हत्यमभित्रेयनिवृत्यर्थम् । कर्मणि वात्रि कर्तरि कारके यथा स्यात् । तैलं विक्रीतवान् सैलविक्रयी । व्रतविक्रयी । "कुस्मायामिति बकव्यम्' [वा०] इह न भवति । धाविकायः।
दश कनिम् ॥२०८१॥ भूते कर्मणीति च वर्तते । कर्मणि याचि दृशेर्धाः क्वनिम्भवति । मेर दृष्टवान् मेरमा । विश्व दृश्वा । पित्करणमुत्तरार्थम् । सामान्येन हनिपि सिद्ध पुनर्वचनं भूते मन्षन्विषां निवर्तकम् ।
राशि युधिकृतः ॥२११०२॥ राजशन्दे कर्मणि युधि कृञ् इत्येताभ्यां कनिम्भवति । युधिरतभांवितण्यर्थः सकर्मकः । राजयुध्या । रामकृत्वा । श्रयमपि योगः मन्वन्यिचा निष्ट्रस्यर्थः । कर्मणीत्येव । राशा युद्धवान् ।
सहे ॥शरा३॥ सहशब्दे वाचि युधिभित्येताभ्यां कनिभवति भूते। सह युद्ध वान् सहयुध्वा । सहकृखा | "वा नोचः" [ १०] इत्यत्र न्यगवयवस्य असस्य ग्रहणात् सहशब्दस्य समावो न भवति । योगविभागो यथासंख्यनिवृत्यर्थः।।
अनेः ॥२२॥४॥ सुपि शील इत्यतः सुपीति संबध्यते । जनेधोंः सुपि वाचि ड इत्ययं त्यो भवति । उपसरे जातः उपसरजः। मन्तुरायां जातः मन्दुरजः । "खे छयापोः कचित् सौ च" [0/३७] इति प्रादेशः । बलभीजः । "कायामजाताभिधानम्" [वा०] जाड्याजातं आयजं दुःखम् । सन्तोषजं सुखम् । सङ्कल्पः कामः । बुद्धिजः संस्कारः। अजातापिति किम् । मृगाजातः । हस्तिनो मतः । गौ वाचि खुक्षिये प्रजाताः प्रजाः। भनौ कर्मणि वाध्यभिधानम् वा०] पुमांसमनुजातः पुमनुजः । स्यनुजः 1 'अन्यस्मिन्नपि चाधि श्यो कारकास्तरेऽपि' [ वा ] किजातेन किजः । असं मातेन अलजः । दिर्जतो द्विवः । न अतः अजः । “कायामजातो" इत्युक्तम् । नातावपि दृश्यते ब्राह्मणना पशुबधः । क्षत्रियजं युद्धम् । गो वाचि खावित्युका अखावपि दृश्यते । अधिजातः । अधिजः । अभिनः। परिवः । अनी कर्मणीयुक्तम् । अकर्मण्यपि दृश्यते । अनुगातः अनुजः । यद्यपि विशेषेण सुरीत्युच्या हापि प्रानोति सर्वानपरिपूर्यो अतः ग्रहलो पातः। अनभिधानान्न भवति । "युल्या बदुलम्" २१३१४] इति बहुलवचनात् । कर्मणि कारके अन्यस्मादपि भवति । परिखाता परिखा । पुसम अनुजातः पुंसानु प्रकरणे पुंसानुबो जनुषान्ध हत्यानुम्बक्ष्यते ।
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०पा० १ सू० ८१-११]
महावृत्तिसहितम्
तः ॥ २८५॥ संशस्यो भवति धोर्भूते । इह बाग्विशेषपरिग्रहो नास्ति । कृतः । कृतवान् । भुक्तः । भुक्तवान् । क्लक्ात्मविनोः संज्ञाश्रिता तेन संशयात्यविधाने इतरेतराश्रयं नास्ति । श्रादिकर्मण्यपि कथञ्चित् भूतत्वमस्ति । प्रकृतः कटं देवदत्तः । प्रकृत्तवान् कर्ट देवदत्तः ।
जो नि ॥ २२६॥ सुपीति निवृत्तम् । सु यानि इत्येताभ्यां वनिप् भवति भूते । हुतवान् । भुत्वा । ऋष्टवानिति यया ।
जुषोऽतृ ॥२॥ जीर्यतैरतु इत्ययं त्यो भवति भूते । जरन् । जरन्तौ । जरन्तः । क्लक्लवत्वोरसमत्वादत्राधकोऽयम् ।
-
१११
सदिणो वसुर्लिएमम् ॥ २८८ ॥ वस् सद् हणू इत्येतेभ्यः भूते वसुर्भवति लिन्मसंज्ञश्व | अनूषिवान् श्रीदत्तं धान्यसिंहः । उपसेदिवान् उपाध्यायं शिष्यः । ईयिवान् उपेयिवान् उपाध्यायं शिष्यः । इणः कादिनियमादिटि द्वित्वम् । धुरूपत्य “यत्यो:" [ ४४१७७ ] इति यणादेशः । चस्य "कितीयो दी [१६] वृतिदीम् । अथ कादिनियमतत्क्षणस्लेटः "वशि" [ २|१|११ ] इति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति ! उत्तरत्र "श्रुवोऽनि [२२] इत्यनिबन्धनं ज्ञापकं "वहि” [ २।१।११४ ] इति प्रतिषेधो न भवति । उदात्तस्य वा स प्रतिषेधः । लिङ्बदतिदेशाद्वित्वम् । "न सिस्टोफ" [ १४/७२ ] इत्यादिना कर्मणि ताप्रतिषेधश्च भवति । मसंज्ञायाः किं प्रयोजनं कर्मव्यतिहारे मा भूत् । व्यत्यूचे जनपद इति । "प्राक्लेर्षा ऽसमः” [२१८१] इति सुद्धादयोऽपि भवन्ति । अन्धवात्सीत् । श्रन्ववसत् । अनुवास | उपासदत् । उपासीदत् । उपससाद । उपागात् । उपैत् । उपेयाय | कसुकानौ लिडादेशौ सर्वधुभ्य इत्येके । “कसुखों मम्” इति मसंज्ञकः । कानस्य "दुकानं वः " [११२(१५१] इति संज्ञा । भावकर्मकर्तृषु च सम्भवः । लिड देशत्वादेव किरवे सिद्धे स्फान्तार्थकिकरणमानयोः । अओ: श्राधिवान् । स्वजेः सस्वज्वान् इति कित्त्वान्न एवं सिद्धम् । ऋकारान्तस्यैप्रतिषेधार्थं च कित्करणं तितीर्वानः । "वृताम् [ १२/१२३ ] इत्येभ्न भवति । कर्मणि ततिराणः । “ऋत इस्रोः” [५/१/७४ ] इति इत्यस्य "द्विश्वेऽचि ' [ ११/१६ ] इवि स्थानिवद्भावे तृ इति द्वित्वम् । "उर:' [ ५१२।१३६ ] इति श्रम् | वैरेवाचार्यैः " वस्काशा वसामि " इति वसौ परतः एकाचामाकारान्तानां घडूविहितः । पेचिवान् । पपिवान् । जक्षिवान् । इह कस्मान्न भवति ! विभिद्वान् चिद्वान् | "मध्ये दिव्यतः" इत्यनेन एत्वचखयोः कृतयोर्चमो य एकाच तत्रैवेइ भवति । य यमिवानित्यत्रापि चात् खम् [४|४| ६३ ] इति खे कृते पकायमस्तीति श्रग्रहण मनर्थकम् । नियमार्थमेतत् । यथा निमित्तमेकाच्वं तेषामाकारान्तानामेत्र [ इड्भवति ] नान्येषां चखवानिति । श्रनापीटि कृते उङा से क्रियमाणे एका स्वसम्भवोऽस्ति । अत एव नियमात् घसेरिट्यप्राशे ग्रहणम् । तथा वा दशिग महन दिविशाम् । ददृशिवान् । ददृश्वान् । जग्मिवान् । जगन्धान् । जन्निवान् । जधन्वान् । "मो न " [२३=३] 'खो:' [२४] इति मकारस्य नत्वम् । दृशेरनेकावात् गमहनोरात इति नियमात् दस्यवासे विभाषा । बसौ परतो विदेः शत्रिकरणस्य महणम् 1 विचिदिवान् । विविद्वान् । ज्ञानार्थस्य ग्रहणे ते "यस्य वा " [ ११२१] इति प्रतिषेधः स्यात् । विविशिवान् । विविश्वान् ।
श्रुधोऽनि ॥२२८॥ श्रु इत्येतस्माद्वसुर्भवत्यनिट् । उपशुश्रुवान् श्रीदत्तं धान्यसिंहः । श्रसमवाङादयोऽपि । उपावणोत् । उपशुश्राव ।
अनाश्वाननूचानी ॥२/२/६०॥ श्रनाश्वान अनूचान इत्येती शब्दो निपात्येते । नञपूदभातेः वसुभिावश्च निपात्यते । श्रनाश्रांस्तपश्वकार । श्रसमत्वात् नाभात् नाश इत्यपि भवति । वचेरनुपूर्वात् कर्तरि कानो निपात्यते । अनूचानो व्रतोपपन्नः । असमत्वात् अनुक्तवान् श्रन्ववोचत् अनुवाच इति च भवति । लुङ् ॥२२२॥९१॥ लुङ् इत्ययं त्यो भवति भूते धोः । श्रकार्षीत् । अहार्षीत् । क भवानुषितः । श्रमुत्रावात्समिति । अत्र भूतमात्रस्य विवद्धा श्रतएव लड्न भवति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० २ ० २ सू० ११-१००
अनद्यतने लक्ष् ॥ शश९२ ॥ भूत इति वर्तते । श्रविद्यमानायतने भूते घोर्लङ भवति । श्रतीताया राः श्रा पश्चिमयामात् श्रागामिन्याश्च रात्रेराप्रथमय मात् अद्यतनकालः । तत्प्रतिवादनद्यतनः । श्रकरोत् । अहत् । श्रनयतनभूतविवक्षायाः समत्वाल्लुडो बाधको लछु । अनद्यतन इति निर्देशाद्य श्राद्यतनगन्धोऽप्यस्ति तत्र लड् न भवति । श्रद्य भुमहि । यदि वसः श्रद्यतनेऽप्यद्यतनो नास्वीति लङ् प्रामोति । नार्य दोषः । विशेषाद्यतने सामान्याद्यतनस्य विद्यमानत्वात् । इह भृत्तमात्रं विवक्षितम् । श्रागच्छाम घोषात् पित्राम पय इति । 'परोक्षे लोकविज्ञाते प्रयोकुः शक्यदर्शनस्वेन दर्शनविषये लड् षकष्पः " [जा०] अरुणन्महेन्द्रो मधुराम् । श्रद्यवनः साकेतम् । परोक्षे इति किम् ? उदगादादित्यः | लोकविज्ञात इति किम् । जगाम प्रामं देवदत्तः । प्रयोक्तुः दर्शनविषय इति किम् ? अयान कंसं किल बासुदेवः ।
११२
अभिशोक लूट ||२२|९३ || अभिजोक्तिः स्मृतिवचनम् । अविद्यमाने रेमशाच चिन लड् भवति । अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः । मद्रेषु वत्स्यामः । उक्तिग्रहणं पर्यावार्थम् 1 सरसि बुध्यसे चेतयते वा कश्मीरेषु वत्स्यामः । लङोऽपवादोऽयम् । श्रयदोति किम् । श्रभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेष्ववसामः ।
नवा साका ||२||६४ ॥ श्राकांक्षा सम्बन्धः । अनयतन इत्येव । साकाङदे अभिशावचने बाचि घोर्न वा लुड् भवतीतिप्रतिषत। ततः केवले यच्छन्दसहितै चाभिशावचने साकांक्षे वाचि । वेति सर्वत्र विभाषा । श्रभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः कश्मीरेष्वसाम तत्रान् भोदयामदे तत्रौनानभुमहि । यच्छन्दसहिते श्रभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेषु वत्स्यामः यत्तत्रौदनान् भोच्यामधे यत्रौदनानभुमहि ।
I
परोक्षे लिट् ॥२/२२९४॥ भूते अनद्यतने इति च वर्तते । परावृतोऽक्षेभ्यः परोक्षः इन्द्रियागोचर इत्यर्थः । परोक्ष शब्दस्य चेदमेव निपातनम् | भूतानद्यतनपरोक्षे ध्वर्थे लिड भवति । यद्यपि सर्वाध्वर्थः साध्ययेनानुमेयलेन वा परोक्षस्तथापि यत्राश्रयद्वारेण प्रत्यक्षाभिमानी नास्ति लोकस्य स परोक्ष उक्तः । पपाच । चकार । श्रात्मनानुष्ठिता हि क्रिया सर्वस्य प्रत्यात्मं प्रत्यक्षेति सुप्तमन्तयोरस्मदः प्रयोगः । सुप्तोऽई किल विलाप । मत्तोऽहं किल जधान । "अव्यस्थापह वे हिंडू घतव्य:" [ वा० ] नाहं कलिङ्गं जगाम । कलिङ्गगमनस्य प्रत्यक्षत्वालिडप्राप्तः ।
दशश्वतोर्लङ च ॥ २शश६॥
शश्वदित्येतयोर्वाचोर्लङ् भवति लिट् च भूतानद्यतनपरोक्षे | इतिहाकरोत् । इति चकार । शश्वदकरोत् । शश्वच्चकार ।
2
प्रश्ने चान्तर्युगे || २२२२६७॥ प्रष्टव्य इति प्रश्नः । पचवर्षे युगम्। युगाभ्यन्तरे प्रश्ने भूतानद्यतने परोदे ललिटौ भवतः । चकारः किमर्थः १ पूर्वसूत्रे चानुकुष्टस्य लिटोऽनुकर्षणार्थः । किमगच्छत्वं पाटलि पुत्रम् | अददादसो दानम् । ददावसौ दानम् । प्रश्न इति किम् १ देवदतो जगाम । श्रन्तर्युग इति किम् १ अहं त्वां पृच्छामि । जघान कंसं किल वासुदेवः ।
पुरि लुङ वा ॥२२६॥ पुराशब्दो भूतानद्यतने वर्त्तते न भूतमात्रे । पुराशब्द े वाचि भूतानद्यतने चालु भवति पढ़ें यथाप्रासं च । श्रवात्सुरिह पुरा छात्राः | व्यवसनिद्द पुरा छात्राः ।
लट् ॥२२२६६॥ वेति निषूत्तम्, 1 लङ् भवति पुराशब्दे वाचि भूतानद्यतने । बसन्तीह पुरा छात्राः । योगविभाग उत्तरत्र लट वानुवर्तनार्थः ।
स्मे ||२|२| १०० ॥ मशब्दोऽप्यनयतने परोक्षे च वर्तते न भूतमात्रे | स्मशब्दे वाचि अनद्यतने लड् भवति । इति स्मोपाध्यायः कथयति स्वयंप्रभा युध्यन्ते स्म विद्याधराः । इलिटोरपवादोऽयन् । सपुराशब्दयोर्युगप्रयोगे परत्वात् सलक्षणो लट् । सुलोचनायें पुरा युध्यन्ते स्म पार्थिवाः । दशश्वलक्षणादपि विधिः
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म. २ पा० २ ० १.१-१०६]
महावृचिसहितम्
११३
परत्वेन सशक्षणः । इति हाधीयते स्म | शश्व धीयते स्म । तथा इशश्चल्लक्षचात् परत्वेन पुरालक्षशो विधिः । इति इ पुरा अध्यगौषत । शश्वत्पुरा अध्यगीपत | "भनौ पृष्टप्रतिवसमे भूतमात्रे छट बक्तम्पः"[वा. श्वकार्षीः फट देवदत्त ! ननु करोमि भोः । न मारे जा चवाति पुत्रप्रत्रिवने अने वापर पसाया' [वा. ] अकार्षीः फटें देवदत्त ! न करोमि भोः नाकार्षे भोः । अहं न करोमि अहं न्वकार्यम् । नेदं दूर्व बलव्यम् । पूर्वत्र क्रियाया अपरिसमासेर्वर्तमानत्वम् । उतरत्रासमाप्तिः समाप्तिा क्रियाया विवक्षिता ।
सम्प्रति ॥राश१०१॥ सम्प्रति ध्ययें लट् भवति । श्रारम्भात्मभृत्याऽनुपरमाद्वर्तमानः कालः सम्प्रति इत्युच्यते । उक्तं च-"प्रारम्नाय प्रमृता यस्मिन् काले भवन्ति कतरिः। कार्यस्यानिष्ठातस्तन्मध्य काल. मिच्छाम्ति | तरति । नयति । याति |
तस्य शशानाववैकार्थे ॥२।२।१०२॥ तस्य सम्प्रतिकाले विहितस्य लटः स्याने शन शान इत्येतावादेशौ भवतः न चेद्वान्तेनैकार्य भवति । पचन्तं पश्य । पचता कृतम् । पचमानेन कृतम् । तस्य ग्रहणं किम् । असम्प्रतिकाले विहितस्य लटः स्थाने मा भूत् । उभ्यते इइ पुरा छात्रैः। अधीयते स नटैः। अवैकार्थ इति किम् ? पचति देवदत्तः । अत्र तस्य शतृशानाविति योगविभागः कर्तव्यः । “म वा सानो " [A ] इत्यतो मण्डूकजुत्या नवाग्रहणं चामिसम्बन्धनीयम् । ततो नेत्यनेन इतिशब्दयोगे प्रतिषेध एव भवति । वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेन इबादिमियोंगे यो भिन्नाधिकरणेषु च हसु नित्यो विधिः । कुर्यती भक्तिः । कुर्वद्भक्तिः। कौवतः । पाचमानः । मलिशब्दः प्रियादौ पठ्यते । तेन 'पुषप्रजातीयदेशीये" [१।३।१५४] इति पुंवद्भावः । समानाधिकरणेषु इत्सु विकल्पः | कुर्वत्तरः । कुर्वद्र पः । कुर्वाणरूपः । करोवितराम् । करोतिरूपम् । तस्मात् द्युल्पयोरुपसंख्यानं न कर्तव्यम् । पुनरवैकार्य इति द्वितीयो योगः। अत्रापि नवेत्यधिकारात् कचिद्रान्तेन सामानाधिकरण्येऽपि शतृशानो भरतः । सन् घटः । अस्ति घरः। विद्यमानो घटः 1 विद्यते घटः । जुहुन् शुहोति वा देवदत्तः । अघीयानो मुनिः । अधीते मुनिः । व्यवस्थितविभाषाबलात् माझ्याक्रोशे सुद्धपि । मा पचन् । मा पचमानः। मा पाक्षीत् ।
___ संबोधने ॥१०॥ सम्बोधनभिमुखीकरणम् । तद्विषये जरः शतशानौ भक्तः वैकार्यो । नित्यार्थमिदम् । हे पचमान । उभयोग्रोत्यं सम्बोधनमिति वाविभक्त्यपि भवति ।
___लक्षणहत्वोः क्रियायाः ॥२२॥१०॥ लक्षणं ज्ञापकं चिह्नम् । हेतुर्जनकः । लक्षणं च या क्रिया क्रियाया हेसुश्च या क्रिया तत्र वर्तमानाद्धोः परस्य लटः शतृशानौ भवतः । शयाना भुजते यवनाः। तिष्ठन्तोऽनुशासति गणकाः । व्यभिचार्यपि लक्षणं दृश्यते यथा यत्रासौ काकस्तद्देवदत्तगृहमिति । अन्यथेहेव स्यात् शयाना बर्द्धते पूर्वा । अासीनं वद ते विसम् । हेतौ। अधीयान प्रास्ते । अर्जयन् वसति । नवल्यनुवृत्तेरिह न भववि | वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । लक्षणहेवोरिति किम् ? यो वेपते सोऽश्वत्यः । खुल्लवते तलघु | द्रव्यस्य गुणस्य च लक्षणे न भवतः। बह शाले अन्यत्र हेतु ग्रहणे कारकग्रहणमिति लक्षणग्रहणे प सापकमणमिति अन्यतरनिदेशेनोभयप्रतिपत्तेढ़योपादानं द्वन्द्वेषु अल्पातरमिति पूर्वनिपातव्यभिचारार्धं [ च]।
तो सत् ॥२।२।१०५॥ तो शतृशानौ सत्सेजौ भवतः । शतृशानयोः प्रकृतत्वात् तौग्रहणं शतृशानरूपपरिग्रहार्थम् । तेन लूडादेशयोरपि सत्संज्ञा सिद्धा । देवदत्तस्य कुर्वन् करिष्यन् । "इस्मह" [ ५] इत्यादिना वासप्रतिषेधः ।
पूऊचजोः शानः ।।२।२।१०६॥ सम्प्रतीति वर्तते । पूर यज् इत्येताभ्यां शानस्ल्यो भवति । अनादेशोऽयं कर्तर्येव भवति । मभाग्भ्योऽपि धुन्यो विधास्यते । सोम पवमानः । यजमानः। “म झिa [11४/७२] श्रादिसूने शतृ हत्यतः प्रभृति श्रातूनो नकारात् तृभिति प्रत्याहार उक्तः । तेन कर्मणि ताप्रतिषेधः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [२०२ पा० २ ० १०५-11 वयःशक्तिशाले २०१०७n वयस् शक्ति शील इत्येतेषु गम्यमानेषु धोः शानो भवति । शरीरावस्या वयः । कतीच शिखण्र्ड वहमानाः । कतीह कवचं पर्यस्यमानाः । शक्तिः सामर्थ्यम् । कतीह भट निम्नानाः । कतीह भुआनाः । शील गुणान्तस्येषः । कतौह मण्डयमानाः । कतीह मुण्डयमानाः ।
धारीक शत्रकृचिणि ॥२२॥१०॥ श्रकृमनायासो यस्याम्ति सोऽकछौ। धारिइङ इल्ताभ्यां शतृत्यो भवति अछिणि कर्तरि । धारयन् धर्मशास्त्रम् । श्रधीयन् जैनेन्द्रम् । अकृरिणीति किम् ? कच्छ्रेण धारयति । कृच्छ्रेणापीते ।
द्विषोऽरौ ॥१६॥ द्विषः शतुत्यो भवत्यरौ कर्तरि 1 चौरस्य द्विषन् । चौरं द्विषन् । “द्विषः शतुर्वा वचनम्" [4.] इति कर्मणि वा ता । श्रराविति किम् । द्वेष्टि पति भार्या | असमा एते त्या लट न वाधन्ते ।
सुनो यज्ञसंयोगे ॥२।२।११०|| संयुध्यते इति संयोगः संयुक्त इत्यर्थः । सुनोतर्यज्ञसंयोगे कर्तार शनृत्यो भवति । सर्वे सुन्वन्तः । यज्ञस्वामिन इत्यर्थः । यशसंयोग इति किम् १ मुनोति सुराम् ।
प्रशंसेऽहः ॥२।२।१११॥ बहतेः प्रशंसेऽर्थे शतृत्यो भवति । अईनिद भवान् पूनम् । महनिह भवान् विद्याम् | प्रशंस इति किम् ? अईति चोरो वधम् ।
आके शोलधर्मसाधुत्वे ॥२।२।११२॥ श्रामिविधी व्रष्टव्यः। वक्ष्यति ग्रावस्तुवः किए। श्रा एतस्मात् विपसंशब्दनात् यानित ऊचं वक्ष्यामः शीलधर्मसाधुत्वेषु वेदितव्याः । शीलं व्यायाम । भाग श्राचारः । ध्वर्यस्य साधु करणं साधुत्वम् ।
तन् ॥२२११३॥ तृनित्वयं त्यो भवति सर्वधुभ्यः शौलादिषु । शोले-कर्ता कटान् । वदिता जनाप वादान् | धर्मे–मण्डयितारः श्राविष्टायना भवन्ति । वधूमूदाम अनमपहर्तार अाहरका भवन्ति अदे सिद्ध । साधुत्वे | कर्ता कटम् । गन्ताऽखेटम् । गमेरक वक्ष्यते । अधिकारात्तुनपि भवति ।।
मलनिगमानजनोत्पचोत्पत्तोन्मदरुच्य-पत्रपवृत्तवृधसहचर इष्णुः |११४॥ अलकभित्येवमादिम्य इणुर्भवति शीलादिषु । अलकरिष्णुः । मण्डनाथें पूर्वविप्रतिषेधेन युचोऽयं बाधकः । निराकरिष्णुः। प्रअनिष्णुः । उत्पचिष्णुः । उत्पतिष्णुः । उन्मदिष्णुः । रोचिष्णुः। श्रपत्रपिष्णुः । वर्तिष्णुः । सहिष्णुः । चरिष्णुः ।
ग्लाजिस्था कस्तुः ॥२२॥११५॥ ग्ला भू जि स्था इत्येतेभ्यो धुभ्यः मस्नुर्भवति शीलादिषु । ग्लास्नुः । भूष्णुः । जिष्णुः । स्थास्तुः । “नोनिग्यास स्थ ईकारः क्छितोरीस्वस्य शासनात् । एवभावविषु स्मायः थुकोऽनिटत्यसकोरितोः ।।"
प्रसिधिधृषिक्षिपः ||२२|११६॥ प्रसि गृधि धृषि क्षिप इत्येतेभ्यः क भवति शीलादिषु । प्रस्नुः । गृनुः। श्रृष्णुः । क्षिप्नु: । शुङः ए प्रतिषेधार्थ किल्करणमिदं ज्ञापकं त्यादिहलपेक्षया रुसंशायामपि "प्युरुः" [शरा८३] एम्भवतीति । वेत्ता । बोद्धा ।
शमिल्यामदेधिणिन् ।।।२११७॥ इति आद्यर्थे श्रामिविघौ । शमादिभ्य श्रा मदेपिनिय भवति । अष्टोत्र शमादयः-शमी। तमी । दमी । श्रमी । भ्रमी । क्षमी। लमी। प्रमादी । उन्मादी । "उकोऽत:" PAR] इत्यै प्राप्तः “म सेटस्तासि मोऽवमिकमिचमः' [श२१३३] इति प्रतिषिद्धः । मदेस्तु भवति । घमारः उत्तरत्र कुत्वार्थः । इकारः उच्चारणार्थः। अन्ये उकारमितं कुर्वन्ति वेषामिह मिनितरा इति "गित" [५।३।१५० ] इति वा प्रादेशः प्राग्नोति । श्रामदेरिति किम् ? यसिता ।
दुहानुरुधदुषद्विषयुजत्यजरजभुजाभ्याइन ॥२।२।२१८॥ दुहादिभ्यो घिनिम् भवति शीलादिषु । दोही | अनुरोधी । दोषी । द्वेषी । द्रोही । योगी । त्यागी। रज इति सूत्रे निपातनानखम् । रागी । भोगी। अभ्याधाती | अकर्मकाणामिति वक्तव्यमिह मा भन् | गां दोग्घा | शत्रूनम्याहन्वा ।
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*. १ पा० २ सू०१६-१९२] महावृत्तिसहितम्
परेः सूदेविक्षिपरटवदहमुहः ।।२।११६॥ परिपूर्वेभ्यः सुप्रभृतिभ्यो धुभ्यः घिनिए भवति । परिमारी । देव देवन इत्यस्य परिदेवी । क्षिपेरविशेषेण ग्रहणम् । परिक्षेपी । परिपारी । परिवादी । परिदाही । परिमोही।
वो कषधिवलसकत्थनम्मः ॥२।२।१२०॥ विपूर्वेभ्यः कषादिभ्यो धुभ्यो चिनिण् मवति 1 विकापी । विवेकी । विलासी । विकथी। विनम्भी।
अपे च लषः ।।२।१२१॥ अपे च दौ वाचि लषेधिनिण् भवति । अपलाषी। विलायी। चरः ॥२।२।१२२॥ अप इति बर्तते । अपपूर्वाचरेः धिनिण् भवति । अपचारी। मतेः ॥२।।१२३॥ अतिपूर्वाधरेबिनिय् भवति । अतिचारी।
समि चिसृजिज्वर पारा२।१२४॥ सम्पूर्वेभ्यः पृचि सृजि चरि इत्येतेभ्यो चिनिए, भवति । सम्पर्को । संसगी । संवरी 1 अकर्मकाणामित्येव । संपृणक्ति साकम् ।
आखियमियसिक्रीडिमुषः ॥२।२।१२५॥ श्राङ पूर्वेभ्यः यमि यसि क्रीडि मुषि इत्येतेभ्यो धिनिण भवति । आयामी । तासाव 'निभाबादै प्रतिषेधो न भवति । प्रायासी । श्राकोडरे । श्रामोषी ।
प्रेलपमृद्ध मथवदवसः ॥रारा१२६॥ प्रशब्दे वाचि लप समय वद वस इत्येतेभ्यो धिनिण, भवति । प्रलापी । प्रसारी । प्रद्राबी । प्रमाथी । प्रवादी । वसेरनुब्धिकरणस्य प्रवासी ।
निन्दसिक्तिशवादविनाशव्याभाषासूयो वुत्र, २२१२७॥ निन्दादिभ्यो त्रुम् भवति शालादिषु ! निन्दकः । हिंसकः। क्लिपि प य प्रहरी योजना बना । ल शमः । बादलनाशेय॑न्तस्य विनाशकः । श्रसूय इति करावादिर्यगन्तः । असूषकः | साना सिद्ध वुअग्रहरणं शापकमन्येभ्यः शीलादिषु एम्वादयो न भवन्तीति ।
परौ घाधिक्षिपरटः ॥२।२।१२८॥ परिपूर्वेभ्यः वादि क्षिप रट् हत्येतेभ्यो बुझ् भवति । परिवादकः । परिक्षेपकः । परिराटकः ।
वेषिशो गौ ॥२।२१२६। देवि कुश इत्येताभ्यां गौ वाचि बुभ भवति । देवीति देवतेय॑न्तस्य । परिदेवकः । प्रादेवकः । परिक्रोशः । प्राक्रोशका | गाविति किम् ? देवयिता ।
रुचलाथा युज् ॥२।२।१३०॥ रौत्यर्थेभ्यश्चलत्यर्थे यश्च घिसशकेभ्यो युज् भवति । रवणः । शब्दनः । कयनः | चलत्यर्थेभ्यः-चलनः 1 चोपनः । कम्पनः । घेरिति किम् ! पठिता शास्त्रम् ।
अनुदात्ततोऽयसूददीपदोनो हलादेः ॥२।२१३१॥ अनुदात्तेतो हलादे/युग्भवति यत्रगन्त-सूददीप दीक्ष इत्येतान्वर्जयित्वा । योतनः । रोटनः । अनुदात्तं त इति किम् । यता । अयसूददीपदीक्ष इति किम् ! कविता | क्षमाथिता । सूदे सकर्मकस्यापि सूदिता । कथं मधुसूदनः । नन्यादिपाठाण्युः । दीपिता । दीपेवि. शेषेण रो विधास्यते गुचः प्राप्तिास्ति । इदं प्रतिवधवचनं ज्ञापकं शीलादिकेषु असमविधिन भवतीत्यनित्यमेतत् । तेन कमनः । कम्रः । कम्पनः । कम्पः । विकायो विकल्पनः इति च भवति । दीक्षिता । इलादेरिति किम् ! पधो इत्येवं शौज पधिवा । अादिग्रहणं किम् ? इला तदन्तविधिर्मा भूत् । इह न स्यात् । जुगुप्सनः । मीमासनः । धेरेख । वखिता वस्त्रन् ।
सुजुज्वलगृधशुचलपपतपदः ॥शा२१३२॥ सुप्रभूतिम्यो युन्भवति । शरणः । जवनः । ज्वलनः । गर्दनः । शोचनः । लषयः । पतनः । पदनः । चल्यर्थानो पदेश्च ग्रहणं सकर्मकार्यम् । पदिग्रहणं
१. मात्रनिटत्वादे- भ०।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम
११६
[ ० २ ० १ सू० १३३-३३६
शानार्थमित्यन्ये । शीलादिकेषु चासमविधिर्न भवतीति । पदेरुका विशेषविहितेन सामान्यविहितस्य युचो वाचितत्वात् पुनरनेन प्रत्यापत्तिः ।
कुधमण्डार्थात् || २|२|१३३॥ क्रुध्यर्थेभ्यो मण्डार्थेभ्यश्च धुभ्यो युज्भवति । क्रोधनः । कोपनः । रोषणः । मण्डार्थेभ्यः- मण्डनः । रचनः । भूषणः ।
कमिद्रो यः ॥२२२॥१३४॥ कमिद्रमिम्यां यन्ताभ्यां युज्भवति । चङ्क्रमशः । दन्द्रमणः ।
जिजपवददशामकः || २२|१५|| इति वर्तते यज्यादिभ्यो यङन्तेभ्यः ऊको भवति । यायजूकः । जज्ज पूर्केः । वावदूकः । दन्दशूकः । जपिदंशिम्यां "खुपसदचरजवज मदहो गई" [ २।१।२१] इति यङ् । "जपजभ दहश भजपश[म् [ १२।१८४ ] इति चस्य नुमागमः ।
आगुः ||२२२२१३६|| जागुरूको भवति । जागरूकः ।
""
लवपतपदस्थाभूषनशुकमगम उकन् ॥२शरा १३७ ॥ लघादिभ्यः उकञ् भवति । श्रपलाधुकं नीचसङ्गतम् । “अपे व रूपः [२|२| १२१] इति वचनात् विनिपि भवति । प्रपातुका गर्भाः । उपपादुकाः देवाः । उपस्थायुको गुरून् । प्रभावुकः । प्रवर्धुकः । श्राघातुकः । शृणोतेः शारुकः । कामुका वन्यस्य स्त्रियो भवन्ति । "नति" [ १।४।७९ ] इत्यादिना कर्मणि वायाः प्रतिषेधे प्राप्ते उकप्रतिषेधे कमेरप्रतिषेध इत्युकम् । श्रागामुकः स्वगृहम् |
जल्पभिक्षकुट्टण्टङष्ट्राकः ॥१२/२/१३८ ॥ जल्पादिभ्यो घुम्यष्टाको भवति । जल्पाकः । पाकी श्रकर्मकविवक्षायां "हचार्थांच्" [ २२ १३० ] इति युच् प्रासः । मिक्षाकः । अनुदाचेतो युच् प्राप्तः । कुहाकः । लुगटाकः । बराकः ।
प्रे सूजोरिन || २/२/१३६॥ प्रपूर्वाभ्यां सुजुभ्यां इन् भवति । प्रसत्री । प्रजवी ।
परिभूजिदृत्तिविश्रीण्यमान्यथाभ्यमः || २ |२| १४०॥ इन्निति वर्तते । परिभू हि दिविभो इ वम श्रव्यथ अभ्यम इत्येतेभ्य छन् भवति । परिभावी । जयी । श्रादरी । क्षयी विश्रयी । श्रत्ययी । वमी । श्रव्यथी । अभ्यमी ।
स्पृद्दिग्रद्दिपतिवयि नित्रातन्द्राद्धाभ्य आलुः ॥ २/२/१४१ ॥ हिप्रभृतिभ्यो घुम्यः श्रातुर्भवति । सृहयालुः । गृहयालुः । पतयालुः । एते चुरादिष्वदन्ताः । दयालुः । निद्रालुः । तन्द्रालुः । तन्निति निपातनमालुविषये भवति । श्रद्धालुः । इद्द शीडो ग्रहणं कर्त्तव्यम् । शयालुः ।
वाघेट्रविशद सदो का || २|२| १४२ ॥ दा घेट् सि शद सद इत्येभ्यो रुर्भवति । दर इत्यविशेषेया ग्रइणम् । दायः । भ्रायः चत्सो मातरम् | "न मित" [११४ /७२ ] इत्यत्र उकारप्रश्लेषात् तदन्तविधिना तायाः प्रतिषेधः | सेरुः । शत्रुः । सद्रः । यच्वात्मकर्मणि द्यतेर्दा काष्ठं तदुयादिषु द्रष्टव्यम् |
सूपस्यदः कमरः ॥२|२||४३|| सवसि अद् इत्येतेभ्यः कमरो भवति । सुमरः । षस्मरः । श्रद्मरः । श्रनेनैवादेः घसुभावो निपात्यते ।
भजभासमिवो घुरः || २ |२| १४४ || भादिभ्यो घुरो भवति । भज्जेरात्मकर्मण्यभिचानम् । भङ्गुरं काष्ठम् भासुरं ज्योतिः । मेदुरं मुखम् ।
विद्भिः कुरः ||२|२| १४५|| विद् भिद् दि इत्येतेभ्यः कुरो भवति । विदुरः इति ज्ञानार्थस्यैव । भिच्चिदारात्मकर्मणि कुर इष्यते । भिदुरं काष्ठम् । छिदुरा रज्जुः ।
सूजीग्नशः करम् || २|२| १४६॥ सृ जि न्यूनश् इत्येतेभ्यः करपू भवति । सत्वरः । वित्वरः । इत्वरः । नश्वरः । नश्वरी ।
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म. २ पा० २ ५.४४-१५६] महावृत्तिसहितम्
गस्वरः ॥२।२।१४७॥ गवर हति निपात्यते गमेः करप, मकारस्य खं निपात्यते । गवरः । गवरी ।
नमिकम्पित्यजस्कहिंसदीपोरः ॥शश१४८॥ नमि कम्पि स्मि अस कम हिंस दीप इत्येतेभ्यो रो भवति । नमेरात्मकर्मण्यपि । नम्र काष्ठम् । नम्रो देवदत्तः । कम्प्रा शाखा । स्मेरं मुखम् । बस्यतेपूर्वात् अजस्र जनं भावयामः । झम्रा युवतिः । हिंस्रः पापमेति । दीमो मणिः । फम्पेश्च एयर्थलात् कमदीप्योरनुदाचेवायुच् प्राप्तः।
सनाशंसभिक्ष उः ॥२।२।१४६॥ सन्नन्त श्राशंस भिक्ष इत्येतेभ्य उत्यो भवति । चिकीर्षुः । प्राङः शसि इच्छायामित्यस्य प्राशंसुः । भिक्षुः ।
विविच्छ २२।१५०॥ विन्दु इच्छु इत्येतो शब्दौ निपात्येते । वेत्तेस्कारः नुमागमश्च निपात्यते । विन्दु: इच्छतीत्येवंशील इच्छुः। उश्छल्वं च निपात्यते ।
स्वपितषोर्मजि ॥२११५१॥ स्वपितृषिभ्यो नजिक भवति शीलादिषु । स्वमा | स्वप्नबौ । तृभ्याक् । तृभ्यो ।
शवन्योरारुपा।२।१५२। शू पन्दि इत्येवाभ्यामार इत्ययं त्यो भवति । शराः। बन्दाकः जिनान् ।
भियः कुक्लुको ॥२॥२॥१५३॥ विमेतेः क्रु क्लक इत्येतो भवतः । भीरः । भीलुकः । कुम्भेऽपि वक्तव्यः । भीरका ।
स्थेशभासपिसकसो वरः ॥२१५४|| स्था ईश भास पिस कस इत्येतेभ्यो परो भवति । स्थावरः । ईश्वरः । भास्वरः । पेस्वरः । कखरः ।।
यो यः ॥२॥२॥१५॥ याते र्यङन्ताद्वरो भवति । यायावरः । घरे अतः स्वम् , तस्य यखविधि प्रति न स्थानिवद्भाव इति “बलि प्योः स्त्रम्' [४/३१५१] इति यस्त्रम् | यखे कृते अतः खस्य स्थानिवद्रावात् "इटि चासम्' [४] इति प्ररत्वं प्रासम् । वरे पूर्वादेशस्य न स्थानिवद्राव इति न भवति | "शीखादिप्रकरणे पाम्कुटजनिनभिभ्य इमिंट यस्तय्या' [वा०] धानशीलो दधिः । करणशीलः चक्रिः । सरणशीलः सखिः । जननशीलः जशिः । नमनशीलः नेमिः | "मध्ये लिव्यतः" इति एवचखे ।
प्रावस्तुवः किए ॥२।२११५६॥ ग्रावपूर्वात् स्त्रोतः विप् भवति शीलादिषु । ग्रावाणं सोतीत्येवंशीलः मावस्तुत् । शोलादिषु वाऽसमविधिर्नास्तीति सामान्यलक्षणः किएन प्राप्नोति पुनर्विवीयते ।
अन्येभ्योऽपि ॥ २२॥१५७ ॥ अन्येभ्योऽपि धुभ्यः शौलादिषु किंब भवति । अपिनाएं विकल्पार्थम् । अन्येभ्योऽपि धुभ्यः शीलादिष्वपि भवत्यशीलादिष्वपि तत्राभिधानवशात् । भावभासधुर्विद्युतर्जिपूजुभ्यः शीलादिषु किन् भवति । अन्येभ्योऽन्यत्र | विधाजनशीले विभ्राट् । विभ्राजी। भाः। भासौ । धूर्षणाशीलः धू । धूरौ । विद्युत् । विद्युतौ । ऊर्फ । ऊर्जी । पूः । पुरौ । जूः | जुबौ । जुवः । स्विपिपधिप्रसहायतस्कटलीणा दीरजिश्च" [वा० ] हति दीलम् । अन्येभ्योऽशीलादिषु । पक् । पचौ। भित् । भिदौ । छिन् । छिदौ । वाक् । प्रच्छे पार । अायतस्तूः। कटमः।
भुवः स्वन्तरे ॥२२॥१५॥ भवतेः क्विम् भवति खायन्तरे च गम्यमाने । मित्रभूः । मित्रमुवी। मित्रभुवः । अन्तरे । प्रतिभूः । प्रतिभुवो | प्रतिभुवः । पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थमेतत् स्वन्तरयोरेव भुवः शीलादिषु नान्यत्र । मविता । भावुकः ।
विप्रसमोऽसौ डाः ॥२२।१५६॥ शीलादिष्विति निवृत्तम् । सम्प्रतीत्यनुवर्तते एव । विप्रसपूर्वादो
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प्र. २ पा० १ सू० १६०-100 र्भुवो दुर्भवल्पखौ । विभुः । प्रभुः । शम्भुः । अखाविति किम् ? विभुनीम कश्चित् । “बुप्रकरणे मिवनप्रभृतीनामुपसंख्याभम्" [धा ] मितं द्रवति मितद्रुः । शम्भुः ।।
वानीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे अट् ॥२।२।१६०॥ दापू लवन इत्येवमादिभ्यः करणे कारके व भवति । दान्ति तेन दात्रम् | नेत्रम् । शस्त्रम् । योत्रम् । योक्त्रम् । स्तोत्रम् । तोत्रम् । क्षेत्रम् । सेक्त्रम् । मेदम् । पत्रम् । दंष्ट्रा । अजादिषु पाठाहाप् । नधी । दशेः कृतनखस्य निर्देशो शापकः क्वचिदन्यत्रापि नखम् । दशनः ।
धात्रपोत्र शश१२॥ धात्र पोत्र इत्येते शब्दरूपे निपात्यते । धेटः कर्मणि बट निपात्यते । धन्ति सामिति धात्री । पोत्रमिति पुनातेः पवतेर्वा करणे घट निसत्यते । हलस्य सूकरस्य चा मुख चन्द्रवति इलस्य पोचम् | सूकरस्य पोत्रम् ।
लूधूसूखनर्तिसहचर इत्रः ॥२२॥१६२।। करण इवि वर्तते । ल्वादिभ्यो धुभ्यः करणे इत्रो भवति । लुनाति तेन लवित्रम् । धुवति तेन धावत्रम् । सुपति तेन सवित्रम् । खनित्रम् | अरित्रम् । सहित्रम् | चरित्रम् ।
पुषःखी ॥२१२६१६३॥ करण पति वर्तते । पवतेः पुनातेर्वा करयो इत्रो भवति खुविषये । पूयतेऽनेन पवित्रम् । पवित्रा नाम नदी।
कसरि बर्षिदेवतयोः ।।२।२११६४॥ पुत्र चत्रो भवति कर्तरि करणे च कारके ऋषिदेवतयोरभिधे. ययोः । भिन्नयोगनिर्दिष्टत्वाद्यथासंख्यं न भवति । पूयतेऽनेन पुनाति वा पवित्रोऽयमूषिः । देवतायां पवित्रोऽईन् स मा पुनातु ।
प्रोत: क्तः ॥२१२।१६५॥ संप्रतीति वर्तते | भिशब्देतो धोः संप्रति क्लो भवाते । जिमिदा मिन्नः । भिषा । धृष्टः । मिश्विदा । विएणः ।
मतिबुद्धिपूजार्थाच ॥२।२।१६६॥ मतिरनुमतिः । बुद्धिानम् । पूजा अर्चा । मत्यर्थेभ्यो बुद्धयर्थेभ्यः पूजार्थेभ्यश्च धुभ्यः संपति को भवति । राश मतः । राज्ञामिष्टः । राज्ञां बुद्धः । राचा ज्ञातः । राश पूजितः । राज्ञामचिंतः । क्योगे कर्तरि ता प्राप्ता "न मित" [४७२] इत्यादिना प्रतिषिद्धा भवतीत्यनेन पुनर्विधीयते । चकारोऽनुक्समुथयार्थः ।
शीडियो रक्षितः शान्त प्राक्रुष्टो जुष्ट इत्यपि । रुष्टश्च रुषितरचोभी अभिव्याहत इयाप ।। हनुष्टी तथा कान्तः दयितोऽन्यः संयतोद्यसौ । कष्ट भविष्यतीस्याहुरमृताः पूर्वकस्मृताः । अमृतशब्दः संप्रति बहुत्वनिर्देशात् । सुप्तः शयितः स्थितः पाशित इत्येवमादयोऽपि संप्रति बोद्धव्याः ।
उरणादयो बहुलम् ॥१६॥ "पुव: खौ" २११३३] इत्यतो मण्डूकप्तु त्या खाविति वर्तते । उण इत्येवमादयस्याः संपत्ति वर्षे बहुलं भवन्ति । खुविषये क्वचित्यसंज्ञा भवति । "कृधापाजिमिस्वधिसाध्यशूभ्य उम्।" कासः । वायुः । पायुः । बायुः । मायुः। स्वादुः। साधुः। श्राशुः । कचित्त्यसंशा न भवति । कृधूभ्यां क्सरः । कृसरः । धूसरः । त्यसंजाबिरहात् "स्यादेशयोः" शि६] इति षत्वं न भवति । वह च शमः पाण्ट इण् न भवति । कचिदुभयया । "वृतादिनिकमिकाषिभ्यः सः" वर्सम् । सम् । एपाप्रति त्यसंशा षत्वं प्रति नास्ति । इह च षण्ड इति प्रकृतिकार्ये ध्वादिसत्वं न भवति उक्तं च
३.माभ, २०, स.।
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महावृत्तिसहितम्
"क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव | विविधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥"
०२ पा ३ सू० १-४ ]
११६
तथा श्रनुकाभ्योऽपि प्रकृतिभ्यस्त्या भवन्ति । श्रण्डः । कुसृवृङ :- जरण्डः । करण्डः 1 सरण्डः । वरण्डः । आङि ईर्तेरपीष्यते । एरण्डः । श्रनुक्ता अपि त्या भवन्ति श्रफिङः फण्डः इत्येवमादिषु । तथा प्रतिकाले उणादयो विहिताः क्वचिद्भूतेऽपि दृश्यन्ते । कषितोऽसौ कषिः । ततोऽसौ तन्तिः । भक्षितं भस्म | चरितं चर्म । वृतं तदिति । "हुकं प्रकृतेस्तद्दष्टेः प्रायसमुच्चयनादाप तेषाम् । कार्यशेषविश्व तदुक्तं भवं हि साधु ॥" जात्यपेक्षयैकत्वं तनुदृष्टेरिति प्यखं कर्माणि का । तनुदृष्टि वीक्ष्य तनुदृष्टः प्रकृतस्तनोर्गुणस्य दर्शनादित्यर्थः । तदुबाहुक क्म् । एवं हि नैगमाः गौरित्येवमादयः रुदिभवाः पलाश इत्येवमादयः धग्दा सुसाधवो भवन्ति ।
इत्यभ्यनन्दिविरचितायां जैनेन्द्र महावृत्ती द्वितीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।
दिति || २|३|१|| उणादयो अन्यत्र च ये साधिता गम्यादयः शब्दास्ते च वत्स्यति काले साधवो भवन्ति । वस्र्त्यतीत्यनागतस्य कालस्य सामान्येन ग्रहणम् । संप्रत्यादिकाले तेषां साधुत्वच्यवच्छेदार्थ श्रारम्भः । गमिष्यति गमी ग्रामम् । श्रागमिष्यति आगमी नगरम् | "आधमण्यं चेन: ''; [ १४३७७] इति कर्मणि तायाः प्रतिषेधात् “रिपू" [४२] इतीचेव भर्वात । एवं भविष्यति भावी । प्रस्थास्यते प्रस्थायी । प्रतिभोत्स्यते प्रतिबोधी । प्रतियोच्यते प्रतियोगी | प्रयास्यति प्रयायी । "गमेशिन्" इति इन् । स एव "आफि faa" efà fun! "gard'ıqla vatufa fua | gràm: "gle gàsandt fort” [212184] तिम् । कथं श्वो गर्मी मामम् । "अनशने लुङ्' इति लुप्राप्तेः । तदसत् । यतो वश्यंतीत्यनेन सामान्यशब्दमानद्यत्तनविशेषोऽन्यत्र गृहीतो यथा गौरित्यनेन खण्डमुएडोऽपि । अतो वस्तीत्यविशेषेण वृत्तावप्यर्थ करणादेर्विशेषप्रतिपत्तिः । अथवा "अनद्यतने लुटू” [२|३|१४] इत्यत्र 'म्यादिस्यति" इत्येतदनुवर्तिष्यते । तेनानद्यतनविषयेऽपि गम्यादयः सिद्धा भवन्ति । श्रसमाद्वा अनद्यतने मवन्ति । लुडलुटावपि भक्तो गमिष्यति गन्तेति ।
पुरायातोर्लट् ||२||२|| पुरा च यावच्च पुरायावती । तयोः पुरायाच्छन्दयोर्वाचोति घोर्ल भत । पुरा । पुराधति । यावद्भुङ्कं । यावदधीते । भविष्यदनद्यतने लुटोऽयमपवादो लट् । लुपि लृङपथादः, तत्रापवादयोः स्पर्द्धं परत्वाल्लुट् प्रातः पूर्वनियेन लड् भवति । श्वः पुराऽधीते । श्वो यावदधीते । नदप्रतिपदोक्योः प्रतिपदोक्कस्यैव महण न तु लाक्षणिकस्येत्यभिधानात् । तेनेह न भवति । यावद्द / स्यति ताोच्यते । मद्दत्वा पुरा जेष्यति ।
या कार्योः ॥२२३॥३॥ कदा कहिं इत्येतयोर्वाचोर्यत्स्येति घोवां लड भवति । कदा भुङ्क्ते । कदा भोक्ष्यते । कदा भोक्ता | कर्हि भुक् । कहिँ भोक्ता |
किंवृत्ते लिप्सायाम् ॥२३४॥ किमो बर्तनं किंत्तं तस्मिन् वाचि लिप्सायां गम्यमानायां वत्स्य. त वा लड् भवति । लुटि लुटि च प्राप्ते श्रयमारम्भः । लब्धुमिच्छा लिखा प्रार्थनाभिलाषः । को भवद्भयो भिक्षां ददाति । को भवद्भयो भिन्नां दास्यति । को भयो भिक्षां दाता । इह कस्मान्न भवति । कदा भोजयिष्यसि भोजयितासिया । किमो हि विभक्त्यन्तस्य डतरडतमान्तस्य च वर्तनं किंवृत्तमिति वैयाकरणानामभिप्रायः । तचेह नास्ति व्रतोऽनलोऽभावात् लृङय वेव भवतः । लिप्सायामिति किम् ? कः पाटलिपुत्रं यास्यति !
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[म.२ पा० ३ ० ५."
हिप्स्यसि ॥वय॑तीत्यनुवर्तते । लिप्यति हि लिप्स्यो दाता मोदनादिश्च । तत्र दातरि तासः । लिप्स्यस्य सिद्धिः लिप्स्यसिद्धिः । याचकेन हि यो लिप्स्यते दाता तस्य सिदो स्वर्गादिफलप्राप्तौ। श्रोदनादौ तु भासः । याचकेन हि यो लिप्स्यते ओदनादिना करणभूतेन सिद्धिः दातुः स्वर्गादिफलप्राप्तिः तस्यां गम्यमानायां पद्मति वा लड् भवति । यो मवद्भयो भिक्षा ददाति दास्यति दाता वा स स्वर्गलोकं गच्छति गमिष्यति गन्ता वा। दानादातुः स्वर्गसिद्घि ब्रुवाणो दातारमेवमुत्सादयति । ननु चात्र उभयत्रापि लिप्माया गम्यमानत्वात् "हिने लिप्सायाम् [२] इत्येव लड्विकापसिद्धयर्थोऽयमारम्भः । न व्यर्थोऽकिंवृत्तार्थतादेतदारम्मस्य । पूर्वेण हि किंवृत्ते वाचि सविकल्पो विहितः ।
जोडणाक्षणे शशक्षा वरयंतीति वेति च वर्तते । लोउर्थः प्रेषादिः, स लक्ष्यतेऽनेन लोहयखवणम् , तस्मिन् लोडथलक्षणे ध्वर्थे वर्तमानात् धोवस्यति वा लइ भवति । उपाध्यायश्चेदागन्छति । उपाध्याय वेदागमिष्यति । उपाध्यायवेदागन्ता । अथ त्वं तर्कमधीष्व अय गणितमधीष्व । अत्रोपाध्यायागमनेन प्रेषो लक्ष्यते ।
लियो मौहर्ति के ॥२॥३७॥ वेति वर्तते । लोडर्थलक्षण इति | ऊचे मुहूर्ताद्भवः काल अर्ध्वमौहर्तिकः । निपातनात्सविधिरुत्तरपदस्यैप् । ऊर्ध्वमौहर्तिके पति काले लोडशक्षणे वर्तमानादोर्लिङ् भवति लड् वा । ऊ मुहूर्तादुपाध्यायश्चेदागच्छेत् उपाध्यायश्चेदागच्छति उपाध्यायश्चेदागमिष्यवि उपाध्यायश्चेदागन्ता अथ त्वं वर्षमधीष्व अथ त्वं गरियतमधीष्य ।
पुणतुमौ क्रियायो तदर्थायाम् ।।२।३२८॥ वयतीत्येव वर्तते । यस्माटोल्योत्पत्तिः प्रार्यते तद्वाच्य. किया तच्चम्देनाभिप्रेता सा किया अर्थः प्रयोजनं यस्या वजनादिक्रियायाः सा तदर्था, तस्यां वाचि वय॑तिकाले बुणतुमौ भवतः | कारको व्रजति | कर्तुं प्रजति । भोजको प्रबति । भोक्ल द्रति | क्रियायामिति किम् ? मिदिष्ये इत्यस्य जटाः अध्येष्ये इत्यस्य कमण्डलुः । द्रव्यमत्र तदर्थम् । तदर्थायामिति किम् । धाक्तस्ते पतिष्यति दण्डः । नात्र घायनं दण्डपतनार्थम् । ननु सामान्यविहितेन एखना सि किमर्थं वुश्विधीयते मिकतो भावे भवन्तीति भिन्नविषयत्वात्तुमपि न बाधकः | क्रियायां वदायां वापि लइ वक्ष्यते स बाधकः स्यात् । याऽसमविधिना एवर्मविष्यतीति चेत् एवं तर्हि नियमार्य पुरवचनम् । वय॑ति क्रियायां तदर्याय वाचि वुणेव यथा स्यात् तृादयो मा भूवन् इति । कर्ता प्रजति विकिये ब्रजति इत्येवमादि न भवति ।
भाषवाचिनः ॥२॥३६॥ भावयाचिनो घनादयस्ते बर्त्यति काले क्रियायां तदर्यायां वाचि भवन्ति । यद्यपि सामान्येन विहिता घमादयस्तथापि बुणग्रहणं शापमुक्तम् समान्यविहितास्त्या वस्य॑ति काले क्रियाया तदर्थायां न भवन्तीति तुमा च बाध्पेरन् । तेनायं यत्नः । पाकाय नजति । त्यागाय ब्रवति । मतये व्रजति । पुष्टये अति । "तुमोद भाषे"r R५] इत्यप् । भार इति विशेषणेन | वाचि ग्रहणं किमर्थम् । यनभ्यः प्रकृतिभ्यो येन विशेषणेन त्या विहितास्ताम्या प्रकृतिभ्यस्तैन विशेषणेन कियायो तदर्या वाचि यथा स्युरित्येवमर्थम् ।
कर्मणि पाण् ।।२।३।१०॥ कर्मणि याचि तदर्यायां च क्रियायामय् भवति । पूर्वेण बुण्प्राप्तः । वाऽसमविषिश्च नास्तीत्युक्तम् । श्रण न स्यात् तेनायमारम्मः। कुम्भकारो अति । काण्डलावो वति । वाचिरहरणानुवृत्तेर्यथाविहितमण् भवति इति कर्मण्येव वाचि भविष्यति । कर्मग्रहण किमर्थम् १ अपवादविषयेऽ पि यथा स्यादित्येवमयम् । गोदायो प्रजति । वृषपायो बजति । क्रियायां तदर्यायामनुवर्तते । चकारः किमर्थः १ केवले कर्मणि केवलायां च क्रियायां वाचि मा भृत् । प्रत्येकमीपणा निर्देशान् वाक्सः ।
लट् ॥२३१॥ तृड् भवति क्रियायां तदर्थायां वाचि । करिष्यामीति व्रजति । हरिण्यामीति बमति । उदाहरणे इतिशब्दो हेतुतिमन्नावद्योतनार्थः।
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म. २ पा० ३ सू० १२.२० ] महावृत्तिसहितम्
१२१ शेषे ॥२॥३॥१२॥ उनादन्यः शेषः; शुई वय॑त् कालमात्रम्. शेषे वय॑ति लुट् मवति । करिष्यति । हरिष्यति ।
विभाषा लटः सत् ॥२॥३॥१३॥ वर्त्यति लुट् तस्य स्थाने सत्संजौ शतृशानौ विभाषया भवतः । पक्ष्यन्तं पश्य । पक्ष्यमाणं पश्य । पक्ष्यता कृतम् । पक्ष्यमाणेन कृतम् । हे पक्ष्यन् । हे पक्ष्यमाण । श्रयिष्यन् वसति । अध्येष्यमाण नास्ते । देवदतः पच्यन पदयति वा पत्यमाः पच्यते वा । व्यवस्थितरिभाषेयम् । तेन हयादिमियोंगे सम्बोधने लक्षणहेत्वोः क्रियायामित्यत्र नित्यो विधिः । वान्तवार्यत्वे विकल्पः । निशब्दयोगे तु न भवति । करिष्यामीति ब्रजति । हरिष्यामीति व जति । लमहणं किम् ? त्यान्तरत्वं मा विज्ञायि ।
अनद्यतने लुट ॥२॥३॥१४॥ वय॑तीति घर्तते । यय॑त्यनद्यतने ध्वये वर्तमानादोलुइ भवति । श्वः कर्ता । श्वोऽध्येता । अनद्यतन इति वसनिर्देशाद्य श्वो भोक्ष्यामद्दे इत्यत्र न भवति । विभाषानुवर्तनात् परिदेवने लुपिटेऽपि लुट् भवति । इयन्तु कदा गन्ता एवं निदधती पादौ । अयं तु कदाध्येता एवमनभियुक्तः ।
पदरुजविशस्पृशो घन ॥२॥३॥१५॥ पद सज विश स्पृश इत्येतेभ्यो पत्र भवति । पद्यतेऽसौ पादः । रातृचोरयमपवादो न पचायचः "सुस्मितं पदम्" [१।२।१०३] इति पदनिर्देशात् । मजस्यसौ रोगः । विशत्यसौ वेशः । इगुइतक्षणस्यापवादः । स्पृश उपतापेऽभिघातम् । स्पृशतीति स्पर्शा रोगः । उपतापादन्यत्र स्पष्य । स्पर्शकः।
सू स्थिरे ॥२३॥१६॥ सरतेः स्थिरे कर्तरि घन भवति । कालान्तरं सरतीति सारः। मधूकसारः । विभाषानुवर्वनात् स्थिरश्याधिमत्स्यनलेवभिधानम् । अतीसारो व्याधिः । विसारो मत्स्यः । सारो बलम् । एतेष्विति किम् १ सर्ता । सारकः।
भावे ॥२॥३॥१७॥ भाने धोधन भवति । भाव इति क्रिमासामान्य वर्थः । राद्यद्यपि पूर्शपरीभृतम परिनिष्पन्नमलिङ्गसंख्यं प्रकृत्यैवोच्यते, तथापि यस्लासिद्धताधर्मः स लिङ्गसंख्यावानिति तत्र घञादयः । पाकः । त्यागः । रागः।
अकतरि ॥२॥३॥१८॥ कर्तुरन्यस्मिन् कारके घा भवति । नियुक्तमिवयुक्तं वा यत्कार्य संप्रतीयते । तुल्याधिकरणेऽग्यस्मिन् लोकेऽप्यसिस्तयः "
प्रास्यन्ति तं प्रासः । प्रसीव्यन्ति तं प्रसेवः । श्राहरन्ति सरसादाहारः। 'संशावामसंशायामाप दृश्यचे । को भवता दायो दत्तः । को भवता लामो लब्धः । वर्तव्यः कटः इत्येवमादिषु अनभिधानात् भवति |
परिमाणाख्यायां सर्षेभ्यः २३॥१६॥ श्राख्याग्रहणात्परिमाणमिह संख्यादिकं गृह्यते । परिमाणस्याख्यायां गन्यमानायां सर्वेभ्यो घा भवति । एकस्तण्डुलानचायः 1 एकस्तण्डुलावचायः। द्वौ केदारलावो । दो बीचकारौ । “प्रहगमोऽच" [२।३।१२] इति अचि प्राप्त इदम् । परिमाणारख्यायामिति किम् । निश्चयः । सर्वप्रहणं बाधक्याधनार्थम् | एफस्तुणनिधासः। अन्यथा पुरस्तादपवादोऽयमिति अनन्तरमेवाचं पाध्येत न व्यवहितम् । नौ णश्चेति गम् । धभि घस्नुभावः सिद्धः । पहाकरीतोवाभिसंबध्यते । स्त्रीलिङ्ग मावे घनमा भवेत् । एका तिलोमिछुतिः । द्वे श्रुती । सर्वग्रहणं बाधकबाधनार्थमुक्त क्तिरपि बाध्येत ।
२०॥ इत उत्तर भाये अकर्तरीति च वर्तते । इङइच धोर्घम् भवति । अधीरते इत्यध्यायः । उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः । अपादाने यो घ तदन्तादा कीर्वक्लन्यः । उपाध्यायी | उपा.
१. प्रायेण संज्ञाया-१०।२ -रतन्धुलनिश्वायः ब०, स० । ३. छावक्षम्या ब०, ब., म.)
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१२२
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ ० २१-३५ घ्याया 1 वृद्धकुमारीयरवाक्यन्यायेनास्मिन्विषये क्तिमपि धन बाधते । "ऋणाते युवर्णयोर्धक् धक्तम्यः" [वा.] शाये वायुः । शारो घणः ।
गौ रुवः ॥२॥३॥२१॥ गिसंज्ञे घाचि रौतेन भवति । विरावः । संरायः । प्रचोऽपवादोऽयम् । माविति किम् । रयः ।
समि युद्र दुवः ॥२॥२२॥ संपूर्वेभ्यः यु तु दु इत्येवेभ्यो घञ् भवति । संयाव । संद्रावः : संदावः । समीति किम् ? यवः ।
यशे स्तुवः ॥२२२३॥ समोति वर्तते । सम्पूर्वात् स्तोते भवति यज्ञविषये। समेत्य स्तुवन्ति अस्मिन्निति संस्तावः छन्दोगानम् । वश इति किम् ? सो संस्तवः ।
त्रिणीभुषोऽगौ ॥२३॥२४॥ अगिपूर्वेभ्यः श्री णी भू इत्येतेभ्यो न भवति । शायः । नायः। भावः । श्रगाविति किम् ? प्रश्नयः । प्रभवः । कथं प्रभावो धर्मस्य । प्रकृष्टी भावः प्रभावः इति प्रादिसः । कथं षाडगुण्यस्य ययावत्प्रयोगों यथावत्प्रयोगो नयः "पुंस्त्रौघः प्रायेण [२।३।१००] इति करणे घो द्रव्यः ।
नियोऽवोदोः ॥२३२२५॥ अव उट् इत्येतयोर्वाचोर्नयतेत्र, भवति । अवनाशः । उन्नायः । फयमुनयः । शब्दानां पूर्ववत्करणे यो विधेयः ।
निरभ्योः पूल्योः ॥२३॥२६॥ मिस् अभि इत्येवंपूर्वाभ्यां पू लू इत्येताभ्यां यथासंख्यं घा. भवति । पू इति सामान्थेन ग्रहणम् । निष्पावः । अभिलावः । निरभ्योरिति किम् ? पवः । लवः |
उन्न्योनः ॥२२२७॥ उद् नि इत्येवपूर्वात् गृ इत्येतस्मात् षा भवति । ग इति सामान्येन ग्रहणम् । उद्गारः । निगारः।
फ धान्ये ॥२।३।२८॥ उन्न्योरिति वर्तते । कृ इत्येतस्माद्धोनिपूर्वात् घन् भवति धान्यविषये । उत्कारो धान्यत्य | निकारों धान्यस्य । धान्य इति किम् ? पुष्पोत्करः । पुष्पनिकरः ।
मेंद्रस्त भ्रवः ॥२।३।२६॥ प्रशब्दे बाचि छ स्तु श्रु इत्येतेभ्यो घम् भवति । प्रद्राकः । प्रस्तावः । प्रभावः । प्र इति किम् ! द्रवः।
स्त्रोऽयशे ॥२३॥३०॥ न इति वर्तते । प्रपूर्वात् स्तू इत्येतस्मात् घञ् भवति अयऋविषये । शश प्रस्तारः । मणिप्रस्तार। ऋगारान्तवादभि (चि) प्राप्ते इदम् । अयश इति किम् । यहि प्रस्तरः । "इदुवुहोऽ स्यपुग्मुहुसः'' [शाम] इति षत्वम् ।
प्रथने पाचशब्दे ॥२३॥३१॥ प्रथनं विस्तीर्णता । विपूर्वात्स्तु इत्येतस्मात् घन भवति अशब्दविषये प्रयने । पटस्य विस्तारः । गृहस्य विस्तारः । प्रथन इति किम् १ तृगाविस्तरः । अशब्द इति किम् ! वाक्यचित्तरः ।
छन्दः खो ॥२३॥३२॥ छन्दः पद्ये वर्णविन्यासः । छन्दःसंज्ञायां च विपूर्वात् स्तृण्याते: घन भवति । विटारस पंक्तिच्छन्दः । विष्टारो वृहतीछन्दः । पखप्रकरणे विष्टार इति निपालनादव सिद्ध छन्दःसंज्ञाशापनार्थमिदम् ।
नुश्रुवः ॥२॥३॥३३॥ वाविति वर्तते । तु श्रु इत्येताभ्यां विपूर्वाभ्यां धन भवति । विक्षायः 1 विश्रावः । बावित्येव । क्षयः । श्रयः ।
उदि ग्रहः ॥३।३४|| उत्पूर्वाद् अहेर्धन भवति । उदाहः । श्रचोऽपवादोऽयम् ।
समि मुष्टौ ॥२॥१२॥ संपूर्वाद् अहेर्षत्र भवति मुष्टिविषये 1 शाकमुष्टयादौ परिमाणवचनो मुष्टिशब्दः । तत्र परिमाणास्थायामित्येव सिद्धं ततोऽन्यदुदाहरणम् । अहो मल्लस्य संग्राहः | अहो मौष्टिकस्य संग्राहः । मुस्टेय मित्यर्थः । मुष्टाविति किम् १ संग्रहः शास्त्रस्य ।
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०२ पा० ३ सू० २६-४७]
महावृत्तिसहितम्
न्यायपरिणाय पर्यायः ||२| ३|३|| न्यायादयः शब्दाः निपात्यन्ते । निपूर्वादिण: अ निपात्यते । भ्रेषयुक्तकरणमकुत्सा वा । एषोऽत्र न्यायः । भ्रेष इति किम् ? न्ययं गतश्चौरः । परिपूर्वात् नयतेविषये निपात्यते । परिणयेन सारान् इन्ति । नृतविषयादन्यत्र परिणयः परिपूर्वादिणः अनुपात्यये गम्यमाने घञ निपात्यते । श्रनुपात्ययः क्रमप्राप्तस्थानतिवृत्तिः । तव पर्यायो भोक्तम् । मम पर्यायो भोक्तुम् | नुपात्यय इति किम् ? स्वाध्यायकालस्य पर्य्ययः । श्रतिक्रम इत्यर्थः ।
व्युपे शीोऽन्ये ॥२|३|३७|| अन्य इति पूर्वसूत्रे विन्यासापेक्षया पर्यायोऽभिप्रेतः । वि उप इत्येतयोर्वाचोः शीङ न भवति पर्याये गये । तव विशायो मम विशायः । तव राजोपशायः । मम राजोप शायः । राजानमुपशायवितुमवसर इत्यर्थः । अन्त्य इति किम् ! विशयः । उपशमः ।
१२३
हस्तादाने चेरस्तेये || २|३ | १८ || इस्तादाने गम्यमाने चिनीतेभंग भवति न चेल्स्तेयं भवति । पुष्पप्रचायः । फलप्रचायः । हस्तादानशब्देन निकटसा गुच्छ देणं लक्ष्यते । हस्तादान इति किम् ! पुष्पप्रन्वयः । श्रस्तेय इति किम् ! पुष्पप्रचयं करोति चौर्येगा ।
I
निवास चितिशरोरोप समाधाने चः कः॥२|३|३६|| चेरिति वर्तते । निवास चिति शरीर उपसमाधान इत्येतेष्वर्थेषु चिनोतेर्धन भवति चकारस्य च ककारः । निवासे - साधुनिकायः । उत्कृष्टनिकायः । अधिकरणे घञ् । चीयतेऽसो चितिः । यज्ञे श्रग्निविशेषः । श्रकायमग्निं चिन्वीत । शरीरे चोयते इति कायः । उपसमाधानमुपर्युपरि राशीकरणम् महान् गोमयनिकायः । नृपपरीति विशेषादिह न भवति । महान् काष्ठनिचयः । एतेष्विति किम् ? वेयः ।
I
I
संघेऽनूर्ध्वं ॥२३॥४०॥ धः प्राणिविशेषसमुदायः । अनूसंधे वाच्ये चिनो भवति चकारस्य चकत्वम् | निचीयते इति निकायः । साधुनिकायः । पण्डित निकायः । प्राणिविशेषत्य सङ्घस्य ग्रहणादिह न भवति । काष्ठचयः । पदसमुच्चयः । विशेषप्रय किम् । प्राणिसमुच्चयः । सामान्येन समुदायोऽयम् । श्रनूर्ध्व इति किम् ? उपर्युपरि सूकरमिचयः ।
Artist: ॥ २/३/४१ ॥ श्रक्रोशः शपनम् । अवनि इत्येतयोर्वाचो हेर्घञ भवति आक्रोशे गम्ये । श्रवमाशे इ ते वृषल भूयात् । निप्राहो छ ते वृषल भूयात् । आक्रोश इति किम् ? अमहः पदस्य | निप्रो दुष्टस्य
लिप्सायाम् ॥ २२३/४२|| प्रशब्दे वाचि लिप्सायां गम्यमानायां ग्रहेन भवति । प्रप्राहेण चरति भिक्षुः | पात्रं प्रगृह्य अनंलिप्सुभ्रंमतीत्यर्थः । लिसायामिति किम् । प्रमो देवदत्तस्य राशा ।
भवति यशविषये । उत्तरः परिग्राहः । यश इति किम् ?
परौ य || २|३||४३|| परिपूर्वाद्
परमो देवदत्तस्य ।
नौ दुर्धान्ये || ६ | ३ | ४४|| निशब्दे वाचि वू इत्येतस्मात् घञ भवति धान्यविशेषे वाच्ये । इति शृङ्वोर्ग्रहणम् । नीवारा नाम त्रीयो भवन्ति । धान्य इति किम् ? नित्रियत इति निवरा कन्या |
उषि पूतिभिः ॥२/२४४५|| उत्पूबैभ्यः पू ४ यौति श्रिम इत्येतेभ्यो घञ् भवति । उत्पावः । उद्रायः । उयावः । उच्छ्रायः ।
वाङि रुप्लुषोः ||२|३|४६ ॥ श्राङपूर्वाभ्यां तु इत्येताभ्यां वा घञ भवति । श्रवः श्रारवः । “गौरुवः'' [ ३२१ ] इति नित्यं घञ् प्राप्तः । श्रावः ॥ श्राह्मवः ॥
मोऽवे प्रतिवन्धे ||२||४७ ॥ वेति वर्त्तते । श्रवशब्दे वाचि अहेव पञ भवति वर्षप्रतिबन्धे वाच्ये । श्रवमाहो देवस्य । श्रमो देवल्स । वर्षप्रतिबन्ध इति किम् ? अथमः पदस्य !
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१२४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[भ. २ पा-३ पू. ४-५६
नेणिजात मानपत : प्रासंनि गई व भावि समुदायेनाभिधेयं वणियां सम्बन्धि चेद्वति । तुलाप्रमाहेण चरति । तुलाप्रग्रहेण चरति । तुलासूत्रं गृहीत्वा वणिक चेष्टते इत्यर्थः । वणिजममिति किम् ? प्रग्रहो देवदत्तस्य ।
रश्मौ ॥२॥३॥४६॥ प्र इति वेति च वर्तते । इह रश्मिशब्देन अश्वादिसंयमनरञ्जुरेव गृह्यते । प्रशन्दे बाचि अहेर्या धम भवति समुदायेन रश्मावभिधेवायाम् । प्रगृह्यते इति प्रमाहः । प्रग्रहः ।
आच्छादने वृमः ॥२१५०॥ वेति वर्तते प्र इति च । प्रपूर्वाव णोतेर्वा घन भवति प्राच्छादनविशेषे वाच्ये । प्रशोति तं प्राचारः । प्रवरः । आच्छादन इति किम् ? प्रवरः ।
परौ भुवोऽक्शाने ॥३५१॥ ति वर्तते । अवशानमवक्षेपः परिपूर्वाद् इत्येतस्माता पत्र भवति अवज्ञाने वाच्ये । परिभावः । परिभवः । श्रवज्ञान इति किम् । सर्वतो भवः परिभवः।
स्वग्रहपृहगमोऽच ॥२।३।१२|| भावे अकर्तरीत्येवानुवर्तते । इवर्णान्तात् उवर्णान्तात् ऋणान्तात् ग्रह वृद गमि इत्येतेभ्यः बाजित्ययं त्यो भवति । घोऽपवादोऽयम् | चयः । जयः । श्यः । रवः | लवः । करः । गरः । शरः। ग्रहः । वरः। श्रादरः। गमः । चकारः "यजोऽयचो; [ २] इत्यत्र विशेषणार्थः । “अग्निधौ भयादीनामुपसंख्यानं नपुंसके काविनिवृत्त्यर्थम्" [षाJ भयम् । वर्षम् | "रविषशिभ्यामप्रवक्तव्यः" [घा०] रणः । वशः । " कविधानं स्थास्नापाम्यधिहनियुभ्यर्थं कर्तव्यम्' [दा.]
छतेऽस्मिन प्रस्थः । प्रस्नात्यस्मिन् प्रतः। प्रपिनन्यस्यां प्रपा । श्राविध्यन्त्यनेन श्राविधम् । विहन्यते ऽनेनास्मिन्बा विघ्नः । श्रायुध्यन्तेऽनेनेति आयुधम् ।
गावदः ॥२॥३॥५३॥ गिपूर्वाद् श्रादेरज् भवति । प्रादनं प्रघसः । विधसः । संघसः । "घस्वधनसनक्षु" [11111] इति अदेरशादेशः । गाविति किम् ? वासः । अस्मिन् प्रकरणे यत्रेपा गिनिर्दिश्यते तत्र वाग्माएः प्रादिलक्षणो वा सविधिः ।
नौ गश्च ॥२२३५४॥ निपूर्वांददेणों भवति श्रञ्च । न्यादः । निघसः ।
पण: परिमाणे ॥२॥३॥५५॥ पणेपनि यो वा नास्ति विशेषः इत्यारम्भसामर्थ्यांदच एवानुवृत्तिः । पणः परिमाणे गम्यमाने अत् भवति । पण्यत इति पणः मूलरूपणः । शाकपण । 'परिमाणाख्यायां सर्वभ्यः' [२०१६] इति घन प्राप्तः । परिमाण इति किम् १ पाणः ।
पशुष्वजः समुदोः ॥२।३५६|| सम उद् इत्येतयोर्वाचोरजेपोरन भवति पशुविधये । समनः । पशूनां समुदाय इत्यर्थः । उद्जः । पशुनाममुच्यालनमित्यर्थः । 'पशुश्विति किम् १ समाज Bाधूनाम् । उदाज: शकुनीनाम् | "जोः कुधिपण्यतोस्तेऽनिट:' [५।२।१६] कुत्वं विधीयते अजेस्तु बीभावेन भवितव्यमित्यसत्वाद् विशेषणं नास्तीति कृत्यं न भवति ।
ग्लहोऽक्षे ।।२।३।५७॥ म्लह ग्रहणे इत्यस्मादज भवति अक्षविषये । प्रक्षेषु ग्लहः | अक्ष इवि किम् ! ग्लाहः ।
प्रजने सुः ।।२।३१५८ प्रजनी गर्भाधानम् । प्रजनविषये स्. हत्येतस्मादज् भवति । गवामुपसरः ! गर्भाधानाय स्त्रीगवीधु घृषाणामुपसरणमित्यर्थः। एवं पशूनामुपसरः । प्रजन इति किम् ? उपसारो भूत्यै राज्ञाम् ।
को जिश्च न्यभ्युपविषु ।।२।३१५२| नि अभि उप वि इत्येतेषु बाच हूयतेजर्भवत्यश । निवः । अभिवः । उपत्यः । विहकः । हुरादेशो वतन्य इति चेत् इह निजोहवः इति यबन्तस्य सचस्य प्रसज्येत । पतेष्विति किम् । सहायः।
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१०.३ पा० ३ सू० ६०-६६] महावृतिसहितम्
१२५ आङपाचौ ॥२३॥६०॥ श्राजिः संग्रामः | अाइपर्धान हूयते श्राजाभिधेयायां निर्भक्त्यश्च । आहूयन्तेऽस्मिनिति श्राइवः । श्राजाविति किम् ? अाशायः ।
निपानमाहावः ||६|| निपिनन्न्यस्मिन्निति निमान जलस्थानम् । श्राहाव इति निपात्यते निपानं चेन्द्रवति । आपुर्वस्य हयतेरधिकरणे घन निपात्यते । अाहूयन्तेऽस्मिन्निति श्राहावः शकुनीनाम् । निपानमिति किम् ! नालायः ]
भावेऽगौ ||२१३।६२॥ अगिपूर्वस्य प्रयतेमांवे जिर्भवत्यच्च । ह्वानं हवः । अगाविति किम् ? श्राहायो वर्तते । कर्तरीत्यस्यानुप्रवेशो मा भूदिति पुनर्भावग्रहणम् ।
इनश्च वधः।।२।३।६। इन्तेरगिपूर्वस्य भावे वधादेशो भवत्यच्च । हननं वधः । चकारो घण समु. वयार्थः । घातो वर्तते ।
व्यधमदजपोऽगौ ।।२।३२६४॥ अगाविति वर्तमाने पुनरगिग्रहणं भावनिवृत्त्यर्थम् । तेन भाने अकतरीति द्वयं संवध्यते | अगिपूर्वेभ्यो व्यध मद अप इत्येतेभ्यः अज् भवति । व्यधः । मदः । अगाविति किम् ? प्रव्याधः । उन्मादः । उपजापः ।
स्वनहसोर्या ॥२३॥६५॥ अगाविति वर्तते । अगिपूर्वाभ्यां स्त्रन हस इत्येताभ्यामज. भवति वा । स्वनः । स्वानः । हसः । हासः | अमावित्येत्र । प्रस्वानः । प्रहासः ।
यमः सन्निव्युपे च ॥२॥२६६|| यमेधोंः सम् नि वि उप इत्येतेषु वाक्ष अगौ च अज भवति । येति वर्तते । संयमः । संयामः | नियमः। नियामः । वियमः । विवामः । उपयमः। उपयामः | अगोयमः । यामः।
नौ गदनपठस्वनः ॥२॥३॥७॥ वेति वर्तते । निपूर्वेभ्यः गद नद पठ स्वन इत्येतेभ्यो वा अज भवति । निगदः । निगादः । निनदः । निनादः । निफ्ठः । निपाठः । निस्वनः । निस्वानः ।
क्वणो वीणायां च ॥२।३६८॥ नौ था अगाविति त्रयं वर्तते । कोः निपूर्वादगिपूर्वाञ्च प्रवीणायां वीणायां च विषये अज भवति । निकणः । निकाणः। अगौ-क्वणः। काणः। बोयाग्रहण गावपि प्रापणार्थम् | कल्याणप्रकणा वीणा | कल्याणप्रकाणा वीणा | एतेष्यिति किम् ? अतिकाणः ।।
घनान्तर्घणप्रघणप्रघाणोखनापघनायोप्रमविघनद्रघणस्तम्बध्नस्तम्बधनपरिघोक्नसंघोनिधप्रमदसम्भदाः ॥राश६६॥ घनादयः शब्दा निपात्यन्ते । इन्तेरच् धनभावश्च मूर्तावभिधेया निपात्यते। मूर्तिः काठिन्यम् । श्रभ्रघनः । दधिधनः | कर्मणि घनं दधीति भवति । अन्तःशब्दपूर्वस्य हन्तेरधिकरणे घनभावोऽच निपात्यते देशाभिधाने । अन्तईन्यतेऽस्मिनिति अन्तर्षणो वाहीकेषु देशविशेषः । फेचिसकारं पठन्ति । अन्तर्घातोऽन्यः । प्रपूर्वस्व दन्तः अचि पनि च धनभानो निपात्यते अगारैकदेशेऽभिधेये । प्रवणः । प्रघाणः। गृहबारदेश इत्यर्थः । प्रपातोऽन्यः । उत्पूर्वस्य हन्तेरधिकरणे घनभावोऽच निपात्यते अत्याधानं चेद्रवति । अत्याधीयतेऽस्मिन्नित्याधानम् । यत्र काष्ठानि लोहानि चाहन्यन्ते तदुभ्यते । ऊर्च हन्यतेऽस्मिनुधनः। उद्घातोऽन्यः । अपघन हति निपात्यते अङ्गं चेद्भवति । अपघातोऽन्यः । अयोधनः । त्रुघए स्तम्बध्ना स्तम्बधनः परिघ इत्येते करणे कारके अजन्ता निपात्यन्ते । द्रुघणे केचिन्नकार पठन्ति । स्तम्बध्ने कमा निपात्यते । परिपूर्वस्य हन्तेघभावश्च निपात्यः । उपपूर्वात् इन्तेराश्रयेऽभिधेये को निपात्यते । गुरूपन्नः । पर्वतोपनः । उपधातोऽन्यः । सम्पूर्वस्य हन्तेधभावोऽच निपात्यते गणश्चेति । गणः प्राशिसमुदाय एव | पशूनां संघः । अन्यत्र संघातः । उत्पूर्वस्य हन्ते देशोऽच्च निपात्यते प्रशंसाशम् । उद्धो मनुष्यः । उदाताऽन्यः। निध इति निपात्यते निमित्तेऽर्थे । संमतादारीहपरिणादाम्यां मितंतुल्यनिमित्तम् । निधाः शालयः । निघातोऽन्यः । प्रमदसमदी इर्षेऽभिधेय । अन्यत्र प्रमादः । सम्मादः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० २ पा० ३ सू* ७०-७१
वितः त्रिः || २ | ३ |७० ॥ डुशब्देतो घोः क्त्रित्यो भवति । भावे कर्तरीति वर्तते । डुपचधूपवित्रमम् | "भावादिमः " [३|३ | १४३], "ब्र े:' [३|२| १४४ ] इति इमः । त्र्यन्तस्य केवलस्य प्रयोगो नास्तीत्यस्वपदेनार्थकथनम् | पाकेन निर्वृत्तमिति । एवं दुबपू उत्रिमम् | दया याचित्रिमम्, 1
वितोऽथुः ॥२३ / ७२ ॥ दुराब्देतो घोरथुस्त्यो भवति । टुवेष्ट वेपथुः । श्रश्विश्वयथुः 1 टुक्षु
क्षवथुः ।
१२६
यजयाचयतविरुद्ध प्रच्छुरतस्थपो न ||२||७|| यमादिभ्यो न भवति । भावे प्रकर्तरीति बर्तते । यज्ञः । “स्तो श्चुना शत्रु : " [ ५|४|११६ ] इति चुत्वम् । याच्या लिङ्गं सोकवशात् । यत्नः । विश्नः | नङ डिस्करणप्रतिषेधार्थं शापर्क प्रागेव तुकः | "को: शूड् (के) च" [४|४|१७ ] इति शत्वम् । प्रश्नः । "प्रश्ने चान्तयेंगे” [२२२११७] इति निर्देशाजिर्न भवति । रणः । " टुना : " [२/४/१९० ] इति
दुत्वम् । स्वप्नः ।
गौ भोः कः || २|३|७३ ॥ गौ वाचि संज्ञकेन्यो धुभ्यः कर्मति भावे कर्तरीतिवर्तते । प्रादीयते श्रस्मात् प्रादिः । निधीयतेऽसौ निधिः । संधानं संधिः ।
1
कारधिकरणे "
धीयते अस्मिन् जलधिः । वालधिः । श्रधिकरणग्रहणं कारकान्तरनिम् ।
वर्गकि कवि धि कारके भुसंज्ञकेभ्यः क्रिर्भवति । जलं
स्त्रियां कः ||२||३|०॥ भावे कर्तरीति वर्तते । स्त्रीलिङ्गे षोः क्विर्भवति । घञचोरपवादोऽयम् । कृतिः । सृष्टिः । संपत्तिः । "संपदादिभ्यः त्रिपि वक्तव्यः " [ वा० ] संपत् । विपत् । लाज्याहास्यो मि स्त्रियाँ वक्तव्यः " [वा०] ग्लानिः । ज्यानिः । हानिः । "ऋकारान्तश्वादिभ्यः क्रिस्ववद्भवतीति वचयम्" [बा०] क्रीणिः । गीर्थिः । लूनिः । पूनिः । इत उत्तरः स्त्रियामित्यधिकारः ।
कर्मव्यतिहारे नः || २|३|७६ ॥ इद्द कर्मव्यतिहारः क्रियाव्यतिहारो गृह्यते धोरधिकारात् । कर्मव्यतिहारे गम्यमाने घोर्ञ इत्ययं त्यो भवति स्त्रियाम् । परस्परस्य व्याक्रोशनं व्याक्रोशी "आत् स्त्रियाम्" [४/२/२५] इति स्वार्थकोऽय् । “कृद्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्थापि" [परि०] सतिकाद्भवति । एवं ब्यावलेखो व्यवहारी वर्तते । स्त्रियामित्येव । व्यतिपाको वर्तते । "मध्येऽपवादः पूर्वान् विधीन्याधन्से नोत्तरान् " [ परि० ] इति "खियां ति:" [२१३७५] इत्यस्यैव बाघको न "सरोहेकः " [२३८५] इति श्रव्यस्य । व्यतीक्षा व्यवहा वर्तते । कथं व्यात्युक्षी । “युष्व म्या बहुलम् [२२३|१४] हात बहुलवचनात् । व्यात्रु ष्टिरित्येवमादिषु विरपि ।
ऐः ॥२३॥७७॥ एयन्ताच्च कर्मव्यतिहारे जो भवति । अस्य बाधके शुचि प्रातेऽयमारम्भः । व्याव चोरी व्याच वर्तते ।
युतिजूतिसातिदेविकीर्तयः || २|३|७८ ॥ यूत्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । योतित्रत्योर्दीत्वं निपात्यते । यूतिः । जूतिः । स्वतेः सुनोतेर्वा सालिः । इत्वाभावः श्रालं च निपात्यते । दिनोतेर्हन्तेर्वा हे वः । कीर्तयतेः युचि प्राप्ते कीर्तिः ।
स्थागापापचो भाधे || २ | ३ ३७९ || स्था गा पा पच् इत्येतेभ्यः स्त्रीलिङ्गे भावे क्रिर्भवति । मावमहणमकर्तरीत्या निरासार्थम् । प्रस्थितिः । संस्थितिः । गा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । उपतिः । उद्गीतिः । पित्रतेः
१. आदीयतेऽस्मादादिः का० स० २ स्पष्टः य० । ३ व्यापलेखी भ०, ब०, स० । ४. उपापहारी अ, य०, स० । ५. आपयोरी अ, ब० स० । ६ व्यापचर्चा अ०
०, ० ।
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१० ९ पा० . ०७३-६६] महात्तिसहितम्
१२७ प्रपीतिः । निपीतिः । पक्तिः । "मातो गौ" [२11110] इति "षिदः" [
२ ६] इति च श्रङ् प्राप्तः तद्धाधनार्थमिदम् । गणे "यवस्थायामसंज्ञायाम्। इति निर्देशाङपि भवति । संस्था । "पजोपिस्तुभ्यः स्त्रिया करणे युवाधनार्थ फिवक्तव्यः" [वा० ] भूयतेऽनयेति श्रुतिः । इष्टिः । स्तुतिः ।
प्रजयजा फ्यप् ॥३०॥ भाव इति वर्तते । ग्रज यज इत्येताम्यां स्त्रीलिझं मावे क्यप् | मण्या। मत्रज्या । इज्या । पिस्करणमुत्तरार्थम् ।
समजनिषदानपदमनविदधुशी भूमिणः खो ॥२३॥१॥भाव एवेति निवृत्तम् | द्वयमनुवर्तते । समजादिभ्यः लियां क्यप् भवति नुविषये । समजन्ति अस्या समस्या । क्यपि यीभाव. कस्मान्न भवति । "बहुलं खौ" [ २६] इति वत्रापेक्ष्यते 1 निषीदन्ति अस्यां निघद्या । निपद्मन्तै अत्यां निपया । केचित्पदिस्थाने पतिं पठन्ति । मन्यते अनथा मन्या । विद्यते अनया विद्या । सुनोति तस्यां सुत्या । शेते अस्यां शय्या । भरणं भृत्या । भाव पवाभिधानं करणे वा । इत्या । कथं भार्या कर्मणि भविष्यति १ अथवा "सृज्यानाई" [२१] इत्येवमादिषु विशेषेण विधानात् । व्यसजानामिमे स्त्रीत्या न बाधकाः । माउबुद्धिपूजार्थाच' [शश६६] "कर्मणि भूतो" [२१२१२७] "रजःकृष्यासुतिपरिषदो चल." [१३] इति शापकात् कचित् विरपि भवति । मतिः । वित्तिः । आसुतिः । भूतिः ।
कृषःश च ॥२॥३२८२॥ करोतेः स्त्रियां शो मवति क्यप् च । यदा भावकमणोः शस्तदा मध्ये यक् परिष्यनिकरो" [२२१३७] इति रिकादेशः । यदापादानादिविवक्षा तदा यग्नास्तीति रिडादशेयादेशी । किया । कृत्या । "गरसेऽपि विकृत:।' [ १८] इति ज्ञापकात् क्लिपि भवति । कृतिः ।
इच्छा ॥२॥३॥३॥ इच्छेति निपात्यते । इष इच्छायाभित्यस्माद्भाचे श: यगभात्रश्च निपात्यते । करपवादोऽयम् । “परिषर्या परिसर्यामृगया निपातनं वाच्यम्" [घा.] परिचिरेः शः सरतेरए च निपात्यते । भृगयतेः शपथो धगभावश्च निपात्यते । “जागतरशी वदन्यो' [पा०] आगरा । बागयो । शे या । "जागुरविनियरिङति" [ २।२।२२ शल्यप् ।
अस्त्यात् ।।२।३।८४॥ अ इत्ययं त्यो भवति त्यान्तेभ्यो बुभ्यः स्त्रियाम् | चिकीर्षा । लोलूया । श्रटाश्या 1 पुत्रीया । पुत्रकाम्या । कराया ।
सरोहलः ॥२॥३॥५॥ सह करणा वर्तत सरुः । सरुहलन्तो यो धुस्ततः स्त्रियामल्यो भवति । कुण्डा । चुराडा' । मेधा । ईहा । "पर्याप्तिवचनेऽलमधे" [२०५१ । इति निर्देशाद् ये सेटस्तेषामिह महणम् । तेनेह न भवति । प्राप्तिः । दौतिः राशिः । अस्तिः । प्रध्वस्तिः । प्रशस्तिः । 'प्रशंसायर्या रूपः ।।१।१२१] इति निर्देशात् । शरत्योऽपि भवति । सरोरिति किम् ? निपटांतः । इल इत्यंध । नीतिः ।
पिद्भिदाविभ्योऽङ ॥२॥३॥८६॥ पिद्भयो त्रुभ्यो भिदादिषु च गणपठितेषु याः प्रकृतयस्ताभ्यश्चाङ भवति स्त्रियाम् । जुष-जरा | पुप-जपा । घयदयः पितः । घा! व्यथा | "युद् व्या पहुलम् [२।३।१५] इति बहुलवचनात् लब्धिल भेति च भवति । भिदादिभ्यः खल्वपि । भिदा विदारणे । भिचिरन्या । छिदा द्वैधीकरणे । छित्तिरन्या । विदा विचारणे । वित्तिरन्या । दिपा प्रेरण। क्षिप्तिरन्या । गुहा गिर्योषध्योः । गूढिरन्या। कुहा । नद्याम् । कुहना अन्या । श्रारा शस्च्याम् । श्रार्तिरन्या | आडि वाचि (अखि) कृते "म्शुरेप । ५।२।१२६ ] । लौ कृत "धावृत्ति गे:"[ ६] इत्त्वैप् । कारा बन्धने । कृतिरन्या । तारा
१. हुपद्ध---म०, स.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ २०२ पा० ३ ०८७-३२
ज्योतिषि | वार्णिरन्या । पपि कृते दोलमनयोर्निपातनात् । त्रपा मेदोविशेषे । उप्तिरन्या । वशा शरीरगतस्नेहे । उष्टिरन्या । मृजा शरीरसंस्कारे । सृष्टिरन्या | धारा वर्षप्रपाते । धृतिरन्या | निभावना दालम् | "कपेजिरच '" [ चा० ] कृपा । गोधा । हारा। रेखा लेखा । निपातनादेप् । चूड़ा । पीडा | 1
चिन्तिपूजकथिकुर्भिचर्चः || २३२८७ ॥ चिन्त्यादिभ्यो यः स्त्रियामड् भवति । युचोऽपवा दोऽयम् । चिन्ता । पूजा | कथा | कुम्भा । चर्चा |
१२८
तो गी ॥ ३८ ॥ आकारान्तेभ्यो धुभ्यो गौवाचि ऋ भवति । क्रपवाद | प्रदा । प्रभा । त्रियां पा । पितेर्भावे निर्विदितः । “प्रशाश्रन्दाचवृतिभ्यो णः " [ ४) १२८] "विरो [1980] efa sitma sıçradıffiaggia: 1 270 | auf |
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ण्यास अन्धि घट्टियन्दिविदो युच् ॥२२३॥८६॥ एवन्तेभ्यः त्रास अन्थि पट्टि वन्दि विद् इत्येतेभ्यो धुभ्यः स्त्रियां युज् भवति । एयन्तात् स्यात् [ २३८४ ] इति इतरेभ्यः "सरोल." [ २ ] इत्यकारः प्राप्तः । विदेः क्तिः प्राप्तः । कारणा | गणना | कामना | आसना । श्रन्धना । घना वन्ना | वेदना | अनुभव वेदनद्रष्टव्या । षोऽनिच्छायां युज् वक्तव्य:" [ वा० ] अन्वेषणा | "परेव” [ चा० 1 पर्येषणा | परीष्टि: । "युग्या बहुरुस्' [ २/३/१४ ] इति वा भविष्यति । व्यानां स्वत्याः श्रवाधका इयुक्तम् । तेन श्रास्या उपास्या ।
खौ विभाषा ण् || २|३|१०|| खुविषये विभाषया ण् भवति धो: । क्यादीनामपवादः । प्रस्कन्दिका । प्रच्हर्दिका । प्रवाहिका । एताः । उष्पभञ्जिका । चारणपुष्पप्रचायिका । श्रभ्योखादिका | शालभञ्जिका । एताः क्रीडासंज्ञाकाः । कृलक्षणा कर्मणि ता । "कांडाजीचिकयोर्नित्यम्” [ ८० ] इति नित्यः सविधिः । उद्दालकपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां की डायां इत्येवमादिरस्वपदविग्रहो बोद्धभ्यः । विभाषाग्रहणादिह न भवति शीर्षर्षिः शीर्षाभिवतिः । शिरोऽर्तिः । "धावृति गे: " [ ४७६ ] इलैपा भवितव्यमिति चेत्; न; श्रदं हसायामित्यस्य प्रयोगः । चन्दनतक्षिका । क्रीडेयम् । विभाषाग्रहणादृध्वर्धनिर्देशेऽपि भवति । श्रासिका । शायिका वर्तते ।
बेश्च प्रश्नाच्या || २|३|६२॥ प्रश्ने श्राख्याने च गम्यमाने घोरिष भवति वुश्व वा । कां त्वं कामिकार्षीः कां कारिकां वा । वचनाद्यथाप्रासं च भवति । कां क्रियां कां कृत्यों का कृतिम् । आख्याने सर्वा कामिका कारिकां सर्वा क्रियां सर्वा कृत्यां सर्वां कृतिम् । कां त्वं गणिमजीगणः कां गणिकां कां गणनाम् । सर्वा गणिर्मया गणिता । सर्वा गणिका सव गणना । कां त्वं पाहिमपाठीः कां पटिकां कां पठितिम् । सर्वा मया पाठिः पठितास पाठिका सर्वा पठितिः । प्रभाख्यान इति किम् । कृतिः ।
पर्यायार्णोत्पत्ती हुन् || २२३/६२ ॥ पर्याय यई भ्रूण उत्पत्ति इत्येते वर्थेषु गम्यमानेषु घो भवति स्त्रियाम् । पर्यायो ऽनुक्रमः तस्मिन् । भवतः शात्रिका | भवतोऽमग्रामिका | "कर्तृकर्मणोः कृति"" [ ६६ ] इति कर्तरि ता । "सृजकाभ्याम् [ १३७८ ] इति तावप्रतिषेधः । श्रई रामईयोग्यता । तत्र अर्हति भवानि भक्षिकाम् । श्रोदनमोजिकाम् । पयःपायिकाम् ! "तृजकाम्याम्” [१२३४७८] इत्यत्र कर्तरीत्यनुवर्तनात् कर्मणि या ता तत्र "कृति" [ १।३।७१ ] इत्यनेन तासः । ऋण यत्परत्य धाय्र्यंतॆ । तत्र हनुभविकां मे धारयसि । श्रोदनमोजिकाम् । पयःपायिकाम् । उत्पत्तां दभक्षिका मे उदपादि । श्रोदन भोजिका । पयःपायिका | विभाषानुवर्तनात् कचिन्न भवति । घटचिकीर्षा मे उदपादि । श्रदनबुभुक्षा मे उदपादि ।
१. कुभिप्र० स० ।
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१०२ पा० ३ मू० १३-10.] महावृत्तिसहितम्
माकोशे नभ्यनिः॥२।३।६३॥ श्राक्रोशे गम्यमाने ननि वाचि घोरनिस्त्यो भवति । क्त्यादीनामपवादः । अकरणिस्तै वृषल भूयात् । अप्रयाणिस्वे नृपल भूयात् । श्राकोश इति किम् ? अकृतिस्तस्य परस्य' । नत्रौति किम् ? मृतिस्ते वृषल भूयात् ।
युल्या बटुलम् ॥२॥२४|| भावे अतरि स्त्रियामिति च निवृत्तम् । युझ्यसंशश्च बहुलं भवन्ति । भावारणाधिकरणेनु शुद्द विहितोऽन्यत्रापि भवति । निरदान्त दिति निरदनम् । अवतेचनम् । श्रवस्त्रावणम् । राशा भुज्यन्ते राजभोजनाः शालयः । क्षत्रियपानं मधु । राजाच्छादनानि वस्त्राणि । प्रयतते तस्मात् प्रयतनम् । प्रस्कन्दनम् । प्रच्छर्दनम् । भावकर्मणोा उल्लास्ततोऽन्यत्रापि भवन्ति । स्नान्ति तेन लानीयं चूर्माम् । दीयतेऽस्मै दानीयोऽतिथिः । ज्ञानमावृणोति नियते पानेन ज्ञानावरतीयम् । दर्शनावरणीयम् । वेदनीयम् । मोहनीयम् । बहुलवचनादन्येऽपि कृतः उनादन्यत्र भवन्ति | गले चोप्यते गलचोपकः । पादाभ्यां हियते पादहारकः ।
नए भावे क्तः ॥२३॥६५॥ नबिति खिं कृत्वा निर्देशः । नपि नपुंसकलिने मावे को भवति । घनचोरपवादः । इसितं छात्रस्य शोभनम् । बल्पितम् । आसितम् । शयितम् । नपुंसकलिने भावे क्लादि. निवृत्यर्थ भयादीनामजू बक्तव्य इत्युक्तम् । तेन भयं वर्षमित्यादौ क्लो युनं भवति । येषां पत्रजन्तानां नपुंसकखमिष्टं तेऽर्चादिषु द्रष्टव्याः ।
बिनभिषिधौ ॥२३॥६६॥ नभावे इति वर्तते । अभिविधिः क्रियागुशाम्यां काल्यन व्याप्तिः । नपि मात्र धोमिन् भवति अभिविौ गम्यमाने । कस्याबमपवादः । साझौटिनं सामाबिनं सांगविणं सान्द्रा. विणं वर्तते । "जिनोऽण" [ १२] हति स्वार्थिकोऽण् "मो पुंसोऽहति [ ३०] इति टिवं प्राप्त "प्रायोऽनपश्येऽणीनः" [१५] इति न भवति | मध्येऽपवादोऽयं युटं न बाधते । संकुटनं संमार्जनम् । अभिविधाविति किम् ? संराकः ।
युट् ॥२॥३१९७॥ नब्भाव इति वर्तते । नपि भावे युद् भवति धोः । इसनं छात्रस्य शोमनम् | जल्पनम् । प्रासनम् । शयनम् ।
कर्मणि यस्पस्किनमसुखम् ।।२।३।६८॥ युड् नब्भाव इति च वर्तते । येन संस्पर्शात् कर्बङ्गस्य सुखं भवति तस्मिन् कर्मणि वाचि नपुंसकालले भावे युङ् भवति । श्रीदनभोजनं सुखम् । पयः. पानम् । चन्दनानुलेपनम् । पूर्वेण सिद्धेऽपि नित्यसविध्यर्थं प्रारम्भः । कर्मणीति किम् ! तूलिकाया उत्थानम् । युडन पूर्वेण सिद्धः । सविधिस्तु न भवति । यत्यादिति किम ! अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् । युट पूर्वेण । पाक्षिकः सविधिः । कर्तरीति किम् ? गुरोः स्नापनं सुखम् । नात्र लापयतेः कर्तुः शरीरसुखं कि तईि गुरु: फर्मणः । अशग्रहणं किम् ? पुत्रस्य परिष्वक्षनं सुखम् । मानसमिदम् । अन्यथा परपुत्रपरिष्यमानेऽपि स्यात् । सुखमिति किम् ? कण्टकाना मर्दनम् ।
करणाधिकरणयोः ॥२॥३१६६॥ करणेऽधिकरणे च कारकेऽभिधेये युड् भवति । पाद्यपवादः । करणे इधमत्रश्चनः । पलाशशातनः । अविलवनः । कर्मणि ता । कृतीति तासः । अधिकरणे गोदोहनी । शक्नुधानी । तिलपीडनी । परत्वात् त्यादिकं स्त्रीस्व माधते ।।
पुंखो घः प्रायेण ॥राश१००॥ करणाधिकरणयोरिति वर्तते । जिङ्गसंशायां गम्यमानायां धोषों भवति प्रायेए । धकारः "छादेधै" [NE.] हत्यत्र विशेषणार्थः । प्रच्छदः । उरच्छदः । प्लषः। श्राखनः | अधिकरणे-पत्य कुर्वन्स्यस्मिन्नाकरः । श्रालयः । आपयः | पुंग्रहणं किम् । प्रधानम् । विचयनी ।
1. घटस्थ अ०, २०, स..
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१३०
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. २ पा० ६ सू. 101-10 नपुंसकलिंगा स्त्रीलिंगा चेयं संज्ञा । खाविचि किम् ! हरगो दण्डः। प्रायेणेति किम् ? कचिन्न भवति । प्रसाधनः । दोहनः ।
तस्त्रोऽये घम् ।।२।३।१०१॥ तु स्तू इत्येताभ्यामवशब्दे वाचि पत्र भवति करणाधिकरण्योः पुंखो । अवतारः। अवस्तारः । कथमसंज्ञायामवतारो नद्या इति ! चिन्यमेवत् ।
इलः ॥२३॥१०२॥ इलन्ताखोर्घ भवति करणाधिकरणयोः पुखौ। घापवादोऽयम् । वेदः । नेगः । वेशः । गन्धः । सन्नः । विषङ्गः । तैलोदकम् | घुतोदकम् । नास्त्यत्र पनि घे वा विशेषः । इमानि त दाहरणानि । खेलः । निमार्गः। अपामार्गः । प्रासादः । श्राखानः । प्रायेणेत्यनुवर्तनात् हलन्तेभ्यः केयश्चित् पन्न न भवति घ एव भवति । अधिकरणे-काः । निकरः । निगमः । गोचरः। आपणः । करणे-संचरः । वहः । प्रजः । इह व्यजन्त्यस्मिन्निति व्यः । घे कृते "बहुलं खौ" २५] इति बहुलवचनादजेवीमावो न भवति । इह उदकोदञ्चनः । दोहनः । प्रसाधन इति घनो न भवतः । श्राखनः श्राखाना इत्यत्रोमयं भवति ।
संहारोद्यावानायावहारावाया ॥२॥३।१०३॥ संहारादयः शब्दा पनि निपात्यन्ते पुंखो। अहलन्त खात् पूर्वेणाप्राप्तिः। संहरति तेन संहारः । करणेऽधिकरणे वा उद्यावः । श्रानयन्ति तेन श्रानायो जालं चेत् । श्रवहरन्ति तेन अबहारः । एत्य तस्मिन् वयन्ति श्रावायः | "अभ्यायानुवाकयोकोप' [11 ] "माधारोऽधिकरणः" [१001] इति शापकात उञ्छादिषु न्यायशब्दस्य निर्देशात् अघीयते अनेनाध्यायः । प्राधियते अस्मिन् आधारः । नीयतेऽनेन न्यायः । एतेऽपि शब्दाः साधवः ।
__स्वीषद्दुसि कृच्छाकच्छे खः ॥२।२१०४॥ सु ईषत् दुस् इत्येतेषु वाक्षु कृच्छे अकृच्छ्रे चार्थे खो भवति धोः। कृच्छ्राकृच्छ्रग्रहणं स्वादिविशेषणम्। सुकरः कटो भत्रता। ईषत्करः फटो भवता । दुष्करः कटो भवता । “तयोय कखार्था:" [
२ ५] इति कर्मणि स्वः । "न मिर" [1 ] इत्यादिना ताप्रतिषेधः । झित्यापूर्वपदस्य मुम्न भवति । कृच्छ्राकृच्छ्र इति किम् । ईषत्कार्यः । मनाकार्य इत्यर्थः ।
कर्तृकर्मणोभूकम्भ्याम् ॥२४३१०५॥ स्वौषट्दुसि कृच्छ्राकृच्छ्रे व इति वर्तते । कृष्ग्रहासामर्यात् कर्तृकर्मग्रहणं वागविशेषणम् । कतरि कर्मणि च याचि भू कृञ् इत्येताभ्यां यथासंख्यं खो भवति सु ईषत् दुस, इत्येतेषु वातु कृच्छ्रे अकृच्छ्रे चार्थे । त्यस्य खिकरणं मुमर्थमिति पूर्व कर्तृकर्मभ्यां योगः पश्चास्वादिभिः । प्रायेगोत्यनुवर्तनात् कर्तृकर्मणश्च्यर्थयोर्ग्रहणम् ! अनाये न सुखमाढ्य न भूयते स्वामभवं भवता । ईषदाढ्य भवं भवता । दुरायम्भवं भवता । सुखमनाढ्यमान्यति यते । स्वाट्यंकरो देवदत्तो भवता । ईषदा व्यङ्करः । सूत्रन्यासे परत्वाकर्तृकर्मणोः वाक्सं कृत्वा पश्चात्पूर्वस्त्र क्रियते । च्च्यर्थयोरिति किम् ? स्वान्न भूयते । स्वान्येन क्रियते | यदा करोतिर्विकारार्थः तदा सुकटंकराणि वीरयानि । यदा निष्पत्तिवचना सदा सुपरः कटो बीरगौरिति ।
युजातः ॥२३।१०६॥ स्त्रीपदसि कृच्छ्राकृच्छू इति वर्तते । श्राकारान्तेभ्यो धुभ्यो युज् मवति स्वादिषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु वातु । सुपार्न पयो भवता । ईषत्पानम् । दुष्पानम् ! सुग्लानम् । ईषद्मा नम्। तुर्लानम् । सापयादोऽयम् । प्रायेणेति वर्तते। तेन "दुःशब्दे वाचि शासियुधिशिपिमृषिभ्यः युज् भवति" [0] | दुःशासनः । दुर्योधनः । दुर्दर्शनः । दुर्धर्षणः । दुर्मर्षणः ! सुदर्शनादिषु बसो द्रष्टव्यः।
१. बेष्टः अ० ब०:स।
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म० २ पा० १ सू० १०-१५] महावृत्तिसहितम्
भववा तत्सामीप्ये ॥२॥३१०७॥ भबच्छब्दो वर्तमानपर्यायः । समीपमेघ सामीप्यम् । भवतीय यविधिर्भवति वा तत्समीपे भूते भविष्यति च ध्वर्थ वर्तमानाद्धोः | संप्रतीत्वारभ्य श्रा पादपरिसमाप्तैर्विहितारत्या अतिदिश्यन्ते । कदा देवदत्त अागतोऽसि | एष श्रागच्छामि । श्रागन्छन्तमेव मा विति । एष प्रामामुकोऽसि । बावचनाद्यथायाप्तम् । एष श्रागतोऽस्मि । कदा देवदत्त गमिष्यसि । एष गच्छामि। गच्छन्तमेव मा विद्धि । गन्तारमेव मां विद्धि | पक्षे एष गमिष्यामि । एषोऽस्मि गन्ता । वत्करणं किमर्थम् १ प्रकृतिविशेषादिपरिग्रहार्यम् । तत्सामीप्यग्रहणं व्यवहितनिरासार्थम् । कदा ग्राममगच्छत् । श्वः करिष्यति । १६ मा भूत् । नन्वत्र लुटा भवितव्यं कथं लुट् ? पदसंस्कारवेलायो श्वाप्रभृतिपदानामसंनिधानाददोषः ।
भूतवश्वाशंसायाम् ॥२.३।१०८॥ प्राशंसनमाशंसा भविष्यकालविषया; तस्यां गम्यमानायां भूतवत्यविधिर्भवति भवन था । भूतमहणेन भूतसामान्ये विहितस्य त्यस्य परिप्रहः । उपाध्यायश्चेदागमिष्यति उपाध्यायश्चेदागमत् उपाध्यायश्चेदागतः तदा तर्कमधीमई अध्येष्यामहे अध्यगीमहि एषोऽधीतस्तकः । श्राशंसायामिति किम् ? उपाध्याय श्रागमिष्यति ।
क्षिप्रवचने लट ॥२३।१०६॥ श्राशंसायामिति वर्तते । क्षिप्राथें शब्दे वाचि लट् मक्याशंसायो गम्यमानायाम् । भूतबच्चेत्यस्यापवादः । उपाध्यायश्चेदागमिष्यति क्षिप्रमध्येष्याम शीममध्येष्यामहे । नेति वक्तव्ये लुटाहणं लुम्विषयेऽपि यथा स्यात् इत्येवमर्थम् । श्वः क्षिप्रमध्येष्वामहे ।
लिकाशंसोनी ॥२॥३४११०॥ श्राशंसा उच्यते येन शम्नेन तस्मिन् वाचि लिङ् भवत्याशंसायां गम्यमानायाम् । अयमपि भूतवचेत्यस्यापवादः । उपाध्यायश्चेदागच्छेत् श्राशंसे युक्तोऽधीयीय । अक्कल्पये युक्तोऽधीयीय । परखाल्लुटो बाधकोऽयम् । प्राशंसे चिप्रमधीयीय |
न लाम्लुट सामीयान्युच्छित्योः ॥२॥३२१११॥ सामीप्य तुल्यजातीयेनाव्यवधानम् । अम्युछित्तिः क्रियाप्रबन्धः । लालुटी न भवतः सामीप्याव्युनिछत्त्योः गम्यमानयोः । अनद्यतनविहितयोर्लङ्लुटोरयं प्रविपेषः । सामीप्ये-पेयं पौर्णमास्यतिक्रान्ता एतस्यां देवानपुजामः। अतिथीनबूभुजामः । येयममावास्यागामिनी एतस्यां देवान् पूजयिष्यामः अतिथीन् भोजयिष्यामः । अव्युच्छिचौ-यावदजीवीत् भृशमन्नमदात् । यावजीविष्यति भृशमन्नं वास्यति ।
वयत्यवरेऽवधेः ॥२३॥११२॥ यद्यपि लडिति प्रकृतम् । तथापीह वयद्हणाल्लुट एव प्रतिषेधः । वयतिकाले अवरस्मिन् भागे लुण्न भवति । असामीप्याव्युच्छित्यर्थोऽयमारम्भः । कालविभाग उत्तरत्र वक्ष्यते । देशविभागेऽयं प्रतिषेधः। योऽयमध्वा गन्तव्य या चित्रकूयात् तस्य यदवरं मथुरायाः तत्र विरोदनं भोक्ष्यामरे दिसतपास्यामः । ववतीति किम् ? योऽयमध्वागत श्रा चित्रकूटात् तस्य यददा मथुरायारतत्र युक्ता द्विरथ्यमहि । अवर इति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्य या चित्रकूटात् तस्य यमरं मथुरायास्तत्र युक्ता बिरध्येतासहे। अवधेरिति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्यो निरवधिकः तस्य यदवरं मधुरवास्तत्र युक्ता द्विरध्वेतास्महे ।
कालविभागेऽनहोरात्राणाम् ||२३२११३॥ धमत्यदरेऽवधेरिति वर्तते । व_तिकाले अवरस्मिरकालविभागेऽहोरात्रसंबंधविष जिते लुग्णन भवति । पूर्वेण प्रतिषेधे सिद्धेऽप्यहोरात्रसंबन्धिविभागप्रतिषेधार्थं वचनम् । कालधिमामग्रहणमिहार्थगुत्तरार्थ च । योऽयं संवत्सर अागामी तत्य यदवरमाग्रहायण्यास्तवाईत्पूजां करिष्यामहे अतिथिभ्यो दानं दाल्यामहे । वय॑तीत्येव । योऽयं संवत्सरोऽतीतस्तस्य यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता द्विरध्यैमहि । ग्नवर इति किम् ! "बा परे" [२।३।३३५] इति वक्ष्यति । अवधेरित्येव । योऽयं निरवधिक काल अागामी वस्य यद्वरमाप्रशायण्यास्तत्र युक्ता द्विरध्येवास्महे । अनहोरात्राणामिति किम् ? योऽयं त्रिंशदात्र अागामी तस्य योऽवरः पञ्चदशगात्रतत्र युक्ता विरव्येतामहे । योऽयं त्रिंशदात्र अमौस्यागत
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जैनेन्द्र-व्याकरणभ
[अ० २००३ सू० ११४ - १२० योऽवरोऽर्द्धमासस्तत्र द्विरध्येतास्महे । योऽयं मास श्रागामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरात्रस्तत्र द्विरध्येतास्महे । प्रसम्य [ इति ] प्रतिषेधात् त्रिविधमुदाहरणम् ।
वा परे ||२|३|११४|| कालविभाग इति वर्तते । परस्मिनवः कालविभागे वत्स्यति लुग्न भवति न चेोरात्राणां विभागः । योऽयं संवत्सरः श्रागामी तस्य यत्परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्येष्यामहे अध्येतात्म वा । सामीप्यान्युच्छितिविषायामां परत्वाद विक | श्रहोरात्राणामित्येव । वोऽयं त्रिंशद्वात्र आगामी तस्य यः परः पञ्चदशरात्रः तत्र विरध्येतास्महे । सामीप्यान्युच्छित्त्योर्लुटः प्रतिषेध एव । वातीत्येव । योऽयं संवत्सरोऽतीतः तस्य यत्परमाहावयास्तत्र द्विरश्यैमहि । ग्रवधेरित्येव । योऽयं निरवधिः काल आगामी तस्य यत्परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्येतास्महे । कालविभाग इत्येव । योऽयमध्वा गन्तव्यः श्रा चित्रकूटात् तस्य यत्परं मथुरायास्तत्र द्विरध्येतास्महे । सयंत्र लुड् भवति न चेदन्युच्छित्तिविवक्षा ।
I
१३२
किती
क्रियाऽवृती ||२३|११|| बस्तीति वर्तते । हेतुर्निमित्तम् । लिङहेतौ वयैति झाले लृङ् भवति क्रियाया श्रवृत्ती सत्याम् " हेतु फछ्योर्लिङ ” [२।३।१२२] इत्येवमादि लिनिमित्तं वच्यति । श्रतिथी चेदलिप्स्यत भृशमन्नमदास्यत् । श्रान्नदानं फलं तद्धेतुभूतोऽतिथिलामः तदनभिनिर्वृति प्रमाणादवगम्पेदं वाक्यं प्रयुक्तम् । एवमुपाध्यायं चेदुपशसिष्यत शास्त्रान्तमगमिष्यत् अभोक्ष्यत भवान् दध्ना यदि मत्समीपे श्राखिष्यत । वह दक्षिणेन चैद्रयास्यत् न पर्यावप्यदिति यानमनिष्पक्षं पर्याभवनं तु निष्पनमिति कथमवृत्तिः क्रियायाः । एवं तर्हि प्रत्यासते हैं तुभूतायाः क्रियाया अवृत्ताविति ब्रष्टव्यम् । क्रियायाः श्रवृत्ताaft शक्तिरूपेणा क्रियमध्यारोप्य कर्तृत्वेनाभिसंबन्धः क्रियते यथा भूतभविष्यत्कालविषयावाः कर्तृत्वेनाभिसंबन्धः ।
भूते ||२| ३ | ११६ ॥ भूते च काले लिङ्हती क्रियाया अवृत्तौ सत्यां लुङ् भवति | " उसाप्योः पृष्टीको [ [ २।३।१२८] इत्यतः प्रभृति कालसामान्ये यल्लि अनिमित्तं विधानं तत्रानेन भूते लृङ् । ततः पूर्वं तु "वाऽशेषात्'' [२।२।११७] इथेनेने विकल्पः सिद्धः । दृष्टो मया भवतः पुत्रीऽनार्थी चङ्क्रम्यमाणः । इतरश्चातिभ्यर्थी यदि तेन दृष्टोऽभविष्यत् उतामोक्ष्यत । भोत्यत श्रन्येन यथा स गतः नावि मुक्तवान् । इ
सर्व प्रतिवचनम् ।
वाऽशेषात् २|३|११७॥ वक्ष्यति "शेऽयी लुट्” [२।३।१२७ ] इति श्रा एतस्मात्सूत्रात्रः यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः भूते काले लिइहेत्तो क्रियायाः अवृतौ लुङ् वा भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यम् । पःस्तु लृङो विधिर्नित्य इति तत्रैवोदाहरिष्यामः ।
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लड़ गऽपिजात्योः || २|३|११ || श्रपि जातु इत्येतयोर्वाचोः लड भवति गर्दै गम्यमाने । श्रयं कालसामान्ये विहितो लट् कालविशेषे विहितान् लकारान् परत्वादुबाधते । श्रपि रात्रभवान् प्राणिनो इन्ति । जातु तत्रभवान् प्राणिनो हन्ति । गर्दामहे । श्रन्याय्यमेतत् | लिहेत्वभावात् भूते क्रियाऽवृत्तौ लङ न भवति ।
या कथमि लिङ च ॥२|३||१६|| गई इति वर्तते । कर्मशब्देनाचि लिङ् भवति लच्वा । कथं नाम तत्र भवान मां भक्षयेत् । मांठं भक्षवति । गहमं । श्रन्यान्यमेतत् । वावचनाद्यथामासम् । श्रवमचत् । अभक्षयत् । भक्षयाञ्चकार । भक्षयिष्यति । भयिता । श्रत्र लिहेतुरस्तीति भूते क्रियाऽवृत्ती वा लृङ् मयति । श्रभक्षयिष्यत् । वर्त्स्यति नित्वं
लृछ ।
किंवृते लिटो || २|३|१२०॥ गई इति वर्तते । वेति नाधिकृतम् । विभक्तयन्तस्य उत्तरडतमान्तस्य किमो वर्तन कितम् । किंतु याचि ग गम्यमाने लिब्लुये भक्तः । सर्वलकाराणामयमपवादः । किं तत्रभवान् अनृतं ब्रूयात् । अनृतं वच्यति । लिच्तुरस्तीति भूते वा लुङ् भवति । वति तु नित्यः ।
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R०२ पा०३ सू० १३१-१२३ ] महावृत्तिसहितम्
१३३ अनवक्तप्त्यमः ॥२।३।१२|| गह इति निवृत्तम् । लिलुटाविति वर्तते । अनवक्तृप्यर्षे अव. मर्षे व गम्यमाने लिङ्लट् इत्येतो त्यो भवतः । अयमपि पर्वलकारागामपादः । अनकलतो नावकल्पयामि न हंभावयामि न वा श्रद्दधे किं तत्र भवानदत्तं गृहीयात् श्रदां ग्रहीष्यति । अमः 1 घिमिथ्या नैतदस्यमों मे किं तत्रभवानदत्तं गृहीवात् अदनं ग्रहीष्यति । किंवृतेऽकिंचने च वाचि सामान्यनायं विधिः । लिहेतु रस्तीति भूते क्रियावृत्तौ वा लुक्छ । वय॑ति तु नित्यः ।
किंकिलासमथै लुट् ॥२२॥१२२॥ अनवक्तृप्त्यम इति वर्तते । विकिलशन्दे प्रस्त्यर्थेषु च शब्देषु वा अनवालयमार्षयोल भवति । लिकोऽपवादः। नायकल्पयामि किंफिल तत्र भवान् परदागन् प्रकरिष्यते। गंधनादिसणान्याये दः। अस्त्यर्था अस्तिभवतिविद्यतयः । अस्ति नाम भवति नाम विद्यते नाम सत्रमवान् परदारान् प्रकरिष्यते ।
जातुयघायदो लिङ ॥२।३।१२३॥ अनव तृप्यापर्य इति वर्तते । जातुपयदायदीत्येतेषु वाद्ध अनवक्लुप्त्यमर्षयोर्लिङ् भवति । लुटोऽपवादः 1 नायकल्पयामि जात तत्रभवान् सुरां पित्रेत् , यत्तत्रभवान् सुरा पिवेत् , यदा तत्रभवान् मुरां पिबेत् , यदि तत्रभवान् सुरां पिबेत् । न मृष्यामि जातु तभवान् सुर्रा पिबेत् इत्येवमादि योज्यम् । जिहेतुरस्तीति भूते वा लुङ् । त्रस्वति तु नित्यः ।
यच्चयत्रयोः ॥२॥३॥१२४॥ अनन्त्रक्लुप्त्यम इति वर्तते । यच्च यत्र इत्येतयोर्वाचोरनवक्लुप्त्यमयोलिङ् भवति । लुटोऽयवादः। उत्तरार्थो योगविभाग । न संभावयामि यच्च तत्रभवान् परिवाद कययेत् । न मृष्यामि यश्च तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । यत्र तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । क्रियाऽवृत्तौ भूते वा लुङ् । यीति तु नित्यः ।
गहें ॥२॥३॥१२५॥ अनचक्लुप्त्यम इति निवृत्तम् । अर्थान्तरोपादानात् । यच्च यत्र इत्येतयोर्वाचोगई गम्यमाने लिए भवति । सर्बलकाराणामपवादः । यच्च तत्रभवान् अस्मानाक्रोशेत् विद्वान् वृद्धः सन्नु। त्कृष्टः । गमिहे । अन्याच्यमेतत् । लितुरस्तोति यथासंभवं लुङ, वेदितव्यः ।
चित्रार्थे ॥२॥३॥१२६॥ चित्रशब्दल्यार्थे गम्यमाने यच्चयत्रयोर्वाचोलिङ् भवति । सर्वलकारापवादः । यच्च तत्रभवान् लोभं कुर्यात् यत्र तत्रभवान् लोमं कुर्यात् विद्वान् वृद्धः सन्नुत्कृष्टः । चित्रमाश्चर्यमद्भुतं विस्मयमित्येषामन्यतमप्रयोगः । लिहेतुरस्तीति भुते क्रियाऽवृत्ती वा । वस्यति तु निल्यः ।
शेषेऽयदो लद ॥२३॥१२७॥ यच्चयत्राभ्यामन्यश्चित्रार्थः शेषः । शेषे चित्रार्थे गम्यमाने लुड भवति यदिशब्दश्चेद्वार न भवति । अयमपि सर्वलकारापवादः । चित्रमाश्चर्यमद्भुतं विस्मयमित्ययमन्धो नाम पुस्तकं वाचषिष्यति मूको नाम जैनेन्द्रमध्येष्यते । लिङ्देस्वभावात् लङ् वा न भवति । अयदाविति किम् ? आश्चर्य यदि स भुजीत । अत्रानवक्तृप्तिश्चित्रापैश्च प्रतीयते । "जानुययायदो लिस्। [२१३१३२३] इति लिभुते "वाऽशेषाद" [२/३१११०] इति लङधिकारी निवृत्तः ।
उताप्योः पृष्टोजो लिक ॥२३॥१२॥उत अपि इत्येतयोर्वाचोः पृष्टस्योक्तो गम्यमानायां लिङ् भवति । सर्वलकारापवादः । किमकानीः कटं देवदत्त । इति पृष्टः प्रत्याह उत कुर्यात् । अपि कुर्यात् । कटं कृतवानित्यर्थः । इतः प्रभूति यत्र लिहेतुरस्ति तत्र वस्यति भूते च निल्यो लूङ् ! उताकरिष्यत् । अप्याकरिप्यत् । पृष्टोक्राविति किम् ? उत दण्डः पतिष्यति । अपि धास्यति द्वारम् । अत्र प्रश्नोद्घहन च प्रतीयते ।
छोद्रोधेकञ्चिति ॥२॥३॥१२॥ इच्छोरोधः स्वाभिप्रायनिवेदनम् । इच्छोदोधे गम्यमाने लिङ भनति कचिच्छब्दाप्रयोगे । सर्वकारापवादः । कामो मे अधीयीत भवान् । अभिलामो मे भुयीत भवान् ।
५ -- सौ लूश्वा भ.।
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१३४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० २०३ सू० १३० - १३०
I
कचितीति किम् १ कविजीवति मे माता । कचिजीवति मे पिता । माराविद खां पृच्छामि कचिजीवति पार्वती । संभावनेऽमि स्थानिनि ॥ १|३|१३० ॥ लिङित वर्तते । संभावनं क्रियायां सामर्थ्यश्रद्धानम् । अलंशब्दाचेह पर्याप्तिवचनः । यस्य यत्रार्थो गम्यते न दाखौ प्रयुज्यते स तत्र स्थानीशब्दः । अलमर्थविशिष्टे संभावने लिङ् भवति श्रलंशब्दे स्थानिनि । सर्वलकारापवादः । शक्यसंभावने - श्रपि हस्तिनं हन्यात् । पि स्तुयाद्राजानम् । श्रशक्यसंभावने ऋषि पर्वतं शिरमा भिन्द्यात् । अपि श्वारीयकं भुञ्जीत । अपि समुद्रं दोर्भ्यां तत् । श्रलमीति किम् १ विदेशस्थायी मे देवदत्तो मन्ये गमिष्यति ग्रामम् । अत्राहमिति स्थानी । स्थानिनीति किम् ? वसति चेत् सुराष्ट्रेषु वन्दिष्यते अलभूजयन्तम् । क्रियाऽवृत्तौ वर्त्स्यति भूते लृ भवति ।
-
तद्वाचि धौ वायवि ॥२|३|१३१ || अलमीति वर्तते । तच्छब्देन संभावनं परामृश्यते श्रलमर्थविशिष्टे सम्भावनवाचिनि घौ घाचि वा लिहू भवति । यच्छन्दाप्रयोगे पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् । सम्भावयामि भुञ्जीत भवान् । श्रह मुञ्जीत भवान् । पन्ने यो यतः प्राप्नोति स ततो भवति । अलमीति किम् १ सम्भावयामि यत्स भुञ्जीत । श्रत्रालमर्थे पूर्वेण नित्यो लिङ् ।
हेतुफलयोर्लिङ || २|३|१३२ ॥ हेतुः कारणमः फलं कार्यम् | हेतौ तत्कायें च वर्थे वर्तमानाद्धोः लिङ् भवति । श्रतियश्चेलभेत भृशमन्नं ददीत । यदि गुरुपूजां कुर्वीत खर्गमारोहेत् | वेत्यनुवर्तनात्पक्षे लृट् । श्रुतिर्भीरवेल्लप्स्यते भृशमन्नं दास्यते । लिङिति वर्तमाने पुनर्लिङ्ग्रहणं वति यथा स्यादिह मा भूत् । वर्षतीति भावति | हन्तीति पलायते । क्रियावृत्तौ वर्त्स्यति भूते च नित्यो लृङ् ।
खालिङ लोटो ||२|३|१३३ ॥ इच्छार्थे धौ धाचि लिङ्लोटौ त्यौ भवतः । सर्वलकारापवादी । वेति व्यवस्थितविभाषानुवर्तते । तेन कामप्रकाशने इर्द विधानम् । इच्छामि भुञ्जीत भवान् । भुक्तां भवान् । प्रार्थये श्रीयीत भवान् । श्रधीतां भवान् । कामप्रकाशन इति किम् ? इइ मा भूत् । इच्छन् करोति । नत्र प्रयोक्तुः कामप्रवेदनम् | "उताप्योः पृष्टोक्ती" [ २।३।१२८ ] इत्यत श्रारभ्य यत्र केवलो खिहेतुः शिष्यते तत्र क्रियाऽवृत्तौ लृङ् नान्यत्रेति केचित् ।
तुमेकक के ||२|३|१३४ ॥ च्छायें एककर्तृके धौ वाचि तुम्भवति यस्मात्तुम् विधीयते प्रत्यास तेस्तदपेक्षयैककर्तृत्वाम् । लिङ्लोटोरपवादोऽयम् । इच्छति मोक्तुम् । वाञ्छति कर्तुम् । कामयते कर्तुम् । एककर्तृक इति किम् ? देवदत्तं भुखानमिच्छति परः । इह कस्मान्न भवति । इच्छति कटं करोति चैनम् । नात्र करोति प्रतीच्छतेः सामर्थ्य किन्तु कटं प्रति तेनान्वर्थवा संशाविरहातुम् न भवति ।
लिङ ॥२|३|||१३३५|| इच्छायें एककर्तृके घी वाचि लिङ भत । पूर्व तुमा लिलोयै बाधितो पुनर्लिङ्प्रसवार्थमेतत् । योगविभाग उत्तरार्थः । श्रधीयीयेति इच्छति । भुज्जीयेति वाञ्छति । इतिशब्दः क्रियाशब्दसंबन्धद्यातनार्थः ।
तेभ्यो भवति या || २|३|१३|| तेभ्य इच्छार्थभ्यो धुभ्यः भवति काले वा लिहू भवति । इच्छेत् । इच्छति । कामयेत । कामयते । उश्यात् । वष्टि |
विधिनिमन्त्रयामन्त्रणाधीसंप्रश्नप्रार्थने लिङ्क ॥ २/३ १३७ ॥ विधिराज्ञापनम् । निमन्त्रणं नियमेन करणम् । यदकरणे प्रत्यवाय इत्यर्थः । श्रामन्त्रणं स्वेच्छया करणम् । ग्रधीष्टः सत्कारपूर्विका व्यापारणा । संप्रश्नः संप्रधारणा | प्रार्थनं याच्या । विध्यादिष्वर्थेषु लिछ भवति । सर्वस्यापवादः । विध्यादिविशिष्टेषु कर्त्रादिषु त्यार्थेषु लिङ् भवतीत्यर्थः । कटं भवान् कुर्यात् । प्राणिनो भवान्न हिंस्यात् । निमन्त्रणेसंध्यासु भवान् आवश्यकं कुर्यात् । श्राचारं भवानधीयीत । श्रामन्त्रये वह भवानासीत । इह भवान्
.
"
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म. २ पा०३ सू. १३८-१४४]
महावृतिसहितम्
शयीत 1 अधीष्टे-धीच्छामो भवान् प्रते रदत् । तस्वं भवान् गृह्णीयात् । संप्रश्ने-किन्तु खलु भोः जैनेन्द्रमधीयीय । प्रार्थने-भति में प्रार्थना व्याकरणमधीयीय । सर्कशास्त्रमधीयीय । यदि विध्यादिषु प्रकृत ल्युपाधिषु लिङ, विधीवेत; इह विदध्यात् निमन्त्रयेत श्रामन्वयेत अधीच्छेत् । प्रकृत्यैव विध्यादयोऽमिधीयन्ते इति (इहैव) लिङ प्राप्नोति । तस्माद्विध्यादयः कर्तृकर्मभावानां विशेषणानि | तदभावादिह जिन मवति । विदधाति । निमन्त्रयते । श्रामन्त्रयते । अधीच्छति । अत्र क्रियाया अवृत्तौ परत्वाल्लया लुक, आध्यते ।
लोट् ॥२१३६१३८॥ लोड भवति विध्यादिविशिष्टणु कादिषु विधौ । ग्राम भवान्नाग छतु । प्राशिनो भवान्न हिमस्तु । निमन्त्रणे-संध्यासु भवानावश्यकं करोतु । श्राचारमधीताम् । श्रामन्त्रणे-दह भानास्ताम् । इह शेताम् 1 अधीष्टे-श्रधीच्छामो भवान् प्रतं रक्षतु । तत्त्वं भवान् गृह्णातु । सेप्रश्न-किन्नु खलु भो काव्यमभ्यय । प्रार्थने-भवति मे प्रार्थना धर्मशास्त्रमध्ययै । योगविभाग उत्तरार्थः ।
त्रैषातिसर्गप्राप्तकाले व्याश्च ॥२॥३॥१३९॥ प्रेषणं प्रेषः । अतिसर्गः कामचारानुना । प्रासकालः प्राप्तकालवा, विशिष्टस्य कालस्यावसर इत्यर्थः । प्रषादिष्वर्येषु कादिविशेषणत्वेन गम्यमानेषु व्यसंशकास्त्या भवन्ति लोट् च । भवता खलु दाने दातव्यं दानीयं देयम् । करोतु कटो भवानिह प्रेषितः । भवानतिपृष्टः । भवतो हि प्रातः कालः। यद्यपि व्यसंशा सामान्येन भावकर्मणोविहितास्तथापि सर्वापवादेषु प्रैषादिषु लोटा बाध्येरनिवि पुनर्विधीयन्ते ।
लिङ्ग चोयमीहति के ॥२१३१४०॥ प्रैषादयोऽनुवर्तन्ते । ऊर्ध्व मुहूर्ताद्भवः ऊर्ध्वमौहर्तिकः । निपातात्सविधिकत्तरपदस्यैवैः । ऊर्ध्वमौहर्तिकेऽर्थे वर्तमानाद्धोः प्रैषादौ गम्यमाने लिङ् भवति चकागदयाश्च | उपरि मुहूर्तस्य भवान् स्खलु दानं दद्यात् । भवता खलु दान दातव्यं दानीयं देयम् । केचिन्चकारेण यथाप्रास समुचिन्वन्ति । तेषां लोपि भवति । भवान् खलु दानं ददातु । भवान् हि प्रेषितः । भवानतिसुष्टः । भवतो हि प्रातः कालः।
स्मे लोट ॥२॥३॥१४१॥ प्रैषादयोऽनुवर्तन्ते । ऊर्ध्वमौहर्विक इति च । स्मशन्दे वाचि प्रेधाविषु गम्यमानेषु ऊर्ध्वमौहर्तिकेऽर्थे लोड़ भर्वात । व्यानो लिङश्चापवादः । ऊर्ध्वं मुहूर्ताद्भवान् दानं ददातु स्म । भवान् हि प्रेषितः । भवानतिसृष्टः। भवतो हि प्रातः कालः |
अघीष्टे ॥२३।१४२॥ ऊर्ध्वमौहर्तिक इति निवृत्तम् । अधीष्टे गम्यमाने स्मशन्दे वाचि लोड्भवति । लिखो बाधकः | अङ्ग स्म राजन् दानं देहि प्रतं रक्ष ।
कालसमयलासु तुम्वा राश१४३|| काल समय वेला इत्येतेषु वाच धोः तुम् भवति वा । कालो भोक्तम् । समयो भोक्तम् । बेला भोक्तुम् वा । वावचमाद्यथाप्रासं च भवति । कालो भोकव्यस्त । #पादिग्रहणमनुवर्तते । तेनेह न भवति ।
"कालः पचति भूतानि काला संहरति प्रजाः कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।।"
लिक यदि रा३।१४४॥ यच्छन्दप्रयोगे कालादिषु वाच धोलिक भवति । तुमोऽपवादः । सो यत्प्रजां कुर्वीच भवान् । समयो यद्भुञ्जीत भवान् । बेला यच्छयीत भवान् । केचिद्वेत्यनुवर्तयन्ति तेषां यथाप्राप्तमपि ।
तृघ्याश्याई ॥२३॥१४५॥ अईतीत्यर्हः । अर्हे कर्तरि गम्यमाने तृव्याश्च भवन्ति लिक च । भवान् खलु न्यायाः वोदा। भवता कन्या बोटव्या वहनीया वाया। भवान् खलु कन्या पहेत् । भवान् योग्य इत्यर्थः । अहेऽथ लिला विधीयमानेन तृचो व्यानां च बाधा मा भूत् इति पुनर्विधानम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० २ पा०३ सू० १०५-१२९
आवश्यकाधमर्ण्ययोर्णिन् ||२| १ | १४६ ॥ श्रवश्यं भाव श्रावश्यकम् । मनोशादिपाठाद्वुञ् । श्रधमम् ऋणमस्य श्रभ्रमः; तद्भाव श्राधमर्यम् । श्रावश्यका विशिष्टे त्यार्थे कर्तरि णिन् भवति । श्रवश्यंवारी मयूरव्यं कादित्वात्सविधिः । शर्तदायी । सहस्रं दायी । निष्कदायी "श्रधमये चेम:" [ ११४७४] इति कर्मणि तायाः प्रतिषेध ।
१३६
|| २|३|१४७ ॥ अवश्य श्रभ्रम पर्वयोरिति वर्तते । आवश्यकाध मययोर्व्यासंज्ञा भवन्ति । सर्वमापवादेन विना व्यायाधिता इति पुनर्विधीयन्ते । भवता खलु अवश्यं धर्मः कर्तव्यः । करणीयः । कृत्यः । कार्यः । श्राधम भवता खलु निष्को दावव्यः । देवः । योगविभाग उत्तरार्थः ।
शकि शिक्षू
||२|३|१४८ ॥ शकीत्यर्थनिर्देशः । शक्नोत्यर्थविशिष्ट वर्षे लिङ् भवति चकाराद् व्याश्च । भवता खलु विद्या अध्येतव्या । अध्ययनीया । श्रध्येया । भवान् खलु विद्यामधीयीत । भवान् हि समर्थः । निरु सर्वापवाद इति (चकारेण ) व्यानामनुकर्षणं क्रियते । यदि शकीति प्रकृत्यर्थविशेषणम् । शक्नुयादित्यत्र लिङ न प्राप्नोति प्रकृत्यैवाभिहितत्वात् शक्यर्थस्य । नैष दोषः । सामान्यविशेषभावेन भेदाभ्युपगमात् । यथा एषितुमिति प्रविषिपति ।
आशिषि सि लोटी ||२३|१४९ ॥ इष्टस्याशंसनमाशोः । श्रपव निपातनादिह इकारः । श्राशी विशिष्टेऽर्थे वर्तमानादोर्लिङलोटौ भवतः । जीव्यात् । जीव्यास्ताम् | जीव्यासुः । जीवतु । श्राशिषीति किम् ? जीवति यदि पथ्याशी ।
चिकौ खौ || २|३|१५० ॥ श्राशिषीति वर्तते । श्राशिष्यर्थे चिकौ त्यो भवतः खुविषये । चकारः 'न किचि दीख'' [४|४|१० ] इति विशेषणार्थः । तनुतात् तन्तिः । सनुतात् सातिः । भक्वाद्धतिः । कृतः शिचा विशेषविहितेन वाध्येरन्निति पुनर्विधीयन्ते । देवा एनं देयासुरिति देवदत्तः । देवानंवन्देवश्रुतः ।
माङि लुङ ॥२/३/१५२॥ माङि वाचि लुङ, भत्रति । सर्वलकारापवादः । मा कार्पोरधर्मम् । मा वापरस्त्रम् । उकारः प्रतिषेधवाचिनो माङ शब्दस्य ग्रहां यथा स्यादित्येवमर्थः ।
"
सरमे च। मा स्म क्रुध्यत् । मा रुम हरत् । मा स्म दाषत् ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्र महावृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।
॥ २/३ | १५२ || सह स्मशब्देन वर्तते तस्मः । तस्मिन् माङि वाचि लड़
३- चिरं जीयात् सु० ।
भवति लुङ..
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१०. पा. .. ] महावृतिसहितम्
धुयोगे त्याः ॥४५॥ धुशब्देन वर्थोऽत्र निर्दिष्टः । अभिधेये अभिधानस्योपागत् । धूनां योगे सवि अयथाकालोक्ता अपि त्याः साधयो भवन्ति । विश्वदृश्याऽस्य पुत्रो जनिता । कृतः फटः श्वो भाविता । भाविकृत्यमासीत् । विश्व पत्रेति भूतकालः जनितेत्यनेन भवि वत्कालेन ( अभिसम्बध्यमानः) साधुर्मयति । इहोपसर्जनभूतं सुबन्तं प्रबनभूलल्य मिङन्तस्य कालमनुवर्तते । घोरिति वर्तमाने पुनधु महर्ण अस्तिभूजनिपरिग्रहार्थम् । त्य इति वर्तमाने पुनस्त्यग्रहणं त्यमात्रपरिग्रहार्थम् । गोमान् भवितेति मक्तस्य वर्तमानकालत्य अयथाकालत्वेन साधुत्वम् ।
क्रियासमभिसारे लोट तस्य हिस्यो वा तध्यमोः ॥२४॥२॥ क्रियामममिहारविशिष्टे ध्वर्थे वर्तमानाडोलोड़ भवति । सर्वलकारापवादः । तस्य लोटो हि व इत्येतावादेशो भवतस्तभ्वमोस्तु वा भवतः । क्रियासमभिहारे लोडिति योगविभागः कर्तव्यः । ततस्तस्य हिस्त्रो भवतः । किमे सति लब्धम् १ अन्यत्र यो लोहादेशी हिस्वी प्रसिद्धी ताविह भवतः । तेन मविधिदविधिव्यतिकरो न भवति । या तध्वमोरित्यत्र ध्वमा सह निर्देशात्तशब्दस्य थादेशस्य बहोहणम् | तुनीहि लुनीहि इत्येवाह लुनामि । आवां लुनीवः । वयं तुनीमः । लुनीहि लुनीहि इत्येव त्वं लुनासि | युवा लुनीयः । पूयं लुनीथ | तशब्दस्य तु वा भवति । लुनीत जुनौत इत्येष सूर्य लुनाय । लुनीहि लुनीहि इत्येवार्य लुनाति । इमो लुनीतः । इमे लुनन्ति । भूते लुनीहि लुनोहि इत्येवाहमलाविषम् । आवामलाविष्ध। नवमलाविष्म । एवं युष्मद्न्ययोर्राएं । वयंति-जुनीहि लुनीहीत्येनई लविध्यामि । श्रावो लबिष्यावः । वयं लविष्यामः । एवं युष्मद-ययोरपि । परीष्व अधीष्व इत्येवाहमधीये । श्रावामधीवहे । वयमधीमहे । एवं युष्मदन्थयोरपि योज्यम् । ध्वमस्तु पक्षे श्रवणम् | अघीयमधीध्यमित्येवं यूयमधीये । भृते-अचीव अधीष्व इत्येवामध्यगीघि । नाशमध्यगीवाहि । वयमध्यगीमहि । एवं सर्वत्र । वयंति-अभीष्व अधीष्व इत्येवाहमध्येच्थे। आवामध्येष्यावह । वयमभ्येष्यामहे । एवं युष्मदन्ययोरपि । एवं शेष्वपि लकारेषु योज्यम् । द्वित्वमपेक्ष्य लोइ नियासममिहारस्य द्योतकः । धुयोग इति वर्तते । प्रत्यासत्तेर्यत एव लोट विधीयते तस्यैवानुपयोगः कालास्मदायकत्वादोनामभिव्यक्तये क्रियो ।
प्रचये वा ॥२॥४॥३॥ प्रत्रयः समुच्चयः । स वैकस्मिन् द्विप्रभूतेरध्यावायः। प्रचये उपाधौ या लोह. भवति तस्य हिस्वावादेशो भवतस्तवमोल्लु बा । अयं सर्वलकारखाप्तो विकल्पः । कर्मप्रक्यो प्राममट नगरमट गिरीमट इत्येवाइमटामि । अावामटावः । वयमटामः । ग्राममा नगरमट गिरिमट इत्येवं त्वमसि । युवामटथः । यूयमटथ । तशब्दस्य तु वा-ग्राममटत नगरमात गिरिभटत इत्येव यूयमय । प्राममट नगरमट गिरिमट प्रत्येवायमयति । इमौ अतः। हमे अयन्ति । वाचनात् प्राममामि भगरमामि गिरिमामि इत्येधाइमटामि । आवामटात्रः । वयमटामः । एवं युष्मदन्योरपि । एवं भूते कस्यति सर्पलकारेषु योज्यम् । दभाग्भ्यः। जैनेन्द्रमधीव तर्कमधीष्व गणितमधीष्य इत्वेवाहमधीये । श्रायामधीवहे । वयमधीमहे । जैनेन्द्रमधीय तकमधीष्व गणितमधीष्व इत्येव स्वमधीपे । युवामधीयाथे | यूयमधीवे । ध्वमस्तु वा जैनेन्द्रमपीध्वं तर्कमधीध्वं गणिवमधीध्वं इत्येव यूयमधीथ्ये । जैनेन्द्रमधीच तर्कमधोष्य गणितमधीष्व इत्येवायमधीते । इमो अधीयाते । इमे अधीयते । वावचनात् जैनेजमधीये गणितमधीये तर्कमधीये इत्येवाहमधीवे । भावामधीवहे । वयमधीमहे । एवं भूते वयति सर्वलकारेषु योज्यम् । कर्तृ साच्चये देवदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव वयमो. दनमः । देवदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव यूगमोदनमत्थ । देवदत्तोऽद्धि जिनदतोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव इमे श्रीदनमदन्ति । कर्तृ समुच्चये द्विवचन बहुवचनं वा भवति एकस्य समुच्चयामावात् । क्रियासमुच्चये । श्रोदनं भुव सन् पिब धानाः स्वाद इत्येवाइमभ्यवहामि । श्रावामभ्यवहाकः। क्यमयक हरामः । बहूनां क्रियाएवं समुचये सामान्यप्रयोगोऽभिधानवशात् । एवं सङ्करसमुच्चयोऽप्यूयः ।
1. योऽप्यन्यूयः १० ब०, स०।
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१३..
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प. २ पा० .खू०१-११ निषेधेऽलखरयोः तवा ॥शया वेति धर्तते । अल खलु इत्येतयोनिषेधवाचिनेचीघों: स्थाल्यो भवसि । श्रलं कृत्वा । अलं बाले बदित्या । "मिनाऽमैव" [१॥३।३] इति नियमात् वाक्सो न भवति । निषेध इति किम् ? अलंकारः। अलखल्बोरिति किम् १ मा कागः । बेत्येव । अलं रोदनेन । "प्रकृत्याविम्य शपसंख्यानम्" [बा०] इति मा ।
माङो यतिहारे ॥२॥४५॥ माङो व्यतिहारेऽर्थे त्या भवति वा । परकालत्यादप्राप्तः क्त्वा विभाष्यते । अप्रमित्य याचते ! अवमित्य हरति । "प्रेम" [अभ६६] इतीत्वम् । क्यधिकायत याचित्वा अपमयते । इखा अपमयते । मेकः कृतालस्य निर्देशो ज्ञापक:- "मानुबन्धकृत हलन्तस्वम्" [ परि० ] ।
परापरयोगे ॥8॥ परावराभ्यां योगे गम्यमाने घोः तवा भवति । ति वर्तते । संन्धिशब्दखात् परेण पूर्वस्य योगे। अप्राप्य नदों पर्वतः । परया नद्या युक्तः पर्वतः प्रतीयते । श्रवरेण योगे परस्य स्वा । अतिक्रम्य पर्वतं नदी । श्रवरपर्वतयोगविशिष्टा परा नदी प्रतीयते । वावचनाल्नडादयो भवन्ति । न प्राप्नोति नदी पर्वतः । अतिक्रामति पर्वतं नदी ।
परकालैककतकात् ॥शा॥ परः कालो यस्याः सेयं परकाला क्रिया, तया एककर्ता यस्य सामर्थ्यात् पूर्वकालक्रियाभिधायिनः स तथोक्ताः। तस्माद्धोः क्त्वा भवति । स्नात्वा भुक्ते। स्नाला भुक्त्या पीला अति । एककनु कादिति किम् ? भवति देवदत्त गच्छति जिनदत्तः। परकालाइए किम् ! सामर्थ्यात् पूर्वकाल क्रियाभिधायिनो यथा स्यादिह मा भूत् । भुङ्क्ते च पिचति च वाले च जल्पति च इहापि कथञ्चित् पूर्वकाललविवक्षास्ति । च्यादाय स्वाँपति । संमील्य हसांत इति । वेत्यधिकरात् । मुक्त शेते छ ।
णम् पाभीक्ष्ण्ये ॥४॥ परकालैकक कादिति वर्तते । मुहुर्मुहुत्तिराभीक्ष्ण्यम् । एतच्च प्रकृत्यर्थविशेषणम् । परकालैकार्नु कात् पमित्ययं त्यो भवति घात्यश्च । नाभीक्ष्ण्वे-भोजमो ब्रजति । भुक्त्वा मुक्त्वा अचति । पायं पायं गच्छति । पीत्या पीत्वा गच्छति । तथाणमा द्वित्वमपेक्ष्याभीण्य द्योतयतः । पूर्वेण क्त्वात्ये सिद्धे णमर्थ वचनम् | इह बेति निवृत्तम् । उत्तरत्र वाग्रहग्यात् । म यदनाफाम ॥
२६॥ यच्छन्दै बानि स्वाणमौ न भवतोऽनाकाङ्क्ष सति वास्ये । अनन्तरव्यवहितभेदाभावात् पूर्वसूत्रविहितो अनन्वरश्च त्वा निषिध्यते शम् च । यदयं भुङ्क्ते ततो गच्छति । यदयं शेते ततोऽधीते । अनाकाङ्क्ष इति किम् ? यदयं मुक्त्वा वर्षांत । अधीत एव ततः परम् । अत्र पूर्वोत्तरक्रियाभ्यां अतिरिक्कमध्ययन काङ्क्षते ।
वाऽप्रथमपूर्वे ॥२४॥१०॥ श्राभोण्य इति निवृत्तम् । “परकालेकककात्" [ ] इत्यनेन त्वात्ये प्रासे विभाषेयम् । अग्रे प्रथम घूर्व इत्येतेषु चाक्षु तवाणमौ वा भवतः । अग्ने भोनं ततो ददाति । अग्ने भुक्त्वा ततो ददाति । प्रथमं भोज ततो ददाति । प्रथम भुक्त्वा ततो ददाति । पूर्व भोज ततो ददाति । पूर्व भुक्त्वा ततो ददाति ! "झिनामैव" [शमा] इत्यत्रैवकारोपादानात् केवलेनैवामा विहितेन पाक्सो भवति नान्यसहितेन 1 वावचनालडादयोऽपि भवन्ति । अग्रे भुले ततो ददाति । प्रथम भुक्तं ततो ददाति । पूर्व भुत तवो ददाति ।
कर्मण्याक्रोशे वनः खमुत्र ॥२॥ कमणि वाचि आक्रोशे गम्बमाने कृत्रः खमा भवति । चोरोऽसीत्येवमाक्रोशति चोरकारमाक्रोशति | दस्युङ्कारमाक्रोशति । क्वाऽपवादोऽयम् । आक्रोश इति किम् ? घोर वल्वाङ् गच्छति । नात्राऽक्रोशसंपादनार्थ चोरग्रहणम् ।
स्वादुमि णम् ।।२।१२॥ स्वादुमीत्यर्थनिर्देशः । स्वार्थेषु वाक्षु कुभो ग्यम् भवति । परकालैकात - का दिति वर्तते । स्वादुङ्कारं भुछक्के । सम्पन्न कारं भुक्तं । लवणाकारं भुङ्क्ते । स्वादुमीति शम्सन्नियोगे
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१०.२ पा० १ ० १३-14] महावृत्तिसहितम्
१३९ मकारान्तता निपात्यते । खमुनि प्रकृते । "खित्यो।" [१६] "भुमयः' [३४] इति मुमा सिद्धमिति चेत् यन्तविवक्षायां अमेरिति प्रतिषेधः प्रसज्येत । खमुत्र्येव मान्तनिपातनं फर्तव्यमिति चेन ध्यन्तार्थमेव तत्संभाव्येत । एमि पुनर्निपातनं होनिवृत्यर्थं "चौ" [पा२।१३५] दौनिकृत्यर्थः च । खाद्वीकृत्वा यवाग मुक्त । स्वादुङ्कारं भुले । विविवक्षायामस्वादुं स्वादु कृखा भुले स्वाटुकारं भुलक्के । "चौ" [११३५] इति दीत्वं प्रसज्येत । उत्तरार्थं च इह णम्महणम् । विभाषाधिकारात् क्त्वापि भवति । क्वादय प्रातुमो विधीयमाना मावे भवन्ति । ननु स्वाईंकार भुके देवदत्त इति गामा कर्तुग्नुकत्वात् कर्तरि ता प्रासा "म मित" [१/२) इत्यादिना ता कतारे न भवति ।
अन्यथैवंकथमित्थं स्वनर्थात् ।।२।४।१३॥ अन्यथा एवं कथमित्यमित्येतेषु वातु धुभ्यो गम् भवति अनर्थात् । येन विनापि यदर्थः प्रतीयते स तवानर्यस्तस्मिन्प्रयुज्यमाने त्यो भवति । तथाहि यावानेवार्थोऽन्यथा भुत इति तावानेव कृमप्रयोगेऽपि अन्यथाकारं भुङले । एवकारं भुङले । कथंकारं भुलले । हत्यकार भुसे । अनादिति किम् ? अन्यथा कृत्वा शिरो भुक्ते ।
यथासथयोरसूयाप्रत्युको ॥२४॥१४॥ कृमोऽनर्यादिति वर्तते । यथा तथा इत्येतयोर्वाचोः कोऽनर्थात् णम् भवति प्रसूयाकृत्तायां प्रत्युक्तो गम्यमानायाम् । कथं कृत्वा भवान् भुक्ते इत्येवं पृष्टोऽसूयकस्तं प्रत्याह यथाकारमहं मोक्ष्ये तथाकारमह भोये किं तवानेन | अनर्थादिति किम ! यया कृत्वाई बलि मोक्ष्ये कि तवानेन । मसूयापत्युक्ताविति किम् । यथाकृस्वाहं भोये तथा द्रलसि स्वम् । तथाकृत्वाऽहं मोक्ष्ये यदा द्रष्टयं भवता ।
कर्मण्यशेषे इशिवेदः ॥ १५॥ अशेषः कः ? साकल्यम् । इदं कर्मणो विशेषणम् | अशेषविशिष्टे फर्मणि वाचि डशिविदोवोर्णम् भवति । साधुदर्श प्रणमति । सर्व साधु प्रणमतीत्यर्थः । अतिथिवेदं भोजयति । यं यं विन्दति बिन्ते वा तं सर्वे भोजयतीत्यर्थः । अशेष इति किम् ? अतिथि दृष्ट्वा भोजयति ।
यावति विन्दजीवः ॥२।४.१६॥ यावच्छन्दै वाचि विन्दतिजीवत्योर्णम् भवति । यत्र पूर्वकालत्वं सम्भवति तत्र क्वाऽपयाः । यत्र न सम्भवति 'तत्रापूवें एवं विधिः।धुयोग इति वर्तते । यावद भने। यावल्लभते ताक्ने इत्यर्थः । यावजीवमधीते । यावजीवति वावधीते इत्यर्थः ।
चर्मोदरयोः पूरेः ॥२४३१७॥ कर्मणीति वर्तते । चर्म उदर इत्येतयोः कर्मणोर्वाचोः पूरयवेणम् भवति । चर्मपूरं शेते | उदरपूरं भुङले ।
वर्षप्रमाणे ॥राह१८॥ कर्मणीति वर्तते । फर्मणि वाचि पूरयतेर्णम् भवति समुदायेन वर्षप्रमाणे गम्यमाने । गोष्पदपूरं दृष्टो देवः । सीतापूरं पृष्टो देवः । कथं गोष्पदन वृष्टो देवः । प्रातेराव के कृते क्रियाविशेषणत्वेन नपुंसकलिङ्गम् । एतस्य कान्तत्वैव विभत्त्यन्तच्यादिषु च प्रयोगः साधुः । गोष्पदलेगा गोष्पदणीभवति । गोम्पदातरम योण्यदधुरं वृष्टो देव इत्येवमादावुभयथा प्रयोग ष्यते । एमन्तस्य पन्तस्य च क्रियाविशेषणभावेन इति विभत्स्यन्तरे च विशेषः । गमन्तस्य हि देश्यादिषु गोष्पदपूरं भवति गोष्पदपूरदेश्यम् गोपदपूरं देशीय गोष्पदपूरंकल्पं गोष्यदपूरंतराम् । घान्तस्य गोष्पदपूरीभवति गोष्पदपूरदेश्य गोष्पदपूरदेशीयम् गोमवपूरकल्पम् । गोष्पदपूरवराम् ।
लेषु कोपेः ॥२४॥१६॥ कर्मणीति वर्तते । चेलार्थेषु कर्मसु वाच नोपयतेर्णम् भवति वर्षप्रमाणे गये । चेलकोपं वृष्टो देवः । एवं वस्त्रकोपं वसनकोपम् ।
.. वनापूर्फ विनिवेदितम्यः ।
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जैनेन्द्र व्याकरणम् [म० २ पा... :.-. शुष्कचूर्णभक्षेषु पिषः ॥राधा२०॥ कर्मणीति वर्तते । शुरुका चूर्ण मक्ष इत्येतेषु धर्मसु वाच पिोर्णम् भवति । शुष्कपेषं पिनष्टि वगरम् । शुष्क पिनष्टीत्यर्थः । एवं चूण पेषं पिनष्टि । भक्षपेघ पिनाटि । घषि सति क्रियाविशेषणे शुष्कस्य पेत्रं पिनष्टि इत्येवमादयः प्रयोगाः साधवः। इतः प्रभृति "उपदहो भायाम" [ ३६] इत्यतः प्राक् यत पव धोर्णम् भवति तस्यैवानुप्रयोगोऽपि भवत्यभिधानवशात् ।
___ जीवाकते ग्रहिकमः ॥२॥२९॥ कर्मणीति वर्तते । भीष अकृत इत्येतयोः कर्मवाचिनोवांचीर्यथासंख्यं हि कृम इत्येताभ्यां यम् भवति । जीवनाहं गृहीतः । अकृतकारं करोति ।।
निमूले कषः ॥२४॥२२॥ कर्मणीति वर्तते । निमूले कर्मणि वाचि कर्णम् भवति । निमूलकाषं फति । घधि सति क्रियाविशेषणे निमूलस्य कार्य कषति इत्यपि भवति ।
समूले हमश्च ॥२४॥२३॥ कर्मणीति वर्तते । समूले कर्मणि वाचि हन्तेः कश्च णम् भवति ! समूलपातं हन्ति । समूलकाप कषति ।
करणे ॥राARn हन इति वर्तते । करणे वाचि हन्तेर्णम् भवति । पाणिपातं कुइथ इन्ति । पाणिना इन्तीत्यर्थः । पादचातं शिला हन्ति । यदा हिंसार्थो 'इन्तेविक्षितः तदा हिंसाशंदेडकमेकाद" [१३] प्रतीमपि विधि पूर्वविप्रतिषेधेन बाधित्वाऽयमेव एम् | असिघातं हन्ति चौरान् । कोऽत्र विशेषः १ अनेन नित्यः सविधिः तस्वैव धोरगुप्रयोगश्च भवति ।
हस्ते वतिंग्रहः ॥२४॥२५॥ करण इति वर्तते । हस्त इति अर्थनिर्देशः । हस्तवाचिनि करो वाचि वर्तयतिगृह्णातिभ्यां णम् भवति । हस्तवर्त' वर्तयति । इस्तेन वर्तयतीत्यर्थः । एवं पाणिवर्तम् । करवतम् । हस्तमाई ग्रहाति । इस्तैन गृह्णातीत्यर्थः । एवं पाश्चिमाई करग्राहम् ।
स्थेषु पुषः ॥२४॥२६॥ करण' इति वर्तते । स्व इति स्वरूपस्य तविशेषाणां च ग्रहणम् । बहुत्वनिर्देशात् । स्वचाचिकरणबाचिनि पुर्णिम् भवति । श्रात्मात्मीयज्ञातिधनानि स्वरान्देनेष्यन्ते । स्वपोष पृष्ठः । विद्यापाषं गोपोषं मातुपोषं पिनुपाषं रेपोषं पुष्णाति । सर्वत्र घमन्तेन गमन्तस्यार्यकथनं द्रष्टव्यम् । स्न पोषं पुष्ट इति स पब पुषिः कालसाधनभेदाइन्वर्व गतः पुषिणा युज्यते । यथा विभिन्छति विषिषति । इपिरिषिणा युज्यते ।
स्नेहने विषः ॥२४॥२७॥ करण इति वर्तते । स्लिमतेऽनेनेति स्नेहनम् । स्नेहनवाचिनि करणे वाचि पि|र्णम् भवति । घृतपेष पिनष्टि । वेन पिनष्टीत्यर्थः । एवं तैलपेषम् । उदपेषम् । 'पेपमि'' [v ] इत्युदकस्योदादेशः।
बन्योऽधिकरणे ॥२॥२८॥ अधिकरणे वाचि चनातेर्णम् भवति । चकबन्ध बदः। चक्रे रख हत्यर्थः । एवं चारकचन्धम् । दृष्टिबन्धम् । गुप्तिबन्धम् । मध्यमानाधारे काचि पम् भवति न मापारे । इस्ते बनातीति वेत्यधिकाराद्वा न भवति ।
खौ ॥२।४।२६॥ विषये व नातेणम् भवति । चण्डालिकाध बदः। अष्टालिकाबन्धं मदः । महिषिकानन्धं मयूरिकाबन्धं काञ्चबन्धं बद्धाः। समन्ताः बन्धविशेषाणां संज्ञा एताः। अर्थप्रदर्शन तु यथाकविकरणेन बाचा अन्यथा या दर्शनीयम् । अन्य तु ब्याचक्षते खुभूती यो बन्धः तस्मिन् करवचिनि वाचि बनातर्णम् भवति ।
काओवपुरुषयाशियही ॥२४॥३०॥ जीव पुरुष इत्येतयोः कर्तृवाचिनो चोर्यथाक्रम नशि1. इन्सिनि--R०, 4०, स० । २. कूठबनभम् म.
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०२ बा०
सू० ३१-३८ ]
महावृत्तिसहितम्
वहियां राम भवति । जीवनाशं नश्यति । छीवो नश्यतीत्यर्थः । पुरुषवाहं वति । पुरुषो मूत्वा वहतीत्यथः। करिति किम् ? जीवन नष्टः । पुरुष वन्ति । श्रत्र करो कर्म च वाक् ।
१४१
ऊर्ध्वं त्रिपुरोः || २|४|३१|| करिति वर्तते । ऊर्ध्वशब्दे कर्तृवाचिनि वाचि शुषि पूरि इत्ये भवति । ऊर्ध्वशोत्रं शुष्कः । ऊर्ध्वः इत्यर्थः । ऊर्ध्वपूरं पूर्यते । ऊर्ध्व पूर्यत इत्यर्थः ।
ताभ्यां शाम्
I
कर्मणि ॥ २|४| ३२ ॥ शब्दे कार्यस्यासम्भवादिवार्थं उपमानं गृह्यते । इवशब्दार्थे वर्तमाने कर्मणि कर्तरि भूवादिघोम् भवति कर्मणि । घृतनिधायं निहितः । घृतमित्र निहित इत्यर्थः । एवं जीवितरक्ष रक्षितः । कर्तरि — अक्रूरनाशं नष्टः । अक्रूर इव नष्ट इत्यर्थः । एवमजकनाशं नष्टः । चूडकनाशं नष्टः । पिचादिषु यथाविध्यनुप्रयोगो न वक्तव्यः । योग इति वर्तते तत्र प्रत्यासत्तेरभिघानवशाद्वा यव एव धोर्णम् तस्यैवानुप्रयोगः ।
शोभायाम् ||२|४|३३|| उपपूर्वा शेर्मान्ते वाचि णम् भवति । धुयोग इति च वर्तते । एककर्तृकादिति व पूर्वकालवं संभवतः संवन्धनीयम् । मूलकोपदंशं भुङ्क्ते । मूलकेनोपदेशं मुझे | "या माहि" [४] ते विभाषया वाक्लः । त ऊ यानि वाक्संशाने वयन्ते तानि मानि गृह्यन्ते । सर्वत्रास्मिन् प्रकरणे वेत्यनुवर्तते । तेन तत्राऽपि भवति । मूलकेनोपदेश्य भुङ्क्ते । कर्मणः साधकतमत्वविषायां भा भवति । श्रथवा उपदेशिगुणस्य मुन्जेरेतत्करणम् ।
हिंसादेककर्मकात् ||२||४१३४ || भायामिति वर्तते । हिंसार्थेभ्यो घुभ्योऽनुप्रयोगेणे ककर्मकेम्यो भान्ते वाचि णम् भवति । दण्डाघातं गाः सादयति । दण्डेनाघातम् | "करो" [२/७/२४] इत्यनेन हन्तेर्यः पूर्वनिर्णयेन म् विहितस्तस्यैवानुप्रयोगो द्रष्टव्यः । हन्तेरन्यदपीहोदाहरणम् । दण्डाताडं गाः कालयति । वरनाताम् । खङ्गप्रहार शत्रून विजयते । स्वङ्गेन प्रहारम् । एककर्मकादिति किम् ! दराडे नाहृत्य भूमि गोपालको गाः सादयति ।
ईपि चोपपोडरुधकर्षः || २|४|३५|| उपपूर्वेभ्यः पीडघकर्तेभ्य ईपि वाचि चकाराद्भान्ते वाचिग्राम् भवति । उपशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । त्रयोपरोधम् । बजे उपरोधम् । व्रजेनोपरोधम् । पार्श्वोपपीडं शेते । पाश्र्वभ्यामुपपीडम् । पार्श्वयोरुपपीडम् । पाययुपकर्षे धानाः पिनष्टि । परापकर्षम् । पाणिनोपकर्षम् ।
प्रमाणासत्त्योः ||२|४|३६|| ईषि भाषां चेति वर्तते । प्रमाणमायाममानम् । श्रासत्तिः सन्निकर्षः । ईनन् मान्ते वाचि धोर्यम् भवति प्रमाणास त्योर्गम्यमानयोः । द्व्यङ्गुलोत्कर्षं गं गडकानिति । व्यङ्गलोस्कर्षम् । त्र्यङ्गुलेनोत्कर्षम् । ञ्यङ्गुले उत्कर्षम् । श्रासत्तौ । केशग्राहं युध्यन्ते । केशेषु ग्राहं केशैर्माहम् | सन्निकृष्टं युध्यन्ते इत्यर्थः । एवमस्यपनोदं युध्यन्ते । श्रसिष्वपनोदम् । श्रसिभिरपनोदम् । हस्तग्राहम् । हस्तेषु प्राइम् । हस्तैर्माम् ।
त्वर्थपादाने || २|४|१७|| त्वरत्वय स्वरीति सौत्रमात्वम् । त्वरायां गम्यमानायामपासने वाचि घोर्यम् भवति । शय्योत्यायं धावति । शय्याया उत्थाय । मुखप्रक्षालनाद्यवश्यकार्यमकृत्वा स्वरत इत्यर्थः । एवं स्तनरन्ध्रापकर्ष पयः पित्रति । स्तनरन्ध्रादपकर्णम् । भ्रष्टापकर्षमभूपान् भक्षयति । भ्राष्यदपकर्षम् | वेत्यनुवर्तनात् शय्याया उत्थाय धावति । स्वरीति किम् ? आसनादुत्थाय गच्छति ।
इषि || २|४|३८|| त्वरीति वर्तते । इचन्ते वाचि त्वरायां गम्यमानायां चोर्णम् भवति । यष्टिग्राह युध्यन्ते । यष्टिं ग्राहम् । स्वरया युद्धप्रहरणमनपेक्ष्य यष्टिमादाय युध्यते इत्यर्थः । एवं पटापकर्षं घान्द्र पटमपकर्षम् | त्वरीत्येव । खड्गं गृहीत्वा युध्यन्ते ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० २ ० सू० ३२००५
स्वाऽध्रुवे ||२|४|३९|| छपीति वर्तते । यस्मिन्विनष्टेऽपि प्राणिनां मरणं न भवति तदद्भुवं स्वाङ्गम् । वस्मिन्निवन्ते वाचि घोर्यम् भवति । श्रक्षिनिकोचं जल्पति । श्रक्षी निकोचम् । भूक्षेप जल्पति । यं क्षेपम् । अंगुलिनिकोटं जल्पति । अंगुलिं निकोटं षम्पति । ऋभुव इति किम् ? शिर उत्क्षिप्य जल्पति । द्रवं मूर्तिमत्वांगं प्राणिस्थमविकारकम् । श्रतत्स्यं तत्र दृष्टं च तेन चेत्तत्तथायुतम् ।
ર
श्राद्यैश्चतुभिर्विशेषणैर्जाला बुद्धि फल शोफादिरहितप्राणिस्थं वस्तु स्वाङ्गमुक्तम् । अतत्स्थं तत्र दृष्टं चेत्यनेन भूमिपतितकेशादिपरिग्रहः । तेन चेचत्तथायुतमित्यनेन काष्ठादिप्रतिमायां स्थितं पाण्यादि संग्रहीतम् ।
सक्लेशे || २|४|५० ॥ इपीति वर्तते स्वाङ्ग इति वा । सह लेथेन दुःखेन वर्त्तते इति स शं क्लिश्यमानमित्यर्थः । बन्ते सक्शे स्वा वाचि धोर्णम् भवति । भुवार्थोऽयमारम्भः । उरः प्रतिषेषं युध्यन्ते । उरांसि प्रतिपेधम् । उरांसि पीष्ठयन्तो युध्यन्ते इत्यर्थः । एवं शिरःप्रतिपेषम् । शिरांसि प्रतिपेषम् ।
विशिपतिपविस्कन्दो व्याप्याग्ययोः ||२|४ |४१ || इपीति वर्तते । विश्यादिभिः कास्येंन व्यापनीयद्रव्यं व्याप्यम् | क्रियारूपं तात्पर्येण आसेवनीयमारोग्यम् । क्रियाधारभूतमुपचाराद्द्रव्यमप्यासेव्यम् । विशि पति पदि स्कन्द इत्येतेभ्यो घुम्यः व्याप्य आसल्येच वाचि णम् भवति । गेहानुप्रवेशमास्ते । त्या व्यापनस्यासेवनस्य चोक्कत्वात् द्वित्वं न भवति । वाक्यपक्षे व्याप्यमानस्य द्रव्यस्य द्वित्वम् । प्रासेन्यविवचायां तु मुख्यस्याने क्रियारूप झोपवेशमा । गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्ते । गेहानुप्रपातमास्ते । गेहं गेहमनुप्रपातम् । गेहमनुप्रपातमनुप्रपातमास्ते । गेहमनुप्रपाद मास्ते । गेहूं गेहमनुप्रपादम् । गेहमनुप्रपादमनुप्रपादम् । गेावस्कन्दमासी | गेहूं गेहमवस्कन्दम् । गेहमवस्कन्दमवस्कन्दम् । वेयधिकारात् गेहूं गेहमनुप्रविश्य गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्यास्तै । वीप्सायामामीचये च द्वित्वम् । व्याप्यासेन्ययोरिति किम् १ गेहमनुप्रविश्य भुङ्क्ते । "याम् चाभीक्ष्णये।' [२४] इति यद्य यासेव्ये यम् सिद्ध:, तथापि वाक्यविकल्पार्थमिदम् ।
तृष्यस्वोः क्रियान्तरे काले || २|४|१२|| पीति वर्तते । इवन्ते कालवाचिनि वाचि तुषि श्र इत्येताभ्यां भवति क्रियान्तरायें घयनुप्रयुज्यमानक्रियापेक्षया क्रियान्तरे वृत्तिरित्यर्थः । द्वापवर्षे गाः पाययति । द्वयमपतम् । व्यापतर्षम् | त्र्यहमपतर्पम् । महात्यासं गाः पाययति । द्वयमत्याम् । त्र्यज्ञात्यासम् | त्र्यहमल्यासम् । कालाध्वन्यविच्छेद हवीप् । तुयोरिति किम् १ द्वद्यइमुपोष्य भुङ्क्ते । क्रियान्तर इति किम् ? हरत्यस्य गतः । श्रत्रास्यतिर्न क्रियान्तरे वर्तते किन्तु गतावेव । काल इति किम् ? पञ्च पूलान् अयस्य तिलान् भवति ।
नान्यादिशिग्रहः ||२||४३|| पीति वर्तते । बन्ते नामशब्दे वाचि श्रादिशिग्रहम्यां गम् भवति । नामादेशमाचष्टे । नामान्यदेशम् । नामग्राहमाकाश्यति । नामानि ग्राहम् ।
भावनिष्टको कृञः श्वाणमी || २|४|१४|| भिवंशके वाचि अनिष्टोलौ गम्यमानायां कृष्णः क्वायामौ भवतः । वत्यधिकारात् क्त्वात् सिद्धे पुनः क्त्वाग्रहणं क्वा इत्यनेन वृत्तिविकल्पार्थम् । मादीति तत्र वर्तते तेनोत्सर्गे स्वात्ये सविकल्पो न स्यात् । ब्राह्मण पुत्रस्ते जातः किं तर्हि वृषल नीचैःकृत्याचष्टे । नीचैः कृत्वा । नीचैःकारम् । उच्चैनम प्रयमाख्येयम् । नीचैराख्यायमानमनिष्टं भवति । ब्राह्मण कन्या वे गर्भिणी । तर्हि वृषल उच्चः कृत्वाऽचष्टे | उच्चः कृत्वा । उच्चैः कारम् । कन्यागर्भः उच्चैराख्यायमानोऽनिष्टः १ अनिष्टोक्ताविति किम् ? उच्चैःकृत्याचष्ट पुत्रस्ते जातः ।
I
सिरथपवर्गे || २|४|४५ ॥ पवर्गः समाप्तिः । तिर्यक्छब्दे वाचि श्रपवर्गे गम्यमाने कुमः ताम
१. विक्रियाभिः प्र०, ब०, स० ।
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कारमा
.०२ पासू०१६-१७ महादृसिसहितम्
१४३ भवतः । तिर्यकृत्य गतः। लिर्यवकृत्वा । विर्षकारम् । समाप्य गत इत्यर्थः । अपवर्ग इति किम् १ तिर्यक कृत्वा काष्टं गतः। तिरश्चीति तिर्यक्छब्दानुकरणनिर्देशः। "प्रकृतिघवनुकरणं भवति" [परि०] इति रूपसिद्धिः ।
स्वाङ्गे तस्ये कभुवः ॥२४४६॥ तस्ल्यो यस्मात्तत्तथोक्तम् । तस्त्ये खाने वाचि कृ भू इत्येताभ्यां स्वाणमौ भवतः । मिन्नयोगनिर्दिष्टवाद्ययासंख्यमत्र न भवति । मुखतःकृत्य गतः। मुखतः कृला । मुखतः
| पृष्ठतःकृत्य । पृष्ठतः कृत्या | पृषतःकारम् । मुखत्तोभय । मुखतोभूखा । मुखतोभावम् । पृष्ठतोभूय । पृष्ठतोभूला ! पृष्ठतोभावम् 1 "अपादानवीयरुहो।" {१२५०] इति "आदिभ्य उपसंख्यामम्" [व] इति वा तसिः । स्वाङ्ग इति किम् ? सर्वतःकया। तत्यग्रहणं किम् । मुखीकृत्य गतः । त्यग्रहणं किम् । मुखे तस्यति मुखतः । श्रमुखतसं मुखतसं कृत्वा मुखतःकृत्य ।
माधार्थत्यं सम्य) सिजा नायीं घाव त्यो यस्मात्स तयोक्तः । नार्थत्वे घार्थये च शन्दे ध्यर्थे वाचि कृ भू इत्येताभ्यां क्त्वाणमौ भवतः । नार्थत्ये विनाकुल्य गतः । विनाकृत्वा । विनाकारम् । बिनाभय । चिना भूखा । धिनाभावम् । अनाना नाना कृत्य गतः । नानाकृत्वा । नानाकारम् । नानाभ्य | नानाभूत्वा । नानाभावम् । "बिनभ्यां मानायौ म सह" [ 1] इति नानाभौ भवतः । पाय त्ये-अद्विधा द्विषा कृत्य गतः 1 विधाकृत्या। विधाकारम् । द्विधाभूय । द्विघाभूत्वा । द्विधाभावम् | अद्वैध द्वैध कृत्य गतः । दैध कृत्वा । कारम् । द्वघं भूय । वधं मृत्वा । द्वैधं भावम् । प्रधा द्वधा कृत्य गतः । = धाकृत्वा । वेधाकारम् | दूधाभूय । द्वेधाभूत्वा । द्वेधाभावम् । "संख्याया विधायें धा" [1111०1] पहिधमुन" [ 10] एकथा । ऐकथ्यम् । "वैकादयमुञ्" [11०७। श्रर्थग्रहणं स्वरूपमात्रनिरासार्थम् । त्यग्रहणं किम् । नाघार्थे वाचीत्युच्यमाने दहापि स्यात् । अहिरक हिरकला पृथकृत्वा चिर्विकल्पेन विधास्यते । व्यर्थमात्रमत्र विक्षितं न यिः । श्रयं इति किम् ? नाना कृत्वा काष्ठानि गतः। - तूष्णीमि भुवः ॥२॥४॥४मा तूष्णीमशब्दे वाचि भू इत्येतस्मात् क्वाणमो भवतः । तूष्णीभूयास्ते । तूष्णी भूत्वा । तूणीभाषम् ।
अन्यच्यानुलोम्यै ॥२४॥४५॥ श्रानुलोग्यमनुकूलता । अन्वक्छन्दे माचि आनुलोम्ये गम्यमाने मुवः क्त्वागमो भवतः | अन्यग्भूत्वा । श्रन्वग्भावम् । श्रानुलोम्य इति किम् ? अन्वग्भूत्वा प्रास्ते । पश्चान स्वेत्यर्थः ! अन्त्रचीति निर्देशः प्रकृतिवदनुकरणमिति न्यायात् ।
शकधृषशाग्लाघटरभलभक्रमसहाहस्त्यिर्थे तुम् ॥२।४।०॥ शकादिषु अस्त्यर्येषु च धुषु वाच धोस्तुम् भवति । शक्नोति भोक्नुम् । धृष्णोति भोग्नुम् । जानाति भोक्नुम । ग्लायति भोतम् । घटते भोकम् । श्रारभते भोक्तुम् । लभते भोक्तम् । प्रक्रमते भोक्तुम् । सहते मोस्तुम । अहति भोस्तुम् । प्रत्यर्थेषु-अस्ति भोक्तुम् । भवति भोक्तुम् । विद्यवे भोक्तुम् 1 क्रियायां तदायां वाचि तुम् विहितः। अतदर्यायामपि यथा स्यादित्यारम्भः ।
पर्याप्तिवचनेऽलमर्थ ॥राठा५१॥ पर्याप्तिः प्रभूतत्वं सामर्थच अलमर्थन विशेष्यमाणत्वात्मामर्थ्य मेवावतिष्ठते । पर्याप्तिबचनेवलमर्थविशिष्टेमु वाच धोस्तुम् भवति । पर्याप्तो भोक्तुम् | समयों भोक्तुम् । प्रभुोक्तुम् । प्रलं भोक्तुम् । पारयति भोक्तुम् । इदमप्यस्योदाहरणम् । युक्तं पुनरिदं विचारयितुम् । "वा भावि' ] इति घसो न भवति । अमैवेति तत्र वर्तते । पर्याप्तिवचन इति किम् ? अलरते कन्याम् । अलं रुदित्वा । समष्विति वक्तव्ये गुरुकरणं किम् ? सामर्यमाने मा भूत् । शक्त्या भुके। बलेन मुक्के । अलमर्थे इति किम् । पर्यासं भुङ्क । प्रभूतं भुरुके। अन्यून भुक्ते । पूर्वसूत्रे शकिः सौक वर्तत नासमर्थे ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [.. पा० ०५३-५० कतरि कृत् ॥शा२॥ कसरि फारफे कृसंचास्त्या भवन्ति । अनिर्दिष्टााल्याः स्वाथै भावे प्रासाः । कारफः । कर्ता । ये कृतः कर्तरि नेष्टाः सैघां पर निगरपायोनिमाविरमास !
भल्यगेयप्रवचनोयोपस्थानोयजन्यालाव्यापात्या वा ॥४॥५३॥ भध्य इत्येवमादयः शन्दाः कर्तरि वा निपात्यन्तै । "योग्य कलाः " [शा५५] इत्यस्मिन् प्राप्ते पक्षे कर्तरि विधानम् । भवत्यसो भव्यः । मग्यमनेनेति वा । गेयो माणवकः पहनस्य । गेयो माणवकेन षडङ्गः । प्रवचनीयो गुरुः शास्त्रस्य । प्रवचनीयं शास्त्रं गुरुणा । उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः । उपस्थानीयो गुरुः शिष्येण । जायते असौ अन्यः । जन्यमनेन । जनिषष्योः" [१९५०] इत्यैप्प्रतिषेमः । अथवा "शफिसहरष" [२ ] इति चकारेण जनः । श्रावतेऽसौ आखाव्यः । अाझाव्यमनेन । आपतवीत्यापात्यः । श्रापात्यमनेन ।
लः कर्मणि च भावे च धे: ॥रावा|| ल इति लडादीनां नवानामुत्सृष्टानुसन्धानां सामान्येन ग्रहणं जसा च निर्देशः । लकाराः सकर्मकेभ्यो धुन्धः कर्मणि कर्तरि च कारके भवन्ति, भावे कतरि च घिसंशेभ्यः । कमरिण --क्रियते कटः । गम्यते ग्रामः । कर्तरि--करोति कटम् । गच्छति ग्रामम् । धेर्भाव--- श्रास्यते भवता । सुप्यते । कर्तरि श्रास्ते भवान् । स्वपिति भवान् । लो डो चेति वक्तव्ये प्रपञ्चेन निर्देश: किमर्थः । सकर्म म्यो लो भावे मा भूवन् ।।
तयोर्यक्रवार्थः ॥२४॥५५॥ तयोर्भावकर्मणोः व्यसंज्ञाश्च काच खार्याश्च भवन्ति । "कसरि कत्' [२१।१२] इत्यस्यायमपवादः । कर्मणि-कर्तव्यः ऋटो भवता । भोक्तव्य प्रोदनो भक्ता । भावे-श्रासितव्यं भवता । शयितथ्यं भवता । क्वः कर्मणि | कृतः को भवता । भुक्त ओदनो भक्ता । भावे-श्रासित भवता । शयित भवता । खोर्थाः कर्मणि---ईषत्करः कटो भक्ता । सुफरः कटो मक्ता । सुपानं पयो भवता । दुष्पानं पयो भवता । भावे-स्वासं भवता । दुरासं भवता । सुग्लानं भवता । दुग्लान भवता । श्रात्मकर्मविवक्षायां व्यक्तखार्थप्रयोगविषये सकर्मका अप्यविवक्षितकर्मफल्धेनाकमकाः। तेन भावे ज्यादयः । भेत्तव्यं कुशलेन स्वयमेव । भावकर्मग्रहणे तु वर्तमाने तयोरिति ग्रहणं यथाविधिप्रतिपादनार्य सकर्मकेभ्यः कर्मण्वकर्मकेभ्यो भाव इति ।
कतरि चारम्भे करा॥ श्रारम्भः श्रायः क्रियाक्षणः । श्रारम्भे यो धुर्वर्तते तस्माद्यः स कर्तरि भवति यथाप्राप्तं च भावकर्मणोः । प्रकृतो भवान् कटम् । प्रकृतः कटो भवता । प्रकृतं भवता । प्रभुको भवानोदनम् । प्रभुक्तः श्रोदनो भवता । प्रभुक्त भवता । धिम्यस्तु "धिगत्यर्धाइच" [ ५] इति वक्ष्यति । प्रायक्रियाक्षणकाले । कटो नामिनिर्धतः तस्योपचारात् भूतकालेन प्रकृतशन्देन मानाधिकरण्यम् ।
शिलषशीच स्थासषसजनसहजषश्च ॥२५७॥ श्लिषादिभ्यः पतरि तो भवति यथाप्रासं च भावफर्मयोः । धिरास्यांच" ५५८] इति सिद्ध इह सकर्मकार्थभुपादानम् । इदमेव शापम् । अकर्मका (सकर्मका) अपि भवन्ति । श्राश्लिष्टः कन्यां देवदत्तः । आश्लिष्टा कन्या देवदत्तेन । श्रारिमष्टं देवदचस्य । अवियितो गुरुं भवान् । अतिशयितो भवता गुरुः | अतियितं भवतः । उपस्थितो गुरं भवान् । उपरिचतो भवता गुरुः। उपस्थित भवतः। उपासितो गुरुं भवान् | उपासितो भवता गुरु ! उपाख्विं भवतः । अनूषितो गुरुं भवान् । अनूषितो भवता गुरुः। अनूषितं भवतः । अनुजातो मायावको मानविकाम् । अनुजाता माविका माणवकेण । अनुजातं माणवकस्य । श्रारूढो वृक्ष देवदत्तः । आरूढ पक्षो
1. षड्जस्य ब०, स. । २. पब्जः ३०, स. | ३, चाधेः मु.। १. सायौ च प्रा०,० ५. सायी म., .स
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प. प सू. ५०-१५] | महाखुसिराज देवदत्तेन । श्रारूदं देवदत्तस्य | अमुजीर्णो चपली देवदतः । अनुजीर्णा वृषक्षी देवदत्तेन । अनुबीर्स' देवदत्तस्य । रहेरंगत्यर्थत्वादन्यदपि गत्यर्थकार्य न भवति । प्रारोहयति वृक्ष देवदत्तेन । कर्मसंधान मवति ।
धिगस्पोध ॥२४५८॥ धिर्सश भ्वः गत्यर्थेभ्यश्च धुभ्यः कस्यः कर्तरि भवति यथाप्राप्तं च । श्रासितो भवान् । आसित भवता । शयिती भवाम् । शयितं भवता । गल्यर्थे म्यागतो भवान् प्रामम् । गतो भवता ग्रामः । गतं भवता । यातो भवान् । यातो भवता प्रामः । यातं भवता । "कामभावाचभिः कर्मभिः सकर्मकवद्भवति" [ धा. ] वत्करणात् स्वाश्रयमपि भवति । अतस्त्रैरूप्यम् । सुप्तो भवान् मासम् | सुप्तो भत्रता मासः । सुप्तं भवता । श्रोदनपाकं सुशो भवान् । श्रीदनपाकः सुतो भवता । श्रोदनपार्क सुप्त भवता । क्रोशं सुप्तो भवान् । क्रोशः सुप्तो भवता | कोशं सुप्तं भवता ।
अधिकरणे चाधर्थाश्च ॥२॥४४॥ इति वर्तते । प्रद्यर्थ अभ्यवहाराः । अद्यर्थेभ्यो विगत्यर्थेभ्यश्च क्लोऽधिकरयो भवति कर्तरि भावे कर्मणि च । यथानातं कर्तृ कर्मभावेषु । श्रद्यर्थेभ्यः अधिकरणकर्मभायेषु क्तः । अधिकरणे अस्मिन्निम भुञ्जते स इदमोगा भुक्तम् । इदमेषां पीतम् । "कस्पाधिकरणे" [ ७०] इति कतरि सा । कर्मणि-पभिर्युक्त श्रोदनः । एभिः पीतं मधु 1 भावे-भुक्तमेभिः । पौवमेमिः विभ्योऽधि. करणक भाषेषु सः। अधिकरणे-इदमेषामासितम् । श्रासितो भवान् | श्रासितं भवता । गत्यर्थेभ्यः अधिकरणकर्तृकर्मभावेषु क्लः। श्रधिकरणे-बदमेषां यातम् ] यातो देवदत्तो ग्रामम् ] बातो देवदचेन मामः । यातं देवदत्तेन । इह विभुक्ताः प्रातरः पीता गावः इति मत्वर्थीयोऽकारः ।
दासगोमो संनदाने ||२४|६०|| दास गोन हत्येतो शब्दौ निपात्येते संप्रदाने कारके । दास'ऽस्मै पवाद्यचि दासः । गां हन्ति अस्मै श्रागताय गोमोऽतिथिः । टगत्र निपात्यः । स्त्रियां गोनी देवदत्ता ।
भीमादयोऽपादाने श६१॥ भीमादयः शब्दा अपादाने कारके ज्ञातव्याः। भीमादयः शब्दा अन्यत्र साधिताः कारकनियमार्थमिह तेषां पाठः । विभेत्यस्मादिति मीमः । भीष्मः। भयानकः । चरः । प्रस्कन्दनम् । प्रयतनम् । समुद्रवन्त्यस्मात् समुद्रः । सुवः । रुक् । भृष्टिः । रक्षा | सेकसन्ति वस्मात् संकसुकः । खलिनः ।
पणादयोऽन्यत्राभ्याम् ॥२४॥६२॥ उणादयस्त्या अाभ्यां संप्रदानापादानाभ्यामन्येषु कारकेषु भवन्ति । फरोतीति कारुः । वृश्चति तं वृक्षः। कषितोऽसौ कविः । ततोऽसो तन्तुः। घृतं सत्र वर्म | चरितं तवेति धर्म । मसितं तत्रेति भस्म । चन्ति तया ऋक् ।
जस्थ ॥१४.६३|| प्रकार उच्चारणार्थः। लस्येत्ययमधिकारः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो लस्य स्थाने सद्वेदितव्यम् । नव लकाराः पञ्च टितश्चत्वारो जितः-लट लिट् लुट लट् लोट् लङ् लिङ् जुङ्लु ङ् । एषामनुबन्धापायेम लकारमा स्थानित्येनाधिक्रियते । त्य इति वर्तते धोरिति च । धोविहितस्य त्यस्य खकारस्य प्रहणात् लभते चूडाल इत्येवमादि परिहतम् ।
मिध्वरमस्सिपथस्थतिप्तसूभोज्य हिमप्तिथासाथावतातांझऊ. ॥२४/६४॥ लस्य स्थाने मिबादयः श्रादेशा भवन्ति । पकारः "मोऽपिद' [ ७८ ] इति विशेषणार्थः। इटष्टकारी "समेठ" [१४८६] इति विशेषणार्थः । मडो डकारः प्रत्याहारार्थः । पचामि । पचावः । पचामः । पचसि । पचथः । पचथ । पचति । पचतः । पचन्ति । टितां दविषये आदेशान्तराणि पश्यन्ते । लिटो मानो सलादयः श्रादेशाः वक्ष्यन्ते । लुट् । पक्कास्मि । पक्काला। पतामः । इत्येवमादि शेयम् । लुट । पक्ष्यामि । पक्ष्यावः । पक्ष्यामः । लोट अादेशाः यक्ष्यन्ते । डितां लकाराणां मविषये च इह तानुदाहरिष्यामः।
1.कः कर्त-भः।
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम्
[०२ पा० ४ सू० ६५-४१
है।
लम् । श्रपचे । अपचावहि । अपचामहि । वच्यते लिए। तुझ्। अपक्षि | अपश्यहि । अपक्ष्महि । लुरू। अपक्ष्ये । अपक्ष्यापहि । अपक्ष्यामहि ।
टिहटेरे ॥२४॥६५॥ टिता लकाराणां ये दास्तेषां टेरेत्वं भवति । यत्र एफ एवाच तत्र म्पपदेशिवडावाददन्तत्वमुक्तम् । यत्र च तदादिन्यो नास्ति तत्रापि व्यपदेशिवनावात्तदादित्वम् । पचे । पचायो । पचामहे । "थासः से" [शश६] इति वक्ष्यति । पचसे । पचेथे। पचवे । एचते । पचेते | पचन्ते । लिट् । पेचे । पेचिवहे । पेचिमहे । लुट् । पक्काहे । पक्कास्वहे । पक्कास्महे । लृट् । पक्ष्ये । पक्ष्यावहे । पक्ष्यामहे । खोटो वक्ष्यति । प्रकृताना मिझ दस्य टेरेस्यम् । तेनेह न भवति । पचमान इति ।
थासःखे ॥२॥६६॥ टिदग्रहणमनुवर्तते । टितो लकारस्य थासा स इत्ययमादेशो भवति । पचसे । पेचिपे । पतासे । पक्ष्यसे ।
"एशिरेसविधानेषु किं स्यादेटवे प्रयोजनम् । मायने सुकते मामूद शापक sitatus in
लिटस्तमयोरेशिरे ॥२॥४॥६७ लिडादेशयोस्त झ प्रत्येतयोः एश हरे हत्येतापादेशौ भवतः । शकारः सर्वादेशार्थः । परस्पादिर्मा भूत् । पेचे | पेचिरे । नेमे । नेमिरे।
मानों एएषमथाथुसणलतुस्सुसः ॥६॥ लिट इति वर्तते । लिटो मानां स्थाने यथासंख्यं णलादयो नव श्रादेशा भवन्ति । कारः ऐबर्थः । लकारः सर्वादेशार्थः । इति द्वयोरकारयोः प्रश्लेषनिर्देशः सर्वा देशार्थः । अन्त्यस्याकारस्याकारवचने प्रयोजनाभावात् सा देश इति चेत् समसंख्यत्वं प्रयोजन संभाव्येत | अथवा धोरिति कानिर्देशात् परस्यादेस्थकारस्याकारः। पपाच । पाँचव । पेचिम । पपस्थ । पेचिथ। पेचथुः । पेच | पपाच । पेचतुः। पेचुः । “धोपदेशे" [५/३१३०८] इत्यादिना वेट् । "सेटि" [ A ] इति एत्वं च । वमयोः क्रादिनियमादिद।
विदो खटो वा ॥२६॥ मानामिति वर्तते । तेहत्तरेषां बटो मानां खाने वा एखादयो भवन्ति । वेद । सिद्ध । विद्म । वेस्थ । विदधुः । विद । वेद । विदतुः । विदुः । न च भवन्ति । वेभि । विदः । विभः । वेत्सि । विस्थः । विश्य । वेत्ति । वित्तः । विदन्ति । दिद इति कानिर्देशात् शानार्थस्य ग्रहणम् । लाभाथस्य शेन व्यवधानात् । ।
प्रधाहरच रा४०॥ मानामिति वर्तते । लो वेति वर्तते । त्रुव उत्सरस्य लटो मानां वा रणलादयो भवन्ति । तत्सन्नियोगे व श्राहादेशः । अकार उच्चारणार्थः । “न पास्मदः" [ 1] इत्युतरत्र प्रतिषेधादत्र पञ्चग्रहणम् । भात्य । श्राहथुः । श्राह । श्राहतुः । आहुः । सिपस्थे कृते “जम्हस्प:'" [५/०५२] इति कारस्य थकारः । "खरि"[
२ ०] इति चयम् । यद्यत्र स्थानिवद्भावात् “अव ईट' [[1] इति ईट् स्यात् झलादिप्रकरणे "माहस्थः" [१॥५२ ] इति वचनमनर्थकं स्यात् । न च भवति । अवौषि । बेथः । ब्रवीति । बूतः । ब्रुवन्ति ।
म थास्मदः ॥रा४७१॥ नः परस्य यस्यासदश्च पूर्वोक्का श्रादेशा न भवन्ति । य । ब्रवीमि | अवः । बम
लोटो लङ्गवत् ॥२२४७२|| लोटो लङ गव कार्य भवति । लोडादेशानां लादेशानामिष कार्यमविदिश्यते इत्यर्थः । पचाव ! पचाम । सिता सखं सिद्धम् । पचतम् । पचत । पचताम् | "मिप्यस्मकसोऽमतताम्" [ २] इत्येतत् सिद्धम् । 'एहः" [ 1] इति उकारः पुरस्तादपवादन्यायेन "पर्म" [HE रति इसमेव बाधते न जुमादेशम् । एवं च या प्रदुः प्रधुरिति भवति तथा यान्तु पान्तु इत्यत्रापि सादेशः प्रामोदि। नैष दोषः | वक्ष्यते "भाव:" [ १०] "को वा"
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०
पी० ४ ० ०-४]
महावृत्तिसहितम्
१४०
[ २१४ / ११] इत्यत्र लड् महगास्य प्रयोजन लङ्केच यो लङ् तस्य जुस् भवति श्रतिदेशेन यो लब तस्य मा भूत् । लङ्घदिति वांताद्वत् ( श्रमूतताम्वत् ) तेनाडागमो न भवति ।
रुः ||२||७३॥ लोट इति वर्तते मानामिति च । लोटो मानामिकारस्य उकारादेशो भवति । इखस्यापवादः । पचतु । पचन्तु । करोतु । कुर्वन्तु । मिप्सिपोरादेशान्तरमुत्वस्य बाधकं वच्यते ।
I
पिच || २|४|७४ ॥ लोट इति वर्तते । सेहिरादेशो भवति कापिच्च । लुनीहि । पुनीहि । आप्नुहि । राष्नुहि ।
मेनिः || २२४१७५ ॥ लोटो मेर्निरित्ययमादेशो भवति । पचानि । फरवाग्धि ।
श्रमेवः || २|४| ७६ ॥ लोट इति वर्तते । लोडादेशस्य य प्रकारस्तस्य श्रमित्ययमादेशो भवति । निर्दिश्यमानस्यादेशो भवति । पचेथाम् । पचताम् । पचेताम् | पचन्ताम् ।
स्वो घाम ||२|४|७७॥ लोट इति वर्तते एत इति च । सकारवकाराभ्यां परस्य एतो व श्रम् इत्येतावादेशौ भवतः । पचस्व । पचध्वम् । वयस्व । वयध्वम् |
पिच्चास्मद्ः ||२|४|७८ ॥ लोट इति वर्तते । लोटोऽस्मदः प्राडागमो भवति पिश्व | करवाणि । करवाव । करवाम | करवै । करवावहै । करवामहै ।
पस पे ॥२४॥७६॥ लोटोऽस्मद इति वर्तते । लोटोऽस्मदः एकारस्यैकारादेशो भवति । निर्दिश्यमानस्यादेशो ऽयमामोऽपवादः । करबै । करवावहै । करवाम है। चिनवै । चिनवावहै । चिनवाम है ।
1
ङितः सखम् ॥२६४ ॥ श्रमद्वितीयोऽवं भवति । लङ्पचाव । श्रपचाम । लिङ्- पचेष । लुङ - अपादव । श्रपादम । अपश्याव । अपश्याम
एमे ॥२४८१॥ इति वर्तते । दिल्लकारसम्बन्धिन इकारस्य खं भवति मक्षिये । लनपचः । श्रपचत् । अपचन् । सिङ पचेरन् । पचेत् । लुङ श्रभाक्षीः । श्रपाक्षीत् । लुङ् श्रपयः । श्रपश्यत् । श्रपच्यन् | म इति किम् १ अपचावहि । श्रपचामहि |
मिथस्थत्त सोऽमृततताम् ||२|४|८२॥ ङिन्तां लकारायां मिप् थस्थ तम् इत्येतेषां यथासंख्यं अम्वं तं ताम् इलेते आदेशा भवन्ति । श्रपचम् । श्रपचतम् । अपचन । श्रपचताम् । लिङ-पचेयम् । पचेतम् । पचेत । पचेताम् । लुङ श्रपाक्षम् । अपाक्तम् । अपाक्न । श्रपाक्लाम् । “बदन ( अजवद )" [१७] इत्यादिनै । "लो फि" [ ५३४४ ] इति सखम् । लुरू- श्रपच्यम् । अपक्ष्यतम् ।
I
अपक्ष्यत | अपच्यताम् ।
लिङः सीयुट् ॥२४॥८३॥ लिङादेशानां सीयुडागमो भवति । मे बासुये विधानादे सीयुद्ध द्रष्टव्यः । टकार: "दादि" [११५३ ] इति विशेषणार्थः । उकार उच्चारणार्थः । पचेय । पचेवहि । पन्चेमहि । पन्चेथाः । पचेयाथाम् । पचेध्वम् । पचेत । पचेयाताम् । पचेरन् | "दादेगें" [११११३५ ] इति वर्तमाने “लिङोऽनन्स्यसस्थम्” [१।११३८ ] इति सीयुट्सकारस्य "सुवयोः " [ २1४1८० ] इवि सुट्सकारस्य व खम् । श्राशिषि लिङ्-पक्षीय | पक्षीवहि । पक्षीमहि । पक्षीष्ठाः । पक्षीयास्थाम् । पक्षीध्वम् । पक्षीष्ट । पक्षी यास्ताम् | पचीरन् ।
I
यासुण मोक्षित् || २|४|८४ ॥ लिङ इति वर्तते । लिङो मरिष्यस्त्र यासुडागमो भवति ङिच्च । सीयुटो ऽपवादोऽयम् । छात्र “कदाशिधि' [२|४|८५] इति वचनात् विध्यादिलक्षणस्य लिङ छोदाहरणम् ।
१. वति । पात्र । चात्र । द्विक्षू । पचैः । पय । अं०, ०, स० ।
I
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१४८
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० २० सू० ८५-३१
कुर्याम् । कुर्याव । कुर्याम । कुर्याः । कुर्यादम् । कुर्यात । कुर्यात् । कुर्याताम् । कुर्युः । "जो ये च " [81918 ] इति विकरण मेस्" [["उसे" [] इवि पररूपम् । स्थानिवद्भावादेव लिङादेशस्य ङिचे सिद्धं यासुटो विद्वचनं शापकं लकाराश्रयमादेशानां ङित्वं च न भवति । तेन चिनमित्ये सिद्धः । पचमाना स्त्री । टिस इति ङीत्यो न भवति ।
काशिषि ||२||४|८५ ॥ श्राशिषि लिङी यासुट् किद्भवति । हिचे प्राप्ते कित्वं विधीयते । स्यय जगर्ते रेवर्ये च । उखासम् । उह्मास्त्र । उह्यास्म । उपाः । उपात्तम् । उास्त । उद्यात् । उपास्ताम् । उह्यासुः। जागर्यासम् | नागर्यास्व | बागर्यास्म । " जागुरभियारिवि" [२६२] इत्येप् ।
।
भोटः || २|४|८६|| लिङादेशयोर्क्ष इट् इत्येतयोर्यथासंख्यं रन् श्रत् इत्येतावादेशौ भवतः । पचेरन् | पचीरन् । "झोऽन्तः " [१३] इत्यत्रापवादोऽयम् । पचेय | पक्षीय । "श्रीक्षीःप्रयेषु मित्राक्षाम् [५|३|१०२] इत्येवमादिना प्रातस्य पस्य निवृत्यर्थं तपरकरणाम् ।
सुद् तथोः || २|४|७|| लिये यो वकारथकारौ तयोः सुडागमो भवति । श्रगविषये लिङ् प्रयोजयति । गे सखेन भवितव्यम् । पक्षीष्ठाः । पक्षीयास्थाम् । पक्षीष्ट । पक्षीयास्ताम् । सत्ययमादेशो भवति । श्रन्तादेशापवादः । कुर्युः । क्रियासुः ।
भेर्जुस् || २|४|८८ || निदेशस्य निर्दिश्यमानस्यादेशो न यासुटः ।
धविः ||२||४|| ९ || मंचक वेति सि इत्येतेभ्यः परस्य र्जुमादेशो भवति । ति इति वर्तते । तत्र लिङ प्रदेश उक्तः । लृङः स्येन व्यवधानमस्ति । लुङोऽपि सेरिति भविष्यति । पारिशेध्यात्थविद् - प्रणं लडर्थम् । श्रविमरुः । श्रजागरः । "उलि" (जुसि ) [ ५२८० ] इत्येष | विदेः । विदुः । श्रकार्षुः । अहर्षुः ।
आः ||२|४| ६० ॥ सेरिति चर्तते । श्राकारान्तात्तेः परस्य झेर्जुस् भवति । श्रुतिकृतं केरातः परत्वं सेदपि कृते त्याभयलक्षणेन सेः परत्वम् । अत उभयगतमानन्तर्य रस्ति । अत्थुः । श्रगुः । श्रयुः 1 अः । अधुः | त्याश्रयलदोन भेरिति पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमेतत् । श्रात एष सेरुपि कृते नान्य स्मात् श्रभूवन्निति ।
कने वा || २ | ४२६१ ॥ श्रव इति वर्तते । प्राकारान्तात्परस्य लबादेशस्य भेर्वा जुस् भवति | अयुः। अयान् । अधुः। श्रधान् । ननु लक्ष्मणमनर्थकम् । ङित इति वर्तते । पारिशेष्यात् लड एव संप्रत्ययः । नानर्थकम् । इह खडे यो लङ् तस फेर्नुस भवति । श्रतिदेशे मा भूत् । यान्तु । वान्तु । "से" [६] इत्यनेनापि मुख्यस्य लङो ग्रहणादिह न भवति । बिभ्यतु | जानछ । विदन्छ ।
I
द्विषः॥२|४|६२॥ लङो वेति वर्तते । द्विषः परस्य लङो भेर्षा जुट् भवति । श्रद्विषुः । श्रद्विषन् । श्रनिगन्तत्वात् "जुसिं" [ ५४१५० ] इत्येन भवति ।
1
मिशिमः ||२||४| ६३|| मिळः शितश्च त्या धोर्विद्दिताः गसंज्ञा भवन्ति । भूयते । नयति । रोदिति । शित् । पचमानः । यजमानः । गसंशाश्रयो विकरण एन्भवति ।
शेषोऽग एव ॥२२४॥९४॥ मिशिद्भ्यामन्यः शेषः । चोरित्येवं विह्नितस्त्यः शेषोऽगसंश ष भवति । लविता । लषितुम् । लवितव्यम् । श्रगसंशाकार्बमिडागम एप् च । घोरिति विशेषणं किम् ? जुगुप्सते । श्रीकाम्यति । लूम्याम् । अभिलम् । पवकार उत्तरार्थः । अगप्रदेशाः - 'बलाद्यगस्येट्' [५१८४] "गगयो:' [ ५२८१] इत्येवमादयः ।
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म. पा. सू.-.] महाधुचिसहितम
लिट ॥२४॥६५॥ एक्शब्दोऽनुवर्तते । लिडादेशो मिङ अगसंज्ञ एव भवति । पेचिश | शेकिय | "वोपदेश" [43] इत्यादिनेट । "सेटि ४११] इत्येत्वचखे । गसंज्ञासमावेशनिवृत्त्यर्थमेवकारोऽमिसंबध्यते । तैरिम इत्यत्र गसंज्ञायामसत्यां तदाश्रयः शम्न भवति ।।
सिकाशिषि शिक्षा एवेति वर्तते । श्राशिषि यो लिड् तदादेशश्चागसंश एव भवति । भावे-जागरिषोष्ट । कर्मणि-लविघीष्ट । अगसंज्ञायां गाभयं "किकोऽनस्थलस्त्रम् [शा१३८] इति सखं न भवति । एवकाराधिकारात् गसशासमावेशो न भवति । यदि स्याद्या मसज्येव ! आशिषीति किम् । जाण्यात् । मायाताम् । माग्युः ।
इत्यमयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्ती द्वितीयस्याध्यायस्य चतुर्थः
पादा समाप्तः । समाप्तश्च द्वितीयोऽध्यायः ।
पत्किशिवाङ्मयं लोके सान्धर्य संप्रतीयते । सत् सर्व पातुभिष्याप्तं शरीरमिष चातुभिः ।
तृतीयोऽध्यायः रुपान्मृदः ॥३॥१॥२॥ की इति स्वरूपमहणम् । प्राबिति टाडापोः सामान्येन प्रणम् । मुदितिसंज्ञानिर्देशः "अधु मृत" [ ५ "कृद्धत्साः" [ 10 ] इति । यदित ऊर्ध्वमनुकमिभ्यामः श्रा कपो विधानात् अयन्तादाबन्तान्मृद्र पाच्च तद्भवतीत्येवं चेदितव्यम् । ननु वक्ष्यमाणात्याः "पर। [ २] इति नियमेन परे प्रयुज्यन्ते । धोः परत्वञ्च तव्यादिमिराकान्तम् । मिडन्तं च क्रियावाचि सुबन्तमपि पर्द क्रियासापेक्षं क्रियावभूतमित्यतः पारिशेष्यान्न्याम्मृद एव भविष्यन्ति । एवं तईि वाक्यान्मा भूवन् । वृद्धस्य उपगोरपत्यमिति । गुपदभसंशाश्च प्रयोबनम् । दद्वकारद्वयादिग्रहणामि च घ्याम्मृदो विशेषणानि न समर्पविभक्यन्तस्येत्यधिकारः क्रियते । दु इति मृद्र पम् । दु-ज्ञानामपत्यमित्यच मृद्रपापेक्षया "पायुद्धाद्दोः" [ १] इति दुलक्षणः फित्र न भवति | अदुलक्षण एव "फिरदोः" [३010] इति फिर्भवति । दक्षाणामपत्यमित्ति मृद्र पापेक्षया श्रदन्सलक्षणः इम् भवति । धरेम तरतीत्यत्र मृदपेक्षया "मौद्ययाः" [ १] इति 'यजलक्षणः सिद्धः" याचा तरतीत्यत्र न भवति । मृद्ग्रहणे विङ्गविशिष्टस्यापि प्रहरमिति सिद्ध झ्याग्रहणं किम् । कालितरा । मालितरा । एनिका । हरणिका । परमपि हृतं बाधिता स्त्रीत्यो यथा स्यात् । अथ "मरूपकल्पचेक ड्युवमोन्नमसहते प्रोऽमेकाय" [१ ५५ ] |करणे] इति प्रादेशवचनसामर्थ्यादेतल्लभ्यते । एवं तहि मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टश्यापि परिमाधेयमनित्यति झाप्यसे । तैम गोमतीति उगिल्लक्षणो नुम्न भवति । युवतीः पश्येत्ति जिन भवति । सख्यौ । सख्यः । इति च शिन्न भवति । हे भवति भगवत्ति अघति इत्यत्र "भषभगववधवतो बा रि: कावधस्योः' [शभ] इत्येष विधिर्न भवति । इह त्यग्रहणं न कर्तव्यम् । कथं युवतितरा वामोरुतरा १ हृदन्तत्वाद्यवसिशब्दस्य मृत्संशा, वामोरुशब्दस्यापि मृदमृदोरेफादेशी मृद्ग्रहणेन पाते । अजादिषु हलन्ताहापं विधास्यति छापि च टिखेन भवत. ध्यमिति एकादेशो नास्ति तस्मात् व्याग्रहणं कर्तव्यम्।
स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्भ्यांभ्यसूडसिभ्याभ्यस्ङसोसाम्ब्योरसुप ॥ १२ ॥ या अमृदा स्वादयो भवन्ति ! उकाराद्यनुबन्धनाशः। अनेन विहितानां स्वादोना “माप्' [ २] इत्येवमादिना विभक्लिनियमः "साधने स्वार्थे' [A] इति वचननियमश्च ज्ञातव्यः । यन्ता कुमारो ।
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१५०
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ३ पा० १ सू० १-६
कुमायौं । कुमार्यः । कुमारीम् । कुमार्यौ । कुमारीः । कुमार्यां | कुमारीभ्याम् । कुमारीभिः । कुमार्यै ॥ कुमारीभ्याम् । कुमारीभ्यः । कुमार्याः । कुमारीभ्याम् । कुमारीभ्यः । कुमार्योः । कुमार्योः । कुमारीणाम् । कुमार्याम् । कुमार्योः । कुमारीषु । श्रान्तात् माला माले मालाः । मासाम् । माले माला ! मालया । मालाभ्याम् । मालाभिः । मालायै । मालाभ्याम् । मालाभ्यः । मालायाः । मालाभ्याम् । मालाभ्यः । मालायाः । मालयोः । मालानाम् । मालायाम् । मालयोः । मालासु | एवं डाबन्तात् । दामाद्दुराश्रादयो नेयाः । मृदः – दृषद् । इषदौ । हृषदः । हृषदम् । दृषदौ । दृषदः । दृषदा । दृषद्भ्याम् । दृषद्भिः । ष्टषदे । दृषदुद्भ्याम् | दृषदुद्भ्यः । दृषदः । दृषद्भ्याम् । दृषद्भ्यः । दृषदः । दृषदोः । दृषदाम् । दृषदि । हृदः । दृषत् ।
स्त्रियाम् ||३|१|३|| स्त्रियामिति प्रकृतिविशेषणम् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः स्त्रियां वर्तमानान्मृदः स्वार्थे तद्वेदितव्यम् । वदि स्त्रियामभिधेयायामिति स्यात् द्विक्हू न स्याताम् । कुमार्यौ कुमार्य इति । एकत्वात् स्त्रीत्यस्य त्योत्पत्तिश्च न स्यात् । कालितरा । भावप्रधानत्वात् त्रियामिति निर्देशस्य कुमारी देवदतेति सामानाधिकरण्यं च न स्यात् । अथापि स्त्रीसमानाधिकरणान्मृद इत्यभ्युपगम्येत एवमपि भूतमियं नारी 1 कारणमियं कन्या । श्रवपनमियमुङ्घ्रिकेति मृतशब्दादिषु स्त्रीत्याः प्रसज्येरन् । तस्मात् स्त्रियां वर्तमानान् मृद इत्येवाधिकृतम् । श्रजायजा देवदता स्त्रियामिति श्रजो देवदत्तः । शब्दबनितप्रत्ययवर्गाः स्त्रीखादय इद्दाभिप्रेता न वस्तुवर्गाः । श्रव्याप्तेः । शब्दो हि श्रोत्रपथं गतो लिङ्गसंख्याक्तं स्वप्रत्ययं जनयति स प्रत्ययः । खट्वादिषु रखादिषु प्रभावादिषु च शब्देषु संभवति ।
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अजाधतष्ठाप् ||३|११४ ॥ श्रनादिभ्यः अकारान्तेभ्यश्च मृदः स्त्रिया वर्तमानेम्यष्टामित्ययं त्यो भवति । aert: arterytः सामान्यमाणार्थः । टकारः सामान्यग्रहणाविघातार्थः । अन्यथा एकानुबन्धकग्रहयो न नुबन्धकस्येति विघातः स्यात् । बाधकबाधनार्थमनकारान्तार्थं चादिग्रहणम् । श्रना । एडका | अश्वा । चटका । मूषिका । “जातेरयो : " [ ३१२३] इत्यस्यापवादः । बाला । होटा | पाका || मन्दा | विलाता । “वयस्यनन्स्ये” [ ३ | १|२४ ] इत्यस्य प्राप्तिः । पूर्वापदाणा । श्रपरापहाणा । विलक्षणस्यापवादः । निपात नागणस्खम् । "संभस्त्रा जिन शय पिण्डेभ्यः फलाट्टापू" [ वा० ] संफला । भस्त्राफला । अबिनफलर | शय्यफला । पिण्डफला । "सस्थाकाण्यमान्तातै केभ्य: पुष्पाहाप्' [वा ] सत्पुष्पा । प्राकपुष्पा । काराडपुष्पा । I प्रान्तपुष्पा | शतपुष्पा । एकपुष्पा | "पाककर्या पर्णपुष्कफक मुलवाको [३|१|५४] इत्यस्यापवादः । "शूवाच्चामहत्पूर्वात् जातिश्चेत्" [वा०] शूद्रा नाम जातिः । श्रमहत्पूदिति किम् १ महाशूद्री । श्रामीरजातिरियम् | मद्दत्पूर्वादिति शब्दपरस्य महतः । त्वं न भवति । जातिरिति किम् ? शूद्रस्य भार्या शूद्री । योगीकारा। श्रमद्दत्पूर्वादिवि प्रतिपेधवचनं ज्ञापकं भवत्यत्र प्रकरणे तदन्तविधिरिति । तेन महाजा । बीवानमतिक्रान्ता अतिथीवरी । अतिभवती । श्रतिमहतीति सिद्धम् । कुखा । उष्हिा | देवविशा । “हुन्छवा[घ] ज्येष्ठा । कनिष्ठा । मध्यमा । पुंयोगलक्षणा प्राप्तिः । कोकिला जातिः 1 "मूढान्याच्च टाप्' [पा०] श्चमूला । षकाराद्यजष्ठाप् । शार्कराच्या | पौतिमाच्या । गौकक्ष्या । अतः खस्वपि खट्वा । देवदत्ता । तपरकरणं किम् १ चीरपाः स्त्रो ।
वयस् ||३|१|५|| श्रावय्यशब्दादा भवति । अवटस्यापत्यं स्त्री श्रावट्या । यम इति कोषिपवादः । पुरस्तादपवादोऽयं फटो न बाधकः । श्रावय्यावनी ।
उनको ||३|१|६ ॥ उक् इत् यस्य यस्य मृदो वा वा तदन्तात् ऋकारान्तेभ्यो नकारान्तेभ्यश्च हृदः स्त्रियां वर्तमानेभ्यो ङीत्यो भवति । ङकारो “हल्यापः " [४।३।१६] इत्यत्र विशेषणार्थः ।
१. असनिवानिकोटिका उष्ट्रिकेत्युच्यते ।
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अ०] ३ पा० १ सू० ७-११]
महावृत्तिसहितम्
१५१
गोमती । तत्रभवती । पचन्धी । उगिदिति यदीदं स्यग्रहणमेव स्यात् त्यग्रहणे यस्मात् तदादेरिति इह न स्यात् । श्रतिभवती । निगमती । श्रथ मृद्विशेषणमेव स्वात् मृद्ग्रहणेन तदन्तविधिरिति तथापीह न स्यात् । श्रतिमहतीति । तस्मान्नेदं स्यग्रहणमेवः नापि मृद्ग्रहणमेव अपि लेकदेशग्रहणमिदम् । उक् इत् यस्यैकदेशस्य तदन्तान्मृद इति । स चैकदेश: त्यो मुवर्णश्च संभवति । यः । श्रेयसीत्यादि । मृत्-तत्रभवतीत्यादि । वर्णः । पुमासमतिक्रांता] श्रतिति प्र इति सकारो व उदित् । ययागमेषु वर्ण उगिदिति ङीविधिर्विधीयते तुक्यपि शप्नोति श्रग्निचित् कम्येति । उभयस्कार यो सामर्थ्य दिहैव भवति नान्यत्र । श्रयतेरुपसंख्यानं नियमार्थं कर्तव्यम् । प्राची प्रतीची उदोची । घोषगितः नान्यस्मात् । उखास्तत्कन्या | श्रृष|रान्तात् कर्त्री । हर्त्री । नकारान्तात् । दण्डिनी । छत्रिणी ।
I
नोऽशो रश्च ॥ ३३९॥ ७ ॥ वन इति वनः क्वनिपश्च ग्रहणम् । श्रदशन्तायो विहितो बन तदन्वात् खियां वर्तमानान्मृदो रेफश्चान्तादेशो भवति श्रीश्च । पूर्वे सिद्धे रेफार्थमिदम् । धयतिपिवतिभ्यां कनिप् । धीवरी । पीवरी 1 मेस्दृश्वरी । कथं शर्वरी ? शृणातेरजन्ताद् बन् । कथमवावरी ! श्रत्र श्रोणतैराकृते वन् । “अनींच: " [३|१|१७] इत्यत्र वक्ष्यति । पूर्वौ विधिनोऽपि भवति । बहुtet | प्रतिधीaat श्रथवा श्रमत्पूर्वादित्यत्र तदन्तविधिज्ञपितः । श्रय इति किम सहयुद्भ्वा स्त्री "राशि युधि कृञः " [२२८२] "सहे [२२९३] इति कनिप् । “भियोगशिष्टानामन्यतराभावे भोरल्यभाव:" [पर] इति रेकादेशाभावे पूर्वेणाप्यत्र ङीलो न भवति । एवमर्थश्चकारः क्रियते ।
नेल्स्यखादेः ||३|१||८|| स्त्रियामिति वर्तते । इल्संशकेभ्यः स्वलादिभ्यश्च मृदुद्भ्यः स्त्रियां यदुक्त तन भवति । पच कुमार्यः । सप्त रोहिण्यः । श्रथात्रानेन हीप्रतिषेधे कृते नवे सति श्रत इति टाप कस्मान्न भवति । सुधि नवस्यासिद्धान्तदन्वत्वाभावान्न टापू । कथमयं सुविधिः । तत्र टापः पकारेण सुपो ग्रहणात् । यद्येवं बहुचर्मिकेत्यत्र नखस्यासिद्धत्वात् "मस्थे क्यापी" [२१९/१०] इति कात्पूर्वस्यात इत्वं न स्यात् । एवं तहिं होमो छीटापो प्रतिषिध्यते । उक्तं च
"संशानामन्ते नष्टे स्पतिः कस्मान स्यात् १ प्रत्याहारादाया सिद्धं दोषस्विरवे तस्माभौ ।” स्वस्त्रादिभ्यः स्वला । दुहिता । स्वस हुहितु ननान्द यातृ मातृ तिस्र, चतसृ ।
मनो जाप च ||३|१|| || ही इति वर्तते नेति च । मन्नन्तान्मृदः स्त्रियां वर्तमानाडा भवति ङीप्रतिषेधश्च । डकारः टिखार्थः । पकारः सामान्यग्रहणार्थः । पामे । पामाः पामानौ । पामान: [ "अनिमार्थकेन च तदन्तविभिः " [ परि० ] सोमे सीम्मानौ । सुप्रथिने । सुप्रथिमानौ । प्रतिमहि । श्रतिमहिमानी ।
अनश्चयात् ॥ ३|१|१० ॥ श्रन्नन्ताद् बखात् स्त्रियां वतमानाड्डान् भवति ङीप्रतिपेधश्च । चकारो ङीप्रतिषेधानुकर्षणार्थः । श्रर्थवतोऽनर्थकस्य चानो महणम् । श्रनुङ्खवतो बसस्येद्दोदाहरणम् । उवतस्त्रैरूप्यं वक्ष्यति । सुप | सुपर्वाः । सुपर्वाणौ । सुपर्वाणः । नकारान्तत्वान्ङी प्रसज्येव । वादिति किम् ? प्रतिक्रान्ता पर्वाणि श्रतिपर्वणी ।
घोड े ||३|१|११|| अन्नन्तादनसात् उङः खे वर्तमानात् डाम्ङीप्रतिषेधो वा भवतः । वावचनायथाप्राप्ताः । नकारान्तान्ङीविधिः "वनोऽहशोरच [ ३ | १३७ ] इत्यभ्यनुज्ञायते । बहुराजे । बहुराजाः । बहुराजानो । बहुरानानः । बहुराज्यौ । बहुराज्यः । बहुतचे । बहुतज्ञाः । बहुतक्षाणौ । बहुतक्षायः । बहुवच्णो । [५।१।४२] इति सूत्र इति शेषः ।
१. गिच
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्भ .पा० । सू० ।अगुवक्ष्णः । बहुधीवे । बदुधीवाः । बहुधीवानी । बहुधीवानः । बहुधीषयौं । बहुधीवर्यः ! उत इति किम् ? सुपर्वा । सुपर्वाणौ । पूर्वेण द्वैरूप्यम् । अन इत्येव सुमत्स्या नदी।
खो खौ ॥११२॥ विषयेऽन्नताद् बसान्छी भवति । अधिराशी नाम प्रामः । पुनहींग्रहणं नित्यार्थम् ।
ऊधसः ॥३१॥१३॥ बादिति वर्तते । ऊधःशब्दान्ताद्मसान्डी भवति । कुण्डमिवोधो यस्याः कुण्डोनी । द्वे अधसी यस्या द्व्यूती । निर्गतमुधोऽस्या निम्नी "ऊपसोऽनम्" [ ३२] इति अनङ सान्तः । “चोझे' [ 1] इति त्रैरूप्यं प्रासम् । स्त्रियामेवानछ । सान्त इत्येव । इह मा भूत् । महोषाः । पर्जन्यः । बादिल्येव । प्रासा ऊपः प्राप्तोधा गौः। "साच प्रासापम्ने' [ २०] इति षसः । तत्रैव पूर्ववक्षि पासातम् ।
दामझायनात्संख्यादेः ॥१४॥ संख्यादेवसात् दामान्तात् हायनान्ताच ही भवति । द्विदाम्नी । त्रिंदाग्नी । “वोनये" [३।३।११] इति भैरूवं प्राप्तम् । “हायमाद्वयसि स्मृतः" [मा०] द्विशायनी । त्रिहायणी । चतुर्दावणी वसा "त्रिचतुभ्या हायमस्य गत्वमपि षयसीयते" [वा.] तेनेड डीविधिर्णत्वं च न भवति । विहायना । निहायना । चतुयना शाला । संख्यादेरिति किम् ? उद्दामा वरवा । "बोर्ड" [I ] इत्यनेन त्रैरूप्वं भवति ।
पावो था ॥३॥११५॥ पाच्छब्दान्तान्मृदः स्त्रियां वर्तमानाद्वा ही भवति । द्विपात् । द्विपदी । त्रिपात् । त्रिपदी । “सुसंस्थादेः" [२।१५०] इति पादशब्दस्य खम् । पादयतः कियन्तस्य प्रयोगो नास्त्रि।
टायचि ॥२॥१६॥ पाद इति वर्तते । पाच्छब्दान्तान् मृदयाब् भवति शुन्यभिधेयायाम् । विपदा ऋक । त्रिपदा ऋक् । ऋचीति किम् ! विपदी देवदत्ता ।
मनीचः ॥३२॥१७॥ न्यक्छन्दोऽसप्रधानवरनो नत्र पुवः। यदित अर्ध्वमनुकमिभ्यामोऽनीच इत्येवं तवेदितव्यम् | नीचो च्यादयो न भवन्तीत्यर्थः । वक्ष्यति "टिड्डायम्' [1] इति । कुरुचरी । मद्रचरी । “जातेश्योड: शा३] । कुक्कुटी । शूकरी । अनीच इदि किम् । बहुकुमचरा । बहुकुक्कुटा मथुरा। ननु पूर्वत्र समुदायः स्त्रियां वर्तते नावयवः । अवयव एव च टिन्न समुदायः । द्वितीयेऽपि बसे न समुदायो जातिवाची; किं त्ववयवः, तत्कथं प्राप्तिः । इदमेव ज्ञापकं भवत्यत्र प्रकरणे वदन्तविधिरिति । तथाहि प्रधानभूतेन तदन्तविधिः कुम्भकारी देवदत्तकुक्कुटी । यद्येवं पूर्वमेवेदं सूत्रं बलव्यम् । इह करणात् पूर्वोक्तविधिर्नीचोऽपि भवतीति शाप्यते । बहुधीवरी बहुपीवरीति ।
टिड्दाणच्ठण्ठपकरपः ॥३।१।१८॥ श्रत इति वर्तते । टित् अण् अ ट उभ करप् इत्येवमन्तेभ्या स्त्रियों की भवति । टापोपवादः । “अनीचा" [ ५] इत्यधिकारात् प्रधानेन वदन्तविधिमतः । कुरुचरी । भद्रचरी | "कृष्ग्रहण तिकारकपूर्वस्यापि प्रायम्" परि०] न मन्तव्यम् । इह फुदकतोमहणात् । द-सौपर्णेयो । वैनतेयी । "शिकाया " [ १६] इत्यस्य निरनुबन्धकस्य स्त्रियामभिधानं नास्ति । श्रण कुम्भकारी । औपगवी । कथं चुराशीला चौरी। तपाशीला तापसी १ णेऽप्यपकतं भवतीति वक्ष्यति । श्रम्-औत्सी। वैदो। ठण्-लाक्षिकी । शैचनिको। ठभ्-पारायणं वर्तयति पाण्यणिकी। प्राम्बतेष्ठम् ! करप्-इत्वरी । नश्वरी । अनीच इत्येव । बहुकुरुचरा । ख्युरप्रभृतीनां यनुबन्धकत्वेऽपि टित्करणसामर्थ्याद् प्रणम् । लकाराणां स्थानिवद्भावाहित्वं डिवं च न भवतीत्युक्तम् । पचमाना ली। श्रचिनवम् । त्यसाइचर्यादागमस्य न ग्रहणम् ! लिखिता विद्यति ।
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१०.१ पा० . सू. १६-२३] महावृत्तिसहितम्
यमः ॥२१॥१६॥ यान्तान्मृदः स्त्रियों की भवति । गागी । वासी । "हलो तो ज्याम्।। था१४०] इति यकारस्य खम् । “ीपावनुसमुद्देश्यम्” [३।२।१३०] इति अयम् । दूधनुबन्धकः । तस्येहाग्रहणम् । द्वीपे मवा द्वैग्या । योगविभाग उत्तरार्थः ।
फट ॥३॥२०॥ यम इति वर्तते । यमन्तान्मृदः स्त्रियां फडित्ययं त्यो भवति । रकारी इयर्थः । प्रथ गार्यायगी इति स्थिते फये हसंशाविरहात् "कशासा:" [18] इति मृत्संश नास्ति । कयं कोविधिः १ टिस्करणसामर्थ्यात् भविष्यति । गाायराशि । वात्स्यायनी । श्रावट्यायनी । वचनात्योऽपि विधिभवति । गार्गी । वात्सी।
खोहितादिसकतान्तात् ॥३॥१२॥ यत्र इति वर्तते । लोहितादिर्गादिष्वन्तर्गणः । लोहितादिम्पः सकलशब्दपर्यन्तम्यो यन्तम्या स्त्रियां फर वो भवति । पुनरारम्मी निल्यार्थः । तेन फद्देव भवति । यम:' [ 1] इत्यनेन को प्राप्तो निवर्त्यते । लौहित्यायनी । सांसित्यायनी' । बाभ्रव्यायणौ । सौरव्यायणी । सांचव्यायनी । लान्तव्यायनी । जैगीषव्यायणी । मानव्यायनी | मातव्यायनी । मनायीशब्दस्य पाठसामर्थ्यात् "भस्य हस्यो" [वा० ] इति पुंवद्रावो न भवति । मानाय्यायनी । काव्यन्यायनी । रौक्ष्यायणी । तारुच्यायणी । तालुक्यायणी । तारख्यायनी | वातरख्यायनी । श्रागिरसे तु बतण्डीत्येय भवति । काप्यायनी । कात्यायनी । शाकल्यायनी।
कौरव्यासुरिमाण्डूकात् ॥३।१२२२॥ कौरव्य प्राथरि माण्डूक इत्येतेभ्यः फट् भवति । कौरव्यायणी। राप्राप्तः । अप्रासुरीति प्रश्लेषनिर्देशात् अकारश्चान्तादेश प्रायनादेशो ( शे ) न खेको दीत्वार्यः । महत्त्वाद् "यस्य छन् घ" [ ३६] इति एवं प्राप्नोति । श्रासुरायणी । "इतो मनुष्पजावे.'' [२/11५५] इति डोत्या प्राप्तः | माएकस्यापल्य स्त्री माएकायनी । "वणच मण्डूकात्"(11.इत्यण । की प्रसन्येत । "तस्येवम्" [३।३।८८] इत्यणि विवक्षिते कौरवीति भवति । शैषिकार्यविवक्षायां "इन [२८] इत्यरिण प्राप्से "दोरहः" [२।११० इष्यते । श्रासुरिणा प्रोक्ता श्रासुरीया शिक्षा ।।
गौरादेः ॥३१॥२३॥ गौरादिभ्यः स्त्रियां डी भवति । गौरी । वर्णत्वे बहुलं की प्राप्तेः संज्ञायामपाते। गोर मत्स्य मनुष्य शृङ्ग गवय हय मुक्य स्मृष्य "श्योः " ।१५३] इति डीप्रतिषेधः प्राप्तः 1 शृमाशाप माप्तः । एवमुत्रत्राप्यूयम् । पुट पट जुण द्रोण हरिण ककण परीक्षण वरट उकण आमलक कुवल बदर विश्व ( बल्लक) बिम्ब कर्कर तार शार शष्कण्ड शबल सुषव घाण्डशो केषाञ्चित् । सालन्द (सलद) गडुल पडुश' श्रादक अानन्द सपाट शकुल सूर्य पूध मूष धातफ सालक मालक मालत साल्वक वेतस वृत (स) श्रतस उमा ( उभय ) भृत मह मठ छेद स्वन् तक्षन् अनहोनढ़वाही। एषणाकर कारके । देहमेघकाकादनगवादनाय । यान मेघ गौवम (गोतम) अयस्थूण भौरिकि भौलिकि भौलिङ्गि प्रौद्गाहमानि श्रालम्बि पायामक प्रालब्धि श्रापाच्यांक (आपश्चिक) ऊपस्तश्च (!) श्रारट टोट नट मूलाट श्रासूरण (श्रास्तरण) अधिकार प्रत्यवारोहिणी श्राग्रहायणी" | अग्रहायनस्य स्वार्थे अण, णत्वं च निपात्यते । सेचनी ! सुमंगलात्संज्ञायाम् । सुन्दर मण्डल मन्थर मन्दुल पेट (पट पिट (विट) पिण्ड ऊर्द गूद सूर्द । केषांचित् रेफास्परो मकारः सूर्म हद भाण्ड लोहाराख कदर फन्दर पदल कन्दल तरुण तलुन सौधर्म । रोहिणी रेखती व नक्षत्रे । विकल मिष्कल पुष्कल । कटाच्छोण्याम् । पिप्पल्यादयश्च । पिप्पली हरीतकी कोशातकी शमी कोरी
1. साहित्यापनी मु.। २. ऋरय २० । ३. वाऽप्य युद्धम् अ०, २०, स.। ५. पर मु. । १. अणक मु०। ६. पण्डश प० । पटुल प० । ७. अपामा ५० | प्रापामक स०। ८. उपसरच..। ..प्रत्यवाहिन् मु.।।. भाप्रहायण मु.।
२०
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. ३ पा• १ सू. -. पृथिवी कोष्ट्रमातामह पितामहो एसो पर्येही प्राश्मरथ्याफट प्राप्तः । काव्या शैन्या एनौ भ्यान्तो। प्रारोह चण्ड | "जनस्योरेषु च धा. ] नारी । येऽत्रानबुडीप्रभृतय ईफागन्ताः पठ्यन्ते तेषां से पुंरदादो न भवति । अनड्डहीभार्यः । प्रत्यवरोहियरिमार्यः । श्राग्रहायणीभार्यः । इति ।
पयस्यनम्त्ये ॥४२४॥ प्राणिनां कालता शरीरावस्था क्यः । क्यस्यनन्त्ये वर्तमानान्यूदा स्त्रियां सीत्यो भवति । कुमारी । किशोरी । वर्करी। बधूटी। चिरपटी। तरुणी । सलुनी । अनन्त्य इति किम् ! स्थविरा । वृद्धा । "कन्याया कमीच "[ ५] इति निपातनात् कन्या । अत इत्येव | शिशुः । उत्तानशया । लोहितपादिका । द्विवर्षा । नैते साक्षादयोवाचिन: शब्दाः । अथवा द्विवर्षादिषु "परिमाबादुपि। [१।।२६] इत्येतस्मानियमान भविष्यतीति ।
रात् ॥३॥२५॥ संशकान्मृदः स्त्रियां होत्यो भवति । अकारान्तोचरपदो र खियो भाष्यते । पञ्चाना पूलानां समाहारः पञ्चपूली । दशपूली । अन्नन्तस्य रसस्य खं स्त्रियां चेति पञ्चपनी दशतदी। पञ्चाबी। अआदिवनशब्दो जातिवचनोऽभिप्रेतः । कथं त्रिफला ? अजादिषु पाठात् ।
परिमाणाद्धृदुपि ॥३॥१॥२६॥ सर्वतो मानं परिमाणम् परिमारणान्ताद् रात् हृदुपि सति होत्यो भवति । द्वाभ्यां कुद्धवाम्यां क्रीता प्राीयस्य त्यस्य रादुरखौ''[३।१।२१]इत्युप् । दिकुडवी याद की रात्" [ २५] इति सिद्धे नियमार्थोऽयम् । यतः परिमाणादेव हृदुपि नान्यतः। पञ्चभिरश्वैः क्रीता पञ्चाश्वा । दशाश्वा । तुल्यजातीयस्य नियमानिवृत्तिः । समाहारे भवत्येव । पञ्चाश्वी । परिमाणादिति योगवियोगः कर्वव्यः | सत इष्टताऽवधारणं लभ्यते परिमाणशब्देनेह रूदिवशात् प्रस्थादिश्यते । कालखंख्ययोरग्रहणम् । तेन द्विवर्षा । त्रिवर्षा । द्विशता । त्रिशता । द्वे वर्षे प्रमाणमस्याः "प्रमाणे वंसनं रामच" हति द्वयसद्धादीनामुप । उक्तं च"अर्चमानं किशोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः । मायामस्तु प्रमाणं स्यात् संख्या वासा तु सर्वतः"।
न बिस्ताचितकम्बल्यात् ॥३१॥२७॥ विस्त आचित कम्बल्य इत्येवमन्ताद् रात् हृदुपि ओत्यो न भवति । विस्तादीनां परिमाणवात् सर्वेण प्रातिः-दाभ्यो विस्ताभ्यां क्रीता द्विनिस्ता । त्रिविस्ता। दूयाचिता । भ्याचिता । दिकम्बल्या । त्रिकम्बल्या ।
कारणात् क्षेत्रे ॥२८॥ कारमशब्दान्चात् गत् हदुपि सति क्षेत्रेऽभिधेये औत्यो न भवति । रे काण्डे प्रमाणमस्या द्विकापडा निकाएडा क्षेत्रभक्तिः । 'प्रमाणेण्ट्रयसबान मात्रट" [श५८ इत्यागतानां यसकादीनां प्रमाणे वंसनं राच्चेति वक्ष्यमाणा इष्टया उप् | काय धनुः । तस्य परिमाणशब्देनासंग्रहीतमत: "परिमाणाधदुपि' [२११६] इत्यनेन नियमेन प्रतिषेधे सिद्ध नियमार्थमिदम् । क्षेत्र एवं प्रविषेषो भवति नान्यत्र । द्विकाण्डी। त्रिकाण्डी रस्तु: । “रात् [ ५] रवि कोविधिः।
पुरुषारप्रमाणे वा ॥३१॥२९॥ हृदुपीति वर्तते । प्रमाणे यो वर्तते पुरुषशब्दस्तदन्दावाद् हृदुपि या होत्यो भवति । द्रौ पुरुषो प्रमाणमस्याः खातायाः यसद्धादीनां "प्रमाणे धंसन रामच" इति उप । दिपुरुषा । द्विपुरषी । त्रिपुरुषा । त्रिपुरुषी । अपरिमाणत्वात्पुरुषस्य "परिमायापि " [३॥1॥२१] इति नियमा निवर्तितो डीत्यो विकल्पते । प्रमाण इति किम् ? दाभ्यो पुरुषाभ्यां क्रीता द्विपुरुषा | हृदुपीत्येय | रुमाहारे पश्चपुरुषी ।
गुणोफ्तेरुतोऽखरुस्फोडः ॥३.१.३०॥ वेति वर्तते । गुणोक्तद उकारान्वाद बा डोत्यो मपति खस शब्द कोडं च वर्जयित्वा । यः शब्दो गुणे पर्तित्वा द्रव्ये वतेतै स गुपोक्तिरित्युच्यते । पटुः । पट्दी । मूदुः। मृद्री। गुस्खोक्लरिति किम् १ अाखुः । चातिशब्दोऽयम् । उन पनि किम् ! शुचिरिय कन्या । अखरसोङ इति किम् । खसरियं कन्या । पाण्डुरियं कन्या । "सत्वे निवितेऽसि पृषग्जाविध भयो ।
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* ३ पा० १ सू० ३१-३१] महात्तिसहितम्
१५५ भाषेयाक्रियाजश्व सोऽसस्वप्रकृतिगुणः ।' सत्वं द्रव्यं सत्र निविशते उत्पद्यते श्राश्रयति वा स गुण इवि संबंधः। ब्रम्पादपैति अपगच्छति यथाम्रात् तरितता पीततायां उत्पनायाम् | पृथप जातिषु दृश्यते, यथा सैव हरिसता तरणतुणेषु । प्राधेवः उत्पाद्यः, या कुसरयोगात् गन्धो पस्त्रे, यथा पा घटे रक्तता । अक्रियामश्च निपानश्च क्रियातो नोत्पद्यते यथाऽऽकाशादिषु महत्वादि । चकारात् क्रियाजश्च यथा संयोगो विभागो का असत्यप्रतिद्रव्यस्वभावरहितो निर्गुण हत्यर्थः ।
बसावे ॥२॥३१॥ बेति वर्तते । बहु रस्येवमादिभ्यश्च मृदुभ्यः स्त्रिया वा डोत्यो भवति । बहः । बाह्री । पद्धतिः । पद्धती । बहु पद्धति अञ्चति प्रति अंहति शकटि शक्ति । केचिच्छत्रेऽर्थे राहिं पठन्ति । सामर्थे शक्तिरेव तेषाम् । शास्त्र शारि राति राधि शाधि अहि कपि मुनि यधि । किमर्थमिकासन्ताः पच्यन्ते । याधता कृदिकारादक्केरिस्येव सिद्ध पद्धविशब्दान्न स्यात् इत्तरेभ्यश्चाव्युत्पत्तिपक्षः “इत: प्राण्यात्"[ग श्रोणिः भोगी। धमनिः। धमनी । इत इति किम १ श्रीवा । प्राययङ्गादिति किम् ? कौणिः । माणिः । "कविराद" [ग.] भूमिः । भूमी ! अक्तरिति किम् ? कतिः । हत्तिः । अत्यावि(दि त्येके । बहापि मा भूत । प्रारमिाईन्त ते अषल | ऋदिकारादिति किम् ? सुगन्धिः । सुरभिगंधिः । स्त्रीहतो न भवति । व्युत्पचिपचे दि. कारस्यैचः पूर्वः प्रपञ्च- । चण्ड अगल कमल कृपय विकट विशाल विशड्कट मरुन । चन्द्रभागाद्याम् । फास्याय उदार पुराण। अहःशब्दस्थेद पाठोऽनयंकः । केवलस्य स्त्रियामवृत्तेः । सविधौ तु उत्तरपदभूतस्य “योलो। [२। 111] इत्यनेनैव रूप्यं सिद्धम् । बहु शब्दस्य गुणवाचित्वात्पूर्वेशेव विकल्पे सिद्ध विद सुबद्धं भवतीति पुनर्ग्रहणम् । तेन सदुक्को अन्तान्डीनिधिः । कचिन्न भवति । कामिकेति ।
पतियत्म्यम्तयन्यो ॥३१॥३२॥ पतिथल्ली अन्तर्वली इत्येतो शब्दौ निपात्येते । पतिम चन्दस्य डीत्ये परतः मतोर्वत्वं नुमागमश्च निपात्यते । जीवति मतरि पतिवनी । जीवत्पतिरित्यर्थः। अन्यत्र पतिमवी पृथिवी । अन्तःशब्दादधिकरणप्रधानात् अस्तिसामानाधिकरण्याभावात् विहितोमर्नु न निपात्यते गर्भिपयाम् । अन्तर्वनी गर्भिणी | अन्यत्र अन्तरस्यामस्ति शालायाम् । उक्तं च-पतिवन्या नुका पावमन्तवयां मतुर्नुका । जीपस्पत्यां च गर्भिण्या यघासायं निपास्यते ||"
पत्नी ॥३३०३३।। पत्नीति निपात्यते । पतिशब्दस्य स्त्रियां नकारोऽन्तादेशः पुंयोगे निपात्यते डीयो नकारान्तस्वादेव भवति । इयमस्य पत्नी । श्रस्य पुंसः वित्तस्य स्वामिनीत्यर्थः । पुंयोगादन्यत्र पदिरियमस्य प्रामस्य।
सपन्यादौ ॥३॥३४॥ सपल्यादिषु पत्नीशम्दो निपात्यते "वा से" [ ३] इति विभाषा पत्नीशन्दस्य निपातने प्राप्ते नित्वार्थ वचनम् | समानः पतिरस्याः सपली । यद्येवं पत्नीति वर्तते समानादिम्य इति यतव्ये सनकारेकारस्य समुदायस्योन्चारणं किमर्थम् ? समानशब्दस्य सभावार्थम् । इकारापायेऽपि नकारश्रवणार्थ च । सपल्याः अयं सापत्न्यः । कुकारस्योञ्चारणं पुंवद्भावप्रतिषेधार्थमित्येके । सपत्नीभार्यः । एवं एमपत्नी । वीरपत्नी । पिण्डपत्नी । पुत्रपत्नी । भानृपत्नी।
वा से ॥३१॥३५॥ से पत्नी वा निपात्यते । पतिशम्दान्तस्य मृदः स्त्रियों का नकारोऽन्तादेखो निपात्यते । बसे पसे चेई निपातनम् । अनीच इति नाभिसम्बध्यते । गृहमासस्य शब्दस्याभावात् । पसेहदः पतिरस्या हटपतिः । दृद्धपत्नी । स्थिरपतिः । स्थिरपत्नी । वृद्धपतिः । वृद्धपत्नी | स्थूलपतिः | स्थूलपत्नी । पसे ग्रामस्य पतिः मामपतिः । ग्रामपत्नी । अप्राप्त विकल्पोऽयम् । पुंसा योगे पत्नौति नित्यं निपातनम् । वेन एस्नीशम्देन तासे राजानीत्येव भवति । स इति किम् ? पतिरियमस्य ग्रामस्य ।
पर्णाबहुलं तो नस्तु ॥२॥३६॥ वर्णवाचिनो मूदः स्त्रियां पहुल कोत्यो भवति वकारस्य तु नकारादेशः । तुशब्दः किमर्थः १ बहुलं डोविधिर्भवति त कारक 'तु नकारो नित्यं यथा स्यादित्येवमयः । एता ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[प्र. ३ पा. १ सू०१४-t
एनी । स्येता । स्पेनी । रोहिता । रोहिणी । हरिता। हरिणी । शवली । पिशङ्गी । कल्माषी । सारी। कालो संज्ञायां वर्णे च । काला अन्या । कचिदप्रवृत्तिरेव श्वेता । अमिता। पलिता । कृष्णा । कपिला । चिदुभयथा। शोणी । शोणा। बडवा | नीली औषधिः । प्रानि च नौली बडवा। नीली गोः । संशायामुभयम् । नीली। नौला । श्राच्छादने न भवत्येव । नीला शाटी ! नीला मेषसंहतिः । वर्णादिति किम् । कृता । हृता । अत इत्येव । सितिः पन्या ।
कुराउगोणस्थलमाजनागकुशकामुककबरादत्रमावपनाकृत्रिमाथाणास्थौल्यायोविकारमैथुनेच्छाकेशषेशेषु ॥२१॥३७॥ कुरडादिभ्यः कवरशब्दपर्यन्तेभ्योऽमत्रादिष्वर्येषु ययासंख्यं रियो डीत्यो भवति । कुण्डी भवति श्रमत्रं चेत् । कुण्डा अन्या | दाह इत्यर्थः। गोणी भवति भावपन चेत् । गोणार अन्या । संहषा ! स्थली भवति अकृत्रिमा चेत् | स्थला अन्या । भाजी भवति आशा चेत् । भाजा पन्या । भाजयतेः स्त्रियां युचि प्रासे अत एव निपातनादकारः । नागी भवति स्थौल्यं चेत् । नागा अन्या । तन्वी दीर्घा वा । संज्ञायां वा । जातिविवदायों तु नित्य हो । कुशी भवति अयोविकारश्चेत् । कुशा श्रन्या । काष्ठादिमयो तदाकृतिः । कामुकी भवति मैथुनेच्छा चेत् । कामुका अन्या । कबरी भवति केशधेशरचेत् । कवरा अन्या ।
पुयोगात् खोरगोपालकादेः ॥३॥१३८॥ अत इति वर्तते । पुंयोगारे तीर्यः शब्दः स्त्रियां वर्तते दुभूतस्तस्मान्छीत्यो मति गोपालकादीन् वर्जयित्वा । उपाध्यायस्य स्त्रो उपध्यायी । गणकी। प्रष्ठी। महामात्री । एते संज्ञाशन्दा पुंयोगात् स्त्रियां वर्तन्ते । पुंयोगादिति किम् ? देवदया। खोरिति किम् । प्रसूता । प्रजाता। परिभ्रधा। पुंयोगादेते शब्दाः स्त्रिया वर्तन्ते; न त पुंसि संज्ञाभूताः। श्रगोपालकादेरिस किम् ? गोपालिका । पशुपालिका । श्रादिशब्दः प्रकारवाची । तेन सूर्याहतायां छीन भवति । सूर्यस्य भार्या सूर्य । देवतायामिति फिम् । सूर्यो नाम मनुष्यः तस्य सूरीति ।
पूतक्रतोरे व ॥१॥३६॥ पुंयोगादिति वर्तते । पूतक्रनुशब्दान्डीत्यो' भवत्यैकारश्चान्नादेशः । पूतम्तोः स्त्री पूर्वक्रतायो। पुंयोगादित्येव । पूताः क्रतवो यस्याः सा पूतकतुः ।
खूषाफम्यग्निकुसितकुसोदात् ॥१॥४०॥ ऐ चेति वतते पुंयोगादिति च । वृषाकरि अग्नि कुमित कुसौद इत्येतेभ्यः स्त्रियां डोत्यो भवति ऐकारश्चान्तादेशः। वृषाकपायौं । अग्नायी । कुसितायो । कुसीदायो । कुसितकुसीदयोः संज्ञाशब्दत्वात् पूर्वेणैव सिद्धेऽप्यैकागयं वचनम्। पुंयोगादित्येव । वृषाकपिनाम काचित् ।
मनोरौ च ॥३१॥४१॥ पुंयोगादिति वर्तते । औकारश्चान्तादेश ऐकारश्च | मनोः नी मनावी । मनाली । केषाञ्चिन्मनुरिस्यपि ।
वरुणभषशर्वचनेन्द्रमृडहिमारण्ययषयवनमातुलाचार्याणामानुक ॥३॥४२॥ वरुणादिभ्यो मुद्भयो स्त्रियां ङीत्यो भवति अनुगागमः । अत्र केत्राञ्चिञ्चन्दाना योगादिवि सिद्धेऽप्यानुगर्थ प्रहणम् । वकAarti non velyी 1 minापी । भूशानी । मारोहणे" (पा. मालिम हिमानी। महदरण्यमरणवानी । “यवाहो" घा०] सदोषो यवः यवानी । “यवनाल्लिप्याम्" [चा] यवनानां लिपिः यवनानी । उपाध्यायमातुलाभ्यां वा । प्रानुक एवावं विकर 11 उपाध्यायी। उपाध्यायानी 1 मातुली। मातुलानी । "प्राचार्याडणवं च" [वा०] आचार्यानी । श्राचार्या । "आर्यक्षत्रियाभ्यामा योगे वेति वक्तव्यम्" [पा०]
1. उदाहीयो भु।
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प. पा. सू. ३५-४५] महावृत्तिसहितम्
१५७ आर्याणी । आर्या । क्षत्रियाणी । क्षत्रिया । अपुंयोग इति किम् १ श्रार्यस्य भार्या प्रार्थी । क्षत्रियस्य भार्या क्षत्रियो । आनुगिति धिमात्रोच्चारणमिष्टिसंग्रहार्थम् ।
फीतात्करणादेः ॥३॥१॥४३॥ क्रौतशब्दान्तान्मृदः फरयादेः स्त्रियां डोत्यो भवति । वलेण क्रीयते या वाकीती । क्सनक्रीती । "साधनं कृता बहुलम्"[॥३॥२१] इत्यत्र बहुलवचनालन्धम् विपाकारका कृभिः सविधिः प्राक्सुस्पत्त"[परि॰] इति करणवाचिशब्दस्य क्रीत शब्देन सविधिः। पश्चादकारान्तलक्षणो डीविधिः। करणादेरिति किम् ? सुनीता । दुष्क्रीता | 'इकुयुमोऽस्यपुस्मुस' [शा१८] इति सत्वपत्वे । कचं "सा हि सस्य धनक्रीता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी" बहुलबचनान्न । सुबन्तेन वृत्तिन कृदन्तेन | सुनुत्पचिम बहिरङ्गा अन्तरङ्गे टापि कृते भवतीति सिद्धम् । क्रोवान्तान्मृद इति विशेषणात् वाक्ये न भवति, प्रत्येन (वित्तेन ) क्रीता।
तादये ॥३१॥४४॥ करणादेरिति वर्तते । करणादेर्मुदः क्लान्तादल्पे डोत्यो भवति । अवापि प्राक सुबुत्पत्तेः सविधिः । श्रभ्रविलिप्ती यौः। अल्पान्यस्यामभ्राणी त्यर्थः । रूपविलिप्ती पात्री । अल्प इति किम् ? चन्दनानुलिप्सा।
जातेर्षात् ॥३॥१॥४५॥ क्तादिति वर्तते । जातिशब्दपूर्षः कान्तो यो सस्तस्मान्डीत्यो भवति । श्रस्वानादेशतरत्र विकल्पो वक्ष्यते । स्वाङ्गे पूर्वपदमिहोदाहरणम् । शलो भिन्नो यस्याः सा शवभिन्नी । उपिछली । गलकोत्कृती। केशलूनी । जातेरिति किम् ! मासजाता । बहुजाता । अचाना । सुखजाता ! तुःखबाता । नादिति किम् ? सव्यजानुप्रतिष्ठिता | "शतान्तरिमविषधोधकथ्यः [वा०) दन्तजावा । स्तन जावा। "पाणिगीयालीमा गुवनभाता ही कश्यः" [धा-1 पाणिग्रहीती भार्या । यस्पात यथाकञ्चित् पाणिगं हीतः सा पाणिग्रहीवा । त इति दतोकं (त इत्यत्रोक्तं ) जातिकालसुखादिभ्यः परनिपावरतान्तस्योत जातिरस सकुवाख्यासनिर्माह्या ।
वाऽस्थालादेः ॥३४६॥ क्वादिवि वर्तते बादिति च । अस्वाङ्गादेः कान्ताद्वसाद या डील्यो भवति । सारनं जग्धमनया सारङ्गबन्धी । सारङ्ग जग्धा । पलाण्डुमक्षिवी । पलाएलक्षिता। सुरापीती । सुरापीता । अस्वाङ्गादेरिति किम् १ शाखभिन्नी । स्वाङ्गादेः पूर्वेण नित्यो विधिः । ति व्यवस्थितविभाषा । सेनेह न भवति । वस्त्रं छन्नमस्याः वस्त्रच्छन्ना । वसनच्छन्ना । पसेऽपि संज्ञायां विकल्पः । स्वदविलूनी । प्रवदविलूना ।
स्वाक्षानोमोऽस्फोहः ॥18॥ वेति वर्तते | स्वार्थान्य अस्फोङ् यत् तदन्तान्मृदो वा होत्यो भवति । दीर्घकेशी । दीर्वकेशा । गौरमुखी । गौरमुखा । स्वाङ्गादिति किम् । बहुयवा | अस्फोछ इति किम् । कल्याणगुल्का | कल्याणपाश्वा । वेति व्यवस्थितविभाषा व्याल्याता । तेन ' अङ्गगात्रकण्टेभ्यो वा प्रतिषेधः" [पा०] मृदङ्गी । मृाझा । मृदुगात्री। मृदुगात्रा। स्निग्धकाली। स्निग्धकराठा । बसाधिकारे पुनयंग्यइणं षार्थम् । प्रतिकेशी । प्रतिकेशा । निशा। निश्केशा माला । इह फरमान भवति ? कल्याणं पाणिपादमस्याः कल्याणपाणिपादा । स्वाससमुदायः स्वाङ्गग्रहणेन न गृह्यते । किं स्वाङ्गम् ! "भनवं मूर्तिमत्स्वान प्राणिस्थमविकारजम् । अतरस्थं सत्र एष्टं चेत् सस्य चेत् सत् उपायुतम् । स्वाङ्ग मुखादि । अद्रवांमति किम्? बहुकफा । मूर्तिमदिति किम् ? बहुशाना । प्राणिस्थमिति किम् ? श्लचएमुखा शाला । अविकारजमिति किम । बहुशोफा । अवस्थं सत्र इष्टं , प्राक् माणिनि दृष्ट संप्रत्यप्राणिस्थमपि स्वाङ्गम् । दोर्षकेशी । दोर्षकेशा रख्या । तस्य चेत् तत् तपायुतम् येन प्रकारेण पारिएनो युतं दृष्ट तस्याप्राणिनोऽपि यदि क्त्तथायुत दृश्यते एवमपि स्वाकम् । दीर्घमुखी दीर्घमुखा अर्चा ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० १ ० ४८-५३ नासिकोवरीष्ठजलावन्तकर्णात् ॥३॥४॥ स्वाङ्गानीच इति वर्तते वेति च । नासिकादयो ये न्यश्चस्तदन्तान्मूदो वा ङीत्यो मनति । दीर्घनासिकी। दीर्धना सका । तमूदरी । तनूदरा | बिम्बोष्ठी । निम्बोष्ठा |"ओरखोष्ठयोर्धा से पररूपमुपसंख्यास्यते' [वा० समजली। समजङ्घा । समदन्ती । समदन्तः । चारक । चारुकर्णा ! तीक्षणशङ्गी। तीक्ष्णतः । नासकोदरयोः "बदचः' [URE] इत्यनन्तरे प्रतिषेधे प्राते ग्रहणम् । सहन विद्यमानलक्षणस्तु प्रतिषेधो भवत्येव । शेषाणामस्फोड इति पूर्वस्मिन् प्रतिषेधे प्रासे उपादानम् । सहादिप्रतिधर भवत्येव । 'पुरछाश्चेति वक्तव्यम्" वा०] दीर्घपुच्छी ! दीर्घपुच्छा | "कपरमणिशरविषेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम्" [पा०] कबरं पुच्छमस्याः कंवरपुच्छी। मणिः पुच्छेऽस्याः मणिपुच्छी । विर्ष पुच्छेऽस्याः विषपुच्छो । "ईविशेषणे " [१।३।१०१] इत्यत्र खादिम्पः ईस्तस्य परबचनमुक्तम् । "उपमानात पश्चपुच्छाभ्यामिति वक्तव्यम्" वा०] उलूक दव पक्षावस्याः उलूकपक्षी शाला। उलूक हव पुच्छमस्या उलूकपुच्छी सेना।
नक्रोडादिबलचः ॥३१॥४६॥ कोडादिर्गणः । क्रोडायन्तात् बह जन्ताश्च मृदो डोत्यो न भवति । "स्वामीच:" [३१॥३५] इति प्राप्तिः । कोडाशब्दः स्त्रीलिङ्गः। कल्याणी क्रोडा अस्याः कल्याणक्रोस । कल्याणगोखा । कल्याणराला ! कल्याणखुरा । कल्याणशफा । कल्याणगुदा । कोडादिराकृतिगयः । सुभगा। सुगला । बहवः खल्वपि 1 पृथुजधना हहदया | महाललारा।
सहनविद्यमानात् ॥३१॥५०॥ सह मम विद्यमान इत्येतेभ्य उत्तरं यत्स्वानं तदन्तात् त्यो न भवति । सकेशा । अकेशा । विद्यमानकेया । सनासिका । श्रनासिका । विद्यमाननासिका । सुदन्ता । अदन्ता । विद्यमानदन्ता ।
मखमुखाखौ ॥३॥१॥५१॥ नख मुख इत्येवमन्तान्मृदः खुविधये होतो न भवति । शाखा | व्याघ्रणखा । वनणखा । "पूर्वपदात् सावग:" ५११०७) इति एवम् | गौरमुखा। श्लपणमुखा । फालमुखा। संशाशम्दा एते। साविति किम् ? शमिव नखा अस्या शमयसी । शूर्पणला । चन्द्रमुखी । चन्द्रमुखा।
सत्यशिश्वी ॥३१॥५२॥ सखी अशिश्वी इत्येवौ शब्दौ निपात्यते । डीविधिनिंपात्यते । सलीय कुमारी । नास्याः शिशुरस्ति अशिश्वी !
जातेरयोगः ॥२१॥५३॥ अत इति वर्तते । जातिवाचिनः प्रयकारोऽडो मुदः खियां कात्यो भवति । "प्राकृतिप्रणा जातिािमा च म सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिर्माया गोत्रं च चरणैः सह।" आकृतिः संस्थानम् । प्राकृतिमइयमस्याः श्राकृतिग्रहण । ब्राह्मणत्वादीनां आतिविशेषाणां संस्थानविशेषामावान् कथं संग्रहः १ लिङ्गानां च न सर्वभाक् । एकलिलो द्विलिङ्गो वा भावो जातिः । ब्राझवत्वादिषु केवलमुपदेशमात्रं जातिव्यवहारस्य निर्बन्धनम् । जात्यभावेऽपि विलिङ्गतास्ति देवदत्तः देवदचा इति । अथ कथं त्रिलिङ्गेषु तटस्तदी तमित्येवमादिषु जातिबाचित्वम् १ सकृदाख्योतनिर्माधा। अभिधानप्रत्यययोरनाकस्मिकत्वात्तनिमित्त यातिरिति। एवं सकृदाख्याता निश्चयेन प्राथा । ननु सर्वे शब्दा जाविवाचिनः इत्यस्मिन् दर्शने यहच्छाशन्दाना क्रियागुणशब्दानां च बातिशब्दस्वं देवदत्तादयोऽपि संज्ञाशब्दा बाल्यकौमारयौवनादिध्वन्वयिनौमाकृतिमवलम्बन्ते । पर्व च देवदत्ता कारणा शुक्ले त्यत्र छोविधिः प्रसज्येत ! यदीदं दर्शनमाश्रीयेट व्याव] नास्तीवि अश्यामनर्थक स्यात् । तस्मायेषां जातिरेव प्रवृत्तर्निमित्तं त इह जातिशब्दाः । गोत्र' च लौविक्रमपत्य मात्र
दाख्याननि-.। २, -बाख्यानमि-५० ।
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प. ३ पा. १ सू०५५-६. ] महावृत्तिसहितम् जातिः । नात्राकृतिः प्रतीयते नापि किञ्चिलिङ्गमस्ति येन सकृदाख्यायेत । लिङ्गानां प न सर्वभागित्यस्मिन् दर्शने गोत्रं चेति न बक्तव्यम् | चरणः सहेति चरणमध्ययनयशात् क्रिया तदात्मक' आतिः । कुक्कुटी । ब्रामणी । लटी । नाडायनी । वहची । कठो । कठेन प्रोतमधीते या "शौनकादिभ्यस्छन्दसि दिन्" [RR) इति णिन् । परल्याणः "वोकात्" [२॥२॥५७ ] इत्युप । शौनकादिवेव ! "कचरकात्" इति इन ठप्। बातेरिति किम ! मुण्डा | अयोछ इति किम् ? आर्या । चत्रिया।
पाककर्णपर्णपुष्पफलमूलवालधोः ॥३॥१॥५४॥ पाकादयो युभूता यस्य तस्माजातिवाधिनो मृदः खिया डोक्यो भवति । श्रोदनपाको । क्षणापाको । भूपिकर्णी । शकुकर्णी । पृष्टिपर्णी । शासिपी । शाखपुष्पी । हिरण्यपुष्पी । दासीफलौ । पूगफली। दर्भमूली। शीर्यमूली | गोवाली । अश्क्वाली। पुष्पफलमूलोचरपदायतो विधिर्नेष्यते तदनादिषु पठनीयम् । पूर्वेण सिद्ध नियमार्थमेतत् । स्त्रियामेव ये मातियाचिनः शब्दास्तेषु एतेभ्य एव विधिर्नान्यस्मात् । बलाका । मनिका ।
इतो मनुष्यजाते ॥३॥१॥५५॥ इकारान्तान्मनुष्यजातिवाचिनो मृदः स्त्रियां लीस्यो मवति । ची। श्रयन्ती । अपत्यार्थे "द्वितकुरनाथजादकौशलान्यः" [३।१।१५३] इति ध्यः । तस्य "कुन्त्यन्तिकम्यः जियाम्" [३।१।१५० इयप। एवं दाक्षी । मादी । इत इति किम । विद । दरत् । यथासंख्यमभयोः "मतोऽप्राज्यभगादेः" [ १५] इलुप् । मनुष्यग्रहणं किम् । तित्तिरिः । जातेरित वर्तमाने पुनर्बात्तिग्रहणं योछोऽपि यथा स्यात् । प्रौदमेयी । “अयोकः" [ ३] इति प्रतिषेधः उत्तरत्र त्रिसूत्र्यां च वर्तते । "इण उपसंख्याममजास्यर्थ कर्तव्यम्" [चा०] सुतजमेन निवृत्ता नगरी सौतङ्गमी । “छकडे" [१।२६] इत्यादिना मुतनमादिभ्य इम् ।
ऊरुतः ॥३१॥५६॥ मनुष्य तिरिति वर्तते । उकारान्तान्मनुध्यजातिवाचिनो मूदः खिया लकारत्यो भवति । कुरूः । इक्ष्वाकः । पः। श्रस्य "कुन्त्ययन्ति कुरभ्यः स्त्रियाम् [ 1] इति अमणोः "मतोऽनाच्यभदिः" [
२ ८] इत्युप् । हिमानोन्चारण “शेषाद्वा" [स ] इति परस्यापि कमो बाधनार्यः । तथाहि ब्रह्मा बन्धुर्यस्याः सा अझबन्धुः । वीरवन्धूः । अत्र च समुदायों ब्राझणविशेषमातिः । यावेन मृदमृदोरेकादेशो मृदभवतीति मृत्सज्ञायों स्वाद्युत्पत्तिः 1 मनुष्यमातेरित्येव । करुः । कृकवाकुः । लाखुः । अयोङ इत्येव । अध्ययुः स्त्री । लाबुः । कर्कन्धरित्येवमादय श्रोणादिकाः । कथं अलानुकर्वन्धुन्भुफलमिति १ "इक: मोऽस्या:" [४/३१७२] इति प्रादेशेन सिद्धम् ।
पलोः ॥शश५७॥ पङ्गुशब्दात स्त्रियामूल्यो भवति । पयः । श्वशुरशब्दस्योकाराकारयोः खमूख त्यो वक्तव्यः । श्वथः ।
ऊरघोरिवे ॥३॥१५८॥ ऊरशब्दो युर्यस्य तस्मान्मृद हवार्थे गम्ये स्त्रियामूल्यों भवति । करभोः । कदलीस्तम्भोरुः । नागनासोसः । इव इति किम् ? वृत्तोरुः कन्या !
सहितशफलक्षणवामादेः ॥३॥२५९॥ संहिताबादेर्मुदः ऊल्योः स्त्रियाभूत्यो भवति । अनिवार्थोऽयमारम्मः । संहितोसः । शफोल: । लक्षणोला । वामोरूः । “सहिनसदाभ्यां चेति पकन्यम्" [चा.] उहितोरूः । सहोरूः।
चाहन्तकत्रकमण्डलुभ्यः ॥३॥श६०॥ बाळुशब्दान्तान्मृदः कद्र कमएडलुशब्दाभ्यां खुविषये अत्यो भवति । मद्रबाहूः | भद्रबाहूः । कद्रः । कमण्डलूः । कासाञ्चिदेताः संज्ञाः । खाविति किम् ? वृत्ती बाहू अस्याः वृत्तवाडूः । हः । कमण्डलुः ।
1. यवात्मक जाति: म., अ., स.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [०३ पा० १ ० ६१-६५ दूतः ॥३३६॥ अधिकारेणेयं संज्ञा । यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्याम पाकपो इत्संजास्ते वेदितव्याः । वक्ष्यति ।' 'यूनस्ति:'' [ २] युवतिः । "कृद्धस्साः" [१३] इति मुत्संज्ञाया स्वाद्युत्पत्तिः। बहुत्वनिर्देशोऽनुक्तपरिग्रहार्थः । मध्यान्म उक्लोऽन्यतोऽपि भवति । अन्तमः। आदिमः | धारण विहितः। अधर्मादपि । श्राधर्मिकः । द्वचामिह बहुत्वेन निर्देशे कि प्रयोजनम् ? अनुक्ताच हृदुत्पत्तिर्यथा स्यादन्तमादिषु । तथा अनुक्ता अपि हुतो भवन्ति "अनपश्चाहिमः" [पा० ] इत्येवमादयः ।।
यूनस्तिः ॥३॥११६२॥ युवनिवेस्लिातिर्भवति स्त्रियाम् । युपचिः । यूनः स्वगवेववायां कुत्साद्यर्यविवक्षायां च परत्वात् कादयः प्राप्नुवन्ति तस्माद्यून इति योगविभागः । यूनो हृत्प्रसङ्ग स्त्रोत्य एव भवति ततः कादयः। युवतिकाः।
व्योऽतु रूपान्त्ययो नार्षेऽणियोः ॥३॥श६३|| स्त्रियामिति वर्तते । अणिभौ यो वृद्धेइना विहितावत् रूपान्ल्यो तदन्तस्य मृदः ष्य इत्ययमादेशो भवति । निदेश्यमानयोरणिोरेव व्यादेशः। "पौत्रादि वृद्धम् [३१] इति अपत्यविशेषस्य वृद्ध संज्ञा । भूपरिदमा तद्रहित वृद्ध इति । “के हैं [1111] "बी" [२२] इति अचां रुतंझोक्का । सः उपान्त्यं सन्निहितं ययोरपिशषोस्तयोः ध्यादेशः । पकारः " प्यस्य पुत्रयस्योर्जि:" [ ३Jइत्यत्र विशेषणार्थः । करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धिः। "उपमामात्" [ १८] इति या इकारः सान्तः। करीषगन्धेरपत्यं स्त्री कारीषगन्ध्या । कौमुदगन्ध्या । वराहस्यापत्यं स्त्री वारामा । बालाक्या । जातिलक्षणस्य"भयोङः" [३१॥५३] इति प्रतिषेधः। श्रमल्विधाविति स्थानिवद्रावप्रतिषेधादणि लक्षणोऽपि कोत्यो न भवति । ततः ध्यान्ताहाप । अदिवदि इलामविवक्षार्थमा निर्धारण क्रियतेऽतु रूपान्त्ययोरिति । अन्यथा येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपीति एकेन वर्णन व्यवधाने वायमादिषु स्यात् । वर्णसधाते ब्यवधाने कारीगन्ध्यादिषु न स्यात् । अस्विति बहुत्वनिर्देशः प्रधानभूतो यत्राचां बहुत्वमस्ति तत्रादेशः । तेनेह न भवति । दाक्षी । प्लानौ। रूपान्त्ययोरिति किम् ? श्रीपगयी । सूद इति किम् । अहिच्छत्रे जाता आहिच्छत्री । अनार्घ इति किम् ! वाशिष्ठी । वैश्वामित्रौ । अणिमोरिति किम् । प्रातभागी ! तभागाद्विदादिलक्षणोऽस् । इह उड्डुलोम्नोऽपत्यं स्त्री औडुलोम्या | बाहादित्वादिन टिखे कृते रूपान्त्यत्वं ततः ध्यादेश इति प्रानुपूर्यम् ।
गोधावयवात् ॥३१॥१४॥ अणिोरिति वर्तते । गोत्रमिति पूर्वाचार्याणां वृद्धस्य संशा । गोत्रावयवाः गोत्राभिमताः कुलाख्याः । गोत्रावयवबाचिनी मृदः वृद्ध विहितयोरणिोः स्त्रियां प्यो भवति । अरूपान्यार्थोऽयमारम्भः । पुणिकस्पापत्यं स्त्री पौणिस्या । भुणिकस्य मौणिक्या । मुखरस्य मोखर्या । यत्रानन्तरापत्येऽपि ष्यो दृश्यते ज्यादिषु तत्पठनीयम् । यथा अन्तकाम्या देवदत्वा ।
कौडयादेः ॥शश६५॥ कौडीत्येवमादिभ्यश्च लियां ध्यो भवति यथासम्भवं लोटापोः प्राप्तयोः कांचदनन्तरापत्यार्थः । कचिदबसवर्थः । क्वचिदरूपान्त्यार्थः प्रारम्भः । कचिदरिणभोरसन्तोरपि । त्य एवार्य ध्य इष्यते । कौडि । कोख्या । "इतो मनुष्यजाते." [श॥५५] इति डोषिधिः प्राप्तः । कौडि लादि व्याडि आपिशलि भापतिति एते इन्तः । चौपयत चैटयत सैकयत एते तारान्ता अणन्ताः। सौधातकिरिअन्तः । “सूपशब्दायु पस्यां यः" [ग सू० ] सूत्या । सूता अन्यत्र । "भोजात् क्षत्रियजामौ" [ग० सू०] भोज्या । भोया अन्या । भौरिक शालास्थल कापिधलि घते इन्वा । गोकच्या । यवन्तोचारण जिवनिहत्यर्थम् । गौकक्ष्यापुत्रः।
१. भानुपूर्वी मा । २पुराणिकस्यापत्य पौराणिक्या प० ।
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म. ३ पा ! सू. ३५-३०] महावृत्तिसहिसम्
दैवयशिशीचिवृक्षिसात्यभुमिकाण्टेयिद्धिभ्यो या ॥३॥१॥६६॥ दैवयशि शौचक्षि सात्यमुनि काण्टेविद्धि प्रत्येतेभ्यः या ध्यो भवति । उभयत्र विभाषेयम् । वृद्ध प्राप्ते ऽनन्तरापत्ये चाप्राप्ते । दैवयत्त । देवयशी । मौचिकृष्ण मौविकृती : मा! सभी । कारटेविद्ध्या । काण्ठविद्धौ । अनन्तगपत्ये "इल उपसंख्याममजास्यम्" [या. ] इति हो। वृद्धापत्ये "इतो मनुष्यजाते. [ २५] इति ।
__ समर्थात्प्रथमावा ॥३।११६७॥ समर्थादिति प्रथमादिति वेति च पदत्रितयमधिकृतं वेदितव्यम् । "किंबहुसर्वनाम्नोऽद्वयादेः" [१८] इत्यतः प्रा . वक्ष्यति "तस्यापत्यम्" ] उपगोरपत्य
औपगतः । तस्येत्येतत् तान्तं सूत्रे प्रथमं सन्निविष्टम् तस्मादपत्याभिधाने त्यः । समर्थादित्युच्यते सामर्थ्य च सुबन्तस्येति सुबन्तात्योत्पत्तिः। द्वद्ववर्णादिति विशेषणार्थ तु या मृगहरामधिक्रियते । वृद्धस्य उपगोरपत्यमिति वाक्यस्यासुबन्तत्वात् वाक्यावयवस्य चासामर्थ्यात् त्यानुत्पत्तिः । समर्थादिति किम् ? कम्बल उपगोरपत्यं देवदत्तस्य । यद्येवं समर्थः पदविधिरिति समर्थादेव भविष्यति किमनेन ? कृतवर्णानुपूर्वकात् पदात् यो यथा स्यादित्येवमर्थम् । सूस्थितस्यापत्यं सौस्थितिः । वैक्षमाणिरिति । "नेन्द्रस्य" [ २०] इत्यत्र वक्ष्यति समु. दायका तावद्भवति पश्चादेकादेशः। एवं वा (चा संहितात्योत्तावनिष्टं रूपं स्यात् । प्रथमादिति किम् ? तान्ताद्यथा स्यादपत्वशमान्मा भूत् । वाग्रहणं किम् ? उपगोरपत्यमिति वाक्यमपि साधु यथा स्यात् । अनन्तराद्वाग्रहणात् सविधिरपि । उपग्बपत्यम् । प्रान्द्रोरण ॥३६॥ "दो
"माने धयः" [३३1२०] इवि रक्ष्यति । प्रागेतस्माद्येऽर्थी वक्ष्यन्तै तेवण भवतीति वेदितव्यम् । अधिकागे विधिर्वाऽयम् । अधिकारपक्षे "पीडामा पा" [ 0], "चोदश्वितः" [I] इत्येवमादौ वावचनादपवादविषये नास्ति वृत्तिः | विधिपक्षऽपि परिहत्यापवादविषयं तत उत्सगोऽभिगिविशते । बक्ष्यति तस्त्रापत्यम् प्रौपगवः । कापटवः । अपवादेन आधितोऽप्युत्तरत्रानुवर्ततामिति प्राग्वचनम् ।
अषपत्यावेः ॥३१॥६६॥ अश्वपति इत्येवमादिभ्यः समर्थविभक्त्यन्तेभ्यः प्राण भवति प्राग दोर. थेनु । "पतियो:" [३।११७० इति एयो वक्ष्यते । तस्यायमपवादः । अश्वपतेरपल्यं श्राश्वपतः । अश्वपति गणपति वनपति गजपति राष्ट्रपति कुलपति पशुपति धान्यपति बन्धु पति सभापति प्राथपति क्षेत्रपति येऽत्र दुसशास्तेभ्यो "लोकः" [३।२।१०] इतिच्छं बाधित्वा पूर्वनिर्णयेनायमेवाय् ।
दित्यदित्यादित्यपतिधोयः ॥११७०॥ प्राग द्ररिति वर्तते । दिति अदिति प्रादित्य पतिद्यु इत्येतेभ्यः समर्थविभक्त्यन्तेभ्यः प्राग दोरर्थेषु एयो भवति । अयोऽपवादः। दितेरपत्यं दैत्यः । एषः","इचो. निमः [३।११०, १११] इतीमं दणं पूर्वनिर्णयेनार्य बाधते । सर्वतो "प्रत्यर्थात् ' [३00 मसू.] इति हीविधी कृते परत्वावुय् च भवति । दैतेयः। लिङ्गविशिष्टपरिभाषा वा नित्या अदितेरपत्यं प्रादित्यः । आदित्यस्यापत्यमादित्यः 1 प्राक्तनस्य यकारस्य "क्यच्यभाष्यापरयस्य" [ 11] इति "हको यमा यमि स्वम्" [शा१३८] इति वा खम् । पतियोः खल्वपि । बाईस्पत्यः । सैनापत्यः । प्राजापत्यः । एयादयोऽयविशेषलक्षणादण (णोऽ) पवादात् पूर्वनिर्णयेन (इति) ण्व एव भवति । वनस्पतीनां समूहः वानस्पत्यम् । "यमाचेसि वकव्यम्" [वा.] यमस्यापत्यं याम्यः । “पृथिच्या प्रानो' [वा.] पार्थिवः । पार्थिवी । "देवस्य यमौ " [वा०] । दैव्यम् । देवम् ] "बहिषष्टिावं यत्र' [वा०] | बाह्यम् । "ईकण् । [पा०] बाहीकः । भेर्ममानटिनमनित्यमारतीय इत्यादौ । स्थाम्नोऽकारः । अश्वत्थाम्नोऽपत्यम् अश्वत्थामः। "होम्सा. श्चात्त्येषु बहुपुका . ] उडलोमाः 1 शरलोमाः। महञ्चिति किम् ! श्रीडुलोमिः । शारलोमिः । "सरंच गोरजातिप्रसो यः" [वा० ] गव्यः । अनादिप्रसङ्ग इति किम् ! गोरूप्यम् । गोमयम् ।
१. प्रकरप्य चापवादविषय 'इति परिभाषेन्दुशेखो। २ बन्धपति भ., ..
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ३ पा० १ सू० ७१-७३
उत्सादेरम् ॥३|११७१ ॥ प्राोरिति वर्तते । उत्स इत्येवमादिभ्यः समर्थविभक्तयन्तेभ्यः प्राग्द्रोरर्थेष्वञ भवति । अणस्तदपवादानां च बाधकः । श्रत्रि सति "मणोः " [१४] ११५] इति बहुत्वे उम्भवति । उत्सस्यापत्यं श्रौत्सः । उदपानस्यापत्यमौदपानः । उत्स उदपान विकर विनद महानद महानस महाद्वारातर तलुन | धन्यशब्दादसे | असमास इत्यर्थः । धेनु पङक्ति जगती त्रिष्टुप् अनुष्टुप् जनपद भरत उशीनर पीलुकुण 1 उदस्थानशब्दाददेथे | पृषदंश मलकीय रथन्तर मध्यन्दिन बृहत् महत् । सत्वतशब्दो सत्वन्तुशब्दो मत्वन्तः आगतको । कुरु पश्चात इन्द्रावधान उहि ककुभ् सुवर्ण । ग्रीष्मादच्छन्दसीति वक्तव्यम् । छन्दश्वेद वृत्तजातिः । तरुणशब्दस्य लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणम् । तण्या अपत्यं तारुणः । श्यादयोऽर्थविशेषलक्षणादण - (s) प्रवादात् पूर्वनिर्णयेन भवन्तीति ।
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स्त्रीपुंसान्नुकम्यात् ॥३१॥७२॥ वक्ष्यति " अाजस्व: : ३।४।१२६] एतस्मात्त्वसंशब्दनात् प्राग्योऽर्थो वक्ष्यते तेषु स्त्रीशब्दात् पुंशब्दाच्च श्रभ् भवति नुगागमः । स्त्रीषु भवं स्त्रीणां समूहः स्त्रीभ्यः श्रागतम् स्त्रीभ्यो हितं स्त्रीणां भावो वा स्त्रैणम् । एवं पौनम् । “मोऽपुंसो हृति' [ ४|४|१३० | इति प्रतिषेधात् पुष्टिखं न भवति । स्त्रीशब्दस्य तु नुग्वचनसामर्थ्यात् । स्त्रैणाः पौरना इत्यत्र ओ : " | १४ | १३५ ] इत्युप प्राप्नोति । इह च स्त्रैणानां संघ इति " संघाक्ष [३।३।४५] इत्य प्राप्नोति चेत् नैतो दोषी । श्रपत्याधिकारात् प्रागूर्ध्व च वृद्धग्रहणेषु लौकिक गोत्रग्रहणामिति वक्ष्यते । न च स्वयं पोस्नमिति षा लौकिकं गोत्र' तस्मादुगौ न मवतः । “पुंत्रच जातीयदेशीये " [ ४६२११४] इति वचनं योगापेक्षं शापकम् । चतोऽर्थे नायं विधिरिति । स्त्रीवत् । पुम्वत् ।
वृद्धेऽभ्यनुप् ॥३१॥७३॥ प्राद्रेोरिति वर्तते । “यस्कादिभ्यो वृद्धे” [१|४|११४] इत्यत्र प्रकरणे बुद्धे यस्य त्यस्य बुक्तः तस्यानुभवति प्राद्रवीयेऽजादावृत्पत्स्यमाने । गर्गाणां छात्राः गार्गीयाः । “यमजोः" [१४१३५] इति बहुत्वे उप प्राप्तः । ईयविषये प्रतिषिध्यते । "यस्य यांच" [ ४/४२१३६ ] इत्यखम् "क्यष्यभावप्या पध्यस्य” [४|४|१४१] इति यखम् | त्याश्रयलक्षण ऐग्भवति । यास्कीयाः । शिवादिलक्षयस्यायाः "यस्कादिभ्यो वृद्ध" [१४] १२४ ] इत्युप् प्राप्तः । श्रात्रेयीयाः | "द्वयचः” [२।१।११०] "इतोऽ मित्र: " [ ३ | १|१११ ] इति दण् तस्य "भुग्वत्रिकुपवशिष्ठ गोतमाङ्गिरोभ्यः " [१|४|१३५ ] इत्युष्प्राप्तः । खारपावणीयाः । “यस्कादिभ्यो वृद्धे " [1|४|१३४] इत्यनेन नडादिफण उप प्राप्तः । वृद्ध इति किम् कुवलस्येदं कौवलम् | बादरम् । श्रवयवार्थे श्रागतत्यागः " उच्फले" [ ३१३१२१] इति उचैव भवति । श्रचीति किम् ? गर्गेभ्यः गर्गरूयम् । गर्गमयम् । प्रागुदोरित्येव गर्गेभ्यो हितं गार्गीयम् । वृद्धाद्वन्तत् एकस्मिन् नि द्वयोर्वा यूनोर्यथः तस्मिन्नष्ठेऽप्यनुभवति । विदानामपत्यं युवा वैदः । वैदौ । श्रमन्वादत हुत्र । तस्य " यर्थाथ न्युणित्रो : " [ 1 | २|१३० ] मृत्युप् । “त्यखे स्थाधयम्" [२११०३३] इत्यादिकमस्ति । वर्खाश्रये नास्ति त्याश्रयमिति न मन्तव्यम् । अचीति विषयनिर्देशः । एकद्भयन्ताच्च वृद्धात् सुवबहुत्वविवक्षायां उपच वक्तव्यः । वैदस्य वैदयोरपत्यानि युवानः विदाः ।
रोबपत्ये ||३|११७४॥ प्राग्द्रोरिति वर्तते । रस्य निमित्तत्वेन संबन्धी यो छत् श्रपत्यवर्धिते प्राद्रोरर्थे विहितस्तस्यो भवति । पञ्चसु गुरुषु भवः गुरुर्नमस्कारः । दशसु धर्मेषु भवः दशधर्मः । द्वावनुयोगावची द्वयनुयोगः । त्र्यनुयोगः । हृदयें षसः | संख्यादीरसंज्ञः । भवार्थे श्रागतस्याण उप् । रस्येति निमित्तविशेषणं किम् ? उदन्ताद्यो छत् तस्योम्मा भूत् । पञ्चगुरोर्नमस्कारस्येदं पाञ्चगुरवम् । यदि रस्य निमितं यो हृत् तस्योप्
१. अत्रापि हितं न भवतीत्यत्रापि योज्यम् ।
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पा० । सू००५-७१)
महावृत्तिसहितम्
इह तई न प्राप्नोति पञ्चानां कपालानां समाहारः पञ्चकपाली। पञ्चकपाल्यां संस्कृतः पञ्चकपालः। नैष दोषः । अन्यविकन्यायेन पञ्च पालशब्दात् त्योत्पत्तिः । यथा अवेर्मासं श्राविकमिति अविकशब्दादेव त्यो नाविशब्दात् । अनपत्य इति किम् ? योदेवदत्तयोरपत्यं वैदेवदन्तिः । अग्रहरणमनुवर्तते । तेनेह न भवति । पञ्चम्यो गर्गेभ्य श्रागतं पञ्चगर्गरूप्यम् । प्राग्दोरित्येव । द्वाभ्यामक्षाभ्यां दीयात वैयक्षिकः । त्रैयक्षिकः ।
यूनि ।।३।११७५|| प्रान्द्रोरिति वर्तते श्रीति च । यूनि यस्त्यस्तस्योब भवति प्राग्द्रवीयेऽबादौ त्य उत्पत्स्यमाने । फाण्टाहतस्यापस्थं फाण्टाइतिः। तस्यापत्यं युवा "फापटाहतेयः" [३111८] इति णः । फाण्टाहतः। तस्य यूनश्छात्रा बुद्धिस्य एवानुत्पन्नेऽजादौ त्ये एस्योपि कृते इञन्तमिदं जातम् | "इम:" [२८] इत्यण भवति । फाटाहताः । भगवित्तस्यापत्यं भागवित्तिः । तस्यापत्यं युवा "दोष्टण सौवीरेषु प्रायः" [11] इति ठरा । भागवित्तिकः । तस्य यूनरछात्राः ठण उपि कृते ''इम:" [२८] इत्यण । भागवित्ताः । तिकस्यापत्यं तैफायनिः । तस्यापत्यं युवा "फेश्नः" [३११११३०] इति छ । तैकायनौयः । तस्य यूनश्छात्राः छस्योपि कृते "दोश्वः" [२१२।१०] इति छः । कायनीयाः। ग्लुचुकस्यापत्य "फिरदोः" [३।१।१४७] इति फिः । ग्लुचुफायनिः। तस्यापत्यं युवा "प्राग्दोरम्" [३।१॥३८] ग्लौचुकायनः । तस्य यूनश्छात्रा श्रण उपि तस्येदमित्यण । गौचुफायनाः । कपिजलादस्यापत्यं कारिजलादिः तस्मापत्यं युवा "कुवादेष:" [३।।३६ ] इति एयः । कापिंजलाद्यः । तस्य यूनश्छात्रा एयस्योपि कृते "इश:''[३२२८८] इत्यण कापिक्षलादाः । प्रचीत्येव । फापटाइतरूप्यम् । फापटाहृतमयम् । प्रारद्रोरित्येव । मागविन्तिकाय हित भागवित्तिकीयम् |
फफियोर्षा ||११७६॥ यूनोति वर्तते । यूनि यौ फमिली तयोर्वा उन्भवति माग्द्रचीयेऽजादौ स्ये विवक्षिते । पूर्वेण निल्ये उपि प्राप्ते विभाषेयम् । गार्यस्यापत्यं युवा थनिनो'" [३।१०] इति फण । गाय-ययाः। तस्य यूनच्छात्राः गार्गीया गाग्यो वा । फित्रः खल्वपि । यस्कस्यापत्यं "शिवादिभ्योऽ" [111101] यास्फः । यास्कस्यापत्य' युवा "यचोऽयः" ११५३] इति फिञ्। यास्कानिः । तस्य यूनगछात्राः यास्कीयाः । यास्कायनीयाः ।
___तस्यापत्यम् ॥१७॥ तस्येति तासमर्थात् अपत्यमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । हृदर्थनिर्देशे लिङ्गवचनादिकमविवक्षितमप्राधान्यात् । उपगोरपत्यं श्रौपगवः । तान्तादण् । उक्लार्थस्यापत्यशब्दस्य निवृत्तिः । “सुपो धुमृदो [ २] इति सुप उप । ऐप । श्राश्वपतः । दैत्यः । सैनापत्यः । श्रौत्सः । स्त्रैणः । पौस्नः । वृतौ स्वभावत एकार्थीभाषः । प्रकृत्यों विशेषणभूतोऽप्रधानम् । त्यार्थस्य सामान्येन प्रवृत्तस्य विशेषेऽवस्थापनाच्यार्थः प्रधानम् । गुणप्रधानभावेन प्रकृतिस्त्यश्च त्यार्थ सह व्रत इति । ननु च तस्येदं विशेषणं सामान्यम् ) एते अपत्यं समूहो निवासी विकार इति । तस्येदमित्येव सिद्ध किमर्थमिदमुच्यते । बाधकयापनार्थम् । भानोरपत्यं मानवः । श्यामगयः । दुलक्षणश्छो बाधितः । "तस्याएत्यम्" "मयादादेरिण" [१८५] इत्येव वक्तव्ये इह करणं पूर्वसत्तरैश्च वैरभिसंबन्धो यथा स्यादित्येवमर्थम् ।
पौत्रादि वृद्धम् ॥३१७८॥ पुत्रस्यापत्वं पौत्रः । विवादित्वादन । प्रथमादिति वर्तमानमर्यवशात्तया विपरिणम्यते । प्रथमस्य पौत्रादि यदपत्यं तत् वृद्धसंज्ञ' भवति । संज्ञाविषयस्य प्रयमस्य गर्गस्पापत्वं गायः । वात्स्यः । "छ कुमादिभ्यो फ:" [11] इति वर्तमाने 'गदेन' [ १४] इति यत् । पौत्रादीति किम् ? गार्गिः । अनन्तरमपत्यं वृद्ध मा भूत् ।
पकः ॥३१७६॥ वृद्धमिति वर्तते । बुद्धेऽपत्ये विवक्षिते एक एव त्यो भवति । वस्याः स्वस्याः प्रकृतैरपत्यभेदविवक्षायामनेक त्यं बुध्या समुदायोकृत्य नियमः क्रियते । यदिदं गर्गादिपितृकमपत्यश्चत वृद्ध
१. एनम म०, ब.।
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१६४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ३ पा० १ सू० ८०-८५
तस्मिन्नेक एम त्यो भवति । स च परम प्रकृतेर्भवति । यदपि व्यवद्दितेन जनितमपत्यं वदपि परमप्रकृतेः सामापेनापत्यं भवत्येव । यदपि सर्वेऽप्यपत्येन युज्यन्ते तथापि प्रथमादित्यनुवर्तनात् परमप्रकृतैरेव भविष्यति गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः । तत्सुतोऽपि गार्ग्यः । एवं व्यवहितेऽपि वृद्धापाये विवक्षिते गर्गशब्दाद्यशेवमर्षात । श्रथवा प्रकृतिनियमोऽयं वृद्धापत्ये विवक्षिते एक एव शब्दः प्रथमा प्रकृतिः त्यमुत्पादयति नान्येति प्रकृतिर्नियम्यते । एवं नस्यापत्यं नाडायनः ।
ततो यूनि ||३|११८० ॥ तती वृद्धत्यान्ताद् यून्यपत्ये विवचिते एक एव स्यो भवति । गार्ग्यस्यापत्य युवा गार्ग्यायणः । दाक्षायणः । श्रौपगवः । नाडायनिः ।
जीवति तु श्ये युवा
1
॥ १८१ ॥ वंशः पितृपितामहादिप्रबन्धः तत्र भवो वंश्यः पित्रादिः । पौत्रादीति वर्तते । तन्त्रार्थयशात् तान्तं संबध्यते । पौत्रादेर्यदपत्यं चतुर्थीदिकं तद्वंशे ओबति युवसंज्ञ' भवति स्त्रियं वर्जयित्वा । गार्ग्यस्यापत्यं गार्ग्यायणः । दात्तेर्दाचायणाः । श्रस्त्रियामिति किम् ? गार्ग्यस्यापत्यं स्त्री गार्गी । दाक्षी । तु शब्दो वृद्धसंज्ञासमावेशनिवृत्यर्थम् । वह दोषः स्यात् । सालकेरपत्यं युवा "यत्रियो: " [ ३ | १|१०] इति फय् । पैलस्यापत्यं युवा "द्वयचोऽया:" [ ३|१|१४३ | इति फिञ् । तयोर्मूनि "पैठादेः” [२४] १११ ] इत्युन् भवति । वृद्धसंज्ञासमावेशे तु " वृद्ध ऽध्यनुप्” [ ३ | १ | ७३ ] इति प्राग्द्रबीये जादावनुप् प्रसज्येत । श्रस्तु "यूमि" [१७] इति भविष्यति । इह तर्हि दोषः । “फ फिशोर्वा " [३११७६] इति सन्धिभाष्यते । उपक्षेऽपि वृद्धसंशासमावेशे "वृद्ध इत्यनुप्” [३/१/७३] इति अनुस्यात् । श्रथ समावेशे कथं वृद्धलक्षणो वुञ् गार्ग्यायग्णानां समूहः गार्ग्ययणकम् । वक्ष्यति "वृक्ष [४] आदिसूत्रे - ग्रहणेनैव सिद्धे राजन्यमनुष्यग्रहणं ज्ञापकमपत्याधिकारादन्यत्र वृद्धमहये लौकिक गोत्रग्रहणम् । तेन वृद्धयूनोः समावेशः 1
भ्रातरि च ज्यायसि ||३|१|८२ ॥ पौत्रादिरपत्यमिति वर्तते । भ्रातरि च ज्यायसि जीवति कभीयान् भ्राता युवसंज्ञो भवति । मृतेऽपि वंश्ये यथा स्यादित्यारम्भः । भ्राता वंश्यो न भवति साक्षात् परम्परया वा अकारणत्वाद्गास्य द्वौ पुत्रौ ज्यायसि जीवति कनीयान् गार्ग्यायणः । एवं दाक्षायणः । ज्यायांस्तु भ्राता गायों दाक्षिरिति ।
धान्यस्मिन् सपिण्डे स्थविरशरे जीवति ||३|१| =३॥ पौत्रादेरपत्यमिति वर्तते । येषां सप्तमः पुरुष एकस्ते सपिण्डाः परस्परम् | बले यसे वा सपिएडशब्दः । समानस्य समान हैव निपातितः । प्रकृतं जीवतीति शत्रन्तं स्थविरतरस्य विशेषणम् । इदं तु जीवतीति पदं तिङन्तं संज्ञिनो विशेषणम् । भ्रातुरन्यस्मिन् सपिण्डे स्थविरतरे जीवति पौधादेरपत्यं यज्जीवति तद्वा युवसंज्ञ भवति । गार्ग्यायो गार्ग्यः । दाक्षायणो दादिः । श्रन्यग्रहणं किम् । भ्रातरि इति वर्तते । तस्मिन्नेव सपिण्डे पितृव्यपुत्रे जीवति स्यात् । सपिण्डग्रग्मसम्बन्धान्यसम्बन्धनिरासार्थम् । ज्यायसीति वर्तमाने स्थविरतरग्रहणं किम् १ स्थानवयोभ्यां ज्येष्ठे सपिएडं यथा स्यात् भ्रातृव्ये वयोज्येष्ठे पितृव्यः कनीयान् युवसंज्ञो न भवति । जीवतीति किम् ? मृते गार्ग्य एव ।
पूजाकुत्सयोर्व्यत्ययः ॥ १११८४ ॥ चेति वर्तते । परस्परविषयगमनं व्यत्ययः । वृद्धस्य युवसंज्ञा यूनश्च वृद्धसंज्ञेत्यर्थः । पूजायां कुत्सायां च गम्यमानायां यथासंख्यं वृद्धयूनोर्वा व्यत्ययो भवति । पूजायाम् - तत्रभवान् गार्ग्यायः, तत्रभवान् गार्यो वा । युवसंज्ञासामर्थ्यात् वृद्ध त्यस्य युवत्येन योगः । कुत्सायां गार्ग्यस्त्वं बारम | गाय जाल्म । वृद्ध संज्ञासामर्थ्यात् युवत्यस्य निवृतिः ।
अबाह्रादेरिन् || ३|१|८५ ॥ तस्यापत्यमिति वर्तते । श्रकारान्तेभ्यो मृषः बाहु इत्येवमादिभ्यश्च अनन्तरे बुद्ध युवसंशके चाऽपत्ये इम भवत्यणोऽपवादः । श्राकम्पनिः । दाचिः । श्रपगविः । श्रनकारा
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अ० ३ पा० १ सू० ८६]
महावृत्तिसहितम्
२६४
न्तार्थे बाधकबाधनार्थं च बह्नादिग्रहणम् । वाहविः । श्रीपवाकविः । बाहु उपचाकु निवाकु वराकु उपबिन्दु एभ्योऽय् प्राप्तः । बस्छा " तू अचः " ( ३ | १|११०] इति ढण् प्राप्तः । वृकला चलाका मूषिका मंगला लगहा ध्रुवका सुमित्रा दुमिंत्रा एभ्यः "स्त्रीभ्यो या " [२/१/१०१] इति टणू । मानुषीलक्षणो वा ढण् स्यात् । पुष्करसत् अनुरदत्" श्रनुशतिकादित्वादनयोः पदद्वयस्यैप । देवशम्र्म्मन् श्रग्निशन् इन्द्रशम्न् कुनामन् पचन् सप्तम् । “श्रमितौजसः सुखं च" [बा०] सुधावत् उदश्च श्रञ्चेर्निपातनात् नखाभावः । शिरस्- शिरोमात्रस्थापत्यं नास्ति इति तदन्तविधिः । द्वातिशीर्षिः । पैलुशीर्षिः । शिरसः शीर्षादेशो वच्यते । माषशराविन् क्षेमवृत्विन् शृङ्खलवोदिन खरनादिन् निपातनादणत्यम् 1 नगरमर्दिन् प्राकारमर्दिन् लोमन् सोम्ना तदन्तविधिः इत उत्तरं प्रागुदङकशब्दात् “कुर्वष्यन्धक" [३|१|१०३ ] श्रादिनाऽण् प्राप्तः । श्रजीगर्त कृष्ण युधिष्ठिर अर्जुन साम्य गद प्रद्युम्न राम संकर्षण मध्यन्दिन सत्यक उदक । "संभूयोऽम्भसोः सखं च ''[घा०] ख्याताख्यातयोः ख्याते संप्रत्यय इति । तेन बाह्वादिप्रभृतिषु येषां लौकिक गोत्रमा प्रति प्रवर्तकत्वमस्ति तेभ्य एव इमादयः | इद्द माभूत् बाहुन कश्चित् तस्यापत्यं बाहवः । श्राकृतिगणत्वादस्याजबन्धविः । श्राजवेनविरिति ।
सुधातुरकङ च ॥३३९८६ ॥ सुधातृशब्द दिष भवति तत्सन्नियोगेन अकडादेशश्च । सुधारपत्यं सौधातकिः । "व्यास चरुड निषाद चण्डालः विम्वादीनामिति वक्तव्यम्" [ दा० ] । न वक्तव्यम् । अव्यविक1 न्यायेन कान्तेभ्य एव यविधिः । वैयासकिः । वारु डकिः । नैषादकिः । चाण्डालकिः । वैम्बकिः । कार्मारकिः ।
वृद्धे कुजादिभ्यो कफः || ३|११८७ ॥ वृद्धसंज्ञके अपत्ये विवक्षिते कुम्भ इत्येवमादिभ्यो ऽफो भवति । Essaदः । दारा "यातल्फादस्त्रियाम्" [ ४ २ २] इति विशेषणार्थः । कुञ्जस्यापत्यं पौत्रादि कौजयन्यः । कौञ्जायन्यौ । कौञ्जायनाः । "वाघफादखियाम्" [ ४ २१२] इति स्वार्थे ज्यो भवति द्विसंशः । कुञ्ज ब्रध्न राडूख गया लोमन् लोमशब्देन तदन्तविधिरिति केचित् । भस्मन् शट । श्रयं गर्गादिष्वपि । शाक शौ शुभ विपास् । श्रयं शिवादिष्वपि । स्कन्द स्कम्भ | वृद्ध इति किम् ? कुम्नस्यापत्यमनन्तरं कौशिः । वृद्ध इत्ययमधिकारश्च “शिवादिम्योऽय्' [३।१1१०१] त्यतः प्राक् ।
1
नादेः फ ||१८|| नव दत्येवमादिभ्यो वृद्धेऽपत्ये फ भवति । नडस्यापत्य वृद्धं नाथायनः । वृद्ध इत्येव । अनन्तरो नाडिः । न चर व मुञ्ज इति इतिश उपक लमक शखकुरालादेश लभते | शालङ्कायनः । कथं शालकायनः । कथं साल किः पिता सालकिः पुत्रः [ सशक] शासक इति प्रकृत्यन्तरमस्ति । अथवा पैलादिषु पाठसामर्थ्यात् इजपि भवति । पचपूल वाजव्य तिक श्रग्निशर्मन् वृषगणे । गोत्रे आग्निशम्ययो भवति वार्षयश्चेत् । श्रग्निराभिरन्यः । प्राण नर सायक दास मित्र द्वीप तगर पिङ्गल किङ्कर कथन कतर कतल काश्य काव्य सैव्य प्रभावाच्य स्तम्भ शिशपा श्रमुष्य निपातनात् साधुः । कृष्णरणौ ब्राह्मणवाशिष्ठयोः । यथाक्रमं ब्राह्मणवाशिष्ठेऽर्थे । श्रजमित्र लिगु चित्र कुमार । क्रोष्टुरपत्यं कोष्टवं च । लोह दुर्ग अम तृण शकट सुमत मिमत ब्राह्मण चटक | ऐरोपीष्यते । घाटकैर बदर अश्क्ल श्रस्वर कामुक ब्रह्मदत्त उदग्वर लोह दण्डया । श्रन्ये इमानपि पटन्ति वच्यमाणान् । इच् अत् इत् जनवत् हिंसक दरिन् इस्तिन् पञ्चाल चमसिन् । लौकिक गोत्रमात्र इत्येव । नो नाम कश्चित्तस्यापत्यं नाडि: ।
हरिताद्यनः || ३|११८९ ॥ हरितादिर्चिदाद्यन्तर्गणः । हरितादिभ्योऽनन्तेभ्यः फय् भवति । इञोऽपवादः । ऋछ वृद्रग्रहणमनुवर्तमानमत्रो विशेषणम् । वृद्धं योऽञ् विद्दिवस्तदन्तात् फ एक इति निर मानि द्रष्टव्यः । हरितस्यापत्यं युवा हारितायनः । केन्दासायनः ।
१. अनुरहत् घ० । २. घस्ट अ०, ब०, स० ३. वास्तकिः अ०, ब०, स० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[.. पा.
सू. ६०-६५
यभिमोर ||३१६|| अत्रापि वृद्धग्रहणं यभित्रोविशेषणम् । वृद्ध विहितौ यो यत्रिभो तदन्ता. स्फा भवति । सामाद्य नीति ज्ञातव्यम् । गाायणः । दाक्षायणः । इह गार्या अपत्यं गार्गेय इति लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणेऽपि परलाढ्ण् भवति ।
शरदच्छुनफदर्भाद भृगुवत्सामायणेषु ॥३॥१॥६॥ वृद्ध इति वर्तते । शरदत् शुनक दर्भ इत्येतेभ्यः फण् भवति यथासंख्यं भार्गवे वास्ये प्रामायणे चापत्ये ऽभिधेये । शान्तायनो भवति भार्गवश्चेत् । शारद्वतोऽन्यः । शौनकायनो भवति वात्स्यश्चेत् 'मलया । मार्गारो भपनि नानागपरनेर। दामिरन्यः । शरदत्शुनकशब्दो विदादिषु पठ्यते ।
द्रोणपर्वतजीपन्तावा ॥ २॥ द्रोण पर्वत जीवन्त इत्येतेभ्यो वृद्धापत्ये फण् च भवति । द्रौणायणः । द्रोणिः । पार्वतायनः । पार्वत्तिः । जैवन्तायनः । जैवन्तिः । वृद्ध इत्येव । द्रौणिः ।
विवादिभ्योऽनुष्यानन्तर्येऽप्र. ॥३११५३।। वृद्ध इति वर्तते । विद इत्येवमादिभ्यः अनृषीणामानन्तये अञ् भवति । विदस्यापत्य वैदः । विद उर्व कश्यप कुशिक भरद्वाज उपमन्यु किलात किन्दर्भ विश्वानर ष्टिषेण भूतभाग इय॑श्व प्रियक श्रापस्तम्ब कुचवारं शरदत् शुनक धेनु गोपवन शिग्रु विन्दु भाजन तामन अश्वावतान श्यामाक श्यापर्ण गोपवनादिप्रतिषेधः प्राग्यरितादेः इत ऊर्च बहुत्वेऽअ उठेव भवति । हरित किन्दास वयस्क अकलूष वध्योग विष्णु वृद्ध प्रतिबोध रथन्तर गविष्टिर निषाद निषादशब्दस्य "सुधातुरा" [३१] इत्यत्र नैषाकिरुक्तोऽनन्तरे वृद्धे परखादवमन । मठर । अयं गोपवनादिष्वपि मठराद्यपि । एते इरितादय इत्याचार्यस्मृतिः । पृदाक सुदाक पुनर्वादिष्वनन्तरेऽपत्ये पुनर्भू पुत्र दुहित नमान्द परखी परशुं च या तु सवर्णा परस्य स्त्री परस्त्री सा कल्याण्यादिषु पठ्यते पारस्त्रियेण्ः। वृद्ध इत्येव । अनन्तरो वैदिः । बाहादेराकृतिगणवाद् ऋष्यण न भववि लौकिकगोत्रमात्र इत्येष । वैदो नाम कश्चित् तस्य वैदिः । . अध्यानन्तर्य इति किमर्थम् ! पुनर्भूप्रभृतीनामऋषीणामानन्तर्ये अनन्तरेऽपत्ये अञ्वेदितव्यः। ये तु ऋष्यपत्यानां नैरन्तयें प्रतिषेधमाचक्षते । तेषां कौशिको विश्वामित्र इति न स्यात् ! भूष्यानन्द्रय प्रतिषेधो नास्ति । इन्द्रभूः सप्तमः काश्यपानाम् । भारद्वाजानां मतमोऽसीति "तस्येवम्" [२॥३॥मम हत्यणा भविष्यतीति |
___ गर्थिन. ॥१६४॥ वृद्ध इति वर्तते । गर्ग इत्येवमादिभ्यः वृद्धापत्ये या भवति । गर्गस्यापत्य पौत्रादि गायः । गर्ग वत्स "वाजादसे" [सू. ग.] | श्रस इति किम् ? सौवाजिः । संकृति अब व्यापात् विदभूत् पुलति प्राचीनयोग पुलस्यशब्दात् वृष्यणि पोलस्यः । स्त्रियामणि पौलल्यी । यति पौलस्त्यायनीति विशेषः । रेम अग्निवेश शङ्ख शट धूम अवट मनस् धनञ्जय वृक्ष विश्वावसु परमाय लोहित संशित पत्रु मगदु मजच सहकु शलि गुगुलु जिगीषु मनु मन्तु तन्तु मनायी दण् प्राप्त: । 'भस्य हत्यढे" [वा.) प्रति पुंषदाका फरमान भवति । कौडिन्यागस्ती इति निर्देशात् । यदि यभि पुंवद्राकः स्यात् । कुपिंडनीशब्दस्य वदावे टिखे च कृते कौण्डिन्य इति न स्यात् । सूनु कथक पक्ष तलुक्ष तणु वतण्ड कपि पत सकल कुरुफ्त । अयमनुशतिकादौ । अनहुह कण्ठ गोक्क्ष अगस्त्य कुएइनी यशवल्क अमयजात विरोहित वृषगण रहूगण शरिडल मुद्गल मुसल पराशर जतूक मन्त्रित अश्मरथ शकराद पूतिमाष स्थूरा भरसक बामरय पिगल कृष्णा गोद्धन्द उलूक तितम्भ तितव भिवज तिलज भरिडत चेफित देवहू इन्द्रहू एकहू एकलू पिप्पलु वृहदग्नि सुलाभिन कुटीगु उक्थ | वृद्ध इत्येव । श्रानन्तरो गार्गिः । कथमनन्तरो जामदग्न्यो रामः पाराशयों व्यास इति ? गोत्राच्यारोपेण | अनन्तरापल्ले ऋष्यणा भवितव्यम् । लौकिकगोत्रमात्र इत्येव । यो गोत्रस्याप्रवर्तको गर्गस्तस्यापत्यं वृद्ध गार्गिः ।
मधुबभ्योह्मिणकौशिकयोः ॥३।११६५।। वृद्ध इति वर्तते । मधु बभ्र इत्येताम्यां यम् भवति ययासंख्यं ब्राझणे कोशिकेऽत्राभिधेये । माधव्यो ब्राझमाश्चेत् । माधवोऽन्यः । बाभ्रव्यः कौशिकश्चेत् । बाभ्र
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० पा० १ सू० १६ - १०१ ]
महावृत्तिसहितम्
१६७
वोऽन्यः । बभ्रु शब्दो गर्गादिषु पठ्यते । तस्येह नियमार्थं वचनम् । कौशिक एव यथा स्यात् । गर्गादिषु पाठो लोहितादिकार्यार्थः । बाभ्रव्यायणी । अथ गये एवं कौशिकग्रहणं कर्तव्यम् । दह करणं वृद्धार्थम् । ननु गणेऽपि वृद्धे विहितः । इदमेव तहिं ज्ञापकं गणपाठे क्वचिदनन्तरापत्येऽपि यत्र भवति । आमदग्न्यो रामः । पाराशर्मो व्यास इति ।
कपियोधादाङ्गिरसे || ३ ११९६ ॥ वृद्ध इति वर्तते । कपित्रोधशब्दाभ्यां यत्र भवति श्राङ्गिरसे - पत्यपि । काप्यः श्रनिश्चेत् । श्रन्यत्र "इतोऽनिषः " [ ३|१|१११] इति दृणि कापेयः । बौध्य श्राङ्गिरसश्चेत् | बौधिरन्यः । इापि कपिशब्दस्य गर्गादिषु पाठः । वस्य नियमार्थं वचनम् । श्रङ्गिरस एव यत्र । गर्गादिषु पाठी लोहिताद्यर्थः । काप्यायनी । मधुबोधयोस्तु यत्स (यजि) तमोभयम् | माधवी माधन्यायनी | पौधी बौध्यायनी ।
बसण्डात् ||३|१|१७|| श्राङ्गिरस इति वर्तते । वतण्डशब्दादाङ्गिरसेऽपत्यविशेषे वृद्ध े यञ् भवति । वातण्ड्यः । श्रङ्गिरस इत्येव । श्रनाङ्गिरसे शिवादिपाठादण वातण्ड इति । गर्गादिषु पाठादनाङ्गिरसे यत्र लोहितादिकार्यार्थः । वातराख्यायनी ।
स्त्रियामुप् ||३|११६८ ॥ श्राङ्गिरस इति वर्तते । बतरा दशदादाङ्गिरस्यां स्त्रियां यत्र उन्भवति । बतस्थापत्यं वृद्धा स्त्री क्तण्डी । यत्र उपि " जातेरयो: " [३।१४५३] इति ङीविधिः । श्राङ्गिरस इत्येव । वातण्ड्ययन | शिवाद्यणि वातण्डा । वृद्धादन्यत्र वातण्डी ।
अश्वादेः फञ ॥३१॥६६॥ वृद्ध इति वर्तते । श्रङ्गिरस इति निवृत्तम् । अश्व इत्येवमादिभ्यो वृद्धे फम भवति । अश्वस्यापत्यं श्राश्वायनः । श्रश्व अश्मन् शङ्ख शहक कुआदिषु गर्गादिषु च पठ्यते । विद पुट रोहिण खद्वार खज्जर खजूर वटिल भण्डिल भटल भडित भण्डित प्रहृत रामोद क्षेत्र मीना काश कारण वात गोला अर्क स्वन ध्वन पतपाद चक्र कुल अवि पविन्द पवित्र गोमिन् श्याम धूम्रवाग्मिन् विश्वानर स्फुट कुट चुटि शपादात्रेये । शापिरन्यः । अनक सनक खनक ग्रीष्म श्रईबीच विशम्प विशाल गिरिं चपल चुप दासक। येऽत्र वृद्ध त्यान्वास्तेभ्यः सामर्थ्यात् यूनि फञ द्रष्टव्यः । वैश्य वैक्व वाद्य न धाप्य जात शब्दात् पु'सि । जातेयोऽन्यः । अर्जुन । श्रस्य महादिषु पाठोऽनन्तरार्थः शूद्रक सुमनस् दुर्मनस् । श्रायाद्भारद्वाजे । श्रात्रेयिरन्यः । भारद्वाजादात्रेये । विदामि भारद्वाजोऽन्यः । उत्ख उत्सा दिषु पाठोऽनन्तराः । श्रातव कितय किन शिव खदिर वृद्ध इत्येव । आश्विः । लौकिक गोत्र इत्येव । गोश्रस्या प्रवर्तको योऽश्वः तस्यापत्यमे कान्वरितमाश्विः |
भर्गात् गते ||३|१| १०० ॥ वृद्ध इति वर्तते । भर्गशब्दात् फम भवति त्रैगर्तेऽपत्यविशेषे । भार्गाययो भवति त्रैगर्तश्चद् । भार्गिरन्यः ।
शिवाविभ्योऽश् ||३|१|१०१ || बुद्ध इति निवृचम् । इत उर्ध्वं सामान्येनापत्येत्यविधानम् । शिवइत्येवमादिभ्योऽण् भवत्यपत्यमात्रे | श्रादीनामपवादः । शिवस्यापत्यं वः । शिव प्रोष्ठ प्रोष्टिक चरड अम्भ भूरि । श्रस्मात् "इतोऽमिण: [ ३३१,१११] इति दय् प्राप्तः । कुठार अन भिग्लान सन्धि मुनि ककुत्स्थ कोहड फय रोवावर (रोध विरल ) बतण्ड | स्त्रियां घातयइया । तृण क चौर हृदय परिषिक गोपिला कपिलका जटिलका धिरका मंजीरक वृष्यिक खञ्जर खज्जल रेभ श्रालेखन विश्ववन्य श्वा । विभवसोऽपत्यमिति विग्रह्म विश्रवणरवणादेशौ । प्रकृत्यन्तरे वा । श्रव्यविकन्यायेन ताभ्यामेवार । वर्तनाच विटपिटक वृक्षक विभाग नभाक तटाक ऊर्णनाभ जरत्कारू उत्कोयस्तु रोहितिका चार्यश्वेता । अभ्यो'को बू
|
१, त्रुटि ब०, स० । २. वीक्ष० । ३. अनभिराम अ० मु० ।
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१६८
जैनेन्द्र-व्याकरणम
[ ० २ ० ४ सू० १०२ - १०६
12
[३] १११०३] प्राप्तः 1 सुपिष्ट मयूरकर्ण खर्जुर कर्णं तदन् । श्रत्र कारिलचयस्य इओ बाधा । ययस्त्विष्यत एव । ताच यय इति । श्रृष्टिषेण । विदादिष्वस्य पाठो वृद्धार्थः । गङ्गा । अत्र नदीलच यस्यायो "द्वयचः ' [३|१|११०] इति ढय् बाधकः तमपि बाधिला 'वयवो नद्याः" इत्यय् प्राप्तः । तस्यापि तिकादिषु पाठात् फिश कः स्यात् । श्रयं गङ्गाशब्दः शुभ्रादिषु च पठ्यते । तेन चैरूप्यम् । गाङ्गः । गाङ्गायनिः । गाङ्गेयः । विपाश । अत्रापि नदीमानुषीलक्षणस्याः “द्रयचः ” [३।११११० ] इति दण् बाधकः । तमपि "द्वयचो नद्याः '' इत्यय् बाधते । तमपि बाधिला कुञ्जादिलचणो फ एव स्यात् । हू रूप्यं चेष्यते । वैपाशः वैपायन्य इति 1 कला बुह्य श्रयस्थूण मर्लन्दन विरूपाक्ष विरूपा भूमि इला खपत्नी । "द्वयचो नद्याः" इति गणसूत्रम् । अन्यथा " द्वयच: " [३|१|११०] इति ढय् प्रसज्येत | त्रिवेणी त्रिवेणं च ।
नदीमानुषीभ्यो ऽतुभ्यस्तद् । ख्यास्यः ||३|१|१०२ ॥ नदीमानुषीभ्य इत्यर्थनिर्देशः । नदीमानुश्रीवान्चिप्रकृतिभ्योऽदुसंज्ञाभ्यस्तदाख्याभ्योऽय् भवति । ढणोऽपवादः । यमुनाया श्रपत्यं यामुनः प्रणेता । इरावत्याश्रपत्यम् ऐरावतः । उद्वयः । वितस्तायाः पलालशिराः चैतत्तः । नर्मदाया नीतो नार्मदः । मानुषीभ्यःचिन्तितायाः चैन्द्रितः । सुदर्शनायाः सौदर्शनः । स्वयंप्रभायाः स्वायंप्रभः । नदीमानुषीभ्य इति किम् ! सौपर्योयः । वैनतेयः । सुपर्णा विनता च देव्यौ श्रन्येषां पक्षियो । अदुभ्य इति किम् ? चन्द्रभागायाः चान्द्रभागेयः । वायुवेगेयः । तदाख्याभ्य शर्त किं या (म्या ), काभ्यः । प्रकृतिभ्योऽय् प्रार्थ्यते ता एवाख्या नामधेयानि नदीमानुषीणां यदि भवति । तेनेह न भवति । शोभनाया अपत्यं शौमनेयः । पुरस्तादपवादो ऽय मिति श्रनन्तरम बाधते न व्यवहितं "क्षुद्राभ्यो वा " [३|१|१२० ] इति दयम् । पुलिकायाः पौलिकेरः ।
।
।
कुध्यन्धकवृष्णेः ॥३॥१/१०३ ॥ कुरवः श्रन्धकाः शृष्यश्च क्षत्रियवंशाख्याः । ऋषयश्चेह माझ्या मठपती वशिष्ठाद्या गृह्यन्ते । महर्षीणामहिंसादिव्रतोपपन्नानामपत्यापत्यसम्बन्धी नास्ति । कुरु-ऋषिकान्धकवृष्णिषाचिभ्यो यः सामान्येनापोऽय् भवति । ञोऽपवादः । कुरुभ्यः - नाकुलः । साहदेवः । दौर्योधनः । ऋषिभ्यः- वाशिष्ठः । वैश्वामित्रः । श्रन्धकेभ्यः - वाफलकः । रान्धसः । चैत्रः । हृष्यिभ्यःश्रादारः प्रातिवाहः । वासुदेवः । श्रानिरुद्धः । इह श्रात्रेयः इति परवाह । यद्यपि भीमसेनः कुरुः, जान ऋषिः । उग्रसेनोऽन्धकः, विष्वक्सेनो वृष्णिस्तथापि परत्वात्सेनान्तलक्षणो एय इव भवति । मध्येऽपवादो ऽयं पूर्वे मित्यं बाधते ।
मातुरुत्संख्यासंभङ्गादेः || ३|१|१०४ ॥ मातृशब्दस्य संख्यासंभद्रादेः उकारश्चान्तादेशो भवति अय् वाधिकारात् । द्वयोर्माश्रोरपत्यं मातुरी भरतः । शतमातुरः । सांमातुरः । भाद्रमातुरः । श्रमिधानयश्चात् जननी पर्यायस्य मातृशब्दस्य प्रहणम् । संख्यासंभद्वादेरिति किम् १ सौमात्रः । वैमात्रेयः । विमातृशब्दः शुभ्रादिषु पठ्यते 1
कन्यायाः कनीन च ||३|१|१०५ || कन्यायाः कनीन इत्ययमादेशो भवति । श्रय च वस्मात् । ढोऽपवादः । कानीनः कः । कानोनो हि नारकः ।
विकर्णशुद्ध गलाइस्ल भरद्वाजत्रिषु || ३ | १ | १०६ ॥ विकर्ण शुङ्ग छगल इत्येभ्यः अणु भवति यथासंख्यं वात्स्ये भारद्वाज श्रात्रेये चापत्यविशेषे । वत्सभरद्वाजानिष्वित्यत्र वत्सादयः शब्दा उपचारात् वृद्धत्यातेषु वर्तमाना गृपन्ते । वैकर्णी भवति वात्स्यत् । वैकाणिरन्यः । काश्यपे वैकर्णेयः । शौङ्गो भवति भारद्वात् । शौखिरन्यः । लिङ्गविशिष्टस्य मध्ये शुङ्गाया अपत्यं सौङ्गो भवति भारद्वाज तू । श्रन्यत्र सौङ्गेयः । गलो भवति श्रात्रेयात् । छागलिरन्यः ।
१, मकबुल ।
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०३ पा० १ सू० १०७-११९]
महावृचिसहितम्
१६६
पीखाया था ||३|१|१०७ ॥ पीला तदाख्या मानुषी । पीलाया अपत्ये वाऽण् भवति । पैलः । पैलेयः ।
ढग् च मण्डूकात् ||३|१|१०८ ॥ मण्डूकशब्दाड्ढय् भवति चकारादण् च या । तेन त्रैरूप्यम् । मायकेयः । माद्भकः । मराडुकिः । स्त्रियां माराकेयी । श्रयन्तस्य "कौरव्यासुरिमाण्डूकात्" [६।११११] इति फटि कृते माण्डू कायनी । अन्तस्य माण्डूक्या !
श्रीभ्यो ण् || ३ | १|१०६ ॥ इइ स्त्रीमध्येन स्त्रियामित्येवं विहिताष्टाबादयः स्त्रीत्या गृह्यन्ते । स्त्र्यर्थप्र सु न भवति । शुभ्रादिषु मातृशब्दस्य पाटाज्ज्ञायते । स्त्रीत्यान्तेभ्यो दण् भवत्यपत्ये । सौपर्णेयः । वैनतेयः । वायुवेगेयः । स्त्रीत्यग्रहणमिति विशेषणं किम् १ स्यर्थे मा भूत् । इटबिडः स्त्रिया अपत्यम् ; दरदः अपत्यम् ऐडबिड दारदः । "पीकामा वा " [३११।१०७ ] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या वेति व्यवस्थितविभाषा वर्तते । तेन वडवायाः तृषे खाये द भवति । वाडवेयो हृषः । श्रपत्ये वाडव इति । क्रुञ्चकोकिलाभ्यामय् भवति । कुबाया अपत्यं क्रौञ्चः । कोकिलाया अपत्ये कोकिलः ।
द्वयचः ||३|१|११० ॥ द्वथवश्व स्त्रीत्यान्तादपत्ये दण् भवति । मानुषीलक्षणस्यापो ऽपवादः । दवाया वान्तेयः । गुताया गौप्तेयः ।
इतोऽनिः ||३|१|१११|| स्त्रीभ्य इति निवत्तम् । श्रविशेषेश स्त्रिया विधानाद् दधच इति वर्तते । इकारान्तान्मृदो निमन्तादय् भवति । वलेरपत्यं वालेयः । नाभेयः । श्रात्रेयः । दौलेयः । इत इति किम् १ दादिः । श्रनि इति किम १ दाक्षायणः । द्वयच इत्येव । मरीचेरपत्यं मारीचः ।
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शुभ्रादेः || ३|१|११२ ॥ शुभ्र इत्येवमादिभ्यो दय् भवति । इमादीनामपवादः । शुभ्रस्यापत्यं शौभ्रयः । शुभ्र विष्टपुर पिष्टपुर ब्रह्मकृत शतद्वार शतहार शलायल शलाका लेखाभ्रू विधवा कृका रोहिणी रुक्मिणी विकचा विवसा इलिका दिशा शालूका श्रजवस्ति शकन्धि | लक्ष्मणश्यामयोर्वाशिष्ठे । लाक्ष्मणिरन्यः । श्यामायनोऽन्यः । ''अश्वादेः " [३|१३१६] इति फञ । गोधा । कृकलास | प्राणि चिकणाचि' प्रवाहण भरत भागर महू मकुष्ट सुकड मृषण्डु कर्पूर इतर अन्यतर आलीट सुदन सुदन सुनामन् सुदामन कटु द श्रकशाप कुमारिका कुवणिका ( किशोरिका ) जिक्षाशिन् परिधि वायुदत्त शलाका सक्ला खड्बर अम्बिका अशोक गन्धपिता खरोन्मत्ताः कुदत्ता कुखम्बा शुक्र वलीवर्दिन् वित वीजश्वन् श्रश्व अमिर विमात् । श्राकृतिगणश्चायम् । तेन गायः पाण्डवेय इत्यादि सिद्धम् ।
विकर्ण कुषी कात्काश्यपे ॥ ३|१|११३॥ विकर्ण कुषीतशब्दाभ्यां दया भवति काश्ययेऽपत्यविशेषे । वैकर्णेयः काश्यपश्चेत् । वैरिन्दः । कौषीतकेयः काश्यपश्चेत् । कौषीतकिरन्यः ।
||३|१|११४॥ भ्र.शब्दादपत्ये ढय् भवति वुक् चागमः । नौवेयः ।
कल्याण्यादीनामिनम् ||३|१|११४ ॥ कल्याणी इत्येवमादीनां हरण भवति इनादेशश्च । येऽत्र स्त्रीत्यान्ताः शब्दास्तेषामादेशार्थं वचनम् । दण् पूर्वेण सिद्ध: । श्रन्येषामुभयार्थं वचनम् । कल्याण्या अपत्यं काल्याणिनेयः । सौभागिनेयः । कल्याणी सुभगा दुर्भगा बन्धकी श्रनुकृष्टि जरती वलीदों ज्येष्ठा कनिष्ठा मध्यमा परस्त्री जारस्त्री ।
कुलटाया वा ॥३|१|११६ ॥ कुलान्ययतीति कुलटा । श्रत एव निपातनात् पररूपम् । कुलटाया या इनादेशो भवति । दय् खीभ्य इत्येव विद्धः । कौलटिनेयः । कोलटेयः । श्रनियतपुंस्कलविक्दायाँ परत्वात् क्षुद्रालक्षणो दूयू । कौलटेरः ।
१. विकास प० । २. मामय प० । भामरस० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ३ ० १ सू० ११७- १२३
चटकाणणैरः ॥३|११११७॥ चटकशब्दा भवति । चटकस्यापत्यं चाटकरः । लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ३ चटकाया श्रपत्यं चाटकैरः । स्त्रीणाः परत्वात् खैरः । “चियामपश्ये उब्बकम्पः " [ वर० ] चटकस्य चटकाया वा श्रपत्यं स्त्री चटका । "हृप्युपू [१६] इति स्त्रोत्ययोप् । पुनष्टाप् ।
Wo
. गोधाया खारः ॥ ३|११११८॥ गोधाशब्दादपत्ये गारो भवति । गौधारः । रया सिद्ध पारवचनं शाकम् श्रन्येभ्योऽपि भवतीति । बडस्यापत्यं जाडारः । परस्यापत्यं पाण्डारः । पक्षस्य पाचारः ।
डण् ||३|१|११६ ॥ दूयश् च भवति गोधाशब्दात् । गौधेरः । शुभ्रादिषु पाठात् गौधेय इति च भवति ।
क्षुद्राभ्यो वा ॥ ३.१।१२०॥ श्रनियतपुंस्का अङ्गहीना वा तुद्राः । क्षुद्राभ्य इत्यर्थनिर्देशः । क्षुद्राषाचिप्रकृतिभ्यः स्त्रीलिङ्गाभ्यः वा द्वा भवति । दास्या अपत्यं दासेरः । दासेयः । नट्या नाटेरः । नायः १ काग्यायाः काणेरः । काणेयः । " हृदच: " [ ३|१|११०] इत्ययं ढय् मध्येऽपवादः पूर्वस्य नदोमानुषी लक्षणस्याणो बाधकः ।
वसुः ||३|१|१२१ ॥ शब्दाद् ऋकारान्तपूर्वान्तादपत्ये छ भवति । श्रयोऽपवादः । मातृष्वस्त्रीयः। पैतृष्वस्त्रीयः । स्वसुरिति कृतषलयइणं किम् ? भ्रातृस्वरपत्यं भ्रातृस्वलः । उरित्ति किम् ? मातुःस्वसुरपत्यं मातुःष्वनः । "वा स्वसृपस्यो: " [४|५| १३७ ] इत्यनुप् ।
ढणि स्वम् ॥३।१११२२॥ दृणि परतः ध्वसुर्भुवर्णपूर्वस्य स्वं भवति । अनेनैव दण् निपात्यते । मातृवस्त्रे यः । पैतृष्वसेयः ।
चतुष्पाद्भ्यो ढम् ||३|१|१२३ ॥ चत्वारः पादाः यासां ताश्चतुष्पादः । चतुष्पाद्वाचिप्रकृतिभ्यः स्त्रीलिङ्गाभ्यो दृञ, भवति । प्रणादीनामपवादः । कामण्डलेयः । स तबाहेयः । माद्रायः । जम्बेयः । दञि सति तस्मादुत्पन्नस्य युक्त्यस्यो भवति न दएि ।
सृष्ट्यादेः ||३|१|१२४॥ गृष्टि इत्येवमादिभ्यः शब्देभ्यो ढञ भवति । श्रणादीणामपवादः । गृष्टेर पत्यं गार्ष्टयः । श्रचतुष्पाद्वचनमिह राष्टिशब्दों गृह्यते । दृष्टि दृष्टि हलि बालि विक्रादि विश्र कुद्रि) श्रवस्ति मित्रयु मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः । " श्रौमहत्य" [ ४|४|१६६ ] श्रादिना यकारादेः खं निपात्यते । बहुषु "यस्कादिभ्यो वृद्ध" [१/४/१३४] इति उप् । मित्रयवः ।
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क्षत्राद्घः ||३|१|१२५॥ चत्रशब्दादपत्ये वा भवति । चत्रस्यापत्यं क्षत्रियः । तावभिधानम् | अन्यत्र त्रिः ।
राजश्वशुरायः || ३|१|१२६ ॥ राजश्व शुरशब्दाभ्यामपत्ये यो भवति । राजोऽपत्यं राजन्यः | इपि जातावभिधानम् | राजनोऽन्यः । श्वशुरस्यापत्य श्वशुर्यः । ख्यातस्य सम्बन्धवचनस्य प्रेक्षणात् संज्ञायां श्वाशुरिः ।
कुलाङ्खकञ्च ||३|१|१२७॥ कुलशब्दादपत्ये ढक भवति यश्च । कुलस्यापत्यं कौलेयकः । वुल्यः । इहापि भवति ईषदसिद्धं कुलं चहु कुलं “वा सुपो बहु प्राक्कु " [४।३।१२७] इति बहुत्यः । बढुकुलस्थापत्यं बाहुकुनेयकः | बहुकुल्यः ।
खः || १४१.१२८ ॥ कुलशब्दात् स्वश्च भवति । कुलीनः । उत्तरत्र खस्यानुवृत्तिर्यथा स्यादिति योगविभागः ।
खादः ॥३|१|१२६॥ सह श्रादिना वर्तते इति सादिः | सादेः कुलशब्दात् सो भवति । 'कुलीनः । राजकुलीनः । क्षत्रियकुलीनः । सत्यविधौ न वदन्यविभिरिति पूर्वेण न विद्धयति ।
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०.३ पा० १ स० १३०-१३] महावृत्तिसहितम्
महतोऽप्रखौ ॥३ १०१३०॥ महच्छब्दपूर्वात् कुलशब्दात् अखौ इत्येतो भवतः। महतः श्रावविषये अभिधानं माहाकुलः । माहाकुलीनः । केचिरवस्यानु चिमिच्छन्ति । महाकुलीनः । श्रावं वषये पति किम् ? महतां कुलं महत्कुलं तस्मात् "सादेः" [शा१२३ इति खः । महत्कुलीनः ।।
दुसो दण् ।।३।१:१३१॥ दुःशब्दपूर्वात् कुलादपत्ये ढए भवति । पापं कुलं दुष्कुलम "दुदुकोऽस्यपुम्मुहुसः [५।४।२८] इति सस्त्रयत्वे । दुष्कुलस्यापत्यं दौड्कुलेयः । केचित् खमप्यनुवर्तयन्ति । दुकुलीनः ।
स्वसुश्छः ॥३।१२१३२॥ स्वसूशब्दादपत्ये छो भवति । अरणोऽपवादः । स्वतीयः।
भ्रातर्यश्च ॥३२११३३॥ भ्रातृशब्दादपत्ये व्यो भवति छश्च । अणोऽपवादः। भ्रातुरपत्यं भ्रातृध्यः । भात्रीयः । कथं लोके भ्रातुन्यशब्देन सपनोऽभिधीयते । उपचारात् । एकद्रच्यामिलापश्च उपचारानमिचम् । सपत्नी इस सपत्नः शक्तः । पृषोददिपाठादकारो निपात्यते।।
रेखत्यादेष्टण शश५३४॥ रेवती इत्येवमादिभ्योऽपत्ये ठए भवति । अगादीनामपवादः । रेवत्या अपत्यं रेवतिकः । रेवती अश्वपाली मणिपाली द्वारपाली वृकश्चिन् वृकमाइ कणंग्राह दण्डमा कुक्कुटराक्ष।
वत्रियाः पेणश्च ॥३.१।१३५पौत्राद्मपत्यं वृक्ष' क्षेपः कुत्सा । वृद्धस्त्रीचिशब्दादपत्ये णो भवति ठण् च क्षेपे गम्यमाने । गाय- अपल्यं युवा गागों जाल्मः । गार्गिको जाल्मः । गलुचुकायन्या अपत्य युवा ग्लौचकायनो जाल्मः । ग्लोचुकायनिको बाल्मः । क्षेपश्चात्र प्रतिषिद्धाचरणेन पितुरज्ञानाद्वा गम्यते । वृद्ध इति किम् १ कारिकयो पाल्मः । स्त्रिया इति किम् १ श्रौपगविणल्मः । क्षेप इति किम् ? गार्गेयो माणवकः ।
छोष्टण सौवीरेषु प्रायः ।।३।१।१३६॥ वृद्धग्रहणं चानुवर्तते । सौवीरेष्विति विशेषणम् । सौवी. रेषु यद्दल वाचि दुसंशं तस्मादपत्ये प्रायष्ठण् भवति देपे गम्यमाने । वेति वक्तव्ये प्रायोग्रहणे परिगणनाथम् ।
"भागपूर्वपदो वित्तिद्विवीयस्तार्या विदवः। तृतीयस्वाकशापेयो वृद्धाहण् बहुल ततः ।"
मागवितरपत्यं युवा भागवित्तिकः। भागवित्तायनः । तार्णविंदवस्यापत्यं युवा तार्णविन्दधिकः । ताणंविन्दविः । अकशाप इति शुभ्रादिषु । श्राकशापेघस्यापत्यं युवा श्राफशापेयिकः । श्राफशायः । दुहा स्लीनिवृत्यर्थमविशेषेणेष्यते । सौवीरावति किम् ? औपगविर्जाल्मः । क्षेप इत्येव । भागवित्तायनो माणवकः ।
फेछ च ॥३॥॥१३७n वृद्ध ग्रहशं सौवीरेष्विति च वर्तते । फिजन्तात् सौवीरेषु वृद्धादपत्ये छो भवति प्रणव क्षेपे गम्यमाने । दोरित्यधिकारात् फेरित्यत्र फिश एव संप्रत्ययः। यमुन्द सिकादिः । यामुन्दायनीयः। यामुन्दायनिकः । प्राय इत्यनुवर्तनादपि भवति । तस्य फिसन्तात्यास्य अपराक्षापादप युकथियो" [ 10] इत्युप् । यामुन्दायनिर्जाल्मः। सुयामन्-सौयामायनिः । तस्यापत्यं युवा सोयामायनीयः । सौयामायनिकः । श्रणि । सौयामायनिः । वृषस्य वार्षायरिणः । फिर संनियोगे वृद्धयभावे वक्ष्यते वायायणेरपत्यं वाायणीयः । बार्ष्यायणिकः । अणि वार्ष्यायरिणः । क्षेप इत्येव । यामुन्दानिर्माणवकः । श्रणेव भवति । सौवीरे विस्येव । तेकायनेरपत्यं युवा प्रण तस्योप् । तैकायनिर्माल्मः ।
"मुपश्च सुथामा च वाध्यायः फिलः स्मृताः ।
सौवीरेषु च कुस्साय चौ योगौ शब्दविस्मरेत् ।।" फाण्टाहतेणः ॥३॥९३८॥ क्षेप इति निवृत्तम् । वृद्ध ग्रहण सौवीरेविति च "मिण्ण्यरजात्" [ ३०] इत्यत्र "मणिकोरुप्यत्रामाणगोत्रमानायु वस्यस्योपसंख्यानम्" [वा०] इति उम्मा भूदिति गिकरणम् । "फिलप्यन्न भवतीति वकन्यम् ।" [चा. फाण्टाहतायनिर्माणवकः । सौवीरेष्वित्येव । फाण्टा हतायनः । "सौवीरेषु मिमनशाखाणणाको पकल्पी" [बा.] मैमतः। मैमतायनिः। सौवीरेष्वित्येव । मैमतिः ।
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१४२
जैमेन्द्र-व्याकरणम् [4. ३ पा० १ स. १३६-114 . कुविण्यः ॥३१।१३६॥ सौदीरेश्यिति निवृत्तम् । कुरु इत्येवमादिभ्योऽपत्ये ण्यो भवति । प्रादौ सकार: "मिणण्यराजार्षात्" [ ] इत्यत्र विशेषणार्थः । कुरोरपत्यं कौरव्यः । रावार्षात कुछशब्दाञ्झ्यो पक्ष्यते । तस्य द्रिसंशकरवाहहुप् । तिकादिषु कौरव्यायणिः। कुरु गर्ग संजय प्रतिमारक । स्थकाराजातौ च । पटक । सम्राजः क्षत्रिये । कवि पितृमत् ऐन्द्रजालि घातुजि पेजि दामोशोषि । गनकारि केसोरि कापिलादि ऐन्द्रजाल्यादिभ्यः ततो "यूनि" [३।१५] इति यूनि एयः। कोड कुट शलाका मुर खपडाक पभुक शुचरसी केशिनी । स्त्रीलिङ्गनिर्देशसामात् पुंकद्रावो न भवति । शूर्पणाय श्याक्नाय श्यावरथ यायपुत्र सत्यकार वडभीकार पथिकारिन् मूद सोक्ष भूहेतु शकशालीन इनपिण्डी वामरय । पामरश्यस्य सकलादिकार्य भवति । एकलादयो गर्गाद्यन्तःपातिनः । बहुत्वे उन्भवति वामरथाः । खी वामरथी । वामरथ्यायनी । वामरध्यायनः । घामरथ्यस्य छानाः वामरथा: "याकलादिन्यो वृधे' [३INE.] इत्य' भवतीति । वामरयानां संघः वामरथः । "संघाक" [२३।१५] अादिवाऽण् ।
सेनान्सलामणकारिभ्य च ॥शश१४०॥ कारिशब्दः कारवाचि । सेनान्तान्भूदो लक्षणशब्दात् कारिवाचिभ्यश्चापत्ये इम् भवति ण्यश्च । हारिषेण्यः । शारिणिः । भैमसेन्यः । भैमसेनिः । जातसेन्यः । जातसेनिः। लाक्षण्यः । लाक्षणिः। कारिभ्यः-कौम्भकार्यः। कौम्भकारिः। वान्तुवाम्यः तान्सुवायिः । सक्षनशब्दात् शिवादिलक्षणोऽण् । स इसो बाधको न तु एयस्य । तेन रूग्यम् । ताक्ष्णः । ताक्षएयः।
तिकादेः फिल.॥३।१।१४१॥ तिक इत्येवमादिभ्योऽपत्ये फिनित्ययं त्यो भवति । तिकस्यापत्य तैकायनिः । तिक कितष संज्ञा पाल शिखा उरस् शाब्य सैन्धव यमुन्द रूप्य नाडी' सुमित्रा कुरु देवर देवरय तितिलिन् सिलालिन् उरस । फौरव्य । द्रिसंशस्येदं ग्रहणम् । नौरसशब्देन राष्ट्रसमानशब्देन बाहचर्यात् । कर्थ कौरव्यः पिता फोरव्यः पुत्रः १ अनु ( अत्र ) यान्तादिम् तस्योप । लाङ्कव गौकक्ष्य भौरिकि चौपयत चैटयत सैकयत दौञ्जयव त्यजवत् चन्द्रमस शुभ गङ्गा वरेण्य बन्ध भारद्ध बापका खल्यका लोयका सुयामन् उदन्या यज्ञ । यदिहावृद्ध दुसंशं पश्यते तस्य नित्यार्थ बचनम् ।।
कौशल्येभ्यः ॥३।१।१४२॥ कौशल्यादिभ्योऽपत्ये फिन् भवति । बहुवचनेन कर्मारकागधा गृह्यन्ते । कोशलस्यापत्यं कौशल्यायनिः । सर्वत्र मूलप्रकृतेः फि । तस्यायनादेशे कृते कौशल्य इति । विकृतनिर्देशात् युट् निपात्यते । एवं दागन्यायनिः। फार्मार्याणिः । छाम्यायानेः । वार्ष्यायरिणः । राष्ट्रसमानशम्दात् कोशलात् यो वक्ष्यते । कारशब्दात् कारिलक्षणो एयोऽपि भवति । इनः प्रयोगो नोपलभ्यते ।
इधचोऽणः ॥३।१।१४३॥ अणन्ताद इयचो मृदोऽपत्ये फिञ् भवति । इञोऽपवादः । कर्तुर. रपत्यं का यरिणः । पोतुरपत्यं पौत्रः तस्यापत्यं पौत्रायणिः । एवं शैवायनिः । यच इति किम् ? औपगविः । श्रण इति किम् १ दाक्षिः।
या वृद्धादोः ॥३।१।१४४ पौत्रायपत्यं वृद्धम् अवृद्ध यद्संच तस्मादपत्ये वा फिम भवति । वायुरयायनिः । वायुरथिः । आदित्य गतायनिः । श्रादित्यगतिः। फारिशब्दात्परत्वादनेन भवितव्यम् । नापितायनिः । एयोऽपि भवति । नापित्यः । इमोऽभिधानं नास्ति । अवृद्धादिवि किम् १ श्राकम्पनायनः । श्रीपगविः । दोरिति किम् १ अाश्वनीविः ।
पाकिनावः कुक ॥११४५॥ वेति पर्वते । वाकिन इत्येवमादिभ्योऽपत्ये वा फिश् भवति । यदा फिम् तदा कुगागमः । वाकिनस्यापल्यं वाकिन कानिः । वाकिनिः1 गारेक्स्यापत्यं गारेवस्यनिः ।
.. माडी भीडी सु- प.
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म. ३ पा० । सू० १४१-११] महावृत्तिसहितम् गारेविः । याफिन गारेव काच काक लक । वर्मिचर्मिणोर्नखं च । यदिहाएवं संज्ञ' तस्य कुगर्य' वचनम् । अन्यस्योभयार्थम् ।
पुत्रान्तावा ॥१४६॥ या वृद्धाहोरिति वर्तते । पुत्रान्तान्मृदो दुसंज्ञकाद् वा गागमो भवति फिषि परतः । प्रकृतेन वाग्रहणेन फिज विकल्प्यते अनेन कुक् । तेन रूप्यम् | वासवदत्तापुत्रस्यापत्यं वासनदत्तापुत्रकायरिणः । वासवदत्तापुत्रायणिः । वासवदनापुत्रिः | गार्गीपुत्रकायरिणः । गार्गीपुत्रायणिः । गार्गीपुतिः ।
फिरवोः ॥३।१।१४७॥ त्यान्तरोपादानात् फिनि निवृत्ते तत्संबद्धः कुपि निवृत्तः । वैति वर्तते । प्रदोर्मुदोऽपत्ये फिर्भवति वा । त्रिपृष्टायनिः । पृष्टि । श्रीविषयायनिः। श्रेविजयिः । ग्लुचुकानिः । लौचुमिः। म्झौचुकाचनिः। म्लोचुकिः । वेति व्यवस्थितविभाषा । सेनेह न भवत्येव । दादिः। प्लाक्षिः। अदोरिति किम् । रामदतिः ।
मनोऑती घुकचाऽज्यो॥शश१४८॥ मनुशब्दात् अ य इत्येवौ त्यो भवतः पुक् चागमः समुदायेन आतो गम्यमानायाम् । मानुषः। मनुष्यः । अपत्यापत्यवत्संबन्धद्वारेण व्युत्पत्तिमात्र क्रियते । परमार्थतस्तु रूढिशब्दावेतो । अत एव "यमलो।" [ ५] इति बहुधूम्न भवति । मानुषा इति । चाताविति किम् ! अपत्यमानेऽण (ौत्सर्गिकोऽशेष) भवति । लोहितादिपाठात् पौत्रादौ यमि तूम्भवति । मानव्यः । मानब्यो । मनवः । स्त्री मनव्यायनी । [जाताविति किम् ? अपत्यमात्रे श्रोसर्गिकोऽणेव भवति ।।
"पुरुदेवस्य पौत्रावा(प्रोऽसा)वर्क कीर्तिजिता पण । पाण्यामास छमीयाम् मानवो मामयोः प्रजा" वृद्धापल्पविवक्षायां तु गर्गादित्वाद्यमा भवितव्यम् ।
अपत्ये अस्सिते मूढे मनोरीसगिकः स्मृतः । मकारस्य पदम्यस्तम सिस्थति माययः ।।" नेदं यत्यार्थ बहु वक्तव्यम् । "माणपरकार सम्" [ 1] इति निपातनात् सिवम् ।
दिः श११४९॥ यानित अर्ध्वमापादपरिसमातेस्त्यान्वक्ष्यामो द्रिसंशास्ते वेदिवन्याः । वक्ष्यति "राष्ट्राम्दानाशोऽष" [१०] पाञ्चालः । पाञ्चालौ । पञ्चासाः। सत्यां द्विसंहायो "बहुषु तेनैवासियास' [ इत्युप् सिद्धः ।
राष्ट्रशब्दाताशोऽध ॥शश१५०॥राष्ट्र पनपदः। राजशब्दश्चे चत्रियपर्यायः । राष्ट्रशब्दाद्राजवा. चिनोऽपत्येऽ भवति । स्वभावतः पञ्चासादिशब्देन राष्ट्र राना चाभिधीयते । अथवा पञ्चालानां निवास जनपद इति निवासार्थ श्यामतस्यायो "जनपद उस्''[ ५] इति उसि कृते अवरकालेनापि पश्चालशन्देन क्षत्रियशब्दो लक्ष्यते । यथा देवदत्तस्य पितेति । पञ्चालस्यापत्यं पाञ्चाशः । पाञ्चालौ। पञ्चालाः । ऐक्ष्वाकः । ऐक्याको । इक्ष्वाकवः । इच्वाकुशन्दस्य अनि "नीयहत्य [11१६६] इत्यादिना उस निपात्यते । राष्ट्रशब्दादिति किम् १ श्रीविनायिः । हलोः द्रौनमः । राज्ञ इति किम् ? पचालो नाम बाबणस्तस्यापत्यं पाबालिः।
साल्यगाधारिभ्याम् ॥३१॥१५१॥ साख्वा नाम क्षत्रिया तस्माद्यच इति दणि साल्वेयः । साल्वेय गान्धारि इत्येताभ्यां राजशब्दाभ्यामन् भवति । अषोऽपवादे रिकुरुनायजारकोझकाम्म्यः" [111३] इति ज्ये प्राप्ते वचनम् । माल्वेयस्यापत्यं साल्वेयः । गान्धारेरपत्यं गान्धारः । गान्धारी । महुपूपि गान्धारयः।
यमगधकलिकसूरमसादण ॥३।९।१५२॥ राष्ट्र शब्दाद्राश इति वर्तते । यचो मृदः मगध फलिम सूरमस इत्येतेभ्यश्च मण मवति । अमोऽपवादः । श्राङ्गः । वामः। बौदाः । पोण्डः। मागपः। काशिनः । सौरममः । सर्वत्र बहुरूप | अप्रैव सिद्ध किमर्थमण विधीयते । "इयोऽय" [ 1]
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TET
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ३ ० १ सू० १५३-१५८
हृति फि यथा स्यात् । नास्त्यत्र विशेषः सर्वस्यैव युत्रस्य द्वं यत्तरभ्योविष्यते । इह तहिं विशेषः राजसमानशब्दराष्ट्रात् तस्य राजन्यपत्यवदिति वदयते । श्रङ्गानां राजा श्राङ्ग इति अणि सति श्रङ्गस्यापत्यं श्रनायनिः । "वयत्रीऽयम:" [३. १३१४२ ] इति फिञ् । युक्त्योऽयं न भक्तौति उप नास्ति । प च श्रमिति संघाद्यर्थविवचायामग्य् प्रसज्येत । श्रणि सति "वृद्धचरणात्” [३।३।१४] इति शुन् भवति । श्राङ्गकः । याङ्गकः । मागधकः । कालिङ्गकः । सौरमलकः ।
द्वित्कुरूनाद्यज्ञादकोशलाञ्ञ्यः ||३|१|१५३ ॥ दुसंज्ञान्मृद इकारान्तात् कुवशब्दात् नकारादेः अजाद कोशलशब्दशभ्यां च ज्यो भवति । अत्रोपवादः । दो:- म्हस्यापत्यं श्रम्बष्ठ्यः । सौवीरस्य सौवीर्यः । काम्बचस्य काम्बव्यः । दार्घस्य दायः । द्वयजल क्षणोऽपि फित्र परत्वादेतेन बाध्यते । इकारान्तात् श्रवन्तैरात्रन्त्यः । कुन्तेः कौन्त्यः । वसन्तेर्वा सन्त्यः । तपरकरणं किम् १ कुमारी नाम बनपदः क्षत्रियश्चास्ति । तस्यापत्यं कौमारः । कुरो: - कौरव्यः । नादः -- निचकन्य नैचक्यः । निषस्य नैषध्यः । नीपस्य नैप्यः । श्रमादस्य श्रानाद्यः । कोशलस्य कौशल्यः 1 सर्वत्र बहुतून् ।
साल्वावयवप्रत्ययकाका
३११/१५५॥
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मानुषौ चत्रिया वस्या झपर्त्य “द्वचचः” [३।१।११०] इति दृयि साल्वेय इत्युसि कृते निपातनादपि भवति । साल्वः चत्रियः तस्य निवासो जनपदः अल्वः । तदवयत्राः ।
"उदुम्बरास्तिलखला मकारा युगन्धराः । मुष्ठिताः शरदण्डाश्च सात्वावयवसंज्ञियाः " मावावयवेभ्यो राजत्राचिभ्यः प्रत्ययथिः । कालकुटि: । आाश्मकिः । सर्वत्र बहुषूप योज्यः ।
पाण्डो || ३|१|१५५ ॥ ट्ररादाद्रा इति वर्तते । पाराङ्कुशब्दाड्ड्यण् भवत्यपत्येऽर्थे । पाण्डोरपत्थं पाण्ड्यः | 'इकारो दिखार्थः । यकारः "हिंदुष्टदरक्तविकारे' [ ४|१| १५१] इति पुंवद्भावप्रतिषेधार्थः । पाढ्या भार्या श्रस्य पान्यभार्यः । कथमयं प्रयोगः प्रसिद्वितीयो न सवार पाण्डवः । पाण्डवा यस्य दावाः इति १ येन जनपदेन समानशब्दो राजा तस्य बनपदस्थ स्वामी यदि विवचितस्तदायं विधिर्वेदितव्यः । श्रन्यत्रोत्सर्ग एव भवति । इह प्रकरणे राजसमनात् राष्ट्रात् तस्य राजन्यपत्यवदिति इतष्प" [था०] राजसमानशब्दात् राष्ट्रात् तस्येति तासमर्थात् राजन्यभिधेये अपत्य इव स्यविधिर्भवति । पञ्चालानां राजा पाञ्चाल । साध्वेयानां राजा साल्वेयः । एवं आङ्गः । श्राम्बष्ट्यः । श्रदुम्बरिः । पाण्डवानां राजा पाण्ड्यः । स्मादपत्यविवक्षायां "का वृषेः [ ३१।१४४ ] इति फित्र । पाञ्चालयनिः ।
4
I
उप चोलादेः ||३|१|१५६ ॥ राष्ट्र शब्दाद्रास इति वर्तते । चोला : परस्यो भवति । कस्य ? सम्भवा दात्रः । चोलस्यापत्यं चोलः । केरलः । कम्बोजः । शकः 1 यवनः । श्रादिशब्दः प्रकारवाची तस्य राजनीति वर्तते । चोलानो राजा चोलः ।
कुन्त्वन्त कुरुभ्यः स्त्रियाम् ||३|१११५७॥ कुन्ति अवन्ति कुछ इत्येतेभ्यः उत्पन्नस्य मय् भवति स्त्रियामभिधेयायाम् । कुन्ती । अवन्ती | कुरूः | "द्वित्कुरुनाथ श्रायुकोशलान्य:, [ ३ । १ । १५५ ] इत्यस्य उपि कुते "हृतो मनुष्यजातेः " [३।१.१५ इति ङीविधिः । कुरुशब्दात् "रुत:" [ ३१४५६ ] इति कत्यः । स्त्रियामिति किम् १ कौन्त्यः ।
अतोऽप्राच्यभदेः ||३|१|१५८ ॥ स्त्रियामिति वर्तते । श्रतस्त्यस्य उन्भवति स्त्रियामभिधेयायां प्राब्यान् भर्गादश्च वर्जयित्वा । कुस्त्यादिभ्य उब्बचनं ज्ञापकम् दद्द तइति तदन्तविधिर्न भवति । साम
दो भवतीति वेदितव्यम् । श्रपाच्यो नाम राष्ट्रसमानशब्दो राजा तस्यापत्यं स्त्री श्रमाच्या श्रज उपि टापू । एवं सूरसेनी | मद्रस्यापत्यं स्त्री भट्टी । अण उपि जातिलक्षणो ङीविधिः दरदोऽपत्यं स्त्री दरद् । श्रत इति किम् श्रीम्बरी | सारावयवत्वादिञ् । इतो मनुष्यजाते : '' [३।१२२५] इति श्रीविधिः । श्रमाच्य
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२०३ पा०९ सू. १-५] महावृत्तिसहितम् भर्गादेरिति किम् १ प्राच्या ये राष्ट्राभिधाना राजानस्तेभ्य उप प्रतिषिध्यते । पाञ्चाली । वैदेही । पैप्पली मानी। पोझो । गोहीम शिली : गरिमाच्यार्थ उप प्रतिषेधः । भर्गस्यापत्यं श्री मार्गी । करूपस्य कारूषी । भर्ग करूष केकय कश्मीर सेल्व (सुल्या) सुस्थाल उरस कौरव्य । वचनाद्यर्थेण उपि करूः। अनेनानुपि कौरव्येति । यौधेयः । शीक्रेय शोभ्रे व घातय मावाणेय नगर्त भरत | उशीनर । स्य पुनरकारस्य यौधेयादिभ्यः द्रुसंशकेभ्यः परस्योपू प्राप्तः प्रतिषिध्यते ! उच्यते । ' पर्वादेरण' [२६] इति द्रिसंशकोऽ स्वार्थिको यक्ष्यते । तस्यायं प्रतिविधिः न तु राष्ट्रसमानशब्दात् । श्रापल्पस्य उखुच्यमानः कथं स्वामित्रस्य भिन्न प्रकरणस्य द्रेकमवति । इदमेव यौधेयादिग्या प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं भिन्नप्रकरणस्यापि द्वे रुन्भवति । अपत्यग्रहणेन गृह्यते इति फिमेतस्य सापने प्रयोजनम् । हर स्त्रियामुप् । पशुः रक्षाः असुरी इति पशु रक्षा असुर इति राष्ट्र शब्दा राजानः एषामपत्यं संघः स्त्रीत्वविशिष्टो विदित इति अगोरागतयोः "उपचालादेः" [11] इति उपि कृते पुनः "पश्यावरण" [४।२।६] इति स्वार्थिकोऽण् । तस्यानि स्त्रियामनेनोप सिद्धः।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समासः ।
तेन रक्तं रागात् ॥ १॥ रज्यतेऽनेन शुक्लं बरिस्वति रागः; कुसुम्भादि द्रव्यम् । तेनेति भासमर्थात् रागविशेषवाचिनो मूदो रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । कषायेण रक्त वस्त्र' काषायम् । शाद्धिम् । कौसुम्भम् । माजिष्ठम् 1 रागादिति किम् ? देवदत्चन रकम् । "पुखौ घः प्रायेण" । २।२।..] इत्येतद् पविघानेऽपेक्ष्यते । तेन वर्णविशेषस्य गगस्य महणादिह न भवति | पाणिना रक्तमिति । इहोपमानाद्भवति । काषायौ गर्दभस्य कौँ । हारिद्धौ कुस्कुरस्य पादाविति ।
नीलपीतादको ॥३२।२।। नील पीत इत्येताभ्यां भान्ताम्यां रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे ययाख्यम् अक इत्येतो त्यो भवतः। नीलेन रवं नीलम् । लिङ्गविशिष्टत्यापि ग्रहणम् | नील्या रक्त नीलम् । पीतेन रहं पीतकम् ।
लाक्षारोचनाशकलकर्दमादृणु ॥३॥२॥३॥ लाक्षादिभ्यो भासमर्थेभ्यो रक्तमित्येतस्मिन्न ठप भवति । अणोऽपवादः । लाक्षया र लाक्षिकम् । शालिकम, ! शकलकदमाभ्यामणपीध्यते ।
__ भायुक्तः कालः शरा४॥ तेनेति वर्तते । भविशेषवाचिनो मृदो भासमर्याद् युक्त इत्येतस्मिन्नर्थे यपाविहितं त्यो भवति । योऽसौ युक्तः कालश्चेत् स भवति । नित्ययुक्तौ हि भकासी न सो सनिकर्षविप्रकर्षों स्तः । तत्कयं पुष्यादिना 'भेन युक्तः काल' इत्युच्यते । व्यभिचाराभावात् । नैष दोषः । इइ पुष्यादिसमीपस्थे चन्द्रमसि पुष्यादयः शब्दाः वर्तमाना गृह्यन्ते। पुष्येण युक्तः कालः पुष्यसमीपगतेन चन्द्रमसा युक्त इत्यर्थः । पौषी रात्रिः । पौषमहः | "सिध्यपुष्ययोर्माणि" [11३३] इति यकारस्य खम् | माघी रात्रिः । माघमहः । भादिति किम् ? चन्द्रमसा युक्ता गतिः। काल इति किम् । पुष्येए युक्तश्चन्द्रमाः।
सभेदे ॥३२॥५॥ अभेदो नामाविशेषः । पूर्वेण विहितस्योस् भवति न चन्द्रेण गुतस्य कायस्थ भेदो सन्यादिविशेषोऽमिधीयते । श्रद्म पुथ्यः। अद्य कृत्तिकाः । अद्य राहण्यः । "युक्तवधि किसंख्ये" [1 ] इति युक्तवावः । अत्र यावान् कालः त्रिशमुहूर्तमात्रो भेन युक्तो न तस्य भेदोऽमिधीयते । अभेद इति किम् । पौषी रात्रिः। पौषमहः । अभेद इति प्रसज्यप्रतिवेषः । तेनेहापि न भवति । पोषोऽहोरात्रः।
१, प्रतिषेधः म.1
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१७६
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० पा० १ सू० १-१३
पौषः कालः इति । अथेह कथमुम् न भवति अद्य दिवा पुष्यः । अय रात्रौ पुष्य इति । पूर्वममरात्मक समुदायस्याभेद उसे विधाय पश्चाद्दिवाराभिशभ्दयोः प्रयोगः कृतः ।
श्रवणश्वत्थाभ्याम् ||३२|६|| खौ भेदेऽपि उस् यथा स्यादित्यारम्भः 1 अक्य श्रश्वस्थ इत्येताभ्यामुत्रस्य यस्योस् भवति खुविषये । श्रवणेन युक्ता भवणा रात्रिः । श्रश्वत्येन युक्ता अश्वत्था रात्रिः । श्रस्वत्यो मुहूर्तः । “फाल्गुनीश्रवया कार्यिकी चैत्रीभ्यः " [ ३।२।१८ ] इति भवणाशब्दनिर्देशो शापक द्दद्द सूत्रे उठ मुक्तद्भावो न भवति । खाविति किम् १ श्रावणी रात्रिः । श्राश्वत्य रात्रिः |
द्वन्द्वाच्छ्रः ||३१२२७॥ भद्वन्द्वाद्भासमर्थात् युक्तः काल इत्येवस्मिन्नर्थे को भवति भेदे चामेदे च । श्रयोऽपवादः । राधानुराधीयम् । राधानुराधीयं तिष्यपुनर्वसवीयमङ्गः । श्रद्य तिष्यपुनर्वसीयम् ।
परवा बाधकः ।
परिवृतो रथः ||३|२८|| तेनेति क्र्तते । तेन परिवृत इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्वो भवति यः परिवृतो रथश्चेत् स भवति । वस्त्रेण परिवृतो रथो वास्त्रः । काम्बलः । चार्मणः । “अम:" [ ४1811२८ ] इति णि टिखाभावः । रथ इति किम् १ वस्त्रेण परिवृता शय्या । स इद्द कस्मान्न भवति छात्रः परिवृतो रथ इति । श्रनभिधानात् । श्रथवा समन्वाद्वृतः परिवृत इत्याश्रयणात् । रथैकदेशस्त्यमुत्पादयति न छात्रादिः । इह कस्मादय् न भवति । पाण्डुकम्बलैः परिवृतो रथ इति । श्रनभिधानात् । कथं पाण्डुकम्बली रथ प्रति पायडुकम्बलाश्रस्य सं (सन्ति) पाठात् यसे कृते इन्द्रष्टव्यः । तस्याभिधानं नास्ति । टीकावात्स्वार्थे वा ईयू वक्तव्यः " [श्रा०] तीयिकम् । द्वितीयम् । वातयिकम् । तृतीयम् । "विद्याया श्रभिचामे मेव्यते” [वा०] द्वितीया विद्या । तृतीया विद्या ! इह कथमण भवति । न विद्यते पूर्वः पविर्यस्याः सा अपूर्वा कुमारी । तादृशीं कुमारीमुपपन्नः कौमारः पतिरिति तत्र भव:" [२२३३२८] इत्य मविष्यति । कुमार्या भत्रः पतिः कौमारः पतिः । पुंयोगात् कौमारी भार्या इत्यपि सिद्धम् |
तत्रोद्द्घृतममत्रेभ्यः ||३|२९|| भुक्तावशिष्टमुद्धृतमुच्यते इति केचित् । तत्तु नातिश्लिष्टम् अन्यश्रपि प्रयोगात् । उदुद्धृतं ब्राह्मणेन लब्धमिति । तत्रेति ईप्समर्थादमत्रवाचिनो मृदः उद्धृतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सरावेषु उद्धृत श्रोदनः सारावः 1 माल्लव: ( मालिक: ) । श्रमत्रेभ्य इति किम् ? पाणावुदुद्धृत श्रोदनः ।
स्थाण्डिलः ॥ ३२२९० ॥ स्थापित इति निपात्यते । स्थारिवल शब्दादीनन्ता च्छतिर्यभिधेयेऽय् निपात्यते समुदायेन व्रते गये । स्थडिले येते स्थारिडलो ब्रह्मचारी । बतादन्यत्र स्पसिद्धले शेते देवदत्त इति ।
संस्कृतं मक्षाः ||३२|११ ॥ सतो गुणान्तराधानं संस्कारः । खरचित (श) दमभ्यवहार्य भदः । तत्रेति समर्थात् संस्कृतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो मवति यत्तत् संस्कृतं भवाश्चेत्तद् भवति । भा संस्कृताः भ्रतः । पूर्व कैलासाः ( कालथाः ) पात्र मक्षा इति किम् ! फलके संस्कृती मालागुः । शूलो खायः ||३२|१२|| शूल उस्खा इत्येताभ्यां ईप्समर्थाभ्यां संस्कृतं भक्षा इत्येतस्मिन्नर्थे यो भवति । श्रयोऽपवादः । शूले संस्कृतं शूल्यम् । उल्खायां संस्कृतमुख्यम् । उपमानात् सिद्धम् । पिठरे झूले इन संस्कृतं पिठरशूल्यम् । मयूरव्यंसकादित्वात् सविधिः ।
बुन ॥३॥२॥१३॥ दधिशब्दादी समर्थात् संस्कृतं मदा इत्येतस्मिन्नर्थे ठा मवति । दधिनि संस्कृतं दाधिकम् । तत्र यदनि संस्कृतं तद्ना संस्कृतमित्यपि भवति । एवं च “तेन संस्कृतम्' इति वदयमापेन या सिद्धार्थोऽनेन १ नैष दोषः । यदन्यत्रोत्पन्नं दधिकृतमेवोत्कर्षमपेक्षते सदिद्दोदाहरणम् । यस्य तु वना बन्धादिना च संस्कारस्तस्य वच्यमाणमुदाहरन्यम् ।
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4.पा. १ ० १४-२३] महावृत्तिसहितम्
बोदरिषतः ॥३शरा१४|| उदश्चित्-शब्दादीपसमर्थात् संस्कृतं भक्षा इत्येतस्मिन्नथें ठण मवति । उदश्विति संस्कृत नोदनः औदश्वित्कः । श्रोदश्वितः। अतोऽपि वावचनाच्ज्ञायते तेन संस्कृतापत्र संस्कृतस्यार्थभेदः । श्रन्ययेवन्ताहण, भान्तादण, इत्युभयं सिद्ध स्यात् ।
क्षोराड दण् ॥३॥१५॥ क्षीरशब्दादीसमर्थात् संस्कृतं मक्षा इत्येतस्मिन्नय दण भवति । भयोऽपवादः । क्षीरे संस्कृता क्षे रेयो यवागूः।
सास्मिन् पौर्णमासीति खो ॥३२॥१६॥ सेति वासमर्थादस्मिन्निति ईबर्थे ययाविहितं त्यो भवति यत्तद्वानिर्दिष्टं पौर्णमासी सा चेद्रवति । इतिकरणाद्यदि लोके विवक्षा समुदायेन चेत संज्ञा गम्यते । पूर्णमासा चन्द्रमसा युक्तः कालः पौर्णमासी । इदमेन ज्ञापकमवाण भवतीति । माघी पौर्णमास्यस्मिन् मासेऽसमासे संवत्सरे वा माघो मासोमासः संवत्सरः । एवं पोषः । स्थाविति किम ! माघी पोर्णमास्य स्मिन् पञ्चदशरात्रे । इतिशब्दः किमर्थः । विद्यमानेऽपि लक्षणे लौकिकप्रयोगानुसारणायः। दहमा भूत् । माधी पौर्णमासी अस्मिन् हि भवति संवत्सरपर्वणि ।
अश्वत्थाग्रहायणीभ्यां उन ॥३२॥१७॥ सारिन् पौर्णमासीति वर्तते । अश्वत्य श्राग्रहायणी इत्येताभ्यां पौर्यमासीवि वासमाभ्यामहिम ई उ पनि: । रासदायेन तुझा कालः अश्वत्या पौर्णमासी अस्मिन्मासे अद्ध मासे संवत्सरे वाऽश्वस्थिकः । अग्रहायणेन युक्का काल अामहायशी प्राग्रहायणिक
फाल्गुनीश्रषणाकार्तिकीचैत्रीभ्यो था ॥३२॥१८॥ फाल्गुन्यादिभ्यो वा ठा भवति | सास्मिन् पौर्णमासीसि धर्तते । फाल्गुनी पौर्णमासी अस्मिन् माम संवत्सरे वा फाल्गुनिकः । फाल्गुनः । पर्ष भावणिका 1 भावणः । कार्तिकिक ! कार्मिकः । चैत्रिकः । चैत्रः।
सास्य देवता ॥ १।१९ ॥ सत्यत्र लिगवचने अमघानभूते । सेति वासमादस्येति ताज्य ययाविहितं त्यो मपति यत्तद्वानिर्दिष्टं देवता चेत्स भवति । अईन् देवता अस्य बाईतः। भगवती देवता श्रस्य भागवतः । बाईस्पत्यः । सेति वर्तमाने पुनः साग्रहणं संचाविषयनिवृत्यर्यम् । तेन संशायां वायं विधिः । देववेति किम् ? कन्या देवदत्तस्य ।
कस्येः ॥२०॥ कशब्देन प्रजापतिरमिधीयते । कस्य इकारोऽन्तादेशो भक्त्या च सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । को देवताऽस्य कार्य इविः 1 अणि पूर्वेण सिद्ध इत्वार्य वचनम् । भारम्भसामर्थ्यात् "पस्य क्या' [ १४] इति खं न भवति ।
शुक्राद्धः ॥३२२२२१॥ शुक्रशब्दाद् घो भवति । श्रणोऽपवादः । सास्य देवतेति वर्तते । शुको देवतास्य शुक्रिया।
अपोनप्पासपतृभ्याम् ।।३।२।२२) घ इति वर्तते । अपोनप्त अपामप्त इत्येवाभ्यो पो भवति । श्रणोऽपवादः | साऽस्य देवतेति वर्तते । अपोनपाववाऽस्य अपोनस्त्रियः । अपानपाहेक्ता अस्य अपानप्रियः । प्रत्यय (त्य) सन्नियोगेन प्रकृत्योः अपोनप्Mनपान्नप्तृमावो निपात्यते । संप्रेषे अपोनपाते बधि अपानपावे ब्रूहि इति भवति ।
छः ॥शरा२३॥ अपोनप्त्र अपान्नप्त इत्येताभ्यां छश्च भवति सास्य देवतेत्यस्मिन् विषवे । अपोनप्त्रीयः । श्रपानपत्रीयः । योगविभाग उत्तरार्थः "पौड्गीपुत्राहिम्परको वक्तव्यः'' [ वा. ] पोगीपुत्रीयः । तार्णविन्दवीयः । सहवायरष" [पा० ] शतरुद्रियः । शतरुद्रीयः ।
२३
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ३ पर० २ ० २४-३२
महेन्द्राद्धाऽणी च ||३२|२४|| सास्य देवतेति वर्तते । महेन्द्रशब्दाद्ध श्रय् इत्येतौ भवतकुश्च । महेन्द्रो देयता अस्य महेन्द्रियः । माहेन्द्रः । मदेन्द्रीयः ।
१७८
सोमाद्व्यय् ॥३१२।२५ ॥ सोमशब्दाख्यम् भवति सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । श्रणोऽपवादः । सोमो देवता अस्य सौभ्यः । स्त्रियां सौमी । “इको इतो हयाम्” [ ४1०1१४० ] इति यखम् ।
बापूपकुतसो वा ॥१६॥ इत्येतेभ्यो यो भवति । श्रणोऽपवादः । साऽस्य देवता श्रुति वर्तते । वायध्यः । ऋतव्यः । पित्र्यः । व:" [५२११३५] इति
रोङादेशः । उषस्यः ।
द्यावापृथिवी सुनाशीर मरुस्वदग्नोषोमवास्तोष्पतिगृहभेधाच्छु च ॥ ३२२७ ॥ द्यावापृथिवी प्रत्येवमादिभ्यश्छो भवति यश्च सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । श्रश्च पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ देवते अस्य द्यावापृथिवीयः । द्यावापृथिव्याः | सुनो वायुः शीर श्रादित्यः सुनश्च शीरच "देवता इन्द्र " [४/३/१३१] इत्यान | सुनाशीरौ देवते श्रस्य सुनाशीरीयः । सुनाशीर्यः । मरुत्वान् देवता प्रस्य मरुत्वतीयः । महत्वत्यः । श्रग्निश्च सोमश्व देवते श्रस्य श्रग्नीषोमीयः । श्रग्नीषोम्यः । " सोमबहऽग्नेरी' [४।३।१४० ] इतीत्वम् । "स्तुत्सोमो सागमेः " [२२४६५] इति पत्वम् । वास्तोष्पतीयः । वास्तोष्पत्यः । पुलिङ्गत्वं वाया अनुप् षत्वं च निपातनात् । गृहमेधीयः । गृहमेध्यः ।
I
साग्निकलिभ्यां ढण् ॥ ३२२ २८ ॥ साऽस्य देवतेति वर्तमाने सर्वत्रग्रहणं सर्वार्थसंग्रहार्थम् । श्रग्निकलिशब्दाभ्यां सर्वेष्वर्थेषु दय् भवति प्राद्रोः । अग्निर्देवता अस्य अग्नौ भवः श्रग्नेरागवो श्राग्नेयः | एवं कालेयः ।
कालेभ्यो भववत् ||३|२२६॥ कालविशेषवाचिभ्यो भव व त्यविधिर्भवति । बत्करणं सर्वविशेषपरिग्रहार्यम् । येभ्यः कालविशेषवाचिभ्यो मृद्भ्यो भवे येत्या विहिताः सास्य देववेत्यस्मिन्विषये तेभ्य एव मृदुभ्यस्तव त्या प्रतिदिश्यन्ते । यथा मासे भवं मासिकं सांवत्सरिकं वासन्तं प्रावृषेण्यम् । "काळातून " [ ३२१११] "भसंध्यादुद्धृतुम्मो वर्षाभ्योऽय्' [३।२।१३७] “प्रावृष एण्य:' [ ३३२) १३६ ] एते त्या भवन्ति । तथा मासी देवता श्रस्य वसन्तो देवता श्रस्य प्रावृड् देवता श्रस्येति श्रत्रापि भवन्ति ।
महाराजप्रोष्ठपदाभ्यां
॥ ३२२|३०|| महाराषो वैश्रवणः । महाराज प्रोष्ठपदा इत्येताभ्यां ठय् भवति सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । महाराजो देवताऽस्य माहाराविकः । प्रोष्ठपक्ष देवताऽस्य प्रोष्ठपदिकः । "ठाणे वदस्मिन्यते इति नवयज्ञादिभ्य उपसंख्यानम्' [ वा० ] नवयज्ञोऽस्मिन् वर्तते नावयज्ञिकः । पाकयज्ञिकः । “पूर्णमासादय् वक्तव्यः " [ वा० ] पूर्णमासोऽस्यां वर्तते पौर्णमासी विथिः ।
पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः || ३|२|३१|| पितृव्यादयः शब्दा निपात्यन्ते ! समर्थविभक्तिस्त्योऽनुबन्धस्यार्थ इति सर्वमिदं निपात्यते । पितृमातृभ्यां तावमर्थाभ्यां भ्रातरि वाच्ये व्यडुलो निपात्येते पितुता पितृभ्यः । मातुर्भ्राता मातुलः । डिवाहिखम् । “वाभ्यामेव पिवरि नामहः " [बा०] मातुः पिता मातामहः । “स एव कामsो मातरि वास्यायां टिच' [ वा० ] मातुर्माता मातामही । पितुर्माता पितामही । दिवान्ङीविधिः ।
तस्य समूहः ||३|२|३२|| तस्येति तासमर्थात् समूह प्रत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितस्त्यो भवति । चिचवदवृद्धं यस्य न चान्यत्र प्रतिपदं मध्यं वदिोदाहरणम् । श्रचित्तवतष्ठ षणयते । वृद्धावुञ् । प्रति
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म० ३ पा० २ ० ३३-३६]
महात्तिसहितम्
९७६
पदमुक्षादिभ्योऽपि पुत्रादिः । काकानां समूहः काफम् । शौकम् । वार्फम् । इह पश्चानां पूलानां समूहः पञ्चयूला इति प्राप्नोति । समूहाथेंऽण् तस्य "रस्थोबनपत्ये" [RIN] इत्युप् “परिमाणादृपि " [ २१] इति नियमात् । असति जीविधी छापा भवितव्यम् । नायं दोषः । समाहारलतरण एवान रसः । हृदुत्पत्तिर्न भवत्यनमिधानात् ।
मिक्षाः ॥३२॥३३॥ तस्य समूह इति वर्तते । भिक्षा इत्येवमादिभ्यः यथाविहित त्यो भवति । पुनर्विधान उरणो बाधनार्थम् । मिक्षा समूः भैनम् । मिक्षा गर्भिणी क्षेत्र करीघ अनार चर्मन् सहन युति परति अथर्वन् दक्षिणा । इह पाठसामर्थ्यात् गर्भिणी-युवतिशब्दे न पुंषदावः ।
वृद्धोक्षोष्ट्रोरभ्रराश्राजन्यराजपुषवत्समनुष्याजावुन ॥ ३२॥३४॥ वृद्धादिभ्यो जुन भवति । तस्य समूह इति वर्तते । श्रोपगवानां समूह औपगषकम् । काफ्टवकम् । श्रीक्षकम् । औष्ट्रकम् । औरत्रकम् । रामकम् । राजन्यकम् । राजपुत्रकम् । वात्सकम् । मानुष्यकम् । आवकम् । बाम्चेति यकम्यम्" [ ] पार्द्धकम् । “प्रकृल्या अके राजन्यमनुष्ययुवानः" इति "क्यच्यमास्यापत्यस्य[ere ] इति यर्ख न भवति । इह वृद्धग्रहणात् सिद्धे राजन्यमनुष्ययोः पृथगाहर्ण शापकम् । अपत्याधिकारादन्यत्र बुद्धग्रहणेन लौकिक गोत्रमपत्यमात्रमुच्यते न तु पौत्रायपत्यं वृद्धमिति । तथाहि लोके किनोत्रो भवान् इति पृष्टः वात्स्यायनोऽस्मीत्याच । राजमानुष्ययोस्नु मानिशमनल्लात, तौलियमोबादामा !
केदाराधश्च ॥३॥२॥३५॥ केदारशब्दाद्या भवति बुन् च तस्य समूह हत्यस्मिन्विषये । ठशोऽ पवादः । केदाराणा समूहः केदार्यम् । केदारकम् । "गणिकाया: यच वक्तव्यः" [वा०] गणिकाणां समूहः गापिक्यम् ।
ठम् कचिनश्च ॥३२॥३६॥ ठम् भवति फवचितश्च केदाराच्च तस्य समूह इत्यस्मिन्विषये । कवचिनां समूहः कावचिकम् | केदारिकम् ।
ग्रामजनयन्धुसहायेभ्यस्तरम् ॥३॥२॥३७॥ प्रामादिभ्यस्खल भवति तस्य समह इति पर्वते । मामाणां समूहो मामता | जनता । बन्धुता । सहायता । "गजाम्चेति वक्तव्यम्" [घा०] गमता ।
घरणेभ्यो धर्मषत् ॥३।२।३८।। चरणयाचिशम्देभ्यः समूह इत्येतस्मिन्नर्थे धर्म इव त्या भवन्ति । इद. मेव शापकम् । अस्त्येतत् 'चरणावधर्माम्माययोः'' [घा०] इति "वृद्धचरणानिस्' [३।३।४] इत्यारभ्य चरणाद्ध में विधिवक्ष्यते, स इहातिदिश्यते । वत्करणं सर्वविशेषपरिग्रहार्थम् । यथा कठानां धर्मा पाठकम् । कालापकम् । मौदकम् । पैप्पलादकम् । श्राभिकम् । वाजसनेयकम् । छान्दोग्यम् । प्रोक्थिक्यम् | बाथर्वणः । "वृद्धचरणालित्" इति चुन् योगौस्थिकयाशिकब तुचमटाअध्यः" [३५] इति यः।
प्राथ ' [॥३१.१] इति च निपात्यते प्राथर्वशिकानां धर्म इत्यत्र वाक्ये । तथा कठानां समूहः काटकमित्येवमादि योध्यम् ।
अचित्तहस्तिधेनोष्ठए ॥शरा३६॥ अचित्तमनेतनम् । अचितार्थवाचिभ्यो हस्ति धेनुशब्दाभ्यां च ठरण भवति तस्य समूह इत्यस्मिन् विषये । अपूपानां समूहः आपूपिकम् । शकुलीनो समूहः शाकुलिकम् । हास्तिकम् । धेनुकम् । “परवा गास् वक्तव्यः'' पा०] पर्शनी स्त्रीयां समूह, पार्श्वम् ! सिवात्पदसंज्ञायां भलक्षणमोरोत्यं न भवति । खण्डिकादिभ्योऽत्र वक्तव्य इति चेत् न वक्तव्यः । नास्ति विशेषोऽभि पा सत्याग था । खपितकादिषु ये चित्तवतस्तेभ्य श्रौत्सर्गिकोऽण सिद्धः। ये त्वचित्तास्ते भिक्षादिषु पठनीयाः । स्खण्डिका श्रइन् वडवत्तुद्रकमालवा द्रिसंशाताः क्षत्रिया इत्यर्थः । तेषां समूह वृद्धलक्षणो बुभ प्रातः। ननु च यथा "राष्ट्रावायो:" [३।२००२] इत्यत्र रामादुच्यमानो वुम, न राष्ट्र समृदायानवति । काशिकौशलेषु भवा
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१८०
जैनेन्द्र-ध्याकरणं
[ ० १ पा० १ सू० १०- १७
काशिकीया इति भवति । तथेह वृद्धादुच्यमानस्त्यः कथं वृद्ध समुदायादिति । एवं तर्हि तदन्तविचिना भविष्यति । इदमेव ज्ञापकं सामूहिके त्ये तदन्तविधिर्भवति । चौद्रकमालवी सेना । क्षौद्रकमालवकमन्यत् । भिक्षुक शुक उस्तूक । अयं यजन्तः बहुत्वेऽणं प्रयोजयति । स्वन् ( श्वन् ) युग वरत्र हंस इति स्वपिडकादिसामूहिके तदन्तविधिर्ज्ञापितः । तेन श्रौपगवकापटवानां समूहः श्रपगषकापटवकम् । ब्राह्मण राजन्यकम् । दम्यहस्तिनां समूहः दाम्यहस्तिकम् । गौधेनुकम्। "बेनोज पूर्वाया नेष्यते" [वा०] धेनूनां समूहः आधेनवम् ।
केशवाभ्यां यच्छो वा || ३ |२|४०|| केश ऋष इत्येताभ्यां यथासंख्यं य इत्येतौ त्यो वा भवतः | केशानां समूहः कैश्यम् । कैशिकम् । श्रश्वानां समूह श्रश्वोयम् । श्रश्वम् ।
पाशादेयः || ३|२| ४१ || पारा इत्येवमादिभ्यो यो भवति । पाश्या । तुग्ध तुष्या । धूम्या । वात वाल्या । लिङ्गं लोकतो शेयम् । पिटल पिटाक शकल दल नल वन ध्रुव ।
तस्य समूह इति वर्तते । पाशानां समूहः पाश तूण धूम वात श्रङ्गार पालवाल
ब्राह्मणमाणषषाश्यात् ॥ २१२१४२ ॥ य इति वर्तते । ब्राह्मण माणव वाडव इत्येतेभ्यो यो भवति तस्य समूह इत्यस्मिन्विषये । ब्राह्मणानां समूहो ब्राह्मण्यम् । माय्णव्यम् । वाडम्यम् ।
गोखलरधाम् ॥ २२॥४३॥ गो खल रथ इत्येतेभ्यस्तान्तेभ्यो यो भवति समूद्दे । गवां समूहः गया । खल्या | रथ्या । योगविभाग उत्तरार्थः ।
"
त्रेन्कट्याः ॥३|२|४४॥ गो खल रथ इत्येतेभ्यो यथासंख्यंत्र इन् कस्य इत्येते प्रत्यया (त्या) भवन्ति । तस्य समूह इति वर्तते । गषां समूहः गोत्रा । खलिनी । रथकस्या । "खादिम्य इन् वक्तव्यः' [ वा०] डाकिनी । कुटुम्बिनी । लोकतो लिव्यवस्था |
·
I
राष्ट्र ||१३|२| ४५ ॥ समूह इति निवृत्तम् श्रर्थान्तरोपादानात् । तस्येति वर्तते । राष्ट्रं जनपदः । तस्येति तासमर्थात् राष्ट्रेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति । शिवानां राष्ट्रं शैवम् | मनपापेचया पुंलिङ्गवा प्रयोक्लव्या । शैवः । श्रयुष्टः ( श्रोष्ट्र : ) । श्रभिसार | "राष्ट्राभिवानं बहुवे उस्वऋम्पः " [ वा० ] श्रङ्गानां राष्ट्रम् अङ्गाः । बङ्गाः 1 सुकाः । "गान्धार्यादिभ्यो बेति वक्रभ्यम्" [वा०] गान्धारीणां राष्ट्र गान्धारयः । वासातः । वछादयः । शैवः । शिवाः । ' 'राजन्यादिभ्यो वा न उस्कल्पः " [ व ] रावन्यानां राष्ट्र राम्रन्याः । राजन्यचः । दैवयातवः । दैवयातवकाः । "विश्ववनादिभ्यो नित्यमुस् न भवतीति वकष्पम् " [ वा० ] बैल्ववनकः । श्रम्बरीषपुत्रकः । श्रात्मकामेयकः । नेदं बहु वक्तव्यम् । राष्ट्रविवचाया निवासविवक्षायाश्च प्रतिनियमात्सिद्धम् । बहुत्वविषये जनपदस्य निवासविषक्षयैव तत्र " जनपद उसू" [ ३/२/६१] इति उस भवति । गान्धार्यादीनां राजन्यादीनां च उभयी विवक्षा विल्पवनादीनां राष्ट्रविवक्षैव ।
राजन्यादेवु म ॥ ३२२२४६ ॥ राजन्य इत्येवमादिभ्यस्तासमर्थेभ्यो वुञ भववि राष्ट्रे । राजन्यान राष्ट्रं राजन्यकः । राजन्यः । श्रभूति वात्सक बाभ्रव्य ) शालकायन देवयादव जालन्धरायण कौन्तल श्रात्मकामे अम्बरीषपुत्र वद्यादि बिल्वधन शैलूष उदुम्बर वेल्बल श्रर्जुनायन संप्रिय दादि ऊर्णनाभ | आकतिगणश्वायम् | मानवत्रिगर्तबिरादीनां ग्रहणम् ।
भौरिया कार्यावियो भौ ||३२|४७॥ श्रादिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । मौरिक्यादिभ्यः ऐषुकार्यादिभ्यश्च ययासंख्यं विध भक्त इत्येतौ त्यो भवति राष्ट्रेऽर्थ । भौरिकीयां राष्ट्र भौरिकिविधः । भौलिफिविधः । भौरिकि मौलिक चौपयत चैटयत सैकयत कास्ये ( काणेय ) बायोजक ( वाणिज्यक) वालिकाज्यक वैकयत् । ऐषुकारिभक्ता । सारसायनभक्ता । ऐषुकारि सारसायन' चान्द्रायण द्वधाक्षायण त्र्याचाया
1. सारस्यायन ब०, स० ।
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म. ३ पा० ३ ० ४-५२ ] महावृत्तिसहितम्
१५१ अलायन ताडायन खाडायन सौवीर ( सोधीरायण ) दासमित्रायण शौद्रायण म (श) यात शौएछ । वैश्व . माणव वैश्वधेनव तुराडदेव सापिण्डि ।
सदस्मिन्युः योद्धृपयोजनात् ॥३२॥४.n योद्धारश्च प्रयोजनं च योद्धप्रयोजनम्, उदिति वासमयींद अस्मिन्निति पय सारित या पति यानिष्टि योद्धारश्चेत् तद्भवन्ति । प्रयोजनं चेत् तद्भवति । यचस्मिन्निति निर्दिष्ट युद्धं चेद्रवति । विद्याधराः योद्धारोऽस्मिन् युद्धे वैद्याधरं युद्धम् । कौरवम् । भारतम् । प्रयोजनात् खल्वपि । सुशोचना प्रयोजनमस्मिन् युद्धे सौलोचनम् । स्वायंप्रमम् । सौतारम् । संग्रामे खभिधेये पुलिङ्गवा । वैद्याधरः संग्रामः । सौलोचनः संग्रामः। युद्ध इति किम् ? सुभद्रा प्रयोधनमस्मिन्वैरे । योद्धप्रयोजनादिवि किम् ? रथा वाइनमस्मिन् युद्धे ।
प्रहरणमिति कोबायां णः ॥३॥४६॥ तदस्मिन्निति वर्तते । तदिति वासमादस्सिमिति बिर्थ यो भवति यचदासमर्थ प्रहरप चेत्तद्भवति यचदस्मिन्निति निर्दिष्ट क्रीडा सा चेनवति । इतिकरणततश्चेहि वचा । अद्रोण पत्र पातः सा क्रीडा । दण्डः प्रहरणमस्यां क्रीडायां दागना । मौरा । पादा। प्रहरसमिति किम् । गन्धोदकसेचनमस्या क्रीडायाम् ! क्रीडायामिति किम् । असिः प्रहरणमस्मिन् युद्ध ।
पातापाता शश५०॥ श्वैनंपाता वैलपाता इत्येतो शब्दौ निपाल्येते । श्येनानामिव पात: श्येनपावोऽस्या क्रीडायां वर्तते श्यैनं पाता । तिलानामिव पाततिलपातोऽस्यां क्रोडायां तैलंपाता । अस्मिन्नर्थे यो निपात्यते पूर्वपदस्य च मुमागमः । कथं दण्डपातः क्रिया अस्यां तिथौ वर्तते दारद्धपाता तिथिः। मुशसपातोऽस्यां वर्तते मौशलपाला भूमिः । पूर्वस्त्रे इतिकरणादन्यत्रापि णो भवति ।
नदेश्यबीते ||५१॥ तदिति इपसमर्थात् वेत्ति अधीवे इत्येठयोरर्थयोर्याविहितं त्यो भवति । सदिति प्रत्येकं सम्बद्धयते । तवति तदधीते इति । यथा “सेन वीभ्यक्ति खनात जर्यात जितम् इत्यत्र तेनेति । मुहूर्त वेत्ति मौहतः । श्रोत्पातः । ध्याकरणमधीते वैयाकरणः । सैद्धान्तः ।
कतपथापिसत्रान्ताट्ठा ॥३२॥५२॥ सपूपा यशाः प्रलयः । ऋतुविशेषवाचिभ्यो मुदभ्य उत्थाविम्या सूत्रान्ताच ठरण भवति । तद्देत्यधीते इति वर्तते । अग्निष्टोमं वेत्यधीते वा श्राग्निोमिकः । रावसयिकः । वाजपेयिकः। उक्थादिभ्यः उक्थशब्दः केचिदेव सामसु रूढः । स च प्रोस्थिक्ये वर्तमानस्त्यविधि समते । उक्थमधीते श्रोदियकः । श्रोक्थिक्यमधीते इत्यर्थः । श्रोक्थिक्यशब्दात्तु न त्यावधिर्भवत्यनभिधानात् । एवं मजशब्दोऽपि याज्ञिक्ये त्यविधि लमते । याशिकः । लोकायतमधीते लोकायतिकः। सूत्रान्तात् - वार्वित्रिकः । बांग्रहमत्रिकः । “सूबान्तादकल्पादेविष्य" [घा०] । तेन काल्पसूत्र इत्ययेव भवति । सूत्रान्तमहन्मस्थादः प्रपञ्चः । उस्थ लोकायत न्याय न्यास पुनरुक्त संशा चर्चा फ्रमेतर लक्ष्य संहिता पद क्रम संघात वृधि संग्रह गण गुग्ण आयुर्वेद वसन्त । सहचरितऽध्ययने वसन्तात् । वर्षा शरद् । व्यस्तसमस्तात् । शिशिर हेमन्त प्रथमगुण अनुगुण प्रथमगण । अनुगण इति केचित् । अथर्वन् । "घचालक्षणकापसूत्रान्तादकल्पादेः" वा०] | बायसविधिका । साविधिका । हारित लक्षणिकः । श्राश्वलचाणकः । मातूफल्पिकः । पेतुर्वल्पकः । माचिसूत्रिकः । प्रकल्पादेरिति किम् ? काल्पसूत्रः। विधामाननक्षत्र (विद्या व नामाक्षेत्र ) धर्मनिपूर्वा" [वा०] इस विद्यान्ताकस्तस्यायं प्रतिषेधः। अङ्गाविद्यामधीते श्राङ्गविद्यः । क्षात्रविद्यः । पार्मविद्यः । विद्यः । व्यवयवा विद्या ति यसेऽयं प्रतिषेधः। रसे तु 'रस्योबनपत्ये" [३110] इत्युपा भवितव्यम् । तत्र नास्ति विशेषः । "माख्यामाख्यायिकेतिमपुराणेभ्यश्च" [वा०] श्राख्यानाख्यायिकयोरर्थग्रहणमितिहासपुराणयोः स्वरूपमयम् । श्राख्यानात्-यानीतिकः। भाषिभरिक' । आख्यायिकायाः वासव
1.माधिमारिका ब०,०|
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जैनेन्द्र व्याकरणम् [.३ पा० ३ ० ५३-१६ दति । ऐतिहासिक पौराणिक । “समादेरलामो' [वा.] सर्यादेः सादरताच्चोब् मवति । सर्ववेदः । सर्वतन्त्रः। सादेः-सवार्तिकः । ससंग्रहः । सर्वत्र ठण उप् । रसात् । पञ्चवल्पः । विलक्षणः। त्रिसूत्रः। विद्यालक्षणकल्पसूत्राहणुक्तः । पदोत्तरपदादिकः । पूर्वपदिकः । उत्तरपदिकः । "सतषष्टिभ्यां पष्टिक" [पा०] शतपथिकः । शतपथिकी। प्रष्टिपथिकः ! पधिपधिको । “पदमाशेगाव रुप" [फा०] मनुस् म अन्यः । अनुसूमधीते प्रानुसुकः । लादियकः । लाक्षणिकः । द्विपद ज्योतिष अनुपद अनुकल्प । इतिकरणं प्रयोगार्थ वर्तते । ततोऽयं विभागो लभ्यते ।
क्रमादेवुन् ॥३२५३॥ तवेत्त्यधीते इति वर्तते । क्रम इत्येवमादिभ्यो वुन् भवति । क्रमं वेश्यधौदे या क्रमकः । क्रम पद शिक्षा मीमांसा सामन् । “अनुब्राहमणादिवतव्यः" [वा०] बामणसहशो ग्रन्थो अनुप्राझणं तदधीते अनुयायो । अनुत्राझरियनौ । अनुब्रामाणिनः । मलोयेन सिद्धेऽपि अगदाधनार्थमिदं वक्रव्यम् ।
उप्पोक्लात् ॥३२॥५४॥प्रोक्तऽर्थ विहितः प्रोक्तः। प्रोक्तत्यान्तादध्येतवेदित्रोफत्पन्नस्य त्यस्याब भवति । गोतमेनं प्रोकं गौतम तवेयधीते वा गौतमः | भद्रबाहुना प्रोक्ल भाद्रवाहवं वद्वे त्यघीते वा माद्रबाइवः । परस्याय उपि कृते योऽवस्थितः प्रोकार्थविषयोऽण् तस्य न्यक्त्वात् "प्रमीच::'
त्यधि. कारात् "टिड्डायन " [३।190 इति डीविधिन भवति अतष्ठापि गीतमा | भाद्रवाहवा स्त्री।
सूत्रात्कोऊः ॥३२॥५५॥ सूत्रनाचिनः ककारोङः अध्येतृवेदित्रोफत्पन्नस्य त्यस्योन्भवति । अप्रोलायोऽयमारम्भः । पञ्चाध्यायाः परिमाणमस्य पञ्चकं सूत्रम् । एवमष्टक द्वादशकम् । पत्रकमधीयते विदन्ति | पञ्चका जैनेन्द्राः। अष्टकाः पाणिनीयाः। द्वादशका श्राईताः। "संख्याप्रकतेरिति वकम्यम्" मा० यह मा भूत् । सत्यार्थवार्तिकमधीते तावार्थवार्तिकः । कलापकमधीयते कालापकाः।
छन्दोब्राह्मणानि चात्रैष ॥३२॥५६॥ प्रोक्तमहामनुवर्तमान छन्दोबामणानां विशेषणम् । अत्रेत्यनेनाभ्येवेदितृत्यविषया गृह्यते । छन्दोवाचीनि ब्राह्मणवाचीनि च प्रोक्लत्यान्तान्यत्रैवाध्येतवेदितत्यविषये वर्तन्ते । अध्येतुबेदितत्यविषया वृत्तिरेव यथा स्यादित्यर्थः । उमयावधारणं चेदमेवकारोरादानाजम्यते । अन्यथा रम्भसामर्थ्यात् विषयावधारणे सिद्ध एक्काराऽनर्थकः स्यात् । प्रोक्तत्यान्तस्यात्रैव वृचिर्नान्यत्र । पथा वृत्तिरेव न केवलावस्थानमित्युभयथा नियमः | अन्यत्रानियमात् क्वचित् स्वातन्त्र्यं भवति । अईता प्रोकं शास्त्र कचिदुपान्यतरयोगः। आईतमहत्सु विहितमिति । कचिद्वाक्यमाहंतमधीते । कचिवृत्तिः प्राईत इति । इदं पुनर्निसमाद् युगपदेव विग्रहः । कठेन प्रोक्तं छन्दोऽघीयते कठाः । शौनप्रदिषु "वैशम्पायनान्तेवासिभ्यः' [.स.
.] इति वचनात् गिन् । तत्रैव "कठचरमादुप् [ग० सू०३।३।७७] इति वल्पो । ततः परस्याण: "प्योक्तात्" [५१२२५) इत्युप् । नोदेन प्रोक्तमधीयते नोदाः । पैप्पलादाः । "कलापिनोऽण" [ 1] इत्यत्राणमयसामर्थ्यात् अन्यत्राप्यया । श्राचानिनः ( श्रार्चायिनः ) "वैशम्पायनान्तवासिभ्यः [३ ] इति छिन् । वाजसनेयिनः । शौनकादिलात् पिन् । ब्राह्मणानि खल्वपि । तापिडना प्रोत ब्राझणमधीयते तापिडनः । शौनकादिषु "पुराणोक्तेषु माझणकापेपुर' [ग०स०३।२१.७] इति णिन् । भलवेन प्रोकमपीते पूर्ववक्षिणन् । मालविनः । एवं साय्यायनिनः । ऐतरेयिणः। छन्दोमहणेन सिद्ध पृथग बामणग्रहणं किम् । पुराणप्रोक्तखविशिष्टनाक्षणपरिप्रहार्थम् । इह मा भूत । याशवल्केन प्रोकानि याशवल्कानि ब्राह्मणानि | "शकलादिभ्यो वृद्धे" [शरा०] इत्यण । यखम् । सुलभेन प्रोक्लानि मोलभानि "कलापिनोऽया" [१३७१] इत्यन्यत्राप्यण् । याज्ञवल्वयादयोऽवरकाला इति व्यवहारः । चकार किमर्थः १ बाझारासदशनामशानां समुन्चयार्थः । काश्यपेन मोक्तं फल्पमधीयते काश्यपिनः । कौशिकेन प्रोक्त कल्पमधीयते कौशिकिनः । शोनकादिषु "काश्यपकौशिकाभ्याम' [ग सू. ३१५] इति णिन् । गुणभूतछन्दसां च समुच्च
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म. १०२ सू. ५७-६०] महावृत्तिसहितम् यार्यम् । पाराशर्येण प्रोहं सूत्रमधीयते पाराशरिणो भिक्षवः । शिलालिना प्रोक्तमधीयते शैलानिनो नया। शौनकादिषु "पाशशिकालिया भिक्षुनठसूत्रयोः" [ग. सू० ३।३७ ] इति णिन् । कर्मन्देन प्रोक्कमधीयते कर्मन्दिनः । कृशाश्वेन प्रोतमधीयते कृशाश्विनः । शौनकादिवेव "कमन्वहारवान्यामिन्" [० मू० ३।३.] इति भिन्तुनटसूत्रयोरिति वर्तते ।
तदस्मिन्नस्तीनि बोलो ' तदिति नागरिमनितीन यथाविहितं त्यो मवति । यत्तद्वासमर्थमस्ति चेत् वद्भवति । यत्तदस्मिन्निति निर्दिष्ट देशश्वेतद् भवति । समुदायेन खुविषये । इतिकरणाद् भूमादिविषये विवक्षा । औदुम्बरः । वाल्वनः । पार्वतः । मत्वर्थीयोऽनेन वाध्यते ।
तेन निर्वृत्तः ॥१२८॥ देशः खाविति वर्तते । तेनेति मासमर्याद् निवृत्त इत्येतस्मिन्नथें यथाविहितं त्यो भवति देशः खो। ककन्देन निर्वृत्ता काकन्दी। मकन्देन नित्ता माकन्दी। कुशाम्बेन निवृता कौशाम्बी । सारण निता साहस्री परिस्या । सावित्येव । वनेन निवृत्तम् । इह यदाऽकर्मका अपि पवः सगयः सकर्मका भवन्तीति कर्मणि निवृप्तशब्दो व्युत्पाद्यते, तदा तैनेति कर्तरि करणे या मा । यदा वकर्मकविपक्षया कर्तरि निशब्दस्सदा देतो भा।
तस्य निवासादरभयौ ।।३।२॥५६॥ देशः खाविति धर्तते । तस्येति तासमर्थात् निवास अदूरभवहत्येतयोरर्ययोर्यथाविहितं त्यो भवति देश नाम्नि गम्यमाने | निवसन्यस्मिन्निति निासः "इल:'" [राशा०२] इत्यधिकरपये पण । भवतीति भवः । पचायच् । अदूरे भवः निपातनात्सविधिः । यसतेर्निवासः वासातम् । श्रौषुष्टम् । शलाकाया निवासः शालापम् । वाराणस्या अदूरभवा वाराणसी। विदिशाया भदूरभवं वैदिशम् | बीहीमत्या प्रदूरमवं हिमतं नगरम् ।
सुम्छणकटेलसेनढाण्ययफरिफभिकरण्ठणोऽरोहणकशारवश्यं कुमुवकाशतणप्रेजाश्मसविसंकाशवलपक्षकणेमुत्तममवरामकुमुदादिभ्यः ॥३२६०|| बुनादयः पोरश त्या यथासंख्यम
रोहणादिभ्यः षोडशभ्यो गणेभ्यो भवन्ति यथासमवं प्रागुतेषु चतुरर्थेषु । भरीहणादिभ्यो वुन् । रोहन नित' आरोहणकम् । अरोहण द्रुघण दवण खदिर भगल उलुन्द साम्परायण मौष्ट्रायण चैत्रायण त्रैगर्वायन
रायस्पोष विपथ विसाय उद्दण्ड उदान शालायन खाएडायन खएडवोरण काशकृत्स्न बाम्पक्त शिशपा किरण रेषत वैश्य मतायन सौमायन शाण्डिल्यायन सुयश विपाश पायस | कृशाश्वादियश्वण भवति । कृशाश्वेन नित काश्विी यम् । कृशाश्च अरिष्ट वेश्मन् वेप्य विशाल रोमक लोमक पयर शवल रोमश धर्वर सूकर पूतर सइश मुख धूम अधिर विनत अवनत इरस अयस् विपास अनस् अवसाय मौदगल्य । ऋरयादिन्यः को भवति । ऋश्या अस्सिन्देशे सन्ति ऋश्यकः । ऋश्य । न्यग्रोध 1 पर (शिरा)। निलीन | निवास' । निद्यास । वितान । विधान । निबद्ध । बुिद्ध । परिगूढ । उपमूह । उपगूह । उच्चराश्मन् । स्थूलबाहु। स्थूलवाह । खदिर। शर्करा । अनडुङ् । परिवंश ! वेणु । वीरय । मुदादिभ्मयो भवति । कुमुदान्यस्मिन् देशे सन्धि कुमुदिकम् । कुमुद । शक्करा । न्यग्रोध । पर्कट। संकट | इत्कट । मन्तु । बीज। अश्वत्थ । बल्वज। प्रथक । गत । वरिवाप' अस। पवाश । शिरीष । कूप । विकत । कासादिभ्य इको भवति । काशा अस्मिन्देशे सन्ति काशिलम् । पाश । वास । अश्वत्थ । पलाश । पीलूष । विस । तृण । वधूल" । कार्दम । नड । वन । कर। कर्कट । गुहा । सा(शा)कटिक । सत्यादिभ्यः सो भवति । तृणान्यस्यां मन्ति तृणसा। तृण | नड |
१. निदात 40, पू०। २. उत्तरारमन् पू०। ३. परिषाय म०, पू०। ५. वाम ५। ५. वधूल अ०।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. ५ पा० १ ०६१-५ पणं । वर्ण । मूल । वराण' । अर्जुन । जनक । फल । प्रेक्षादिम्य इन् भवति । प्रेक्षाऽस्मिन्नस्ति प्रेक्षी। फलफ । वन्धुक । भुषक घुवफा । क्षिपका । न्यग्रोध । इत्यूट । फएटक । संघट | कपि । परमादिम्यो हो भवति । अश्मानोऽस्मिन् सन्ति, अश्मरम् । अश्मन् । यूथ । ऊथ । मीन | दर्भ । वृन्दा | गुडा | खण्ड । कारख । नग । शिखा । सल्पादिम्यो दण् भवति । सख्या निर्वृत्तं साखेयम् । दान्तेयम् | सखि । दन्त । वासवदच । अग्निदत्त । वायुदच । गोपिलभल्ल | पाल। चक्रवाफ । छगल । अशोक । सिनका । सरकापाल । संकाझाविभ्यो भयो भवति । संकाशेन निर्वृत्त काश्यम् । सेकाश । कम्पिल । काश्मीर । शूरसेन । सुपथिन् । सुपथञ्च । मन्मथ | यूथ | अजनाथ । कुल । अश्मन् । कुटा । मलिन । तीर्थ । अगस्ति । सूर ! विरत । विरह । विकर । मासिका । सादिन् । शादिन् । मगदिन् ! कतिर । सदिर। गडिर| चूदार । मार। कोविदार । गोहल । चक्रवाक | अशोक । करवीरक। सीरफ । सूरक । मसल । मुस्वर । वकादिभ्यो यो भवति । घलेन निर्वृतं वल्यम् । चल । पूल । मूल । अल । तल 1 नल । बच | कश। पानादिभ्यः फण भवति । पक्षण निवृत्तः पाक्षायणः । १क्ष | तुप' । अण्डक । मुगद्ध । कम्बलिक । यका । चित्रा । अस्तिश्वन् । पथिन् पन्य च । कुम्भ । सौरक । सरक । सरस । पङ्गल ! रोमन् । लोमन् । लोमक । इंसक । सकर्णक । हस्व । विल | दिभ्यः फिन भवति । कर्णेन निर्दचः कायनिः। कर्ण । वशिष्ठ । अर्क । लुस । द्रुपद । प्रानडुय । पाञ्चजन्य। किम् । कुलिश । कुम्म । जिवन् । जीवन्त । अएडीवत् । सुवामादिभ्य इस भवति | सुतजमेन निवृत्तः सौतङ्गमिः । सुवक्रम । मुसिविल । विचित। महाचित्त । महापुत्र । श्वेत । अण्डिक । शुक! नि । चौववापिन् | श्वन् । अर्जुन | अमिर । वराहाविभ्यः कण्भवति । वराहा अस्मिन्देशे सन्ति वाराहकम् । वगह। पलाश । शिरीष । विनर । स्थल । निबद | निदग्ध । विजग्ध । विभिन्न । विमग्न । बहु । खदिर । शर्कर । कुमुपादिभ्यः ठण भवति । कुमुदानि अस्मिन्देशे सन्ति कोमुदिकम् । कुमुद । गोमय.। रथकार । दशनाम । अश्वत्य । शाल्मली। मुनिस्थल | कट । शुकर्स | शुचिकर्ण। इति केचित् । श्ररीह. णादिषु कुमुदादिषु परितस्य शिरीषशब्दस्य वरणादिषु दर्शनात् तस्य पक्षे उस् भवतीति चेदितव्यम् | उक्लञ्च भाष्यकता शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः शिरीषः । तस्य वनं शिरीषयनम् ।
जनपद पस् ॥ ३।२६॥ चतुर्वर्थेषु देशे खौ यस्त्यो विहितः तस्य मनपदे देशविशेषेऽभिधेये उस् भवति । पञ्चालख्यापत्यानि पञ्चालाः। पश्चासानां निवासो जनपदः पञ्चालाः। कुरवः । अशाः । उसन्तैन यत्र देशा सुविषयो भवति तत्रायमुस् । इह मा भूत् । उदुम्बरा अस्मिन्देशे सन्ति प्रोडम्बये जनपदः।
वरणादेः ॥३।२।६२॥ वरण इत्येवमादिभ्यस्त्यस्योस् भवति चतुर्वर्थेषु उत्पत्नस्य । अमनपदार्थोऽ यमारम्मः । वरणानामदूरमयं वरणा नगरम् । शृङ्गिशाल्मलयः । शिरीषा ग्रामः 1 गोदी हदो तयोरदूरभवो गोदी ग्रामः । एवम् आलिङ्गथायन । पर्णी ! सपाटी"। जालपदी' मथुग । उज्जयनी । गया । वशिक्षा । उरस् । प्राकृतिगणोऽयम् । तेन वदरी । कटुबदरी । काञ्ची । समन्वपञ्चकन्यादूरभवं समन्तपनकं कुरुक्षेत्रम् इत्येवमादीनां परिग्रहः।
१. चरण इति काशिकायाम् । २. जन पू०। ३. ध्रुवका। धुवका। पू.। धुधक। धुवका । २० । .. ककट पू० । ५. सखि दम्त पू. 1 इ. पिक । गहिरू । भ-पू० । ७. करमीर पूछ । अन । कनाथ पूछ । ८. रुष पू० ।। तुष स. १०. गोमठ ब० स०।1. सफटी . सम्फाटी । १२. जाकपदाब।
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म० ३ पा० २ सू०१३-..] महावृत्तिसहितम्
१८५ शर्कराया था ॥१६॥ शर्करा शाकुत्पन्नस बाफिरख पा उस्मयति । शपशब्दः । कुमुदादिषु वराह्मादिषु च पाठसामर्थ्यात् पक्षे ठणकणोः श्रवयं भवति । शर्कराग्रामः । शरिका शारिकः । "देण" [ ५।२।१२५ ] इति प्रादेशः । अन्ते उत्सर्गस्येमं विकल्पमिच्छन्ति । तेषां शारेत्पपि भवति । अन्यथा विकल्पोऽनर्थकः स्यात् ।
ठणछौ ॥३२।६४॥ उछ इत्येवौ त्यौ भवतः शर्कराशब्दात् चतुर्ध्वर्येषु । शारिकम् शरीयम् ।
नयाँ मतुः ॥३श६५॥ नद्यामभिधेयाया मृदो मतुर्भवति चतुर्थेषु देशे खो। उदुम्बरा अस्यां सन्ति, उदुम्बरावती | वीरावती । पुष्करावती । इक्षुमती । दुमती । कथं भागीरथी भैमरथी माझवी ? वेत्यनुवृत्तेर्व्यवस्था ।
मवादः ॥३॥२॥६६॥ मधु इत्येवमादिभ्यो मतुर्भवति चतुष्वर्थेषु । अनद्यर्थोऽयमारम्भः । मधु अस्सिन्देशेऽस्ति, मधुमान् । मधु | घिश । स्थाणु । पूर्थि । इक्षु । वेणु। कर्कन्धु । शमी । करीर । हिम । किस।। सार्यण । उरुस । बा दर्शकी ! वक्ष्मीक । इएका । शुक्ति | श्रासुति । श्रासन्दी। शालाका । वेयवेण ।
- कुमुवनडवेतसाक्षित् ॥३॥६५॥ कुमृद नह वेतस इत्येतेभ्यश्चतुर्व येषु मतुर्भवति डिच । कुमु . दन्यस्मिन्देशे सन्ति, कुमुद्वान् । वेतवान् । “महिषाच्चेति वक्तभ्यम्" [पा०] | महिष्मान् ।।
शिखाया घलः ॥३०६८॥ शिखाशब्दाद् वलो भवति चातुर्थिकः । शिस्त्रया निवृत्त शिस्खाया अदूरभवं वा शिखावलं नाम नगरम् ।
नहशादाडित् ॥ ३२२.६६॥ ननुशादाभ्यां क्लो भवति डिश्चतुलयेषु । नडा असिन्देशे सन्ति नवलः । शाडबलः।
उत्करावेश्वः ॥३२७० ॥ उरकर इत्येवमादिभ्यश्लो भवति चतुलथेषु यथासम्भवम् । उत्करेगा निवृत्तम्, उत्करीयम् । उत्कर । संकर । सम्फल । पिपल । मूल । श्रश्मन् । अर्क । पर्ण" । खण्डानिन । अग्नि | तिक । कितव । आतप | अंशक' 1
नडादेः कुक ॥३१७१॥ न शब्द अादियस्य नहादिः, तस्मात्, न इत्येवमादिभ्यो यथासम्भव चातुर्थिकश्छो भवति कुगागामश्च | नडा अस्मिन्देशे सन्ति नदकीयः। नड । लच । विश्व | बेषु । वेत्र । वेतन : तृण । इक्षु 1 काठ । कपोत | क्रौश्या प्रादेशरच | सक्षम तसच।
शेषे ॥३२॥७२॥ अपत्यादयश्चतुरर्थपर्यन्ता येऽर्या उकास्ततोऽन्यः शेषः, शेषेऽर्थविशेष यथाविहितं त्यो भवति । चतुर्मिकाते चातुरं शकटम् । अश्वैरुहाते प्राश्वी रथः। चक्षुषा गृह्यते चातुर्ष रूपम् । श्रावणाः शब्दः । दार्शने स्पाशनं च द्रव्यम् 1 दृषदि पिष्टाः दार्षदाः सक्तवः। उलूखले तुण्याः, बोलूखयो यायकः । चतुर्दश्यां दृश्यते चातुर्दशं रक्षः । अनुष्टुमादिरस्य प्रगाथस्य, श्रानुष्टुभः । पालः। जागतः । स्वार्थे ऽनुष्टुबेव आनुष्टुभम् । पातम् । डागतम् ! "तेन र साम ।" क्रौश्वन दृष्टं साम, क्रौञ्चम् । वासिष्ठम् । वैश्वामित्रम् ! मायूरम् । "बामदेवायो चलव्य" [चा.] । बामदेवेन दृष्टं वामदेव्यम् । किपिद्दष्टे सामान जाते भार्थं योऽन्योऽण विधीयते स च जिद्भवतीति वाम्यम् ।' उशनसा दृष्ट साम श्रौशनम् । श्रौशनसम् । शतभिषधि जातः शातमिषः शातभिषजः । "काकाहनि" [२।२।१३३] प्राप्ते
1. पृष्टि म०, ३० । २. सीर्यण ३० । ३. आका पू० । ४. पर्ण । सुपर्ण | -1, पृ० । १.-जिन । वळाजिन | अग्नि ब०, पृ. । ६. अशंक 01
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम्
[ ० ३५० ३ ० ५३-६०
"साम्योऽवर्षाभ्योऽ' [३।२।१२७] इत्यन्यू | "टे सामभि वृदादश्वद् वक्तव्यम्” [ पा० ] | वेन साम, श्रवकम् । कापटवकम् । “वृद्धचरणायित्" [३/३/२४] इति वुन् ।
"हे सम्मनि जातेच थोम्योऽथ वा विद्विधीयते । तीमादीकय् च विद्यार्थी वृद्धावुभविष्यते ।" शेष इति लक्षणमधिकारश्चायम् । शेषभूतेषु जातादिष्वर्येषु धादयो वक्ष्यमाणा वेदितव्याः । तस्येदं विशेषेष्वर्थेषु श्रपस्यसमूहादिषु मा भूवन्निति ।
राष्ट्रावारपारालौ ||३|२/७३ || राष्ट्र श्रवारपार इत्येताभ्यां यथासंख्यं च ख इत्येती त्यौ भवतः । राष्ट्रे जातः राष्ट्रियः । श्रवारपारीणाः । “विगृहीतापीष्यते" । श्रवारीयाः । पारीयः । “विपरीतापि " पारावारणः । अवारस्य पारे ( रम् ) पारावारः समुद्रः, राजदन्तादित्वात् [11३/६६ ] पर नियम ।
१५६
प्रामाद्य खत्री ||३|२|७४ | ग्रामशब्दात् य खम् इत्येतौ भवतः शेषार्थाऽभिधाने । प्राम्यः | ग्रामीणः । खस्रो जित्कार "स्मि दुभाषिका' [ ४२३१५१] इत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थम् ।
ग्रामीणभार्थः ।
1
करव्यादेर्दकम् ||३|२|७५|| कत्त्रि इत्येवमादिभ्यो ढकन् भवति । कुत्सितास्त्रयो यस्या यस्य वा असौ कलिः, तत्र मातो भवो वा कालेयकः । त्रि । उग्मि' । पुष्कर । पुष्कल | पोदन " | मौदन | उम्चि । कुगिडनी । नगरी । माहिष्मती । चर्मरावती । कुड्या | कुल्या । अनयोर्यखं च "ग्रामाच्चेति क्रव्यम्" [ चा० ] प्रमेयकः | "कुछ कुक्षिमीचाभ्यो यथासंख्यं दास्याध्विति अक्रम्यम्" [ वा० ] कोलेसको भवति श्वा चेत्, कौलोऽन्यः । कौक्षेयको भत्रत्यश्चेित्, कौचोऽन्यः । मैवैयको भवत्यलड्डारश्चेत्, मेवोऽन्यः ।
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मधादेर्दण ॥३/२२७६ ॥ नदी इत्येवमादिभ्यो दण भवति शेषे । नद्य बातो भयो वा नादेयः । नदी । मही । वाराणसी । श्रावस्ती। कौशाम्बी। काशफरी" । खादिरी । पूर्वेनगरी । पावा । भाषा । शील्वा' | दार्वा । सैरान । वडवाया' नृषे इति । श्रत्र केचित् पूर्व नगरीशब्दस्थाने पूर्वनगिरिशब्द पठन्ति । छेदेन च त्यमुत्पादयन्ति । पुरि भवं पौरेयम् । वने भवं वानेयम् । गिरौ भवं गैरेयम् ।
दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण् ॥ २७७ ॥ दक्षिणा पश्चात् पुरस् इत्येतेभ्यस्त्मय् भवति शेषे । दक्षिणस्यां दिशि वसति "दक्षिणाद।" [ ४|१|१०० ] इति श्राकारे कृते दक्षिणा, तत्र भवो दाक्षिणात्यः । पाश्वात्यः । पौरस्त्यः ।
ट्रफ कापियाः ||३|२२७८ ॥ ट्फय् भवति काविशोशब्दात् शेत्रे । कापिश्याम्भवं कापियावनं मधु । कापिशायनी द्राक्षा । "बायु विस्परचेति वक्तव्यम्" ब्राह्रायनी । श्रार्दायनी ।
कोः || ४२७६॥ रङ् कुशब्दात् ट्फय् भवति शैषिकः । रङ कुषु जातः राङ्कवायणो गोः । "प्राणिभीति वक्रव्यम्" । इह माभूत् । राङ्कवः कम्बलः । कथं राङ्कवो गौः १ शेषे कच्छादिपाठात् अपि भवति । मनुष्ये त्वभिधेये परत्वात् " नृतस्त्थयो” [३।१।११६] इति घुय् भवति । राङ्कवको मनुष्यः । प्रागपागुदक्प्रतीचो यः ॥ ८०॥ दिव् प्राच् श्रपाच् उदच् प्रतीच् इत्येतेभ्यो यो भ शेषे । दिव्यः । प्राच्यः । अपाच्यः । उदीच्यः । प्रतीच्यः । यदा प्रागादयः शब्दाः भिसंज्ञकाः कालवाचिनस्तदा परत्वात् "खायं चिरम्प्रास्यि स्तन टू" [ २२५/१४० ] इति व्रनट् । प्राक्लनः |
१. सि पू० । २. पौदन ब०, स० । ३. कण्डिनी ध०, ब०, पू० । ४. स्त्री । यमकारी | सफरी | कासपारी खा- प० । ६.
का०, ब०, पू० । २. कास िफरी पू० । कालपारी
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या ० पू० बेडवाया वर्षे इति काशि० ।
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* पा० २ सू० ८६-८७ } महावृचिसहितम्
मेस्तुट ॥ २॥ झिसंशकायो भवति नहागमः शेषे । प्रत्र परिगणनम् | "अमेहतासिबेम्ब" इति । अमात्यः। इहत्यः। कत्यः । वतस्यः । तत्रस्पः। परिगणनं किम् ? उपरिष्ठात् बातः,
औपरिष्टः । झर्भमाने टिखम् । परतो जातः पारतः। उत्तरादि जातः, औत्तराहः । "दोश्व: श ] एष भवति । श्रारावीयः । "मेघ इति वाकम्पम्" [पा०] नियत सर्वकाल भवं नित्यम् । निसो गत इति वान्यम्" [पा० ] निर्गतो वर्णाश्रमेभ्यो निष्टयः श्वपचादिः ।
वैषमोबस्वसः ॥३२२८२॥ ऐषमस् यस् श्वस इत्येतेभ्यो वा यो भवति । यदा यस्तदा तुट् । ऐषमत्यः। ऐषमस्तनः | खस्त्यः । हातनः । श्वस्त्यः। श्वस्तनः । "श्वसस्तुट् च" [३२३५] इति पाक्षिके ठनि, शौवस्तिकः । "द्वारादेः" [१४२६] इत्पौच ।
रुप्ययोWः ॥रा॥ रूप्यशब्दो धुर्यस्य तस्मात् णो भवति शैषिकः । करूप्ये जाता बार्करूप्यः । दुसंशायां परत्वात् "अन्ययोड:" [AIRE ] इति धुञ् भवति । माणिरूप्ये पातः, माविरूप्यका
दिगावरलो ॥३२२८४॥ दिग्विशेषादेमुंदा असो वर्तमानात् यो भवति । व्यगोऽपवादः । शेषे । पूर्वस्यो शालायां भवः पौर्वशालः। “द' [३६] षसः। एवम् श्रापरशालः । दाक्षिणशालः | अखाविति किम् ! पूर्वेषुकामसम्या मासः, पूर्वेषुफामसमः । अपौषकामसमः | दिक्संस को" !!३.] इति सः । "प्राची प्रामाणाम्'' [२] इति द्यौरैप् ।
मदेभ्योऽण शश-५॥ दिगादेरिति वर्तते । दिगादेमंद्रशब्दात् अण् भवति शैषिकः। "बहुखेदोरपि' [10] इति बुम प्राप्तः। तदपवादे "जिमद " [ER/104] इति के प्राप्त पुनरोनाए । पौर्वमद्रः । वापरमद्रः। "दिशोऽमद्राणाम्" [२।२।८] इति पयुंदासादादेरैप् । दिगादेरित्येव । मद्रकः । प्रारम्भसामर्थ्यादेवाणि सिद्ध अण्णायं राष्ट्रलक्षणस्यापि बुओ बाघनार्थम् |
पबद्यादेः ॥२८॥ पक्षदी इत्येवमादिभ्योऽय् भवति शैषिकः । पलद्या पातः, पालदः साखर "चा साम्मः" [1501] इति दुसंशायां छ: प्रसण्येत | इह वाहीशब्दश्छवाधाथमुपात्तः । गौष्टीनैवीशब्दाभ्यां छः प्रातः । वाहीकशब्दस्वाञ्च उभिठी प्राक्षौ । गोमतीशब्दात् "रोहीतो: प्राचाम्" [11] इति शुभ प्रातः । “योविंशे उम्' [२५] इत्यत्र ( इत्यतो) देशग्रहणमनुवर्तते । गोमती च नदी | "मियकिङ्गो नदीवेश" [ ३] इत्यत्र शापितं नदीदेशमाणेन न गृह्यते । गोमत्यां मया मत्स्या गौमता इति । वसादिष्ठ पाठोऽनर्थका । एकीयमतमेतत् । अथवा इदमेव ज्ञापकम्, नद्यपि देशग्रहणेन गृह्यते। "मिश्चखिो नदीदेश' [ २] इत्यत्र नदीपाहणं बलाशनियमार्थमुक्तम् | भवदुदकानां कूद पकवद् भवति (न) स्थिरोदकानां कूपसरत हागानाम् । वैश्वामित्र' च तडागं परत्कूपच वैश्वामित्रवरकूपौ। शूरसेनशब्दात् "यक्षुरषेदोरपि" [ ०३] इति बुद्ध प्राप्तः । पलदी । परिषत् । यकृत । जोमन् । नसब । पटचर । वाहीक । फलको बहुकोट । कमलभित् । गोष्ठी । नैफेती । परिखा। उदपान । रोमक । शरसेन । गोमदी।
शकलादिभ्यो वृद्ध ॥३२|७॥ शकला इत्येवमादिभ्यो वृद्धं यो विदितस्त्यस्तदन्तेभ्योऽण भवति ऐषे । शाकल्यस्य छात्राः शाकलाः । "क्यष्पना त्यापस्यस्य" [ 1] इति यलम् । कारावस्य छात्राः फारवाः । गौषत्यस्य गौकक्षः । कोरिटन्यस्य कौरिजनः । वृद्ध इति किम् । शकलो देवताऽस्य शाला शाजल्येदम् शाकलीयम् । उत्तरार्थ व ग्रहणम् ।
1. ननु "रोकोतो:" हत्यत्र देशमणमनुवर्तते । म०, ५० ।
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१८८
जैमेन्द्र भ्याकरणम्
[म. ३ पा० २ सू० ८५-१५
इनः ॥३२२८८|युद्धे यो विहितः इञ् तदन्वादण भवति शेषे । दारिद दाक्षम् | फाक्षम् । वृद्ध इस्येव । सौतङ्गमेरिदं सौतनमीयम् ।
न द्वयम: प्राच्यभरतेषु ॥३।२।८९॥ दूषचो मृदः प्राच्यभरतात् वृदादिमन्तादणु न भवति । पूर्वेण प्राप्तस्य प्रतिषेधः । प्राच्येषु चैद्रीयाः । पौषीयाः । भरतेषु काशीयाः । वासीयाः । यच इति किम् । पानागारेश्छात्राः पानागाराः । प्राच्यमरतेषु इति किम् १ दाक्षाः । झाक्षाः । "काश्यादेखिठी" [ १] इत्यत्र चेदिशन्देन साहचर्याद्देशवाचिनः काशिशब्दस्य ग्रहणम् । इह वृद्ध त्यान्ताच्छ उदाढतः । ननु भरताः प्राच्या एवं तेषां किमर्थ पृथगुपादानम् । अन्यत्र प्रान्यग्रहणेन मरतग्रहणं मा भूदित्येवमर्थम् ।
दोश्छः ||३RIEO|| वृद्ध इति निवृत्तम् । सामान्येनोपादानात् । दोदश्छो भवति शेषे। सौतारीयम् । मालीयम् । "रूप्यद्योः" [शक्ष८३] छ (छ) बाधिला परत्वात् “धन्वयोः " [३३२६] इति बुम । माणिरूप्ये भवः माहिरूप्यका । "उदीयमामात् प्रस्थचोरण बकम्यः" [वा.] माषीप्रस्थम् । माहकोप्रस्थम् ।
भषवष्ठणछसौ ॥३RE१॥ दोरिति वर्तते । भवच्छन्दात् ठण् छस् इत्येतो त्यो भवतः शेषे । सकारः "सिति" इति पद संज्ञार्थः । भावकम् । भक्दीवम् | "मृद्ग्रहणे शिकविशिरस्य भवतीशब्दस्य ग्रहणे ठण्यसो: 41:इति पदयनाणे पक्ष्यासन पुंषभावं तदेव रूपम् । यस्त्यदाविषु न पक्ष्यते शत्रन्तो भवच्छन्दः, तस्मादणि भावतमिति ।
काश्यावेष्टपिठौ ॥३।२।१२॥ क्राशि इत्येवमादिभ्यः ठञ् पिठ इत्येतो त्यो भवतः शेमे । कार उच्चारणार्थः। फाशनो पनपदः तत्र जाता काशिको, काशिका । वैदिकी, वैदिका । काशि । वेदि | सविशति । संवाह । अच्युत | मोदमान । संकुलाद । इस्तिकर्ण । कुनामन् | हिरण्य । करण | गोवासन | मौरिति । भौलिङ्गि । अरिन्दम । शकमित्र | देवदत। दामित्र । दासग्राम | गोवाइन । तरङ्ग । सोदावतामि' । युवराज । उपरान । सिन्धुमित्र । देवराज । “मापदादिपूर्वपदात् काकान्ताद मिठो बच्चम्यौ" [वा.]। आपत्कालिको । प्रापत्कालिका | प्रोकालिकी । प्रौर्घकालिका । प्रापद् । ऊर्ध्व । कूप । अनु | पूर्व। इत्यापदादिः । दोरिति वर्तते । यत्रादुसंज्ञास्तेषां वचनाद् प्रणम् । दोरधिकारस्य तु प्रयोमनं देवदत्तस्य प्रागदेशे वर्तमानस्य दुसंज्ञा न बाहीकप्रामे । दोरेख ठभिठौ । कथं भाष्ये प्रयोगः देवदत्तीयाः । देवदत्ताः इति । "या माम्नः' [11] इत्यत्र वेति व्यवस्थितविभाषा के कर्तव्ये दुसंज्ञा भववि उभिठयोन भवति।
वाहोकमामेभ्यः ॥३।२६३॥ दोरिति वर्तते । वाहीनामेभ्यष्ठमिठो भवतः शेषे | सकलायाता, साकलित्री, सालिका । मान्यपिको | मान्यपिका । कारतायिकी । कारतायिका ।
पोशीनरेषु ॥२६४॥ दोरिति वर्तते । उशीनरेषु वे ग्रामाः, तद्वाचिभ्याटमिठौ वा भवतः । आहूजालिकी, पाहूालिका, ग्राहूजालीया । सौवर्शनिकी, सौदर्शनिका, सौदर्शनीया ।
ओर्देशे ठम. ॥३२१९५|| बह दो रदोश्च विधिः । उत्तरसूत्रे पुनर्दुग्रहणात् | उवन्ताद्देशवाचिनो मृदष्टम् भवति देशे। निषादका पातः, नैषादकर्युका । पदश्चरबन्तुका | छत्य परसादयं ठञ् बाधकः । दाक्षियुकः । दोष्ठनिटयोरपि बाधकः । पाकमामे, नापितवास्तौ माता नापितवास्तुकः । देश इति किम् । पटोश्छात्राः-याटवाः।
1. कीयाः म०, १०, पृ०, । ३. सौधावनानि । सोधावधामि प० । १. एपमारजन्तुका - मा, प० । एयबासन्तुक 4.।
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म ३ पा० २ मू०१६-१०३] महावृतिसहितम्
दो प्राचाम् ॥३२९६॥ उद्देश (प्रोदेश)इति वर्तते । उवर्णान्चाद्दोः शन्देशवाचिनष्ठम् भवति शेधे । दोरदोश्न पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमेतत् । दोरेव भाषां न यो प्राकचा मुकः । नाशयास्तुमः । दोरिति किम् ? मजवास्तु मालवास्तवः ।
कन्यायाः ॥३२॥९७॥ कन्याशब्दाहम् भवति शेषे । कन्था प्रावरणम, उपचागद् देशोऽपि । कान्यिको गौः।
वर्णी घुभ ॥२0६८॥ वणों या कन्था तस्या वुञ् भवति शेषे । वर्ण र्नाम नदः, तस्य अदूरभको जनपदो वाणु:, सद्विषये या कन्येत्यर्थः । कान्थको गौः । कान्यकोऽश्वः । धन्वयोवः ॥
३६॥ दोरिति देश इति च वर्तते । बन्ध ( धन्व )वाचिनो यकारोष्ठश्च देशवाचिनो दोषु न भवति शेषे | प्राचामिति निवृत्तम् । पारेनन्ध धन्ध नि जातः, पारेमन्ध( धन्य कः ।
आपारेबन्ध, धन्य )क: । पाराबतकः । योद्धः । साङ्कास्यकः । काम्पिल्यकः । ठमिनठाभ्यां योको वुझ परवात् । वाहीकग्रामे। दासरूप्ये जातः, दासरूप्यकः । “आदेशे" [३।२।१५] ठत्रः परत्वाद्योडो थुत्र भवति । श्रात्रौतमायो बातः, यात्रीतमाययकः ।
प्रस्थपुरयहान्तात् ॥३२२१००11 दोरिति देश इति च वर्तते । प्रस्थ पुर वह इत्येवमन्तादेशवाचिनो दोर्बुञ् भवति । स्याफ्यादा। दोरित्यधिकारात्तदन्तत्वे लब्धे अन्तग्रहणमनर्थकमिति चेत् ; असल्यन्वग्रहणे तदर्थवाचि दुसझं गृह्येत । यया पूर्वसूत्रे कन्धा ( धन्वा ) थवाचि दुसंज्ञ गृहीतम् | मालापस्थे जातः । मालाप्रस्थकः । सौ (शो) याप्रस्थकः । क्षान्तिप्रस्थकः । नान्दीपुरकः । कान्धीपुरकः । पैलवहकः । फाल्गनीवहकः । पुरान्ताद् "रोलीतो: प्राचाम् ' [३।२।१] इति सिद्धेऽप्यप्रागर्थे वचनम् । प्रस्थाद्यन्तात् ठनिकाभ्यां परत्वेन धुन् । पानप्रस्थकः ! कौकुशीवहकः । एतेभ्यो वाहीकयामत्वात् मिठो प्रासो।।
रोशीतोःमाचाम् ॥३२॥१०१॥ दोरिति देश इति च वर्तते । प्राग्मत्या देशविशेषणम् । रेफोर्ड इकारान्ताच दोः प्रागदेशवाचिनो बुध भवति शेषे । छापवादः । पाटलिपुत्रकः । ऐकचककः । ईतः खल्लपि । करकन्दी, काकन्दकः । माकन्दी, माकन्दकः । प्राचामिति किम् १ दाचामित्रीय । तपरकरयमसन्देहार्थम् ।
___ राष्ट्रावध्योः ॥३।२।१०२॥ दोरिति देश इति च वर्त्तते । देशविशेषणं राष्ट्राऽवधी । राष्ट्रका चिनस्तदअधिवाचिनश्च दोर्युज. भवति शेषे । छापवादः | आभिसारे जातः, प्राभिवारकः । राष्ट्रावधेः, श्रीपुमकः । श्यामायनकः। अवधिग्रहणेनापि राष्ट्र गृशते । किमर्थ तधुपादानम् । बाघकवापनार्थम् । "गरीयो" [१९६०] राष्ट्रावधेः परमएछ बाधित्वा शुभेव भवत्युत्तरसूत्रेण । गर्तकः । इदं च प्रयोजनम्-मौझिर्नाम वाहीकानामवधिमामः, तत्र भवो मौशीयः । ग्रामे अवधी दुभ न भवति ।
बहुत्वेऽदोरपि ॥२।१०३|| राष्ट्रावथ्योरिति वर्तते । बहुस्वविषयान्मृदः अदोरपि दोरपि राष्ट्र वाचिनसदधिवाचिनश्च घुष भवति शेषे | श्रएछयोरपवादः । प्रदो राष्ट्रात्-अमेषु जातः आङ्गकः । वानरः । श्रदो राष्ट्रावधेः । श्रजकुन्देषु जातः, आजकुन्दका। दो राष्ट्रात, दार्वेषु जातः, दायंकः । काम्बधः। दो राखावाकालत रेष बातः, कालखरका । वैकलिशेष बातः, वैकलिशक: । जहष जातः, आवकः । बहुत्वग्रहयं किम् ! जनपदैकदेशबहुत्वेन विवक्षित वुन् मा भूत् वर्तनीषु भव इति । दोः पूर्वेणैव सिद्ध अपिमाइयं किमर्थम् ? उत्तरन्न योरनुवर्तनार्थम् वाधावाधि"शा(न्या)येत(नोतक्रदानेनैव दधिदानस्य, तस्मादधीत्युक्तम् "बोष्ठमः" (३।२।३६] परत्वात् राष्ट्र लक्षणो घुम् । जहषु नावः, जाइनकः ।
1. भाम्जिमस्थ प्र., पू०। २. कौकुजीवहक पू० । कोजीवहरूः म.। कौस्कृजीवहकः ब० । ३. हि पृषशुपादानम् अ०, १०, पू० | ५ धे: । अजीदे (है) पु जाता, भाजमोद (5) : पू० । .५ विज्ञायेत बा।
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१९०
जैमेन्द्र-व्याकरणम्
[म. पासू.
कच्छाग्निवक्त्रवर्स (गर्त घोः ॥३।२।१४॥ कल्छ अम्नि का वर्त (गर्न ) इत्येवं योर्देश. वाचिनो मृदो दोरदोश्च घुम् भवति शेषे । छागोऽपवादः । भरुकन्छे पातः, मारुकच्छकः । पैप्पलीय 1 काण्डाग्नी जातः काण्डाग्नकः । वैभुमाग्नकः । तेन्दुवक्त्रकः । सैन्घुवयकः । बाहुवर्तकः । चाकवतंकः ।
धूमादेः ॥३।२।१०५॥ धूम इत्येवमादिभ्यो बुञ, भवति शेषे । अगादीनामपवादः । धूमे बातः, धौमकः । धूम । घण्ड ] शशादन । अर्जुनवा । दण्डायन । स्थली । माणवस्थली । घोषस्थजी । पोषस्थली । माहकस्थली । राजा । सत्रासाह । भक्षास्थली । समुद्रस्थली । मद्रस्थल । अञ्जलीकूल । दयाहाव । थाहाव । संस्कीय । पर्वत । गर्म । विदेह । श्रानत । अनयोरराष्ट्रार्थ महम् । पादूर । पाषेय । योकोऽप्यदेशार्थ ग्रहणम् । घोष | सन्य । पल्लि । श्राराज्ञी । श्राराशकः । धार्च राशी । धागशः । इत्येवमादिग्रहणमप्रागर्यम् । अभय । तीर्था । तीरक्लासौवीरेषु । कोलमन्यत् । समुद्रान्नावि मनुष्ये च । सामुद्रमन्यत् । कुक्षि । अन्तरीप । अरुण | उज्जयिनी । दक्षिणापथ | साकेत ।
मगरासादाययो । १०६॥ कुरा निन्दा, दावं नैपुण्यम् । एते त्यार्यस्य चातादविशेषग्यम् । नगरशब्दाद् अन्न. भवति शैषिक: कुस्यदाययोर्गम्यमानयोः । तत्र कुत्सायां केनाऽयं मुषितः । इह नगरे मनुष्येण । सम्भाव्यत एतत् । नागरकाचीग हि जागरूका मान्ति । केनेयं वीणा वादिता इह नगरे मनुष्येण । उपपद्यत पवनागरको ( कैः ) निपुणा हि नागरका भवन्ति । कुत्सादाक्ष्ययोरिति किम् । नागरः पुरुषः । अत्यादिषु नगरीशब्दः एव्यते । तस्माद कलि नागरेयक इति भवति ।
मनुष्याविष्वरण्यात् ।।३।२।१०७॥ अरण्यशब्दान्मनुष्याभिधेये शैषिको पुञ् भवति । "मरण्यायो वातम्यः" [वा०] इत्युक्तम् , तस्यायमपवादः । श्रारण्यको मनुष्यो वा पन्था वा अध्यायो का न्यायो वा विहारो वा इस्ती वा । एते मनुष्यादयः | "का गोश्येविति वनाम्यम्"[घर०] श्रारण्यका श्रारण्या गोमयाः । मनुष्यादिष्विति क्रिम् । श्रारण्या श्रोषधयः ।
कुरुयुगन्धरेभ्यो था ।।३।२११०८॥ कुरु युगन्धर इत्येताभ्यां शैषिको वुभ भमति । 'राष्ट्रम्पो वा (राष्ट्राबध्यो:)" [२२] पति "बहुस्वेचोरपि [१२/१०३] इति नित्ये बुनि प्राप्दै विकल्पोऽयम् । कुरुषु जातः कौरवकः । कच्छादिपाठादापि भवति । कौरवः । वाग्राहयं युगन्धरार्थमेव । युगपरेषु मातः यौगन्धरकः । यौगन्धरः । नुतस्थयोरभिधेययोः कुरुशब्दान्नित्यो बुम भवति । कौरवको मानुष्यः । कौरव कमस्य जल्पितम् ।
वृजिमवात् का ॥३।२१०६॥ वृजिमशब्दाभ्यां को भवति शेषे । राष्ट्रलक्षणस्य "बहुखेश्वोरपि" [३।२।१०३] इत्यस्य चुनोऽपवादः । वृजिकः । मद्रकः । यस्मिन्प्रकरणे जनपदास्तेषु "स-स्पषिधी (म) सदन्तविधि"रिति प्रतिषेधे प्राप्त सुसजिविक्छन्दयो जनपदस्य" [40] इति सर्वत्र तदन्तविधिः । सुमागधः। सर्वमागधकः। अर्धमागधकः । पूर्वमागधकः । सुमद्रकः । सर्वमद्रकः । अर्धमद्रकः। दिवशन्दपूर्वकत्वे तु मद्रशब्दस्य दिगर (गा) देखो" [[ ] "म योजना" [१८५] इत्यपि । पोर्वमनः।
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१. मात्र गतंयोरिति पाठः सुवचः । पूर्वत्र राष्ट्रावभ्योरिति सूत्रवृत्तौ बुणेयोत्तरसूत्रेग्य गतका । इस्युक्त: । बाहुधर्शकः । चाक्रवर्णकः । इत्युदाहरणमप्यत्रोक्तं चित्यम् । २. शष्प . ., स.। ३. --यात पुतनागरको (कै) निपुणा भवन्ति । के-4.- एतसागर ( 2 ) चौस हि नागरका भवन्ति । फेने-म, पूछ ।
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म. ३ पा० र सू० ११०-१४] महात्तिसहितम्
१९१ कोकोऽण शिश११०॥ देश इति वर्वते । देशवाचिनो मृदः कारोडोऽए भवति । "बहुवेड पोरपि [11] इति धुनोऽपवादः । ऋषिकेषु मातः प्रार्षिकः । माहिषिकः । श्राश्मकः । कमियाकुक्षु जात पेचवाक इति ? उच्यते, "ओ" [३।९।१५] इति प्राप्तः, तं बाधित्वा परबाद् "बहुत्के दोमपि पनि नुन जासः, नापि परबाटगमगण गते । 'भौग्राहस्य' [शा१] इत्यादिना उख निपात्यते । देश इति वर्तते ।
कच्छायः ॥२२१११॥ कच्छ इत्येवमादिभ्यो देशवाचिभ्योऽणू भवति शेषे । धुओऽपचादः । फाच्छः। शब्दादबहुत्वविषयादुत्सर्ग एवाण सिद्धः। तस्य नृतत्स्थयोर्छन् यया स्यादित्येवमर्थः पाठः। कच्छ। सिन्धु । वर्ण। गन्धार। मधुर। मधुरात् । श्रस्याप्युनरत्र वुअर्थः पाठः । दीप । अनूप । अनावह । विशणपक ! अस्यापि फोटो तुअर्थः पाठः । कुलूत । रङ्गः ।
नृतरस्थयोवुन ॥३२११२॥ कच्छादेरिति वर्तते । नरि तस्थे चाभिधेये पच्छादेवुन भवति । अणोऽपवादः । कान्छको ना। काब्छुकमस्य हसितं अल्पितम् । काच्छिका चूला। सैन्पवको मनुष्यः ! सैन्धवकमस्य हसितं अल्पितम् । सैन्धविका चूला । नृतत्स्थयोरिति किम् ? कान्छो गौः । सैन्धवोऽश्वः ।
गोयधाग्यपदाती सल्वात् ।।३।२।११३॥ गवि यवाग्वामपदातौ च मातादौ सल्वशन्दाद् "बहुस्वेऽधोरपि" [१०] इत्येव घुसिद्धः। नियमार्थमिद मुख्यते। एतस्मिन्नेव जातादिविशेपे वुश् यथा स्यात् । अन्यत्र उत्सर्गापवादोऽय भवति । द्विशेषयामपदातिग्रहणम् | कच्छादिष्क्स्य पाठोड नर्यकः । सल्वेषु प्रातः सात्वको गौः। साल्विका यवागूः। नृतत्स्थयोरित्येतदत्र' वर्तमानमपदाति विशेषणम् । साल्वको मनुष्यः ! साल्वकमस्य हसितं बल्पितम् । साल्विका चूला | एतेषु बुञो नियमादन्यत्र साल्वं वस्त्रम् । साल्याः पदातयः।
गधगहादिभ्यश्छः ॥३।२।११४॥ गर्न इत्येवं चोर्देशवाचिनो गहादिभ्यश्च छो भवति । श्रणादेरपवादः । स्वाचिद्गीयः। बाहीक्यामेभ्य इति ठठियोः प्राप्तयोरनेन पुनश्छः। तृतीयः । शृगालगीयः । श्रण प्राप्तः । देश इत्यधिकारोऽपि गहादीनां सम्भवापेदं विशेषयाम् । गहे मातः, गहीयः । गइ । अन्तस्थ | सम । मध्य मध्यम चाण चरणेत्यस्यायमर्यः । पृथिवीमध्यशब्दस्य मध्यमादेशः । पृथिवीमध्ये शब्दस्य मा मध्यमादेशो भवति । माध्यमीयः कठः। चरणसम्बन्धे निवासलक्षणे त्यायें अणु मवति । माध्यमा इति । उत्तम! ना। मगध । पूर्वपक्ष। अपरपक्ष । अयमसाख | उत्तमसास । समानशील । एकग्राम । एकवृक्ष । विप । इषनीका अवस्पन्द । कामप्रस्थ अस्मात् "प्रस्थपुरवहान्तात्" [३।।..] इति चुत्र प्राप्तः । खाडायनिः । काठोणिः । लावरणिः । शैशिरि । शौङ्गि। प्रासुरि । आइिंसि । श्रामित्रि । व्याडि | भौषि । मास्थि । श्राग्नि । शमि। देवशम्मि। यो गिफतराकि। वाल्मीकि । मालकि । सौमविन् । उत्तर । मुखपार्वतसोः खञ्च । पारर्वचीयम् । मुखवीयम् । जनपरयोः कुक्च | बनकीयम् । परकीयम् । देवस्य च (बा)। देवकीयम् । वेणुकायारका वक्तव्यः । श्राकृतिगणोऽयम् । बैणुकीयम् । श्रोतरपदीयम् । प्रोस्थीयम् | माध्यमकीयम् | मानुकीयम् । चैत्रकीयम् | कृकणवर्णाद् भारद्वाजे देशविशेषे । कृमयीयः । पीयः।
1.-बदुपर्त-पू० ।-रित्येष सबनुवर्त-4.1 २. अन्तरपक्ष पू.। ३. कावेरशि म०, पू.। . मारिव मा५. ज्योति म.। श्रोसि (ौति) ५.१६, वाराकि पू. । वाटारकि प... क्षेमवृतिन् म., ५० । समवृतिन् प० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [.० ३ श. २ पृ. 11५-१२३ प्राचा कटादेः ॥११॥ देश इति वर्तते । तविशेषणं प्राम्पाहणम् । कटादेः शब्दाप्रागदेशयाचिनश्छो भवति शेषे। अयोऽपवादः । कटनगरीयः । क्टमामीयः । कटघोषीयः । कटपावलीयः।
राक्षः क च ॥३२।११६|| असम्भवाद् देश इति नाभिसम्बध्यते । राजशब्दस्य ककारोऽन्तादेशो भवति छश्च । श्रादेशार्थमिदम् । "दोश्क" [२०] सिद्ध एव | राज्ञ इदम् सबकीयम् । एकदेशविकृतस्यानन्यवाद "अनोखं श२०] नाशङ्कनीयम् । तानिर्दिष्टस्यानन्यवद् भाव उक्तः। न हाऽनस्तानिर्देशः, कि तर्हि राजशब्दस्य ।
दोः कसोक शरा११७॥ देश इति वर्तते । दोदेशवाचिनः कारोठा खकारोडश्छो भवति शेपे । श्वारोहणकीयः। द्रौधणकीयः । श्राश्वस्थिके जातः, प्राश्चत्यिकीयः । शाल्मलिके जातः शाल्मलिकीयः । कोड इत्यणि प्राप्ते कः । सोसुके जातः, मौसुकीयः । वाहीकग्रामलक्षणौ ठजिठो बाधिला कोड इत्यय प्राप्तः ( श्राष्टक नाम बन्धः तत्र जावः ) श्राष्टकीयः । बन्धलक्षणं बुज बाधित्वा कोड इत्यम् प्राप्तः माझणको नाम राष्ट्रम्, तत्र जातः, बामणकीयः। "ng" [३/२०१०२] बुनोऽपवादः "कोड:" [URL] इत्यण प्राप्तः । खोकः खल्वपि । कौटिशिखीयः । मारिशिखीयः । कोटिशिखायो वाहीकग्रामः ।
काथापादनगरनामहदद्योः ॥२२॥११८॥ देश इति वर्तते दोश्व इति च | य शब्द: प्रत्येकमभिसम्बद्धयते । अन्धादि द्योदेशवाचिनो दोश्छो भवति शेषे । वाहीकमामादिलक्षणस्य त्यस्यापवादः । दाक्षिकन्यायां जाता, दाक्षिकन्योयः। माइकिकन्यीयः। यदोशीनरेषु प्रामस्तदा नपुंसकलिङ्गत्वम् । "वीशीनरेषु" [A ] ठठियोः प्राप्तिः । यदा तु वाहीकग्रामः, तदा स्त्रीलिङ्गत्वम् । “वाहीकमामेभ्यः" [२२] इति प्राप्तिः । दाक्षिपलदीयः । माइकिपलदीयः। दाक्षिनगरीयः । माहकिनगरीयः। दाक्षिप्रामीयः। माहकिग्रामीयः । दाचिदीयः । गोमयहदीयः ।।
पर्वतात् ॥३।२।११६॥ पर्वतशब्दान्छो भवति शेपे । अणोऽपवादः । उत्तरत्रामधिमापा वक्ष्यते । मत्य इहोदाहरणम् । पर्वतीयो मनुष्यः ।
___ वाऽमत्यै ॥२२१२०॥ मादन्यस्मिन्नमिधेये पर्वतार वा छो भवति । पूर्वेण नित्ये प्राप्त विकल्पोऽयम् । पर्वतीयं फलम् । पर्वतीयमुदकम् । पार्वतमुदकम् | अमर्त्य इति किम् १ पर्वतीयो ना । - यमदस्मदोऽकम् स्वच् ॥३।२।१२१॥ देश इति निवृत्तम् । वेति वर्तते । युष्मदस्मदस्यां वा खन भवति, यदा खम, तदाऽकलादेशः। योष्माकीरणः । श्रास्माकीनः । "कित्" [||५.] इति दकारख्याकादेशः, अकारोचारणासामर्थ्यात् "स्वेऽको दीत्वम्" [१३८८] ! चेत्याधिकारान्छो भवति । युष्मदीयः । असदीयः।
अणि ॥३।२।१२२।। अणि च परतो युष्मदस्मदोरककादेशो भवति । इदमेव शापकम्, युष्मदस्मद् : भ्यामणपि भवति । योष्माकः । पास्माकः ।
तवकममकायेकार्थे ॥२।१२।। अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वेति परिभाषेयमनित्या । अणि खनि च परतो युष्मदसदोरेकार्थे वर्तमानयोस्तवक ममा इत्येतावादेशौ भवतः । स्थान्या देशयोर्यथासंख्यं न लादेशनिमित्तयोः । तावकीनो मामकीनः । वायको मामकः । युष्मार्क युधयोऽयं यौष्माकीणाः । एवम् अास्साकीनः । यौष्माकः । श्रासाकः । अर्थग्रहणं किम् ? तयकममकावेक इत्युव्यमाने, एकवचने परत इति विज्ञाथेत, तदाऽत्र को दोषः १ योष्माकीण मामाकीन इत्यत्राऽप्यादेशविधिः स्यात् । वावकीना मामकीना इत्यत्र च न स्यात्, अतोऽर्थग्रहणं क्रियते 1 तेनैकार्ये वर्तमानयोर्युष्मदस्मदोरेकवचने बहुवचने वा परत आदेशविधिः सिद्धो भवति ।
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म.पा. २ सू० १२४-१३२] महावृत्तिसहितम्
१९३ - योऽद्वात् ॥२॥१२४॥ वेति निकृतम् ! अर्धशब्दाच्चैषिको यो भवति । अयोऽपवादः। अर्धे भवः, अध्यः।
परापराधमोत्तमाः ॥२१२शा पर श्रपर अधम उत्तम इत्येवमादेषशब्दायो भवति शैषिकः । परायः । अवरायः । अधमार्थ्यः । उत्तमायः । "वर्षयु समाहारे" [HINDI]ति षसः । परमदम्परामिति "विशेषणं विशेष्येणेति" [ ५२] से कृते परार्धे पातः परायः। यदा पराऽ वरादिशब्दो दिग्वाचिनौ तदोत्तरसूत्रेण यठगी प्राप्तौ । तदवाचित्वे त्व प्राप्त । अधमोत्तमादेरण प्राप्तः । प्रकृतित्समेतेषां मा विशायीति श्रादिमणम् ।
दिगावेष्टण व ॥३२॥१२६॥ अर्धादिति वर्तते । दिगादेपर्धाच्छैधिकष्टण भवति चकारायश्च । पूर्वाद्धे छातः, पौर्वाचिकः । पूर्वार्थः । दाक्षिणार्द्धिकः । दाक्षिणाई यः । अपरम पश्चाईम् "उपय्यु परिष्टापश्चाद" [10] इत्यत्रा परतोऽपरस्य पश्वभावो वक्ष्यते । पश्चा जासः, पाश्चार्दिकः । पश्चाईयः । "प्रपादेषण वक्तभ्यः" [का०] दिग्छब्दादन्यो यदाऽर्धस्यादिर्भवति तदा उण भवति । पोकयर्दिकः । वैवयार्टिकः ! वालेयादिकः । क्षेत्रार्दिकः । पराऽवरादेस्तु पूर्वेण य एव भवति ।
प्रामराष्ट्रयोरण्ठो ॥३।२।१२७॥ दिगादेरर्धादण् ट इत्येती यो भवतः शेषेऽर्थे प्रामराष्ट्रयोश्चेदई भवति । प्रामैकदेशवाची राष्ट्र कदेशचाची चेदद्धशब्दो भवतीत्यर्थः। मामस्य राष्ट्रस्य वा पूर्वा भवः, पौद्धि: । पौर्वार्दिकः । दाक्षिणा । दाक्षिणार्द्धिकः । पाश्चा। पाश्चार्दिकः ।
मध्यान्मः ॥३।२।१२८॥ मध्यशब्दाच्छषिको म हत्यय त्यो भवति । प्रणोऽपवादः । मध्यमः । "मादेश्चेति वक्तव्यम्' [वा ] आदिमः। "अपाययोः (अयोऽयसो ) पखं चेति पम्पम् । अवमः । अधमः।
सम्प्रापः ॥३।२१२६॥ सम्प्रत्यर्थे जातादौ मध्यशब्दाद इत्ययं त्यो भवति । कः पुन इवार्थ: स्वार्थः । सम्प्रतिकालो वर्तमानः, सोऽतीवाऽनागतयोदयोरन्तराले वर्तते । एवमन्यदपि योरन्तरले वर्तमान सम्प्रतीत्युच्यते । थन्नातिदीर्ध नातिहस्वं मध्यं काष्ठम् । नान्युत्कृष्टो नाप्यपकृष्टो मध्यो वैयाकरणः । मध्या स्त्री।
दीपावनुसमुद्र या ॥२॥१३०॥ समुद्रसमीपे यो द्वीपशब्दस्तस्माच्छैषिको यत्र, भवति । कच्छादिपाठादरणो नृतत्स्थयो नश्वापवादः । द्वैप्यम् । द्वैया स्त्री 1 श्रद्समुद्र इदि किम् ? अनुनदि यो दीपः तस्माद्यमुनादिसम्बन्धे द्वीपे भवम्, पं तृणम् । "हलादि' [३१ ] पाठादण । द्वैपको भ्यासः । "नृतस्पयोः'' [ 11] इति घुन ।
कालाढा ॥२२॥१३॥ कालविशेषवाचिनो मृदः शैषिकष्ठा, भवति । प्रयोऽपवादः । वृद्धत्यं' परत्वाद् बाधते । मासिकः। सांवत्सरिकः । यथा (दा ) कदम्बपुष्पयोगात्कालोऽपि कदम्बएफवाच्या, तत्राऽनेन ठम । कदम्बपुष्पे देयमृणं कादम्नपुष्पिकम् । हिपालालिकम् । तत्र वाता" [Unr] प्रागितः कालोऽधिकारः ।
पाचे शरदः ॥३२२१३२॥ शरच्छन्दाकालवाचिनः श्राद्ध ऽभिधेये शैषिकष्टन, भवति । शरदिति हि ऋतुविशेषः । तत्र "भसन्ध्यातुभ्योऽयोध्योऽ" [३३२११३८] प्रातः, तदपवादोऽयम् । शरदि जातं शारदिकं श्राद्धम् । श्राद्ध इति किम् ? शारदं दधि । शारदं सस्यम् । श्रद्धाशब्देन चात्र रूदिवसापितृकार्यमेवोप्यते, न तु भद्धावान् । तेनेह न भवति शारदा श्रादः। श्रदाबानित्यर्थः ।
1. पूई ०, २०, ५० । २. मत: 1-०, ब०, ५० १ ३, भर्च पृ० ।
२५
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. ३ पा० २ सू० १३३-७० वा रोगातपयोः ॥शश१३३॥ रोगे अातपे चाभिधेये शरच्छब्दाच्चैषिको वा ठन भवति । शारदिकः । शारदो रोग आतपो वा ।
मिशानदोषाभ्याम् ॥३॥२१३॥ वेति चर्त्तते । निशाप्रदोषशब्दाभ्यां वा ठप भवति शेधे । निल्यै कालाइभि प्राप्त विकल्पोऽयम् ! निशा सोदाऽस्य, नैशिकः । नैशः । प्रादोषिकः । प्रादोपः । निशाप्रदोषसहचरितमध्ययनमुपचारात्तथोच्यते ।
श्वसस्तु च ॥३शश१३५॥ श्वसूशब्दाहा भवति । तस्य च टन इमादेशे कृते तुडागमः 1 ठोऽपवादो भिलक्षणस्तुट प्रातः, तंबाधित्वा "मनस्श्वसः" [१२] इति विभाषया ये प्राप्ते अनेन ठा विभाष्यते । वो बातो भयो वा शौयात, मला: । प्रायः मुझे तनम् श्वस्तमः ।
प्रावृष एण्यः ॥३॥१३६॥ प्रावृष' शब्दात् एण्यो भवति शेषे ! ऋखणोऽपवादः । प्रायो बलाहकः । णत्वं किमर्थम् १ प्रावृषेण्यमाचष्टे णिचि किपि अतः खे च ते णकारस्य श्रवणार्थम् ।
भसन्ध्यातिभ्योऽवभ्योऽ शरा१३७॥ कालादिति यतते । "भाशु तः कालः (१ ] इत्यागतस्याणः "उसभे" [शश इत्युसि कृते कालवाचिभ्यो भेभ्यः सन्ध्यादिभ्य ऋतुभ्यो वर्षावर्जितेभ्योऽण भवति शेषे । ठमोऽपवादः । भेभ्यः-तैषः। पौषः । तिष्यपुष्ययोभागि" [ ३५] इति यखम् । सन्ध्यादिग्य:-सन्ध्यायां भषो जातो वा सान्ध्यः। सन्ध्या सविस्खला ( सन्धिवेला)। अमावास्या । एकदेश विकृतस्य श्रमावस्याशब्दस्यापि ग्रहणम् । त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी पौर्णमासी प्रतिपन् । 'संवत्ससरफलपर्वणो:"[गळसू०] सांवत्सरं फलम् । मावत्सरं पर्व । अन्यत्र सांवत्सरिको रोगः । ऋतुभ्यः-शरद्धेमन्तशिशिरवसन्त ष्मः । श्रवर्धाभ्य इति किम ? वर्षासु साधु वार्षिकं घासः। अपमहणं छ्याधनार्थम् । स्वातौ तद ( भवं ) सौघातम् “पचे खोरैयौथ" [५।२।८] इत्यौव ।।
हेमन्तात्तखम शश१३८ हेमन्तशब्दादणभवति तत्सन्नियोगेन चास्य तखम् । हेमन्ते साधुः मनम् । हेमन्तः । (हेमनमनुलेपनम् । हेमनं वासः । ठमपीष्यते ।) हैमन्तिकमिति । हेमन्ततखमिति वक्तव्यम् । कानिदशः पिमर्थः १ केवलेऽप्यऽण (हेमन्ताद) यथा स्यात् । सेन सिद्धम् । हेमन्ती पक्तिः ।
सार्याचरम्पाहणेनगेमिभ्यस्तनट ॥१३॥ कालादिति वर्तते । सायं चिरं पाई प्रगे शन्देभ्यो झिम्यः कालवाचिभ्यस्ननड भवति शेषे । सायचिरंशब्दयोरभिसंशयोत्यसनियोगेन मफारान्तता निपात्यते । सायन्तनम । चिरन्तनम् । प्राइप्रगयोस्त्वेकारान्तता निपात्यते। पाह्नः सोदोऽस्य, प्रातनः। प्रगः सोहोऽस्य, प्रगतनः । ईचन्तात्तनटि "मकालसनेकालेभ्यो धा” [४।३.१३३] प्रत्यनुपा सिद्धम् । प्रातस्तनम् । दिवातनम् । दोषातनम् | "चिरपरस्परारिभ्यस्नो वक्तभ्यः' । वा०] चिरत्नम् । परुत्मम् | परारित्नम् ! "आन्ताविमो धक्तभ्यः'' [ वा० ] अन्तिमम् ।
वा पूर्वापरावहात् ॥३२॥१४०॥ पूर्व अपर इत्येवंपूर्वादहशब्दाद् वा तनइ भवति शेधे । नित्ये कालाहजि प्राप्ते विमाषेयम् । पृाल सनः । पूर्वाहतनः। अपराहतनः । अपराह्नतनः । पौर्वाह्निकम् । श्रापरातिकम् | यदा पूर्वाहः सोदोऽस्य तदा पर्वाहतना, अपराहतनः ।
इत्यभयनन्दिविरचित्तायां जैनेन्द्र महावृत्तौ तृतीयस्याऽभ्यायस्य द्वितीयः पादः समासः ।
१. प्राकृट् प० ।
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अ० ३ पा० १ सू० १-१२]
महावृतिसहितम्
१६५
तत्र जातः ॥३३॥१॥ श्रयादयः परमोत्सर्गाद्यादयश्व शैषिकाः प्रकृताः तेषामितः प्रभृति प्रकृत्यर्थाः समर्थविभक्त्युपादानं च वेदितव्यम् । तत्रेति ईप्समर्थाज्जात इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति 1 सुष्ने छातः स्त्रौघ्नः । श्रोतः । राष्ट्रिय शाकलिकी । शाकशि ।।
इत्येतस्मिन्नर्थे ठो भवति । एण्यस्यापवादः ।
प्रावृषष्ठः ||३|३|२|| प्रावृट् छन्दादी समर्थान्जात प्रावृषिकः । प्रावृषिका खी ।
खौ शरदो ब्रुन ॥३|३|३॥ शरच्छेदाद् वुञ भवति खुविषये । तत्र घात इति तं ते । शारदिका मुद्गा| संज्ञाशब्दानां व्युत्पत्तिमात्रमिदम् । खाविति किम् ? शारदं सस्यम् ।
+
सिन्भवपफरावण् ||३||४|| सिन्धुपकर इत्येताभ्यामय् भवति तत्र जात इत्यस्मिन्विषये । सिन्धुषु खातः सैन्धवः । श्रापकरः । सिन्धुशब्दात् “कच्छादेः ''[३/२/११२] इत्यय् ।'तुस्यो:' [३/१/११३] इति दुम् च प्राप्तः । तयोरसवादे के पकरशब्दादयोऽपवादे उत्तरसूत्रयण के प्रासेऽनेनापि विधीयते ।
I
पूर्वाह्नापरार्द्रा मूलप्रदोषावस्करच कः ||३|३|५|| पूर्वाह्न अपराह्न श्रार्द्रा मूल प्रदोष श्रवस्कर इत्येतेभ्यः सिन्ध्यप कराभ्याच को भवति । तत्र जात इति वर्तते । पूर्वाह जातः पूर्वाहकः । अपराह्नकः। “वा पूर्वापराङ्क्षाः [३३९/३४०] इत्यस्यापवादः । आर्द्रकः । “केभ्यः[५२१२५] इति प्रादेशः । मूलकः । कालवाचिये सति मलक्षणस्याऽणोऽपवादः । प्रदोषकः । "निशाप्रधुरेवाभ्याम् [३|२|११५] इत्यस्य बाधा | अवकरः । श्रयोऽपवादः । सिन्धुकः । अपकरकः । श्राभ्यां पूर्वेणापि भवति ।
पथः पन्थः ||३|३|६|| पथिशब्दात्को भवति सरसन्नियोगेन पथिशब्दस्य पन्थ इत्ययं चादेशः । तत्र जात इति वर्तते । पधि जातः, पन्थकः । अणोऽपवादः ।
चामावास्यायाः ॥ ३३७॥ श्रमावास्याशब्दाद् वा को भवति तत्र बात इत्यस्मिन् विषये । सन्ध्यादिना' [ ३१२/१३७ ] नित्येऽणि प्रासे को विभाष्यते । श्रमावास्यकः । एकदेशविकृतादमाक्स्याशब्दादपि । अमावस्यक | बेखु । श्रमावास्यः । श्रमावस्यः ।
अषाढाच ॥३५॥
"
इत्ययं त्यो भवति प्राढशब्दात् चकारादमावास्यायाश्च । तत्र बात इति वर्त्तते । यति प्राप्तं श्रषाढादिति सौत्रो निर्देशः। अषादायां जातः श्रषादः । श्रघाटा स्त्री । श्श्रमावास्यः । श्रमावस्यः । श्रविष्ठाषाद्वाभ्यां बुजिति वक्तव्यम्' [ वा०] । श्राषिष्ठीयः । श्राघाटीयः । फल्गुन्याष्टः ||३|३|६|| फल्गुनीशब्दाको भवति तत्र बात इत्यस्मिन्विषये । नापो ऽपवादः । फल्गुन्यां कातः फल्गुनः । फल्गुनी स्त्री ।
स्थानान्तादुए ||३|३|१०|| खानान्तादुत्तरस्य जातार्थ श्रागतस्या उभ्भवदि । गोस्थाने बातः गोस्थानः । श्रश्वस्थानः ।
शास्त्राद् गोखरात् ||३|३|११|| गो खर इत्येवम्पूर्ण छालास्परस्य बातायें श्रागतस्य त्यस्योम्भवति । गयां शाखा गोशालम् । खरायां शाला खरशालम् । “सेनासुरच्छाया का नशा वा [२४|११ इि नप् । गोशाले जातः, गोशालः । खरशालः । लिङ्गविशिष्टस्य बलस्यापि "प्युप" [११] दो टाप उपि सति तदेवोदाहरणम् ।
घत्साद्दू वा ||४|३|१२|| वत्सपूर्वात् शाखात्परस्य जादार्थ भागवस्य त्यस्यो भवति वा । बत्स्थाले जात, वत्सशालः । वात्स्यथालः ।
३. भान्यम् प्र०, ४०, पृ० । २. छ्यू चेवि अ०, ब० पू० । ६. स्य स्वस्यो- प्र०, ५०, १०
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[म. ३ पा० ३ सू० १३.५
भेभ्यो बाहुलम् ॥३शश१३॥ भशब्देभ्यः परस्य जानार्थे भागतस्य त्यस्य बहुलमद् भवति । श्रविष्टानुराधास्ताविपुनर्वसुतिष्यहस्तविशाखाबहुलाश्य उबेव भवति"। अविष्ठासु बातः प्रविष्ठः । भलक्षणस्याण उप | 'हपुप्युप्" [14] इति स्त्रीत्यत्योभवन्दि ! अगम: ! ति। पुनर्वसुः । तिष्यः । तिष्यग्रहणे पर्यायग्रहणम् । पुष्यः। हस्तः। विशाखः । बहुलः। वधा "चित्रारेवतीरोडियोम्यः सियामुषेय भवति" । चित्रायां मावा स्त्री अण उप । हसुप्युचिति उप् । पुनष्ठाप । हो । चित्रा। रेवती। रोहिणी । पुंसि न भवत्येव । चैत्रः। रैवतः । रोहिणः । “अन्येभ्यो विमाषा'' | अमिचित् । प्रामिविवः । प्रश्वयुक् । प्राश्वयुजः। ( शतभित्रा)। शातभिषः। कृत्तिकः । कार्तिकः । मृगशिरा । मार्गशीर्षः । शिरसः शीर्षादेशो वक्ष्यते । बहुलवचनादन्यदपि, भयो वा डिस्वम् । शातभिषः । शातभिषयः ।
कृतलम्धक्रीतसम्भूताः ॥३३॥१४॥ तत्रेति वर्तते । जात इति निवृत्तम् । अर्थान्तरोपादानात् । तप्रेसीपसमर्थात् कृत लब्ध क्रीत सम्भूत इत्येतेष्वर्थेषु यथाविहितं त्यो भवति । सुने कृतो वा लम्बो वा क्रीतो श सम्भूती वा सोध्नः । राष्ट्रियः । जातस्यैव विशेषोऽपेक्षितपरव्यापारः खभावनिष्पत्तौ भाषः कृतशब्दस्यायः । सामान्येन प्राप्तं लघशब्दार्थः । मूल्येन प्राप्त क्रीतशब्दार्थः । विद्यमानस्य गुणान्तरयोगः सम्भूतशब्दार्थः । उपचारेणेदं स्वयमुत्पादः सम्भूतत्वं जन्मेति चेत्, एवं तर्हि शापकमिदम् अन्मोपचारे तत्र मात हत्येष विधिन भवति । प्रावृष एण्यः' [३।२।२६] इति एण्यो भवति । प्रावृषि सम्भूतं हिरण्यम् । प्रावषेण्यम् । “प्रावृषष्ठः" [३।३।२] वि ठोऽष न भवति ! पथि सम्भूतं हिरण्यम् इत्यत्र "पथः पन्यः"
शिश इत्येत्र विधिन भवति ।
कुशलः ॥२३१५|| तत्रेतीपसमास्कुशल इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहित त्यो भवति । स्वप्ने कुशल: सोप्नः । राष्ट्रियः । उत्तरोऽपवादविधिः । कुशलेऽर्थे यथा स्यादिति योगविभागः ।
पयो वुन् ॥३॥१६॥ पथिशब्दाद् छन् भवति तत्र कुशल इत्यसिन्विषये । पपि कुशलः पर्यः ।
प्रकर्षावः कः ॥३।३।१७। तत्र कुशल इति वर्तते । आकर्ष इत्येवमादिभ्यः को भवति । श्राम कुशकः अाकर्षक: । प्राकर्ष | सरु । पिशाच । पिचण्ड । अशनि | अस्मन् । निचयः । हादः ।
कालात्साधुपुरुष्यत्पश्यमाने ॥३१८॥ कालविशेषवाचिभ्य ईपसमर्थेभ्यः साध्वादिष्वर्येषु यथाविहितं त्यो भवति । हेमन्ते साधु, हेमन्तं वस्त्रम् । शैशिरं भोज्यम् । वसन्ते पुष्यन्ति, घासन्त्यो लताः । म्यो लताः । शरदि पन्यन्ते शारदाः शालयः। ष्मा यवाः । अतुलक्षणोऽण सर्वत्र ।
बन्ने १९॥ तत्रेति ईपममर्थात्कालविशेषवाचिन उप्तेऽयं यथाविहित त्यो भवति । शरदि उप्यन्ते शारदा ययाः । ग्रेमा शालयः । उत्तरार्थो योगविभागः ।
आश्वयुज्या युन. ॥२३॥२०॥ आश्वयुजीशन्दादोप्समर्थाद् वुम भवति उप्तेऽर्थे । आश्वयुज्यामुप्ता नाश्वयुबका मुद्गाः । निरकरणमुत्रार्थम् ।
ग्रीष्मपसन्ताद् वा ॥३॥३॥२९॥ श्रीष्मयतन्तशब्दाभ्यामीपसमर्थाभ्यां बुन, भक्त्युसेऽर्थे वा । नित्यम् लणि प्राप्ते विकल्पः । ग्रीष्मे उताः प्रेमका मेष्मा पा शालयः । वासन्तका वासन्ता वा यवाः ।
देयमूणे ॥३॥३॥२२|| तत्रेति यते । कालादिति च । बालविशेषवाचिनः ईप्समर्थाद् देयमित्येतस्मिमर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद्देयमूएं चेद्भवति । मासे देयमृणं मासिकम् । प्रार्धमासिकम् | सांवत्सरिकम् । ऋण इति किम् ? मासे देया भिक्षा।
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३ पा० सू० २३- ३१ ]
महावृत्तिसहितम्
१९७
कलाप्यश्वस्थय यसाद् बुन् ||३|३|२३|| कालाद् देयमृण इति च वर्त्तते । कलापिन् अश्वत्थ यववस इत्येतेभ्य ईसमर्थेभ्यो वुञ भवति देवमृणामित्येतस्मिन्नर्थे ठञो ऽपवादः । यस्मिन्काले मयूरा हो वा कलापिनो भवन्ति स कालः तत्साहचर्यात्कलापी । यस्मिन्नश्वत्थानां फलं सोऽश्वत्थः । यस्मिन्यव भवति, सः यम् (सः) १ कलापिनि काले देयमृणम्, क्लापकम् । श्रश्वत्थकम् । यवनुसकम् ।
भीष्मा
शो
भवति । तत्र देयमृणमिति वर्त्तते । मीष्मे देयमृणम् भैष्मकम् । खगोऽपवादः । श्रावश्खमकम् । उञोऽपवादः । श्रवरसमा श्रवरसमम् । “तिष्ठद्ग्वादि" [ १|३|१४ ] इति इस इत्येके ।
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संवत्सराऽग्रहायणीभ्यां न च ॥३२॥ संवत्सर आग्रहायणीशब्दाभ्यां ठञ भवति भूव । तत्र देयमृणमिति वर्त्तते । संवत्सरे देवमृणं सांवत्सरिकम् । सांवत्सरकम् । श्रमहायदिकम् । श्राग्रहायणकम् । येति वक्तव्ये उत्ग्रहणं सन्ध्यादिषु "संवत्सरात्फलपर्वणोः " [ग० सू० १२ ११०] इत्यस्याणो बाधनार्थम् ।
रीति मृगः || ३|३|२६|| तत्रेति वर्त्तते कालादिति च । कालविशेषवाचिन ईएसमर्थाद् रौति मूग इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविदितं त्यो भवति । निशायां शेति मृगः, नैशिकः । नैशः । प्रादोषिकः । प्रादोषः । “निशाप्रदोषाभ्याम् [३।२।१३४ ] इति ठत्रणौ । मृग इति किम् ? निशायां शैति उलूकः ।
तदस्य सोढम् ||३|३|२७|| सोदमभ्यस्तम् । कालादिति वर्त्तमानमर्थाद् वान्तं सम्पद्यते । तदिति वासमर्थात्काल विशेषयाचिनो मृदोऽस्येति तार्थे यथाविदितं त्यो भवति । यत्तद्वासमर्थं सोदं चैतद् भवति । निशा सोदाऽस्य वैशिकः । नैशः । प्रादोषिकः । प्रादोषः । साहचयन्निशः दिशन्देनाध्ययनमत्रेष्टम् ।
तत्र भवः ||३|३|२८|| लब्धात्मलाभ उपलभ्यमानो भवः । तत्रेतीप्समर्थाद् भव इत्येतस्मिन्नर्थे विहितं त्यो भवति । लौघ्नः । राष्ट्रियः । श्रनुवर्तते तत्रग्रहणं कालसम्बन्धम् ( सम्बद्धम् ), पुनस्त प्रइयं कालनिवृत्त्यर्थम् । इह प्रायभवग्रहणं च कर्त्तव्यम् । अनित्यभवः प्रायभवः । प्रायभवः सौन मनुष्यः । नियतो भवस्तत्र भवः । यथा खौनः प्राकारः । न कर्त्तव्यम् । तत्र भव इति प्रकृत्य "जिला सूखाझुकेः" [२|३|३८] छो विधीयते । स यथैव तस्मिन्दृष्टापचारे अङ्गुलीयमित्यादौ भवति एवं प्रायभवेऽपि भविष्यति ।
दिगाषेयः ||३|३|२६|| दिश् इत्येवमादिभ्यो यो भवति । तत्र भव इति वर्त्तते । प्रणय चा यमपवाद। | दिशि भवो दिव्यः । दिशू | वर्ग | पूम। गण पक्ष । वाप' । मित्र | मेवा । अन्तर | पथिन् । रहस् । अलीक । उखा । साक्षिन् । श्रादि । श्रन्त | मुख जवनग्रामदेदाङ्गार्थम् । सेनामुखम् । सेनावधनमिति । मेघ । बूथ | "उदकात्संज्ञायाम" [ग० सू० ] उदस्या लो। औदकोऽन्यः । न्याय । वंश | अनुवंश | वेश । आकाश |
देशात् ॥ ३/३/३० ॥ श्रङ्गमवयवः । देहाङ्गवाचिनो यो भवति तत्र भव इत्यस्मिन् विषये । श्रयोऽपवादः । तत्र तु परत्वादेव बाधकः । दन्तेषु भवः, दन्त्यः । श्रोष्ठ्यम् । मुख्यम् । तालव्यम् । दह तदन्तविधिर्यक्कृव्यः । कण्ठतालव्यम् । दन्तोष्ठ्यम् ।
इकिल सवस्तयत्र हेर्दन ॥३/३/३१॥ इत्यादिभ्यो न भवति । तत्र भव इति वर्तते । तो भवं दाचेंयम् । भोऽपवादः । देहाङ्गत्वे यस्यापवादः । कलस्यां भवम् कालसेयम् । श्रणोऽपवादः ।
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जैनेन्द्र-च्याकरणम् [म. ३ पा० । सू० ३२-३१ वास्तेयम् । यस्यापवादः। असृजत्यसन्नियोगेऽतिभावो निपात्यते । प्रसूति भवम् , श्राले यम् । प्रकृत्यन्तरमसिशब्दः । आऽयं विषम् | अगोऽपवादः ।
ग्रोवाभ्योऽण' च ॥२॥३२॥ ग्रीवाः शिरोधमन्यः । ग्रीवाशब्दादण भवति दमच तत्र भव इत्यस्मिन् विषये । यस्तापवादः । ग्रीवामु मवं ग्रेवम् ! ग्रेवेयम् ।।
गम्भोरायः ॥३॥३॥३३॥ गम्भीरशब्टायो भवति । गम्भीरे भवप , गाम्भीर्यम् | सत्यापमिदम् । “गम्भीरबहिदेवपञ्चजनेभ्य इति वक्तव्यम्'' [वा०] बाह्यम् । देव्यम् । पाञ्चजन्यम् ।।
हात् ॥३॥३॥३४॥ तत्र भय इति वर्तते । इसकान्दो यो भवति । अरशोऽपवादः । हसंशोभ्यः परिमुखादिभ्य पवेष्यते । परिमुखे भवम् , पारिमुख्यम् । परिमुख परिहन् पयोष्ठ पर्युलूखल परिशान परिशील अनुसार उपसीर उपस्थूण उपवाल उपकपाल अनुपथ अनुरथ परिस्थ अनुगत अनुतिज अनुमाष अनुयय अनुयूथ अनुवंशो ये परिपूर्वेषु वजेनार्थप्रतीतिः, तेषां "पर्यपादपहिरव: क्या" [३] इति इसः । अन्यत्र "मि'' [३।११५] इति योगविभागात् । परिमुवादेरिवि किम् ? श्रौपाम् । शादिति किम् १ परिगत मुखं षसे व एव भवति । परिमुख्यम् ।।
अन्तरादेष्ठम ॥३॥५॥३५|| हादिति वर्तते । अन्तःशब्दादेञ् िभवति । अण्णोऽपवादः । अन्तःशब्दो झिसंज्ञको विमक्त्यर्थः । अन्तर्गहे भवम् , अान्तर्गेडिकम् | प्रान्तरगारिकम् । 'पुरान्ताप्रतिषेधो वक्तव्यः [वा०] अन्तःपुरे भवम्, श्रान्तःपुरम् । अत्रेष्टयः ।
"समानारच,तदादेव, अध्यात्मादिषु येच्यते । अर्चाद्धमाश्च देहाटच कोकोत्तरपदावपि "वा.]
समाने भवम् । सामानिकम् । "वहादेश्व" सामानग्रामिकम् । सामानदेशिकम् । “ममात्मावि" । प्राध्यात्मिकम् । प्राधिदैविकम् । आध्यात्मादियवतिगणः । ऊर्बदमात् , श्रीदमिकम् । केचिर्वशन्देन समानार्यमूर्ध्व शब्द मान्तं पठन्ति । तेषाम् श्रौवन्दमिकम् । प्रोन्देहिकम् । "योकोशरपदादपि" । ऐहलौकिकम् । पारलौकिकम् ।
"मुखपाश्वतसोरायः कुम्जनस्य परस्य च । ईयः कार्योऽथ मध्यस्य मण्मीयौ च सती मधौ ।' [पा.)
मुखपावाभ्यां वसन्ताम्यामीवो वक्तव्यः । मुखतीयम् । पार्श्वतीयम् । झेममात्रे टिखम् इति खिम् । कुजनस्य परस्य च । जनीयम् । परकीयम् । “मध्यादीयो वक्षम्यः" । मध्यीयः । "मण्मोमोसो मवौ मध्यादेख" । माध्यमः । मध्यमीयः।
"मध्यो मध्यन्दिनरपास्माष्टुप् स्याम्मो अजिनारामा' [व.] 1 मध्यशम्दो मध्य रूपमा पद्यते । दिनश्चास्मात्यः। मध्ये भवम्, मध्यन्दिनम् । उप स्थानान्तादजिनान्वापर वक्तभ्यः । अश्वस्याम्नि भवा, अश्वस्थामा । काजिने स्वः, काजिनः । अण्ण उप् ।
___ उपासानुनीविकणोत् ॥३३॥३६॥ उपपूर्वभ्यो आनु नीवि फर्य इत्येतेभ्यष्ठम् भवति । वत्र भव इति वर्तते हादिति च। उपजानु भवम् , औपनानुकम् । अोपनीविकम् । औपकणिकम् । देहालक्षात यस्यापवादः । इह स्मान्न भवति, अपजानु भवं गडिवति । अनभिधानात् ।
प्रामात्पर्यन्वोः ॥३॥३॥३७॥ इदिति वर्तते । परि अनु इत्येवंपूर्वाद् ग्रामशम्दाइ मवति तत्र भव इत्यस्मिन्विषये । पारिवामिकः । आनुमामिकः । अयोऽपवादः।
जिलामूलाङ्गलेरछः ॥२॥३१३. । हादिति निवृत्तम् । तत्र भव इति वर्तते । बिहामूल-अलिशब्दाभ्यां छो भवति । यस्यापवादः । जिह्वामूलीयः । अङ्गुलीयः ।
वर्गान्तात् ॥३३॥३६॥ वर्गशब्दान्ताच्च छो भवति तत्र भव इत्यस्मिन्विषये । अपन्देऽसवादी वक्ष्यते । शब्द सोदाहरणम् | कवीय वर्णः । चवर्गीयः ।
१. गावा।
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० ५ पा० ३ सू. ३०-४]
महावृत्तिसहितम
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यखौ घाऽशब्दे ॥३३॥४॥ तत्र भव इति वर्तते । घर्गान्तात् य ख इत्येतो त्यो या भवतः शन्दःदन्यस्मिस्याथें । पूर्वेण नित्ये छ प्राप्त विभाषेयम् । मरतवर्गे भवः, भरतवर्यः । भरतवर्षाणः । भरतवर्गीयः । बाहुबलिधर्यः । बाहुपतिवर्गीयः । बाहुबलिबीयः ।
कर्णक्षरसादभूषणे कः ॥ ४१॥ तत्र भव इत्यस्मिन्विषये फर्ण ललाटशब्दाभ्यां को भवति समुदायेन भूषणेभिधेये । कर्णिका । ललाटिका । स्वभावतः स्त्रीलिङ्गः । भूषण इति किम् ? कर्यम् । लहानम् ।
तस्य व्याख्यान इति स व्याख्ययाख्यायाः ॥२३॥४२॥ व्याख्यायतेऽनेनेति व्याख्यानम् । व्याख्यातव्यं व्याख्येयम् । तस्याख्या नाम व्याख्येयाख्या । तस्येति तासमर्थाद् व्याख्येयाख्यारूपाद् मृदो व्याख्यानेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति चकारात्तत्र भव इत्यस्मिंश्च वाक्याथें । इतिशब्दः पूर्ववाक्यपरिसमाप्त्यर्थः । सुपां व्याख्यानं सुप्सु भाका पम् । मिस मैनम् । एवं मार्तम् । हार्तम् । व्याख्येयाख्याया इति किम् ? पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला । पाटलिपुत्रं सुकौशलया ध्याल्यायते सन्निवेशहारेण । न पुनलोंके तद्व्याख्येयस्य प्रन्यस्याख्याभूतम् । ननु च तस्य व्याख्याने अर्थ "वस्येवम्' [३८] इत्यनेनैव त्यविधिः सिद्धः। चकारानुकृष्ट पि तत्र मवेऽयं पूर्वमेव स्यविधिवतः । तत्किमनयोर्युगमदुपादानम् १ वक्ष्यमाणोऽपवादविधिः । व्याख्येयाख्याया अनयोरर्थयोर्यया स्यादित्येवमर्थम् ।
बचो बहुलं उन २४३॥ बह चो च्याख्येयाख्याभूतान्मृदो बडुलं ठन् भवति तस्य व्याख्याने वत्र भवे चार्थे । अण्णादेरपवादः । बहुलग्रहणं बहु प्रपञ्चार्थम् । सविधौ ये बह चः तेभ्यः प्रकारान्तनाझएप्रथमाध्वरपुरश्चरपानामाख्यातपोरोडाशेभ्यः अभ्यश्च गौरामुख्येभ्याम् भवति । सविधौ – पलपलस्स व्याख्यानम्, पलगत्वे भवं पालखिमम् । ऋकारान्तात् - 'चातु होतृकम् । पाश्चहोतृकम् । ब्राझणिकम् । प्राथमिकम् । श्रावरिकम् । पारश्वरणिकम् । नामाख्यातिकम् । विगृहीतादपि । नामिकम् | आख्यातिकम् । पोरोबाशिकम् । मुख्येभ्यः स्तुभ्यः - श्राग्निष्टोमिकम् । राजसूयिकम् । वाजपेयिकम् । पाकसिकम् । भावयशिकम् । गौग्रेभ्यः – पाचौदनिकम् । दाशौदनिकम् । ऋषिभ्योऽध्यावैर्भवति । धाशिथिकोऽध्यायः । वैश्वामित्रिकोऽध्यायः । अन्यत्र वाशिष्ठी भूक् । तिसेषु न भवति । संहिताया च्याख्यानं तत्र भवं वा सहितम् । बङ्घच इति किम् ? कार्तम् | झर्त्तम् । व्याख्येयाख्याया इस्लेव । मयुरायां मवः, माथुरः ।
द्वयनचः ॥३॥३॥४४॥ दूधचो मृद् छन्दाच्च उन भवति तस्य व्याख्याने तत्र भरे चार्थे । अणादेखषादः । अङ्गस्य म्याख्यानम् , अङ्गे मर्व वा शालिकम् । पौविकम् । ताकिकम् । नामिकम् । ऋचा म्याख्यानं ऋतु भवे वा अार्चिकम् ।
पुरोमाशाहद् ॥३३॥४५॥ पुरोडाशशब्दाइद् भवति वस्य ज्याख्याने तत्र भये चार्थे । पुरोडाशाः पिष्टपिएडाः । साहचर्यात्तेषा संस्कारको मन्त्रीऽपि तथोकः । पोरोगशिकी ।
छुन्धसो यः ॥३३॥४६॥ छन्दःशब्दायो भवति तस्य व्याख्यान इत्येवास्मिन्विाश्ये । द्वयलक्षणठोऽपवादः । छन्दसो व्याख्यानं छन्दसि मयं वा छन्दस्यम् !
रायमादेवाण ॥३॥३॥४७॥ ऋगयन इत्येवमादिभ्यो मृदम्यश्छन्दःशब्दाच्चाण मवति तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे | ऋगयनस्य व्याख्यान, भूगयने भवो का, आर्गयसः। अणि परत ऋगयनस्य
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[३ पा० ३ सू० ४.२॥
पत्वमिष्यते । ऋगयन । पदव्याख्यान | छन्दोव्याख्यान । छन्दोमान । छन्दोभाषा । छन्दोविजित । छन्दोविचिति । न्याय ! पुनरुत । निरक्त । व्याकरण । नियम । निगम । वास्तुविद्या । विद्या । छत्रविद्या । उत्पात । उत्पाद । संवत्सर । मुहूर्त । निमित्त । उपनिषत् | भिक्ष्य । इति ऋगयनादिः । छन्दम् । छन्दस: पृथगग्रहणं पूर्वण' यार्थम् । पुनरण्ग्रहणं बाधकस्य ठनः कस्य च बाँधनार्यम् ।
तप्त आगतः ॥३३॥४८॥ तव इति कायाम् अर्थात् प्रागत इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो मवति । सुप्नादागतः लोप्नः । राष्ट्रियः। मुख्यस्याऽपादानस्य सम्प्रत्ययः । सप्नादागच्छन् क्षमूलादागत इति वृषमूलशम्दान्यो न भवति ।
आयस्थानेभ्यष्ठण ॥३॥३॥४९॥ द्रव्यागमनमायः । स यस्मिस्तिष्ठत्युत्पत्तिद्वारेण तदायस्थानम् । तवाचिभ्यष्ठा भवति तत श्रागत इत्यस्मिन्विषये। अगोऽपवाद । छस्य तु परत्वादेव बाधकः । शुरुक शालाया श्रागतं शोल्कशालिकम् । प्रातरिकम् । श्रापणिकम । गौस्मिकम । दीयारिवम् । महुत्वनिर्देशः स्वरूपनिरासायं ।
शुण्डिकादिभ्योऽण् ॥३३॥५०॥ शुण्डाशब्दो मद्यवचनः, तस्मान्मवर्षीय ते (त्ये) कृते शुक्रिक इति भवति । शुण्डिक इस्येवमादिभ्योऽय भवति तत भागत इत्येतस्मिन्विषये । शुण्द्धिकादागतः शौरिडकः । शुण्डिक । कण। स्थण्डिल । उदक । उदपान । उपल। तीर्थ 1 पिप्पल । भूमि। तृण । पर्ण । पुनरणग्रहणं किम् ! श्रायस्थाने ठणः, "गेहादियुक्तकणाद भारद्वाम'' इति को विहितस्तस्याऽपिबाधनार्थम् ।
यौनमोखाधु ॥३॥३॥५२॥ जन्मसम्बन्धेन योनेरिमे, योनेरागता का, यौनाः शब्दा मातुलादयः । विद्यासम्बन्धेन मुखस्येमे, मुखादागला था मौखा उपाध्यायादयः, ऋत्विगादयश्च । योनमौलेभ्यः शब्देभ्यष्ठा भवति तत श्रागतेऽर्थे । श्रणोऽपवादः । छस्य तु परत्वाद बाधकः । मातुलादागतं मातुलकम् । मातामहकम् । पैतामहकम् । मौखेभ्यः - उपाध्यायादागतम् । श्रोपाध्यायकम् । श्राचार्यकम् । शैष्यकम् । श्राविजयम् ।
ऋतष्ठा ॥३.३.५२॥ ऋकारान्तभ्यो यौनमुखे (मौखे)भ्यः शब्देभ्यष्ठञ् भवति तत श्रागतेऽर्थे । यौनेभ्यो भातुरागतं भ्रातृकम् । स्वासकम् । मातृकम् | मौखेभ्यः -- होतुगगतं होतुकम् । पौतृकम् । औद्गानुकम् । पूर्वस्य बुञोऽपवादः ।
पितुर्यश्च ।।३।३।५।। पितुशब्दाद् य इत्ययं स्यो भवति ठग च तत मागतेऽथे । पितुराग पित्र्यम् । "रीकुतः" [५।२६१२६] रीछादेशः 'थस्य ज्याय्य" [ ३३] इतीकारस्य खम् । पड़े पैतृकम्।
वृद्धादकवत् ।।३।३।५४|| वृद्धत्यान्तान्मृदः श्रङ्क व यविधिभवति । वृद्ध मिहापत्यमावम् । यह भवति । गर्गाणाम, गार्गः । बैदः । "साझमक्षयघोषऽऽयजिजामणि' [१३।१५] इत्यण तथा गर्गभ्य आगतम् , मार्गम् । वैदम् । प्रमहणे श्रद्धान्तस्ये (द्धत्यान्तस्ये) दमर्थे वस्येदमर्थसामान्य लक्ष्यते । तेन वुमोऽप्यतिदेशः सिद्धः । प्रोपगवा (ना) मिदम् , "वृद्धवरणामित्" [३३६५] इति वुनि कृते, प्रोपगवकम् । नागायनकम् । तथा श्रीपगवादागतम् औपगवकम् । नाडायनकम् । 1. आसरिकम् प०, स० । २. द्वगतस्यैदमर्थ सामा-
माग्रस्येवमर्षे तस्वमर्थसामाप० । सस्येवमय सामा-पू० ।
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म. पा. सू. ५५-३२]
महाधिसहितम्
हेतुमनुष्याद पा रुप्यः ॥३,३५५।। तत श्रागत इति पर्तते । हेतुभ्यो मनुष्येम्ब वा सप्य इत्ययं त्यो भवति । हेतुभ्या कारणाद'धेनोयगतं धेनुरूप्यम् । विश्वरूप्यम् । कररूप्यम् । पबे गेहादिलचखपछः । समीयम् । विषमीयम । पापीयम् । मनुष्येभ्यः-देवदत्तादागवं देवदारूप्यम् | जिनदत्तरूप्यम् । पदे देवदत्तकम् । जिनदत्तकम् । देवदत्तकरूपकम् । हेतो का भवतीति मनुष्येभ्योऽपादानलक्षणा का ।
मयट् ॥३॥३॥५६॥ हेतुभ्यो मनुष्येभ्यश्च मयह भवति तव प्रागतेऽर्थे । समाद्धेतोरागत सममयम् । पापमयम् | मनुष्येभ्यः-देवदतादागतम , देवदत्तमयम । बिनदत्तमयाम् । जिनदत्तमयी। योगविभागो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।
प्रभवति ॥३२३५७॥ तत इत्येष वर्तते। तत इति कासामर्थ्यान्ड्याम्मुदो ययाविहितं त्यो मवति । प्रथमं भवति प्रभवति । भवतिरिहोपलब्धिक्रियः, अनेकार्यत्वाद् धूनाम् । सुनात् प्रभवति, लोग्नः । राष्ट्रियः । हिमवतः प्रभवति, हैमवती गङ्गा । वारदी सिन्धुः ।
विराज्यः ॥३२५८|| ततः प्रभवतीति अनुवर्तते । विदूरशब्दाञ्ञ्यो भवति । अयोऽपवादः । विदूगत्प्रभवति, वैदूर्यो मणिः । यदि प्रथम भवति प्रभवतीत्युच्यते घालवायागिरेरसौ प्रभवति न विदुरानगरात् । कयं वतल्योत्पत्तिः १ एवं ताई "मायायो विदूर प्रकृस्यन्तरमेव वा । नैवंतति वेदमाद जित्वरी. बदुपाचरेत् ॥" वालवायल्यं लभते विदूरमादेशञ्च । यथा शिवादिषु विश्रवःशब्दो विश्रवणरषणादेशी अणं च लभते । प्रकृत्यन्तरमेव वा वालवायस्य विदूरशब्दः । अत्र्यविकन्यायेन विदूरादेव त्यः । नैवं चत्रेति चेद्व्यात् जिखरीवदुपाचरेत् । यथा वाणिवाः वाराणसी जित्वरीति मङ्गलार्थमुपाचरन्ति । एवं वासवायोऽप्युपचाराद् घिदूरशन्देनोक्तः । अथवा विदूरादेव मणित्वेन प्रभवति । .
- सद्गच्छति पथिदूतयोः ॥३३॥५६॥ तदितीप्समर्थाद्गच्छतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति योऽसौ गच्छति पन्था दूतो वा चेद् भवति । स गच्छति, सौनः । राष्ट्रियः । पन्या दूतो था । पथिस्येषु गच्छस पन्था गच्छत्तीत्युच्यते । पथिदूतयोरिति किम् ! स्वप्नं गच्छति साथः ।
अभिनिष्कामति द्वारम् ॥३३॥६०॥ तदिति वर्तते । नदितीप्समर्थादमिनिष्कामतीत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहित त्यो भवति । अनभिनिष्क्रमण क्रियायां द्वार करणं स्वातन्त्र्येण विवक्षितम् । यथा, असिश्किनन्ति । धनुर्विध्यति । बारस्थेषु च निष्कामातु द्वारं निष्क्रामतीत्युच्यते । सुष्ममभिनिष्कामति पाटलिपुत्रस्य द्वारम्, स्रोनम् । राष्ट्रियम् । द्वारमिवि किम् ? 'मधुराममिनिष्कामति वैदिस (श) स्य प्रामः । सुप्नममिनिकामति पुरुषः ।
अधिकृत्य ते ग्रन्थे ॥३३॥६१॥ तदितीप्समर्थादधिकृत्य कृतेऽर्थे यथाविहित त्यो भवति यतत्कृत अन्यश्चेस भवति । सुलोचनामधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौलोचनः । औदयनः । ग्रन्थ इति किम् ? सुखोपनामविकृत्य कतः प्रासाद । "उसाऽख्याथिकाच बहुलमिति वक्तव्यम्" [वा०] वासवदत्तामभिकृत्य कवाप्रख्यायिका, वासवदत्ता | | दोस्य ( इछ ) स्योस् । उर्वशी । सुमनोतरा । अण उस् । न च भवति भैमरयी।
शिशुमन्वयमसभन्छेन्द्रजननादिभ्यश्छः ।।३।३१६२॥ तदधिकृत्य कृते पन्थ इति वर्तते । शिशुकन्द यमसभ इत्येवाभ्यां द्वन्दादिन्द्र जननादिभ्यश्च छो भवति । अयोऽपवादः । शिशुन्दमधिकृत्य कृतो अन्या, शिशुक्रन्दीयः । यमस्य सभा, यमसभम् । "सभाऽराजाऽमनुष्यात्' [1 ] इति नम्। यमसभीयः । द्वन्द्वात् , त्रिपृष्टविनयीयः । भरतबाहुबलीयः । वाक्यपदीयम् । " देवासुराणिभ्यः प्रतिबेघो षकम्यः" [वा०] दैवासुरम् । राक्षोऽसुरम् । गौणमुख्यम् । इन्द्रबननादिन्या-इन्द्रजननीयम् ।
1. मथुराम-40, स०।
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जैनेन्द्र याकरणम् [म. पा. स. १६॥ प्रद्युम्नोदयनीयम् । प्रद्युम्नागमनीयम् । शी (सी) तान्वेषशीयम् । इन्द्रधननादिराकृतिगणः । शिशुकन्दादयोऽपि तत्रैव द्रष्टव्याः । देवासुरादिषु छस्यादर्शनात् प्रतिषेघश्च न वक्तथ्यः । प्रपञ्चो बालावबोधनार्यः ।
सोऽस्य निधासः ॥३॥श६३॥ स इति वासमर्थादस्येति ताऽर्थे यथाविहित त्यो भवति यन्न् पासमर्थ निवासश्चेत्स भवति । निवसन्स्यस्मिन्निति निवासः । सप्नं निवासोऽस्य सोप्नः । राष्ट्रियः।
अभिजनः ॥श६४॥ अभिजनः पूर्व बान्धवाः । साहचतिरुषितो देशोऽपि तथोक्तः। निवासो यत्र साम्प्रतमुच्य( प्य ते । स इति वासमर्यादभिषन इत्येतस्मिन्न यथाविहित त्यो भवति । सुध्नमभिश्चमोऽस्थ, सोध्नः । राष्ट्रियः ।।
गिरेरछा शख्नजीविषु ॥३३॥६५॥ सोऽस्याभिजन इति वर्तते। गिरिनाचिनो वासमादमिज निवास्येति । कवि शतकिमिशेषु । हृद्गोलोमिजन एषां शस्त्रजीविनाम्, हद्गोलीयाः । अस्लम । अवर्मीयाः। बेल । बेलीयाः। रोहितगिरि । रोहितगिरोयाः । गिरिति किम् ? साङ्कास्योऽभिजन एषो शस्त्रजीविनां साङ्कास्यकाः शस्त्रजीविनः । "बन्ध ( धन्व ) यो" [३ ] इति बुम्। शस्त्रबीविध्विति किम् ? भृक्षोदो गिरिरभिजन एषां माझयानामन्येस वा, प्राक्षोंदाः । पृथु । पार्थवा
शपिडकादेयः ॥३॥३॥६६॥ मोऽस्यामिवन इति वर्तते । शपिडक इत्येवमादिभ्यो ब्यो भवति । अण्णादेरपवादः। शरिखकोऽभिजनोऽस्य, शापिडक्यः [शापिडकः] । सर्वसेन । सर्पकेश । शक । शट। चणक । शव | बोध । गोध । अत्र कोझ्यः "कोकोऽणू" [३॥1110] इत्यए प्राप्तः। इतरेभ्यः "बहुत्तोरपि [३१२10] इति थुत्र प्राप्तः ।
सिग्भ्वादेरण ॥३॥३६॥ सोऽस्यामिमन इति यर्वते । सिन्धु इत्येवमादिभ्योऽण् भवति । सिन्धुरभिमनोऽस्य, सैन्धवः । सिन्धु । वर्ण । मधुमत् । कम्बोज कश्मीर । सस्य । एतेभ्यः कच्छादित्वात् "मृतस्ययोः" [ 12 ] इति बुन, मासः। गन्धार | पचाल । किष्किन्ध । गन्दिक। उरन् । दरम् । एतेभ्यः "बहुत्वेऽयोपि' [३।२।१०२] इति घुन, प्रातः। कैमेदुर | काण्डकार' । प्रामणी । एतम्यश्क: प्रातः।
तूदीवर्मतीम्या डण् ॥३॥३।६८॥ सोऽस्याभिजन इति वर्तते । तूदीवर्मतीशम्दाभ्यां दण् भवति । अयोऽपवादः । तूदी अभिजनोऽस्य, तौदेयः । वार्मनेयः ।
शानातुरकूचवाराच्छएण्यौ ॥ ३३१६६ ॥ सोऽस्याऽभिजन इति वर्तते । शाशावरकूधवारशब्दाभ्यां छण्ण्य इत्येतो त्यौ मक्तः । अयोऽपवादः । शालावरोऽभिवनोऽस्य, शालावरीयः । कोचवार्यः ।
भक्तिः ॥३३३१७०॥ सोस्येवि वर्तते। अभिजन इति निवृत्तं विशेषणान्तरोपादानात् । स इति घासमर्थादस्येति ताऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद् वासमर्थ भक्तिवेत् सा भवति । भव्यद भक्तिः । सुन भक्तिरस्य, सोनः । राष्ट्रियः।
प्रदेशकालाढण् ॥३।३१७१॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्तते । देशकालावचिनौ। तत्पर्युदामादन्यस्याऽ चिचस्य प्रयम्। अचित्तवाचिनो मूदष्टमित्स्यं त्यो भवति । अयोऽपवादः। ठस्य परत्वाद् आपक। अपूण भक्तिरस्य, प्रापूपिकः । शाकुलिकः। पायसिकः। अदेशादिति किम् ? सोना । अकालादिति किम् । शैशि।
१. कालपार , पू. । १. -पबादौ पू० ।
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म. पा० ३ सू०७३-४७] महावृत्तिसहितम्
महाराजास् ॥३॥३॥७२॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्त्तवे । महारामशब्दाइए भवति । महाराबो महिलरख्य, माइराधिकः।
अजुनाद घुन् ॥३॥३॥७३॥ लोऽस्य भक्तिरिति यति । अर्जुनशब्दाद बुन् भवति ! अर्जुनोभक्तिरस्य, अर्जुनकः । उत्तरसूत्रेण राजाख्याद् थुम प्राप्तः ।
वृद्धराजाण्येभ्यो बुख, प्रायः ३,४ रोस्य भाजति पर। वृद्धाव्य-यो रामा ख्येभ्यश्च प्रायो बुञ् भवति । अणोऽपवादः। छस्य तु परत्वाबाधकः । वृद्धराजाख्येभ्य इत्यत्र "ने" शिश इति नियमारकर्मणि "मात: क" [२।२।१] न प्राप्नोति । मूलविभुमादित्वात् "सुपि" [२२२॥ इति [ वा] मविष्यति । वृद्धाख्येभ्यः, ग्लुचुकायनिर्भक्तिरस्य ग्लौचुकायनः । प्रौपावो भक्तिरस्य,
औपगवकः। कापरवकः । राजारयेभ्यः नकुलो भक्तिरस्य, नाकुलफः । महदेवकः । वासुदेवो भक्तिरस्य, वासुदेवकः। श्राख्याग्रहण किमर्थम्? श्रम वङ्गकलिङ्गादिग्रहणार्थम । दुर्योधननकुलसहदेवमहथार्थ च। यत्र सामान्येन विशेषेण वा प्रसिद्धा राजसंज्ञाऽस्ति वस्य सर्वस्य सङ्ग्रहार्थमित्यर्थः । प्रायोमहणात्कचित्र भवति | पाणिनो भक्तिरस्य, पाणिनीयः । पौरवीयः ।
राष्ट्रवाचवता सर्व बहुरखे सरूपाम् ।।३।३७५॥ सोऽस्य भक्तिरिति घर्तते । राष्ट्र त्येव राष्ट्रवात् । महत्वे राष्ट्रेण समानशब्दानां तद्वता राष्ट्रवत्सर्व प्रकृतिस्त्यश्च भवति । "राष्ट्राज्यभ्मोः" [२।२।०२] इत्यादिप्रकरयो विहितानामिहाऽतिदेशः । यथा, अङ्गा जनपदो भक्तिरस्य, मानकः । वानका । सोझकः । एवमङ्गाः क्षत्रिया भक्तिरस्य, प्रामकः । सोझकः । तद्वतामिति किम् ? पञ्चाला प्रामणा भक्तिरस्य पाञ्चालः। सर्वमहणं किम् । प्रकृतरप्यविदेशो यथा स्यात् । स च दूयेकयोः प्रकृतिदेशः (शं) प्रयोजयति | यत्रैग्निमिचभूतो हृदतिवेशो नास्ति । जेरपत्य वार्यः । "विरकुस्तापजादकहकोशकाम्यः" [ 1] इति भ्यः । मद्रस्याऽपत्य माद्रः । “वयमगध" [२१११५१] इत्यादिनाऽए । वायो भक्तिरस्य, माद्रो भक्तिरस्य, अत्र "जूजि म] प्राकः" [11104] इति कोऽतिदिश्यते । प्रकृतिरप्यदुवंशा (रप्यत्रा) तिदिश्यते । बुजिकः । मद्रकः । वाजेच)को माद्रक इति मा भूत् । सरूपाणामिति किम् ! अंसघयद्धो बनपदः, सस्य पोरवो राना स भक्तिरस्य परिवौया । बहुत्यमहर्ण सारूपयोपलक्षणार्थम् । यद्यपि द्वित्वैकत्वयोः सारूप्यं नास्ति तथाप्यतिदेशः सिद्धः । वाङ्गो वानी वा भक्तिरस्य, वाङ्गकः ।
तेन प्रोक्तम् ॥२३२७६॥ तेनेति भासमर्थात्मोतमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहिवं त्यो भवति । व्याख्यादिना प्रकर्षणोक्तं प्रोक्तमिति गृह्यते, न कृतं यदन्येन कृवम् । गोतमेन प्रोक्तम्, गौतमम् । श्रीदत्तीयम् । सामन्त मद्रम् । श्रापिशलम् । "इमः' [ ८] इत्यम् । शौनकादिभ्यश्वन्दसि णिन् ॥
३७॥ शोनक इत्येवमादिग्यश्छन्दस्यभिधेये णिन् भवति तेन प्रोक्रमित्यस्मिन्विषये । दुवाछस्य इतरेभ्यस्त्राणोऽपवादः । बन्दोब्रागामि चात्रैच" [२ ] दति नियमादेकवाक्यम् । शोनकेन प्रोक्त छन्दोऽधीयते शौनगिनः। "अन्वेस्थीते" [ 1) इत्यागतस्याण "उपमोकातू" [२०] इत्युय्। शोनक । वाजसनेय | साझरख । सापेय | सा(शा/प्पेय ।
म्यादायन | स्कम्ब। स्कमा स्तम्भ । देवदर्श । रज्जुभार। खजुम्यठ । कठ । साठ । कोसायन । उजयकाल (र)। 'पुरुषांसक । "काश्यपकौशिकाभ्यासपिा पस्पाम्या प्रोकः स्मयते" । तस्योपचारा
१. बादायम ३.। घोडायम .। २, कभR०, पृ.। .. पखांसक इति गयरस्नमहोवो
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जैनेन्द्र-म्याकरणम् म. पा ३ सू० ०-७॥ छन्दस्त्वम् । तेन तद्विषयतानियमः | काश्यपेन प्रोक्न कापै बिदन्ति, काश्यपिनः । कौशिकिनः। ऋषिम्यामिति किम् । इदानीन्तनेन फाश्यपेन प्रोक्तम् , काश्यपीयम् । “कलापिवैशम्पायमालिया की प्यन्तवासिनश्चत्वारः।
"रिमुरेषां प्रथमस्ततरछालितुम्बुरू। उसपेन चतुर्थेन कालाएकमिहोथ्यते।" दरिद्र णा प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, दारिद्रविणः । तौम्पुरविणः । श्रौलपिनः । गलिनो दिनिणं वक्ष्यति । वैशम्पायनान्तवासिनो नव।
"माग्गिा प्रथमः प्रासी पलिकमशावुभौ । ऋचभागारुको ताल्यो मभ्यमीयास्ततोऽपरे । श्यामायम उदोव्येषु तथा कटकाळापिमौ।"
श्रालम्बिना मोक्तमधीयते, बालम्धिनः। पालिङ्गिनः । कामलिनः । आर्चभागिनः । आरुणिनः । तारिखनः। श्यामायनिन । कटादवोपं वक्ष्यते । उत्तरत्र कलापिनोऽणं वक्ष्यति । अन्तेवासिग्रहयोन प्रत्यक्षशिभ्यग्रहणम् । न तु व्यवहितानां शिष्यशिष्याणां ग्रहणं व्याख्यानात् । पुराणोक्केषु ब्राह्मणकरुपेषु' गसू.] क्वत्प्रोक्तं ( यत्प्रोक्तं तत् ) पुराणोक्ताश्चेद् ब्राह्मणकल्पा भवन्ति । पुराणेन पुरावनेन ऋषिया प्रोक्का, पुराणोका, माझगानि च कल्पाश्च ब्राह्मणकल्पाः। भाल्लवेन प्रोक्तं ब्राझणमधीयते भाल्लविनः । यासायनिनः। ऐतरेयिणः। पिङ्गन प्रोक्तः कल्पः पैङ्गी । श्रावणपराजी । कल्पस्य तद्विषयतानियमो नास्ति । पुराणप्रोक्लब्धिति किम् ? याज्ञवल्कानि माहागणानि । श्राश्मरथः कल्पः । "शककादिभ्यो द" [शरा०] इत्यस्य् । याज्ञवल्कादयोऽवरकाला हत्याख्यानेषु श्रुतिः । तद्विषयतानियमोऽपि प्रतिपदं वाहाणेषु भवति इति इह सोऽपि नास्ति । "कठञ्चरकाप्' ग०स०]। कठेन प्रोक्त छन्दोऽघीयते, कठाः । वैशम्पायनान्ते. बासिन्यायिणन् , तस्योप । चरक इति वैशम्पायनस्याख्या। चरकादछन्देत्येवेध्यते । चरण प्रोशाश्चरकाः श्लोकाः। श्रण उप । सर्वप्रवचनाभिधाने "वृद्धचरणालित" [२५] इति वुन् भवत्येव । शौनकिनामिदम्, शौनककम् , इत्येवमादि योज्यम् । "पाराशर्यशिकालिया भिक्षुनरसूत्रयो।"पाराशर्येण प्रोक्त भिक्षसूत्रमधीयते, पाराशरिणो भिक्षयः । शिलालिनी नटाः । गुगकल्पनया चात्र छन्दस्त्वम् तेन तद्विषयता ( भवति । भितु नटसूत्रयोरिति किम् ? पारा ) शरम् ! शैलालन् । "शक्षाविभ्यो बुद्ध" EARNE] इत्यण उत्सर्गश्च कर्मनकृशाश्वाभ्यामिन्"। अत्रापि तद्विषयता, कर्मन्दिनो भिक्षवः । कृशाश्विनो नाः । भिन्तुनटसूत्रयोरित्येव । कार्मन्दम् । कार्या (फार्शाश्वम् ) । छन्दसीति किम् । शौनकीया शिक्षा । तिचिरिचरतन्तुखरिखकोखाच्छण ॥
३७८॥ छन्दसीति वर्तते, तेन प्रोक्तमिति (च)। तित्तिरि वरतन्तु खण्डिका उस इत्येतेभ्यश्छण् भवति । अयोऽपादः। तित्तिरिया शोस्तं छन्दोऽधीयते विदन्ति या तैत्तिरीया: 1 खाण्डिकीयाः । श्रोखीयाः । छन्दसीत्येव । तित्तिरिया प्रोक्ताः श्लोकाः, तैत्तिराः।
कलापिनोऽए ॥३३॥७॥ छन्दसीति वर्तते । कलापिशब्दादण भवति तैन प्रोक्तं इत्यस्मि विषये । वैशम्पायनान्तेवासित्वापिणन प्राप्तः । कलापिना प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, कालापाः। भोऽपुंसो हति' [ २०] इति टिवं प्राप्तम् , "प्रायोऽनपत्येणोनः" [[१५] इति प्रतिषिद्धम् , "सरह्मपाद:" [11] इति पुनष्टिस्यम् । पुनरणग्रहणं किम् ? चिन्छविषयेऽपि यथा स्यात् । सेन सोलभानि ब्राह्मणानीत्येवमादि सिद्धम् ।
काव्यायमिन, १०, ०। २. घरकाम्छन्दस्येष हस्यन्त्र पासीति, चरका रोका इस्पनोबिधान चिमपम् । काशिकाही अवसरयेव । चारकाः रोका इस्पत्रानुदर्शनात् । .
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म. पा० ३ ० ८०-८] महाधिसहितम्
२०५ छगलिनो दिनिण ॥२३॥८०) छन्दसीति वर्तते, तेन प्रोक्कमिति च । छगलिशम्दाहिनिण भवति । नेरिकार उभारणार्थः । छगलिना प्रोक्तं छन्दोऽमीयते, छागलेयिनः । कलाप्यन्तवास्तिषणस्य गिनोऽपवादः।
पकदिक ॥२३८॥ छन्दसौति निवृत्तम् । तेन प्रोक्तमिति च निवृत्तमर्यान्सरग्रहणात् । पत्र दिग् यस्य तदेकदिक् , त्य (स) मानदिगित्यर्थः। भासमर्थादेकदिमित्यस्मिन्नर्थे ययाविहितं त्यो भवति । सुदाम्ना पर्वतेन एफदिक् , सौदामनी विद्यत् । "मनः" [ 1] इति टिखाऽमावः । एवं हैमवती । बैककुदी।
तस् ॥३॥१२॥ तसित्ययं त्यो भवति मृदः । तेनैकदिगित्यनुवर्तते । पूर्वसूत्रेणापादयो पादपश्च भवन्ति । अयं च पचनाद् भवति । न तु बाध्यबाधकभावः। सुदाम्ना एकदिक् सुदामतः । हिमवतः । त्रिककृत्तः । तस्यान्तस्य स्वभावतो झिसशा। यधोरसः ।।
३३।। तेनैकदिगिति वर्तते | उरःशम्दात् य इत्ययं त्यो भवति तश्च । श्रगोपवादः । उरसा एक दिक, उरस्यः, उरस्तः ।
उपशाते ॥३२३८४॥ तेनेति वर्तते । तेनेति मासमर्थावुपातेऽथे यथाविहितं त्यो भवति । स्निोपदेशेन प्रथम गतमुपशवम् । सापमोपचतं पादामुवीय सियारामयम् । देवन्दिनमनेक शेष व्याकरणम् |
छते अन्धे ॥३॥३५॥ सेनेति भासमर्थात्कृतेऽर्थे यथाविहित त्यो भवति ककृत प्रन्यभेद भवति । क्लदेयेन कृताः, बालदेवाः श्लोकाः। वाररुचाः । सिंहनदीयाः । अन्य इति किम् । तस्या कृतः प्रासादः ।
खौ ॥२३॥८६॥ तेनेति भासमर्थात्कृतेऽर्थे ययाविहिचं त्यो भवति समुदायेन खुविषये । अग्रन्थेऽपि विधिरयम् । मक्षिकामिः कवं माक्षिक मधु । एवं गर्मुत्, गार्मुतम् । पुत्तिकर, पौचिकम् । बुद्रा, चोद्रम् । परमा, सारघम् । नर्मुक, ना फम् । भ्रमर, भामरम् । वटर, वाटरम् । वानप, वातरम् । छः अस्मान्न भवति । संशाशब्दानां व्युत्पत्तिरियम 1 न च छ कृते संज्ञा गम्यते ।
कुलालादेवुन् ॥३७॥ खाविति वर्तते । कुलाश इत्येवमादिभ्यो पुष भवति तैन कृतेऽयें । श्रणोऽपवादः । कुलालेन कृतम्, कौलालकम् | घटादिसमुदायस्येयं संशा | फुलाल । वर । कार । चण्डाल | निषाद । सेना । सिलिन् । देवराची । परिषत् | वधू । रुद्र । अस्य स्थाने काशद फेचित् पठन्ति । अनलुङ् । बझान् । कार । कुलाल । कुम्भकार । श्वपाक ।
तस्येदम् ॥३८॥ तस्येति तासमादिदमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । तस्येति सामा• न्येन ताऽर्थमात्र इदमिति ताऽर्थसम्बन्धिमा विवक्षितम् । उभयत्र लिङ्गसंख्याप्रत्यक्षपणेवत्वादिकमविवक्षितम् । उपगोरिदम्, श्रीपगवम् । श्रौत्सम् । राष्ट्रियम् । श्राजकम् । अनन्तरादिष्वमिधानं नास्ति । देवदतस्यानन्तरम् , देवदत्तस्य समीपम् । विशतेरवयव एकः, शतस्य गो, सातस्य पञ्चेति । "संवतः संब. दिएभाषाच स्ने पातम्यः" [वा०]। संबोद्धः स्वं सांवशित्रम् । "मम्मीचा सरले वाम्मे रु
१. सिकिम् । मिळिवू । सिरिध इति काशिकायाम् । २. केचित् शिकाकारा इत्यर्थः ।
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जैमेन्द्र व्याकरणम् . ३ पा० ३ सू. ८१-५ पासम्मो मसंज्ञा च [वा०] अग्नीध इदम्, श्राग्नीध्रम् । समिधामाधामे पम्प यकन्यः" [46] । समिधेनी अफ् ।
एक: RAE.तोदनिधि गरी । पाशदादो भवति । अयोरपवादः । रथान पवेष्यते । रथस्येदं चक्रं युग वा रथ्यम् । चिलीवाहलेभ्यो यविधी वन्तविधिवपसंख्यातः" [वा० । परमरम्पम् | स्थाङ्ग इति किम् १ रथस्य स्थानम् ।
पत्रादणू ॥३३०॥ पतन्ति तेनेति पत्र वाहनम् । तत्पूर्वाद्रथशनादण् मवति । पूर्वस्य यस्लामवादः । श्रश्वरथस्येदं चक्रं युगे वाऽऽश्वरयम् । श्रौष्ट्ररथम् । पुनरणमहर्ष छबाधनार्थम् ! रातभरयम् । युगम् । स्थान हत्येव । अश्वरयस्य स्वामी ।
पत्रात् ॥३६३२९१॥ पत्र वाहनम् । तद्वाचिशब्दादण् भवति, तस्येदमित्यस्मिन्विषये । "पवाद वाम एवेष्यते" [ars] | अश्वस्येदं वाह्यम्, श्राश्वम् । उत्सर्गेण सिद्धमिति चेदुसंज्ञेषु न सिद्पति । रासमस्येदं वहनीयम्, रासमम् ।
इलसोराट्रण ॥३।१९शा तस्येदमिति वर्तते । इलसीरशब्दाभ्यां ठण् भवत्यणि प्राप्ते। इसस्येद हालिकम् । सैरिकम् ।
वन्दाबुन वैरमैथुनिकयोः ॥३३५९३॥ तस्येदमिति वर्तते । मैथुमिका विवाहनादिष क्रिया । द्वन्द्वाद बुन् भवति बैर मैथुनिकायां च | श्रणोऽपवादः। छस्य तु परत्वादेव बाधकः। अहिनकुलिन । काफोलूकिका । वद्रषशालङ्कायनिक' । युन्नन्तस्य स्वभावतः स्त्रीलिङ्गम् । मैथुनिकायां च । कुरुकानि शि)। कुरुणिका । अत्रिभरद्वाबिका । भरवाजशब्दादन , तस्य वृद्धे बहुत्वे "यत्रो:" [ १६] इत्युप कृतः । " क्यनु [३ ३] इति अनुप फरमान भवति । प्रथमादित्यधिकाराद् द्विचीयस्य न भवति । अथ प्रथमस्थानिशब्दस्य यो हप तस्याऽनुपू फरसान्न भवति । श्रवादाचव्यवहिते अपु (नु)न भवति । भरद्वाजशब्देम चाऽत्र म्यवधानम् । अष्टिः । गर्गभूगूगामियं मैथुनिका गर्गभार्गवका। अत्र घोरकादेशे कृते भूगशब्दाद् योऽण् तस्य बहुत्वे "भृग्पत्रिकुत्स" [9091१३६] इत्यनेनोप् प्राप्तः । "प्रथमा अभिजारे द्विसीयस्यापि बन्छ ऽभ्यनुम्बकम्यः" [ या०] | "देवासुरादिभ्यो बुमः प्रतिषेधो बाम्मः" [वा.] । दैवासुरम् । राक्षोसुरम् ।
पूद्धचरणाग्नित् ॥३॥३॥६४॥ तस्येदमिति वर्तते । वृद्धचाचिनश्चरणवाचिन अिदिव विमति धुन् । अनेनैव बुनो विधानम् । अयमणोऽपवादः । छस्य तु परत्वाद् बाधकः । त्रिपृष्टायनेरिदम्, त्रैधायनकम् । श्रीपगवानामिदम्, प्रोपगवाकम् । वरणानि वेदशाखाः ! उद्योगादध्येवारोऽपि कठादयश्चरणारल्या! "चरणादधर्माग्नग्ययोरेवेष्यते" { वा.] । ठानामयं धर्म श्राग्नायो वा काठकम् । कालापकम् । मौदकम् । पैप्पलादकम् । अध्वर्युशब्दस्य समुदायबाचित्वा चरणशम्दयामा नेयम् । तेनायोष भवति । आध्वयंवम् । सम्घाङ्कलक्षणघोषयत्रिनामम् ॥
३५॥ तस्येदमिति वर्तते । सवादिषु चतुर्यु हदमर्यविशेषणेषु अनन्ताबमन्तादिमन्ताचाम् भवति । पूर्वस्य पुनोऽपवादः । विदाना सधः, बा, बक्षणं
१. पाचसायनिका अ.,। बधशालकायनिका पू.। बाभम्यशासायनिका इति पाक्षिकायाम् ।
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० ३ ० ३ ० ६६-१०१]
महावृत्तिसहितम्
घोषणा, वैदम् । यमन्तात् । गर्गायां सः श्रङ्को लक्षणं घोषो वा, गार्गम् । “क्यच्भ्यमाद्वत्पापत्वस्व" [*१] इति यस्व ! हुन्तात् ! दान्तम् ! प्लाक्षम् । प्रणोत्किरणं स्त्रियां ङयर्थम्। "धिसमिधरे” [४|३/१५१] इत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थं च । वैदी स्थूणा अस्य वैदीस्थूणः | लक्ष्म्या (क्ष्य )गतं. चिलचणं यथोपरामो मुनीनाम् । मात्सम्वन्धि गतं चिह्नमङ्गः, यथा गर्दा रेखा ।
"
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शाकाद् षा ||३|३|१६|| शाकलशब्दात्सङ्घादिषु इदमर्थं विशिष्टषु वाऽय् भवति चरणलक्षये नित्ये बुनि प्राप्ते विभाषेयम् । कथं चरणत्वम् १ शाकल्येन प्रोक्तमधीयते शाफलाः । प्रोक्ताऽर्थे "कादिभ्यो वृद्ध” [शश८७] हृत्यण् । "वयच्ज्यन श्वधृत्यापस्पस्य [ ४|४|१४१ ] इति यस्वम् । "श्वेत्यधीते" [११] इत्यागतस्याग उत्रोक्तात्" [३१९/५४ ] इत्युप् । शाकलानां सङ्घः अङ्कः, लक्ष, घोषो वा, शाकलम् |
"
दोषियका शिकवचनटाः ||३३|१७||
घादयो निवृत्ताः । सामान्येन तस्ये दमिति वर्तते । छन्दोग श्रक्थिक याशिक घडच नट इत्येभ्यो घो भवति । वुनोऽपवादः । नटशब्दादयोऽपवादः । छन्दोगानां धर्मं श्राम्नायो वा छान्दोग्यम् । श्रक्षिकानां धर्म आम्नायो वा प्रक्थिक्यम् । याज्ञिक्यम् । श्रह्रीः वोऽधीयते, बह्वृचाः । श्रः सान्तः । तदूवेत्यी" [४।२।१] इत्यागतस्यायी "हस्योबनपत्ये " [३।७४ ] इत्युपू । तेषां धर्म श्राम्नायो वा बाहुच्यम् । चरण साहचर्य्यान्नटशब्दादपि धर्माम्नायोरेव त्यः । नाट्यम् ।
म दण्डमाणान्तेवासिषु || ३ | ३२६८ ॥ दण्डप्रधाना माखवाः दण्डमाणवाः । श्राश्रमिणां रक्षा परिचरणविधायिन इत्यर्थः । श्रन्तेवासिनो विनेयाः । वृद्धअद्दणमनुवर्तते । दण्डभागवेषु श्रन्तेवासिषु इदमर्थं विशेषेषु वस्येदमित्यस्मिन्विषये वृद्धाद्यदुक्तं तन्न भवति । काव्यस्येमे काण्ठा । गौकक्ष्यस्येमे, गौकक्षाः । दयखभावा अन्तेवासिनो वा । वृनि प्रतिषिद्धे "शादिभ्यो बुद्धे” [३७] इत्य | दारिमे दाक्षाः । प्लाक्षाः । "इनः” [३२८८] इत्यय् ।
23
पतिका देश्छः || ३ | ३|१६|| तस्येदमिति वर्तते । वृद्धादिति च । रैवतिक इत्येवमादिभ्यो वृद्ध म्याको भवति । वुनादेरपवादः । रैवतिकस्येदं रैवतिकीयम् । वुनः प्रकृतै प्रतिषेधे कृते सामर्थ्याद् दोश्छः सिद्धः । नैकं शक्यम् इञतात् "इञः [२६] इति श्रय् प्राप्नोति सङ्घादिषु चाणः प्रतिषेधे बुन् प्रसन्येव । रैवतिक | गौरीवि । स्वापिशि । चैमवृत्ति । चैम इति केचित् । श्रदमेषि । श्रदवादि । श्रदवापि । वैजवापि ।
कौपिञ्जलद्दास्तिपदादण || ३ | ३ | १०० ॥ कपिञ्जलहास्तिपदशब्दान्या मय् भवति तस्येदमित्यस्मिन्विषये । वृद्धलचणस्य बुनोऽपवादः । कुपिञ्जल हस्तिपादशब्दाभ्यामपत्येऽर्थे तु एव निपातनादय् । पादस्य पद्भावश्च | कौपिञ्जलरुयेद को पिलं शकटम् । ह्रास्तिपदं शकटम् । आरम्भसामर्थ्यादेवाणि सिद्धे पुनरण्ग्रहणं "माणावासिपु" [३३३६८] इति बुनि प्रविषिद्ध "दो" [ २६० इति छे प्राप्ते अ यथा स्यात् । कोपिला श्रन्तेवासिनो दण्डमाखवा श्रन्तेवासिनो वा ।
श्रथर्षणः ॥३|३|१०१॥ तस्येदमिति वर्त्तते । आथर्वण इति निपात्यते । प्रायश्रिभ्यादा निपात्यते इकस्य च स्वम् । चरणवाचि शब्दादस्माद् बुञ् प्राप्तः । अथर्वणा प्रोक्त छन्दोऽधीयते, प्राथयिकाः। प्रोक्तार्थेऽपि "तोऽपुसरे इति [१३] इति टिखं प्राप्तम् १ "म:"
केसि काशिकाकाराः २. श्यशब्दस्वादस्माथू हु-पू० ।
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जैमेन्द्र-व्याकरणम् [म. पा० ३ ० १०२-१.५ [DIVI५८] इति प्रतिषिद्धम् । पाथर्वण इति स्पिते "गन्दोमायामि पात्रका | इति नियमात् "सवेरमधीते" [ 1] इत्यपि प्राप्ते उक्यादिष्वाथर्वणशब्दस्य पाठात् ठण् । तत्र पाठसामर्थ्यादेव "इपोस्वात्" [१५] इत्युग्न भवति । श्रायशिकानां धर्म माम्नायो वा श्रायर्वणः । यस्तस्यादिध्वयर्वन्शन्दः पश्यते स उपचाराच्छास्त्रवचनः अथर्वाणं वेश्यधीते वा प्राधर्षणिकः । दिसामावश्चात्र वक्तव्यः । अस्याप्यायर्वणिकशब्दस्येदं निपातनमिष्यते ।
तस्य विकारः ॥२३१०२॥ प्रकृतेरवस्थान्तरं विकारः । वस्येति तासमाद् विकार इत्यस्मिन्न यथाविहित त्यो भवति । अदु यस्य च नाम्पत्(न्यत्र) प्रतिपदं ग्रहणं तदिहोदाहरणम् । प्रश्मनो विकार श्राश्मः। "श्वारमधर्मदा सक्कोचाविकारकोशेषु" [ २] इति टिखम् । भस्मनो विकारः, भास्मनः। मार्तिकः । तार्कवः। देवदारखः । तैत्तिरीकः । वैल्यः । कापित्थः । पाखाशः। प्रकृत्युपस(म) देन यो विकारस्तवार्य विधिः । तेनेह न भवति, श्रानं पकमिति । भवति पवमानस्म फलस्य विकारे न तु प्रकृत्युपमर्दि । वस्येति वर्तमाने पुनस्तस्य ग्रहणं शैषिकाणां धादीनां निवृत्यर्थम् । अतः परमोस्वर्ग एव भवति । अत्र केवियु क्लिः पूर्वसभादशीति वन है हा शिवीपमान वेन रौष्टि फाग बाधकः ।
प्राण्योषषिवृतेभ्योऽवयवे ब ॥३६३११०३॥ प्राणिनश्चेतनावन्तः । फलपाकान्ता ओषधयः । पुष्पवन्तः फसवन्तश्च वृक्षाः। वृक्षविशेषत्वानस्पतिवीरधामपि वृक्षग्रहणेन प्रायम् । प्राएगोषभिवृक्षवाविभ्यस्तासमर्थेभ्योऽवयवे विकारे च यथाविहितं त्यो भवति । अवयव एकदेशः । प्राणिभ्य उच्चरत्र वक्ष्यते । श्रोषधिभ्या,मूर्षाया अवयवो विकारो वा मौर्व काण्डम् । मौर्व भस्म । चूवेभ्य -कारीरं काण्डम् । कारीरं भस्म । पैपलं कापडम् । शातपत्रिक कारडं मत्म च । इह बोधिवृक्षग्रहणं सापकम् । "महौ घे: प्राजिलकाता [श८५] इत्येवमादिषु प्राणिग्रहणे वृक्षादीनां प्राणिोऽपि ग्रहणं न भवति । तस्य विकार:प्राण्योपधिवृक्षेभ्योऽवयवे चेति द्वयमधिक्रियते । अयं तु विभागः । प्राण्योषधिकृतेभ्यः, अवयवविकारयोरुत्तरो विधिः । अन्येभ्यस्तु विकारमात्र पष्टव्यः ।
जातरूपेभ्यः परिमाणे ॥३॥३१०४॥ इहाऽसम्भवादद्वयवार्थो न सम्बध्यते । पातरूपवाचिभ्यस्तान्तेभ्यो विकारविशेषे परिमाणे ययाविहित त्यो भवति । बहुत्वनिर्देशात्स्वरूपस्य तत्पर्यायवाचिन च प्राणम् । इह यूनि (दुनि) प्रयोजयन्ति | "निय बुशराधेः" [३३ ] इत्यनेन प्राप्तस्य मयटोऽस्वादः । बातरूपस्य विकारो मात्ररूपो निष्कः । बातरूपं कार्षापणम् । हाटको निम्कः । हाटकं र्षापणम् । परिमाण इति लिम् । हाटकमयी यष्टि ।
प्राणितालादेः ||३।३।१०५।। तस्य विकारः प्राण्योषधिवक्षेभ्योऽवयवे चेति वर्तते । प्राणिवाचिम्यस्ताल इत्येवमादिभ्यश्च यथाविहितं त्यो भवति । " निस्य सुशरादे" [२ ] इत्यस्य मयटोऽपवादः । सारसस्य विकारोऽवयवो वा सारस मांसम् । सारस सक्थि। काकं मांसम्। कार्फ सक्थि । श्रदयोऽपि ये प्राणिवाचिन तेभ्यो "भयतमोरमक्याच्छादनयोः" [RIE] इति पदे मयट प्राप्नोति । क्बाधना. थंञ्चेदम् । कपोतस्य विकारोऽवयवो वा कापोतम् । मायूरम् । तैत्तिरम् । पुरस्तादपवादोऽयमनन्तरस्य मयविकल्पस्य बाधको युक्तो नोत्तरस्य "नित्यमुट (-यं पुश-) शरादेः" [ 1] इत्यल्प । तत्वयं (-थम) भयोर्माया ! अनन्तरम्यषधानाभावात् सामान्यापेक्षया । तालादिभ्यः, तालस्य विकारः वालं धनुः | " भन्येवेष्यते' । अन्यत्र तालमयम् । तालाधनुषि । बहिण । इन्द्राहिय । इन्द्रदिश। इन्द्रायुध । चाप | श्यामाक । पीयुषन् । रस्त । सीस । कोह। उदुव (ब) र । निदाब (नीपर)।
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. पा० । सू. १०६-१11] महावृतिसहितम्
२०९ रोहीतक । विभीतक । पीतदा । त्रिकपटक । कण्टकार । कापड । गबेधुक' । पाटली । मेऽवादवः, तेभ्या "मपर्वतमोरमायाादनयोः" [/102) इवि विकल्पेन भटि प्राप्तेऽपवादः ।
अपुजतुनो पुक् ।।३।३।१०६॥ त्रपुजनुशब्दाभ्यां यथाविहितमण भवति तत्सन्नियोगेन च घुगागमः । अपुषो विकारः, पापुषम् ! बातुषम् ।
शम्याः एलज् ॥३॥३१०७॥ शमोशब्दावष्टला भवति विकारावयययोरपयोः। अशोऽपवादः । शामौलं भस्म । शामौली सुक् ।
मयाचैतयोरभक्षाच्छादनयोः शश१०८॥ भक्ष्यमभ्यवहार्यम् । श्राच्छादनं वसनम् । तासमांमृदो वा मयड भवति भक्ष्यानकाट्नवर्जितयोविकारावयग्योरर्शयोः ! अम्मनो विकारोऽममयम् । श्राश्मम् | सिकतामयम् । सैकतम् । दूर्वामयम् । दौर्वम् । विकागऽवयको प्रकृतावेव तकिमर्थमेतयोरिति प्रमाणम् ! अनन्तरयोरपि योगयोरपवादबाधनार्थम् । त्रपुमयम् । जतुमयम ! शमीमयमिवि ] अन्ये' कपोतमयम् , रक्तमयम् , लोहमयमित्यादि इच्छन्ति । तस्तेषां प्राणिरजतादिभ्योऽ" [२१. पा. सू.] इत्यस्य सूत्रस्य व्याख्यानेन विरुध्यते । तस्मात्कपोतममिति चिन्त्यम् । अभक्ष्याच्छादनयोरिति किम ! मौद्गः सूपः । कापासः प्रावास
मित्यं दुशरादः ॥३।३।१०६॥ अभक्ष्यालादनयोरिति वर्तते । दुग्यः शरादिभ्यश्च तासमर्येभ्यो भक्ष्याच्छादनवर्जितयोर्विकारावयवयोर्नित्यं मयड़ भवति । दुभ्यः, श्राम्रस्य विकारोऽवयवो वा प्राममयम् । शालमयम् । शरादिभ्यः, परमयम् । शर | दर्भ । मृदु । कुटी। तृण । सोम । बल्वन | श्रारम्भानित्यत्वे लम्धे नित्यग्रहणं किम् ! एकाचो नित्यं मयट यथा स्यात् । वाङ्मयम् । त्वमयम् । त्ये नित्यं पररुसंशादेशः। अथ विकाराययवयोर्यस्यत्वदन्ताद्विकाराप्रयवान्तरविवक्षायां मयट कस्मान भवति । देवदारवस्य विकारोऽवयवो वा देवदारवम् । दावित्थस्य, दावित्यम् | पालाशस्य पालाशम् । शामीलस्य, शामीलम । फापोतस्य. कापो. तम् । श्रौष्ट्रकल्प, श्रीष्ट्र कम । ऐरोयल्य, ऐणेषम् | फांसस्य, कांस्यम् । पारशवस्य, पारशवमिति । नैष दोषा, समुदायशब्दोऽवयवेऽपि दृष्टः । इति विकारान्तरे अवयवान्तरे च विवक्षिते मूल प्रकृतेरेव ल्यः । तेन स्वान्तान्मयएन भवति । अनभिधानाद्वा । यत्राभिधानमम्ति तत्र विकारान्तरेऽवयवान्तरे च यो भवत्येव । गोमयस्य विकारः, गोमयं भस्म । द्र वयस्य विकार, द्रौक्वम् । कपित्थस्य फलस्य विकारः, कारिस्थम् । आमलकस्य फलस्य विकारः, श्रामलकमयम् । सर्वमयं मयट दुसंज्ञकम्यः शरादिभ्यश्च नित्यं भवति । अन्येभ्योऽमक्ष्याच्छादनयोर्षा भवति । चातरूपेम्या, प्राणितालादिम्याण भवति ।
पिष्टात् ॥३२११०॥ पिष्टशब्दाद् विकाऽमें नित्यं मयड् भवति । पिष्टस्य विकारः, पिष्टमयम् । भक्ष्यत्वादणेव प्राप्तः, तदपवादोऽयम् ।
काखौ ॥३॥३२१११॥ पिष्टशब्दात्को भयति खुविधये । अनन्तरस्य मयटोऽपवादः । पिष्टस्य विकारः पिष्टिमा ।
1. गवेषुका म., पू०। २. मन्ये काशिकाकाराः | चिस्यमिदम-पोतमयम, लोहमयभिस्यादीनां प्राधिरजतादिसूत्रध्याख्यानविरोधाभावात् । रजतारिपठितस्यानुदासाविशयस्यैव मयशाधकरवम् । शदातादेस्तु बसमयटोहमयोरपि विधानस्य तन्नस्यन्यासग्रन्थे निर्णावस्यात् । जन्ममिति काशिकार्या नास्त्येष । बिस्तारस्तु काशिकान्यासे वापः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ३ सू० ११३-१११
सिलवादस्त्रौ ॥ ||३|११२ ॥ तिलयषशब्दाम्या मखुविषये नित्यं मयड भवति विकारावयवयोर। तिलानामवयवो विकारो वा, तिलमयम् । यवमयम् । श्रखाविति किम् ? तैलम् । यावकः । "कोडवि भावादेः [४/९/३२] इति स्वार्थिकः कः ।
२१०
गोश्रीहेः शकृत्पुरोडाशे || ३|३|११३ ॥ गोत्रीदिशब्दाम्यां यथासंख्यं शकृति पुरोडाशे च चिकारेऽभिधेये नित्यं मयडू भवति । गोमयं शकृत् । त्रीहिमयः पुरोडाशः । शत्पुरोडाश इति किम ! गव्यं पयः । मैह श्रोदनः ।
कतियपरिभाषात् गराएको
परिमायाचिनः यविधिर्भवति विकारे । परिमीयतेऽनेनेति परिमाणं परिच्छेदहेतुः न तु रूढिपरिमायामेव । तेन संख्यायाः प्रस्थादीनां च ग्रहणम् । क्रीतायें वे त्या यस्मात्परिमाणाद्विहिताः, ते विकारेऽप्यर्थं तस्मादेव परिमाणादतिदिश्यन्ते । यथा भवति "तेन क्रीत" [श४१३५] हत्या । श्रातेन क्रीतः शतिकः, चत्यः । "शवादस्वार्थेऽले कयौ " [३] 21] इति । सहसे या क्रीतं, साहस्रम् "शतमाम विंशतिसहखबसनाद" [३/४/२४] इति व्यायणः । एवमिहापि शतस्य विकारः रात्यः, शतिकः, साहसः । यथा परिमाणाकीतार्थे "आइ टुण्” [ ३|४|१७] भवति । प्रस्थेन क्रोतः, प्रास्थिकः । क्रौडविकः । खार्या क्रीतः खारीकः । "खारीका कपू" [ ३६३०] इति कपू । एवं प्रस्थ
स्य विकार: प्रास्थिकः । कौविकः । खारीकः ।
कोण्या ढम् ||३|३|११५ ॥ कोश एणी इत्येताभ्यां दञ भवति विकारावयवयोरर्थयोः । कोशाद्वस्त्रे प्रयोगः । कोशस्त्र विकारः, कौशेयं वस्त्रम् श्राच्छादनम् । मयट् नास्ति । श्रयोऽपवादः । एण्या विकारोऽवयवो वा ऐणेयं मांसम् । ऐणेयं सविथ । गीति स्त्रीलिङ्ग निर्देशात्पुंस्यदेव मर्वात । देणं मृगम् ( मांसम् ) ।
उष्ट्राद्दू बुझ ||३|३|११६ ॥ उद्दशब्दाद्वुञ भवति विकाराववयवयोरर्थयोः । प्राणिलक्षणस्याऽयोऽ पवादः । उष्ट्रस्य विकारोऽवयवो वा श्रकम् ।
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वोमोर्णात् ||३|३|११७॥ उमा अतसी । उमाकर्णाशब्दाभ्यां वा कुम् भवति विकारावयवयोरर्थयोः । माया विकारोऽवयवो वा श्रौमकम् । पते श्रणमययै । श्रमम् । उमामयम् । ऊर्णाया विकारः, श्रकम् । प पूर्ववदमयौ । श्रर्णम् | कर्णामयम् ।
गोसो ||३|३|११८ ॥ गो पयस् इत्येताभ्यां य इत्ययं त्यो भवति विकारावयवयोरर्थयोः । गोविं hist यम् । पयसो विकारः पवस्त्रम् ।
द्रोः ||३|३|११६ ॥ द्रोः शब्दाद्यो भवति विकारावयवयोः । श्रय् मयटोरपवादः । द्रव्यम् "प्राग्द्रो" [२८] इत्यधिकार व्रत ऊर्ध्वं न प्रवर्तते ।
माने वयः || ३|३ | १२० ।। द्रुशब्दान्माने विकारविशेषे वय इत्ययं त्यो भवति । पूर्वस्य यस्यापवादः । वयं मानम् ।
उपफले ||३|३|१२१९॥ फलमवयवविशेषो यथा पत्रम् । श्रवयवविशेषे फल उत्पन्नस्य त्यस्यो भवति । आमलक्या अवयवः फलम् आमलकम् । मयट उप् । कुचल्या श्रवयवः फलम् कुवलम् । बदरम् | एमययेरुप् । सर्वत्र “हृदुष्युप्’” [11] इति स्त्रीत्यस्योप् ।
वृक्षादिभ्योऽण् ||३|३|१२२|| मद इत्येवमादिभ्योऽय् भवति फलेऽवयने विवचिते । प्रक्षस्या व्यवः फलं ज्ञानम् । श्रणुमयी प्राप्तौ तयोश्च पूर्वोप्प्राप्तः, तदपवादोऽयम् । न्यग्रोधस्याऽवयवः फलम्,
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३प० १ सू० १२३ - १२४ ]
महावृचिसहितम्
२११
नैयप्रोचम् | “भ्यश्रोधस्य केवलस्य [ ५१९ | 10 ] इत्यैप् । झच । न्यग्रोध । अश्वत्थ | इङ्गुदी | शि किततन्तु' । बृहती |
जम्न्या वोध ||३|३|१२३|| फल इति वर्त्तते । जम्बू शब्दादवयवविशेषे फलेऽभिधेये वा उस् भवति अय् च । पक्षे उन्भवति । अम्ब्वा अवयवः फलम्, मयट उखि, बम्बूः फलम् । यो बचन दुस् न भवति । जाम्भवं फलन | उपि बम्बु फलन् ।
हरीतक्यादे || ३ | ३|१२४ || उतिति वर्त्तते फले इति च । हरीतक्यादिभ्यः फले अवयवे उस् भवति यस्य । हरीतक्या अवयवः फलम् हरीतकी फलम् । दर्शतकी पिप्पली कोशातकी । नखरजनी । चएडी । दोडी | श्वेतपाकी | अर्जुनकी । शाला । काला । द्वादा । ऋक्षा | गङ्गडिका । कण्टकारिका । शेफालिका । "ये पाकनिमित्त: शोषः तेभ्यश्च उस् फले " [ बा० ] ब्रोइयः । यवाः । माषाः । मुद्गः। "पुष्पमूलेषु बहुमू" [ वा० ] मलिकायाः पुष्पम् श्रवयवः, मल्लिका । नवमल्लिकाः । जाती । बृहत्या मूलमवयवः, बृहती | बिहारी । श्रंशुमती । न च भवति उत् उचैव भत । पाटलानि पुष्पाणि । शाल्वानि मूलानि | करवीरं पुष्पम् । कदम्बम् । अशोकम् । क्वचिदुभयोरभावः । वैणवानि फलानि । जवा हरी क्यादिषु च उसिलिङ्गमेष उक्तषद् भवति न वचनम् " [ वा० ] जम्बूः फलम् । नवौ फले । म्बः फलानि । इरीतकी फलम् । हरीतक्यौ फले । इरीतकुषः फलानि ।
कांस्यपारी ||३|३|१२|| कराइये शब्द निपात्येते । कंसीय नरशव्यशब्दयो वैभियोः परखरछोषस् निपात्यते विकारेऽर्थे । यत्रोरोरनेनैव विधानम् । कांसार्थम्, कंसीयम् । परश्वर्थं परशय्यम् । "तदर्थ विक्रुतेः प्रकृती" [ ४|११ ] इत्यनेन प्राक्टणश्छः । “उवादेर्यः” [ १ ] इति छयौ भवतः । कंसीयस्य विकारः, कांस्यम् । परशय्यस्य विकारः, पारशषम् ।
प्राग्यद्विण् ||३|३|१२६॥ "शवहति रथयुगप्रासङ्गाच: [ ३।३।१६१] इति यो वक्ष्यते । प्रागेतस्माद्य संशब्दना वच्यन्ते तेषु ठधिक्रियते । वक्ष्यति तेन भ्यति सामति जयति तिम्" | ३ | ३ | १६७ ] इति । अत्रैव्यति चाचिकः । शालाकिकः । प्राग्वचनं किम् १ श्रविशेषे त्यान्तरेण निवर्त्तितस्य उत्तरत्रोपस्थानं यथा स्यादित्येवमर्थम् ।
तेन दीव्यति खनति जयति जितम् ||३|३११२७॥ तेनेति भासमर्थात् दीव्यति खनति जयति चितमित्येतेष्वर्थेषु भवति । श्रक्षैदव्यति श्राक्षिकः । शालाकिकः । श्रभ्रया स्वनति श्राभिः | कौदालिकः । यति, श्राक्षिकः । शालाकिकः । श्रस्तिम्, यक्षिषम् | शालाकिकम् । सर्वत्र करो भा द्रष्टव्या । तेनेह न भवति देववचेन जितमिति । दीव्यत्यादिषु त्रिषु संख्या कालावविवक्षितौ । वितशब्दे कालो विवक्षितः 1 क्रियाप्रधानत्वेऽयाख्यातस्य हृत्स्वभावादेव कारकाभिधायी। आदिको दीव्यतीत्यनुप्रयोगः सन्देहनिवृत्यर्थः ।
संस्कृतम् ||३|३|१२८॥ तेनेति वर्त्तते । भासमर्थान्मृदः संस्कृतमित्येतस्मिन्नर्थे व भवति । वक्ष्यमाणात्संसृष्टात्संस्कृतस्य को भेदः । सतो गुणाभिधानं संस्कारः । मिश्रणमात्र संसर्गः । दध्ना संस्कृतं दाधिकम् । शार्ङ्गरिकम् । मारीचिकम् । “संस्कृतं भा:" [३३२|११] इत्येतदाधारविवक्षायामुकम् ।
कुलस्थकोङोऽण् ॥३३३ १२६ ॥ तेनेति संस्कृतमिति च वर्त्तते । कुलत्थशब्दात् कारोक्स मूदोस् भवति । योऽपवादः | कुलत्थैः संस्कृतं कौलत्यम् । कोङ, वैसिडोकम् । दार्दकम् ।
१. तन्तन्तु अ० पू० । कर्कन्धु इवि काशिकायाम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[म०३ पा. ३ सू. ११..
तरसि ॥ ३३।१३० ॥ तेनेति वर्तते। भासमर्थात्तरतीयस्मिन्नर्थे ठग्य भक्ति । उडुपेन तरति प्रौद्धपिकः । कागडप्लविकः । सारप्लविकः । गौपुच्छिकः ।
नौद्ध पश्चष्टः ॥३३६१३१॥ तेनेति तरतीति घ वर्तते । नौशब्टावयाचश्च मृदष्ठो भवति । ठणोऽपवादः । नावा तरति नाविकः । नाविका स्त्री वषचः, घटेन तरति घटिकः । विकः । बाहुकः ।
चरति ।।३।३।१३२॥ तेनेति वर्तते । घरतिरिह भक्षणार्थो गत्यर्थश्चेष्टः। तेनेति भाममर्याच्चरति इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । इह तु करणे भा । शक्टन चरति, शाऋटिकः । हारितकः ।
पर्यादेप्टट् ॥३।३।१३३॥ तेनेति चरतीति च वर्तते । पर्प इत्येवमादिभ्यष्ठट भवति । ठपोऽपवादः । पंपण घराते, पर्पिकः । पापको | अश्विकः । अश्विको | पर्प । अश्व । ऊपर | अश्वस्थ इति केचित् । स्थ | जाल । व्यास । पादः पन्चे । पदिकः । पदिको ।
श्वगणाद्वा ||३३१३४॥ तेनेति चरतीति वर्तते । श्वगणशब्दाद् वा ठड्भवति । पक्षे ठण । श्वगणेन चरति, गणिक: 1 व गणिकी । श्वागणिकः । श्ागणिकी । उणि श्वशब्दस्य द्वारादित्वादीयादेशः प्राप्तः 'वादेरावत:" [ स] प्रति प्रतिषेधः ।
चेतनादेविति ॥३३॥१३५॥ तेनेति वर्तते । चेतनादिभ्यो भान्तेभ्यो जीवतीत्यस्मिरथ यथा विहितं त्यो भात | वेतनेन जीवति, वैतनिकः | वेतन | बाहु । श्रबाहु । उस । दण्ड । धनुर्दण्ड । धनुर्दण्डग्रहणं सातविग्रहीतार्थम् । बेश । उपवेश ! प्रेषण । भृति । नाल । उपस्य । सुख । राष्प । शक्ति । उपनिषत् । फिक (सक्) । पाठ । उपस्थान ।
वस्नक्रयविक्रयाः ॥३॥३१३६|| सेनेति जीवतोति च क्तते । बस्न क्रयविक्रयशब्दाम्यो डो भवति । वस्ने मूल्यम्, यस्नेन जीवति, बलिकः | क्रयविक्रयेण जीवति, ऋविक्रयिकः | उभयथा वाक्याभयणाक्रयधिक्रयेण जीवति, क्रयिकः । विकयिकः ।
छश्चायुधात् ।। १३७ श्रायुध्यतेऽनेनेत्यायुधम् । प्यभ्यर्थ (घ ) कविधामं स्थास्वापा. म्यधिहनियुष्यर्थमिति। प्रायुधशब्दाद् मासमर्थान्छश्च भवति ठश्च वीवतीत्यर्थे । मायुधेन नीति आयुधीयः । प्राधिकः । आयुधिका स्त्री ।
घरत्युस्सलादेः ॥३३॥१३८॥ तेनेति वर्तते । उत्सङ्ग इत्येवमादिभ्यो भासमय यो हरतीत्यस्मिनायें ठण भवति । उत्सङ्गेन इरति, ओत्सङ्गिकः । उत्सङ्ग । उडुप । उत्तुप । उत्पत उत्पुत )। पिटक । पिटाक |
ठड्मस्त्रायः ॥३॥३॥१३९॥ भस्ना इत्येवमादिभ्यो भासमभ्यष्ठङ् भवति । भस्त्रया इति, भस्त्रिका । भत्रिकी | भस्वा । भरट । भरण । शीर्षभार | अंसभार । अंसेभार |
वा विवधवीषधात् ॥३३॥१४०॥ तेनेति इरतीति वर्तते । विवधवीवधशब्दाभ्या या उद्भवति, तेन मुक्त ठण मवति । विवधेन छवि, विधिकः । बीवधिकः । णि । वैवधिकः । स्वदेद्यान्वापति (विवाधते)वीवधः पर्याहार इत्यर्थः । तद्योगात्पया अपि तयोच्यते । विवधशब्दस्य पृषोदरादित्वादा दौत्वम् ।
अण् कुटिलिकायाः ॥३३॥१४॥ काराणामङ्गारापकर्षणो, मृद्गतां ( त ) पक्षालोत्क्षेपयो पा, परिवाचकानां त्रिवएडधारणम् । कुटिलिका 1 कुटिलिकाशब्दाद् भासमर्यादण् भवति हत्यस्मिन्नर्थे । कुटिशिकया इरति, कौटिलिक कारः कर्षका, परित्राबको था । अन्यत्राऽपि प्रयोगोऽम्यूहः ।
1. शाददापति-प्र., ३० ।-शान्यायतिर्षि-।
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०१ पा०३ सू. १४२-१५१] महावृत्तिसहितम्
२१३ नित्तेऽसघुतादेः ॥३३२१४२|| हरतीति निवृत्तम् । तेनेति वर्तते । अक्षयतादिभ्यो भासमयम्यो नित्सेऽथें ठण् भवति अक्षतेन निर्धत्तम् , आक्षतिकम् । अक्षयूत । पद्यापहत | बडामहव । पादस्पेदन । कण्टकमईन | शर्करामदन । गतागत ! यातोपयात 1 अनुगत ।
भावादिनः ।।३।३।१४३।। तेनेति निवृत्त इति च वर्तते | भाववाचिनो मृदो मास्मानित इम इत्ययं त्यो मवति । कुट्टेन निर्वृत्ता, कुटिमा भूमिः ! सेकिमोऽसिः | पाकिम श्रोदनः ।
॥३२॥१४४ा व्यस्ताच्च भूमी भवति तैनेति नित्तेऽर्थे । पूर्वेण सिद्ध पुनरारम्भो वाक्यनिवृत्त्यर्थः । अस्वपदेनार्यः प्रवीते । पाकेन निर्वृत्तम् , पक्किमम् । वापेन निवृत्तम् , उप्तिमम् । करोन निवृत्तम् , कृषिमम् । भावे "वत: विनः" [२१..] इति वित्रः।
नित्यम् ॥ ३३१४५ ॥ पन्तं नित्यमिमविषयं वेदितव्यम् । यथाऽन्ये भाववाचिनी निचार्यादन्यत्रापि प्रयुज्यन्ते । पाको वर्तते । सेको वर्तते. इति निर्वृत्तार्थे वाक्यं वृत्तिश्च भवति, तथा व्यन्तस्य त्रैरूप्यं मा भूत् इत्येवमर्थमिदमुच्यते । पूर्वेण वाक्यनिवृत्तिः कृताऽनेनेमविषयादन्यत्र प्रयोगो निषिध्यते ।
याचिताऽपमित्यात्कण ॥३२२१४६॥ रोनेति निवृत्तमिति च वर्तते । याचित-अपमित्यशब्दाम्या कण भवति । याचितेन निर्वत याचितकम् । अापमित्यकम् । “माको व्यतिहारे" [14] इति तचात्यः । "व " [शक्षस] इलम् | अभान्तादपि वचनान्यः । अपमित्व इत्यनेन नित्तम् इत्येवं किरहे शम्दान्तरेण करणत्वं व्यज्यते ।।
संसृष्टे ॥२३११४७॥ तेनेति वर्तते । भासमान्मृदः संसृष्टेऽथे ठण् भवति । संसृष्टं मिश्रितम् । बध्ना संवृधम , दाधिकम् | मारीचिकम् | "चूर्णा दिन बक्तग्यः" [फा०] | चूर्णेन संसृष्टाः, चूर्णिनो घानाः । चूर्णिनोऽपूपाः । इह कस्मान भवति. लषणेन सैन्धवादिना संसृष्टमिति ! अनभिधानात् । कर्य लवणः सूपः, लवणं शाकम , लवणा यवागूरिति ! गुणाचिनो लवणशब्दस्य तद्योगात् द्रव्ये वृचिरियम् । यथा कषायमुदकम् । कटुकमुदकमिति ।
मुद्गादण ॥३।३।१४।। मुद्गशब्दाद् भान्तादण भवति ससुद्धेऽर्थे । ठणोऽपवादः । मौद्ग ओदनः।
ध्यानैरूसिक्ते ॥२१४६॥ तेनेति वर्तते । सामर्थविभक्त्युपादानं तस्यैव व्यक्तये । स्थानवाचिभ्यो भासमर्थेभ्य उपसिहोऽर्थे ठण् भवति । दध्ना उपसित दाधिकं भक्तम् । घार्तिकः सूपः । व्यञ्चनैरिति किम् ! उदकेन उपसिक्त श्रोदनः । बहुत्त्वनिर्देशः स्वरूपनिरासार्यः ।
मोजा होऽम्भसा वसते ॥३३१५०॥ तेनेति वर्तते । निर्देशाद् वासमर्थविभक्त्युपादानम् । ओमप्रभृतिभ्यो भासमर्थेभ्यो वर्तते इत्यस्मिन्नर्थे उण भवति । प्रोजसा वर्तते, मौजसिकः । साइसिकः । श्राम्भसिकः।
तस्प्रत्यनुपूर्वमीपलोमफूखात् ॥३॥३१५१|| तदिति इप्समर्थेभ्यः प्रति अनु इत्येषपूर्येभ्यः ईपलोमफूलशब्देभ्यो वर्तत इत्यस्मिनथें ठण् भवति । वृत्तिः क्रियासामान्ये वर्तमानः सकर्मकः । घर्तते शाचरतीत्यर्थः । अप प्रति, प्रतीपम् । "वीप्सेधभूतलक्षणेऽभिने' [ ]: "मागे चानुपातिपरिणा" [ 11/१२] इति लक्षणेऽर्थे ई "छक्षणेनाभिमुख्येऽमित्रवी [11] इति हस: ! "वपनमेरीदपः' [३२०१] इति त्वम् । भावप्रधाना चेयं वृत्तिः। समुदायातकर्मवीप । प्रतीप वर्तते पाती. पिकः । अनुयथार्थे वर्तमानः अपशब्देन सह हसो भवति । आन्वीपिकः । प्रतिलोम वत, प्रातिलोमिका
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [७० ३ पा० ३ ० १५५-१५॥ भानुलोमिकः । इसे कृवे "प्रत्यम्वकासामकोम्नः" [१२] इति अः सान्तः । प्रातिकूलिकः | प्रानुकूलिकः । अथवा प्रतिगता प्रापोऽस्मिन्निति प्रतीपम् इति । पर्व सर्वत्र वसः फर्तव्यः ।
परिमुखम् ॥३॥३५१५२।। तदिति वर्तते । परिमुखशब्दात् इप्समर्थाद् वर्तते इत्यस्मिन्नर्थे ठप्प भवति । भूखापरि परिमुखम् । “वजनेऽपपरिभ्याम्" [१२] इति का । अपर्यपालबाहिरणवः ब्या" [ .] इति इस: । परिमुखं वर्तते पारिमुखिकश्चौरः । सर्वतो मुखं वा परिमुखम् । प्रादिलक्षणः सः । पारिमुखिकः । "परिपाराग्धेसि धकग्यम्" [ वा. } । पारिपाविकः ।
प्रयजति गम ३२३।१५३॥ तदिति वर्तते । तदिति इप्समर्थात्प्रयच्छति इत्यस्मिन्नर्थे ठप मवति यचदिप्समर्थ चेचद् भवति । द्विगुणं प्रयच्छति, द्वैगुणिकः | गुणिकः । "(१) यणि भुषिमावो धक्तव्यः" [वा०] | वृद्धिं प्रयच्छति बाधुषिकः । अदि प्रकृत्यन्तरमस्ति, प्रव्यविकन्यायेन तस्मादेव त्यः । गमिति किम् १ द्विगुणं प्रयच्छत्यधमणः ।
कुसीददशीकारशाही ।।३।३.१५!| तासति गर्दा पनि न वर्तते। कुसौद-दशैकादशशब्दाभ्यां प्रयच्छतीत्यस्मिन्नर्थे यथासंख्यं ठट् ठ इत्येतो त्यो भवतः ठणोऽपवादौ । कुसीदम् ऋणं वृद्धिर्वा । कुसीदं प्रयच्छति, कुसादिका 1 कुसोदिकी । एकादशाथी दश दशैकादश निपावनासः । तान् प्रयच्छति, दशैक्षदशिको । दशैकादशि का ।
रक्षत्युन्छति ॥३३॥१५॥ तदिति प्रपूसमर्थांद रक्षति उच्छति इत्येवयोरर्थयोष्ठम् भवति । समाचं रक्षति, सामाजिकः । नागरिकः । वदारयुञ्छति बादरिक । नैवारिकः ।
शब्दवदुरं करोति ॥३।३११५६|| रूपसमाम्यां शब्ददर्दुरशब्दाभ्यां कोयस्मिन्नर्थे ठण् भवति । शब्दं करोति, शान्दिकः । वैयाकरण इत्यर्थः । दार्दुरिकः कुम्भकारः । तदित्यधिकारे पुनः समर्यविभक्त्युपादानं लोषिकप्रयोगाऽनुसरणार्थम् । तेनेह न भवति । शब्दं करोति वायसः । “अस्मिन्प्रकरणे उदाहेतिमाशब्दादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] माशब्द इत्याइ माशब्दिकः । नैत्यशब्दिकः । कार्यशब्दिकः । वाक्यादिदं विधानम् । "प्रभूतादिभ्यश्च" [ वा. ] तदाहेति वर्तते। प्रभूतमाह प्राभूतिकः । पासिफः । “पृथ्वी सुस्नानाविभ्य इप्समर्थेभ्यः" [बा०] | सुस्नातं पृच्छति, सौनातिकः । सौलरात्रिकः । सौखचायनिकः । गछतौ परदारादिभ्य इप्समर्थेभ्यः'' [ वा० ] । परदारं गच्छति, पारदारिकः । गौरुतल्पिकः ।
पक्षिमत्स्यमृगान् हन्ति ॥३१३१५७॥ तदिति इप्समभ्यः पक्षिमत्स्यमृगेन्यो रन्चीत्यस्मिन्नर्थे उय भवति । स्वरूपस्य पर्यायाप तद्विशेषाणा' ग्रहणन् । पक्षिणो इन्ति, पाक्षिकः | नास्यस्याभिधानमित्येके । पर्यायशब्दस्य शकुनेरेव ग्रहणम् । शाकुनिकः । तेत्तिरिकः । मायूरिकः । मत्स्य, मात्स्यिकः । पर्यायस्य मीनशब्दस्यैव अनिमिषादिषु न भवति । शाफरिकः । गैहितिकः । मृग, मार्गिकः । हारिविकः । सौकरिकः । सालिकः।
परिपन्धं तिष्ठति ॥ ३६३३१५८॥ परिपन्थराम्दादिप्समर्थात् तिष्ठतीत्यस्मिन्नर्थे ठय् भवति "कासभावावगम्तम्याः कर्मसंज्ञा कमेणाम्" [प्रा०] इति कर्मभावादिप् । परिपत्यं विधति पारिपन्धिकौरः । पन्धान वर्जयिखा व्याप्य वा तिष्ठवीत्यर्थः । "हन्तास्यपि घसच्यम्'' [चा०] । परिपन्थं इन्ति, पारिपन्धिकः । परिपथपर्यायः परिपन्यशब्दोऽस्ति तस्यायं प्रयोगः ।
माथग्रुपमध्यनुपवाकन्द घावति ॥३।३।१५।। वदिति वर्तते । माया पदवी अनुपद माकन्द इत्येतेम्य इप्सम यो धावतीत्यस्मिनर्थ ठण् भवति । माथशब्दो मार्गपर्यायः। दयडमाथं धावति, दशर
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म०३ पा० ३ सू० १६०-१५६] महापिसहितम् मापिकः। मौलमाथिकः' । पदस्य वी पदवी | "धेनो बित्' इति इकारो डित् 1 "सर्वतोऽवत्यादिस्य" [11. सू.] इति डीविधिः । तो धावति, पादविषः । पदस्य पश्चाद्धावतीति, अनुपदिकः । श्राक्रन्दिकः ।
पदचो वाति ॥३॥१६॥ वदिति घर्तते । पदाशब्दाद् इप्समर्थाद् गृहातीत्यस्सिन्नथें ठण भवति । श्रादिपदं गृहाशि, जादिपदिकः . दि । दियः ।
प्रतिकराटललामात् ॥३।३।१६।। तदिति गृहातीति च वर्तते । प्रतिकण्ठ ललाम अर्थ इत्येतभ्य इपसमथंभ्या गृहातोयस्मिन्नर्थे ठया 'भवति । कण्ठं प्रवि, प्रतिकण्ठम् । "लक्षणेनाभिमुल्येमिप्रतो" [ 1] इति हस: । प्रतिकण्ठं गृह्णाति, प्रातिकरिठकः । प्रतिगतः कण्ठः, प्रतिकण्ठः इत्यत्राभिधानं नास्ति । "पुरुषभ्यसक्षेषु इचिभूषण कक्ष्मसु । वामनेष्टावनोन्भेषु कलामं नवसु स्मृतम् ॥" लाला. मिफः । अार्थिकः ।
धर्मचरति ॥२३,१६२।। धर्भशब्दादिप्समर्थाच्चरतीत्यस्मिन्नथे ठप भवति । तदिवि वर्तमाने पुनः समर्थविभक्त्युपादानं कि ! प्रासेवायां यथा स्यात् । मुहुर्मुहुर्धम चरति, धार्मिकः । "अपमावि वक्तव्यम्" [वा०] । आर्भिकः ।।
प्रसिपथमेति तश्च ॥३.३।१६।। प्रतिपथशब्दादिप्समर्थादेतीत्यस्मिन्नर्थे ठो भवति ठण् च । प्रतिपथमेति, प्रतिपथिक । प्रातिपथिकः ।
समवायासमवैति ||३२३६१६४|| समयायाचिभ्य इप्समर्षेभ्यः समवैती यसिन ठप भवति । बहुलनिर्देशात्तस्य तत्पर्यायाणां च प्रणम् । समवायं उमवि, सामवायिका । सामूहिकः । सामानिकः । सांसदिकः ।
परिषदी पयः ॥३॥३॥१६५।। तदिति वर्तते । परिषन्छन्दादिप्समर्थात् समचैतीत्यस्मिन्नथें गयो भर्वात । ठयोऽपवादः । परिषद समवैति, पारिषद्यः ।
सेनाया या ॥३३॥१६६॥ सेनाशब्दारिपसमर्थाद्वा एयो भवति समवेतीत्यन्मिन्नथें । पने ठण भवति । सेनां समवैति सैन्यः । सैनिकः ।
लालाटिककोक्कुटिको ॥३॥३॥१६७५ लालाटिककोक्कटिकशब्दो निपात्येते । ललाटवक्कुटी. शब्दाभ्यानिपसमर्थान्यां पश्यतीत्यस्मिन्नर्थे ठण, निपात्यते । ललाटं पश्यति, लालाटिकः सेवकः । कुक्कटोशब्देन क्रुक्कुटीपातमात्रो देशो लक्ष्यते । कुक्कुटो पश्यति, कौक्कुटिको भिन्नुः । पुरो युगमात्रदेशप्रेक्षीत्यर्थः ।
तस्य धर्म्यम् ॥३।३।१६८।। धर्म्य न्याय्यम् । तस्येति तासमर्थाद् धर्यमित्यस्मिन्नथे ठरण भवति । शुल्कशालाया धम्, शोकशालिका | प्रातरिकम् । आपणिकम् ।
ऋन्महिष्यावरण ॥३३॥१६॥ तस्य धभिति वर्तते । शुकारान्तान्मृदः मरिषी इत्येवमादिभ्यः वाणू भवति । ठणोऽपवादः । मातुर्धम्य मात्रम् । पैत्रम् । हौत्रम् ! शास्त्रम् । मडिम्यादिम्यः । महिल्या धर्म्यम, माहिषम् । महिषी । प्रजावती । केषाञ्चित् प्रजापतीति पाठः। प्रलेपिका ! विलेपिका | अनुलेपिका । वर्णकपेषिका । भस्म हत्यवे' [ ४।३।१५७ वा०] इति पुंवगावः प्राप्तः "न बुहतूकोड:" [] इति प्रतिषिध्यते । "विज्ञसिस्टिः स्वच" [घा | विशसितुयें वैशस्त्रम् । "विभाजपितुर्णिमा [वा०] । विभावयितुर्घथै वैभावित्रम् |
.. सो शो )माधिका पू । सौ( शौ एवमाथिका मा.।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ १०५ सू. 1.0-1. अवक्रयः ॥ ३॥३॥१७० ॥ तरूपति वर्तते । तस्येति तासमर्थान्मृ दोऽवक्रय इत्यस्मिन्नथे ठण भवति । अबक्रीयतेऽनेनेत्यवक्रयः । अन्याव्यमपि स्वेच्छया परिकल्पितपरिमाणम् । द्रव्यमेकत्र पिण्डितमित्यर्थः । शुल्कशालायामवक्रयः शोल्कशालिकः । प्रातरिकः । श्रापणिकः। गौश्मिकः ।
सदस्य पण्यम् ॥३१७१॥ तदिति वासमर्यात् परमविशिष्शदस्येति वार्य ठप भवति । अपणः पण्यमस्य, श्रापूपिकः । शरष्कृलिकः ।
किसरावेष्ठट् ॥२३॥१०२।। तदस्य परयमिति वर्तते । किसर इत्येवमादिभ्यष्ठड् भवति । ठरणोऽपवादः । किमर परायमस्य, किसरिको गन्धिः । किसर । नलद । स्थगर । तगर । उसी शी)र । गुग्गुलु । हरिद्रा । हरिद्धपर्णी ।
शलालनो था ॥२३१७३|| तदस्य पण्यमिति वर्तते । शलालुशब्दावा ठड भवति । पक्षे राणा भवति । शलानु पण्यमस्य, शलालुकः । शालानुकः ।
शिल्पम् ॥२३१७४॥ तदस्येति वर्तते । शिल्प क्रियाविशेपे नेपुरएम् | तदिति वासमर्यादस्वेति सार्थ ठप भवति, यसद्वानिर्दिष्टं !शल्पं चेत्तट् भवति । (मृदङ्गवादनं शिल्पमस्य, मार्दजिकः ।) मृदङ्गवादने मृदङ्गशब्द उपचर्यते, तस्मादेव त्यः । एवं पाणविकः । वैणविकः ।
महकमरा घाऽण् ||३1३।१७।। तदस्य शिल्पमिति वर्तते । मड्डुकमरिशब्दाभ्यां वाण भवति । अण्णाऽनुक्ते ठणु भवति । मङ्गुकवादनं शिल्पमस्य, माडकः। माड्बुकिकः । झाझरः । झाझरिकः ।
प्रहरणम् ॥३।३।१७६।। तदस्योत वर्तते । र्थात्पदशामा प्रति माग भवति । असिः प्रहरणमस्य, श्रासिकः । सारुक: । धागुष्कः।
शनियष्टेष्टोकण ॥२३॥१७७।। शक्तियष्टिशब्दाभ्यां टोकण भवति तदस्य प्रहरमित्यास्मविषये । ठग्योऽपवादः । शक्तिः प्रहरणमस्य, शालीकः । याष्ट्रोकः । इकारोचारणसामर्थ्यात् 'यस्य जया ]ि इति खं न भविष्यात (इति) दीलीबारणं किम् । अन्यत्रापि यया स्यात् । अन्तः (अम्भः) प्रहरणमत्य, अान्तसीकः (आम्मसोकः) । इपं पहरणमस्य ऐषोकः । बहिर्भवः बाहीक इति ।
नास्तिकास्तिकदैटिकाः ।।३।३।१७।। नास्तिकादयः शन्दा निपात्यन्ते । नास्ति अस्ति दिष्ट इत्येतेभ्यः शब्देभ्यो मतिविशिष्टेभ्योऽस्येति तार्थे ठण निपात्यते 1 परलोको नास्तोत्ति मतिरस्य, नासिकः । परलोकोऽसीति मतिरस्य, श्रास्तिकः। दि देवतं तत्प्रमाणमस्य. दैष्टिकः । निपातनाद्वाक्यादपि त्यविधानम।
शीतम् ॥३।३।१७। तदस्येति वर्तते। पासमादत्येति तार्थे ठण् भवति वासमय शीलं चेद् भवति । अपूपभवणं शीलमस्य, श्रापूपिकः । तास्थ्यात्ताच्छब्यमिति अपूपशब्दाच्यः । एवं शाकुशिकः । मोदविका
छादेर्णः १३।३।१८०॥ तस्य शोलमिति वर्तते । छत्र इत्येवमादिभ्यो यो भवति । ठणोऽपवादः । छत्रमावरणं तद्वद्गुरुकार्येष्ववहिवलम् । छत्र शीलमस्य, छात्र: । शिष्यः शीलमस्य' शैष्यः । छत्र । शिष्य पछामिला । तितिक्षा | चुरा । उदस्थान | कृषि । कर्मन् । तपस् । पुरोड । श्रास्था । संस्था। अरसा । विश्वधा । सत्य । अन्त । पिसिक (शिविका।
1. शिक्षा (क्षा ) शीबमस्य शैक्षः घा, पू० । २. शिक्ष क्षा) 4०, ५० । ३. मुक्षा (इमुक्षा)
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म. पा.सू. 21-18]
महावृत्तिसहितम्
२१७
कर्माध्ययने वृतम् ॥३।३।१८।। तदस्येति वर्तते । तदिति वासमादस्मेति तार्थ ठण भवति यत्तद् वासमर्थ कर्म चेवृत्तमध्ययनविषयं तद्भवति । एफमन्यदध्ययने कर्म वृत्तमस्य, ऐकान्यिका। किम्पुनतदेकमन्यदध्ययने कर्म ? अपपाठः। एवं वैयन्यिकः । त्रैयन्यिकः । सर्वत्र हृदर्थे रसः । तदष्ठण् ।
पहजादेष्टः ॥३।३।१८२॥ बह्वच पदमादिर्यस्य तस्मान्मृदष्ठो भवति । ठणोऽपवादः । तदस्य फर्माध्ययने वृत्तमिति वर्तते । द्वादश अन्यानि अपपाठलक्षणानि अध्ययने कर्माणि दत्तान्यस्य, द्वादशान्यिकः।
हितमस्मै भध्यः (नाः ३३/१-३॥ रादिति ही तरिति मतमदस्मै इत्येतदर्थे ठण् भवति यत्तद् बासमर्थ हितं भक्षाश्चेत्तद् भवन्ति । अपपभक्षणं हितमस्मै, श्रापूपिकः । शाकुलिकः । इदमेव शापक हितयोगेऽप भवति ।
तददीय नियतम् ॥३३॥१८॥ अस्मै इति वर्तते । सदिति वासमर्यादस्मै इत्यस्मिन्नथे उण भवति यत्तद् वासमर्थ तच्चेदीयते । नियुक्तं नियमेन युक्त नियुक्तमित्तः । अग्रभोजनममै दीयते नियुक्तम् , पानभोजनिकः । श्रापृपिकः । श्राणाऽस्मै दीयते नियुक्तम् , परिणकः । शाणो को दनिकः । "मोदनशब्दाद पहच्या" [41. ] अोदनिकः । श्रोदनिकी।
भकाद्वाऽण् ॥३।३।१८।। तदस्मै दीयते नियुक्तमित्ति वर्तते । भक्तशब्दाद् वाऽण् भवति । पदे ठण भवति । भक्तमस्मै दीयते नियुक्तम्, माकः । माविकः ।
सत्र नियुक्तः ॥३॥३११८६॥ अधिकृतो नियुक्तः । तत्रेतीप्समर्थाद् नियुक्त इत्यस्मिन्नर्थे टण भवति । शुल्कशालायां नियुक्तः, शौकशालिकः। आक्षपटलिफः । दौवारिकः ।
ठोऽगारान्तात् ॥३।३।१८७॥ तत्र नियुक्त इति वर्तते । अगारान्ताम्मृदष्ठो भवति । ठयोs पवादः । भाण्डागारे नियुक्तःभाण्डागारिकः । कोष्ठागारे नियुक्तः, कोष्ठागारिकः ।
अध्यायिन्यदेशकालात् ॥३॥३॥१५॥ अध्येतुं शीलमस्येति, अध्यायी । ईप्समर्थाद्देशवाचिनोउकासयाचिनश्च मृदोऽध्यापिन्यभिधेये ठण् भवति । अध्यायिनीयुक्तम, तत्सम्बन्धात् अध्ययनस्य देशालो पर्युदस्यते । अशुवावधीते, श्राशुचिकः । सान्ध्यावेलिकः । श्रानध्यायिकः । श्रदेशकालाथिति किम् । चैत्यालयेऽधीते । पूर्वाऽधीते ।।
काउनान्तप्रस्तारसंस्थानेषु व्यवहरति ॥३२१८॥ व्यवहरति, अनुतिष्ठति 1 तत्रेत्यनुवृत्तेर्निर्देशाद् वासमर्थविभक्त्युपादानम् । कठिनशब्दान्तान्मृदः प्रस्तार-संस्थानशब्दाम्या च व्यवहरतीत्यस्मिन्नर्थ ठणू भवति । वंशकठिने व्यवहरति, धांशकठिनिकः । वार्द्ध कठिनिकः । प्रासारिकः । सांस्थानिकः । अन्तग्रहणं मध्ये कृतमपि कचिदुत्तरयोः सम्बध्नन्ति ।
निकटावसथे वसति ॥३३१६०॥ सप्रेति वर्तते । निकट-श्रवसपशब्दाभ्यामीपसमाभ्यां वसतीत्यसिमा ठा भवति । निकटमविदूरम् । निकटे वसति, नैकटिकः । श्रावसधिकः ।
वद्वति रथयुगप्रसङ्गाधः ॥३३।१६१॥ दम्यानां स्कन्धकार्य प्रसङ्गः । तदितीपसमर्थेभ्यो स्थयुग-प्रसङ्गशब्देभ्यो बहतीत्यस्मिन्नर्थे यो भवति । य इत्ययं चाऽधिकार मापादपरिसमातेर्वेदितव्यः |
१.कक्ष्यानुरोपात् "मोदमशब्दाङ् यसष्यः' इति प्रतिभाति |
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२१८
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ३ पा० ३ . १२-1
रथं वहति, रथ्यः । युग्यः । प्रासङ्गयः । इहानमिधानान्न भवति । कालसंशिने युगं वहति राजा । युगं वहति मनुष्यः । "शकटादए पकन्यः [वा०] शफट घहति शाकटो गौः | "कलीराट्टण पक्तम्यः" [पा. ] इलं वदति शालिकः 1 सरितः। नेदं वक्तव्यम, शकटस्य बोदा इलस्य चोदा इत्यवं विग्रहे शैधिकेशाया लसीराटुग्ण" [३/३१५] इति ठणा च सिद्धम । तहि रथग्रहण मायनर्थकम् । "स्थाय* [ AIEE ] इत्यनेन सिद्धत्वात् । तदन्तार्थमिह रथग्रहणम् । द्वौ रथी वहति, द्विरथः । अन्न प्रारद्रवीयस्य "रस्योयनपत्ये" [१३७५ ] इत्युप् प्रसज्यते ।
धुरो ढण वा ॥३३॥१६२॥ धूःशब्दाद् वहतीत्यस्मिन्नये ढण भवति यश्च । प्रकृतिविशेषाणा विधीयमानेन यस्य बाधने प्राप्तेऽनेन समुच्चयः क्रियते । न स्वनुकर्षः । उत्तरत्राऽप्यनुवृत्तेः । धुरं वहति, धौरेयः । धुर्यः ।
__सधैंकाभ्यां खः ॥३३॥१९३॥ तद्वहतीति वर्तते । सर्व-एकशब्दाभ्यां परस्मा धुरः सो भवति । सर्वा भूः, सर्वधुरा । “पूर्वकालकमधे" [१४४इत्यादिना पसः । सर्वधुरी वहति, सर्वधुगेरणः । एक धुरीणः । 'एकधुराशब्दारखस्योस वक्तव्यः'' ] एकधुरं वहति एकधुरः । न वकव्यः । परस्या धुपे वोटेभ्या ( त्या ) गतस्यायः "स्योधनपत्ये" [1] इत्युपा सिद्धम् 1 इष्टसङ्ग्रहार्यश्वकारोऽनुवत्यः । उत्तरधुरीणः ।
विध्यत्यकरणेन ॥३३॥१९४॥ तदिति वर्तते । इप्समर्थान्मृदः विध्यतीत्यस्मिन्नर्थ यो भवति न चेत्करणेन बिध्यति तदिति । पाद विध्यति पद्याः शर्वराः । "पथ" [१६] इति पादश्य पदादेशः । करव्याः कण्टकाः । प्रकरणेनेति किम् । पादं विध्यति धनुषा । प्रतीयमानेऽपि धनुषः करमत्वेनानमिधानान्न भवति । शक' विध्यति । चोरं विध्यति राजा।
अन्यधेनुष्यान्नवश्यधन्यगण्यपद्यमूल्यमृद्यसतोयगाहप-या: ॥३३॥१९५॥ सन्यादयः शब्दा निपात्पन्ते । पनी बधूः, तां वदवीत्यत्रार्थे यः । जन्याः परिणेतृसहायानामियं संज्ञा । "धेनुष्येति संशायां धेनुशब्दाचः पुष वागमः" प्रकृष्टा धेनुर्धनुष्या । या गोपालाय दोहाथै दीयते । अन्यत्र धेनुतरेति भवति । अन्नं लब्धेत्यभिन्याक्ये अचापणो निपात्यते । श्रान्तः। वशं गत इत्यस्मिन्वाक्ये पशशवायः | पश्यः । विनेय इत्यर्थः । धनगणशदाभ्याभियन्ताभ्यो लब्धर यः । वनं लब्धा वन्यः । गएं लब्धा गययः । पदमसिन् दृश्यते अस्मिन्वाक्ये पाद शवदासः । पद्म दिमम् । पद्यः कर्दमः | पदमस्मिन्द्रष्टुं शक्यमित्यर्थः । 'मूलमस्याबाई' इत्यस्मिन्धाक्ये मूलशब्दाद्यः । मूल्या मुद्गाः । मूल्या माषाः । मूलोत्पाटेन समाह्या इत्यर्थः। . अथवा मूलेन समं मूल्यं वस्त्रम् | मूलेनानम्यं वा मूल्यम् । हृदयस्य प्रिय इत्यस्सित् वाक्ये हृदयशब्दाद्यः । "हृदयस्य हरु लेखयाण्फासेषु' [ 11] इति हृदादेशः । हृद्यो देशः । हृयमन्नम् । हृदयस्य बन्धनमूषिः हृद्यः । वशीकरणभूत इत्यर्थः । समाने तीर्य वसतीत्यस्सिन्याश्ये समानती शब्दायः । समानस्य च सभावः । सतीर्थ्यः। गृहपतिना संयुक्त इत्यस्सिन्वाक्ये गृहपतिशब्दात् ज्ञायो न्यो निवास्यते । गाईपरयोऽग्निः ।
वयस्तुलाभ्यां सम्मिते ॥३३॥१६६॥ निर्देशादेव माया उपादानम् । वयस्तुला इत्येताभ्यां भा. समर्थाभ्यां सम्मितेऽर्थ यो भवति । वयसा सम्मितः, बघस्यः । संज्ञायामभिधानम् । अन्यत्र वयसा सम्मितः शत्रुरित्येव । तुलया सम्मित तुल्यम् । सरशमित्यर्थः ।
मोधर्मविषसीताभ्यस्तार्यप्राप्तबध्यसमितेषु ॥३।३१६७|त्यावसाभासमर्यादिति लम्यते । नावादिभ्यश्चतुर्यो भासमर्थेभ्यो यथासंख्यं तार्यादिषु यो भवति । नावा तायं नाव्यमुदकम् | "मि ये" [३६५] इत्यावादेशः। प्राक्तनेन धर्मेण प्राप्त घर्म्यम् । वक्ष्य नाणं तु धर्मादनपेतं धम्म न्यायमुच्यते ।
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[म. पा० ३ सू०१३-२०
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
२१९
विषेण वध्यः, विष्यः। वध इति प्रकृत्यन्वरम् | वधमहंति, वध्यः । सीतया समितं सजतं सीत्य क्षेत्रम् । "स्थलीताहवेभ्यो यविधौ तवन्तविधिरपीच्यते' [१०] परमसोत्यम् । द्विसीत्यम् ।
धर्मपथ्यर्थ यायादनपेते ॥३॥३३१६८॥ निर्देशादेव समर्थविभक्त्युपादानम् । धर्म पयिन् अर्थ न्याय इत्येतेभ्यः कासमथेभ्योऽनपेतेऽर्थे यो भवति । धर्मादनपेतं धर्म्यम् । पश्यम् । अयम् । न्याय्यम् ।
छन्दसा निमिते ॥३।३।१६६॥छन्द इच्छा । निर्मितमुत्पादितम् । निर्देशादेव भासमर्थाच्छन्दःशब्दात् निर्मितऽर्थे यो भवति । छन्दसा निर्मितः, छन्दस्यः ।
परसाऽधा च ॥३॥२२००|| निर्देशाद् माया उपादानम् । उरःशब्दाद् भातमानिर्मितऽर्थेऽण भवति यश्च | उरसा निर्मितः, औरसः । उरस्यः ।
मदजनहलात्करणजल्पकर्षेषु ॥३।३।२०१॥ मद जन हल इत्येतेभ्यो यथासंख्यं करण जल्प वर्ष इत्येतेष्वर्येषु यो भवति । करणादयः शब्दा भावे करणे वा व्युत्पादयितच्याः। तेन सामर्थ्याच्योत्पचिः । मदकस्य करणं मद्यम् | मदस्थाने फेचिन्मसशब्दं पठन्ति, तेषां मत्यमिति भवति । इनस्य जल्पः, जन्यः । इलस्य कर्षक, हल्यः। द्विहल्यः । परमहल्यः ।
तत्र साधुः ||२२०२॥ तत्रेतीपसमर्थात्साधुरित्येतस्मिन्नर्थे यो भवति । समनि साधा. सामन्यः । फर्मण्यः । सभ्यः । शरएयः । साधुरिह योग्यो निपुणो वा न तु हितः, तत्र हि प्राकठणीय एष स्मः।
प्रतिजनादेः खन ॥३३१२०३।। तत्र साधुरिह वर्तते । प्रतिजन इत्येवमादिभ्यः खा भवति । यस्याऽपवादः । जनं जनं प्रति. प्रति जनम् । यथार्थे हसः । प्रतिजने साधुः, प्रातिजनीनः । प्रविजन । इदंयुग । संयुग । परयुग । परकुल । परस्यकुल । अमुष्यकुल । निशतनात्ताया छानुप् । सर्वचन । विश्व बन । पञ्चमन । महाजन । योन हितार्थः साध्वः, तत्र वचनात्याकठरणीयस्य बाधा ।
भक्ताण्णः ॥३२३२२०४॥ तत्र साधुरिह वर्तते । भक्तशब्दापणो भवति । यस्याऽपवादः । भक्ते माधुर्भाक्तस्तन्दुलः ।
परिषदो ण्यः ॥३॥३२०५तत्र साधुरिति वर्तते । परिषच्छन्दारण्यो भवति । यस्याऽपवादः । परिषदि साधुः, पारिषद्यः । योऽप्यत्राऽनुवृत्तिरिष्यते । परिषदि साधुः, पारिषदः ।
कथावेष्टण ।।३।३।२०६॥ तत्र साधुरिति ' वर्तते। कथा इत्येवमादिभ्यपण भवति । यस्याऽपवादः । कथायां साधुः, काभिकः । कया । विकथा । विश्व कथा । संकथा । वितन्द्रा । कुष्टिदा । कुष्टचित् । जनवाद । जनेवाद | चित्र । वृत्ति । सङ्ग्रह । गण । गुण । श्रायुर्वेद ! गुड । कुल्यास ( कुल्माष ) | सक्तु । अपूप । मांसौदन । इतु । वेणु । संग्राम । संघात । प्रवास । निवास । उपवास ।
पथ्यतिथिषसतिस्पते ॥३॥२०७॥ तत्र साधुरिति वर्तते । पथ्यादिभ्यो ढन् भवति । यस्यापवादः। पथि साधु पाथेयम् । नातिथेयम् । वासतेयम् । स्वापतेयम् ।
समानोदरे शयितः ॥३॥०२०८॥ तत्रेति वर्तते । निर्देशाद् वा ( ईप्समर्यात् ) समानोदरशब्दात् शयित इत्यस्मिन्नर्थे यो भवति । समानोदर्यः। सोन्दर्यः । 'योदय" [३५] इति समानस्य सादेशः। कयं तर्हि सोदरशब्दस्य सिद्धिः १ "समानस्य" [ ५३।१३२] इति योगविभागात् ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याऽध्यायस्य तृतीयः पादः समासः । 1. -रिह ब-०, १०।
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'२२०
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. पा. . .-. प्रायठणश्छः ॥३|४|१|| वक्ष्यन्ति (ति) "श्राहाटण्" १२॥२॥] मागेतस्मादृण, संशन्दनायेऽर्या वक्ष्यते (न्ते) तेषु छोऽधिकृतो वैदितव्यः । वक्ष्यति "तस्मै हितम्' [३१] । वसेभ्यो हिता, वसीयः । अयसीयः । करभीयः । प्राग्वचनं किम् । श्रर्थविशेषेऽपवादेन निवर्त (त्ति ते पुनरर्थान्तर उपस्थानं यथा स्यात् । नन्वनि धि)कारादेवापवादविषयेत्युपस्थानं प्राप्नोति । नैतदेवम् । तत्र तत्र वामहणाञ्चकारकरणाचापवादविषयपरिझरो गम्यते ।
उगवादेर्यः ॥३४॥२॥ प्राण इति वर्तते । उवर्णान्तान्मृदो गवादिभ्यश्च यो भवति प्रायोऽ थेषु | छाऽपवादः । शङ्कव्यं दारु । परशव्यमयः । पिचव्यः कार्पास: । गवादिभ्यः । गन्यम् । हविष्यम् । गो। हविष् । इह इविरिति स्वरूपग्रहणम् | अष्टका । वाईए । युग । मेधा । स व् ( स क ) नाभि नर्म वा । नभ्यो
क्षःनभ्यमनम् । "सु (शु) नोजिचिनीस्वम्" [बा०सू शुन्यम् | H(शु) न्यम् । ऊपठो नव । ऊबन्यः । कूप । अक्षर । दर । खर । दवद । स्व (ख)द । विष ।
- हविरपूपावे ॥ ३॥ हविःशब्दो गवादिषु पठितः । तद्विशेषाणामिह ग्रहणम् । इविविशेषवाचिभ्योऽपूपादिभ्यश्च प्राठणोऽर्थेषु वा यो भवति । नित्ये ठे प्राप्ते विभाषेयम् । श्रामीच्यम् । ग्रामीदीयं दधि । पुरोद्धाश्याः। पुरोडाशीयास्तन्तुलाः । श्रपूपादिभ्यः, अपूप्यम् । अपूपीयम् । अपूप । तन्दुल । पृथुक । अभ्योष । अवोष । किराव । मुसल । कटक । कएर्णचेष्टक । द्ग ल (अर्गल)। स्थूणा । यूप । सूप । दीप । प्रदीप । अश्वपत्र । "विगृहीतापीच्यते ।" "असधिकारेश्या ।' उदन्याः। उदनीयाः । सूर्याः, गयास्तन्दुलाः । अन्नविकारत्वादेव सिद्धे अपूपाऽभ्योषादीनां प्रपश्चार्थ पृथग्रहणम् । अतो विकल्पात्पूर्वनिर्णयेन उवन्तिलक्षणो नित्यो विधिर्भवति । चारिति, इविविशेषः। चरन्यास्तन्दुलाः । शकुरमविकारः, शकल्या घानाः। "काबलाश्चीमा कृष्चोय ( कम्यलाच प्रापठणोऽर्थे ) नित्यं यो वक्तभ्यः" [घt.]1 कम्बल्यमूरचितम् । खुविषयादन्यत्र । कम्बलीया ऊर्णा । नेदं बचाव्यम् । “न विस्ताचितकम्बल्यात्" [111२.] इति निपातनासिद्धम् ।
तस्मै हितम् ॥३४४॥ तस्मै इति अपसमर्थांद् हितमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । पसेभ्यो हिता, वत्सीयः । करभीयः | पटव्यम् । गव्यम् । इविष्यम् ।
प्राण्यङ्गरथखलयकमाषवृषब्रह्मांतलाद्यः ॥३४|४|| प्राण्यहं शरीरावयवः, देहदेहिनोः कथञ्चिदभेदात् । प्राययङ्गवाचिभ्यो रथ खल यव माष वृष ब्राह्मण तिल इत्येतेभ्यश्च यो मवति तस्मै हितमित्यस्मिन्नर्थे । छस्याऽपवादः। दन्तेभ्यो हितं दन्यम् । करायम् । चतुभ्यम् । वामये हितं नाभ्यं सेलम् । "माभि नभन्न" [दा०] इति नभभावः । गवादिलक्षणो यो विहितः स इह न भवति । गवादिलचो यह कस्मान्न भवति १ प्राण्यङ्गलक्षणो यस्तस्य परत्वाद् बाधकः । स्थाय हिता भूमिः, रथ्या । खलाय हितम् , खस्यम् । यव्यम् । भाष्यम् । दृषाय हितम् । वृष्यम् । ब्रमाणे हितम् , ब्रह्मण्यम् । विल्यम् । वृष्य हितं नामयाय हितमित्यत्रानभिधानाच्छो न भवति ।
अजरविभ्यां थ्यः ॥३॥४६॥ अम-अविशब्दाभ्यां ध्यो भवति तस्मै हितमित्यस्मिन्नर्थे । छस्याs पवादः । श्रजे ( जाय ) हितम् , अजयम् । अविथ्यम् । लिङ्गविशिष्टस्याबाशब्दस्य ग्रहणेऽपि "लावो" [ ||१४७] इति पुंवद्भावे कृते तदेव रूपम् ।
विश्वजनात्मभोगान्तारखः ॥३॥४॥ तस्मै हितमिति वर्तते । विश्वजन श्रात्मन् इत्येताम्य मोगान्ताच मूदः खो भवति । छल्याऽपवादः । विश्व जनाय हितः, विश्वननीनः जिनः । अन पखादेवेभ्यते ।
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०३ पा० ४ सू० -१२ ] महाभूचिसहितम्
२२१ तासाद (द ) साच्च छ एव भवति । विश्वजनीयम् । “पञ्चजनशब्दादुपसंम्माम" [वा.] पश्चजमीनम् । अत्र "दिवसंख्य डो[१।३।१५] इत्यनेन विहितासमानाधिकरणाद् बसादेवेष्यते । पञ्चजनीयमन्यत् । “सर्वजनादृण खश्च वक्तव्यः" [था. ] सार्वजनिकः । सर्वजनीनः । अत्रापि यशादेवेष्यते । सर्वजनीयमन्यत् । "महाजना वक्तव्यः" [वा. ] महाबनिकम् । घसादयं विधिः । बसाच्छ पव भवति | भाजनीयम् । ईनादेशे कृते मोऽघुसो हति" [ शा१०] इति टिरवं प्राप्तम् , सूत्रे नकारान्तनिपातनान्न भवति । भोगः शरीरम् । तदंसा( दन्तात् मातृभोगीणः। पितृभोगिणः । मात्रादि यः केवले यश्छ एव भवति । मानीयः । पित्रीयः। “राजाऽचार्याम्या भोगान्ताा नित्यमिति पक्तम्यम्" [वा. ] राजभोगीनम् । श्राचार्यभोगीनम् । भार्यभोगान् ( गीन ) शब्दस्य "शुभ्मादित्वात्। [शा१] त्वं (4) मति : पाप कि सदन कति । राज्ञे हितम् । प्राचार्याय हितमिति ।
सर्वाष्णो वा ॥३२४१८॥ तस्मै हितमिति वर्तते । सर्वशब्दाद् वा सो भवति पदे छो भवति । सर्वस्मै हितम् , सावंम् । सर्वोयम् ।
पुरुषाहण ॥३॥४५॥ पुरुषशब्दावृष्ण भवति तस्मै हितमित्यस्मिन्वित्रये 1 छस्याऽपवादः । पुरुषाय हित पौरुषेयम् । अल्प ( त्य ) ल्पमिदम् । “पुरुषाद् वधविकारसमूहतेमकृतेविति घातम्यन्"। पोरधेयो वधः । “वस्थेवम्'' [ ३॥३॥८८ ] इत्या प्राप्तः । पौरुषेयो विकारः । “प्रास्ताकादे:" [२६।१०५ ] इत्या प्राप्तः । पौरुषेय स्यमागतं ( यः समूहः ) "तस्थ समूह:" इत्यण प्राप्तः । पौरुषेयः प्रासादः । पौरुषेयो ग्रन्थः । तेन कृते "मि अन्धे ( कृते ग्रन्थे ) [२५] "" [१ ] इत्यण् प्रातः ।
माणवघरकारखा ॥२४१०॥ तस्मै हिचमिति वर्तते । माणच-चरक-शब्दाभ्यां खज भवति । छस्याऽपवादः । माणवाय हितं मागवीनम् । चारकीराम् ।
तदर्थ विकृतेः प्रकृत्तौ ॥३॥४:११॥ हितमिति निवृत्तम् । तस्मै इति वर्तते । तस्मै इदं तदर्थ समानजातीयमभिन्न सन्तानवति कारणम् , प्रकृतिः। तस्या एवाऽवस्थान्तरं विकृतिः । तदर्थमित्येतव्यकृतवि. शेषणम् । खदांयां प्रकृताविति । यद्येवं स्त्रीलिङ्गमीप् च प्राप्नोति । "सूत्रेऽस्मिन् सुधिधिरिटः" [५।२।११४] इने पा ( इतीपो । वाया एकेन च निर्देशः । विकृतिवाचिऽवन्तान्मूदखदायां प्रकतापनि भिधेयायां यथाविहितं त्यो भवति । विकृत्यर्थायां प्रकृती त्यो भवतीत्यर्थः । अङ्गारेभ्यः, अङ्गारीयाणि कामानि । प्राकारीया इष्टकाः। शङ्कच्यं दाम् । पिचच्यः कर्षासः । अपूप्याः । अपूपीयास्तन्दुलाः । विग्रहे तादय लक्षणाऽप. द्रष्टव्या । तदर्थमिति किम् ? मूत्राय यवागृः । उच्चाराय यवानम् । पादरोगाय नड्व. लोदकं कल्पते । योग्यतामात्रेण विकृतिप्रकृत्यभिसा यो मा भूत् । अत्र केचित्तस्मै ग्रहणं नानुवर्तयन्ति । वादभय तयाऽपि व्यच्यते । यथा गुरोरिदम् , गुर्वर्थम् इति । विकृतिवाधिनस्तान्तात्तदायां प्रकृतावमिधेयाकां त्यमुत्पादयति । एवमङ्गारासामिमानि अङ्गारार्यानि काष्ठनि, अशागेयाणि । तदर्थमिति किम् । यवाना धानाः धानानां शक्लयः। नात्र प्रकृतैरनन्यार्थया गम्यते । अपि तु प्रकृ.त्यन्तरनिवृत्तिमात्रम् ! नान्येषां घाना नान्येषां शक्लवः । अत एव विकारप्रकृतिसम्बन्धमात्रेऽपि त्यो न भवति । धानानां यवाः, शक्तूनां पानाः इति । विकृतेरिति किम् ? उदकार्थः कूपः। नात्र पार्थिवस्य कूपस्य विकृतिरुदकम् । प्रकृताविति किम् । अस्या कोशी । असिरयसो विकृतिर्भवति । तन्न कोशी तस्य प्रकृतिः ।
छदिरूपाधवलेढ अ. ॥४१॥ तदर्थ विकृतेः प्रकृवाविति वर्तते । छदिस् उपधि बलि इत्ये. तेभ्यो दम् भवति । छदिरानि छादिपेयाणि तृणानि । इह छदिरथं चमेति परत्वात् "धमदो"
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. २२२
जैनेन्द्र-व्याकरणम् . पा. ध सू०१- [ १५] इति अभि प्राप्ने पूर्वनिर्णयेन दम् भवति । अादिषेयं चर्म । उपधीयत इत्युपषिः, रयानं गुणान्तरयोगाद् विकृत्तिरियम् । उपध्यर्थम् , नौपधेयं दारु । वालेयास्तन्दुलाः।
ऋरभोपानहो यः ॥३४:१३|| तदर्थ विकृतेः प्रकृताविति वर्तते । ऋषम उपानह इत्येताभ्यां ग्यो भवति । ठस्यापवादः । गुणान्तरयोगार्दाप विकारो भवति । तद्यथा बैभीतकोऽपूपः इति । अषमार्थेभ्यो वत्सः ( आपभ्यो वास: । श्रौपानह्या मुसः । "धर्मणोऽज" ||४] इत्यता पूर्वनिर्णयेनायमेवेभ्यते । औपाना चर्म ।
चर्मणोऽम् ।।३।४|१४|| तदर्थ विकृतेः प्रकृत-विति वर्तते । चर्मण इति विकारसम्बन्धे ता । चर्मणो या विकृतिस्तद्वाचिनोऽन् भवति । छस्याऽपवादः | वर्धयर्थ बाम् | वर्चा (वरत्रा) र्थ' वा (धारत्र) चर्म । सनकुर्नाम चर्मविकारः, ततः पूर्वनिर्णयन उवर्णान्तलक्षणो यो भवति । सनङ्गव्यं चर्म ।
तवस्यास्मिन्निति ॥३॥१५॥ प्रकृतिविकृतिभावस्ताद बेद न विवचितं योग्यतामा विवक्षितम् । तदिति बासमर्थादस्य अस्मिन्निरयेतयोरर्थयोर्यथाविहितं त्यो भवति । इतिकरणास्ततश्वेद विवहा । अस्त्र सम्भावने ऽभिधानम् । तेन मलथीयाद् भेदः। प्रासादोऽस्य स्यात् प्रासादीयं दारू । प्राकारीया इष्टकाः । प्रासादोऽस्मिन् देशे स्वात् प्रासदीयो देश । प्राकारीमा देशः । ५६ सान मचाते, प्रासादो देवदत्तस्य स्वात् १ इति करणादविवक्षाऽत्र |
परिखाया ढन ॥२४१६॥ तदस्यास्मिन्निति वर्तते । परिखाशब्दान भवति । छस्याफ्यादः । परिखाऽस्सिन्देशे ग्भाव्यते पारियो देशः । पारिखेयी भूमिः । इत ऊर्च छयो नानुवर्तते ।
महडिण ॥४७॥ तदई तोति निवृत्तम् । प्रागेतस्मादई संशब्दमाद्यानित अर्ध्वमनुक्रमिभ्यामः, तेषु ठणधितो बेदितव्याः । प्रागिति वर्तमाने अभिविध्यर्थमाद्महणम् । अस्तीत्यस्मिन्नप्यथें ठण भवति । वक्ष्यति "सेन क्रीतम्" ||३५j । वस्त्रेण क्रोत वास्त्रिकम् । गोपुच्छिकम् ।
शतादस्वार्थ सेठयो ॥३४॥१८॥ श्राईदिति वर्तते । स्वार्थे शतमेव । शवशवादस्वार्येऽसेठय इत्येतो त्यौ भवत आहीयेष्वर्थेषु । कस्यापवादः । शतेन क्रीतम्, शतिकम् । शत्यम् । अस्वार्थ इति किन ? शतं परिमाणमत्य शतकं स्तोत्रम् । नात्र प्रकृत्यदर्थान्तरभूतस्त्यार्थः समुदायः किन्तु शतमेव । यत्र वर्षान्तरभावस्तत्र विधिरेव न प्रतिरोधः । शतेन क्रीतं शतिकं पटशतम् । शयं पटशतम् । वाक्येन छत्र त्यार्थस्य शवत्वं गम्यते न श्रुत्या । अस इति किम् ? द्वौ च शतं च द्विशतम् | तंन क्रोतं द्विशतकम् । द्वाभ्यां शतान्या कीतमिति रसे "बाहुबलौ" [२२५/२६] मृत्युपि नास्ति विशेषः । ननु स-स्यांवधौ तदन्यविधिमालाल असमहामनर्थकम् ? नाप्युत्तरत्र तदन्तविधेापकम् । "प्राग्वसः सम्यापूर्वपदानां सदन्तप्रणमनुषीति उपसंख्यानमवश्यं कर्तव्यम् ।' पारावा वर्तवति पारायणिकः। द्विपापयरिणकः । असंख्यापूर्वपदस्य न भवति । सहस्रना क्रीतम्, साहस्रम् । सुवर्गासहसण क्रोमित्यत्राण न भवति । तया उबन्तायाः प्रकृते भ्यते । वाम्यां सूर्पाभ्यो क्रीतम् , दिसूपण कोतम् तदन्तविधेरभावात् "सूपद्विा" [२५/२५] इत्ययं विधिन भवति । सामान्येन ठण, विसोपिकम् । “परिमाणमस्याखुशाणे" ।।२२] पति छोरे । एवं तर्हि पूर्वत्र तदन्तविधिरपि भवतीति ज्ञाप्यते । गव्यम् । अगव्यम् । हवि वाम् । प्रसूरहविष्यम् । अपूप्यम् । यबापूप्यम् । अष्टक्यम् । एकाष्टक्यम् । राजदत्यम् । माध्यम् । तिल्यम् । कृष्णातिल्यम् ।
संख्यायाः कोऽतिशतः ॥३।४.१९॥ श्रादिति वर्तते । संख्याया अतिशदन्तायाः को भवति । आहादथेषु ठयोऽपवादः। संख्याशब्दः “कति: संपा" [॥५॥३३] इति प्रतिशब्दं प्रत्याययति । तत्र
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म. ए पा० ४ सू०२०-२६] महावृसिसहितम्
२२३ . चाऽन्वर्थसंशाग्रहणाद् यैरेफलादिभिः संख्यायते तेषां च ग्रहणे प्राप्तेऽतिशत इति प्रतिवेषः । त्यन्तो शदन्तां च संख्या वर्जयित्वेत्यर्थः । पञ्चभिः क्रीतः पञ्चकः । सप्तकः । “संख्या बानोऽबहुगमात्'' [१।२।२६] इति पयुदासाबहुगणयोः संख्यालम् । बहुकः। गाकः । अतिशत इति किम् ! घाष्टिकः । साहतिकः । चत्वारिंशत्कः । पञ्चाशत्कः । अर्थवस्तिशब्दस्येइ ग्रहणाढतेर [ति प्रतिवेधः । कतिभिः क्रीता, कतिकः । कोमेर ३ प्रहरिति त्यः एकतिः । "यत्तदेवेभ्यः परिमाणे बतुः" [
२ ०] "इसमो पो घ" [३।४३५] "फिमा' [शा१६२] इति बतोः परस्य कस्य च हड्भवति । ननु च अशावे यत्तेषु कतिशब्दस्यैव संख्यात्मक्तम् । तत्कथं वलन्तात्संख्यालक्षणः कः १ इदमेव ववन्तात्परस्य कस्य वेड्वचनं ज्ञापकं भवति वलन्तस्य संख्या संज्ञेति । यावता क्रोतः, यावतिका, यावकः । तावतिकः । तावत्कः।
विशतित्रिशदुभ्याड बुरखौ ॥२१॥ विशतित्रिशच्छन्दाभ्यां इवुभवत्यखुविषये । विशल्या क्रीतः, विशकः । ते खे कृते प्रसिद्धबदनाभात्' [11] इति टिखे प्रतिषिद्ध “पप्यतोऽपदे" [३४] इति पररूपम् । त्रिंशता कोता, शिकः । अखाविति किम् । विंशतिः परिमाणमस्य, "परिमरणासंख्यायाः सवधाऽध्ययने' [३४१५३] "खौ' [३।११५७] इति कः । विशतिक परिमाणनामधेयम् । अमर्थकत्यादस्य तिशब्दस्य स्यन्तलक्षः प्रतिषेधो न भवति । योर्दशतोर्वि ( 1 ) भावः शतिथान त्यो निपातयिष्यते । त्रिंशत्परिमाणमेषां त्रिंशलाः। शदन्तान्नेति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति । विशति त्रिंशद् भ्यामिति योगविभागारको भवति ।
कंसाइन् ॥३॥धा२२॥ शब्दाइन् भवति मा दर्थेषु । दणोऽपवादः । कसेन कान्तः ( क्रीवः) कसिकः | कंसिकी । "अर्धाति वसम्यम्" [40] अद्धिको ।
कापणाद्धा प्रतिश्च ॥३।४।२३|| श्रादिति वर्तते । कार्यापणशब्दात् ठड् भवति तस्य प्रतिरयं वादेशो वा भवति । कार्षापणेम कीवः, फार्षापणिकः । कार्षापरिणकी ! प्रतिकः । प्रतिकी।
शतमानविशीत( क )सहस्रवसनादण् ॥३४॥२४॥ शतमानादियोऽया भवति । आदिथे । ठणोऽपवादः । शतमानेन क्रोतम, शातमानम् । वैशतिकम् 1 साइतम् | वासनम् ।
सूर्णद्वा ॥३४॥२॥ श्राह्यदिति वर्तते । सूर्पशब्दाद्वाऽण् भवति । नित्ये ठग प्राप्ते विकल्पोऽ. यम् । सूर्प परिमाणनाम । सूपेण फ्रीतम् , सौम् । सौर्षिकः ।
रादुबसौ ॥३॥४॥२६॥ श्रादिति वर्तते । रादुत्तरस्य नाहीयस्य त्यस्योदभवत्यखौ। द्वाभ्यां साम्यां क्रीतम, द्विकंसम् । त्रिसम् । हृदथें रसे कृते संख्यापूर्वपदानां तदन्तविधिना कंसाहट , तस्योप । अधिकमधमस्मिन्नित्यध्यर्धम् , संख्यासंशाविधानेऽभ्यर्धग्रहणं सकविध्यर्थमित्युपसंख्यामंशा । अध्यर्धन कसेन कीतं ठर उपि अध्यर्धकसम् । द्वाभ्यां सायां फ्रीतम् इत्यागतयोरएट योरुन्भवति ! द्विसूर्पम् । त्रिसूर्पम् । अध्यर्धसूर्पम् | रादिति हेत्वय का। रस्य हेतुनिमि यो हृत् तस्योग्न भवति । वि सूर्पण पटेन क्रीतम् , विसौर्षिकम । प्रनिमिसादाप समाहारलक्षणादाबुवकम्यः" [१०]। द्वयोः सूर्पयोः समाहार: दिसूपी । द्विसूत् कोतम् द्विसूर्पमिति । न वक्तव्यः । श्रभिधानवशात् समाहारे धाक्यमेव भवति । न त्योत्पत्तिः । अखाविति किम् ! पाञ्चलोहितिकम् । पाञ्चकलापिकम् । परिमायानामधेये इमे। पङ्ग लोहितानि परिमाणमस्य पश्चकपालाः परिमाणमस्येति "परिमाणाध्यायाः सघसूत्रःऽध्ययने" [ १] "सी" [१७]। इति ठण् । परिमाणस्य योगदपि प्राप्ते "अनुदाणे' इति प्रतिषिद्ध मादरेप् । अन्ये पञ्चजोहित्यः परिमाणमस्येति विगृह्य "वस्य शुस्यटे' [ वा. ] इति पुंबद्भाव विदधाति ।
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जैनेन्द्र याकरणम् [.. पा० . स. २४-१५ कापणसहस्त्रनुपर्णशतमामाहा ॥३॥४॥२७॥ कार्षापण सहस सुवर्ण शतमान इत्येवमन्ता. स्परस्यायिल्प त्यस्य वोच् भवति । पूर्धेण नित्य उपि प्राप्ते विभाषेयम् । द्वाम्यां कार्षापणाग्यां क्रीतं दिकापिणं द्विकार्षापणिकम । त्रिकापियां त्रिकार्षापणिकम् । श्रभ्यर्धकार्षापणम् | अध्यर्धकार्षापरिणाम । "प्रास्वतः संख्यापूर्वपदानां सहन्त प्रहामनुपीति कापायादवा प्रतिश्च" [ २६] इति ठट् | अनुपक्षे च प्रतिपदेशो विकल्पितः । द्वितिकम् । त्रिप्रतिकम् । अध्यर्धमतिकम् । वाभ्यां सहस्राम्यां क्रीतं दिसालम् । द्विसाहनम् । त्रिसहस्रम् । त्रिसाइलम् । अध्यर्धसहसम् 1 अध्यर्धसाइलम् । संख्यामाः संख्यासंवासरस्य" [ २०] इति धोरैम् । दाम्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतं निसुवर्णम् द्विसोवर्णिकम् । त्रिसुवर्णम् , विसोवर्मिकम् । अभ्यर्धसुवर्यम् । अध्यर्धसौवर्णिकम् | “परिमाण स्याखुशारखे" [ शरा२२ ] इति द्योरैप् । सुवर्णमुन्मान कथं परिमाणम् १ अशाण इति प्रतिषेधात् । उन्मानस्यापि द्यौरैम्भवति द्वाभ्यां शतमानाम्या क्रीतं द्विशतमानम् । द्विशावमानम् । त्रिशतमानम् । त्रिशावमानम् । अभ्यर्धशातमानम् ।
वित्रिबहोनिविस्तात् ॥३॥२८ ॥ द्वित्रि बहु इत्येतेभ्यः परौ यो निष्कत्रिस्तशब्दौ तदन्तादापरस्याहीयस्य त्यस्य घोभवति । द्विनिष्कम । द्वि नैष्किकम् । त्रिनिष्कम् । त्रिनैष्टिकम् । बहुनिष्पम् । बहुनैफिकम् । द्विबिस्तम् । द्विस्तिकम् । त्रिविस्तन | निबैस्तिकम । बहुबिस्तम् । बहुबैस्तिकम् ।
विंशतिकाखः ॥शा२९॥ वेति निवृत्तम् । रादिति वर्वते । विंशतिकशब्दान्तात् रात् प्रादिथेषु खो भवति । द्वाभ्यां विंशतिकाम्यां क्रीतम , द्विविंशतिकीनम् । त्रिविशतिकीनम् । अध्यर्घविंशतिकीनम् । वचनात्खस्योम्न भवति ।
खारीकाकणोभ्यां का ॥३॥४॥३०॥ रादिति वर्तते । खारी काकणीशम्दान्तात् आर्शदर्येषु कम् भवति । वाभ्यां खारी या क्रीतम् , द्विखारीकम् । विखारीकम् । अध्यधंखारीकम् । द्विकाकपीकम् । त्रिका परकम् । अध्यर्घकाकग्रीकम् । "देवकाम्या घेति वक्तव्यम्" [बा. 1 | खार्या कोतं, खारीकम् । काकपीक।
पणपाथमाषायः ॥३॥४॥३१॥ रादिति वर्तते । पय-पाद-माषशब्दान्ताद् रादा दर्थेषु यो भवति । दाम्या पणाभ्यां क्रीतम् , विपण्यम् । त्रिपण्यम् । अभ्यर्धपण्यम् | द्विपाद्यम् । त्रिपाद्यम् । अध्यर्धपाद्यम् । "असिवन्नाऽभास् [१०] इत्यखस्याऽसिद्धत्वात्पाच्छन्दस्य पद्भावो न भवति । "पद्म"[ १] इति पदादेशोऽपि पादस्य केवलस्योक्कम (कः)। द्विमाष्यम् । त्रिमाध्यम्। अध्यर्धमाष्यम् ।
शशाद या ॥३४॥३२॥ गदिति वर्तते । शतशब्दान्ताद् गदादिर्थे वा यो भवति । दाभ्यां शताया की द्विशत्यम् । विशत्यम् । अध्यर्धशत्यम् | पक्षे ठण् । तस्य "रादुरखौ" [ १२] इत्युप् । द्विशतं त्रिशतम् । अध्य_शवम् ।
शाणात् ॥३४॥३३॥ रादिति वर्तते वेति च । शायशब्दान्तादादिर्येषु वा यो भवति । पले ठण् । वस्य चोप । पञ्चभिः शाणैः कीतं पञ्चशाययम् । पञ्चशाणम् । अध्यधंशाण्यम् । अध्यर्धशाणम् । योगविभाग उत्तरार्थः ।
द्विनिभ्यामण च ॥३॥४॥३४॥ शरणादिति वर्तते । दित्रिशब्दाभ्यः परो या शाणशब्दस्तदन्ताद् रादाहीयेवर्येष्वर मवति यश्च वा । तेन त्रैरूप्यम् । द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतम्, दैशायाम् । वैशाणम् । त्रिवारयम् । त्रिशाणम् । अणि परतः "अलसाय" इति प्रतिषेधादादेरै ।
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म. पा.
सू० ३५-४३ ]
महावृसिसहितम्
२२५
तेन क्रोतम् ॥३४॥३५॥ तेनेति भासमर्थात् कौतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठहादयो भवन्ति । निष्केण क्रीतम् , नैष्किकम् । शतिकम् । शत्यम् । साहस्रम् | द्विकम् । त्रिकम् । इह करणदिति वक्तपम । कतरि माभूत् । देवदतेन क्रीतम् । "मूल्यादिति च वसव्यम्' [वा०] । इह मा भुत् पाणिना क्रोतमिति । "विषन्ताच करणाप्रतिषेधो धक्काव्यः" वा०] : द्रोणाभ्यां क्रोतम । द्रोणः क्रोतम् इति । नेदं बहु बाकध्यम् । अभिधानतो व्यवस्था भविष्यति । यत्र प्रकुल्यर्थस्य संख्याभेदावतिरसि तत्र द्विबहुत्वविषयेऽपि भवति । ब्राम्या क्रीतम् , द्विकम् । मुद्गैः क्रीतम् , मौगिकम् ।
तस्य वापः ॥३४॥३६॥ उप्यते ऽस्मिन्निति वापः क्षेत्रम् । तस्येति तासमर्यात् बाप हत्येतस्मिन्नये यथाविहितं त्यो भवति । प्रस्थस्य वारः, पास्थिकः कीद्रविकः । खासकः । “यस्य प्रकरणे वातपितालेष्मपत्रिपालेभ्यः कममकोपन योरपर्सख्यानम्" [.] वातस्य शमन कोपनं बातिकं द्रव्यम् । पर्व पैचिकम् । श्लैष्मिकम् । सान्निपातिकम् ।
मिमित्तं संयोगोत्पादो ॥३४॥३७॥ बुद्धिपूर्षिका व्याप्तिः संयोगः। शुभाशुमयोः सूचकः उत्पादः । उत्पात इत्यर्थः । तस्येति तासमानिमित्तमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तलिमित्तं संयोग उत्पादो वा स चेद् भवति । शतस्य निमित्तमीश्वरेण संयोगः शतिका, शत्यः। साहस्रः। शतस्य निमित्त दक्षिणाक्षिस्यन्दनमुत्गदः शतिकः | शत्यः । साहसः । सोमग्रहयस्य निमित्तमुत्पादो भूमिकामः । सौमग्रहणिकः ।
योऽसंख्यापरिमाणाश्याः ॥३४॥३८।। तस्येति तासमर्यायो भवति संख्यापरिमाणावादीन वर्जयिका निमित्तं संयोगोपादादित्यलिन् विषये । ठरणादीनामपवादः । वनं निमित्त संयोग उत्पादो वा बन्यः । यशस्यः । स्वयः। श्रायुष्यः । असंख्यापरिमाणमादेरिति किम् । पञ्चानां निमित्तं संयोग उत्पादोवा, पञ्चकः । सप्स। परिमाणात् । प्रस्थस्य निमिरी संयोग उत्पादो वा प्रास्विकः । द्रौशिकः । खारीकः । अश्वादिगणः । अश्वस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा आश्विकः । अश्व । अश्मन् । गण । ऊ । उमा। भङ्गा । वर्षा । वस्त्र । वा । संख्यापरिमाणयोरर्थभेदोऽस्ति । "अर्धमानं किरोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः । मायामं तु प्रमाणं स्यात् संस्था तु गुणमारिमका ।"
गोब्रह्मवर्चसात् ॥३४॥३॥ तस्य निमितं संयोगोत्पादाविति वरते । गोन झवर्चस्यब्दान्या यो भवति । गोनिमित्तं संयोग उत्पादो वा गव्यः । ब्रह्मणो वर्च, बहावर्चसम्, अत एव निपातनात्सान्तः। ब्रह्मवसस्य निमित्त सैयोग उत्पादो का ब्रह्मवर्चस्यः । पूर्वण ये सिद्ध सत्यारम्भी नियमाय । एकाचो गोशब्दादेव बहुचो ब्रह्मवर्चशब्दादेव यः । इह न भवति । नावो निमित्तं संयोगः नाविकः । वास्तुयुगिकः । यच एव पूर्वेण यो वेदितव्यः।
नाच्छ वा ॥३॥४॥४०॥ वस्य निमित्तं रुयोगोत्पादाविति वर्तते । पुत्रशब्दाच्छो यश्च । पुत्रस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा पुत्रीयः । पुभ्यः ।
सर्वभूमिपृधिवीभ्यामण ॥३४॥४२॥ तस्य निमित्तं संयो। त्पादाविति वर्तते । सर्वभूमि-पृथिवीशब्दा यामण भवति | ठणोऽपवादः । सर्वभूमेनिमित्तं संयोग उत्पादों वा, सार्वभौमः । अनुशतिकादिसादुमयत्रैप । पृथिच्या निमित्तं संयोग उत्पादो बा, पार्थिवः ।
ईश्वरः ॥४॥४२॥ तस्येति वर्तते । तासमाभ्यां सर्वभूमिपूथिवीशब्दा यामीश्वर इत्यस्मिन्नर्यऽण् भवति । ठणोऽपवादः । सर्वभूमेरीश्वरः, र्वभौमः । पार्थिवः ।
__त्र विदितः ॥शा४३॥ तत्रेचीप्समाभ्यां सर्वभूभिथिवीशब्दाभ्यां विदित इत्यभिन्नड भवति । सर्वभूमौ विदितः सार्वभौमः । पार्थिवः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० १ ० ४ ० ४७-५१
लोकात् ||३|४|४४ ॥ तत्र विदित इति वर्तते । लोकशब्दादीप समर्थाद्विदित इत्येतस्मिन्नर्थे ठण् भवति । लोके विदितः, लौकिकः 1
२२६
सर्वान् ||३|४|४५ विदित इत्यस्मिन्नर्थे । सर्वलोके विदितः सार्वलौकिकः । श्रनुशविकादित्यादुभयत्रैषु ।
सदस्मिन्वृद्ध न्याय लाभशुल्कोपदा दीयते || ३ | ४०४६ ॥ तदिति वासमर्थाद् वृद्धयादिविशिष्ठादस्मिन्नितीर्थे यथाविहितं त्यो भवति । यत्तवासमर्थं हृदयादिविशिष्टं दीयते चेत्तद् भवति । वृद्धि : कालान्तरादिका । नित्यनिवद्धा प्राप्तिरायः । पादीनां मूल्यातिरेको लाभ वा (वणिनां रक्षाकारितो राजमागः शुल्कः । उत्फोटः उपदा। दीयते इत्येकवचनान्तं वृद्धयादिभिः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । पञ्चास्मिवृद्धि यो वा लाभो वा शुल्को वा उपदा वा दीयते पञ्चकः । प्रास्थिकः । कोडविकः । इह तस्मै दीयते इति वक्तव्यम् " [ चा०] पश्चाऽस्मै वृद्धयादि दीयते पञ्चकः । सप्तकः । न वक्तव्यम् । सम्प्रदानस्याधिकराविवचया सिद्धम् ।
वर्धाः ||३|४|१७|| डिति प्रत्याहारग्रहणम् । " तस्य पूरणे बहू" [४।१।१] इल्या रम्य श्र। तमध्ष्टकारात् । ब्रजन्तान्मृदः अर्धशब्दाच्च ठो भवति तदस्मिन्वृद्ध या यलाभशुल्कोपदा दीयते इत्यस्मिन्नर्थे । ठण्ः “अर्थाच्च” [३।२।१०३ ( वा०] इत्यौपसंख्या निकस्य च ठोऽपवादः । पञ्चमः दीयते द्धिर्वा प्रायो लाभो या शुको या उपदा मा पञ्चमिकः । द्वितीयिकः । श्रर्धिकः । स्त्रियाम् — श्रर्धिका ।
भागाचच ॥ ३४४८|| भागशब्दो ऽर्धवाची । तदस्मिन्वृद्ध यायलाभशुल्कोपदा दीयते इति च वर्तते । भागशब्दाद्यो भवति यश्च । भागो वृद्धयादिरस्मिन्दीयते भाग्यं शतम् । भागिकं शतम् ।
रति वहत्यावइति भाराद् वंशादेः || ३|४|४६ ॥ वंशादिभ्यः परो यो भारशब्दः तदन्द्रानमूदई (इ) समर्थाद् हरत्यादिष्वर्येषु यथाविहितं त्यो भवति । हरति नयतीत्यर्थः । वहति उत्क्षिपतीत्यर्थः । श्रवहति उत्पादयतीत्यर्थः । वंशभारं इरति वहति श्रावति श वांशभारिकः । वाल्वजभारिकः । मायदिति किम् । वत्सं इरति । वंशादेरिति किन १ भारं हरति । केवलान्न भवति । अन्ये पुनरन्यथा सूत्रार्थ ग्राहिताः । वत्सा (वंशा) दिभ्यो भारभूतेभ्यस्त्यो भवति । अथेद्वारेण भारो वंशादेर्विशेषणम् । भारभूतात् (न्) दर्शत, वांशिकः | वाल्वजिकः । भारादिति किम् ? एकं वंशं हरति । इत्वा वंशादेरिति किन ? भारभूतान् यवान् हरति । सूत्रार्थद्वयमपि प्रमाणम् । वंश | बल्बज । कूट । मूल | स्थूल । खट्वा | श्रश्व | इक्षु |
यस्नद्रव्याभ्यां ठकौ ॥ ३२४॥ ५० ॥ वस्नद्रव्यशब्दाभ्यामि समर्थाभ्यां हरत्यादिष्वर्थेषु यथासंख्यं ठ इत्येतौ त्यौ भवतः । वस्नं हरति वहति श्रावइति वा, वस्निकः । द्रव्यकः ।
सम्भवस्यवहरति पचति || ३ | ४|५१ ॥ तदिति वर्त्तते । इप्समर्थान्मृदः सम्भवत्यादिष्वर्येषु यथाविहितं त्यो भवति । सम्भवति गृह्णातीत्यर्थः । श्रवहरति दयं नयतीत्यर्थः । पचति विक्कदनं करोतीत्यर्थः । प्रस्थं सम्भवत्यदति पचति वा, प्रास्थिको स्थाली । एवं कौडविकी । खारीकी | मनु या प्रस्थं सम्भवति सा पचत्यपि तत्कथं भेदः १ इदं तर्हि पचतेदाहरणम् । प्रत्यं पचति ब्राह्मणी, प्रास्थिकी ।" तत्पचर्वाधि होणादयू चचकव्य:" [श्रा ] | द्रोणं पचति द्रोणी, द्रौणिकी।
बाऽऽढकाचित पात्रात्खः || ३/४/५२॥ श्राटक-श्राचितपात्रशब्देभ्य दप्समर्थेभ्यः सम्भवत्यादिवर्थेषु वा स्वो भवति । पूर्वेण नित्ये ठणि प्रान्ते विभाषेयम् । श्राटकं सम्भवति श्रवहरति पचति वा, आढ कीना, श्राढकीको । श्राचितोना, अचितिकी । पात्रोया, पात्रिकी । श्राढकादोनि परिमाणानि ।
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४० ३ पा० ४ सू० ५३-५८ ] महावृतिसहितम्
२२७ राहट च ॥१४॥५३॥ आटकाचितपात्रान्तात् रात् हसमर्थात्सम्भवत्यादिश्वर्येषु ठद मति खद या | तेन त्रैरूप्यं भवति । द्वे श्राद्धक सम्भवति अवहरति पचति वा दूधादकिकी । यादकोना। आभ्यां मुक्ते ठण दस्य "राहुबखौ" [२११२६] इत्युप्। द्वयाटको । "परिमाणापि " [३/१९६] इसि को विधिः । उटस्खयोर्वचनाद्वम् ( दुम्म ) भवति । द्वयाचितौना, दयाचिता । "म विस्तावितकम्पपार" {२०२७) इति लोप्रतिषेधः । द्विपात्रिकी । द्विपात्रीणा । द्विपात्री।
कुनिजाच ॥३।४।५।। चकारस्त्रिकाऽनुकर्षणार्थः । रादिति वर्तते । कुलिषशब्दान्तात् रात् इप्समर्यात् सम्भवत्यादिव्यथेषु ठड् भवति खश्न वा। तेन त्रैरूप्यम् । कुलिवं परिमाणविशेषः । वे कुलिजे सम्भपत्यवहरति पचति वा द्विकुखिजिकी, द्विकृलिजोना, द्विकलिजी। केचिदुपोऽपि विकल्पमिछन्ति । पक्षे ठणः श्रवणम् । द्वैकुलिजिकीति । स एव "अनुशाणे' [पा२१२२] इत्यत्र कुलिजस्यापि प्रतिषेमिच्छन्ति ।
तवस्यांशवस्नभृतयः ॥शा५५।। तदिति वासमर्थात् अस्येति तार्थे यथाविहितं त्यो भवति यचदा समर्थम् अंश वस्न भूतयश्चेतद् मवन्ति । पञ्च अंशा वा वस्नो षा भतिर्वाऽस्य, पञ्चकः | सप्तकशतिकः, शत्यः । साहसः । खारीकः ।
परिमाणात्सख्यायाः सङ्घसूत्राऽध्ययने ॥३४॥५६॥ तदस्येति वर्तते । पारमीयते पाराव्यवेऽनेन परिमाणम् । परिच्छेदकमिह तत् पारिभाषिकम् | तदिति बासमर्थात् संख्यावाचिनः परिमाणे वाधिकादस्येति तार्थे यथाविहिरी यो भवति । यत्तदस्येति सङ्घसूत्राऽध्ययनानि चेद् भवन्ति । सधे-पश्च परिमायमस्य सक्षस्य पञ्चकः । सप्तकः । सूत्रे अन्य प्रत्यर्थः । पञ्चाऽध्यायाः परिमारामस्य, पञ्चकं जैनेन्द्रम् । श्रष्ठ पाणिनीयम् । शतकं स्तोत्रम् । अधीतिरध्ययन तस्मिन् । पञ्च रूपाण्यस्याध्ययनस्य पञ्चकम् । सप्तकम् । कर्मणि यद्यध्ययनशब्दो व्युत्पाद्येत सूत्रान्न भेदः स्यात् । "स्तोमे दो वक्तभ्यः" [पा० ] पञ्चदशाद्यर्थ: पञ्चदश मन्त्राः परिमाणमस्य स्तोमस्य पञ्चदशः स्तोमः। एवं सप्तदशः। एकविंशः। परिमाणादिति योगविभागः कर्तव्यः । तदस्यवि वर्तते । पञ्चकलापः परिमायमस्य, पञ्चकलापिकम् । पाञ्चलोहिविकम् । प्रत्यः परिमाणमस्य पास्थिको राशिः। कौतिकः । खारीशतिकः । वर्षशतं परिमाणमस्य वार्षशविकः । "जोषितपरिक्षाम इति च वक्तव्यम् [पा.] पटिः संवत्सरा जीवितपरिमाणमस्व, पाटिकः । साविकः ।
आशीविकः । नेदं वक्तव्यम् । “समवी( धीटो भू ( भूतो भूतो भाषी' [HD] इत्येव सिद्धम् । षष्टिं भूतो (तः ) षाष्टिकः । एक्वानुबपि सिद्धः । २ षष्टी भूतो द्विवारिकः । इस विधानो( ने) "राषौ " [२२] इत्युप् प्रसज्येव ।
खौ ।।३।४५७॥ खुविषये च परिमाणविशिष्टायाः संख्शाया यथाविहितं त्यो भवति । विशतिः परिमायामस्य विंशतिक परिमाणनामधेयम् । स्वार्थे चाऽत्र त्यो द्रष्टव्यः । पञ्चैव पञ्चकाः शकुनयः | अय एव त्रिकाः सा शालकायनाः।
पविक्रविशत्रिशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशतष्टिसप्तत्यशोसिनवतिशतम् ॥३४ा पक्त्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । यत्र साक्षणेनानुपपन्नं सत्सर्वे निपातनास्सिमम् । तदस्य परिमाणमिति वर्तते। पञ्चपादा, परिमाणमस्य पकिस्तच्छन्दः; क्रमसन्निवेशोऽपि । पञ्चशब्दासिरिस्थर्य स्मष्टिवं प मिपास्यते । द्वौ दश वो परिमारामस्य वर्गस्य विशतिः। द्वे विभावः शतिश्च स्यः । त्रिचतुःपञ्चानाम् इमारिमा यान्तादशाः हाच त्यः । यो दशतः परिमाणमस्य वर्गस्य त्रिंशत् । चत्वारो दशतः परिमाणमस्य चत्वारिंशत् । पञ्च दशवः परिमासमस्य, पञ्चाशत् । षष्ट दशतः परिमाणमस्य षष्टिः । षषसिरिस्ययं स्योऽपष्वं । सप्त दशतः परिमाणमस्य सप्ततिः । सप्लनस्तिरित्ययं त्यः । अष्टौ दशवः परिमारसमस्य अशीविः । पटनः अझीमा: वित
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२२८
जैनेन्द्र-व्याक र राम
[ ० ३ पा० ४ सू० ५३-६०
व्य: । नव दशयः परिमाणामस्य नर्ऋतः । नधशब्दतः । दश दशतः परिमाणमस्य शतम् । दशान शभावः सत्ययः । चिंशत्यादीनां कचित्संख्यानप्रधानत्वम्, के चित्संख्येय प्रधानत्वम्। लिङ्गवचनं च स्वाभाविकत्वादेव सिद्धम् । इह यथाकर्याञ्चन्युत्पत्तिः कियते । सदसादयोऽप्यनयैव दिशानुगन्तव्याः । दशशतानि परिमाणमस्य सहस्रम् | दशसहस्राणि परिमाणमस्य श्रयुतम् ।
पञ्चदशती वर्गे वा ॥ ३२४ ॥ ५९ ॥ पञ्चन् दर्शन इत्येतौ शब्दो ऽभिधेये वा निपत्येते । तदस्य परिमाणमित्यस्मिन्विष नित्य के प्राप्त पदे बदित्ययं त्यो निपात्यते । पञ्च परिमाणमस्य पञ्चवर्गः । दशदूबर्गः ३ दशको वर्गः ।
तदर्हति ॥ ३३४॥६०॥ तदिती समईतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविति यो भवत । श्वेतच्छुत्रमर्हति स्वैन्छत्रिकः । श्रभिषेचनिकः । वास्त्रयुकिः । दध्योदनिकः । शतिक शत्य इह भोजन माईतीत्यनभिधानान्न भवति । "स्त्रीपुंसान्नुषत्वात्' [ २१/०२ / इत्येषोप विधिरनभिधानान्नायतरति । उणादय इमं योगं प्राप्य निवृत्ताः ।
प्राग्वतष्टन् ॥१४॥६९॥ तदहें वदिति वच्यते । प्रागेतस्माद्वत् संशब्दनायानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः अधिकृतो वेदितव्यः । वक्ष्यति पार-यय तुरायण चान्द्रायणं वर्तयत्ति" [१४३६८] पारायणिकः । "प्राश्वतः संख्यापूर्वपदानां तन्मनुषि" इति द्वेपारायणिकः । इह ( ठाण ) प्रकृते तस्योप प्रसज्येत तैन ठञधिकृतः ।
छेदनित्यम् ||३|४|६२ ॥ नित्यग्रहणमर्हतीत्यस्य विशेषणम्। दादिभ्यो नित्यमईतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । छेदं नित्यमईति वैदिकः । छेद | भेद । हो | द्रोह । तस्कर नर्त । कर्म । विकर्ष । विप्रकर्ष | प्रयोग | संप्रयोग । विप्रयोग | सम्प्रश्न। प्रेषण विरागः विश्व ।
शीर्षच्छेदाद्यश्च ||३|४|६३|| नित्यमिति वर्तते । शीर्षच्छेदशब्दात् इप्समर्थात् नित्यमईतीत्यस्मिन्नर्थे यो भवति ठञ् च शीर्षच्छेदं नित्यमर्हति शीर्षच्छेदिकः । अन्ये शिरश्छेदं नित्यमर्हतीति ल्य सन्नियोगे शिरसः शीर्षभावं वर्णयन्ति । तदयुक्तं यनाभावात् । तस्मान्नियतविस्य शिरः पर्यायः शीर्षशब्दोऽ स्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् |
दण्डादेः || ३|४|६४ || नित्यमिति निवृत्तम् | टण्ड इत्येवमादिभ्योऽई त त्यस्मिन्नर्थे यो भवति । ठमोपवादः । दण्डमर्हति दययः । दण्ड । मुशल | गधुपर्क | कशा । श्रर्घ । मेघ । मेघ । वध । उदक । युग । इ (भ) |
पात्राश्च ||३|४| ६५ ॥ वदवीति वर्तते । पात्रशब्दाद्यों भवति चकाराद्यश्च । ठञोऽपवादः । पात्रमिति परिमाणं च गृह्यते । पात्रमईति पात्रियः । पयः ।
कडङ्गरदक्षिणास्थ(लीषिला
||३|४|६६॥ तदईतीति पर्तते । कडङ्गर दक्षिणा स्थालीबिल इत्येतेभ्यो भवति यश्च । ठञोऽपवादः । मुद्गादि काष्ठं कडङ्गरम् | कडङ्गरमर्दति कडङ्गरीयो गोः । दक्षिणामर्हति दक्षिणीय । दक्षिण्यः । स्थालीबिल मर्हति स्थालीविलीयाः स्थालीविल्यास्तयडुलाः । पाका इत्यर्थः ।
विग्भ्यां घनी ||३|४|६७॥ तदईतीति वर्तते । यज्ञ ऋत्विक्शब्दाभ्यां यथासंख्यं पराजि येतो त्यौ भवतः । ऽपवादः । यशमईति यज्ञेिषः । श्रात्मिनः । उपचारात्तत्कर्मापि तथोक्तम् । यशकर्माहृदि, यशियो देशः । स्विकर्मावि, आखिजीनं कुलम् |
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म. ५ पा० ३ सू०६८-७६] महावृत्तिसहितम्
पारायणरायणचान्द्रायणं वर्सयन्ति ।।३।४।६८॥ तदिति वर्तते । पाययसतरायणचान्द्रायणशब्देभ्य इप्समर्थेभ्यो धर्तयत्तीत्यस्मिन्नथें ठञ् भवति । पारायणं वर्तयति पारायशिकः । शिष्य एवाभिमान नाघ्यायके । तुरायणं यज्ञ धर्तयत्ति तौरायणकः : यजमान एव न यायके । चान्द्रायणिकः ।
सरायमापन्तः ॥३४॥६९॥ संशयशब्दादिप्समर्थादापन्न इत्यस्मिन्नथें ठञ् भवति । संशीतिः संशयः, समापन्ने ककर्मणी भवतः । तत्र फर्सरि पुरुषेऽभिधानं नास्ति । संशयं विषयभावेनापन्नः सांशयिकः । स्थाएत्रादि ।
योजन याति ॥३॥४॥७॥ योमनशम्दादिप्समांथातीत्यस्मिन्नर्थे उन् भवति । योचनं याति योमनिकः । संख्यापूर्वपदादपि । द्वैयोजनिकः । कोशशतयोजन हातयोरुपसंख्यानम्' (चा०] । कोशशतं यानि कौशशतिकः । यौजनशतिक | "ततोऽभिगमनमर्हति च वसम्यम् ' [वा०] कोशशतादामगमनमहति क्रोशशतिकः । यौवनशतिको गुरुः ।
पथः कट ॥३७॥ रादिति चर्तते । पथिशब्दादिप्समर्थान्यातीत्यस्मिन्नर्थे कट् इत्ययं त्यो भवति । पन्यानं याति पथिकः, पथिकी। दो पन्थानौ याति, द्विपथिकः, द्विथिको । हृदथे रसे कृते सान्तात्पूर्वनिर्णयेनायमिष्यते ।
पन्थो पनित्यम् ॥४४॥७२॥ नित्यग्रहणं यातीत्यस्य विशेषणम् । पथिशब्दादिपसमर्यानित्य यातीत्यस्मिन्नर्थे पो भवति तत्सन्नियोगे पन्थ इत्ययञ्चादेशः । पन्धानं याति पान्धः । नियमित किम् । पपिकः।
उत्तरपथेनावृतं च ॥२७॥ निर्देशादेव भाया उपादानम् । उत्तरपथशदाद मानमर्यादाहृतं यातीति चानयोरर्थयोष्ठम् भवति । उच्चरपथैनाइतम् , श्रौत्तरपथिकम् । उत्तरपथेन याति, औत्तरपपिकः । "वारिजालस्थळकान्ताराजशपपदादिति वाम्यम् ' [ वा.] वारिपथैनातं वारिपथिकः वारिपन याति वारिपायकः। एवमर्थद्वयोऽपि । बाङ्गलपथिकः । स्थानपथिकः । कान्तारपथिकः । श्राजपथिक। शाङ्कपधिकः । "मधुकमरिचयोः स्पलपूर्वाद बतायः" । स्थलपथैनातं स्थालपथं मधुकं मरिचं वा ।
कालेभ्यः |३४|४il बहुत्वनिर्देशः स्वरूपनिरासार्थः । अधिकारोऽयम् । यदित ऊर्वमनुऋमिष्यामः कालवाचिभ्य इत्येवं तद्वेदितव्यम् । वक्ष्वति "वेन मित' [
३ १]। मासेन नितम मासिकम् । प्रार्द्ध मासिकम् ।
तेन नितः ॥२४,७५॥ तेनेति भासमर्थेभ्यः कालवाचिभ्यो निवृत्त प्रत्यसिन उम् भवति । मासेन नितः, मासिका । साँवरसारकः प्रासादः ।
तमवी(धोको भृतो भूतो भावी ॥३॥४६॥ तमितीसमर्थात् कालवाचिशम्दात् प्रवी(घी) ष्टो भृतो भूती भाबीति एतेभ्यर्थेषु ठञ् भवति । ४.कल्य नियुक्तोऽवा( धी)ः। बेतनेन फ्रीतो भू (भूतः । मासमवो (घी)टो भृता भूतो भावी वा मासिकः । श्रार्द्धमासिकः । सांवत्सरिक । "कालाध्यम्यधिच्छेदे" [181५] इतोप् । अबी पीटभू (भू योरथयार्मासेकदेशे महू, प्रासयन्दो वर्तते । तस्याऽध्येषएभरणक्रियाभ्यां ज्याप्रविन्दः । भूतभाविभ्यां तु खुसन्तया (स्वसतया ) कालस्य ध्यान्तेरविच्छेदः सिद्ध एव। इह पष्टिं भूतः षाष्टिकः । साप्ततिकः । इति कथं मानवाचित्वन १ फालस्य संख्येमसात् कालविषयत्वाहा । स्मणीयं काल भूत प्रत्यत्राऽनभिधानान्न भवति ।
1. याजक भए । २. स्त्र सरसया म०, ३० ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
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मासाद् वयसि खः ॥ ३४७७॥ तमयी ( वी )टो भूतो क्यस्यभिधेये खञ भवति । ऽपवादः । वयखीति वचनात् । मासं भूतो भावी वा, मासीनः । कथं भावि वयो विगमः इति चेत् श्ररिष्टदर्शनात् । ञकारः "वस्त्रविकारे" [ ४ | ३ | १५१] हत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थः । मासीनो दुहितृकः । व्यसीति किम् ? मासिकः ।
२३०
[अ० ३ पा० सू० ७०-८
भूतरे भावीति वर्तते । माखशब्दाद्श्रवी ( भीभृतप्रहणं नाभिसम्बध्यते ।
यः ||३|४|७८|| मासशब्दाद वयस्यमिधेये यश्च भवति । मासं भूतो भावी वा मास्यः | योगविभाग उत्तरार्थः 1
रात् ॥ ३|४|७९ ॥ मासाद् वयसीति वर्तते । मासान्तात् शद वयस्यभिधेये यो भवति । द्वौ मासौ भूतो भावी वा द्विमास्यः । प्राग्वतः संख्यापूर्वपदानामनुपीति टञपवादयोर्यस्त्रञोः प्राप्तयोरनेन यो विधीयते ।
परमासारख्यश्च ॥३१४८॥ परमासशब्दाद्वयस्यभिधेये स्यो भवति यश्च । घरामासाद् भूतो भावी वा घामात्य । षणमास्यः । श्रन्ये चशब्देन दर्ज समुच्चिन्वन्ति । यस्त्वनुवर्त्तनादेव भवति तेषां मासिक इत्यपि ।
चाय || ३|४|१|| परमाखशब्दादवयस्य भिधेये हो भवति एयश्चानन्तरः । षाएमासिको नायकः । पारमास्यः ।
समायाः खः ||३|४|८२|| वो धीटादयत्वारोऽय अनुवर्त्तन्ते । समाशब्दादिप्सम दीष्टादिष्वर्थेषु खो भवति । चोऽपवादः । समामवी (धी)ष्टो भूतो भावी वा समीना ।
राहू भूतबलेः ||३|४|८३|| समाशब्दान्ताद् निर्वृत्तादिषु पञ्चस्वर्थेषु खो भवति भूतबलेराचार्यस्य मतेन । नान्येषाम् । प्रातः संख्यापूर्वपदानां वदन्सग्रहणमनुपीति पूर्वेण नित्ये स्त्रे प्राप्ते विभाषेयम् । द्वेस भृते भूतो भावी वा द्विसमीनः । द्वे समिकः । त्रिसमीनः । त्रै समिकः । कालः परिमाणमइथेन न गृश्यते । तेन "रिमायास्थाझा” [ १।२।२२ ] इति धोरैम्न भवति ।
रात्र्यहः संवत्सरात् ||३||४|| रादिति वर्त्तते । श्रहन् संवत्सर इत्येवमन्ताद्रानिर्वृचादिष्वर्येषु भूतत्र लेराचार्यस्य मतेन खो भवति । श्रहन् । द्र्यहीनः । हैयह्निकः । अत्रापि श्रहरन्तादिति वचनात् "राखहः सखिभ्पष्टः " [ ४२३३ ] इति सान्तो न भवति । श्रन्यथा "एभ्योऽहोऽकः" [] इत्यादेशे सति द्वयोन इत्यनिष्टं रूपं स्यात् । द्वैर्याह्न इति चेष्यते । तत्कथं सिद्ध्यति १ द्वयोरह्रोः समाहारः सान्ते "न समाहारे” [ ४२ ] इत्यादेशप्रतिषेधे च सति सिद्ध्यति । संवत्सर, द्विसंवत्सरीयः । द्विसांवत्सरिकः । "संख्यायाः (संख्या) संवसरस्यं" [२०] इति द्योयदेरै ।
वर्षा दुप्च ||३|४|| रादिति वर्त्तते । वर्षशब्दान्तान्निर्वृतादिष्वर्थेषु भूतबलेराचार्यस्य मतेन ञ उभवति खश्च । अन्येषां ठञेव । तेन त्रैरूप्यम् । देवर्षे भूतः, द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः । " वर्षस्वाभाविनि [२१] इति श्रोरादेरै । भाविनि द्वै वार्षिक इति भवति ।
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प्राणिन्युप् ||३|४१८६॥ पुनरुव्ग्रहणं नित्यार्थम् । वर्षेशब्दान्ताद्ात्पाणिनि त्यार्थेऽभिधेये नित्यं त्यैयोभवति । पूर्वे विकल्पेन पते ठञः श्रवणं स्वश्च न भवति । द्वे वर्षे भूतो भावी वा द्विवर्षो दारकः । भूतभाविनो रेवार्थयोरयं नित्यमुविष्यते नान्यत्र । द्वे वर्षे घोटो भू ( तो पक्ष कर्म करिष्यति, द्विवार्षिको मनुष्यः ।
तदस्य ब्रह्मचर्यम् ||३|४|८७॥ तदिती समकालवाचिनो मूद्रोऽस्येति तार्थे ठञ् भवति यदिपमर्थं तस्य व्यापकं त्यार्थस्य च स्वं ब्रह्मचर्यं चेद् भवति । मार्तं ब्रह्मचर्य्यमस्य मासिको ब्रह्मचारी | सम्बन्धो वृत्तावन्तर्भूत इति पुरुषोऽभिधेयः । एवम् श्रार्धमानिकः । सांक्सरिकः । "संख्या पूर्वपदाच”
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प. प. पू. 4-11]
महावृत्तिसहितम्
बादशवार्षिक: । "माचर्यमित्यस्मिन) महानाम्यादिभ्य उपसंख्यानम्" वा०] । महानाम्न्यो नाम ऋच । महानाम्नीनां प्रमचर्यम् , माहानाम्निकम् | आदित्यवतिकम् । गोदानिकम् । "तस्यरतोति च महामायाविम्य पसंख्याम" [वा०] । महानाम्नीश्वरति माहानाम्निकः । महानाम्नीसहचरितं वर्त चरतीत्यर्थः । एवम, श्रादित्यवतिकः । गोदानिकः । “भवान्तरदीक्षादिभ्यो सिन् धक्तव्यः" चा०] [ अवान्तरदीक्षां चरति श्रवान्तरदीक्षी । देववती । तिलवती । "मष्टाचस्वाविंशसो चिनौ च बक्तव्यौ[वा०] | श्रष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि मत चरति, श्रष्टाचत्वारिंशकः । अष्टाचत्वारिंशी ! "चातुर्मास्याना परनं च वुदिनौ च वरूग्यो । चातुर्मास्यानि चरति चातुर्मासकः । चातुर्मासी । अथ किमिदं चातुर्मास्यानीति ? "चतुर्मासण्यो यज्ञे तनमये वक्तव्यः" [वा०] | चतुर्यु मासेषु भवन्ति चातुर्मास्यानि । "संज्ञायामण वकम्यः" [वा. पात मासेष मवा पौर्यमासी चातुर्मासी । कार्तिकी । फाल्गुनी | आषाढी चेति । अथ मासोऽस्य ब्रह्मचर्यस्य मासिक महाचर्यम् । श्रार्धमासिकम् | सक्सिरिकमित्यस्य सिद्धये यत्नः कर्तव्यः । न कतव्यः । मासं भूतं भावि वा ब्रह्मचर्य मासिकमिति भविष्यति ।
20R 1तस्य दक्षिणा यशाण्यात् ॥३॥४८॥ तस्येति तासमर्थात् यशाख्यान्मृदो दक्षिणेत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । यज्ञमाचष्टे यशाऽन्यः । कपकरणे उपीति ( सुपि [ २१२१७ ] इति ) योगविमागे "मूधिमुजाविभ्य [घा०] इति (वा) कः। अग्निष्टोमस्य दक्षिणा प्राग्निष्टोमिकौ । 'तस्पेदम्" FREE 1 इत्यस्याऽणोऽपवादः । एवं रामयिकी । दासौदनिकी । अकालार्थ चाऽख्यप्राणम् । अन्यथा फालाधिकारात् पकाहदादशाहप्रभृतिभ्य एव यज्ञेभ्यः स्यात् । प्राग्यतः संख्यापूर्वपदामा सम्ताय. मनुपीति फालावि (वि) कारेऽपि दादशाहादिवस्ति प्राप्तिः।
सत्र होयते भववत् ।।३।१४॥जयेतीपसमर्थात काल नानियो गुटो भीगते हत्यमित भव इव यविधिदेदितव्यः । यथा मासे भवं मासिकम् ! प्रार्धमासिकम् । 'काला " [ 1] इत्येवमादि. विधिः । पर्व मासे दीयते मासिकम् | नाईमासिकम् । प्रानुषेण्यम् । कैमनम् । शैशिरम् । वदग्रहण सर्वसारश्यार्थम् । षड्व कार्यग्रहग्यमपि कर्तव्यम् । मासिकम् । वासन्तम् । द्वैमनम् । कर्तव्यम् , यन्मासे कार्य मसाले भवमित्यपि भवति । ततः "त भवः" [३।३।२८ ] इत्येव सिद्धम् । सदनुवर्थ तीह कार्यप्रार्थ सार्थकम् । भूयोर्मासयोः कार्य द्वैमासिकम् | भवार्थलक्षणस्य टमः परस्पोवनपत्ये" [१४] त्यप प्रसज्येत । नेदं युक्तम् । उबेवात्रेभ्यते । वदन्यैरप्युक्तम् । कार्यग्रहयामप्यनर्थकम् । तत्र भवेन कृतत्वादिति । अथापि कार्यमनुपः प्रयोगो दृश्यते । एवं हि "तेम कार्य" मित्यत्र स प्रष्टयः । वाभ्यां मासान्या कार्य त्रैमासिकम् | "जय्यसभ्यकायसुकरम्" [ २] इति । तत्र दीयते इति योगविभागः कर्तव्यः । याल्यादित्यनुवर्तते । अग्निष्टोमे दीयते भाग्निष्टोमिकमन्नम् । राबायकम् | वायिकम् | योमपेययोर्दीयते वैवानपेयिकम् ।
प्युष्टावरण ॥३॥४६इह कलिभ्य इति नापेक्ष्यते । सामान्येन विधानात् । तत्रेति वर्तते । म्युष्ठ इत्येवमादि य ईप्समर्थ यो दीयते इस्यस्मिन्नर्थेऽण् भवति । उछी विघास इत्यस्य के भ्युष्टमिति कालवाचि । व्युष्टे दीयते वैयुष्टम् । नित्यशब्दादीबन्तादपि वचनाद् भवति । तीर्थ । निष्कमा । उपसंक्रमण । प्रवेशन । संग्राम । संघात | प्रवास । उपवास | अग्निपदी। पीजभूल | "भण्वकरणे अग्निपदादिम्प उपसंस्थान" [वा ] न कर्तव्यमिह पाठात् ।
सेम यथाकथाचहस्ताभ्यां णो ॥३४॥६॥ अत्रापि कालेभ्य इति नापेक्ष (च्य) ते। दीयते इति वर्तते । तेनेति भासमर्थांभ्यां यथाकथाच हस्तशब्दाभ्यां दीयत इत्यस्मिन्नथें यथासंख्य गयौ भवतः । स्याक्याच दीयते माथाकथाचम् । अनादरदमित्यर्थः । हस्तेन दीयते हत्यम ।
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [.३ पा० ४ सू० १.१ . अय्यरुभ्यकार्यसुकरम् ||२|| कालेभ्य इति वर्तते । तेनेति भासमर्थात् कालवाचिनो मुदो
अव्य जम्य कार्य सुषर इत्येतेष्वर्थेषु ठप भवति । मासेन बच्यो मासिको हस्ती। मासेन शक्यते जेतुमित्यर्थः । मासेन लभ्यो मासिकः पटः । मासेन का मासिक एहम् । मासेन सुकरो मासिका प्रासादः ।
सम्पादिनि ||३४||३|| काले य हवि निवृत्तम् । भासमर्थान्मूदः सम्पादिन्य ठन् भवति । पर्यवेष्टाभ्यां सम्पादि शोभते कार्णवेष्टिकं मुखम् । वस्त्रयुगेन सम्पद्यते वास्त्रयुगि शरीरम् ।
कर्मवेषायः ||४|४| तेन सम्पादिनीति च वर्तते । कर्मवेषशब्दा यो यो भवति । उसोऽपवादः । कर्मणा सम्पद्यवे कर्मण्यं शौर्यम् । वेप्रेण सम्पद्यते वेष्या नर्तको । नेपथ्येन शोभते इत्यर्थः ।
तस्मै प्रभवति सम्तापादेः ||५|| तस्मै इति श्रपसमर्थेभ्यः सन्तापादिभ्यः प्रभवतीत्यस्मिअर्थ उन भवति। अलमर्थे ऽ । सन्तापाय प्रभवति सान्तापिकः । सन्ताप। सन्नाह । संयोग । संग्राम | सम्पराय । सम्पेष । निष्पेष | निसर्थ । उपसर्ग । विसर्ग | प्रवास | उपवास । संघात । संमोइन । शक्तुमासोदनाद् विग्रीवादपि । शाक्तुमांसोदनिकम् । शास्तकम् । मासिकम् ! प्रौदनिकम् ।
योगायश्च ॥३॥१९६|| तस्मै प्रभवतीति वर्तते । योगशब्दाद्यो भवति ठम् च । योगाय प्रभवति, योग्यः । यौगिकः ।
कर्मण उका.॥३४६॥ तस्मै प्रभवतीति वर्तते । कर्मशब्दादुका, भवति । कर्मणे प्रभवति कामुकं धनुः।
समयस्तवस्य प्राप्तम् ||३४|| वदिति वासमर्थात्समयादस्पेति वाऽर्थे ठप भवति यत्तद्वासमर्थ प्राप्त चेचद्भवति । समयः प्रासोऽस्य सामयिकम् । प्रातकालमित्यर्थः ।
ऋतोरण ।।१।४।९९॥ ऋतशब्दात् बासमर्थात्प्राप्तोपाधिकादस्येति ताऽर्थे ण् भवति । ऋतुः प्राप्तोऽस्य, श्रात पुष्पम् । “उपवस्त्रादिभ्य उपसंख्यामम्" [वा० ] | उपवस्ता प्राप्तोऽस्य प्रोपवस्त्रम् । प्राशिता प्राप्तोऽस्य प्राशितम् । कर्मनामधेयम् ।
कामायः |१३|४|१००। तदस्य प्राप्तमिति वर्तते । कालशब्दाद्यो भवति । कालः प्राप्तोऽस्य, काल्यं शीतम् । रात्रावृषितायामहरादिः कालोऽपि काल्यः ।
प्रकृष्टेटः ||३४|१०|| तदस्येति वर्तते कालादिति च । प्रकृष्ट प्रकर्ष वर्तमानादस्येति ताऽर्थे ठो भवति । प्रकृष्टः दीर्घः कालोऽस्य कालिकम् ऋणम्। कालिक सख्यम् । अन्ये प्रकृष्ट ठभिति पठन्ति | कालिका मैत्री।
प्रयोजनम् ।।।३४.१०२।कालादिति निवृत्तम् । तदस्येति वर्तते । प्रयोजयतीति प्रयोजनम् । नन्दाविपाठाल्ल्युः । बहुलवचनाद्वा कर्तरि युए। तदिति वासमर्थात्प्रयोजनोपाधिकादस्येति वाऽर्थे उम् भवति । आईत्पूजाप्रयोजनमस्य आईयूजिकः । ऐन्द्रमहिकः ।
वैशासाषाढषाष्टिककागारिकडाकालिकट् ।।३।४।१०३|| वैशाखादया शब्दा निशत्यन्ते । यदा लवणेनानुपपन्नं तत्सर्वं निपातनासिद्धं तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन्विषये । “विशाखापादाभ्यां यथासंन्यं मन्य. वण्योरपिलपात्यते ॥ विशाखा प्रयोजनमस्य वैशाखो मन्यः| आषाढो दण्डा ! "ष्टिरात्रेण पश्यन्ते इत्यस्मिवाक्ये के: । शत्रझवस्य च खम् ।" षष्टिका नाम नौक्ष्यः । असंज्ञायो वाक्यमेव भवति । षष्टिपत्रेण पश्यन्ते मुन्ग इति । "पकागारमध्यान्तवस्य प्रयोजन भिस्यस्मिथ चौरेऽभिधेये उ ।' एकागारं प्रयोजनमस्य ऐशगारिकश्चौरः । चौरादन्यत्र वाक्यमेव । एकागार प्रयोजनमस्य भिक्षोरिति । अथवा "एक समर्थः भगारमोषि
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14.१०.१०१...] महावृतिसहितम्
२३३ समिति-पाक्ये एक शावाशाविस्ययः त्यो मिपाल्पते । ऐकागारिकचौरः । ऐकागारिकों चोरी। समानकालशब्दादावन्तोपाधिविशिष्टादस्येति ताऽथे हफनिपात्यतै समानकालस्य च प्राण प्रादेशः। समानकालावाद्यन्तावस्म प्राकालिका स्तमिल्नुः | आकालिकी विद्युत् । यस्तु प्रादिलक्षणे से बाल इष्टः । नावृतः काल ईघकालो घा वाकाल इति । तस्मात् ठञ् च ठश्चेभ्यते । आकासिमी भाभलिका विद्युत् ।।
छोऽनुप्रवचनादेः ॥३.४।१०४॥ सदस्य प्रयोजनमिति तैते । अनुप्रवचनादिभ्यश्छो भवति । उषोऽपवादः । अनुप्रवचनं प्रयोजनमस्त्र, श्रनुप्रवचनीयम् । अनुप्रवचन । उत्यापन | उपस्थान । संवेशन | प्रवेशन | अनुवाचन । अनुपचम । अनुपान । अनुवादन | अनुवासन | अन्वारोहण । प्रारोहण | आरोहण | श्राभरण । “विशिपरिपाविहिप्रकृतेनासपूर्वपदादुपसंख्यानम्" [वा. ] । गृहप्रवेशनीयम् | मपापूरणीयम् । अश्वप्रपदनीयम् । प्रासादरोहणीयम् । एतस्मिंश्च वक्तव्ये सति यानि गणे विश्यादिप्रहतीत्यनान्सानि पट्यन्ते तेषां पाठोऽमर्थकः प्रपञ्चाऽर्थो वा ।
समापनास्साः ॥३।४।१०५॥ तदस्य प्रयोजनमिति वर्तते । समापनशब्दात्सादेश्छो भवति । ठोऽपवादा । जैनेन्द्रसमापन प्रयोजनमस्प जैनेन्द्र समापनीयम् । तर्कसमापनीयम् । "स्वर्गादिभ्यो यो बस्तभ्यः" [ घर]। स्वर्ग: प्रयोजनमस्य स्वर्वम् । क्यम् | यशस्यम् । भायुभ्यम् । काम्यम् । "पुण्यापाचनादिभ्य हाकल्यः" [वा. ] | पुण्याहवाचन प्रयोजनमस्य पुण्याहवाचनम् । शान्तिवाचनम् । स्वलित पाचनम् । अक्षतपात्रम् । नेदं वक्तव्यम् । तादत्तिाच भविष्यति । अनभिधानाम् भवति | "भद्राविभ्योऽया वक्तव्यः" [ 10 ] | श्रद्धा प्रयोजनमस्य धाधम् । चूडा प्रयोजनमस्य चोडम् |
सब पत् ।।३४.१०६॥ बहतीत्यही तदितीपसमर्थाद् अहतीत्ययं वद् मयति । रामानमाई वि. राणान (राषवद् ) वृत्तम् । कुलीनवत् । इह कस्मान भवति शसमहति देवदत्तः । राजानमईति मरिणः । उपात्र क्रियाग्रह गुणभूतमपि सिंहावलोकनेन सम्मध्यते तेन क्रिया यत्राईतः कर्तुत्वेन विवक्षिता वना विधिः।
तेन क्रिया तुल्ये ॥३४|१०७॥ वदिति वर्तते । क्रिया तल्या अस्य क्रियातुल्यम् । इच्छानो विशेपणनिष्पभाव इति क्रियाशब्दस्य पूर्वनिपातः । नेति भासमास्क्रियातुल्येऽर्थे क् मकति । क्षत्रियेण तुरुमं युध्यते क्षत्रियवयुध्यते । "मातुकोपमाभ्यां सुस्मार्थ:- [9000६] इति भा । शिष्येण तुम्यं वने, शिष्यवद् वर्तते । अश्ववद्धावति । साधुवद् ब्रूते । इह कस्मान्न भवति । तैशपाकेन तुल्मोऽस्त पाफ इति । छह सूत्रे वर्यः ( यर्था) क्रिया सा च साध्या पूर्वोपरीभूताऽवयवा, असाध्यभूता' च | घमाद्यन्तन पुनर्व(वय ) यंस व (ध) भः सिद्धतालक्षणो द्रव्यभूत उच्यते इति नास्ति प्राप्तिः। यदि धमाद्यन्तेन किम नामिधीयते कथं भोक्तुं पाकः भोजकल्य पाकः इति ! नैष दोषः ? "अतु पानि (पुण्तुमादि)" शE] सूत्रे घनाद्यन्तायाः प्रकृतेरथः क्रियाऽऽश्रीयते ! क्रियाग्रहणं किमर्थम् १ ब्राह्मणेन तुल्यः पिङ्गलः । गुणतुल्ये मा भूत् ।
वय ३।४।१०८।। ततीप्समर्थात् इवाय वद् भवति । मथुरायामिव मथुरात् सप्ने प्रासदाः । मधुरावद् रमणीयता । मथुरावद् वर्षति ।
तस्थ ||३४|१०९॥ श्वशब्दोऽनुवर्तते । तस्येति तासमर्थादिवार्थे चद् भवति । देवदत्तस्य च देवदत्तस्य बनम् । राश हव राजवद् देवदत्तस्याश्चाः । बत्प्रकरणे "स्त्रीपुंसान्नुकत्यात" [ 1]
. "अस रवभूताश्च" इत्यपि पाठः । २. प्रतुमाहिए।
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जैमेन्द्र-व्याकरणम् [म. ३ पर० ५ सू० 11.1m इत्येष विधिर्न मवति | "भादौ वोलपुंस्क पुंवत्" [श१५३ ] इति निर्देशात् । योगापेक्षं चेदं शापकम् । तेन स्त्रीवदित्यपि सिद्धम् । योगविभाग उत्तरार्थः ।
भावे स्वतनौ' ॥३॥४११०॥ तस्येति वर्तते । तासमर्थाद् भावेऽर्थे त्यन् वल इत्येतो त्यो भवतः । नकारः "स्त्रीसान्नुवयात्" [ १९७२ ] इत्यत्राऽस्यावधिरूपेण महणं मा भूत् इत्येवमर्थः । लकारस्सकन्स: म्रियामिति विशेषणार्थः । भावः शब्दप्रत्ययप्रवृत्तिकारणम् । तद्यथा भवतोऽस्माच्छब्दप्रत्ययाविति भावः । उक्तं च "यस्य गुणस्य हि भावानग्ये शब्दविनिवेमा, तदभिधाने स्वन्तको" [पा• महा० ५/१९ ] इति । इह गुण इति विशेषयामाग, द्रव्यमान विध्यमानम् । अश्वस्य भाषः, अश्वत्वम् । अश्वता । शुक्लत्वम् । शुक्लता। अत्र जातिगुण्योरभिधाने स्वन्तलो । सम्बन्धस्तु गम्यो नाभिधेयः । इ६ पाचकत्वमिति क्रियाऽभिधाने । अथवा सम्बन्धप्रधानाः । सम्बन्धे चाभिधेये त्वन्तलो । कारकत्वमः । श्रीपगवत्वम् । राजपुरुषत्वमिति । एतेऽपि ये जातिगुणशब्दा, तेभ्यो जातिगुणस्य चामिधाने । कुम्भकारत्वम् । इस्तित्वम् । राजवृवत्वम् । ये गुणमात्रवचना रूपं रसो गन्ध इति, तेभ्यः सामान्यामिछाने रूपत्वम् , रसत्वम् । उपचारशन्देखूपचारनिमित्तेऽभिधेये गोवं वाहीकस्य । अग्नित्वं माणवकस्य । पृथक्वं नानात्वमित्येवमादो असवभूतत्वेऽपि शब्दान्तरेण वासमर्थता पृथगित्यस्य माव इति । यदृच्छाशक्षु डिल्यादिषु संज्ञासम्बन्धामिधाने सर्वावस्थाच्याप्याकृतिसामान्याभिधाने च हित्यत्वम् । उत्वेपणाविषु सामान्येऽभिधेये उत्क्षेपयत्वम् ।
आ व स्वात् ।।३।४।११।। वक्ष्यति "ब्रह्मणराव;" [ ३१२६ ] इति । प्रा श्वस्मात् त्व संशब्दनाद्यदित ऊर्ध्वमनुकमिष्यामस्त्वन्तलो तत्राधिकृतो वेदितव्यौ । अपवादविषये समावेशार्थ कर्मणि च विधानार्थमेव तावधिक्रियते । बक्ष्यति "पृश्वादेवमन्'' [३१/१२] मथिमा | पृथुता। ननु वावचनात् स्वन्तलौ स्वयमेव भविष्यतः १ नैतदेवम्, "ध्यादेरिका" [ १५] इत्येवमादिसमावेशार्थ तद् यावचनम् । 'धकारकरणं किमर्थम् ? "स्त्रीपुंसामनुक्रवात्'' [२२] इत्यस्मिन्नाप विषये प्रापणार्यम् । स्त्रीत्वम् । स्त्रीता। पुंस्त्वम् । पुंस्ता । प्राक्त्वादिति मर्यादाकरणसामर्यादापि सिखः । लिया भावः स्त्रैणम् । पौस्नम् ।
पृथ्वादेवमन् ॥३॥४११२॥ पृथु इत्येवमादिभ्यो वा इमन् भवति तस्य भाव इत्यस्मिन्विषये । यापचनं यादेशिक" [ २१] इत्यस्याणा, गुणवचनेभ्यष्ट्यगः, वयोवाचिभ्यस्त्वनः समावेशार्थम् । पृथोर्भाव, प्रथिमा, पार्थवम्, 'पृथुखम्, पृथुता । पृथु । मृदु । महि । पटु । तनु । लधु । बहु । श्रास । करू । बहुल । दण्ड | खण्ड | चण्ड । अकिञ्चन । बाल | होट । पाक । वत्स । मन्द .स्वादु । कृष । हरख । दीर्घ । चिप। क्षुद्र । प्रिय ।
पविद्धावेष्ट्य ण च ॥३४|११|| वर्णशब्देन वर्णविशेषा गुणोपसर्जने द्रव्ये ये वर्तन्ते, वैषामिद प्रहणम् । वाशैरेष इंदादिभिर्गुणवचनैः साहचर्याद वर्णविशेषवाचिभ्यो हृदादिम्यश्च ट्यग् भवति संवा तस्य भाव इत्यस्मिविषये । शुक्लस्य भावः शौक्ल्यम् , शुक्लिमा, शुक्लबम् , शुक्लता । कापर्यम् । ऋभिामा । शैत्यम् , शिविमा, शिविल्यम् । विभाषाकर्षणादन(ग्य )पि भवति । शैतम् | हादिभ्यः । इदस्य भावः, दावम् , द्रदिमा, दृदयम्, दृढ़ता। इदशब्दस्य सुन्धादिशु अनिट्वं दरखं च निपात्यते । इद। वृद्ध । परिवूढ । कृश । भृश । चुक्र | अम्ल । लवण । "वेर्यातकावरसमाविमनःशारदानाय"
1. स्वत्तको २०, पू. । २. स्वत् १०, पू० । २. -दनिवेशः पा. महाः । .. स्वतको पा. महा० । स्वसही अ० पू०१५. स्वत्तको म०, पूछ।
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40पा0 * सू०११४-१५] महावृतिसहितम्
२१५ [ग० सू०] वैयात्यम् । वैजात्यम् । वैरस्यम् || वैशास्यम् । “समो मतिमनसोः" [ग० सू.] | साम्पत्यम् । साम्मनस्यम् । शीत । उष्ण । जह । बघिर । मूक । मूर्ख | पण्डित । मधुर इति । किमर्थमिदमुच्यते । एषां गुणरेलिलादेव गुणोकिमादिभ्यः" [ १११५इत्येव ट्यण् सिद्धः इमपापणार्थम् । एतत् ट्यणप्रहणमुत्तरत्राऽवश्यकर्तव्यमिइव कृतम् ।
गुणोतिलालयाविभ्यः कर्मणि च ॥३४.११४|| गुणोक्किम्यः शन्देम्यो बामणादिन्यम तासमर्थम्यष्टयण भवति कर्मणि भावे चाभिधेये। उच्यते इत्युक्तिः, गुण उकिर्यस्य स गुणोक्तिः। प्रागगुणमुक्त्वा गुणद्वारेण द्रव्ये यो वर्तत हत्यर्थः । अडस्य कर्म भावो जाइयम् । मोदयम् । ब्राह्मणादियकतिगणः । प्राविशब्दस्य प्रकारवाचिखात् । एवं च गुपोलिग्रहणं गणे च ब्राझणादीनामनुक्रमणं स्वार्थेश्री सनीति प्रपना, अधमवार । ब्रा कम भावो वा ब्राह्मण्यम् । वाचव्यम् । नाक्षयात् प्रारिपचातिलक्षणोऽज प्रातः । माशय वाडव वृद्धलक्षणो युभ प्राप्त: । "आई वो नुम्च" [.] नुमर्थः पाठः। चोर । धूर्त । मनोशादिखाद् त्रुप प्राप्तः । श्राराव(धय । विराव धोय । उपरावधय | अपराव(घय ! एते "उपचोकादेः" [111१६] इत्सुबन्ताः । ततो वृद्धलक्षणो पुञ् प्रासः । प्राणियातिलक्षणो पाइन । एकभाव । दिमाव । त्रिभाव । अन्यभाच । एतेभ्यः स्वार्थे । अक्षेत्रशनञ् पूर्वार्थ ग्रहणम् । संवादिन् । संवेशित् । संभाषिन् । बहुभाषिन् । शीषघातिन् । समस्य । परस्थ । प्रस्थ' । श्राव्यस्थ । विषमस्य । विशाल । एवं नपर्वार्थ प्रणम् । अनीश्वर नन् पूर्वार्थपाठः । कुशल । चपल । निपुण | पिशुन । एभ्यो युवादित्वादण प्रातः । वालिस ( श) बालवयोवाधि(चि )स्वादन, प्राप्तः । अलस । बसोऽयम् । ष । सष । कापुरुष । अनयोनष पूर्वार्थम् । राजनपुरोहितादिखाएण्यः प्राप्तः । गणपति । अधिपति । पत्यन्तलक्षणो एयः प्राप्तः। गण्डुल । दायाद । विशस्ति । विशाप । विधान | निघात । एम्यस्त्वत्तलोनिवृत्यर्यम् । "सर्ववेदादिभ्यः स्थार्धे" [या०] । सार्ववैद्यम् । सार्वलोक्यम् । धानुग्रम् । अनुशतिकादिखानुभयत्रैप ! त्रैलोक्यम् । चातुर्वयम् । “वोत्तेजसि य:" [वा ] । वीरस्व तेजः वीर्वम् । "विरोधे वक्तभ्यः [वा०] । वैरम् । ट्याष्टिकरण झ्यर्थम् । प्राचिती । सामग्री । "हलो तो क्याम्'' [ 1] इति यखम् ।
नम सेचतुरसंगतसक्ष(व)एवबुधकतरसलसेभ्यः ॥शठा१९५० प्रतिपदोले नसे कृते चतुर संगत लक्षण ( लवण ) वह बुध पत रस लस हत्येतेभ्य एव भावकर्माभिधायिनस्स्मा भवन्ति । ननु ग्रहणवद् यो विहिताः कथं वदन्तेभ्यः प्राप्नुवन्ति ? येनाय नियम उच्यते । ब्रामाणादेराकृतिगणलानभूपूर्वादपि यण ( ट्यण ) प्राप्नोति । पात्यन्ताद्विहितो ख्या, शयनान्ताहण, योको बुन पूर्वादपि प्राप्नोति । न चतुरः अचतुरः, तस्य भावः फर्म वा श्राचतुर्थम् । प्रासंगत्यम् । श्राखवण्यम् । श्रावड्यम् । आबुध्यम् | आफत्यम् । पारस्यम् । अालस्यम् । एतेभ्य एव नसे कृते यथा स्युनान्येन्य इति । अपटुत्वम् । अपटुता । अपतित्वम् । अपतिता । ( अ )हाय नवम्। (ख)त्तलोनिम्मानितिन भवति, का बखादिति वचनात् । प्रतिपदग्रहणं किमर्थम् ! नपूर्वाद बसात् भाववचनो यः प्राप्नोति स भवत्येव । न विद्यते पटुरस्य, अपम्, श्रपटोर्भावः आपटवम् । अपतेर्भावः आपत्यम् । श्राहायनम् । प्रारमणीयकम् । प्राय यत्र ना सस्य इवृत्तेश्चैकमेव वाक्यं तन्त्र कथं भवितन्यम् न पटो व इति । हृवृत्या प्राम्भवितव्यं पश्चानसः । श्रपाटवमिति । न फर्ण वेष्टाऽभ्यासपादिमुखम् अकागवेष्टिकम् । चतरादिष्षभिधानवशालजसः । पश्चाद् मावे त्यः। न चतुरस्य भाव नाचतुर्यम् ।
1. परमस्थ म०, ५० । २. सप्रस । पसोऽयम् २०,.!
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जैनेन्द्रन्ध्याकरणम् [१० ३पा. ४ ० -RI स्तेयसरुये |३।४।११६॥ स्तेय सख्य इत्येते शब्दरूपे निपात्येते, स्तेनशब्दात्तासमर्थात् साक कर्मणोः , नशब्दस्य च व निपात्यते । स्तनस्य भावः कर्म वा स्तेयम् । यण (ट्या) चाम्यते । स्तैन्यम् । सखिशब्दाद् भावकर्मयोर्यः । सख्युर्भावः कर्म या सख्यम् । “दुववणि गमा यो वक्तव्यः [-] दूतस्य भावः फर्म या दूत्या | वणिज्या ।
कपिझाते. ॥३१४११७]] कपि-जातिशब्दाभ्यो तासमर्याम्यां दृस् भवति भावे कर्मणि चाभिधेये । कर्भावः कर्म वा कापेयम् | हगन्तवादण् प्राप्तः। शातेर्मावः कर्म पा शालेयम् । प्राणिजातिलाद प्राप्तः । खचलावपि मवतः। कपित्वम् | पिता । शातित्वम् । शातिता।
पस्यन्तपुरोहितावेरायः ॥३॥४॥११८॥ पत्यन्तारपुरोहितादेश्च एयो भवति । तस्य भावे कर्मणि चेति वर्तते । बुहस्पतेर्भावः कर्म वा, बाईस्पत्यम् । सैनापत्यम् । हग्न्तस्वाद प्राप्तः । पुरोहितादिभ्यः । पुरोहितस्य भावः फर्म वा पौरोहित्य म । राज्यम् । पुरोदित । "राजन से' [ग. सू०। अस इति किस सौराख्यम् । ब्राह्मयादित्वाश्या । प्रामिक । खण्डिक । दण्डिक | ऋर्मिक । वस्तिक' । शिक्षिक। सचिका नम्नलिका छत्रिक । वर्षिक ! प्रतिक । सारथिक । सांजनिक । श्रानिक । सायक्षसूचक । बामप्यादेराकृतिगणवायणि सिद्धे स्त्रियां टावर्थ वचनम् ।
वयोवाकप्राणिजात्युगात्रादिभ्योऽय ॥ ३॥४५११६ ।। वयसो वाग्भ्यः पारिवातिषिम्य उगात्रादिभ्यश्चाष भवति । तस्य भावे कणि चेति वर्तते । कुमारस्य भावः कर्मया, कौमारम् । कैशारम् । कालभम् । प्राणिमातिभ्यः । श्राश्वम् । श्रोष्ट्रम् । माहिषम् | उद्गातुर्भावः कर्म था, औद्गात्रम् । उद्गातू । उन्नेतृ । प्रतिइन्तु । प्रशास्तु । होत् । मर्नु। रपगणक । पछिकगणक । सन्छ। दुष्ट । वयम्य । बधू ।
दायमान्तयुवादिभ्योऽण् ॥३॥४।१२०॥ शयनान्तम्यो युपादिभ्यश्वाः भवति । तस्य भावे कर्मणि चेति वर्तवे । अषयोवाचिस्वे शयनान्ताः प्रयोजयन्ति । द्विहायनस्य युवादेर्भावः फर्म वा, देहायनम् । बेहायनम् । युवादिभ्यःन्यूनो भावः फर्म वा यौवनम् । मनोज्ञादित्वाद् बुज प्राप्तः अनेनाण । मन' मणि' [ १८] इति टिखप्रतिषेधः । पूर्व सूत्रे याण ग्रहणं क्रियेत इस्ति नो भाषः कर्म वा हातमित्यत्र "प्रायोऽमपायेऽवीम" [ ५५] इति टिखप्रतिषेधः प्रसज्येत | मृद्मा लिजविशिष्टस्यापि, युषतेर्भावः "भस्य हुस्प" पा०] इति पुंवद्भावे कृते यौवनम् । युवन् । यबमान । "पुरुषादसे"[ग..] रस इति किम् ? रामपौसभ्यम् । अपुरुषत्रम् । कर्तृ 1 ऋत्विक् । कन्दुक । श्रवण | कुस्मी । गुम्नी । सुस्त्री । सुहृदय । सुहृत् । दुईत् । सुभ्रातृ । दुर्भात । वृषल । परिवाचक । सत्रमचारिन् । अनृशंस | "डक्यादसे' (ग.सू.. अस इति किम् ? श्वहृदयत्वम् । चपल । निपुण | पिशुन । कुताल । क्षेत्रश | श्री त्रियस्य भावः कर्म वा श्रोत्रम् | उद्गात्रादिरत्रैव पठितव्य इति चेत् । न अस्याऽनित्यत्वात् । तेनानुशंस्यमिति 'सिद्धम् ।
ध्यादेरिका ३१४|१२|| घ्यादिग्रहणमिको विशेषणम् । घि प्रादिर्यस्येकः स ध्यादिः, प्यादिर्य एक् तदन्तान्मृदोऽए भवति । तस्य भावकर्मबोरिवि वर्तते । शुचे यः कर्म वा शौचम् । नखरमनि । नाखरधनम् । हरीतकी । शरीतकम् । पृथु । पार्थवम् । यधू । वापषम् । पितू । पैत्रम् । न्याविप्रत्यं मुसमुदायस्य विशेषणमित्यन्ये । ध्यादेर्मुद इगन्तात् । कृशानु । कार्शानवम् । प्रतिहत । प्राविहार्यम् |
1. मरिसक अ०, ३० । २. प्रमात् प० । ३. सूत्रम् "ममः" इत्येव । मणीस्वनुत्पमित्रायेच मनः प्रणि" इति।
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804-पा० ४ सू०११२२-१९७] महासिसहितम्
(श्चि )ना च विनरी । चित्रे ( विनु ) र्भावः कर्म या परत्वाद्धन्द्धलक्षसो कुम । क्षेत्र ( वैव:)फमिति । कथं फाव्यम् ? कविशब्दो ब्राहाणादिषु पठनीयः । ध्यादेरिति किम् ? सामुत्वम् । फापलया । इक इति किम् । वकुलत्वम् 1
योको रूपोत्तमाद् वुन ॥३४॥१२२।। त्रिप्रभृतीनामन्त्यम् सत्चमम् , उत्तमस्य मीपमुपोजनम्, रुरुपोचमं यस्य मृदः, तद्रूपोत्तमम् । योडो मृदो रूपोत्तमाद् घुम् भवति । तस्य भावकर्मणोरिति क्तते । रमणीयस्य भाषः कर्म बा, रामणीयकम् । श्रौपाध्यायकम् । योङ इति किम् ? कापोतम् । रूपोचमादिति किम् ? चात्रियम् । कुषलायत्वम् । रूपान्त्यादिति वक्तव्ये उत्तमग्रहणं त्रिप्रभृतिनामचा परिग्रहार्थम् । तेनेह न भवति । फायत्वम् , कापता । कथं ज्ञायते तमशब्दोऽयमातिपिकः । अयमेतेषामतिशयेन उद्गततम इति, "सन्महापरमोसमोस्कृष्टम्" [१३५६] इति निपावनात् । "किमेमिमिझादामध्ये" बाराति नाम्न भवति । प्रत्युत्पन्न वा मुद्रपम् । त्रिमभूत्यन्तवाचि युभेत्तमादिति सिद्ध प्रहसमकहलव्यवधानेऽपि प्रापणार्थम् | प्राचार्यम् इति । “यहापावि सम्मम्" [.] । सायकम्। साहाय्यम् ।
शून्यमनोहाः ॥३४।१२३।। द्वन्द्वमनोशाविम्यश्व वुञ् भवति । तस्य भावकर्मयोरिति वर्तते । कुरकाशीनां भावः कर्म वा कौसकाशिका । भारतबाहुबलिका । अपालवसुपालिका । मनोशादिभ्यः | मनोगस्य 'भायः कर्म था, मानोशः । प्रियरूप । श्रादो (अभि) रूप । कल्याण । मेधाविन् । श्राद्य (ब)। सुरुमार। कुलपुत्र । छान्दस । छात्र । भोत्रिय । चौर । धूर्त । वैश्वदेव । युषन् । योनिका । "प्रस्याने समयमनुष्पयुवाम:" [घा०] रति प्रकृतिभावः । मामपुत्र । प्रामखराह । प्रामकुमार। अनुष्यपुत्र । अनुकृता । शरएष । गोत्र । मुखधरणाच्छलाघाऽत्याकारावेते ॥
३२४॥ वृदयाचिनावरणवाचिनश्च मृदो कुम् मति भारकर्मणोरर्थयोः श्लाघादिषु विषयभूतेषु द्योत्येषु वा । नाषो विकल्यन स्मय इत्यर्थः । अत्याचार पकि(धि) क्षेपः। अवेतः अवगतः । गार्गिफया श्लाघते | गार्गिकया प्रत्याकुरुते । गार्गकामतः । परचात् । काठिकया श्लाघते । प्राठिकया अत्याकुरुते । काठिकामवेतः । श्लाघादिष्विति किम् । काप्टेन प्रसिद्धः । प्राणिवातिलबणोन ।
दोत्राभ्यश्छः ॥२४॥१२५॥ होत्राशब्द लिनां वाचकः । बहुलनिर्देशः स्वरूपनिराशार्थः । क्षेत्राम्य ऋखिग्विशेषयाचिभ्यः शब्दे-यश्को भवति भावकमगोरर्ययोः । बच्छावाकस्य भावः कर्म वा, आच्छावाकीयम् । मैत्रायणीयम् । माहाणा-छंसीयम् | अच्छावावलम् । अच्छावाकता । अथवा होत्रा कठः । बलायाभन्दसहचरिता ऋक अच्छावाक् | मैत्रावरुणीशब्दसाहचर्याद् मैत्रायो । ब्राह्मणाच्छषिशन्दसहचरिखा भूक माक्षणान्छसी । "होत्रावाः स्वार्थ को (छो) वक्तव्य [व] होनेच होत्रीयः ।
ब्रह्मपणास्त्वः ।।शा१२६।। ब्रह्मशब्दात् होत्रावाचिमनो भवति भावकर्मणोरर्थयोः। माग्यो भावः कर्म या ब्रह्मलम् । पुनरारम्भः तलादिनित्यर्थः । यस्तु जातिवाची ब्रझशन्दा ब्राह्मणपर्यायः, ततस्पतली भक्तः । ब्रह्मसम् । प्रदाता ।
धान्यप्ररोहणे खम् ॥३॥४॥१२७॥ भावकर्मग्रहणं निवृत्तम् । सस्येति वर्तते। मक्यण यान्ति भात्यान्यस्मिन् प्ररोहया क्षेत्रमित्यर्थः । -धान्यविशेषवाचिभ्यः प्ररोहणेऽभिधेये खञ् भवति । प्रियङ्गए प्रवेही क्षेत्र प्रेयशवीयम् । मौद्गीनम् । गोधूमीनम् । धान्यानामिति किम् ? तृणानां प्ररोहणं चत्वरम् । प्राय
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म०१ पासू. -ne किम् ! रोहणमित्युग्यमाने मुद्गानां रोहणः कुशूल इत्यत्रापि प्राप्नोति । प्रग्रहणे पुनः सति प्रकर्षण रोहत्यस्मिन् प्ररोहण केदारादि क्षेत्रमित्युक्तं भवति ।
श्रीहिशाखेढ, १२८॥ नौहिशालिशब्दाभ्यां तासमाभ्यां रोहणेऽ दम् भवति । खयोऽपवादः । ग्रोहीणां प्ररोहण क्षेत्र हेयम् । शालेयम् ।।
यवयवकषष्टिकाद्यः ॥३।४।१२६॥ यवादिभ्यतासमथै यः प्रयेहणेऽर्थे खा भवति पश्च । उमाभनयोरधान्यल्वेऽपि यचनाद्भवति । धान्यानि लोके प्रसिद्धानि मुद्रादीनि । “यवाब मे विका" इत्यादी पठितानीत्यपरे । तिलानां प्ररोहण तेलीनम , तिल्यम् । माषीणम् । माष्यम् । श्रीमानम्, उग्यम् | भाजीनम्, भयम् । प्राणवीनम, अव्यम् ।
सधचर्मयः कृता खश्च ॥४॥१३०॥ कृताब्दः कर्मणि । तदपेक्षया तासमर्था प्रकृतिः। सर्वधर्मशब्दात् कृत इत्यस्मिन्नर्थे स्त्रो भवति खन् च । सर्वचर्मणा कृतः सर्वचक्षणः, सार्वच णः । यथेचं सर्वशब्दस्य कृत इति त्यार्थमपेक्षमाणस्य चर्मणा सह सो न प्राप्नोति । श्रसएव निपातनाद भवति ।
यथामख सम्मुखस्य दर्शन: खः ॥३४१३२॥ दृश्यतेऽस्मिमिति दर्शनो दर्पयादिः। मामलसमखशब्दाभ्यां सासमर्याभ्यां दर्शन इत्यस्मिन्नर्थे वो भवति । मुखस्य सहशोऽर्थो यथामुखम् ।
व निपातनात् "असादृश्ये" [३३] इति इसप्रतिषेधो न भवति । समं मुखमत्य प्रतिविम्बस्य सम्मुखम् । समं वा मुखम्, सम्मुखम् । निपातनासमशब्दान्तखम्। यथामुखं दर्शनः, ययामखोनः । सम्मुखस्य दर्शनः सम्मुखीनः । कर्मगि ता |
पथ्यकर्मपत्रपात्रमाप्नोति सर्वादः ॥३।४।१३२।। निर्देशात्समर्थविभक्त्युपादानम्। पचिन अङ्ग कर्मन् पत्र पात्र इत्येवमन्तात् सर्वशब्दादेमंद इप्टमर्यादाप्नोतीत्यसिन्नथें खो भवति । सर्वपथानाप्नोति सर्वपथीनमुदकम् । सान्तस्तद्ग्रहणेन गृह्यते । सर्वाङ्गीणः परः । सर्वकर्मीणः पुषः । सर्वपत्रीवः भारमिः । सर्वपात्रीण श्रोदनः । सर्वादेरिति किम् १ पन्थानमाप्नोति ।
प्राप्रपवम् ||१३३॥ श्राप्रपदशब्दादाप्नोतीसस्मिन्न सो भवति । प्रवृद्ध पदं प्रपदम । पदस्योपरि गुल्फः, पदानं या । श्रा प्रपदादाप्रपदम् । "पर्यपाबाहिरबका कया" [१ ] ति इसः । क्रियाविशेषयमिद वान्तम् । ततो वचनात्यः । श्राप्रपदमाप्नोति प्राप्रपदोनः कम्बलः।
सर्याषीनानुपवीनायानयोनागवीनाद्यश्वीनाः ॥३॥४।१३४॥ सर्वान्नान, अनुपदीन, अयानयीन श्रागवान, अद्यश्वीन हत्येते शब्दा निपात्यन्ते । सर्वाचशब्दादिमन्ताद् भक्षयप्तीस्यस्मिन खो निपात्यते । सर्वान्नानि भक्षयति सर्वानीनो भिक्षुः । पदसदृशमनुषदम् , यथार्थे इसः । अनुपश्शदाद वान्ताबदेस्सस्मिथैः । अनुपदं बद्धा अनुपदीना उपानत् । पदप्रमाणेत्यर्थः । श्रयः प्रदक्षिणम् , अनयः प्रसव्यम् । प्रदक्षिणासप्रसव्यमागामिना यस्मिन् परैः पदानामसमावेशः सोऽयानयः । अयादप्रवृतोऽनया, भयानयः । मयूर यसकादित्वात् [ श६३ सुविधिः। प्रयानयशब्दादियन्ताद्य इत्यस्मिन्नर्थे स्वः। अयानयं नेयः शारोऽयानयीनः । स्वस्यां दिशि फलकशिरोगत इत्यर्थः। गोरापूर्वावागो प्रप्तिदानाकर्म रोतीत्यस्मिन खः । श्रागवीनः कर्मकरः । यो गवां भूतः कर्म करोति श्रा तस्य गोः प्रत्यर्पणास एवमुच्यते | भयकःशाम्दावाखन्ने बिजनने खो निपात्यते । अद्य श्वो वा विजनिष्यते अद्यश्वीना गौः। प्रद्यश्वीना वडवा । फेचिद् विजनन इति विशेषणं नेच्छन्ति । नासन्नमात्रे निपातयन्ति । अद्यश्वीनो वियोगः। अद्यश्चीनं मरयम् ।
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० ३ पा० ४ सू० १३५ - १४१]
महावृतिसहितम्
२३९
परोवरपरस्परपुत्रपौत्रमनुभवति || ३ | ४|१३५|| निर्देशादेव समर्थ विभक्त्युपादानम् । परोधर परम्पर पुत्रपौत्र इत्येतेभ्य इसमर्थेभ्योऽनुभवतीत्यस्मिन्नर्थे खो भवति । पराँश्च श्रवश्च अनुभवति परोवगाः शियोगे परोवरभावो निपात्यते । पराँश्च परतराँश्च अनुभवति परम्परीणः । स्यसन्नियोगे परपरतयोः परम्परभावः । कथं मन्त्रिपरम्परा मन्त्रं भिनतीति प्रयोगः । शब्दान्तरमप्यस्ति । पुत्रपौत्रानतुभवति पुत्रपौत्रीणः ।
1
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I
अवारपारात्यन्तानुकामंगामी || ३ | ४|१३६|| श्रवारपारं श्रत्यन्त अनुकाम इत्येतेभ्य इप्समर्थेभ्यो गामीत्यस्मिन्नर्थं वो भवति । गमिष्यतीति गामी । "आवश्यकाधमर्यायो नि” [ २।३।१४६ ] इति श्राव श्यकार्थे णिन् । वर्त्यत्कालभावा "गम्यादिर्वस्यवि" | २|३|१] इति वचनात् । श्रवारपारं गामी श्श्रवारपारीणः पोतः । विगृहीतादपि भवति । अवारीयाः । पारीणः । “विपरीताच्चेति वक्तव्यम्" [ प ] पारावारगाः । अतएव निपातनात्पारस्य वा पूर्वनिपातः । श्रन्तस्याभावो ऽत्यन्तम् । “म” [ २३४५ ] इति अर्थाभावे सः । अथवा श्रन्तमतिक्रान्तः श्रत्यन्तः "तिकुप्रादयः " [ ११३१६१] इति षसः | इसपक्षे वान्तादपि वचनात्खः । श्रत्यन्तं गामी अत्यन्तीनः । कामस्यानुरूपमनुकामम् । यथार्थे इसः । अनुगतो वा कामः, अनुकामः । श्रनुकामं गामी श्रनुकामीनः ।
समां समां विजायते || ३ | ४ | १३७ || सम संवत्सरः । तदेकदेशे समाशब्द उपचरितः । विजननक्रियायाऽवश्याविच्छेदात् "काळाध्वन्यविच्छेदे " [१ ४ ४] इतीप् । दीप्सायां द्विलम् । सम सम शब्दाद्विजायते इत्यस्मिन्नर्थे खो भवति । मृदवि (वि) कारेऽपि सुबन्तसमुदायाद् वचनान्यः । समां समां विजायते मागेः । मीना वा त्ये कुते "सुपो धुमृषो:'" [१।४।१४२ ] इति सुप उप् । पूर्व पदे सुपोऽनुब्वव्यः । यदा संवत्सरे समाशब्दः प्रवर्तते तदा सभार्या समायामिति विग्रहेऽपि समांसमीना गौः । व्यविषये पूर्वपदस्य समां मावो निपात्यते, उत्तरपदस्य च पादः खम् । परिशिष्टस्य व सुपः "पो दो: " [११४।१४२] इत्युप् ।
अनुगामी ||३|४|१३८ || अनुग्विति क्रियाविशेषणम् । अनुगुशब्दात् अलङ्कामी इत्येतस्मि नर्थे स्वो भवति । गवां पश्चात् श्रनुगु । पश्चादर्थे इसः । श्रनुगु [श्रलङ्गच्छति श्रनुगवीनः ।
यखाषध्वनः ||३|४|१३९ ॥ छनत्र समर्थ संभवति श्रध्वशब्दादियमर्थादलङ्गामीत्यस्मिन्नर्थं यखो त्यौ भवतः । श्रध्वानमलङ्गच्छति श्रध्वन्यः श्रध्वनीनः यदा यस्तदा "येऽही" [1121128] इति टिखप्रतिषेधः । अन्यत्र “खेऽध्वगः [४/७/१६० ] इति टिखामावः ।
चाभ्यमित्रात् || ३ | ४ / १४० ॥ श्रमित्रममि अम्यमित्रम् | "श्रीप्रथंभूत कक्षकेऽभिप [9] 8 [११] इतीम् "क्षणेनाभिशुकयेऽभिप्रती" [१|३|११ ] इति इसः । क्रियाविशेषणमेवत् । श्रभ्यमित्रशब्दाद् यास मर्यादलङ्गामीत्य सिम को भवति यखौ च । श्रभ्यमित्रमलङ्ग यदि श्रम्यमित्रीयः, श्रम्यमिव्यः अभ्यमित्रीणः ।
- गौष्टोना श्वीन कौपीन शाखीन मातीनसाप्तपदी न है यङ्गवीनम् ||३|४|१४९|| गोष्ठीनादयः शब्दा निपात्यन्ते । गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति गोष्ठः । " सुपि" [२२२२७] "स्पः कः " [शश] इति कः १ गोठशब्द भूतपूर्वोपाधिकात् स्वार्थे सम निपात्यते । गोष्ठो भूतपूर्वी गौष्ठीनो देशः । चरोऽपवादः । पश्व
" 1. स्वः" इत्येव सूत्रम् । चनुवृत्यभिप्रायेण "स्थः कः" इति वृक्षौ ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[म.
पा.
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सादर तासम्पविशाहगम इत्यस्मिमधैं खा । गम्यते गमः। एकमहः, एकाहः । एकाहेन गमः, एकाहगमः। "साधनं कृत्वा" [२६] इति सः। अश्वल्य एकादगम आश्वीनोऽध्वा । श्राश्वीनानि पञ्चवश. मोजमानि। आधारमादिगणनाकाम खा गुखं च निपश्यतेऽकार्येऽभिधेये | कृपशवतरणमईति कौपीनं पापम् | करोतिः क्रियासममान्येन वर्तते । तेनाद्रष्टव्यमप्यमार्यम् । कौपीनमिन्द्रियम् । वात्स्याद् यस्नमपि । शाहाप्रवेशशब्दादिप्सम दहसीत्यत्मिमधे खम निपात्यते थुखं चाएष्टेऽभिधेये । शालाप्रवेशमईति शालीनः । अप्रगल्म इत्यथैः । बरतकर्मशब्दाव माखमाजीवतीत्यस्मिथें खा पखं च । नानापातीया अनियतवृत्तय उत्सेघजीविनः संघा माताः। उत्सेघः शरीरम् , तदायासेन ये धीवन्ति ते उत्सेधबीविनः । प्रातकर्मणा जीवति व्रातीनः । तेषामेव वातानामन्यतमो यस्त्वन्यो मारकर्मया मारोवन बीवर्दि स मातीन इति नेष्यते । सप्तपदशब्दावू भासमदिवाप्यते इत्यस्मिवर्षे खा निपास्यते सक्यमिये। सप्तमिः पदैरवाप्यते सासपदीनं सख्यम् । कथं सासपदीनं मित्रमिति सामानाधिकरण्यम् ! अर्शश्रादिपाठाइ. कारों मत्वर्थयो द्रष्टव्यः । योगोदाइशदातालमर्याद्विकार इत्यस्मिन्नधैं खन निपात्यते प्रकृतेश्च दिया. भावः । संज्ञायां योगोदोहस्य विकारः हेयनवीनम् । अभिनवतस्य संहषा। अन्यत्र रोगोदोइस्य विकार अणि, यौगोदोहं तकम् ।
भूतपूर्षे घरट् ॥३।४।१४२॥ पूर्व भूतो भूतपूर्वः । "काया:" [१५] इति क्लान्तेन पतः। श्रतएव निपातनादेवंबातीयेषु पूर्वशब्दस्य परनिपातो द्रष्टव्यः । भूतपूर्व यन्झ्याम्मूद्रपं वर्तते तस्मात्स्वायें घरह भवति । पाल्यो भूतपूर्य आत्मचरः । श्राळ्या भूतपूर्वा श्रान्यचरी । तपादौ" [१७] इति वद. भावः । यद्यपि भतशब्दः पूर्वशब्दश्च अतीतकालवाचिनौ तथापि विशेषणविशेष्यभाव उपपद्यते । फिश्चित्काल भूत वनावस्थाय दर्शनविषयसां नेदानामस्तोत्ययं विशेषः पूर्वंशब्दविशेषणात्मतीयते ।
तामा रूप्पश्च ॥३।४।१४३॥ भतपूर्व इति वर्चते । वान्तान्ङयाम्मृदो भूतपूर्वे में रूप्यो मपति चरट च । देवदत्तस्य भूतपूषों गौः, देवदत्तरूप्यः, देवदत्तचरः । इहासामर्थ्यान्न मवति । कम्बलो देवदत्तस्य गौमूपूर्वो बिनदचरयोंत | इह ऋद्धस्य देवदत्तस्व भूतपूर्वो गौरिति समुदायस्यातान्तत्वादवयवस्य घामामध्यान्न भवति ।
पाकमूले पीलुकर्णादिभ्यः कुणजाहो ॥२४।१४४॥ नाया इति वर्तते । तासमभ्यः पोल्वादिभ्यः कर्यादिभ्यश्च यथासक्यं पाकमूलयोरर्थयोः कुण जाह इत्येतौ भवतः । पीलूनां पाफः पीसुकुणः । पौलु । कन्धु । शमी । करीर । दर । कुवन । अश्वत्थ । खदिर। कर्यादिभ्यो जाहः । पर्णस्य मूलं कर्याचदम् । कर्ण । अदि । मुख । नख । पाद । गुल्फ । 5 । दन्त | प्रोष्ठ । केश । शृङ्ग । पुष्प ।
पचाचिः ॥३४॥१४५|| ताया इति वर्तते । पक्षशब्दान्तान्मूलेऽये तिर्भवति । द्वयोः पीलुपायोरगुवनेऽपि पाकस्याऽसाभवान्मूलप्रहयामेवाभिसम्बध्यते । पक्षस्य मूले पक्षतिः ।
तेन विचश्चुन्थुषणो ॥२४.१४६|| वित्तः प्रतीत इत्यर्थः । तेनेति भासमर्यादित इत्येतस्मिनय चुञ्चु चण इत्येतो त्यौ भवतः । न्यायेन विती न्यायचुचुः । न्यायचणः । केशैविचः शचुचुः ।
देशवणः ।
विमम्म्यां नानायो न सह ॥४७न सहेति प्रकृतिविशेषणम् । कादियोगा:सम्भवाद् वाविभत्यत्र समर्था । असहाय वर्तमानायां विनम्यां यथासंख्यं नानाजी भक्तः । स्वार्थे । न घर, मिना । न सह, नाना।
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म. पा. सू. १४८-१५५ ] महावृत्तिसहितम्
ः शासकटी ॥३४१४८॥ प्रादयः पुनरेवमात्मका यत्र क्रियावाची शब्दः प्रयुज्यते तत्र क्रियाविशेषमाहुः । यत्र न प्रयुज्यते तत्र ससाधनों क्रियामाहुरिति । वेः ससाधनालियापचनाच्छालशङ्कट इत्येतौ त्यो भवतः स्वार्थे । विसुधे ( विगते) शृक्ने विशाले । विशङ्कटे । तद्योगासाच्छब्दो (च्छन्दयम् ) विशालो नौः। विशङ्को गौरिति । अथवा विशालादया परमार्गतो गुण शब्दाः, ते यथाकञ्चिद् व्युत्पाद्यन्ते । तेन विशालः पटाविशाल' यशः इत्येषमादि सिद्धम् ।
सम्प्रोदश्च कटः ॥३४१६॥ सम् प्र उद् इत्येतेभ्यो वेश्च कर इत्ययं त्यो मयति । अत्रापि ससाव(ध)नक्रियावचनेभ्यस्यो वेदितव्यः । सस्कृष्टं सङ्कटम् । प्रकटम् । उत्कटम् । विकटम् । विकट. दन्तपोगाद् विकटो हस्ती ! "काबूतिखोमाभाभ्यो रजस्युपसंख्यानम्" [.] अलाबूना रबः अलायूकटम् । विलकटम् । उमाकटम् । भङ्गाकदम् ।
कुठारश्चावात् ॥३७॥१५०॥ श्रवात् ससाव(घ)नक्रियावचनात् कुयर इत्ययं त्यो भषति कटक स्वार्थे । अवकुष्ठा, अक्कुटरः । अवकटः । "गोष्टादयस्याः स्थानाविषु पशूनामिति पतम्यम्" [चा०) गवां स्थानं गोगोष्ठम् । महिलोगोष्ठम् । अनागोठम् | "समूहे फट:" [ht०] अवौनां समू, अक्फिट: । पशुस्टः । "विस्तारे पट:" [वा.] अबीनां विस्तारः, अविपटः । "द्विरवे गोयुगः" [वा०] उष्ट्रगोयुगम् । अश्वगोयुगम् । महिषगोयुगम् । "स्प टले " [नामिना बटर रिडगवम् । “संस्थते शुक्यः [पा०] पिठरे संस्कृत पिठरशूल्यम् । "षिकारे स्नेहे तैछ':' [वा०] इमदीनां लेहः इदगुदीतलम् । "प्ररोहणे झाकटझाकिनी" [वा० ] इतरां प्ररोहणं क्षेत्रम्, इक्षुशाकरम् । मूलशाकम् | हतुशाकिनम् । मूलशाकिलम् ।
नते नासिकायाः सी टीटनाटभ्रटाः ॥३४॥१५॥ अवादिति वर्तते । नमनं नतम् । नासिका नतवाचिनोऽवशब्दाहीट नाट नट इत्येते त्याः स्वार्थ भवन्ति खुविषये। नासिकाया इति सम्बन्धमामाचे वा। तत्र यदा नासिकायाः कर्तृत्वविवक्षा, तदा सामानाधिकरण्येन विग्रहः । अवनता नासिका प्रयीय । अवनाया। अवभ्रटा । यदा सम्बन्धित विषक्षा तदा वैयधिकरणयेन, नासिकाया अवनतम् , अपीटम् । श्रवनाटम् | अवनटम् । एवमुत्रत्रापि विग्रहद्वयं शतव्यम् । तद्योगात्पुरुषेऽपि तथोच्यते । अवौटः पुरुषः ।
नेषिविरीसौ ॥२४.१५२॥ नते नासिकायाः खाविति वर्तते । निशब्दानासिकानतार्थवचनाद् विट बिरीस इत्येतो त्यौ भवतः। निनता नासिका निबिहा। निबिरीसा । निविडम् निबिरीसमिति या। उद्यो. गात्पुरुषोऽपि निबिडः । निबिरीतः । कथं निविद्धं वस्त्र निरिडा: केशा इति । उपमानासिद्धम् ।
केनौ वि(बि) शा१५३॥ नते नासिकायाः खाविति वर्तते निरिति च । नासिकानताएंवाचिनो नेक इन इत्येतो त्यो भवतः वि(चि)क इत्ययश्चादेशः प्रकृतेः। निनता नासिका विचि)का । वि(वि) किना । तद्योगाद् वि चि को देवदत्तः । वि(चि)किनः ।
पिटे चिः ॥१४॥१५४॥ नासिकानतार्थवाचिनो नेः पिटे त्ये परतश्चिरित्ययमादेशो भवति । अनेनैव पिटस्य विधानम् । निनता नासिका चिपिय । तद्योगाञ्चिपिटो देवदत्तः । "किसय विक्षिपसौ बारक्षुपोति वक्तव्यम्" [वा.] क्लिन्न चतुः चिलम् , पिल्लम् । तद्योगाद्देवदत्तोऽपि चिल्लः | "नुशादेशन पकम्पः" [40] क्लिन्नं चक्षुः चुन्नम् । तद्योगाद्देवदत्तोऽपि चुल्लः ।
उपत्यकाऽपित्यके ४१५५|| उपत्यका अधित्यका इत्येतो शब्दो निपात्यते । उपशब्दात्पर्वतासन्ने देशे वर्तमानात्स्वार्थे त्यक पत्य त्यो निपात्यते इलाभावश्च स्त्रीलिने खुविषये । पर्वतमुपासन्नो देश
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जैनेन्द्रव्याकरणम् म.पा. पू. १६-१७ उपलका । अभौत्येतस्मात्पर्वतमारूढ़े देशे वर्वमानायक हवामावश्च स्त्रीलिङ्गे खुषिये । पर्वतमध्यास्दो देशोअधित्यका।
कर्मठः ॥४॥१५६॥ फर्मठ इति निपात्यते । कर्मशब्दादीप्समर्थाद्घटते इत्यसिन्नर्थेऽटो निपात्यते । कर्मणि घटते कर्मठ ।
तपस्य सजातं तारकादिभ्य इतः ||४|१५७॥ तदिति वासमन्यः समातोपादि( घि) भ्यस्तारकादिभ्योऽस्येति ताऽर्थे इतो भवति । वारका संचाता श्रस्य वारक्तिं नमः । पुष्पिता लता । तारा । पुष्प | कफ । जीष । सूत्र । निकमण। पुरीष । उम्चार । प्रचार । कुडप्रल । मुकुल । कुसुम । स्तवक । किसलय । वेग । देश । निद्रा। बुभुक्षा। पिपासा। श्रदा। स्वझ ( श्वभ्र)। अन्न । रोग। अङ्गारक । वर्णक । द्रोह । मुख । दुःख । उत्कराठा | भर । व्याधि । "गर्भावप्राणिनि' [१० सू०] गर्भिताः शालयः। श्रप्राणिनीति किम् ? गर्भिणी गोः ।
प्रमाणे व्यसदनमात्रटः ||३४|१५८॥ तदस्येति वर्तते । तदिति बासमत्प्रमाणेऽर्षे वर्तमानादस्येति ताऽथे द्वयसः दध्न मात्र इत्येते त्या भवन्ति । प्रमाणस्य प्रमेयापेक्षवात्प्रमेयत्यार्थः । ऊ प्रमाणमस्य ऊरुद्वयसम् ! अरुमात्रम् । यद्यप्यायामः प्रमान्यत्वेन प्रसिद्धस्तथाप्यभिधानवशाद् द्वयसहदध्नटावर्धमाने, मात्रट पुनरविशेषेण । कर्षमात्र घृतम् । प्रस्थमात्र धान्यन । धनुर्मात्री भूमिः । "प्रमाय शब्दा ये प्रसिछास्तेभ्यो यसबादामा वसन पक्ताम्" [बा. ] समः प्रमाणमस्य सम 1 दिष्टि प्रमाणमस्य दिष्टिः । वितस्तिः। "राच्च ध्वसनं वक्तव्यम्" [षा० ] दो समे प्रमाणमस्य द्विसमम् । त्रिसमम् । द्विदिधिः। द्विषितस्तिः । तदन्तविध्यमावात्पूर्वेण्णाभातिः । चकारः किमर्यः १ संशये स्थायिनं मात्र पक्ष्यात । तयाऽपि राद्ध्वंसनमेव यथा स्यात् । "उट स्तोमे धक्तव्यः" [वा०] पञ्चदशाहानि परिमाणमस्य यज्ञस्य पञ्चदशः स्तोमः । सप्तदशः । पञ्चदशी रात्रिः । छन्दसि पूर्व मेव सिद्धमछन्दोमित्रयार्थमेतत् । "शन्शातानि. वैकग्या"[बा०] पञ्चदशाहोरात्राः परिमाणमेषां पञ्चदशिनाऽर्द्धमानः त्रिशिनो मासाः । द्वात्रिंशिनो देवेन्द्राः। प्रयस्त्रिंश इत्यपीष्यते । "विशतेरचेसि वकम्यम्" [वा ] विशिनी भवनेन्द्राः। विशिनोनिरसः | " माय परिमायाभ्यां संख्यायाश्चापि संशये माना वस्तम्यः" [वा०] समः प्रमाणमस्य स्यात् सममात्रम् । वितस्तिमात्रम् । प्रस्थः परिमाणमस्य स्यात् प्रस्थमानम् । कुडवमात्रम् । पञ्च संख्याः पयां स्यात् पञ्चमाया। पुरुषाः दशमात्राः । उक्तं च -
"प्रमाणध्वंसभं राषच स्ट्रोमे शनशतोखिनिः । प्रमाणपरिमायाभ्यो संस्पायाश्चापि समये ।।"
"स्वार्थे यसमाबदौ बहुलं पतष्यो'' [पा.] तावदेव वावद्व्यसम् । तावन्मात्रम् । यावदेव यावद्द्वयसम्, यावन्मात्रम् ।
पुरुषहस्तिनोऽण च ॥३.४।१५६॥ तवस्येति वर्तते प्रमाण इति च । पुरुष-हस्तिशब्दाभ्यामण च भवति, द्वयसलादयश्च भवन्ति । पुरुषः प्रमाणमस्य पौरुषम् । पुरुषवयसम् । पुरुषदनम् । पुरुषमात्रम् । हती प्रमाणमस्य हास्तिनम् । “प्रायोऽनपत्येभ्योमः" [11१५५] इति टिस्त्रप्रतिषेधः । इसिदयसम् । हस्तिदप्नम् । हस्तिमात्रम् । प्रमाणशब्दाच प्रसिद्धी "प्रमाणाध्वसनमिति" च भवति । पुरुषः प्रमाणमस्य पुरुषः । "अमादीनां श्वसनवचमास्वामोरचारा मवेति वंस मसलादीनामेव ब्रष्टव्यम् । अथ तदन्तान सम्भवति । द्वो पुरुषी प्रमाणमस्य द्विपुरुर्ष जलम् । द्विपुषी द्विपुरुषा वा खाता । द्विस्ति बलम् । दिहस्तिनी नदी । नान्तत्यानही विधिः।
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अ० ३ पा० ४ सू० १६०-१६० ]
महावृत्तिसहितम्
२४३
यसवेतेभ्यः परिमाणे वतुः ||३२|४|१६० ॥ तदस्यैति वर्तते । यद् तद् एतद् एतेभ्यः परिमाण पाधिभ्योऽस्येति लाऽर्थे चतुर्भवति । यत्परिमाणमस्य यवान् । सावान् । एतावान् । "या सर्वनाम्नः " [४/३/१४७] इति दकारस्यात्यम् । प्रमाणे अहोऽनुवर्तमाने परिमाणग्रहणं किम् ? प्रमाणे द्वखडादीनां वाघा मा भूत् । यद्वयसम् । प्रभाग परिमाणयोर्भेदाद्वत्वं तदपि ( पत्यन्तादपि ) इयडादयः सिद्धाः 1 पावन्मात्रम् ।
मो वो घः ||३|४ | १६१ ॥ इदमित्येतस्मादुत्तरस्य वतोर्वकारस्य धकार श्रादेशो भवति । इदमेव शापकम् । इदमोतुर्भवतीति । इदम्परिमाणामस्य इयान् । घस्य इयादेशः | "किमिदमो : काश्” [ ४३।१६५ ] इति इदमः ईशादेशः । “यस्य याञ्च" [ ४|४|१३६ ] इति खः । यमात्रमेवावशिष्टम् । तस्य व्यपदेशिषद्भावात् मृत्संशा "परस्यादे:' [ १।११२१ ] इत्येव सिद्धे व इति स्थानिनिर्देशः किमर्थः । घस्य त्यान्तरवं मा भूत् ।
किमः ||३|४|१६२ || किम इत्येतस्मात्परस्य वतोर्वकारस्य वकार श्रादेशो भवति । श्रनेनैव क्लोविधानम् । किम्परिमाणमस्य कियान् ।
सख्यापरिमाणे इतिश्व ||३|४|१६३|| किम इति वर्तते तदस्येति च । परिमितिः परिमाणम् । सङ्ख्यायाः परिमाणं पनि छित्तिः । सङ्ख्यापरिमाणे वर्तमानात् किमो बासमर्थादस्येति तायें डती 'स्वयं त्यो भवविश्व । वरस्य व प्रकारादेशः । का संख्या एषां कतीमे पुरुषाः । द्वित्वैकत्वयोः सम्परिप्रश्नस्य - भावात् । ब्रह्नन्तमेवोदाहरणम् । श्रथवा परिमीयतेऽनेनेति परिमाणन सङ्ख्यैव परिमाणं सख्यापरिमाणमिति यः । श्रस्मिन्पक्षे परिमाणग्रहणं सङ्ख्याविशेषणं किमर्थम् १ तथाहि का संख्या एषाम् किम्परिमाणमेषामिति एक एवार्थः । एवं तर्हि यत्र सहख्याऽक्षेपविषया तत्र मा भूत् । केयमेषां संख्या पचानामिति । परिमाणमणेऽत्र वर्तमाने पुनः परिमाणाग्रहणं विस्पष्टार्थम् ।
सङ्ख्याया श्रषयषे तयद् || ३ |४| १६४ || नदस्येति वर्तते । तदिति वासमर्थायाः सख्यायाः अबकाय प्रस्येतितार्थं तयड भवति । सामर्थ्यादवयविनि वयड् वेदितव्यः । पच अवयवा यस्य पञ्चतयो यमः । दशतयो धर्मः । समतयी नयष्टतिः ।
वाम् ||३|४|१६५॥ उभशब्दादुत्तरस्य तयटः खं भवति । इदमेव ज्ञापकं भवत्युभशब्दात्तयटि । उभाववयवावस्य उभयो मणिः । उभये देवमनुष्याः । उभयशब्दः सर्वादिषु पचते ।
द्वित्रिभ्यां वा ||३|४|१६६ || द्वित्रिभ्यामुत्तरस्य तयो वा स्वं भवति । "परस्यादे: " [ ३३५३ ] इति तकारस्य खम् । द्वयम् द्वितयम् । जयम् त्रितयम् । द्वये हयाः । खेपनेष्याः (त्रये । श्रयाःः ) एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् “प्रथमचश्म” [ १/१/११ ] इत्यादिना असि वा सर्वनामसंज्ञा ।
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तदस्मिन्नधिकमिति शहशान्ताः ||३|४|१६७॥ तदिति वासमर्थात्यदशान्तान्मुदोऽधिकोपाधिविशिष्टादस्मिनितीर्थे हो भवति । इतिकरणस्ततश्चेद् विवक्षा | सङ्ख्या इति वर्तते । त्रिंशदधिका अस्मिन् शते त्रिंशं शतम् । चत्वारिंशं शतम् । ननु शदिति स्वग्रइये “स्मग्रहो यस्मात्स तदादेह मिस्यन्थमनर्थकम् । एवं तन्वग्रहण सामर्थ्यादेव त्रिंशदादीनामपि सङ्ख्याशब्दानां ग्रहणम् । एकत्रिंशदधिका अस्मिन् शते एकत्रिंशं शतम् । द्वात्रिंशम् । यस्त्रिंशम् । दशार्थ वाऽन्तग्रहणम् । पकादश अधिका अस्मिन् शते एकादशं शतम् । एवं द्वादशम् त्रयोदशम् । इद्द कस्मान्न भवति । प्रकादश भाषा अधिका अस्मिन् कार्षापणश्यते इति १ यजातीयत्यार्थस्वजातीय एवं प्रकृत्यर्थे खति
१. कविरिति पू० ।
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२४४
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. पा. सू. १५-10 त्य इष्यते । इह तर्हि प्राप्नोति । एकादश कार्षापणा अधिका अस्मिन् कार्षापग्यशते, गोर्षिशदधिका अस्मिन् गोशत इति सख्याया इत्यनुवृत्तेनं भवति । इतिकरणः किमर्थः । शवसहस्रयोरेवामिधानमित्ति ज्ञापनार्यः । तेनेह न भवति । एकादश अधिका अस्यां त्रिंशति, एकत्रिंशदधिका अस्या षष्टाघिति । कथम् एकादशं शतसहस्रमिति । अत्राऽपि शतसहस्सयोरन्यतरप्राधान्यमस्ति । उकश्च"अधिक समानशासाविष्टः शतसहस्त्रयोः । यस्य सङ्ख्या पदाधिश्ये : कर्तव्यो मनो मम ॥"
[पा० म०५/२१४४३ विंशतेश्च ॥३।४।१६८॥ सङ्ख्याया इति वर्तते । विशतिशब्दाद यासमर्शदधिकोपाधिविशिष्धदरिमन्नितीबथे हो भवाते ! चशब्दात् विशत्यन्तादांप भवति । विशतिरधिका अस्मिन् शते विंशं शत सहस्रम् । तदन्तात् । एकविंश शतम् । इपिशं सहस्त्रम् | "ते विझरिसि[ २] इति खे कृत "एप्यतोऽपदे" [३५] इति पररूपत्वम् । संख्याया इत्येव । गोविंशतिरधिका अस्मिन् गोशते इति ।
सङ्ख्याया गुणस्य निमाने मयट । ३।४।१६९ ॥ "सदस्य सातम्" [ १५] इत्यता तदस्यत्यनुवर्तते । गुणो माग इत्यर्थः । गुणो निमीयते परिवर्त्यते विक्रीयते वा येन तलिमान मूल्यमित्यर्थः । तदपि सामर्थ्याद् भाग एच । यतो गुणैरेष गुणो निमीयते । तदिति वासमर्थायाः संख्याया गुणस्य निमाने वर्तमानाया नस्येति ताऽथें निमेयेऽभिधेये मयड् भवति । गुणस्येति कर्मणि ता। यवानां दो मागी निमानमत्योदश्विग्रहणस्य दिमयमुदश्वित् यवानाम् । द्विगुणं मूल्यमित्यर्थः । एवं त्रिमयं चतुर्भयम् । यथा प्रणादयः शब्दशक्तिस्वाभाल्यादपत्यापत्यवत्सम्बन्धे विधीयमाना अपि प्राधान्येन सम्बन्धमाचक्षते । अपगवोदरक्षि( प्रोपगोदाक्षि रिति । तथा मयडभागो विषीयमानो भागवन्तमाचष्टे तेन दिमयमुदश्वित् इति सामानाधिकरण्यम् । टिस्करणं द्वौ गुडस्य एवं शर्करायाः शिमयी शर्करा । गुणनिमान इति वकध्ये गुणस्येत्येकत्वं विवक्षितम् । तेनेह न भवति । यवानां यो भागा निमानमुदश्वितः । योभौगयोरिति अधिकायाश्च संख्यायात्य इष्यते । तेनेह न भवति । एको भागो निमानमस्लोवश्विद्भागस्येति । इह तहिं प्राप्नोति द्वौ यवानामध्यध उदश्चित इति । अत्रापि गुणस्येति समर्थनिर्देशादेव न भवति । तदपेक्षया प्रकृतेरपि निरंशसंख्यानं द्रष्टव्यम् । तेनेह न भवति अध्यधों यवानाम् एकस्योदश्वित इति । न च सकविधेरन्यत्र अध्यर्धशब्दस्य संख्यात्वमिष्टम् | गुणस्येति किम् ! हो ब्रीहियवौ निमानमस्यौदश्वितः । अत्र भागस्येति न प्रयुक्तम् । निमान इति किम ! द्वौ गुयो हारस्य एकस्तैलस्य द्विगुवं चौरेण तैलपकम् । नात्र वासमर्थ गुग्णं निमाने वर्तते । अन्ये अन्यथा सूत्रार्थ वर्णयन्ति । निमीयते इति निमान निमातन्यम् । बहुलवचनाकर्मणि युद् । गुणस्येति कर्तरि ता । करणस्यापि कर्तृत्वेन विवक्षितत्यात् । "शाखमर्यायाः संस्थाया गुणस्य निमेये वर्तमानयोः'' [वा० ] निमानेऽभिधेये मयड् भवति । उदश्चितो तो भागो निमेयस्य यवभागस्य द्विमया यवा उदश्वितः । त्रिमया: । चतुर्मया यवाः । अत्र व्याख्याने समर्थमुदश्चिद, यवास्तु त्यार्थः । पूर्वत्र महार्घमुदश्चित् , तदेव च त्यार्थः । मतद्वयमपि प्रमाणाम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः
पादः । समाप्तम्ल तृतीयोऽध्यायः ।
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चतुर्थोऽध्यायः सस्य परणे डट् ॥११॥ सङ्ख्यामा रति वर्तते । पूर्यतेऽनेनेति पूरणः । तस्येति तासमासस्यावाचिनः पूरण इत्येतस्मिन्नर्थे दृढ भवति । एकादशानां पूरण एकादशः । द्वादशः । द्वादशी। द्वितीयमपि सङ्ख्याग्रहामनुवर्तते । तत्सल्यानप्रधान सत् त्यार्थविशेषणम् । सल्याया डड् भवति सख्यानपूरस्य इति न सहल्येयपूरणे उट भवति ।
प पुष्ट्रिफाया' इष्टिना पूरपणे पाहत ना मात्र एकादशभ्या प्रकृत्यर्थभूतेभ्योऽन्यः पूरण इत्यर्थ उपलभ्यते । अतो वृत्तिन प्राप्नोति । नैष दोषः । समुदायस्य पायएवानां च कश्चिद् भेद इति । यथा वृक्षान्तभूताऽपि शाखा वृक्षस्येति व्यवहियते । उक्तध"बडूनी वाधिका (पाचिका ) सख्या पूरणं बैंक इभ्यते । मन्थलानुभयोवृमिवाली शाखानिवर्शनम् ॥
[पा. म. IN] । मोऽसे मट् ॥४॥१२॥ न इति वर्णनिर्देशः । वर्णग्रहणं सर्वत्र तदन्तविधि प्रयोगयति । नकारान्तासङ्ख्यावाचिनो मृदो मड्भवत्यसे तस्य परण इत्यस्मिन्विषये | डटोऽपवादः । पञ्चाना पूरक पञ्चमः । सक्षमः । सप्तमी । अस इति किम् १ एकादशानां पूरण एकादशः ।
पटकतिकतिपयचतुरां थुक् ॥॥१॥३॥ मूलसूत्रे विहितो यो डट् तत्येहानुवर्तमानस्यार्थवशादो. वन्तापट् कति कतिपय चतुर इत्येतेषां सटि परतस्थुगागमो भवति । इदमेव सटि धुवचनं शापकं भवति । कतिपयशब्दादपि हट । षपणां पूरणः पठा। कतिथः । कतिपययः । चतुर्थः । थुग्वचनठामर्थ्याट्टिखन भवति । पूर्वान्तकरण पदकार्यनिवृत्यर्थम् । इह कतिपयानां स्त्रीया पूरणी कतिपययो । “वस्म हुत्पढे" [ना०] इति विषयनिर्देशात्यागेव थुकः पुंवद्भावः । 'सुरछियावाचक्षरश ( स्थ ) ख श्चेति वकम्यम्" पण पूरणः, तुरीयः, तुः ।
बहुपूमगणसवस्थ तिथुक ॥३॥११४॥ इरिति वर्तते । बहु पूग गण · छ इत्येतेषां दुटि परतस्तिथुगागमो भवति । डि (टि) ति थुग्वचनं ज्ञापकं भवति पुगसचाम्या बट। बहूनां पूरणः बहुतियः । पगतियः । सवातियः। गणतिथः । इछ बलीनां पूरणी बहुतिथी । 'तस्प हत्य" [ वा. ] पुंवदद्भावे कृते तिथग्वेदितव्यः ।
पत्तोरिथुक् ॥४१॥५॥ इडिति वर्तते । वस्वन्तस्य हरि परत थुिगागमो भवति । 'वितो" [शा२.] इत्यत्र यवन्तस्य संख्यासंग प्रतिपादिता । यावतां पूरणः यावतियः । तावतियः । एतावतिय । इयतिथः । क्रियतियः ।
देस्तीयः ॥४।१६।। तस्य पूरण इति वर्तते । द्विशम्दात्तीय इत्ययं त्यो भवति । उदोऽपवादः । इयोः पूरयः द्वितीयः।
तू व १४॥१७॥ तस्य पूरण इति वर्तते । निशब्दाचीयो भवति त इत्ययं चादेशः । अयमपि उयेऽपवादः । प्रयाणां पूरणः तृवीयः ।
शतादिमासार्धमाससंवस्तरातमट् ॥१॥ शतादिभ्यो मासाधमास सक्सर इत्येतेभ्यश्न तमद् भवति वस्य पूरण इत्यस्मिन्विषये । इटोऽपवादः । शतस्य पूरणः शततमः । सहसतमः। लक्षतमः । "विंशत्यादेवा" [HI10] इत्येषा विभाषा शतात् पूर्वा सङ्ख्यामवगाइते । मामाईमाससंवत्सराणामसमस्याशब्दत्वात् जटाऽप्राप्ते तमट् | मासस्य परसो मास्तमो दिवसः। अर्घमासनमः । संकसरतमः । संबसतमी तिथि:
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्मा । पू. 8-1५ तेरसख्यादेः ॥४॥१९॥ तस्य पूरण इति धर्तते । "पकस्यादि ५८] सूत्रे तिरिति त्यो निपातितः । त्यन्तात्सङ्ख्यावचिनो मृदोऽसहळ्यापूर्वोत्तभड भवति । "विंशत्यादे' [19] इति विकल्प प्राप्त नित्यार्थोऽयमारम्भः | षष्टेः पुरणः षष्टितमः | सप्ततितमः । प्रशीतितमः । नवतितमः । असल्यादेरिति प्रतिषेधः किमर्थः । यावता तिरिति त्या, त्याहणे यस्मारस सदादेग्रहणमिति षष्ट्यादीनामेव ग्रहणम् , तदन्सानां पडणं नास्तीत्यस ख़्यादेरिति प्रतिषेधोऽनर्थकः । इदमेन ज्ञापकं भवति । इह सळ्यापूर्वपदानामपि प्रहणम् । तेन एकपष्टः पूरणः एकपष्टः एकषष्टितमः इत्येवमादिषु "विंशत्यादेवा" [10] इति वा तमङ् भवति । पूर्वसूत्रेऽपि शतादेरुच्यमानस्तम तदन्तादपि भवति । एकशततमः । एकसदलतमः । शतसहसतमः ।
विंशस्यादेर्वा ।।४।१।१०॥ तस्य पूरण इति वर्तते । विंशत्यादिभ्यो वा तमढ भवति । तमय मुक्ते डट् भवति । विंशतेः पूरणः यिंशतितमः, विंशः। एकविंशतितमः, एकविंशः । त्रिंशत्तमः, त्रिंशः । सङ्ख्यापूर्वपदादपि भवतीति ज्ञापितम् । अथवा व्याप्तायात् । विंशत्यादयो लोकप्रसिद्धाः सळ्याशन्दा गृह्यन्ते न "पल्वस्पादि" [२४॥५८] सूत्रे व्यवस्थिताः।
डटो पाहणे का ॥४।१।११॥ इडिति प्रत्याहारः । गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणम् । डडन्तान्मूदो ग्रहयोपाधिविशिष्टात्स्वार्थ क इत्ययं त्यो मवति । द्वितीयं ग्रहणं द्वितीयकम् । तृतीयकम् । व्याकरणस्य अन्य एवाभिधानम् । अन्यत्र द्वितीयं महणं धान्यस्येति वाक्यमेव भवति । "टो चा पतयः" पा०] द्विकं द्वितीयकम् । तृकम् । तृतीयकम् व्याकरणस्य । तेन "गृवायुपचेसि वक्तव्यम्" था.] । डडन्ताद् भासमर्थाद् यहाति इत्यस्मिन्नर्थे को भत्रति इटश्च नित्यमुपू । द्वितीयेन रूपेण गृहति । कः। तीयस्य च उप् । द्विको देवदतः । पर्व त्रिका | "सधियोगशिष्टानामन्यतराधाये उम्योरप्यभावः' इति तीये निवृत्ते प्रकृत्यादेशोऽपि निवर्तते । चतुन गृहादि चतुष्कः । इटिनिवृत थुगपि निवर्तते । "इदुदुकोऽस्यममुहुराः" [५४२८) इति रेफस्य सत्त्वम् । "इणः प:' (१।४।२७) इति पत्वम् । षष्ठेन गृह्णाति षटकः । अन्य एवाभिवानम् । इह न भवति । द्वितीयेन यहाति पुस्तकम् ।
स एषां ग्रामणीः ।।४।१२ ग्रामणौमुख्य इत्यर्थः । स इति वासमर्थान्मृद एषामिति चतुर्षे को भवति । यत्तद् यासमर्थ प्रामणी श्वेत्स मवति । देवदत्तो ग्रामणौरेषां देवदत्तकाः । जिनदत्तकाः । सधेऽपीष्यते । देवदत्तो ग्रामणीरस्य सङ्घस्य देवदत्तकः ।
स्वासषु प्रसिते ॥४॥२॥१३॥ अनचं मूर्तिमत्वरणमित्यादिना परिभाषितमिह स्वाङ्गम् । निर्देशादेव समर्थविभक्त्युपादानम् । स्वाकवाचिभ्य ईप्समर्थेभ्यः प्रसित इत्यस्मिन्नर्थे को भवति । प्रसितः प्रसक्तः । येषु प्रसितः केशकः | "प्रसितोसुकाभ्यां भा च" [ १२] इतीप् । एवं दन्तकः। नलका | केशादिसंस्थारे फेशादिशब्दा वर्तन्ते । बहुल्यनिर्देशः किमर्थः । स्वाङ्गसमुदावादपि यथा स्यात् । नखफेशकः । मुखदन्तकः ।
तदस्मिन्नन्न प्राये खौ ॥४॥श१४॥ तदिति यासमर्थादस्मिन्नितीबर्थे को भवति । यत्तद् वासमर्थगन्ने चेत्नायविषयं तद् भवति । त्यान्तं चेत्संशायां पर्वते । नृपयः प्रायेणान्नमस्यां नूपुटिका पौर्णमासी । प्राय इति सूत्रे उपाधिलक्षणो वा विषयत्वलक्षणो या ईग्निदेशः । विनइ तु करएत्वविवक्षायां मा । अन्नविशेषमाविवक्षायां वाऽपि भवति । नृपुटाः प्रायोऽनमस्यामिति । एवं गुमपूपाः प्रायेणान्नमस्यां गुडापूपिका । विलापूपिका । कृतशरिका । "बदकेभ्य इन्वकम्यः [वा०] वरचिनी । खाविति किम् ? अपूषाः प्रायेणान(म) वन्तिषु ।
__कुल्माषावण ॥४।१।१५॥ कुल्माषशब्दांदण भवति सदस्मिन्नन्नं प्रायेण सावित्यस्मिन्विषये । कस्यापवादः । कुल्माषाः प्रत्येयान्नमस्या कोल्माषी पौर्णमासी ।
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म.
पा. सू. १६-15
महावृसिसाहिसम्
कालप्रयोजमाद्रोगस्य ॥४।१।१६।। तदिति वर्तते खाविति च। तदिति वासमर्थान्मृदा अलप्रयोजनोपाधिका रोगस्येति ताऽर्थे को भवति संज्ञायां गम्यमानायाम् । सततं कालोऽस्य सततकः । द्वितीय कालोऽस्य द्वितीयको ज्वरः । तृतीयकः । चतुर्थकः । प्रयोजनाद्-विपपुष्यप्रयोक्नमस्प विषपुष्पको ज्वरः। माशपुष्पकः । पर्वतकः । कालनिमित्ताद्रोगस्येति च वक्तव्ये प्रयोजनमहणत्यैतत्प्रयोजनम् । फलेऽपि प्रयोक्ने यया स्यात् । उडएकार्यमस्य उध्याकः । शीतको ज्वरः ।
मसालकोदरिक सस्यकांशकतन्त्रकबाह्मणकोशिकीष्मकशीत काऽधिकाऽनुकामिकाs मीकाऽनुपदिपावकायाशूलिकादाराडाजिनिकोत्करोत्रियसाकीन्द्रियक्षेत्रियाः ॥४१७॥शकल. लक इश्येवमादयः शब्दा निपात्यन्ते । माठशब्दाद वासमाद् बन्धनोपाधिकारस्येति वा से मिपास्यते करमे। शृखलं बन्धनमस्य गारित वाक्यमेव भवति । उदरशब्दावीपसमर्यात प्रति इत्यस्मिार्थे ठणू निपारयते साय ने गम्यमाने | आयून उदरे अविजिगोपुरुच्यते । उदरे प्रसित प्रौदरिकः । मायून इत्यर्थः 1 उक्तं च
"मिताशिनं पर सुप्रथा अन्ते (भजन्ते) मारोग्यमायुध पर्वकम्ध ।
अभाविकचास्य भवत्यपत्यं न चभमान नमिति क्षिपन्ति !!" अन्यत्र उदरे प्रसित उदरकः । स्वाङ्गेषु प्रसित इति कः । सस्यशलान् भासमस्पिरिजात इत्येत. सिन का। मस्येन परिबातः सस्यकः शालिः। सस्यको देशः। सस्यको वत्सः । वैगुण्यरहित इत्यर्थः । सस्यमिव सस्यम् , सेन परिबातः सस्यको मणिः। श्राका कोरशुद्ध इत्यर्थः । 'विग्रहे ( अं) सन्यवाप्समा पांत् रसोथरिमस कःअंशं हरवि अंशको दायादः। "तन्त्रशब्दारकासमधांदचिरापहस इत्यस्मिन
। तन्त्रादचिरापहतः तन्त्रका पटः । "अाह्मणक डणिक इत्येती शब्दो खुविषये कायान्ती मिपास्यते । ब्रामणको देशः। यत्रायुधजीविनी ब्राह्मणास्तस्य देशस्येवें संज्ञा । उष्णदल्पान्ने । उणिका अम्पान्ना यवागूरुध्यते । ''उष्ण शीताब्वाम्या क्रियाविशेषणाभ्यां पासमर्थाभ्यां करोतीत्यस्मिनः कः।" उष्णं करोतीति उम्पाकः । शीघ्रकारीत्यर्थः । शीतं करोति शीतकः । जह इत्यर्थः । अधिमित्यन्न अध्यारूवशब्दारस्वार्थे । नरज व निपास्यते ।' रिलषशीभ्यास" [२१४१५७] इत्यादिना यदाऽध्यारूदशब्दः कर्तरि ज्युत्पाद्यते तदाधिको द्रोपाः खार्यामित्युदाहरणम् । यदा कमणि न्युत्पाद्यते तदा श्रधिका खारी द्रोण नेत्युदाहरणम् । "अनुक अमिक अभीक इस्येते शाम्लाः कायान्ताः कमिक्षा इयस्मिन्नर्थे निपात्यन्ते"। अनुकामयतेऽनकः । अभिकामयतेऽभिकः । अभी दीत्वं निपात्यते । "मनुपशव्दावन्वेष्टरि इन्निपास्यते ।" पदस्य पश्चादनु पदम् । (प) श्वादर्थे हसो भावप्रधान' । अनुपदमन्वेष्टा अनुपदी ग्वाम् | "पारवंशब्दाद् भासमादवितीयस्मिन्नर्थे कः ।" अनुरुपायः पाश पार्श्वनान्विच्छति पाचकः । "अयःशूलदण्डाधिन राष्ट्राम्या भासम थाभ्यामन्धिच्छतीत्यस्मिन्नथें ठया ।" तीक्ष्ण उपायोऽवाशूलम् , अयाशूलेनान्विति अायाशलिका। दरखानिनेनान्विति दाण्डामिनिकः । दम्मप्रधान इत्यर्थः । "उल वन्मनस को (नपारयते ।' उत्क: प्रवासी । उत्कण्ठित इत्यर्थः । "छन्दःशब्दादिप्समधीते इत्येतस्मिन्नर्थे घो निपास्यते प्रकृतेन श्रोत्रभाव" छन्दोऽधीते श्रोत्रियः। मनोज्ञा पाठा छान्दस इत्यपि भवति । 'साक्षात् शब्दाद दृष्टरि इम् खुविषये।" साक्षाद्रष्टा साक्षी | दातृप्रतिग्रहीतृभ्यां योऽन्य उपाष्टा तस्येयं संज्ञा । "इन्शदातासमाहिश इत्यस्मिन्न पः।" इन्द्रस्य लिङ्गम् इन्द्रियम् । इन्द्र प्रात्मा । अथवा इन्द्रं कर्म । इन्द्रेश जुनं सृष्टं Eष्ट' दत्तं वा इन्द्रियम् । तान्ताद पा । "परक्षेत्रगण्यादीप्सम हिचकित्स्य पश्यस्मिन्न) ण्यः परशम्दस्य पम् ।"परतेने चिकित्स्या क्षेत्रियो व्याधिः । परक्षेत्रं जन्मान्तरशरीरमुच्यते ।
भार मुक्त टोमेन ॥४॥॥१८॥ तदिति वर्तते । श्राद्धशब्दाद् बासमर्थाद् भुक्लोपाधिकादनेनेवि
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[.. पा.
. १-२३
फर्तरि ठो भवति । पारकर्मनामधेयम् । श्रद्धा प्रयोजनमस्य श्राद्धम् । "अाम करणे अग्निपदादिम्य उपसंख्यामम्"[वा०] इत्यण । "प्रशाध द्वाऽचर्चा' [v ] वादिना मत्सर्थीयो वाण । श्राद्धं भुक्तमनेन शादिको देवदत्तः ।
इन् ॥ १९॥ भाद भुक्तमनेनेति वर्तठे । इन् भवति भादशब्दात् । श्रादं मुक्कमनेनेति भावी देवदत्तः । योगविभाग उत्तरायः । “ठेनोः समानकाछग्रहणं पत्रव्यम्"। यस्मिनहनि भाबमनेन भुक्क तस्मिन्नेष आद्धिकः भारी वाऽभिधीयते । अब भुले भाडे श्व: श्रादिका श्रादीति च न भवति ।
पूर्वात् ॥४१२०॥ तदिति वर्तते अनेनेति च । पूर्वशब्दाद् घासमर्थात् मनेनेति कर्तरि इन् भवति । फर्ता क्रियामन्तरेणा न भवतीति पाकादिक्रिया व्याहर्तव्या। पूर्वशब्दः क्रियाविशेषणमिह गृह्यते । पूर्वमनेन भुक्तं पीतं गतं वा पूर्वी । प्रतीयमानस्य कमयाऽनुप्रयोगः । श्रोदनं सुशाम वा ।
सपूर्षात् ॥४१॥२९॥ सपूर्वाञ्च मृदः पूर्वशब्दान्ताद बासमर्थादनेनेत्यस्सिन्नथें इन् भवति । पूर्वसूत्रे यत् क्रियापदमध्याहृतं तत्पूर्वात् पूर्वशब्दादिह त्यः । पूर्व कृतमनेन कृतपूर्वी कटम् । भुक्तपूर्वी श्रोदनम् | पीतपूर्वी सुराम् | त्योत्पत्तेः प्राक् मयूरय्यंसकादिखात् [१२९६ ] सविधिः । 'भूतपूर्व घरट" [
३ २] इति ज्ञापकात्पूर्वशब्दस्य परनिपातः । कान्तं मावे व्युत्पादनीयम् । अथापि कर्मणि व्युत्पाद्यते । इत्युत्पन्ने क्रियाकर्म सम्बन्धं त्यक्त्वा का सई वर्तते । इति कर्मण्यनुक्ते इबेव भवति । कर्मसम्बघामावादेव टापो निवृत्तिः । ननु "पूर्वात्" [५/१२.] इयुक्त तत्र तदन्तषिधिना संपूर्वाद् भविष्यति, व्यपदेशिवभावेन केवलाच्च भविष्यति, किमर्थ योगान्तरम् । एवं तहीदमेव योगदर्य शापकम् । अस्तीदं परिभाषायम, मृत्महणे म प्रवन्तविधिः, भ्यपदेशिवभाषी न मृदेति ।
इटादे: ॥४॥२२॥ तदिति अनेनेति च धर्तते । इष्ट इत्येवमादि यो मुद्यो वासमर्थम्योऽनेने. त्यस्मिन्नर्थे इन् भवति । इष्टमनेन अष्टी यथे। सस्येविषयस्य कर्माधिक्तव्येति । इष्ट । पतं । उपपादित । निगदिव। परिविदित । निकथित । निपतित । सङ्कलित । परिकलित । संरक्षित । परिरक्षित । गणित । अवकीर्ण । श्रायुक्त | निग्रहीत । आभूत । श्रुत । श्रासेवित । अवधारित । अवकम्पित | निराकृत । उपाकृत | अनुयुक्त । अनुगणित । अनुपठित । व्याकुलित ।।
तपस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः ॥ २३ ॥ वदिति वासमर्यादस्य अरिमन्नित्येतयोरर्थयोर्मतुभवति । यतद् पासमर्थमस्त्युपाधिक. चेत्तद् भवति । इति करण सूत( णस्तत श्वेद्विवक्षा । प्रायो भूमादिषु विषक्षा ।
"भूममिवाप्रशंसानु नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्विविवक्षायां मत्वादिविधिरिष्यते ।"
भूम्नि-गावोऽस्य सन्ति गोमान् । निन्दायाम-शङ्खादकोऽस्याऽस्ति शलादकी | ककुदावर्ती । प्रशं. सायाम-रूपमस्यास्ति रूपवान् । नित्ययोगे-क्षीरमेषां सन्ति सीरिणो वृक्षाः। श्रतिशायने-उरिणी कन्या । संसर्ग-दण्डौ । भूमाद्यभावेऽपि विवला । व्याघवान् पर्वतः | स्पर्शघान् वायुः । इस्तिमती शाला। "मरवर्थाच्छेषिकारचापि मत्वर्थः शैषिकस्तया । सरूपस्स्यविधिष्टः समन्तात्र सनिष्यते ॥"
"गुणवचनेभ्यो मत्वर्षीयस्यायकग्यः" [वा ] । शुक्लो गुणोऽस्यास्तीति शुक्लः परः । कृभ्यः । "रसादिग्यो मलव्यः" [वा.]। रसवान् । रस । रूप । वर्ण । गन्ध । स्पर्श । शन्द | स्नेह । एते गुणशब्दाः। 'एकाध खवान् । स्ववान् । अन्यनिवृत्पर्थमिदं वक्तव्यम् । कयं रूपिणी कन्या । रूपिको दारकः। रसिको नटः । इति १ इविकरणाद् भवति, श्रगुणात्वाद् वा । अस्यास्मिमिति द्वयोरुपादानं किम् । नानयो।
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म.पा. सू.१७-३०] मदाचिसहितम् नियतः समावेशः । देशान्तरे राशो हस्तिनः । न चैते राशि भवन्ति । मे गर्गाः । न च ते सस्य भवन्ति । अस्तिग्रहण वर्तमानकालसत्ताप्रतिपत्यर्थम् । इह मा भूत् । गावोऽस्याऽसन् | गायोऽस्य भवितारः इति । गोमानासीत् , गोमान् भविता इति ? "धुयोगे स्याः" [11] हत्यत्रोपपत्तिकच्या ।
प्राण्यझावातो पाल: श२४ा प्राण्यङ्गवाचिन माहारासाद्वा ल इत्ययं स्यो भवति मत्यर्थे । चूगलः । चूद्धावान् | धाटालः । घाटावान् । कथं तर्हि कर्णिकालः । कर्णिकान् । प्राणिनि प्र प्राण्यामिति विग्रहालभ्यते । अथवा कणिका प्राण्यामप्यस्ति नाभरणविशेष पव | पाणिग्रहण (किम् ) १ शिखावान् प्रदीपः । अङ्गग्रहग्यं किम् ? धर्मान्मा भूत् । चिकीर्षावान् । प्राव इति किम् । हतवान् ।
विमादेः ॥२५॥ सिम इत्येवमादिभ्यश्च वा सो भवति मत्वर्थे । वामहसमिह मतोः समुख्यार्थम् । न घिमाल्पार्थम् । उत्तरत्र थाम्रहणात् । तेन वेऽत्राकारान्तास्तेभ्यष्ठेनी न भवतः । सिध्मान्यस्य सन्ति सिमलम् । सिम । वर्म । गहु । तुपिड । मणि । नामि । बीच । निष्पाव । सुयात | दत्त । सक्तु । पर्यु । पाशु । मांस । पायिधमन्योर्दीत्वं च । "वा तदन्तवासकारानामूलच" [पा.) "जटाघटाखेम्पः क्षेपे' । [वा०] पर्ण । उदक । प्रा। "क्षुनजन्तूपतापाभ्यां चेम्यते" [१०] यूकास | मक्षिकानः । उपतापात्-विवाचकालः। विपादिकालः । भूलिः ।
फेनाविलम्ब ||R६ फेनशब्दादिलो भवति लक्ष मत्वर्थे । वामही मदसमुच्चयायमनुवर्तते । फेनिलम् | फेनलम् । फेनवदुदकम् । "पिच्छादेश्चेति वक्तव्यम्" {चा०] पिच्छिलः । पिच्छलः । पिच्छयान् । पिच्छ । उरस् । ध्रुवक' । भ्रूवक । “जठा घटा काला निभ्यः क्षेपे" [पा०] पर्ण । उदक । प्रशा |
लोमपामादिभ्यां शनी ॥४१॥२७॥ सोमादिभ्यः पामादिभ्यश्च यथार्सख्यं श न इत्येतो त्यो भवतो मत्यर्थे । अत्यनुवृत्तमतोः समुच्चयः । लोमान्यस्य सन्ति लोमशः | लोमवान् । लोमन् । रोमन् | भ्र। बल्छ ( बल्गु)। हरि। कपि । मुनि । तरू' । पामादियः। पाममः । पामवान् । पामन् । शमन् । हेमन् । इलेष्मन् । बलि | सामन् । अङ्गः कल्याणे । अङ्गानि कल्याणान्यस्याः सन्ति अङ्गना । भाजपती अन्यत्र । लम्या सच । लक्ष्मणः । बनु शाकी पळाली प्रश्च । ददुणः । शाफिनः । पलालिनः। "विश्वगिति धुख पावसन्धेः" । विष्वश्चोऽस्य सन्ति विषुणः । विषुशब्दो निसंज्ञः।
प्रक्षाप्रवाऽर्चावृत्तिभ्यो णः ॥ २८ ॥ प्रशा श्रद्धा अर्चा वृत्ति इत्येतेम्यो गो भवति मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेमतोः समुच्चयः । प्रशाऽस्यास्तीति प्राज्ञः। प्रशावान् । श्राद्धः । श्रद्धावान् । श्रार्चः। अर्चावान् । वार्तः । वृत्तिमान् ।
तपासाहक्षाभ्यां चिनिनो ॥४१॥२६॥ तपस् सद्दन इत्येताभ्यः यथासङ्ख्यं धिन् इन् इत्येतो स्यौ भवतो मलर्थे । तपखी । सहस्ती । घेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि । तपस्वान्, सहस्रवान् | तपसोऽसन्तवादेव विनि सिख पत्रमाणेनाणा बाधा माभूदिति पुनर्वचनम् ।
अय् ॥४॥॥३०॥ अग्ण च भवति तपासइनाम्यां मत्वर्थे । तापसः । साइलः। "प्रमाणे पोस्मादिभ्य उपसंख्यानम" [पा.]। ज्योत्स्ना अस्मिन्नति ज्योत्स्नः पक्षः । तमिला। वामिनः । फुटवल । फौपडलः । कुण्डलाई इत्यर्थः । कुतप । कौतुपः । विसर्प । वैसपी । विपादिका । वैपादिकः ।
१. प्रवका । 5वका अ। ध्रुवका 5वका ३० । ध्रुषका । शुषका इति काशिमपाम् । १. मरु म.पू.।
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जैमेन्द्र-व्याकरणम् [...
] सिकताशर्कराभ्याम् ॥११॥ सिकता शकय इत्येताम्यामण भवति मत्व। संत । शार्करः । अदेशार्थ प्रारम्भ।
___उसिलो च देशे ॥१३२॥ सिकताशर्कराभ्यामुस् इल् इत्येतो त्यौ भवतः, चकारादण् मतक्ष देशेऽभिधेये । तदस्यास्यस्मिन्निति वतैसे । कस्योस् ? मतोः । तेन चलार। शब्दाः । सिकमा देहः । सितिलः। सैफतः । सिक्तावान् । शर्करा देशः । शरिलः । शार्करः । शर्करावान् । देश रवि किम् ? सैकतो घटा। शारो घटः ।
मधूषषिमुष्काद्रः ॥४१॥३३॥ मधु ऊष शुषि मुक इत्येतेभ्यो रो भवति मल। वेत्यनुवृतमतरपि भवति । इह मधुशब्दो रसवाची गृह्यते न द्रव्यवाची। मधु अस्मिनस्ति मधुरो गुदः । रसवाचिनि मधुशब्दे कथं मधुरो रसः । इति चेत्, उपचारात् । रसवाचिनो मधुशब्दान्मतोरभिधानं नास्ति । ऊपरं क्षेत्रम् । शुषिरो वंशः। मुष्करः पशुः। रप्रकरणे खमुखकुम्जेम्य उप संख्यामम्" (चा०] खं महत्कण्ठविवरमस्यास्ति खरः । मुखमस्सास्ति मुखरः । कुजोऽस्यास्ति कुञ्जरः । “विधिनंगाशुभ्याम्" [चा०] । (नगरः। पांशुरः )।
घद्रभ्यां मः॥४१२३४|| शुद्र शब्दाभ्यां मो भवति मत्वर्थे । औरत्यास्तीति शुमः । पदिय भए" [RIBE) इति उत् । धुशब्दो वा प्रकृत्यन्तरम् । द्रूण्यस्य सन्ति हमः । रूदिशब्दावेतौ । यदा रूदिनास्ति तदा मटरेव भवति । चुमान् । इमान् ।
केशाहो वा ॥४।११३५॥ केशशब्दाद् व इत्ययं त्यो भवति वा मत्वर्थे । प्रकृतं वाग्रहणं मतुसमुच यार्थम् । इदं तु सर्वविकल्यार्थम् । तेन ठेनावपि मवतः। केशवः। केशवान् । फेशिकः। केशी। "मविप्रभृसिभ्य इति वक्तव्यम्" [ वा०] | मरिणवः । हिरण्यवः । कुररावम् । इष्टकावम् । गजीयम् । "मर्णसः लं च" [वा०] | अर्णवः ।।
गारव्यजगारखो श३६॥ गाण्डी अजग इत्येताभ्यां वो भवति मत्वर्यखुविषये । माली धनुः । अनगवं धनुः । प्रादपि भवति । माण्डिवं धनुः । मत्यन्तेन संज्ञा न गम्यते इति मर्न भवति । खाविति किम् ? गाएबीमान् वएडः।
कारडाराडादोरः ॥४॥१॥३७॥ काण्ड-श्रयह शब्दाभ्यामीर इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । ठेनोरपवादः। कापडीरः । परजी: 1 वेति मतुसमुचयाथै वर्तते । काण्डवान् । अण्डवान् ।
रजाकृष्यासुतिपरिषदो पलः ॥४१॥३८॥ रजः कृषि प्रासुति परिषद् इत्येतेभ्यो पलो मात मत्वर्थे । रमसो विनि प्राप्ते इतरेभ्यो मतो वचनम् । रजस्वला नारी । कृषीवलः कुटुम्बी। मातीवलः काल्पपालः | "बले" [१२३४] इति दीवम् 1 परिषयलो नृपः। इविशब्दः प्रयोगनियमार्थमनुवर्तते । परिषदः सामान्धेन । इतरेभ्यः संज्ञायों प्रयोगः | सेनेह पलो न भवति । रकोऽस्मिन् प्रामेऽखि, प्रातिरम्मिन् भाण्डेऽस्ति । "वल प्रकरणेऽन्येभ्योऽपि पश्यते इति पकव्यम्" [वा०] । पुत्रवलः । भ्रातृवलः | उत्सङ्गवलः । “बले" [३।१२५] इत्यत्र खावित्यनुवर्तनादखो दीत्वं न भवति ।
इन्तशिस्त्रारखौ ॥४।११३९॥ दन्ठ-शिखाशब्दाद् बलो भवति मस्वर्थे खुषिष। दो नाम कश्चित् । शिस्वावलं नाम नगरम् । यत्र सदन्तेन संशा गम्यते तत्र प्रस्तुपि भवति । शिक्षावालाम ऋषिः । ननु देश। सावियुम्यमाने "शिखाथा वल" (२०६८] इत्यनेन मनि सिद्ध किमर्पमिदं वक्तव्यम् ? अदेशार्थमिदं वक्तव्यम् । तदपि नित्ताअर्थ वक्तव्यम् |
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2.
पा. सू. १०-४
महावृतिसहितम्
ज्योत्स्नातमिमातियो स्विर्जस्वलकत्लखांशलदस्तुरहस्तिनगोमिनस्वामित्वणिम् मलिममलीमलाः ४९४०|| ज्योत्स्नादयः शब्दा निपात्यन्ते मत्वर्य । "मोतिर उकः सं मात्र सुविषथे निपात्यते।" ज्योत्सनेति चन्द्रप्रकाशस्याख्या। अन्यत्र ज्योतिष्मती गतिः। मसः वं कारब ३ध्वं निपावते ।" मिना रात्रिः। स्त्रीत्वमतन्त्रम् । तेन तमिस्र नभः । मतुरपि भवति । तमस्वती रात्रिः। “दिनो निपास्यते ।" शृषिणः । शृङ्गवान् । “उर्जस्विन् सर्जस्वक इस्ती निपात्येते।" ऊर्जस्वी, ऊर्जस्वलः, ऊर्जस्वान् । वत्सशिशब्दाभ्यां यथासङ्घय कामवति बडवति च को निपात्यते ।" वत्सलः साधुः । स्नेहवान् इत्यर्थः । अंशलः पुरुषः । बल बानिस्यर्थः । सदिशब्दावेतो। रूविश्व मत्वन्तेन न गम्यते इति रूढेरन्यत्र मतुर्वेदितव्यः । "इन्वहाब्दानुशतोपाधिका पुरः ।" दन्ता उन्नता अस्य सन्ति दस्तुरः। उन्नतविशेषणादन्यत्र दन्तवान् | "हस्सशदाजासायभिधेयायामिन्'। इसी। अन्यत्र हस्तपान पुरुषः । हालदाम्मिन्" । गावोऽस्य सन्ति गोमो । गोमानिति भवति । "स्वयम्दान्मिन् त्वं च मिपास्य ऐपये गम्ये" । स्वमस्यास्ति स्वामी । अन्यत्र खवान् । "वहिन नामचारिणि । वीं । ब्रह्मचारीत्यर्थः । “मलशावादिम ईमस इस्येही निपादयेते" । मालनः । भलोमसः ।
ठेनावतः॥४१॥ अकारान्तान्मृदष्ठ इन् इत्येवी त्यो भवतो मत्वर्थे । दण्डिकः । दएही। कुत्रिकः । छत्री । वेत्यनुवृत्तेर्मतोः समुच्चयः । दएछवान् । प्रत इति किन ? खट्दावान् । अत्रेष्टिः ।
"एकाक्षरात् कृतो आतेहीबर्थं च न सौ स्मृती" [पा. म. श५५] 1 पक्षरात्-सवान् | खवान् | कृदन्तात् । कारकवान् । हारक्वान् । आते। त्यानवान् । सिंहवान् । ईबर्षे । दण्डा अस्या सन्ति दण्डपती शाला। नेदं वतन्यम् । अनभिधानादेवात्र ठेनो न भक्तः। यत्राभिधानं तत्र भवत एव । कार्यो । हार्यो । तन्दुलिफः । तन्दुली । ईनथें । स्खलिनी भूमिः । मा(शालिनी भूमिः।
ब्रीह्यादेः ॥४.९॥४२॥ ब्रीहि इत्येवमादिभ्यष्ठेनौ भवतो मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । नोहयोऽस्य सन्ति ब्रीहिका, ब्रीही, बीहिमान् । मायिकः, मायी, मायावान् । इतिशब्दः प्रयोपनियमार्थोऽनुवर्तते । म भीडादिषु ये शिखाश्यः पश्यन्ते तेभ्य इन् भवति । यवखडादिभ्याडो भवति । परिशिष्टेभ्य उभयं भवति । सर्वत्र प्रादिगन्दा प्रकारवाची । शिखाऽस्यास्ति शिखी । शिखावान् । शिखा | माजा । मेखता। शाला । मीक्षा । संशा । घरवा । अष्टका | बसाका पताका । कर्मन् । धर्मन् । चर्मन् | यव । खद्ध । नौ । कुमारी। पत्रेभ्य इन्नेष्यते । परिशिष्टे यो द्वापि भवतः । "शीलम:" [वा.] प्रशीर्षिकः । अशीर्षी | बशीर्ववान् । शीर्षशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति ।
तुन्दादेरिलः ॥४१॥४३॥ तुन्द इत्येवमादिम्य इलो भवति ठेनौ च मखर्थे । उत्तयनित्यनारयादिह टेनोः समावेशो लभ्यते । मतोख वेत्यनुवृत्ते रेव समुच्चयः । तुन्दमस्यास्ति तुन्दिलः । तुन्दिकः । नन्दी। तुन्दवान् । तुन्द । उदर । पिचरद्ध | चय । ब्रोग्रिहणं सरूपार्थम्, अर्थनिर्देशाथै च। ग्रीहिलः, नोकि, श्रीहिमान् । शालिनः, शालिका, शालिमान् । स्वामिभृतौ । फर्णी मृिद्धावस्य कर्णिलः, कर्णिक, मी, कर्णधान् । पिच्छादयोऽपि पठनीयाः । तेभ्यष्ठेनोरभिधानं नास्ति । पिछा । घरम् । घुषका । पयपाटा असा निभ्यः क्षेप। पर्थे । उदक | प्रा।
पकगोपूर्षानित्यम् ॥४॥४४॥ एकपूर्वाद् गोपूर्वाञ्च नित्यं ठञ् भवति मल । एकपूर्वात्समानाधिकरणाप्रसादेव विधिः । एकइलमस्यास्ति ऐकहलिकः । पदर्थे' [१६] इति रसे ते तष । म लघुसात् परस्त्रास्त्र असे कृते नसेनोकखान्मखीयो न प्राप्नोति या चित्रगुरिति । सत्यम् ।
1. पक्षम्यां च इति महाभाष्ये ।
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२५२
[अ० ४ पा० १ सू० १५-२९
इह तु वचनाद् भवति । एकस्य इलम्, पकइलम्, इत्यत्रानभिधानात्रेच्यते । एवम् ऐकातिकः । ऐकसहत्रिः । गवां शतं गोशतं तदस्यास्ति गौशतिकः । गौसहस्रिकः । यदि श्रत इति व इह न भवति । एकविंशतिरस्यास्ति, गोविंशतिरस्यास्ति । इदं तु न सिध्यति । ऐकगविक इति सान्ते कृते भविष्यति । कथमेका शकटिरस्यास्ति, ऐकशकटिकः । गौशकटिक इति । श्रव्यविकन्यायेन शकटान्ता इत्यन्ति (न्वादुत्पतिः) । नित्यग्रहणं नोर्मवोध बाधनार्थम् । कथमेकद्रव्यत्वादिति । चिन्त्यमेतत् ।
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
निष्काच्छुतसहस्रान्तात् ||४|१|४५|| निष्कात्परौ यो शतसहस्रशब्दौ तदन्तान्मुदो नित्यं म भवति मत्वर्थे । निष्काणां शतम्, निष्कशतम्, तदस्यास्ति नैष्कशतिकः । नैष्कसहलिकः । सुवर्ण निष्कशतमस्यास्तीत्येवमादिष्वनभिधानान्न मविष्यति ।
यहिम्यगुण्याः || ४ | ११४६॥ रूप्य हिम्य गुण्य इत्येते शब्दाः निपात्यन्ते मत्वर्थे । रूपशब्दादाइतविशिष्टाच्च यत्यो निपात्यते । श्राहतं रूपमस्यास्ति रूप्यः कार्षापणः । प्रशस्तं रूपमस्यास्ति रूप्पो गौः । रूप्या कन्या । श्राहृतप्रशंसाभ्यामन्यत्र रूपवान् । हिममस्यास्तीति हिम्यः पर्वतः । गुणा श्रस्य सन्दि गुरायस्तपस्वी ॥ नित्यग्रहणंठमा सह निवृत्तम् | वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । रूपवान् । हिमवान् । गुणवान् ।
विन्नस्मायामेधानजः || ४ | १|४७|| सन्तान्मृदो माया मेधा सम् इत्येतेभ्यश्च विन् भवति | मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । श्रोजस्वी । तेजस्वी । मायावी । मेघावी । स्रग्वी । तैवान् । मेघावान् । खग्वान् । मायाशब्दस्य श्रीह्यादिपाठान्मठेनो भवन्ति ।
arer ग्मिन् ||४|१|४८ ॥ वाक्शब्दाग्मिन् भवति मत्वर्थे । वाग्मी । "स्वादावधे [१२] १०६ ] श्रुति पदत्यात् पूर्वस्य कुत्यजस्त्वे । वाग्वान् । "मयः " [५/२/११] इति मतोर्वत्वम् |
बहुलावन्याला ||४|१|४६ ॥ वाच चाल श्राट इत्येतौ त्यो भवतो मत्वर्थे बहुलापिन्यभिधेये । बाचालः । वाचाथः । “कुत्सायामयं योगो वक्तव्यः ।" यो हि समीचीनं बहु संलपति यामीति भषति ।
|| ४|१|५० ॥ श्रर्शस् इत्येवमादिभ्यः च इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । मादिशब्दः प्रकारकाची । प्रशास्यस्य सन्ति प्रर्शसः । श्रर्शस् । उरस् । तुन्द | मुग्रह | चतुर । पलित 1 बटा | घाटा । श्राभ्यां सिध्मादित्वात् लम अपि भवतः । तुन्दादित्वादिलोऽपि भवति । श्रभ्र । अम्ल | लवय । स्वाङ्गाभीमात् । खञ्जः पादोऽस्यास्तीति खखः । काय चतुरस्य कायणः । कथं कृषिः पुरुषः कुहिंस्तः ! तद्योगात्तयोः । यथा पञ्जुः । वत् शुलं इरितम् । नतु शुक्लादीन । भेदोपचारादेव भविष्यति । प्रबं तर्हि द्रव्यवाचिभ्यो भविष्यति । शुक्लगुणयुक्ताः प्रासादा शुक्लाः अस्मिन् सन्ति शुक्लं नगरम् । "ज्योत्स्नामित्राभ्यां शिव भवति पक्षे" [ वा० ] ज्योत्स्नः पक्षः । ताभिः पक्षः । नेदं वक्तव्यम् । "करणे यस्मादिभ्य उपसंख्यानमिति सिद्धम् । एवं च ज्योत्स्नी रात्रिः, तामिली रात्रिरिति श्रीविधेरपि लामः ।
इन्दोपतापगमाखिनीन् ||४|१ | ५१ ॥ उपतापो व्याधिः गर्म कुत्स्यम् । अव इति वर्तते । दशब्दादुपतापवाचिनो गर्धवाचिनश्च मृदः प्राणिनि वर्तमानादिन् मवति मत्वर्थे । शङ्खनूपुरिधी | फटक केयूरिणी । "प्राण्यङ्गादिति वक्तव्यम्” [ वा० ] वह मा भूत् । पाणिपादवती । उपतापात् । कुष्ठी । किलासीत् । ककुदावर्ती । काकतालकी । प्राणिनीति किम् ! पुष्पफलवान् बुदः । अत इत्येव । भटुकण्ठिकावती । ठमत्वोचनार्थ ( वाघनार्थं ) सूत्रम् ।
वातातीसाराभ्यां कुक् ॥४१॥५२॥ वात अतीसारशब्दाभ्यां मत्वर्थे इन् भवदि क्सन्नियोगेन कुमागमः । उपतापत्त्वात्पूर्वेयेनि सिद्धे कुगर्थं श्रारम्भः । वातकी । श्रतीसारकी । "पिचेति वक्रभम्" [ वा० ] पिशाचकी ।
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..पा.१०१३-1] महावृत्तिसहितम्
રજરે स्टो वयसि ॥४॥१॥५३॥ इन्निति वर्तते । इडन्तान्मृद इन्नेन भवति क्यसि गम्यमाने । पबमोऽ स्यास्ति संवत्सरो माखो का पञ्चमी उष्ट्रः । एवं नवमी । दशमी ।
सुखादेः॥४१५४॥ सुख हत्येवमादिम्य इन्नेव भवति मत्वर्थे । सुखमस्यास्ति सुखी । सुख । दुःख । तुः । कृच्छु । अभ्र । श्रान । अलोक । करण । कृपण । सोढ । सोफ 1 प्रतीप | शील । ल । फल । माला क्षेपे । माली । अन्यत्र मालावान् माली च । नीहादिषु शिखादिमालाशब्दाः पश्यन्ते, क्षेपे मद्धवार नार्थस्तस्येह पाठः।
धर्मशीलवर्णान्तात् ४९॥५५॥ धर्मान्तात् शीलान्तात् वर्णान्गन्च मृद इलेव मवति मत्वर्थे । तपस्विनां धर्मः तपस्विधर्मः, खोऽस्यास्तीति तपस्विधर्मी । तपस्विगीली । क्षत्रियवर्णी ।
पुस्करादेदेशे ॥४१॥५६॥ पुष्कर इल्पेवमादिभ्य इन्नेव भवति मत्वर्थे देशेऽभिधेये । पुष्पकरिती । पभिनी । देश वि किम् ? पुरुकरवान् इस्ती । पुष्कर | पद्म । उत्पन्न । कुमुद । तमाल । नइ । कपित्य। कर्दम । बिस 1 मृणाल । साल्वक । विगई। करीष । शिरीष । यघास । हिरण्य । अवेष्टयः-"हनप्रकारको स्वाद पाहूर पूर्वायुपसल्यानम्"[पा०] । बाहुबली । उसवलो । “सदिबति वक्तम्यम्"[वा.] सर्वचनी । सर्ववाली। सर्वकेशी । "अर्थात समिहिने वर्तमानादिन् यतम्य" [वा.) । असन्निहितस्यास्तित्वेन विरोध इति चेद। एवं तर्हि तद्विषयाऽमिलापस्याविरोध: । अर्यो । अर्याभिलाषामित्यर्थः । असन्निहित इति किम् । अर्थवान् । "सदन्ताति वक्तप्यम्''[व]। धान्यार्थी । हिरण्यार्थी । "न्याभ्यामाएको पळम्मः'' [] शृङ्गे पस्य स्तः झारकः । वृन्दारकः । "फळमायामिनः' [पा०] फलिनो वृक्षः । नहियो मयूर । "इवयाचा पातम्यः" पा० । हृदयालुः । इदयिकः । हृदयी । हृदयवान् । 'शीतोन्ग्रहप्तेम्पस्ता सहन इत्यामुर्वकम्यः" [ला०]। शीत न सहते शीतातुः । उष्णानुः । तृप्तालुः | "हिमाचल्नुः [पा. | हिमं न सहते हिमतुः । "वकासः [षा०]। बलं न सहते बलूलः । बाबासाहे बन्न सहते इति [.] वातसमूहो पातमाः । पातं न सहते धातूलः । ": पर्वमहम्पा मश्व वा०] । पर्वाण्यस्य सन्ति पर्वतः । मरुतः।
बल्लामतुर्वा ॥४५११५७|| बल इत्येवमादिभ्यो मतुर्भवति । बावचनेन पदे हन् प्रात: समुन्धीयते । ठोऽत्र न भवति । बलमस्यास्ति बलवान् । बली । इदमेव मनुवचनं शापकम्, इन्विषये मर्न भवतीति । बल !! उत्साह । उहास | उद्मास । घुल । दुष। पुल । दल | कुल । मायाम [ व्यायाम । मयाम । उपयाम । आरोह अवरोह । परिणाइ । शिखादेराकृतिगणलासिद प्रपश्चार्थमिदम् ।
मन्माभ्यां हो ॥४.१९५८॥ मनन्तान्मशब्दान्सान्च मृद इन् भवति मत्वर्थे खुविषये । धर्मिगी। चर्मिणी । चर्मवतीति निपातनं वक्ष्यति । तत एवं मतुः । मान्तात् । मामिनी । कामिनी ।
सपिरिषलेभः ॥४॥५९॥ तुरिड वटि पखि इत्येतेभ्यो म हत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । विवक्षा नाभिस्तविडा, सोऽस्यास्ति पिडमः । तुन्दादिषु स्वाझविवृद्धाषिति एलमतठेनः प्राप्ताः । बटिभः । मतः प्राप्तः। वलिमः । भस्मात्पामादिषु पाठात् नमत् च भवतः । वलिनः । वलिमान् ।
कशम्भ्याम् ॥१६॥ कंशशब्दो मकारान्तौ पलसुयोर्वाचको । कं शं शब्दाम्यां भत्यो भवति मत्वये । कम्मा । शम्भः।
षयस्तितुशाः ॥४॥१६॥ केशम्भ्यां ष या ति तु ता इत्येते त्या भवन्ति मस्वयें। कन्या, शम्बः, कंयः, यः । सकार: सिनि" [ १०५] इति पदसंज्ञाऽर्थः । पदस्येत्यधिकृत्य यकारस्यानुस्वारपरस्खले सिने
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२a
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[.. *प.
पू. १-६॥
मसंशयां हि कभ्यः शम्यः हत्यनिष्ट प्रसज्येत । कन्तिः, शन्तिः, कन्सुः, शन्तुः, कम्तः, शता, । सर्वत्र पूर्वस्य पदत्वात् “मोऽनुस्वारः'' [शश इत्यनुस्वारः । तस्य "धा पदाम्यस्य १२३] इति परस्वत्वम् ।
ऊ शुभग्यश्व युस ॥४१।२। ऊर्णा, अहम्, शुभम् . प्रत्येतेम्या कंथा च युत् इत्यये स्यो भवति मत्वर्थे । सकारः सिति" [२०] इति पदसंज्ञार्थः । ऊर्यायुः । अहमित्यहााखाधि शब्दान्तरम् । सहयुः । शुभमिति मकारान्तः शुभपर्यायः । शुभंयुः । युः । शंमुः । नासिक्यस्य बोरनादेशो वच्यते इत्यस्य न भवति ।
सासाम्लोमछः ॥ ३॥ मूषको भवति मत्वर्थे सूक्त साम्नि चाभिधेये । वेदे धारपसमूह एकमा सामेति च संशा । मतुठेनामपवादः। अच्छावाकशब्दोऽस्मिन्नस्ति अच्छावाकीयं सूकम् | मैत्रायपोर्य सकम् | यज्ञशब्दोऽस्मिन्नस्ति यज्ञीयं साम । पारतन्तवीर्य साम । अनुकरणाशब्दा एतेऽनुकार्यशन्दैरर्थषन्त इति मृसंज्ञा सिद्धा । तेऽन्यपदसधातादपि अनुकरणात्यो न भवति । अस्यवामशब्दोस्मिन्नस्त्यस्यवामीयम् । कयाशुभशब्दोऽस्मिन्नस्ति कयाशुभीयम् ।
अध्यायाऽनुषायोपि श६॥ अध्यायाऽनुवाक्योरभिधेययोर्मुडरो मवति मत्वयं तस्य च वा उम्भवति । गर्दभारुतशब्दोऽस्मिन्न स्ति गर्दभाण्डीयः । गर्दभाण्डा । कूचंमुखः । उच्छिीयः। उच्छिष्टः । दीर्धजीवितीयः । दीर्घमीवितः । पदसमुदायाश्यः। घलितस्कम्मीयः । वलितस्कम्मः ।
रियादिगा RIP मिल हागणानिम्यो भवति मत्वर्थेऽध्यायानुमायोरभिधेययो । विमुक्कशब्दोऽस्मिन्नस्ति वैमुक्तोऽध्यायोऽनुवाको पा । विमुक्क। देवासुर । रक्षोमुर । उपन् । परिसारक | वस । मरुत् । सत्कन्तु त् )। पत्नीयन्तु( त्)। दशाई। व्यस् । इनिर्धाता | माहिती | सोलापूषन् । ईडा । नाम्नाविषु (भग्नाविष्णू) । वृत्र । हर्तृ ।
घोषवावेर्युन् ॥४॥६६॥ अध्याया वाक्योरिति घर्तते । घोषदादिभ्यो मृत्यो कुन् मयति मलय । घोषच्छब्दोऽस्मिन्नर्थे ( सिजस्तीत्यर्थे ) बुन् भवति । घोषदकोऽध्यायोऽनुषाको था। द्योपदिति केवाञ्चित्पाठः। घोषद् । ईघेला । मातरिश्वन् । देवस्य ला। देवीराया (यपः)। देवीस्या। कृष्णो त्याखरेस्वा (खरेष्ट )। देवीन्विया ( देवी घियम्)। रखोग्य । अति । प्रतूर्त । दृशान | प्रधार । अम्जन । प्रभूता (प्रभृत)। कृशानु ।
धनहिरण्ये कामे ॥४॥६॥ वनहिरण्यशब्दाभ्यामीप्समर्थाम्या काम इत्येतस्मिन्नथें कुन् भवति । सामोऽभिलाषः । पने फामा, वनको देवदत्तस्य । हिरण्यको देवदत्तस्य ।
किंबहुसपनाम्नोऽवादः ॥४.१.६८॥ किमा, बहुशब्दात्, सर्वनाम्न व्यादिवबिता घश्यमायारत्या भवन्तीत्येषोऽधिकारी वेदितव्यः । ते विभक्रय:" [१०] इति वक्ष्यति । मागेवरसादयमधिकारः। यादिपर्युदासेन प्रतिषेधे प्राते किमः पृथग्रहणम् | वक्ष्यमाणास्तसादयः खार्षिकाः। वेषुः समर्थग्रहणं प्रथमग्रहणं च प्रतियोगिनी द्वितीयस्याऽभावान्न सम्भवति । वाग्रहणं खनुवर्तत एष । कुसः । कस्मातू । बहुतः । बहुभ्यः । बहुशब्दभेद सकल्यावाची ग्रह्मते, न वैपुल्पाची । सेमेह (न) भवति पदोः सूपात् । यतः । यस्मात् । ततः । उसात् ।
एम ए ४।१६९॥ इदम इश् भवति बध्यमायेषु तपादिषु परतः । शबारा दिया। स
वावीम्।
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arne . सू...-20]
महात्तिसहितम्
२२५
तेतीयो॥७॥ इदम एत इत् इत्यताबादेशी भक्तो व्यासस्य रेफयासबो तसादी परतः । रोऽपवादः । अस्मिन् काले एताई । अनेन प्रकारेण इत्यम् | "इपम २] "किमिईमा थम" [१०] इति हियमौ ।।
पतदः ॥११॥ एतदश्च एत इत् इत्येताधादेशौ भवतो यवासहख्यं रेफथकारावी परतः । एतस्मिन्काले, पतर्हि । "बामद्यतने हि" [1] इति हिः । इदमो यो रेफथकावदिः, तस्मित हतीद विशेषग्यम् । एतदोऽपि प्रकारे यं भवति । एतेन प्रकारेण इत्यम् ।
अश ७२॥ एलदोऽशित्ययमादेशो भवति पक्ष्यमाणेनु लसादिषु परतः । शकारः सारेशायी। प्रवः। अन्न।
कायास्तस ॥१७३|| किंबहुसर्वनाम्नोऽधादेरिति वर्तते । कान्ताचस् भवति । कस्मात् कृतः । बहुभ्यो बहुतः । यस्मात् यतः । तसि कृते पूर्वस्य सुपः ‘सुपो अमृदोः" [२१३१४२] इत्युम् । श्रावधादेरित्येव । द्वाभ्याम् । युष्मत् । अस्मत् ।
तसेः॥४॥१४॥ "प्रतियोगे कायारतसिः । [] "भवावानेऽीयो" [ -] इत्येषमादिना विहितस्य तसेरिए ग्रहणम् । एतदर्थमेव च तन्कारकरणम् । किम्बहुसर्वनाम्नः परस्य तसेतसादेशो भवति । कुत श्रागतः । बहुत प्रागसः । यत आगतः । विभक्कोसंज्ञाय तसेतसादेशः । पूर्वेणैव तसा सिमिति चेत्, नैवं शंक्यम् , हीयरुष्टोः प्रयोगे कुतो हीनः यतो हीन इत्यत्र तसं पूर्व सावकाशं माधित्वा होयहोरपयोगे (१) अपादाने किंबहुसर्वनामन्यः परत्वातसिर्भवति !
पभिभ्याम् ||४|१५|| परि अभि इत्येताम्यो तय भवति । परितः । अभितः । यथासयं सर्वोभयाथै वर्तमाना यामिष्यते । इह मा भूत् । परिभवति । अभ्येति ।
ईपत्र।।७६ किम्बहु सर्वनामभ्यो तयाविति य ईजन्तेभ्यस्त्र इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । बहुषु बहुत्र । यस्मिन् यत्र । किमिदग्भ्यामपवादो वक्ष्यति ।
दमोह ॥४॥७॥ इदम ईबन्वात् ह इत्ययं त्यो भवति । प्रस्यापवादः । अस्मिन् , इह । किमो ॥
१८॥ किम ईबन्तात् अ इत्ययं त्यो भवति । प्रस्यापवादः । फस्मिन् कः । “मलो वयोः (कुक्दो प्रयोः ) [शा१६१] इति किमः कशब्दादेशः । कथं कुत्रचित् इति ? चिन्त्यमेतत् ।
स्यन्तेऽन्यतोऽपि ॥ कामीपं च विक्षय अन्यविमस्यन्तेभ्योऽपि दृश्यते तसवयः । किंग सर्वनाम्नोऽदयादेरिति वर्तते । क पुनदृश्यन्ते १ भवादिशब्दस्य प्रयोमे । के पुनर्भक्दावयः ! मवान् दोनदेवानां प्रियः। मायुग्मानिति । स भवान् । ततो मवान् । वत्र भवान् । तं भवन्तम् । ततो मवन्तम् । तत्र भवन्तम् । तेन भवता । तो भक्ता । तत्र भवता । तस्मै भवते । तसो भवः । तत्र भक्ते । तस्माद् भवः । की भवसः । सत्र मक्तः। तस्य भवतः । चतो भक्तः । वत्र भवतः । तसिन् भवति । न भवति । ततो भवति । एवमन्यत्राप्युदाहरणानि योन्यानि । भवदादिभ्योऽन्यत्रापि प्रयोगवशासमास्यो वेदितव्याः । यतः । अनेन गतः । त श्रास्यताम् । इह श्रास्थताम् ।
देान्ययिताका काले ॥४.१०ई हात वर्तते । एक अन्य कि य इस्पेतेम्प ईवस्मयम्मः काले पर्वमानेम्को झ इत्ययं त्यो भवति । त्रादेयवादः । एकस्मिन् काले पकदा । अन्यदा। कदादा ! यदा । काल इति किम् । एकस्मिन् देशे एकत्र ।
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२५६
जैनेन्द्र-ग्याकरणम्
[म.. पासू. 51-11
सर्वस्य सावादि ॥ सर्वशन्दस्व । इत्ययमादेशो भवति वा दा इत्येतस्मिन्परतः । ईप इति वर्तते । काल इति च । वृद्धकुमारीवरषाक्यन्यायेन इदमेव लक्षणं दाविधानस्य । सर्वस्मिन् काले सदा । सर्वदा ।
इदमो हि ॥४|१:२॥ इदम ईबन्तात् काले वर्तमानात् दिन्यो भवति । हस्याऽपवादः । असिन् काटे एतहि । काल इत्येव । इह देशे ।
अधुना ॥४ाश८।। अधुनेसि निपात्यते । अस्मिन्काले अधुना । इदमः अश्भावो धुना त्यः । अथवा अधुना इति त्यो निपात्यसै । इदम इशादेशः । “यस्य यान" [ ५] इति वस्य लम् ।
दामीम् ॥१८४|| इदम इप्समर्थात्काले दानीमिययं त्यो भवति । अस्मिन्काले इदानीम् ।
सदः ॥४॥१८॥ तद ईबन्ताकाले दानी भवति । तस्मिन्काले तदानीम् । तदः पूर्व दाविहितः सोऽपि भवति । तदा।
वानद्यतने हि १४३२८६॥ किंबहुसर्वनामभ्योऽवयादिम्य ईबन्तेभ्योऽनद्यतने काले हित्यो वा भवति । पवे यो यतो विहितः स च भवति । कहि. कदा । यहि, यदा । तर्हि, तदा । अमुहि, अमुत्र ।
पूर्वाम्यान्येतरेतरापरावरोमयोचरेभ्योऽहन्येचस् ॥४१८॥ पूर्वादिभ्य समयेभ्योऽहनि वर्तमाने य एद्युस् भवति । पूर्वस्मिनहनि पूर्वेयुः । अन्येयुः । अन्यतरेयुः । इतरेयुः । श्रपरेयुः । अवरेगुः उमयस्मिनहनि उमयेयुः । उत्तरेयुः । “शु श्चोभयादवक्तव्यः [चा.] । उभयधुः ।
सघोऽयेषमा परेद्यविपरुत्परारि ॥४|११८८॥ सद्य इत्येवमादयः शब्दा निपात्यन्ते । ईप इति वर्तते काम इति च । समानस्य सभावो यश्चाहनि निपाल्यते । समानेऽहनि सद्यः प्राणकरं जलपानम् । इदमोऽ म्श)भावोऽहनि द्य इत्ययं च त्यः । अस्मिन्नहनि अद्य । इदमः समसण संवत्सरे । असिन संक्सरे ऐषमः । प्रकार उच्चारणार्थः । इदम इशादेशः । श्रादे रैप् । "स्यादेवायोः" [ १] इति षत्वम् । परशब्दादहनि एयि । परस्मिनहनि परेद्यवि । पूर्वपूर्वतरयोः परमात्रः उदारी च त्यो संवत्सरे । पूर्वस्मिन् संक्त्तरे परुत् । पूर्वतरे संवत्सरे परारि । कथं पदास्यामि, पगार दास्यामि इति ? एवं तर्हि परपरतरयोरपि प्रकृत्योः परिग्रहः कर्तव्यः ।
प्रकारे था ॥४१॥ ईप इति निवृत्तं काल इति च । किंबहुसर्वनामभ्योऽदयादिभ्यो यषा सम्भवं सर्वविभक्त्यन्तेभ्यः प्रकारे वर्तमानेभ्यस्था इत्ययं त्यो भवति स्वायें । सामान्यस्य भेदको विशेषनिर्देशः प्रकारः । गच्छत्तीति सामान्यम् । तस्य विशेषनिर्देशः रथेन अश्वेन पादाभ्यामित्यादिः । पुरुष इति सामान्यम् | तस्य विशेषनिर्देशः लुद्धिमान् दक्षः शूर इत्यादि । वर्तते इति सामान्यम् । तस्य विशेषा अध्यापनादयः । सर्वेण प्रकारेण सर्वथा। यथा । तथा । अचादेरिति किम् ! द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां गच्छति । अयं प्रकारमाने भवति । जातीयः पुनः प्रकारवति । यजातीयः । तज्जातीया ।
किमिदंभ्या यम् ॥४|१६०॥ किम् इदम् इत्येताभ्यां प्रकारे वर्तमानाभ्यां धमित्ययं त्यो भवति । या इत्यस्याऽपवादः । केन प्रकारेण कथम् । अनेन प्रकारेण इत्यम् । ते विभक्त्यः ॥
४१॥ ते तसादयस्या विभक्तीसंशा वेदितव्याः । विभक्तीकार्य कल्वोदाहरया. नि चानि । "साविषमशब्दस्य उभमादेशो वक्तव्य:" [फा०] 1 उभाम्यामुभयतः उमयोरुम्पत्र । उमाभ्यां प्रकाराभ्यामुभयथा । नेदं वक्तव्यम् । उभशन्दस्य तसादिविषयेऽभिपानं नास्ति । यथा उमयपुत्र इत्येवमादो।
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प्रप० । सू. ११-१८] महावृत्तिसहितम्
दिपध्देभ्यो वाफेन्भ्योऽस्ताहिगदेशयोः २ दशा शब्दभ्यः था की ईप् इत्येवमन्तम्या दिग्देशयोवर्तमानेभ्योऽस्तादित्यवं त्यो भवति स्वार्थ । पूर्ण दिग् रमणीया । पूर्वा दिशो रमणीयाः। पुरस्ताद रमणीयम् । “स्वाति" [11110] इति पूर्वावराघराणां पुरवध प्रादेशाः । प्रस्ताअन्ताः शन्दा अलिक सङ्खथा अनुप्रयोगाणां नपुंसकलिङ्गहेतुर्भवति । पूर्वस्या दिश प्रागत; पूर्वस्माद्देशादागतः, पुरस्तादागतः । पूर्वस्यो दिशि वसति, पूर्वस्सिन्देशे वसति, पुरस्ताद' यसति । एवमवस्ताद्रमणीयम् । श्रवस्तादागतः । श्रयस्ताद वसति । दिक्छन्देभ्य इति किम् ? ऐन्द्री दिग् रमणीया । ऐन्दीशब्द इन्द्रसम्बन्धिनः स्त्रीलिङ्गस्य पस्तनो वाचको न तु दिक्छन्दः । वाकेन्म्य इति किम् १ पूषा दिशं गतः । दिग्देश इति किम् ? पूर्वस्मिन् गुरौ वसति । अत्र दिगाग्रुपलक्षिते गुरौ पूर्वशब्दः प्रयुक्तः ।।
काले ।। 8२।६३ | काले वर्तमानेभ्यो दिप्शन्देभ्यो वाकेजन्ते योऽस्ताद् भवति । निमकीनां दिगादिभिर्ययासक्यं मा भूदित्येवमर्थं पृथक् सूत्रकरणम् । पूर्वकाले रमणीयः । पुरस्ताद् रमणीयः । पुरसादागतः । पुरस्ताद् इसति ।
दक्षिणोत्तराभ्यामतस् ॥४१६ दक्षिणोत्तरशब्दाभ्यां दिग्देशकालेषु वर्तमानाम्यां वाकेचन्ता. भ्यामतम् भवति । अस्तातोऽपवादः । दक्षिणशब्दस्य काले वृत्तिर्न सम्भवति । दक्षिणवो रमणीयम् । दक्षिणत
आगतः। दक्षिणात्तो वसति । उत्तरतो रमणीयम् । उत्तरत आगतः। उत्तरतो वसति । किमर्थमतस्यकार: क्रियते ! स्त्रोलिङ्गेऽपि नास्ति विशेषः । "सर्वनाम्मो वृत्तिमात्रे पुंवभावः” इति पुंवद्भावी भविष्यति । एवं साई हात्तसधैं प्येन' [३।४।३१] इति विशेषणार्थः ।
वापरावराभ्याम् ॥४९९५।। पर-यावरशब्दाभ्यामतस् वा भवति श्रस्तादर्थे । परतो रमणीयम् । परस्ताद्रमणीयम् । परत भागतः । परस्तादागतः। परतो वसति । परस्तावसति । अवरतो रमणीयम् | अवरस्ताद्रमणीयम् । अवरत श्रागतः । अवरस्तादागतः । श्रवरतो क्सति । अवरस्तावसति । अवरशन्दो वावचनं न प्रयोजयति । "पूर्वापराधराण' पुस्वधोऽसि" [ १] "मखाति" [ ] इति च पचनादसस्तावपि भवतः ।
वेरूप ॥४॥शक्षा अञ्च्यन्तेभ्यो दिवछन्देभ्यः परस्यास्तात उभवति । प्राची दिग रमणीया । प्राग्रमणीयम् । प्रागागतः । प्राग्वसति । श्रस्तात उपि 'टुयुप्" [11] इति स्त्रीत्यस्योप । एवं प्रत्यप्र. मणीयम् । प्रत्यगागतः । प्रत्यम्वसति । देशकालयोरप्युदाहरणानि नेयानि ।
अपस्युपरिष्टात्पश्चात् ।।४।१।९७॥ उपरि उपरिष्टात् पश्चात् इत्येते शम्दा निपात्यन्त प्रस्ताद । अर्यशब्दस्य उपभावो रिरस्तातौ च त्यो निपात्यते । ऊर्थ्या दिग रमणीया । उपरि रमणीयम् । उपरिष्टाद्रमणीयम् । उपर्थ्यागतः । उपरिष्टादागतः । उपरि वसति । उपरिष्टाद् वसति । अपरशब्दस्य पश्चमाव पाच त्यः। अपरो देशो रमणीयः । पश्चादमागीयम् । पश्चादागतः । पश्चाद्वसति । केचित्परशब्दस्येदं निपातनमिष्यन्ति । "विक्पूर्वपदस्य चापरस्य पश्चभावो वक्तव्यः" [वा० श्राच्च त्यः । दक्षिणा परा दिगमणीया । दक्षिणपश्चाद्रमणीयम् । उत्तरपश्चाद्रमणीयम् । "अर्घोत्तरपदस्य च विच्छब्दस्य पश्चभावो वन्यः " । दक्षिणापरमर्द्धम् । दक्षिणा पश्चाद्धम् । उत्तरापरमर्द्धम् , उत्तरायचाईम् । “मधे चोत्तरपदे केवळस्यास्य परक भावी वक्तव्यः'' [ वा० ] । अपरमर्द्ध पश्चार्धम् ।
दक्षिणोत्सराऽव(ध)गदात् ॥४:१६८॥ दक्षिण, उत्तर, अवर (अधर) इत्येतेम्य श्रादित्ययं त्यो भवति प्रसादथें । दचिणाद्रमणीयम् । दक्षिणादागतः । दक्षिणाद क्सति । उसराद्रमणीयम् । उत्तरादागतः । उत्तरायसति । अव(ध)राद्रमणीयम् । अध(घ )रादागतः। श्रव(ध )राद् वरुति । दक्षिणोत्तराभ्यामतमपि वचनाद् भवति । अस्तात: पुनरपवादोऽयम । अवर (अधरो शब्दाद् वक्ष्यमाणावमस्तातावपि भवतः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० १ ० १ सू० १३०१००
बैनोऽडूरेऽकायाः || ४|१||९|| दक्षिण, उत्तर, अवर (घर) शब्देभ्यो वा एनो भवति श्रस्तादर्थेऽ दूरे मम्येऽकायाः । कायाः पर्युदासेन वेपौ होते । दक्षिणेन रमणीयम् । दक्षिणेन वसति ग्रामम् । उत्तरेण रमणीयम् । उत्तरेण वखति । श्रवरे (घरे) रमणीयम् । श्रवरेण ( श्रधरेशा) वसति । वाक्चनाद्य यतो विह्नितः स च भवति । श्रदूर इति किम् ! हिमवतो दक्षिणाद् वसति । श्रत्रावरे रखविमादूरे श्रावधिधिमान् दूरे) विवचितः । अकाया इति किम् ? दक्षिसादागतः । दिवमात्रादयमेनो वन्यः " [ वा० ] दक्षिणोत्तरावर (घर) ग्रहणं नानुवर्तनीयमिति केचित् । श्रच्यन्ता दिक्छन्दादनभिधानान्न भवति ।
·
२५८
दक्षिणादा ||४|१|१०० || श्रकामा इति वर्तते । दक्षिणशब्दादा इत्ययं त्यो भवति प्रस्तादर्थे । दक्षिणा रमणीयम् । दक्षिणा वसति । सामान्येन दूरादूरयोरिहोदाहरणम् । उत्तरत्र दूरग्रहणात् । श्राया इत्येव । दक्षिणत श्रागतः |
आहि च दूरे ||४|१|१०१ ॥ श्रकाया इति वर्तते । दक्षिण शब्दादशहित्यो भवति नाना ( चादा ) प्रस्तादर्थे दूरे गम्यमाने । दक्षिणा रमणीयम् । दक्षिणहि वसति । दक्षिणा वसति काखीपुरात् । श्रधया इत्येव । दक्षियात श्रागतः ।
उत्तराश्च ||४|१|१०२॥ श्रकाया इति वर्तते दूर प्रति च । उत्तरशब्दादाहि श्र इत्येतौ त्यौ भवतो प्रस्तादर्थे । श्रा इत्यनुकर्षणार्थश्चकारः । उत्तराहि रमणीयम् । उत्तरा रमणीयम् । उत्तराहि वसति । उत्तरा वसति । श्रनाया इत्येव । उत्तरत श्रागतः । दूर इत्येव । मार्गमुत्तरेण प्रया (पा) ।
पूर्वावराधराणां परवधोऽसि ||४|१|१०३ ॥ श्रकाया इति निवृत्तम् दूर इति च । पूर्व, श्रव घर, इत्येतेषां यथासख्यं पुर व श्रम इत्येते आदेशा भवन्ति श्रस्तादर्थं प्रति परतः । श्रनेनैवासो विधानन् । पुरो रमणीयम् । पुर श्रागतः । पुरो वसति । अवो रमणीयम् । अव श्रागतः । श्रव वसति । श्रघो रमणीयम् । श्रव श्रागतः । श्रधो वसति ।
राति ||४|१|१०४ ॥ श्रस्ताति च परतः पूर्वादीनां पुरादयः श्रादेशा भवन्ति । इदमेव शापकम् । अस्तादपि भवतीति । अन्यथा विशेषविहितेनासा बाधा स्यात् । पुरस्ताद्रमणीयम् । पुरस्तादागतः । पुरस्ताद् वसति । श्रधस्ताद् रमणीयम् । श्रधस्तादागतः । प्रस्तावछति ।
वावरस्य ॥४:१३१०५ ॥ श्रस्ताति परतोऽवरस्यावादेशः । भवस्ताद्रमणीयम् । श्रवस्तादागतः । अवस्ताद् वर्षात ।
सस्याया विधार्थे धा ||४|१| १०६ ॥ यथासम्भवं विभक्तौयोगः । सङ्ख्याशब्देभ्यो विधाऽर्थे भ्या इत्ययं त्यो भत्रति स्वार्थे । श्रर्थग्रहणसामर्थ्याद् विधाशब्द इह प्रकाराची गृह्यते । स च प्रकारः द्रव्यगुणक्रियाविषयः । षड्भिः प्रकारैः षोढा द्रव्यम् । बहुधा गुणाः । पञ्चधा करोति रक्तम् । द्वाभ्यां प्राग्यां द्विधा करोति । त्रिधा । चतुर्घा । "अभिकरण विवाले चेति वक्तव्यम्" [ पा० ] । श्रधिकरणं द्रव्यम् । तस्य विचालः सख्यान्तरापादनम् । एकस्य नानात्वापादनम् । श्रनेकस्य वा एकत्वापादनमित्यर्थः । तस्मिन् गम्यमाने सहख्याया धात्यो वक्तव्यः । एकं राशि पञ्चचा कुरु । सप्तधा नवधा । अनेकमेकधा कुरु । न मन्यः । द्रव्यगुणक्रियाभेदेन चिविधो विधार्थ इत्युक्तम् । तत्र वान्तर्भावात् । "प्रकाशक्ती जातीया: " [१८] इत्यस्यापवादः ।
कावृष्यमुम् ||४|१|१०७॥ एकशब्दाद्यमुञ् भवति | पढ़े घा मति । एकं गर्थि कुछ ऐक कुछ ऐकध्ये मुक्ते 1 एकधा मुक्ते ।
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● प० १ सू० १०० ११४]
महावृत्तिसहितम्
२५९
|४|१|१०८ || वेति वर्तते । द्वित्रिभ्यां वा मुम् भवति विधार्थं । द्वेषं द्विषा । त्रिघा । "तात् स्वार्थे हो वक्तव्य:" [वा०] । मतिद्वैधानि । पर्थिद्वैधानि ।
पधा ॥ ४ १९०६ ॥ द्वित्रिभ्यामेधा भवति विधार्थी । योगविभागः ।
द्वेषा । त्रेधा । यथासंख्यनिवृत्यर्थी
शः ||४|१|११०|| याप्य इह कुत्सितोऽभिप्रेतः । याप्यन्ते प्रपनीयन्ते ऽस्माद् गुणा इति थाप्यः । बहुलवचनादवादाने व्यसंज्ञः । याप्येऽर्थे वर्तमानान्मृदः पाश इत्ययं त्यो मषति स्वार्थे । वैयाकरण बाप्यः, वैयाकरणपाशः । यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दविनिवेशः, तत्कुत्सने भवति । इह मा भूत् । चौये (रो) वैयाकरणाः । इह याप्या कुमारी, कुमारपाशा । "वसाद" [४।३।१४७ ] इति धुंवद्भावः । “श्चयस्यनन्त्ये” [२/१/२४] इत्यस्य दाविधेः कृतत्वात्पाशान्ताट्टा भवति । उक्तं च
"स्वार्थमभिधाय दाsदो निश्पेक्षो ष्यमा समवेतम् ।
समवेतस्य तु वचने लिङ्ग यों विभक्ताश्व ।। अभिधाय तान्विशेषानपेक्षमाणस्तु कृरस्नमात्मानम् ।
प्रिय कुल्सनादिषु पुनः प्रवर्ततेऽसौ विभक्स्यम्स " ।। [४:३।७४ प्रा० भा०]
इत्यर्य त्यो
श्रमः ।
ष्ठाद्भागे यः ||४|१|१११ ॥ - श्रष्टमशब्दाभ्यां मागे वर्तमानाभ्यां भवति स्वार्थे । षष्ठो भागः, षाष्ठः । श्राष्टमः । विकल्पाधिकारादनुत्पत्तिरपि भवति । षष्ठः भाग इति किम षष्ठः पुरुषः ।
मानपश्यङ्गयोः कोपो ||४|१|११२ || भाग इति वर्तते । षष्ठाष्टमशब्दाभ्यो मानपश्वङ्गयोभगविशेषाभिधेययोः क उप इत्येतौ भवतः । पूर्वेण विद्दिवस्य अस्य उप् द्रष्टव्यः । षष्ठशब्दान्माने भागविशेषे को मवति । श्रष्टमशब्दात्पश्वन भागविशेषे अस्य उन्भवति । षष्ठको भागो मानं चेत्तद् भवति । ब्रहमो भागः पश्वङ्गं चेत्तद् भवति । विहितस्य यस्यविधानसामर्थ्याद् वा षोऽपि भर्वात । षाष्ठः । षष्ठः ।
श्रष्टमः । श्रष्टमः ।
एकाकिसाये ॥ १|१|११३ || एक शब्दादसहायवाचिन श्राकिमित्ययं त्यो मर्वात कोप 'च स्त्रार्थे | कस्योप् ? काकिनोः । एकाकी । एककः । एकः । श्रसहाय इति किम् १ यदैकशब्दः सख्यायामन्यार्थे वा वर्धते तदा मा भूत् । अत एवं बिहू अपि भवतः । एकाकिनरे । एकाकिनः । सख्यावाचिते (वे ) एकवचनमेव स्यात् । अन्यार्थत्वे बहुवचनमेष स्यात् ।
रामेष्ठावतिशायने ||४|१|११४॥ प्रतिश्यायनं प्रकर्षः । "अभ्यस्यापि " [ ४/२/२३२] इवि दीवम् । इदं च प्रकृत्यर्थविशेषणं सर्वेषां स्वार्थिकानां द्योत्यम् । श्रविशाय नविशिष्टेऽर्थं वर्तमानान्मृदः स्वार्थे तम इत्येतो त्यो भवतः श्रविशायने योत्ये । वान्ताच्योत्पत्तिः । समें हमे आद्याः श्रयमेषामाद्यरामः । सुकुमारतमः । सर्व हमे पटषः, श्रयमेषा पद्धतमः । कथं गोतमः । कारकतमः छवि अप क्रियागुणङ्कारेण प्रकर्षापकर्ष योगोऽस्ति । "शेषौ गुणवचनादेव" [8/11394 ] इति नियमो वक्ष्यते । सर्व इमे पटवः, श्रयमेषा परिष्टः । यदा प्रकर्षचतां पुनः प्रकर्षविवक्षा, तदा प्रातिशायिकान्तादपरः श्राविशायिकः । श्रेष्ठतमः । श्रदूरविप्रर्षिणां समानकवायां स्पर्द्धा । तेनेड् न भवति । सर्षपाणां महतामतिशायने महान् हिमवान् इति ।
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२६०
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ४ पा० १ सू० १११-१२
मिङः || ४|१|११५ ॥ यद्यपि मिळते साधनप्रधाने अभिधानरूपेण गुणीभूता क्रिया, तथापि तस्याः साध्यमानत्खात्प्राधान्यम् । तदपेक्षायां साधनप्रकर्षेऽयं विधिर्वेदितव्यः । मिहन्तादतिशायने तम इत्ययं त्यो भवति । स्याम्मृदधिकारात् पून सर्व पचन्ति श्रथमेषा पचतितमाम् । 1 पठतितमाम् । किमेन्सिकिमादामदृष्ये [४|२| २० ] इत्याम् । इष्टी "गुणवचनादेव" [४|१|११८ ] इति नियमादि न सम्भवति ।
C
द्विविभज्येतरे ||४ ११११६ ॥ द्वौ व विभज्यं च द्विविभज्यम् । द्विग्रहणमर्थनिर्देशपरम् | विभक्कन्यं विभज्यं पृथक् कर्तव्यमित्यर्थः । इदमेव निपातनं यरिधेः । द्वय विमज्ये च प्रयुक्ते सति इत्याभ्वो मिङश्च श्रतिशायने द्योत्ये तर इयसु इत्येतौ त्यौ भवतः । तमेष्ठयोरपवादः । यथासख्यमस्वरितत्वादिस यते । उभाविमावादयौ, यमनयोगकातरः | फारकतः । द्वाविमौ पचतः । श्रयमनयोः पचतितराम् । सुर्गुणवचनादेव । द्वाविमौ पटू, अयमनयोः पटरीयान् । सूत्रे द्विशब्देन यद्यर्थप्रदं द्वयोरर्थयोरेकतरस्थातिशायने इति तदा सिद्धमिदम् । श्रस्मा देवदत्तस्य च देवदत्तोऽभिरूपतर इति द्व्थर्थवादस्य । इदं न सिद्धयति । दन्तोष्ठस्य दन्ताः स्निग्वतराः । पाणिपादस्य पाणी सुकुमारतराविति । श्रत्रापि चात्यपेक्ष धाद्वित्वोपपत्तेः । विभज्ये । सांकाश्यका माधुरेभ्य श्रादयतरी । पटीयांसः । श्रत्र बात्यभावाद्दयता नास्ति । तथापि नाती शब्दोपाता । श्रत एव हन्त [दाहरणम् ।
तादी ः ||११|११७॥ श्रतिशायने चत्वारत्या विहितास्तेषु तकारादी भसंज्ञौ भवतः । कुमारितरा । कुमारितमा | "रूपकपचे अधगोत्रमते प्रोऽनेकाच: " [४/३/१५५] इति पूर्वस्य प्रादेशः । झान्तादतष्ठाप् ।
शेष गुणवचनादेव ||४|१|११८|| तादी मुतवा हृष्ठेय शेषो । शैषां गुणवचनादेव भवतो नान्य स्मादिति नियमो ऽयम् | सर्व इमे परः श्रथमेषां पतिः । द्वापि श्रयमनयोः पटीयान् । श्रयमस्मात्पटीयान् । शेषमणं प्रकृततादिनिवृत्यर्थम् । गुणवचनादिति किम् । गोतमः । एवकार इष्टतोऽवधारणार्थः । मैवं विज्ञायि, शेषावेष गुणवचनादिति । एवं द्विपटुतम इति न स्यात् ।
प्रशस्यस्य श्रः || ४|१|११९ || शेषाग्रहणं प्रकृतम् । तदर्थवशादीपा विपरिणम्यते । प्रशस्यशब्दस्य श्र इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः । प्रशंसनीयः प्रशस्यः । "शमिदुहि गुद्दिभ्यो देति वक्तव्यम् " [२] वा०] इत्युपसङ्ख्यानात्क्यप् । इदमेव ज्ञापकम् । ६ शेष गुणवचनादेवेति नियमो न प्रक्र्तते । सर्वं इमे प्रशस्याः । अयमेषां श्रेष्ठः । द्वाविमो प्रशस्यौ श्रयमनयो श्रेयान् । "नैका:" [४|४|१५४] इति शेत्रे टिखं न । तरसमौ भवत एव । प्रशस्यतमः । प्रशस्यतरः |
यः || ४|११ १२० || प्रशस्यशब्दस्य व्य इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः । सर्व इमे प्रचस्याः, अयमेषां येष्ठः । द्वाविमौ प्रशस्यो, श्रयमनयोर्ज्यायान् । श्रयमस्मात् ज्यायान् । " ज्यावेबल: " [ ७|१|१११] इति परस्यादेशकारः यथासङ्ख्यनिवृत्यर्थं योगान्तरम्
वृद्धस्प ||४|१|१२९ ॥ वृद्धशब्दस्य व ज्य इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः । सर्व दमे वृद्धाः श्रयमेषां येष्ठः । द्वाविमौ वृद्धी अयमनयोर्ज्यायान् । अयमस्मात् ज्यायान् । श्रादेशार्थं वचनम् । तत्तमौ सिद्धावेव । वृद्धवरः । वृद्धतमः | "बहुधगुरूरुदृखादि [ ४|४|१४१] सूत्रेण वृद्धशब्दस्य वर्षादेशोऽपि भवति । वर्षिष्ठः । चर्षीयान् ।
वाढान्तिकयोः साधनेदौ ||४|१|१२२|| घाटान्तिकशब्दयोः यथासङ्ख्यं साध नेद इत्येतावादेशौ भक्तः शेषयोः परतः । निभिचतो यथासङ्ख्यं नेष्यते, भिन्नयोगनिर्दिष्टत्वात् । सर्व इमे वाढं पन्ति श्रयमेष
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अ० ४ पॉ० १ सू० १११-१२० ]
महावृत्तिसहितम्
२६१
साधिष्ट' जल्पति । श्रयमनयोः साधीयो जल्पति । यदि वाढशब्द द्रव्यवचनः साधीयानिति । सर्वाणी मानि न्तिकानि इदमेषां नेदिष्ठम् । इदमेनयोर्भेदीयः । इदमस्मान्नेदीयः । दस्तमौ भवत एव । वाढतरम् । यादवमम् 1
9
युवापयोः कम्वा ||४|११ १२३ || युव श्रय इत्येतयोः कखित्ययमादेशो भवति वा शेषयोः परतः । शेषयो विधानं पूर्ववदव्याख्येयम् । सर्व हमे युवानः श्रयमेषां कनिष्ठः । कनीयान् । यदा युवशब्दस्य कनादेशो न भवति तदा " स्थूळ दूरेत्यादिना [४|४|१४७ ] ययाः खमिक एप । यविष्ठः । यवीयान् । सर्व इमेलम यमेषां कनिष्ठः । कनीयान् । श्रपिष्ठः । अल्वीयान् । तरतमो भवत एव ।
و
विम्मतो
||४|१|१२४॥ विन् मतु इत्येतयोरभवति शेषयोः परतः । इदमेव शापकम् । शेषयोविधानस्य यथासङ्ख्यमंत्र] नेष्यते । सर्व इमे त्रग्विणः, अयमेषां सनिष्ठः । खजीयान् । एवं इमे लग्बन्तः, श्रयमेषां त्वचि त्वचीयान् ।
प्रशंसायां रूपः ||४|१|१२५॥ मृद इति वर्तते मिङ इति च । प्रशंसायां वर्तमानायाम्दो मिश्र रूप इत्ययं त्यो भवति प्रशंसायां द्योत्यायाम् । स्वार्थिकानां प्रकृत्यर्थविशेषयां द्योत्यं भवति । वाच्यं पुनस्तत्प्रकृतैरेव । वैयाकरणः प्रशस्तः, वैयाकरणरूपः | पटुरूपः । प्रशस्ता कुमारी कुमारिल्पा | "तो" [४/२०१४७ ] इति पुंवद्भावे प्राप्ते "झरूपेत्यादिना [४|१|१५५ ] प्रादेश: । वयोलक्षएडीविधेः कृतत्वा ब्रूपान्ताट्टाप् । कथं निन्दायां प्रयोगः १ वृषलरूपोऽयं यो मविन मुर्रा पिवेत् । चौररूपोऽयं योऽदिस्थमञ्चनमपि इत् । श्रत्रापि प्रकृत्यर्थस्य वैस्पष्ट्यम् । प्रशंसायां मिङः खल्वधि । पचति रूपम् । पचतो रूपम् । पचन्ति रूपम् । लोकाश्रयमिद नपुंसकलिङ्गम् । क्रियाप्रधानमाख्यातम् । एकाच क्रियेति रूपान्तादेकवचनमेव भवति ।
श्रसिद्धी देश्यदेशीयकल्पाः ||४|१|१२६ || सिद्धिः परिपूर्णता, न सिद्धि सिद्धि । ईषदसि रासिद्धिः । वद्विशिष्टेऽर्थे वर्तमानान्ङ्याम्मुदो मिहन्ताच्या देश्य देशीय कल्प इत्येते त्या भवन्ति स्वायें । ईषदसिद्धः पट्टः, पट्टदेश्यः । पटुदेशीयः । पटुकल्पः । स्त्रिया पटू विदेश्या तादिष्वपरिगणनात् पुंवद्भावो नास्ति । पटुदेशीया । "पुंवथशातीय " [ ४१३ १२४] इति पुंवद्भावः । पटू विकल्पा कल्पस्य तस्यावसादित्वात् "ससौ " [ ४।३।१४७ ] इति पुंवद्भावे प्राप्ते "रूप" [४/३/१५५] इत्यादिनेकारान्तस्य प्रः । “आलू स्त्रियाभू” |४|११२२] इत्यत्र वक्ष्यते । अतिवर्तते च स्वार्थिकाः प्रकृति लिङ्गसङ्ख्ये इति । तेन गुडकरूपा द्वादा। तैलकल्पा मसला । पयस्करूपा यवागूः । मिङः । ईषदसिद्धं पञ्चति पचतिदेशीयम् । पचतिकल्पम् । पचतः कल्पम् । पचन्तिकल्यम् ।
वा सुपो बहुः प्राक् ||४|१|१२७ ॥ श्रसिद्धाविति वर्तते । ईषद सिद्धि विशिष्टेऽर्थे वर्तमानान्मृदः सुन्ताद्बहुत्यो वा भवति । स तु प्राग्भवति । विभाषया त्योत्पत्तिर्यथा स्यात् प्राग्भावस्तु नित्या । इत्यस्य व्यतिरेकस्य दर्शनार्थस्तु शब्दः । ईषदसिद्धं कृतं बहुकृतम् । ये कृते मृत्संज्ञायां पुनः सुप् । "दृष्टाः " [11] इत्ययं नियमस्तुल्यजातीयस्य सुबन्तसमुदावस्यान्यत्यान्तस्य च मृत्संज्ञां निवर्तयति । तेन बहुकृतशब्दात्सुबुत्पतिः । एवं बहुपट्टः | बहुगुडः । यदा द्राक्षाविशेषणं भवति तदा टाप् । बहुगुडा द्राक्षा । वाग्रहणं देश्यादिसमावेशार्थम् । अन्यथा मिङन्ते सावकाशान् देश्यादीनयं बाधेत सुप इति किमर्थ याक्ता "प्रियकुत्सनादिषु पुनः प्रवर्ततेऽसौ विभवस्थत" इत्युक्त पुनः सुग्रहणं मिळूनि वृत्यर्यम् | परत्वाद्देश्मादिषु कृतेषु तमादयः । पटुदेश्यतमः । बहुपटु तमः । ईषदसिद्धेः प्रकर्षो नास्तीति प्रकृत्यर्थं प्रकर्षे तमादयः ।
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२६२
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
. पा.
पू. RE-१५
प्रकारोती जातीयः शशा प्रकारोको मुजन्ताजातीय प्रत्ययं त्यो भवति स्वा। पटुप्रभारः पटुजातीय: । पण्डितजातीयः । यजातीयः । तज्ञातीयः । प्रकारपति चायं वेदितव्यः । प्रकारमात्रे थापमो । तेन तदन्तादपि । यथाजातीयः । कथंजातीयः । एवमर्थ वेहोक्तिग्रहणम् |
पषात्कः ॥१११६९॥ "इचे प्रतिकृती का" [ १०] इति वक्ष्यति । मा पतस्मादिव संशब्दनात् यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिभ्यामः, तत्र क इत्ययमधिकृतो येदितव्यः । श्राब्दि मर्याटावचनः। वक्ष्यति "कुस्साऽज्ञातयोः" [ ११३१] । कुरिस्तोऽश्वोऽश्यक : 1 गर्दभकः 1 सुप हायनुवर्तनानिमहन्तालो ने ष्यते ।
झिसर्वनाम्नोऽप्राक्टे' को वा ॥॥॥१३०॥ मिङ इति च वर्तते । मेः पर्वनाम्नम अगित्ययं त्यः टेः प्राग्मति ककारस्य च दकारः एवादर्थेषु । कस्यापवादः | मृदः सुप इति च वर्तते । तनाभिधानवशाद् व्यवस्था मिसंज्ञाके नास्ति विशेषः । उच्चकैः। नीचकैः । यदि कारोऽस्ति तस्य दकारः। हिक , हिरकुत् । पृथक् पृथकात् । सर्वनाम्नो मूदवस्थायामा । सर्वके । विश्वके | उभको । उभयके । युष्मकाभिः । अलकाभिः । युष्मकासु । श्रमकासु । युवकयोः। श्रावकयो! ह सुबन्तादेव । त्वयका । त्वयकि । मयकि । सुप इत्यादिसम्बन्धादेव 'सुपो क्षुदो।" [ १४२ प्रत्युम्नेष्यते । मिहः खल्वपि । पचकवि । पठतकि । "तन्मध्यपतिवारसग्रहणेम गृहन्से" इति मिडन्तमेवैतत् । “अप्रकारचे सूचीमः काम् वक्तव्यः" बा०] मकार: "परोऽचो मिडू" [111५५) विशेषणार्थः । तूष्णीकामास्ते , "शीले को मर्स " [पा०] तूष्य शीरस्तुष्पीकः।
कुस्लामतियोः ॥४।१।१३१।। कुत्साशातत्वोपाधिकेऽर्थे वर्तमानान्मृदः स्वार्थ पयाविहितं त्यो मवति । कुत्सितोऽश्वः कस्यायमश्व इति वावकः | उष्ट्र कः । उच्चकैः । सर्वके । पचतक। इह कुत्सिवक इत्यशातार्थे । अशातक इति कुत्सिोऽर्थे कः ! अतः कविधेस्तमादयो भवन्ति । पूर्वनिर्णयेन, पश्चात्कादिविधिः । पटुतरकः । म तरकः । पचतितरकाम् । छिन्नकादिषु के कृते तमादयः । छिन्नकतरः । भिन्नकासरः ।
अनुकम्पायाम ||४|११३२॥ सौहदेन कारुण्येन वा परस्यानु यहोऽनुकम्पा तत्र वर्तमानान्मृदः सुबन्तान्मिान यथाविहितं त्यो भवति । अनुकम्पितो माणवो माणवकः । बुभुक्षितक । नोचकैः । याचतके ।
नीती व साक्षात् ॥४॥१३३॥ अमुकम्पाविषयायां नीची गम्यमानार्या लघुकादनुकम्पायुक्तायथाविहितं त्यो भवति । चकारोऽनुकम्पाऽनुकर्षणार्थः। तेन सामोपप्रदानलक्षण नीतिरिह गृह्यते, म भेदः दण्डलक्षणा । पूर्वसूत्रेणानुकम्प्यमानवाचिनत्यो विहितोऽनेन पुनस्तद्युक्तादधीयते । पुत्र सासंगक। उपविश कर्दमकेनासि दिग्धकः | इन्त ते तिलकाः । इन्त ते गुढकाः । एहकि । अद्धकि । उपविश, अहि, ते, इन्स इत्येवमादिषु अनभिधानान्न भवति ।
बङ्घचो नखोर्या ठः ॥ १।१३४!| अनुकम्पायर्या नीती च ताक्लादिति सर्वमनुषतते । महदो मृदो ननामधेयाद् वा ठ इत्ययं त्यो भवति । अनुकम्पाय"नोती च साश्तात्' [11] इति नित्ये के प्राप्ते वा ठः । अनुकम्पितो देवदत्तो देविकः । देवदत्तकः । जिनिक । जिनदत्तकः । 'वाचि द्वितीयास्परोऽनः" [शा१५६ इति दत्तशब्दस्थ ख ठत्येकादेशश्च । बहुच इति किम् ? रामकः । दचकः । नृप्रण किम् ? देवदत्तका इस्ती । खुग्रहणं किम् । माणवकः ।
घेलो ॥४१॥९३५। अनुकम्पायां नीतौ च तयुक्तादिति वर्तते । बाचो नृखोर्ष इस इत्येतो त्यौ भवतः । अनुम्पिको देवदसा देविया, देवितः । पूर्वेण वा वाऽपि भवति देविका, देवदक्षकः ।
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[अ०] [छ पा० १ सू० १३६ - १४० ]
महावृतिसहितम्
२६३
अडबू बोपादेः ||४|१|१३६॥ अनुकम्पायां नीतौ च तद्युक्तादिति वर्तते । उपशब्दादेदो बच नृत्रोः श्रड वु इत्येतौ त्यो भक्तो बेलौ च वा । अनुकम्पितो उपेन् दत्तः पटः, उपकः, उपिय, उपिलः, उपिकः, उपेन्द्र दत्तकः । यादिर्बुशब्दो यकारस्य खं कृत्वा निर्दिष्ट । तेन बोरकादेशः सिद्धः ।
जातिनाम्नः कः ||४|१|१३७|| जातेनम जातिनाम कातिशब्द इत्यर्थः । चोऽवचश्च सायान्येनायं विधिः । जातिशब्दान्नुखः अनुकम्पायां नीतौ च गम्यमानायां क इत्ययं त्यो भवति । अनुकम्पि तो महिषो महिषकः । वराहकः । शरभकः । व्यायकः । सिंइकः । इद केचिद्वाग्रहणमनुवर्त्यव्यामितः, सिंहिलः इत्युदाहरन्ति तत्तु नातिश्लिष्टम् अस्य यत्रस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । तस्माद् घादीनां वाचैव युक्ता ।
1
वाजिनस्य ||४|१|१३८ || खोरिति वर्तते । श्रभिनशब्दान्तान्मृदो नखोः श्रनुकम्पायां नीतौ च गम्यमानायां क इत्यमं त्यो भवति तस्य च द्योः खं भवति । अनुकम्पितस्तुलाजिनस्तुलकः । व्यानकः । मृगः । मद्दणं किमर्थम् ? अजिनशब्दान्तस्य योः खं यथा स्यात् । अनुकम्पितो व्याघ्रमष्ट बिनो व्याघ्रकः ।
ठाचि द्वितीयापरोऽसः ||४|१ | १३६ ॥ खमिति वर्तते । प्रकृते ठेऽनादौ च परतः । प्रकृतेद्वितीयादचः परशब्दो नाश्यते । परग्रहणं सर्वनाशार्थम् । अनुकम्पितो देवदतो देविकः देवियः देविलः | अनुकम्पित उपेन्द्रदत्त उपडः, उपकः । श्रभावातित्वादेव सिद्धे पृथक् दग्रहणं किमर्थम् । खे कृते इकादेशो यथा स्यादित्येवमर्थः । श्रन्यथा अनुकम्पितो मानुदत्तः भानुकः । वित्तृकः इत्येवम दि न सिद्धयेव । इकस्य स्थानिवद्भावामध्येन ग्रहयत्का देशा भविष्यतीति चेन्न; "सनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं वािस्य" अजादिसन्निपातकृत मुगन्तत्त्वम् | "चतुर्यादचः परस्य खं वक्तव्यम्" [ वा० ] वृहस्पतिदत्तः । बृहस्पतियः । वृहस्पविलः | बृहस्पतिकः | अनादी द्वितीयादचः परस्य वा खं वक्तव्यम् [षा ] देवदत्तकः । देवकः । जिनदत्तकः । जिनकः । पूर्वपदस्य च जादौ ममादौ च ख वक्तव्यम् " [वा०] दत्तिक । दत्तियः । दत्तिलः । दत्तकः । “विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं घक्तव्यम्” [बा०] । सत्यभामा | भामा । सत्या वा । विष्णुगुप्तः । गुप्तः । विष्णुर्थी । "वर्णादिलस्य च खं वक्तव्यम्" [वा०] । परस्यादेरितीकारस्य । भानुदत्तः मानुलः । वसुलः । उक्तञ्च
चतुर्यावृनजादौ च नाशः पूर्वपदस्य च । अनिमित े तथैवेध:
वनितादिकस्य च ॥"
द्वितीयात्परत्व स्त्रे कृते इयेलयो
!
गत दिये कयोः खं वक्तव्यम्" [ बा० ] । प्रकृते ठाचि परस्यादेः स्त्रे कृते भल्लादोकारो में दीत्वं रीड्भावः इत्येते विषयो न भवन्ति । भानुयः । मातृयः । मातुलः | "एचो द्वितीयावे तदादेः खं वक्तव्यम्” [ चा ] | लाउः । लहिः | कोड: । कहिकः | कपोत्तम । कपिकः । कपिलः । श्रमो जिहुः | अमिक | श्रमिलः । " एकाक्षरपूर्वपदाम थो वक्तव्यमषपः " [ वा ] अनुकम्पितो वागाशी ( दन्तः ) वाचिकः । चिकः । श्रुचिः । पूर्वस्य पदकार्थनिवृत्त्यर्थमेतत् । श्रष इति किम् । षडङ्गुलिः षडिकः ।
शेवल पर विशालक कार्यमादेस्तृतीयात् ||४|१|१४० ।। शेवल सुपरि विशाल वरुया अर्यमन् इत्येवमादेन खोर्मृदस्तृतीयादचः परो नाश्यते ठानि परतः । द्वितीयादचः परस्य से प्राप्ते वचनम् । अनुकम्पितः शेवदत्तः शेवलिकः । शेर्पालयः । शेषलिलः । सुपरिक | सुपरियः । सुपरितः । विशालिक । विशालियः । विशालिल । वर्षाणिकः । बरुखियः । वलिः । श्रर्यमिकः । श्रमियः । श्रर्यमिलः । 'कृतवन्धौनी शेवलादीनामिति वक्तव्यम्" [षा०] । शेवलेन्द्रदत्तः शेवलि | सुपयशोदतः सुपरिकः । शेवलयिकः सुपकि इति च माभूत् । नेदं वक्तव्यम् । अकृतवद्व्यूहेन सिद्धम् । श्रकृतवद्व्यूह नाम अन्तरपरिमाषाया श्रव्यापारः ।
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२६४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[भ० ४ पा० । सू.
1-10
अल्थे ॥४॥२॥१४१|| समन्ततो हीनं महत्प्रतिपक्ष भूतमल्पम् । श्रम्पत्वविशिष्टेथे वर्तमानाद् क्याधिहितं त्यो भवति । सुप इति वर्तते । याम्भूदो कि । सर्वनाम्नो मिक इति च । अल्पमन्नमलकम् । घृतकम् । उच्चकैः । सर्वके । पचतकि । द्रव्यद्वारेण क्रियाया अल्पत्यमाचे ।
हस्खे ॥११४२|| श्रआयामतो होनं दीर्घप्रतिपक्षभूतम् (हस्वम) । हस्वत्वविशिष्टेऽर्षे वतमानाद् यथाविहितं त्यो भवति । ह्रस्व पटः पटकः। तृतका । उन्चकैः । सर्वके । पचतकि।
फुटीशमीशुण्डाभ्यो र ॥४।१।१४३॥ हस्व इति वर्तते । कुरी शमी शुएटा इत्येतेभ्यो र इत्यय त्यो भवति । कस्यापवादः । ह्रस्वा कुटी कुदौरः । शमीरः । शुण्डारा | लोकाश्यत्वाल्लिनस्पति पुँजिकता।
कुत्या दुपः ॥४१२१४४|| कुतः श्रावपनम् । कुत्शन्दाड्डुप इत्ययं त्यो भवति । कस्यापवादः । हस्वा कुतः कृतपः लेभाजनविशेषश्चर्ममयः ।
कासूगोणीम्यां सरट् ॥४१॥१४५|| कासूः शक्तिः श्रायुधविशेष इत्यर्थः । गोणीत्यापनमुच्यते । कासूगोणीशन्दाभ्यां तरट् भवति । कस्यापवादः । हत्या कासूः कास्तरी । ह्रस्वा गोणी गोणीतरी।
वत्सोमावर्षभेभ्यस्तनुत्ये ॥४।१९४६|| ह्रस्व इति निवृत्तं विशेषणान्तरोपादानात् । वत्स, उक्षन् , अश्व, ऋषभ इत्येते यस्तनुत्वोपाधिकऽर्थे वर्चमाने 'यस्तर भवति स्वार्थे । यस्य गुणस्य भावाद् द्रव्ये शब्दविनिवेशस्तस्य तनुम्बे तरट् । तनुर्वत्सो यत्सतरः । उक्षतरः । अश्वतरः । ऋषभतरः । वत्सस्य तनुत्वं यौवनप्रातिः। यौवन उपचीयमाने वत्सत्यं तनुर्भवति । उक्षा तरुण उच्यते तस्य तनुत्वं तस्मात्परस्य वयसः प्राप्तिः। अश्वेगाश्वायामुल्पनोऽश्वः । तस्य तनुवं विजातीयादुत्पत्तिः । ऋषभो भारवहस्तस्य तनुत्वमसमर्थवा।
कियत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डप्तरः |१|१४७॥ किं यत् तद् इत्येतेभ्यो द्वयोरेकस्य निर्धारणे गम्यमाने इतर इत्ययं त्यो मति | सामाग्निर्धार्यमाणवाचिभ्यः किमाविम्यस्त्यः । समुदायाजातिगुणकियासंशामिरेकदेशस्य पृथकरणं निर्धारण न् । को भववाः कठः । कतरो भक्तो पटुः । कतरो भवतो. कारकः । कतरो भवतोदेवदत्तः । एवं यतरः । ततरः । महाबिकल्पाधिकारावाक्यमपि साधु । निर्धारणे इति किम् । यो. मामयोः का स्वामी। दूयोरेकस्य स्वामित्वे मा भूत् । द्वयोरिति किम. १ यस्मिन् कुले यः प्रधानं च (B) श्रागच्छत् । एकस्येति किम् १ एकाहणेप्रक्रियमाणे बहुषु एकत्र वा द्वयोर्निपारणं सम्भाव्येत । तेनेहापि प्रस. ज्येत । को भवतां काञ्चीपुरको । को एतस्मिन् ग्रामे देवदत्तगुरुदसाविति ।
वा बहना आतिप्रश्ने तमः ॥ ४८॥ एकस्य निर्धारण इति वर्तते । बातिश्च प्रश्नच भातिप्रश्नम् | बहूनामेकस्य निर्धारणे गम्यमाने किमादिभ्यो वा इतम इत्ययं त्यो भवति जातिप्रश्न विषये । किमो जातिविषये प्रश्नविषये च त्यः । इतरेभ्यो जातिविषये । वाषचनमुत्सर्गस्याकः प्रापणार्थम् । को भवतां कठः । मतमो भवतो कठः । अकि साफः किमः कादेशे को भवतां कठः । वतमो भवतो कठः । यको भक्तां कठः। कतमो भवतो कठः । अत्र वृष्यन्तरे पाठ: । वा बहूनां परिप्रश्न इति । तेन को भवतां वैयाकरणस्तार्किको नयायिको वा । कतम इति भवति । बहूनामिति किम् १ दूयोरेकस्य निर्धारणे पातिप्रश्ने पूर्वेण इतर एवं भवति । कतरो भक्तोः कर इति । जातिप्रश्न इति किम् १ को भवतां देवदत्तः । किमोऽसिन् विषये इतरमपीच्छन्ति केचित् । कतरो भवतो कठः । तमो भवतां कलाप इति ।
एकाच ॥१४९।। एकशब्दाडुतरहतमौ ययोपाधिविशिरी भक्तः । चारो उतराना पार्थः ।
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प्र. ४ पा० . सू. १५०-११३]
महावृधिसहितम
२६५
भातिप्रश्न इति नानुवर्तते । सामान्येन विधानम् । एकतरो भवतोदेवदत्तः । एकतमो भवतां देवासः किमान दिव्धेकमहणं कर्तव्यमिति केचित् । न जातिप्रश्न एव इतमः स्यात् । वासर्गस्याको निवृष्यर्थ न बोगविभागः | महाविकपोऽनुवर्तत एव।
इथे प्रतिकृतौ कः ।।१।१५०।। इवार्थः साइश्यम् । प्रतिकृतिः प्रतिविम्बम् । विषयवारेण हमार्यविशेषयामेतत् । प्रतिकृतिविषये य इवार्थस्तस्मिन् वर्तमानान्मृदः को भवति स्वार्थे । अश्व हवायम् प्रश्वकः । अश्वप्रतिकृतिरित्यर्थः। एवम् अट्रकः । गर्दभः । प्रतिकताविति किम् ? गौरिष गव्यः । अश्व इकायं धीमो गौः ।
खौ ॥४॥२१५१॥ इवार्थमात्रे गम्यमाने मृदः को भवति खुविषये । अपतिकृत्योऽयमारम्भः 1 अश्व दृवायमश्वकः । उष्ट्रकः । गर्दभः। संशाशब्दा एते। संशाशब्देषु च वियों न गम्यते । केरल वस्तधर्मेस सादृश्येनान्वाख्यानं क्रियते, तेनेदमपि सिद्धम् । नंशकः । शुभ । नरकः । हुस्खयोपाधिका एसा संशः । कथं शूद्रक । रावकः । पूर्वकः' । एवा मपि कुत्सितत्योपारिकाः मंशाः।
उस्मनुष्ये उपमेये ॥४।१।१५२॥ मनुष्य उपमेयत्वेनाभिधेये खो वाऽखो च विहितस्य कस्योस भवति । कुक्कुट इव कुक्कुटो मनुष्यः । चञ्चेव चश्चा। वर्द्धिका । खरकुटी । दासी । "युक्तबबुनि लिगसंख्ये" [ 1] इति युक्तवद्रावः। मनुष्य इति किम १ प्रश्वकः पाषाणः । देवपथादेराकृतिगणस्यायं प्रपञ्चः |
जीविकार्थेऽपराये ॥४।१।१५।। विक्रीयते यत्तत्पण्यम् । न पायमपण्यम् । बीपिकार्थे पदपण्यं वस्मिन्नुपमेयत्वेनाभिधेये कस्यास्भवति । वासुदेव इवाय देवलकानां वासुदेवः । वे प्रतिकतो" [ १०] इत्यनेनागतस्य कस्योस् । शिवः । स्कन्दः । विशाख । बीविकादेव प्रठिकतय एवमुच्यन्ते । बीविकार्थ इति किम् ? कौहाथें इस्तीव इस्तिकः । श्रपण्य इति किम् ! यक्ष विक्रीगीते। हस्तिकं विक्रीसीते । एषोऽपि देवपथादेः प्रपञ्चः।
देवपादिभ्यः ॥४१६१५४॥ "इवे प्रतिकृतो'' [४१५.] "खौ'' [ 1] इति चागतस्य कस्योस् भवति देवपादिभ्यः परस्य । देवपथ इव देवपयः । सपथः । वारिपथः । अपापयः । राणपयः । शवपथः । सिद्धगतिः । उष्ट्र गीयः । वाम । रन्जु । हस्त । इन्द्र । दण्ड | पुष्प । मत्स्य । प्राकृतिमणोऽयम् । "आर्चासु पूजनार्याप्नु चित्रकर्मध्वजेषु च । इथे प्रतिकृती नाम: क्यो देवपावि।" अर्चास-बहन् । शिवः | स्कन्दः । विभाः। चित्रकर्मणि-दुर्योधनः । भीमसेनः। अर्जुनः। ध्वजेषु च-- ताल इयाय ध्वजतालः । कपिः । गरुडः | प्राकृतिगवलादेवेवमपि सिखम् ।
"मत्स्याश्वपुष्पाणि - तारकाम्य पण्डाधववारच पतरित्रणरच ।
तस्मिों पक्ममयाश्चरेशः( सियाधैं पसमाचरेशः ) प्रसार( प्रासाद )शुरुमा मया सगारच ।। इह दुर्योधन हवायं नटो दुर्योधनः । "उस्मनुष्ये" [ ५] “जीविकाऽपये" [ ५] इति वा उस्।
बस्ते म४।१।१५। ष इत्यनुवर्तते । बस्तिशब्दादिवाथें टम् भवति । यस्मिन् प्रदेठे मलमुपसम्प्राप्वं बहिर्निक्रमति प्रदेशो बस्तिः। बस्ति रिवार्य वास्तेयः वास्तेयी प्रग्यालिका । इस अर्व सामान्येन विधानमिवार्थमात्रे । देवप्रतिकृतो सौच के प्राप्तेऽन्यत्रामाप्ते दम् ।
शिक्षाया दः ॥४१॥१५६॥ शिलाशब्दादिवाथै ढो भवति । शिलेव शिलेयं दधि । शिलाया इति योगविभागानमपि केचिदिच्छन्ति । शैलेयम् ।
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२६६
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[
.. पा. २ ० .
शाखादेयः ॥४१॥१५७॥ शाखा इत्येवमादिभ्य इवार्थे यो भवति | शाखेव शाख्यः । मुखमिक मुख्यः । थाखा । मुख । अधन । स्कन्ध । मेष | चरण । शुग । उरस् । अग्र | शरण ।
द्रव्यं भव्ये ॥४१॥१५॥ द्रव्यमिति निपात्यते मन्येऽर्थे । भव्यदिशेघे इवाणे वर्तमानाद् इशब्दाद् य इत्ययं त्यो निपात्यते । तुरिव द्रव्यम् कार्षापणम् । इष्टार्थक्रियाहेतुरित्यर्थः। द्रव्यमयं राना आत्मवानित्यर्थः । भव्य इति किम् रिवार्य न चेतयते पुरुषः ।
कुशाग्राच्छः ॥४।१।१५९॥ कुशाग्रशब्दादिवाथें छो मवति । सूक्ष्मत्वेन कुशाग्रमिव कुशाग्रीया बुद्धिः । कुशाग्रीयं शास्त्रम् ।
साप्तद्विषयात् ॥॥॥१६०॥ इषशब्द! सादृश्यार्थस्तमछुन्देन परामृश्यते । इवार्थविषयात् सात् छो भवति । इभार्थविषयस्य च मस्टेटमेव शापकम् । यदृच्छया अतर्कितोपनते चित्रीकरणे हवार्थविषये सो भवति । सुसुपेति सविधानमेवंविषयमेव दष्टम्यम् । काकतालीयम् । तालशाखामे काकः प्राप्तः, वालं च पतितं तेन च पतता तालेम स काको हतः । इट चित्रीकरणम् । तथा देवदत्तश्च वृक्षं श्रितः। तत्राशनिश्च पतितः । तत्र देवदत्तस्याशनेश्व समागमः काकतालसमागमसदृशः। काफवधसाशश्च देवदत्तबधः इति समागमसादृश्ये सविधानम् । वध सादृश्ये त्यविधिः । एवमधवतकीयम । अधाकृपाणीयम् । इह शस्त्रीश्यामा । पुरुषव्याघ्र इति समुदाय इवार्थविषयो न भवति । किन्तु पूर्वपदमुत्तरपदं वा । सेन छो न मयति ।
शर्करादिभ्योऽण ॥२॥१६१॥ शर्करा इत्येवमादिभ्यो श्वाऽण भवति । शर्करेव शार्करम् । कपालिकेव कापालिकम | "भस्य इत्यढे" [IRI वाइति वदाये प्राप्त "न युहको" [४१११] इति प्रतिषेधः । शर्करा । कपालिका | कपिष्टिका । गोमत् । गोपुच्छ । पुण्डरीक । शतपत्र । नराची । नकुल । सिकता।
अङ्गल्यादेष्टण ॥४११६२|| अङ्गली इत्येवमादिभ्य हवायें ठण भवति । अङ्गलोव श्राङ्गलिकम् । अङ्गुलि | भरुन । बभ्रु । वल्गु | रुषु । खल। उदश्वित् । गोणी । उरस । मण्डर । मण्डल | शस्कुल । कुलिश । हरि । कपि । मुनि ।
वैकशाक्षायाष्ठः ॥४॥॥१६३॥ पकशालाशब्दादिषार्थे वा ठो भवति । घावचनेनानन्तरस्य उणः समुच्चयः । एकशालेव एकशालिकः । ऐकशालिकः।
ककलोहिताहीकम् ॥४|११६४॥ कर्कलोहितशब्दाभ्यामिवार्थे येकण् भवति । कर्कः शुक्लाश्वः । कर्क व कार्कीकः । लौहितीकः । टकारः स्त्रियां इयर्थः ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां महावृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।
पूगायोऽग्रामणीपूर्ण ॥४॥२१॥ इत्र इति निवृत्तम् 1 पृ गवाचिनो मृद्रोऽग्रामणीपूर्वात् स्वार्थ यो भवति । नानाजातीया अनियतवृत्तयोऽधर्म(अर्थ)कामपराः संघाः पूगाः । पृगशब्दः समुदायवचनस्तस्यैकत्वेन निर्देशः । यथा यूथ वनमिति । ये त्वस्य विशेषवाचिनः शब्दास्तेषां भेदवाचित्वात् एकदिवइवो भवन्ति । लोहध्वजा इति गः | लौहध्मज्यः । लोहध्वन्यो । लोहध्वजाः । शैव्यः । शैव्यो। शिवयः । यातक्यः । वातक्यौ । वातकाः | "दुष्टु ते वास्त्रियाम'' [ १५] इति बहुधूप । ग्रामणीरित्यर्थनिर्देशः । पूर्वशब्दोऽक्यवयाची । प्रामण्यर्य: पूर्वोऽवयवो यस्य स ग्रामणोपूर्वः। अथवा ग्रामएयर्थविषयो यस्त्यः म साहचर्याद् ग्रामणोरित्युच्यते । स पूर्व मुत्पन्नो यस्य पूगस्य स ग्रामणीपूर्वः। न प्रामणीपूर्वाग्रामगीपूर्वः । प्रामणीपूर्वात्यूगाजयो न भवति । देवदचो ग्रामणीरेषां देवदत्तकाः । स एवा प्रामणी:"[111१२]इति कः।
1. जैनेन्द्रमहावृत्तौथ० ।
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wor wi• • सू० २.६]
महाचिसहितम्
मातफादस्त्रियाम् ॥४२॥ नानाबातीया अनियतवृत्तय उत्सेधजीविनः संघाः वाताः | अफ इति "वृद्ध कुमादिभ्यो म्फा"[10] इत्यापत्यस्ल्यो गृह्यते । वातविशेषवाचिम्यो कान्तेभ्यश्च स्वायें यो मवत्यस्त्रियाम् । कापोतपाक्यः । कापोतपाक्यो । कपोतपाकाः । हिमत्यः । वैदिमत्यो। व्रीहिमताः | भान्तात् कुञ्जस्यापत्य कोजायन्यः । कोचायन्यो । कुझायनाः । आघ्नायन्यः । ब्राध्नायन्यौ। मानायनाः । अत्रिया. मिति किम् ? कपोतपाका । ब्रोहिमता। कोजायनी । “ख च परसौः मह" इति कान्तस्य माविवासि त्वान्डोविषिः ।
शस्त्रजीवसायड वाहीकेष्यविप्रराजन्यात् हाशा वाहीकेषु यः शस्त्रबोक्सिङ्घसदाचिनो मृदी विप्रराजन्यवर्जितात् स्वार्थे ज्यङ् भवति । रित्करणं स्त्रियां ङयर्थम् । कौएटीदृस्यः । कोपहोवृस्यो। कुण्डीमाः । क्षौद्रक्यः । क्षीद्रक्यौ । क्षुद्रकाः। मालव्यः । मालन्यौ। मालवाः । कौएडीपृष्ठी । क्षौद्र की। मालवी स्त्री। "इलो तो क्याम्"शि१३] इति यकारस्य खम् । शस्त्रनीविग्रहणं किम ! मल्लाः। सङ्घहणं किम् ? वागुर। सम्राट । वाहीकेष्विति किार ? शबराः । पुलिन्दाः । अविप्रराजन्यादिति किम् ? गोपालयः ( ब्राह्मणाः)। शालकायनाः राजन्याः । विप्रप्रतिषेधे विविशेषप्रतिषेधः। नहि विप्रशन्दवायो वाहीकेषु शस्नजीविनां सङ्घो-स्ति । राजन्य प्रतिषेधे तु स्वरूप इति प्रतिषेधः । राजन्यविशेषस्यापि प्रतिषेधं केचि. दिच्छन्ति । कांवच्यः ] कांवच्यौ । कसकमा | व्यटि मनि पिया को समस्येत । वसनीलिमालादिति योगविभागादन्यत्रापि बेचिदिच्छन्ति । शापर्यः । शामय । शबराः। पोलिन्धः । पोलिन्धी। पुलिन्दाः। योगविभागकृवमनित्यम् ? तेन शबरः पुलिन्द इत्यपि भवति ।
काहण्यण ||४२४॥ शस्त्रजीविसयाचिनो वृकशब्दात् स्वार्थे टेण्यण भवति । वाण्यः । वागयौ । वृक्षाः । स्त्रियां वाणी । "इलो तो क्याम्" [१०] पति यखम् । श्ल उत्तरस्य यकारस्य खं भवति स चेद्यकारी गोरवयवभूत इति । बाहीकेषु ज्याट प्राप्ते, अन्यत्राप्राप्ते विधानम् । शस्त्राचीविषाविशेषणं किम् ? मति ( जाति ) शब्दान्माभूत् । "कामकोषो मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव । माक्रोध च कामं प परिस्य धोति ॥"
दामन्यादेश्यः ॥४॥२॥५॥ शस्त्रजीविरुवादिति वर्तते । दामनि अत्येवमादिभ्यः शस्त्रक्सिजवाचियश्छो भवति स्वार्थे । दामनीयः । दामनोयो। दामनयः । दामांन । श्रोलाप । वैजवापि । प्रौदकि शाच्यतन्ति । शाकुन्तक । सार्वनि । बिन्दु । तुलभ। मोजायन । सावित्रीपुत्र । निगर्वषष्टाः दामन्यादी पश्यन्ते । शस्त्रजीविना षड्वर्गाः। तत्र विगतयः षष्ठी येषां त विगतंषष्टाः । कोएडापरथीयः। काण्डापरथीयो । कौगडोपरथाः। दाण्डकि फौटु किः । बालमाली । बागुतः । कानाकः । उकं च
"झयात्रिगषष्ठाः षट् कौण्डोपरथदाण्डकी । क्रौष्टुकिलिमाको थ बक्षगुप्तोऽथ बाकि "
पर्यावरण पारा६|शस्त्रजीविसवादिति वर्तते । पशु इत्येवमादिम्यः शस्त्रनोविम्ववाचिम्या :ण भवति स्वार्थे । पाशवः । पार्शवी । पर्शवः । पशु । रक्षस । असुर । वाहीक । वयम् । वसु । मरुत् । सत्वत् । दशाई । पिशाच । अनि । कार्षापण । यौधेय । शौभ्रय । धार्तय । ज्यावाणेय । त्रिगते । भरत । उशीनर । भर्गादिषु यौघेयादिभ्यः प्रविधवचनं शापकम् अापत्यत्वार्थिकाः अापत्यग्रहणन गृह्यन्त इति । तेनास्याण उप् प्रातः प्रतिषेधार्थ वचनं तत्र सार्थम् । पश्यादिभ्यः पुनरुत्पन्नस्यायः स्वार्थिकस्य नीविषक्षाया "त्यवान्तकुरुभ्यः स्त्रियान्" (३२१५१५७) इत्यधिकृत्य "प्रतोपाध्यमाद: 11५८] इत्युप। सत:" [Un५६] इत्यूकार । पवः । असुरः (१) । रक्षः।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम
[ अ० पा० २ सू० ७-१३
निवृत्तम् । श्रमिति विदभृत् [वा ] वृद्ध। पत्ये योऽय् विहितः
अभिजिद्विभृतोऽणो यम ॥४२|७|| शस्त्र जीविसङ्घादिति इत्येता·यामण्यन्ताभ्यां स्वार्थे यम् भवति । वृा वृत्चदिति वकव्यम्" उदन्तादयं यम् वृद्धवच्च भवति । अभिजितोऽपत्यमा । श्रभिजितः । तदन्ताद्य श्रमिनित्यः । श्राभिवित्यौ । अमिताः । वैदत्यः । वैदभृत्यो । वैदभृताः । वृद्धादिति किम् ? श्रभिजिद देवतास्य श्राभिजितः । विदभृत बैटभृतम् । वृद्धदिति किम श्रमजित्यस्यापत्यं युवाऽतिमिलायम । “खि [213120] इति फण सिद्धः 1
I
२६८
शिक्षाशाला शम्यूर्णाभियां मतोः ॥ ४२८ ॥ शिखा, शाला, शमी, उर्दा, श्री, इत्येतेषां शब्दानां मतोर्यो उदन्वात्स्वार्थे यञ् भवति । शिखाक्तोऽपत्यमित्यण् । तदन्तादयं यञ् । शैखाक्त्यः । शैखावत्यौ । शैखावताः । शालावत्यः । शालावत्यौ । शालावताः । शामीवत्यः । शामी बस्यो। शामीवताः । श्रौर्याचत्यः । चर्यात्यो । औवताः । श्रमत्यः । श्रमत्य । श्रमताः । वृद्वादित्येव शिखावत इदं शेखावतम् । "वृद्धवदिवि वकम्पम् " [वा०] शैखावत्यायनः । नेदं वक्तव्यम् । श्रपत्यस्वार्थिकाः श्रपत्यमाह येन गान्त इत्येव सिद्धम् ।
ते द्रयः ||४|१२|९|| ते व्यादयो दिसंज्ञका भवन्ति । तथैवोदाहृतम् । तै ग्रहणम् अनुक्रान्तसंशिप्रतिपत्यर्थम् ।
संख्यायाः पादशतेभ्यो वीप्सादण्डस्यागे बुन् ||४| ५ | १०|| संख्यादेः पादशतान्तान्मृदः वीप्सात्यागेषु गम्यमानेषु युन् भवति । वासन्निधानेऽन्यस्यालः खं च । "यस्य यांच" । [४।१/१२६] इति यदि खं कियते तस्य परनिमितस्वात् "परेऽचः पूर्वविधौ | ३|१|१०| इति स्थानिवद्भावात् "पादः प" [ ४/४1994 ] इति पशवो न स्यात् । इदं पुनः खमनिमित्तमिति न स्थानिवद्भावः । द्वौ द्वौ पादो भुङ्क्ते द्विपदिकां मुङ्क्ते । त्रिपदिकां भुङ्क्ते । हृदर्थे रसः । नैव वीप्सार्थस्य योतित्वात् वीप्सालक्षणं द्वित्वं निवर्तते । द्वे द्वे शते भुङ्क्ते द्विशतिकां भुङ्क्ते । त्रिशतिकां भुङ्क्ते । दण्डे – द्वौ पादौ दरिङतः द्विपदिकां दडितः । त्रिपटिका दण्डितः । त्यागे वौ पादौ व्यवसृजति द्विपदिकां व्यवसृजति । त्रिपदिकां व्यवस्यति । त्रिशतिकां व्यवस्थति । षुन्नन्तं स्वभावतः स्त्रियां घर्तते । संख्याया इति किम् । पाद पादं ददाति । पादशतेभ्य इति किम् ? दो प्रो प्रस्थो ददाति । बहुवनिर्देशादन्यत्रापि भवति । दो दो मोदकौ ददाति द्विमोदकिकां ददाति । हिलिका ददाति । वीप्सादिन किम् । द्वौ पादौ भुङ्क्ते ।
स्थूलाविभ्यः प्रकारोको कः ||४ |२| ११ || स्थूल हत्येवमादिभ्यः प्रकारको गम्यमानायां को भवति । जातीयस्यापवादः । अत्रापि प्रकारवति त्यः स्थूलाणुभाषेषु । स्थूलप्रकारः स्थूलकः । अशुकः । माषकः । इषुकः । अपरेषां व्याख्या । माषेध्वित्युपाधिः । स्थूलका भाषाः 1 अणुका माषाः । स्थूलामात्रेषु । कृष्णतिलेषु । पाद्यकाशावदाताः सुरायाम् । गोमूत्र श्राच्छादने । सुराया हो । वीर्यशास्त्रिषु । पत्रमूले समस्तव्यस्तै । यवनी दिषु । कुमारीपुत्र । कुमारी । श्वसुरः । मणि इतु तिल । चञ्चद्वहतोरप्यत्र पाठः कर्तव्यः ।
वादनत्यन्ते ||४|२|१२|| अनत्यन्तमकाम् । अनत्यन्ते वर्तमानात् कान्तान्मृदः को भवति । अत्यन्तै भिन्न भिन्नकम् । छिन्नकम् । अनत्यन्त इति किम् ? भिन्नम् । श्रत्र भेदनक्रियायाः कार्त्स्न्येन संबन्धः ।
स साम ||४|२| १३ ॥ सामिशब्दात्परं यत्क्कान्तं तस्मात् की न भवति । सामिकृतम् । सामिभुक्तम् । सामिपर्यायाणामपि ग्रहणमिति केचित् । श्रर्धकृतम् । नेमकृतम् । ननु चात्र पदान्तरेणानत्वन्तगतैर महि
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His पा. २ ० १४-14 महावृतिसहितम्
२६४ तत्वारको न प्राप्नोतीति प्रतिषेधवचनमनर्थकम् । प्रवं तहदिमेव प्रतिपयचनं झापकं स्वार्थेऽध्ययं की भयति । तेन सिद्धम् । भिन्नतरकम् | बहुतरकम् । अर्धच्छिन्नकम् | अर्धभिन्नकम् ।
वृहतिका ॥१४॥ वृहतिकेति निपात्यते । बृहत शब्दादाच्छादने वर्तमानात्स्वार्थे नित्यं को निपात्यते । बृहतिका साटी । श्राच्छादनादन्यत्र को न भवति । वृहत्ती अोषधिः ।
खोडलधर्मपुरुषात् ॥॥२|१५|| अलङ्कर्मन् अलम्पुरुष इत्येताभ्यां स्वार्थे लो भवति । अलभाषामणः अपुषः समय: । "कन निरा" [२] इत्यादिनाऽप । 'तिकमायः" [॥३॥1] इत्यत्र “पयांदयो गलामा मा'' [वा०] इति घसः ।
अषडक्षा'सतग्वाधियोः ॥२॥१६॥ अषडच, आसितङ्ग, अधिद्य इत्येतेभ्यः स्वाथै खो भवति । अविद्यमानानि षडक्षीण्यस्मिन्निति प्रषडक्षीणो देवदत्तः । पितृपितामहपुत्राणामणि न पश्यतीत्यर्थः । मन्त्रोऽपि द्वाभ्यां यः क्रियते, येन वा कन्दुकेन दो कोहतः सोऽप्येवमुक्तः। अथवाऽनशब्द इन्द्रियपर्यायोऽस्ति । अविद्यमानानि पक्षारयस्य अपडतो यो मत्स्यः । गुणदोषविचारक्षम षष्ठमक्षमल्य नास्तीत्यर्थः। श्रासिता गावोऽस्मिन्नित्यासितङ्गवीनमरण्यम् । अतएव निपातनात्कर्तरि क्लः । पूर्वपदस्य च मुगागमः । गाशि अधि राजाधीनम् । पुण्येऽध पुण्याधीनम् । “ईश्वरेऽधिना" [ १८ इति अधिना योगे ईप गिति संज्ञाप्रतिषेधश्च । अधिशब्दः शौण्डादिषु पठ्यते, तेन घसः । नित्याचे व इष्यते, उत्तरसूत्रे वाइयात् ।
बाचेरविक् नियाम् ।।१७। अञ्ज्यन्तान्मृदोऽदिक् स्त्रियां वर्तमानात् खो भवति स्वार्थे वा । अदिक स्त्रियामिति प्रसध्यप्रतिषेधादिड तदन्तविधिलभ्यते । पाञ्चतीति प्राङ् (प्राक् ) प्राचोनम् । उदक
दीचीनम् । अवाङ् ( क) अवाचीनम् । अदिस्त्रियामिति किम् ? प्राची दिक। प्रतीची । दिगग्रहणं किम् । प्राचीना शाला । तिरश्चीना स्थूगा । खीग्रहणं किम् ! प्राचीनं दिग्रमणीयम् । प्राची दिनमा यति दिगृहा "दिक्छम्प' [४|१२] इत्यादिना अस्तात् | "मचेरुप्" [PINE] इति तस्योप् । स्वभावत उभ्यस्तातेनपुंसकलिङ्गम् । वावचनात् स्वाथिकेषु निवृत्ती महाविकल्पाधिकार इति गम्यते । तेन पाशतमादयः प्राक' छदेखा देशात् ] कल्पदेशीयात् । ज्यादयः प्रावुनः । प्रामादयः प्राइमथटः नित्या वेदिवव्याः। याप्यो वैयाकरणः । अयमेषामतिशयेन पटुरित्येवमादौ वाक्ये न प्रकृतिर्याप्येऽतिशायने वा वर्तते किन्तु पदान्तरमतस्यो न भवति ।
जातेश्छो बन्धुनि पा२।१८। बध्यतेऽस्मिन् अतिरिति बन्धुद्रव्यामिह जात्यधिकरम गृह्यते नपा निर्देशात् । बालिशब्दाद्वन्धुनि वर्तमानात् छो भवति | केवलजातिशब्दस्य बन्धुनि वृत्त्यसम्मवात. दन्तविधिः । क्षत्रियो बातिरस्य चत्रियातीयः। क्षत्रिय पवोच्यते । शोमना नातिरस्य शोभनजातीयः । दुष्टा जातिरस्य दुर्जातीयः। का प्रतिभवतः, किंचातीयों भवान् । द्वयोर्विकल्पयोमध्ये नित्योऽयं विधिः। ''प्रकारोको जातीयः" [ ८ इत्येव सिद्ध किमर्थमिदं जात्यन्तस्य बसत्य केवलस्य च प्रयोगो माभूत् इत्येवमार्यम् । कयं दुर्भातेः सूतपुत्रस्येति प्रयोगः । चिन्त्यमेतत् । बन्धुनीति किम् । बामणज्यविरहश्यपापा ।
वेये स्थानान्तात् ॥४॥२॥१६॥ स्थानान्तान्मृद इवार्थे वा छो मवति | पितुः स्थानमिव स्थानमस्य पितृस्थानः 1"इयोपमानपूर्वस्य पुत्र वा वा०] इति । उपमानपूर्वस्य बसो मति द्योश्च खम् । यथा राष्ट्रमुख इति । अयं स्थानान्तो बस वाथें वर्तते । असावा छो भवति । पितृस्थानीयः । पितृस्थानः । गुरुस्थानीयः । गुरुस्मानः । पुननियमनन्तरस्य नित्यनो ख्यापयति । एव इदि किम् ? गवां स्थानम् गोस्थानम् । "मृदये तदन्तविधिनास्ति' इति अन्तग्रहणं कृतम् । हकसान भवति । गोः स्थानमिति । नैष दोषः । एषमाणं
१.रघपा-१०।
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२७०
जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [.. पा० २ २०२०-२० स्थानविशेषणम् | इवार्थे यः स्थानशब्दो वर्तते, तदन्तादिति । बसे च स्थानशब्द इवार्थे बर्तते । बसे तु पदसङ्घात श्वार्थे पत्ते इति न भवति ।
किमेमिकभिमादामद्रव्ये ॥४॥२२०॥ किम एकागन्तस्य मिः मिसंज्ञकस्य च अनन्तरो यो भस्तदन्तान्मृद आमित्ययं त्यो भवत्यद्रव्ये । लिङ्गसंख्यायुक्तप्रत्ययकारणं द्रव्यम् । द्वाविमो किम्पचता, अयमनयोः किंतरा पचति । किंतमाम् पचति । एतौ द्वाविमौ पूर्वाह भुजाते । अयमनयोः पूर्वाह्न तरी भुके। एतदानासामा द्रव्येऽपि काले विधिरयम् । इह फरमान भवति । जयतेविचि तरे च कृते अतर इति । अनभिधानादत्र विजेव नास्ति | मिह-पचतितराम् । पचतितमाम् । द्वाविमौ उच्चैईसवः । अयमनयो. बच्चस्तरां हसति । अद्रव्य इति किम् ? उच्चैस्तरो वृक्षः । उच्चस्तमो वृक्षः।
प्रिनोऽण ठा२२१|| पणिभिविधी शिश] इति भावे जिन् विहितः । मिन्नन्तादण भवति स्वाथें । “कग्रहणे सिकारकपूर्वस्थापि ग्रहणम्' [प.] सांकोरिनम् । सांगविणम् । सामार्जिनम् । "प्रायोऽभपयेणीमः" [U01५५] इति टिखप्रतिषेधः ।
बारित्रयाम् ॥४।२।२२॥ स्त्रियामित्यधिकृत्य 'कमध्यांतहार अ:" [२३७६इति को विहितस्तदन्तास्वार्थे ऽण् भवति स्त्रियाम् । व्यावक्रोशी । व्यात्यक्षी । प्यायचर्ची वर्तते । “पदे यथोरैयौव" इति तस्य विधेः "न थे' [५111" इति प्रतिषेधे कृते । श्रादेरैप । स्रोग्रहणं किम ! स्त्रियामेव हि ओ विदितस्तस्मादय स्वार्थिकः । स्वार्थिकाश्च प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अनुवर्तन्त इति : एवं ताई इदमेव शापकम् । कचित्स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अतिवर्तन्तेऽपि । कुटीरः । देवता । गुहकल्पा द्राचा इत्येस मादि सिद्धम् ।
घिसारिणो माये ॥४।२।२३॥ विसरिनशब्दाखार्थेऽण भवति मत्स्येऽभिधेये । विसारीति वैसारिणो मस्यः । महादिपाठागिणन् । मत्स्य इति किम् ? विसारी तैलबिन्दुरिवाम्भसि ।
संख्याया वभ्यावृत्तो कृत्वस् ॥४।२।२४॥ ध्यर्थः क्रियारूपः साहचर्यादुशब्देनोक्तः । स्वभ्यावृत्तिः अमिन्नकर्तृकायाः क्रियायाः पौनःपुन्यम् । भ्वभ्याकृतो वर्तमानेम्यः संख्याशब्देभ्यः स्वार्थ कुल्लसित्ययं त्यो भवति । अस्वपदेनात्र विग्रहः । पञ्चवारान् भुक्ते पञ्चकलो हो भुङ्क्ते । शतं वारान् भुङ्क्ते शतं वा वाराणां भुक्रे शतकृतः । बहुकखः । तावत्कृतः । कतिकृयः । संख्याया इति किंम् ! मुहमह ले । प्रभूतान् वारान् भुडते । धुग्रह किम् ? द्रव्यस्य गुणस्य वा अभ्यावृत्तो माभूत् । पञ्चसु कालेषु दण्डी । षटसु कालेषु शुक्लः । श्रभ्यावृत्तिग्रहणं किम् ? पञ्च पाकाः । नानाभिन्नस्य पाकस्य पोनः पुन्यं किन्दोदनमुद्गादोना पाकाः!
द्वित्रिचतुर्थ्यः सुच् ॥४।२।२५।। द्वि त्रि चतुर् इत्येते यो ध्वयाचौ सुज् मर्वात | कृत्यसो पवादः । चकार: "कालेऽभिकरणे सुज " [11६०] इत्यत्र विशेषणार्थः । उकार उन्नारगार्थः । दि. (छक्के । त्रिभुले । भुजिक्रिया सामान्येनैका । सा कालमेदाद्भिद्यते ।
एकस्य सकृत् ॥२६॥ एकशब्दस्य मकृदित्ययमादेशो भवति मुचत्यः । ध्वम्यावृत्तिरत्र व्यपदे शिवद्भावेनाभिसंबध्यते । एकवार भुक्ते सकृद् भुङ्क्ते । एकः पाक हत्यत्राभिधानान्नास्ति ।
बहोर्धा वाऽसत्तौ ॥४॥२७॥ प्रासचिरावप्रकृष्टकालता । विषयद्वारेण ध्दभ्यावृत्तिविशेषणमेवत् । आसतो या क्रियाया अम्यावृत्तिस्तस्यां वर्तमानाद्वहुशब्दाद्धा इत्ययं त्यो भवति वा । बहुधा भुङ्क्ते । बहुपत्रे भुक्ते । अासत्ताविति किम् ? बहुकृत्वो भुङ्क्ते मासस्य ।
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ज० ४ पा० २ सू० १८-३१]
महावृचिसहितम्
प्रकृतौ मयट् ॥४२२८ ॥ प्रकर्षेण कृतं प्रकृतं प्रचुरमित्यर्थः । तदिति वामर्थात् प्रकृतो वर्तमानात् स्वार्थे मम भवति । अन्नं प्रकृतम श्रन्नमयं पूजायाम् । दधिमयं पूजायाम् । यवागूः प्रकृता यवागूमयी । पेयामयी । स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अनुवर्तन्तेऽपि । श्रथवा नायं स्वार्थिकः । विकरणार्थेऽयं विधीयते । कथं शायते । उक्तिर्वचनम् । प्रकृतस्योक्तिः प्रकृतोक्तिः । तदिति वामर्थात् प्रकृतोक्तावर्थे मयड् भवति । घृतं प्रकृतमुच्यतेऽस्मिन् घृतमय उत्सवः । घृतमयी पूजा । पुष्पमय उत्सवः । पुष्पमयी पूजा | उक्तिग्रहणसामर्थ्यात् उभयोऽपि सूत्रार्थः प्रमाणम् ।
समूहवच्च बहुषु ||४|२|२६|| तत्प्रकृतोक्वाविति वर्तते । समूहवत् त्यविधिर्भवति मयट् च बहु कृतेषु | यह भवति । श्रपूपानां समूहः श्रापूपिकम् अतितहस्तिनोष्णू' [३|२|३३] इति ठय् । एवम् श्रपूपाः प्रकृता आपूपिकम् । पक्षे श्रपूपमथम् । एवं मौदकिकम् । मोदकमयम् । शाकलिकम् । शष्कुलीमयम् । प्रकृतिशिङ्ग संख्यातिवर्तनम् । द्वितीयसूत्रार्थे श्रपूपाः प्रकृता श्रस्मिन्दुष्यन्ते चापूपिक उत्सवः 1 अपूपमयः । श्राविकी अपूपमयी पूजा । शष्कुलिकः शष्कुलीमय उत्सवः । शाकुलिकी शष्कुलीमयी पूजा |
भेषजा मन्तावसथेतिहाञ्ञ्यः || ४ | २|३०|| मेषत्वादिभ्यः स्वार्थे यो भर्यात | कण्डवादिषु भिति पठ्यते श्रौषभस्य कारणम् । तस्य कर्तृत्वविवक्षायां भिषज्यतीति मेघवम् पचादित्वादच् । "इको यः" [४|४|११] इर्ति यखन् । श्रत एव निपातनादेषु । भेषनमेव भैषज्यम् । श्रनन्तमेवानन्त्यम् । श्रावसय एवावसथ्यम् । इतिहेत्यैतिह्यम् । विभाषेह सम्बद्धयते ।
देवतान्त | सादर्थ्यं यः ||३२|३१|| तस्मे इति तदर्थम् । तदेव तादर्थ्यम् । देवताशब्दान्ता तायें वाच्ये यो भवति । गुददेवतायै इदम् गुरुदेवत्यम् | पितृदेवत्यम् ।
पाद्या ||५|२|३२|| पाद्याशब्दौ निपात्येते । पादशब्दात्तादयें यः प्रच्छन्दस्य पदादेशाभावश्च निपात्यते । पादार्थमुदकम् पाञ्चम् । अर्धशब्दाधादर्थे यः । श्रर्घार्थमर्थ्यम् ।
स्योऽतिथेः || ४|२|३३|| तादयें इति वर्तते । श्रतिथिशब्दात्तादश्य ऽभिधेये एयो भवति । श्रतिथ्यर्थमिदमातिथ्यम् |
||४|२|३४|| लादर्श्व इति निवृत्तम् । देवशब्दात् स्वार्थे तत् भवति । देव
देवास देवता |
कोवियाधादेः ॥४/२/३५|| अविशब्दाद् याव इत्येवमादिभ्यश्च मृद्भयः स्वायें को भर्वात । विश्व श्रविकः । यावादिष्वेव श्रविशब्दः पठितव्यः । पृथग्ग्रहणं किमर्थम् १ श्रबैंकार श्राविकमित्येवमादौ के कृतेऽयथा स्यात् । यवानां विकारो यात्रः । याव एव यावकः । यान मणि । अस्थि । लान्द्र | महु | पीत । स्तम्ब । ऋतावुष्णशीते । पशौ लूनविपाते । श्रंणु निपुणे । पुत्रात् कृत्रिमे । पुण्य । शात | अज्ञात । स्नात वेदसमाप्तौ । शून्य रिक्ते । तनु सूत्रे । ईयसश्च भूयस्कम् । श्रेयस्कम् । कुमार क्रीकानि च । उत्कण्ठकः । कन्दुकः । वेत्यनुवर्तते ।
लोहितन्मणी ||४|२|३६|| लोहितशब्दान्मखौ वर्तमानात् स्वार्थे को भवति । लोहित एक लोहितको मणिः । " खोहितशब्दात स्त्रीस्वस्थ परत्वात् अनेन फेम बाधनं वक्तव्यम्" [ वा० ] । परलात् के कृते सकृद्गतै परनियांये बाधितो वाधित एवेति नलडीविभावसति प्रतापि कृते लोहितका मन्धिरिति । यदात्वबाधनं तदा नत्वडीविधौ कृते पश्चात्कः । " के यह: " [१२] १२५ ] इति प्रादेशः | लोहिनिका मणिः । मग्पादिति किम् । लोहितः खदिरः ।
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२७२
जैनेन्द्रन्ध्याकरणम्
[१०
फा० २ सू. ३०-३५
वणेऽनिस्ये ॥४॥२॥३७॥ अनित्ये वर्णे वर्तमानाललोहितशब्दात्को भवति । कोपेन लोहितर्फ चतुः । स्त्रियां पूर्ववतुमयं भवति । कोहितिका कन्या कोपेन लोहिनिका बा | अनित्य इति किम् ? लोहित इन्द्रगोपः। शोहित मधिरम् ।
रक्ते ॥४ारा३८ लाक्षाकृमिरागादिना रक्ते वस्त्रादिके वर्तमानात् लोहितशब्दाको मवति । लोहितकः पदसाटकः । लोहितकः कम्बलः । अत्र योगवशात् यावद् द्रव्यमावि लोहितसमिति पूर्वेण्ण प्राप्तिः । स्त्रियां पूर्वबदुमयम् | लोहितिका पसाटिका लोहिनिका था।
कालाच्च ॥४।२।३९॥ घणे नित्ये रक्ते इति द्वयस्थानुकर्षणार्थश्चकारः । अनित्ये वर्णे रक्ते व वर्तमानात् कालशब्दात् को भवति । कोपेन कालकं वस्त्रम् । कालिका साटी। अनुक्रान्तेषु चतुर्वपि चेति वर्तते ।
विनयादेष्ठण पिनरः रामः: विनिय एव वैनयिकम् । विनयः । समय । उपायात्प्रश्च । सङ्गति । कश्चित् । अकस्मात् । उपचार । समाचार । व्यवहार | सम्प्रदान । समुत्कर्ष । समूह । विशेष । प्रत्यय । चेत्यनुवर्तत पच । अनुगादिशब्दोऽपोह पठनीयः ।
बायसदायाः ||२४|| सा वाक् अर्थोऽभिधेयोऽस्या इति वदर्था । तदर्षाया वाचः स्वाथै ठया भवति । देवदतेन सन्दिश्या याग जिनदचे । सा यया वाचा जिनदतेन परस्य प्रकाश्यते सा वास्तदर्या बागत्यर्थः । घागेव याचिकम् । तदर्थीया इति किम् ? स्निग्धवाक् सुजनस्य च व्यवयिते ।
तपयका कर्मणोऽण !!४२४२।। तया वाचा युक्तं यत्कर्म तदभिधायिनः स्वार्थेऽया भवति । यदेव पाचा व्यवहियते हदं कर्म कुर्विति, तदेव क्रियमाणं कर्म वाग्युक्तमुच्यते । कर्मेव कार्मणम् । तद्युक्तादिति किम् । स्वयमेव देवदत्तेन कर्मकृतम् ।
ओषधेरजासो ४।२।४३|| श्रोषधिशब्दादबादौ वर्तमानादण भवति । घोषधिरेव प्रौषधं पोयते । प्रजाताविति किम् १ स्थिरोऽयमस्त्योषधिः क्षेत्रे ।
प्रज्ञा ॥४४४॥ प्रज्ञ इत्येवमादिभ्यः स्वार्थेऽण मति । प्रजानातोति प्रज्ञः । प्रज्ञ एव प्राज्ञः । प्रज्ञानाऽर्चावृत्तियो यः" [२८] इति मत्वर्धायेन सिद्धपि स्त्रियां विशेषः । अणि प्राज्ञी । प्राज्ञा । प्रश। वरिन् । उशिक् । उष्णिा ज् । प्रत्यक्ष । विद्वस् । विदन् । वशिक । द्विदश । षोडन् । विद्या । मनम् । श्रोत्र शरीरे। शुद्धत् । कृष्णा मृगे | चिकीर्घत् । वतु । मस्तू । सस्वन्तु । दशाई । यस । कुट । रचस । असुर । शत्रु । चोर । योघ । चक्षुष । पिशाच । अशनि । कार्षापणा । देववा । बन्धु । आकृतिगणोऽयम् । विकृतिरेव वैकृतम् ।
मृदस्तिका ॥४॥२॥४५॥ भूत-शब्दात्स्वार्थे तिको भवति । मृदेव मृत्तिका । स्त्रीविषयत्वाद्वापि कृते "स्पस्थे क्यापीद'' [१२।५०] इत्यादिना इत्वेन सिद्ध इकारोच्चारणं किम् । द्वाम्यां मूर्तिकाभ्यां कोतं वित्तिकम् । “दुप्युप" [10] इति श्रीत्यस्यापि श्रवणार्यम् ।
सस्नो प्रशंसे ॥४ारा४६॥ प्रशंसे वर्तमानान्मूच्छन्दान्नित्यं स स्न इत्येतौ त्यो भवतः । रूपापवादः । प्रशंस इति प्रकृत्यर्यविशेषएमेतत् । मूत्सा । मृत्स्ना। उत्तरत्र वाग्रहणादिह नित्यो विधिः | पब मृच्छदेन प्रशंसो नाभिधीयते किन्तु शब्दान्तरेण गृह्यते तदा वाक्यतिको भवतः । मृत्प्रशस्ता । मृत्तिका प्रशसा ।
बबल्यार्थाच्छस्कारकामा ४७॥ बच्चदश्याच काररूविशेषग्यात् शसू मवति वा। इइ बहुशम्दो नानाधिकरएवाची न वैपुल्यवाचो । अल्पशन्दोऽपि नानाधिकरणवाची नस्वीपदर्थवाची गते ।
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अ० ४ ० १ ० ४५-५३]
महावृतिसहितम्
२७३
बहुभ्य श्रागतः । बहुश श्रागतः । भूरिश श्रागतः । बहुभ्यो देहि । भूरिशो देहि । बहुभिर्तुनाति । बहुशो लुनाति । भूरिथो लुनाति । बहुषु वसति । बहुशो वखति । भूरिशो वसति । बहून् देहि । बहुशो देहि । भूरिशो देहि | बहुभिर्भुक्तम् ! बहुशो भुक्तम् । भूरिशो भुङ्क्ते । श्रल्पेभ्य श्रागतः । अल्पश श्रागतः । स्तोकश श्रागतः । इत्येवमादि ज्ञेयम् । बहुल्यार्थादिति किम् ? ग्रामादागच्छति । कारकादिति किम् । बहुभिः सह भुङ्क्ते । वाग्रहणेऽनुवर्तमाने पुनर्वाणं पूर्वस्य विधेर्नित्यार्थम् । प्रशंस इति वर्तते तदिह बद्दल्पार्थान्मङ्गले गम्यमाने शस् भवतीत्यर्थः । बहुशो ददाति श्राभ्युदयिकेषु कर्मसु । अल्पशो ददाति निष्ठेषु कर्मसु ।
संख्येाद्वीप्सायाम् ॥४२४८॥ कारकादिति वर्तते । संख्यावाचिनः एकान्ताच्च कारकाद्वीप्सायां वर्तमानाद्वा शस् भवति । वीप्सादित्यस्यापवादः । अथवा सैवोक्तत्वाद् द्वित्वं निवर्तते । एकशो देहि | वाक्यपदे वीप्सायां द्वित्वम् । "एको बाद ” [५० ] इति बवद्भावात् "सुपो त्रुटदो: " [ १।४।१४२ ] इति उपकृत यमुनादी द्विशो देहि । त्रिशो देहिं । एकान्तात् । माघं माषं देहि माषशो देहि । कार्षापणशो देहि | प्रस्थशो देहि | संस्कादिति किम् । माषो माषौ देहि । वीप्सायामिति किम् १ द्वौ ददाति । माषं ददाति । कारकादित्येव । द्वाभ्यां द्वाभ्यां स भुङ्क्ते । प्रस्थस्य प्रस्थस्य स्वामी । कथमेकैकशो मन्त्रिणः पृच्छेदिति । चिन्त्यमेतत् । यथा वा स्त्रीत्यान्तात् स्वार्थिके उत्पन्ने पुनः स्त्रीत्यः कुमारीतरेति । एवं हित्वे कृते पुनः शस् ।
1
[ १/४/२१] प्रतियोगे कायास्तसिः ||४२२४९ ॥ वेति वर्तव । "यथ: प्रतिदा प्रतिनिधी प्रविना " इति प्रतिना योगे का विहिता । तदन्ताततिर्भवति वा । इकारः "कायास्तस्" [४/११७३ ] "वसे." [७/११७४ ] इति विशेषणार्थः । श्रभयकुमारः श्रेणिक्तः प्रति। श्रेणिकात् प्रति । प्रयोतनो वृत्तिषेणतः प्रति । वृत्तिणात् प्रति । "सिप्रकरणे आद्यादिभ्य उपसंख्यानम् " [ वा० ] | आदौ । आदितः । भध्यतः । अन्ततः । पृष्ठतः । श्राकृतिगणोऽयम् ।
पदाहरु |४| २/५०॥ "कापादाने' [ १२४ ३७] इति श्रपादाने का विह्निता । वदन्तातसर्वा भवति हीरुहसंबन्धि न वेदपादानम् । सुप्नादागतः सुघ्न श्रागतः । चोरेभ्यो बिभेति चोरतो विभेति । श्रपादान इति किम् १ अन्यो देवदत्तात् । श्रहोयरहोरिति किम सार्थाद्धीनः । धर्मयययं । पर्वतादवरोद्दति । होय इति जहातेः कर्मणि यक् तस्यानुकरणम् । किमर्थम् १ बिहीतेः प्रतिषेधो माभूत् उदघे ज्जिहीते । उदधित उज्जिहीते । “मन्त्रो वर्णतो हीनः" इत्यत्र श्राद्यादित्वात् मान्तात्तसिः ।
I
क्षेपणव्यथाऽतिग्रहेष्वकर्तृभायाः ||४|१५|| क्षेप, अव्यथा, अतिग्रह, इत्येतेषु विषयभूतेषु या कर्तुरन्यत्र विहिता मा वदन्वाद्वा तनिर्भयति । क्षेपे-वृत्तेन क्षिप्तः वृत्तः दिसो निन्दित इत्यर्थः । श्रन्यथायाम्-वृत्तेन न व्यथते वृद्धतो न व्यथते न चलतीत्यर्थः । प्रतिग्रहे वृत्तेनातिपते वृत्ततोऽतिगृह्यते । श्रतिमात्रं गृहात इत्यर्थः । सर्वत्र करणे हेतौ वा भा । दोपादिष्विति किम्। दात्रेण लुनाति । श्रकर्तृमहं किम् १ देवदत्तेन दितः । माया इति किम् । वृत्तमस्य क्षिप्यते ।
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मानपायोगात् ||४|२२५२ ॥ श्रकर्तृभाया इति वर्तते । दीयमानपापाय योगो यस्य तस्मादकर्तरि भान्ताद्वा तसिर्भवति । दीयमानयोगात् वृत्तेन हीयते । वृत्ततो हीयते । चारित्रेण दीयते । पापयोगात् षृतॆन पापः । श्रत्रापि करणे हेती या भा द्रष्टव्या । नन्वत्रापि क्षेषोऽस्तीति पूर्वेष तमिः सिद्धः । नैष दोषः । पूजाप्यत्र गम्यते । नीचवृत्ततो हीयते । पापवृत्ततो हीयते । यदि वा तत्त्वाख्यानमंत्र सूत्रे विवचितम् न निन्दा | अकर्तरीत्येव । देवदतेन दीयते ।
ताया व्याभये ||४:२५३॥ नानापाश्रयो व्याश्रयः । तान्ताद्वा वसिभवति व्याश्रये गम्यमाने ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ४ प०ि २ सू० १४-५६
नमिरकीर्तितोऽभवत् । श्रकीर्तेरभवत्। मेघप्रभो मेघेश्वरतोऽभवत् । गम्यमानपदापेक्षा वा । व्याश्रय इति किम् १ देवदत्तस्य इस्तः ।
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रोमादनये ||४/२/५४ ॥ श्रपनयः चिकित्सेत्यर्थः । ताया इति वर्त्तते । रोगवाचिनतान्तात् वा सर्भवति श्रपनये गम्यमाने । प्रवाहिकायाः कुरु | प्रकाशितः श्रपनयमस्त्राः कुः इति प्रवाहिकायाः करोति प्रकोनमित्यर्थः ।
कृभ्वस्तियोगे ऽतवन्त्यसम्पदरि च्विः ||४/२/५५॥ चेती अनुवर्तते । न सः श्रसः कारणमित्यर्थः । तस्य वचन विकाररूपापतिः श्रततत्त्वम् । सम्पद्यते इति सम्पत्ता सम्पद्यतेः कर्तेत्यर्थः । तत्तत्वे गम्यमाने सम्पद्यतेः कर्तरि वर्तमानात् सुबन्तात् उत्तरावस्थाभिधायिन शिव्यर्भवति कृस्वस्तिभिर्योगे । अल्पान्तमर्थेन शब्देन विग्रहः क्रियते । श्रशुक्लं शुक्तं करोति शुक्कीकरोति प्रासादम् । श्रत्र करोतेः कर्मभावमापन्नोऽपि प्रासादः सम्पतेः कर्ता भवति श्रत एवं विग्रहः । अशुक्लः शुक्तः सम्पद्यते तं करोति शुद्धीकरोति । शुक्लोभर्वत । शुक्लीस्यात् । शुक्लशब्दाविः । प्रकार: "षी" [२१२१२५ ] इति विशेषणार्थः । चकारोऽपि तत्रैक विशेषणार्थः । तत्र विरित्युच्यमाने दविः, जागृचिरित्यत्र "री ऋत:" [५/२/१३६ ] इति भावः प्राप्नोति । बकारः “क्विडाजूर्बादि:” [१।२।१३२ ] इति विशेषणार्थः । तत्र हि विग्रहणेऽक्रियमाणे चिनोतेस्तद्विराणां वा ग्रहणं प्रसज्येत | पूर्वम्य सुपः "सुपो धुमृवोः " [१।४।१४९ ] इत्युप् | "अस्य ब्वौ' [५|२| १४१] इतीत्वम् । परस्य सुपः "सुपी के: ' [ १|४|११०] इत्युप् । कर्मभावाभिधायिन्यपि कृमाविर्भवति । शुक्लक्रियते । अशुक्लस्य शुक्लस्य क्रिया शुक्कीभवनमिति द्वध्यस्य गुणक्रियाद्रव्यसमूह विकारयोगे ऽतत्वमुदाहार्य क्रियायोगे - कारकीभवति । कारकीकरोति । कारकीस्यात् । द्रव्ययोगे - दण्डीकरोति । दएडीभवति । दण्डी - स्यात् । ‘दीश्कुद्दूगे” [२।२।१३४] [५।२।१३२] इति दीलम् ) समूहे- या सङ्घ सङ्घ करोति सङ्घीकरोति । सङ्घीभवन्ति गावः । सङ्घीयुः । विकारे-पटो करोति तन्तून् । पटीभवन्ति । पटीयुः । घटी. करोति मृदः । घटस्यात् । श्रत्रायमर्थः । यत्र कारणाद्विकारस्याभेदो विवक्ष्यते तत्रायं च्चिः । न तु यत्र काराकार्यस्य भेदः । यथा वीरणेभ्यः कटं करोति । मृदो पदं करोति । कृभ्वस्तियोगे इति किम् ? अशुक्रः शुक्को बायते । तत इति किम् ? शुक्कं करोति । घटं करोति । श्रत्र विकारस्यैव विवद्ध । कारयास्याविवक्षितत्वात् । सम्पत्तग्रहणं किम् ? कर्तुरन्यस्मिन् कारके मा भूत् । अशुक्ले सत् शुक्ले सम्पद्यते । अदेवगृहे सत् देवगृहे सम्पछते । कथं समीपो भवति । दूरीभवति । श्रत्राप्युपचारात् । तत्स्थे द्रव्ये वर्तमानस्य कर्तृलम् ।
मनोरुश्चक्षुश्वेतोरहोरजसः खम् ||४|२| ५६|| मनःप्रभृतीनां शब्दानामलोऽन्त्यस्य स्वं भवति ब्वौ परतः । श्रविशेषेण पूर्वेभवषिः सिद्धः । खमनेन विधीयते । न च खविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधः । सत्यविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधात् । तदन्वानां केवलानां चेह ग्रहणम् | अनुन्मनसम् उन्मनसं करोति उन्मनीकरोति । उम्पनीभवति । उन्मनीस्यात् । प्ररूकरोति । श्ररूभवति । श्रस्यात् । "वीरगे" [२१२३३४] "बी" [५/२/१३५] इति दीत्वम् । उच्चक्षु करोति । उबत्तू भवति । उच्चक्षुस्यात् । विचेतीकरोति । विचेती भवति । विचेतस्यात् । विरहीकरोति । विरहो भवति । विरहीस्यात् । विरजीकरोति । विश्वीभवति । विरश्रीस्यात् ।
साक्ष का ||४/२/५७॥ कृभ्वस्तियोगे ऽतत्तत्वे सम्पत्तरीति वर्तते । तत्तत्वविषये कायें गम्यमाने सादित्ययं त्यो भवति वा । श्रनग्निम् कृत्स्नमस्त्रम् अग्निकरोति श्रग्निसात्करोति । श्रग्निद्भवति । अग्नि सात्स्यात् । उदकखात्करोति । उदकवाद्भयति । उदकसात्स्यात् । यावचनाच्च्चिरपि समुच्चीयते । अग्नीकरोति । rested | कार्यादन्यत्र विश्व भवति ।
सम्पदा चाभिविधौ ||४/२/५८ ॥ नानाद्रव्याणां सर्वात्मना एकदेशेन वा विकाररूपपत्तिरभिविधिः 1 कद्रव्यस्य सर्वात्मना विकाररूपपत्तिः कायैमिति भेदः । श्रभिविधौ गम्यमाने चिवविषये साद्भवति सम्पदा
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4. पा. सु. १५-६१]
महात्तिसहितम्
सम्वस्तिभिश्च योगे । वर्षासु सबै लवणमनुदकमुदकं सम्पद्यते उवफसात्सम्पद्यते । उदकसाकरोति । उदकसाभवति । उकसात्स्यात् । अस्मिन् कटके उत्पातेन सर्व शस्त्रमग्निः सम्पद्यते अग्निसासम्पद्यते । अग्निसालरोति । अग्निसाद्भवति । अग्निसारस्यात् । अत्यनुवृत्तेः कृत्रस्तिभियोगे चिरपि मवति । उदकीकरोति । उदकीभवति । उदकीस्यात् ।
तदधीनोक्तौ ॥धारा४५॥ प्रतत्तत्वे इति निवृत्तम् अर्थान्तरोपादानात् । तदधीनेऽभिधेये सावति । कृम्वस्तिभिः सम्पदा च योगे । उक्तिग्रहणमामात् यत्र तदायत्तं प्रतीयते, तस्मात्स्वामिविशेष वाचिनस्त्यः । राज्ञ आयतं गजाघीनं करोति । राजसात्करोति । राजसात्स्यात् । राजधासम्पद्यते । प्राचार्यसाकरोति । श्राचार्थसावति । प्राचार्यसात्स्यात् । श्राचार्यसात्सम्पयते । वेत्यनुवृत्तवाक्यमपि साधु ।।
देये त्रा च ॥२।६०॥ तदधीनोहाविति वर्तते । देय दातव्यमित्यर्थः । तदधीने देय मिधेय त्रा इत्यर्य त्यो भवति सान्न कम्वस्तिभिः सम्पदा च योगे। श्राचार्याधीनं देयं करोति श्राचार्यत्रा करोति । श्राचार्यसाकरोति । श्राचार्वसारस्यात् । श्राचार्यत्रा सम्पद्यते । प्राचार्यसात्सम्पद्यते । वेत्यनुवृत्तेर्वाक्यमपि । देय इति किम् ? राजमाद्भवति राष्ट्रम् ।
अव्यक्तानुकरणानेकाचोऽनितो डान् ॥धाश६॥ शब्द इति सामान्येन व्यक्तोऽन्यकोsकारादिवर्णविशेषेणाव्यक्तः । तस्यानुकरणं यत्तस्मादव्यक्तानुकरणादनेकाचोऽनितौ डालित्ययं त्यो भवति क-बस्तिभिर्यागे । पटक्करोति । पटपटाकरोति । परन्द्रवति । पटपटाभवति । पटल्स्यात् । पटपटास्यात् । पदिति कियाविशेषणम् । एतत् प्रादिवत् करोत्ययं चिशिनधि न पुनः कारकरवेनाभिसम्बध्यते । मुकारः टिखार्थ । चकारी हाचि' इति विशेषणार्थः । डाचीति विशेष्यनिर्देशात् प्रागेव टिखाद् नित्वम् "म्रो बाधि" ७ि ] इति पूर्वस्य तकारस्य पररूपम् | डावन्तस्थ "
गिर्यादि:"[२३२] इति तिखंज्ञा | एवं दमदमाकरोति । दमदमाभवति । दमदमास्यात् । अव्यक्तानुकरणादिति किम् ? हपत् करोति । अनेकात्र इति किन ? खात् करोति । अनिताविति किम् ? परिति करोति। "शबईस्येवावा [३८५ । इत्यच्छब्दस्य पररूपम् । अनिताविति प्रविषेधार्थकः । कथमति चेत् ? डाजन्तस्य तिसज्ञा । तस्य "प्रारधारते" [ 1986] इति कुम्वस्तिभ्यः प्राक्प्रयोगेऽनिति परतैव भवति । एवं तह तो प्रतिवधवचनम् अनिष्टशब्दनिवृत्यर्थम् । पटच्छन्दादिति शब्दप्रयोगे डाचि कृते इति पटपटाकरोतीत्यनिष्टः शब्दो मा भूत् ।
कयो द्वितीयतृतीयशंवयोजात्कृषी ॥४ा२६२॥ जो महणं भ्वस्त्योनिवृत्यर्थम् । सो योगे द्वितीय तृतीय शंव बीच इत्येतेभ्यः शब्देभ्यो हामवति कृषिविषये। द्वितीयं विलेपनं करोति क्षेत्रस्य द्वितीयाकांच क्षेत्रम् । डााच दिवनित्यमिति वक्ष्यते । योऽसौ करोतेः कर्मणश्च विनई संबन्धः, स उत्पन्ने डाचि निवर्तते । द्वितीयादयस्तु शब्दार प्रादिवत् क्रियाविशेषणभूताः । क्षेत्रं कर्म भावमुपयाति । एवं तृतीयाकरोति क्षेत्रम् । शंकं करोति कुलिजस्य शंवाकरोति कुलपम् । अन्ये तु शंवाकरोतीत्येव सायं दर्शयन्ति । अनुलोमविलोमाभ्यां झर्षतीत्यर्थः । चीनं करोति क्षेत्रस्य बोजाकरोति क्षेत्रम् । वपतीत्यर्थः । सह श्रीजेन विलेखन करोतीत्यर्थः। कृषाविति किम् १ द्वितीय विवरणं करोति सूत्राणाम् ।
गुणासंख्याः ॥ ६॥ कुत्र इति वर्तते । बषाविति च । गुणशब्दान्तासंख्यादेम दो डाज्मवसि कभी योगे । विगुणं घिलेखनं करोति क्षेत्रस्य द्विगुणाकरोति क्षेत्रम् । अथवा द्वौ गुणो विग्य हदर्थे रसः । तस्मात्यः । गुगादिति किम् १ वे परिवर्तने करोति क्षेत्रस्य । संख्यादेरिति किम् ! समगुर्ण रोति क्षेत्रम् । कृषाक्स्येिव ! द्विगुणं करोति वाम् ।
समयासपत्रानिष्पत्रानिष्कुसासुलाप्रियादुःखाशूलासत्याभद्रामद्राः ||६॥ समपा
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अनेन्द्र व्याकरणम्
[अ० ४ पा० २ ० ६५-६६
दयः शब्दा डान्ता निपात्यन्ते । सर्वत्र कृञ्योगे निपातनम् । समयशब्दाद्यापनायां गम्यमानायां डाग्निपात्यते । कालकृता पुरुषकृता वा संस्था समयः । तस्यातिक्रमः कालक्षेपो थापना । समयं करोति पटस्य । श्री दातास्मीति तस्यातिक्रमे समयाकरोति पर्ट कुविन्दः । यापनाया अन्यत्र डाज् न भवति । समयं करोति विवाहस्य । सपत्रनिष्पत्रशब्दाभ्याम् श्रतिव्यधने गम्यमाने दाच् । सपत्रशब्द इद्द विपरीत लक्षयतया निष्पन्नशब्दार्थं वर्तते । सपत्राकरोति मृगं व्याधः । श्रतिपीडयतीत्यर्थः एवं निष्पत्राकरोति । श्रतिव्यथनादन्यत्र सपत्रं वृक्षं करोति जलसेवकः । निष्पत्रं वृक्षवस्थं करोति वाटिकापालः । निष्कुलशब्दान्निष्कोषोऽर्थं बाच् । प्रच्छन्नावयवानां बहिर्निष्कासनं निष्कोषणम् । निष्कुलाकरोति पशुं चाण्डालः । निष्कोषणादन्यत्र निष्कुलं करोति पुरुषम् | उच्छिनत्तीत्यर्थः । सुखप्रियशब्दाभ्यामानुलोम्येऽये डाच् । सुखाकरोति । प्रियाकरोति । स्वाम्यादेरानुकूल्येन वर्तत इत्यर्थः । श्रानुकूल्यादन्यत्र सुखं करोति धर्मः । दुःखशब्दात् प्रातिलोम्येsये डाच् । दुःखाकरोति । प्रातिकूल्येन वर्तत इत्यर्थः । प्रातिकूल्या दन्यत्र दुःखं करोति दुष्कृतम् । शूखशब्दात् पाकार्थप्राये वाच् । शूलाकरोति मांसम् । शूले मांसं पचतीत्यर्थः । पाकादन्यत्र शूलं करोति सिविश्रम् (कदन्नम्) । सत्यशब्दादशपयेऽर्थे डाचू । सत्याकरोति वणिग्भाण्डम् । श्रहमेतद्वारडं क्रेष्यामीति । श्रन्तराले द्रव्यं सत्यंकार व्यवस्थाप्य तथ्यं करोति । (अशपथे किम् ? सत्यं करोति ब्राह्मणः) । शपथं करोतीत्यर्थः । भद्रमद्रशब्दाभ्यां परिवापणेऽर्थं डाचू । भद्राकरोति नापितः शिशून् । मद्राकरोति नापितः शिशून् | परिवापयादन्यत्र भद्रं करोति साधुः ।
सान्ताः ||४|२|६५॥ सान्तमि (न्ता इत्ययमधिकारो वेदितव्यः । श्रपादपरिसमाप्तये विघयो वक्ष्यन्ते सस्यान्ता अवयवास्ते भवन्तीत्यर्थः । नतु वक्ष्यमाणेषु सूत्रेषु कचित्सविशेषाधिकारोऽस्ति कचित्पूर्वपदोत्तरपदनिर्देशः । ततः सामर्थ्यादेव सान्या विधवो भविष्यन्तीति नार्थोऽनेन यत्रार्थविभागोऽस्ति तदर्थोऽधिकारः । यथा ‘“ऋक्पूरवधूःपथोऽमक्षे' [४/२/७०] इति । श्रर्धर्चम् । सग्रहणं किम् ऋक् । अन्तग्रहणं किमर्थम् तद्भयेन प्रहणं यथा स्यात् । इ-र-द्वन्द्वसज्ञाः प्रयोजयन्ति । उपराजम् । "हे शरादे:' [ ४२१०४] "मनः " |४| २|११०] इति सान्ते कृते इशाश्रयोऽम्भावादिः सिद्धः । द्वे धुरो समाते द्विधुरो | त्रिधुरी । "रात्" [३|१|२५] इत्यकारान्तलक्षणो ङीविविः सिद्धः । नूपुरोपानहिनी | "इन्दरार्थे” [२८] इति सान्ते कुते "दोपपाणिनी" [४११५१] इतीन्विधिः सिद्धः । वादेशौ च प्रयोजयतः । व्याघ्रपात् । "लं पावस्याहस्याद” | २३ | इति परस्यादर्माभूत् । "नन्दस्वेद्दत्पूतिसुसुरभिभ्यः " [ ४/२/१३६ ] इति परस्यादेरित्यम्मा भूत् ।
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न स्वतिकिमः || ४२२६६ || सु श्रुति किम् इत्येतेभ्यः परस्य सान्तो न भवति । वक्ष्यमाणेन लक्षणेन विहितः सर्वः सान्तः प्रतिषिध्यते । शोभना राजा सुराबा ! सुखखा । सुगौः । श्रतिराजा । प्रतिखखा । प्रतिगौः । को राजा किंराचा यो न रक्षति । किंसखा यो न स्निह्यति । कियोयों न वहति । इह कस्माप्रतिषेधो न भवति शोभने श्रक्षिणी यस्य स्वक्षः । "स्वाङ्गाद वे क्षिः सकम:" [ ४/२/११३] इत्यसान्तः । श्रत्रोच्यते-''स्वती पूजायाम्" इति विशिष्योक्तत्वात्प्रतिपदोक्लस्य सस्यैव ग्रहणम् न क्सस्य । पूषाया मनमोस्वादचर्यात् । पूवार्थस्यातैर्गंइणम् तेन "भ्रस्यादयः क्रान्ताच इषा" इति प्रतिपदविधाने विप्रतिषेधो न भवति । श्रविक्रान्तो राजानम् अतिरानः श्रुति। क्षेपे किमिति प्रतिपदोक्लस्य महणात् इहापि प्रतिषेधो न भवति । को राधा किंराजः 1 किंसखः । किंगवः ।
नमः ॥४/२/६७ ॥ नत्रः परस्याः प्रकृतेः सान्तो न भवति । प्रापि नञिति प्रतिपदोकस्य षसस्य ग्रहणादन्यत्राप्रतिषेधः । श्रराजको देशः ।
श्रराजा । श्रसखा । अगौः | तृचो माणवकः ।
पथो षा ||४|१२|६८ || नत्रः परो यः पथिशब्दस्तदन्ताद्वा सान्तो न भवति । पूर्वेया नित्ये प्रतिषेधे प्राप्त विकल्पोऽयम् । अपथम् । अथाः । पूह नम: तस्यानुवृत्तेरन्यत्र नित्यो विभिः । श्रपथे वनम् ।
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भ० पा० २ सू० ६३-७६] महावृतिसहितम्
संख्याषाहोऽबहुगणात् ॥४॥६६॥ "संस्पेये संख्यया भवासना" [१३ ] स्यादिना प्रतिपदोक्लो यः संख्याया बसस्तस्मादबहुगणान्तादुर सान्तो भवति । समोपे दशानामिमे उपदयाः । वासमा विशतेरिम शासनविंशः । अदूरे त्रिशतोऽदूत्रिंशाः। द्वौ वा यो वा वित्राः । पञ्चषाः । संख्या. प्रणं किम् १ चित्रगुः। संख्यानसस्य प्रतिपदोक्तस्य ग्रहणादिइ न भवति | विगुः । दशगुः। अबहुगणादिति किम् १ उपबहवः । इदमेव ज्ञापकं बहुगणयोः संख्या संशा भवति । गणशब्दस्य हे सत्यसति च नास्ति विशेषतस्य प्रतिषेधोऽन्यसंख्याकार्यलामार्थः। गणकुखः । गणधा। प्रकरणे संक्याबा पयस्योपसण्यानं निस्विसाधम्"। निर्गतानि त्रिंशतो निस्त्रियानि । निश्चत्वारिंशानि । निरगीतानि वर्षाणि वर्तन्ते । निर्गतस्त्रिशतोऽङ्गुलिभ्यो निस्त्रिंशः खगः। श्रादिशब्दः प्रकारवाची तेन त्र्यादेनं भवति ।
कपुरम्धूम्पथोऽनने ॥४७॥ ऋच, पुर , अप , धूः , पयिन् इत्येवमन्तेभ्यः अइल्पयं सान्तो भषति अनुसंबन्धी चेदशब्दो न भवति । बादिति निबूतं सामान्येन विधानम् । सान्ताधिकारसामर्थ्यात्तदन्तायाम् । अकारस्थानक्षशब्दे परतः वेडको दीवं फस्मान्न कृतम् ? शकवादित्वात्पररूपं द्रष्टव्यम् । सौत्री या निर्देशः । अधर्चम् । अनुचो माणवकः । श्रवचम् | ललाटस्य पूर्ललाटपुरम् ! विगता नापोऽस्मिन् वौपः । समीपः । राज्यस्य धू राज्यधुरा । महाधुरा । मोक्षपथः । राधपथः । अनच इति किम् । अक्षस्य धूः अक्षधूः । घटधूरक्षः। अत्र केषाश्चिदस्ति । “अमृचो मायवो शेयो बच्चरचरखे स्मृतः।" तेनेह न भवति । अनृक्क साम । बनस्क सूक्तम् ।
प्रस्यम्बंधात्मामलोम्नः ॥ ४२७१ प्रति अनु अव इत्येवम्पूर्वात्सामान्ताल्लोमान्ताच प्रः सान्तो भवति । प्रतिगतं साम प्रतिसामम् । अनुसामम् । अवसामम् । प्रतिलोमम् । अनुलोमम् । अवलोमम् | "तिकुमादयः [ARE] इति षसः। श्रन्यपदार्थ वपो वा कर्तव्यः । यदा तु इसः, तदा "श्रमः" [11110] "नपो वा [ 31इति परवाद्विकल्पः । प्रतिसामम् । प्रतिसाम । प्रतिलोमम् । प्रतिलोम ।
"कृचोदापाण्डुपूर्वाया भूमेरस्योऽयमिष्यते । गोदावरच नधारच संख्याया उत्तरे यदि ॥' [.]
कृष्णाभूमः । पारडुभूमः | बसो यसो वा द्वे गोदावयों समाहृते द्विगोदावरम् । पश्चनदम् । सनदीभिश्च" [२०] इति इसः | चकारामिपि भवति । द्विभूमः । सप्तभूमः प्रासादः। कचिदन्यत्रापीष्यते । पद्मनाभः । अनामः । वर्षरात्रः।
अजीपेषणः ॥४॥७२॥ अजीवे वर्तते योऽशिशब्दस्तदन्तात्सात् अ इत्ययं त्यो भवति । कमलस्याक्षि कमलाक्षम् । अथवा कमलमक्षीव कमलाक्षम् । एवं लक्षणाक्षम् ' 1 पुष्कयक्षम् । कवरस्यादि करसचम् । अश्वानां मुखाच्छादनं बहुच्छिद्रकमित्यर्थः । अधीव इति किम् ? अक्षि ।यं प्रागदस्य गवाक्षम् । कटाक्ष शति । एवमादयोऽपि रूढिशब्दा इति न जीवेऽक्षिशब्दस्य वृत्तिः ।
स्त्रोधेनुवारदारात्पुंसनडुन्मनोगोभ्यः ।।४।२१७३। स्त्री, धेनु, वाक्, दार इत्येवम्पूर्वेभ्यो यथासंरल्यं पुंज पनडुङ् , मनस्, गो इत्ये यः श्रा सान्तो भवति । स्त्री च पुमाश्च स्त्रीपुंसी । कचिद्यसेऽपि भवति । पूर्व भी पश्चात्पुमान् स्त्रीस विद्धि राक्षसम् । स्त्रीपुंसः शिखण्डी। द्वन्द्वपसाम्यामन्यत्र न मवति । त्रियाः पुमान् । परिशिष्टेभ्यो इन्द्र एष त्यो भवति । धेनुश्च अनवांश्च धेन्वनडहो । वाक्व मनम वाडमनसम् १ दाराव गावश्च दारगवम् ।
१. कणाक्षम् पू० । २. 'गोम्मा' इति बहुवचनान्तः पाठविण्या, ग्रन्थे सर्वत्रकवचमस्यैव प्रयोगदर्शनात् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[म. १ पा० २ ० ०४-
२७८
ऋवः सामयजुाम् ॥४ारा७४॥ ऋचः पराभ्यां सामयजुर्म्याम् श्रः सान्तो भवति द्वन्दूएवाभिधानम् । अक्च साम च ऋक्सामे । ऋक्त्र यजुश्न ऋग्यजुषम् ।
नविखूपत्रिभ्यश्चतुरः ॥४॥२॥४५॥ न , वि, सु, उप, त्रि इत्येतेभ्यः परश्चत शब्दोऽत्यान्तो निपात्यते । अदृश्यानि चत्वारि अनेन श्रचतुरः। विगतानि चत्वार्यस्य विचतुरा । शोभनानि चत्वार्यस्य सुचतुरः । समीपे चतुर्णाभयमुपचतुरः । त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः । धस एवेदं निपातनम् , नान्यत्र । न चत्वारोऽचत्वार इति ।
नक्तंरात्रिमहोभ्यो दिवम्॥४२७६॥ नवम्, रात्रिम् , अहम् इत्येतेभ्यः परो दिवशब्दो निपात्यते द्वन्द्वे । नलञ्च दिवा च नक्तन्दिवम् | नः सान्तो निपात्यते । रात्री च दिवा च गत्रिन्दिवम् । सूत्रे निपातनादेव रात्रिशब्दस्य मुम् । अहम दिया च अहर्दिवम् । अदाशब्दसन्निधाने दिवाशब्दो रात्रिपर्यायः शक्तिस्वाभाव्यात् ।
द्वित्रिपुरपायायुधः ॥ द्वि, निगुलमन्द-यः सायुषशब्दो निपात्यते । वे अायुषी समाइते द्वधायुषम् । व्यायुषम् । प्रस्तान्तो निपात्यते। रसादन्यत्र न भवति । द्वयोरायुद्धायुः। व्यायुः। पुरुषस्यायुर्वर्षाणि पुरुषायुषम् । लास वेदं निपातनम्, द्वन्द्वे न भवति । पुरूपश्च श्रायुश्च पुरुषायुषी ।
जातमवृद्धादुक्षः ॥४RISEll जात, भइन् । वृद्ध इत्येतेभ्यो पर उक्ष इति निपात्यते । सर्वत्र यसेऽकारः सान्तो निपात्यते । जातश्च सा उता च बाताक्षः। महाक्षः। वृद्धावः । यसादन्यत्र न भवति । जातस्य उक्षा जातीक्षा । मदुता । वृद्धोक्षा।
सरजसोर्षष्ठोषपदधोवाक्षिध्रुबा(व दारगवो') पशुनगोष्ठश्वाः ॥७९॥ सरसादयः शब्दा अत्यान्वा निपात्यन्ते । सइ रजसा सरजसमभ्यवहरति । साकल्ये इसः। इसादन्यत्र न भवति । परन: सलिलम् । उरू च अष्ठीवन्तौ च उर्वठीवम् । अकारस्त्यष्टिखं च निपाल्यते । अष्ठीवन्ती गुल काव्येते । प्राण्यङ्गलादेकवद्भावः । पादौ च अष्टीवन्तो च पदष्ठीयम् । द्वन्द्वेऽकारः सान्तष्टिखं पूर्वपदस्य पद्भावो निपात्यते । अक्षिणी च भ्रवी च अक्षिध्रुवम् ! सुन्द्रावल्लिङ्गम् । दासरावमित्यवादशश्च निपात्यते । शुनः समीपम् उपशुनम् । इसे अः सान्तष्टिस्वाभावो जिश्व निपात्यते । गोष्ठे श्वा गोष्ठश्वः । असान्तः।
पस्यराजहस्तिभ्यो वसंसः ॥४२१८०|| पल्य, राजन्, हस्तिन् इत्येतेभ्यः परो यो वर्चःशब्दस्तवाद: सान्तो भवति । अत्र तासः सम्भवति । पल्यस्य वर्ग: पल्यवर्चसम् । राजवर्चसम् । हस्तिवर्चसम् । "नशवसादिभ्योऽपि वक्तव्यम्" [ वा०] । तेनात् ( नात्ये ) ब्रह्मवर्चसमिति भवति ।
तमसोऽवसमन्धात् ।।४।२८१॥ श्रव, सम् , अन्ध इत्येतेभ्यः परानमःशब्दादः सान्तो भवति । अवहीनं तमः, अबहीनं तमोऽस्मिन्याऽवतमसम् । सन्तमसम् । अन्यतमम् । एसो बो वा ।
निखःश्रेयसः ॥धारा८२॥ निःशब्दात् परो यः श्रेयाशब्दस्तदन्तदस्यो भवति । निश्चितं श्रेयः निम्यसम् | अन (यस एव)विधान न बस इति केचित् । निश्चितं श्रेयोऽनेन निःश्रेयस्कः । वसो वसीयसश्च ॥
४३॥ श्वसः रात् वसीयसः श्रेयसश्च श्रः सात्तो भवति । वसुमच्छन्दा "विन्मतार" [ १२४ । इति ईयसो मतोश्रोपि कृते वसीय इति भवति । श्वोवसीयस कुलम् । श्रः श्रेयसमस्तु ते । उभयत्र मयूरव्यंसकादिवासः ।
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१. वृष्यवरोधादारगवशब्द सूत्रे सविवरय एव ।
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०पा०सू०८-३१]
महावृचिसहितम्
२७९
सप्तान्धवासः ॥४२/६४॥ प्रच्छन्न उपशुप्रयोगो वा रहः । तप्त ऋतु श्रव इत्येतेभ्यः परो यो रहः शब्दस्तदन्तादस्त्यो भवति । सम्भवतः सस्य ग्रहणम् । सर्त रहः तप्तरहसम् । अनुगते रहः नुरहसम् अनुगतं रोऽस्मिन्वाऽनुरइसम् । श्रवरसम्
प्रतेरस ईप ||४||६५ ॥ प्रतेः परात् उरःशब्दादीबर्ये वृत्ते अस्सान्तो भवति । प्रत्युरसम् । विभक्त्यर्थे इसः । श्रथवा स्मिवाक्ये ईवन्तादुरः शब्दादस्त्यो भवति । प्रतिष्ठितमुरखि “ विकुप्रादयः " [ २३२८१] इति षसः । ईप इति किम् ? प्रतिगतमुरः प्रत्युरः ।
उरसि वर्तते प्रत्युरसम् ।
द्विस्ताषात्रिस्तावानुगम् ॥ ४१२८६ ॥ द्विस्ताका त्रिस्तावा, अनुगव इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । द्विस्तावतीति विग्रत्य द्विस्तावा वेदिः । काचिदभिधीयते । मयूरव्यंसकादित्वात्सः । श्रः सान्तः पुंवद्भावष्टिखं
निपात्यते । एवं त्रिस्तावतो त्रिस्तावा वेदिः । वैद्यभिधानादन्यत्र न सर्वात द्विस्तावती भिस्तावती परिखा । अत्रापि श्रध्याहृतक्रियापेक्षया क्रियाभ्यावृत्तिस्ति । द्विस्तावतो मीयते परिभिद्यते वा । तेन सुप् सिद्धः । अनु] [as मधे ] वमिति [स्सान्तो] अत्यान्तो निपात्यते श्रायामिन्यभिधेये । गामन्वायतम् अनुगवं यानम् | “प्राथामिता” [१|३|१३] इति इसः । यथा वैरायतस्तथा यानमप्यायतमित्यर्थः । श्रायाम्यभिधानादन्यत्र न भवति । गवां पश्चादनुगु ।
रध्वनः ||४| २|७|| गिसंज्ञोपलक्षितेभ्यः परादध्वशब्दादस्यो भवति । सम्भवतः सस्य ( सस्य ) ग्रहणम् । प्रगतोऽध्वानं प्राध्वो रथः । प्राध्वं शकटम् ।
बेऽङ्गुलेसिंख्यादेः ॥४२८८|| मिसंख्यादेरङ्गुलिशब्दादस्यान्तो भवति । प्रतिक्रान्तमङ्गुलीरत्यङ्गुलम् । निर्गतमङ्गुलिभ्यो निरकुलम् । संख्यादेः-- द्वयोरङ्गुक्योः समाहारो द्वयङ्गुलम् । लम् | चतुरज्जुलम् । तथा द्वे अङ्गुली प्रमाणमस्य द्वयङ्गुलम् । "हृदये' [३| ३ | ४६ ] इति रसः । प्रमाणेऽर्थे श्रागतस्य मात्र: "ख" ३।४।२६] इत्युप् । वसति किम् ! पञ्चाङ्गलोर्हस्तः ।
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शहर में कदेशसंख्यात पुण्याच्च रात्रेः ||४|२|८६ ॥ षे इति वर्तते । श्रहन् सर्व, एकदेश, संख्यात, पुण्य इत्येतेभ्यः पराद्वात्रिशब्दाद् भिसंख्यादेश्व श्रस्त्यो भवति पसे । श्रश्व रात्रिश्च श्रोत्रः । वस्यासम्भवात् अत्र द्वन्द्वो वेदितव्यः । "अहो रिविधौ रात्रिरूपस्थम्तरेषु” [या०] इति रित्वम् । सर्वा रात्रिः सर्धरात्रः । “पूर्वकालेक” : १||४४ ] इत्यादिना पसः । एकदेशात् - पूर्वां रात्रिः पूर्वरात्रः । अपरा रात्रिः अपररात्रः । उत्तरा रात्रिः उतररात्रः । राज्येकदेशे रात्रिशब्दो वर्तते । ततः सामानाधिकरण्यम् । "विशेषणं - विशेष्येति" [१/३/५९ ] इति सः । संख्यातरात्रः । पुण्यरात्रः । भयादेः - श्रतिक्रान्वो शत्रिमतिरात्रः । नीरात्रः । संख्यादेः- द्वयो राज्योः समाहारो विराजम् । त्रिरात्रम् ।
एभ्योऽहः ||४|१२|०|| राजाऽहः सखिभ्यष्टो विधास्यते, तस्मिन् सति श्रनित्येतस्य श्रादेशो भवति एभ्यः सर्वादिभ्यः परस्य । एभ्य इति निर्देशो झिसंख्यादेरपि ग्रहणार्थः । वत्संवादद्दः शब्दपूर्वस्यं नाश्रयते । सर्वमहः सर्वाह्नः | "टखोरेषांश:' [४|४|११३] इति रिखे प्राप्तेऽनेनाहादेशः । 'मतोऽङ्कः '' [ ५४|११ ] इति णत्वम् । पूर्वाह्नः । अपराह्नः । संख्याताः । पुण्यशब्दात्प्रतिषेधं वक्ष्यति । झिसंख्यादेःनिष्कान्ताऽङ्को निरही कथा । द्वयोरहोर्भवा द्वयही पूजा । व्यही पूजा हृदयें रसे कृते भवायें श्रागतस्यायः “योमनपश्ये' [३|१|७४] इत्युप् । द्यौ रसे संख्यादिः प्रयोजयति । द्वेऽदनो जातस्य द्वयव जातः । त्र्यहजावः । "काला मेथे:" [१।३।६० । इति त्रिपदः षः । एकशब्दात्प्रतिषेधं वदर्यात
न समाहारे ||४२२६१|| समाहारलक्षणे घसे श्रन्नित्येतत्याहादेशो न भवति । पूर्वसूत्रेण संख्यादेरिति प्राप्तः प्रतिषिध्यते । द्वयोरोः समाहारो द्वह । त्र्यह । “खोश्वाह्नः" [४|४|१३३] इति टिलम् ।
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम्
१०२. ३३-१००
अम संख्यादेरिति वक्रव्यम् । इद्द मा भूत् । खङ्गतानि समाहृतान्यद्दानि समहा इति नैष दोषः । प्रतिपदं "अर्थच समाहारे” [१|२२४६] इति समाहारे विहितस्य षसस्येह ग्रइणं न प्रादिलक्षणस्य । समाहार इति किम् ? द्वयोरह्वोर्भवोद्वह्नः उत्सवः । हृदयें रसे कृतेऽय श्रागतस्य "वयोवन पत्ये " [३।३।७४ ] इत्युप् ।
२८०
पुण्यैकाभ्याम् ||४| २|१२|| पुरायैकशब्दाभ्यां परस्य श्रन्नित्येतस्य श्रादेशो न भवति । पुण्यमहः पुण्याहः । एकमहः एकादः । "पूर्वकालेक” [21३/४४] इत्यादिना घसः ।
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राजाऽहासखिभ्यष्टः ||४.२/६३ राजन् श्रहन् सखि, इत्येतदन्ताट्टो भवति । देवराधः । द्वयोरोः समाहारो द्वयहः । परमादः । राजसत्वः । स्त्रियाः पूर्वपदार्थ प्राधान्येऽतिक्रान्ता राजानम् श्रतियत्री | नकारान्तलक्षणविधेः परत्यादनेन : | "मृद्य विनविशिष्टस्यापि महान प० ]हवीह कस्माच भवति ? मद्राणां राज्ञी मद्रराशी । मद्रसखी । श्रनित्यैषा परिमाषेति न भवति ।
गोरहदुपि || ४ | २|९४ ॥ गोशब्दाहो भवति श्रदुविषये । पञ्चानां गवां समाहारः पञ्चगवम् । महामक 1 राजगो | अतिगवी । पञ्चगत्रधनः । श्रनुपीति किम् ? पञ्चभिः क्रीतः पञ्चगुः । दशगुः । हृदयें “संख्यादी रच” [१।३।४७ | छति रखे कृते क्रीतार्थ आगतस्य ग्राहयस्य ठणी "राहुबली" | ३ | ४) २६] इत्युप् । श्रत्रान्तरङ्गत्त्रात्प्रागेव सान्तो भविष्यतीति प्रतिषेधोऽनर्थकः । नैवं शक्यम् श्रनुपीति विषवनिर्देशाविषये प्रतिषेधः । हृद्यं किम् ? सुबुब्विषये प्रतिषेधो मा भूत् । पञ्चगवमिच्छति पञ्चगकीयति । उन्मदणं किम् । हृतः श्रवयविषये प्रतिषेधो मा भूत् । पञ्चभ्यो गोग्य श्रागतं पञ्चगवरूप्यम् । पचगवमयम् । हृदर्थे रसे कृते द सान्द्रः । “हेतुमनुष्याद्वा रूप्यः” । [ २३५५ ] “मगर" [ ३३५६ ] इति रूप्यमययै ।
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उरो ||४|२|९५॥ अयं प्रधानम् । अयं वर्तते य हस्थुरसम् । श्रश्वोरम् । श्योरसम् । समानाधिकरणे वा षसः यवानाम् उरोऽमम् प्रधानम् एवमिद्दान्युरः शब्देन प्रधानभूतं स्योरः पुरुषोरः ।
उरः शब्दस्तदन्तात्षाद्वो भवति । हस्तिनामुरः हस्तिन दबोरस: इस्युरसम् । यथा देहाक विवक्षितम् । श्रमे इति किम् ? पुरुष
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सरोऽनोऽश्मायसः खुजात्योः ||४/२९६ ॥ सरस्, अनस्, अश्मन् श्रस्त्येवमन्वात्षाहो भवति खुविषये जातौ च । अनसर समिति संज्ञा । मण्डूकसरसमिति जातिः संज्ञा वा । महानसमिति संज्ञा । उपानसमिति जाति: संज्ञा वा । स्थूलाश्मः । श्रमृताश्म इति जातिः । पिएडाश्म इदि संश जाति | नकाश्म इति जातिः । लोहितायस इति संज्ञा जातिनी । कालायसमिति जातिः । खुजात्याशित किम् परमसरः ।
ग्रामकीटाभ्यां सक्ष्णः ॥४२४९७|| ग्राम कौट इत्येताभ्यां यस्तच शब्दस्तदन्वात्पाट्टो भवति । ग्रामस्य वचा ग्रामतक्षः । कृट्यां भवः कौटः, कौटश्चासौ तदा कौटततः । स्वायत्तकर्मजीवीत्यर्थः । ग्रामकोटाभ्यामिति किम् ? राज्ञस्तदा राजता ।
शुनोतेः ॥४२॥९८॥ प्रतिशब्दात्परो यः श्वन्शब्दस्तदन्तात्याट्टो भवति । श्रतिक्रान्तः श्वानमतिश्वो वराहः । अतिश्वो नीचजनः ।
उपमानात् || ४|२६६ ॥ उपमीयतेऽनेनेत्युपमानम् । उपमानात्परो यः श्वनुशब्दस्तदन्ताट्टो भवति । व्याघ्र इव श्वा व्याघ्रश्वः । सिंहश्वः । मयूरव्यंसकादिलात् सः ।
श्रजीचे ||४|२| १०० ॥ पूर्वसूत्रे अपमानग्रहणं पूर्वपदविशेषणम् । इह शुनो विशेषणम् । अजीके वर्तते यः श्वशब्द उपमानवाची तदन्ताखाट्टो भवति । श्राकर्षः श्वा इव शाकर्षश्वः । फलकश्वः । "हमाभैरूपमेमोद्योगे [१/३/५१] इति । जीव इति किम् ? वानरोऽयं वा
वानरश्वा |
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अ० ४ पा० २ सू० १०१-31] महावृत्तिसहितम्
मृगोत्तरपूर्णत्सक्नः ॥४११०१॥ मृग, उत्तर, पूर्व इत्येतेभ्यः परो यः सक्थिशब्दस्तदन्ता पाटो भवति । मृगस्य साथ मृगसक्थम् । उत्तरसक्थम् । gaw ! उपहा नाति नाते। ताभित्र सकिए फलकसक्थम् । “विशेषणम्" [॥३॥९२] इत्यादिना प्रसः ।।
नायो रात् ॥धारा१०२॥ नौशब्दान्ताद्राहो भवति । द्वयो वोः समाहारो द्विनावम् । पञ्चनावम् | पचनावप्रियः । द्वाभ्यां नौम्या मागतं द्वितावरूग्यम् । द्विनाचमध्यम् । अदुपीत्यनुवर्तते । पञ्चभिनभिः क्रोतः पञ्चनीः । अाहीयस्य ठरणः "रादुवाखौं” ३।५।१२६] इन्युन । रादिति किम् ? परमनीः ।
अर्वाच ॥हा॥१०३॥ अर्वाच्च परो यो नौशनस्तदन्तात्पाटो भवति । अद्धं च सा नौश्व अर्द्धनाची । "विशेषणम्" [२॥३३५२] इत्यादिना सः 1 लोकाश्रयं नपुंसकलिङ्गमपि दृश्यते । अर्द्धनावमिति ।
स्थायी वा ॥ ४ा२।१०४|| ग्वारीशब्दान्तादाहों भवति । द्वे खा: समाहते द्विग्वारम् । यदा टो न भवति तदा "प्रो नपि" [३।१४७] इति प्रादेशः । द्विवारि । केचि पुंलिङ्गं पठन्ति । तेषां "स्त्रीयोनीचा" [111८) इति प्रादेशे द्विवारिरिति । पञ्चखारप्रियः । पञ्चलाररूप्यम् । पञ्चखारीरूप्यन् । पञ्चवारमयम् । पञ्चरखारीमयम् | पञ्चसु खारीषु भवः पचखारी | टपक्षे को सिद्ध एव । इहाद्धौदिति वर्तते। अईशब्दान्यरो यः खारोशदस्तदन्तात्याटो भवति । अर्द्धवारम् । अर्द्धवारी ।
___ द्वित्रिभ्यामञ्जलेः ॥१०५॥ द्वित्रियों परो योऽञ्जलिशब्दलदन्ताटो भवति । थोरजल्योः समाहारो दूषजलम् । यजलम् । दूधजन धनम् । यजलरूल्यम् । यजलमयम् । केचिद् वेत्यनुवर्नयन्ति । तेन द्वयजालेः । यजलप्रियः । इलाहानुपीति वी । हृदुपि न भवति । द्वाभ्यामजलिम्पो क्रीतो यजलिः । रादित्येव ! दूयोरञ्जलिः द्वयञ्जलिः ।
ब्रह्मणो राष्ट्रेभ्यः ॥१२।१०६॥ राष्ट्रवः परो यो ब्रह्मन्शन्दन्तदन्तात्याटो भवति । रादिति निवृत्तम् | अवन्तिा ब्रह्मा अवन्तिब्रह्मः । सुराष्ट्र ब्रमा सुराष्ट्रनमः । इनिति वोगविभागात्सः । राष्ट्रेभ्यः किम् ? देयब्रह्मा नारदः । .
कुमहद्भयां चा २।२०७॥ कुमइयों परों यो ब्रह्मस्तदन्तायादा टो भत्रति । कुब्रह्म : 1 कुब्रह्मा । महाबलः । महानहा।
द्धन्द्वाच्चुदहतो रार्थ ॥४।२।१०८॥ रार्थः समाहारः। द्वन्द्राद्गार्थ वर्तमानाच्चवर्गदकारहकारप्रकारान्ताटो भवति । वान त्वक्त्र वास्त्वचम् । श्रीलनम् । वामपदम् । छनोपानम् । वाग्विषम् । द्वन्द्वादिति किम् ? पञ्चानां त्वचा समाझारः पञ्चस्वक् । चुदहन इति किम् ? वाकमरिन् । रार्थ इति किम् ? छनोपानहौ।
हे शरदाः ॥३६॥ शखाद्यन्ताहो भवति हसे। शरदादिषु ये यन्तास्तेषां "गिरिन:पौर्णमास्याग्रहायणीमयः" [१२।११२] इति वा टः प्रातो नित्यार्थमिदं ग्रहणम् । हाधिकारः प्रागवताधिकारात् । शरदः समीपमुपशरदम् | प्रतिशरदम् । “लन ऐनामिमुख्येऽभिप्रती" [11३१११] कृति हमः । शरद् । विपाश् । श्रनस् । मनम् । उपाना । उपासद् । दिश । दिन् । हिरक । कियत् । चतुर । हिमवत् । अनहुन । तद् । यद् । जराधा जरस् च । दृश् च । प्रतिपरसमनु योऽक्षणः । पथिन् ।
अनः ॥२।११०|| अन्नन्ताद्धारो भवति । अध्यात्मम् । प्रत्यात्मम् । उपराजम् । परिराजम् ।
नपो वा ॥४२॥११॥ अन इति वर्तते । अन्नन्तं यन्नर तदन्तादादो भवति । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते बिकल्पोऽयम् । उपनर्मम् । उपचर्म । उपकर्मम् । उपक्रम ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० पा० १ सू० ११२-११८ गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीमयः ॥४।२।११२॥ वेति वर्तते । गिरि नदी पौर्णमासी श्राग्रहायणी झय इत्येवमन्ताद्वा टो भवति । गिरेग्न्तरन्तगिरम । अनगिनि । तिष्ठद्ग्यादित्वात्मविधिः । अथवा त्रिभक्त्यथे हसः । अदिर्गिरम् | बहिगिरि । “पर्यपाङ बहिरन्चवः" [१॥३॥१०] । उपनदम् । उपनदि । नपि प्रः | उप. पौर्णमासम् । उपपौर्णमासि । उपाग्रहायणम् । उपाग्रष्टायरिण । झया-उपसमियम,। उपसमित् । उपपदम् । उपदृषत् ।
स्वाहावेऽतिसक्नः ॥२२१२३॥ स्वाङ्गशब्दाद् यौ अतिसक्थिशब्दौ तदन्तात् बाटो भवति । ह इति वेति च निवृत्तम् । कल्याणेऽक्षिणी अत्य कल्याणाक्षः । विशालाक्षी । गौरे, सक्थिनी अत्य गौरसक्यः । स्वक्षः इत्यत्र "न स्वतिकिमः" [१२६६] इति प्रतिवेधः करमान्न भवति ? पमस्य ग्रहराई तत्र व्याख्यातमित्यदोषः । स्वाङ्गादिति किम् ? स्थूलाक्षिरितुः । दीघाक्थि शकटम् । अगाणिस्थत्य स्वाङ्गत्य न भवति । प इति किम् ? उत्तमाक्षि । अापादपरिसमातेर्वसाधिकारः प्रत्येनव्यः ।
द्रुरायडले ॥२११४॥ दारु | अहलिशब्दान्तान्नाहो भवति दारुण्यामा । वे अङ्गली अस्म द्महुलं दारु । अद्गुलम् । चतुरजुलम् । धान्यानां विक्षेपणम् अग्रेगुलीम शात्रय कार्य दारु तदिह गृह्यते । यत्तु द्वे अङ्गली प्रमाणमस्य द्वयक्षुलं दारु । तत्र हृदर्थे बसे कृते "अङ्गुलेमिसंख्यादेः" [१२] इन्यः मान्तः । मात्रटचोप् । हुणीति किम् ? पञ्चाङ्गलिहस्तः ।।
द्वित्रिभ्यां मूर्भः ॥४।२।१६५॥ द्वित्रिम्पा परो यो मूर्धन्शब्दस्त दन्तावाटो भवति । द्विभूर्धः । त्रिमूर्धः। सान्तो विधिरनित्य इति तेन द्विमूर्धा । त्रिमूर्धा ।
उत्स्त्रीप्रमाण्योरः॥२॥११६॥ ट इति निवृत्तम् , स्यान्तरोपादानात् । इटन्ता ये प्रीराब्दाः प्रमाणीशब्दश्च तदन्ताद्वा अल्यो भवति । कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणां कल्याणपञ्चमा राप्रयः । कल्याणीदशमा भार्या । स्त्री प्रमाणी येषां स्त्रीप्रमाणाः। कल्याणी प्रमाणो अासी कल्याणप्रमाणा भायाः । इरस्त्रीग्रहणस्थावकाशः कल्याणोद्वितीया । कल्याणी तृतीया । कल्याणीपञ्चमा रात्रय इति । इस्त्रियां प्रधानत्रौप्रहणं कर्न ज्यम् । छान्यपदार्थवाच्यानां ददन्ता स्त्री प्रधानं यदि भवति तदायं सान्तो भवतीत्यर्थः 1 इट् प्रियादाविनि पुंवद्भावप्रतिधोऽप्यस्मिन्नेव विषये वक्ष्यते । तेनेह सान्तः पुंबद्भावप्रतिषेधश्च न भवति | कल्याणी पञ्चमी अस्मिन् पक्षे कल्याणपञ्चमीकः पक्ष हति । “नेतुर्नक्षत्रे उपसंख्यानम्" [वा०] । मृगो नेता आशा रात्रीणां मृगनेवाः । पुष्यनेत्राः । नक्षत्रादन्यत्र न भवति । देवदत्तनेतृक सैन्यम् ।
लोस्रोऽन्तर्बहियाम् ॥२२१.१७॥ अन्तर, बहिप इत्येताभ्यां परो यो लोमशब्दस्तदनाद्वारस्यो भवति । अन्तर्गतानि लोमान्वस्य अन्तलोमः । बहिलोमः । “मासाभृतित्यान्तपूर्वपदान् ठो वक्तव्यः" [वा.] पञ्च कार्यापणा भृतिरस्य मामस्य "तदस्मांशत्रस्नभृतयः" [३।४।५५] इत्यत्र “संपायाः कोऽतिशतः" [३ ] इति कः । पञ्चको मासोऽस्येति बसे कृते ठः । पञ्चक्रमासिकः । दशकमासिकः ।
नासिकाया नश्चास्थूलात् खो॥४ा२।११।। नासिकाशब्दान्ताद्वादस्यो भवति नश् चादशो नासिकायाः खुविषये न चेल्स्थूल शब्दाल्परो नासिकाशब्दः। इरिव नासिकाऽत्त्य दुगुसः। गौरिव नाभिका अस्य गोनमः । बद्धे भवा वार्डो मासिका अल पाणसः । “निएष्टदरक्तविकारे" [:३३१५१] इति पुंबद्भावप्रतिषेधः । सर्वत्र "पूर्वपदातखावगः" [४०] इति त्वम् । स्थूलादिति किम् ? स्थूलनासिकः। ग्नाविति क्रिम ! तुङ्गनासिकः । "खुरखराभ्यां धा नस् वक्तव्यः [चा०] खरस्येव नासिकाउत्त्या अर्चनायाः खराः । खुरणाः । पन्ने अस्यो भवति खरणसः । कथं शिति नासिकाऽस्य शितिनाः । अहिरिव नासिकाल अहिनाः। अचाया इव नासिकाऽस्य अर्चनाः । "स्खे ज्यायोः क्वचित् खौ छ" [१३१७३] इति प्रः । पमछान्दसा एते शब्दास्तववापि नस् वक्तव्यः ।
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प्र० ५ पा० २ सू० १११-१२८]
महावृत्तिसहितम्
२८३
गेः ॥४।२।३.१६॥ गे: परो यो नासिकाशन्दत्तदन्तावादस्यो भवनि । नश्चादेशः अयमविपये विधिः । उन्नता नासिकाऽत्य उनसः | प्रवृद्धा नामिकाऽस्प प्रणमः | "णवविधौ गेर्नस उपसंख्यानम्" [वा०] इति णत्वम् अत्ये । “वेः वादेशो वक्तव्यः" [4-fini नाश्त्य विखुः ।
सोःप्रातर्दिधाश्वतः ॥२।१२०॥ नोः परे ये प्रातर् , दिया, श्वम् शब्दास्तदन्ताद्वादल्यो भवति । शोभनं प्रातरस्य सुप्रातः । "झे माने टिखम्" [चा०] इति टिखम् । विग्रहवाक्ये शोभनमिति नपुसकन्वं गम्यमानकर्मापेक्षन् । शोभनं प्रातःकाले कर्मास्येत्यर्थः । एवं शोभनं दिवा अस्येति सुदिवः । शोभनं श्वोs स्य सुश्चः ।
प्रोष्टेण्यजास्पदः ॥२।१२९॥ प्रोष्ठ, एणो, अज इत्तोपः परः पदशब्दो असे निपाल्यते । प्रवृद्धौष्ठः प्रोष्ठी गौरित्यर्थः । प्रोस्पेय पादाबस्स प्रोष्ठपदः । अस्तान्तः पादशब्दस्य च पद्भावो निपान्यते । एण्या इव पादावस्य एणीपदः । अनपदः ।
चतुश्शारेरनिकुनेः ॥धारा१२२॥ चतुश्शारिंशब्दाभ्यां परी यो असिंकुक्षिशब्दौ तदन्ताद्वादरल्यो भवति । चतरलोऽलोऽस्य चतुरस्रः । शारेवि कुक्षिरस्थ शारिकुक्षः ।
नजदस्सोः सक्थिहले धारा१२३।। नञ् , दुम् , मु इत्येतेभ्यः परौ यो सक्थिहलिशदो तदन्तादल्यो वा भवति । अविद्यमानं सक्थि अस्य असक्थः । असक्थिः । दुस्सक्थः । दुपस्थिः । सुसक्थः । सुसक्थिः । महदलं हलिः । यविद्यमानो हलिरस्य अहलः | अइलिः | दुहलः । दुईलिः | सुइलः । मुहलिः | सक्थि शब्दस्थाने सक्तिराई केचित्पठन्ति । मन्जनं सक्तिः ।
प्रजामेधाइस ॥४॥२१२४॥ बेनि नाधिकृतम् | नम् , दुम् सु इत्येतेभ्यः परौ यो प्रजामेधाशब्दो तदन्ताद्वादसित्यवं त्यो भवति । न विद्यते प्रजा अस्य अप्रजाः। दुष्प्रजाः । सुप्रजाः। न विद्यते मेधा अस्य अमेधाः । नुमेधाः | "बल्याच मेधामा इति वक्तरूपम् " पा०] अल्पमेधाः । अल्पमेधसौ । अल्पमेधसः |
धर्मात्केवलादन् ॥४।२।१.२५॥ केवलो धर्मराब्द एव अत्रोत्तरपदम् अन्यमा (म)थ्यपद नास्ति तदन्ताद्वादन्नित्यय त्यो भवति । साधुनामिव धर्मोऽस्य साधुधर्मा | प्रियधर्मा | केवलादिति किम् ? परमः स्वो धर्मोऽस्य परमस्वधर्मः । सन्दिग्धसाध्यधर्मः ।
सुहरित तृणसोमाजम्भात् ॥१२।१२६॥ जम्मशो दन्तविशेषवाची अभ्यवहार्यवाची च | सु, हरित, नृण, सोम इत्तेभ्यः परो यो जम्भशब्दलान्तादनित्यवं ल्यो भवति । शोभनो जम्भोऽस्य सुजम्भार शोभनदंष्ट्रः शोमनाहारो वा । हरितमित्र जम्मोडल हरितानि वा जम्मान्यस्य वा हरित जम्मा । तृणमिव जम्भोऽस्य तृणानि जम्भोऽस्य वा तृगु जम्मा । एवं सोम जम्मा | स्वादिश्च इति किम् ? स्थूलनामः ।
दक्षिणेमी लुब्धयोगे सारा१२७॥ इममिति बहुनामयेयं अपनामधेयं वा । दक्षियोति वसोऽनन्तो निपात्यतै लुब्धयोगे । दक्षिणमीममस्य दक्षिणेमी मृगः । व्याधस्य हन्तुकामस्य दक्षिणमङ्ग बहुकृत्वा स्थितः । अथवा दक्षिणमङ्गं मागतमय व्याधेनेत्यर्थः । लुन्धयोग इति किम् ! दक्षिणेमः पशुः ।
अइय धारा१२८॥ शब्देन आर्थः कर्मव्यतिहारो ग्रहणप्रतिग्रहणादिलक्षणो गृह्यने । साथै यो बसस्तस्मादिजिया त्यो भवति । चकारः तिष्ठदग्वादिषु इजिति पठ्यते तत्र विशेषणार्थः । "तनेदमिति सरूपे" [३ ] "तेनेइम्" [१॥३॥६०] इति च अयं बस: कमव्यतिहारे वर्तते । केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्त केशाकेशि । कचाकचि । इचलिष्टद्वादिषु पाटात् इसंशः । “अन्यस्यापि" [३३२३२] इति पूर्वपदस्य दीत्वम् । दण्डैश्च दण्डैश्च इदं युद्ध दण्डादण्डि । मुसल मुसलि युद्धं वर्तते ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ४ पा० २ ० १२२-१३६
द्विदुराज्यादिः ||४|२| १२६६॥ द्विदण्ड्यादयः शब्दा इजन्ता निपात्यन्ते । यथा गणे पठितास्तथैव साधवो बसेऽभ्या च भवन्तीत्यर्थः । द्वौ दण्डौ श्रस्मिन् प्रहरणे द्विदारोड प्रहर्शते । द्विनुसलि प्रहरति । क्रियाविशेषणाअन्यत्र न भवति । द्विदण्डा शालेति । सेऽपि भवति । निकुच्य कर्णौ निकुन्यकणि धावति । श्राकुच्यपादौ श्राकुच्यादि रोते । मयूख्वंसकादित्याः । पादस्य च पहावो निपातनात् । प्रो पानी प्रोपद हस्तिनं बाहयति | दिवि । द्विमुसलि । उभान्जलि | उभयाञ्जलि | उभाकरियै । उभयाकथि । उभादस्ति । उभवाहस्ति । उभावाणि । उभकपाणि । उभात्रा | उमवाचादु । निपातनादिनः खम् । एकपदि । प्रोदि । श्राकुच्यपदि । निकुच्यकणि । संहत पुच्छि ।
समाजानुनोः ॥४२॥ ३० ॥ सम्प्र इत्येताभ्यां परस्य जानुन्दस्वज्ञ इत्ययमादेशो भवति बसे । सङ्गते जानुनी अस्य संशः । प्रकृते जानुनी अस्य प्रज्ञः । इत्युकारान्तः केचिदादेश: । मद्वयमपि प्रमाणम् । वोऽर्ध्वात् ॥४२१३१ ॥ अध्वंशब्दात्परस्य जानुशब्दस्य वा इत्ययादेशो भवति । ऊर्ध्वं
जानुनी अस्य वंशः ऊर्ध्वजानु, ऊर्ध्वजानुको या ।
२८४
ऊधसोऽनङ् ||४|५|१३२|| ऊधः शब्दान्तस्य त्यादेशो भवति सान्तः । कुण्डमित्र ऊधोऽस्याः कुण्डोध्नी । परत्वात्सकारस्य श्रनादेशे कृते पश्चात् " ऊधसः " [३|१|१३] इति विधिः । एवं घटएव वोऽस्या घटोनी | छह मा भूत् । महोधाः पर्जन्यः । अनङयकार उत्तरत्र सार्थकः । दह नादेशेऽपि न दोषः ।
धनुषः || ४|२| १३३|| धनुःशब्दान्तस्य सस्य अनादेशो भवति । माण्डीवं धनुरस्य गाण्डीवधन्वा । जगवधन्वा । शार्ङ्गधन्वा ।
वाखौ ||४/२/१३४॥ धनुः शब्दान्तय सस्य वा नङादेशो भवति सान्तः खुविषये । पूर्वेण नित्ये प्राते विभाषेयम् । हर्द धनुरस्य धन्ा । दृधनुः । पुष्पधन्वा । धनुः ।
जायाया निङ् ||४|२| १३५ ॥ जायाशब्दान्तस्य सस्य निङादेशो भवति । युवतिजया वस्त्र युवनिः । वधूजानिः । आकारस्य निङादेशः | "बलि क्योः खम्" [४३५५] इति यकारस्य खम् ।
गन्धस्येरुत्पूतिसुसुरभिभ्यः || ४|२| १३६|| उन्, पूर्ति, मु, मुरभि इत्येतेभ्यः परस्य गन्धशब्दस्य • इकार आदेशो भवति सान्तो बसे । उद्भूतो गन्योऽस्य उद्द्रन्थिः । पूतिर्गन्धो पूर्विगन्धिः । सुगन्धिः । मुरभिगन्धिः । अयं गन्धशब्दोऽस्त्वेव गुणवचनः । तथथा उत्पलगन्धः | चन्द्रनगन्ध इति । ति द्रव्यपचनः । तद्यथा गन्धान् पिनष्टति । तयो मुख्य गुणवचनस्तत्य ग्रहणम् । तेनेह न भवति । शोभनो गन्धो सुगन्ध आणिकः |
श्रल्पाख्यायाम् ||४१२/१३७॥ अपपर्यायो यो गन्धशब्दस्तदन्तस्य भस्य वा दकारादेशो भवति सान्ाः । श्रभिधानवशाद् व्यधिकरणोऽत्र त्रयः । ग्रन्नस्य गन्धोऽगिन् ग्रनगन्धिः | अन्नगन्धम् । घृतगन्धि । धृतगन्धम् भोजनम् | अथवा अन्नं गवोऽयमस्मिन्निति समानानिकरणो ब्रसः ।
||४२१३८|| उपमानात्परो यो गन्धशब्दस्तदन्तवकारादेशो भवति । पञ्च गन्ध गन्धोऽस्य पद्मगन्धिः । पञ्चगन्धः । उत्पलगन्धः । उपलगन्धिः ।
खं पादस्याहरुत्यादेः ॥४२१३६॥ वेति निवृत्तम् । उपनानादिर्तते । स्वादिवर्जितादुपमाना रस्य पादशब्दस्य खं भवति । बसे सान्त इत्यनुवर्तनात् वह "परस्यावे: " [१२११५१] इति परिभाषा नोपतिष्ठते । व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपाद् । सिंहपाद् । श्रस्यादेरिति किम् ? हस्तिन च पादावस्य हस्तिपादः । कपोत ( लक) पाद: । हस्तिन् । कपोलक । गएडोलक | गण्डके । महिला । दासी । गणिका । कुसूल ।
J
1
१. वूक पू० । २. महेवा ब० पू० ।
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०पा० २ सू० १४०-१५१]
महावृत्तिसहितम्
२८५
सुसंख्यादेः || ४|२|१४० ॥ सुश्च संख्या च मुसंख्ये ते श्रारी यस्य तस्य स्वादेः संख्यादेव पादशस्य स्वं भवति बसे ! शोमनौ पादावस्य सुपाद् । द्वौ पादायस्य द्विधाद् । त्रिपाद् । चतुष्पाद् 1
कुम्भपद्यादिः ||४|२|१४१ ॥ कुम्भपदप्रभृतयः शब्दा निपात्यन्ते । क्वचिद्वेऽपि खे कृते “पादो " [३|१|१५] इति विकल्पे प्राये नित्यो ङीविधिर्निपात्यते । कुम्भ इत्र पादावस्या कुम्भपदी । एकः पादोऽम्या एकपदी | शितिपदी | सूत्रपदी । सूत्रसितपदी । सितसूत्रपदी । गोधापदी | जालपदी । जलपदी। कलशपटी । विपदी | सुपदी | निष्पदी | आर्द्रपदी । द्रोणपदी । कुटीपदी । कृष्णपदी । सूकरपदी मुनिपदी शकृत्पदी | अष्टपदी |
वयसि दन्तस्य द ||४||१४|| मुख्यादेरिति वर्तते । स्वादेः संख्यादेश्व दन्तशब्द द इत्ययमादेशो भवति बसे वयसि गभ्यमाने । शोभना दन्ता अस्य सुजाता वा सुदन् कुमारकः । द्वौ दन्तावस्य बालकस्य द्विदन् । त्रिदन् । चतुर्दन् । यसीति किम् ? सुदन्तो दाक्षिणात्यः । चतुईन्त ऐरावतः ।
स्त्रियां खौ || ४|२|९४३ ॥ स्त्रीलिङ्गेऽन्यपदार्थ दन्तशब्दस्य दनु इत्ययमादेशो भवति सान्तः खुविषये । अय इव दन्ता अस्था प्रयोदती । फालदती । त्रियामिति किम् ? नागस्येव दन्ता अन्य नागदन्तको नाम कश्चित् । खाविति किम् ? समदन्तो | "नासिकोदरोष्ठ" [ ३|१|४०] इत्यादिना ङी विधिः ।
वा श्यावारोकात् ||४|२| १४४ || स्त्रियामिति निवृत्तम् । खाविति वर्तते । श्याव श्रशेक इत्येताभ्यां परस्य दन्तशब्दस्य वा दत्तु इत्ययमादेशो भवति लान्ती बजे । श्वावा दन्ता अस्व श्यावदन् । श्वाचरन्तः । रोका निशिद्वाः निर्दीत वा दत्ता ग्रस्य ग्ररोकदन् अरोकदन्तः ।
शुद्धाप्रान्तशुश्रनुपच राहात् ||४|२| २४५ ॥ साविति निवृत्तम्। वैति वर्तते । शुरू, श्रान्त, शुभ्र, घ वराह इत्येतेभ्यः परस्य दन्तराञ्चल दल इत्ययमादेशो भवति बसे सान्तः । शुद्वा दन्ता श्रस्य शुद्धदन्, शुद्धवन्तः । कुड्मलाग्रमिव दत्ता अस्य कुण्डलाग्रदन् । कुड्मलाग्रदन्तः । शिखराग्रदन् । शिखराप्रदन्तः । शुभ्रदन् । शुभ्रदन्तः । पदन् । वृषदन्तः । वराहृदन् । वराहृदन्तः । " अन्येभ्योऽपि भवतीति वक्तव्यम्' [0] हिन् । श्रहन्तः । मृपिकादन् । भूषिकादन्तः ।
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ककुदस्यावस्थायां खम् ||४|२| १४६ || कालादिकृतो चालादिभावोऽवस्था । ककुदराच्यान्तस्य सं भवति तान्तः अवस्थायां गम्यमानायाम् । श्रसज्जातं ककुद्मस्य जातककुन् । पूर्णककुद् । वृद्धः । यत्रिककुद् । मध्यशरीर इत्यर्थः । श्रवस्थायामिति किम् ? श्वेतककुदः । कथं ककुद्मनिति ? यात्रादिषु हलन्तानिपातनात्सिद्धम् |
अत्रिककुद् ||४२१४७॥ श्रान्यपदार्थों से निपात्यते । त्रीणि ककुदान्यस्य त्रिककुद् । श्रद्रेरियं संज्ञा | अन्यत्र त्रिककुद इति भवति ।
व्युदः काकुदान्तात् ||४२१४८ ॥ विदू इत्येताभ्यां परस्य काकुदरायस्य खं भवति सान्तं चते । विशिष्टं काकुदमस्य विकाकुद् । उत्कृष्ट काकुदमस्य उत्काकृत् ।
पूर्णा ॥ ४/२/१४९ ॥ पूर्णशन्दात्परस्य काकुत्य वा रवं भवति सान्तं चसे । पूर्णकाकुन् । पूर्णकाकुदः ।
सुहृद् ईदौ मित्रामित्रयोः ॥४२॥ १४०॥ सुद् दुई प्रत्येतौ शब्दौ निपात्येते यथासंख्यं मित्रामित्र वोरभिधेययोः । सुदुस शब्दाभ्यां परस्य हृदयशब्दस्य बसे हृदादेशो निपात्यते । शोभनं हृदयमस्त्र सुहृद् मित्रम् | दुष्टं हृदयमस्य दुई दमित्रम् । मित्रामित्रवोरिति किम् ? सुहृदयः साधुः । दुर्द्धादयः खलः ।
उरःप्रभृतिभ्यः कप् ॥४/२/१५१ ॥ उरःप्रभृत्यन्ताद् भास्कत्रित्ययं त्यो भवति सान्तः । व्यूढमुरोऽस्य व्यूढोरस्कः | "कुप्वोत्ये " [५।४।२६] इति रेफ्स्व सत्यम् । प्रभूतसर्पिष्कः । " इणः पः" [ ५२२७] इति पत्रम् |
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० २ सू. १५२-१५६ चित्रोपान-कः । उरस् । मथिए । उपाना । पुमान् | अनड्वान् । पुमागित्येवमादयः पञ्चशब्दा विभक्त्यन्ताः पठ्यन्ते । एकवचनान्तानामेव यथा स्यात् । द्विवचनबहुवचनान्तानां मा भूत् । तत्र "शेषादा" [२२५५] इति विकल्प एव भवति । द्विपुंस्कः । द्विमुमान् । बहुपुंस्कः। बहु पुमान् । दरी । "कम्मोः " [४।२।१५३] इत्येव सिद्धः किमर्थं दरीशब्दः पठ्यते ? "सहेति तुल्ययोगे" [११३।६१] इतीदं सूत्र कबभावार्थमिस्मिन् पन्ने कग्रहणामिदं वचनम् । दधि । मधु । शालि । अर्थानमः । कथमयं प्रयोगः । "अन्यथर्वकथमिभंस्वनात्" [
२३] पनि मनोऽवम् !
जनः खियाम् ॥४।२१५२|| इनन्ताद् वात् कनित्ययं त्यो भवति स्त्रियामन्यपदार्थ । बहवो दरिड. नोऽस्यां बहुदरिद्वका | एवं बहुस्वामिका | बहुवाग्मिका | स्त्रियामिति क्रिम् ? बहुदण्डी ग्रामः । बहुदण्डिको वा ।
ऋन्मोः ॥४ा२।१५३॥ ऋकारान्ताम्मुमेज्ञान्ताच्च बात्कन् भवति सान्तः । बहुक्रतुंकः1 तकार उन्ना रणार्थः । बहुकुमारिकः । बहुब्रह्म बन्धूकः ।।
शेपा वा ॥२१५४|| यस्माद्रात्सान्तो न विहितः स शेपः । शेपाद्वात् वा कञ् भवति सान्तः । बहरः खट्वा यस्य सः बहुखट्वाकः । बहुखट्यः । “ऋपूरब्धूः” [४२७०] इत्यादिना सूत्रेण विशेषो व्याख्यातः । "अनुचो माणवो ज्ञेयो यहचश्चरणे स्मृतः" ततोऽन्यत्रार्य विकल्पः । अनुकम् साम । अमक साम । बक्क सूक्तम् । बहरसूक्तम् । शेषादिति किम् ? प्रियपुरः । प्रियपथः ।
नखी ॥४॥२१५५॥ विषये बात् कर न भवति । येन केनचित्प्रातस्य कपोऽयं निषेधः नामप्र(ग्रा). मः ? ' ' ' | विश्वदेवः । विश्वथशाः । श्वेता अश्वतयो यस्य श्वेताश्वतिः ।
ईयसश्च ॥४।२।१५६॥ ईयसन्ताद्वात्क न भवति । येन केनचित्याप्तस्य प्रतिषः । बहवः श्रेयांमोऽस्मिन् बहुश्रेयान् । विद्यमानश्रेत्रान् । "शेषाद्वा" [२।२।५५] इति प्राप्तस्य प्रतिषेधः । "मृद्महरो लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्" वा०] बढ्यः श्रेपस्पोऽस्य बहुश्रेयसी पुरुषः । “अन्मो" श५३] इति प्राप्तस्य प्रतिषेधः। अत्र "नोगोर्नीचः" [१] इति प्रादेशोऽपि न भवति। उक्तं हि तत्र-"ईयसो बसे पुंवभाववचनम्" वा०] । नाम चद्वचनेन स्त्रोत्याप निवृत्तिरिष्ठा किं तर्हि यथा पुंसि ईकारस्य प्रादेशो न भवति । ग्रामणी देवदत्त इति । एवमीवतः परस्यापि स्त्रीत्यस्य । अथवा प्रश्लेपनिर्देशात् ईकारः सिद्धः । ई ईयतः यस इति । नकार स्नियामित्वस्थानुकर्षणार्थः । तेन स्त्रियामीकारो भवति । न प्रादेश इति ।
स्तुते भ्रातुः ॥धारा१५७॥ स्तुतं पूजितमित्यर्थः । स्लुलेऽर्थे यो भ्रातृशब्दस्तदन्ताद्वात्कन्न भवति | शोभनो भ्राता पस्य मुभ्राता | दर्शनीवभ्राता | स्तुत इति किम् ? दुतकः । मूर्खभ्रातृकः ।
नाहीतन्त्र्योः स्वारे ॥४२॥१५८॥ स्वाङ्गमिह पारिभाषिकम् । स्वाङ्ग यौ नाइौतन्त्रीशन्दौ वर्तते तदतादात्कन्न भवति | बलयः नाक्ष्योऽस्मिन् बहुनाडिदेहः । बहुनाडिजता । बड्व्यः तन्यो धमन्योऽस्या बहुतन्त्रीगीवा । स्त्रीत्यो न भवतीति प्रादेशो नास्ति । स्वाङ्ग इति क्रिम् ? बहुनाडीकः सम्भः । बहुतन्त्रीका वीणा ।।
निष्प्रयाणिः ॥२२१५६|| प्रकर्षण ऊयतेऽस्यामिति प्रवाणीति निपात्यते । निर्गता प्रवाणो अस्य निष्प्रवाणिः कम्बलः । प्रत्यग्र इत्यर्थः । “ऋन्मोः" [३।२।५३] इत्यस्य प्रतिषेधः । ये तु प्रवाणीशब्दमिकारान्तं पठन्ति तेषां "शेशद्वा" [1२।५४] इत्यस्य प्रतिषेधः । "त्यः" [२॥111] "पर!" [२।१।२] “ड्याम्मृदः" [३।१३] इत्येषामधिकाराणामिदमवसानम् ।
इत्यमयनन्दिविरचितायो महावृत्तौ चतुर्थत्याध्यायत्व द्वितीयः पादः समाप्तः ।
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थ० ४ पा० ३ सू० १-७ ] महावृत्तिसहितम्
२८७ आदेरेकायो द्वे ॥३॥१॥ श्रादेरेकाचो द्वे भवत इत्येतदधिकृतं चेदितव्यम् । यदित ऊर्ध्व पक्ष्याम श्रादेरेकाचो द्वे भवत इत्येवं तद्वेदितव्यम् । बच्यति "लिधुच्कचिौंः " [४।३।७] बोगटेरक्यवस्यैकाचो द्वे भवतः । पपाच | जुहोति । अपीछन् । एकोऽन् अवययोऽस्य सोऽयमेकाच् । अवश्वेन विग्रहः, समुदायो वृत्यर्थः । तद्गुणविज्ञाने बसे समुदायान्तभु नोऽवयव इति साकस्य द्वित्वम् । परत्वादैपि कृते पाच्छब्दस्य शन्दतोड यंतश्चान्तरतमौ दो पाच्छन्दौ । द्विःप्रयोगश्च द्वित्वम् । स्थाने हि द्वित्वे जिघांसतीत्यत्र शब्दान्तरत्वाद्धन्तेः कुत्वं न स्यात् । श्रादेरिति किम् ? बजागार | इत्यमाद्यस्य माभूत । एकाच इति किम् ? हामात्रस्य माभूत् । फ्नाचेत्यत्रादित्रं व्यय देशवदायेन तथा प्रथमगमगा इता नारी । इयाय पारेत्यत्र एका त्वमपि उपचारात् । यथा स्यूलशिरा राहुरिति ।
अचः ॥४॥३॥२॥ इहादेरित्यत्रो विशेषणम् | आदेः परस्पैकाचो द्वे भवत इत्यधिक्रियते 1 अटिटिपति । अटाटयते । आटिटत् । मत्यपि सम्भये आदेदि त्वत्य बाधकमिदम् । दधिदानस्वर तदानम् । शास्त्रेऽपि द्वीप इत्यत्र "यनगैरीदपः" [।३।२०२] इत्ययमादिविकारोऽन्यविकारस्थ वाधकः । यथावत्यान्चो द्विलं न भवति तथा व्यञ्जनत्यापीति न दोषः ।
न स्फादौन्द्रोऽयि ॥४॥३३॥ इहादेरच इति वर्तते । आदेरचः परे स्पादौ वर्तमाना नकारदकाररेफा न द्विरुच्यन्ते अायकारे | इन्दिदिवति । उन्दिदिपति । आड्डिडिपत्ति । अचिंत्रिपति । उब्जिजिपति 1 इन्वत्र इकारो पने चुना योगे च "उद्रेः” इति वचमुक्तम् । तस्यासिद्धत्वात्प्रतिषेधः । अभ्युद इत्यत्र कुत्वन्य सिद्धाद्वत्वं न भवति । "ईर्मतेस्तृसीयस्य द्वे भवत इति वक्तव्यम्" [घा०] केचिदाहस्तृतीयस्पैकाव इति । तैन सनो द्वित्वे ईपि यति । श्रपर बाहुस्तृतीयस्य हल नि | इंथियिपति । “करावादीनां तृतीय स्कायो हिरवं भवतिः" [वा. ] कएथियियति | "सुबधूनांच तृतीयस्वैकाचो द्विस्वं भवति" । [वा०] अश्वियिशित । अपर बाहुः । “यश्रेष्टं सुधुषु बक्तव्यम्" [ वा. ] पुपुत्रीयिपति । पुतित्रोविपति । पुत्रोयि यति ।
थः॥४३॥ द्वे इति वर्तते । तत्य संजित्वम् । ते द्विरुक्ते समुदिते थसंज्ञे भवतः । दात | ददनु । अददुः । दधति । दधतु । श्रदधुः । थसंशायां सत्याम् अस्य "अत्थात्" [191] इत्यदादेशः । “थस्नोरातः" [ 100] इत्याकारस्य खम् । लङो भैः "थविसेः" [२४] इति भयोल | समुदायस्य थसंज्ञा किं प्रयोजनम् ?.चस्य खे मा भूत् । ईसन्ति । ऐमन् । प्रत्येक पर्यायेण च माभूत् । थप्रदेशाः । “थविरसे" [शाम] इत्येवमादयः।
अक्षित्यादयः ॥४॥३५॥ जदित्यादयश्च पञ्च थसंज्ञका भवन्ति । जक्षति | जक्षतु । अजन्तुः । जाग्रति । दरिद्रति । चकासति । शासति । जक्षितैल्तिपीटं कृत्वा गुनिर्देशः किम् ? "सदादे" [4/11१३५] इत्यन पञ्चग्रहणमनुवर्तते इति ज्ञापनार्थः ।
पूर्वश्चः ॥४॥३६॥ द्विस्तयोः पूर्वोऽवयवश्वसंज्ञो भवति । पपाच । पिपत्तति । पापच्यते । अपीप-चत् । चसंज्ञायां सत्यां प्रादेशः । “सन्यतः" [५।२११७६] इत्यम् । "हलोऽनादेः" [पा२।१६१] लम् । “दीरकितः" [पारा1८०] इति “धेदीः" [१२।१६०] प्रकृतिचरां प्रकृतिचर इत्यादि कार्यम् । चप्रदेशाः "चस्यान सम्" [१२।१३०] इत्येवमादयः ।
लिडुकचि धोः ॥४॥३॥७॥ लिटि, उचि, कचि च परतः धोरादेवयवस्यैकाचोऽचः परस्य च द्वे भवतः । पपाच । प्रोणु नाच । उचि--जुहोति ! बिभेति । उचि बुद्धिकृतं पौर्यापर्यम् । उक्तं च
"सर्वाश्चेष्टा बुद्धौ कृत्वा वक्ता धीरस्तन्वतिः ।
शुन्देनार्थान्याच्यान् दृष्ट्वा बुद्धौ कुर्यात्पौर्वापर्यम् ॥" कचि-अपीपचत् । पचेणिचि लुके कचि च कृते णित्रमुखः प्रादेशो द्वित्यम् । एवं हि योऽनादिष्टादचः पूर्वस्त
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निन्द्रध्याकरणम् [म । पा० ३ सू० -13 प्रति स्थानिवद्भाव इति धौ कच्यनक्खे सन्वदिति धौ परतः सन्वगावों विधीयमानः प्रस्य स्थानिव [भावाने प्रतिषिच्यते ।
सम्यङो ॥३|| प्यस्य पुत्रपत्योर्जिः ॥३६॥ वन्धी थे॥४॥३॥१०॥ वचिस्वपियजादीनां किति ॥४।३.११॥ अहिज्यावधिव्यधिवशिव्यचिनश्चिमच्छिनजां उिति च ॥४॥३॥१२॥]
नर्धकः । यद्यम्बन्तस्य प्रकृतिबद्भावी योऽन्यस्मिन्नेति तिपा नियों यथास्तिभवत्योभिंडोति या अन्तस्य मिङ्यपातिषेधो मा भूत् । त्रोभवीति । इह तु यापि त्याने त्याश्रमिति प्राग द्वित्वाजिर्भवत्येव । वेवेक्ति । यष्टि । बर्भजीति ।
चस्यैषां लिटि ॥४३॥१३॥ एषां वच्चादीनां लिाटे परतश्चस्य जिभवति । उवाच । उवचिथ । इयाज । इयजिथ | उवाप । उयपिथ | नुवाप । सुष्वपिथ | जिन्यौ । जिज्याय । वेत्रः स्थानिवद्भावेन उवाय | उवयिथ । उवास | उबसिथ । विव्याध । विन्यधिय । बिन्याच | विव्यविथ | अहिभ्राजपच्छामविशेषः । अश्चेस्तु वनश्च वश्चिय "न औ जिः [३३॥३१] इति वकारस्य न भवति । पिदमिदम् । किमु परतः परत्याज्जौ कृते द्वित्वम् । उत्रनुः । ऊचुः । अनन्तरपरिभाषा घनित्या। अधिकाराच्यादीनामेव ग्रहणे मिद्धे एषौ ग्रहणं चखनिवृत्वर्थम् ।
__ कचि स्वापः ॥४॥३१॥ कचि परतः त्वापेजिर्भवति । अपुपत् । अस्पताम् । असूघुपन् । स्वर्णिनि लुडि कचि च कृते द्वित्वात्परत्वादनेन जिः । “युः" [५१२२८३] एस् । "णो कच्युङः" [५१२१११५] इति प्रादेशो द्वित्वम् । घेदवम् | चीति किम् ? स्वापितः । ताप्यते । स्वापेरिति किम् ? स्वगि-युच्यमाने बचनात्केवलादपि कम् - स्यात् । स्वरुपं करोतीत्यत्रापि काँचदिन्छन्ति । केवलमक्तिः (क्वतः ) सन्बद्भावाभावात् घेदीत्वं न भवति । अनुघुपत् ।
स्वपिस्थमित्रां यङि ॥३३शान्यपि त्यमि व्येन् पश्येतेषां यडि जिर्भवति । मोसुप्यते । सेसिम्यते । येत्रीयते । स्वपिव्येनोः किति जिविहितः । यडि सधैंपाममाते विधिः । “वशे कि प्रतिषेधो वकम्यः" [चा०] वावश्यते । “अहिज्यावशि" [१।३।१२] इति पाटे प्रातिः । यीति किम् ? स्वप्नः ।
चायः की ॥४॥३॥१६॥ त्रायः की इत्ययमादेशो भवति यझि परतः । कोयते । चेकीते। चेकीयते । दीत्वोच्चारणं किम् ? “दीरद्गे" [५।२।१३४] इति यत्र दीत्वं नास्ति तत्र वडपि श्रवणार्थम् । चेकीतः । चेकीथः। .
स्फायः स्फीस्ते ॥४॥३॥१७॥ फायः स्फी इत्यवमादेशो भवति तमंज परतः । स्कीतः। सीतवान् । त इति किम् ? स्फाय्यते । स्फातिः | मझौतीभवतीति च्च्चन्तस्य रूपम् |
प्रस्य स्त्यः ||१८|| ते इति वर्तते । प्रपूर्वस्य ल्यायतेजिभवति ते परतः । प्रस्तीतः । प्रस्तीतवान् । "स्फादेः" [५।३।६०] इत्यादिना नत्वस्यासिद्धत्वात्प्रागेव जिः, पुनहितनिमित्तत्वान्न भवति । "प्रस्थो चा" [५३।११] इति मत्वपक्षे प्रस्तीमः प्रस्तीमवान् | प्रपूर्वस्येते किम् ? संख्यानः । प्रहत्य इति सिद्धे धूर्यग्रहणं नियमार्थम् । अन्यापूर्वस्यापि मा भूत् । संप्रत्यानः । अथवा प्रपू! यस्मादिगसमुदायास प्रपूर्वः, तदवयवस्थापि ल्यायतेर्यथा स्वादिवेत्रमर्थम् । प्रस्तीतः । प्रसंस्तीतवान् । इहान्ये ष्ट्यै स्यै इत्यनयोः सामान्येन निर्देशः ।
धाचनस्पर्शयोः श्यः॥४॥३॥१६॥वधने स्पर्श च वर्तमानस्य श्यायनिर्भवति ते परतः । शीनं घृतम् । शीनं मेदः। "श्याचिदिवः" [पा३।६५] इत्यादिना नत्वम् । व्यावस्थायाम् घनभावमापन्नमित्ययः 1 स्पर्श शीतं वर्तते । गुणवत्यपि त्पऽिस्ति शीतमुदकम् । शीतो वायुः । द्रवधनस्पर्शयोः किम् ? संश्यानो वृश्चिकः । 'स्फादेरातः' [५.३।६०] इत्यादिना नस्त्वम् । १. प्रतिच [ ] कोष्टकान्तर्गताना सूत्राणां वृत्तिस्त्रुटिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्यायीमनुसृत्यात्र निर्दिष्टानि ।
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भ० पा० ३ सू० २०-२२ ] महावृतिसहितम्
२८९ प्रतेः ॥४॥३॥२०॥ प्रतिपूर्वस्य श्यायतेजिर्भवति ते परतः । प्रतिशोनः । प्रतिशीनवान् । अद्भक घनस्पर्शार्थोऽयमारम्भः ।
घाऽभ्ययात् ।।४।३।२६|| अभि अब इत्येवंपूर्वस्य श्याश्तेवा जिभवति ते परतः । अभिशीनः । अभिश्वानः । अबशीनः । अवश्यानः । अभ्यवशीनः । अभ्यवश्यानः । विपयामे प्रयोगो नास्ति । द्रवधनस्पर्श विवक्षायां प्रासेऽन्यवाप्राप्त इत्युभयत्र विकल्पः । अन्यगियोगे केचिन्नेच्छन्ति । समभिश्यानम् | समवश्यानम् । अन्ये तु पूर्वमानेऽन्यगियोगेऽपिति विकल्पमिच्छन्ति । अभिसं शीनम् । अभिमश्यानम् । अवसंशीनम् । अवसंश्यानम् ।
क्षीरहविषोः शुतम् ॥ २२॥ शृतमिति निपात्यने क्षीरहविरोः पाके | शूनं क्षीरम् | नं हविः स्वयमेव देवदत्तेन वा । श्रे पाके इति कृतात्वस्य भौबादिकस्य आ पाके इत्यादादिकस्य च ग्रहणम् । तथा श्रा पाके इति चौरादिकस्य णिचि पुकि च कृते भा पाक इति मित्सु पाटात्मादेशेश्रपिः । अनयोः श्राश्रयोः ते परतः ऋभावो निपात्यते । क्षौरहवित्रोरिति किम् ? आधाणा यवागूः । वेति व्यवस्थितविमाधानुवृत्तहँ तुमति णिचि नेष्यते । भपित्तं इविदेवदत्तेन जिनदत्तेन ।
प्यायः पी ॥४॥३॥२३॥ प्यायः पा इत्ययमादेशी मवात त परतः । पनौ लनौ। पीनाबसौ। “ोदितः" [५।३।६३] इति ननम् । प्रकृतो जिरुत्तरस्य यस्य प्रसज्येत। लिहाङोखलादौ च यायं नास्ति । तदर्थश्चादेशः।
प्राडा ||४|३|२४|| याङ: परस्य प्यायः पी इत्ययमादेशो भवति ते परतः । अापीनः । श्रापीनान् । श्रा एव प्यायः पी भवति नान्यस्माद् । प्रप्यानश्चन्द्रमाः ।
अन्धूधसोः ॥१३॥२५॥ अन्धूधसोरथंयोः अाङः परस्य प्यायः पी भवति ते परतः । अापीनोऽन्युः । अधीननूधः । अन्धुव्रणम् । ऊधः स्तनपर्यावः । अयमपि नियमः । प्राङ् पूर्वास्यान्धूधसोरेव । नान्य स्मिन्नर्थे । आप्यानश्चन्द्रमाः।
लिड्योः ॥४॥३॥२६॥ त इति निवृत्तम निमित्तान्तरोपादानात् । लिटि यांङ च परतः प्यायः पी इत्ययमादेशो भवति । श्रापिप्ये । श्रापिपाते । प्रापिचिरे। परत्वात्पीभावे कृते पुनः प्रसाद् द्वित्वम् । "एर्गिवाक्चादुकोऽसुधियः" [1४१७८] इति यणादेशः । यहि-प्रापेशेयते । व्यापपीते । अापीयन्ते । यपि "त्यस्त्रे त्यान यम्” [१११॥३३] इति आपेति । श्रापेपोतः । आपेप्पति ।
न वा श्वः ॥४।३।२७॥ जिरिति वर्तते । श्यतेन वा जिभवति लिड्योः परतः 1 शुशाव । शिश्वाय । शुशुवतुः । शिश्यिवतुः । शोशूयते । शेश्यीयते । लिटि किति यादिप्राप्तिर्नेति प्रतिषिध्यते । ततः समीकृते विषये विकल्पः । पिति किति च लिटि यङि च प्रवर्तते । ननु शिश्वायत्यत्र जिना मुन्ने पक्षे "वस्यैपां लिटि" [१॥३।१३] इति चत्य प्राप्नोति नाय होपो मेयोग श्वयोगीवनी प्राप्तिः सा सर्वा प्रतिनिध्यते । ततो विकल्पः । यदि चत्य क्रियेत प्रतिषेधोऽनर्थकः स्यात् ।
सन्कचोणौ ॥४॥२८॥ सन्यरे कच्परे च णौ परतः श्वयतेन वा जिर्भवति । शुशायिाति । अन्तरङ्गपरिमाला पनिया। पूर्वनिप्रतिपिद्धन जी को ऐपि “यो पुयणज्ये" [पा२।१७८] इति शापकान् स्थानिवद्भावेन द्वित्यम् । पछे शिश्वाविषति | ऋचि अशूशयत् । अशिश्वियत् ।
लो जिः ॥ २९॥ हन्यतेजिर्भवति सन्परे कच्परे च यो परतः । जुहापयिषति । जुद्दावविपनः । जुहाववि पन्ति । कचि-अजूवत् | अजूहवताम् । अहवन् । अनवकाशत्वाजिना सानकाशः "शालासाहादि" [५।२१५२] सूत्रेण यत माश्यते । पुनर्जिग्राहणं नित्यार्थम् । ननु थस्येति वक्ष्यते तेनैवायं जिः सिद्धः । इयरेवायं ५
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ३०-३८ आदेरेकाच इत्यनुवर्तनात् । एवं तहदिमेव ज्ञापकम् | थस्य निमित्तेऽन्येन व्ययहित जिन भवति । तेन सिद्धम् । जिह्वायकीयिषति । हायकमिछति । हायकायतेः सन् ।
थस्य ॥४॥३॥३०॥ हुयतेस्थस्य जिर्भवति । जुहूषति । जोयते । जुदाय । सामर्थ्यात्यनिमित्ते परतो जिवेंदितव्यः । अत्रोपचारात्थार्थो यतिस्थः तस्य जौ कृते हित्वम् ।
न जौ जिः॥४॥३॥३१॥ जी परतः पूर्वत्य जिन भवति । विद्धः । विचितः। संवीतः। बचेजिंबननं शायकम् । "अन्तेजः" [111४६] इति नानीयते । “अनन्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [१०] इत्यनित्या । नत एकेनापि योगेनयावन्तो यस्तेषां सर्वेषां नौ प्राप्त प्रतिषेधोऽयम् । ननु नथावेकयोगेन युगपजे : पूर्वस्य परस्य च निवृत्तस्वामिद्धस्य कथं प्रतिषेधः । अत्रोच्यते--न जौ जिरिति स्वाश्रयकार्यस्य जे: परपूर्वत्वस्य प्रतिषेधः । ततो यरादेशे सति सिध्यति रूपम् । पुनर्जिग्रहणं प्रकरणान्तरविहितस्यापि जेः प्रतिषेधार्थन् । यूना | यूने । "श्वयुवमधोमोऽहति" [1५१२१] इति जिः । अत्र त्वेऽको दीवस्य स्थानिवभाबादुकारेण व्यवथानं न चिन्तनीयम् । "प्रपूर्षस्य स्त्यः” [३१] इत्यत्र पूर्वस्येति वर्तते । तेन पूर्वमात्रस्य प्रतिषेधः । उपोषुषा । उपोगुने इन्वत्र भिन्ननिमित्तत्त्वान्न प्रतिषेधः । जावित्यत्रेकारोऽपि प्रश्लिप्की ततः श्वयतः कचि न जिः | शाश्वयत् ।
लिटि बेयो यः॥२३२।। न जिरिति वर्तते। लिटि परतो वो वकारस्य जिन भवति । वेत्रो यकारत्याभावात् वयेर्वकारस्व प्रतिषेधः । वेनदास्योत्तरत्र प्रयोजनम् । ऊयनुः । ऊयुः । स्थानिबद्भावेन यजादित्वात् किति जिः प्राप्तः । लिग्रहणमुत्तरार्थम् ।
__ वो वा किति ॥१॥३॥३३॥ लिटि किति परतो वेशो वकारस्य जिन भवति । ऊक्तुः । ऊचुः । यद्यदित्वानिः प्राम: "प्ये घ" [१॥३/३५] इति वक्ष्यमाणेन प्रतिपद्धोऽनेन विकल्यते। परनामजी कृते द्वित्यम्। "वार्णा गावं बलीयः" परि] इबादशे कृते को दावः । पई-धवतुः । युः । वेत्रमाणामुन्नः स्थानिवद्भावेन वयि वकारस्य न प्रतिषेधः । कितीति किम् ? चविथ ।
प्ये च ॥ ३॥ध्ये लिटि च वेो जिन भवति । अवाय । उपवाव । वधौ । वक्तुः । चवु: । वविध | किन्ग्रहणं वाग्रहणं चानधिकृतम् । “वस्यैषां लिटि"[४।३।१३] इति वजादिस्वाच्च जो प्राते प्रतिषेधोऽयम् । अस्मिन्नेव नित्ये प्रासे कित्सु 'वो वा किति [३३] इति विकल्पः । वेमहणानुवृत्तेरिह स्थानिवद्भावाभावाद् वयेरप्रतिषेधः । उवाय । जयतुः । अयुः । स्थानिवद्भावे हि "लिटि वेषो यः" [४।३।३२] इत्यनर्थकं स्यात् । अनेनैव यकारस्यापि प्रतिषेधः स्यात् ।
ज्यः ॥४॥३॥३५॥ ज्या इत्येतस्य प्ये जिन भवति । प्रज्याय । उपन्याय । चानुकृष्टत्वाल्लिटीति निवृत्तः । व्यः ॥४॥३६॥ व्या इत्येतस्य च प्ये जिन भवति । प्रत्याय । उपन्याय । सूत्रान्तरमुत्तरार्थम् ।
परेवा ॥४॥३७॥ परेरुत्तरस्य ज्या इत्येतस्य प्ये वा बिभत्रति । परिवोग्य । परिव्याच | परत्वाद्दौत्वे कृते तुगभावः ।
एचोऽशित्याः ॥४॥३८॥ धोरिति वर्तते । एजन्तस्य धोरशिल्पशत्वं भवति । ग्लै । लिस्ता | ग्लातुम् । शो-निशाता | निशातुम् । “अन्तेऽनः" [१] इत्येच आकारः । एन इति किम् ? कर्ता । कम् । अशितीति किम् ? ग्लायति । भ्लायति । श्रशितीति प्रसज्यप्रतिषेधः शिनि नेति । अनैमित्तिकाविम् । ग्लानीयम् । तेन अायायभानः | सुत्रः | सुम्लः । “पातो गौ" [२३110] इति कः । सुग्लानम् । "युजानः" [२१३1०६] इति युच्च सिद्धः । “मिमाग्रीडा प्येच" [४॥३॥४३] इति च कारादेविषये चात्ववचनं ज्ञापकम् । परनिमित्तस्यैच प्रात्वं न भवति । चेता | स्तोता। प्रतियदोक्तपरिभाषा बनिन्या नेन कापयतीत्यादौ पुक् सिद्धः । शकार इयत्व सोऽयं शित् तदादौ म भवति । न तु तदन्तै । जग्ले मम्ले इनि । धोरित्येव । गोभिः । नौमिः।
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म.पा. ३ सू० ३४- महावृत्तिसहितम्
२६१ न व्यो लिटि ॥४॥३॥३६॥ व्ययतैलिट्यात्वं न भवति । संविव्याव । संविन्ययिथ । एलि "वस्यैषां जिटिं" [३१३] इति जिः । “मिणत्यचः " [पा२।३] इत्यम् । अायादेशः । धे "वोपदेशे" [५॥१०८] इति सूत्रे "अव्याद्" इति प्रतिषेधारकादिनियमादिद।
स्फुरिस्फुल्योर्घत्रि ॥४॥३॥४०॥ स्फुरि स्कुलि इत्येतयोरेच श्रात्वं भवति घजि परतः । विस्फारः । विस्कालः। “भावे" [२।३।१०] "प्रकरि" [२।३११८] “हलः" [२।३।१५२] इति "कायाधिकरणयोः" [२।३।६६] वा छन् । "स्फुरस्कृयोनिभिः " [५/४५८) इति वा पत्वम् ।
कोजेणों ॥४॥३॥४१॥ की इङ् जि इत्यौपामेच यात्वं भवति णौ परतः । ऋापनि। अध्यापयति । जापयति । परनिमित्तस्याप्येच आत्वमनेन विधीयते ।।
सिध्यतेरशाने ॥ २॥ याविति वर्तते । सिध्यतेरेच श्रात्वं भवति ज्ञानादन्यत्र गौ परतः । अन्नं साधयति । अर्थ साधयति । अज्ञान इति किम् ? आचारः कुलं मेधयति । क्षमा धर्म सेपयति । ज्ञापयतीत्यर्थः । श्पत्रिकरणनिर्देशाविध गतावित्यत्व भौवादिकल्याग्रहणम् ।
मिश्मीदीङ न्ये च ॥३॥४३॥ मित्र मीष दीड इत्येतेषां बेच एचश्चात्वं भवति । प्ये प्रमाय । पद्विषये प्रमाता । प्रमातुम् । प्रमापयति । मित्रो निमाय । निमाना । निमानुम् । निमापति । दोड:अबान । अबदाता । अवदातुम् । अवदापयति । चकारो ज्ञापकः । परनिमित्तस्यैच प्रात्वं न भवति । तेन त्रेतादिवास्वाभावः । एच इत्यर्थवशाद्विशेषणलक्षणा ता ।, एचो या प्रकृतिस्तस्याः प्रायोत्पत्तरात्वं भवति । एवं चाकारायणक्युचः सिद्धाः। अवदायः "श्याध्यध" [२।१1150] आदौति णः । अबदायो वर्तते । सुदानम् । "निमिमीलिया खाचोरात्वप्रतिषेधो वक्तव्यः" [वा०] सुनिममः । निमीनाति निमानं वा निमयः । "अकर्तरि वाऽचि प्रतिषेधः। एवं मिनीतेरपि । लियो “विमापा लियोः" [४॥३॥४] इति व्यवस्थितविभाषा शापनादेव खाचोः प्रतिषेत्रः सिद्धः ।
विभाषा लियोः ॥४॥३४॥ लिनाते लीयतेश्च विभावयाऽऽत्वं भवति प्ये एविषय च । विलाय विलीय | एज्विपये विलाता । विलेता। विभापति व्यवस्थितविभाषर । तेन धाष्टर्यसम्माननयोराचम् । श्येनो वर्तिकाभपलापयते ।
णम्यपगुरो बा ॥४॥३॥४५॥ एच इति वर्तते । णमि परतः अपगुर एच अात्वं भवति वा । अपगारम् । अपगोरम् । अस्यपगार युध्यन्ते । अस्यपगोरे युध्यन्ते । “प्रमाणासत्योः" [२।४।३६] इति एम् । “बा भादि" [1 ] इति सः । पुनर्वाग्रहणं पूर्वस्य व्यवस्थितविभाषाशापनार्थम् ।
चिस्फरोणी ॥४॥४६॥ चिमू स्फुर इत्येतयो\ परत एचो वाऽऽत्वं भवति । धर्म चापति । धर्म चपयति । नयनं स्फारवति । नयनं स्फोरयति ।
प्रजने चातेः ॥३।४ा प्रजनेऽर्थ वातेणों परतो वाऽऽस्वं भवति । पुरो वातो गाः प्रवापवति । पुरो वातो गाः प्रवपयति । लबणं गाः प्रवापयति । लवणं गाः प्रवापयति । प्रजनो गर्भाधानम् । वातेः प्रजने इथे वृत्तिास्ति तेनारम्भः ।
विभेते. तुभये ॥४॥३ ॥ बिभेतेहैं तुभयेऽथे जो परतो वाऽऽयं भवति । मुण्डो भापक्ने । बटिलो भापयते । मुण्डो भीषयते । जटिलो भीषयते । हेतुः स्वतन्त्रस्य कर्तुः प्रयोजकः । ततः साक्षाभयमत्र प्रतीयते । भयशब्दो भावसाधनोऽपादानसाधनो वा | नपुंसकलिने भावे "अग्विधौ भयादीनामुपसंख्यानम्" वा.] कादिनिवृत्त्यर्थम् । भावे हेतोप हेतुभयम् । अपादाने हेतुरेख भयं हेतुभवमिति ज्ञेयम् । " स्महेनुभये" [१२६५] इति दविधिः । आस्वाभावपक्षे "ईतः धुनित्यम्" [१३१४६] इति धुक् । हेतुभय इति किम् ? कुञ्चिकपैनं भीपयति । नात्र प्रयोजकाद्धतोमयं कितहि कुञ्चिकारूपाकारणात् । तिपा निर्देशो यकुबन्तनिवृत्यर्थः बिभेति तमन्यः प्रयुङ्क्ते (भाययति पुनः पुनरतिशवेन भाययति,) विभाययोति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ४६-५७ ईतः षुङ नित्यम् ॥४॥४६॥ विभेतेरीकारान्तस्य हेतुभयेऽर्थे नित्यं पुगागमो भवति णौ परतः । मुण्डो भीषयते । जटिलो भीषयते । ईत इति निर्देशादैपः मागेत्र चुक् । हेतुपव इत्येव । कुञ्चिकौनं भाग्यन्ति । नात्र साक्षात्प्रयोजको भयकारणम; किन्तर्हि ? करणात् । विधिश्च न भवति ।
स्मिङः ॥४॥३॥५०॥ हेतुभय इति वर्तते साविति च । रिम इत्येतस्य शौ परन आलं भवति हेतुभयेऽयं । मुण्डो बिस्मापयते । जटिलो विस्मापयते "णे स्मेहं तुभये” १२६४] इति दः । हेतुभय इति किम् ? कुञ्चिकयैनं विस्माययत्ति । स्मयत्यर्थ एव भयमित्युपचर्यते । नहि मुख्यवृत्या भये स्मयतेवृत्तिः ।
भल्यकिति सृजशोऽम् ॥५॥ झलादावकिति परतः सृजशोरमागमो भवति । स्रष्टा सष्टुम् । सष्टव्यम् | द्रष्टा । द्रष्टुम् । दृष्टव्यम् । विशेषविहितत्वात्सामान्यविहितस्य "घ्युङः" [५१२।८३] एपो बाधकोश्यम् असाक्षीन् इत्यत्र पूर्वममि कृते "ब्रजवद" [५७६] इत्यादिनम् । कलीति किम् ? सर्जनम् । दर्शनम् | अकितीति प्रसज्यप्रतिवेधादिह न भवति रज्जुसृड्भ्याम् । देवदृग्भ्याम् | धोः स्वरूपग्रहणे तस्यविज्ञानाद्वा ।
वाउन दात्तस्यदुखः ॥३॥५२|| अनुदात्तस्य धोः ऋदुङ वा श्रमागमो भवति झलादावकिति परतः । त्रता । तप्ता । द्रता 1 दर्मा । तृपिद्दपीरधादौ विकल्पितेटौ सत्रानुदात्तपाठोऽमागमाः । अनुदात्तस्येति किम् ? बर्दा ता । वृद्धः । तृतः । उदित्वात्पक्षेऽनिटौ । ऋदुङः इति किम् ? भत्ता भितम् । झलीत्येव । तयणम् । दर्पणम् । अकितीत्येव । इतः ।
___ध्वाद पस्सः ॥४॥३॥५३॥ धोरादेः पकारस्य सकागदेशो भवन्ति । अज्दन्त्यपग सादयः घोपदेशः । सृपिभृजिसपास्तृसेकसदर्जम् । स्वदिस्मिविदिस्वजिस्वपयस्तु मूर्धन्यादिपाटाः । उदाहरणम् । पद्द सह्तै । पिन सिञ्चति । भित्र सुनः । "यादेशीः" [५।४।३६] इति पाचार्य श्रादेशः । धोरिति किम् ! पोडन् । घडिकः । आदेरिति किम् ? लपति । धोरिति वर्तमाने पुनर्धग्रहणं धुने यो धुः तपादेः पकारस्य सत्यार्थम् । सुब्धोमा भूदिति । षोडीको । पण्डोर्या.. । "टीवतिष्वष्कतिष्ट्यायतीनां प्रतिरोधी बमव्यः" [वा० । ष्ठिव् यकारपरः ठकारपरश्चेष्यते । तेन चविकारे तेठीच्यने । टेष्ठोव्यते ।
णो नः ॥४॥३॥५४|| घोरादेणकारस्य नकार आदेशो भवति | सर्वे गादयो गोपदेशाः । नृतिनन्दिनकनदिनटिनाचनावजम् । णम्-नमति | णी-नयति । ग्रह-नश्यति । "गेरसेऽपि विकृतेः" [५ ] इति गाल्यार्थमादेशः । पुनर्बुप्रणात्मुब्धोण कारस्य नवं न भवति । एकारीयति | वादेरियेव । चणति । योगविभागः सत्वरस्य टीवल्यादावनित्यत्यज्ञापनार्थः ।
वरिल न्योःखम् ॥४॥३॥५५॥ वलि परतो वकारयकारयोः स्त्रं भवति । भोरधोवा । देदिया, मेसिवः । बडुचन्तासि वकारस्य स्त्रम् | जीवरदानुक् । जोरदानुः । यकारस्य,अपी-उत्तम् । बनूयी-क्नूतम् । “असिद्धं वाहिरङ्गमन्तरले" [प] त्यनित्या तेन बहिरङ्गे इयादेशे एयादेशे च सत्यन्तरङ्ग यस्त्रम् । पञ्चेत् । दासेरः । विपि करायतेः बोभूवतेश्च कण्डूः । बोभूः । अतः खे ते "बलि थ्योः खम् नित्यन्दारिकपः खेऽपि क्वचिद्वर्णाश्रयेऽ त्याश्रयमिति त्यग्वे त्याश्रयालादित्यम् । बलौति किम् ? दीयते । ताप्यते ।
हल्ङद्यापो द्यः सुसिपत्यनच् ॥४।३।५६।।इलन्तात् की च प्राप् च या दीः तदन्ताच्च परेषा सुसिप्तीना पत्रम् । व्यर्थ कान्तखेन सिमिति चेत्, न सिध्यति । उन्वादित्यत्र स्कानावस्यासिद्धत्वे पदान्तत्वाभावा इत्वं न स्यात् । स्कादिसिरने वा विभत्तिसकारस्य रिचविसर्जनीयौ स्याताम् | अभिनोऽचेति स्फान्तम्यस्यासिद्धत्वाद्रस्त्वं न स्यात् । अत्रिभर्भवानित्यत्र “रात्सः" [५।३।४२] इति नियमात्तिपः वं न स्यात् ।
__ केरेङः ।।४।३।५७॥ के वं भवति एङन्तादुत्तरस्य । हे अग्ने । हे पायो । प्रादिति स्वापर वेन 'प्रस्वैप्[५।२।१०३] इति एम् ।
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अ० ४ पा० ३ सू० ५८-६८ ] महावृत्तिसहितम्
२६३ प्रात् ।।४।३।५८।। प्रान्तात्परस्य के: खं भवत्ति | हे देवदत्त । हे जिनदत्त | घसपक्षेऽनजिति वर्तते तच्च प्रादिति कानिर्देशात् तान्तं सम्पद्यते । ततः केरवयवत्यानचः खं भवति । एवं हे कुण्डेत्यत्र हलो मकारस्य खं भवति । हे कतरदिन्यत्र समोः परतः किकृते "नपः स्त्रमोः" [५।११२०० इल्युम् ।
पिति कृति तुका।।५९॥ प्रादित्यस्य तापक्लूप्तिः । पिति कृति तुगागमो भवति प्रान्तम्य । प्रकल्प । प्रस्तुत्य | अग्निचित् । सोमसुत् | कृतीति बचनाद्धोरयं तुक् । पितीति किम् ? चितम् । स्तुतम । कृतीति किम् ? बहुककः । प्रस्वेति किम् ? प्रलूय । ग्रामणीः। ग्रामणीकुलमित्यत्र ब्रह्माश्रयस्य प्रादेशत्यासिद्धवानान्तरङ्गतुक् ।
सन्धौ ॥४॥३।६०||सन्धावित्वधिकारो वेदितव्यः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमियामः सन्धिविषये तदितव्यम् । लोकत एक संश्लेषः सन्नियों वा सन्धिरिति ज्ञातव्यम् । यथा “एप्यतोऽपदे" [३५] अत्रेकागतिः । वक्ष्यति 'प्रचीको यण" [॥३।६५] । दध्यशान | सन्धाविति किम् ? दधि अशान |
छे॥४ादा छकारे परतः सन्धी प्रस्य नुम्भवति । गच्छति । इच्छति । पुच्छति । प्रस्यात्र तुझ्न तदन्तन्य | यदि प्रान्तस्य स्थाञ्चिच्छिचरित्यत्र “हलोऽना:" [५।२।१६१] खं प्रसज्येत । नन्वयवाववोऽपि समुदायावयव इति से प्राप्नोति । एवं तर्हि पूर्वान्तकरणाधिकाराखं न भवति ।
आमाकोः ॥४॥३॥६२शा याङ्माङ् हल्येतयोश्छे परतस्तुग भवति । "इपदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिवियौ च यः। एतमातं हितं विद्याद्वाक्यस्मरणयोरङित् ।।"
ईपच्छाया श्राच्छापा । क्रियायोगे-आच्चिनत्ति । मर्यादाऽभिविध्योः । श्राच्छायायाः 1 माङः । माच्छि दत् । माच्छासीन् । “त्रा पदस्थ" [४।३।६४] इति विकल्पः प्राप्त : । अनूत्व (नुबन्ध) करणं किम् ?
आच्छात्रमानय । प्राछात्रमानव । स्मरणे हिन्त्वं नास्ति । लपमा छत्रमानयति। “गामादामहोप्वबिशेषः" [प०] इति प्रातिः । अथवा नेदं प्रत्युद्दाहरणम् । अाका सहपरितस्य माडो निसंज्ञ कस्य ग्रहमपादोरपतिः ।
यः ॥४॥३॥६॥ दीसंज्ञस्य छे तुग्मवति । ह्रीच्छति । म्लेच्छति । अपचाच्छाद्यते ।
वा पदस्य ॥४३६४|| द्यन्तस्य पदस्य छे वा नुग्भवति । कुबलीच्छाया । कुबलोछाया । शमीच्या । शमीछाया । दीमंशकस्य नुग्भवति स चेत्पदस्यति । तेनासामध्येऽपि तुम्विकल्पः सिद्धः । तिष्ठतु कुमारी छनं हर देवदत्त ।
अचीको यण ॥४॥२६५ अचि परत इको यणादेशो भवति । दद्वध शान | मवपनय । "अनधि" [५।५।१२७]इति द्वित्वम् | मत्रर्थः । लाकृतिः । “असिद्धं पहिरङ्गमन्तरङ्गे" [प०] इति यादीनां न सान्तस्वम् । अचौति किम् ? दधि करोति । मत्रु कृतम् । एक इति किम् ? भवानन्त । हलो मा भूत् । स्त्रैऽचि दौत्वं वक्ष्यति । पारिंशेष्यादन्यत्र यो ।
एचोऽयघायावः ॥४॥३॥६६॥ एचः स्थाने अय् अब आप प्राव होते आदेशा भवन्ति अचि परतः । चयनम् । लवनम् | चायकः । लायकः । कयते । पटबिह ।
यि त्ये ॥ २७॥ यकारादौ ये अवादय आदेशा भवन्ति । यानन्यः । माण्डव्यः । गव्यः । नान्यो हृदः । वौति किम् ? गोभ्याम् | नौभ्याम् । त्य इति किम् ? गोयानम् । नौयानम् । यीति योगविभागः । तेन गोधूतावध्वपरिमाणे धनादेशो भवति । गव्यूतिः । अयाबादेशयोः केचित्मतिपेधमिच्छन्ति । तेन रायमिच्छति रैप्रति ।
तिज्योः ॥४॥३॥६॥ क्षि जि इत्येतयोरेचो यि त्वेऽयादेशो भवति । क्षेतुं शक्यं क्षय्यम् पापम् । जेतु शक्यो जव्यः शत्रुः । “शकि लिख च" [२१३।१३८] इति व्या भवन्ति । नियमार्थोऽयमारम्भः । धुषु क्षिज्योरेव नान्यस्य धोः। चेयम् । नेयम् । तत्रापि तुल्मजातीअयोरेकारैकारयोनिवृत्तिः। धोरोकारौकारयोः पूर्वे गावापादेशौ भवतः ! लव्यम् । पव्यम् । अवश्यलाव्यम् । अवश्यपाध्यम् | मयूरव्यंसकादित्वात्सः । न्यान्ते पवश्यमोनाश इति ।
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२६४
जैनेन्द्र-व्याकरणम् ०५ पा० ३ सू०६६-७४ शकौ ॥४३॥६९॥ अयमपि नियमः । शक्तावेव क्षिज्योरयादेशो नान्यस्मिनथे । क्षयम् ।
धोस्तस्मिन्नेव ॥४॥३७०॥ धोस्तस्मिन्नेव यि त्ये व एच् तस्यायादयो भवन्ति | लव्यम् । अवश्यलान्यम् । घोरिति किम् ? मृदो नियमो मा भूत् । माण्डव्यः । गव्यम् । तक्षिमित्तस्यातनिमित्तस्य च "यि त्ये" [३६५ इत्यादेशः । तनिमित्तस्यक्ति किम् ? उपोयते । श्रौयत । लौयमानिश्चैत्रः । कर्मणि लट् | या जिन्यम् । गिधोर्यस्कार्य तदन्तरङ्गमिति "आप" [३/७५] । लटि लावस्थायामडागमोऽन्तरङ्ग इति "अटश्च" [४३१७८ इत्यैप । अन्तरङ्गपरिभाषा नित्या तेन बहिरङ्गत्वेऽप्येन् । लौयमानिरिति प्रत्युदाहरणम् । एवकार इष्टतोचधारणार्थः । धारेव तरिमन्निति नियमो मा भूत् । एवं हि बानग्य इत्यत्र न स्यात् ।
ऋय्यः स्वार्थे ॥४॥३॥७२॥ अय्य इति निपात्यते स्वार्थे गम्ये | स्वार्थों द्न्यविनिमयः । कय्यः कम्बलः । कल्या गौः । कयार्थ प्रसारितः। अन्य स्तुसंग्रहार्थीमांत यावत् : निज्योरिति नियमादप्राशोऽयादेशो निपात्यते । त्वार्थ इति किम् ? केवं धान्यं न चास्ति ऋत्य स्वीकतंच्यं धान्यं किं तर्हि परकीयम् । क्रयार्थं प्रसारितं नास्तीत्यर्थः ।
द्वयोरेका ॥४॥३२॥ "स्यत्यादतः" [३६] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्माद् द्वयोः पूर्वपरपोरेको भन्नतीत्यपोऽधिकारो वेदितव्यः । वक्ष्वति यादप् । देवेन्द्रः । द्वयोग्रहणं किम् ? पूर्वपस्योर्युगपदादेशप्रतिपवधम् । इतरया हिं यत्र फानिर्देशः सावकाशस्तन पूर्वस्य निर्देशः। यत्रेनिर्देशः सावकाशस्तत्र परत्व । ततश्च पर्यायेण कार्य स्याद् यथा "सचस्योभौ" [५॥४॥३०५] इत्यत्र एकारद्वयम् । एवमिहापि कार्यद्ववं माभूदित्येक ग्रहणं नियते ।
तद्वत् ॥४॥३॥७३॥ योरेक इति वर्तते । तयोरिव तद्वत् । तयोविंद्य मानयोर्य काय तस्कृतेऽवेकादेशे यथा स्वात् । पूर्वमवयवमाश्रित्य कार्य क्रियते, यच परं तत् कृतेऽप्येकादेशे भवति । असति सूत्रेऽवयवग्रहणेन न गृह्येत । क्षोरोदकवत् । पूर्ववर्यवे प्रयोजनम् । वामोरूरिति मृद ऊरित्यमृदो मृदमृदोरेकादेशो मृन्द्रवति । यथा शक्येत कतु मृद इति स्वादिविधिः । अन्यथा वृक्षः प्लक्ष इन्यादावेव स्यात् । परावयचे प्रयोजनम्देवावित्यत्रोकारः सुम् । असुचकारः । सुबसुप्पोरेकादेशः मुन्वद् भवति । यथा शक्येत कर्तुम् “सुम्मिस्तं पदम्"
२।१०३] इति । अन्यथा साधुः पूज्य इत्यादावेव स्वान् । अधील्वेत्यत्र दसोरेकादेशेऽपि प्राश्रयस्तुक सिद्धः । "उभयत आश्रयणे न तद्भावः” [वा०] । तेन उपोह्यते । प्रोह्यते इत्यत्र "गेरूहः प्रः" [५२।१३२] इति उभयाश्रयः प्रादेशो न भवति । इह कार्यातिदेशोऽभिप्रेतो न रूपातिदेशः । तेन वर्णाश्रये विधौ तद्भावो न भवति । मालाभिरित्यत्र पूर्वान्तत्वमाश्रित्य "मिसोस्त ऐस्" [14] इति न भवति । जुहावेत्यत्र "यस्य" [१३।३०] इति हयतेनौ कृते "" [।३६५] परपूर्वत्रे च तस्य परवद्भावात् “जातो शत्रः प्रौ" [पा२१३७] इति न भवति । अस्यै अङ्कः परवद्भावाभावात् । “एकोऽति पदान्तात्" [३६] इति न भवति । अस्या अक इति सिद्धम् । यत्रणात् त्वाश्रयमपि । तेन डोटोस्तुकं प्रति परादित्वाभावे "या पदस्प" [१६] इति विकल्पः सिद्धः । वृच्छत्रम् । वृक्षेछत्रम् । अपवेच्छत्रम् | अपचेछन्त्रम् । संत्रा को जिः । जे: पूर्वत्वम् । तल्य परादित्वाभावे प्राश्रयस्तुक् सिद्धः । समुत् ।
षत्वेऽसद्धत् ॥४॥३७॥ पल्वे कर्तव्ये एकादेशोऽसद्वद्भवति। लादेशलक्षणे प्रासे प्रतिषेधार्थमिदम् । कोऽ:य । योऽस्प । कोऽस्मै । कोऽसिचत् । यो ऽसिंचत् । “हालिप्सिवः" [२१११४६] इत्यत् । “एकोऽति पवान्तात्" [ १६] इत्येकादेशस्यासिद्धत्वादिणः उत्तरस्थ त्यादेशसकारस्य चत्वं प्रसक्तं न भवति । "नामन्ते" [५४७६] इति षत्वप्रतिषेधो न सिध्यति तद्वन्दावेन परादित्वादेकादेशस्य | ननु चैकपदाश्रये पोऽस्तर एकादेशस्थासिद्धत्वम् । अनित्यैषा परिभाषा | ततोऽतरित्यत्र अहिरक ऊर यणादेशे नासिद्धः । ऽसदिति सिद्धे पत्वे इति गुरुनिर्देशः किमर्थः १ पाझन्तपदायोरेकादेशः षत्वेऽसहप्रवति । नान्योति
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अ० ४ पा० ३ सू० ७५-८३] महावृत्तिसहितम्
२९५ ज्ञापनार्थः । तेन उपसेवुषः पश्य । अनुषुषः पश्य । “वसोर्जि:" [ २०] "जे: [॥३॥१५] पूर्वस्वम् | उकाराकारयोरेकादेशः षत्वेऽसवन्न भवति ।
आदेप ॥४॥३७५॥ अवर्णान्तादचि परत एब् भवति । देवेन्द्रः । गन्धोदकम् । महर्षिः । द्वयोः स्थाने एको भवति । "गुडि पररूपम्" [१३] इत्यत्र परग्रहणं पूर्वापेक्षं तेन परस्यान्तरतमो एव् वणे परतः प्रसज्यमान एव परस्यान्तरतमोऽकारः "स्सोऽणुः" [11] इति रन्तो भवति ।
एच्यैप ॥४॥३७॥ श्रावणान्तादेचि परतो द्वयोरेक प्रेय भवति । "प्रसिद्ध कसुरैश्यस्य सर्वज्ञस्य महौजसः । व्यतीतोपग्यधर्मार्थ पचः पायान्महीपधम् ॥"
"अक्षाहिन्यामैटवक्तव्यः" [त्रा०] अक्षौहिणी । “प्रावूहोटोक्य यौन्येषु' वा०] प्रोटः । पौरिः । प्रैषः । प्रैग्यः । "स्वादी रेरिणोः” [वा०] स्वैरं । स्थैरी । लिङ्गविशिष्टस्य स्वैरिणो । "ऋते भासे" [Ninj दुःखातेः। ऋत इति किम् ? सुखेतः । भाम इति किम् ? परमतः । स इति किम् ? मुखेनतः । “मण वशप्रवरसतरकम्बलवसनानामृणे" [वा०] ऋणार्णम् । दशार्णम् । प्रार्णम् । कसतरार्णम् । कम्पलागेन । वसनाणंम् ।
इत्येधत्यूद सु ॥४॥३७॥ इति एवति ऊट इत्येतेषु परतोऽवणन्तादैन् भवति । एचीति वर्तमानमेते. विशेषणम् । एतेभिचाराभावात् । ऊठत्वरूपेण गृह्यते । उपैमि । उपैघि । उपैति । उपैधते । प्रैधते । पडि पररूपापवादः । पुरस्तादपवादोऽनन्तरस्य एहि पररूपस्य बाधकः नोत्तरस्य “श्रोमाकोः"[३२] इति आ इ पर. रूपस्य । तेन वा इतः । एतः । उपेतः । ऊट-धौतः । धौतवान् । एचीत्येव । उपेतः । प्रेत: ।
अटश्च ॥३७॥ एचीति निवृत्तमचीति बर्तते । अटश्च अचि द्वयोरेक ऐच भवति । ऐक्षिष्ट | हिष्ट | श्रीजीत् । प्रौम्भीत् । ऐनत । ऐदत । श्रात् । ऐक्षिष्यत् । सौम्भिवत् । चशब्दोऽवधारणार्थः। अट एवैचि यथा स्यात् । अदन्यप्राप्नोति तन्मा भूत् । श्रोङ्कारमैच्छत् । श्रीक्षारीयत् | "पप्यतोऽपदे" [५॥३॥४४ "प्रोमाकोः" [३२] इति पररूपं प्रातम् । या उन अोढः ओदमैच्छत् प्रौद्रीयत् । “श्रोमाकोः" [१३।२] इति पररूप प्राप्तम् । उनामैच्छत् श्रौत्रीयत् । प्रतिपदोक्तपरिभाषानाश्रयणे "उसि" [३३] इनि पररूपं प्राप्तम् ।
धावृति गेः ॥४॥३७६॥ आदिति वर्तते । अवर्णान्ताद्ने कारादा धौ द्वयोरेक ऐब मवति । उपानि । प्रार्छति । उपाति । प्राप्नोति । प्रमुज्यमान एवैप. "रन्तोऽगुः" [॥१॥४८] इति रन्तो भवति । गरिति किम् ? इहरति । प्रगता ऋन्छका अस्मिन् देशे प्रर्छको देशः। ऋतीति किम् ? प्रेक्षते। तपर करणं किम् ? उप फारीवति उपयति । "वा सुपि" [३०] इति विकल्पः प्रमज्येत । गरिति निर्देशाद् धुग्रहणे लब्धे धाविति किम् ? धावेव यथा स्यात् "ऋत्यकः" [३।३।०५] इति प्रकृतिभावो योर्मा भूत ।
था सुपि ॥४॥३०॥ ऋकारादी सुन्धौ गेरिवर्णान्तस्य वा ऐ.बू भवति । उपार्षभीयति । उपाभीयति । प्रापभीयति । प्रत्रभीयति । “गेरध्वनः" [२७] इत्यत्र यया गिसंशोपलक्षिताना ग्रहणं तथेह मा भुदिति धुग्रहण मनुतते । प्रषभं वनम् इत्यत्र न भवति । पछि पररूपम् ॥
४ १॥ श्रादिति वर्तते । गेधाविति च | अवर्णान्तादेः एष्टादौ धौ पररूपमेकादेशो भवति । उपेलयति । प्रेलयति । उपोपनि । पेपि प्राने "वा सुपि" [१३।८०] इत्यपि वर्तते । उपेलकीयते । उपैलकीयते । उपोदनीयति । उपौदनीयनि । एलि परमिति सिद्ध रूपग्रहणादिष्ट लभ्यते। "एवे शानियोगे पररूपम्" बा०] इहेव । अद्येव । अनियोग इति किम् ? इहैव भव माऽद्य गाः | "शकन्वादिषु पररूपम्" [वा०] शकअन्युः शक्रन्धुः । कर्फ अन्धुः कर्कन्नुः । कुलटा । सीमन्तः केशेषु | सीमान्तोऽन्यत्र | "भोवोष्ठयोः से वा पररूपम्' वा०] स्थूलोतुः । स्थूलौतुः । विम्योष्ठी । त्रिंम्बौष्ठी । “नासिकोवरीष्ट" [३।१।४८) इत्यादिना हो।स इति किम् ? वाक्ये मा भूत् । पश्योष्टं देवदत्त ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० ४ पा० ३ सू० ८२-१०
श्रोमाङोः || ४|३|८२ ॥ गेरिति निवृत्तम् । श्रादिति वर्तते । श्रोम् आ इत्येतयोः परतोऽवर्णान्तात्पररूपं भवति । का श्रभियवोचत् कोमित्यवोचत् । योमित्यवोचत् । सोमित्यवोचत् स्त्रो । श्रङि श्रा ऊढा श्रा | यो | कोटा | सोढा स्त्री । आा उता श्रोता । कदोता । आङनाङोरेकादेशः तद्वदिल्याङ्ग्रहणेन गृह्यते। गिथ्योर्यत्कार्यं वदन्तरङ्गमिति पूर्वमाङः परेण योगः । मर्यादाभिविध्योश्च परेण योगे सति पूर्वेण सह एच्चै प्रसज्येत । श्रा ऋणात् अर्थात् । अर्थात् । ब्राङीति पररूपम् । ननु मध्येऽपवादो ऽयमेध्यैो बाधकः कथनुत्तरस्य खेडको दीत्वस्य स्त्रेऽको दीत्वेऽपीदमनुवर्तत इति तस्यापि बाधा |
उसि ||४|| उस परोऽसात्पररूपं भवति । भिन्दुः | हिन्दुः । पुः । ऋवुः | "आतः " [२४०] "हो वा " [ २४६१] इति जुन् | लिङादेशे उति प्रयोजनं नास्तीति जुनो ग्रहणाम् | कोष्टा । कोणता अकल्याह्माणिकत्वाच्चाग्रहणम् । आदित्येव । विभयुः |
एन्तोऽपदे ॥ ३८४॥ अकारस्य पररूपं भवति एवपदे परतः । पचन्ति । पचे | एसोति किम् ? प। श्रादिति वर्तमाने यत इति तपरकरणं किम् ? यान्ति । वान्ति पद इति किम् ? ददात्रम् |
पदादियमेपू ।
२६६
डाजर्हस्येतायतः ||४|३
| छत् इति लुमिति "नानर्थकेन्तेजोऽस्यविधि : " [५० ] | इति सर्वस्यातः पवन् । डास्थिति किम् ? श्रदित्याह दिति । तानुकरणैकाची डाजनुत्पादवतः । ताविति किम् ? पत्र | श्रुत इति किम् ? पिदिति
न प्रेतो वा ॥ ४३८६ ॥ त्रिसंजकन्योऽच्छन्दस्तस्येतौ पररूपं न भवति तकारस्य तु वा भवति । पत् इति पटत्पति । पतु पदिति । पच्छति । पच्छदिति । "बीसा" [३३] आदि सूत्रेण द्वित्वम् । समुदायानुकरणे भवत्येचातः पररूपम्। पटत्पटिति ।
डाचि नित्यम् ||४|३|८७ ॥ डाजन् म्रौ परतो डाजहंत्यावस्त कारन्य नित्यं पररूपं भवति । पपटाकरोति । इदमेव ज्ञापकम् । खात्सूर्य "याधि” इति द्वित्वम् ।
स्वेऽको दीः ॥४॥ कः स्वेऽचि परतो दोर्भवति । द्वयोरेक इति वर्तते । लोकम् | चिद्यान्तः । कवीन्द्रः | मधूकन् | पितृभः । स्त्रे इति किम् ? दध्यत्र । ग्रक इति किन ? यतोऽपदे इत्यनुवृत्ती नावाविकारौकारयोदीले द्वयोरैक्यं प्रसज्येत । यथा सागता । श्रचोत्येव । दधि शीतम् । दत्ववचनं त्रिमात्राद्यादेश प्रतिषेधार्थम् ।
सुटि पूर्वस्वम् ||४||
दीरचीति वर्तते । चि मुटि परतः पूर्वत्वं दीर्द्वयोरेको गयति । अग्नी | चालू | "पुण्यतोऽपदे” [३४] इत्यनेन प्रकारे परतः पररूपविधिः स्त्रेऽको दीत्वमनन्तरं ते नोत्तरं मुटि पूर्ववत् । पूर्वग्रहण ग्रग्नीत्यादिषु परस्वदीरखनिवृत्त्यम् । ग्रक इत्येव । राधौ । सकः । द्वयोरेकत्वं स्यात् । श्रीत्व | देवः |
शसि ॥४३॥ ६० ॥ शसि परतः पूर्वस्वं दीर्भवति । मालाः । बुद्धीः । कुमारीः । धेनूः पश्य ।
नश्च पुंसि ॥४३॥६२॥ रामि परतः पूर्वस्वं दीर्भवति नकारश्चान्तादेशः पुंखि गम्यमाने । देवान् । कवीन् । पटून् । कर्तृन् । पुंसोति लिङ्गनिर्देशः । लिङ्गं च प्रत्ययधभैः । वस्तुधर्मे मत्यसति यावत्र शब्दः पुलिङ्गाकारं प्रत्ययं जनयति तस्मिन् प्रत्ययधर्मे पुंसि गम्ये नकारो भवति । वस्तुनि नपुंसके पष्टान् पश्य । श्रीरूपेऽपि वस्तुनि दारान् पश्य । स्थूरान् पश्य । ग्रररकान् पश्य । स्थूया काया अपत्यानि गर्गादित्वाद्यञ, तस्व बहुले “यत्रोः " [१।४।१३५] इत्युर् | "हृहुप्युप्" [1] इति स्त्रीत्यस्य निवृत्ती शस्न ( रासो नः ) । इह च पुंलिङ्गारयत्ययामाचात् सत्यपि प्राणिधर्म पुंस्त्रे न भवति । चचाः पश्य । वर्धिकाः पश्य । चचा इव चञ्चाः नञ्चासदृशान् पुरुषान् पश्येत्यर्थः । स्त्रीवस्तुन्यपि भवति भ्रकुंगान पश्य । असत्यपि वस्तु में नलं वृचान् पश्य ।
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अ० ४ पा० ३ सू० १३-६६] महावृत्तिसहितम्
नेच्यात् ॥४३६२|| इचि सुटि परतोऽवर्णान्तात्पू वस्त्र दोन भवति । इन्द्रौ । चन्द्रौ । विद्ये | श्रद्ध । इत्यत्र परत्वादुत्तरसूत्रेण प्रतिषेत्रो न्याय्यः । इति किन् ? देवाः । आदिति किम ? अग्नी ।
द्यो जसि च ॥१॥३॥६३|| श्रादिति नाधिकृतम् । यन्ताजसिचि च परतः पूर्वस्वं दीर्न भवति । कुमारी । कुमायः । कामोत्रीं । वामोर्वः । वियो । शुद्धे । माला हात्र "स्त्रेको दीः" [४।३।८८] इति दीवं द्रष्टव्यम् । छ घति स्पष्टाचे वचनम् । इन्धि प्रसंज्ञयाऽपि अवर्णस्य पवनेन प्रतिषेधः स्यानेच्यादिति सूत्रमनर्थकं स्यात् 1 कवयः । पटव इत्यत्र जमि परत्वादेया भवितव्यम् । देवाः । अग्नः। वायू हरपत्र “मुटि पूर्वस्वम्" [३] इति सुग्रहणसामर्थ्याहोत्यम् ।
पूधाम|३६॥ अकोऽमि परतो ओरेकः पूर्वी भवति । देवम् । करिन । मालाम् । भानुम् । पूर्वग्रहणं पूर्वस्य दीन्वप्रतिषेवाश्रम । पूर्वरूपं यथा स्यात् । वदि पूर्वः प्रो द्वयोरेकादेशः प्रो भत्रति अथ दीमंशो दीर्भवति । अनीत्यनुवर्तनान्मकारस्य पूर्वस्वं न भवति । अक इत्येव । रायम् । नायम् । मुटीन्येव । अचिनवम् । अमुनयम् ।
जेः ॥३॥६५॥ जैरचि परतः परः पूत्रों भवति । इष्टः । उमः । गृहीतः । जिविधान सामथ्यांद्यग्णादेशो न स्यात् । पूर्ववं पुनलम्येत । इदं शकावे शामिति वोरधः (ोरचः) प्रत्यामन्नस्य पूर्वन्चे कृते पुनः पृवैत्वं न भवति ।
पडोऽति पदान्तात् ॥४॥३॥६६॥ एटः पदान्तादी परतो गोरेकः पूर्वो भवति 1 मुनेनन । सायोऽनघ । एक इले किन ? पत्र । अनीति किम् ? पर वह | नगरकरणं किम् ? परवायाहि । पटान्नादिति किम् ? नयनम् । मुनयः।
__ सिडासोः ॥३६॥ एकोऽति वति । एडो इसिमोरति परतो यो रेकः पूों भवति | अपदान्तोऽयमारम्भः । कोरागत । कः स्वन् । घटोरागच्छति । पदोः स्वम् । इगिङमोरेश्च यथासंभव न भवति । "ओरावश्यके' [२।१।१०२] “ोः गुयध्ये" [५/२।१७८] इति 'हसिना उसा च निर्देशात् ।
ऋत उत् ॥१३॥ इसिमोरति परत ऋन उद्भवति ओरेक इत्येव । कर्तुरागच्छति । कर्न: स्पम् । द्वयोः स्थान आदेशोऽन्यतरेण व्यपदेशं लभते इति "रन्तोऽगुः” [2131४८] इति गन्तःवम् । "रासः" [५।३।४२] इति सरत्रम् । इसिकसोः सकारस्य वा रित्वचिसर्जनीयौ रन्तत्वं दुरुपादं चेत् । ऋत इनि तपरकरणं किमर्थम् ? "प्रोऽवान्" [१२।४७] इत्यादावनुकरणस्य द्विमात्रस्य माभूत् । उदिति तपरकरण त्वग्रहणनिवृत्यर्थम् ।
ख्यत्यावतः ॥२३६६॥ रुपयापर योईसिमोरत उद्भवति ! ख्यायादिति रहीखिशब्दयोस्तोतिशब्दयोश्च यणादेशे कृते आगन्तुनाऽऽकारेणानुकरणनिर्देशः । सख्बुरागच्छति । सम्व्यु: स्त्रम् । पत्युगगच्छति । पत्युः स्वन् । अतीयनुवर्तमानेऽत इति स्थानिनिर्देशो द्वयोरेकल्य निवृत्यर्थः । ख्यत्यादिति विकृतनिर्देशः किम् ? यणादेशाभावे मा भूत् । अतिसस्नेरागच्छति । अतिसरत्रेः स्वम् । अतिपतेरागच्छति । अतिपतेः स्वम् | "स्वसखि" रा०] इत्यत्र पर्युदास आश्रितः सखिशब्दादन्यः समुदायः सुसंज्ञो भवति । इदं च विकृतनिर्देशस्य प्रयोजनम् । सह खेन वर्तते इति सखः सखमिच्मृतीति सखीयति सखीयतः क्वि । अतः खम् । “मलि ज्योः खम्" [१३/५५] इति यकारस्य खम् । पाखविधि प्रत्यास्त्रस्य स्थानिवदायप्रतिषः । ननु "वर्णाश्रये नास्ति स्याश्रयम्" [१०] इति स्पखे ल्याश्रयन्यायेनापि कियो नष्टस्य बलादित्य नास्ति कापसंख्यानमित्यदोषः । इसिसोः परतो यग्णादेशे सख्युरिति भवति । तथा लून्युः । न्युः । लूनमिच्छति पूनमिच्छति 1 लूनीयतः क्विवन्तस्य ङसिख-सोर्यणादेशः । नत्वस्यासि त्वादुत्वं भवति ।
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अनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू० १००-१०७ रेरद्धसो ॥३॥१००॥ अत इत्यस्या रकान्तता । अतः परस्य रेरुच भवति अकारे हसि च परतः । इन्द्रोऽत्र | यशोऽत्र । इन्द्रो भवति । यशो भाति । रेश्रियास्सिद्धवम् । ससमुपो रिः" [५।३।६] इति श्रनुबन्धकरणादिद् सक्तस्य (सशारत्य) रेवत्वं न भवति । अरिनाराः । सानुबन्धनिर्देशः किमर्थः ? स्वरत्र । प्रातर्भवति । अद्धसोरिति किम् ? इन्द्र इह । यशः शोमते | अदिति तपरकरणं किम् ? दीपः परतो मा भूत् । इन्द्र आयाति । तिष्ठतु पय-अाई स्वदत | "अनृतोऽनन्तस्य" ५३६५] इत्यादिना पः। "प्रकृयाऽघि दिपाः" [४।३।१०३] इति प्रकृतिबननं ज्ञापर्क सन्धिकायें पः सिद्ध इति प्रग्रहगोनाग्रहणम् । अत इत्येत्र | मुनिरमौ । अनुवर्तमानस्यातः तपरकरण किम् ? स्वग्रहणं माभत् । देश अन्न । अागन्छ स्यूलशिरा अत्र ।
गोरिन्द्रऽवका३।१०१॥ श्रचीति वर्तते । गोः इन्द्रस्थेऽचि परतोऽयहादेशो भवति । गवामिन्द्रः गवेन्द्रः । वित्करणमन्त्वादेशाधैम् | अचीवनाधान्यात्तदादावाप भवति । गधेन्द्रकुलम् ।
विभाषाऽन्यत्र ॥४३१०२॥ इन्द्रशब्दादन्यत्र शब्दे योऽच तस्मिन् विभापया गोरखङदेशो भवति । गवाअन् । गोऽयम् । गवाजिनम् । गोऽजिनम् । विमापाग्रहपादित नित्वं भवनि | गयाज्ञः ।
प्रकृत्याऽचि दिपाः ॥३।१०३॥ दिसंज्ञाः पसंज्ञाश्च अचि परतः प्रकृत्या भवन्ति । मुनी हमौ । पट इद्द । अधीयेते आगमम् । अमी अत्र । "ईदूदेदित्रिः" [१।१।२०] "मः" [१।६।२१] इी च दिलंज्ञाः । प: खल्वपि देवदत्त ३ अत्र लमान । जिनदत्त ३ इंदमानय । पविधिरामवासिद्धः । नारी को प्रकृतिग्रहणं कृत्नस्य स्वरसन्धेः प्रतिषेधार्थम् । अचीयनुनमाने पुनरग्रहणं किम् ? परगचमाश्रित्य व कार्य क्रियते तत्र प्रकृतिभावो यथा स्यात् । पूर्वमचमाश्रित्य पस्क्रियते तत्र माभूदित्येश्मर्थन् | जानु उ अत्य रजति | जानू, अस्य रुजति । जान्दत्व रुजति | "निरेकाजनाङ" [१।११२२] इत्युकारस्य दिसंज्ञा । पूर्वेण सह स्वेऽको दीवे कृते । एकादेशो दिग्रहणेन गृह्यते । इति यणादेशस्य प्रकृतिमात्रः मातः । "मयो वो" [५।४।१५] इति वकारादेशः ।
विभाषेकोऽस्वे प्रश्च ॥४॥३२१०४॥ इकोऽऽचि परतो विभापता प्रकृल्या भवन्ति प्रादेशश्च प्रकृति भावे । दधि अन । दध्यत्र । कुमारि अत्र | कुमार्यत्र । विभाषाग्रहणं व्यवस्थितभिषार्थन् । तेन दिपानामरवेऽचि अनेन प्रकृतिभावविकल्पः प्रादेशश्च न भवति । पटू अत्र । देवदत्ता ३ इटान्वनि । सविधौ च न भवति | व्याकरणम् | न्याय्यः । न्यासः । कुमार्यर्थः । अस्त्र इति किम् ? दधीदम् । कुमारीपन् ।
ऋत्यकः ॥४॥३।१०५॥ ऋकारे परतोऽको विभाषया प्रकृतमा भवन्ति पश्च भवति वदा प्रकृतिभावः ! खट्व श्यः । खट्वयः। माल श्वः । मालीः | त्वेऽपि भवति | पितृ ऋश्या 1 अन्यत्र पूर्वगौच सिद्धम् । व्यवस्थितविभाषानुवर्तनादिह न भवति उपाध्नाति । प्राप्नोति । ऋतीत किम् ? दण्टाग्रम् । मालाग्रम् । तपरकरणं किम् ? देवदत्ताया प्रकारः देवदत्तरिः । दीपयोः परलो मा भूत् ।
पाऽपवदितौ ॥४३१०६॥ श्रापथकार्य पर्सशकस्य वा भवति इतौ परतः । देवदत्त ३ इति देवदत्तेति । सुमंगल ३ इति सुमनलेति । "दूराजूते" [५।३।६२] इति पः । "प्रयाऽगि दिपाः" [३।१०३] इति नित्यं प्रकृतिभावः प्रातो व्यवस्थितविभाषानुवर्तनाद्वाक्यादधि पर येन शन्दपदार्थतका स्वरूपे व्यवस्थापयते तस्मिन्निती विकल्पोऽयम । स्वचिदनितावपि । शाक्यम् वशेयम् । यस्कर पकार्यप्रतिषेधार्थम् । अब इत्युच्यमाने पस्येत्र प्रतिषेधः स्यात् । ततश्च अग्नीति । वायू ३ प्रति । नत्र दिसंज्ञाश्रये प्रतिभाये सते निमात्रतावाः श्रवणं न स्यात् । पर्मशाश्रयकार्यपशिषधे हि दिसंज्ञाऽश्रयायप्रतिषेधे हि प्रकृतिमात्रे मति "अनृतोऽनन्त्यस्य" [५५३६४] इत्यादिकृतायात्रिमावतायाः श्रवणं सिद्धम् ।
ई इत् ॥२३।१०७॥ ईदन्तस्य इद् वा भवति । अनितिपार्थोऽयमारम्भः। सुनीहि हदम् । लुनीहीदम् । पुनीहि ३इदम् । पुनीहीदम् । "कि याशी येषु मिकाकांनम्" [५३१०२] इति पः ।
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• म ४ पा० ३ सू० १०-१४ महावृत्तिसहितम्
२६९ दिध उत् ॥४॥३।१०८।। "एकोऽति पवान्तात्" [३३६५] इत्यतः पदग्रहणमनुवर्तते । दिविन्येतस्य पदस्योकारादेशो भवति । घुभ्याम् । झुभिः । पन्यति किम् ? दिया । दिवे । "मिरनुबन्धकग्रहणे न लानुबन्धकस्य" [१०] इति मृद एवं दिवेईिपित्या न सिप्रश्य ग्रहणं न धोसकारानुबन्धकस्य । अक्षाभ्याम् । अक्षयुभिः । दिव्यतः किम् । “भोः शूट च" [ १७] पनि कट | उदिति लापरकरणं किम् ? यावताऽर्धमात्रस्य इलः स्थाने आनन्तर्वान्मात्रिक एवं भविष्यति । "च्छ्रो शूट त्र" इत्यत्र किती यनुवर्तगादू ठोऽपि निवृत्त्या नोपपद्यते । साधौधों भवतात यावागत निवृने क (मि)संज्ञकत्व दिय उत्व कृते | भवतीति "पी" [५२।१३५] इति दीत्व निवृत्त्यर्थम् ।
हल्येतत्तवोऽरनसेऽको सुखम् ॥४॥३१०६॥ सम्भाविति वर्तते । एतत्तदोरककारयोहलि परतः सुर्ख भवस्यनसे । एवं ददाति । स ददाति । हलोति किम् ? एषोऽत्र | सोऽत्र । एतत्तदोरिति किम ? को दाता । यो घन्यः । अनच इति किम् ? अनेयो ददाति । अतो ददाति । अनन्स इनि प्रसज्यपातिषेधः । पयुवासे हि उत्तरपदार्थप्रधानवृत्त्यन्तर एव सुखं स्यात् । परभैए ददाति। परमस ददाति । केवलयोरनम इति किम् ! वाक्ये भव येव । नैष ददाति । नम ददाति । अकोरिति किम् ? एपको ददाति । सको ददाति । "तन्मयपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते" प०] इति प्रातिः । सग्रहणं किम् ? एतो तो वरतः । एतत्तदोरिति द्वित्वनिर्देशाद् आरा एक सुर्य खते। ईपो बहुत्वे हि एततेपामिति बृयात् । सुस्त्रमिति गमकत्वात्सः |
___ सम्पर्युपात्कृत्रा सुझ्षे ॥४॥३।१२०॥ सम् , परि, उप इत्येतेभ्यः परस्य कुत्रः सुडागमो भवनि भूपेऽर्थे । संस्करोति । समस्करोत् । संसारः | अन्तरङ्ग-वेन द्वित्वाइागमाभ्यां मासुट । परिकरोति | "सिबुसहसुटूस्तुस्वजाम" [५१५२] इति पलन । पर्यस्करोत् । परिचस्कार । उपत्करोति । उपास्करोत् । उपचस्कार । भूष इति किम् ? उपस्करोति ।।
समवाये ॥४।३.१११॥ संसर्गः समुदायो वा समवायः । तस्मिन् समादिभ्यः कृतः सुद् भवति । तत्र न संस्कृतमनित्यम् अत्रापि कारणसमयायो गम्यते ।
उपात्प्रतियत्नवैकलवाक्याध्याहारे ॥४॥३॥११२॥ उपात्परत्य कृनः प्रतिवान वैकृत बाक्याथ्याहार इयोध्यर्थेषु सुद् भवति । विद्यमानस्य गुणाधानमपूर्जिनं वा प्रतिपत्नः । तत्र एधोदकस्योपस्कुरुते । काण्डं शरल्योपस्कुरुते । "प्रतियत्ने कृमः [ ३०] पति कर्मणि ता । विकृतत्वं च कृतम् | तत्र उपस्कृतं भुते । उपस्कृतं गच्छति । वाक्यैकदेशो वाक्प्रगम्यमानार्थव वाक्यम्य वाक्यावयवस्य स्वरूपेणोपादानं वाक्याध्याहारः । तस्मिन् उपस्कृतं जल्पति | उपस्कृतमधीते । सोपस्कारं व्याचष्टे । पदान्तराण्यध्याहतानि कथयतीत्यर्थः । एरोध्विति किम् ? उपकरोति ।
किरतेलवे ॥४॥३।११३।। उपादिति वर्तते । उपास्यरस्य किरतेलं कविषये सुद् भवति । उपस्कीर्य मद्रका लुनन्ति । उपस्कार मद्रा लुनन्ति | "ञ्चाभीक्ण्ये" [२ ] इति एन । "धा घेष्टिवेष्टयोः" [५।२११९३] इत्यतो बिकल्पानुवृत्तेराभीक्ष्ण्येऽपि द्वित्वाभावः “युश्या बहुलम्" [२:३।६४] इति बहुलवचनादनाभीक्ष्ण्ये वा रणम् । लव इति किम् ? उपकिरति देवदत्तः ।
पधे प्रतेश्च ॥४॥३.११४॥ प्रतेपात्र परल्य किरतः सुइ भवति वधेऽर्थे । प्रतिस्कीण हिं ते पल भूयात् । उपस्कीण हि ते वपल भूयात् । अत्र वधः किरतेरभिधेयत्वेन विवक्षितो न विपयतया । तदुक्तम्
सटारछुटाभिश्वधनेन बिनता मृसिंह सहीमतनु तर्नु स्वया ।
स मुग्धकान्तास्तनसमभकुरैरुरोविदारं प्रतिघस्कर नस्त्रैः ॥ [ शिशु० ॥४७ ] इतः इत्यर्थः । वध इति किम् ? पतिकी बीजम् । “हतरच वधः" [२२३॥६३] इति हन्तरचि क्व इति भवति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ४ पा० ३ सू० ११५-११८
चतुष्पाच्छकुनिष्पाद्धर्षा ||४ | ३ | ११५ || पात्रस्य किरतेश्चतुष्पात्सु शकुनिषु च यो हद स्तस्मिन् विषये सुडू भवति । दविधिप्रकरणे "किरते हर्षजीविकाकुलायकरणे " [१।२।३३ ] इत्यत्र स्थितो इवदिर्गणो गृह्यते । हृह्यं–अपस्किरते वृषभो हृष्टः । जीविकायाम् अपस्किरते कुकुरो भक्षार्थी । कुलायकरणे - अपत्किरते श्वा श्राश्रयार्थी । चतुपाच्छकुनिष्विति किम् । अपकिरति देवदत्तो हृष्टः । हर्षादाविति किम् ? श्रपकिरात धान्यं काकपचापलेन ।
३००
स्कण्वहरिश्चन्द्र पारस्करप्रभृतीनि
कुस्तुम्बुरुगोष्पदास्पदाश्चर्याविस्करापस्करापरस्परविष्किरमस्करमस्करिप्रतिष्कशम可 ||४|३|६१६|| कुम्भृतीनि पारस्करप्रभृतीनि च शब्दरुप्राणि निपात्यन्ते । कुस्तुम्बुरुशब्द जाती निपात्यते | कुस्तुम्बुरुर्धान्यकं नृणजातिः । कफलान्यपि कुस्तुम्बुरु । जातेरन्यत्र कुत्सितानि तुम्कुरूणि । कुस्मितानि तिन्दुको फलानो पर्थः । गोपदशब्दे सुडागमः पत्यं च निपात्यते सेविते । गवां पदमस्मिन् देशे । गावः पर्यन्ने वाऽस्मिन्निति गोष्पदो देशः । गोपदमरण्यम् | असेविते नम्पूर्वस्थ निपात्यते । न विद्यते गवां पदमल्याम् श्रगोपा अरण्यानी । सेवितत्वप्रतिषेधे हि यत्र सेवितन्यसम्भवस्तत्रैव स्यादन्यत्रासम्भवं न स्वादिति पृथगसेवितग्रहणम् । न विद्यतेऽस्मिन्निति विग्रहात् । प्रमाणे गोष्पदमात्रं क्षेत्रम् | गोष्पदपूर वृक्षे देवः । एवति किम ! गोपदम् । यास्पदमिति प्रतिष्टायाम्। खात्पदमनेन लब्धम् । अन्यय श्रापदापदम् । आश्चर्यमिन्यद्भुनेऽर्थे । आश्चर्य यदि स भुञ्जीत । आश्चर्यमाकाशेऽनिबन्धनानि नक्षत्राणि न पतन्ति । आचर्य व्रतमन्यत्र | "बरेराङि चागुरौ” [वा०२११८] इति कः । अवस्कर इति वर्चस्के । पूर्वारितः कर्मणि "वग्रहममोऽब्” [२२२१५२] इति अच् । कुत्सितं वर्चा बर्नस्कम् ग्रनमलम् । तत्सम्बन्धादेशोऽपि तथोक्तः । श्रकरोऽन्यत्र । avtar इति रथाङ्गे । अपकीर्यतेऽसाविव्यपत्करी स्थावयवः । अपकर इत्यन्यत्र । परस्पर शत कियासातत्ये | अपरस्पराः सार्थां गच्छन्ति । सान्द्रः ।
यान्तेऽहा वश्यमो नाशस्तुमः कामे मनस्यपि । हिते व समो वा स्वं मांसस्य पचि युङ्क्षत्रोः ॥ इति भ्रमो मकारस्य से सतत शब्दाख्यातयन् | अपरपराः सार्थाः सच्छतीत्यन्यत्र | "विष्किर इति शकुनी सुडागमो वा निपात्यते । चिकिरतीति विकिः विकिरो वा शकुनिः । "ज्ञाकूप्री" [४|१|१०८ ] इत्यादिना कः | मुद्र पक्षे "सिबुसह सुद्स्तुस्वन्जाम्' [ ५४५२ ] इति पथम् । मकरमस्करिणौ परिवाजकयोः । मस्करो ast वा हस्तिनः । मत्करी भिक्षुः । मकरो प्राहः मकरी समुद्रः इत्यत्र । अथवा " शमस्य करे शखमाः करिशब्दे प्रादेशश्च निपात्यते वेणुपरिवाजकयोः । प्रतिष्कश इति निपात्यते सहायश्चेत् । " कश गतिशासनयोरित्यस्य प्रतिपूर्वस्य पचायचि सुडागमः पत्वं च निपात्यते । देशान्तरमहं व्रजामि भवने त्वं प्रतिष्कशः । प्रतिकशोऽन्यः । प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रौ भवत ऋषी चेत् | प्रकण्यो देशः । हरिचन्द्रो माणवक इत्यन्यत्र | पारस्करप्रभृतीनां च खौ सुडागमो निपात्यते । पारस्करी देशः । कारस्करो वृक्षः वनस्पतिश्चैत्ररथं पातीति । रथस्या नदी । किष्कुः प्रमाणम् । किष्किन्धा गुहा । तद्गृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुदु तखं च । तस्करः | बृहस्पतिः | तत्करो बृहत्पतिरित्वन्यत्र | अजतुदम् । कातीरं च नगरम्। श्रजतुदम् कातीरमित्यन्यत्र । प्रात्तुम्पतौ गवि कर्तरि । प्रस्तुभ्पत्ति गौः । अन्यत्र प्रतुति श्री । पारस्करप्रभृतिराकृतिगणः |
प्रायाश्चित्तिवित्तयोः ||४३|११७|| प्रायात्परयोः चित्तिचित्तयोः सुड् भवति । प्राक्स्य चिनम् प्रायश्चित्तम् । प्रायश्चित्तिः । "स्तो रचुना खुः " [ ५४॥१६६ ] इति मुद्रः स्तुत्वम् ।
भादाविदमोऽन्वादेशेऽश् ||४|३|११८|| भादौ परत इदमोऽशादेशो भवत्यन्वादेशे । पूर्व क्रियागुणद्रव्यैः संबन्धः कृतस्तस्यैव पश्चात्क्रियानुपद्रव्यान्तरेण संबन्धे क्रियमाणेऽन्वादेशो ऽनुकथनं भवति । क्रियासंबन्धे द्दमकाभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरुषिता । अथो श्रभ्यां हिंसा च कृता । कुत्साऽज्ञातयोः “झिसर्वनाम्नोऽकूटे:
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०४ पा० ३ सू० ११६ - १२४ ]
महावृत्तिसहितम्
૩૦.
को दः " [४ | १|१३०] इत्यकिं कृते साकइदमो हलि वं न भवति । " श्रनाय्यक : " [ ५/१/१७० ] इत्यत्र ककारस्यनुवर्तनात् तेनादेशः । गुणत्रन्त्रे इमकस्य छात्रस्य कुलमशोभनम् अथो अस्य शीलमपि । द्रव्यमकस्य राज्ञो जनपदो दुर्विहितः यो अस्य भृत्याश्चावश्याः ।
टौसिध्येनदेवश्च ॥ ४३११६॥ यो इ इत्येतेषु परत एतद इदमश्च नदिययमादेशो भवति श्रन्वादेशे। एतेन छात्रेण रात्रिरधीता अथो एनेन निपुणमधीता । एनदादेशे कृते त्यदाद्यत्वम् । दकारान्तलं नपुंसके प्रयोजयत्ति | एनयोश्यात्रयोश्शोभनं शीलम् श्रथो एनयो रूपमपि । एतं छात्र काव्यमध्यापय अभ
गणितमपि । एतं जैनेन्द्रमध्यापय ग्रंथो एनं तर्कमाथि । एतमर्थिनः संनते अथो एनं मित्राणि च । इदमः खत्वापि अनेन छात्रेण पत्रिरधीता ग्रंथ एतेन निपुणमधीता । अनयोरात्रयोः शोभनं शीलम् अथो एन रूपमपि । इमं छात्र मिथ एनद्विहङ्गाश्च । इदमसोः परतः पूर्वखायादेशः प्राप्तोऽन्यत्राप्राप्त एनदादेशः ।
धावनु ||३|३|१२०॥ द्याविति अनुमिति च एतद् द्वितयमधिकृतं वेदितव्यम् । "ज्योतिरुद्गती" [३६] इति निर्देशान्न सामान्येन यात्रनुप । प्रागोरधिकाराद् व्यावित्यधिकारः । अनुबंधिकारः प्रागानङः । वक्ष्यति "कायाः स्तोकादेः " [ ४|३|१२१] स्तोकान्मुक्तः । श्रल्पान्मुक्तः " स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्र के" [१।३।३४ ] इति पसः । द्वित्वयोनिभिधानान्न सः । अभिवानेन भवति । गोपुचरः । वसुनः इति । चाविति किम् ? निष्क्रान्तः स्तोकानिः स्तोकः । " श्रनङ इन्द" [४।३।१३८ ] इति यावानङादेशः । होतापोतारौ । नेत्रातारौ । द्यावित्येव । होतारी । होतृभ्याम् । सुपि माभूत् । "इकः प्रो हयाः " [४/३/१७२ ] इति प्रादेशो थौ । ग्रामणिपुत्रः । सेनानिपुत्रः । मुषि माभूत् । ग्रामणीभ्याम् ।
कायाः स्तोकादेः ॥४।३।१२९ ॥ स्तोकादिभ्यः परस्याः काया अनुभवति द्यौ । " स्तोकान्तिकदूरार्थकृष्छ्र केन" [१1३/३४] इत्वत्र स्थितः स्तोकादिर्गृह्यते । " स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्रं फेन" इति सः | अपादानलक्षणेयं का । काया इति किम् ? स्तोकेन मुक्तः स्तोकनुक्तः । स्तोकादेरिति किम् ? बुकाद्ध वृकभयम् । कथं ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विविशेषः । उच्यते रूपशब्दोऽयं गोशब्दवदस्व व्युत्पत्तिः 1 ब्राह्मणादध्यात्वमर्थं वा सतीत्येवंशीलः ब्राह्मणाच्छंसी । अपादाने का । "साधनं कृता " [११३२६] इति पसः । “वे कृति बहुलम् ” [ ४।३।१३२ ] इत्यनुभ् |
भाया श्रोजरसहोऽम्भस्तपोऽसः ||४३|१२२|| ग्रोज, सहन, अम्मम्, तपम्, अञ्जस् इत्येतेभ्यः परस्या भाया श्रनु भवति । अब्जसा कृतम् । सहसा कृतम् । श्रम्भसा कृतम् 1 तपसा कृतम् | "साधनं I कृता बहुलम्” [१।३।२६] इति पसः |
खौ मनसः || ४ | ३|१२३|| खुविषये मनसः परस्या भाया अनुभवति । मनसा गुसा | मनसा गता है। करमा । खाविति किम् ? मनोदत्ता ।
शनि ||४||१२४ || आजाविनि द्यौ मनसः परया भाषा अब भवति । मनसा श्राजानातियेथील मनसाऽसायी । श्रखावपि यत्नोऽयम् । "पुंसाऽनुजो जनुषान्ध इत्यनुब्बक्तव्य:" [ वा०] । श्रनुजातोऽ नुजः । पुंसा हेतुना करणेन वा अनुजः पुंसाऽनुजः । “साधनं कृत्ता" [ १।३।२६ ] इति पसः । यदा पुमांसमनुजातस्तदा पुमनुज इति । जनुषा जन्मनाऽन्धो जनुपान्धः । “प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] इति भा । "भा गुखोयाऽर्थेननैः" [१।३।२७] इति सः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [०४ पा० ३ सू० १२५-१३॥ डड्यात्मनः ॥४३।१२५॥ डडन्त यो आत्मनः परल्या भाषा अनुन् भवति । आत्मना पञ्चमः यात्मना पत्रः। “प्रकृयादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] इति भा। डाइन्तेन भान्तस्प सविधेरिदमेव ज्ञापकम् । गम्यगानक्रियापेक्षया करणे चा भा। आत्मना कृतः पञ्चमः अात्मना पञ्चमः कथगयं प्रयोगः । जनार्दनरूया. स्मच जुर्थ एच । बसोऽयम् | आत्मा चतुर्थः । व्यापदेशिवदाबादपदार्थःवम् । यथा चारुशरीरः शिलापुत्रक इत
डेखो पराच ॥४३१२दा खुधिपये पराम्यात्मगश्च परस्य डेरनुब् भवति । प्रतिपडोक्तत्य ग्रहणम् । परस्मैभाषः । परस्मैपदम् । अात्मनेापः । श्रात्मनेपदम् | तादाऽबुक्ता । आत्मार्थं पदमात्मनेपदम् । सविधे. रिदमेव ज्ञापकम् । असवार्थ इति विकृतेः प्रकल्या घस उक्तः ।।
ईपोऽद्वसः ॥१३।१२७।। अदन्ताखलन्ताश्च सामर्थ्यान्मृदः परस्या ईपोऽत्र भई। जिपथे। अरण्येतिलकाः । अरण्येमापकाः । बनेकिंशुकाः । वनेबल्व जका। बहरिनु काः। पूहिसाटकाः ।
पेपिशाचकाः। “खों" [१३३८] इति षप्तः । हलन्तात् । त्यचितारः। दृपदिमापकः । युधिष्ठिरः । नियातनाधिष्ठिरः । नन्यबादेशेऽन्तरले कृते हलन्तता न | "अन्तरङ्गापि विधान पहिरन उब्बाधते" [५०] । अन्यथा नदीकुकुटिकादिगु यणादेशे सत्यनुप प्रसज्येत । अदल इति किम ? ना कुटिका । भूनिएकस। भूमपाशः । “प्राखौ छाभ्यामियर्थ ईपू तस्याश्चानुन् वक्तव्याः" [१०] । हृदिशकः । विविस्क । न वक्तव्यः । को हि हृदय स्थराति । “ये कृति बहुम्लम्" [३।१३२] इत्यनुम् । म नानुर हदिति प्रकृत्यन्तरं यत्तस्माद्भवति । “अप्सुमति चाखी काव्यम्" [वा०] । अनुमान् “अध्सव्य इत्यादावरि वक्तन्यः" [बा०] | अप्सु भनोसव्यः | अ'मुयोनिः ।
कारे प्रायः ॥४३॥१२॥ यूथे गृहे क्षेत्रे धान्याचं रस्तु रक्षानिर्देशार्थं यद वश्यं राज्ञ देयं स कारा । तद्वाचिनि धौ ईमोऽशु भाति खौ प्रायः । स्वाचिति वर्माते | अद्धल इति च । अदन्तात् । स्तूचे शासः । मुकुटे कार्षापणः । हले द्विपदिका । हले त्रिपदिका | द्वौ द्वो पादौ दयौ । “वीप्सादण्डत्यागे बुन्" [॥२६५०] इति धुन् । “खो" [१॥३।३८] इति घमः । हलन्तान्-यदि मारकः । समिधि माषकः । विषये पूर्वेणुव सिद्ध प्रायोग्रङ्ग्यार्थमेतत् । तेन कार कचिदनुम्न भवति । यूथे पशुः । यूथपशुः। यूथे वृपः । यूथपः । "खो" [३।३।३८] इति पतः । कार इति किम ? अभ्यादिने पशु: । कागदत्यस्य यस्य नानैना । उ युपरि पशुय इत्यर्थः । “पोलः" [४।३।१२७] इत्यनेनापि कारग्रहणादिहानुम्न भवन्ति । अद्धल हव जङ्घाकापणः | मपी कार्षापण्ः। नदीदोहः । कारसंशा एताः ।
हलि ॥४॥३.१२६॥ हलादो कारे यो पोऽनुन् भवति । स्तूपेशाणम् । नियमार्थमिदम् । हलादाच नाजादौ । अविकटोरणः ।
मध्यान्ताहुरौ ॥४॥३१३०॥ मध्य अन्त इत्येताभ्याम् ईपोऽशुन् भवति गुरौ यो । मध्येगुरुः । अन्तै गुरुः । सबिधेरिदमेव ज्ञापकम् । असंज्ञाऽर्थोऽयं यत्नः ।
अकामेऽमूर्धमस्तकात्स्वाङ्गात् ॥४॥३१३॥ मूर्धमस्तकाभितात्स्यालापास्या इंपोऽनुन भवतिअकामे द्यो ] कराटेकालः । उरसिलोना । बहे गडुः । उदरे मणिः । ब्यधिकरणनामपि कचिद्बसः । उरमिगेमश इत्यत्र मत्वीये कृते उरीत्यनेन योगः । अकाम इति किन ? मुखे कामोऽस्सः मुखकामा स्त्री। अमूर्धभस्तकादिति किम् ? मूर्धशिखः | महाकशिखः । । उभयप्रतिरोधात्स्वरूपग्रहणम् । तेन पायादनुप । शिसिंशिखः । स्वाङ्गादिति किम् ? पानशौएडः । स्वाङ्गादिति कमशश्यम् । मूमस्तकपर्युद्रामेन स्वङ्ग एवं सात्यवात् । तक्रियते "अद्भवं मूर्तिमद्र" कृत्यादिपरिभाषिकस्वाङ्गसम्प्रत्यवार्थम् । तेनाप्राणिस्थाइनुम्न भवति । मुखे पुच्छा अस्याः मुखपुरुषा शाला | अद्धल इत्येव | अङ्गुलिवणः । जङ्घावलिः | बसाविमौ । असंज्ञार्थमारम्भः ।
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अ० ४ पा० ३ सू० १३२-१३६] महावृत्तिसहितम्
३०३ ये कृति बहुलम् ॥१५३।१३२॥ घे कृदन्ते छौ बहुल मोपोऽनुन् भवति । बहुलग्रहणं सर्वधिकल्पसंग्रझार्थन् । स्तम्मेरमः । कणं जपः । “प्राबृड् वर्षाशरत्कालदिव जेऽनुप्" [वा०] मावृषिजः । वर्गसुजः। शरदिजः । कालेजः । दिविजः । न भवति कुरुचरः । मद्रचर: 1 "इन्सिद्धबध्नात्तिस्थेषु च न भवति" [वा० स्थण्डिलशायी | स्थण्डिलवर्ती। "नते"[२१२।८] इति णिन् । साकाश्यसिद्धः । काभ्यिल्यसिद्धः । चक्रवन्धनम् । चक्रवन्धनम् । समस्थः । विषमस्सः । कूटस्थः । पर्चतरथः । समानाधिकरम्शे च नेप्यते । परमे कारके 1 "वर्षनरशरवराज्जे द्विधा" [घा] वर्षजः । यजः । क्षरजः । क्षरेजः । शरजः | शरेजः । बरजः । दरेजः । “शयनासपासिप्पकालघाचिनो द्विधा" वा०] खशयः । खेशयः । बिल शयः । बिलेशयः । वनवासः । बनेवासः । ग्राग्लासः । ग्रामवासः | नक्यामी । नयेयासी | ग्रामवासी । ग्रामेवासो | अकालवाचिन इति किम् ? पूर्णाङ्केशवः । अपराह्नेशयः । "बन्धे द्विधा" [चा०] इस्तेवन्धः । हस्तान्धः । स्वाङ्गादिति नित्यं प्राप्तिः । चक्रवन्धः । चक्रवन्धः । नाती अनुप् प्रतिषेधः प्रातः। अद्धल इत्येव । भूमिशयः । गुप्तित्रवः । “कृग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि" [५०] अदनहनकुलस्थितम । उटके विशौर्णम् । “सेपे" [१॥३॥४१] इति षसः । “कचिदन्यत्रापि " । ब्राह्मणाच्छंसी । पृरत्वैवार्य प्रपञ्चः 1
मकालतनेकालेभ्यो या ॥३१३३॥ झज्ञके काल शब्दे तनदाब्दे च परतः कालिगचिभ्यः परस्या ईपो वाऽनुन् भवति । म इति तरतनौ । “सादी मः" [।१।११५] इति वचनात् । पूर्वाह्नाराम । पूर्वाह्नतरे । अस्मिंश्च पूर्वाह्ने अस्मिन्नतिश येन पूर्व इति विगृह्यते । “द्विविभज्ये तरेयसू" [११११६] इति : अहराध्यस्य पूर्वस्य प्रकर्पतरः । अनुप्पो “किमेन्मित्र भिमादामध्ये" [1२।२०] इति एतदन्ताःपरो र इत्याम. भवति । सर्वेषु पूर्वाहेषु अतिशमन पूर्वाह्न इति विगृह्यते । “तमेष्ठावतिशायने" [४।१1११४] इति तमः । पूर्वाह्वाभाम् । पूढतम्मे भुके। पूर्वाझं काले “विशेषणं विशेष्ये शेति" [३।३।५२] असे कृते । पूर्वाङ्गेकाले पूर्वाह्नकाले गनः । पूर्बाहें जातो भयो वा पूर्वाह्नेतनः । पूर्वाह्नतनः । “वा पूर्वापराह्नात" [३।२।१४५] इति तनट् । इदमेव शाप नुरसाद् हृदुत्पत्तः । कालेभ्य इति किम् ? शुक्लतरे । शुक्लतमे। अदल हल्येय | रात्रितगयां गतः । अस्यां च रात्रौ अस्यामतिशयेन रात्राविति । “त्यग्रहणे चाकायः" [प०] इति कान्तात्परौ भतनो स्वरूपेरण गृह ये न तदन्तधिना | अपि च "हृदयस्य हलेवया ब्लासेषु' [४।३।१६१] इत्यत्राणग्रहणेन मिरे लेखग्रहणं ज्ञापकं “प्राविधिकारे स्यग्रहणं स्वरूपग्रहणमेघ" [प०।
तल्या नाक्रोले १७३१३५१ नागा सन्दुर पशि दो बायोशे यमाने । चौरस्य कुलम् । वाममय कुलम् । वृपलम्व भार्या । "ता" [१॥३१७०] इति पसः। श्राकोश इति किम् ? मोक्षमार्गः । अयाचिरहे दासकुलमिति भवति । ताया इति योगविभागः | "सेन वादिस्पश्यद्भ्यो युक्तिदण्डहरेष्वनुप्" [वा०] वाची युक्तः। दिशोदण्डः | पश्यतोहरः । “ता चानादरे" [ ४६] इति ता । “देवानां प्रियादिष्वनुप" [चा०] देवानां मियः । दिवोदासः । आमष्याषणः । नडादित्वाकण । आध्यमुनिका । अामन्यकुलिका | मनोज्ञादिपायायुध् । “शुनः खौ शेफपुच्छलालेपु” [धा०] शुनःशेफः । शुनःपुच्छः । शुनोलाङ्गलः ।
पुत्रे वा ॥३३१३५।। पुत्र नौ ताया नाऽनुम् भवति आक्रोशे । दात्याः पुत्रः । दासीपुत्रः । चौर्वाः पुत्रः । चौरीपुत्रः । पूर्वेग नित्यं प्राप्तः ।
तो विद्यायोनिलंबन्धात् ॥४॥३१३६॥ ऋकारान्तेभ्यो गिटासंबन्धेभ्यो योनिमम्बन्धेभ्यश्च परस्यालाया अनुन् भवति । सामथ्याद्विन्यायोनिलेवन्धि हो । होतुः पुत्रः । होतुरन्तेवासी । पोनः पुत्रः । पोनुरन्तेत्रानी । योनिसम्बन्धात् | मातुः पुत्रः। मातुरन्तेवासी । पितुः पुत्रः । पितुरन्तेवासी । भूत इति किम् ? उपाध्यायपुत्रः। मातुल पुत्रः । उपाध्यावशिष्यः । पुनशिष्यः । विद्यामोनिसम्बन्धादिति किम् ! कर्तृ पुत्रः।
शिष्यः । विप्रायोनिसम्बन्धिद्यापिति किम् ! होतृगृहम् । पितृधनम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ४ पा० ३ सू० १३७ - १४६
वा स्वपत्योः ॥४३॥१३७॥ ऋकारान्तेभ्यो विद्यायोनिसंम्पः परस्यास्ताया वाऽनुव भवति स्वसृपत्योः परतः । मातृष्वसा । मातुः स्वसा । मातुः वसा । पितृष्वसा । पितुः स्वसा । पितुः ष्वसा । उषि "मातृपितृभ्यां स्व:" [५४६६ ] इति पत्वम् । अन्यत्र “ वाऽनुपि [ ५४६७] इति वा पत्वम् । दुहितुः पतिः । दुहिनृपतिः । स्वमुः पतिः । स्वसृपतिः । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पः |
३०४
ग्रानङ् क्षून्द्रे ||४|३३१३८ ॥ ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धादिति वर्तमानम् अर्थातान्तं सम्पद्यते । कासन्तान वियवानां यो द्वन्द्रस्तत्र श्री पूर्वस्थानादेशो भवति शेतापोतारौ । नेप्यद्रातारौ । प्रशास्ताप्रति हतारी एककर्तृकर्मणि विधाकृतः संमन्त्रोऽस्ति । योनिसम्बन्धे मातापितरौ । माताननान्दारी। नकारोच्चारणं किम् श्रा इयमाने "रन्तोऽणुः " [१।१।४८ ] इति स्तः स्यात् । ऋत इति किम् ? पितृपितामहौ । विद्यायोनिसंबंधादिति किम् कर्तृकारवितारौ । सम्बन्धम किम् । पितृभ्रातरी । नात्र विद्यातो योनितो वा परस्परसंबन्धोऽस्ति । मण्डूकन्लुत्या पुत्रमनुते । तेन पुत्रेऽपि यौ ऋकारान्तस्य चानङ् भवति । पितापुत्री । मातापुत्रौ ।
देवताद्वन्द्वे ||४३|१३६॥ देवतावाचिनां च द्वन्द्वे द्यावानङादेशो भवति । इन्द्रावरुणौ । इन्द्रासोमौ । इन्द्राबृहती | सूर्याचन्द्रमसौ द्वन्द्र इति वर्तमाने पुनर्द्वन्द्रग्रहणं सहयाप निर्देशार्थम् । तेन ब्रह्मप्रजापती, शिवत्रैश्रवणौ, स्कन्दविशाखा इत्येवमादिषु शास्त्रे सहदाननिर्देशाभावान्न भवति । इष्टद्वन्द्वपरिग्रहार्थं वा पुनर्वचनम् । अन्तसञ्चरिने लोकविज्ञाते द्वन्द्वशब्दो निपातितः । ततो लोकप्रसिद्धसाहचर्याणामानङ् भवति । " वायोरुभयत्र प्रतिषेधः दृश्यते" [ घा० ] अग्निवायू | वारी ।
सोमवरुणेऽग्रीः || ४|३|९४० ॥ सोमवरण इतयोः परतोऽग्नेरीकारादेशो भवति देवताद्वन्द्वे | अग्नीपोनौ । श्रग्नीवरुणौ । श्रन्तस्याः स्थाने श्रानोऽपवाद ईकारः । " स्तुस्सोमी चाग्नेः [५४६५] इति त्वम् | a इत्येव । उपचाराग्निसमौ माणवकी ।
:3
ऐषीत् ॥४|३|१४१॥ साहचर्यादेय् भाजि श्री अग्नेरिकारादेशो भवति देवताद्वन्द्वे | अग्निश्च वरुणश्च देवते अस्या श्राग्निवायी । श्रग्निमारुतम् । देवतार्थेऽणि उभयोः पदयोरैपि कृते इत्यानङोरपवाद इकारः । "विष्णोः प्रतिषेधो वक्तव्यः [वा ] अग्निश्च विष्णुश्च देवतेऽस्य ग्राग्नीवैष्णवम् । श्रानदेव भवति । ऐपीति किन ? यानेन्द्रः । “नेन्द्रस्य" [५/२/०७] इतिधो रैप्रतिषेधः |
"
दिवो धावा ||४३|१४२|| दिनो यात्रा इत्ययमादेशो भवति श्रौ देवताद्वन्वें । यश्च भूमिश्व भूमावान द्यावाक्ष में । अनेकात्वात्सदेशः |
दिवसश्च पृथिव्याम् ||४|३|१४३ || दियो दिवस इत्ययमादेशो भवति द्यावा व पृथिव्यां चौ देवताद्वन्द्वे । दिवथिव्यो । यावथिव्यौ । उच्चारणानाकारेण निर्देशो रित्यबाधनार्थः ।
उपोषसः ||४३|१४४ ॥ उपत उपासा इत्ययमादेशो भवति द्यौ देवताद्वन्द्वे । उपश्च नकम् च उपासानन् | उपासानक्ते । न शब्दो मकारान्तो भिसंज्ञको कारान्तश्च नपुंसकलिङ्गोऽस्ति ।
मातरपितरौ वा ॥४/३/६४५ ॥ मातरपितराविति वा निपायों । मातरपितरौ । यो ऋकारस्याभावो निपात्यते । पक्ष "श्रानक इन्द्र " [३/३/१३८ ] यानकि कृते मातापितरौ ।
ני
सयुक्तपुंस्काय नूरेकार्थेऽडटुप्रियादी स्त्रियां पुंवत् ||४ | ३ | १४६|| उक्तपुंस्कात्यगे यः स्त्रीन्यः तदन्त एकार्थे च स्त्रियां वर्तमाने उडन्तप्रियादिवनिले पुंवद्भवति । स्थानेऽन्तरतम इत्यन्तरतमतः पु'शब्देन यो भवतीत्यर्थः । दर्शनीया मार्या अस्य दर्शनीयभावः । शोभनमार्थः । चारुजङ्घः । स्त्रीइति किम् ? ग्रामणि कुलं दृष्टिरत्व ग्रामणिदृङ्घ्रिः । उक्तपुंस्कादिति किम् माला वृन्दारिकः । तथा द्वणीभार्यः कच्छपः । वरदाभाव
C
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अ० ४ पा० ३ सू० १४७- १४६]
महावृत्तिसहितम्
३०५
हंसः । बदलामार्योऽश्वः । तथा श्रकारकाः शकुनयः । कालिकाश्चैषां त्रियः । कालिकाभार्या अङ्गारकाः । नहिं शृण्यादयः शब्दाः समानायामाकृतौ पुंसि वृत्ताः । पुंवद्भावः श्रान्तरतम्ये कच्छपादिप्रयोगः प्रसज्येत । ग्रन्रिति किम् ? वाभोरुभार्यः । श्रभूरिति स्त्रीत्यपर्युदासाद् श्रन्योऽपि स्त्रीत्य एव गृह्यते इति स्त्रीश्रहणमनर्थ तत्कृतमस्त्रीलान्तापि स्त्रोत नाम् ऐडिभिः । पार्श्वभार्यः । दारदभायैः । सिजभाव इति सिद्धम् । इडिविड धुनयो राष्ट्रसमानशब्दत्वादपत्यार्थे । वरद उसिंजा श्राभ्यां द्वमगधेत्यादिना । स्त्रियाम् " श्रतोऽप्राच्यभवदेः " [३।१।१५८ ] इत्यत्रोदय् । इडिविडनाव का विभा इत्यादि । एकार्थं इति किम् ? कल्याण्या माता कल्याणीमाता | प्रियाविति किम् ? कल्याण पञ्चभा रात्रयः । कल्याणीपञ्चमः । कल्याणीदशमः । “द्स्त्रीप्रमारयोर:" [ ४२११६] इयः सान्तः । यदि दन्ता स्त्री तद्गुणसंविज्ञानादिना प्रधानं तदा पुंवद्भावप्रतिषेधः सान्तश्नाकारो वेदितव्यः । माभूत् कल्याणपञ्चमीकः पक्षः। कल्याणमनोशः । प्रिया । मनोज्ञा । कल्याणी । सुभगा । दुर्भगा | भक्तिः । मचिया ॥ वा । कान्ता | समा । चपला । दुहिता । यामा इति प्रियादिः । दृढं भतिर हृदभक्तिः । शोमनभतिरिवादी न पूर्वपदं स्त्रीलिङ्गमिति । तेन प्रियादी ची पूर्वस्य यवाशंका न कर्तव्या । स्त्रियामिति किन् ? कल्याणी प्रधानमेषां कल्याणौप्रधानाः । उक्तः पुमान् धमानायामाकृती प्रभिन्ने प्रवृत्तिनिमित्ते जात्यादि येन शब्देन म तथानः । श्रथवा उक्तः पुमान् यस्मिन्नर्थेत्यादि स तथोक्तः । तद्वाच्यपि शब्द उक्त इति सा किमर्थन् । द्रोणीभार्यः । कुटीमार्यः । श्रत्र द्रोणकुटशब्दौ श्राकृत्यन्तरे पुलिङ्गी । कथं गर्गभार्यः प्रयुतभार्यः 1 प्रजात मार्यः इति । अत्राप्येकजात्यपेक्षया कथञ्चित्समानाकृतित्वमूयम् ।
तसाद ||४३|२४७ ॥ तसादिषु परतः उक्तपुंस्कादनूः स्त्रीपुंवद्भवति । आदिशब्दः प्रारावी | लस् | त्र | तर । तम । चर । जातीय | देश्य । देशीय | कल्प | पाश | रूप | था । श्रम् | दा | हिं | थ्य क्रेषु परतः । तस्यास्ततः । तस्यां तत्र । आद्यतरा | श्रायतमा । पट्वी भूतपूर्वी पन्चरी । पचीप्रकाश पडु जातीया । ईषदसिष्ठा पदवी पददेश्या । पददेशीया । वृद्धकल्पा । यान्या वृद्धा वृद्वपाशा । प्रशस्ता वृद्धा वृद्धरूपा | तथा प्रकृत्या तथा । कया प्रकृत्या कथम् । तस्यां वेलायां तदा । अस्यां वेयम् एत । श्रजार्थ हितम् जश्यम् | "अजाविभ्यां ध्यः " [ ३|४| ६ ] इति यः | दरच्छदा वा च कृते दारदिका । के पुंवद्भावात्परत्वेन प्रादेशः । परिवका । मृद्दिका । अल्पार्थाच्छसि बलीयो देहि बहुशो देहि | अल्लाभ्यो दहि अल्पशो देहि । “गुणवचनाच्चतलो :" [ वा०] पट्ट्या भावः पटुत्वम् । पटुता । गुणवचनादिति किम् ? क्षत्रियात्वम् | क्षत्रियाता | कठीत्वम् । कठता । "भस्य हृत्य पुंवद्भावो वक्तव्यः " [वा०] हस्तिनीनां समूचे हास्तिकम् | ईस्य स्थानिवद्भावाहिलं न स्यात् । ऋट इति किम् ? श्यैयाः अपत्यं श्यैनेयः | हिंशयः । कथम् श्रग्नायी देवता श्रस्य आग्नेयः १ " अग्निकलिभ्यां अणू" [३३२२८] इति | "पि कचित्पुंवद्भावो वक्तव्यः" [aro ] " ठण्डसोश्व" [वा०] । भवत्या हृदं भावत्कम् । भवदीयम् । अवस्थायां वद्भावे “इसुसुक्तः कः " [ ५/२/५२] इति कादेशः |
का मानिनोः ॥ ४१४८ ॥ यङि मानिनि परत उक्तपुंस्कादन स्त्री द्रवति । एनीवाचरति तायते । हरिणीवाचरति हरितायते । मानिनि थी । इमां दर्शनीयां मन्यते दर्शनीयमानी देवदत्तः । “मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि " [प०] दर्शनीयां मन्यते देवदत्त जिनदत्ता दर्शनीयमानिनी । एकार्थ स्त्रीलिकेची पूर्वेणैव सिद्धः पुकद्भावः । दर्शनीयामात्मानं मन्यते दर्शनीयमानिनी श्री ।
न
कोड: ||४३|१४६ ॥ चतश्व यः ककारस्ततुङः स्त्रिया न पुंवद्भावः । यु-पत्रिकामार्यः । कारिकाभार्यः । लाक्षिकीतः । लाक्षिकीपाशा । लान्त्रिकीयते । लाचिकीमानिनी स्त्री । विलेपिकाया धम्य 'वेलेपिकम् । “ऋन्महिष्यादेः” [३।३।१६१] इत्यणि कृते "भस्य हृत्यढे" [वा०] इति कद्भावः प्राप्तः । ह्रौत्वनिवृत्तिः स्यात् । सामान्धेनायं प्रतिषेधः । बुद्धद्महणं किम् ? सुकुभार्यः । जागरूकाः । वराकमार्यः ।
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जैनेन्द्र-ब्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू० १५०-१५४ उदयोः ॥४३३१५०॥ डिति प्रत्याहारेण इडन्ता खुश्च स्त्री न पुंवद्भवति ! पञ्चमीभार्यः । दशमीभावः । पञ्चमीतमः । पञ्चमीपाशः । पञ्चमीयते । पञ्चमीमानिनी। खौ-दत्ताभार्यः । दानक्रिया व्युत्पत्तिद्वारेण संज्ञाशब्देऽयुक्त पुस्कत्वगस्ति । दत्तो माणवकः इति पुंवारा प्राप्तः । एवं गुमाभार्यः 1 दत्तातः । गुनातः | इत्तिकामानिनी । दत्तिकाक्ते ।
निअदरक्तविकारे ४३३१५१॥ रक्तविकारयजिरोऽर्थे यो हत् नियात् तदन्तस्त्री न बद्भवति । जित् - श्रौत्सीभार्यः । णित्-सोनीमार्यः । माथुरीभार्यः। अर्धनार्यों भवा अर्धवारी । “परिमाणस्थानतोऽर्धाद्वा पूर्वस्य" [५१२॥३२] नै । अर्घखारी भारी अस्य अर्धखरीभावः । वैयाकरणी माया अल्प वैवाकरणीभार्यः । सौनीतः । सौनीपाशा | सौ नीयते । सोध्नीमानिनी | त्रिदिन्ति किम् ? तावतीमायाँ श्रत्य तायद्भायः । गम्भवा मध्यमा मात्य '
निति गर्व' ! निपृष्टम्यान्वं स्त्री “फिरदोः" [३१७४७] इति फिः । “इतो मनुष्यजातेः" [३१११५५] इति की पुंबद्भावः । हदिति किम् ? पुष्पलावी मार्य अस्य पुष्पलावभावः । अरक्तविकार इति किम् ? करावेग रक्ता कापायी घृष्टविकाऽस्य कापायबृतिकः | लोहरम पिक.रो लोभी इंपा अस्व लौद्देषो रथः ।
श्रमानिनीत्स्वानात् ॥४३॥१५२॥ स्वाङ्गात्परो य ईत् तदन्ता स्त्री न वद्भवति अभानिनि द्यौ । दीर्घकेशीभार्यः । श्लक्ष्णमुग्त्रीभार्थः । दीर्घकेशीतः । दीर्घके शीपाशा | दीर्घकेशीयते । अम्मानिनीति किम् ? श्लक्ष्णमुरखमानिनी । ईदिति किम् ? पृथुनधनभावः । अकेशभार्यः | "न क्रोदाविनः " [२११४४] “सहनम् विद्यमानात्" [३।६।५०] इति च ङीप्रतिषेधः । स्वाहादिति किम् ? पटुभार्यः ।
जातिश्च ॥३॥१५३॥ जातिश्च श्री न' पुंचन यति अमानिनि यौ। कटीमार्थः । यहचीमार्यः। कटीतः। कठीपाशा। कटीयते 1 "वृद्ध व चरणः सह" इति वचनाजतिः। अमानिमीत्येव । पदमानी। फटमानिनी । चशब्दः किमर्थः ? "भस्य टूरपडे" [वा०] इति प्राप्तस्य पुंरद्धावस्था प्रतिवेधो न भवतीत्यनुक समुच्चयार्थः । सेन हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् ।
पुंषद्यजातीयदेशीये ॥३।१५४॥ उक्तपुंस्कादनूः स्त्री पु वनवति यसंज्ञके से स्त्रीलिने छौ जानीय देशीय इस्पेतयोश्च परतः । यसे आपसूत्रेण वद्भावः सिद्धः । जातीयदेशीययोश्च तनादौ पाठात् । तरमा प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं आरम्भः । “न वुडस्कोड:" [॥२॥३४४] इत्युक्तं तत्रापि पुचद्भवति । पाचषवृन्दारिका । पात्र कजातीया । पाचकदेशीया । "इट वोः" [१३१५०] इत्युक्तं तत्रापि भवति । पञ्चभन्दारिका । पञ्चमः जातीया । पञ्चमदेशीया । दत्तवृन्दारिका | दत्तदेशीया । “निएवरक्तविकारे" [॥३॥१५१] इत्युक्तं तत्रापि भवति श्रौत्सवृन्दारिका । औत्सजातीया । औरसदेशीया | सोनवृन्दारिका | सोध्नजातीया । "प्रमामिनीत्स्वानास्" [३।१५२] इत्युक्त तत्रापि भवति । दीर्घकेशन्दारिका । दीर्घकेशजातीया । दीर्घकेशदेशीया । "जातिश्न" [११३।१५३] इत्युक्तं तत्रापि भवति । कठवृन्दारिका । कट जातीया । कठदेशीया । पुंवदाववचनात्सर्वत्य प्रतिगे. धस्य निवृत्तिः । उक्त कादरित्यनुवर्तते। उक्तस्वादिति किमर मालानन्दारिका । मालाजातीया । मालादेशीया | कालिकाश्च ता वृन्दारिकाश्च कालिकावृन्दारिका | कालिकाताया। कालिकादेशीया। अनूगिन किम् ? बामोरूवृन्दारिका ! बामोरू जातीया । वामोरूदेशीया । “अप्रियादी" [३।१४६] इत्युक्तम् । तत्राप्यनेन पुकद्भवति । कल्याणी चासौ पञ्चमी कल्याणपञ्चमी । कल्याणी चासौ प्रिया कल्याणप्रिया । कल्याणमनोज्ञा । अथात्र कथं बद्भावः, मृग्याः क्षीरम् मृगौरम् ; कुक्कुटया 'अण्डम् कुक्कुटाएवम् । काक्याः शावः काकशावः ? अस्त्रीलिङ्गस्य पूर्वपदस्य सामान्येन विवक्षितत्याददोषः । अत्त्रीत्यान्तापि स्त्री पुयद्भवतीत्युक्तम् । इडिबिट चासो वृन्दारिका च ऐखिविडवृन्दारिका इत्यादी प्रबद्भाव याद्यसूत्रेणैव सिद्धः ।
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० ४ पा० ३ सू० १५५-१५६] महावृतिसहितम्
३०७ मरूपकल्पचेल यगोषमतहते प्रोऽनेकाचः॥४३॥१५॥ इदिति वर्तते । झ, रूप, कल्प, पलटू , बुध, गोत्र, मत, इत इत्येतेषु परतः उक्तपुंस्कात्परो य ईकारः स्त्रीत्यस्तदन्तस्यानकाचः मो भवति । कुमारितरा । कुमारितमा । कुमारिरूपा । कुमारिकल्पा । "ससावी" इति पुंवद्भाव ईकारादन्यत्र सावकाशोडनेन प्रादेशेन बाध्यते कुमारिचेली । कुमारिनुवा । कुमारिगोत्रा । कुमारिमता । कुमारिहता | चेलट शब्दः पचादौ पश्यते । बेञः शे ब्रुज इहैव निपात्यते । चेलह बचगोत्रशब्दाः कुसनशब्दाः । "कुत्स्थं कुस्सनः" [३४] इति सः । मतहता या विशेषणलक्षणो यसः । अनेकात्र इनि किम ? श्रीनरा । स्त्रितरा । "चा मो:"[३१५६] इति विकल्पः । उक्तपुंस्कादिति किम् ? आमलकीतरा । बदरोतरा । अनुतपुत्कादाप कांचन इते । लक्ष्मितरा । तन्त्रितरा । ईदिति किन ? दत्तातरा । गुप्तातरा । नीत्य इति किम ? ग्रामणीतरा । सेनानीतग। वा मोिित विकल्प मासे पुरस्तादपवादोऽयम्.1.
वा मोः ॥३९५६॥ मुसंज्ञमस्य वा प्रो भवति मादिपु परतः । अनेन विशेषेण बिकल्पे प्रामे पुरस्तादनेकान ईकारस्य नित्यः प्रादेश उक्तः । ततोऽन्यदुदाहरणम् । एकाच ईकारः ऊकारः सर्वः । खिलगा। स्त्रीतरा । त्रितमा | स्त्रीतमा । वामोरतरा । वामोरूतरा । एवं रूपादिश्वपि नेवम् । उक्त पुस्कादरिति निवृत्तम् । एकार्थ इत्येतदनुवर्तते । तेन स्त्रिया हतः स्त्रीप्त इत्यत्र न प्रादेशः । कृसंज्ञकस्य मौन भवतीत्येके । लक्ष्मीतरा । लनमीतमा ।
उगितश्च ॥ ४॥३.१५७॥ उगितश्च परस्य मोची प्रादेशो भवति झादित परतः । श्रेयमितरा । श्रेयसीतरा। विपितरा | विदुषीतरा। चशब्दः पक्षे पुंकद्रावसमुच्चयार्थः । अन्यरत । चित्तस । "झरूप" [१]३।११५] आदिना नित्यः प्रादेशः प्राप्तः पूर्वसूत्राद्वेति व्यवस्थितविभाषाऽक्ष्यते । तेनाश्चनित्यः प्रादेशः । प्राचितरा।
प्रान्महतो जातीये च ॥४॥३३१५८॥ आकारादेशो भवति महतो जाती ये एकार्थ द्यौ च परतः । महाजातीयः । महापुरुषः । महतः सन्महापरमेत्यादिना प्रतिपदोक्तो यो प्रात्वं सिद्धम् । एकार्थावर्तन बसेऽपि प्रापणार्थम् | महापाणः | महाबाहुः । जातीये चेति किम् ? महतः पुत्रो महत्पुत्रः । आदिति द्वि गात्रोच्चारणभुत्तरार्थम् । पुंवद्यजातीयादिसूत्रे पुवदिति योगविभागारबद्भावः । इहादिति योगविभागादात्वम् । तेन "महत्या शासकारविशिष्टेषु व्यधिकरणात्येऽपि पुंचद्भावास्ये भवत्तः" [वा०] महल्या पासो महाघालः । महमाः कासे महाकारः। महत्या विशिष्टो महाविशिष्टः । श्रमहान महान् सम्पन्नो महद्भुतश्चन्द्रभा इत्यत्र चौ निन् “च्चिसायर्यादिः" [१।२।१३२] इति तिसंज्ञा । भूतशब्देन "तिकुनादयः" [११३८] इति पमे कृते गौण त्यान्मदर्थवास्वाभावः । पूर्वोक्तयोगविभागारिवह महतीशब्दस्य पुवभावः अमहती महती सम्पन्ना महद्रता कन्या।
यनः संख्यायामधाशोत्योः प्राक्तात्रेलयः ॥३॥१५६॥ वि अष्टन इत्येतयोराकारादेशो भवति संख्या को प्राक् शतात् उसमशीतिं च वर्जयित्वा, त्रेश्च अवमित्ययमादेशो भवति । द्वादश । द्वौ च विंशतिश्च द्वाविंशतिः । “लिजमशिष्यं रोकाश्रयस्वात्" । अथवा यधिका विशतिः द्वात्रिशतिः । समानाधिकरणाधिकारखं शाकपार्थिवादिबद्रव्यम् । अष्टादश। अष्टाविंशतिः। अात्रिंशत् । बोदश। त्रयोविंशतिः । वयनिशत् । दूयष्टनस्त्रेरिति किम् ? चतुर्दश | संख्यायामिति किम् ? द्विमूली। अष्टमूली | त्रिमूली । समाहारे पसः । “संख्यादी रश्च" [१॥३॥४०] इति रसंशः । "रात्" [३।१।२५] इति छोविधिः । अवाशील्पोरिति किम् ? द्वौ वा प्रश्नो वा द्रित्राः । अष्टदशाः। त्रिदशाः। "संख्याबाटोऽबहुगणात्" [४२१६६] इति ः सान्तः 1 द्वयोतिः । व्यशीतिः । बसेऽशीती च न भवति । प्राशतादिति किम् ? इयधिक शतं द्विशतम । त्रिशतम् । त्रिसहस्रम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू० १६०-१६६ घा चत्वारिंशदादौ ॥३॥१२॥ चत्वारिंशदादी संख्यायां छौ अवाशीत्योद यादीनां यदुक्तं तद्वा भवति । यानत्वारिंशत् । द्विचत्वारिंशत् । द्वापञ्चाशत् । द्विपञ्चाशत् । अष्टाचत्वारिंशत् । श्रष्टचत्वारिंशत् । अष्टाष्टिः। अपरिः। श्वश्चत्वारिंशत् । त्रिचत्वारिंशत् । अत्राशोत्योरित्येव । द्विचत्वारिंशाः। दयशीतिः । अष्टचत्वारिंशाः । अष्टाशीतिः । त्रिचत्वारिंशाः । शीतिः । प्राक्शतादित्येव । द्विशतम् । "अष्ठनः कपाले हनिप्यावं बास्यम" [वा०]
अ रविः । अष्टभु कपालघु संस्कृतं हृदयं पसः । “संख्यादी स्व" [१॥३॥५] इति रमशः । “संस्कृतं भक्ष्याः " [२२ ] इत्यारण् । तत्य "रस्योपनपत्त्ये" [२११७४] इन्युप् । हृविपीति किम् ? अष्टानां कपालानां समाहारः अष्टकपाल मिक्षोः । पात्रादिलानपुंसकलिङ्गता । “गवे च युक्त अष्टनः श्रात्वं वक्तव्यम्" वा०] अष्टागबेन शकटेन वहति । अष्टौ गावो युक्तय अस्मिन्निति । अस्मादेव निपातनात् बसेऽपि द: सान्तः । युक्त इति किन् ? माना गया समाहारः अष्टगवम् । नेदं वक्तव्यम् | प्रान्महत इति अादिति योगविभागादास्यापोनि दौत्वेन वा सिद्धेः ।
हृदयस्य हल्लेखयारालासेषु ॥ ४३१६१ ॥ हृदयस्य हदित्ययमादेशो भवति लेख य अण् लास इकोने परतः । हृदयं लिखतीति हल्लेखः । हृदयाय दितं हृद्यम् । “प्राण्यरथ" [३१४५] इत्यादिना यः । हृदयत्येदं हार्दम् । हृदयस्य भान्वी या शुदिपु "न्यादसै" (३।४।२० ग सू०] इति गदादए । अणि पनि वाहालासः । लेख इत्य एगवत्य ग्रहणम् । घनितु इदादेशो नेष्यते । हदयस्य लेखः हृदयलेख: । एवं च लेखग्रहणं ज्ञापकम “द्वधिकारे त्यग्रहणे स्वरूपग्रहणं न तदन्तविधिः" [१०] "खिन्यझेः" [४।३।१७६] इवत्र खिल्यनन्ततः पादेशमा गालीति तयन्तत्रिधिरिषः ।
वा टयणरांगशोक ॥४।३।१६२॥ टयगा रोग शोक इत्येतेषु परतो हृदयस्य का टिव्ययदेशीभवति । सौहार्यभ। ब्राह्मणादेराकृतिपणत्वाटटयण । “हसिन्धुभगे द्वयोः" [५।२।२४] पदयाप । पक्षे गौहदय्यम् । हृद्रोगः । हृदयरोगः । इच्छोकः । हृदयशोकः । ननु हृदयशब्देन गमानार्थी हुन्टोऽस्त तेनोभयं सिद्धम् | न सिद्व्यति । अन्योवा पुग्नरपदा हृच्छब्दस्य प्रयोगः प्रसध्येत ।
पादस्य पदाज्यातिगोपहतेषु ॥४॥३॥१६शा पादन्य पद इत्ययमादेशो भवल्याजि याति ग उपहन इत्येतेषु परतः । पादाम्पामजति पादाभ्यामतति । अजातिभ्यां पाद पण । बाक्सः । केवलेन याजिशब्देन "साधनं कृता" [११३।२६] इति पम: । यादव नियातनादजेर्विभावाभावः । पाजः । 'पटातिः । पादाभ्यां गच्छवि 'पद्गः । गमेः । पादाभ्यानुपहतः पदोपहत्तः । पदशब्दः प्रकृत्यन्तरमरिन तेन सिद्धेऽपि पादशब्दलासिन् विधये प्रयोगो भा भूदिल्येयमर्था ।
पदये ॥४३१६४॥ पादं विध्यन्ति पद्याः शर्कराः । “विध्यायकरणेन" [३३ ] इति यः । तादयं तु "पाघाये" [१।२।३२] इति निपातनमुक्तम् । पादार्थमुदकं पाद्यम्। कथं पादाभ्यां चरति पदिक इति ? "पदो" [३२३११३३] पादः पदिति पाटाहटा सिद्धम् । पूर्वसूत्रे पादस्येति संबन्धलक्षणा ता । तेन पादशब्दस्य यो यस्तस्मिन् पदिल्यसमादेशो भवति । सामर्थ्यात्शदान्तस्य न भवति । दाम्मा पाटाभ्यां क्रीतं द्विपायम । नियन् । “पणपादमापायः" [३१४५३१] इति यः ।
हिमकाषिती ||१५| हिम कापिन् हति इत्येतेषु परतः पादस्य पदित्ययमादेशो भवति । पादस्य हिम पद्धिमम् । पत्कापी | वाक्मः । पादाभ्यां इतिः पद्धतिः । “साधनं कृता" [१३३।२६] इति सः । गिनि तदन्तविधिरपि । परमपत्काली।
ऋचःशे ॥४॥३१६६॥ ऋचः पादस्व शे परत: पद्भवति । पाई पाई गायन्याः शंसति पच्छो गायत्री मिति । "संख्यकालीप्सायाम्" [२४] इति शस् । ऋच इति किम् ? पार्ट पादं कार्यापणमस्य ददाति पादशः कापक्शिं ददाति । "त्यात्यसभवे त्यस्य ग्रहणम्" [१०] इति शास एव ग्रहणादिह न गवति । पादशंसी गायत्र्याः ।
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१० ५ पा० ३ सू० १६७-१७५]
महावृत्तिसहितम्
३०६
वा निष्कयोषमिश्रशब्दे ॥४ाधार६७॥ निष्क घोष मिश्र शब्द इत्येतेषु परतः पादस्य वा पद्भवति । पादस्य निष्कः पनिष्कः । पादनिष्कः । पद्घोषः । पादयोपः। पन्मिनः । पादमिश्रः । "पूर्वावरसाश" [१॥३२८] इत्पादिना भासः । पच्छन्दः । पादशब्दः ।
उदकस्योद' योश्च खौ ॥४॥३२१६८॥ उदकस्य उद इत्ययमादेशो भवति योश्च तस्योदकस्य खुविषये । उदकस्य मेघ उदमेघो नाम यत्यौदधिः [पुत्रः] । उदकं वहत्तीत्युवाहो नाम यस्यौदवाहिः पुत्रः | अपत्येन पिता लगते । उदकस्य घोष उदघोषः । लोहितोदा क्षीरोदा नदी । खाबिति किम् ? उदकरर्वतः ।
पेपमि ॥४॥३११६६॥ पेषमि यो उदकस्य उद इत्ययमादेशो भवति । उदकेन पिनष्टि उदपेषं पिनाष्टि तगरम् । “स्मेहने विषः" रा२७] इति रहम् | कथम् उदयास उवाद्दनः उदधिरित ? मंशाशब्दा अमो पूर्वेण सिद्धाः । कथमुदधिर्घटः ? उपमानाइविष्यति ।
वैकहनि पूर्य ॥४३॥१७०॥ एकोऽसहायस्तुल्यजातीग्रेन यो इल् तदादौ द्यौ पूर्व उदकस्य या उद इत्ययमादेशो भवति । उदकस्य कुम्भः उदकुम्भः । उदककुम्भः । उदघटः । उदक घटः | उदपात्रन । उदकपात्रम् । एकहल्लति किम् ? उदकस्यालम् । पूर्य इति किम् ? उदकगिरिः । अखाबप्राप्ते विभाषेयम् |
मन्यौदनसकुबिन्दुवजमारहारचीवगाहे ॥४॥३॥१७॥ मन्थ श्रोदन सक्तु बिन्दु बन भार हार पौवध गाह इत्येतेषु परत उदकस्य वा उद इत्ययमादेशो भवति । अपूर्वार्थोऽयं यत्नः । उदमन्दः । उदकमन्थः । उदकेनौदनः उदौदनः । उदकौदनः । उदकेन सक्तुः उदसक्तः । उदकसक्तः । “भयानाभ्यां मिश्रणम्यअने" [१३।३०] इति भासः | उदबिन्दुः । उदकत्रिन्तुः । उदयन्त्रः । उदकवजः । उदभारः । उदकमाः। उदहारः। उदकहारः । उदवीवधः । उदकवीवधः । उदगाहः । उदकगाहः । मन्यभारहारा अएणन्ता घान्ता वा ।
इफः प्रोऽजुयाः ॥३१७२॥ इगन्तस्य धौ वा प्रो भवत्यङयाः । ग्रामणिपुत्रः । ग्रामणोपुत्रः । यवलुपुत्रः । यदलूपुत्रः । अलावु ककन्धु इन्भु फलम् । अत्र पूर्वपूर्वस्य प्रादेशे सति उत्तरेण सविधिः । इक इनि किम् ? खट्वापादः | मालापादः | अल्या इति किम् ? गार्गीपुत्रः । दासीपुत्रः । वेति व्यवस्थितविभाषाश्रयणादिह न भवति । कारोषगन्धीपुत्रः । कारीपगन्धीपतिः | मिसंज्ञेयुबां च न प्रादेशः । कारडीभूतन् । कुख्यीभूतम् । श्रीकुलम् । भ्रुकुलम् । भूकुंसादीनां तु प्रादेशो भयल्वेव । भुसः । क्वचिदन्यदेव । भ्रसादीनामकाराश्चान्तादेश इवते । भ्रकुंसः | अकुटिः ।
त्वे उधापो क्वचित्खौ च ॥४॥३१५७३॥ त्वे परतो ड्यन्तस्य अामन्तस्य क्वचित्रो भवति खौ च द्यौ । अजत्वम् । प्रजात्वम् | रोहिरिएत्वम् । रोहिणोत्वम् । वे छान्दसः प्रयोग इति केचित् । खौ--रेवतिमित्रः । रोहिणिमित्रः । भरणिमित्रः। कचिन भवति । नान्दीकरः । नान्दीघोषः । श्रावन्तस्य शिलाया वह शिलवहः । शिलप्रस्थः । शिंदापस्थलम् । न च भवति लोपिकागृहम् । लोपिकापराहम् । क्वचिद् ग्रहणं बहुलार्थम् |
हति चैका ॥४३॥१७४॥ हृति परतो द्यौ च एका इत्येतस्य प्रो भवति । एकस्या आगतम् एकरूप्यम् । एकमत्रम् 1 "देसुमनुष्याचा रूच्यः" [३।३१५५] "मयट" [३३.५६] इति च रून्यमयटौ । एकस्याभाव एकत्वम् । एकता । गुणवचनत्ये "तसावी" [४:३।१४७] स्वतलोर्गुणवचनस्थ इति पुंवद्भावेन सिद्धन्यादन्यत्रे द्रव्यम् । यो पकस्या क्षीरम् एकक्षौरम् । एकदुग्धम् । एका मिया अस्य एकप्रियः । एकमनोशः ।
मालेषीकेटकानां भारितूलचिते ॥ ६॥ माला, इपीका, इष्टका इत्येतेषां प्रो भाति भारिन् ल चित इत्येतेषु परतः | मालभारी | मालमारिणी । षीकतूलम् । इष्टकचितम् | क्वचिदित्यनुवृत्चालादिभिस्तदन्तविधिरपि । उत्पलमालभारिणी। मुजेत्रीकतूलम् । पक्वेष्टकचितम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० ४ पा० ३ सू० १७६ १८३
खित्यः || ४|३|१७६॥ खिदन्ते यो अजन्तस्य प्रो भवत्यः । कालीमात्मानं मन्यते कालिमन्प्रा | रोहिणिम्मन्या । " खरचात्मनः " [ २२२२७१ ] इति खशू । खित्यनन्तः प्रादेश भाग्नास्तीत्युक्तम् । श्रझेरिति प्रतिषेधाच्च खिदन्ते श्रौ पूर्वस्य प्रपरोऽपि "मुमचः " [ ४२३।१७७ ] इति प्रादेशेन वाच्यते । अभरिति किम् १ दोषामन्यमहः । दिवामन्या रात्रिः ।
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सुमचः || ४ | ३ | १७७ || पूर्वस्य पदस्या जन्तस्य खिदन्ते श्री मुम् भवत्यः । प्रियंवदः । वशंवदः । कालिम्मन्या । हरिणिम्मन्या । "विध्वयोस्तुदः सखम् " [ २/२/३७] इति सखे कृते मुम् । विधुन्तुदः । अरुन्नुदः ॥ “पिन्तपरम्म” [२२३८] इति निपातना द्विषन्तपः । च इति किम् ? |
मेकाचोऽम्बत् ||४|३|१७५ ॥ श्रच इति वर्तते । अनन्तस्य पूर्वपदस्यैकाचोऽम् भवति खिदन्ते चौ श्रमवास्मिन् कार्य' भवति । श्रात्वपूर्वस्यैव युवादिप्रयोजनम् । श्रवर्णान्तस्यामि नास्ति विशेषः । अनवर्णान्तिमुदाहरणम् | गाम्मन्यः । स्त्रीम्मन्यः । स्त्रियम्मन्यः । नृशध्दस्य नरम्मन्यः । श्रियमन्यः । बम्मन्यः । नावमात्मानं मन्यते नाकमन्यः । प्रादेश मोरयमपवादः । एकाच इति किम् ? लेखाकं मन्यः । च इत्येव द्विमन्यः । निपातनाद् वाचंयमपुरन्दरी । श्रमित्यागमलिङ्गादपरोऽपि मकारः प्रयोगश्रवणार्थ: स्फान्तखेन निर्दिष्टः 1 अह कथम्भवितव्यम्, श्रियमात्मानं कुलं मन्यते इति ? उच्यते- श्रीशब्द श्राविव लिङ्गः त्रियामेव वर्तत इति श्रियम्मन्यमिति भवितव्यम् । अन्ये मन्यन्ते त्वलिङ्गान्तरेऽपि वृत्तिदृष्टा । यथा प्रष्ठादिशब्दानां धुंयोगात् स्त्रियां वृत्तिः । प्रष्ठी । प्रचरी गएकी । एवं श्रीशब्दस्य कुले वर्तमानस्य नपुंसकलिङ्गवं "प्रो नपि " [१७] इति प्रादेश: । तदेशात् "दपः स्वयो: " [ ५/११२० ] इत्युपू | "मध्येऽपयादाः पूर्वान् विधीन बाधन्ते नोत्तरान् " [प०] इति "सुपो मृो:" [ १।४।१४२ ] इत्यस्यैवोपोऽमागमों अबको नोत्तरस्य तेन निमन्यमिति भवितव्यम् । एतच्च नातिश्लिष्टम् । वेदः प्रमाणमित्यादौ लिङ्गान्तरं प्रसज्येत ।
सत्यागदास्तोः कारे ॥४३॥१७६॥ सत्य अगद तु इत्येतेषां कार यौनुगागमो भवति | सत्यङ्कारः । श्रगदङ्कारः । आणि कर्ज वा काररूपम्। तुरादो निजकोऽभ्युपगमे वर्तते । अस्त्यस्य कारणम् अस्तुङ्कारः ।
रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य ||४३|१०|| रात्रिशब्दस्य कृति यो मुमागमो भवति प्रभाचन्द्रत्यचार्यस्य मतॆन । रात्रिञ्चरः । रात्रिचरः । रात्रिमाः । राध्याय: 1 ग्रहणसामर्थ्यादयमत्रा विकल्पः । खिति पूर्वनयेन नित्यं मुमागमः | रात्रिंमन्यमहः । रात्रेरनन्तरः कृतास्तंति दन्तग्रहणम् । नतु रात्रिरिवाचरतीति "श्राचारे सर्वमृभ्यः किंपू” [ २०१६ वा०] इति तदन्ताविवस्ति । यदि वदर्थं वृत्रहणं स्यात् । रात्रेः विपति निर्देशं कुर्यात् । क्विचन्तस्य तु रात्रिशब्दस्व अन्यस्मिन् कदनो मुग्न स्यात् गौणत्वात् ।
नञोऽन् ||४|३|१८१ ॥ नमोऽनित्ययमादेशो भवति यो। न हिंसा भहिंसा "न" [१।३।६८ ] भुपा इति सः । अनेकाच्त्वात्सर्वादेशोऽन् । स्थानिवद्भावेन पदादेशः पदवद्भवति इति नखम् । एवम् श्रक्रोधः | अस्तेयम् । सानुबन्धकनिर्देशः किमर्थः ! वामनपुत्रः पामनपुत्र इत्यत्र माभूत् । वाधित्येव । न भुङ्क्ते । “नजोऽनुभावे लेपे मियुपसंख्यानम्" [वा०] 1 करोषि त्वं जालम 1 पयसि त्वं जाल्म ।
श्रचि ॥४३॥१८२॥ अजादौ च द्यौ नञोऽत् भवति । अनन्तः । अनादिः । अनुपमो जिनः । पुनर्वचन नवनिवृत्यर्थम् । “दोन ते " [२२६०] इति ज्ञापकाननो नो ङमु न भवति ।
नभ्राख्नपान्नवेदानासत्यानमुचिन कुलनखनपुंसकनक्षत्रन कनाकनागाः
||४|३|१८३॥ नम्राट् नपात् नवेश नासत्या ननुचि नकुल नख नपुंसक नक्षत्र नकः नाक नाग होते शब्दा निपात्यन्ते । न भ्राजते न वा न भ्राजते किन्तु भ्राजत एवेति नम्राट् । भ्राजतौ कथ्यन्ते यौनमः प्रकृतिभावः । द्वयोगी नमोः एको
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१० ४ पा० ३ सू० १८४-१८] महावृत्तिसहितम् नशब्दो निपात्यते । न पाति न वा न पाति नपात् । नपुंसकलिने शत्रन्ते पातो पूर्ववन्निपातनम् । न वेत्ति न या न वेत्ति नयेदाः । "असू सबंधुम्यः" [उ० सू०) इति विदेरस् । “अस्वसोऽधोः" [१४/१२] इति दीत्वम् । सत्सु सार्वा सत्या न सत्या असत्या | पुनर्नसे नासत्या । ननः प्रकृतिभावः । पुंस्वपीटं निपातनम् 1 नासत्या नाम केचित् । न मुञ्चति न वा न मुञ्चति मुचेरौणादिके इकि ननुचिः । नास्य कुलमस्ति न वानकुलमस्ति नकुलम् | नास्य स्वमसि न वा न खमस्ति नखः। न स्त्री न पुमान् नपुंसकः। श्रीपुंसपोनपुंसकभावो ननश्च प्रकृतिभायः । न क्षरति न ते यते इति वा नक्षत्रम् । क्षरतेः क्षोयतेक्षद्भायो नत्रश्च प्रकृतिभावः। न मीणाति न क्रामतीति वा नकः । कीनः क्रमंत्रा उत्यो नव प्रकृतिभावः। अक अग कुटिलायां गताधियनयोः पचाद्यचि अकागो भवनः । नाकः । नागः । नमः प्रकृतिभावः अथया नास्मिन् के दुःखमस्ति नात्रः। न गच्छत्तीत्यगः । एषां रूढिशब्दाना यथा कश्चिद् व्युत्पत्तिः ।
यकानः ॥ १८५]] एकान्न इति निपात्यते द्यो। एकेन न विंशतिः एकानविंशतिः। एकेन न त्रिंशत् । नो विशतिशब्देन "न" [१॥३६८] इति पतः । एकशब्दन्य भान्तस्य न विशतिशब्देन "साधनं कृता बहुलम्" [१।३।२४] इति बहुलब चनाद् मेति योविभागाल्पने कृते एकशब्दस्यादुक नपश्च प्रकृतिभावो निपात्यते । अदुका पूर्वान्तकरणं "यरो को विभाषा जु" [५/४११२५] इति विकल्प कार्यम् । एकानविंशतिः । एकाद्नत्रिंशत् ।
नगो वाऽजीवे ॥४॥३३१५५॥ नग इति वा निपात्यते अजीवेऽथें ।। नगा वृक्षाः । नगाः शान्थ्यः । नगाः पर्वताः । स्गा वृक्षाः। श्रागाः शालयः । अगाः पर्वताः । न गच्छन्तीति नुपि वाचि "गमेई:" [२६] वाक्सः । अजीच इति किम ? अगो विदाः शीतन ।
सहस्य सः खौ ॥ ८६॥ सहस्य स इत्ययमादेशो भवति खुधिषये । प्राविति वर्तते । सहाश्वन वर्तते साश्वत्थम् । सपलाशम् । सशिंशपम् | बननामधेयम् । सरसा दूर्ग | "सेन" [३.६०] "सहेति तुल्ययोगे" [३१] इति बसः । “या नीचः" [॥३॥११०] इति विकल्प याने अपं विधिः । खावित्ति किम् ? सह्युम्चा | सहकृत्या | सभ्युद्ध वान् । “राशि युधि कृषः" [२।२।२] "सहे" [२१२५८३] इति कनिषु ।
ग्रन्थान्तेऽधिके ॥४३१८७॥ ग्रन्थान्ने अधिक च वर्तमानस्य सहत्य स इत्यप्रमादेशो भवति । ग्रन्थान्ते हसः | सकलं ज्यौतिपमधीते । समुहूर्तमधीते । कला कलावशेषः मुहूर्तश्च तासहचरितो ग्रन्थोऽपि तथोक्तः । कलामन्तं कृत्या मुहूर्तमन्तं कृत्वा । साकल्यान्तोक्ती हसः । “हेकाले" [४॥३।१८१] इति काले प्रतिघेधादनेन मादेशः । अधिके बसः । सह द्रोणेन ति सद्रोणा खारी | समापः काषीपणः । सकाफपीको भापः । "वा नीचः" [४१३।११०] इति विकल्पः प्रातः ।
द्वितीयेऽनुपास्ये ॥ ॥ द्वितीयेऽनुपाख्यायमाने सहस्य स इत्ययमादेशो भवति । द्वयोः सयुक्तयोयम्भूतो द्वितीयः । स एवाप्रत्यक्षोऽनुपाख्य उकः । साग्निः कपोतः। समूमलः हिकसः । सपिशाचा वात्वा । सराक्षसीका शाला। अम्पादयोऽनस्पक्षणानुपलभ्यमानाः कपोतादिभिरनुमोयमानलाटनुपाख्याः । अनुपाख्य इति किम् ? सच्छात्रः सहच्छात्र उपाध्यायः । उपाख्यायत इत्युपाग्न्यः । “युव्या बहुलम्" [२३६४] इति बहुलवचनात् “पाती गौ" [२।१११८६] इति कर्मणि क्रः ।
हेऽकाले ॥४३॥८६॥ हुसंज्ञके सहस्य स इत्ययमादेशो भवत्यकालवाचिनि छौ। सचक्र धेटि | सधुरं प्राज। युगपच्चन्ने । युगपद्धरौ। "योगपछ" [१३१५] इति हमः । "प्रकपरम्धूःपयोऽनक्षे" [धारा०] इति धुरोऽकारः सान्तः । अकाल इति किम १ सहपूर्वाह्नम् । सहापराहणम् । योगपद्ये साकल्योक्ती या हसः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ४ पा० १ सू० ११०-११७
घा नीचः || ४ | ३|१६० ॥ नीचोऽवयवस्य सहशब्दस्य वा स इत्ययमादेशो भवति द्यौ । सशिष्यः सदशिष्य श्राचार्यः । सपुत्रः सहपुत्रः पिता । नीच इति किम् ? सहयुवा | सहकृत्वा । नात्र समुदायस्य नोचोऽवयवः सहशब्दः । नीच इति समुदायस्य विशेषणं सहशब्दस्य सर्वत्र विधी न्यस्त्वात् । इह सहयुद्धप्रियः । प्रियसह युध्वेति च सहस्य सः कस्मान्न भवति । यत्र ध्रु तदपेक्षया न सहशब्दो नीचोऽवयव इति न भवति ।
३१२
I
नाशिष्यगोवत्सले || ४ | ३ | १६१ ॥ श्रशिशि सहस्य सादेशो न भवति गोवत्सहलवर्जिते द्यौ | स्वस्ति सहशिष्याय गुरवे । स्वस्ति राजे सहनुत्राय । गोवत्सल इति किम् ! स्वस्त्यस्तु सगचे सहगये । सवत्साय
महत्साय | सहलाय सहदलाय ।
समानस्य स ज्योतिर्जनपदाश्रिनाभिनामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनबन्धुषु ॥४३॥१६२॥ समानस्य स इत्ययमादेशो भवति ज्योतिष, जनपद, रात्रि, नाभि, नाम, गोत्र, रूप, स्थान, वर्ण, वयस् वचन बन्धु इत्येतेषु परतः । समानं ज्योतिरस्य सज्योतिः । यदि वा समानं व तज्ज्योतिश्च सज्योतिः । “पूर्वापरप्रथम " [१|३|| ५३ ] इत्यादिना यसः | सजनपदः । सरात्रिः । सनाभिः । सनामः । सगोत्रः । सरूपः । संस्थानः । [सबर्स्ः । खत्रयाः |] सवचनः । सन्धुः । भेऽलिङ्गम् ! मेन पावर समानस्यत योगविभागाद्त्येष्वपि सादेशः । तेन सघन | सपक्षः सगन्धः । सदेशः । समानजातीयः । “जातेश्को बन्धुनि " [ ४२११८ ] इति स्वार्थे छः । समाने तीर्थे भवः सवर्थः । दिगादिवाय इत्येवमादि निद्धम् ।
सह्मचारी || ४|३|१९३॥ सब्रह्मचारीति निपात्यते च गम्यमाने । समानो ब्रह्मचारी समाने ब्रह्मणि व्रतं चरति वा मन्त्रह्मचारी । समाने श्रागमे व्रतचारीत्यर्थः ।
घोयें ॥४३॥१६४॥ उदर्यशब्दे श्रौ समानस्य वा स इत्ययमादेशो भवति । समानोदरे शक्तिः सोदर्यः । समानोदर्यः । “समानोदरे शयितः " [३।३।२०८ ] इति यः । कथं युधिष्ठिरमोद वृकोदर इति । समानस्येति योगविभागात् ।
दशग्दतवती ॥४३॥१६४॥ दृश दृकू दृक्ष वतु इत्येतेषु परतः समानस्य स इत्ययमादेशो भवति । समानो दृश्यते सदृशः। बहुलवचनात्कर्मणि श्रगादिः । श्रन्यथा वा व्युत्पत्तिमात्रं कार्यम् । नमानमात्मानं पश्यति सदृशः । सदृक् | सदृक्षः | "स्थानी शोनाल के टक् च " [२२५८] इत्यत्र “समानान्ययोश्च" [वा०] इति चनाश्चि भवति । सोऽप्यस्मादेव निर्देशात् तत्र स्मर्तव्यः । चतुः समानशब्दायरों न सम्भवतीति बनुग्रहयमुत्तरार्थम् ।
किमिदमोः कीश् ||४|३|१६६ ॥ किम् इदम् इत्येतयोः की ईश इत्येतावादेशौ भवतः दृशादिनु परतः । क इव दृश्यते कमिव पश्यति का कहाः । कीदृक् । कीदृशः । किम्परिमाणमस्य कियान् । "फिमः" [ ३ | ४|१६२ ] इति चतुर्वेकारस्य च त्रः । श्रयमिव दृश्यते इममिव पश्यति वा ईदृशः । ईहकू । ईदृक्षः । इदम्परिमाणमस्य इवान् | "इदमो वो घः" [२३२४१६१] इति चतुर्वकारस्य च यः । " मा सर्वनाम्नः" [३/३/१७ ] इत्यात्वस्यापवादोऽयम् ।
श्रा सर्वनाम्नः ||४|३|१६७॥ सर्वनाम्न प्रकारादेशो भवति दृशदृग्दृचवतुषु परतः । स इव दृश्यते तमिव पश्यति वा तादृशः । तादृक् । तादृक्षः । तत्परिमाणमस्य तावान् । "यत देतेभ्यः परिमाणे वतुः " [१४| १६०] इति चतुः । यादृक्षः । यादृशः । यावान् । अन्यादृशः । श्रन्यादृक् । श्रन्याः । श्रा इति त्रिमात्रोच्चारणम् "भ्योऽपदे” [४३८४] इति पररूपनिवृत्यर्थम् । अकारोच्चारणं तु हल्निवृत्त्यर्थं स्यात् । श्रन्यशब्दे च क्षेषः प्रसज्येत। त्यदादेरिति सिद्ध सर्वनाम्न इति महणम् श्रन्यशब्दसंग्रहार्थमुत्तरार्थं च |
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५० ४ पा० ३ सू० १६८-२०७] महावृत्तिसहितम्
विष्यादेवयोश्च टेरययौ कौ ॥४॥३६॥ विष्वग देव इत्येतयोः मर्वनाम्नश्च टेरदिरादेशो भवत्यञ्चतौ क्व्यन्ते परतः । विपुवतीति त्रिपुः । विषुमञ्चतीप्ति ऋत्विगादिसूत्रेण द्यौ कृते विष्वक् । विष्त्रञ्चमञ्चतीति कावागतनिवृत्ते नखम् । वाक्ले मुः । “उगिदखाम्" [५/४५१] इति नुम् 1 हल्ङ्यादिवे | स्फान्तवे । “वित्यस्थ कु:"[५।३।७५] इति नकारस्य 'कारः । विष्वद्रयइ । यद्रय । नद्रय । कद्रयङ् । विश्वग्देवयोश्चेति किम् ? वृक्षमञ्चतीनि वृक्षाइ। अनाविति किम् ? विवग्युक् । देवयुक् । क्वाविति किन ? विष्वगञ्चनम् । देवाञ्चनम् । ननु बाधाञ्चनिः केवलो धुर्भवति तकि विग्रहणेन | इदं किग्रह गई ज्ञापकम्-"अन्यय धुग्रहणे ध्यादेः समुदाय स्य ग्रहणम्" [प०] इति । तेन कृतम्यादिसूत्रे अयस्कृतमयस्कार इत्यादी मत्यं सिद्धम । अन्यथेहैव स्यात् । अयस्कृतिनि ।
समः समि ॥३॥६६॥ समः समीत्ववमादेशो भवःयञ्चनौ पच्यन्ने परतः । सभ्यङ । सभ्यची सम्पश्चः । इका सिद्ध ममिरिति वचनम "अनित्यमागमशासनम्" [१०] इति ज्ञापयति । तेनं वान्न इत्यादि गिद्धम् ।
तिरसस्तिर्यखे ॥४॥२००|| तिसस्तिरिरित्ययमादेशो भवानतीकच्यन्ते परतो यत्रावतेग्कारस्य म्वं न भवति । तिया। तिर्यौ। सिर्यश्चः । निर्वग्भ्याम् । तियग्भिः । अव इति किम् ! तिरश्नः । तिरश्चा | अच इत्यकारस्य म्यम् | न विद्यते अश्वशेिषविहितमकारस्य खं यस्मिन् । इलुडो नखं तु सर्वसाधारणं न तम्येह पयुदासः । न त्वत्व स्वमिति तस्मिन् तिरिमायः "तिरश्यपधर्गे" [२१४५५] इति निर्देशात् । ननु च “निवाकारकाणां कृतिः सविधिः" [प] इति कृदन्ते नवाञ्चतिना वृत्तो कृतायां सुस्तत्वामायाकथमवतेथुमंजा | नैर दोषः । अनविलिप्तीत्येवमादी विषये तिवाक्कारकाणामित्यस्य व्यापागे न सधैत्र ।
सहस्य सध्रिः ॥धा३२० ।। नहस्य सधिरादेशो भवत्यञ्चनौ पन्ने परनः । भय । मत्र्यचौ । स: यश्चः । सधीचः | मनीचा । "अचः" [ १२५] इत्ययम् । “चौ” इति दीत्वम् ।
व्यनगरीदपः ॥४।३।२०२॥ द्विशब्दादनवन्तिाच गे; परस्य अपशब्दस्य ईकागदेशो भवति । द्विगता प्रापो यस्मिन्निति द्वीपः। प्राक् ''परस्यादेः' ईकारः पश्चात् "ऋक्यूरधूः" इत्यः मान्तः । "अम्तःशब्दस्य श्र(सा)तिविधिणवेषु गिसंज्ञोक्ता" [वा] अन्तर्गता आपोऽस्मिन्नन्तरीपः । समीपम् । वीपम् । इह क्रियायोगाभावासिंगोपलक्षितानां प्रादीनां ग्रहणम् । अनगेरिति किम ! प्रापभ । परापम् । समापन |
देशेऽनोरुः ॥ २०॥ देशाभिधानेऽनोः परस्यापः उकारादेशो भवति । अनुगता आपोऽस्मिन्नित्यानूपो देशः । देश इनि किम् ? अन्वी वनम् । कथं कुपः सूपः श्वनूप इति ? पृषोदरादिपाठात् ।।
छकारकेन्यस्य दुक्र ॥१३२०४॥ ऐ कारके च परतोऽन्यस्य दुगागमो भवति । अन्यस्पेदम अन्यस्मिन् भवं वा अन्यदीयम् | महादिपाठाच्छः । अन्यस्य कारकम् अन्यत्कारकम् । अन्यः कारकः अन्यत्कारकः ।
अताभास्थस्याशीराशास्थास्थितोत्नुकोतिरागे ॥२०॥ अताम्यस्याभास्थस्य चान्यस्य दुगागमो भवति आशिप अाशा अास्था श्रास्थित उत्सुक अति राग इत्येतेषु परतः | अन्या आशीः अबदाशी: अन्या आशा अन्यदाशा। अन्या श्रास्था अन्य दशम्या । अन्य ग्रास्थितः अन्यदास्थितः । अन्य उसुकः अन्यदुन्सुकः । अन्या ऊतिः अन्यतिः । अन्यो रागः अन्यद्रागः । “विशेषणं विशष्येणेति" [१।३३५२] यमः। अताभाथस्येति किम् ? अन्यल्याशा अन्याशा | अन्नास्थितः अन्यास्थितः ।
वाऽर्थे धौ ॥४।३।२०६|| अन्यस्य वा दुग भवति । अन्योऽर्थः, अन्यामै अर्धः अन्यदर्थः । अताभास्थस्येत्येव | अन्यस्यार्थोऽन्याधः । श्रन्येनार्थोऽन्यार्थः ।
कत्को घेचि ॥४२२०७१ कोः कद्भवति पसंशके संऽजादी द्यौ। कुत्सितोऽजः । “तिकुमादयः" [७३/८७] इति पसः। कदजः । कदश्वः । ऋदन्नम् | म इति किम् ? विभो राजा । अचीति किम् ? कुब्राह्मणः । कुतुषलः । ककोरिति योगविभागात्रिशब्देऽपि भविष्यति । कुत्सितास्त्रयः कवयः । "किमो वा प्रौ. कद्वक्तव्यः" [त्रा०] के त्रयः कत्रयः ।
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जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [ ४ पान ३ म०२०८-२१५ ___ रथषयोः ॥ २०॥ रथ बद इत्येतयोः परतः कोः फट् भवति घसे | कुत्सितो रयः कद्रयः । मुस्सितो बदः कदः।
सृणे जातौ ॥७३।२०६॥ तुणे यो कोः कद्भवति समुदायेन जानाभिधेयायाम । कत्तु णा नाम जातिः । तस्या अवयवः कत्तृणम् । जाताविति किम ? कुत्सितानि तृणानि कुत्तगान ।
का पथ्यक्षयोः ४३२१०॥ कोः का इत्यवमादेशो भवति पथिन् अक्ष इत्येतयोः परतः 1 कुस्मितः पन्थाः कापथः । कुत्सितभन्नं साक्षम् । अक्षशब्दत्य अकारान्तस्य कृनमान्तस्य चाविशेषेरा ग्रहणम् । पस इति निवृत्तम् | कुस्तितेऽक्षिणो अस्य काक्षः । “
स्वाऽसिध्नः" [१२१११३] इति टः मान्तः | पथशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति । तस्य कुपथमिति पे भयनि ।
ईपदर्थे ॥४॥३॥२१॥ ईपदर्थे कोः का भवति । ईपत्कटक का कटुकम । कामधुरम् । काल बगाम् । "तिकुमादयः" [१॥३८१] इति सः । “कको पेऽधि" [४।३।२०७] इनि तत्रोपलक्षणमात्रम् । अजादावपि परत्वाकादेश एन । काम्लम् ।
पुरुषे या ॥४॥३॥२१॥ पुरुषशब्ने यों कोः का इत्ययमादेशो भवति बा । कुत्मिनः पुरुषः कापुरुषः । कृपुरुषः । अमाप्ते विकल्पोऽयम् । इप्रदर्थ पूर्वनिर्णयेन नित्यं कादेशः ।
कमुष्णे ॥४॥३॥२१३॥ फोः स्थाने कवरूपं भवति उमणे परतः का च बा | कवशदो नपुंसकलिङ्गो निर्दिष्टः । कयो सर । कोणाम : 'माया " " [४६६६७] इति कद्भाये कदुष्णम । अनीषदर्थ कदुणमेव ।
पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् ॥३।३।२६४|| पृषोदरप्रकारारिंग शब्दरूपाणि यथोपदिष्टं साधुनि भवन्ति । यथा तेषु वर्णनाशागमवर्गाविकागः विशिष्टैः प्रयुक्ता दृश्यन्ते नथैः तेषां माधुलमित्यर्थः । उपदिष्टानतिक्रमेण यथोपदिष्टम् । ये ये उपदिष्टाः इति वीप्सावां वा हसः | पृपयुदरमस्य पृषोदरः । प्रादय कन्या । पृषत उद्वानं पृषोद्रानन । तकारस्य तं नियात्यम् । अश्त्रयः । ऋपित्थः । महित्यः । धिन्यः । अथ इव तिष्टति कपिरिब तिष्ठति मह्यां तिष्ठति दधीव तिष्ठति 1 "सुपि" २२७] इनि सः वः | सकारस्य तन्वं निपात्यम् । महीशब्दस्य "वे यापोः कचिरखी च" [४१३३७३] इति प्रादेशः । बारिवा को बलाहकः । वारि. शब्दस्व वादः परस्य चादेल निपात्यम् । जीवनस्य मून जीमूतम,। वनशब्दस्य खन् । मह्यां रोनाति मयूरः । रौशेरचि टिग्वं महीशञ्चत्य च मयूभावः। शवस्य शयनं श्मशानमः । शपशब्दस्य श्मादेशः रायनस्य च शानम् । अवन्तोऽत्यां सीदबीति वृसी । म बच्छन्दस्य वृभाबः सदेल इन्तत्य च मीभावः । "क्ष उत्वं दतृदशधास्त्तरपदादेः ष्टुत्वं च" "धाशम् तु वा पप उत्थम्"। पड् दन्ता अस्य पोइन् । "वयसि यन्तस्य दत" इति दत्रादेशः । घ च दश चेति षोडश | इभः प्रकारैः पोटा | घड्यावा । इह घई दधातीनि स्त्री। अातः के कृते टापि च पधा | लाक्षणिकस्वादुत्वाभावः “दिकुछरदेभ्यस्तारस्य तारभाव:"| दक्षिणल तीरम, दक्षिणतारम् । उत्तरतारम् | "बाचो वादे त्वं वल्लभावश्चातरपदस्येति निपात्यते"। वाग्वादत्पापल्यं वावलिः । एवमन्येऽप्यूह्याः शब्दाः । पिशिताशः । रिसाचः | मुहुः स्वनं लातीति मुसलः। ऊर्ध्वकर्ण उलूकः । मेहनस्य स्वस्य माला मेखला | को बीयति कुञ्जरः । ऊर्च स्त्रमस्य उलग्नलः ।
"वागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरी वर्णविकारनाशी ।
धूनां सहयोऽतिशयेन योगास्तदुम्पते वर्णविधी निरुक्तम् ॥" संख्याधिसायादेरहनस्याहन्वा डी ॥४॥३२१५॥ संख्या वि साय इत्येवमादेरह नशब्दस्य अग्निपथमादेशो वा भवति डौ परतः । द्वयोरह नोवो द्वयनः । “हदर्थ" [११३।१५] इति षसः | "संख्यादी रश्च"[11३।४७] इति संज्ञा | सान्तः। “एभ्योऽवोऽत:" [४२११०] इत्यत्र झिसंग्ल्याटेरिल्यनुवर्तनादलादेशः ।
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अ. ४ पा० ३ सू० २५६-२२१] महावृत्तिसहितम् भवार्थे अागतस्य काला टअः “रस्मोनपस्थे" [३।१।७५] इत्युपि डौ कृते "वा लिश्योः [४।४।१२४] इति घाऽनोऽत्रम् । द्वयति । अनि | दूबहे । यात्रत्सु अहस्सु भवो यावदहः । “वतोट" [शधा२०] इत्यत्र बस्न्तस्य संख्यासंशोक्ता। डौ यावरह्नि । यावदनि । यावदहे । विगतम_हः । "तिकुप्रादयः" [३१] इति पसः। डी ब्याद । व्यहनि । व्यह्न । सायमहः । सायाहः । विशेषणसविधिः। सार्यशब्दस्य भिमंज्ञकस्यात एक निपातनान्मकारस्य खम् । अकारान्तत्य सम्भवेऽहनादेशो निपात्यः । सायाहि । सायाहनि । मायाह । संख्याविसावादेरिति किम् ? पूर्वाह्न गतः । पूर्वमहः पूर्योहः । विशेषणविधिः। “असोऽङ्कः" [1815] इति त्वम् ।
दूखे पूर्वस्याणो दीः ॥३२१६॥ ढकाररेफयोः खं यस्मिन् वर्ण स दूयस्तस्मिन् पूर्वस्याणो दीर्भवति । परोऽप्यदोषः । खस्याभावरूपत्वेऽपि पौर्वापर्यं बुद्धिकृतम् । यस वर्णयोरयोगपद्येऽपि अचीको परिणत्येवमादौ । लीदमुपगई मूढेन । अग्नी रथम् ] वायू स्थम् । पुना रक्त वासः । दूख इतीनिर्देशात् पूर्वस्येति लब्धे पूर्वग्रहणं किम् ? पूर्वमात्रस्य यथा द्यावेव स्यात् । अन्यथा द्यावेत्र स्यात् । नीरक्तम् । दूरक्तम् । इइ न स्याद् अजर्घाः इति । नर्गधः लडः सिम् पम् । भष्मानः । धकारस्य जश्त्वम् । “सिपि रिवा" [५।३।८१] "व" [५।३।२] इति रिः । अण इति किम् ? तृह तृदः । वृहू वृदः ।
सहिवहोऽस्योः ४।३।२१७॥ सविहोरवर्णस्य श्रोकारादेशो भवति दूखे । सोटा । सोहम | सोढव्यम् । वोटा । बोदुम् । वोढव्यम् | अस्येत्याग्रहणादैपि कृतेऽपि भवति । उदवोदाम् | उद्योदम । उदवोद । उत्पूर्वाद्वहेर्लुङ् । तसस्ताम् । थसस्तम् । थस्य तः | "झलो झल्लि" [५।३।४४] इति से: बम । ढत्वादेरसिद्धत्वाद् “मजद" [५।११७६] इत्यादिना प्रागैप । अस्येति किम् ? अवान् |
कर्ण लक्षणस्याविष्टाष्टपञ्चभिन्नचिन्नछिन्द्रनुषस्वस्तिकस्य ॥४॥३२९८॥ कर्ण श्री लक्षणवाचिनो दीभवति विष्टादौन बर्जयित्वा । दामिव दानाकर्णः । शंकुकर्णः । द्विगुणाकर्णः । द्यगुलाकण ।। द्वयोरफुल्योः समाहारो दूधगुलम् । “पेऽङ्गुलेर्मिसंख्यादेः" [२।८८] इति सान्तः । लक्षणस्येति किम् ? शोभनकर्णः। शोभनत्वं तत्वाख्यानं न तु लक्षणम् । अतएव तत्त्वास्यानादिहापि न भवति । लम्बकर्णः । अविद्धकर्णः । अथवा लक्षणशब्देन चिह्नविशेषोऽभिप्रेतः स्वामिविशेषसंबन्धज्ञापनार्थम् । पशनां दावाकादि चिहून लक्षणम् । तदभायाम म्बफरणादिघु न भवति । अविष्टादेरिति किम् ! विष्टकर्णः । अष्टकर्णः | पञ्चकर्मः । भिन्नकरणः । छिन्नकर्णः । छिद्रकर्णः । सत्रकर्णः। स्वस्तिककर्णः ।
नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु कौ ॥ २१॥ नहि वृति वृत्रि व्यधि रचि सहि नान इत्येतेषु किन्तेगु परतः पूर्वपदस्य दीर्भवसि । महि-उपानत् । परीणात् । वृत्-नीनृत् । उपावृत | ऋषि-प्रावृट् । व्यधि-मर्मवित् । हृदयाबित् । श्वावित् । चि-अतीरुक् 1 अभीझक | कथं मलरुक् | श्वेतर ! सम्पदादिविपि न भवतीत्यदोपः। अथवा तिकारकदीस्वमिप्यते । सहि-जलासट । नुरासट् । तनि-परीतन् । "गमः की"[ 1] इत्यत्र "गमादीनो बखमिथ्यते" [घा०] | क्वाविति किम् ? उपनहनम् ।
गिरिवने किंशुलुककोदरायोः खो ॥४॥३।२२०॥ गिरि वन इत्येतयोः परतो यथामख्खं किंशुलुकादीनों कोटरादीनां च दीर्मयति खौ । गिरी-किंशुलुकागिरिः । अजनागिरिः । नलागिरिः । वने-कोटरावणम् । मिश्रकावणम् । सिधकावणम् । किंशुलुककोटयद्योरिति किम् ? कृष्णगिरिः । भद्रसालवनम् | नन्दनवनम् ।
चले ॥ २२॥ वले त्ये परतः पूर्वस्य दीवति । श्रासुतीवलम् । दन्तायलः । मत्व "रजःकृपयासुतिपरिषदो बलः" [11१1३८] "दन्तशिखात् खौ" [११।३६] इति च वलः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०४ पा० ३ सू० २२२-२३६ ___ मती बच्छरादेरनजिरादेः ॥४।३।२२२॥ मतौ परतः बलुचः शरादीनां च दीर्भवति अजिसदीन वयित्या खो। उदुम्बरावती ३ मशकावती । वीरणावती । पुरुकराती । उदुम्बरा अस्मिन् देशे सन्ति 'तस्मिन्नस्तीति देशः खो" [३१२५४] इत्याण प्राप्ते "नद्या मतुः" [३।२।६५] इति मनुः । शगदोनां शरावती । वंशात्रती । [शर | Hश : धून । अhि कांपे . मग । अनि: । शुलिन । तिरादिः । मह गालि किम् ? इक्षुवती | मधुवती । “खौं' [५।३।३२] इति मतोवैत्वम् | अनजिरादेरिति किम् ? अजिरवती | खदिग्वती । नलिनवती । चक्रवाकवती । कारण्डवती । खाविति किम् ? बलयत्रती ।
इको घहेऽपालोः ॥४।३।२२३॥ इगन्तस्य पीलुवर्जितम्य बहे छौ दीभवत | ग्लाविति वर्तते । पीवः । मुनीबद्दम् । पचाद्य जन्तेन बशन्देन सः । इक इनि किम् ? पिण्डवहम् । अपोलोरिति किम् ? पौलुबहम् । "अपीरुवादेरिति वक्तव्यम्" [वा०] । दारवहम् ।
गेः कासे ॥४॥३।२२४॥ इक इति वर्तते । हगन्तस्य रोः कासे धो दोर्भवति । कामम् । यौनसम् | अनूकासम् । पचायजन्तस्य कासस्वेदं ग्रहणम् । झुक इत्येव । प्रकाशते इति प्रकाशः ।
दस्ति ॥४३२२५|| दा इत्येतस्य यस्तकार आदेशस्तदाटी परत इगन्तस्य गेटीभवति । नीत्तम् । चोत्तम् । परीत्तम् । “गेस्तोऽचः" [५२।१३६] इत्याकाररुप तकारः । दकारचर्वस्यान एवं दीववचनास्ति
त्वम् | "गेस्तोऽधः" इत्यत्र द्विराकारको वा निर्देशः इति सर्वादेशः । द पनि किन ? चितीर्णम् । तीति किम् ? निदत्तमिति चेप्यते । इक इत्येव । प्रत्तम् । अत्तम् ।
घश्यमनुष्ये प्रायः ॥४॥२२६॥ इक इति निवृत्तम् । घान्ते शौ गे: प्रायो दीर्भवति अमनुध्येऽभि धेये । अपामार्गः । नीमार्गः । नक्लेिदः । प्राचारः । “आच्छादने वृक्षः" [२।३/५०] इति घन । मोबारः । "नी वुर्धान्ये"[२२३१४५] इति धन । प्राकारः कर्मणि । अधिकरणे प्रासादः । अमनु'य इनि किम् ? निपीरन्यन्नि निति निषादः । “हत्वः" [२।३।१०२] इत्यधिकरणे घनः । “सदोऽप्रते।" [५।४।४ दृति पावन् । प्राय इति किम् ? प्रसदनं प्रसादः । निवेशः। प्रकास: । प्रकरणू प्रकारः । बैशादिभात्यम् । प्रतिवेशः । प्रतीवेशः । प्रतिबोधः । प्रतीनोधः । गेरिस्येव । चन्दनसारः ।
खावटनः ॥४३२२७॥ विषयेऽटन्नित्येतस्य दीभवति यौन ग्राटापदः । अष्टावकः । अष्टावन्धनः । अष्टविटपः । खाविति किम ! श्राट महाप्रातिहायों जिनः। अष्टगुणः सिद्धः । “अष्टनः कपाले हविपि वक्तसम्" [ar.] : श्रष्टसु कपालेषु संस्कृतमाकपालं हविः । संस्कृतार्थे प्रागतम्यागण: "रस्योबनपत्ये" [३।३।७५] इत्युम् । "गवे च युक्ते" [वा०] । अष्टाभिगोभियुक्तम अष्टागवं शकटम् । युनः शब्दस्याप्रयोगः । यथा भीमसेनशन्दे सेनशब्दस्य ।
चितेः कपि ॥४।३।२२८॥ चितैभवति कपि परतः । एका चितिरस्त्र एकचितीकः । द्विचितीकः । त्रिचितीकः ।
विश्वस्य वसुराटोः ॥४॥३॥२२६॥ विश्वस्य दीर्भवति यमु शडिस्वेतयोः परतः । विश्वतो वस्वस्य विश्वावसुः । विश्वस्मिन राजन इति विश्वाराट् । “सत्सूद्विप" [२।२१५६] अादितूत्रेण क्विम् । राइिति चिकृतनिर्देशो यत्रास्यैतद्रूपं तत्र यथा स्यादिह मा भूत् । विश्वराजौ । विश्वराजः ।
नरे खौ ॥४।३।२३०॥ नरे द्यौ विश्वस्य दीर्भवति खुविषये विश्वा नगे यस्य विश्वानरः । बरेन यसेन या व्युत्पत्तिः । खाविति किम् ? विश्व नरा अस्य विश्वनरो राजा ।
ऋषी मित्रे ॥३/२३६॥ ऋषाभिधेये मिने घौ विश्वस्य दीर्भवति | विश्वामित्रो नाम पिः । राविति किम् ? विश्वमित्रः सुजनः ।
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अ० ४ पा० ४ सू० १-१२] महावृत्तिसहितम्
अन्यस्यापि ॥४३॥२३२॥ अन्यस्यापिशब्दस्य द्यावावगावपि दीर्भवति | करयान्यस्य ? यस्य शिष्टदीवं प्रयुक्तम् । “शुनो दन्तदंद्राकर्णकुन्दनराहपुच्छपदेषु दीर्भवति" 1 श्वादन्तः । श्वादंष्ट्रः । श्वाकर्णः 1 श्वाकुन्दः । श्वावराहः । श्वापुच्छः । श्वापदम् । श्वावरामिति द्वन्द्वोऽन्यत्र पो बसो वा | एकश्व दश चैकादश | केशाकेशि । केशेषु केशेषु च गृहीत्येदं युद्धं वृत्तम् । “तप्रेमिति सरूपे" [१॥३/८८] इति यसः | "ज इच्" [४१२१२८] इति इन्सान्तः । तिष्ठद्वादिषु इजन्तस्य संज्ञा । अद्यापि पुरूषः । सादनमः । मारकः । न भवत्यपि पुरुषः । सदनम् । नरक इति ।
चि ॥४॥३॥२३३॥ अण इति क इति च निवृत्तम् । च् इति अतिर्नष्टनकासकागे गृह्यने । तस्मिन परतः पूर्वपदस्य दीर्भवति । प्राचः पश्य | प्राचा । नाचे । दधोवः पश्य । दधीचा | दधीचे! मधूचः पश्य । मधूचा । मधूचे । कर्तृ चा | कर्तुचे । “अचश्च" [109/१२] इत्यचः स्थाने दोत्वम । र धीच यत्र यणादेशमन्तरङ्गमपि बाधिस्या "अचः" [४/११२५] इत्वकारस्प रत्रं भव यस्मादव बचनान् ।
जेः ॥४।३।२३८॥ जेदीभवति यौ। कारीगन्धी पुत्रः । कारीपगन्धीपतिः । कौमदगन्धीपुत्रः । कौमुद्गन्धीपतिः । करीवस्येत्र गन्धो यस्व करीपगन्धिः । तस्यापत्य स्त्री । अागतस्पारण"प्योच रूपान्त्ययो" [३।१।३३] इति वादेशः। टाप् । “षे प्यस्य पुनपरपोर्जिः" [३] इति जिः | जौ कृते अत्राने एवं जेटली कमकुलपिया नाम: “कागोया:" [2!3!१७२] इत्ययं प्रादेशः प्रामः । प्रादेशाभार पक्षे सावकाशमिदं च दीवं प्रातमा परत्वाद्दीत्वं मवति । सकृदगतन्यावेन पुन: प्रसङ्गान्न प्रादेशः ।
इत्यभयनन्दिविरचिताया महावृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य तृतीयः शादः ममामः ।
[गोः ॥४॥४९॥ हलः ॥ २॥ नाम्यतिसृचतस शा३॥ नुवा ॥४/४/२॥ नोङः ।।५।। धेऽकी ॥६॥ सन्तस्फमहतोः ॥४॥ स्वसनतनेष्ट त्वष्टक्षहोसृपोतप्रशास्तत्रयाम् ॥४ामा इन्हन्पूषार्यम्णाम् ||१४|९]
शौ ॥४ ॥ शौ परत इन् हन् पूषन् अर्यमन् इत्येवमन्तानां दीर्भवति | बहुदण्डीनि । हुमग्नीणि | बहुपूपाणि । वयभाणि । द्वितीयोऽयं नियमः । शावेवेन्नादीनां दीर्मवति नान्यत्र । दण्डिनौ । इरिटनः । वृत्रहरणौ । पूषणौ । अर्यमणौ | तदन्तस्यापि न भवति । परमदण्डिनौ । बहुदण्डिनौ । बहुदण्डिनः ।
सौ पाया। सौ परत इनादीनामुडो दीभवति । दम्भी । वाग्मी । तपस्वी । वृत्रहा । पुप्पा । अर्यमा । पूर्व नियमनानासविध्यर्थमिदम् । अकाविस्व । हे दण्डिन् । हे पूपन् । हे अर्यमन् |
अत्क्सोऽधोः ॥४॥१२॥ साविति वर्तते । अत्यन्तस्व असन्तस्य च किवर्जिते सो परतः उडः दीर्भवत्यत्रोः | गोमान् । धनवान् । भुक्तवान् | तत्परिमाणमस्य तावान् । श्रतोरर्थवतोऽनर्थकस्य च ग्रहणम् । अन्यथा भवग्रहणं कुर्यात् । असा साहचर्याद्वा । अतो रुको दीत्ववचनसामाद्दौत्वे कृते नुम् । अम् । सुपन्याः । सुलोताः । पिचतेरि चेति सुवस्तुडिति सोलुट् । अधोरिति किम् ? इघुमत्यति इवः । दृपदमस्यति दृषदः । यावमधोरिति किमर्थम् ? अतस् इत्येवं वक्तव्यम् १ न । अन्येषां प्रतिषेधार्थम् । पिए ग्रः | चर्मणः । ज्ञापनार्थ
१. प्रतिषु [ ] कोष्ठकान्तर्गतानां सूत्राणो वृत्तिस्त्रुटिता। सूत्राणि तु जैनेन्द्रपज्ञाध्यायीमनमृत्यात्र निर्दिष्टानि ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ४ पा० ४ सू० १३ - १४ चास्तोदम् । “अनिनस्मिन्प्रहणान्यर्धवता चानर्थकेन च [१०] इति । श्रवोरित्यानन्तर्यादसन्तस्यैव प्रतिपेधः । तेनात्र दत्वम् । गोमन्तमिच्छति गोमत्यतेः क्विप् । गोमान् । अकावित्येव । हे गुणवन् । हे सुपयः ।
अस्य करतोः किति || ४|४|१३|| अन्तस्य गोरो दीर्मवति कौ झलादौ चह्निति परतः । प्रशान् । प्रतान् । प्रशान्भ्याम् । भलि किम् ? शान्तः । तान्तः । कितीति किम् ? शंशान्तः । तान्तः । बहुपीदम् । इत्येति किम् ? श्रोदन | पक्तिः । किलोरिति किम् ? गम्यते । कितीति किम् ? यन्ता | यन्तुः ।
हनिङ्गम्यचां सनि ॥|४|४|१४|| इन्तेरिङ्ग मेरजन्तानां च दीर्भवति सनि झलादौ परकः । जिघांसति । इङ्गमि-अधिजियांसते । इङ् इति विशेषणं किम् ? संजिगंसते वत्सो मात्रा अजन्तानां चिचपति । मुख्यति । चिकीर्षति । उनि निवृत्तम्। श्रवश्चेति इनिङ्गोऽन्तस्य खाने दो कृते द्विम् । गोरिव । दधि सनोति ।
तनाव ||४|४|१५|| तनोतेः सनि झलादौ वा दीर्भवति । तितांसति । निर्मलति । झलीत्येव । तितनिपति | " सनीवन्त " [ ५।१।६७ ] दिसूत्रे तनिपतिदरिद्राम्, इविकल्पः ।
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*मः ||४|४|१६|| बेति वर्तते । क्रमो वा दीर्भवति भलादौ क्त्वा परतः । कान्स्वा । अचश्चेत्यस्य गृह्यमाणेन विशेषणादचः स्थाने दीत्वम् । “स्व” [ ४|४|१३ ] इत्यादिना नित्यं प्राप्ते विकल्पः । भलीत्येव । क्रमित्वाऽक्रम्येत्यत्र "ज्यादेशो ऽन्तरस्यापि विधेर्बाधकः " [वा०] इति पूर्वे दीत्वस्याप्रवृत्तिः । श्रनत्रिधाविति स्थानिवद्भाद्मनिषेधात्पश्चादपि फलादिन नास्ति ।
च ||४|४|१७|| केति निवृत्तम्। छकारवकारः स्थाने श कटू इत्येतावादेशौ भवतो - मंज्ञके परतः की हलादी व द्विति । प्रश्नः । विश्नः । "वार्याद् गावं वलीय:" [१०] इति द्वे तुकः परत्तान्नित्यत्वा द्वा शादेशः । अपि च विच्छेरेप्रतिषेधार्थं नको किरणं ज्ञापकं प्रागेव तुकस्य पशशवादेशाविति । “प्रश्ने चान्तर्युगे” [२३२॥६७ ] इति निपातनाजिर्न भवति वकारस्य । स्यो नः । सिवेरौणादिको नः । घेरुङ एपः पूर्वमूडादेशः। “यसिद्धं बहिरङ्गमन्तरमे " [१०] इत्यनित्यमेतत् । तेन यणादेशः । ऊठ् एप् । सिबेरीशादिके मकि त्यूमः । स्य को धर्मप्राट् । गोविट् । वकारस्य कौ हिरण्यद्यः । अक्षः | अक्षयुवौ | अक्षयुवः | भादौ पृष्टः | दृष्टवान् । पृ । पृष्टिः | वकारस्य द्यूतः । धृतवान् । द्वितीत्येव शुभ्याम् । युभिः । श्रत्र दिनित्युत्पन्नं गृह्यते । चतुतिग्रहं नानुवर्त्य “दिव उत्" [४३३१०८] इति कठ उदादेशे कृते सिद्धम् । एवं न "ब" [५/३/५३ ] दिसूत्रे छकारग्रहणं न कर्तव्यं स्यात् । न वावश्यमुत्तरार्थं विग्रहणमनुवर्त्यम् । प्रपञ्चार्थस्तर्हि वश्चा कारः । चादिसूत्रेण यत्र पत्वं नास्ति तत्र श्रवणार्थः शकारः । प्रश्नः । वांद्रेः क्रिःपिवान् । वांशौ । यांशः । गोबिशौ । गोत्रिशः । गोविंशा । शकारसाहचर्यादूरयादेशः विद्वा ।
I
ज्वरज्वरस्त्रिव्यविमयां बोङोः || ४|४|१८ ॥ ज्वर स्वर लिविवि व इत्येतेषां धून वा स्थाने ऊलियमादेशो भवति के को भादो च परतः । जूः । जुरौ । जुरः । जूर्तिः । त्वरः- तूः । तुरौ । तुरः । तूर्तिः । तेन "न वा रुयमस्वर" [५।१।१२८ ] इत्यादिना निदपत्रे तूर्णं । तूर्णं वान् । एवं स्त्रीव्यतीति खण्डः । श्रृण्डलत्रौ । अण्डस्तुवः | श्रुत्वा सूतः । स्रुतवान् । श्रवि-ऊः । उवी । उवः । ऊतिः । मनि वर्तमाने वेटिक चेति मनष्टिखे हे परत क च । ओम् मभूः । सुखौ | मुनः । मूतिः । तिीति निवृत्तम् | तेन श्रोतुः | “सित निगमिष्यविधानकुसिभ्यस्तु:" [ उ० सू०] इति तुः । ज्वरादीनामुङः वकारस्यानन्त्यस्य च ग्रहणम् ।
रः खम् ॥४|४|१६|| रेफात्परयोः येः खं भवति कौ झलादी च परतः । हू हूः । हुरौ । हुएः । हूर्तः । हू थान् । मूर्च्छा-मूः । मुरौ । मुरः । मूर्तिः । " श्रमूर्धिमाम्" [ ५१५४] इति नत्वप्रतिषेधात् मूर्तः | भूर्तवान् | तुर्जी | तूः । तुरौ । तुः । तूर्णं । दुर्खान् । तूर्तिः । धुर्व । श्रुः । धुरी । धुरः । धूर्ण भूर्तिः ।
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अ० ४० ४ ०२०-२७ ]
महावृतिसहितम्
३१६
पवादः । fतीति निवृत्तम् | यपि जोहोति । मोमोर्ति। "म खेमे " [१४११३८ ] इति गविषय एप्र तिषेधो न भवति ।
इष्टः || ४|४|२०|| इटि परत हट उत्तरस्य खं भवति । इडोटोमध्ये सामयाः खम् ।। देवीत् । statत् | अदित्यत्र "लिटी : " [१५] इति दीले कृते इटः स्थानिवद्भात्येः खम |
सिद्धवाभात् ॥४|४|११ ॥ श्रसिद्धच्छास्त्रं भवति श्रा भर्मशब्दनात् । अत्र शास्त्रे कर्तव्य इत्यधिकारो वेडितव्यः । श्राभिविधौ द्रष्टव्यः । एधि हत्यत्र नित्यत्वादस एखभावयोः कृतयोर्भल्लक्षणं विमा मसिद्धत्वाद्भवति । जहीत्य जादेशे कृते “अतो है:" [४|४|१६] इत्युप् प्राप्नोति सिद्धत्वान्न भवति । गतमित्र ङ्किति झलि उसे कृते श्रतः खं प्रामसिद्धत्वान्न भवति । एवं यथायोगममावेशः । आदेश लक्षणप्रतिषेधश्च वेदितव्यः । वरकरं किम स्वाश्रयमपि यथा स्यात् । देभतुः । देयुः । दम्भेरुपगं ख्यानेन लिटः किये कृतेऽनु नखस्व सिद्धत्वात् “हरूमध्ये मिव्यतः " [४/४११०८] इत्येत्वं भवति । तथा युगागमे उबादेशो सिद्धः । चनूत्र | वभूवतुः | वभूवुः | युडागमः “एर्गिवाश्चादुको सुधियः " [ ४/४७८ ] इति बा कर्तव्ये सिद्ध: । उपदिदीये । उपदिदीयेते । उपदिदीयिरे । श्रद्ग्रहणं किम् ? श्रभाजि रागः । " ङोऽतः ' [२४] इयैपि कर्तव्ये नकारस्य खं नासिद्धम् । आभादिति किम् ? रवि रन्धिम | हलमध्ये लिटयत इति एल्वे कर्तव्ये नुमशास्त्रं नासिद्धम् ।
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मान्नखम् ||४|४|१|| श्नात्परस्य नकारस्य वं भवति । व्यनक्ति । हिनस्ति | सशकाय अ किम् ? नन्दिता | नन्दकः 1 नैतदस्तिमकाया किणानुवृत्तेः । द्वितो नात्परस्य स्वमिष्टम् । दह तर्हि मा भूत् । यज्ञानाम | यत्नानाम "नामि" [ ४/४/३] इति दीत्यात्यरत्वेन नखमिदं स्वात् । " खु”ि [५२६७ ] इतुिदी सन्निपातपरिभाषया वार्यते । स्थानिवद्भावाद्वा नवं प्राप्नोति । प्रश्नानाम विश्नानाम् इत्यत्र ला शिकवान्न भवति । श्नादिति श्नमो नष्टकारस्य ब्रहणम् । न इति ङसो नाशे प्रकारेणोच्चारणार्थेन निर्देशः ।
}
हलुङ : ह्रित्यभिहितः ||४|४|१३|| हल उङो नकारत्य ग्वं भवन्यनिदितो गोः ङ्कित परतः । वस्तः स्वस्यते | व्यस्तः | ध्वस्यते । तस्नाति । सनीस्रस्यते । अश्नाति बनीभ्रश्यते । हल इति जातिग्रहणामपि । मनः । मग्नवान् | हल इति किन ? नीतम् । नीयते । उ इति किम् ? नद्धम् । नानाने निति किम् ? सित्वा । मृहादिनियमाद किच्चम् । श्रनिदित इति किम् ? शक्यते । मङ्कयते । तपरकरणं किम् ? समिदम् । हलुङ इति योगविभागः । तेन "कियोः उपतापशरीर विकारयोर्नखम्" । विलगितः । विपिनः । लिङ्गितः । विकम्पितः इत्यन्यत्र ।
वंशसंजस्यां शपि || ४|४|२४|| वंश सज्ज स्वज इत्येतेषां शपि परत उङो नकारत्य खं भवति । दशति । सजति । परिष्वजते ।
रज्जेः ॥ ४४२|| राज्ञश्च शापि परत उही नकारस्य भवति । रजत | रजाः 1 रजन्ति । योग विभाग उत्तरार्थः ।
णी मृगरमं ||४|४|२६|| रब्जेण परतो मृगरमऽर्थे नकारस्य खं भवति । रजयति मृगान् व्याधः । मृगान् रममाणान् दर्शयतीत्यर्थः । “जनीजनसुरज्जोऽमन्तारथ" इति मिचादुङ : प्रादेश: । मृगरमण इति किम् ? रज्जयति वचम्
aft भावकरणे ॥४४॥२७॥ भावकरणाभिधायिनि घञि परतो रज्जेर्नकारस्य खं भवति । आश्चर्यो रागः । विचित्रो रागः । करणे रजति तेन रागः । भावकरण इति किम् ? श्वन्यस्मिन्निति रङ्गः । करणेऽधिकरणे च “हलः” [२३।१०२] इति घञ | त्रिनु कथं नखम् | रागी । “दुहानुरुध” [२।२।११८ ]
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० २८-३५ श्रादि सूत्रे त्यजरजादि निपातनास्मिद्धम् । “दशनहः करणे घट्" इति सूत्रे दशेति विकरणनिर्देशेन निपातनम् । अजादिषु पाठाद दंष्ट्रेति "रजकरजनरजरसु नखे यानः कर्तव्यः [वा०] "शिल्पिनि ट्युः" । युः । श्रोगाटिकश्च "अस् सर्वधुम्यः" इत्यम् ।
स्यदाचोदधौभप्रश्रथहिमश्रथाः ॥४४ारा स्पट, नबोट, ग्ध, अोधन, प्रश्रय, हिमवय इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । स्यद इति स्वन्देघजि नखमैत्रभावश्च निपात्यते जोऽभिधेये । गोत्यदः । अश्वस्पदः । कृयोगें तामः । जबाइन्वत्र तैलस्यन्दो घृतस्यन्दा । अवोद इति उन्दरवपर्चस्य निखं निपान्यते । एध हुन्धेनि नस्व. मेप च निपात्यते । “न धुखेडगे" [1111८] इति प्रतिषेधो मा भूत् | अोम इति उन्देरोणादिके मनि नखम् । प्रश्नधः हिमश्रथ इति अन्थेः प्रपूर्वस्य हिमपूर्वस्य च घनि नख#वभावश्व निपाल्यते । “न धुखेओ" [10] इत्यत्र इकोऽनुवर्तनादेपः प्रतिषेधो न स्यात् ।
नाचे पूजे ॥४४२०॥ अञ्च तेः पूजेऽर्थे नकारस्य वं न भवति । अञ्चितोस गुरुः । नमय जिनं गतः । “अग्न्छः पूजायाम्" [५३१०१ इति तक्योरिट् । हलुङ इनि नखग्रामिः । पूजति किम ? उदक्तमुद्रक कूपान् । अक्त्वा रजुम् । “योदितः" [५/११३०४] इत्यनेनेपने मृदादिनियमादकित्वम् । अञ्चित्वा । ते "यस्य" [५।११२१] इति प्रनिषेधः । नाञ्चरित्यनेनैव प्रतिषेधेन नकारः कृतजुन्यो निर्दिष्टः ।
किव स्कन्दस्यन्दोः ॥१४॥३०॥ क्वात्ये परतः स्कन्द स्यन्द इत्येतयोर्नकास्त्र व न भवति । सस्वा । स्यन्वा । त्मन्दः "स्वरति" [५1१1१२ ] इत्यादिनाऽनिट पन्चे कित्वानख प्रातम् । इट्पन्न नु मूडादिनियमादेवाकिल्वे सति नग्वाभावः सिद्धः । क्वीति द्वितकारकनिदेशः | तकागदी क्या ये इति । तेन ग्रस्कन प्रत्यग्रेत्यत्र “अनलियौ" [१६] इति स्थानिवद्भावप्रतिषेधान्नकारादित्वं नास्तीति वं भवत्येव ।
जनशोर्वा ॥४॥३१॥ ज इति वर्णग्रहणम्, । जान्तस्व गोर्नशेश्च या नम्वं भवति कनात्ये परतः । रक्वा । रकवा | भक्त्या | भक्त्या | नष्ट्वा । नशा । नशे "रधारे” [५1११६३] इति विभापितटोनिटपर्ने "मस्जिनशोमलि" [1३1३६] इति नुन् । “हल्लुङः" [४।४।२३] इति नित्ये नव प्राप्त विकल्पः । द्दल इति जातिग्रहणपन्ने मत्जेरपि नित्यं नखे प्रात मक्या । अनवपक्षे द्वयोः कसंशामाश्रित्य स्कादिमण्यम ।
भनेनौं साधा३२॥ भजेः औ परतो या नस्त्रं भवति । अभाजि | अमजि पापं मुनिना । नन्त्रम प्राप्तमनेन पः विधीयते ।
शास इत् ॥ ३३|| गोरुकः कितीति वर्तते । शासेरुङ इरादेशो भवनि किति परतः । किनिशिष्टा । शिष्टिः 1 शिष्टः । शिष्टवान् । शिष्यः । “स्नुशासिणधनुषा क्या" [२१] इति क्या । दितिशिष्टः । शिष्यः । “शास्त्रसघसाम्' [५४४०] इति पत्यम् । अजादाबङ्ये वेति नियमो भविष्यति । सामयादयं हलादौ तिति विधिः । हलीति यदि क्रियेत "वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम्" [प०] इति क्यो न स्यात् । मित्रं शाम्तीति मित्रशीः । प्राय शास्तीति भार्यशीरिति । शासु अनुशिष्टावित्वस्वेद ग्रहणाम् । अन्यस्य दीवत्य विधैरसम्भवातून पाल, शान, इच्छायामित्वस्येत्वं न भवति । आशास्यते । अाशास्ते । “लिकाशिषि" [२।१५] इति निर्देशादन्यत्यापि क्यायित्वम् ।
अङि॥४३४॥ अकि परतः शास उङ इनवति । नाशपत् । अन्धशिपताम् । अवशियन् । नियमार्थोऽयमारम्भः | अजादावङ्येव किति नान्यस्मिन् । शशासुः । शासति । जहादित्वात्थसंज्ञा 1 "प्रस्थात्" [419॥४] इत्यदादेशः।
शाहो ॥ ३५॥ शासः शा इत्ययमादेशो भत्रति हौ परतः । उपपेक्ष्य पूर्व शास इदित्यवयवयोगलक्षणा ता । मामात् स्थानलक्षणा संपद्यते। अनुशाधि | प्रशाधि | श्राहाविति यदि सूध क्रियेत
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१० ४ पा० । सू० ३६-४२ ] महावृत्तिसहितम्
३२१ अनेनान्त्यस्य सम्भवादाकारे कृत पूर्वेण उङ इत्वे चानिष्ट रूपं स्यात् । ननू पाल्ने कृते "धि" [५/३४३]
। सबै च सिद्ध शायाति उ त सहि निरपि च प्रकृतिग्रहणे यकुचन्तस्यापि मचस्य यथा स्यादिस्येवमर्थः शादेशः ।
हन्तेर्जः ॥४४॥३६॥ हन्नौज इत्ययमादेशोभवति हौ परतः । जहि मन्सुम् | जहि पापम् । निषा निदेशाद् यङ्कुचन्तनिवृत्तिः । जंघहीति ।
अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनां खं झलि किति ॥४४॥३७॥ अनुदानोपदेशानां गूना धनतेस्तनोत्यादीनां च इत्य खं भवति झलादौ किति परतः । कितीति निर्देशात्पूर्वस्याव्यवहितस्य खम् । यया । यतिः । यतः । यतवान् । उने वितनिमित्तत्वात् "स्य" [ १३] इति दीत्वं न भवनि । अनुदात्तोपदेशाः यमिरमिनमिगमिनिमन्यतयः पर । वतिः । वनतेः स्त्रियां तो । तनोत्यादीनां तत्या । नतिः । ततः । ततवान् । सनोतेरात्वं वक्ष्यति । चतः । क्षत गन् । डिति । इतः । हथः । अतत । अतथाः । "तनादिभ्यस्तथासोः" [ १४] इति सेसम् । एतेषां अहणं किम् ? शान्तः । तान्तः । इस्त्रति किम् ? पश्ययान् । भलीत्येव । गम्यते । कितीति किम् ? यन्ता । यन्तुम् | उपदेशग्रहणमुत्तरार्थम। बनतेस्तिपा निर्देशाद्यड्डुचन्नस्य निवृत्तिः । बंबांतः।
शपा सिपाऽनुमा भेन निषिष्टं यद्गणेन च ।
यच्चैका महणं किञ्चित्पञ्चतानि न या पि।। तनोतेगणनिदेशादेव का इन्तस्य न भवतीति सिद्ध तिपा निर्देशः "द्विद्ध' सुबद्धं भवति" [प.) इति निदर्शनार्थस्तेन सकृदुक्त ऐप क्वचिन्न भवति | ज्योतीध्यधिकृत्य कृतो अन्धो ज्यं तिपः । पुनः कितीति ग्रहणं त्रिस्पष्टार्थम् ।
प्ये ॥४॥॥३॥ वे च परतोऽनुदात्तोपदेशादीनां कुखं भवति । प्रहत्य । प्रमत्य । प्रवत्त्य । प्रनत्य । प्रसत्य | प्रक्षात्य | अझलादावपि विध्यर्थमिदम् ।
वा मः ॥४४३६| अनुदात्तोपदेशादिषु मकारान्तानां वा कुखं भवति प्ये परतः । प्रात्य । प्रयम्म | प्रत्य । प्ररम्य । प्रपत्य | प्रणम्य | प्रगत्य | प्रगम्य । पूर्वेण नित्ये ग्ने प्राप्ते विकल्पः ।
न तिचि दीभ ॥ तिचि परतः अनुदानोपदेशादीनां इखं दीश्च न भवति । यन्तिः । रन्तिः । नन्तिः । वन्तिः । तन्तिः | दन्तिः | अनुदात्तोपदेशादीनामित्येव । शान्तिः । दीत्वं भवत्येव ।
गमः क्वौ ॥ ४४॥ गमः क्वी परतो इस्य खं भवति । जनगत् । कलिगत् । मोक्षगतो मुनयः । "वर्णानये नास्ति त्याश्रयम्" [१०] इति झलायभावादप्राप्तं वस्त्रमनेन विधीयते । पूर्व प्राञ्चकारोऽनुवर्तते, सोऽत्रानुक्तसमुच्चवार्थः । तेन गमादीनां क्षौ ङवं द्रष्टव्यम् । संयत् । परीतत् । “वामिछ" [११३१८२] इति पसे कृते "नहिवृति" [४।३।२६] इत्यादिना परेदर्दीत्वम्।
क्याः ॥ २॥ अनुदात्तोपदेशादि निवृत्तम् । इस्येति वर्तते । अन्तस्य योनि परत यात्वं भवति । बिजायत इति विजावा । "भन्धन्यनिबिचः ऋचित्" [२।२१६२] इति वन् । “शि" [411111४] इती प्रतिषेधः । अन्तेऽलः स्थाने आस्वम् । एवम् अग्रेगावा | दधिक्रावा । दौत्वोच्चारणं किंमधम् ? ओग, अपनयन हल्पस्माद्वनि अवावा । त्रुण पूर्ण भ्रमणे । ध्वाचा । इति व्याप्तौ-यात्रा | "इदिदोर्नुम" [५।१।३५] "वलि भयोः खम्" [५३५५] इति बनि परतो नकारस्य खम् । एतच्च वर्णनिमित्तं नानिमित्तमिति न धनेश्वास "ध्युः" [पारा३] इत्येप् प्राप्तस्तमन्तरङ्गमा णादेशो बाधते ।
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अनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ५ ० १३-१८ जनसनसनाम् ॥ ४३॥ जन सन खन इत्येतेषां ढस्य झलादी किति परत श्राकारादेशो भवति । जातः । जातवान् । जातिः । सातः । सातवान् । सातिः । स्त्रातः । खातवान् । खातिः | मनोतेस्तनादौ पाठस्य "तनादिभ्यस्तथासोः [१ ८] इत्यादिकार्थमनकाशः। पूह पठभ्या च मनि एग्न आन्त पराकाश!! भालादो किति दुःखादित्वं परल्यात् । ननूभयोः सिद्धत्वे स्पर्धः इह च "असिद्धमदनाभान्" [२१] इत्युभयमप्यमिद्ध तत्कथं परत्वम् | अत्रोच्यते "भुमास्थागा" [ ६५] श्रादिसूत्रे हलोति हाहणं ज्ञापकं भवत्यत्र स्पर्धः । तयाहि तस्वैतत्प्रयोजनं हृलादादीत्वं यथा त्यारा । अजादी मा भूत् । । गोदः कम्बलदः इति । अस्यत्रापीवं तस्यासिद्धत्वात् “इटि चात्" [ १३] खेन सेत्स्यति नाथों हल्गद्गोन । तदेतत्स्पधे सति सार्थकम् । किनमाणे हल्ग्रहणे गोद इत्यत्र परत्यादौत्वे "सकन्दगते परनिर्णये विधिर्वाधितो बाधित पव" [२०] इत्यावं न त्यादिति मन्यमानो हलोत्याह ।
सनि ॥ ४४॥ सनि च मलादी परतो जगादीनां छप अाकासदेशो भवति । सिसामति । झलित्वेव | जिजनिषते । सिसनिषति । चिखनिपत्ति । “सनीवन्तर्थ" [५1१1३७] इत्यादिनाऽनिटपर्ने सनोतेरेच सन् कलादिः सम्भवति । किग्रहणमसम्भवादिद न संवध्यते ।
ये च ॥|४|| कितीति वर्तते । किति बारे त्ये परतो या जनादीनामावासदेशो भवति । जायते । जन्यते । जाजायते । जञ्जन्यते | श्ये परत्वाद् “ज्ञाजनोजा" [२७] शेते नित्यो जादेशः । सायले । सन्यते । मासायते। संमन्यते । स्वायते । खन्यते । चाखायते । चंखन्यले । अफलादावपि यथा स्वादित्यारम्भः । कितीत्येव | जन्यम् । "शकिसहश्च" [२।१।८६] इति चशब्देनात्येभ्योऽपि न्यः । सये च मान्यम् । खान्यम् । य इति त्यनिर्देशो न वर्णनिर्देशः । तेने न भवति सभ्यात् । वन्यात् | "किदाशिपि" [
२ ५ ] इति कित्त्वम् ।
तनोतर्यकि ॥४॥४६॥ रानोतेर्यकि परतो या आकारादेशो भवति । तायते । रान्यते। यकीति किम् ? तन्तन्यते । अप्राप्ते विकल्पः ।
सनःक्तिचि खं च ॥४॥४॥४७॥ सनः क्तिचि परतः खे भवल्याकारश्च वा । सतिः । मातिः । सन्तिः । "न किचि दीश्च" [४॥४॥३०] इति खदील्त्रयोः प्रतिषेधे प्रासे वचनम् ।
अगे ॥ ४८॥ वेति निवृत्तम् । अग इत्वयमधिकारों वेदितव्यः । "लुङलछ लङयट" [॥५७०] इल्यतः प्राक् यदनुक्रमिष्यामः अग इत्येवं तद्वेदितव्यम् । यक्ष्यति "प्रतः स्वम्" [४५०] चिकीर्पिता । अग इति किम् ? चिकीर्षति । ननु भक्तु गेप्यतः खम् । शपोऽकारस्य श्रवणं भविष्यति । एवं तर्हि शपोऽकारस्यैव गे खं माभूत् । ननु “शपोऽदादिभ्यः'' [111१४३] इत्युज्यचनं ज्ञापकम् । शपो गे वं न भवति । नैतदस्ति "नोमता गोः" [१॥३॥६५] इति त्याश्रयकार्यप्रतिषेधार्थ ता स्यात् । मृष्ट इति। "हल्यैत्रुप्युतः" [५।२।८७] इत्यैषो विधानार्थं च । वौति । रौति | तत्वोश्च खं मा भूत् । वृक्षतेति । "हलो यः" [1५१] बेभिदिता | भिदितुम् । गे मामूत् | बेभिद्यते। "णे:" [१४५३] कारणा | हारणा | अग इति किम् ? कारवति । हास्यति । “सिस्यसीयुट्नासौ औ ग्रहाध्झनदशा भिवदिट च" [१६] इति अगे सीथुन् । कारिपी। गे मा भूत् । प्रस्नुवीत | "स्नोश्च निश्व" [२१११५४] इति या प्रतिषिध्यते । इह च क्रियेत हि येत । "णिस्यवः" [५।२।३] इति यक ऐपि युक् प्रसज्येत । “इटि चाखम्" [५६३] पपनुः । पपुः । यमनुः । ययुः । गे मा भूत् । पान्ति । बान्ति | "भुमास्थागापा" [१४६५] इत्यादिनेत्वम् । दीयते धीयते । गे मा भूत् । अदाताम् 1 अधाताम् । “लिङ येत्” [४।१।६६] देवात् । गे मा भूत् । दद्यात् । दन्यात् । “वास्थः स्फादेः" [११४६.] ग्लेयान् | ग्लायात् । अग इत्येव । विध्वादिलिपि-लायात् ।
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अ० ४ पा० ४ सू० ५६-५५] महावृत्तिसहितम्
३२३ भ्रस्जोरसोरम्बा ॥४४॥४६॥ भ्रस्जो रेफसकारयोर्वा रमादेशो भवति । भष्टा । भ्रष्टा । भाटुंम् | भ्रष्टुम् । माटव्यम् | भ्रष्टव्यम् । रसोरिति पुनस्ताया उपादानादादेशोऽवं रसोः स्थाने भवति मिश्योच्चारणसाम•दनोऽन्त्यात्परो भवति । रमभावपक्षे स्फादेः सत्रम् । ननु रेफस्वैव रमादेशो वक्तवः । षोः स्फसंशामाश्रित्य सरखेन सिद्धमिति चेदजादौ न सिध्यति । भर्जनम् । अन्जनम् । भर्गः । श्रद्गः । पझे "झलां जश् मशि" [५३२८] इति सकारस्य दल्वम् । रमादेशस्यावकाशोऽविति भ्रष्टा । भष्ठां । जेरबकाशी भृजति । इहोभयं प्राप्नोति भृप्या । भृाटवानिति । कृताकृतप्रसङ्गिनेन नित्यो जिर्भवति । जो करी रमादेशो न भवति | उपदेश इत्यनुवर्तनात् । तेनेहापि न भत्रति बरीमन्यते ।
____ अतः खम् ॥४४॥५०॥ अगेऽकारान्तस्य स्खं भवति । चिकीपिता | धिनोति । धितः । कृणोति । कृणुतः । इवि दिवि विवि प्रीणने । कृवि हिंसाकरणयोश्च । “इदिदोर्नुम्" [५।११३७] | "धिन्विकरम्योर " [२१५७५] इति उचिकरणः । अकारश्चान्तादेशः । तस्य खे । तपरकरणं किम् ? याला । ऐषोऽवकाशः प्रिवमाचष्टे प्रापयति । कारयति । अस्वस्यावकाशः चिकीर्पिता । इहोभयं प्राप्नोति चिकीर्षक इति । दीवस्यावकाश पण्डितायते । स्तूयते । अस्त्रस्यावकाशः चिकीर्षिता । इहोभयं प्राप्नोति चिकीर्यते इति 1 किमत्र तवम ! "गुदीत्वाभ्यासमतः वं पूर्वनिर्णग्रेन" [वा०] "लिप्स्यसिद्धौ” [२।३।५] इत्यत्र लिश्य इति विग्रहनिर्देशात् ।
हलो यः ॥था५१॥ हलन्ताद्गोमत्तमस्य यकारस्य स्खं भवत्यगे | पेभिदिता । भिदितुम् । भिदितव्यम् । पूर्वेणातः स्त्रे कृते यखविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधादनेन यन्त्रम् । तृचमपेक्ष्य "युकः" [पा२।३] एप्पा-ताऽतः खस्य स्थानिवद्भावान्न भवति । “न धुखेडगे" [1111८] इत्ययं तु प्रतिषेधो हलचोः खे अल्मात्रस्य खे न प्रवर्तते । लोलुवः । टेनः इति । अत्र “यहोऽचि" [ ५] इत्युच्छास्त्र' कृतप्रसङ्गेन नित्यम् । उपि तु कृतेऽतः खं शास्त्रं न प्रवर्तते इत्यनित्यम् । तेन हलचोरुपि कृते स्थानिवद्भावाभावात् "न धुखेती" [207114] इत्यनेन प्रतिरोधः । हल इति किम् ? लोलूषिता । पोयिता । गोनिमित्तत्वेन विशेषणा दिह न भवति । इंग्यिता । समिभ्यिता । अतः ग्वे कृतेऽपि यकारमात्रस्य ल्यस्य गुसंशानिमित्तत्वमस्ति यथा अकरोदित्वत्र तिष इकाराभावेऽपि।
चा कास्य ॥ ५२॥ श्वस्य द्दल उत्तरस्व वा ग्वं भवत्यगे | समिधिता। ममिश्विना । दृषदिता । दृषद्यिता । समिअमिच्छति श्रात्मगः "स्वेपः क्यच्" [२२१६] समिमियान्चरति “गौशादाचारे" [२८] इति वा क्यच् । नमिदिवाचस्तीति “कर्तुः क्या स ल विभाषा" [२0118] इति क्यछ् । तान्येवोदाहरणानि । हलन्तात् क्योऽसम्भवः | "न: क्ये" [111०५] इति पूर्वपदत्याभाकः ।
__णे ॥४॥४॥५३॥ अगे णे: ग्यं भवति । अततक्षत् । इयादेशः प्राप्तः । अाटिटन् । यादेशापवादः "एम्बिाक् चादुकोऽसुधियः" [भ ] इति यत्वं प्राप्तम् । कारणा । हारणा | ऐप् प्रातः । शीप्स्यति मनि दीत्वं प्राप्तम् । कार्यते । हार्यते "दीरकृद्रो" [५।२।१३४] इति दीत्वं प्रासम् । कारको हारकः | ऐप प्रातः 1 गिक कामनम् । कामकः । काम्पते । इयादिभिः सर्वस्य विपत्ययावष्टब्धत्वात्मामान्यरूपेण तेषामयमपवादः।।
ते सेटि ॥४॥५४॥ तसंज्ञके सेटि परतो णे: खं भवति । कारितम् । गणितम् । लक्षितम् । संशपितः । जपेः सनि विकल्पितेटोऽपि “यस्य वा" [५।१।१२१] इत्यनेन प्रतिषेधः । एकाच इत्य. पेक्षणात् । कथं तर्हि विज्ञप्तः प्रभुरिति विकल्पेन “छमज्ञाः " [41३१२५] इति निपातनात् । नियमार्थोऽयमारम्भः । त एच सेटि नान्यस्मिन् । कारयिता । हारविता । ते सेटये केत्यत्रधारणं न भवति णेः परस्यानिटस्तस्वा व्यावर्त्यस्याभावात् । सेटौति पचनात्पूर्वमिहागमः पश्चारिणखम् | अन्यथा कृताकृतप्रसङ्गेन नित्ये णित्रे कृते "एकदेशविकृतस्पानन्यत्वात्" [१०] कारितमित्यत्र "एकाचोऽनुदासास्" [५११५११५] इतीदप्रतिषेधः प्रसज्येत ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ४ पा० सू० ५५-६६
यामन्तात्वानुषु ॥ ४|४|१५|| स्यादेशो भवति श्राम् अन्त आलु श्राय्य इत्नु इत्येतेषु परतः । श्राम् । कारयांचकार । अन्त । गदयन्तः । मण्डयन्तः । " हविशिभ्यां झः " [ उ० सू० ] | " गदिमदिम कि जिन दिभ्यरच " [० स०] इति सः । श्रालुः । गृहयालुः । याच्यः । स्पृहयाय्यः । “महिषविरहिभ्य श्राय्य:" [उ० सू०] इत्याय्यः । इनुः । स्तनांमनुः । गदयितुः । " स्तनिहृदियुपगदिमदियो रित्तुः " [० सू०] । खित्थायमपवादः । नेति सिद्धेऽयादेश उत्तरार्थः ।
રણ
ये पूर्वात् ||४|४|१६|| प्ये परतो विपूर्वाह्न परस्व येश्यादेशो भवति । प्रशमस्य । प्रतमस्य । लवणं कृतबान् प्रलवणस्य । प्रस्तनय्य | यङन्तारिणचि प्रवेविदश्य गतः । ननु प्रादेशदिखात्खयखानामा भाच्छा स्वत्वादसिद्धत्वे कथं त्रिपूर्वाद्वर्णात्परो खिः । व्याश्रयत्वात्सिद्धत्वम् । प्रादेशादयो यौध्ये परतो गुरयादेश इति वचनाद्वा सिद्धत्वम् । धिपूर्वादिति किम् ? प्रहास्य प्रचिकीर्ध्वं गतः ।
बाऽऽपः || ४|४२५७॥ आपः परस्य णेः प्ये परतो वाऽयादेशो भवति । प्रापय्य प्राप्य गता । स्वादिकस्य चौरादिकस्य चापहरणम् । सूत्रमध्याय गतः इत्यत्र लाक्षणिकत्वान्न भवति । चजवस्ते प्रायव्य गतः इत्यत्रैका देशस्यासिद्धत्वादयेव भवति ।
|| वेति नाधिकृतम् । दियो दीर्भवति ये परतः । श्राक्षीय । तुकि प्राप्ते दोलम् |
जियो श्रीः || तेऽये ॥ ४४॥५६॥ पार्थे विहिते ते परतः दियो दोर्भवति । कः पुनर्थो यः पर्युदस्यते । भावकर्मणी “तयोक्तखार्थः” [२|४|५५ ] इति वचनात् श्रक्षीणः । परिक्षीणः । "धिगत्यर्थाच्च" [ २४५८] इति कर्तरि क्तः । दीले कृते क्षीत इति तस्य नत्वन् । इदम् क्षीणं सार्थस्य । क्षीयतेऽस्मिन्निति " अधिकरणे चार्थाच" [ २४५१] इत्यधिकरो तः । “कस्याधिकरणे" [१ | ४।७० ] इति कर्तरि ता । ग्रभ्य इति किम् ? व्याक्षितमस्य । भावे दामान्नवं नास्ति । सगेः क्षियः सकर्मकत्वे कर्मण्यपि ।
या दैन्याक्रोशे ॥४|४|१६० ॥ श्रस्यार्थे ते परतो दैन्ये आक्रोशे च गम्ये दियो या दीर्भवति । दैन्ये श्रितोऽयं क्षीणोऽयं वराकः । श्राक्रोशे चित्तोऽसि क्षोणोऽसि जाल्म । हितायुः । क्षीणायुः | कर्तरि क्तः । अस्य इत्येव | क्षितं वराकस्य । क्षितं जाल्मस्य ।
लिस्यसीयुट्तासौ ङौ ग्रहाज्भन्द्दशां विवि च ||४|४|१६१ || म स्व सीयुट्तासि इत्येतेषु परतो व अहेरजन्तानां हनि दृशि इत्येतयोश्च वा जिवत्कार्य भवति । यदा जास्तदा इडायच भवति स्यसिच्सीयुट्तासीनाम् । आशिष्मताम् | अअहोराताम् । "अहोऽलिटि दी:" [१५] इत्यत्र प्रकृतस्येटो दीम् । ग्राहिष्यते । अहीयते । ग्राहिषीष्ट । ग्रहीपीष्ट । प्राहिता । ग्रहीता । इटो दीवाभाव ऐन प्रयोजनम् | अजन्तानाम् चचाविपाताम् । अवेषाताम् । अग्लायिपगताम् । ग्लासाताम् । यत्रारिताम् | अकृषाताम् । " : " [१९६] इति से: किलम् । चायियते । चेथते । ग्लायिष्यते । ग्लास्यते । कारिष्यते । करिष्यते । चाविपीष्ट । नेपीष्ट । ग्लायिपीष्ट । ग्लासीष्ट । कारिषीष्ट | कृषीष्ट | " : " [१||६] दृति लिए किवं च । चाविता | चेता । ग्लायिता । ग्लाता। कारिता | कर्ता । अनुदात्तादिडागमः । श्रतो युक्च प्रयोजनम् । श्रानिषाताम् । अहसाताम् । श्रसिद्धावे "" [१४/११६] इति बधादेश उदात्तः । अवधिवत्तम् । चानिष्यते । इनिष्यते । चानिषीष्ट । वधिषीष्ट । परत्वात् विद्भावे कृते 'सकृदूगते परनिये बाधितो बाधित एव" [१०] इति बधादेशो न भवति । ग्रवं च प्रयोजनम् । श्रशिषाताम् । ऋक्षाताम् 1 "सि लि" [11] इति किम् । दर्शिष्यते । द्रक्ष्यते । “कल्यकिति सृशम् [४१३५१] इत्थमागमः । दर्शिषीष्ट । दृक्षीष्ट । दर्शिता । द्रष्टा सिस्यसीयुट् वासाविति किम् ? दातव्यम् । दानम् । ङाविति किम् ? लविष्यति । दास्यति । ग्रहाकन्हशामिति किम् ? पक्ष्यत श्रोदनम् । उपदेश इत्यनुवर्त्तनात् कारियत इत्यत्र परत्वादेपि कृतेऽपि त्रिवद्भावः । रामयतेरजन्तस्य निवद्भावपचे
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१० ४ पा० ४ सू० ६२-६८] महावृतिसहितम् "जिमावामिसाम' Raj हावा दीये कृते २ प शामिप्यते । शमिष्यते । नित्यत्वादलाय यस्य वाधिनत्रा त्रिवर्दिन । तस्यासिद्धलाग्गिवम् । अन्यत्र शमयिभ्यते। जी हाटं कार्य सामान्यनातिदिश्यते । तेन घानियते । आयिष्यते । अध्यापियो इवत्र हनिपिङ बिद्भाये वादय आदेशाः लुङि विहिना न भवन्ति ।
दीछोऽधि किति युट ॥४ा६२॥ दीडोऽजादी किति परतो युद्धागमो भवति । उपदिदीये । उपदि दीवाते । उपदिदीयिरे । दीडः इति कानिर्देशोऽचीत्यस्योत्तरत्र सावकाशस्य तां कल्पयति । बचनायुटः सिद्धत्वात् "गिंधाक्चाकोऽसुधियः" [ ८] इति यणादेशो न भवति । अतीति किम् ! उपदीयते । तितोति किम् ? उपादानम् | "गागयोः" [40] इत्येषु । "मिम्मीदीडो प्ये च" [१।३।४३] इत्यात्वम् । यचन्ता. दामा भवितव्यमित्यनुबन्धनिर्देशो विस्पष्टार्थः । पूर्वान्तकरणे उपदिहीविश्वे इयत्र इणन्ताद्गोमत्तरस्य दुत्वं प्रसज्वेत ।
इटि चात्खम् ॥४३६॥ इटि अजादौ च विति परत आकारान्तस्य गोः ग्वं भवनि | पपिथ | जग्लिथ | “वोपदेश" [५1१1१०८) इत्यादिनेट् । पपतुः । पपुः । तस्थतुः । तस्थुः । गोदः । कम्वलः । रितिप्रपा । संस्था । अचीत्येव । दासीय । ग्लायते । "स्मारझेटः" ८६] प्रतीटोऽकारादेशः 1 अग इत्र । यान्ति । व्यत्यस्ले । इटीति यद्यविशेषणग्रहणं तदा मेऽप्यातः खेन भचिनव्यम् । अल्यस्तोति । एतच अगाधिकारेण विरुद्धमिव लक्ष्यते ।
ईधे ॥ ६॥ श्राकारान्तस्य गोरीकारादेशो भवति ये परतः । देयम् । श्रेयम् । ग्लेयन् । "गुकायें निवृत्ते पुनर्न तलिमित्तम्" [१०] इति अनित्यमेतत् | "देवमणे" [३।३।२२] इत्येो निदशात् । योप क्रियते दीत्वोच्चारणं किमर्थम्, १ पीतम् । हीनम् । य इति "निरनुबन्धकमहणे न सानुबम्धकस्य" [५० ] । ग्लायते । म्लायते।
भुमास्थामापाहाक्सां हलि ४/४/६५॥ कितीति पर्तते । 'भु मा स्था गा पा हा सा लगनेवामकारादेशो भवति एलादो किति परतः । भुसंज्ञानाम् । दीयते । देवीयते । धीयते । देधीयते । पीतं यत्सेन | मा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । “गामादाग्रहणेन विशेषः" [१०] इति । मीयते । स्था-स्थीयते । तेलीयते । गा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । गीयते । जेगीयते । अध्यगीष्ट । “लुरु लुकोवों" [१1१1१२२] इति ईको गादेशः । पा इत्यनुचिकरणापियतहणम् । पीयते । पेपीयते । पातेस्तु पायते । पानम् । हात-बहीयते । अवजेहीयते । जिहीतेस्तु हाक्ते । हातम् । सा-अवमीयते । अवसेषीयते । हलीति किम् ? ददनुः । ददुः । कितीत्येव । दाता ।
लिङ्यत् ॥ ६६॥ लिङ परतो भुमादीनामेकारादेशो भवति । देवात् । धेयात् । मेवात् । स्यात् । गेयात् । पेयात् । अबहेप्रात् । अत्रसेमात् । वित्तीत्येव । दासीष्ट ।
वाऽस्थः स्फादः ॥६७॥ श्राकारान्तस्य स्फादेः स्थावर्जितस्य गोरेकासदेशो भवति वा लिङि परता | ग्लेयात् । ग्लायात् । म्लेयात् । म्लायात् । अस्थ इति किम् ? स्यात् । अन्यथोभयप्राप्ती परत्वाटेनेन विकल्पः स्यात् । स्फादेरिति किम् १ वावात् । कितीत्येव । 'लासीट । गोरिल्वेव । निर्यायात् ।
न प्ये पहावाम॥ वेति नाधिकृतमुत्तरत्र वाग्रहणात् । प्ये परतो भुमादीनां यदुक्तं तन्न भवति । प्रदाय । प्रधाय | प्रमाय । प्रगाय | प्रस्थाय | प्रपाय । अवहाय | अवसाय । ईत्वप्रतिषेधोऽयम् । वचनात् "अन्तरानपि विधीन् पहिरङ्गः प्यादेशो आधते" [१०] इति ज्ञापितम् । तेन "दो दोः" [५।२११४८] इति दद्भावः । दधातैर्हि-मादेशः । “हाक क्खि" [५२१४७] | मास्थास्यतीनामित्वं च न भवति । प्यादेशे कृलेऽनल्विधाविति स्थानिवद्भावाप्रतिरिधात्प्राप्तिः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
वेङः || ४|४|६६ ॥ मे ये परतो वा इकारादेशो भवति । अपमित्य | अपनाय | व्यतीहारे' [ २२४५] इति क्त्या ।
३२६
[ श्र० ४ पा० सू० ६६-७६
"माझे
लुङ्लङ्लुङ्यट् ||४|४|७० ॥ लुहि लडि लुङि च परतो गोरडागमो भवति । कात् । करीत् | करिभ्यत् । ऐचिष्ट | श्रीम्भीत् । ऐक्षत । श्रोम्नत् । ऐक्षिष्यत । श्रभिभ्यत् " प्रश्न [ ८३७८] इत्यैर् | ग्रासन् श्रयन् इत्यत्र अवस्थायामडागमेऽन्तरङ्गत्वादन्यावादेशे च कृत इत्यनुवृत्तेः "श्नसः नम्" [४|४|१०१] यणादेशश्च न भवतः ।
न मायोगे ||४|४|१७९ ॥ माङ्योगे डागमो न भवति । मा कार्षीत् । मास्म करोत् । मानिरसीत् । मास्म निरस्ताम् । योगग्रहणं किम् ? मा भवान् कात् । इदमेव जापकं “माङि लुङ” [२|३|१५१] इत्यत्र माङ्योगे लुङ् दृष्टव्यः |
घुमीयु
॥७२॥ भ्रू इत्येतारा गूनामिवर्णो वर्णयोरजादौ परत इ उ इत्यादेशौ भवतः । इतु | प्राप्नुवन्ति । राध्नुवन्ति । धुनिक्षियतुः । चिक्षियुः । लुलुतुः । लुलुवुः | नियौ । नियः । लुवौ । लुकः । भ्रू । भ्रुवौ श्रुवः । निर्दिश्यमानयोरिव वर्ण गोरादेशः । यथा “पादः पद्” [४/४/११६ ] इति पाच्छन्दस्य पदादेशो न पादन्तत्य । नयति । भवति । नायकः । भावः इत्यत्र परत्वादेषौ । अचीतीनिर्देशाद् व्यवधाने न भवति । विविदतुः । विविदुः । गोरित्येव । स्यर्थम् । वर्थम् |
चस्याऽस्त्रे ||४|४|१३॥ चस्येवं योरस्वेऽचि परत इयुवौ भवतः । इयेोर | इयर्ति पूर्वेण गुनिभिसेच आदेश उक्त इति न प्राप्नोति । ग्रस्य इति किम् ? ईपतुः । ईपुः करतुः । ऊधुः । श्रवीत्येव ।
इलाज | उवाय |
स्त्रियाः || ४|४|७४ || स्त्रियाच इवादेशो भवति श्रचि परतः । स्त्रिया । स्त्रियः । परमस्त्रियो । परम स्त्रियः | अलैवानर्थकेन तदन्तविधिः नात्संघातेन । तेन शस्त्रीशब्दस्य न भवति । श्रीणामित्यत्र परत्वान्नुट् । पृथक्करणमुत्तरार्थम् ।
वाम्सोः || ४|४|७|| अन्शसोः परतः त्रिया वा वादेशो भवति । स्त्रियं पश्य । श्रपश्य । स्त्रियः पश्य । स्त्रीः पश्य |
श्रीतः ॥४|४|७६|| आकारादेशो भवति श्रतोऽशसोः परतः । बेति न स्वरितं गां गाः पश्य । द्यां याः पश्य च गोशब्दस्य श्रमि ऐप: पूर्वनिर्णयेनात्वम् । चित्रगुं पश्येत्यत्रान्तरङ्गत्वात्प्रदेशे सत्यात्वानावः । मा सहचरितस्यामी ग्रहणादिह न भवति । श्रचिनत्रम् | असुनरम् ।
यणेत्योः ॥ ४४॥७७॥ यणादेशो भवति एत्योर्सच परतः । यन्ति । यन्तु । अधियन्ति । श्रधियन्तु | " मध्येऽपवादः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोखरान् " [१०] इतीयासस्य चाधा नत्वेवैोः । ययनम् । ग्रायुकः । एर्गिवाचादुङोऽसुधियः ॥ ४|४|७|| गिवाक्यात्परो य उ तस्मादुत्तरस्य इवर्णस्य यणादेशो भवत्यचि परतः सुधीशब्दं वर्जयित्वा । गि:- उन्न्यौ । उन्न्यः । परिएयौ । परिष्यः । वाचः प्रमथ्यौ । ग्रामण्यः । सेनान्यौ | सेनान्यः । चात् चिच्यतुः । चिन्युः । निन्यतुः । निन्युः । गवाक्यादिति किम् ? नियौ । निवः । परमनियों । परमनिवः । उङ इति किम् ? यवक्रियो । यवक्रियः । उङत्र गिवाक्यात्परो न भवति । ककारेण व्यवधानात् । असुधिय इति किम् सुधियो । सुत्रियः । “ध्याप्योर्जिश्व” [उ०सू० ] इति किपू जित्वं च । सुप्योः ॥४|४|१७६९ ॥ श्रजादौ सुपि परतो गिवाक्त्रपूर्वाङः परस्य उवस्य यणादेशो भवति । तुल्बौ । सुवः । सक्कृत्वौ । सकृल्यः । खलप्बौ । खलप्यः । शतस्वौ । शतस्त्रः । सुपीति किम् ? लुलुवतुः । एतदर्थं च योगान्तरम् । गिवाक्चादित्येव । भुवौ । भुवः । लुरौ । लुत्रः । कटकटः । परमलुत्रः । उङ इत्येव
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म. १ पा० ४ सू० ८०-७] महावृसिसहितम्
રૂ૨૭ रन्कारापुनर्वभ्यो भुवः॥४०॥ हन् कारा पुनस् बर्षा इत्येतेभ्ध उत्तरस्य भुयो राणादेशो भवत्यचि सुपि परतः । दृल्यौ । हन्भ्वः । भारावौ । काराभ्यः । पुनम्बौं । पुनः । वर्षाभ्वौ । वर्षाभ्यः । नियमाथोंऽवमारम्भः । एतेभ्यः एत्र भुवो यण नान्यस्मात् । प्रतिभुवी । प्रतिभुवः । स्वयम्भुयो । स्मयम्भुवः । मित्रभुवौ । मित्रभुवः । “भुवः स्वन्तरे" [२१२।१५२] इति विप् ।
लुलिटोर्युक् ॥४ा॥ भुवो युगागमो भवति लुब्लिटोर्राच पग्नः । अभूवन् । अभूवन । "स्थेरिप" [300१४६] प्रत्यादिना सेरुप् । मिपोऽमादेशे "खूभवायोमिहि" [५२।६) इत्योप प्रतिघिद्ध बुक् । लिटि-बभूव | अभून्त्रिथ । बभूवतुः । बभूवुः । गलि थे च पूर्यविप्रतिषेधेनै बेपोर्नुका साधा | लुङ्लिटोरिति किम् ? व्यतिमविपोष्ट | ओरित्यनुवर्तते तेन यचन्तस्य परत्वादेपि कृते न भवति । अयोभवम् ।
हुश्नुवोर्गे व ॥ २॥ हुश्नु इत्येतयोरुकारस्य नकारादेशो भवन्यजादी गे परतः । जुई यनि । जुहचतु | चिन्वन्ति । "ग्रहाउभन्दशाम" [
१६] इस्वतो मण्डकगत्याऽग्रहणमनुवर्तते । तेनाच उत्तम्य श्नोमाः । इह मामा-मनुवन्ति ' राजवन्ति ! हुनलोरिति किम् ? योयुवति । गेरु वति । वादिन्यनवर्तनात्प्रसज्येत | ग इति किम् ? जुहुवतुः । जुहुयुः । जुहवानि चिनबानीत्वा पर वादे । गोहेरूडाः ॥
४ ३॥ गोद उटु ऊकारादेशो भवत्यचि परतः । निगृहत्यति । निगृहकः । माधु निगृही । निगृहन्ति । निमूहम् । निगूहो वर्तते। गोहेरित्येपं कृत्या विननिदेशः किम ! यत्रात्यैतद्वर्ष नत्र यथा स्यादिह माभूत् । निजुगुष्ठतः । निजगुहुः । उड़ इति किम् ? अन्त्यस्य मा भृत् । प्रकृतिग्रहगो यजन्तस्य पनि जोगूह इत्पत्र चस्य च मा भूत् । ओरित्यनुत्तेः तद्विकारस्य चस्यापि प्रसउत । अचान्येव । निगोदा। निगोदुम् । ऊ इत्यविभक्तिको निर्देशः । द्विमात्रयायमादेशः । अन्यथा एप्रतिषेधः क्रियते ।
दोपो णौ ॥२४॥ दोन उङः ऊकारादेशो भवति गौ परतः । दूपयति । दूषयो । दोष इति विकृताहणं किम् ? एपि कृते ऊकारी यथा स्यात् । अन्यथा प्रदूष्य गत इत्यत्र ऊकारस्यागिद्धलागणेग्वादेशः असज्येत । एपि कृते धिपूर्वत्वं नास्तीत्यमातिः । णाविति किम १ दोपणं दोपः ।
वा चित्तचिकारे |८५॥ चित्तविकारेऽथ दोषो णौ परत उडो का ऊकारादेशो भवति । चित्त दूपर्यात | चित्रं दोषयति । प्रज्ञा दूषयति । प्रज्ञा दोषयति। दोपमाचष्टे दोषयतीत्यत्र टिखस्यामिद्धत्वादुइः ओः स्थाने विकारो न भवतीत्यप्राप्तिः । चित्तविकार इति किम् ? एकान्तवादप्रयोगं दूपयति । गावित्येव । चित्तस्य दोषः।
भिणमोर्दोमिताम् ॥ ८६॥ त्रिणम्परे गौ परतो मितां गूनामुङो बर दीर्भवति । अघटि । अघाटि । घटं घटम् । घाट घाटम् 1 अशाम । अशामि | शमं शमम् । मामं शामम् । घटते कश्चित् । शाम्यति कश्चित् । तमन्यः प्रयुड्यते इति णिच् । उङ ऐप् । वक्ष्यमाणेन ":" [ere७) इत्यनेन प्रादेशः । नौ णमि चानेनोखे बा दीत्यम् । ननु प्रदेश एवं विकल्यः । दीरिति किमर्थम् ? न शक्यमेवम् । शमयतेणिचि कृते गौ गिखस्य स्थानिवद्भावात् उडः प्रादेमाविकल्पो न स्यात् । दीवविधौ तु न स्थानिवद्भाव इति पिरो गिमितोऽनन्तर इनि दीत्वविकल्पः सिद्धः। अशमि । श्रशामि | तथा अत्यर्थ शाम्यतीति यङ् । शंशम्यतेणिच । “अतः स्वम्" [१४/५०] । "हलो यः" [ ५] इति यखम् | अत्रापि योऽकारस्य दीवविधि प्रति न स्थानिवद्भाव इति अशंशामि । नवाऽत्रासिद्धत्वं शंक्यम् व्याश्रयत्वात् । णौ हि णिवडोः ग्वं भिणम्परे गौ गोटींचमिति ।।
प्रा॥४॥४७॥ णाविति वर्तते । मितां गूनामुङः प्रो भवति णी परतः । घटयति । व्यथयति । जनयति । "जनिबध्योः' इति जिकृतोः परत पेप्प्रतिषेधः उक्तस्ततो अरन्यदुदाहरणम् | मितामिति किम ? कामवति । आमयति । चाममति | "म कम्पमिषमाम्" इति मित्संज्ञाप्रतिषेधः । प्रशमय गन इत्यत्र णात्रुङः प्रादेशः
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जैनेन्द्र व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० ८-१० प्ये परतो ऐरयादेश इति व्याश्रयत्वाबादेशस्यासिद्धत्वं न भवति । कथं संक्रामयति । केचिद् केन्यनुतयन्ति | सा च व्यवस्थितविभाषा ततो न दोषः ।
खचि ॥४ाया|| खच्यरे णौ परतो जोमतः यो भवति । युगन्धरः | वसुन्धरः | "भृतवृजिधारिसहितपिदमः खौ" [२।२३४] इति खन् । “वियझेः" [॥३।१७६] "मुमचः" [१1३1300] पनि मुमागमः ।
हादस्ते ।।४।४।८६॥ हादस्ते परत उङ्गः पो भवति । प्रहलनः 1 प्रहलनवान् । त इति किम ? प्रहलादयति । हलाद इति योगविभागान्ग्रहलत्तिः।
छादेर्थे १६०॥ श्रादेय परत उडः प्रो भवति । पन्छदः । उपच्छदः । “तिकुप्रादयः" [३३] इति षसः । उरश्छदः । तनुच्दः । कृयोगे तासः 1 छद अपवारणे इति चौरादिकः । अन्मान् "पुग्यो घः प्रायेण" [२२३॥१५०]
दाते जिस्तत्व निम्, पर यो" ५५ इति मानियायो या वचनसामर्थान्न भवति । ततः उप प्रादेशः | ३ इति वि.म ? प्रच्छादनम् । तनुश्छादनम् ।
नानेगेः ॥४१४६१॥ अनेको गिर्यस्य तस्य छादेरुङः पो न भवति । समुपन्छादः । एकगिरगिश्च यादिः पूर्वेण प्रादेशं प्रयोजयति ।
मन्त्रेस्किषु ॥ २॥ मन् त्र इस दि इत्येते परतश्छादकः प्रो भवनि । छद्म । छत्रम | छदिः • समु छन् । उपच्छन् । “सर्वधुभ्यो मन्त्री ” [उ० सू०] उणादिषु विहितौ । “अचिशुचिजसपिछादिव दिभ्य इस्" [उ० म०] इति इस् । “छादे" [४|४|१०] इत्यतः पृथकारणमनेकगेरपि प्रादेशार्थम् । समुपच्छत् । सभुपाचिच्छत् । सिसिंधसामि प्रत्वम् ।
गमहनजनखनसां क्डित्यनकि ।। ३।। गम हन जन खन चम इत्यतेषां कुछ वं भवनि अनङि किति झिति परतः। अनीति किम् ? अगमत् । अघसत् । कलीति किम् ? गमनम् । गमनीयम् । अचौ-येय | गम्यते । हन्यते ।
हुझलभ्यो हेर्थिः ।।४।४१९४॥ हु इत्येतस्मात् झलन्तेभ्यश्चोत्तरस्य हेर्धिरित्ययमादेशो भवति । जुहुधि | शलन्नोभ्यः-छिन्धि । भिन्धि । "नसः खम्" [ १] इत्यखत्य अनुस्वारविधि प्रति नत्थानियत्वम् इति अनुस्वारपरस्त्रत्वे । भल्भ्य इति किम ? लुनीहि । हरिति किम, ! युवां जुहुतम् । “भुमास्थागापाहाक्सां हलि" [ ५] इत्यतो मष्ट्रकगत्वा हल प्रहणमनुवर्तते । तेनाहलादेन भवति । हदिहि । स्वपिहि 1 अथवा अत्र परत्वादिष्टि कृते "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एवं" [प० । जुहुतात्वं भिन्तात्वमिन्यत्रापि परस्त्रात्तातकादेशः ।
भेरुप ॥४१॥६५॥ मत्तरत्य उन् भवति । अकारि | अलावि । लावस्थायामडागमः। यश्चानुप् । खमिति वर्तते। उग्रहणणे सर्वापारार्थ परल्यादेर्मा भूत् । गोरिल्यधिकारान् गोनिमित्ताय न्यस्योंविधानादिह भवति अपाटि प्रन्थः । अकारितरामिल्यत्र तखस्यासिद्धत्वान्न भवति । व्यक्ती हि पदाथै प्रतिव्यक्ति लक्षणं भियते इति तदेव शास्त्र तस्मिन् कथमसिद्ध मिति नामांकनीयम् ।
अतो हेः॥४६॥ अकान्तागोरुत्तरस्य हेरुन्भवति । पच । कृप । गछ । अत इति किम् ! युहि । महि । तपरकर किन ? याहि । लुनाहि । ईत्वस्यासिद्धत्वादाकारः । इरिति वर्तमाने पुनरिति किम् ! हिंव यो हिस्तरको वया स्वात् इह माभूत् । जीवतात्त्यम् ।
उतस्त्यावस्फात् ॥४ा। अस्मात्परो य उकारस्तदन्तात्यादुत्तरस्य हेरुन् भवति । चिनु । मुनु । तनु । कुरु । तन्वादिषु व्यपदेशिवदाबावुकारान्तत्वम् | उत इति किम् ? लुनीहि । जानीहि । त्यादिति किम ? शुद्धि । रुहि ! अस्थादिति किम ? आप्नुहि । ताहि ।
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प्र० ४ पा० ४ सू० १८-२०६] महावृत्तिसहितम्
वा म्वोः खम् ॥४ाथामा अस्फात्परो य उकारस्तदन्तस्य वा खं भवति मकारवकाराठी परतः । सुन्यः । सुनुवः । सुन्मः | मुनुमः | सुन्वहे । सुनुवहे । सुन्महे । मुनुमहे । तन्यः । तनुवः। तन्मः । तनुमः । उरिति वर्तमाने खग्रहणमन्तेऽलो नाशार्थम् । उत इत्येव । कोणीयः । कोणीमः । त्यस्येत्येव । युवः 1 रुकः । अस्मादित्येव । अानुवः । तक्ष्णुषः । सुनोम्यादिपु परत्त्रादेप् ।
जो ये च ॥ ६६॥ कृन उत्तरस्य उतः ग्वं भवति यकारादी म्योश्च परतः । कुर्यात् । कुर्याताम । कुर्युः । कुर्वः । कुर्मः । कुर्वहे । कुर्महे । नित्यत्वाखे कृते “त्यस्ये स्याश्रयम्" [१६३] इत्येप् । म्वोग्नुकर्षणाचिकारात् जायते वेति निवृत्तम ।
गेऽत उत्त् ॥ १०॥ उत्यान्तस्य करोतेरकारस्य उकारादेशो भवति किति परतः । कुरुतः । कुर्वन्ति । कुरुथः । कुरुथ । कुर्वः । कुर्भः । उदिति तपरकरणाद्विकरणमपंक्ष्य भ्युम्न भवति । ग इति किम् ? भूतपूर्वऽपि गे यथा स्यात् । अत इति तपरकरणमुत्तरार्थम् ? कितीत्येव । करोमि | करोपि । करोति । एपि कृते उभारान्तत्याभावाद्वा न भवति । "अनन्स्यविकारेऽन्त्यसवेशस्य प०] इति अकुरुतामित्यत्राटो न भवति ।
श्नसा खम् ॥४४॥२०१॥ श्नमः अस्तेश्च अतः स्वं भवति गे वित्ति परतः । भिन्नः । मिन्दन्ति । छिन् । छिन्दन्ति । अखत्यासिद्धत्वाखालुडो नकारस्य ख न भवति । अस्तेः स्तः । सन्ति । वित्तीत्येव । भिनन्ति । अस्ति । श्नस इति श्नमो माटमकारस्य पररूपत्वं ज्ञापकं शकन्थ्यादिषु पररूपं भवति । अत इति तपरसारणस्यानुवत्तिः किमर्था । आस्ताम् अासन्नित्यत्र लावत्थायामागमे ऐपि च कृते माभूत | नवटोऽसिद्धत्वादाका खं न प्राप्तम् इदमेव तपरकरणं ज्ञा पकम् अभान्छालस्य क्वचित्सिद्धता । तेन देभनुः । देभुरित्यत्र नखस्य सिद्धल्यादेवचस्खे भवतः।
थश्नोरातः ॥१२॥ थसंज्ञकस्य श्ना इत्येतस्य च य आकारस्तस्य खं भवति गे किति परतः । मिमते । मिमताम् । अमिमत । सजिहते । संजिहताम् । समाजहत | “हेऽमतः [५1५1५] इति भस्यादादेशः । लुनते | लुनतान् | अलुनत । पुन पुनताम् । अपुनत | हलीत्वं वक्ष्यते। तस्मादचि स्त्रम् । भुसंशकानां हल्यपि दत्तः । दत्से | थश्नोरिति किन् ? यान्ति । वान्ति ! आत इति किम् ? निम्नति । इति । कितीत्येव । जहाति । लुनाति ।
• हल्यभोरी ॥४९.३॥ हलादी शिति परतः थश्नोरात ईकारादेशो भवत्यभोः। सनिहीते । सजिहीर्घ । मञ्जिहीवे । मजदीबहे । सञ्जिहीमहे । मिमीते । मिमीपे । मिमीध्वे । मिमीवहे । मिमीमहे । लुनीतः। लुनीथः । लुनी । जुनीचे । जुनीवहें । लुनीमहे | अभोरिति किम् ! दत्तः। द्वितीत्येव । जहाति । तुनाति। --
इहरिद्रः ॥ १०॥ इकारादेशो भवति दरिदातेहलादी गे किति परतः । दरिद्वितः 1 रिद्रियः । दरिद्रिवः । दरिद्रिमः । “जनित्यादयः" [३५] इति यसंज्ञायाम् पूर्वेण हलादावीत्वं प्राप्तम । हलीत्येव । दरिद्धति । कितीत्येव | दरिद्राति | "भियो धा" [ ५] इत्यतः सिंहावलोकनेन वेति व्यवस्थितविभाग संबध्यते ततो दरिदातेरगविषये बहुलं रख भवति | दरिद्रातीति दरिद्रः । अदरिद्रीत । खे सत्याकायन्तलक्षणी “यमरमममातः सन" [५।३।१३२] इति सगिटौ न ।
भियो वा ॥४।५।२०५॥ भी इत्येतस्य वा इकायदेशो भवति हलादौ ग किति परतः । बिभितः । बिभीतः। विभिथः । विभीथः । बिभियः । विभीवः । बिभिमः । बिभीमः । हलोल्येव । बिभ्यति । ग इत्येव भीतः । भीयते । स्त्येिव । बिभेति ।।
हाकः ॥ १०६॥ हाकश्च वा इकारादेशो मयति हलादो गे किति परतः । अहितः । जहाँसः । जहिथः । जहीथः । जहिवः । जहीवः । जहिमः । जहीमः 1 पते हल्यभोरीः" [४।१०३] इतीत्वम | यस्ये.
४२
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३३०
[ श्र० ४०० १०७-११५
स्पनुवर्तनात् हिले कृते हत्यादिविनिः । अथवा अल्पाश्रयावनान्तरङ्गत्वाप्रागेव द्वित्वम् । हलीयेव । जति ग इत्येव । होनः 1 हीयते । जेहीयते। योगविभाग उत्तरार्थः ।
यहाँ || ४|४|१०७ ॥ हाक आकारादेशो भवति इच्च वा हौ परतः । जहाहि । जहिहि । जहीहि । खिम् ||४|४|१०८ ॥ यकारादी में किति परतो हाक एवं भवति । जह्यात् । जयाताम् । इत्येव । होयते । जेहीयते ।
ग
भ्सोरेच्च खं हौ ॥४४॥ १०६॥ सुसंज्ञकानाम अस्तेश्च हो परत एकादेशो भवति यस्य च भू | दहि | हि । त्रि । त्रमिति वर्तमाने पुनः ग्रहणं सर्वस्य चत्व नाशार्थम्। तैश्च खं न सम्भवति । "श्नसः लम्” [४|४|१०१] इत्यखम् । अनेन सकारस्यैवम । हाविति वर्तमाने पुनहविति किन ? रूपान्तरापत्तौ माभूत् । दत्तात् | धत्तात् । स्तात् ।
तो हमध्येऽनादेशादेर्लिटि || ४|४|११|| होर्मध्ये वर्तमानस्य एकदेशच लिटि िित परतः । पेतुः पेतुः शेकतुः | शेकुः । रेणतुः | रेणुः । हल्मभ्य इति किम ? | आ: । त्रपग्रह नियमार्थं वक्ष्यति । अनेक हलमध्यगतस्य रेव नान्यत् । ततः पा पाथरे । लिटीति किम् ? पापच्यते । पापयते । अन इति किन ? विदितुः । दिदिवुः । उपकरणं किम् शशासतुः । शशामुः । द्वितीयेव । अहं पपच । “फलिभोः " ४४३३२] इति नियम यो रेत्र लिस्यादेशाचीरं चरखे भवतो नान्यस्य । बभगतुः । श्रभः । चक्रतुः । चशुः । नमोस्तु लिहू यः प्रागेव त्वत्वे भवत इति नियमान्न निवृत्तिः । नेम्लुः । नेमुः सह । सेहा | मेहिरे |
सेटि || ४|४|१११ ॥ सेटि च लिटि परनो हलमध्येप्त एवं नवति चत्यच खम् अपि यथा ना दिपारम्भः । पेचिव 1 शेकिथ मिश्र | "वोपदेशे [ ७/३/३०८] इत्पादिना । सेटील किए? पथ | लियोत्येव । पठितः । पठितवान् । त इत्येव । दिविथ |
I
फलिभजोः || ४|४|११२ || फलि भनि इत्येतयोरत एवं सति स्यवं लिटि ति टिन परतः । फेरतुः । फेलुः 1 फेलिथ भेजतुः । भेतुः । भेजिय । भेजे जाते । भेजिरे । नियमार्थोऽयमारम्भः | फल्लिभजोरेवलियादेशाचोर्नान्यस्य । श्रतुः । चक्रमुः । चकशिश । भगातुः । भ्रणुः 1 भथि | फभिजोर्विकारलक्षण आदेशः अन्यस्यापि विकारादेशादेर्निवृत्तिः शशिदद्यः प्रतिषेधाच। तेन प्रतिचरां प्रकृतिचः प्रकृतिजशां प्रकृतिजशेो भवन्तीति । नात्र नियमान्निवृत्तिः । तेनतुः । तेनुः । देवः | भुः ।
|| ४|४|१३|| तु पित्येतयोस्त एवं भवति चस्य च लिटि ति ट थलि च परतः । तेरतुः । तैरुः | तेरिथ | "ऋच्छताम् ” [ २४२३] इन्ये । त्रेपाते । त्रेपिरे । " श्रन्येश्चेति चतव्यम्" [चा०] श्रं धतुः । श्रेश्रः । उपसंख्यानेन लिया कित्वम् । इदमपि नियमार्थं सूत्रम् । एम्निव्रं तस्य तस्तरतैरेव नान्यस्य | विशशरतुः । विशशः । विशशरिथ । लुलविथ । अनेककइल्मध्यगतस्य पेरेव नान्यस्य । ततः । तत चिथ | ममन्यतुः | ममन्युः । भमन्थिय |
घधे राधेः ॥४४॥११४॥ राधेऽहमध्येऽवस्यैवं भवति चल च वं लिति किति नौर थान च परतः । परिग्थे । परिरेधाते । परिधिरे । कर्मणि दविधिः । परिवतुः । परिरेधुः । परिरचिय व इनि किम् ? चारचतुः । आरराधुः । रराधिथ ।
या भ्रमाम् ||४|४|११५ ॥ भ्रम् स् इत्येतेषामतो वा एवं भवति चस्य च मेटि च परतः । जेरतुः । जेरुः । जेरिथ । भ्रमतुः । श्रेः । प्रेमिध | खतुः । त्रेतुः । खिथ रतुः । नजरुः । जजरिथ । श्रमतुः । बभ्रमुः । अभ्रमिश्र | तत्रसतुः । तःसुः । तत्रमिव । स्यैग्निर्वृत्तस्य न भवतीति जृपोऽप्रतेि । भ्रमेरादेशादित्वात् बसेर नेकहमध्यातावाने विकल्पः ।
लिटि ि पढ़े जज गाउन्य
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० ४ ० ४ सू० १६६ - १२४ ]
महावृत्तिसहितम्
३३९
फणां सप्तानाम् ||४|४|११६ ॥ फादीनां समानां वा एवं भवति वस्य च वं लिटि ङ्गिनि सेटि च परतः । फेणः । फेणुः । फेणिव । पफणतुः । पफग्गुः । पफणिध । रेजतुः । रेजुः । रेमिश्र रगनतुः । रराजुः । रराजिव | भेजे जाते। ब्रेजिरे । बभ्राजे । भ्राजाते । भ्रादिरे । भ्रे । चभ्रामे भने । चलासे । स्पेमतुः । स्येमुः । स्येमिथ । मस्यमुः । सस्वमिथ । स्वेनतुः । स्वेनुः । स्वनिथ । सत्वनतुः । सस्नुः । सस्वनिथ । ससानामिति किम् ? दध्वनतुः । दव्यनुः । जज्वलतुः । बज्वलुः । जज्यतिथ |
I
न शसदवादीनाम् ||४|४|११७॥ स दद इत्येतयोर्वादीनां च लिटि डिति सेटिं च परत ए चखे न भवतः । विशशसतुः । विशशसिंथ । दददे | ददाते । दददिरे । वादोनाम चतुः । वतुः । | ववले | वबलाते । ववलिरें |
भस्य ॥११८॥
या पादपरिसमाप्तेः । वक्ष्यति "पादः पत्" [४|४|११ ] इति । द्विपदा । द्विपदे । भस्येति किम् ? दिपादौ । द्विपादः । घे मसंज्ञा न भवति ।
पाचः पद् ||४|४|११६ ॥ पादन्तस्य गोर्भस्य पदित्ययमादेशो भवति । द्विपदः पश्य । द्विपदा द्विप | द्वौ पादावस्येति बसे "सुसंख्या: " [४।२1१४०] इति पादस्यातः स्वम् | "निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति" [प] इति पच्छन्दस्य पदादेशः । द्वौ द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां ददाति । "संख्यायाः पादशतेभ्यो बीप्सादण्डस्यागे जुन्” [४।२।१० ] खं च । वैयाघ्रपद्यः । व्याघ्रस्येव पादौ यत्व " खं पादस्याहस्त्यादेः " [ ४।२।१३६ ] इति खन् । गर्गादित्वाम् । भस्येति किम् ? द्विपाद्भयान् । द्विपादिः । पादवतः स्त्रियन्तस्य प्रयोगो नास्ति |
वसोर्जिः ॥ ४४१२०॥ वस्वन्तस्य गोर्भस्य निर्भवति । उपसेदुः पश्य । उपसेदुषा । उपसेदुषे । " सदियो वसुमिम्" [] इति वसुः । द्वित्वम् । हलमध्ये लिय्यत इति एरवचखे । क्रादिनिव मादिदू | जौ कृते निमित्ताभावादिनिवृत्तिः । मस्येत्येव । विद्वस्यति । विद्वस्यते । क्यच्वयङोः स्वादियाभावाद्धसंज्ञा नाहि । “नः क्ये " [१|२| १०४ ] इति नियमात्पदज्ञाविरहेण रित्वाद्यभावः ।
वयुवमोनोऽति ||४|४|१२१ ॥ श्वन् युवन् मघवन् इत्येतेषां निर्भवति श्रति परतः शुनः पश्य | शुना | शुने | यूनः पश्य | यूना | चूने | "श्रनन्स्य विकारेऽन्त्य सदेशस्य " [४०] इति यकारस्य न भवति । मघोनः पश्य । मघोना मघोने अतीति किम् ? शीवनं मांसम् बोधनं वर्तते । माघवनम् | शुनो विकारः “प्राणितालादेः " [ ३।३।१०५ ] इत्यण् | "द्वारादेः " [ ५२18 ] इत्यच् । यूनो भावः 'हायनान्तयुवादिभ्योऽणू" । मघोन इदम् । उत्तरत्र अन इति योगविभागः । अनन्तानां श्वादीनां निर्भवति । तेन युवतीः पश्येत्यत्र "मृद्महणे लिङ्गविशिष्टस्य " [४०] इति न भवति ।
मात् ||४|४|१२२ ॥ अनन्तत्याखं भवति स वेदन् मकारवकारान्तरकालशे न भवति । राज्ञः पश्य । राज्ञे । “पूर्वासिद्धे न स्थानिवत्" इति चुत्यम् । तक्ष्णः पश्य । तदा । तंी । अन्नन्तु स्येति वचनातू राजकीय इत्यत्र न भवति । अम्बस्फादिति किम् ? धर्मणः । वर्मणे । तत्रचूनः पश्य । तवदृश्वना । तच्चदृश्वने ।
बादिहन धृतराशोऽणि ॥ ४|४|१२३|| एकारादेरनः छन् धृतराजन इत्येतयोश्वाणि परतोऽकारस्व खं भवति । श्राच्णः ! ताक्ष्णः । हन्- भ्रौणग्नः । यानः । श्रुतराजन्धार्तराज्ञः । श्रपत्यार्थेऽणु “श्रनः” [४|४ |१५८ ] इति अखखियोः प्रतिषेधे प्राप्त सूत्रम् । एतेषामिति किम् ? सामनो धौमनः । वाण्यः । " सेनान्तलक्षण” [३११।१३०]] इत्यादिना एत्रः |
या ङिश्योः || ४|४|१२४ ॥ श्रनोऽकारस्य वा वं भवति ङौ शौशब्दे च परतः । राज्ञि । राजनि । लोम्नि | लोमनि । साम्नी ! सामनी । दाम्नो दामनी | भल्येत्यधिकारात् “नपः " [ ५।१।१६ ] इन्यनेनादिष्टः शीशब्दो गृह्यते ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ४ पा० ४ सू० १२५-१३३
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ः ॥४४॥१६॥ श्रच सत्यञ्चेर्नष्टनकारो ग्रह्यते । तदन्तस्य गोरकारस्य स्वं भवति । प्रतीचः पश्य । प्रतीचा । प्रतीचे । मधूचः पश्य । मधूचा | मधूचे । भस्येत्येव । प्रत्यञ्चमिच्छति प्रत्ययति । कन् । स्वादिष्वभावात्पूर्वस्य भसंज्ञा नास्ति । श्रच इति नष्ट नकारग्रहणं किम् ? प्रत्यञ्चः पश्य । प्रत्यत्वा । प्रत्यचे। " नाओ: पूजे " [ ४|४|११ ] इति नखाभावः ।
३३२
दः || ४|४|१२६ ॥ उद: परस्याच ईकारादेशो भवति भस्य । उदीचः पश्य । उठीचा उद्रीने । उदीच्यः | "युप्रागप्रागुदप्रतीचो यः " [शशक० ] इति यः । श्रखापवादोऽयम् ।
श्रतो धोः || ४|४|१२७ ॥ श्राकारान्तस्व श्रोर्भस्यवं भवति । कीलालपः पश्य । कीलालपा । कीलाल | शुभ्यः पश्य | शुभंया । शुभंये। आत इति किम् ? आमराया । आमए ये । धोरिति किम् ? मालाः पश्य । "जुनश्चः मस्त्यः " [५|१|१०३] "थइनोरातः” [४|४|१०२ ] इत्यादयः सौत्रा निर्देशाः । भस्येत्येव । क्षीरपायिच्छति क्षीरपीयति ।
तोब शतेर्डिति || ४|४|१२८ ॥ भस्य विंशतेर्डिति परतस्तिशब्दस्य स्वं भवति । विशत्या कोतो विशकः । ." विंशतित्रिंशद्भ्यां दुरखौ" [ ३|४|११ ] इति कुः । तिखे कृते "पुप्यतोऽपरे” [ ४३८४] इति पररूपत्वम् । विंशतैः पूरणं विंशं शतम् । विंशतिरधिका श्रस्मिन्निति " तदस्मिन्नधिकमिति शद्दान्ताः " [ ३२४/१६७ ] “विंशते” [३।४।१६८ ] इति ङः । आसन्ना विंशतेरिमे श्रासन्नविंशाः । "संख्येये [११३८७] इत्यादिना सः । “संख्यावाडोऽबहुगणात्” [४/२/६९ ] इति डः सान्तः । द्वितीति किम् ? विंशत्या |
हरवतकस्य दिति परतः खं भवति । त्रिंशता क्रीतः त्रिंशकः । विंशं शतम् । ग्रासन्नाश्चतुर्णामिमे ग्रासन्नन्वताः । कुमुद्वान् । नचान् । वेतस्वान् । कुमुदा यस्मिन् देशे सन्ति " कुमुद्रनइवेतसाङ्कित्” [३।२।६७ ] इति मनुः । नलम् । नडा अस्मिन् देशे सन्ति "नवशादाङ्कित्" [३/२२६१] इति बलः । डिस्करणसामर्थ्यादमस्यापि देः खम् । अतएव उपसरे जात उपसरजः । मन्दुरायां जातः मन्दुरजः । "रखे चापः क्वचिखौ " [ ४।३।१७३ ] इति प्रः ।
नोऽपुंसो वृति. ॥४|४|१३०॥ नकारान्तस्य भस्य इति परतष्टिखं भवत्यपुंसः । श्राग्निशमिः । देवशमिः । औलोमिः । बाहूवादित्यादि । न इति किम् ? वैद्युतोऽग्निः । पुंस इति किम् ? पुंस इदं पोस्नम् । "स्त्रीपु साम्नुक्त्वात्” [३।१।७२ ] इति अञ्नुको । छतीति किम् ? शर्मणा । शर्मणे । भस्येव । शर्मा भगतं शर्मक्षयम् । शर्ममयम् । " हेतु मनुष्याद्वा रूप्यः " [ ३३३३५५ ] इति रूपमयदौ ।
सब्रह्मचार्याः || ४|४|१३१ ॥ सब्रह्मचारित्रित्येवमादीनां हृति देः खं भवति । सब्रह्मचारिणः शिष्यः सामाचारः । पीठसर्पिणोऽयं पैटसर्पः । कलापिनोऽयं कालापः । अथवा कलापिना प्रीकमधीते शौनकादेषु वैशम्पायनान्तेवासित्वाणिनि प्राप्ते " कलापिनोऽय् " [३।३७६] इत्यण् । "तस्पधीते” [३१२१५१] इत्यण | "उपयोक्कात्” [३।२१५४] इत्युप् | "छन्दोमाह्मणानि चाश्रव" [३|२| ५६ ] र्शत अध्येतृवियता । कुथुमिनः शिष्यः कौथुमः । तितिलिनः तैतिलः । जजलिनः जाजलः । श्रन्येषां तैतिलिजाजलिशब्दावाचार्यवचनावुपचाराद् ग्रन्थोऽपि तयोरुक्तः । तमधीते तैतिलः । जाजलः । लाङ्गलिनः शिष्यः लाङ्गरिनमधीते या लाङ्गलः । शिलालिनोऽयं शैलालः । शिखडिनोऽयं शैखण्ड: । सूकरसभनोऽयं सौकरतनः । सुपर्वणः सपत्रः । इमन्तानां "प्रायो ऽनपत्ये ऽग्निः” [४/३/१५५] इति टिखप्रतिषेधः प्राप्तः ।
इवाश्मचर्मणां सङ्कोचविकार कोशेषु ||४|४|१३२ ॥ श्वन् अश्मन् चर्मन् इत्येतेषां संकोच विकार कोश इत्येव हृति : खं भवति । शौकः संकोचः । शौवनोऽन्यत्र । कथं शौवं मांसम् | "अलः” [४।४।१५८] इत्यत्र मायोमहानुत्तर्विकारे विप्रतिषेधो नेष्यते । श्मनो विकार श्राश्मः । श्रश्मनोऽन्यत्र । चार्मः कोशः । चार्मणोऽन्यः ।
A
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श्र० ४ ० ४ सू० १३३ - १४० ]
महावृत्तिसहितम्
टखोरेचाः || ४|४|१३३॥ ग्रनित्येतत् खोः परतः भवति । द्वयहः । व्यहः । द्वे अहनी समाहृते, त्रयाणामह्नां समाहारः रसे कृते " राजाहः सखिभ्यष्टः " [ ४/२/६३] इति टः सान्तः । “न समाहारे" [२१] इति श्रादेशप्रतिषेधः । द्वे अहनी भूतो भावी वा दूधहीनः । त्र्यहीनः । हृदयं रसः । " समायाः वः” [ ३२४८२] इत्यधिकारे “राम्यदः संवस्रात्" [ ३४८४] इति खः । ग्रह्नां समूहः अहीनः । हृत इति बहुवचननिर्देशात्खः । दखोरेवेति किम् ? अह्ना निर्वृत्तमाहिकम्। " तेन निर्वृस:" [ ३।४।७५] इनि प्राग्यष्ठञ 1 एवकार इष्टतोऽवधारणार्थः । अह्न एवं टखोरिति मा भूत् । एवं हि मद्रराज इति न स्वत् । “खेऽध्वनः” [४।४।१६०] इति प्रतिषेधारम्भात् दृष्टोऽवधारणे प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् ।
कोरोऽस्वयम्भुवः ||४|४|१३४|| कर्मशब्दस्य उन्च भने इति परत श्रारादेश भवति स्वयम्भूशब्दं वर्जयित्वा । कवा अपत्यं काद्रवेयः । " स्त्रीभ्यो ढण्” [ ३(१।१०६ ] इति दण् । "लम्" [४|४|१३५] इत्यस्यापवादार्थ कद्रग्रहणम् । उवर्णान्तत्य माण्डव्यः । बाभ्रव्यः | औपगवः । कापटवः । अवभुव इति किम् ? स्वायम्भुवं धाम स्वायम्भुवी प्रक्रिया । "तस्येदम्" [ ३३८ ] इत्यम् । श्रोत्वं प्रतिदि उत्रादेशः |
ढे खम् ||४|४|१३५|| दे परत उन्तत्व खं भवति । कामण्डलेयः । शतिवाहेयः । जामेयः । "बाह्नन्तकदुक्रम गजलुभ्यः खौ" [३|१|६० ] इति ऊत्ये कृते । ग्रपत्यार्थे “चतुष्पाद्भ्यो ढञ् " [३।१।१२३ ] इति ञ । जान्त्राः जानेय | "द्वयचः " [३|१|११०] इति ढण् । इयुवौ परत्वात्वं बाधते । वाल्सप्रेयः । लैवानेयः । वत्सीः चतुष्याद् | लेखाः शुभ्रादिः । ट इति किम् ? कमण्डलवे हिता कमण्डलल्या मृत् ।
थस्य द्यां च ||४|४|१३६॥ इन्ान्तस्य च स भवति ङीत्ये हृति च परतः । दाक्षी | लाक्षी । "इसो मनुष्यजातेः " [३।१।५५ ] इति ङीः । स्त्रेको दत्वे क्रियमाणे श्रतिमखेरागच्छतीत्यत्र दोषः स्यात् । सखीमतिक्रान्तः अतिसखिः । " श्रीगोनीचः " [9191 ] इति प्रादेशे कृते सम्भ्यख्योरेकादेशः सत्रिशब्दबद्ध वतीति “स्वसखि” [११६७ ] इति सुसंज्ञाविरहादेग्न स्यात् । खे तु न दोषः । अवर्णान्तस्य गौरी कुमारी । छति - नामेवः । नैवेयः । " इतोऽनित्रः " [३|१|१११] “द्वयचः " [३ | १|११० ] इति दण | श्रीमतः । नन्दत्य- देवदतिः | वायुवेगेयः ।
मत्स्योङयोङयाम् ||४|४|१३७॥ मत्स्यशब्दत्व उसे वकारस्य व भवति ङोयें परतः । मत्सी । "गौरावेः " [२।११२३] इति ङोः । भवस्यापत्यं स्त्री नात्सी । "द्वधन्मगध” [३|१|१५२ ] श्रादिसूत्रेणाय् । तदन्तान्ङोः । ङयामवर्णखस्यासिद्धत्वादुङ यकारस्य स्वम् । अणि परतोऽस्त्रस्य व्याश्रयत्वासिद्धत्यम् | जङ इति किम् १ मल्यचरी । यग्रहणमुत्तरार्थम् । व्यामिति किम् ? मत्स्यत्येदं मात्स्यम् ।
सूर्यागस्त्ययोश्छे ||४|४|१३|| सूर्य अगस्त्य इत्येतयोश्छे ङयां व परत उङो यकारस्य खं भवति । खौरीयः । सौरी | आगस्तीयः । आगन्ती । सूर्वागस्यशब्दो केवल ड न प्रयोजयत इत्ययन्तौ गृपते । सूर्यो देवता अव सौर्यः तस्यायं सौरीवः | सूर्यस्येयं सौरी । श्रगस्त्यस्यापत्यम् विवाद | श्रागस्त्यः | तस्याव मागस्तीयः । लेां चाऽतः स्वस्यासिद्धत्वादुङ् वकारः । अण्यस्वस्य व्याश्रयत्वादसिद्धत्वं नास्ति । सूर्याय हितः गल्ल्याय हित इति प्राक्टरको नास्त्यनभिधानात् । चेति किम् ? सौयं तेजः । श्रागस्य स्थानम् । उत् । सूर्यमयी |
तिष्यपुप्ययोर्माणि ॥४४॥२३॥ तिष्यपुन्न इत्येतयोरा उपवि कालः तैः । पौपः । तिष्यपुष्ययोरिति किम् ? सिध्येन युक्तं सैध्यमहः । भाखीति किम् ? पुष्यो देवतास्पेति पौष्यः ।
हो तो क्याम् ||४|४|१४०|| हल उत्तरस्य हृकारस्य उ खं भवति इयां परतः । गार्यो । वाली | वाजी | "यस:" [३।१।१६] इति हीः । यखविधिं प्रति न स्थानियदिति हलः परत्वं यकारस्य । हल इत्य
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० १५३-१४७ विशेपेण ग्रहणम् । हतोऽन्यस्य वा हलः परस्य इधकारस्य स्वं भवति । तेन "पृकाहएयण" [२४] बागी । हल इति किम् ? वायुवेगेवो | इत इति किम् ? अभ्याम् । गौरादिल्यान्डीः । वैधत्व भाया वैया । यामिति किम् ? श्रावटया । अवटस्वापत्यं स्त्री।
क्वन्ध्यनादधृत्यापत्यस्य ।।४।१४१॥ क्य चि इत्येतयोरनाकायदो य हृति परत आपत्तस्य यका रस्व हलः परस्य खं भवति । गागीयति । वात्सीयति । गाायते । वात्सायते । चि । गार्गीभूतः । वात्सीभूतः । अनाति हति-गाण समूहो गागकम् । वात्सकम् । “वृद्धोक्षोप्टोरभ्र" [३।२।३४] आदिना बुन । गर्गणा मङ्घोऽको वा गार्गः । वात्सः । अनातीति किम् ? गाायणः । हतीति किम् ? सामान्येनाप यत्य खं यथा स्यात् । श्रापत्यस्येति किम् ? साझाश्यकः | काम्पिल्यः । सङ्काशेन निवृतः । कम्पिलेन निवृतः । “वुन्छण्' [३।२।६०] आदिना एयः । ततो भवार्थे "बन्धयोछः” [३।२।६] इति बुञ् । द्दल इत्येव । वायुयेगेपः ।
तस्यन्तिकस्य कादः ॥१४२।। तसि परतोऽन्तिकरूप ककारादेः खं भवति । अन्तिकात् अन्तितः पागतः । "तमे परतः तादेः कादेश्वान्तिकस्य खं वक्तव्यम्" [वा०] | अतिशवेन अन्तिकः "तमेष्ठावतिशायनें" [1111१४] इति तमे कृते | अन्तमः । अन्तितमः । “झिसंशकस्य भमात्रे टिलं च वक्तन्यं सायनातिकायर्थम्" वा०] | सायन्धातर्भवः सायपातिकः । पौनापुनिकः । आकस्मिकः । शाश्वतिक इत्यत्र "येणं च द्वेषः शाश्वतिकः" [१४।५] इति निपातनान्न भवति । शश्वच्छब्दो लक्षणम् । अारातीयः ! शाश्वत इत्यादिषु न नं भवति । "कालाइम्" [३।२११३३] इत्यतः कालादिति योगविभागः । तेन शश्वच्छयादगा ।
विस्वकादेश्यस्य ।।१४।। विस्वकादीनां छस्य व भवति इति परतः । न डादिपु चिल्ल्यादयः पश्यन्ते कृत्तकुगागमाः इह निर्दिष्टाः । विल्या अस्मिन् देशे सन्ति “उत्कराद्देश्छः" [Rs.] “नडादेः कुक्" [३।२२७] चागमः । विल्वकीयः । तत्र भवो बैल्वकः । सर्वस्य छस्य खम् । अन्यथा अनर्थकं स्यात् । वेणुकीयः वैत्रकीयः । बैंक | केतसकीयः । बैतसकः । तृणकीयः | ताकः । इनुकीयः । पकः । कपिष्ठलकीयः । कापिटलकः । कपोतकीयः। कापोतकः । "कुबायाः प्रच" । कञ्चकीयः । क्रोचकः । कुक छ एव माभवति । हस्योत किमर्थम् ! कुको निवृत्तिमा भूत् । अन्यथा "सन्नियोगशिष्टानामन्यतरापाये उभयोरप्पपायः" [प०] इति यथा पञ्च इन्द्राण्यो देवता अस्य "हृतुर्थ" [२॥३॥४६] पति रसे कृते अागास्यारणो रस्थोवनपये" [१५] द्वायुप् । “दुप्युप्” [I] इति स्त्रीत्यत्य निवृत्तौ आनुकोऽपि निवृत्तिः । पञ्चेन्द्रः।
तुरिष्ठेमेयस्सु ॥४॥१४४|| नशब्दस्य खं भवति इप्टेमेयस्सु परतः । करिषुः । करीयान् । हरिष्टः । हरीयान् । सर्च कमन्नोऽयमेषामतिश येन करीमान् "विन्मतोरुप" [१।१।१२५] इत्यनेनोप् ! "इप्ठेयसीच सर्बस्य तुः स्वम्" । अन्त्यत्व “टेः" [४१५११४५] इति सिद्धम् । इमन्ग्रहामुत्तरार्थम् ।
टेः ॥ १४॥ टेश्च खं भवति इमेयस्तु परतः । परिठः । पटिमा । पटीयान् । लधिष्ठः । लधिमा । लधीयान् ।
णाविष्ठवन्मृदः ॥४४१४६॥ णौ परत इठे इस कार्य भवति मृदः । पटयति । लपयति । कमन्तमा चष्टे करयति । प्रशस्यमाचण्टे "श्रादेप्" [२५] यति । ज्ययति । वाढत्य साधयति । युवान कति कनयति । स्त्रग्विणः खजयति । सर्वत्र "नैकाचः" [१४५५] इति प्रतिरोधः । गुकार्य निवृत्ते नेर् | एनीमाचो एतपति । "तसादौ" [५३।१४७] इखि मुंवद्भावः । उत्तरत्रापि प्रश्नाचारे प्रापर्शत । स्था यान । मुकार्य परिभाषाया अनित्यत्यादै पुगागमौ । पृथु प्रथयति | स्थूलस्य स्थवति ।
स्थूलदूरयुषह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणां यण इक एप्न पाहा१४७॥ स्थूल दूर युवन हस्त क्षिण क्षुद्र इत्येतेषां गणः ग्लं भवति इक पप च हाछेमेयम्स परतः । स्थविष्ठः । स्थवीयान् । दविष्ठः । देवीयान् । "युकास्पयोः कन्वा" [।१।१२३] इत्यनादेशपने-यविष्ठः । बबीयान् । “अमन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [१०] इति यकारस्य न भवति । हसिष्ठः | इसीयान् । हसिमा । क्षेपिष्ठः । क्षेपी यान् । क्षेपिमा । दौदियः ।
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अ. ५ सू० १५५j मासिक्षासः
३३५ क्षोदीयान् । क्षोदिमा ! स्वादयः पृथ्यादौ पटश्यन्ते । यणः परस्य तु."टे:" [४४१५५] इति खम् । इक इनि किमर्थम् ? क्षेपिष्ठ इत्या अनन्यस्याप्येन् यथा स्यात् । णो हस्यमाचप्टें हसति । गुकार्यस्य निर्वृत्तवान् उड एम्न भवति ।
प्रियस्थिरस्फिरयादेः ॥४ाया४॥ प्रिय स्थिर, स्किर इत्यते राम् इकागदयणघातस्य अकारा. देशो भवति इष्टेमेयस्सु परतः । प्रष्टः । प्रेयान । प्रेमा | स्थेष्टः । स्थेयान् । स्थमा । स्पेष्टः । स्फेयान् । स्फमा । नियमाचष्ट प्रापयति । स्थापयति । "देवमणे" [३।३।२२] इति निर्देशात् गुकार्यपरिभाषाया अनित्यन्त्रम । तेन णित्रि “लिगात्यचः" [4:२१३] इत्यम् ।।
- बहुलगुरुवृद्धप्रदीर्घषन्दारकाणां यष्टिगर्वपित्रपवायवृन्दाः ॥४१९५९ ॥ बहुल गुरु वृद्ध तृप्प दीर्घ वृन्दारक इत्येतेषां चहि गर, बर चर्षि र द्रा वृन इत्येत आदेशा भवन्ति इप्टेवस्म पग्नः । बंहिष्ठः । वहीवान् । बंहिमा । गरिष्टः। गरीयान् । गरिमा । उरु-वरिष्ठः । बरीवान् । वरिमा । वृद्धस्य ज्यादेश उनः। वचनाद यमपि भवति । वर्षिष्ठः । वर्षीयान् । त्रपितः । त्रपीमान् । द्रापिष्ठः । द्राधीयान्न । द्वात्रिंमा । न्निष्टः । वृन्दीयान् । गगावपि वंशति । गरयतीत्यादि योज्यम् । रिपार वृद्धवृन्दारकवर्जिताः पृथ्वादी द्रपन्याः । प्रणवचनेभ्योऽपि श्राव वचनात् इष्टयसू ।।
बहोर्चस्मात्खम् ॥ १५॥ अहोभू इत्ययमादेशो भयति अस्माच्च परेपाम इष्टमयसा ग्य भवति । भूयान् । भुमा । “परस्यावेः" [१1१0५१] खम् | भूभावल्यासिदत्यान उकारस्यौत्त्वं न भवति । बहोः पृथ्वादित्वादिमन् ।
यिट् चेष्ठस्य ॥४॥४१५१॥ इष्ठस्य बिडागमो भवति बहोश्च भूगदेशः । भूयिष्ठः । ग्वापबाटो यिडागमः । इकार उच्चारणार्थः । भूमावस्यासिद्धवादौत्वाभावः ।
ज्यादेयसः ॥४१५२॥ ध्यादेशात्यरस्प ईव श्राकारादेशो भवति । ज्यायान् । ध्यायांसौ । ज्यायग्निः । "प्रशस्यस्य नः" [1121198] "ज्य:" [४।१११२०] इति ज्यादेशः । प्रकृते खे परस्यादौ कृते "दीरकृद्र्गे" [५२।१३४] इति पूर्वस्य च दीये सिद्धमिति चेत् "गुकार्ये निर्धते पुनर्न तनिमित्तम्" [१०] इति दीत्वं न त्वादित्याकारवचनम् ।
ऊरोऽनादेः ॥४३५३॥ ऋकारस्य रेफादेशो भवल्पनादेधिमंशकस्य इष्टेमयत्तु परतः । प्रथिष्ठः । प्रथीयान् । प्रथिमा । म्रविष्ठः । नदीयान् । म्रदिमा । अकारान्तो रेफादेशः । उरिति किम् ? पटिष्ठः । अनादेरिति किम् १ अतिशयेन ऋतवान् अमृतीयान् "विन्मतोहप्" [४।१।१२५] इति मतोहर । ईयस् । घेरिति किम ? कृषिष्ठः । कृष्णीयान् । कृष्णिमा।
पृथुमृद्वोः कृशभृशयाई परिश्रृढयोश्वरो भवत्येव ।
सिंहावलोकतोऽने प्रायोग्रहणाश्यं नियमः ॥ तेनेइ न भवति । मातरमाचष्टे मातयति 1 परवाहिखस्यायमपवादः स्यात् । तथा कृतमाचाटे कृनयनि ।
नैकाचः ४ाहार.५४|| एकाची भस्य यदुक्तं तन्न भवति । त्वचितः । त्वचीयान् । बुचिष्ठः । सुचीयान् । "विम्मतोप" [१/११२५] इति मतोरुपि कृते ":" [11३४५] इति व प्रामम् । रगावधि ल्वग्वन्तमाचरे, त्वचति । सुचयति । एकाच इति किम् ? अतिशयेन जमुमान् वसिष्ठः । बसीयान् । वसयति । नेति योगविभागः । तेन "राजन्यमनुष्ययूनामके यदुक्तं तन्न भवसि" राजन्यानां समूहो राजन्यकम् | मनुष्याणां समूहो मानुष्यकम् | "क्यच्च्यनात्यापत्यस्य" [१४] इति यख प्रातम् | यूनो भावो यौत्रनिका । मनोसादिपाठागु "नोऽपुंसो हति" [ ३०] इति टिखे प्राप्तम् ।
प्रायोऽनपत्येऽरणीनः ||१५५॥ श्रानपन्यार्थेऽणि परत इनन्तस्य यदुक्मं तन्न भवति पायः । सग्विण इदं स्मारित्रणम् । तथा सांकोटिनन् । गांगक्षिणम् । साम्मार्जिनम् । “भिमभिविधा" [२।३।६६] दुनि
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जैनेन्द्र श्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ ० ७५६-१६६ जिन् । तदन्तात् स्वार्थ "जिनोऽ" [२२] इत्या | अनपत्य इति किम् ? वाहुबलिनोऽपत्यं बाहुक्तः । अणीति किम् ? मेधायिने हित मेधात्रीयम् । प्रायोग्रहणात्स्यचित्प्रतिषेधो न भवति । दण्डिनों समूहो दाएछम् | छात्र ।
औक्षम् ।।१५६॥ औक्षमिति निपात्यतेऽनपाये । उक्ष्ण इदम, श्रीक्षम । अपत्ये श्रीक्षण इव । "पादिहन्धृतराशोऽणि" [ २३] इत्यखम् । “अनः" [४१५८] इत्यस्पापवादोऽयं योगः।।
__ गाथिघिदथिक्केशिपणिगणिस्फादेः ॥१५७॥ गाधिन् त्रिदथिन् केशिन् पणिन् गणिन् । इगतेषां सादेश्च इनो यदुक्तं तन्न भवति । गाथिनोऽपल्यं गाथिनः । वैश्विनः । कैशिनः । पाणिनः । गाणिनः । फादेः शामिनः । चारिणः । माद्रिणः । अपचार्थेऽप्यणि प्रतिषेधार्थमिदम् ।
अनः ॥४४१५८॥ अनपत्य इति निवृत्तम् । सामान्येनाणि परतोऽनो पदुक्तमत्र टिवं च तन्न भवति । कर्मणा इदं कार्मणम् | साम देवता अत्य सामनः । हम्नो विकारो हैमनः । यज्वनीऽपल्यं पावनः । प्राव इत्यनुवृत्तेरिकेऽपि टिन्नाभावः 1 उपचारादथवा प्रन्योऽपि तमधीते आणिकः ।
येऽडी ॥ ९५९॥ अलावर्षे कारादौ इति परतोऽनो यदुक्तं तन्न भवति । सामान माधु: सामन्यः । वेमन्यः कर्मण्यः । राजोऽपत्यं राजन्यः । तक्ष्णोऽपत्यं ताक्षण्यः । “सेनान्तलक्षण" [३।३.१४०] श्राश्ना तक्ष्णो ख्यः । अात्रिनि किम ? राज्यम् । “गुणोतिम्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च" [३।१११४] इति टपणा ।
खेऽध्यनः ॥४४१६०॥ अन्ननः खे परतो यदुक्त तन्न भवति । अध्यानमलंगामी श्रध्वनीनः । “यखारध्वनः" [३।४।१३६] इति खः | बे इति किम् ? प्रायं कृत्या गतः “गेरध्वनः" [A ] इत्य कारः सान्तः।
नमादेरपत्येऽचर्मणः || महादिनो धर्मनित्यापाया तो यदुक्तं तन्न भवति । मुघाम्नोऽयत्यं सौषामः | भाद्रसामः । "नोऽपु सो हति" [१५।१३०] इति टिपर्व भवत्येव । मादरिनि किम् ? सौचनः 1 अपल्म इति किम् ? चर्मणा परिवृतश्चार्मणी रथः । “परिवृतो रथः" [३।२।८] इत्यण | अबर्मण इति किम् ? हैरण्यवर्मणः । प्रायोग्रगानुवृत्तस्तिनाग्नो विकल्पः । हितनाम्नोऽपत्यं हैतनामः । हैलनामनः ।
नामो जाती ॥४॥१२॥ अपत्य इति वर्तमानं जातेविशेषणम् । ब्राह्म इलि निपात्यते सत्यजातैरन्यत्र । ब्राह्मणो (ब्राझो) गर्भः । ब्राह्ममम्मम् । "तस्पेदमू" [३।३।८८] इत्यण । अजाताविति किम् ! ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः । अपवजातिरियम् | अजाताविति प्रसज्यप्रतिपंधोऽयम् । तेन अपत्यजातेरन्यत्र जानायपि निपातनामयते । ब्रहागा इयं ब्राहही ग्रीषधिः ।
कार्मः शीले १३३॥ काम इति नित्यते शीलेऽथे । कर्मशीलः कामः । “छनादेणा" [३१३।१८०] इति ए: । स तु "नोऽपुसो हति" [४।१।१३०] इत्येव णे टिखे सिद्धः । "अनः" [४१५८] इति त्वरिंग प्रतिरोधः । इदमेव ज्ञाएक "णेऽष्यण् कृतं भवति [प०] इति । तेन चुरा-शीला चौरी । णान्तान्-डी विधिः । शील इति किम ? वाग्युक्तं कर्म कार्मणम् | “तयुक्तास्कर्मणोऽ" [1२४२] इत्यम् ।
दगिडहस्तिनोः फे ॥४१६४|| दण्इिन् हस्तिन् इत्येतयोः फकासदौ हृति यदुक्तं तन्न भवति । दण्डिनीऽनत्यं दाण्डिनायनः । हास्तिनाक्नः । नादित्यात्फण् ।
याशिजिलाशिनोः फेढे ॥४१६५॥ वाशिन् जिलाशिन् इत्येतयोः फ दे च यदुक्तं तत्र भरति । बाशिनोऽपत्यं वाशिनायनिः | तिकावित्वारिफन । निहाशिनोऽपल्यं जैमाशिनेयः । “शुभादेः' [३।१।११२] इति ढण । “नोऽपु'सो हसि" [१।४।१३०] इति टिस्त्र प्राप्तम् ।
चौराहत्यधैवत्यसार वैश्याकमैत्रेयहिरण्मयानि ॥१६६॥ श्रीणहत्य धैवत्य सारव ऐच्चाक मैत्रय हिरएमय इत्येतानि निपात्यन्ते। भ्रूणहन् धीचन् इत्येतयोष्टणि तत्तं निपात्यते । भ्रगना भावा
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'१०५ पासू० -६] महावृत्तिसहितम्
३३७ भ्रौण हत्या कर शाप नतोग
तिरोन एब नान्यत्र हन्तेस्तत्वम् । तेनेह न भवति । वात्रघ्न इति । धीनो भावो धैयत्यम् । सरयूशब्दस्य अणि परतो यवं निपात्यते । मारवं जलम् । इक्ष्वाकोरपत्यम् ऐच्वाकः । “राष्ट्रशदादासोऽन्" [३।१।१५०इति अनि उकारत्य ग्वं निपात्यते। "सस्येवम्"[२३] इति वा भवार्थे "कोड:" [३।२।११०] इति वाऽरिए : मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः "गृष्टयान" [
३ ] इनि दारण कृते "यादेरिय" [५।२७] यादो युशब्दस्य खं निपान्यते । यादेरियादेशस्तु विदादित्वादनि कृते द्रष्टव्यः । अत्रन्तस्य सादिविवक्षायां “सालणवोऽन्यनिजामण" [३।३।१५] इति अणि कृते मैत्रेयः सद्धः । दगन्तत्व सञ्जादौ "वृखचरणाभित्" [२॥३५६४] इति वुनि मैत्रेयकः सङ्घः इति भवति । हिरण्यस्य विकारः। "मयज्वैतयोरभवयाच्छावनयोः" [२३३/१०८] इति मयटिं कृते क्शब्दस्य खम् । हिरण्मयं जिनगरम् ।
इलभयनन्दिविरचितायां महावृत्तौ चतुर्थास्याध्यापस्य चतुर्थः पादः समानः ।
पञ्चमोऽध्यायः युवोरनाकौ ॥५२३॥ त्रुजु इत्येतयोगोंनिमितभूनयोः अन अक इत्येतावादेशौ भवनः । युवोरिव्यु. सृष्टविशेषण यो: सामान्यग्रहणम् । योरनः । वोरकः । नन्द्यादेव्यु: नन्दनो रमणाः। "शत्रुतृची" [२।१।१०६] कारको हारकः । एत्रमाङ्गको बाङ्गकः । अङ्ग जातो भवो वेति विगृह्य "बहुत्वेऽवोरपि" [३।२।१०३] इति वुन । योः कृत एव ग्रहणं व्याख्यानात् । तेनेह न भवति । उर्णायुः । शुभंत्रुः | उणादीनां बहुलं त्यसंज्ञा तेनेह न भवति भुजः । "भुजिमृद्भ्यां युगयुको" [उ० सू० ३१२१] इति युफ ।
आयनेयीनीयियः फाढखो त्यादीनाम् ॥५॥२॥२॥ फ द न्त्र छ घ इत्येते ल्याटी वर्तमानानां निरचाम् श्रायन ए ईन् ईय् य इत्येते अादेशा यथासख्यं भवन्ति । “नदादेः फण्" [३१] नाडायनः । चारायणः । "स्त्रीभ्यो ढण" [३।१।१०] वायुवेगेयः । वासवदत्तेयः । "प्रतिजनादेः खम्" [३।३।२०३] । प्रतिजने साधुः प्रतिजनीनः । ऐदंयुगीनः । “दोश्ल" [३।२।६.] बाप्तधीमो ध्वजः । चैश्रवणीया शिधिका | क्षत्रस्था पत्यं क्षत्रियः । त्यत्रण किम् ? फक्रति । दौकते । आनिग्रहग किम् ? जानुदघ्नम् 1 पण्डः । शङ्खः इत्यादी "उणावयो बहुलम्" [२।२।१६७] इत्यादेशा न भवन्ति ।
झोऽन्तः ।।५।१३।। त्य इत्यनुवर्तते । श्रादिग्रहणे निवृत्तम् । स्वरितलिङ्गाभावात् । म इति झकारस्य त्यावयवस्य अस्त इत्यवमादेशो भवति । जानन्ति | पश्यन्ति । “जविशिभ्या " उ० सू०] जरन्तः । वेरान्तः । त्यस्येति किम् ? उज्झितः ।
अस्थात् ॥५५॥४॥ थसंशकापरस्य झस्य अत् इत्ययमादेशो भवति । ददति । ददतु | मिमते । मिमनाम् । अन्ता देशापवादोऽयम् | न तु मेनुं सः । अददुः । अजनुः ।
देऽनतः ॥५१५॥ दविषये यो झकारस्तस्यान कारान्तागोरुत्तरस्य अदित्ययमादेशो भवनि । लुनते | लुनताम् | अतुनत । पुनते । पुनताम् | अपुनत | द इति किम् ? लुनन्ति ! पुनन्ति । अनत इति किम् ! च्यवन्ने । प्लवन्ते । नित्यत्वात् प्रागेव शम् ।
शीको रट् ॥५॥१६॥ शीडो गोनिमित्तभूतस्य भास्य रुडागमो भवति । शेरते । शेरलाम् | अोरत | रुइयं परादिः क्रियते झमहणेन ग्रहणं यथा त्वात्तेन "शीको गे" [५।३।१३०] इत्येषु । परन्वेन रुटि कृते अादिगण निवृत्तेमध्येऽपि स्वावयवस्य भास्पादादेशः । सानुबन्धग्रहण किम् ? यवन्तत्य मा भून | व्यतिरीश्यते ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ [अ० ५ ० १ सू० ७-६८
I
तेः सिद्धसेनस्य |शराज वेत्तेगोनिमित्तभूतस्य कस्य रुडागमो भवति सिद्धसेनस्याचार्यस्य मतेन । संविद्रते । संविदते । संविद्रताम् । संविदताम् । समद्रित । समवित "समो गम्प्रति" [१/२/२४] इत्यादिना विदेर्द: । तिपा निर्देश उध्धिकरणार्थः । तेन "विन विचारणे" [.] इयस्य वैदिकस्य ग्रहणं न भवति । विन्दते ।
३३८
भिसोत ऐस || ८॥ अर्थवाद्विभक्तिविपरिणामः । इत्यकारलाद गोस्तरस्य भिस ऐस भवति । सुरैः । अनुरैः | "ही येत्" [५] इति पररवालं कस्मान्न भवति । भूतगत्या पुनः प्राप्नोती नित्यचादैस् । एमिति सिद्ध ऐ किम् ? श्रतिजरले । “तिकुप्रादयः " [शश८१] इति से “श्रीगोनयः " [11१/८ ] इति प्रादेशे च कृते । "एक देश विकृतमनन्यवत्" [प०] इति शब्दस्पा सङादेशः । “सन्निपातला यो विश्विरनिमित्तं तद्विघातस्य " [५० ] इति परिभाषेयमनिन्या कष्टाय " [२०१२] इति ज्ञापकात् । श्रत इति किम् ? साधुभिः । तपरकरणं किम् ? विमिः |
।
इदमदसोः सकोः || ५|१| इदम् दत् इत्येतयोः एककारयोरेस मि ऐस कति । इमकैः । “फिसर्वनाम्नोऽक् प्राक्टेः को दः” [ ४|१|१३० ] इत्य "व:" [३२] इति तस्य मंचन दमोsसोसे:" [ ५८ ] इति छात्र वर्षमात्रस्योत्वं दस्य मलम् । मध्ोति किन झल्येत्" [ ५२] येन्वन् । “हलि स्त्रम्" [१९७१] [५/३/८१] इतीम् | मोरे कोरियमवधारणं मा विज्ञायीति ज्ञापनार्थः ।
:
श्रमः “दादुए“ । “बहावीरेतः"
इतीदमदः खन् ।
स्पेनाङटाङः || ५|१|१०|| अकारान्ताः परेषां हम इसे इत्येतेषां श्रादेशा भवन्ति | इन्द्रस्य चन्द्रस्य । इन्द्रेण | चन्द्रा इन्द्रा | चन्द्रात् ।
इन आत्त इत्येय | कर्त्रा । कर्तुः 1
ः ॥ ५६ ॥११॥ कान्ताद्रस्तस्य इत्येतस्य य इत्ययमादेशो भवति । इन्द्राय । चन्द्राय । श्रत इति किम् ? गये | नावें ।
सर्वनाम्नः स्मै ॥ ५|१|१२||
सर्वस्ने । तमैं | भुमै । ग्रत इति किम् ? भगतें ।
इङियोः स्मात्स्मिनौ || ५|१|१३|| अकारान्तानाम्नो गोरुत्तरबोर्डस ङिइत्येतयोः स्मात् स्मिन् इत्येतावादेशौ भवतः । सर्वस्मात् । सर्वस्मिन् । यस्मात् । अस्मिन् । अत इत्येव । भवतः । भवति । जसः शी ||५|१|१४|| अकारान्तात्सर्वनाम्नो गोः परस्य नसः शी इत्ययमादेशो भवति । खर्थे । एते। केदमुत्तरार्थम् । पयसी । दधिनी ।
रान्तात्सर्वनाम्नी गोरुत्तरस्य इत्ययमादेशो नि ।
ओङ आपः || ५|१|१५|| श्रान्ताद्रोः श्रङः शीत्ययमादेशो भवति । श्राविति टाडापो: सामान्येन अहम् | श्रीडति पोरोकारस्य पूर्वाचार्याणां संज्ञा । माले लम्बेते । माले पश्य । बहुराजे निष्टतः । बहुग पश्य | “श्रनश्च श्रातू” [३।१११०] इति डा | “अधिपरी अनर्थक" [१/४/१० ] इति निर्देशात् "सोडिंति" [५/१/१०६ ] इत्यादिषु स्वशास्त्रज्ञया ङिदाश्रयते ।
नमः || ५|१|१६|| नमो गोरुत्तरस्य श्रीः शौययमादेशो भवति । दधिनी तितः । दधिनी पश्य । एवं वने । जले । “नेन्यात्" [३/६२] इति "सुटि पूर्वस्वम्" [३३] दीनं भवति ।
दधीनि जासोः शिः || ५|१|१७॥ नपः परयोर्जेर् शम् इत्येतयोः शिरित्ययमादेशो भवति । तिष्ठन्ति । दधीनि पश्य । एवं मधूनि वनानि धनानि जसा सहचरितस्व शसो ग्रहणादिह नेयते । पात्रो ददाति ।
अष्टाभ्य औश् ॥ ११२६८ ॥ श्रष्टशब्दात्परयो जेम्सोरोश भवति । श्रादौ तिष्ठति । श्रपश्य । श्रष्टन इति सिद्धे प्राभ्य इति कृतात्वस्योच्चारणं किम् ? यचैवान्वं तत्रैवैरभावो यथा स्वात् । ननु नित्यमात्वन् । इदमेवं ज्ञापकमात्रविकल्पस्य | भ्रष्ट तिष्ठन्ति ।
पश्य ।
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अ० ५ पा० ६ सू० १५-२६] महावृत्तिसहितम्
“अनुरकः शुचिर्दक्षः श्रुतवान् देशकाख घिद ।
वपुष्मान क्रान्तिमान वाग्मी दूतः स्याद्यष्टभिर्गुणैः ॥" "गोरधिकार तदन्तस्य च" [प] इति तदन्तादपि भवति । परमाष्टो। प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययादसे न भवति । प्रियाष्टान इति । "उबिलः" [५1118] इति उपि प्राप्ते बौशारभ्यते न “सुपो धुमृदः" [३।४।११२] इति । तेन अप्टौ गुणा यस्य सोडप्टगुणः। ओशिति सिद्धे श्रीशा ग्रहणं किम ! अष्ट वाचाने अष्टयन्तीति । स्विम्यागतनिवृने अण्टाविति यथा स्यात् ।
उविलः ॥५॥२॥१६॥ इल्मज्ञकादुत्तखोर्जरशासोरभवति । पट, तिष्ठन्ति । एट, पश्य। चं पश्च ! नय । परमपञ्च । प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययादिह न भवति । नियषपः । बिपञ्चानः ।
नपः स्वमोः ॥२५ मिति : लिया या । पटनरयोः स्वभोक नवति । दवि पश्य | मधु तिष्ठति | मधु पश्य । तत्कुलमित्यत्र लवाद्यन प्राधित्वा कृताकृतधमनिल्येन नित्यादुप । नन्वये कृते लक्षणान्तरेणाम्भाचे सत्यनित्य उप ! नैवम् । “यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्त विहन्यते न तदनित्यम्" [प०] इति ।
तोऽम् ॥५॥२१॥ अकारान्तारपः परयोः स्थमोरम्भवति । धनम् । वनम् । तपाकरण भात मुरार्थम् । मदेशे झियमानणे सुपीति दीव स्यान् । प्रतिजनसं कुलं पश्यति च न स्यात् । “सन्निपातलो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य" [प०] इत्यम उम्न मत्रति ।
डतरादेः पञ्चकस्य दुक ॥५॥२२॥ डरादेः पञ्चकल्य दुगागमो भवति लम्बेः पग्नः । कतरत्तिवति । पतरपश्य । एवं कलमत् । इतरत् । अन्यत् | अन्यतरत् । पञ्चकन्याद क्रिम ? समनः । सिमम । डतरेण सिद्ध अन्यतरग्रहणं किमर्थम् ? अन्यतमं वनम् । निल्यमागमानुशासनमित्कारस्य न भवति । एकतरं वनम् ।
युष्मदस्मदो ङसोऽश् ॥५॥५॥२३॥ युष्मदस्मदित्येताभ्यामुत्तरस्य इन्सोऽश भवति । नव यम । मम स्वन । शित्करगां सत्रोदेशार्थम् ।
डेसुटोरम् ॥५॥१॥२४॥ युष्मदस्मद्भयां परस्य डे इत्येतस्य सुटश्च अमित्यत्रमादेशो भवति । तुभ्यम् ! मह्यम् । त्वम् । अहम् । शुभाम् । आवाम् । यूयम् । वयम् । स्वाम् | माम् । युवाम् । आवाम । “युकायो द्वी [१।११३५१] । “प्रावि" [५।१।१४७] इति दस्यात्वम् । इपि पुनः "इपि" [५/३११४६] इत्यास्त्रम।
शसो नः ||५११॥२५॥ युष्मदस्मदित्येताम्यां परत्य शसी नकारादेशो भवति । युष्मान् । अस्मान् पान जिनः । “परस्यादेः" [ ५] इत्यकारस्य नकारः । “स्फान्तस्य स्वम् [५।३।४१] इति सकारय खम् । "इपि" [५।१।१४६] इत्यात्वम् । “नश्च पुसि" [४३११] इति नल्यो न भिभ्यत्यालगन्यायुप्मदस्मटोः ।
भ्यसोऽभ्यम् ॥शश२६॥ युष्मदस्मभ्यां परस्य भ्यसोऽभ्यमित्ययमादेशो भवति । युप्मभ्यं देयन । अस्मभ्यं देवम् । "खमादेशे" [५1१1१५] इति दरवम् । "एप्यतोऽपदे" [३४] इन पररूपाधम ।
अत्कायाः ॥ २७॥ युष्मदस्मद्यां परस्य काया भ्यसोऽदित्ययमादेशो भवति । युग्मदधीते । अस्मदधीते।
उसेः॥ २८॥ युष्मदरमथाम् परस्य इसेरदादेशो भवति । "स्वमावेके" [41१1३५६] । यत् । मत् । __साम प्राकम् ॥५॥१॥२६॥ युष्मदस्मभ्याम परस्य साम पाकमादेशो भवति । युप्माकम् । अस्मा कम् | भाविनं सुटं भूतबदुपादाय साम इति निर्देशः कृतः । आकमि कृते मुगनिवृत्त्यर्थः । कमि क्रियमाणे
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३४०
जैनेन्द्र व्याकरणम् [अ० ५ पा. १ सू० ३०-३६ एत्वं स्यात् । अकम्वकारोच्चारगसामर्थ्यात्पररूपाभावे स्वेऽको दीत्वेन सिद्धमाकारवचनं किम् ? हलन्तादपि बधा स्यात् । सुष्मानाचक्षते युष्मयन्ति । तेषां युष्माकम् ।
तुह्मोस्तातङ काशिषि ।।५।१॥३०॥ तु हि इत्येतयोराशियर्थे तातडादशो भवति वा । जीवतात. वान् । जीवतु भवान् | जीवतात्नम् | जीव त्वम् | तातद्धि ङित्करणमेपो व ईटश्च प्रतिषेधार्थ नत्वन्ताशार्थ व्याख्यानात् । तेन कुरुतात् | मृात् बताद्भवानिति सिद्धम् | आशिषीति किम् ? किं करोतु भवान् । कुरु त्वम् । जीवतात्वमित्यत्र "प्रतो हे" [[९६] इति स्थानिवद्धावादुप प्राप्नोति । नैवं “हुमल्यो हेधिः" [VINR४] इत्यत्राधिकारे अतो हेरिति पुनर्दिप्रहरणाद् हिरूपस्यैव हेरुन्भवति । उक्तं च
"तातहि शिवं संक्रमकृत्स्माइन्स्यविधिश्चेत्तन्त्र तथा न ।
हेरधिकार हेरधिकारो नाशविधौ तु ज्ञापकमाह 18" प्यस्तिचाक्से क्यः ॥११॥३१॥ त्वा इत्येतस्य प्य इत्ययमादेशो भवति तिसे चाक्से च । तितेप्रकृत्य | वाक्से-उच्चैःकृत्य । नीचैःकृत्याचष्टे । तिवाक्स इति किम् ? अकृत्वा । परमकृत्वा ।
यभेऽश्ववृधयो क्मांध सुकू ।।५।२३।। भविष्य अश्व वृष इत्येतयोः क्याच परतः सुग्भ पनि । अश्वस्यति बड़ा । ऋषस्पति गौः । भ इति किम् ? अश्वीयति | वृषीयति देवदतः ।
क्षीरलवणयोलौल्ये ॥५॥६॥३३॥ क्षीरलवणयोलौल्ये क्यचि परतः सुम् भवति । दौरस्वति माणवका | लवणस्पति उदः । लोल्य इति किम् ? क्षारीयति । लवणीयति वातकी । क्मेऽश्यपाक्याच स इति सिद्धे गुरुनिर्देशात् "क्वचिदन्यत्रापि सुगसुश्च समृदयो लौल्ये भवति" | दधिम्यति । मधुरति । दध्यस्यति । मध्वस्पति इत्यादि सिद्ध म् ।
आम्यास्सर्वनाम्नः सुद ॥५॥१॥३४॥ आवर्णान्तात्सर्वनाम्न आमि परतः सुई भावति । सर्वेषाम् | योपाम् । तेषाम् । केषाम् । सर्वासाम् । यासाम. ] नासाम् । कासाम् | अादिति कानिर्देशः आमील्यस्योतरत्र सावकाशस्य सानिर्देद प्रकल्पयति । श्रादिति किम् ? भक्ताम् | सर्वनाम्न इत्येव | नराणाम् ।
प्रेस्त्रयः ॥५॥१॥३५॥ त्रि इत्येतस्य त्रय इत्ययमादेश्यो भवत्यामि परतः । त्रयाणाम् । परमरयाणाम् ।
प्रेरम्बापचतुरो नुट् ॥११॥३६॥ प्र इल् मु इत्येवंसंज्ञकेभ्य आमन्ताच्चतुःशब्दाच्च आमि परतो नुड् भवति । प्र-देवानाम् । कवीनाम् | साधूनाम् | इल-पायाम् । पञ्चानाम् । मु-नदीनाम् । बधूनान । श्राप-विद्यानाम् । बहुराजानाम् | चतुर्-चतुएर्णाम् । “गोरधिकारे तस्य तदन्तस्य च" [५०] चति । परमपगणाम् । परमपश्चानाम् । भुरुवे कार्वसंप्रत्ययादिह न भवलि । प्रियश्याम् । प्रियएमआम् |
इदिखोर्नुम् ॥२१॥३७॥ इकारेतो धो मागमो भवति । नन्दिता । नन्दितुम् | कुगिडना | कुण्टिनुम् | इदिति किम् ? पचति । धौरिति किन् ? अभैत्सीत् । सिरखं त्यः । “घिम्बिकृएम्योर च" [२।१/७५] इति सनुम्कनिर्देशात्त्योत्पत्तेः प्रागेत्र नुम् | तेन कुण्डा । हुण्डा ! “सरोहलः" [२।३।८५] इत्यः सिद्धः । "उत्रुग्दिर" [धा०] इति ज्ञापकादिरितो नुम्न भवति । भेदनम् ।
शे मुचाम् ॥५॥१॥३८॥ दो परतो मुचादीनां नुम् भवति आगणपरिसमासः। मुञ्चति । लुम्पनि ! विन्दति । श इति किम् ? भोक्ता | मोक्तुम् | एकस्य बहुत्वानुपपत्रोच्चादीनामिति विज्ञेयम् | शे इति योग विभागात् "तृम्फादरीना नकारोको नुम् भवति" | तृम्पति । दृग्फति । गुम्फति । उम्भति । शुम्भति । “हलुकः नित्यनिदिसः" [१/४/२३] इति नखम् । पश्चानुम् ।
मस्जिनशोलि ॥५१॥३६॥ मरिज नथू इत्येतयोर्नुम्भवति सलादौ परतः । मड्क्ता । मङ्क्त म् । नेष्टा । मन्टुम् । मस्जेमि कृत "हनोऽनन्सराः स्फः" [१३] इति द्वयोख्रयाणां वा स्फसंज्ञा । द्वयोः स्कसंज्ञामा
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अ. ५ पा० ॥ सू० ४०-४६] महावृत्तिसहितम् श्रिय स्फादेः सस्य खम् । नुमोऽनुस्वारपरस्वत्थे | झलीति किम् ? मजनम् । नशिता | मस्जे: "मला जश् मशि" [५/४/१२८] इति सकारस्य दत्वम् । दस्य च चुत्वं जकारः । “रधादेः" [11] बेट् ।
रधिजभोरचि ॥५॥४०|| रधि जम इत्येतयोः अजादौ परती नुम् भवति । रन्धयति । रन्धकः । साधुरन्धी । रन्धं रन्धम् । रधो वर्तते । जम्भयति | जम्भकः । साधुजम्मी | जम्भो वर्तते । कृताकृतप्रसङ्गित्वेनैपः प्रागेव नुम् । अचीति किम् ? रद्धा । अभ्यम् ।
लिटीटि रधेः ॥५॥१॥४१॥ रधेनुम् भवति इडादौ लिटि परतः । ररन्धिय । ररन्धिम ] नुमबिधानसामर्थ्यत् “हजुस लिस्यनिदिसः [ २२] इति नखं न भवति । नित्यार्थोऽयं योगः। रियव रहाटी नान्यस्मिन् । रचिता । रधितुम् । विपरीतो नियमः कस्मान्न भवति ? इडादावेच लिटौति । इह न स्यात् । सन्धतुः । ररन्पुः । नेणे योगविभागादिष्टप्रसिद्धेः। लिटीटीति योगः कर्तव्यः । तदनु रसित । रलिटीटि नुम भवति । रधेरिति पृथकरणं किमर्थम् १ लिटीटीत्यष्टनियमसिद्धिर्यथा स्यात् । लिट्यवेडादौ रधेनु मिति ।
रभोऽशष्लिटोः ॥५॥११४२॥ रभो गोनू म् भवति अजादी न तु शब्लिटोः । आरम्भवामि । आरम्भकः । साध्वारम्भी | आरम्भमारम्भम् । आरम्मो वर्तते । अशब्लिटोरिति किम् ? आरम्भते ! आरे। अचीत्येव । आरम्भम् । अशब्लिटोरित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः | नत्रः सापेक्षत्यापि गमकत्वादनुभोज्यादिवत्सविधिः ।
लभेः ॥शस४३॥ लभेः शब्लिर्जितेऽजादौ नुम्भवति । आलम्भवति । आलम्भकः । साम्बासगी । आलम्भमालम्भम् । आलम्भो वर्तते । अशब्लिटोरित्येव । अालमते । आलेभे | अचीत्येव । लयम । पृथग्योगकरणमुत्तरार्थम् ।
आडो यि ॥ ४४॥ आधुवस्य लमर्यकारादौ त्ये परतो नुम् भवति । श्रालाभ्या गौमणेन । आष्ठ इति किम् ? लभ्यम् । यीति किम् ? आलब्धा । आलभ्य गत इत्यत्र कृतेऽपि नुमि "इलुनः धिम्यनिवितः" [४४१२३] इति ननम् । मुम्बचनं वन्यत्र सावकाशम् ।
___ उपात्प्रशंसायाम् ॥५१४५॥ उपात्परस्य लभेः प्रशंसायामर्थं नुम् भवति यकारादौ । उपलभ्या भवता विद्या । उपलभ्यानि धनानि | प्रशंसायामिति किम् ? उपलम्बामाद् दृषलात् किञ्चित् ।
गेःखघोः ॥५३४६|| गेरुत्तरस्य लभेनुम् भवति खघोः परतः । मुप्रन्तम्भः । दुम्मलानः | घत्रि-प्रलम्भः । उपसम्भः | गेरिति किम् ? ईघल्लमो लाभः । नियमार्थोऽयं योगः | गेरेव खघोः । अथ गे: खघोरेव कस्मान्न भवति 'शप उपलम्मने' [श्रा०] इत्यादिनिर्देशात् ।
न सुदुभ्या केवलाभ्याम् ॥१॥४७॥ सु दुम् इत्येताभ्यो केवलाभ्यां परम्य लभेनु न भवति । सुलभो दुर्लभः । कृच्छाकुच्छार्थदन्यत्र घन | सुलामो दुर्लभः । केवलाभ्यामिति किम् ? सुप्रलम्भः । दुग्मलम्मः । अतिसुलम्मा । जिग्रहणानुवृत्तः सुदुसोर्यो हणन् । अतिसुलभमिति कथम् ! "अतिक्रमे चाति:"[11] इति अतेर्गिसंशाऽभावात् सुः केवल एव गिः | केवलग्रहणं हि तुल्यजातीयस्य गेनिवर्तकम् । अक्रियमाणेऽपि केवलग्रहणे सुदुसोः सन्निधाने उच्यमान कार्य कथमन्याधिकयोरपि । इदमेव ज्ञापकं क्वचित्केवलस्य सन्निधाने उच्यमानमन्याधिकस्यापि भवति । तेन "निविश" [२६] इत्यत्र निविशते अभिनिविशत्त इति सिद्धम् ।
भिणमोर्यागः ॥५॥११॥ अगिपूर्वस्य लभेळ नुम् भवति मिणमोः परतः । अलम्भि । अलाभि । लम्भ लम्भम् । लाभ लाभम् । अगेरिति किम् ? प्रालम्भि | प्रलम्भ प्रलम्भम् ।
उगिदयां धेऽधोः ५९४८॥ उगितां गूनाम् अञ्चतेश्च धे परतो नुम् भवत्यत्रोः । गोमान् । धनवान् । निदान । श्रेयान् । भवान् । पचन् । पचन्ती । पचन्तः । अञ्चतेः प्राङ् । प्राञ्चौ । प्राञ्चः । उगिदचामिति किम् ? याक् । वाचौ । वाचः । धे इति किम् ? पचतः पश्य 1 गोमतः पश्य । अञ्चतिमाहणं नियः
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३४२
जैनेन्द्र याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू. ५०-५३ मार्थम् । उगितकार्य ध्रुष्वस्यैव । तेनेह न भवति । उखासत् । पर्णध्वत् । अधौरिति ग्रहणं पर्युदासार्थम् । घोरन्यस्य अधुभूतपूर्वस्य यथा स्यात् । गोमल्यत इति शोमान् । गोमानिवाचरति "कर्तुं क्या सवं विमाषा" [२ ] इति क्याड कृते चिप्यागतनिवृत्ते अतः के यख्ने च कृते सौ नुम् “अस्वसोऽधोः" [४४१२] इति दीत्वम् ।
युजेरसे ।।५।१॥५०॥ युजि इत्येतस्यासे नुम्भवति ये परतः । युट । युन्नी । युजः । “ऋविदर" [शरा५.] इत्यादिना क्यिः । “वित्रत्यस्य कु." [११३७५] । अस इति किन् ? अश्वयुक । अश्वयुनौ । 'ससूद्विप' [२।२५] इत्यादिना विप् । “वारमि" [१॥३॥८२] इति षसः । अस इत्यनर्थतम् । युनेरुच्यमानः कथं तदन्तस्य तुम् । इदमेत्र ज्ञापकम् “धोरधिकार तदन्तविधिरप्यस्ति" [५०] इनि । युने. रितीकारनिर्देशः किम् ? "युज समाधी" [धा०] इत्यस्य ग्रहण मा भूत् । युजमिच्छते मोक्षाय ।
नपोऽज्मलः ॥११॥५१॥ नपुंसकलिङ्गत्याजन्तस्य मन्तस्य च नुम् भवति धे परतः। वनानि । धनानि । दधीनि । मधूनि । उदश्विन्ति | सपीषि । अझल इति किम् ? बिमलदिवि । चत्वारि । बहुगिरि । अहानि । “उगिचा धेऽधोः" [4/31५६] इति नुमं बाधित्वा परत्वादनेन नुम् । ददन्ति । जाग्रन्ति । जगन्ति |
सुपीकोऽचि ॥२॥५२॥ अजादौ नुपि परत इगन्तत्य नपो नुम् भवति । तुम्बुमणे | पुणे । मुपीति किम् ? तुम्बापो विकारः तौचानं चूर्णम् ! "ट नोटोऽरापमानः" [ १३४] इन्युकारत्यौलम् । इक इति किम् ? बने। जले। अत्रीति किम् ! जनुभ्याम् । अप्रणमनर्थकन् । हल्यपि नमि नग्ने कृते सिध्यति जतुभ्यामिति । तथा अतिराभ्याम् प्रियतिसम्यां कुलाभ्यामित्वपि । संयमनिकान्ताभ्यां कुलाभ्याम् | "तिपादयः" [३।३।८३] इति घसे कृते । “प्रो नपि" [91910] इति प्रादेशः । प्रियास्तिस्रो ययोः कुलयोरिति विग्रहे यसः । अत्र परत्वान्नुमै बाधित्वा "रायो हलि" [५/१/१४४] इत्यास्त्रं तिसभावः । "सकृद्गते परनिर्णये बाधित एव" [१०] इति तिरसृशब्दस्य पुनर्नुम्न भवति । शुचिशब्दस्यापि नपुंसकलिङ्गविवक्षावामामि परतः पूर्वविप्रतिषेधेन नुटि कृते नुम् । मृदन्तस्य नुमः खम् । “बनणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव महणम् प०] इति “इन्हन्पूपार्यग्णाम्" [४/५/६] "शौं' [४।५।१०] इत्यस्य नियमस्याभावात् "मोकः" [ ५] इति दील्ये कृते सिद्धं शुचीनामिति | बत्र नखं नास्ति तुत्र श्रवणं त्यात् । हे जानो । “नोमता गोः" [2191६४] इनि प्रतिषेधाःकथन्तुम् ? इदमेवानहरणं ज्ञापकम् । अनिःयः सप्रतिषेधः । तेन की प्रस्यपि कृते मिर्झ हे चपो इति । उत्तरार्थ च |
मादी वोक्तपुंस्कं पुंवत् ॥११॥५३॥ अथवशाद्विभक्तिविपरिणामः | इगन्तं नम् उक्त पुस्त भादाबजादो परतो बा ऍवद्भवति | शुचिः साधुः । हाचि साधत्तम् । सरवे । तिने समय देश दुश्चक्रिणः । अग्रणि दण्डरत्नम् | पुंबन्नावपदे "प्रो नपि" [11110] इति प्रादेशाभारः | "एनिवाचादुकोऽसुधियः" [शक्ष-] इति वा च । अग्रण्या | अग्रणिन! । अबण्वे । अग्रणिने । अग्रण्यः । अग्रणिनः । अग्रण्योः । अग्रणिनोः। अग्रण्याम् | अग्रणीनाम् । पूर्वविप्रतिपेन नुट् । अग्रण्याम् । अग्रणिनि इल्या कृताकत सङ्गित्वेन नित्यत्वात् "राम ग्वाम्नीया" [५/२०१०] इत्वाम् । मृट्वे मृदुने वस्त्राय । कर्ता नरः । क कुलम् । कर्ता पर्नुणा। कत्रे । कर्तृणे | इक इत्येव | जसपा सुरुषः । जलय कुलम् । जलपेन । विचीदं रूपम् । अत्रीत्येव प्रामणिभ्यम् | प्रादेशो भव-येव । भादाविति किम् ? अग्रणिनी दण्डचक्ररत्ने । उक्त पुंस्कमिति किम् ? पुणे । भादायुक्तपुंस्कानि सिद्धे नपो विकल्प पुवग्रहणसामगंद प्रकृतस्यापि प्रादेशस्य विकल्पः । उक्तः पुमान् येन तुल्ये प्रवृत्तिनिमित्तेऽथें तदुक्त पुस्कं माब्दरूपं गृह्यते । तेन भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तस्य पुसि नपुनकशब्दस्य विकल्पो न भवति । पीलुने कलाय । पीलुाब्दस्य वृक्षे समुदाय प्रतिनिमित्त 'फले तु तदययवः ।
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१० ५ पा० १ सय ५४-६] महावृत्तिसाहितम्
३४३ सक्थ्यस्थिदध्यणामम ॥९५४॥ सक्थि अस्थि दधि अक्षि इत्येतेषां नपामनादेशो भवति । सक्थ्ना | सक्थ्ने । अस्थना | अस्थने । दमा । ध्ने । अक्षणा] अक्षणे | भावावित्येव । अस्थिनी । अचील्येत्र | अस्थिभ्यान् । प्रियसपना व्याधेन । गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिपि सक्थ्यादीनां नपुंसकानाम् । तदन्तस्य नमकस्थान सकस्य च गोरनादेशो मति । केवलानां सवादीनां व्यपदेशिवदाबाद्गुन्वम् । "व्यपदेशिननायो न मृदा" [१०] इतोयं परिभाषा त्यविषया नेहावतिष्ठते । नप इति किम् ? दमिनोम कश्चित् तेन दधिना । लोकप्रसिद्ध शब्दानुसासनं हीदमिति लोकसिद्धेनानका सूत्रनिदेशः । मुगीकोऽचीत्येव । ना इति प्रकृतिविशेपमिद गृह्यमाणविशेषणमिति पुंलिङ्गः सनुदायोऽनकोऽवकाशः प्रियसना पुरुषेण । नुमस्तु दत्रिनी सक्थिनी । इत्यादौ परत्वादनङ् ।।
विदेः शतुर्वसुः ॥५॥५५॥ भादायजादौ सुपीति निवृत्तम् । विटेः परस्य शनुर्वसुगदशो भवति । विद्वान् ! विद्वांसी। विद्वांसः । विद्यांसम् । विद्वायौं । विदेरिति कानिदेशाद्विन्दतेनिवृतिः । अत्यनुवर्तत इत्येके का । विदन्तौ ।
न थान् ॥५॥१॥५६।। नुमनुवर्तते प्रकृनत्वात् । श्रादुत्तरस्य शनु न भवति । ददत् । ददतौ । ददतः । ददतम् । ठदतौ । जाग्रस् । जानती। जाननः । जानतम् । जाग्रतौ । “उगिदनां धेऽधोः' [५।११४६] इत्यस्य प्रतिरोधः ।
वा नपः ॥५॥३१५७।। थादुत्तरस्य नसकस शतुर्वा नुम् भवति । ददन्ति कुलानि । ददनि कुलनि | जाग्रन्ति कुलानि । जाग्रति कुलानि । “नपोऽऽमलः" [५111५१] इति नुफिल्पितः । दगिल्लक्षणस्तु "सकृदूगते परनिर्णये बाधितो बाधित एवं" [१०] इति ।
शीम्बोरात् ॥५॥१॥५८|| अवर्णान्ताद गौः परस्य शतुर्वा नुम् भवति शी मु इत्यतयोः परतः । तुदती कुले | तुदन्ती कुले। तुदती खो। तुदन्ती स्त्री । याती कुले। यान्ती कुले। यानी बड़वा । यान्ती वड़वा । करिप्यती कुले | करिश्वती कुले । करिष्यती स्त्री । करिष्यन्ती स्त्री | आदिति किम ? अदती स्त्री । प्नती स्त्री । अवर्णभावाश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वात्यानुमः पररूपम् “वाद् गावं यलीयः" [प०] इाप नास्ति भिन्नकाल वात् । समकालं हि नलागलं चिन्यते। मिन्नकालता च पूर्वमेकादेशः पश्चान्नुम् । एकादेशे कृते व्यपवाभावादवर्णान्तागोउत्तरस्य शतुरिति न घटते । “प्राथन्तवदेकस्मिन्" [वद्वम् ५।३।७३] इति तद्भावोऽपि न सम्भवति । “उभयत अाश्रमणे न सहन्नावः" [प०] इति वचगात् । उभय ह्यप्राश्रीयतेऽवर्णान्तो गुः शता च | योकादेशः पूर्व प्रत्यन्तवद्भवति तदा शता न विद्यते | अथ परं प्रत्यादिवत्तदाध्यान्तो गुर्नास्ति 1 भूतपूर्वगल्याऽवर्णान्तम्य गोराश्रयणे अदतीत्यादिभ्यपि स्यात् । अत्रापि भूतपूर्वगया शत् । एवं तहि सूत्रसामयाद्भुतपूर्वगतिराध्रयणीया | अदतील्यादिपु तु नुम्न भवति श्रादिति निर्देशान् । अन्यथा शीम्बोरित्येव याच्या अवास्यासम्भवात् ।
श्यशपः ॥५॥१॥५६॥ श्य शप् इत्येताम्यां परस्य शहुर्नुम भवति शोम्शेः परतः । दोव्यन्तो कुले | दीयन्ती स्त्री। पचन्ती कुले | पचन्ती ली 1 पुनरारम्भो नित्यार्थः ।
सावनढुहः ॥५११६०॥ वेति निवृत्तम् । अनडुह इत्येतस्य नुम् भवति सौ परतः। अनड्वान् । हे अनड्वन् ।
दिच श्रौत् ॥१॥६॥ दिव इत्येतस्य सौ परत औकारादेशो भवति । द्यौराह्यते पुण्येन । हे द्यौः। सुग्ने प्राप्ते परमादौकारादेशः । "अनल्विधौ" १५६] इति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्पुनर्न मुखम् । अथेह करमान्न भवति अक्षरिति । अवान्तरजवादूट । अन्तरमना च की वकारस्योट क्यन्तस्य साचौकारः । व्युत्पत्तिः "दिवेर्डि" [ उ० सू० ] इति दिग् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० ५ पा० १ सू० ६२-००
मिथ्याम ||४|१ | ६२|| पथिन् मधिन् ऋभुक्षिन् इत्येतेोरामा कारादेशो भवति सौ परतः । पन्थाः । मन्थाः । ऋभुक्षाः । " असेल : " [३/१/४६ ] इति नकारस्वात्वम् । “ए” [५/१/६३ ] इतीकारस्यापि | “स्वेऽको दी:" [भ] ।
३४५
||४|११६३ ॥ पथ्यादीनामवयवस्येका रत्याकारादेशो भवति ये परतः । पन्थाः पन्थानौ । पन्थानः । पन्थानम् | पन्थानौ । एवं सन्थाः । मन्थानौ । ऋभुक्षाः । ऋभुक्षायो । एरिन्यत्र तपरत्वाभावादिह कस्मान्न भव त्या पथरिति ? पन्थानमिच्छति । "स्वेपः पयच्” [२|१| ६ ] | "नः क्ये” [१२]१०४] इति पदत्वम् । मृन्तनवम्, “वीरकृद्गे” [५/२/१३४] इति श्रीत्वम् | पथीयतेः किन् । "तः खम्” [४ | ४:५० ] | " बलि व्योः खम्" [२४/३/५५] इति यलम् । इदानीं घे परत भावं प्राप्नोति । "परेऽवः पूर्वविधौ” [१/१/५७ ] इति स्थानिवद्भावादकारेण व्यवधानान्न भवति । "न पदान्तवि" [१|१|५८] इत्यादिना तु यखविधिमेव प्रति स्थानिवद्भाजप्रतिषेधः । आत्यविधिरचायम् । विधिं प्रति कस्मान्न स्थानिवद्भावप्रतिषेधः । ईकारे विधि विधिरिति तत्र विग्रहः । चार्य विधिकारे । " को नष्टं न स्थानिवत्" [१०] इति कस्मान्न प्रतिषेधः । तत्रापि "हो विधिं प्रति नष्टं न स्थानिवत्" [१०] । वे नाव विविनं कौ । श्रवश्यमैवं विज्ञेयम् । अन्वधा को निमित्त भूते नष्टं न स्थानिवद्भक्तीयुच्यमाने लौरिति न सिध्यति । लबमाचष्टे हिच | "थतः खम् [४४५० ] लवतेः किं । पेः खम् । अत्रापि मित्रमेव क्विनिमित्तम् नातः खम् | ततः "परेऽचः पूर्वविध" [ ५७ ] इतिमादधाना खालू | "कौ विधि प्रनष्टं न स्थानिवत्' [प] मृत्युच्य माने सर्वस्य स्थानानप्रतिषेधाल्लरिति सिद्धम् ।
थो थः || ५|६| ६४॥ पथ्यादीनां यकारस्य न्थादेशो भवति के परतः । उक्तान्येवोदाहरणानि । त्रयाणामन्यवृत्ती सम्भवात्यथिमथोत्थस्य न्थादेशः ।
भस्य टेः खम् ||४|११६५॥ पय्यादीनां भकान टेः स्वं भवति । पधः पश्य | पथा । पथे । मथः मथा । मधे ऋभुक्षः पश्य । ऋभुक्षा । ऋभु । मस्येति किम् ? पथिभ्याम् ।
इत्यनुवर्तमानमोह न
सम्बध्यते ।
पुंसोऽसुङ || ५|१|६६|| पुंसोऽसुङ्ङादेशो भवति मे परतः । पुमान् । पुमांस | धुमांसः । सम् | पुमांसौ । इत्येव पुंसः पश्य । “थुनातेर्मुकसुको प्रश्च" [उ. सू. ] इति पुंस् ।
गोर्णिन् ॥ ५६६/६७ ॥ घस्य विभक्तविपरिणामः । गोशब्दापरं द्विद्भवति । शित्कार्यं भवतीत्यर्थः । गोः । गच्छतीति "गमेस्” [उ. सू. ] । गावः । सुगौः । इह कस्मान्न भवति १ द्वे चित्रगो । हे चित्रगवः । विहि तविशेषणाददोपः । गोरेकल्यादिष्वर्थेषु विदितं श्रं द्विद्भवति । चित्रगुशब्दाच्चन्यपदार्थादेकत्वादिषु धम् । अतिदेशोऽयं विनापि तं लभ्यते । यथा गौर्वादकः । गौरित्युक्ते गोवदिति गभ्यते । एवमिहाप्यणितं व्यं णितमाह । द्विदिति गम्यते | गोरात्रिति सिद्धे गिदिति प्रतिपत्तिगौरव किम् ? कचिदन्यत्राप्यतिदेशो यथा स्यात् । तेन चोराब्दस्य श्रीः । यावी । द्यावः ।
वाक्ष्मणलू || ५|१|६८८ ॥ श्रस्मदो वा एल् द्भिवति । अहं पपच । भदं पपाच । अहं चकर ई चकार । अस्मदिति त्रिकरय संज्ञा । “मिङत्रिशोऽस्मयुष्मदस्याः [११२/१५२ ] इति । अस्मदिति किम् ?
13
स पपाच ।
सख्युरी ||५|१२|६६ ॥ वेति नानुवर्तते । श्रकौ यः सखिशब्दस्तस्मात्परं यं द्विद्भवति । सखा । सखायः । सखाश्रम् । सखायौ | अकाविति किम् ? हे सरखे |
नङ सी ||५|१|७०]] समयुरनङादेशो भवति श्री सौ परतः । सखा । श्रावित्येव । हे सखे |
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०५ ० १ सू०७१-८३ ]
महावृत्तिसहितम्
३४५
ऋदुशनस्पुरुवंशोऽनेहसाम् ||५|२|७१ || ऋकारान्तानान उशनम् पुरुवंशस् अनेहम् इत्येतेषां चादेशो भवति सावको परतः । कर्ता । पिता । माला। उधना । पुरुशाखनंदा अकाविति किम है कः । हे मातः । पितः । हे उशनः । हे पुरुदंशः । हे अनेहः । " उशनमः की चैरूप्यमेके वाम्छन्ति । नान्त सान्तमिति । कथं नान्तवा | अकावित्यनुवर्तते । स च नत्रोपदर्थं द्रष्टव्यः । तेन क्वचित्का बयन | हे उशनन् । तथा " नवं म्हन्सस्याकी" [ ५४/३/३०] इत्यत्रापि नोपदर्थ एव । तेन काि नखम् । हे उशन । यहा अनछू न भवति तदा हे उशनः । ऋदिवि तपरकरणममन्देहार्थम् । " गृ निगरणे" [घा०] इत्याद्यनुकरण निवृत्त्यर्थं च गृरिति मया श्रुतः ।
चतुरन हो ||४|११७२॥ चतुर् श्रनडुद इत्येतयोरुकारस्य वा इलयमादेशो भवतः । अनडुह इत्यत्र "हुन्छ| दहशे राधे' [ ४।२१०८] इत्यः सामोऽन्यथाऽन्तर्वतिविभक्तिकृतपदायी कारस्थतः स्यात् । चत्वारि । चत्वारः । श्रनड्वान् । अनचाह । श्राह । गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिरपि । चतुरडुहास्य गोदेशो भवत्यभिसंबन्धात् । केवल योन्तु व्यपदेशवद्भावः । त्रियचत्वारि । प्रियचत्वारः । मिचान् । विवाह | प्रियानवाहः । श्रह अनड्वाह इति गौरादानुग्रहणात् अनडुड़ी | वाह | srot कोश एकार्थी ऋतुदन्तौ तत्र स्त्रियां च कोशव्द प्रयोगः-कोटा | कोयरी | क्रोष्टारः । क्रोष्टारम् | कोयरी। क्रोष्ट्री | गादिजादिप्रभोः । क्रोष्टा । क्रोटना को क्रोोः । क्रोष्ट्रोः । श्रष्टः । कोप्यारे काष्टौ को शस्यामि हलादी च को
कोट कोटः । | हे कोप्टो |
कोइन् । पाम् । क्रोष्टुभिः । क्रोष्टुभ्यः । कोटूनाम् । कोउ । अभिधानलक्षणः कृत्माः । “सितनिगमिमसिशच्य विबाजू कुशिभ्यस्तुः " [3० सू० ] |
घः कौ || ५ | ११७३ ॥ चतुरनहरुकारस्य व इत्ययमादेशो भवति को परतः । हे अतिचत्वः । ग्रन इन् । चाऽऽदेशापवादो ऽयम् ।
ऋत इन्द्रोः ॥ ५९ ॥ ७४ ॥
ऋकारान्तस्य योगेरिकादेशो भवति । किरनि । गिति । श्रास्तीर्णः ।
। विते । ञः क्ने वृतः " सनीड़ वा” [१८] इति विभाषित इटू | " यस्य वा [५] १ | १२६ ] इति प्रतिषेधः । धोरिति किम् ? गातृणाम् । पितॄणाम् । ननु लाक्षणिकं तदत्र कथं प्रानिलाक्षणिकस्याप्यव ग्रामिष्यते । चिकीर्षिता ।
||२४|११७६ ॥ सावेंम्मे ||५|| ७ | हलामचः ॥६७॥ ६६॥ यक्षणश्वलजागृणिश्व्येदिताम् ॥ २५२८१॥ ] इदादो सौ मपरे वा ऐम्भवति । प्राप्ते विकल्पोऽयम् । प्रौगांवोत् । प्रोवीत् | यदा तु "इविजः " [३।६३७६] इत्यनुवर्तमाने “वोर्णोः " [१/११७७ ] इति डित्यम् ता एवैौः प्रतिषेधः । प्रौणुवीत् ।
॥
[ ङः ॥४२॥७५॥ पुचा जोऽतः ||५||७६ ॥ नेटि ॥
श्रतोऽनादेः || ५|११=३॥ श्रनादेस्तो घेव ऐम्भवति इडादो सौ मपरे । ग्रीत् । अकाणीत् । अरणीन् । अराणोत् । श्रत इति किन ? देवीत्। श्रसंवीत् । तथा न्यत् । न्यपुटीत । ननु चात्र कुवादित्वाङित्वे सत्प्रतिषेधो भविष्यति । इग्लक्षणस्य स प्रतिषेधः मिलन एवायम् । अनादरिति किम मा निरशीत् । मा निरवीत् । चेरिति किम् ? अतक्षीत् । श्ररक्षीत् | इट्टादावित्येव । धानीत् । इह कस्मान्न भवति । अचकादिति चकारेऽकारस्य । यस्य न व्यवधानं तस्याकारस्य विकल्पः । श्रत्र तु कासूरान
] कोष्टकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्त्रुदिता । मूत्राणि तु जैनेन्द्र पञ्चाध्यायी
१. प्रतिपु [ मनुसृत्या निर्दिष्टानि ।
४४
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० । मू० ८५-17 व्यवधानम् । नन्वराणोदित्यत्रापि णकारेण व्यवधानमन्ति, नैथं "येन नाग्यवधानं तेन व्यवहिनेपि" [प०] इति वचनप्रामाण्यात् । हलन्तानुवृत्तरेकेरण हला व्यवधाने त्यल्सङ्घानेन व्यवधाने न भवति । यद्यावं धेरिति व्यर्थम् । अतक्षीदित्यत्र समुदायेन व्यवधानात् वर्गसङ्घातेन व्यवधान भवति । न न न भवनीति परिभाषाऽऽश्रयणाटोपः।
वलाधगस्ट ॥५११८४॥ वालादेगस्य इटागमो भवति । नचिता। लवितम । लामनव्यम् । बलादेरिति किम् ? लव्यम् । लवनीयम् । अगत्यात किम ? यास्ते । शेते । ननु "घत इन्दोः (५/३१७४) इत्यनुवर्तमाने घोः संशब्दनेन विहितस्त्र चलादेरिद्भवतीत्युच्यमाने "दादेगे" [111१३५] इन्यत्र महादरेव गे मान्यस्येति रुदादीनाभुदात्त-पाठमामर्थने ठावधारणात् स्वयमेवागस्येविपतीनि व्यर्थ गग्रहणान । ने प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् । जुगुप्मत इत्यादौ धोः संशब्दनेन मन्विहित इतीगग न गर्यात ।
अहोऽलिटि दीः ॥५१॥६५॥ ग्रह उत्तरन्य इटोलिटि भार्गवति । पान्न इडनुमानोऽवशाना विपरिणमते । प्रहीता । ग्रहीतुम् । ग्रहीतव्यम् । अलिटीति किम् ? जगृहिम । “लिहस्फाल्कित्" [१॥३॥७६] "प्रहिमा अनि तिः : I... नमान बनि । जरीहिना | जरोहिला । तन्न सहया विहित इट् तस्य दीभवनीति त्रिहितविशेषणान । "प्रकृतिग्रहणे यळुबन्तस्य ग्रहणम्" [१०] कन्मान्न नि ? "एकाचोऽनुदात्तान्" [५1१1१४५] इति सिंहावलोकनेनै कामहणं मम्बध्यते । नेन ग्रहरेकाचः कार्य बन्नस्य न भवति । ईटि कृते अग्रहीदित्यादौ "ईटीटः" [४।३।२० इयादिकं दीचे कथाभट कार्वन ! स्थानिबद्भावात् । "अनल्विधौं' [1111५६] इति शं न प्रनिलेश्या ? गायमविधिरागमायभायम । अनमो ग्रहणाभावात् ग्राहिता प्राहिन्यते इत्यादौ भिवदियो दीन ।
['वृतो वा ॥५॥३॥८६॥ न लिलि ॥५॥३॥८॥ ]
सौ मे ॥५॥॥ मयरे. मी परतः वृत इसे दोन भवति । प्रानगिया । प्राचरि। आस्तारिष्टाम् । आन्नारिः । “मिथस्थ" [२।१।१२] इत्यादिना तमन्नाम् । “चलायगम्यट" [111८४] मे इति किम् ? प्रावरिष्ट । प्रावरीष्ट । “लिङ स्यो " [२।१।३०] हनीट् ।
सनीड वा ॥१३॥८६॥ मनि परत चुत इ वा भवति । धुर्पते । विवरिपते 1 वियो । मावुवृर्षते । प्राविवरिपते । प्राविवरीपते। प्रावुपति । प्राविरिपति । प्रापियरीपतिः अानिन्नीपनि ।
आतिस्तरिपति | आतिरतरीपनि । “सनि ग्रहगृह" [4/१११८] इतीट् प्रतिषेधे प्राप्ने पक्षे इट । चिकीतीत्यादी दीवे तो लाक्षणिकवादिद्धभावः |
लिङ्स्योर्दै ॥५११६०॥ वृतः परयोः लिड सि इत्येतयोदं वा इड्भवति । द इति शेरेव विशेपण न । लिङने मविषये यासुटि मति अघलादित्वादिडभावः । वृष्टि । वरिषीष्ट । प्रावती । प्राचरिपोष्ट | आलीपोष्ट । श्रास्तरिपोष्ट । “न लिङि" [५/११७] इति दीवाभावः । अनिट् पझे ":" [11५1८६] इनि कित्यम् । मा। श्रवृत । अत्ररिष्ट । अवरोष्ट । प्रावृत्त । प्रावरिष्ट । प्रातरोट । यास्तीताम् | प्रास्तरियानान् । ग्रान्तरो पालाम् । इटो "वनो वा" [५] १८६] इति दीत्वम् । अत्तेत्यादी "प्राद्गोः [५।३।४५] इति सेः स्वभ् । द इति किम : श्रास्तारिष्टाम् । श्रास्तारिपुः । “सौ में" [५1१1८८] इति दीत्वाभावः | वलाद्यगत्येटो विकल्पोऽयन् ।
स्फाइतोऽसुटः ॥॥१६॥ कादमुटः पगे व कारस्तदन्तात् पर योलिन या वा इद् भवति । स्मृपोष्ट । स्मारपोष्ट ! वृषीष्ट ] वरिषीष्ट । अस्मृपाताम । अस्मरियाताम् । “डी” [11111] द | सादिति किम् ? कृपोष्ट । अकृपत । ऋत इत इति किम १ च्योपोष्ट । अयोष्ट । अमुर प्रति किम ! संस्कृ'पोष्ट ।
१. प्रतिषु [ ] कोष्टकान्तर्गतयोः सूत्रयोवृतिपलब्धाऽत: जैनेन्द्रपश्वाध्याय-मनुसन्य सूत्र अमन निर्दिष्टम् ।
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० ५ पा० ६ सू० ६५-६] महावृत्तिसहितम् समस्कृत । सम्पूर्वस्य कृतः “सम्पर्युपारकृजः" ।।३।१०] इति । दिः गुगते : या न अचिना त्येनेत्यन्तरङ्गः मुट् । बहिरङ्गत्वे समक्ते एन कापूर्वमटू स्यात् ।
स्वरतिधुसूत्यूदितः ॥५॥१॥३२॥ स्वरति पूछ धून सूति इत्येतेभ्यः अदिभ्यश्च दलाद्यगम्य वा इइ भवति | "लिल स्त्रोदे" [५।१।६०] इत्येतनिवृत्तम् । चेत्यनुर्वाते । इष्टतोऽधिकाराणां प्रवृत्तिनिवृत्ती इति स्वरतेरप्राप्त विकल्पोऽन्योग प्राप्ते | स्वर्ता । स्वरिता स्वर्नु । स्वग्निम् । विसोता । विसरिता । विधोता । विविता : सोता । सविता । ऊदित्तः । विगाहा । विगाहिला। निगोटा । निहिता । स्वरतेम्लिग निर्देशो यकुबन्तनिवृत्यः । सरीस्वरिता | सूधुओरनुबन्धभिर्देशः सुवतियुक्त्योर्विकल्पनिवृत्त्यर्थः । सविष्यति । धुविष्यति । स्वरतेः स्यविषये "इनृतः स्ये" [५।१।१२६] इति परत्वादिट । स्वरिष्यति । किद्विषयेऽपि परत्वात् "भ्युकः किति" [५।११११७] इति प्रतिषेधः । सूत्वा । धूत्वा । स्वरत्यादीनां प्रतिपदग्रहणं किम् ? अदित एवं ते पठितव्याः १ पृथग्रहणस्यैतत्प्रयोजनम् । अनुबन्धकृतमनित्यं भवति । तेन उपलब्धिः । दंष्टा इत्यत्र पिल्वाद टिस्वान्छीन भवति । अनुबन्धनिर्दिष्टं यङ्गुनन्तस्य न भवति । नोगूहिता ।
रधादेः ॥५॥१९६३॥ रध इत्येवमादिश्वश्च वा इछ भवति । रद्धा । रचिता । नंष्टा । नशिता | रधादयोऽली वत्पर्यन्ताः । प्रकृतस्प्रेटः स्थाद्विकल्पः, क्रादिनियमालिटि कथम् ? रधादिषुदासानुदात्तपाठामाधात् "येन नाप्राप्ते तस्य तद्वाधनम्" इत्यल न्यायस्यासम्भवात्, अविशेगा विकल्पः । ररव । राध्म ! ररन्थिय । रन्धिम् |
निषकुषः ॥१४॥ निस्पूर्यास्कुषः बलाद्यगस्य वा इड् भवति । निष्कोष्टा । निष्कोष्टिता । "इदुदुकोऽत्यपुम्मुहुसः" [५।४।२६] इति रेफस्य सायम् | इणः पवम् । निस् इति किम ? कोपित्ता । प्रकोषिला ।
इट् ते ॥५॥१॥६५॥ निमपूर्वात् कुषः ते परतः इट् भवति । निरकुपितः । निस्कुपितवान् । पुनरिग्रहणं नित्यार्थमन्यथा विकल्पः स्यात् । भारम्भो हि "यस्य वा" [५/११३२१] इत्यस्य माधनार्थो न नित्यार्थः । वेत्युत्तपत्रानुवर्तत एव ।
तीषसहलुभरूपरिषः ॥ ६॥ तकारादावगे परतः इप सह लुभ प रिष इत्येतेभ्यो वाइइ भवति । एष्टा । एपिता । सोदा । सहिता । लोब्धा | लोभिता । रोष्टा | रोपिता । रेष्टा । रेषिता । तकारादाविति किम् ? मपिण्यति । हौत्रादिकत्व ग्रहण सहिंसाहचर्यात् । तेनेतरयोविकल्पो न भवति । को विशेषः ते “यस्य वा" [41१1१२१] इति प्रतिषेधो न भवति । इपितः । इपितवान् । लुभ इत्यविशेषणग्रहणम् ।
___ सनीचन्तर्द्धभ्रस्जदम्भुस्वृश्रियू[भरशपिसनाम् ॥५१॥६॥ इवन्तानां धूनाम् ऋध् भ्रस्न दम्भु स्त्र श्रि यु ऊर्ष भर ज्ञपि सन इत्येव च सनि परतः या दृट् भवति । दुद्यूपति । दिदेविपति । सूत्यूपति । सिसेत्रिषति । अनिट्पने "हमन्तात्" [ ५] इति सनः कित्वम् । “छोः शूदछे च" [ 10] इल्यूट । यणादेशो द्वित्वं च "णि चारिणस्तोरेव" [41 ] इति नियमात सिवेश्चात् परस्य पत्वं न भवति । इसति अदिधिषति । ऋश्रेः सन् । अन्च इति द्वितीयत्येकाचो द्वित्यम् । "प्राप्तधामीत्" [५।२६१५७] इति ऋकारस्य ईस्त्रम् । रतत्वम् । “घस्यात्र खम्" [पा२११६०] । इटि अधिस इति । "न स्फादी न्द्रोऽपि" [४।३।३] इति धिशब्दस्य द्वित्वम् । “चे चर्वम" [५ ] इति दः । विभाति । विभ्रक्षति। निभर्जिपति विनन्जिपति । "भ्रस्जी रसोरम्बा" [१४] इदि रेफसकारयोः वा परो रम् भवति । चिप्सति । धीप्सति । दिग्भिपति । "दम्भ इन्च" [५।२।१५८] इति अस्य इत्वमी ईत्वम् । "चस्यान खम्"। "हलन्सात्" [31]v] इति फिरखान्नैप् । "एकाची वशः" [५।३।५३] इति धत्वम् । "खरि" [५४१३०] इति चलम् । सूस्वर्षति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ५ ० १-१०५ सिरवरिषति । शिश्रीपति । शिविपति । संयुयूपति । संयियविति । इटि कृते "द्विवेच" [ ५] इत्येवादेशयोः स्थानिवद्भाबायु इति द्वियम् | प्रोणुनूपति । प्रो नविषति । प्रोणु नुविपति | इट पई "वोर्णोः" [2191७०] इति या विल्यम् । घुभूति । याबन्तनिवृत्यर्थः शमा निर्देशः । ज्ञाति । जिज्ञविपनि । "आप्पृधामीत् [५।२।१५७] इत्तीच्चखे । सिसासति | खिसानपति । "जनसनखनाम्" [१३] “सनि" [५/३४] स्यात्वम् । सनीति योगविभागात् "तनिपतिदरिद्रो ग्रहणम्"। निनामिनि । तितंसति । निनिपान । पिसति । पिपतिपति । दिदरिद्रासति । दिदरिदिपति । सनीति किम् ? देविता ।
लिशस्तक्त्वोः ॥५१६॥ क्लिशः त क्त्वा इत्तयोवा इह भवति । क्लिष्टः । किशतः । किटवान् । क्लिशितवान् । क्लिष्टवा । क्लिशिस्त्र । इट्पः क्वात्यस्य "क्लिशः" [11111] इति कित्त्वम् । क्लिा इलस्य क्या ये स्वरल्यादिना सिद्रो विकल्पः । ते “यस्य वा" [५११।१२१] इति प्रतिपंधः प्राप्नोति । विश उपताप इत्यस्य तु तत्वोर्नित्यमिटि प्राप्ते विकल्पार्थ वचनम् ।
गुडः ॥५११६६॥ पूश्च त क्या हत्येतयोः परतः पेट भवति । "युकः क्रिति" [५॥१॥३१०] इति प्रतिव्ये प्रा विकल्पः । पूतः । पवितः । पूनवान् । पश्तिवान् । पूत्वा । पयित्वा । इपक्ष ते "तः सेट पूह " [ २] इत्यादिना क्या ये नु "मृर" [१181८०] आदिनियमेन किस्वाभायः । सानुबन्धनिर्देशः पुनो निभूत्यर्थः । इटि सति पुषित इत्वनिष्ट स्यात् ।।
चुदसतेरिद ॥११.००॥ न बसति इत्येताम्म त क्या इत्यायोरिट भवति । तुधितः । तुधित बान् । क्षुधित्वा । दोधित्वा । उपितः। उपिलान् । उपिया । क्षुधेः कपास्य "ध्युङोनो हलः संश्च" [21318७] इति वा कित्त्वम् । तिपा निर्देशो बबन्तनिवृत्यर्थः । बाबरराः । बाबस्तवान् | पुनरिग्रह निस्वार्थम् ।
अञ्चेः पूजायाम् ॥११॥१०१॥ चतैः पृजायामर्थ त कल्ला इल्मेसयोरिन् भत्रति । बा निराम । अशितः | अनिचतवान् । अचिल्ला गुरून् गतः । "नाच पूजे' [४११।२६] इति नयाभारः । कवाये "वोदितः" [१1१1३०४] इति विकल्पे ते "अस्य वा" [५३१११२१] इनि प्रतिमधे प्राने रचनन । मायामिति किम् ? उदनमुदकं कृपात् ।
स्वार्थे लुभात् ॥१९०५॥ स्वार्थे विमोहने वर्तमानात् लुभान् त म्या इत्येत योरिट् भवति । विलुमिताः केशाः । विलुभिता सीमन्ताः | बिलुमितानि पदानि । लुभित्या । लोमित्या । क्त्वा न्ये "सीपसह" [4:११६३] इति विकल्पे ते “यस्य वा" [4/१।१२१] इति प्रतिपंधे वचनम् । स्वार्थ इति किम ? लुब्धो न भने पुण्यम् । विविध मोहनं विमोहनमाकुलीभवनमित्यर्थः । लुभादिले विकरानिर्देशात् “लुभ गाय" [धा०] इल्स्व निवृत्तिः ।
जनश्चः क्त्वः ॥५६२०॥ ज व्रश्च इत्येताभ्यां क्या इत्येतस्बेड् भवति । ननित्यर्थ क्त्व ना. णम् । जरिया | जरीत्या । ब्रश्चित्वा । "मृड" [१०] अादिनियमादकित्रम ? ज इत्येतस्य युकः प्रति पे प्रश्रूदित्वात् विकरूपे प्राप्त सूत्रम् | जू ही ऋयादिकस्य ग्रहगई जपः सानुबन्धकल्यान । जीर्वा ।
वोदितः ।।५।१।१०४॥ उकारेतो धोः कवायत्य वा इत् भवति । शा-वा। शमिया । तात्या । तमित्वा । अनिट्पा “डस्य विझलोः किति" [१३] इति दीलम ।
त्यसौ रुतचुतच्छूदनदनृतः ॥२१॥१०॥ अगे सकागदामो परतः कृत वृत छद नृद् गृग इत्येतेभ्यो या इह भन्नति । कस्य॑ति । अपर्यंत । चिसति । कर्तिध्यति । अकतिप्यन् । चिकतिपति । चर्मति । अचय॑त् । चिचुत्सति । चर्लिष्यति । अचर्तियत् । चिचर्तिपति । छावति । अहवत् । चिकामति । छर्टिप्यति । अहर्दिष्यत् । चिर्दि पति | तत्स्यलि । अतस्य॑त् । तिनस्सति । तईि यति । अतर्दियत् । तिगर्दिपति ।
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श्र० ५ पा । सू० १०६-१०६] महावृत्तिसहितम्
२४६ नस्यति । अनलत् । नियनि । नसियति । अन्नति यत् । निर्तिपति 1 सीति किम् ? कतिना । लामाविति किंग ? अकर्तीत् । अप्राने विकल्पोऽयम् ।
___ गमेरिणमे ॥२१०६॥ गरि भवति सकादौ मे । इड्महणं नित्यार्थम् । गमेरिति मम् । "गम्त सन्द गती [था०] | "सनि" [II156] इति इणो गमादेशस्य "इवधिकः" [१०] इनि वक्तव्येन “इक स्मरणे धा०] इल्लल्या "इड" [ २०] इति “इक अध्ययने” [धा०] इत्यस्य चाविशे. पेण ग्रहणम् । गमिवति । अगमिष्यत् । अनादेशल्येदम् । जिगमिष्यति । इणादेशस्यापीदम् | अधिजियामापति । "इएनदिकः" [षा०] । गमेरिति किम् ? यति | म इति किम् ? संगमीप्ट । मंगस्यते । संजिगसते वमो मात्रा। अधिजिगांसते । “इनिङ्गम्या सनि" [४]018 हिदी बम | 7 दि विनियोला। में याशिस्वस्व सकारादाविष्ट भवतीति । तेन हेलपि कृति चेट सिद्धः। जिगमिप त्वम् । जिगामविता । गमरिति योगविभागो दृष्टव्यः । तत्र चेति सम्बध्वते । शचिदन्यत्रापि वा सकारावि भवति । संजिपिना । संजिसिता । अधिजिगासिता व्याकरणा।
न वृतादेः ॥५॥१।१०७॥ वृनादेमैं इण् न भवति | सकायदाविति निवृत्तम् । यस्यति । अवार्यत् । वृध् । वस्वति । अवत्स्यत् । विवृत्सति । शम्पति । अशय॑न् । शिशत्सति ! स्मन्रयति । अत्यनस्यत् । सिस्यन्त्सति | कल्प्स्यति । नकलप्स्यत् । चिक्तृप्सति । कल्ता। कल्लारौ। कल्लारः | म इ.येत्र 1 नियते "स्यसनोभ्यः " [१२।८८] "लुटि च क्लृपः" [१२] इति वा मविधिः । वृतादयः पञ्च वृतपर्यन्ताः । वृत्करणमिहार्थं श्रुताद्यर्थं च | द्विगता अपि हेतवो भवन्तीति । इह कथं विवृत्सत्यम् । अत्रापि मे दर्शन विषयनिर्देशान्मेनोपलक्षितानां वृतादीनां ने भवति | सैन हेरुपि कृति च इडभावः सिद्धः । विवृत्सिता । दविषवे तु त्रिवर्तिवस्त्र । विवर्तिषितुम् |
शेपदेशेऽत्वदचसृजिदशस्तासौ नित्यानिटस्थेऽन्यादः ।।५।१।१०८॥ उपदेशे अकारवङ्गायः अजन्तेभ्यः सृजि दृशि इत्येताभ्यां च तासौ नित्यानिड्भ्यः थे बा पृट् भवति व्या अद इत्येतौ वर्जयित्वा । मादिनियमादिटि मात्र विकल्पः । अत्वान्-पता । पपक्थ । पेचिथ | शक्ता । शशक्य । शेकिय । अन्याना । बयाथ । बविथ। चेता। चिचेय । चियिथ | होता । जुहोथ । नुहविथ । वष्टा । मस्तष्ठ । समाजय | दृश्-वृष्टा । दद्रष्ट । दर्शिथ | उपदेशा इति किम् ? कष्टी । चर्पिथ । एतेषामिति किम् ? भेता । विभेदिय । तासाविति किम् ? गन्ता । जगन्ध । जगमिथ । नित्यानिट एवोच्यमाने अयं गमिनिल्यानिएन मात्रति । सकारादाचिल्लात् "गमेरियमे" [५१७/१०६] इति । अतोऽस्य विकल्पो न स्यात् । नथा—जिन्नति । जग्रहिय ] लूल्या । लुलविश्व | "सनि प्रहगुहश्च" [५1१11८] युका कित्ति' [4/1११५] इति सनि किरी च नित्यानिटाविमौ न तु तामौ । नित्यग्रहणं किम् ? अडफा । अजिता । अानजिश । विधोना । विधविता । विदुधविश्थ | तातो विभाषिते टोऽनिटकार्य मा भृत् । असति तु निन्यग्रहणे पाक्षिकेशानि होइमाये वाऽनिइभवत्येव । यथा गुहो विभाषितेटोऽपि अनिकाय "झलोऽनिटोऽयः सः" [२१११४०] इति सः । अधुक्षत् । ५ इति किम् ? पेचिम । ययिव । यत्रिम | अध्याद इति किम् ? व्याता। विव्यायध । अत्ता। श्रादिथ । “तदादेशास्तग्रहणेन गृमन्ते" [प०] जयसिथ | अवदिति तपरकर किन् ! राद्वा । रराधिय ।
ऋतः ॥५॥२॥२०६॥ उपदेशे ऋकारान्नात्तासौ नित्यानिटः थे नेव भवति । कर्ता । चकर्थ । हो । जथं । स्मर्ता | सस्मर्थ | धर्ता । दधर्थ । सपरकरणमसन्देहार्थम् । यदि विकल्पः ल्यादजन्तवात् पूर्वेणे व सिद्धः । यदि विधिरिष्टः स्यादव्वाद इत्यत्रैव कारस्व 'पयुदासः क्रियेत पृथग्योगकरणमनर्थकम् । तस्मात्पारिोयात् "न वृताः" [५।११०७] इत्यतः प्रकृतः प्रतिषेध एवाभिसम्बध्यते । असुटः इत्यनुवर्तते | सबस्करिथ ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ५० १ सू० ११०-११५
श्रतैः || ५ | १|११० ॥ श्रः "सः" इत्यनेन युक्तं तन्न भवति । श्ररिथ । प्रतिषेधत्तावन्नाभिसम्बध्यते । ऋत इत्येव सिद्धात् । विकल्पोऽपि यः स्यात् "अत्वमृजिटशः " इत्यत्रैवार्तेग्रहणं क्रियेत । ततः सूत्रारम्भसामर्थ्याद् विधिरभिसम्बध्यते ।
३५०
स्नोर्थात् ||५|१|१११ ॥ नेत्यनुवर्तते । तु इत्येतस्माद् दाधनिभिनादगे इन भवति । मस्नोष्यते । प्रस्नोष्टीष्ट | प्रास्नोष्ट | "" [२७] इति दा । "स्नोव मिश्र" [ २।११५६] इति लुङिन
। मुषिन्यते इत्यत्र "सनि" [इल प्रविवाचरति प्रस्नवित्रीयते । नात्र स्नोतिर्दार्थः । किं तर्हि ? वयन्तो धुः | रोङ ऋतः [५/२/१३६ ] इति रीङ् । दोऽर्थो यस्य सोऽदार्थः । प्रयोजनइत्यर्थः । कदा न स्तुर्दार्थः । यदा भावकर्मकर्मव्यतिद्वारा निर्वाचिताः । सति च देयं तेन कृति न भवति । प्रस्नवितुम् । यदेि सति दे दार्थ दे इति चक्तव्यम् । न इत्यानन्ये विज्ञावेत | स्यादिव्यवधानेन त्वात् प्रतिषेधः । दार्थादिति किम् ? प्रस्नविता | प्रस्नवितुम. ।
क्रमः || ५|१|११२|| दार्थादिति वर्तते । क्रमश्र दार्थादि न भवति । प्रस्वते | प्रकोष्ठ प्रचिकंसते । प्रचिसिध्यते । सन्नन्तमोऽपि *मिरेव दार्थ: । "सनः पूर्ववत्" [ ११२/५८ ] इति क्रमि सम्बन्धिनो दत्यातिदेशात् । अत्रापि दाल भात्रकर्मकर्मव्यतिहारा वृत्त्यादयोऽर्था: "बाओगे" [१/२/३६ ] इति शेषयोगश्च । दार्थादित्येव । प्रक्रमितव्यम् । प्रक्रमितम् । सति दे दार्थलमिति । " प्रादारम्भे" [३८] इति दः ।
कर्तरि कृति ||२||११३॥ क्रमेदमियात् कर्तरि कृति नेड् भवति | वह कृतीति वचनन. मदस्यासम्भवादार्थादिति दवियवादिवगन्तव्यम् । अप्रयोगेऽपि दस्य दविषयत्वं पूर्व तु सत्यच दे दार्थत्वं व्याख्यातम् | प्रकता | उपक्रन्ता । प्रचिसिता । कर्तरि कृति । प्रक्रमितव्यम् । उपक्रमितव्यम् । विक्रम | दार्थादिति किम् ? निष्कमिता । "दुदुङो ऽत्यम्मुहुसः " [५/४१२८ ] इति मत्वम् । "इणः पः” [५४४।२७] त्वम् ।
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वशि || ५|१|११४ ॥ कृतीयेकदेशोऽनुवर्तते । बशादौ कृति नेड् भवति । प्राते प्रतिषेधः । ईश्वरः । दीपः । भस्म | यत्नः | वरन्न ना एवं प्रयोजयन्तीति केचित् । तदयुक्तम् । श्रन्यचापि दर्शनात् । "जमन्ताद्दृष्टः " [ ४० सू०] | दर: | "मुदियोर्गः " [ ४० सू०] । मुद्गः । गर्गः | "इरिदलिभ्यां भः " [30] सू०] । दभी । भः । कुतीति किए है रुरुदिन | रुरुदिम ।
J
एकाचोऽनुदात्तात् ||५|१|११५ ॥ उपदेशे एकाची घोः अनुदाचादिशू न भवति । यान्ा । कर्त्ता । पक्ता । एकाचोऽजस्ताः । श्रइन्तमुदन्तमुदन्तं त्रिश्रीडी इशीको टुकीनी । गुरुमृसु सुक्षु चतुवश्च वर्जयित्वा । ऊर्णो बद्धावादेका-त्वम् । श्राधिपीट | "डो यमहनः " [ १४२१२३] इतिदः । " नो वध लिहि" [|४|११४ ] इति बधादेशः । स यावर्षीदित्यन्न ऐषु मा भूवित्यन्त उदात्तश्चोपदिश्यते । स्थानिवद्भावेनानुदात मा भूदित्यर्थन् । चिता । तरिता । श्वभिता । इत्यादि बोध्यम् । हलन्ता अनुदात्ता प्रदर्श्यन्ते । शर्कियमिवसतयः । प्रभिः प्रकृत्यन्तरमप्यस्ति । प्रस्ता । वसते खिया निर्देशः आच्छादनार्थे नित्यर्थः । सिता पद । वभिरभिलभ्यः । वमिरमिनमिगमयः इनिमन्यती । श्वनिर्देशो मधुर्निवृत्त्यर्थः । मनिता वहिदिदि हिनहिनहिदिलिपियोस्तु "तीस" [ ५।३/३६ ] इति विकल्पो मुहेरपि । रघाटी दिशिवशमृशिम्प शिरिशि
शिनिशिक शिलिशिशयो दश | १० | राधिरुधिकुत्रिसाधियुधिव्याधियन्धिमुभिक्षुधियुध्यतिसिध्यनय - स्नैकादश | ११ | बुध्यतिसिध्यतोः स्वनिर्देशों भौवादिकयोर्निवृत्त्यर्थः । बोधिता । सेधिता । अकारतावेतौ । बुधितम् । सिधितम् । शिविशुपिषिदुपिपिनिििषकृपित्रिभिद्विपिलिपय एकादश || ११|| श्रापितपिस्वपिलिपिल्लुपि चिपिश पिवपितिपि पितृपितृपि पयः त्रयोदश ॥ १३॥ तुद्दिपी रघादिपाठाद्विकल्पितेयै रद्दानुदात्तपाठ
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थ० ५ पा० । सू० ११६-११६] महावृसिसहितम् झल्यकित्यमागमार्थः । अना। ता । द्रमा 1 दर्मा । अदि (हदि)नदिनुस्किन्दिछिदिभिदिशदिक्षुदिपदिग्विदिखियति(विद्यति विन्तयः पञ्चदश ११५। स्वितीति स्यनिर्देशो प्रिस्चिदा स्नेहने इल्लत्व निवृत्त्यर्थः । विद्यतिविन्योविकरणनिर्देशोऽन्यविकरणनिनृत्यर्थः । वेदिता शास्त्रस्य । वेदिता वनस्प। केचित्तु विन्दतिमनिटमिच्छन्ति । बेत्ता घनस्य । पचिर्वाचविचिरिचिसिचिशु चयः पट १६ प्रच्छि ।।। युजिजिगजमुनिज भजिसृजिसजित्यजिजिमस्जिनिजिभ्रस्जिस्वजयश्चतुर्दश ।१४। एकाच इति किम् ? भिदिता । अस्त्ययमले यखे च कृते उदात्तः । न त्वेकाच । नन्वयमप्युपदेशे एकाच । नैवं अभिद्यलपेरणोपदेशात् । यो बिभित्सतीत्यत्रापि स्यात् । सन्नतस्येड्भवत्येव । बिभिरसता | सनि तु परे न भवति । नियमिति स एवायं भिदिरेकाजदनुदात्तश्च । यदि वा उपदेशे अयमेकाच् ? अनुदात्तादिति किम् ? लविना । लबिनुम । उपदेश इनि किम् ? पचित्र । पेचिम । कयमिदमुदाहरणं युक्तम् । असत्युपदेशाधिकारे एकाचोऽनुदात्तस्य यदि लिटि प्रनिरंधः सिद्धः स्वात्तदा नियमः स्यान्चकृबादौ । न च लिटि प्रतिषेधः प्राप्नोति, द्वित्वे कृतेऽनेकारमान । न दुपदेशा. धिकार उपदेशावस्थामामेकाजिति त्या प्रतिषेधः सिद्धस्ततो नियमः ।
तितुत्रतयसिसुसरकसेऽमहादेः ॥५॥५११६॥ अवस्यापि प्रतिरोधोऽयम 1 नि जुत्र न थ मि मु सर क स इत्येतेषु परतो ने भवति ग्रहादीन् बर्जविवा ! तंतिः । तिच् । “न किचि वाघ' [ ४] इति नखदीलयोरभावः । सक्तः । “सिसनिगमिममिमसिसच्यविधाऋषिभ्यस्तुः" [उ० मू। पत्रम । "दाम्नीशपयुयुज" [२।२।१६०] इत्यादिना बट | हन्तः । “हसिमगृण्वमिद मिलूपूर्थिभ्यस्मुः [उ० मू०]
औरणादिकस्यैव तस्य ग्रहणं व्याख्यानात् । के तु इसितमित्येव भवति । काम । “हनिधि रमिकाशिभ्यस्थः" [उ० सू.]। कुक्षिः । " पिप्लुषिसुचिकृप्यशिभ्यः क्सिः" [८० स०] । दक्षुः । “इत्यशिम्या क्मुः" [उ. सू०] "कृधूभ्यां क्सः' । धूसरः । शल्क। "इणमीकापाशल्यसिमधिभ्यः कः" [उ.मू.] । यमः । "वृनृवदिहनिकमिकविमुचिभ्यः सः" [उ० सू०]। अग्रहावेरिति किम् ? निगृहीतिः । अपस्निहितिः । निकुनितिः ।
श्रयका किति ॥५१॥२१॥ श्रि इत्येतस्मादुगन्तेभ्यश्च कितीएन भवति । निपठितिः । “स्थियां निः" [२१३:७५] थित्वा । श्रिनः । श्रितवान् । खुल्या । युतः । युतवान् । वृत्या । वृतः । वृतपान | उपदेश इन्येय । तीत्वा । तीणः । तीर्णवान् । अयुक इति किम ? श्वयित्वा । श्वेः कत्या | अत्र जिरिट च गुगप पानुनः । परत्यानिट । “मृडादि' [१०] नियमादकित्त्वम । कितीति किम ? यिता । यविन्ग । भणुरित्यत्र गिनि स्नो कथं प्रतिषेधः क्रितीत्यत्र गकारोऽपि कृतचत्वों निर्दिष्टः । तस्य पूर्वत्रासिद्धत्वमाश्रित्य पूर्व विसर्जनो यः कुलो क्या रेरुत्वं स्यात् । एबमात्रोऽपि “विति" [11] इति गकारपश्लेषादेव । अणुओ गुबद्भवायः । प्रोणुत । प्रोणु तवान् । एकाच इत्येव । जागरितः । जागरितवान् ।
सनि ग्रहगुहश्च ॥५१११११८॥ ग्रह गुह इत्येताभ्याम् उगन्तेभ्यश्च सनि ने भनि । जिनि । जुबुक्षति । रूपति । "मुषअहिरुदधिदः संश्च" [1१1८२] इति कित्बाजिः । गुहेरूदित्वाद्रिकल्पः प्रातः । लूजम्सनि "झलिकः" [2011३] इति कित्वं बाधित्वा परस्त्रादिर प्राप्तस्तस्यानेन प्रनिपंधे मलादिवान् किम्यन । श्रीग्रहणं न प्रयोजयति "नियूगु भर" [५/३॥६७] विकल्पितेदन्वात् तनोऽपि "सनी वा” [ ४] इति विकल्यः।
कसभ्रवस्तुद्रुस्नुश्रुयो लिटि ॥५॥१॥३१६॥ क स भ पृ स्तु द्रु इत्ये यो लिटी न भवनि । नव । चकम । ससूव । सरसम | अभृव । बभृम | वनुत्र | यम । ववृत ई । चमहे । तुष्टोध | नुष्टुः । नुष्टुम् | दुद्रोथ । दुद्रुव । दुद्रम | सुस्रोथ | सुलुव । सुम्सुम । शुश्रीथ । शुश्रु व | शुभु म । मिद्ध मन्य, रम्भा नियमार्थः । क्रादव एव लिट्यनिटस्ततोऽन्ये सेटः इति । न तु कादयो लिन्येवानिट इति विपरीतो नियमः । "स्वतन्त्रः कर्ता" [१।२१२५] इत्यादिनिर्देशान् । स भ इति प्रकृतिनियमोऽनुदात्ता एत एवानिटो नान्ये ।
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३५२
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० १ ० १ सू० १२०-१२६
चिभिदिव । विभित्रिम | ददि । इदम | "श्रूयुकः किति” [५/१/११०] इति प्रतिषेमद्धे
व्यनियमार्थम् ।
होवोदासे लिटि नेड् । तेन लुलुवि । लुलुविम । श्रथ ( प्रति ) पेधार्थ ग्रहणं कस्मान्न भवति ? यदि प्रतिषेधः एष्टः स्यात् वाधिकारे ग्रहण कियेत न किधिकारे । इह करणं ज्ञापक थे प्रतिषेधाभावस्य | क्वरिथ | स्तुप्रभृतिग्रहां तु प्रतिषेधार्थम् । (थे) "वोपदेशे " [ ५।११३०६ ] इति प्रातः नमन्तु कृभु नियमादि ( टू ) प्राप्तः प्रतिषिध्यते । श्रमुट इत्यनुवर्तते । मंचरकर मंचकरिम |
वीदितस्ते ||४|१|१२०॥ श्वयतेरीदिद्भयश्व ते पग्नः न भवति । शनः । शूनवान् । लग्नः । लग्नवान् । श्रापीनः । श्रापीनवान् । शिव ई ईदित ईकारोऽयत्र मश्लिष्यते । शीङ: "तः सेद् पूत्र शीतः " [१२] इति शापकादिदू । पारिशेष्यादीकारान्तस्य डीडो ग्रहणम् । उड्डीनः । उड्डीनान् । " श्रदितः" [२३१६३] इति त्रयम् | स्वादय श्रोदितः |
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यस्य वा श२१२६ ॥ यस्य त्राऽन्यस्मिन्नितस्तस्य ते परत इन संपति | | रम् | इष्टवान् । द्यूतः । श्रुतवान् । " तनिपतिदरिद्राणाम" [वा०] इति वैट्यपि प्रतित इत्यत्र "इप्तच्छ्रिताप नित [३/२१] इति ज्ञापकादिट् ।
श्रादितः ||११|१२२॥ याकरितश्च पोस्ते परत इन भवति । मित्र मिन्नवान् । विन्नः । विन्नकान् । विष्णुः । दिवणवान्। धृष्णुः । धृष्णवान् । “समः समि" [४] इत्यत्र क्य इगागमवचनासिके आदेशयनं समनित्यमागतेः । विरक्तः ।
या भावारम्भयोः || ४१६१६२३|| भावे आरम्भे च श्रादितो दोस्ते परतो भवति । भिन्न । मेदितमत्व | प्रभिन्नः । प्रमेदितः । निवेदितमत्व | मरिणः । वति योगविभागात् कर्म चारि । यादित इति न सन्निधीयते । शकितो घटः कर्तुम् । शक्तोः कर्तुम् । भावो वर्थः । आधः क्रियावयवः प्रेत्यादिना द्योत्यः आरम्भः । भावग्रहं तस्य विशेषणत् आरम्भो धोः "नमात्रे क..' [२३|१५] इति भावे क्तः । " कर्तरि चारम्भे" [५४५६] इति कर्तरि क्तः ।
"
दान्तशान्तपूर्णदस्त स्पप्रछन्नाः ||४|१|१२४|| दान्तादयः यदा व्यन्ताद् वा निपात्यन्ते । अन्तः । दन्तिः | शान्तः | शमितः । पूर्णः । पूरितः । दस्तः । दासितः । स्परः । स्पाशितः । छन्दः । लादिनः । शनः | शापितः । निलं निपात्यते । दस्तादेरुङः प्रादेशश्न | शमिदम्यग्वेिदी प्रति न स्यानिवत् इति "कस्य चित्रोः वित्ति" [ ४|४|१३] इति दीलम् । ग्रन्यत्र मिर्ता प्रः । जपेतु" भरज्ञखिनाम्" [१७] इति विकल्पितेटो " यस्य वा [ ११२१] इति प्रतिषेधे प्राप्ते ग्रहगाम् ।
||४||१२|| पति इत्येतौ वा ते परतो निपात्येते । मेलामस्मिनियाते वाऽनित्यम् । हृप्यनि लोमानि । हृषितानि लोमानि । हृष्ट लोमभिः । इप्टो ! हृपिनो स्तः । हृन्यादन्ताः । हृषिता दसः । छः "योदितः" [४/६/१०४ ] इति विकल्पिनेो " यस्य वा " [३१२२] इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् 1 अपचितोऽनेन गुरुः । अपत्रावितोऽनेन गुरुः । चाकले विमानोऽनित्वं वदा निपात्यते । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन नित्यमपचितिः ।
क्षुब्धस्वान्तध्वान्तलग्न ग्लिष्टवि रिब्धफाष्टबाद विशस्तष्कघुद्दढ परिवृढाभ्यर्णवृत्ताः ||५|२११२६|| क्षुब्धादयः शब्दाः कान्ता अर्थविशेषे निपात्यन्ते । सुत्रो भवति मन्यश्चेत् । इत्यादिक मध्यते स मन्थः । ननु द्रवद्रव्यसंप्रयुक्ताः सको मन्थ इह गृह्यते । तदुक्त' "शोभेव मन्दरक्षुब्धक्षुभिताम्भो घिर्णमा" इति । क्रियाभिधानेऽन्याभिधाने च न भवति । क्षुभितं मन्थेन । जुभिता सेना | स्वान्नमिति भवति मनश्चेत् । स्वनितमन्यत् । ध्वान्तमिति निपात्यते तमोऽभिधानं चेत् । ध्वनितमवत् । लग्नमिति भवन मनश्चेत् लगतमन्यत् । लिष्टमिति भवति अविस्वष्टश्चेत् । म्लेच्छितमन्यत् । इत्यकारस्य निपानादेव विन्धि
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प्र०५ पा० १ सू० १२७-१३१] महावृषिसहितम्
३५३ इति निपात्यते स्वरश्चेत् । विरेभितमन्यत् । इत्यमेतो निपातनात् । फाण्टमिति निपात्यने अनायासे । फरिणतमन्यत्र । अग्निना तप्तं यत्कयोधणं तत्फाण्टम् । अथवा यदपक्वमन्चूर्णितमनिष्यन्दितमुदकादिसंयोगादिभन्न रमम् | बादमिति भयति नटं (भृशं) चेत् वाहितमन्यत्। वाह प्रयत्ने इत्यस्यानिटत्वम् । विशस्तष्पाविति भवरः विवाती चेत् । विशस्तो वादी ःटो वादी प्रगल्भोऽयिनीतो वा समुपोः “यस्थ बा" [111१२.] “यादितः" [५११२२] इति च प्रतिषेधे मिट्टे नियमाई यात्य एवेति । भावारम्भयो वैवात्येऽनभिधानम् । नियमादन्यत्रेट । विशसितः पशुः । धर्षितः शन्नुणा । कष्टमिति भवति कृच्छ गहने च । कृच्छि दुवं दुःखहेतुश्चोपचारान् । गहन बनम् । युपेरविशदनेऽनियन्धं निपात्यने । जुष्टा रज्नुः । श्रुष्टी पादौ । अविशष्टने इति किम् ? अत्रघुषितं वाक्यमाइ । शब्देनाभिप्रायनिवेदनं विशब्दनं रादपि युपेरथः । अनेकार्थत्वाधूनाम् । हद इति स्यूले बलपति च । दृहिः तेऽनिलं न हसं परत्व च दन्यं निगन्यते । दृहेछ नखबजम् । ननु दृहे खं दत्यं च न निपात्यं हत्वे टुत्ये च कृते सिध्यति । नैवम् । द्धिमा । द्रदयति । परिद्रदच्य गतः इत्यत्र पूर्वत्रासिद्धत्यालू " रोऽनादेः" [१४:५५३] इति रत्वम् "प्ये धिपूर्वात्" [१४५६] इति गोरयादेशश्च न स्यात् । रह च परिदृढत्यापत्वं पारिदृढी कन्येति "प्योऽक्षु रूपान्स्ययोः" [३३।६३] इति यः प्रसञ्येत | स्थूलबलवतोरिति किम ? दृहितन् । दृहित था। परिवत इति निपात्यो ! प्रशुश्चेत । परिपूर्वस्य हे हेा न हन्नम् । ढल्वे प्रयोजनं पूर्वानाम् । परिद्रय गलः इत्यत्र संघाम युद्ध इति सगेः पाठात् गिरहितस्य गिनत्पद्यते । तेन "तिमादयः" [१३] इति पसे क्वात्यस्य प्यादेशः। प्रभाविति किन ? परि हितम् । परिवृहिरान् । अभ्यर्ण इति निपात्ये यायिदूर्य । अभ्यर्ण शेते | अभ्यणा शरत् । विदूर विप्रकट ततोऽन्यत्समविदूरं तरूप मात्र आविर्वम् | "नसे चतुर" [३।५।११५] इत्यत्र न ग इनि योगविभागासापेक्षाधेऽपि टचण् । श्रानिदूर्य इलि किम् ? अर्दितश्चौरः शीतेन । दृत्तमित्यध्ययनेऽर्थे निपाल्यते । वृतेर्यन्त दिडभावी पोरुप च को निपात्यते । नृतं जैनेन्द्रम् । वृत्तस्तकों देवदत्तेन । अध्ययन इति किन ? वर्तितो घटः कुम्भकारेण । यदा वृत्तिरकर्मकस्तदाऽस्य एयन्तस्य वृत्तस्तर्क इति न भवति । बदा तु "तेन निवृत्तः" [३।२।५८] इति ज्ञापकादन्त विताः सकर्मकस्तदा कर्मणि क्त: “यस्य वा" [५/१।१२१] इति प्रतिधावृत्तस्तकः । श्यन्तस्य अध्ययने वर्तित इति भवति ।
सन्निविभ्योः ॥५॥२।१२७॥ सम् नि वि इत्येवंपू दर्देरिएन भवति ते परतः | समर्णः । न्यर्गः । व्यर्णः । सन्निविम्ब इति किम् ? अदितः । मार्दितः ।
नया रुप्यमत्वरसंधुपास्वनः ।।११।१२८|| रुपि अन् स्वर उंयुप आस्वन् इत्येतेभ्यः ते न वा इङ् भवति । अष्टः । पितः । अभ्यन्तः । अभ्यमितः । तूर्णः । त्वरितः । संघुष्टः पादः। संधुपितः पादः | संजुष्टं वाक्यम् । संगुपितं वाक्यम् | आस्वान्तो देवदत्तः। श्रास्वनितो देवदत्तः । पारवान्तं मनः | अास्वनितं मनः । रुपेः “तीपसहलुभरुपरिषः" [ ६] इति विकल्पेटो "यस्य वा" [५।१।१२१] दनि निषिद्धे अभ्यमः प्रासे स्वर "आदितः" [५१।१२२] इति प्रतिपिढे सधुपास्त्रनोरविशन्दनमनमोरया सतोटि प्राप्ती नेति प्रतिषिद्धायां सर्वत्र बेनि विकल्पः ।
हनृतः स्ये ॥५।२।१२९॥ हन्तेः ऋकारान्तेभ्यश्च से परत इद् भवति । हनियति । अहनिप्पन् । करिष्यति । अकरिष्यत् । स्वरत्यादि विकल्प वाधियाऽनेन परत्वादिद् । स्वरिभ्यति । न वेति नानुवर्तते ।
सावः ||५१६।१३०|| अजे सी परतः इट् भवति । ग्राजीत् । आजिटाम् । श्राजिनः । नित्यार्थ प्रारम्भः । साविति किम् ? अजिता ।
स्तुसुधूलो मे ॥५॥१.१३॥ लु सु धूर. इत्येतेभ्यः मपरे सो परतः इद् भवति । अन्लावीन् । असावीत् । अवायोत् । म इति किम् ? अस्नोष्ट | असोष्ट। अबोट । अविष्ट । धूम्रो विकल्या प्रातः । अकारो पुतिनिवृत्त्यर्थः ।
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जैनेन्द्र भ्याकरणम् अ० ५ पा० । सू० १३३-१४० यमरमनमातः सा च ॥१३१३२॥ यम रम नम इत्येतेपाम् अाकारान्तानां मपर सौ परतः सगागभो भवति इट च । अयंसीत् | असिष्टाम् । अयंसिपुः । व्यरंसीत् | व्या मिष्टाम् । व्यरसितः । अनंसीत् । अनंमिष्टाम् । अनंसिषुः । असतीटि हलन्तलक्षण ऐप् स्यात् । सति तु "नेटि" [१०] इति प्रतिपिथ्यो । प्रातः श्रायामोत् । अायासिष्टाम् । आयामिपुः । म हत्येव । उपास्ति । उपासानाम् । उपायंसत । अरंस्त । अरं साताम् । अरंसत ।
स्मिपूज्यशः सनि ॥११३३॥ स्मि पूड अजू अशूङ् इत्येतेभ्यः मनी भन्ननि । सिस्मथिपते । पिंपनियते । अरिरिति । अजिजिपति | अशिशिपते । पूङः सन् । “सनि ग्रहगुहश्च" [५/१/११८] इति प्रतिषिद्धेऽनेनेट् । द्वित्वायर एप् "द्वित्वेऽचि" [1191५६] इति स्थानिकभावेन द्वित्वम् । "श्रोः पुयएज्ये" [पा२।१७८] इति इत्वम् । अवशोरूदित्वादिकल्पः प्रातः अश्नातेदात्तस्य नेह ग्रहणम् ।
किरश्च पञ्चभ्यः ॥५११.११.३४॥ किरादिभ्यः पञ्चम्यः सनीद् भवति । उच्चिकरियति । निजिगम्पिति । दिदरिषते । दिधरिखले | पिछिपति । “प्रच्छेः" [।३।१२] इति जिः । पञ्चा इति किम् ? सिपृश्नति । किरतिगिरत्योः “सनीड् चा" [41१12] इति विकल्पः प्रातः । “यतो वा" [५३१६] इति व्यवस्थितविमापाश्यणादस्थेटो दीर्न भवति । किर इति आदिशब्दस्य खे "सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्टः" [५५२।१४] इति भ्यमः स्थाने इसिः । चकारः सनोऽनुकापरणार्थः, अन्यथा निमित्त मन्देहः स्यात् सेरपि पूर्व श्रुनल्यात् अनुक्तसमुच्चयार्थ इति केचित् । तेन क्वचिदन्यत्रापीठ | "जुगू हिपन् मत्तगजोऽभ्यधावत्"।
रुदादेगें ||३५।। दादिभ्यः पञ्चभ्यः बलादो गे इट् भवति | गेदिति । मदितः । स्वपिति । निःश्वसिति । प्राणिति | जक्षिति । "णोऽनिते" [५४१०४] इति स्वम् । पञ्चभ्व इत्येव शास्ति । ग इति किम् ? स्वता। स्वानुम् । अन्ये चूदात्ताः । बलादावियेव । रुदन्ति । स्वन्ति । यदादेरित्येर कानिर्देशो ग त्यस्वेग्निर्देशस्योत्तरत्र साचकाशत्य त प्रकल्पबति ।
ईडः सचे ॥११॥१३६॥ ईडः सकारादी ध्वे च गे परतः इत् भवति । ईडिय । ईडिथ्ये । ईज्वम् ।
ईशः ॥५॥१।१३७॥ ईश इत्येतस्माच इहू भयति सकारादौ में वे च । ईशिये । इशिष्य । इशिध्ये । ईशिध्वम् । योगविभागो यथासंगनिवृत्यर्थः ।
लिडोऽनन्त्यसखम् ।।५।११३८॥ लिडोऽनन्त्यस्य सस्य ग्यं भवति गे। कुर्वानाम् । कुर्चः । कुर्वीत । :"सुट् तथोः" [२।४०] इति तुटू । मुटयासुटीयुट् सखमनेन । तिपि स्मादौ सम्वेन सिद्धम् । "कृलो ये च" [16] इत्युतम् । “उसि" [३३] इति पररूपम् । अनन्त्य इति किम् ? कुयुः । कुर्याः । कुर्वीथाः । वत्मसोः "विन्तः सखम्" [२१४८०] तसस्तां थसस्तमिति भवितव्यम् । ग इत्येव । क्रियासुः । कृपीप्ट | "रिङ्यलिङ शे" [पा२।१३७] इति यादौ रिकादेशः । "उः'' [१६] इति लिडो दे कित्वम् ।
अतो येय् ॥५॥१॥१३६॥ अकारान्ताद् गोरुत्तरस्य या इत्येतस्य इयादेशो भयत्ति गे| पनेत् । दीव्येन् । “वखि व्योः खम्" [१३।५५] पचेयुः इत्यत्र "उसि" [३३] इति पररूपं न । “
वागावं वलीयः" प.] इति इयादेशो भवति । "यन्यतो दीः" [५२।१६] इति दीत्वं सामान्येनोक्तमनवकाशोनं विधिर्वाधते । अत इति किम् ? चिनुयात् । तपरकरणं किम् ? यायात् । ग इत्येव । चिकीर्यान् । अतः ग्वे पूर्वगत्या स्यात् । या इत्येतत्त, "सूत्रेऽस्मिन्" [५।२।११४] इति इसः स्वम् ।
डिवातः ॥५॥११४०॥ अकारादुनरस्य दिपवल्यात इयित्यय महदेदो भवति । पचेले । पनेथे । सचेताम् | पचेथाम् । डकार इयत्य सोऽयं ङित् तस्यावयच श्रात् । “गाह कुटादेः" [1111७५] इत्यत्र
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अं० ५ पा० । सू० ५४९-१५} महावृत्तिसहितम् डिदिति । वित्तीय द्विदिति कार्यातिदेशः। तेन जुकुटिपति इत्यत्र सनोऽडित्त्वादो न भवति । "गोऽपित्' [1११७८] इत्यत्र तु ङित इव शिवदिति द्रष्टव्यम् । न कार्यातिदेशः । कार्यस्यावयवासम्भवात् । डिति किम् ? पचावहै। बात इति किम् ? पचन्ति ।
आने मुक् ॥५॥५१५॥ अत आने मुगागमो भवति । अान इति ईनिर्देशो अत इति कानिर्देशस्य पूर्वसूत्रे कृतार्थस्य ताक्लुप्तिं करोतीति अकारान्तस्य मुक्त । पचमानः । वपमानः ।
ईयास ३१४ रस कुरा भागम्य असतेयो भवति । आसीनोऽधीते । आम इनि कानिमोऽनवकाश मानस्य रा प्रकल्पयति । परस्यादेरीत् ।
धिभक्त्यामाष्टनः ॥५१.१४३॥ अमन नाकारादेशो भवति विभक्त्यां परतः | अध्याभिः । अष्टाभ्यः । अप्टासु । अप्टानामित्यष्टन श्राम्यात्वे च कृते नान्तत्वाभायादिल्सज्ञा नास्ति | कर्य नुड्। "प्यान्तेल" [१३५] इत्यवान्तग्रहणमुपदेशार्थमुक्तमित्यदोषः । विभक्यामिति किम् ? अपमहापानिहार्यो जिनः । "नोमता गोः" [१४] इति प्रतिषेधात्याभयमात्रं न भवति । कथं "दूतः स्यादष्टमिर्गुणैः" इति ? "अभ्य औश" [५।११३८] इति कृतावीच्चारणं सापकम् , यौवात्यं तत्रैवौशभाव इनि तेनानियमान्यम् । आ इति त्रिशेपनिदेशो नकारत्य स्थाने छस नकाकारनिवृत्यर्थः । श्रात्वमिति जातिनिर्देशे प्रमज्येत ।
रायो हलि ॥५१३१४४॥ इत्येतस्य हलादौ विभक्त्यामाकागदेशो भवति । सः । राभ्याम् । राभिः। राभ्यः । गत । हलौति किम् ? रायो । रायः । विभक्यामेव । रैत्वम, । रैता !
- युष्मदस्मदोः ॥१९४५॥ युष्मदस्मदित्येतयोहलादौ विभक्त्या परतः धात्वं भवति । युवाभ्याम ! आवाभ्याम् । युष्माभिः । अस्माभिः । युग्मासु । अस्मामु | "अन्तेऽलः" [१४] इति दकारस्य भवति ।
रपि ॥५॥२॥१४६॥ इपि च विभक्त्या परतः शुष्मदस्मदोरात्वं भवति । स्वाम। माम् । युवाम् । आयाम् । युधान् । अस्मान् । "खमादेशे" [41१1१४१] इति खे प्रामे पुरस्तादपवादोऽयम् । "सुटोरम" [५३।२४] इत्यम् । “शसो नः" [५।१।२५] इति नकारः।
आवि ॥५॥१११४७॥ औकारे परतः युष्मदस्मदोरात्वं भवति । युवां जैनेन्द्रमधीवाये । आवाम् अधीयहे।
यः॥११।१४८॥ यकारादेशों भवति युष्मदस्मदोविभकल्ला परतः । स्वया । मया । त्वयि । माय । युत्रयोः | आययोः । उत्सऽयम् । यात्वं खं चापवादः । पारिशेप्यादच्यनादेशेऽवतिष्ठते ।
खमादेशे ॥५॥१॥१४६॥ आदेश विभक्त्या युगादस्मदोः खं भवति । यादिश्यत इत्यादेशो विभक्ती । त्वम् । अहम् । यूयम् | वयम् । तुभ्यम् । मह्यम् । · सुस्मन्यम् । अस्मभ्यम् । रूत् । मत् । युष्मत् । अस्मत् । तय। मम । युष्माकम् | अस्माकम् । विभक्त्वामिति किम् ? युष्मदीयः । “स्यदादि" [1190) प्रति दुसञ्ज्ञा । "दोरका" [३।२१६०] इति छः । इदं स्त्रवचनं ज्ञापकम् । अत्त्रविधि प्रति द्विपर्यन्तास्यदादयः । तेन भवच्छन्दस्य भवानिति ।
मावधेः ॥५॥१५०॥ युष्मदस्मदोर्मकारावधेः सङ्घातस्यादेशो भवतीत्येषोऽधिकारो बेदितव्यः । अवधिग्रहणं किम् ? मान्तस्येति वक्तव्यम् । नैव शक्यम् | यत्र युष्मदस्मदौ मान्ती णिनि शिष्यागतनिवृत्ते तत्रैवादेशाः स्युः । ननु गो: “परेऽचा पूर्वविधी" [११.५७] स्थानिवद्भावान्मान्तता नास्ति व्यवधानात् । पचनाच्छु,तिकृतमानन्तर्य विभक्त्याः । अवधिग्रहणे सति दकारान्सयोरपि युप्मदस्मदोर्मावधेः समुदायावयवस्यादेशाः सिद्धा भवन्ति |
युवाचौ द्वौ ॥१॥५६॥ द्वावित्यन्वर्धमहणम् । “एकद्विबहवश्चकशः" [१।२११५५] इत्यत्रान्वसज्ञाकरणात् । द्वित्वे वर्तमानयोर्युष्मदस्मदोर्युन आव इत्येतावादेशौ भवतः। युवाम् । आवाम् । युवाभ्याम् ।
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३५६
जैनेन्द्र-ध्याकरणम्
[अ०५पा०सू० १५२ १५७
श्रावाभ्याम् । युवयोः | आवयोः | मावचेरित्येव । युवकाम् | श्रावकाम् | असहिदस्य न भवति । सेऽपि यहा युष्मदस्मदी द्विवे वर्तेते समुदायः एकत्वे बहुत्ये वा तदापि युवावो भवतः । न चेत् परत्वाद् “यूयवयौ जसि” [११११५२] "वाहों सौ” [५/१२१५३ ] " तुभ्यमय " [५११५४] " मम इसि" [ ५।११५५ ] इत्यादेशान्तरेण बाध्येते । अतिक्रान्तं युवाम् प्रतियुधाम् । श्रत्यावाम् । अतिक्रान्तान् युवाम् श्रतियुत्रान् । श्रतिऋन्तेन युधाम् अतियुवया । श्रत्यायया । श्रतिक्रान्तैर्युयाम् अतियुवाभिः । अत्याचाभिः | अतिक्रान्तेभ्यो युवां देहि वा अतिभ्याम् । अत्यावभ्यम् । श्रतिक्रान्तात् युवां अतियुक्त् । अत्यावत् । श्रतिक्रान्तेभ्यो युवाम् अत चुवत् | त्यावत् । अतिक्रान्तानां युवाम् श्रतियुवाकम् । श्रत्यात्राकम् । अतिकान्ते युवाम् अतियुयि । अल्लावयि । अतिक्रान्तेषु युवाम् अतियुवासु । ऋत्थावासु या समुदायोऽपि द्विवे वर्तते तदा सुतरां भाः । श्रतिकान्ती युवान् श्रतियुवाम् । अत्याचामित्यादि । अपनः । अतिक्रान्तो युवाम् ग्रतिलम् । अत्यहम् | अतिक्रान्ता युवाम् अतिबूयम् । अतिवयम् । अतिक्रान्ताय शुकाम् अतितुभ्यम् । प्रतिमाम् । अनि कान्तस्य युवाम् श्रवितत्र । श्रुतिसम । यदा च युष्मदस्मदी एकत्वे बहुत्वे च ते समुदाय द्विव तदापि न भवतः । अतिक्रान्ती लाम् अतित्वाम् । अतिमाम् । अतिकान्तौ युष्मान् अतियुष्मान् । अत्यस्मान् । इत्य यम् | अतिक्रान्ताभ्यां त्वाम् अतिचाभ्यान् । प्रतिमाभ्याम् । अतिकान्ताभ्यां युष्मान् अतियुष्माभ्याम् । अत्यस्माभ्यां कृतम् | अतिक्रान्ताभ्या युष्मान् अतियुग्माभ्यां देहि । एवम् प्रतित्वाभ्याम् | अतियुग्माभ्यां विभेति । श्रुतित्वयोः । ऋद्धियुग्नयोः स्वम् । प्रतिवयोः । श्रतियुष्मयोर्निधेष्टि ।
यूयवयाँ जसि || ५ | ६| ६५८२ || युष्मदस्मदोर्जेस परतो यूय वय इत्येतावादेशौ भवतः । यूयम् | त्रधम । गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिरयत्र । प्रतिकान्तास्त्वां युवां युष्मान् वा श्रतियूयम् | अतिवन्दम् । परमयूदम । परमचयम् ।
त्या सौ ||४|१|१३|| मदस्मदोर्मावः त्वग्रह इत्येतावादेशौ भयाः सौ परतः । त्वम् | अहम् | परमत्तम् | परमाहम्। प्रतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् वा अतित्वम् । अत्यहम् ।
तुभ्यमी ङ || ५|१|१४४ ॥ तुभ्य मय इत्येतावादेशौ भवतः युष्मदस्मदोर्हय परतः । तुभ्यम् । मक्ष्यम् | तदन्तविधिना अतिकान्ताय त्वां युवां युष्मान् वा श्रुतितुभ्यम् । अतिमह्यम् । परमतुभ्यम् । परममहरम् |
तवमम इसि ||४|१|१५५ ॥ युग्मदस्मदोर्हसि परतः तय मम इलेतावादेशौ भवतः । तथ स्त्रम् । मम स्वम् । अतिक्रान्तस्य त्वां युवाम् युष्मान् वा भक्तिय । श्रतिमम । परमतच । परममम ।
वावे || ५|१| १५६ || एक इत्ययमन्वर्थस ज्ञानिर्देशतेन एकले वर्तमानयोर्यु मदस्मदोर्माचः त्व म इत्येतावादेशौ भवतः । त्वाम् । माम् । यत् । मत् । त्वयि । मयि । अत्रापि या कुष्मदस्मदावेकत्वे समुदाय दिल्वे बहुत्रे वा तदापि त्वमादेशौ भवतः यदि " यूयवधी जसि" [ ५|१|१५२ ] इत्यादिभिरादेशान्तरेन बाध्येते । कथं बाधा ? अतीवाश्चत्वारो योगा इज्ञानुवर्तन्ते । ततो बाधा तद्विपयादन्यत्रायं विधिः । तिषन्तौ स्वां तिष्ठतः पश्येति वा अतित्वाम् । अतिमाम् । श्रतिक्रान्तस्त्विाम् अतित्वान् । एवम् अतिवाभ्याम् । तुभ्यं देहि | अतित्वत् । प्रतित्वयोः | अतित्वाकम् । श्रतित्वयोः । अतिव्यासु | बटा समुदायोजकत्ये तदश सुतराम् । प्रतिक्रान्तं त्वाम् अतिव्याम् ।
त्योश्च || ५|१|१४७॥ त्वमावेक इत्यनुवर्तते । एकयो मदस्मदोः त्वम इत्येतावादेशौ भवतः त्ये द्यौ च परतः । त्वत्तशे मराः । त्वदीयों मदीयः । त्वत्प्रधानाः । मत्प्रधानाः । त्वद्धितम् | मंद तम् | त्वच्छिष्यो मन्द्रियः । विभक्त्यां परतः पूर्वो योगस्तस्या उपि प्रापणार्थं वचनम् । ननु नानापदाश्रयत्वाद्वहिरङ्ग उप् विभक्तीमात्राश्रयत्वादन्तरङ्गस्त्वामादेशः पूर्वं भविष्यतीत्यनर्थक मिदम् । नानर्थकम्। त्वाह तुभ्यमय
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२० ५ पा० १ सू० १५८-१६२ 1 महावृत्तिसहितम्
३५७ तत्र मम बिपये प्रापणार्थम् । चकारों मणिध्वनुकर्षणार्थः । ननु तवममायादेशापवादादेव माधवं लभम् । नैव शक्यम् | विभक्त्या उपि कृते तबममायादेशाभावात्कृत्स्नयोयुप्मदस्मदोः स्थाने स्यात् । ननु बहिरंग उत्रिल्युक्तम् । इदमेव च शब्दोपादानं ज्ञापक्रम् "अन्तरमानपि विधीन् बहिरङ्ग उब् बाधते" प०] तेन यूयं पुत्रा वल्य स युप्मपुत्रः यूयादेशाभावः । गोमान् प्रियो यस्यति गोमप्रियः इत्यादौ नुमादीनामभावः सिद्धः ।
त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसूचतमृ ॥श।१५८॥ गोविभक्त्या परतः त्रि चतुर् इत्येतयोः स्त्रियां वर्न मानयोस्तिस चतस. इन्दतावादेशौ भवतः । तिसृभिः । चतसृभिः । तिसए । चतसृषु । स्त्रियामित्येतत् त्रिचतु रोरेव श्रुतस्वाद्विशेषणं किमर्थम् ? यदा त्रिचतुरो स्त्रियां वर्तते समुदायः पुंसि नपुंसके या सदापि तदर्याचना तिसूचतसृभावो बथा स्यात् । प्रियतिसा । प्रियतिलौ। प्रियतिस्रः । प्रियतित कुलम् । प्रियतिसूरणी । प्रियनसृणि | वदा तु त्रिचतुरौ पुंसि नपुंसके बा वतते समुदायः स्त्रियां तदा न भवति । प्रियाः वयः प्रियाणि त्रीणि या यस्याः स प्रियत्रिः । एत्रं प्रियचत्वाः। खियामिति किम् ? यश्चत्वारः । त्रीणि चारि | चकारोऽनुनसभुश्यानुपरति । "पिकेसी " तेसका ग्रामः ।।
रोऽच्युः ॥५११९५६।। तिस चत. इत्येतोः ऋकारस्य रेफादेशो भवत्यचि परतः । तिमस्तिष्ठन्ति | सिम्मः पश्य । चतस्रस्तिन्ति । चतनः पश्य | मिप्रतिस्रो भवम् । “ऋतो धेि" [५२।१०५] हरेप शनि "सुटि पूर्वस्थम्" [ ] दीत्वं सिङसोः “ऋत उत्" [UIRE] इति उः प्रसयत 1 मनु “मध्येऽपवादाः सूर्यान् विधीन बायन्ते नोत्तरान्" ५०] इति ऋतो किंधे इत्येपः कथं बाधा "स्प परम [१२।१०] इति परशब्दस्योष्टबाचित्वाद्रे फादेशः दृष्टः । डावे । प्रियतिसरि | अथ प्रियतिम्ल इत्यादौ कासान्तः कस्मान्न भवति । समुदायविभक्त्या तिसमाव इति तयाऽन्तो व्याप्त इति न कप् | अचीति किम् ? तिसृभिः । तिमणी। नवानि परल्पाने का प्राप्नोति । नैवम् । “नाम्यतिस्चतस्" [४।३] इति ज्ञापकान्नुटि नुम्रभावी न स्तः। उरिति किम् ? “अन्तेऽलः" [1111४९] इत्येत्र सिद्धम् । उरिस्पक्रियमाणे "येन नाप्राप्त" न्यान निसूनतमभावस्यापदादो रेफ: स्यात् ।
जराया चाऽसङ्॥११०|| जरावा अचि परतो या असआदेशो भवति । जरसौ । जरे । जरसः । जरसन् । जरसा | जरवा । आमि परत्वान्नुहोऽसङः । जरसाम । जराणाम् | नुगः परत्वाट्सङ् । अत्तिजसंस तपासीति । प्रादेशे "एकदेशविकृतमनन्यव" [प०] इति । अतिजरसं कुलं पश्येत्यात्रामं विमनीमपेक्ष्यासह । अनकारान्तो जातः । स तस्योपो निमित्तं न भवति सतिपादलक्षणत्वात् । अतिजरं तिष्ठति । अनिजगैरत्यत्र सन्निपानलक्षणायन्मावैरभावौ। तेन नाऽसछ । अनित्यैषा परिभापति चित्तेन अतिजरसं निति । अतिजरगैरिति ।
त्यदादेगः ॥५२॥१६॥ श्रचीति निवृत्तम् । त्यदादीनामकारादेशो भवति विभक्त्याम् । त्यः । त्यौ । त्यें । तः । तौ । ते । यः । यौ । एमः । एतौ | इमौ 1 इमे । अम् | अमी । द्वौ। दाम्याम् । त्यदादिपु स्वीत्वविवक्षायां "भाविनि भूतबदुपचारात्" इति स्वादिमपेक्ष्यात्ये कृते टाम् । तेन स्या सेत्यादिसिद्धम् । अत्यविधि प्रति द्विपर्यन्तास्थ्यदादयः । “भवतष्ठपसी' [३/२/३१] इति निर्देशात् । तेन भवान् । भवन्ती । भवन्तः । गृह्यमाणेन त्यादिना विभक्ती विशेष्यते । तेनाप्रधानानामत्वं न भवति । अतितदः । प्राधान्ये तु शोभनः सः सुमः ! अतिसः । परमसः । सञ्जाशब्दानां तु त्यदादित्याभावः सर्वनामान्तर्गणत्वात्यदादेः ।
किमः कः ॥५॥३१६२| किगित्येतस्य क इत्ययमादेशो भवति विभक्त्यां परतः । कः । की। के। किमोऽकार एवानुवबंः । पूर्वेण मकारस्यानेन "अनन्स्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [प०] इतीकारस्यात्ये पररूपाचे च कृते सिद्धमिति चेतन, पूर्वेण सत्वपि मकारस्यात्नसम्भवे इकारस्याचं बाधकमेव स्यात् । तक्रदानमिष दधिदानस्य । किञ्च कुत्सायर्थे साकेऽपि यथा न्यादिति कादेशः । विभक्वामित्येव । किं राजा यो न रक्षति ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ ० २ सू० १.३ कुक्की तयोः ॥२१६३॥ किमः कुक इत्येतावादेशी भवतस्तकारादावकारे च परतः 1 कुतः । क | "कुतसोः" इति सूत्रे सित्करणसामोत्यदसशया भसशाकार्ये उत्वे बाधिते यगादेशेन सिद्धं वरूपे साको यथा स्यादित्येनमर्थः छादेशः ।।
तोः सः साधनन्त्ये ।।५।१२१६४॥ त्यवादीनां तवर्गस्यानन्ये सकायदेशो भवति सौ परतः । स्पः । सः एमः | अनन्स्य इति किम् ? म । सः । त्यदाद्यत्वस्येदमादयोऽवकाशाः । सत्त्वस्यानन्यस्तवः । परत्वाद दस्य मत्वं त्यान् । ननु सत्त्वेऽपि यखे सिध्यति । नैवम् "अमिनस्मिन्ग्रहणेऽनर्थकस्यापि ग्रहणात्" [५० ४१२] इति दीत्वं स्यात् । इह च स पुरुष इति हलि सुखे दोषः स्यात् । सा इत्यत्र "अतः" (
३४] इति टाम्न स्यात् । तस्मादनन्त्य इत्युच्यते । अनेघ इत्यत्र नारा फस्मान्न गति ? "न " Eritinी कारस्य त्यदादिग्रहारोनाग्रहणात् । भवानित्वत्र "स्फान्तस्य लम्" [५।१४१] इति सम्बस्मासिदत्वात कारस्य प्राप्नोति । यद्यवं परस्वत्वत्याज्यसिद्ध ल्यानकारो नास्ति । ततोऽन्तरङ्गत्वादनुस्वार एव स्यात् ।
असौ ॥५१६५॥ असाविति निपात्यते । अदसः सकारस्यौत्वं सो सुखम् । अत्वबाधनार्थम् । "तो" [५/३॥१६४] इति दस्य च सत्यम् । असौ । हे असौ । स्त्रीपुसयोरिदम् । सावित्येव । अदः कुलम् । अदस: परस्य सोरौत्यमेव निपात्यमिति चेत् , न, कुत्साद्यविवक्षायामकि त्यदायत्ये टापि कृते “स्वस्थ क्यापीदनः" [५।२।५०] इति इत्वं स्यात् । तेन अतको स्त्रीति न सिध्येत् | सकारस्य त्वौत्वे टाम्नास्तीति न दोपः !
इदमो मः ॥१९१६६॥ इदमित्येतस्य मकारादेशो भवति विमला परतः । साविति निवृत्तम् । उत्तरत्र साविति निर्देशात् । इमौ । इमे । इमै । इमाः । इमे | इमानि ।
दः ॥५।९।१६७॥
या सौ ॥५५॥१.१८॥ इदमो दल्न यकारादेशो भवति सौ परतः । उत्तरत्र पुसीति निर्देशात् स्त्रियामध्यं विधिः । इयं नो । नपुसके सुखे नास्ति ।
पुंसीदोऽय ॥ १६६॥ इदम इपस्य अयादेशो भवति सौ परतः पुस्षभिधेये | अयम् । परमायम । "पूर्वोसरपदयोस्तावस्कार्य पश्चानेकादेशः" । “नेन्द्रस्य" ५।२।२७] इति ज्ञापकान् ।
अनाप्यकः ॥१९९७०॥ इदम इपस्याककारस्यान इल्जयमादेशो भवति श्रापि विमनस्यां परतः । अनेन | परमानेन । अनयोः । अक इति किम् ? इसकेन । इमकयोः । श्राविति प्रत्याहारः टादिरासुपः पकारेण ।
हलि खम् ।।१।१७१॥ हलादावापि परतः अककारस्पेदम इद्र परम वं भवति । अभ्याम् । एभिः । एभ्यः । एषु । अक इत्येव । हमकेभ्यः । "अन्तेऽत्तः" [11] त्मान्न भवति । “नानकेन्तेऽतो विधिः" [प०] । अथवा अर्थक्वाद्विभक्तीपरिणाम इति पूर्वेण सिद्धल्यानोऽन्तेऽल इति नखम् ।
इत्यभवनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ पञ्चमान्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।
मृजैरेप ॥५॥२।१।। गोरित्येतदेवानुवर्तते । मृजेरिक ऐन्भवति । माग । मृजेरितीग निर्देशः “धोः स्वरूपप्रहणात्तस्य विज्ञानम्" [१०] नौणहत्येति तावनिपातनाब्जायते । अन्यथा “इनस्तो निगलो" [५।२।३६] इत्येव तत्वं स्यात् । धोविहिते त्ये ऐभवति । न मृदस्त्ये तेन कंसपरिमुभिरिति । ननु "विरुति" [ १६ इति प्रतिषेधः सिद्धो नैवम् । तिलिमित्तयोरेबपोः स प्रतिषेधः ।
किडत्यचि वा ॥ २॥ मृजेरजादी विकृति वा ऐन्भवति । परिमृजन्ति | परिमार्जन्ति । परिममजतुः। परिममार्जतुः । विडतीति किम् ? परिमार्जनम् । अचीति किम् ? मृष्टः । ते तसि बा द्रष्टव्यम् ।
१. प्रतिषु सूत्रस्थास्य वृत्तिस्त्रुटिता ।
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अ० ५ पा० २ सू० ३-१ ]
महावृत्तिसहितम्
३५६
त्रित्यचः ||२|| जिति शिति च परतोऽजन्तस्य गोरै भवति । प्राकारः । अध्यायः | "अध्यानुवाको” [४/१/६४ ] इति निपातनात् । कारको हारक: 1 नावकः । लायकः । सखायौ । मन्त्रायः । अनर्थकमिदम् । एपिरन अययोश्च कृतयोः "कोऽतः" [२४] इत्येषा सिद्धम् । मैत्रं शक्यम् । “गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमितम् " [१०] इति अमि च सख्युरेम्न विहितः गर्जमियत्र चाक्यादेशाभावादेन सिद्ध्येत । अज्मणमनिगर्थं गौरिति । शित्करं तु गावौ गावः इत्यत्रावादेशे सति "तः [ ५४ ] इलैपिचरतार्थं स्यात् ।
उतः ॥५४॥ गोरकारस्य उडः ऐन भवति प्रिति परतः पाकः पाठः । पाचकः पावकः । पान्चयति । उ इति किम ? पिपावकः । पकाराकारस्य मा भूत् । ग्रन्त्वस्य पूर्वेण प्राप्नोति नैयम । पूर्वविप्रतिषेधेनाः खं भवति । श्रवः इति किम् ? नेवकः । तपरकरणं मुखसुखार्थम् ।
1
हृत्यचामादेः || || || श्रच इत्यनुवर्तते । हूति विति परतः श्रचामादेरच एंव भवति । श्रश्व। उष्ठिः। सौलोचनः । सौतारः । “नदीमानुषी" [ ३|१|१०२ ] यादिना । अवाभिति किम् ? हला मत्रिवज्ञार्थमन्यथा आदीनामेव स्यात् । श्रजगलत रास्यो इलक्षणस्य चैः परत्वादा | त्यः | जागतः 1 “तस्त्रेदम्” [३।३३=८] झत्वा । “सकृद्गने पर निर्णये बाधितः एत्र" [प०] पुनः प्रसङ्गविज्ञानपक्षेऽपि न दोषः । अनुशतिकादिषु पुष्करसच्छन्दपादयत् पौष्करसादिः । वाह्लादेरिय् [ ३१८५ ] | अन्यथा तत्रभवः पदयोरर्थपाठोऽनर्थकः स्यात् |
देविकाशिंशपादीर्घसत्रश्रेय सामाः ॥ शरा६॥ देविकादिभिगच विशेषणात केशनां नदादीनां अहम | देविकायां भयं दाविकमुदकम् । आयविशेपणा विकुले भवा दाविकलाः शालयः । शिंशपाया चिकारः शांश भस्म । शियापास्थले भवं शशिपादम् । दीनं भवं दार्घम योऽधिकृत्य कृतग्रन्थः भित्र वा श्रावसः स्याद्वादः । देविकादीनामादेरच इति किम् ? सुदेत्रिकायां भवा सौदेविकाः पूर्वकियां मचः पूर्ववात्रिकः । पूर्वशशिपः । प्राचां ग्रामी । " प्राचां ग्रामाणाम् " [ ५।२।१६ ] इति व्यास अनेनाकारः ।
केकयमित्रप्रलयानां यादेरिय || शरा७॥ केकय मित्रयु प्रलय हतेयां यकारादेरियादेश भवति निति परतः । के यस्थापयन् । “राष्ट्रशब्दाद्वाशोऽञ्” [३३३|१५० ] | आटरेप | कैकेयः । मित्रयोर्भावः “ वृद्धचरण छलाघाव्याकारावेते [३|४|१२४] इति बुञ् । लौकिकं तत्र वृद्धं यते । मैत्रेकगारलाघते । मलयादागतं प्रालेयम् ।
पदे खोरैयव ॥ शशक्षा पदे परतः श्रचामादेरचः स्थाने कृती व यकारकारी तयोर इत्येतावादेशौ भवतः हृतिं वियति परतः 1 व्याकरणं बच्वधीते वा वैयाकरणः एवं नैयायिकः "यादि सूश्रान्ताट्टण्” [३।२१५२] इति दण् । शोभना अश्वा अस्येति स्वश्वः । तस्यापत्यं सौचविः । आः परत्वादेशौ भवतः । श्रर्हता प्रोक्तमानं तत्त्वम् । पद इति किम् ? : शरियत । यतः छात्रा याताः । अस्त्यचामादेरचः स्थाने "ययोः [ ४/४/६७ ] इति यकारो न तु पदे परतः । योगित किए ? यश्चिः । श्रचामादेरचः इति किम् ? श्रभ्यञ्जनेन चरति श्राभ्यजनिकः । दाभ्यश्विः 1 इह कस्मान्न भवति अशीती भूतो भात्री या द्ववाशीतिकः । यत्रैवादेश्व ऐप्राप्तिस्तत्रायं विधिः । अत्र च "संखायाः संख्यासंवत्सरस्य” [५|२| २०] इति योः प्रातिन द्विशब्दस्य । यो पोऽप्ययमपवादः । पूर्वन्यलिन्द अतः पूर्वत्रैवलिन्दः । " प्राचां प्रामाणाम् " [५/२/१६] इति प्राप्तिः ।
द्वारादेः || ५|२|| द्वार इत्येवमादीनां च धोरैयवित्येतावादेशा भवराः स्थिति इति परतः । द्वारे नियुक्तः दौचारिकः । नायं पदेऽचः स्थाने वकारः इति पूर्वेणाप्राप्तिः । अत्र द्वारादिभिर्योविंशेषणानादि
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०५ पा० २ सू० १०-१५ ग्रहणम् | द्वारपाल्या अपत्यं दौवारपालिकः । “रेवस्थादेष्ण" [३।१।१३४] इति ठण् । स्वरमधिकृत्य कृतो अन्धः सौवरः । तदादेरपि | स्वराध्याये भवः सौवराध्यायः। व्यल्कसे भवः वैवल्कमः । स्वस्तीत्याह सौवस्तिकः । तदात्यस्मिनर्थे ठक्तः । स्वर्मन सौनम् । “भैर्ममा दिग्वम् [वा०] इति टिग्यम । मनमाह सौवर्गमनिकः । स्वः अध्याय स्वाध्यायः | स्त्राध्यावेन चरति सौवाभ्यायिकः । अचामारित्यनुवर्तनाठायचः समोपल्य यण एयौत्रादेशी स्वशब्दस्यैव । तदादिनिधिना सिद्धमिति चेत , न "स्वशब्देन तदादिविधिरनित्य." इतीदमेव शापकम् | तेन स्वपतौ साधु रवापतेयमिति । समयकृतस्यापत्यं स्मैयकृतः । “प्यन्धकमा " (३।१।१०३] इत्यण् । स्वादुष्वरयेदं सौवादुप्यम् | शुनो विकारः शौवः सोच: "श्वाश्मचर्मणां संकोविकारकोशेषु" [1१1१३२] इति टिखम् । शुनो दंष्ट्रा श्वादशा । “अन्यस्यापि" [४३१२३३] इति दीयम् । तत्र भवः शीवादष्ठो मणिः । तथा शौवाहननम् । स्वस्येद सौयम । तदादो स्वग्रामे भवः सोचनामिकः । अध्यारमादित्याहण् ।
न्यग्रोधस्य केवलस्य ॥५१०॥ न्यग्रोधस्य केवलत्य यो कारस्तस्य ऐयित्त्यापादेशो मानिने गिति परतः । न्यग्रोधस्यायं नैवयोधो दण्इः । केवलस्येति किम् ? न्यग्रोधा अस्मिन्देदो सन्ति “यु-छ" [३।२।६] इत्यादि पाटारकः । टाप “त्यस्थे क्यापी" [4/२१५०] इत्यादिनेयम् । न्यग्रोधिकार. भवः न्यानोधिकः । अत्र "भस्य हस्य।" [वा०] इति पुनद्भावः प्राप्तः । "न बुद्भुत्कोङः” [४५३१५] इनि प्रतिवेधः । तथा न्यग्रोधनूले भवं न्यानोधमूलं तृणम् । ऐचेय भवति । ननु व्यत्रोधस्योव्यमान कथापन्याधिनस्य स्पान् ? तदन्तविधिना । देवं नार्थः केवलमहणेन न्यग्रोधस्य प्राधान्येनानपणात्तदन्तषियमाव । एनं तर्हि तदादिनिवृत्यर्थं केवल ग्रहणम् । अन्यत्रेह तदादिविनिरस्तीति सप्यते । न्यग्रोधनीति व्युत्पत्तिपन नियमार्थम् । केवलस्यैव | अव्युत्पत्तिपा विध्यर्ट' गरम ।
नवे || ११॥ जे आर्थे कर्मव्यतिहारे त्रिपति सि यदुक्त तन्न भवति। व्यायुक्षो। व्याक्रोशी । व्यापचोरी वर्शते । “कर्मव्यतिहारे मः" [२।२।७६] इति ञः | "जात् स्त्रियाम्" [१२।२२] इत्यम् । तस्मिन् प्रतिषेधः ।
स्वागतादः ॥२२॥१२॥ स्वागतादेश्च यदुन तन्न भवति । लागतेन चरति स्वागतिकः । त्वध्वरस्यापन स्वाधरिः । स्वमः स्वाङ्गिः । व्यतः व्याङ्गिः । व्यडः व्यादिः । व्यवहारेण चरति व्यावहारिकः । स्वबहारशब्दों न कर्मव्यतिहार एब वर्तते किन्तर्हि लोकवृत्तेऽपि । ततः पाठः । स्वफ्तौ साबु स्वापतेत्रम ।
श्वादेरावतः ॥५॥१३॥ श्वादिरिकादौ यदुनः तन्न भवति । अतश्च य उत्पद्यते तम्मिश्च । चकारमन्तरेणापि समुच्चयो गम्यते । यथा पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति | श्वास्त्रिः । श्वाष्टिः। श्याकर्णिः। श्वाशीर्पिः । श्वागणिकः । शोध मस्त्रास्य, शुन इव दंष्ट्राऽस्य, शुन इव कर्णावस्य, शुन इव शिरोऽस्य । स्वशिरसोऽपत्यं बाहादिपाठादि । अजादौ इति शिरसः शीपादेश उपसङ्ख्यानेन । इकारदीत्वं व्यपदेशिद्भानेन । अतो य उत्पद्यते तत्रापि प्रतिषेधः। श्वाभत्ररि श्वाभत्रम | श्वाकणंन । "इनः" [३।२६] इत्यम् । श्वन्शब्दो द्वारादिषु पश्यते । तस्य तदादिनिधिः अस्तीति इदमेव प्रतिरोधवचनं ज्ञापकम् । श्वारिति किम् ? श्वभिश्चरति शौविकः । केवलस्य न प्रतिषेधः "नोऽपु सो हति" [Telf३०] इति टिस्त्रम् । आवश इति किम् ? श्वाभत्रस्येदं शौवाभस्त्रम् | शौवादंष्ट्रो मणिः ।
वा पदान्तस्य ॥५२॥१४॥ श्वादेगोः पदशब्दान्तत्य यदुक्त तन्न भवति वा । किमुक्कम ! द्वारादी श्वशब्दस्य तदादिविधिना श्रीयुक्तः। श्वापदानां समूहः श्वापदम् । शौयापदम् । शुन इन पामस्य श्वापदः । "अन्यस्यापि" [४।३।२३ २] इति दील्यन । इकागदौ पूर्वनिर्णयेन नित्यः प्रतिषेधः । श्वापदेन चरति श्वापदिकः । अन्तग्रहण न कर्तव्यम् । “येनालि विधिस्तदन्तायोः” [११११६७] इनि स्वयमेव पदान्तस्य स्वादरित्यनु
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प्र० ५ पा र सू० १५-१५] महावृत्तिसहितम्
३६१ वर्तमानारुच नान्यस्य फस्यचिद् भात्रिष्यति । एवं सान्तमा ज्ञापकनित्यस्तदन्तविधिः । तेन “स-स्म-विधौ न नवन्तविधिः" [प०] इति न वक्तव्यः ।
यो ।५।२।१५॥ घोरित्ययमशितो येदितव्य । यदिरा ऊर्ध्वमनुकभिप्यामः चोरित्येवं तद वेदितव्यम् । "हमतीजमाJइत्यत पनि । “मोरपदामा " [५२२२३] प्रोटपटासु जातः प्रोष्ठपादो माणचकः । द्योरैः । पूर्वपदस्य तेन न भवति। "येम मात्राप्ते तस्य तद्वाधनम्" [१०] इति न्यायात् । ननु "ईकेयध्यमाय पूर्वपरयोः" [1] इति न्याने "अवयवाहतो" [५।१६] इत्यादौ कानिर्देशाद् घोरेव भविष्यति नार्थोऽनेन ? "प्रोत्पदाना जाते" इल्पादो शानिर्देशो नास्ति तदर्थ यचनम् । अन्यथा प्रोष्ठएटाटी नियमो न शक्येत।
अवयवाहतोः ॥शरा१६॥ अत्रयवादिनः शहादुत्तरस्य ऋतोरिचामादेरच ऐभवति । पूर्वयापिकः । अपवार्षिकः । पूर्वासु वर्षासु जातः । हदविवक्षायां "हृदयसमाहारे' [१।३।४६] इनि प्रसः । “कालाह" [३।२।१३.] इति दम् । ननु कालानुक्त । "म-न्य-विधौ न तदन्तविधिः" [१०] 1 ऋथं कालान्तात् ? नैव दोषः । “मतोर्षिद्विधाववयत्रान्" इति सदन्तविधिमपग्रतधातः। एवं पूर्व हैमनः | अपरहैमनः । "भसन्ध्या" [३।२।१३७इत्यादिनागा । "हेमन्तात्तलम्" [२॥३/१३५] इति तस्यम् । अवययादिति किम ! पूर्वस्वतीतासु वर्षासु जातः पौर्ववर्षः । श्रापरवर्गः । "प्रान्ट्रोरण." [२११।६८] 1 पूर्वशब्दोऽत्र कालयाची नावश्ववाची । अत एवात्रयलक्षातदन्तत्रिध्यभावात् "काला" [३।२।१३१] नेप्यते ।।
सुसांद्राष्ट्रस्य ॥४॥२॥१७॥ तु सर्व अर्द्ध इत्येवं पूर्वस्य राष्ट्रवाचिनः शब्दस्य योरचामादेरच ऐब भवति । मुपाञ्चालकः । सर्वपाश्चालकः । अर्द्ध पाश्चातकः । शोभनाः पाञ्चालाः । प्रादिलक्ष गाः प्रसः । सर्च पाञ्चालाः । “पूर्वकाल" [१५३।४५] इत्यादिना यमः | अपाञ्चाला इति । “विशेषणं विशेष्येणेति" [१।३३५२] पसः । नुपञ्चालेषु जातः "राष्ट्रावध्योः" [३।२११०२] "बदुत्वेश्वोरपि" [१२।१०३] इनि युज । कथं राष्ट्रादुच्यमानस्तदन्ताह । “सुसद्धिांदिक्शन्देभ्यो जनपदस्य” इति तदन्तबिधिरुपसायातः । एवं सुमागाधकः । सर्वमागधकः | अर्द्धमागधकः |
दिशोऽमद्राणाम् ||५१२११८॥ राष्टूस्येत्यनुवर्तते । दिक्शब्दादुसरस्य राष्ट्रस्य मद्रवर्जितस्य धोरचामादेच ऐम् भवति । पूर्वपाञ्चालकः । अपरपाबालकः । दक्षिणमागधकः | उत्तरमागधकः । पूर्वेषु पाञ्चालेपु जातः । हदथें सः। पूर्वोक्तेन तदन्तविधिना बुन्। श्रमद्राणामिति किम् ? पौर्यमद्रः । “मद्रभ्योऽण" [३।२।८५] । दिशा इति किन ? पूर्वेश्ववयवभूतेषु पाञ्चालेषु भवः । अणि । पौर्यपञ्चालः | दिशि यः पूर्वशब्दो वर्तते स दिक्शब्दोऽभिप्रेती नाक्यवे वर्तमानः । अत एव तदन्तविभ्यभावाद नास्ति 1 योगविभाग उत्तरार्थः ।
प्राचां प्रामाणाम् ॥१२॥१६॥ दिश इत्यनुवर्तते । दिच्छब्दानुभरे प्राचां देशे नामाणामचामादरच ऐठमयति । राष्ट्रस्येत्यनुवर्तनात् प्राचामित्याचार्यग्रहणं नाशयम् । यदि पूर्वोत्तरपदसमुदायो ग्रामनामधेयस्तदा ग्रामवाचिनो गोरवयवस्य दिक्छब्दात् परस्य ऐन्भवतीत्यभिसम्बन्धः । इतरत्र तु दिश उत्तरेगां प्रामाणामिति । पूर्वा चासौ इयुकामशमी च "विक्समय खी" [१।३।४५] इति एसः । पूर्वपुकामशम्यां बातः। अगिा । पूर्वयुकामशमः । अपरेषुकामशमः | "नेश्वस्य" [५।२।२०] इति प्रतिपंधवचनं ज्ञापकम् । पाम्यूत्तरपदयो. रैबादिकार्य पश्चादेकादेश इति । एवं पूर्वी चासौ कृष्णमूत्तिका च पूर्वकार्णमृत्तिकः। असञ्ज्ञापक्षे पूर्वस्यामिपुकामराभ्यां जातः | "दर्भ" [१॥२॥४५] इति 'पसः | "दिगादेरखी" [३URVE] इति श: । शेषं पूर्ववत । "अत्र ग्रामग्रहणे नगरस्यापि ग्रहणम्" [वा.] | यथा लोके अभक्ष्यो प्रामकुक्कुट इति नागरोऽपि न भक्ष्यते । सज्ञापन्चे पूर्व च तत्पाटलिपुत्रं च । अन्यत्र पूर्वस्मिन् पाटलिपुत्र जात इति "रोशीतो प्राचाम्" [३१२११०१)
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प्र. ५. ० २ सू० २०-२४ इति चुन । पूर्वपाटलिपुत्रः । अपरपाटलिपुत्रकः । पूर्वकन्याकुब्जायां पूर्वस्यां कन्याला यां वा जातः अरिण में च कृते पूर्वकान्यकुब्जः । ननु चैकमेव पाटलिपुत्रम् | पाटलिपुत्रान्तरस्य व्यवच्छे यस्या पावाद् कथं पूर्वशन्दन विशेष्यते ? पाटलिपुौकदेशे पाटलिपुत्रशब्दो वर्तते इत्यदोषः ।
आयाः समपासंवत्सरस्य रा२०॥ सङ्ख्यायाः परस्य सस पाशब्दस्य संवत्सरस्य च घोरचामादेरच ऐन्भवति णिति इति परतः । द्विनावतिकम् । त्रिनावतिकम । द्वाभ्यां नवतिभ्यां क्रीनम् । हृदर्थ रसः । “आहाद्वण" [३।१७] । तस्य "रादुवखो' [३।४।२६] इत्युः । दिनदतिना द्रव्येण क्रीतं युनक्षण । अथवा द्वौ च नबतिश्च । “वा चत्वारिंशदादौ" [४।३१९६०] इत्यनात्वा । "
सिमशिष्यं लोकाश्र. यल्वाल्लिङ्गस्य" [प०] इति नैकवद्भावेऽपि नपुसकत्वम् । “द्वन्द्वे चुस्लिाम्' [३२] द्विनवाया गौतम । गर्व हे पनी भूतो भावी वा द्विपाटिकः । द्विषष्ठयादिशब्दो वर्षेषु सङ्खये येषु वर्तमानः वालवाची । तेन कालाधिकारविहित । द्वौ संवत्सरी भूतो भावी वा द्विसांवत्सरिकः । त्रिसांवत्सरिकः । गत्सरग्रहगा निरर्थकम । "परिमाणस्थाखुशाणे" [५।२१२२] इत्येव सिद्धम् | तत्र अशाण इति प्रतिरोधात् गच्छेद मात्र गृपते नारोहपरिणाहलक्षणम् । तेन द्विवैतस्तिकम् , त्रिवैतस्तिकामिति सिद्धम् । एवं तहिं वत्सग्नदगं नायकम् । "परिमाणमहणेन कालपरिमाणं गृहाते" । तेन द्वे समे अधीष्टो वैसमिकः । बरैन भवनि नमा द्विवर्ष मागविका । “परिमाणाद्यपि" [३३२६] "रात्" [३|२५] इति हीन भवनि | है वर्ष भूता प्रामा उमः "वर्षाटुप् च' [३।४।८५] "पाणिन्युप्" [३५१६] ।
वर्षस्यामाविनि ।।२।२२॥ सङ्कथाया इति वर्तते । सहयावाः परत्त वर्षशब्दस्य अनागोदरच ध्वति इति रिहति परतः यद्याविन्यथे हत्तदैव स्यात् । द्वे वर्षे भूतं द्विना कम । प्रभाविनीति किम् ? त्रीणि वणि भावि त्रैवारिक धान्यम् | ननु द्वे वर्षे अधीप्टो भृतो या कर्म चारप्यति द्वियापिको मनुष्य नि भाविता गम्यते यथं न प्रतिषेधः ? गैवम् ; करिष्यतीति प्रयोगे भाविता मन तु हृदों भावी । ननु मनुश्या निधाने "प्राणिन्युष" [३।१८६] इति ठण उप कस्मान्न भवति । भूनावपये सोभ्युपगम्यते ना.धी टाटी। ततो "वर्षांदुप्च" [ ५] इति विकल्प उच् भवति ।
__परिमाणस्यान्वुशाणे ॥२।२२।। सङ्खचाया इति वर्तते । सङ्घश्यायाः परस्य परिमाणस्य समुदायनावी गम्बनानायामशागो च धोरचादरचो ऐबू भवति । अनुशाण इति विषयलक्षणेयमीपू | द्विसावर्णिकम । द्वाम्मा सुवर्णाभ्यां क्रीतम् । अारिणः कापणसहस्रसुवर्णशतमानामा" [३।११२७] इति वानुम् । एवं द्वि नौकरन । त्रिफिकम् । बाहुनैष्किकम् । “विनियहोर्निष्कविस्तात्" [३॥२८] इति बोप् । द्विकोडविकम् । दायां कुछ वाभ्यां क्रीतन् । “रादुबखौ" [३।१।२६] इत्युप् । द्वि कुडवेन ट्रन्येण क्रोरों पुनष्ठण् । अनुशाग इति किन ? पञ्च लोहितानि परिमाणमस्थ, पञ्च कलापाः परिमाणमस्य पाञ्चलौहितिकम् , लोहिनीशब्दस्य "चा ठण यसोः" ठक्छसोश्व] [ वा०] इति मुंबद्भावे रूपम् | पाञ्चकालापिकम् । “परिमाणास्सङ्ख्यायाः सशसूत्राध्ययने" [३३५३] इति ठगः "राहुबखौ" [३।४।२६] इति नोप । द्वैशाणम् । वैशाणम् । “वित्रिभ्यामण" [३।४३४] इत्व' । “कुलि- जस्यापि प्रतिषेधो वक्तव्यः" [वा०] । द्विकुलिजे प्रयोजनमस्य द्वै कुलिजिकम् |
प्रोद्यपदानां जाते ॥शश२३॥ योरिति वर्तते । प्रोष्ठपदानां योरचामादरच ऐकू भवति जाताथै हानि त्रिपात परतः । प्रोष्टपदाभियुक्तः कालः | "भायुक्तः कालः" [३१२१४] इत्यम् । तस्य "उसमंदे" [३।२।५] इत्युस् । उसि युक्तयल्लिङ्गसङ्ख्यातिदेशः । प्रोष्ठपक्षासु जातः । अण् । तस्य "भेभ्यो बहुलम्" [३६३६४३] इति बहुलवचनादिहानुप् । मोष्ठपादो माणवकः । जात इति किम् ! प्रोप्ठपदासु भवः प्रौष्टपदो मेघः ।
हसिन्धुभगे द्वयोः ॥२॥२४॥ हसिन्धु भग इस्पेषु ग्रुषु दयोः पदयोरचामादेरच भनि | सुहृदयस्येदं सौहार्दम् । “हृदयस्य हल्लेखमालासेषु" [१३।१६] इति हमावः । अधरा "सुहृद्दुहुँदो मित्रा
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अ०५ पा०९ सू५-३01 महावृत्तिसहितम् मित्रयोः" [१२।१५.०] इत्यनयोग्रहणम् | महासिन्धौ भवः माहासन्धयः । “कमलादः" [३।२।११] इत्याग । सिन्धुशब्दस्य तत्र तद तनिधिरपि । सौभाग्यम् । दौर्भाग्यम् । मुभगाया अपत्यं दणि "मस्याएमादानामिना" [३।३।११५] सौमानेियः।
आनुशतिकादेः ॥शश२५॥ अनुशतिक इत्येवमादीनां शब्दानां द्वयोः पदयोरचामादेरच ऐध भनि । अनुशतिकस्येवम् मागुशातिकम् | भानुशालकिः । अनुहोड-श्रानुहौडिः । अनुसंवरण-आनुसांचगंगाः । भगारवेगोरिदम् आगारवैणवम् । असिहत्त्यायो भत्रम् आसिंहात्यम् । अस्यहत्य इनि कपाचित शायः । अत्यइल्पशब्दोऽस्मिन्वरित पास्महात्यम् | "विमुक्तादिभ्योऽय [४१६५] अस्यहेतीति पाठान्तरम, । अस्यइतिः प्रयोजनमा कास्यहैतिकम् । अध्ययः । श्राध्यायिः । वध्योगस्यापत्यं वाथ्योगः । “विदादिभ्योऽनृप्यानन्तयेऽम्" [३: पुष्करमा--सकारादि वाम-माहुः ! सान्धबाहविः । “बाहावेरि' [
३ ५] । कुरुकन्-कौएकात्यः । “गविर्य" [३।१६५] | कुरुपञ्चालेषु भवः कौरुपाश्चात्यः । "प्राग्नोरण्” [३।१।६८] । राष्ट्रसमुदायो राष्ट्र ग्रहणेन न गृयते । तेन “राष्ट्रावध्योः" [३।२।१०२] इति युज नास्ति । उदकशुद्ध-ौटकशौद्धिः । इलाफ-ऐहलौकिकः । पारलौकिकः । प्रयोजनार्थ युज । सर्वलोकः-सर्वस्मिन लोक विटितः मार्वलौकियः । "लोकात्" ३११४५] "सर्वात्” [३111४५] इति ठणू 1 सर्वभूमेरीश्वरः सार्वभौमः। "सर्वमिधिीभ्यामण" [शा१] : सार्बपौरुघम् । तस्येदमर्थे प्रायोगिकम् । आधिदैविकम् । आधिभौतिकम् । भवाथै अन्यास्मादित्वाट्टण | परस्त्री-पारस्पै गोयः । उणि "कायाण्यादीनामिनद" [३६१३५] । सूत्राट-सौत्रनारिः । अभिगममईति आभिगामिकः | राजपुरुषाफिज । राजपुरुषायणिः ।
देवताइन्द्रे ॥१२२६॥ देवताद्वन्द्व न द्वयोः पदयोरचामादेरच गेम् भवति । याग्निवारुणम् । अग्निश्च वरुणश्च देवते अस्य । ऐल्विषये "ऐपीत्" [३।१४१] इत्यग्नेरिव्यम् । एवम, प्राग्निमासनम् । अभिधानवशादान विषयेऽयं विधिन्यत्र न भवति । स्कान्दविशाखः । ब्राझ प्रजापत्यः । तस्येदभ अण 1 "दिति" [३।१।०] अादिना एयश्च ।
नेन्द्रस्य ॥शस२७॥ छोरिति वर्तते । इन्द्रस्य द्यौरैम्न भवति । आग्नद्रः । "देवता " [१२।२६] इति पूर्वपदस्यानङ् । इन्द्रस्य धोरेकादेशो कृते “यस्य च्या च" [१५३६] इत्यन्त्रे च यादग्दो नाशात्कथमैपः प्राप्तिः । इदमेव ज्ञापकम् “पूर्वोत्तरपदयोः कार्यमन्तरङ्गमप्येकादेशं बाधते"। वेन पूयपुकामशमादयः सिद्धाः भवन्ति । श्रोरिति किम् ? ऐन्द्राग्नः | "अनाचत्" [॥३१६६] इत्यत्रेन्द्रस्य वा पूर्वनिपान दृश्यते।
यो वरुणस्य ॥५॥२॥२८॥ धन्तात्परस्य वरुणशब्दत्यैब् न भवति । ऐन्द्राकरण:। दा इनि किन.! याग्निवारणः । मैशवरुणः । ऐविषये "गुपीत् ॥३१९५१] इत्यग्नेरिस्वम् पश्चायोरे ।
प्राचां नगरे ।शरा२६॥ प्राप्त्यभावान्नेति न सम्बध्यते । योरिति वर्तते । अर्थवशाद्विभका परिणामः। प्राचां देशे नगरे द्यौईयोः पदयोरेन भवति | सुहानगरे भवः सौहानागरः 1 पौण्डूनागरः। वैराटनागरः । दोरिति तत्रानुवर्तनाद्रोहन्तात् "प्राचाम' [३३N01] इति दुञ् भवति । प्राचामिति किम् ? मलनगरे भचो मालनगरः ।
अगलधेनुयलजे ॥ ३०॥ जाल धेनु बलज इत्येतेषु धुषु पूर्वपदस्य अचामादेरच ऐ.ब् भवति । पूर्वपदस्येति कथं लभ्यत इति चेत् “पा पो" [५/२५] इत्युत्तरत्र यक्ष्यमाणत्वात् । कुरुजङ्गले भवः कोरुबङ्गलः । वैश्वधेनवः । सौवर्णवलजः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ३१-३७ वा द्योः ॥२३२॥ जङ्गल धेनु बलज इत्येतस्य छोरचामादरच एभवति बा। कोरुजाङ्गलः। कोरुजङ्गलः | वैश्वधैनवः । वैश्वधेनवः । गौयानाः । मेवर ल : पृयण नित्ये प्राने विकल्पः ।
परिमाणस्याऽनतोऽर्धाता पूर्वस्य ॥२॥३२॥ परिमाणस्या दुतरस्य अनतः स्थाने भयनि पूर्वपदस्य तु वा । अर्धद्रोणं पर्चात आद्ध'द्रौणिकः । अगौणिकः । अाधकोक्किः । अद्ध कोडविकः । "पूर्वपदस्म चा" इति वचनाद् युविशेषां वाग्रहणं नेहाभिसम्बध्यते । अनत इति किम् १ आद्ध प्रमिथकः । अद्ध प्रस्थिकः | अर्धचमसेन फ्रीतम, आर्धचमसिकम् । अर्धचमसिकम् ।
प्रचाहणस्य ढे ढस्य ॥५॥२॥३३॥ प्रवाहणस्य तु परतः योरैम् भवति पूर्वपठस्य तु वा दान्तस्य चान्यस्मिन् हृति णिति परतः । प्रयाहरणस्थापत्यं प्राबाहरणेयः । “शुभ्रादे" [1111२] इति दगा। दान्तस्य प्रावाहणेवस्याफ्ल्पं प्रावाहणेषिः । प्रवाहोयिः। प्रथाहरणेयस्प्रेदम् । “वृस.चरणाविनत" [३३६५] इति वृत्र । मावाहणेयकम् | धोरपि सत्वसति च नास्ति विशेषः । पूर्वपदस्य विकल्पार्थः ।
नमः शुचीश्वरक्षेत्रशकुशलचपलनिपुणानाम् ॥शरा३४॥ घोरप्यूर्यस्य वेति वति । नत्रः परेषां शुचि ईश्वर क्षेत्र कुशल चपल निपुग्ण इत्येतेषामचामादेरच ऐकभवति पूर्वपदस्य तु या | न शुचिरचिः अशुचेरिदम् अशौचमाशौचम् | अथा नास्य शुचिरस्ति अशुचिः । अशुचेर्भावः "ध्यादेरिका" [३।४।६२.] इल्याए । “नसेञ्चसुरसङ्गत" [३।५।११५] इत्यन्त्र व्याख्यातम् । चतुरादिम्यो नस एव भावकमद्दद्विधिः । अन्येभ्यस्तु नग सात्पूर्वमिति । न पटोत्रः अपाटवम् । तेन नसेभावाभिधायो यो नोक्तः । अनश्वर्यमानैश्वर्यम् । अक्षत्रयम् । अागजयम् । ब्राहाणादिपु नसावेतौ। अकुशलस्येदम् अफौशलभाकौशलम् । श्रचपलस्येदम् अचापरमाचापला । अनिपुण स्वेदम् अनैपुगमानपुरणम् । यद्यपि कुशलचपलनिपुणशब्दा ब्राह्मणादिषु युवादिषु च पठ्यन्ते तथापि तत्र तदन्तविधेरभावान्नसे बसे वा कृते स्वणणावप्राप्ता बाकृतिगणस्वादिष्टव्यौ ।
__यथातथयथापुरयोः क्रमेण ॥१२॥३५॥ यथातथ यथापुर इत्येतयोः नत्र उत्तरयोः क्रमेण द्वयोरेगावति । अयापातश्चमायथातथ्यम् । अयापापुर्वमांवथार्थम् । बाह्मणादिषु नसावेतौ । यथानथा यशपुग "सुप्सु।" [११३।३] इति सविधिः । अयथातथाभावः अवधापुरा मावः इति विग्रहः । सौत्रवानिर्देशत्त प्रान्त पटितौ । बदि वा "याक्यथावत्यसादृश्ये" [३।३।६] इति हसे कृते पश्चान्नसः । नन्कन नस्मात्पूर्व त्यविधिः अन्यत्र नसे । तेनोभयं सिद्धमतो म्वमिदम् । न व्यर्थम् । नम्सापूर्व प्राप्नोलीत्युक्तम् ।
हनस्तोऽनिलोः ॥२३६|| हतीति निवृत्तम् । अञिणलोरिति प्रतिषेधात् सामान्येन रितीनि वर्तते । हनस्तकारादेशो भवति णिति परतः अभिगालोः । प्रातयति | घातकः । "अन्तेऽलः" [11] इति नकारस्य तत्वम् । देशघाती | सर्वघाती । “सुपि शीलेऽजाती थिन् [२२२२६६] घातपातम | "णम् 'वा. भीषरये" [२८] इति पम् । द्वित्वम् | घनि धातः । सर्वत्र "हो हम्सेनिमि" [ ५/२१५६] इति कुत्वम् । अअिणुलोरिति किम् ? अधानि । जघान । इष्ट कस्मान् न भवति वृत्र हतवानिति नत्रहा । तस्ये वात्रधनम । "पादिहन्तराज्ञोऽणि" [४/२/१२३] इत्यवम् । "धोः स्वरूप ग्रहणे तस्वविज्ञानम्" [प०] इति धोरेब् भवति ।
अातो गल औः ॥२२॥३७॥ आकारान्तादगोरतरत्य शाल औकागदेशो भवति । पपौ । तस्यौ । पा इत्येतस्मायणलि परतः युगपस्त्रीणि कार्याणि प्राप्नुवन्ति द्वित्वमेकादेश औत्वं च । तत्रैकादेशादनवकाशत्वेन परमौत्वम् | द्वित्यादपि परल्लादैप् । इदानीमपि कृते निमित्त निमित्तिनोविभागाभावात् लिटि परतो द्वित्वनुच्या मानं न स्यात् । "द्वित्वेऽचि" [14] इति स्थानिवद्भविष्यति । ननु द्विस्वनिमित्ते अचि स्थानिवद्भाव उच्यते
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० ५ पा० र सू० ३८-५४ ] महावृत्तिसहितम् चात्राची निमितन्त्रं भेदाभावात् । एवं तर्हि "शिरणेऽषि" [9111५६] इति सूत्रे द्वित्य इति योगविभागादिर स्थानिवद्भावः ।
विकृतोर्युक ॥५॥३८॥ आकारान्तम्प गोः जौ कृति णिति च परतः युगागमो भवति । श्रदायि। अधायि । दायः । धायः । दायकः । धायकः । निकृतोरिति किम् ? ययौ । बभौ । ययौ। ज्ञा देवता प्रस्य अणि श:|
न सेटस्तासि मोऽयमिकमिचमः ॥२॥३९॥ मान्तस्य गोः तासि मंटः औ कृनि निति च यदुन तन्न भवति । किञ्चोक्ताम् ? रिणतीत्यनुवर्तनाद् "उदोऽतः" [पारा] इत्यम् । अनि । अवाम । अमि | शमकः । दमकः । तमकः । शमः । तमः । दमः। विश्रमः । कथं सूर्यविश्रामभूमिः ! प्रमादप्रयोग एषः | तासि सेट इति किम् ? यामकः । रामकः । म हात किम् ? चारकः । घाटकः । अभिकमिचम इति किम् ? वामः । कामः । श्राचामः | झिंकृतोरिति किम् ? शशाम । तताम | कथमुधमः | उपरमः ! "घई उद्यमे" [धा०] "चम उपरमे" [धा०] इति निपातनात् ।
जनिवथ्योः ॥२४०|| जर्जान वधि इत्येतयोश्च त्रिकृतोयदुक्तं तन्न भवति । अनि | अवधि । जनकः। अधकः । जनः । यधः । वधिरिति ग्रयन्तरं हलन्तमस्ति । तस्येदं ग्रहणम् । न इनादेशस्यादन्तत्वात् । तेन सिद्धम् । "भक्षकश्चेन्न वियेत अथकोऽपि न विद्यते” ।
अतिहीन्लीरीफ्नूयीनमाय्यातां पुग् रणवेम् ॥शरा४१॥ गोरिति वर्तते । अति ही प्ली री कन्यो क्ष्मायो इत्येषामाकारान्तानां च गुना णौ परतः पुग् भत्रति एन । अतिरिति तिपा निर्देशः प्रकारान्तनिवृत्यर्थ: । इति ऋच्छति वा कश्चित् तं प्रयुले अर्पयति । हेपयति | विजनातेही पयति । रोयते रिगातेश्च रेपयति । निरनुबन्धपरिभाषा नाश्रीयते । क्नूयी क्नोपयति | "पलि न्योः स्वम्" [४॥३॥५५] इति यस्खम् । “न धु: खेऽगे" [10] इत्येषप्रतिवेधः प्राप्नोति अगनिमित्ते खे स प्रतिषेधः । वर्गनिमित्तं चेदम् । क्षमायी मापप्रति। आकारान्तानाम । दापयति । धापयति । लक्षणप्रतिपदोक्तपरिभाषेह नाश्रीयते । ग्लापयति । अध्यारयति । "इकस्तो" 196] इत्याश्रयणात् श्रातः एव न भवति । पुकः पूर्वान्तकरणं किम् ? दापयतेतु डि श्रदीदपदिरपन्न गणी कम्युकः" [पा२।११५] पादेशार्थः ।
शाच्छासाहान्यावेप युक् ॥२॥५२॥ शा च्छा सा हा व्या वे पा हत्येतेषां णौ परतः युगागमो भवति । निशाववति । अपच्छायमति । असाययति | संहायति । संवावयनि । पायपति । शादीनां कृतान्यानां ग्रहणं लाक्षणिकस्यापि पूर्वेण पुकमारयातुम् । कापयति । जापयति । येन एकाग़न्तनिर्देश "मौन शोषणे" [धा०] इत्यत्य नित्यर्थः। वातन्त्रिकरगादग्रणम्ः प्राग्रहरणे “पै मोवै शोषणे" धा•] इत्यस्यापि प्रह णम् । आकागन्तवर्गात् पृथक पाटो लाक्षणिकत्यागार्थः इत्यन्ये । पाते? वक्ष्यति । युकः पूर्वान्तन्वं निशाययतेलुङि न्यशीशयदिति प्रादेशार्थम् ।
यो बिधूनने जुक् ॥रा४३|| वा इत्येतस्य त्रिधुननेऽथे जुम्भवति णौ परतः । पक्षणोपवाजयति । "बज ब्रज गौ" धा०] इत्यस्य एयन्तस्य किन्न रूपम् । नैवं बातेमुक् स्यात् । विधूनन इति किम् ! अावापयति केशान् । "ओवै शोषणे" [धा०] इत्यस्येदं रूपम् । “धूम्प्रीमोही नुगिष्यते" प्रति विधूननवचनं जापफम।
पातेलृक् ।।१२।४४॥ पातेलुगागमो भवति गौ परतः । पालयति शीलं गुरुः । तिषा निर्देशोऽनुचिकरणनिवृत्यर्थः । या अन्तनिवृत्यर्थश्च । ननु पाल रक्षण · इति चौरादिफस्य रूपं भविष्यति । नात्रापि युक्यात् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०५ पा० २ सू. ५५-५1 लो वा स्नहबवे ॥५४॥ला हत्येतत्य णौ परतः वा लुयागमो भवति स्नेहवऽर्थे । घृतं बिलालयांत विलापयति । विलाययति । ला इति लिमातेः द्रवीकरणार्थस्य "विभाषा लियोः" [२४] इति कृतात्वस्य धूनामनेकार्थत्वाल्लातेश्च स्नेहद्रवे वृत्तिरित्युभयोर्ग्रहणम् । स्नेहव इति किन ? अथो चिलापान | जटाभिगलापयते । लीवनेः कृतात्यात "लियोऽधाष्टय सन्मानने घ" [२।६६] इति दः ।
लियो नुक् ॥२४६|| ली इत्येतस्य णौ परतः स्नेहद्रवेऽर्थे वा नरभवति । गृतं विलीनयति । घृतं बिलापयति । लियोऽनास्वपन्चे स्नेहवार्थस्त्र ग्रहणम् । स्नेहद्रव इत्येव । अवो विलाययति । णो ऐक्यादेशौ । अथ "विभाषा लियोः" [३।४४] इत्यात्वपक्षे एकदेशविकूनस्यानन्यवान्नुक् करमान्न भवति ! लिय इत्यय ली ई इतीकारप्रश्लेपादीकारान्तस्य नुक् ।।
रहः पः ॥५४७॥ सहः णौ परतः पकारादेशो भवति वा । आरोपयति । प्रारोहयति स्वर्ग जिनधर्मः। अथ "युप रुप लुप विमोहने" [धा०] इति रुप्यतेः रोपति, रहेः रोहयतीति भविष्यत्ति । न शस्यभेधम् , अारोपयनोति भविष्यात न शक्यमेवम् । अारोपयतीत्यत्र रहेरर्थः प्रतीयते न सप्यो । बनेका व इति पादग्रसगरिकैया ।
स्फायो वः ॥५॥२४॥ वेति निवृत्तम् । स्कायी इत्येतस्य वकारादेशो भवति णौ परतः । सायनि । स्काययतः । सावन्ति । “अन्तेऽलः" [1111४६] इत्पन्तस्य ।।
शदोऽगतो तः ॥५॥२६॥ शदेणों परतः अगतायथें तकादियो भवति । पुष्पाणि शातयति । फलानि शालयति । अगताविति किम् ? गाः शादयति यष्टया । "शदल शातने" [धा०] इति निपातनात सिद्ध मिति चेत् ; निपातनंमबाचक्रमितरस्य शक्येत । यथा पूर्वकालैक' ।।३।४४] इत्यत्र पुराण शब्दः पुरातनशब्दस्य।
त्यस्थ क्यापीदतोऽसुपोऽयत्तदौ ॥५०॥ त्यस्ये ककारे परतः पूर्वस्य अकास्येकारादेशो भवति असुपो य श्राप तस्मिन् यत्तदिस्येती वर्जयित्या | कुत्सिता जटा जटिका । मुएिडका । त्य इति किम् ? शक्नोतीति शका। तका। धोरयं कः। स्थग्रहणं किम् ? कारिका । द्वारिका । असति स्थ. ग्रहणे कीत्युच्यमाने “येनाल्विधिः" [१०] इति ककारादायेवं स्यात् । स्थग्रहणे सर्वत्र सिद्धम् । कीति किम् ? नन्दना । रमणा। कीतीपनिर्देशः क्रिम ! "ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः" [१६०] इनि परस्य मा भून् । पटुका । मृदुका । श्रापीति किम् ? कारको हारकः । अत इति किम् ! गोका । नौका । तपरकरणं किम् ? बहुस्खट्वाका । बहुमालाका । "मापः" [५२।१२७] इत्यमादेशपा। प्रपचे असुवः कपः परोऽयमा । अनुप इति किम ! बहवः परिवाजका अस्या बहुपरिवाजका मथुरा | "स्यले स्याश्रयम्" [१११६३] इति मुत्रन्तात्परित्राजकमब्दादयमाप । ननु च बसे समुदायादमुचन्नादाक्तिीत्वं प्राप्नोति, तदमत् । असुप इति प्रसज्यप्रतिषेधोऽयम् । न चापमुमन्तादवयवा-परो भवति । पर्युदासे हि दोपः । मुपोऽन्यः अमुप समुदायस्तरमादाबितील्ने स्यात् । बहूनि चर्माणि अस्यां बहुमिकेत्यत्र श्रसुत्रन्ताकपः परोऽयमावितीत्वम् । अयत्तदाविति किम् ? यका | सका | यको यको पश्यति तफा तको वृणीते । इह कथं प्रतिषेधः, यातीति स्यतीति विचि या सा इति स्थिते के प्रादेशे च कृते यका सका | क्षिपकादावेतौ द्रष्टव्यो। नन फीति वर्णनिदेशः तस्थापीति परत्वेन विशेषणं नोपपद्यते आकारेण व्यवधानात् । एकादेशे भविष्यति । एकादेशः पूर्वविधौ स्थानिवद्भवतीति व्यवधानमेव । एवं साई वर्णनैकेन व्यवधानेऽपि बचनप्रामाण्याद्भवति । सङ्घातेन घुनन्यवधानमिति । रथानां समूहो रथकट्या पुत्रकाम्यानं पुत्रकाम्या इत्यादौ न भवति ।
वाऽतोऽधोर्यकात् ॥५॥२॥५१॥ अधोर्यो यकार: ककारश्च ताभ्यामुत्तरस्यातः स्थाने यो अकारः तस्था सुपः वा इगवति । इत्सिता इन्वा इभ्यका । इभमईतीति "दण्डादेः" IM६४] यः। एवं
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अ० पा० २ सू० ५२-५४ ]
महावृत्तिसहितम्
३६७
क्षत्रियका । चायिका । अर्थका । अर्थिका । चटक्का | चटकिका | मूषिकका मूषिकका । श्रात इति किम् ? साकाश्ये भवा साङ्कारियका अधोरिति किम् ? सुनयिका । मुशयका । मुशोचिका । सुपाकिका | शोभनों नयोऽस्या सुनया । " के " [ ५२/११५] इति प्रादेशे कृते धोरन्ती यकारक - काशनम् ताभ्यां परस्व न विकल्पः । वादिति किम् ? यश्वी । अविका । वेति योगविभागः । सा च व्यवस्थितविभाषा । तेन "तारका ज्योतिषि" । तारिकान्या । "आशिपि" जीवतादिति जीवका | नन्दका 1 जीविका नन्दिकाऽन्यत्र | अनुकम्पिता देवदत्ता | के कृते “अनजादौ वा घुखम् " [वा०] उपम—“देवका” देवदत्तकान्यत्र । "वर्णका तन्तुविकारे" । वर्णिकान्या । "वर्तका शकुनी प्राचाम्" । वर्तिकाऽन्यत्र 1 " अष्टका कर्मविशेषे" । श्रष्टका तुलान्यत्र । श्रष्टी परिमाणमस्या इति । सूतका | सूतिका पुत्रका | पुत्रिका | वृन्दारका | दारिका । "पिकादो न भवत्येव" "क्षिप मेरो " [ ० ] स्यं । क्षिपतीति क्षिपा के क्षिपका 1 सुबह क्कायका सका । इत्येवमादिः क्षिपकादिः दक्षिणान्विका । हलिका इत्यादावित्यमेव ।
भाजाज्ञाद्वास्वानां नसेऽपि ॥३५२२२५२|| भस्त्रा पवा अजाज्ञा द्वा स्वा स्तेन कासेऽपि यातः स्थाने यो अकारः तत्व वा इद् भवति । भस्त्राशब्दस्य "अनुकपुंस्काद्वाच्च" [५१२१५३] इतीमं विधिवदयति । अन्यचापि प्रतिपादयिष्यते । अस्त्रका । श्रभस्त्रिका | अविद्यमाना मा अस्या इति मत्रा कुत्सायें कः । एरका | पत्रिका | तःः सर्वनाम्नोऽभाविनि सौ " बड़ादेर: ” [५|१|१६१] इत्यत्रम् । प्राक् सुपः टापू । एकेति विकृतनिर्देशाय पत्वं तत्र विकल्पः । एतिकारित न्त्रि इत्यत्र नियमित्रम् | अजका । अनिका | नका । अनजिका । नसे कृते कः । जानातीनिशा | शका | शिका | अज़िका के द्विके । स्वका 1 स्त्रिका | अस्वका | अस्विका । एषा के पू अनुदार | सुचन्तादापो विहितत्वात् । नसात् पूर्वम्पश्चाद्रा अकि कृते " त्यखे स्याश्रयम्” [१|१|६३ ] इनि श्रन्तर्वर्तिनीं विभक्तमाश्रित्य तुबन्तादाविति न प्राप्तिरित्वस्य । श्रषका । अके इति भवति । स्वशब्दस्व तु छातिधनाख्यायां सर्वनामसाविरहादग्नास्ति । अकि हि सति तस्य प्राग्भावात्सुचन्तग्रहणेन ग्रहणम । सुनन्तादाप्स्यान् । ज्ञातिविवक्षायां तु न स्वा अश्या सार्थे कः । स्वका | ft | अपिहां किम् ? नम्से अस इत्येवास्तु | ग्रन्यस्मिन्नपि मे क्वचिद्भावार्थम् । बहवो भवा अस्या इति के बहुमका | बहुभस्त्रिका | निर्मत्रका | निस्त्रिका |
I
अनुक्तपुंस्कादाच्च ॥ १२२०५३॥ अनुतपुंस्काद्विहितत्वातः स्थाने योऽकारस्य ग्रान्न भवति इच था । नन्से असेsति वर्तते । खट्नाका | रविका । खट्चका | मालका मालिका | मालका | Hatar | भस्त्रिका । नस्त्रका | खट्बादिशब्दा नित्यं श्रियामेव वर्तन्ते इत्यनुक्तपुरका । नमेऽपि । श्रभस्त्रका | भस्त्रिका | अभत्रका | अखट्वाका अविका | अखट्का | परमखाका | परमटिका । परमस्त्रका | बसेऽपि यदा वपि परतः " थाsपः [ ५२१२७ ] इति प्रादेशस्तदनुकाद्विदितस्यातः स्थाने कार इत्ययमेव विधिः । श्रविद्यमाना खट्वाइस्या खट्याका । अवटूविका । यहा न कम् तदा "स्त्रीगोतीच: " [ ८ ] इति प्रादेशादुक्तपुंस्कम् । अवधिका । अतिकान्ता खचाम् तिखटूविका ।
ठस्येकः || ५|२३|| गोर्निमित्तभूतस्य दस्य एक इत्ययमादेशो भवति । ति व्यस्य ग्रहणम् । अदीव्यति आदिकः | शालाकिकः । " प्राम्याण्" [ ३|३|१२६ ] दध्नि संस्कृतं दाधिकम् | अपन समूहः आधुनिकन । “कोष्ट" [ उ० सू०] कराट इत्यादिषु " उणादयो बहुलम्" [२२२२६६०] इति न भवति ।
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जैनेन्द्र म्याकरणम् [०५ पा र सू. ५५-६० इसुसुकः कः ॥५॥५५॥ इस् उस उक इत्येवमन्तात्तकारान्ताच्च गोः परस्य टस्य क इत्ययमादेशो भवति । सपिः परयमस्य सार्पिष्का । बाहिरका "कुप्वोत्ये" [५ ] इति रेफस्य सः । "इणः प" [५।४।२७] इति पत्वम् । धनु: प्रहरणमस्य यजुः पायमस्य "प्राम्याप' [३।३।२६] धानुष्कः | याजुकः । उक-निषाहकाची जातः नैषाहकमुकः । शावरजम्बुकः । "बोदेशे ठम्' [३|NE] | “केण" [पारा१२५] इति प्रादेशः । मातुरागतं मातृकम । ."कनान' [३।२२५२१ । तान्तान् - उदश्वित् पण्यमस्य श्रौदश्वित्कः । भक्तोऽयं भावत्कः । ननु माथतं पण्यमय माथितिक इत्यत्र “यस्य हयां च' [५/१३५] इति खे कृते नान्तादिकस्य स्थानिवद्भावेन कादेशः प्राप्नोति । अजादिति निमित्तस्तकारो नाजादि हन्ति । “सन्निपातलक्षणो विधिरनिमिस तद्विधातस्य' (प०] "विशुचिडसृपिछदिच्छदिभ्य इत" [उ. सू०] इत्येवमादिना प्रतिपदोक्त योरिसुसोहिणादिह न भवति । ओशिषा तरति आशिषिकः । उपा चरति औषिकः। "प्राकः शासु इच्छायाम्" [धा०] "वस निवासे' [धा०] हत्येताभ्यां क्विपि “लिडाशिषि" [सार] इति निपातनादित्यम् । "वसोजिः" [१४:१२०"शासिवसिघसाम् [ ४०] इति एवं नसे पोल्यतोऽपिशब्दवृत्तेः "दोपोऽपीप्यते" [वा०] । दोा तरति टी'कः ।
चजो कुधिगरययोस्तेऽनिटः ॥५६॥ चकारजकारयोः कुल्यं भवति घिति शचे च पनः । पाकः । त्यागः | रागः । पाक्यम् । योग्यम् । भोग्वन् | न लत्र चकारस्य घिति जकारस्य णे साम्यायथासङ्घ प्राप्नोति "तेन रक्तं रागात् [३१२॥१] इति ज्ञापकान् स्वरितलिङ्गाभावाद्वा न भवति । तेऽनिटः इति किम् ? कजः । ग्वजः । गर्जः । समाजः । परित्राज्यम । याच्यम् | अच्चम् । नन्वजेस्तेऽनिट इति कृत्वं प्राप्नोति । नैष दोषः । तेऽनिट इति विद्यमानस्य विशेषणम् । श्रजेस्तु वीभावेनासत्त्वादविशेषणां तस्मान समाज इति भवति ।
शुच्युयोर्यत्रि ॥५॥२॥५६॥ शुचि उब्जि इल्वेतयोनि परतः कुत्वं भवति । ते सेटाविमौ । शोकः । समुद्गः । उब्जेदकारोपने कुत्ये कृत "उद्ग" इति । चुना योगे चत्वमुक्तं चत्वाभाये न भवति । अथ समुद्गतः । समुद्ग इति । गमेडन सिद्धम् । एवं तर्हि घभि उद्गः जकाराततानिवृत्त्यर्थम ।
न्यकवादेः ॥५॥२॥५८] पूघेणाप्राप्ते विधिः । न्यछु इत्येत्रमादीनां च कुत्यं भवनि । “नावञ्चः" [उ० सू०] इत्युः । मद्गुः । मरजे: "शीतृचरितनिमिमस्जिभ्य " [उ सू०] जश्त्वम् । सस्थ दः । भृगुः । भ्रमजेः "प्रश्मृिदिभ्रस्जा जिः सखं च" [उ० सू०] इनि कुः । तक्रम् | चक्रम् | "स्फायितविवञ्चि" [उ० सू०] यादिसत्रोण रक । मेइतीति मेधः । गल्लक्षण: कः गणपाटाटेप । शुनः पचीनि श्वपाकः । पचादिषु श्वपचशब्दोऽस्ति सोऽपि साधुः । अर्घअवदावनिदाघाः घनन्ताः सज्ञाशब्दाः । अविहितलक्षणं कुस्वमिह जेवम ।
हो हन्तेणिति ॥५॥५६॥ हन्तेई कारस्म कुवं भवति णिति त्ये नकारे धनि भावकरगणे वापरतः । घानर्यात | घातकः । सर्वघाती । देशघाती । घातंत्रातम । धातो वर्तते । नकारें-घ्नन्ति । नातु । श्रनन् । ह इलि किम् ? अलोऽन्त्यस्य मा भूत् । हन्तैरिति किम् ? विहारः । यितीति किम् ? हतः । कथं यदन्तस्य जङ्गुनीति । अत्र "चात्" [५।२१६०] इति कुत्यमिष्यते । थुनिर्देशार्थस्तिम् । जिगद्ग्रहणं दन्तैर्विशेषणं नित्परस्य हन्तयों हकारस्तव । नकारो हकारस्य विशेषणम् । नकारे परतोऽनन्तरस्य हकारस्य स चेद्धन्तेरिति औतं चानन्त नन्तील्यादाविष्ट स्थानियद्भावादेकेन व्यवधानं नाश्रितम। बचनप्रामाण्यात् । सङ्घातेन पुनर्व्यवधानम् , हननमिन्नति हननीयति । तस्य नौ हननीयकः ।
चात् ॥शरा३०॥ चादुत्तरत्य इन्तेई कारव कुत्वं भवति । अहं जघन | अणित्या गलि 1 जङ्घन्यो । मित्रांसति । हर्यश्चः सम्मादपरस्य कुत्वं च निमित्तत्वे तेने न भवति । हननीयितुमिच्छति जिहननायिषति ।
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अ० ५ पा० २ सू० ६१-६८ ]
३६६
हेचि || ५|२२६१ ॥ हिनोते कारस्य वात्परस्य श्रकवि कुल अवति । प्रजिघाय । प्रजेघीयते । प्रजित्रीपति | अकचीति किम् ? प्राजीहयत् । पर्यन्ताल्लुङि "शिभि" [२/१/४३] इत्यादिना कच् । खिम् "गौ कच्युङ:" [ ५/२/११५] इति प्रादेशः । सौ कृतं स्थानिवद्भवतीति कचिदस्य द्वित्वम् । ननु है: स्वनिमित्ते त्येचादुत्तरस्य कुत्वमुक्तम् । एयन्तं च प्रकृत्यन्तरं कथं कनि प्रातिः । अप्रतिषेधोपको यधिकस्यापि भवति । महाययितुमिच्छ्रति प्रजिघाययिषति ।
सन्तिटोजः ॥ शरा६२ ॥ मनि लिटि च यश्चस्तस्मात्परस्य जेः कुलं भवति । विगोपति । जिगाय । संल्लिटोरिति किम् ? जेजीयते । विनादिस्वे को "" एकदेशपरिभाषमा जिग्रहणेन ग्रहणं नेप्यते क्षणिकत्वात्। " पुगियावादुङो ऽसुमि:" [४४८ ] इति यत्वम् । जिज्यनुः । जिज्युः ।
वा येः ॥५१२२६३|| चिनोतेः मल्लियः परतः चात्परस्य वा कुत्वं भवति । धर्मे चिकीपति। धर्म चिचीषति | विकास | चित्राय । संल्लिटोरिस्येव । चेचीयते । अप्राप्ते विकल्पोऽपम् ।
नर्गती ||५|२|६४॥ वञ्चेत्यर्थस्य कृत्यं न भवति । वयं वञ्चति वारिजाः । गतौ किम् ? कन् । “यस्य वा [ ५४|१|१२१] इति "तेऽनिट: " [५/२/५६ ] कुलं प्राप्तम् । ननु गतावेत्र ः पच्यते । सत्यम् । अनेकार्था घव इत्यन्यत्र मा भूत् ।
राय श्रावश्यके || ५|२|६४५ ॥ श्रावश्यकेऽर्थे ये परतः कुलं न भवति । अवश्यमाच्यम् । श्रवश्यसेंच्यम् | “आवश्यकाधमर्य योगिन् ” [२।३।१४६ ] इत्यधिकृत्य “न्याः " [ २।३।१४७ ] इति एयः । मयूरव्यसकादित्वात्सविधिः । "ल्पन्ते वश्यमो नाशः" इति भवम् । आवश्यक इति किम् ? पादयम् । सेक्यम् ।
यजित्यजिवाम् ||५|२२६६ || यजि त्यजि प्रवच इत्येतेषां ये परतः कृत्यं न भवति । याज्यम् | त्याज्यम् । प्रवाच्यम् । अनावश्यकार्थमिदम् । प्रत्रचिग्रहणं शब्दस्वावपि प्रतिषेधार्थम् । प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः । अन्येतु पुनराहुः प्रपूर्वस्यैव वचः शब्दो कुत्यप्रतिषेधो यथा स्यात् । अत्यगिपूर्वस्य मा भूत् । अधिवाक्यम् ।
पत्रोऽशद ||५|२|६७॥ वनोऽशब्दखौ रये परतः कुन खाविति किम् ? अनुपितं वाक्यमाह । शब्दस्यैव सज्ञावाक्यमिति । मित्यादि वाक्यम् ।
भवति । वाच्यमाह । अशय तदुकम् - आख्यातं सविशेषण
भुजप्रश्राजानुयाजीक प्रयोज्यनियोज्यभोज्यानि ॥ ५२२२६८॥ भुज प्रवाज अनुयाज लोक प्रयोज्य नियोज्य भोज्य इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । मुज इति पाणी भुज्यतेऽनेनेति भुजः । “हल:" [शश१०२] इति करणे घञ । प्राकुत्वयोरभावो निपात्यते । भोगोऽन्यः । श्रथ "भुजो कौटिल्ये" [ धा०] इत्यस्य इगुद्दलक्षणे के रूपम् । न तस्याभ्यवहारार्थ प्रतीतिः । रुदेिशऽनुगमोऽस्ति । क्या गच्छतीति गौः । प्रयाजानुयाजी यज्ञाङ्गे । “अकर्तरि " [२३|१८ ] इति घञ । प्रयागः । श्रनुयागः । इत्येवावत्र | श्रोक इति भवति । उचः के उष्यतीत्योकः । गुलक्षणः कः । न्युध्यत्यस्मिन्निति न्योकः । "are कविधानम्' [ वा० ] इति कः । एवं च निपात्यते । उचिते सेर् तदर्थम् । के उन्च इत्य रूपस्य निर्थ वेदम् । दिवौकस इत्यादिषु “उद्यादयो बहुलम् " [ २।२।१६७ ] इति कुत्वम् । प्रयोज्यनयोज्यौ शक्यार्थे | प्रयोक्तुं शक्यः प्रयोज्यः । नियोक्तुं शक्यो नियोज्यः । " शकि बिरु अ" [२|३|१४८ ] इति एयः । कुत्वामात्रोऽनेन । प्रयोग्यो नियोग्य इत्येवान्यत्र । भोज्यमिति भुज पालनाभ्यवहारयोरित्यस्य भक्ष्येऽभिधेये । भोज्य श्रोदनः । भोज्या श्रपूपाः । ननु भक्षिरयं खरविशदे वर्तते न तु द्रद्रतत्कथं
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३७०
[ श्र० ५ पा० १ सू० ६१-७६
भोज्या यवागृति भचिरस्यापि वर्तते न स्वरविशद एवं अन्यन्नः । वायुभक्षः इति । अभ्यव हरणादन्यत्र न भवति । भोग्या अग्रिपाः पालनीयाः इत्यर्थः । भोग्यः कम्बलः । एाम निपातनात् । न्युब्ज इति कथं सिध्यति ? न्युब्जिताः शेरतेऽस्मिन्निति न्युब्जो रोगः । " घञधै कविधानम्" [ बा० ] इति एयन्तस्य वाऽचि रूपम् ।
क्सस्याचि खम् ||५|२२६६॥ मयाजा परतः खं भवति । " श्रन्तेऽलः " [१।११४१] इत्यन्तस्य । अनुचि । अवृक्षाताम् । श्रधिति । अभिक्षाताम् । दुद्दिदिही स्वरितेो । "हूगुरुः शलोऽनियोऽदशः सः' [२११४०] | श्रचि किम ? अधुक्षत् । श्रधिक्षत् । अधुक्षन्तेत्यत्र क्सस्य स्त्रे कृनें "देऽनतः " [ ५१५] इत्यन्तादेशस्य स्थानिवद्भावेन भास्यादादेशः प्राप्नोति । " परेऽधः पूर्वविधौ” [१।१।५७ ] इलकारम्य स्थानिवद्भावान्न भवति । पूर्वस्मादपि विधिः पूर्वविधिरित्युक्तम् । क्सस्य कितो अशं किम् ? इह मा भूत् । बसौ | यत्सः “वृतवदिहनिकमिकषिमुविमाभ्यः सः " [ ॐ० सू० ] |
aircast दे दन्त्ये || ५|२०|| दुह दिह लिए गुद्द इत्येतेभ्यः वसत्य वा उन् भवति दे दन्त्यादौ परतः । श्रदुग्ध । अदुग्धाः । अधुक्षत ! अधुक्षयाः । प्रयुध्वम् । अधुक्षुध्वम् । श्रदुद्धदि । अधुक्षावहि । दिह । श्रदिग्ध । अधिक्षत | अलोट | अक्षित । न्यगूढ । न्यघुक्षत | दुहादिभ्य इति किम् ? व्यस्त । इति किम् ? अक्षन् । दन्त्य इति किम् ? अधुक्षामहि । वमिति वर्तमाने उपह सर्वाहारार्थं ।
श्रतः श्ये ॥ ५२७१ ॥ श्रकारान्तस्य गोः श्ये परतः भवति । निश्यति । प्रपचति । अति । अस्यति। बोन्ग्रहणमस्वरितत्वान्नाधिकृतम् । श्व इति शिरगां किम् ? गव्यम |
शमित्यादो दी ||५|२७|| शनादीनामामडों दीर्भवति श्ये परतः शाम्यति । ताम्यति । दाम्यति । श्राम्यति । भ्राम्यति । क्षाम्यति । क्लाम्यति । माद्यति । " चवश्व" [ १।३११२] इव्यचः स्थाने दौः । श्राम इति किम् ? अस्वति । एष इत्येव । भ्रमति । "वा आशम्लाश” [२/१/६६] इत्यादिना वा शत्रू | पिटबुक्लवाचां शिति ||१२|७३|| टियु क्लम् आश्रम इत्येतेषां दीर्भवति शिति परतः । ष्टयति । ष्टीवेत् । क्जामति । क्लामेत् । श्राचामति । ञाचामेत् । क्लमः शितीति दीलवचनं शम् । चमेराङ्पूर्वस्यैव । केवलस्यान्यपूर्वस्य च मा भूत् । चमति । विचमति |
क्रमो मे || ५|२७|| क्रमो मगरे शिति दीर्भवति । क्रामति । क्रामेत् । म इति किम् ? श्राक्रमते आदित्यः । " ज्योतिरुद्गतावाट: " [ ११२१३६ ] इति । शितीत्येव । क्रमिष्यति । ननु सर्वत्र गृह्यमाणेन शमादिना श्रविशेष्यते । तेनाटोऽपि दीत्वं स्यात् । श्रशाम्यत् । " अन्त्याभावेऽन्यसदेशस्य कार्यम्" [प] इत्यदोषः । इट् सङ्कामेति रुपि कृते "नोमता गोः " [ १/१/६४ ] इति त्याश्रय कार्यप्रतिषेधाद् दीवं न प्राप्नोति न दोषोऽयम्। उमता वचनेन नष्टे यो गुस्तस्य कार्ये स प्रतिषेधः । तत्रायं क्रमिः हिवचने गुः । किं तर्हि शिति ।
गमिषुयमां छः ॥ २७५॥ गम् इषु यम् इत्येतेषां छो भत्रति शिति परतः । गच्छति । इच्छति । यच्छति । म इति नाधिकृतम् । संगच्छते । इरुदितः शकिरणस्य ग्रहणम् । "इप गती" [ घा० इत्यस्य इष्यति । " इस आभाये" [ धा० ] इष्णातीति ।
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पाघ्राध्मास्थाम्नादाण द्रष्टयर्तिसतिशद सां
पिजिन धमतिष्ठमनयच्छपश्यच्छेधौशीयसीदाः || ५|२|७६ ॥ पाना मा स्था म्ना दा द्रष्टि श्रर्ति सर्ति शद सद इत्येतेषां पित्र जिन धर्म तिष्ठ मन यच्छ पश्य ऋच्छ धौ शीय सीद इलेते आदेशा शिति यथासङ्ख्यं भवन्ति । पा-पिचति ।
वितः ।
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* ५ पा० २ सू० ७-८२ पारित निराले पिबन्ति । अत्र "प्युः" [५।२।३] इति एम्पायोनि | अकारान्तोऽयमादशा अथवा गुकायें निवृत्त पुनर्न तनिमित्तामति न भवति । घा-जिपति । ध्मा-ति | स्था--तिष्ठति । म्ना-मनति । दाग । प्रयच्छति । द्रष्टि इति नोस्तिपि "शपोऽदादिभ्यः" [11] इत्यत्र दाप इति योगविभागाच्छन उपि कृते "झल्यकिति सजियशोम" [१३३५१] इत्यमा निर्देशः । एवमतिसयोगपि संयम । पश्यति । पश्यतः | पश्यन्ति । अति-ऋच्छति । अनुविकरणस्य ग्रहणम् । स । धानि । मनाल्यानात् शैञ्ये धायादेशो नान्यत्र | संसरति । प्रसरतीत्यादि । शद्-शीयते । शी। "सदंर्गात्" [पारा५५] इति दः । सद् । सीदति । दृष्ट्यादीनां सिपा निर्देशी यडुबन्तनिवृत्त्यर्थः । शरि शिति प्राप्तिः । दर्दशत् | अरिपत् । सर्सत् । अतेश्च रिक् । इतरयो सक् ।
झाजनोर्जा ॥२२७७॥ शा जन इत्येतयोः जा इत्ययमादेशो भवति शिति । जानानि । जायते । जा इति दीत्वोच्चारणं किम् ? "यन्यतो वी" [५२१९३] इत्यत्र मिडत्यनुवर्तनाद् द्रौत्वं न रूपान् ।
प्बादःप्रः ॥२॥७॥ पू इत्येवमादीनां प्रादेशो भवति शिति परतः । नाति । लुनाति । वादयो रोलीदिति यावत् । ल्वादीनां समाप्त्यर्थं वृत्करणमेतदिति केचित् 1 आगणान्ताः प्वादयः । तदयुक्तम । उभयगणपरिसमावर्थता वृकरणस्य न विरुद्यते । फिन्चागरणान्तपने ब्रीणानि, श्रीनहानि जानाती-पत्र प्रः त्यान् ।
मिदेरेप ॥५॥१७॥ मिटेगोरेग्भवलि शिति । मेद्यति । मेन्यतः । मेयन्ति । मिदेश्य इक नल्यावमेषु । भिदेरिति किम् ? क्लियति । शितीत्येव । मिद्यते ।
जुसि ॥शरा०॥ मुसि परतः इगन्तस्य गोरे भवति । कामचारेण विशेषणम् । इका सन्निहितेन गुर्विशेष्यते । तेन तदन्तत्रिधिः । अजुषुः । अविभयः । अविभः । ल ढो भिः। शप उप । “पवित्सेः" [ २ ६] इति जुम् । भृजश्वस्येन्त्रम् | इगन्तस्येति विदोरणं किम् ? अनेनिजुः । जुसीति जकारग्रहां किम् ? लुलुवुः । अथ चिनुयुः सुनुयुरिल्यत्र उसीति पररूपे कृते “तदागमास्सद्महणेन गृह्यन्ते" [१०] इति श्नोः करमान्न भवति । अत्र द्वे डिवे शाश्रयं यासुहाश्रयं च । तत्र नाप्राप्ने गाश्रये डिस्वनिमिते प्रतिषेधे एचिहिलस्तमेव बाधते । यासुद्धाश्रये विनिमित्ते न प्रतिषेधे प्राप्ते चाप्राप्ते च । अतस्तं न बाधते ।
गागयोः ॥शरा॥गे चागे च परतः इगन्तस्य गोरेन्भवति । तरनि । नर्यात करोति । अगे-की। भविता । चेता। स्तोता। गागयोरिति किम ? अग्नित्वम् । अथ सहीति कर्तव्यम् । सनः सकारादारभ्य या आडो कारा प्रत्याहारः। यदि सङीत्युच्येत अग्निकाम्पतीयत्रापि स्यात् । अथ यकीत्युच्येत । शिशयिषत इत्पन्न न स्यात् ।
जागुरविधिल्छिति ॥शश जार इत्येतस्य गोरेव भवति अविजिगाल्डात परतः । जागरयति । जागरकः । माधु जागरी । बागरं जागरम । जागरो वर्तते । किति-जागरितः । जागरितवान् । ऐधिपये प्रतिषेधविषये च प्रापणार्थो जागुरेन्निहितोऽन्यत्र पूर्वेणैव सिद्धः। नायमेम् साथैपमन्तरङ्ग बाधते । नेन "स्यम्यक्षणश्वस्" [4111] इत्यादिना जागरैप्रतिषेधः । जागरयतीत्यादी "उठोऽतः" [पा२।४] इति पुनरैप कस्मान्न भवति ? यदि स्यादचनमनर्थकं भवेत् | जागरित इत्यत्र सार्थकमिति चेत् ; एवं तर्हि भिएलोः प्रनिधोऽनर्थकः स्यात् । कृते एपि “उकोऽतः" [५२।४] ऐपा सिद्धवात् । अविभिएलड़ितीति किम् ? जावः । "जशस्तृजागृभ्यो कित्" [उ सू०] इति यिः । अजागरि । जजागार | डिति-जागृतः। जागृथः । अवित्रिणल्जितीति पर्यु दासोऽयम् । वित्रिशद्भ्यिोऽन्यत्रायमेच विधीयते तेन विभिएलडिति प्रतिषिध्यते । यदि लक्षणान्तरमस्ति भवत्येव । अजागरुः। श्रहं जजागार | प्रसज्यप्रतिषेधे हि दोषः । विभिणहिति ने भव
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जैनेन्द्र-ग्याकरणम् [अ०५ पा० २ मू. ८३-८ तीति ततश्च अजागरित्यत्र "जुसि" [५२८०] इलस्य अहं जजागर | अणित्पने "गागयोः" [4 ] इत्यस्य च प्रतिषेधः स्यात् । अथवा जागरित्यनेनानन्तरामाप्तिः प्रतिषिध्यते न "जुसि" [५२।०] इत्यादि प्राप्तिः । अथ नत्रः पर्यु दासो नोपपद्यते अभावमानस्य वृत्यर्थत्वात् । न चोत्तरपदार्थाभावेन विधेनिमित्तत्वमा श्रयितुं शक्यम् । तदयुतम , क्यभाव एव वृत्त्या गम्यते कथमयामणादिवास्ये क्षत्रियाटेगनपनम् । प्रथापि स्यान् | कश्वमुत्तरपदं सादृश्ये न विपरीते वर्तते । वृत्तौ वा अतिपदार्थव्यतिरेकेणान्यपदार्थसम्प्रत्ययादुपसर्जनीभुतस्वार्थत्वे सत्यवर्षाहेमन्त इत्यत्र "श्रीगोनींचः" [1111८] इति प्रादेशः पाप्नोति | अनेकभित्वा च दिबहू स्यानामित्येदप्यसारम् । बथोत्तरपदं स्वार्थ वर्तते । स्वभावतः तथानवृत्तौ पराथि न पतिपदार्थकत्वे बनिध्यते । यथा च स्वार्थ समान नोपसर्जनमेत्र परार्थेऽपि सादृश्येन स्वार्थ एवेति कथमुपसर्जनत्वात् प्रादेशप्राप्तिः । अनेकांमन्यत्र च एकशब्दः प्रधानभूत उपात्तस्वलिङ्गसंख्य एव परार्थे वर्तते इति द्वित्वरहु वयोरभावः । एवं तहि मसज्यतिपेधो नञों न युक्तो वृत्त्यभावप्रसङ्गात् । तथाहि क्रियामप्रेक्षमाणस्य नमः उत्तरपदन सामध्यांमाबाबृतिर्न प्राप्नोति । नैष दोपः, बचना भविष्यति । देवदत्तस्य गौनास्तोत्यभिधानान भवति । ततो द्वापिं न नयाँ युक्तौ । यदोत्तरपदं स्वार्थविमो नारनि वर्तते तदा नि तपाकर लो नि नि । यद्रा नूनरपदं स्वार्थ एवं वर्तते तदा न क्रियाप्रतिषेधद्वारेण सामश्यमनुभवन् वृत्तिमाप्नोति ।
म्युः ॥शरामा घिसम्ञस्योङः एम् भवति गागयोः । द्योतते | वर्षति । हेदनम् । भेटनम् । ननु च भेत्ता छेत्ता इत्यत्र त्यादे!वमवस्य च हलोरानन्तर्ये "स्फेरः" [१॥२६१०० इति ससञया पिसजा बाधिता ऋयमेप् । उच्यते "असिगृधिषिक्षिपः क्नुः" २।२।११६] इति "हलन्तात् [9191८४] इति च मनुसनोः किकरणं ज्ञापकम् । त्यादेगारन्तस्य च हलोरानन्तर्मे "न्युङ" एन_न व्यावर्तते । पि चासात्रुट न बुर्शित यह किम् ? भिनत्तीत्यत्र मा भूत् । इको ध्युड एम्भवतीति सम्बन्धात् प्रसख्येत ।
नेटः रा८॥ इट एच् न भवति । अकणिषम् | अरणिषम् | करिणता | गणिता | अमं द्वादेश टिरवं चाभित्य पूर्वस्य गुसज्ञायां "ध्युकः" [५।२।८३] इति एप्प्राप्तः ।
थस्य गे पित्याच ||२५|| थसञ्जस्य गोर्यो ध्यु सस्याजादौ गे पित्वेन् न भवति । नेनिजानि | अनेनिजम् । वेविचानि । अविचम् । वेविषादि । अवेविषम् । लोदि लड़ि च बल्य “निनामुष्येप्" [५/२।१७५] | एनं बोबुधीति । योभुजीति । भिदौति । मस्येति किम् ! वेदानि । ग इति किम् ! निनेज । अचीति किम् ! नेक्ति। विद्ग्रहणमुत्तार्थम् | अपिनि गे कितीति प्रतिषेधः सिद्धः । म्युः इत्येव ।
जुयानि ।
सूभक्त्योर्मिङि ॥शशा सू भवति इत्येतयोमिडि पिति गे एव न भवति । मुवै । सुवावहै । मुवामहै | अभूवम् । अभूत् | सूमहणेन सूतिगुह्यते । सूयतिसुबत्योर्विकरणेन व्यवधानम् | विकरणस्य हित्त्वादेव प्रतिषेधः सिद्धः । मिडीति किम् ? भवति । शवयन् । भयतेस्लिपा निर्देशो यड्चन्तनिवृत्यर्थः । बोभवीति । सूत्रोपलक्षणं चेदं तिपा निर्देशेनं सूतैरपि यङ चन्तस्य निवृत्तिः । मोपवीति ।
हस्पैथुप्युतः ॥शशमाहलादौ पिति गे परतः उपि सति उकासन्तस्य गौरैप भवति । एपोऽपशदोऽयम् । योमि । यौषि । यौति । रोमि ! रौषि । रौति | इमेव ज्ञापक्रम्-पूर्व बिकरणः पश्चाद गुकार्यम् । श्रन्यथा पूर्वमपि सति उकारान्तता न भवेत् । तरतः । तुरन्तीत्यत्र ऋत इत्वं च स्यात् । अथवा नित्यः शप । इलोति किम् ? यवानि । उपीति किम् ? जुहोमि। सुनोमि । उत्त इति किम् ? एमि । एपि | पति । उपर फरणं किम् ! लोलोति । पित्तीत्येव । युतः । रुतः । इलि पित्तीग्निशादव्यत्रहितग्रहणम् । इह मा भूत् । अपि स्तुवाद्राजानम् । थल्य नेत्येतदिहानुवयमिति केचित् । योयोति ! रोरोतीत्यादिसिद्ध थे।
वोऽयोंः ॥शराउौनेवा एभवनि हलादौ पिति गे। प्रोणोमि । प्रोमि। योगपि । प्रोपलेपि । प्रोणौति । प्रोगगति । हलीत्येष | प्रोगई यानि । पितीत्येव । प्रोसुतः । पूर्वेण प्राप्ते विकल्पः ।
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०५० २०८६-६६ ]
महावृचिसहितम्
३७३
इल्ये ॥ ५२८६ ॥ उपतेईलि पिति ने एम्भवति । प्रौणः । प्रौगत् । पुनईलाइ केवलार्थम् । इलादौ मा भूत् । बेति नाधिकृतम् ।
राह इम् ||५|२| ६०॥ तृशष्ट इत्येतस्य गोरिमागमो भवति इलादी पिति गे परतः तुहिरागतश्नम्को गृह्यते । श्नमि कृते इमागमो यथा स्वादिति । तृणेष्ठि | तृष्टि | हलीत्येव । तुगुहानि । पितीव । तृष्टः । अतृडित्य तिस्यो: 'हल्कवाप: " [४/३/५६] इत्यादिना खे कृते हलायभावादिम्न प्राप्नोति । "त्यस्ले त्यान यम्” [१।१।१३] अपि न सम्भवति । वर्णाश्रये नास्ति याभयमिति । यथा गवे हितम् गोदितमित्र श्रचति वर्णाश्रयेनात्वादेशस्त्याश्रयः । नेदं वर्णाश्रयं कार्यम् । किं तर्हि मिश्रयम् । मोड लादी परतः । तस्य च त्यखेत्याश्रयमित्यवस्थानादिन् ।
बुब ईट | ५२२६१|| ब्रुव ईडागमो भवति हलि विति मे । बुव इति कानिर्देशात्परादिरी । सतीति । नी । शिवम् । हलीत्येव । ब्राणि । पितीत्येव । ऋतः । इत्येव । उवचिथ । इयं बाधित्वा परत्वादीय् स्यात् । श्रात्म इत्यत्र स्थानिकाचाप्राप्नोति “सव आहरच " [२।४।७०] इति श्रादेशः । सिपश्च यादेशः । “आहस्थः " [ ५३४५२] इति हस्य थत्वम् । चम् । नायं दोषः । श्रति विनिरयम् | " अन विधौ” [ १।१।१६ ] इति प्रतिषेधः
यो था || ५|२|६२ ॥ वङ्गन्ताद्वा ईड् भवति हलि पिति मे । अत्रापि यङ इति कानिर्देशात् पर तया योगः | लालपीति । वाचदीति । शाश्वखोति । चोकुशीति । "अस्य मे पिव्यचि " [ ५२८५ ]: प्रतिषेधः | एज्ञे लालति । यावन्ति । शाश्वति । वोक्रोष्टि यङन्तात्परस्व हलाद पितो गम्याभावाद्वचनाङ तस्य म् । इदमेव ज्ञापकं “महोचि” [3|४|१४४ ] इत्यत्राविशेषेण यह उच् भवति । "बरीतम्" इत्यादिषु पठितम् । तस्यादादिकार्यम् । “मम्" [११२ ७५ ] इति मत्रिधिः | "करीतम्" इति यङ अन्तस्य
मन्शा |
श्रम् | आसीत् ।
हल्यस्लेः || ५|२|६३॥ हलि परतः अस्तेः स्यन्ताच ईड्भवति । श्रस्तिग्रहणं आसीः | स्यन्तात् | अकार्षीः । अलावीत्। अलावीः । पुनईप्रहणं केवलार्थम् । इह मा भूत् । श्रस्ति | नेति नाधिकृतम् । नन्वभूदित्य श्रस्तः स्थानिवद्भावात्मानोति । श्रस्तेरिति विमकारको निर्देशः । तेन श्रस्तेः सकारान्तादीट् |
रुब्भ्योऽडुबाऽजञ्जेः ||५|२६|| महादिभ्यो जक्षिपर्यन्तेभ्यः वागमो भवति इंदूच हलि फिति में । व्यनक्षेरित्याभिविधौ द्रष्टव्यः । केवलहलग्रहणमनुवर्तते । प्ररोदत् । श्ररोदीत् । अस्वपत् । श्रवीत् । श्रश्वसत् । अश्वसीत् । प्राणत् । प्राणीत् । श्रजक्षत् । श्रनक्षीत् । सर्वत्र लङ् । “पोऽनिवेः " [ ५४४ १०४ ] इति गणत्वम् । श्राजछेरिति किम् ? अजागर्भवान् । एपि रन्तत्वे च कृते “हलक्या" [४३४५६] आदिना खम् । "दादेगें" [५/१/१३५ ] इतीटिं प्राप्ते तदपवादशेऽयम् ।
अदद ||२६|| अदः अड् भवति इलि पिति मे । याद: । आदत् । केवलहलीति किम् ? श्रुतिं । पुनरग्रहण मोनिवृत्यर्थम् ।
व्यतो दी ||५|२||६|| यत्रादौ मिडि अकारान्तस्य गोर्दीर्भवति । " सूभवत्योमिंडि" [ ५२८३] इत्यनुवर्तते । पचामि । पचाकः । पच्यामि पक्ष्यावः । पचामः । मिचीति किम् ? धनवान् । केशवः । केशा श्रस्य सन्ति "केशा हो वा " [४|११३५] इति वः । यनीति किम् ? पचति । श्रत इति किम् ? चिनुकः । चिनुमः । तपरकरणं किम् १ क्रीणीचः इत्यत्र माभूत् । नन्यीत्वेनात्र भक्तिव्यम् । नैषम् । क्रीणीयः । कोणीतः इत्यत्र सावकाशमत्वं दत्वेन अध्येत । यतीनिर्देशादन्यवहितस्य गोरन्तस्य दीव्वम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [७० ५ यी० २ सू० ७.१० सुपि ॥
५६॥ अकारान्तस्य गोः यादौ सुपिं दीर्मवति । देवाय । देवाभ्याम् । यमीत्येव । देवस्य । सुपीति सु इत्यतः प्रभृति पा सुपः पकारेण |
वहाँ झल्येत् ॥शरा झलादौ बहौ सुपि परतः अकारान्तस्य गोरेकारादेशो भवति । दवेभ्यः । देवेषु । बहाविति किम् ? देवाभ्याम् । झलीति किम् ? देवानाम् । “नामि" [ers] इति दीत्वम् अग्नीनाम् , वायूनामित्यत्र सावकाशम् , हहासति झल्पहरणे परत्वादेत्वं स्यात् । यत्रीत्यस्य निवृत्त्यर्थं च अल्पाहणम । अन्यथा देवेष्विति न स्यात् । अत इत्येत्र | अग्निभ्यः । तपरकरणं किम् ? खट्वाभ्यः | सुपोत्येय । पचत्रम।
ओसि ॥५॥२॥६॥ ओसि च परतः अकारान्तन्य गोरकारादेशो भवति । देवयोः स्वम् । देवयोर्विधेहि ।
आदि चापः ॥५॥२१००॥ श्राढि प्रोसि च परतः श्राचन्तस्य गोरकारादेशो भवति । आबिति ग्रए. दापोग्रहणम् । विद्यया । विद्ययोः। बहुराजया | बहुराजयोः । "अनश्च बात्" [३।११०]। "वोद रख [३1३111] इति डा। आङिति टारूपस्य ग्रहणं पुर्वाचार्यसम्ज्ञानिदशन | आप इति पिदग्रहणं किम् ? कीलालपा नरेण । कौलालपोः । विच्यामनिवृत्ते "पासो धोः" [५/१२७] इति खम् । अथातिखट्वनेत्यत्र "मीगोर्नीधः" [१।१८] इति प्रादेशे कृते स्थानिक्दावादेवं कस्मान भवति ! उच्यते "हल्ल्याप" [५३।५६] इति सूत्रे हल्यायो छ इति योगविभागस्तत्वार्थो डयापोर्यत्कार्य तद्दीत्वमाजोरेव । नन दौत्यमपि स्थानिवद्भावा. गविग्यति । "क्यापोरवं न स्थानिवत्" [वा०] इति प्रतिपयः ।।
कौ ॥२॥१०१॥ कौ च परतः अाप एवं भवति । हे कन्ये । हे बहुराजे । "केरेकः" [५३/५७] इति सोः खम।
प्रोऽम्बार्थम्वोः शरा१०२॥ अम्बार्थवाचकानां मुसज्ञस्य च मो भवति की परतः । अभ्यायाः मातृशब्दपर्यामाः । हे अम्ब । हे अक्क । हे अल्ल । हे अत्त । मुसाकस्य । हे गोरि । हे बामोस । "यको वा" 4.२१२] इत्यतः मण्ढकालुत्या बहुलाों बाशब्दोऽव वर्तते । तेन ब्रह्मचोऽन्त्रार्थस्व प्रो न भवति । " अम्बाले । हे अम्बिके । हे अम्बाढे | "तलन्तस्य डिक्योरुभयम्" [वा०]। देवते भक्तिः । देबनायां भक्तिः । हे देवत । हे देवते । छान्दसमेतदिति केचित् । "बले को मातुरदन्तत्वं पुत्रश्लाघायाम्" [वा०] | गार्गी माता अस्पति श्लाघते। हे गार्गामात | श्लाघाया अन्यन्त्र | हे गागीमातृक । “जातिश्च" [१५३] इति न पुवायः ।
प्रस्यैप ॥१२॥१.३॥ प्रान्तस्य गोरै भवति को परतः । है मुने । हे माधो। “अन्तेऽलः" THE6] इति न्यायादनन्त्यस्य न भवति । हे युव (बुध)। हे नदि । हे वधु | इत्यत्र प्रादेशवचनसामच्या देव न भवति ।
जसि ॥११०४]] जमि परतः प्रान्तस्य सोरे भवति । मनमः । साधयः । "अन्तेऽल" [१६] इति परिभाषया अनन्तत्येको न भयति बुधा इति ।
तो किंधे ॥शरा१०५॥ ऋकारान्तस्य गोः डी सज्ञके च परतः एन् भवति । मातरि । पितरि | कतरि । धे। मातरौ। मातरः। मातरम् । मातरौ । पितरः। तपरकरगाममन्नार्थम् । कृरिति ऋकागन्नः सम्भवति तन्निवृत्त्यर्थम् ।
सोर्डिति ॥५॥रा१०६॥ स्वन्तस्य गोर्डिति एम् भवति । मुनवे | साधने । मुनेः । माधोः । सोरिति किम् ? सत्ये | पल्ये । अप्सखीति पर्यु दासात् “पतिः से" [11] इति नियमाञ्च मुमजा नास्ति । हितीति किम् ? मुनि वाम । सुपोत्येव । पदवी । कुरुतः । डोतसोडिंतोराप मा भूत ! उकारश्चासाविच्च शित् तस्मिन् स्त्यिव्यवहितस्य कार्यम् । तेन वृद्ध्यै धेन्वै । इत्येप (न) व्यवधाने। आङि औदिच न भवति । माया । मती । इति।
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अ०५० २०१०७ - ११५ ]
महावृत्तिसहितम्
३७५
अण मोः ||५||१०७ ॥ म्यन्ताद्गोः परस्य डिनोssगमो भवति । मोरित्यकृतार्थः कानिर्देशो कितीत्यस्य तां प्रकल्पयति । कुमायें । वामोर्चे । कुमार्याः । बामोर्चा: । परेण सह "अश्व" [२३७८ ] इत्यैच् वचनात् " एयतोऽपदे" [४३८४] इति पररूपं न भवति ।
याडापः || ५|२| १०८ ॥ श्रान्तादुत्तरस्य हितो गमो भवति । विद्या । बहुजायै । विद्यायाः | “एच्यैप्” [४|३|०६] "स्वेको दी:” [३८] इति दयं वा इत्यत्र ग्रहगोन टीलं न स्थानिवदिति । प्रतिखट्वाय । पुनले लाक्षणिकत्वम् ।
सर्वनाम्नः स्यात् प्रश्च ॥ १२२१०६ ॥ आवन्तात् सर्वनाम्नः प्रश्च भवत्याः । सर्वस्यै । यस्तै । तस्यै । कस्ये । सर्वस्याः । यस्याः । ↓ इत्येव । भवत्यै | भवत्याः ।
परस्य ङितः स्याडागमो भवति तस्याः | कोटीचे प्राप
नम्ब
जेराम् म्वाम्नीम्यः ||५|२१११०॥ "प्रे लिप्सायाम्” [२।३।४२] इति निर्देशात इन ग्रहणम् | डेंग्रामादेशो भवति मन्तादान्तान्नी इत्येतस्माच्च परस्य । कुमार्याम् यामोम् । विद्यायाम । बहुग जायान् । ग्रामण्याम् । सेनान्यान। "सप्सू द्विप" [२२५१] इत्यादिना किपू । "अग्रमामाभ्यां नियो एवम् " [चा०] | "पूगिंवायादुङोऽसुधियः" [१४७८ ] इति यत्त्रम् । अथ हेोरामः नुट्कत्मान्न भवति । परत्वादञ्चा दिभिरागमैर्भवितव्यम् । कृतेष्वपि "सद्गते पर निर्णये वाधितो बाधित एव" [१०] । उत्थापोभाजीः कार्यमुक्तम्” (ङथाप) “ग्रहणे दोन स्थानिवत्" इति च । तेन निष्कौशाम् । श्रतिखट निहि ।
इदुद्भवाम् ||५|२|११२ ॥ इकारोकाराभ्यां मुसकाभ्यां परस्त डेरान् भवति बुद्धयामन्याम ननु पूर्वेस बाम् सिद्धोऽपार्थमिदम् । “ श्रीदच्च सोः [ २११२] इत्यौत्वं स्यात् तन्त्राविशेषेण वचयति । महानुवर्ततेने
विशे
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औदच्च सोः ||२||१२|| मुसकाम्यामिदम्यां परस्व ङरौकारादेशो भवति सोश्चाकारादेशः । सख्यौं । पत्यौ । सोः मुनौ । साधी । प्रधानशिष्टमिद्रामत्वम् । ग्रन्वाचयशिष्ट सोग्यम् । यथा निचर गां चानय । गोनयनम् | शास्त्रेऽपि "क्तुः स्य सखं विभाषा " [२/१६] इति अन्याचयशिष्ट सखम ! नपरकरणं मुन्वसुन्वार्थम्। ग्रत्ये कृते स्त्रियां यपरो निवस्यर्थमित्यप्यन्ये। पि को दोष इति चेत् श्रौकारस्व किग्रहणेन ग्रहणादामादेशयाडागम स्वानाम् । तदसत् । प्रागेव मुत्पन्ते: स्त्रीयेन भाग्यम्, अन्यथा मावेत्यत्र नान्तलक्षणी हीन्विधिः स्वात् ।
आओ नाऽस्त्रियाम् ||४२२६१३|| सोरिति वर्तमानमर्थात् काविभक्त्यन्तं सम्यद्यते । सोरुत्तरस्याङः ना इत्यादेशो भवत्यस्त्रियाम् । मुनिना | साबुना । सोरित्येव । सख्या । पत्या । श्रस्त्रिमिति किम् ? बुद्धवा | धन्वा आना पुंसीति कर्तव्यम् । त्रपुरा। जाननेत्यादि । "सुपीकोऽचि" [ ५।११५२] इति नुमैत्र सिद्धम् । नपुंसके अमुना कुलेनेति न सित । मुमावस्यासिद्धत्वान्नुम्न स्यात् । अस्त्रियामित्युच्यमाने नघुमके ऽपि नाभावो भत्रति । ततश्च " न मु दाविध" [२६] इसि नाभावे सुभावस्य नामिद्धत्वम् ।
सूत्रेऽस्मिन् सुध्विधिरिष्टः || ५|२| ११४ || सूत्रेऽस्मिन् जैनेन्द्रे पु यो विधिःपिच विधिरि भवति । सूत्रावयवेषु सूत्रशब्दो द्रष्टव्यः | उदाहरणम - "खीगोस:" [1111८ ] श्रीगूनामिति प्राप्त सुविधिश्यम् । “मिङ क्रार्थे त्राः” [१|४|५४ ] | हल्यादिना सुखं प्रातम् । सुपो विधिरयम् । अथ चिति हलन्तात् कथं टापू । श्रम तुप विधिरिः । श्रा कपः पकारेण सुपो ग्रहणात् ।
if कच्युङ: प्रोऽशास्त्रस्युदितः ॥ ५२२११९५ ॥ शी परतः करूपरे गोरुङ : भवति शानु अग्नि ऋदित् इत्येतान् चर्जयित्वा । चीरन् । अजीहरत् । अत्र “शिश्रित्र” [२।११४३] न्यादिना कचि कृते द्विर्वचनोङ्मादेशयोः प्रातः परत्वादुः प्रादेशः । तत्र कृते "ओोः पुणज्ये" [२८] इति
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ ० ११६-11 अपकात् जो कृतं स्थानियद्भवति । अथ वा “द्वित्वेऽचि" [ ५] इति भ्यानिवभावः । हशब्दयोछिन्त्यम् । "धौ कम्यनक से सन्चत्" [५२१११०] इनि मन्त्रावनेत्वम् । “घेर्दीः" [५/२।143] इनि दोन्वमेवअलीलयत् । अपीपवन । "श्रोः पुयएज्ये" [५।२।१७८] इनि उकारस्वम्। अथवा प्रोण अपनयने इत्यस्य प्रतिषेधार्थम् । ऋदित्करणं ज्ञापक द्वित्वात्पूर्व प्रादेश इति । अन्यथा मा ऋोरिग्रादित्य द्वित्वं कृते परेए रूपेण व्यवधानान् प्रादेशस्याप्राप्तिः । अन एव मा भवानटिटत् अत्र प्रादेस मनि “अचः" [४१३।२] इति द्विस्वम् । णाधिति किम ' के युद्धः प्र इत्थुवमाने अलीलवदित्यत्र प्रादेशो वचनमामाद तरङ्गमैपमावादे बाधित्वा नित्यत्वेन रहे: बन च गांधत्वा पंकारस्य स्यात । इद्द चापीपचटपीपटनिति अनुर भूलत्वात प्रोन स्थान । किम् ! कारयति । द्वारयन्ति । ननु मिता गौ मादेशवचनं ज्ञापकभन्वत्र प्रादशाभावस्य | यचमचकिदिन्यादासप न स्यात् । अथ प्रवचनाद भनि | कारयतील्यादायपि स्याद्रिदोघहत्वभानान । उसः इनि कि.म? अकाड्दन । अनुङ श्राकारस्य ना भूा। शास्वाध्यदित इति किम् ? अशशासा । परस्य थेरभावान्न मन्वद्भावः । श्रका बन अम्बम् अपम्पमस्यान्तीति अश्वी तम्य नेति । राजानम पारख्या अन्यरराजत् । "कगति तदाचष्टे' शी गिन् । यत्र केबलस्याचः वं तब "परेडचः पूर्वविधी" [11५०] इति स्वनिरङ्गायः । हुल चोश्वावमादेशः । भविन्यप्रतिषेधः । ननु च अनकारिदं बं कथमनकः त्रम् । यदनाक: ग्वं नदानया प्रतिषेधः । स्थानिवद्भावस्तु नास्थाश्रयः । ताधिकारस्तत्रानुवर्तते । तानिर्दिष्टम्याच: स्थानिवद्भारो न ममदायरूपेगा टिंग्वन्य । ऋदेित । अहुदोकत् । अगुनौकन् । इह कथं गयन्तारिचि प्रादेशः ! यादिनवन्न आयोजिावान अत्रीवादीण परियारकेन । गौ णि ग्वस्य स्थानिवद्भावादन हो न स्यात् । गावित्यत्र जातिग्रहणाददोषः ।
भ्राजभासभाषदीपजीवीलपीडो वा ॥शश१३६॥ भ्राज भाग भार दीप जीव मौल पीड इत्यो ऋच्यरे गौ उडः त्रा प्रो भवति । अचम्राजन् । भविभ्रजत । अग्रभामन | अत्रीभमत् । अयभाषत । अवोभारत । अदिदीपन् । अदौनिपत । अजिजीवन । अजीजिवन । अभीमिलत् । अमिमोला। अरिपोइत | अपोपिटा । पूर्वसूत्रेण प्रादेशे भात विकल्पः । बदा प्रः सदा पृचंचमरावत्वं घेटीवार । वेति योगविनागान कणादीनां विकल्पः। अचकागतं । अचीकग्णन् । अबभाणन् । अधीभगत् इन्यादि । भ्राजग्रहणं किन् ! याचना करणादियु भ्राज इत्यरकारेदस्ति सय मिद्धः प्रः । एज भेजृ श्राज़ दौप्तानस्य ऋदितो नेति सिद्धभुभयम् । एवं तहि जापकायम् । अन्यत्र “यजराजभाजच्छसा : [ ५३।५३ ] इत्यादौ भ्राजग्रहग्गेन राजितचरितस्य अनृदिनो ब्रहणम् । ऋदितो भ्रागिन्ति भवति । भास ऋदिरकरगमनका
खं पिवश्वस्येत् ॥शरा११७॥ पिबतेनछः गो के परे "यं भवनि वस्य च इंकागरेशः। अप्पोप्यन् । अपोप्यताम् । अपोप्यन् | उद्यः खे ते "द्वित्वेऽचि" [५११५४] इति स्थानिवद्भावाद्वित्वम् । पित्र इति गायिकरणान्तो विकनि:शः। पिबतेरेक देशो या अन्तनिवृत्त्यर्थः । अयपाक्न । घेरभावाल्मन्बात्रो न भवनि । 'पातेमधिकरणत्वान् "पै यो शोपणे" इत्यस्य च स्याक्षणिकत्वादेव निवृत्तिः ।
स्थ इत् ||१२|११८॥ तितेः कापरे यात्रुह इकागदशो भवति । अतिष्ठिपत । श्रनिष्टियताम् । अतिष्ठिषन् । "लुङ्लिोः प्रतिपदोक्तानि" इत्यादि वचनाद्य यन्तस्य न भवति । अततास्थरत । ता स्था इति स्थिते रिधि पुक् कचि द्विःधं घेरभावान् सन्धद्भावो नास्ति |
नो वा ||शरा११६॥ जिन्नतेः कपरे णात्रुङ इकारादेशो भवति या । अजिनिषन । अघिपनाम् | अजित्रिपन् | अजिज्ञापत् । अजित्रपताम | अजिनापन् | चस्य मन्वदायेने वम् । अत्रापि युद्ध २- नस्य न भवति । अजजायपत् । लभवोर्विकल्पनीमध्ये योगा नित्या इति पूर्वी प्रापरादी नित्यौ।
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भ० ५ पा० २ सू० १२०-१२७ ] महावृत्तिसहितम्
उत् ॥५॥११२०॥ फयरे णो ऋवर्णस्य उहः स्थाने कागदेशो भवति वा । श्रनक्काशन्वादन्तरगाणाम् इररारामपवादः। लाचीकृतत् । श्रवीवृतत । अमीमृजत् । पक्षे इन् । अचकीर्तत् । ब्रार अवयर्नत् । पार । अममार्जत् । "उकः" [५1१1३५] इति कारस्येल्वम् । "युकः" [५२८३] एप । “मृजेरैप" [५।२।१] । कागदेशरुप "रन्तोऽणुः" [1१1१८] इति रन्तत्वं भवति। "अणुदित्स्वस्या-" [91१९७२] इनीम काका मुमा रमाकाने गरि सामानात् ।।
देको दिगि लिटि शरा१२३॥ देखो दिग्यादेशो भवति लिटि परतः । वेति निवृत्तम् । अर्वादये । अचदिग्याते । अवदिग्विरे । चस्यत्यनुवर्तते । वचनाद्वित्वे कृते चस्व देडश्च यथासल्यं दिगी अादेशी भवतः । "ऐनिवाक्चानुहोऽनुधियः" [॥५७८] इति यणादेशः सिद्धोऽन्यथा हीयादेशः स्यान् ।
ऋतः स्फादेरेप ।।२।१२२॥ ऋफारान्तस्य गोः स्फादेरेप भवति लिटि परतः । सरमरतुः । सस्मरः । दधरतुः । दधरुः । वचनात्याग्द्धि स्वास्फादेरिति विशेषणम् । अन्यथा स्फादित्वासम्भवः । प्रतिपर्धायपये लिटीद मारभ्यते । सस्मारेस्यादौ ऐच भवति पूर्वविप्रतिषेधेन | ऋत इति किम् ? चिक्षिपनुः । चिनियुः । तपकरण मसन्देहार्थम् । कारस्याप्युत्तरसूत्रेण विधानात् । स्फादेरिति किम ? चक्रतुः । चनः । लिटी यंत्र। स्मृतः । स्मृतवान् । ननु संचस्करतुः । संचस्कररित्यन्न विपदाश्रयस्य सुटो बहिरङ्गलक्ष पास्यासिद्धत्वात्कथमेप । नैष दोपः । "पूर्व पुगिना युज्यते पश्चात्साधनवाधिमा त्येन" [40] इत्यस्मिन् दर्शनेऽन्तरङ्गे सुटि कुते पश्चादे । अतापत्र "स्कारासोऽसुटः [५ ] । “स्फाचोरस्कुरे" [५।२।१३८] इति प्रतिषेध उपपन्नो भवति । ।
__ ऋच्छ्रत्यताम् ॥५॥२।१२३|| ऋच्छत ऋइत्येतस्य ऋकारान्तानां च लिटि एव भवति । आनन्छ। आननुः । आनन्छु । एप् द्वित्वम् । “आयतः" [4॥२॥१७०] इति दीत्यम् । “ततो नुट्" [५/२०११] इति नए । ऋ । भारतुः । श्रारुः। "प्रश्नोते. १२0१७२] इति नियमान्नुण, न भवति । ऋत् । विनकरतु विचकाः | निजगरतुः । निजगमः । त्रितस्तरतुः। वितस्तरुः । ऋच्छेरन्तर नत्वात् "हे" [१३६६] इनि तुकि कृते सर्चनामासः ऋनां तु लिटि किति प्रतिषिद्ध एविधीयते । निजगारेत्याद।बै पूर्वनिर्णयेन |
मां प्रो या ।।२।१२।। शह पृ इत्येषां लि बा प्रो भनि । विशतुः । विशश्रुः । पर्ने पूर्वप । विशशरतुः । विशश: 1 विदद्रतुः । बिद्रः । विददग्तुः । विट: । निपप्रतुः । निपाः । निप. परतुः । निपपरः । पादेशवचनादित्वोत्वे न भक्तः । ये तु भा पाके, द्रा कुसायां गती, द्रा गूग्गो इत्येतेषामने कार्थत्वात् पचे प्रयोगादनर्थकमिदमिति मन्यन्तै तेषां प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् ।
केणः ॥शरा१२५॥ के परतोऽणः प्रो भवति 1 नदिका । कुमारिका । वामोरुका । कुत्सापर्थविधक्षायाम् "गुवाकः" [11] इति कः। "स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसङ्गय अनुवर्तन्ते" [१०] इति यर । क इति साच्कनिर्देशात्त्यग्रहणम् । वर्णग्रहणे तदादिविधिः स्यात् । ततश्च नदीकल्पः परीवाहः । कुमारी काम्यतीत्यत्रापि स्यात् । अया इति किम् ? गोका । मौका ! पूर्वश णकारेणाण, व्याख्यातः | राका काक इत्यादिषु “उणादयों बहुलम्" [२२२११६७] इति न भवति "कृदाधाराचिंकलिभ्यः का" [3० सू०] "हणूभीकापाशरणतिमचिभ्यः क" [उ. सून इति कायतेः कः । “न ऋषि" [५।२१११६] इति प्रतिषेधादिहाननुबन्धकपरिभाषा माश्रीयते । तेन निषाहको जात "मोदेनो उम्" [३।२।१५] तदादेलो के सानुबन्धकेऽपि प्रादेशः गिद्धो भवति । नैपाहकर्युकः इति ।
न कपि ॥२२१२६॥ कपि परतोऽणः प्रो न भवति । यदुकुमारीकः । बहुनामोरूकः । "मम्मो:" [४॥२॥१५३] इति कप सान्तः । खार्या क्रीतं खारीकम् । काकणीकम् । “खारीकाकणीभ्यां कप्" [३६५३०] ।
वाऽऽपः ॥२।१२७|| कपि परत: आवन्तस्य श प्रो भवति । बहुम्वर वकः । बहुस्खट्वाकः | बहुदा. मकः । बहुदामाकः । “शेषाहा" [१२।१५५] इति कम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ५ पा० १ सू० १२८ - १३३ व्यपवचोऽयुक् पुमुमोऽङि || ५|२| १२८ || शिव असि पत्ति वचि इत्येषामङि परतः प्रकार शुक पुम्, उम् इत्येतॆ यथासङ्ख्ये भवन्ति । अकार श्रादेशः थुगादय आगमाः । श्रश्वत् । "श्वि" [ ५० ] इत्यादिनाङ् | "अन्तेऽलः " [ १|१|४६ ] स्थाने प्रकारस्तस्य पररूपम् । श्रास्थत् | आस्थताम् । श्रास्थन् । “वक्त्यसुश्यासेरङ” [२।१४५] | "ब्रटश्च" [श३७८ ] इत्यैर् । अपतत्। पनताम् | अपतन् । " शुत्पुषा” [२३१४८] आदिनाऽङ् | अवोचत् । ग्रवोचताम् । अवोचन् । “आदेष्” [४१३॥७५] ।
३७८
||५|२|१२|| दृशि इत्येतस्य गोः ऋणन्तानां च श्रङि परतः एव भवति । दर्शत् । प्रदर्शताम् | अदर्शन् । “बेरितः " [२१]४६ ] इत्युङ् । श्रारत् । असरत् । "त्पुषा " [२१२४८ ] आदिना अ | अजरत् । अजरताम् । अजरन् । “श्वि" [ २।१२५० ] इत्यादिना । नृपः पिन्करमम् | " जराया वा " [ ५।६।१६०] इति वचनं ज्ञापकमुरिति ऋवनिर्देशस्य ।
66
शीङो गे || ५|२| १३०॥ शो मे परतः एव भवति । शेते । शयाते । शेरते । ङिति मे विधानमिदम् | शवावहै । शयाम इत्यत्र सिद्धत्वात् । इति किम् ? शिश्ये सानुबन्धकनिर्दशो यहुचन्तनवृत्यर्थः । शेशीतः | शेश्यति ।
यि ङित्
||५|२| १३१ ॥ यकारादौ किति त्ये परतः शीड: मादेशो भवति । शय्यते । शाशव्यते । यहि परत्वेन च द्विवाया गयङादेशः | डकारो "हित्" [१|१|५० ] इत्यन्तादेशाः । श्रकारः उच्चारणार्थः । शय्या । " समजनिषद" [२३८१] इत्यादिना कयपू । प्रवाच्य । कान्तन । यीति किम् ? शिश्ये । विहतीति किम् ? शेयम् ।
गेरुहः प्रः || ५|२| १३२ || गेः परस्य कहतेः प्रभवति यकारादौ किति पग्नः । अभ्युद्यते । समुह्यते । “अश्वश्च” [१।१।१३] इत्युपपस्थानादूहेरचः प्रादेशः । गेरिति किम् ? उह्यते । ऊह इति किम् ? समीह्यो । यीत्येव । समूहितम् । कित्येव । श्रभ्यूः श्लोकः | "केऽणुः " [१/२।१२५] इन्योऽग्रहणमनुवर्तते । तेन त्रा ते ओद्यते । समझते इत्यत्र न भवति । प्रोन इत्येकादेशे कृते व्यपवर्गाभावान्न भवति । तद्भावेन व्यपवर्ग इति चेत् "उभयत आश्रये न सद्भावः " [१०] इति गेः परत्वं नास्ति |
लिपतेः || ५२२१३३॥ एतेर्गेरुत्तरस्य लिङि यकारादौ किति प्रो भवति । उयात् । समिवात् । आशिषि लिङ् | यासुट् । “स्फादेः स्कोऽन्ते च” [५/२/४६ ] इति सखम् । "वीर” [ ५।२।१३४] इति दोत्यम् | तस्यानेन प्रः | कृति ये च दीवं न सम्भवति । न गे उदाहरणम् । अभियादित्यत्र स्वेको दवे कृते मादेशः । गेरित्येव । यात् । श्रय इत्येव । आ ईशत् यात् । समेयात् । तिपा निर्देशाः ।
दीर || ५|२| १३४॥ अकृबकारे अगयकारे च क्खिति गोर्भवति । “प्रचश्च” [11१।१२] 'खानादया विशेषणेन तदन्तविधिः । परि उशायते । चीयते । चेचीयते । स्तूयते । तोस्तूयते । चीयात् । स्यात् । श्राशिषि लि । प्रकृदिति किम् ? प्रकृत्य । प्रस्तुत्य ! परत्वाद्दीले तुग्न स्यात् । अथ इति किम् ? चिनुयात् । स्यात् ।
वौ ॥५२॥१३५॥ च्वौ च त्ये परतः गोर्दीर्भवति । शुचीभवति । पट्टमत्रति । "कृभ्वस्तियोगेशचे सम्पतरि धिः " [४/२/५५] इति कि । अवयवनिवृत्तिः । “त्यस्येत्याश्रयम्" [ १:१/६३ ] इत्यजन्तस्य दीत्वम् । रीतः ॥ ५२॥१३६॥ ऋकारान्तस्य गोः च्चौ कृकारे अगकारे च परतः देशो भवति । मात्रीभवति । पित्रीभवति । मात्रीयति । पित्रीयति । "स्वेपः क्यच् " [ २।११६] । मात्रीयते । पित्रीयते । "तु: क्यस विभाषा " [२।१३६ ] इति क्यङ् । चक्रीयते । जेहीयते । विङीन्येतदिह निवृत्तम् । तेन पिव्यम् । पितुरागतम्, “पितुर्यश्व” [३३३ ५३] वे रोादेशः सन्निपातलक्षणस्यानित्यत्वात् " यस्य त्यांच" [ ४|४|१३६ ]
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म० ५ पा० २ सू० १३७-१४५] महावृत्तिसहितम्
३७६ इति खम् । उत्तरसूत्रे रिहिव कर्तव्यः । तस्य दो सिदमिति चेत् ; "गुकायें निवृत पुनर्न तन्निमित्तम्" [१०] इति दीत्वं न स्यात् । ऋत इति तपरकरणं किम् ? को। अन्यथा कीर्णमित्यादौ सावकाशम ऋत हत्वं सैद्धा याध्येत । उत्तरार्थमकद्गे यि इत्येतदनुवर्तत इति ज्ञापनार्थ प्रकरणम् । अन्यथा अनन्तरे चावार्य विधिः स्यात् । न च मृदन्त ऋकारो नित्रयोऽत्तीत्यनर्थकं भवेत् ।
रिङ्यगलिशे ॥शरा१३७॥ अकारान्तस्य गोर्यक् लिङ्श इत्येतेपु परत देशो भवति । यीति अकृद् इति चानुवर्तमान सम्मनाद्व्यभिचाराच्च लिंङ एव विशेषणम् । यकारादावगे टरच्यम । यक्-क्रियते । हियते । लिट्-क्रियात् । हियात् । यीत्वेव | ऋषीप्ट | हपीट : अग इत्येव । विभूयात् । विध्यादिलियम् । शे-आद्रियते । "नुषब्रुवाम्" [॥४७२] इति यादेशः। अत इति तपरकरणं किम् ? किरति । गिति । रोडिति वर्तमाने रिग्रहणं पुनीत्वनिवृत्यर्थम् ।
स्फाचोरस्कुरप् ॥५।२।१३८॥ स्मादेरतश्च ऋतो यकि लिङि यकारादाबगे च परतः एभवति स्कृशन्दं वर्जयित्वा | श इत्यसम्मवान्नोक्तम् । स्मर्यते । स्मात् । ध्वर्यते । ध्वर्यात् । अर्यते । अर्यात् 1 यामुटः "स्फादेः स्कोऽन्ते च" [५।३।१६] इति सम्खम् । यीत्येव । स्मृपीष्ट । श्रग इत्येव । इययान् । विध्यादिलिङ । शप उप । द्वित्वम् । "उरः" [५।२।१६६] इत्यत्यम् । "प्रोः" [५।२।१७६] इति चस्येयम् । “वस्यास्वं' [३३] इतीव् । अस्कुरिति किम् ? संस्क्रियते । “पूर्व धुगिना युज्यते पश्चात् साधनवाचिना खेन" [१०] इति पूर्व मुटि सति प्राप्नोति । अतिरिति अच्छतीययोंहगाम ।
यङि ॥५॥२१३९॥ यदि च परतः स्फादेरतश्च ऋत एब् भवति | सास्मयते । दाध्वर्यते । अरायते । अयङ् एण् । "अचः" [३२] इति वितीयत्यैकाचो द्वित्वम् । “हलोऽनादेः" [५।२।१६१] इति यस्यम् । "दीरकृद् गे" [५।२।१३४] इति दीत्वम, । "इन्तेहिसायां लीभाषो वक्तव्यः" [4r.] 1 जेन्नीयते । हिंसाया. मिति किभू ? ती जङ्घन्यो।
ई प्राध्मोः ॥२१४०। प्रा ध्मा इत्येतयोर्यति परतः ईकारादेशो भवति । जेधीयते । देमीयते । नित्यत्वेन परत्वेन च प्राग द्रित्वादीकारः । ईकारस्य दीत्वं किम ? गुकार्यत्वात्पुनर्न स्यात् । उत्तरार्थञ्च ।
अस्य च्वौ ॥५।२।१४१॥ श्रवर्णान्तस्य गोः स्वौ परत ईकारादेशो भवति । शुक्लीमति । मालीभवति । "च्चो" [५।२।१३५] इति दीत्वस्वावमपवादः ।।
क्यचि ॥५॥२२१४२॥ क्यचि परतः अवर्णान्तस्य गोरीकारादेशो भवति । पटीयति | मालीयति | "दीरकृदने" [१।२।१३५] इति दोल्लं प्राप्तम् । पृथक सूत्रमुत्तरार्थम् ।
सुस गर्थेऽशनायोदन्यधनायाः ॥शरा१४३॥ जुत् तुड्ग इत्येते वर्थेषु अशनाव उदन्य धनाय इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । अशनायतीत्यात्वं क्वचि निपात्यते सुच्चेद् म्यते । अशनीयत्यन्यत्र | उदन्यतोत्यत्र उदकस्योदभावो निपात्यते तृट् चेत् । उदकीयतीत्यन्यत्र | धनायतीत्यावं निपात्यते गर्द्धश्चेत् | धनीयतीत्यन्यत्र ।
धतिस्यतिमास्था ति कितीत् ॥५।१४४॥ यति स्यति मा स्था इत्येतेषां तकारादौ किति परत इकारादेशो भवति । निर्दितः। निर्दितवान् । अवसितः । अवसितवान् । मितः । मितवान् । “गामादामहणेश्वविशेषः" [१०] इति मामा ङां ग्रहणम् । स्थितः । स्थितवान् । आयस्य "दो दोः" [५।२११४८] इति दळाचे “भुमास्था" [ ५] श्रादिना सूत्रेणान्येवामीत्वे च प्रासे इस्ववचनम् । तीति किम् । दीयते ।
थीयते । फितीति किम् १ अक्दाता । अवसाता । धतिस्थत्योस्तिप्पा निर्देशो यकुबन्तनिवृत्त्यर्थः । निदादत्तः । निर्दादत्तवान् । अवसासीतः । अवसासीतवान् । दनार ईत्वं च भवति । तपरकरणं सुरक्षार्थम् ।
शाच्छोर्विभाषा ॥२२॥१४५॥ शा छा इत्येतयोविभाषया इकारादेशो भवति तकारादौ किति परतः । निशितः । निशितवान् । निशातः । निशातवान् | अपच्छितः । अपच्छितवान् । अवच्छातः । अपच्छातवान् ।
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जैनेन्द्र- म्याकरणम्
[अ० ५० १ सू० ११६ - १५१
व्यवस्थितविभाषेयम् । तेन श्यतेरित्वं विषये नित्यमिष्यते । संशितमतः साधुः । संशितं यत्नेन सम्यक्सव्यादिव यस्य न स एवमुक्तः । संशितः साधुरित्यपि भवति । यः प्रकरणादिना बते यत्नवान् गम्यते 1
३८०
धामो हि || २१२ १४६ || धाञः हिरित्ययमादेशो भवति तकारादौ किति परतः । हितः । हितवान् । स्यात्सर्वस्य स्थाने "[]देश निर्देशो यहुचन्तनिवृत्त्यर्थः । देवीतः । देधीतवान् । घंटो लाक्षणिकत्वान्निष्टत्तिः ।
हाकः वित्व ॥ ४२१९४७ हाकः क्त्वात्ये परतः हिरादेशो भवति । हित्वा गतः । हित्वा गच्छति कर्माणि । मोचम् । पूर्ववदी प्राप्ते हिरादेशः । अनुबन्धनिर्देशस्तु हाङो निवृत्त्यर्थः । यद्दुयन्तनिवृत्यर्थश्च । स्वर्मापयन्तस्य नेयते । क्लीति सौत्रो निर्देशः ।
दो दोः ॥ २१४॥ वा इत्येतन्य मुसकस्य वद् इत्ययमादेशो भवति तकारादौ किति परतः । दत्तः । दप्तवान् । दत्त्वा । दत्तिः । दइति किम् ? धीतः । चीतवान् । घेट इदं रूपम्। भाषी हिरादेश उक्तः । भोरिति किम् ? दातम् बर्हिः । ते आदेशे सुदत्तमित्यत्र " दस्ति" [ ४।६।२२५] इत्यनेन गन्तव गर्दीत्वं स्यात् । दान्तो " द्रान्तस्य सो नः " [ ५३/५४] इति नत्वम् । भान्से "तथोर्थोऽधः" [ ५३५६] इति झपः परस्य भ्रत्वम् । थान्ते नास्ति दोषः । तान्तो बास्तु | "इस्ति" [४/३/२२५] इत्यत्र दो पक्षो । दाइत्येतस्मिन्तका तकारान् वाम् । तब तकारादौ नास्ति दोषः । श्रान्नपक्षे " खरिं" [ ५/४११३० ],
इति ।
गेस्तोः ॥ ५२२२१४६॥ श्रजन्ताद्गेरुत्तरस्य दा इत्येतस्य भुसकस्य त इत्ययमादेशो भवति तकारादौ किति परः । नीत्तम् । वोत्तम् । परीत्तम्। प्रतम् | अवत्तम् | "अन्तेऽल:" [] हत्याकारस्य तकारः । श्रकार उच्चारणः । दकारस्य चर्चम् । गेरिति कानिर्देशात् परस्यादेः " [ ११५१ ] इति चेददोपोऽयम् । " अस्य स्त्री” [4121589] इत्यतो मरहूकालुत्या अवयस्येति वर्तते । तैनाकारत्व भविष्यति । द्वितकारको वा निर्देशो ऽनेकाल्स्वात् सर्वस्य त्याने भवति । गेरिति किम् । दधि दत्तम् | अ इति किम् दत्तम् | द इत्येव । निधीता गौर्नमेन | मोरित्येव । श्रवदान्तं मुखम् । धरित्यात्तो मवति परत्वात् । अवतः । भवत्तत्रान् । ननु च
अवदतं विदञ्च प्रवतं चादिकर्मणि । सुदनमनुदत्तच निदशमिति चेष्यते ॥
तत्कथं सिद्धयति । अवादीनां गम्यमानक्रियान्तरविषयत्वेन ददातिं प्रत्यगित्यात् सिद्धम् । "यक्रिया. युक्तस्तं प्रति गांतिसन्ज्ञको भवति" इति वचनात् । श्रवहीनमवगतं वा दत्तमवदत्तमिति क्रियान्तरविषयत्वं योज्यम् । अथ वा "शाच्छां विभाषा" [ ५|२| १४५] इत्यतो मलुत्या व्यवस्थितविभाधानुवृत्तेः ।
भ्यः || ५|२| ६५० ॥ मकारादौ परतः अपू इत्यस्य गोः तकारादेशो भवति । यद्भिः । श्रद्यः । भोति किम् ? अन्तु । द्वितकारकनिर्देशपचे तु पूर्वरुपाप तकारस्य जश्त्वम् । श्रनेकान्वात् सर्वादेश इति चेन्न | अचइति । अचः परस्य भवति । गोरिति विशेषणात्ये भादौ सम्प्रत्ययः । तेन पढे न भवति । अभाः । श्रब्भक्षः ।
स्य सः ५२ । १५१ ॥ सकारादावगे परतः सकारान्तस्य गोस्त इत्ययमादेशो भवति । वरस्यते । अवस्यत् । चित्रसति । " भन्तेऽतः " [ ११४६] इति वा । "निर्दिश्यमानस्यादेशा" [प०] इति चा सकारस्य तम् । द्वितकारकपदे श्रच इति काविभक्त्यन्तमनुवत्यम् सीति किम् १ प्रवासः । श्रदि
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१० ५ पा० ३ ० १५२-१६.1 महावृत्तिसहितम्
३८१ किम् ? श्रासे । वस्से । स इति किम् ? पक्ष्यति । अशिष्यल इत्यत्र इदः सकार प्रति भक्त त्वऽपि साति वचनान्न भवति । विसकारको वात्सीति निर्देशः ।
सासस्त्योः खम् ॥शरा१५२॥ तासेः प्रश्तेश्च सकारस्य सकारादौ खं भवति । कर्तासि | कर्ताम | अस्तेः-असि | अग इति निवृत्तमसम्भवात् । तासिगें विहितः । अस्तेरप्यो भूभावेन भवितव्यमिति । व्यतिधे इत्यत्र परत्वात्सखमेकदेशविकृतस्यानन्यात् "श्नसः खम्" [101001] इत्यखम् । त्यमात्रमंत्र पदम् । घत्वं प्राप्तम् “नायम्से" [५/७६] इति प्रतिषिद्धम् 1 :"गिनादुा यच्यस्तेः" [५/४६८] इति । तत्र पदस्पति पतते । गिपूर्वस्यास्तैः पदस्य कारपरस्य इति ।
रि ॥२।१५३|| रेफादी स्ले परतः रासस्स्योः सलं भवति । करौ। कारः । अस्ते रेफादिनास्ति ।
पति हः ॥२२॥१५॥ एकारे परतः तासात्योः सकारस्य इकारादेशो भवति | कसाहे । लविता । अस्तैः। न्यतिहे। तपरत्वमसन्देहार्थम् "इदि ह" इति सूत्रे प्रत्यासीति न स्यात् ।
स्सनि मीमाभुरभलभशकयतपदोऽच इस ॥५२।१५५॥ सनि सकारादौ परतः मी मा भु रभ लभ शक पत पद हत्येतेषामचः स्थाने इस् भवति । मी इति मीनातिमिनोत्योहणम् | "हनिझम्पचा सनि" [un४] इति दीचे कृते विशेषाभावान् । मिनाति । प्रमित्सति | मा इति "गामादामहणेष्वविशेषः" [१०] इति प्रतिपदोक्तपरिभाषा नापेक्षिता । मित्सति । मेछ् । अपमित्सते । माङ्-मित्सते । भुदिसति । धित्सति | आरिप्सते । आलिप्सते । शिक्षति । पित्सति । प्रपित्सते | अनेकालवात्सनादेशो मा भूदच इस विधीयते । द्वित्वम् । “चस्यान खम्" [५२।१६०] इति चस्त्रम् । "स्यगे सः" [५।२।१५१ इति सकारस्व तत्वम् । रभादिगु "स्फादेः स्कोन्ते च" [41३।१६) इति इसः सखम् । मकारादाविति किम् ? पिपतिषति | "तनिपतिदरिही वेट" [वा०] । सनीति किम् ? दास्यति । सीतव्यवदितम् । सनौति द्विसकारको निर्देशः।
राधोः वधे ।।५।२११५६॥ राधेः बधेऽर्थे वर्तमानस्य श्रच दम् भवति सनि सकारादौ । प्रतिरि-सति श्वानम् । वध इति किम् ? आरिरात्सति ।
श्रापमप्यधामीत् ॥श२।१५७। आप जपि भुध इत्येतेषामच इंकारादेशो भवति सनि सकारादो। ईसति । शीसति । इसति । जपेः पूर्वनिर्णयेन णिग्वे प्रायच ईत्वम् । सकारादावित्येव । जिज्ञपयिषति । श्रर्दिधिवति । "सनीवन्त" [५।११६७] इतीविकल्पः ।
वम्भ इच्च ॥५।२१५८॥ दश्भेरत्र इकारादेशो भवति ईच्च सनि सकारादौ । विसति । चीप्सति । दम्मेरनिटपदे इकारादेशे कृते "इलन्तात्" [19] इत्यत्र हुल्महरपत्य जातिवचनत्वात् मनः किये "हलुः विकस्यनिदितः" [१।४।२३] इति नरलं मष्भावः । सकारादावित्येव । दिदग्भिपति ।
वा मुचो धेरेप ॥२१५६॥ मुचेर्भिसञ्जकस्य वा एप भवति सनि सकारादौ। मोक्षते वसः स्वयमेव ! मुमुतते वत्सः स्वयमेव । श्रात्मनो मोक्तुमिच्छतीति सन् | वत्सो हि मोक्तुमिष्यमाणो मुनिकियां प्रत्यानुकूल्यं यदा प्रतिपद्यते तदा सुमोचत्वात् कर्मेष कर्तृत्वेन विवक्षितमिति पापकर्माभावात्मुचिरकर्मकः । इक एप चस्य खम् । अच इत्येतन्निवृत्तम् । अन्यथा “चस्यान खम्" [५।२१६०] इत्यत्र चस्याचः खं स्यात् । धेरिति किम् ? मुमुक्षति कर्माणि मुनिः ।
चस्यान खम् ॥५।२।१६०॥ यदेतदनुकान्तं सनि सकारादी मुचेरेप्पर्यन्तम् एतस्मिन् चत्य खं भवति । तथा चैवोदाइतम् । यच्चेत ऊर्ध्वमनुकमिष्यामः पादपरिसमाप्तेश्वस्येत्येतद्वेदितव्यम् । ननु सनि सकारादावित्यधिकारेगाभिसम्बन्धात् सिद्धम् अत्रमहा किम् ? सर्वस्य चस्य स्वं यथा स्यादित्येवमार्थम् ।
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जैनेन्द्र-ज्याकरणम् [०५ पा० २ सू० १३१-१७५ दलोऽनादः ।।१६।। अनादेईलः खं भवति चस्य । हुदोके । तुबौके । पपाच । आदनुः । श्राट । अनादेई लः अच उत्तरस्य चरतम् |
शरः खयि १६२॥ शरः खं भवति स्वयि परतश्चस्य । चुश्योतिपति । तिष्टासति । पिस्पंदियते । शर इति किंम् ! पपान । एकासे पकारेऽकारस्य मा भत् । स्त्रीति किम् ? मस्नौ । उचिछिपति । उन्लेरन्तरङ्गल्यातुति त्रुले च कृते चुत्वस्यासिद्धत्वात् सतकारस्य इस द्विले उचिच्छिपतीति प्राप्तम् । “पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे" इति वक्ष्यत्यतो द्विाये नुवं सिद्धम् ।
भः ॥२॥१६३।। प्रो भवत्ति नस्य । पिपामति । मिनीपति । इंदौके । इटौकिपते । "अचश्च" [ २] इत्यत्रः प्रादेशः ।
कुहोश्थुः ॥शरा१६४॥ चस्थ कवर्गहकारमोः चवर्ग आदेशो भवति । चिकीत । चबान | नगाम ! जिवत्सति । जहुवे | महास। जहार | नादवतो महाप्राणस्य हस्य चुचे तादृश एक सकारः । जश्वं जकारः ।
वा कोङि ||१५|| कोश्वस्य यहि वा चुर्भवति । कोरिति यस्य कस्यचिच्छन्दनियस्य प्रता रूपद्वयं सिद्ध पति । उष्ट्रश्चोकूयते । उष्ट्रः कोकृयो । यहीति किम् ? चुकुवे ।
उरः ॥१९६६॥ वर्णान्तस्य चस्य अकारादेशो भवति । ववृते । ववृधे । चक्रे । जहे । अथ ननवादो परवाह गादिषु कृतेषु ऋकारान्तत्वाभावाचस्यात्वं न प्राप्नोति । नैवं शङ्कयम , "चविकारे स्वपवादा प्र उत्सर्यान्न बाधन्ते" [५० ] इति उरत्वे कृते रुगादयः ।
द्य तिस्वाप्योर्जिः ॥शरा१७॥ युति वापीत्येतोश्चस्य जिभवति । दिद्यते । अदिद्युनत् । देद्युत्यते । दियोतिपसे । समि "इयुकोऽयो हलः संरच" Its] इति विकल्पेन कित्वम् । यहा नास्ति तदा “युद्धः" [५२।८३ ] इत्येप् । स्वापि सुष्वापयिगति । सुष्वापयिषतः । मुधापयिष्यन्ति । स्वापेण्यन्तस्य ग्रहणं किम् ? हेतुमति ण्यन्तस्यैव यथा स्यादिह मा भूत् । स्वापं करोतीति णिच् । स्वापथिनुमिच्छति । सिच्वापयिषति ।
व्यथो लिटि शरा१६८॥ व्यथा लिटि परतश्चस्य जिर्भवति । विव्यथे। विन्यथाने । विव्यथिरे । ननु वकारस्यापि प्राप्नोति । अनादेरित्यनुवर्तनान्न भवति ।
कितीगो दौः ॥५५१६६|| लिटि किति परत: इणश्चत्य दीभवति । ईपनुः । युः । परल्वान् "ययोत्योः" [१०] इति वरमादेशः । तस्य "द्विरवेऽधि" [१११५६] इति स्थानिवद्भावादि कारस्य द्वित्वम् | द्विले एक स्थानिवद्भावो न तु स्वेऽको दीखे । कितीति किम ? इयाय । इवविध | ऐपोः। कृतयोः स्थानि बद्भावाद्वित्वम् । "वस्थास्टे" [११७३] इति यादेशः।
श्राद्यतः ॥ ९७०॥ आदेरतश्चस्य दीर्भवति लिटि परतः । लिटीति वर्तते । कितीति निवृत्तम । यादतः । बाटुः 1 याटिथ । “एप्यतोऽपदे" [१1३1८४] इति पररूपत्वे प्राप्ते चस्प दौत्वम् । श्रादेरिति किम ! दददे । दददाते | चान्तस्य न भवति । अत इति किम् ? योष । उवोप । तपकरणं किम् ? य उपदेश अकारस्तस्य प्रादेशे कृते अनेन दीत्वं मा भूत् । “बाछि प्राग्रामे" [धा०] आच्छतुः । आछुरिति । यद्यनेन टीवं स्यात् “ततो नुट्" [५।२।३७१] इति नुट् प्रसज्येत ।
ततो नुट ॥५२११७॥ तस्मात् कृतदीत्यान्नुडागमो भवति । आनङ्ग। आननुः। आनङ्गः । नानञ्ज ! श्रानञ्चतुः । श्रानजुः । नुगिति पूर्वान्तः कर्तव्यः । चस्येति वर्तते । चस्य कृतदीत्वस्य भविष्यति । एवं लघुना निर्देशन सिद्धे परादिवचनं ज्ञापकम् “अस्मिन्प्रकरणे पूर्वान्तः प्रागमः स्वनिमिसमन्सरेणषि क्रियते" तेनामलादावप्यनुस्वारः । संयम्यते । ररम्यते ।
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अ०५ पा० २ ० १७२-१८०] महावृत्तिसहितम्
३८३ श्रश्नोते ॥२।१७२॥ प्रश्नोतेश्च कृतदीत्यान्नुड् भवति । च्यानशे | व्यानशाते । क्यानशिरे । नियमार्थोऽन्यमारम्भः । अश्नोतेरेवाकारोडो नुइ भवति नान्यस्य । श्रारनुः । श्रादः । नुल्यजातीयस्य नियमादिह भवत्येव । आन्त्रतुः । आनृचुः । अश्नोतेरिति विकरण निर्देशादश्नातेर्न भवति । श्राशनुः । आशुः ।
भवरः ॥२१७३॥ भवतेश्वस्य अकासदेशो भवति लिटि परतः 1 अभव | अभूवनुः । बभूवुः । व्यतिप्रभूचे | "जुङ बिटोयुक् [ 1] इति बुगागमः । लिटीत्येव | बुभूपति । चोभूयते । तिपा निर्देशो यमन्तनिवृत्यर्थः । बोमवाञ्चकर । नैतदस्ति "कास्पनेकारयाल्लिल्याम्" [२॥१॥३॥] इति नामाव्यवहित लिटे कथं प्रातिः । “इकस्सिपी धुनिर्देशे" इत्यस्य सूचनार्थस्तहि ।
निजामुग्येप ॥२॥१७॥ निनादीनामुचि चस्यैव भवति । बहुवनिर्देशादाद्यर्थो गभ्यते । नक्ति | वैवेत्तिः । वेवेष्टि । निक्त इत्यत्र चस्य “विति" [१1११] इत्व प्रतिषेधो न भवति । धुरूपेण व्यवहितत्वात् । उचीति किम् ? निनेज । निजादयस्त्रवो वृत्पर्यन्ताः ।
भृनां श्रयाणामिः ॥५॥२॥१७॥ भुञआदीनां त्रयाणामुचि चरूस इकारादेशो भवति । विभति ! मिमीते । सञ्जिद्दीते । “अन्तेऽलः" [१६] इति अच इत्वम् । त्रयाणामिति किम. ! जहाति । 'उचीत्येव । त्रभार ।
प्रोः ॥५२१७६|| पिपति इवति इत्येतयोः उचि चस्वेत्वं भवति । पितिं । पिपृयात् । पिपः । इयति । स्यात् | ऐपः । अर्तेर्लट झाप । उच् एप दिवमिव “चस्याम्' [॥४॥७३] इतीय । “हल्ल्यापः [१॥३१५६] इति तिपः स्वम् । अागमः । “अटश्च" [५३।७८] इत्यैप् । उचीस्यनुवर्तनम् । जुहोत्यायोः प्रोरिद ग्रहणम् । अर्भापायामाप आयोगः।
सन्यतः ॥२२१७७|| सनि परतश्चस्यात इत्वं भवति । विपक्षति | पिपासनि । मनोनि किम् ? पराच | अत इति किम् ? तुष्ट्रपति । सनि यश्चस्तस्यत्वम् । पापच्यतेः सन् विपापचिपते। तपरकरणं सुखार्थम् |
श्रोः पुयएज्ये ॥२१॥ उवर्णान्तस्य पवर्गवराजकारेषु अवर्णपरेणु सनि परतः इत्वं भवति । पिपाययिषति | विभावविपति । अग्ण | यिनाववियति । रिरावयिषति । लिलावयिषति । जु इति मौत्रो धुः। सिजावविषति | प्यादिभ्यो ण्यतेभ्यः सन् | अोरिति वचनं शपकम् "नित्ये कर्तम्ये णौ कृतं स्थानिवद्भवनि" ननु वचनले प्रयोजनम् । पिपविपते विविधतीति । "स्मिा पुट र ज्वशः सनि" [41१।१३३] । “सनीवन्तईभ्रस्ज" [५/१९७] इत्यादिना वेट् । एयवादेशौ । “द्विन्वेऽचि" [१५] इति स्थानिवद्भाचाद्विस्वमने
त्वम् । यद्येतावत् प्रयोजनं स्यात् । पकारयकारग्रहणगेव कियेत । पवर्गवण जग्रहणमनर्थकं स्यात् । पुषण कोनि किम् ? नुनावविषयिति । अवर्णपर इति किम ? लुल्लूपनि ।
स्त्रशुद्ध प्रप्लुच्युडो वा ॥१२१.७६॥ स्रवत्वादीनां वस्त्र श्रोः अवर्णपरे परिण परतः सनि त्रा इकारादेशो भवति । सिक्षायनितति । सुखावनिपति | शिश्नावविपति । शुश्रावविरति । विद्रावयिपति । दुद्रायिपनि । पिप्रावयिपति । पुप्रावयियति | पिप्लावयिति । पुग्लाययिषति । चिच्यायपत्ति । चुच्यावयिषति | अवर्णपर इति वचनात् ण्यन्ताल्लन् | बचनसामर्थ्यात् सकारादिनैकेन यणो व्यवधानमिहाभितम् । अवर्णपर इत्येव । शुश्रुपनि । श्रमाते विकल्पोऽयम् ।
यपोरेप १०॥ यङि :यपि च परत इगन्तस्य चस्य एप भवति । ननीयते । बोभूयने । नेनवीति । योभवीति । न हि यडपोऽन्यत्रोधि चः सम्भवन्तीत्युन्छ न यापसम्प्रत्ययः । “नोमता गोः" [1111३४] इत्यायकार्यप्रतिषेधाय छुषि विधानम् ।
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ಇದು
मेन पाशा [म. ५ पा० २ पू० 111-11७ दीरफितः ॥शरा१८।। अकितश्चस्य पुछुपोदीभवति । पापच्यते । पापचीति । पापठ्यते । पापठीति | "यडो वा" [पा२।१२] वचनं शापकमविशेषेण यामः । अकित इति किम् ? यंयम्यते । ययमीति । ननु दीत्यापवादे 'परत्वान्मुकि कृले अनजन्तत्वात् कथं दीत्वप्राप्तिः । इदमेवाकित इति वचनं शापयति-"पविकारेवपवादा नोत्सर्गान् बाधते" प.] इति । तेन किं सिद्धम् ? मीसित इत्यादी ईत्वं दीरवन न बाध्यते । डोटोक्यत इति दीत्वेन प्रादेशस्य न बाधा । अचीकरदित्यत्र "पदीः" [५।२।१६1] इत्यनेन "सम्वतः" [पा२।१७७] इत्वं न बाध्यते । अजीगणादिति "ईच गणः" [ १४] इत्यनेन "इसोऽनादेः" [111) खस्य न आधा ।
नीग्वाचुनसुध्वंसुसुकसपतपदस्कन्दाम् ॥शरा१८२॥ पञ्चु संग ध्वंमु भ्रंमु कस पत पद स्कन्द इत्येतेषां यकुपोश्चस्य नीगागमो भवति | बनीवच्यते | वनीवञ्चीति । सनौम्मस्को | सनीसंसोनि । दनीध्वस्यते । दनीयतीति । बनीभ्रश्यते । बनीभ्रशीति ! चनीकस्यते । चनौकसीति । पनौपचने । पनीपतीति । आपनीपाते। आपनीपदीति । चनीस्कद्यते । चनीकन्दीति । यद्यपि “नोमता गोः" [1111६४] इति प्रतिषेधात् "हलुकः" [ २३] इति नखं न भवति । नौगिति दीवोच्चारणसामान्न प्रदिशः । अकित इति दीत्वप्रतिषेधार्थ पूर्वान्तकरणम् |
इस्यातो नुक ॥२१८३॥ उसज्ञान्तस्य गोर्यश्चेऽकागन्तस्तस्य नुगागमो भवति यहपोः परतः । भएयते। धमणीति । तन्तभ्यते । नानीति | जङ्गम्यते। जङ्गमीति ! नुको "नश्चापदान्तस्य झलि" [400/=) इत्यनुत्त्वारस्य परत्यत्नम् । असत्यपि स्वनिमित्ते झलादो अनुस्वारो भवतीत्युक्तम् । तेन यम्यते । रेरम्यते इत्यनुस्वारः। अत्रापि दीत्वप्रतिषेधार्थ पूर्वान्तत्वम् । इस्येति किम् ? पापच्यते 1 अन इति किम ! तेनिम्यते । तपरकरणं किम ? आकारभूतपूर्वस्व मा भूत् । बाभाम्यते ।
जपजभरहदशभजपशाम् ॥१।१४॥ जर बम दह दश भञ्ज पश इत्येतेषां चस्य नुगागमो मपति यापोः परतः । जम्जन्यते । जञ्जपति । जजम्यते । जञ्जभोलि । दन्दह्यते । दन्दहीति । दंदश्यते । दंदशौति । बम्भध्यते । यम्भजीति । पम्पश्यते । पम्पशाति । पश इति सौत्रो धुः । जपादिषु दंशिफ्यन्तेषु "लुपसदचर" [२१११२१] इत्यादिना यष्ट । अन्यत्र क्रियासमभिहारे। दश इति सूत्रनिर्देशागकुपि नग्वं भवतीति केचित् । तदयुतम् । विकरणानिर्देशोऽयम् | यथा “पतदानहः करणे बट्" [२२२१६०] इति ।
___ चरफलोझच्चोङः॥शरा८५॥ चर फल इन्येतोश्नस्य नुग्भवति बडुपोः उद्यश्च उकारादेशश्चरफलोः । चचूर्यते । “हस्यभकुच्छुरः" [५.३८६] इति दीवम् । चञ्चुरीति । पफुल्यते । पालीनि | दिति तपरकरणं किम् ? चश्चूर्ति । पम्फुल्तीप्यत्र "प्युकः" [५।२।] एनिवृत्यर्थ दीत्वस्यासिद्धत्वादेष् प्राप्नोति । नन्वेप इव दीत्वस्यापि तपरकरणात् किन निवृत्तिः । अत्रोच्यते-यथा "येऽत उत्" [1111001 इति तपरकरणे न दीत्वमशक्यं निवर्तयितुम् अभकुच्छर इति प्रतिषेधारम्भात्तथाऽत्रापि |
ति ॥५२१८६॥ तकारादौ चपरतः चरफलोस्ड ऊकारादेशी भवति । देवचूर्तिः । "किचक्तौखो" [२।३।१५०] इति क्तिच् । एवं चरणं चूर्तिः । फल्न फुल्तिः । प्रफुल्ता लता । अछुपोश्चस्योत चानुवर्तमानमिइ बचनसामर्थ्यात् नाभिसम्बध्यते ।
रीगृत्वतः ॥शस१७॥ त्वतो गोश्चस्य रीमागभो भवति यहि । यरीवृत्यते । नरीनृत्य। । यदि ऋदुः इति क्रियेत | सरोसृज्यते इति न स्यात् । अमत इति तर्हि कर्तव्यम् । चिकीर्षत इत्यत्र तु कृतानप्रसङ्गित्वाहतः ईभविष्यति । एवं सिद्धे तपरकरणं लाक्षणिकस्यापि रीगर्धम् । तेन वरीकृश्यते । रीज्यो । परीपच्यते ! नेक्रीयते जेहीयते इन्यत्र कस्मान्न रीगिति चेत् : द्वित्वात । परल्वेन रीमदेशे कृने कारा भावान्न भवति ।
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भ० ५ पा० २ सू०१८-१९४] महावृत्तिसहितम्
रुनिको चोपि ॥शरोम मत्वतो गोश्चस्य बपि रुग्किो भवतः एक च । ननति । नरिनर्ति | नरीनति ।
भृतः ॥१२॥१८॥ ऋकारान्तस्मा गांयेशस्तो सात गरिको भवतः रीश्च । तपरकरणसामोरना गुर्विशेष्यते । चर्ति । चरिति । चरीकर्ति । अहति । जरिहति । ति । "प्रदोष्ट" [५।२५] इत्यत्रोक्त चानुष्टमपि कचिदुत्तरत्रानुवर्तते तेन रीक् । तपरकरणं किम् ? क ग | चो ति | जागर्ति । ननु च "मिकी पोपि" [५२।१७] इत्यनेनैव नृतयं सिद्धम् । तत्रापि "ऋषतः" [पारा१८६] इति तपरकरणमस्ति नेन चाकयादौ न भत्रिप्यतीति चेत् ; तत्र तपरकरण लाक्षणिकार्थनुमिति फिरत्यादेनिवृत्तिनं स्यात् ।।
घौ कच्यनकाले सन्वत ॥५॥२२१९०॥ कपरे घिसञ्चके वर्ण यश्वस्तरा सनौव कार्य' भवति अनक्खे | "सन्यतः" [4111७७] इतीत्वमुक्तम् । कच्यपि तथा अचीकरन् । अपीपचत् । “श्रोः पुरवज्ये" (५।२।१७८] कन्यपि तथा। अपीपठत् । अलीलवत् । अजीजयन् । वा सवत्यादीनां काप तथा । असिसवत् । श्रसुत्रवत् । प्रदिन्द्रवत् । अदुद्रवत् । ननु हला व्यवधानात् कथं कच्पगे पवर्णः ! बचनप्रामाण्यादेकेन व्यवधानमाश्रितम् । घाविति किम् ? अततक्षत् । अनभासत् । कचीति किम् ? श्रह पपच । अनक्ख इति किम ? स्तनमाल्यत् अतस्तनम् । बनमाख्यन | अबवनत् । "गाविष्टन्मृदः" [II५६] इति इष्टद्भात्रः "तुरिष्ठेमेयस्सु" [४|४|१४५] ":" [ १४५] इति टिग्त्रम् । इह कस्मान् न भवति । अचफमतेति ऋविषये । “वाs" [२।१।२७] इति गिडोऽनुत्पत्तिपने कचि कृते । अत्रो-यते-नै ज्ञातव्यम् । अका खम अवस्त्रम् | अश्वेनेति । किं तहि १ अक् खं यस्मिन्निमित्तभूते सोऽयमकत्रो न अक्त्रो अनक्यः तस्मिन् । पर्युदासवृत्त्या अनक्त्रनिमित्त गी मध्यगते सन्याय इत्यदोपः । तथा नकः खं यस्मिणिसामान्य वन्यस्य । न तु णौ गिखमकः स्वम् । तेन वादितवन्तं प्रयोजितवान् अवीवदत् । ननु अजजागरदिल्यत्र गकारऋकारे घिसज्ञामाश्रित्व प्राप्नोति सन्वादावः । वचनप्रामाण्यान् ध्यानधानेऽपि सन्कदाचेन भवितव्यम् । सर्व श्रापीयचदित्यादावपि चस्थानान्तयं घिना नास्ति । नाय दोषः । बचनप्रामाण्यादिइकवर्णन व्यवधानमिष्टं सङ्घातेन पुनस्यवधाने मवति न भवति च । तत्र "स्वर" [५।२।११२] आदीनामित्त्वापवादामित्ववचनं शापकम् । हल्संघातेन व्यवधाने भवति । अचिकणत् । अविवजत् एति । अझल्मचातेन व्यवधाने तु न भवति । अमीमपदिल्यादौ "स्सनि मीमा" [५५२।३५५] इत्येष विधिः करमान्न भवति ? णिजन्तस्य प्रकृत्यन्तरत्वात् ।
घे ॥५॥२॥१६॥ चल्य घेदीभवति घौ कच्परेऽनक्चे । अनीकरत् | अजीहरत । अबूबुधत् । प्रेरित किम् ? अविनजत् । घात्रित्येव । श्रन्यापिपत् । “द्विस्वेचि" [१५] शिस्त्रस्य स्थानिवद्भावातू "अचः" [४।३।२] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । अत्र कच्परो घिवणों नास्ति । कंचीत्येव । अहं पपच । यत्र सन्चद्भाको नास्ति तत्र दीत्वमिह मा भूत् | अचकमत । अनवरत इत्येव | चकवत । "प्रायतः" [५२११७० इत्यतः आदेरिशि वर्तते तेनादेश्वत्व दीर्भवति । न द्वितीयस्यैकाचो यश्चस्तस्येति । प्रौणु नवदिति ।
स्मृतृत्वरप्रथनदस्तस्पशोऽत् ॥शरा१६२|| स्मृ द स्वर प्रथ प्रदत स्पश इत्येतेषां चस्य अटादेशो भवति कच्परे द्यौ परतः । असस्मरत् । अददरन् । उतावरत । अपप्रथत् । अमम्रदत् । अतस्तरत् । अपस्पशत् । सन्बद्भावादित्वे प्राप्ते वचनम् । अदिति तपरकरणं वेर्दीचनिवृत्त्यर्थम् । अददरत ।
या येटिचेप्रयोः ॥५॥२॥१६३॥ वेष्टि चेष्टि इत्येतयोश्चरण वा अद्भवति कांच परतः | अववेष्टत् । अत्रिवेष्टत् । अचचेष्टत् । अचिश्त् । इकारस्यानेनात्वम् ।
ईचत्र गणः ॥शरा१६चा गण्यतेश्वस्य ईकारादेशो भवति अ-च कच्चि परतः | अजीगणन् । अजगणन् । अनकल इति प्रतिवधान सन्बद्भावो नास्ति । तदर्थमिदम् । चकारोऽदनुकरणार्थः ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहान्ले पञ्चमायायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ५ ० ३ सू० १-१२
[सर्वस्य द्वे || ५|३|१|| परो त्रिः ॥ ५३२॥ नित्यवीप्सयोः ||५||३|| परेर्वर्तन || ५|३||४|| उपर्यध्यधसः सामीप्ये || ५|३|५|| वाक्यादेर्वाध्यस्यासूयासम्मतिकोपकुत्सनभर्त्सनेषु ॥ ५३॥६॥ एको बचत् ॥ १३७॥ आबाधे च ॥३८॥ ]
• कश्विदेवं प्रयुङ्क्ते इत्याबाधः । प्रयोक्तव्या । ( १ )
३=६
यत्रकुतरे ॥५३॥ उत्तरेव भवति । यदवत " प्रकारे गुणोः " [ ५1३11०] इति । पप: 1 पपबी । कालककालिका । बलातिदेशे "न बुहकोड:" [४|३|१४६ ] इति भावप्रतिषेधः स्यात् | यसे तु " पुंवद्यजातीय देशीचे" [४/३/१५४ ] इति भवति । अधिकारेायेन सिद्धम् । उत्तरग्रहणं ज्ञापकार्थम् । श्रयमधिकारः । "एको वत्" [ ५/२/७ ] इत्यादिलक्षणं चाधिकारश्च । तेन एष सवाञ्जलिरेप तवाञ्जलिः | अहो दर्शनीया श्रो दर्शनीया । आधिकयेऽनि द्वित्वमुक्तम् । “स्वार्थेऽवधार्यमायेऽनेकस्मिन् भवतः " [ वा० ] श्रस्मादिदमा मात्र द्वा न सर्वे मापाः । तेन वीप्सा नास्ति । श्रवधार्यमाण इति किम् ? इह भवद्भ्यां मात्रमेकं देहि । “पूर्वप्रथमयोरतिशये व े भवतः " [ वा० ] पूर्व पूर्वं पुष्यन्ति । प्रथमं प्रथमं पच्यते । चेत्यधिकाराद्यदा न द्विलं तदाऽतिशायिकः । पूर्वतरं युध्यन्ति । प्रथमतरं पच्यन्ते । " समसम्प्रधारणायां किम को भवतः " [ बा०] । उमाविमावादयौ कतरा कतराऽनयोस्तयोरायता । क्तमा कलमाऽनयोशदूयता । कीदृशी कोदृशी अनयोरायता । कतरः कतरोऽनयोर्विभवः । "कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो विधं सवच्च बहुलम् [ चा० ] तंत्र वेत्यधिकाराल्लभ्यते । अवक्षेपूर्वपदस्यान्यशब्दव सुरेव | सद्भावे च मितस्य परशन्द्रस्य सु । अन्योन्यभिमे आमा भोजयन्ति । अन्योन्यस्य भोजयन्ति । पुत्रादीति गम्यते । एवमितरेषाम् । इतरेतरस्य । परस्परं परस्परस्य भोजयन्ति । "स्त्रीपुंसकयोर्विभक्त्या वाऽम्भावो बोस्तु" [ वा० ] अन्योन्य नार्यों भोजयतः । अन्योन्यां या । अन्धोन्यं कुले भोजयतः । ग्रन्योन्यं वा । अन्योन्यं नायों भोजयन्ति । अन्योन्यां वt | अन्योन्यं वा कुलानि भोजयन्ति । श्रन्योन्यं वा । इत्यादि सिद्धम् ।
प्रकारे गुणोक्तेः ॥ ५३॥१०॥ प्रकारे वर्तमानस्य गुणो भवतः प्रकारः सादृश्यमिह गृह्यते । उच्यते इत्युक्तिरमिधेयं वस्तु । गुण उक्तिरभिधेयोऽस्येति गुणेोक्तिः, तस्य द्वित्वम् | पपटुः । पतिपण्डितः । पटपटूवी | परितपडिता । उत्तरसूत्रे वाग्रहणमिह सिंहावलोकनेन सम्बध्यते । तेन जातीयोऽषि भवति । पटुजातीयः । मृदुजातीयः । द्वित्वजातीययोर्वियामेदे मृदुमृजातीय इत्यनिष्ट स्थात प्रार इति किम् ? शुल्को गुणः । अग्निर्माणवकः । गौर्वाहीकः । सदा गुणवचनों यः प्रकारे कति तस्य शिवम् । श्रयं तूपमानात्सर्वद्रव्यवचनः ।
प्रियसुखयोर्वा
|| ५|३|११ ॥ सुख इत्येतयोरकृच्छे वा द्वे भवतः । प्रियप्रियेा । प्रियेण ददाति । सुखसुखेनाधीते । सुखेनाधीते जैनेन्द्रम् | प्रयासेनेत्यर्थः । कुच्छ इति किन ? यः पुत्रः । सुखो रथः । प्रीणातीति प्रियः । सुखयतीति सुखः ।
थथास्थे यथायथम् ||५|३|१२|| यथायथमिति निपात्यते यथास्वेऽर्थे । सर्वे ज्ञाता यथायथम् । यथास्वभावं यथाऽत्मीयं चेत्यर्थः । यथाशब्दस्य द्वित्वमम्भावश्चान्ते निपात्यते । यो य श्रात्मा से य श्रात्मीयो वा यथास्वम् । “यावद्यथा ” [३६] इति वीप्सायां हमः । किं वा प्रथायथमिति शब्दान्तरमस्मिन्नर्थे साधुखेनान्त्राख्यातम् ।
१. प्रतिषु [ सध्या निर्दिष्टानि ।
] कोष्टकान्तर्गतानां सूत्राणां वृतिखुटिता । सूत्राणि तु जैमेन्द्रपवाभ्यामनु
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म०५ पा० ३ सू० १३-२०] महावृत्तिसहितम्
३८७ धन्वं रहस्यादौ ॥३॥१३॥ द्वन्द्वमिति निपात्यतै रहस्यादावर्थे । दिौ इत्यस्य द्वित्वे सुत्रुपि पूर्वोत्तरपदोरिकारस्याम्भावोऽलं च निपाल्यते रहस्यप्रकारेऽथै रहस्याभिधाने । द्वन्द्वं मन्त्रयते । द्वन्द्वं मन्त्रयेते । द्वौ द्वौ रहसि मन्त्रयेते इत्यर्थः । मर्यादावचनादयो विषयत्वेनाश्रीयन्ते । मयांदायाम् अासप्तमनरकादधोऽधो इन्द्रं नरकपटलागि हीनानि प्युत्क्रमणं भेदः पृथस्थानम् । तत्र द्वन्द्व व्युत्क्रान्ताः । द्विवर्गसम्बन्धेन भिन्ना इत्यर्थः । यज्ञपात्र प्रयोगे, द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनस्ति | अभिव्यक्ती, द्वन्दं नारदपर्वतो । द्वन्द्वं सूर्याचन्द्रमसौ । विधिबाहाणो द्वन्द्वम् । “वा वीप्सायां द्वन्द्वः' वीप्सायां द्वन्दं द्वौ द्वौ। त्तिविशेष "धार्थ इन्द्रः' [१॥३।३२] अन्यत्रापि दृश्यते । बन्दानि सहते । द्वन्द युद्धं कृतम् ! अतएव च रहस्य मर्यादावचनव्युत्क्रमण यज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिरूपं परिंगणनं न कृतम् ।
पदस्थ ॥शशर पदस्पेययमधिकारो वेदितव्य आ शानपरिसमाप्तः । वक्ष्यति "नवं मृदन्तस्याको" [५।३।३०] इति | राजभ्याम् । राजभिः । तथा "स्कान्तस्य खम्" [५।३१४१] इनि पतन् । यजन् । अत्रार्थवशायदस्येत्यवयत्रे ता द्रष्टव्या । पदस्वेति किम् ? राजे । राज्ञ: 1 मर्मज्ञया नपुंसकलिङ्गा पदसंज्ञा बाध्यते
पदादपादादी ॥५॥३॥१५॥ पदादिति अपादादाविति च एतद्धितयमधिकृतं बेदितव्यं प्रागसिद्धाधिकारात् । वक्ष्यति "बहीर्वस्गसी" [५४३४१७] इति । ग्रामो वो दीयते । नगरं नो दीयते । पछादिति किम् ? युष्मन्य आमो दीयते । अपादादाविति किम् ?
शान्तिनाथो जिनः सोन्तु युष्माकमघशान्तये ।
येन संसारताभीतिरस्माकमिह नाशिता || गुष्मदस्मदोऽधिपतास्थस्य यांनाची ॥५॥१६॥ पदापरयोरपादाटी वर्तमानयोर्युष्मदस्मदित्येतबोरपनासु स्थितयोर्याम्नी इत्येताबादे शौ भवतः । युप्मदस्मदिति इतरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्वः । श्रोस: स्थाने हस्कृतः सौत्रत्वान्निर्देशस्य | 'पदस्य सर्वस्येति च वर्तते। यदि वा पदस्येति स्थानलक्षणाऽत्र ता सम्पद्यते, मर्वस्य पदस्य स्पाने श्रादेशः । एकचहोरादेशान्तरं वक्ष्यति । अतो द्वित्रिपवे विधिः । ज्ञानं वां दीयते । शीलं नौ दीयते । ज्ञान वां रक्षतु । शीलं नौ रक्षतु । शानं वा स्वम् । शीलं नौ स्वम् । अचिप्तास्थस्येति किम् ? दानं युवाभ्यां कृतम् । स्थग्रहणं किम् ? श्रूयभागविभक्त्यों यया स्यात् । इद्द मा भूत् । इति युष्मदुपाध्यायः । पदविधिरयम् । असामध्ये न भवति | आवाभ्यां भाव्यते शानम् । सुत्राभ्यां दीयते दानमिति । अथेह सामऽपि कस्मान्न भवति ? ओदन पच तव भविष्यति गम भविष्यतीति । "समाने वाक्ये युष्मदस्मदादेशविधिरिष्यते"। इह तु भोटन पचेत्येकं वाक्यं तव भविष्यतीति द्वितीयं वाक्यम् । अवश्य समानवाक्याधिकार एष्टव्यः । शालीनां ने श्रोदनं ददाती यत्रापि यथा स्यात् । अन्यथा शालीनामिल्यस्य ते इत्यनेन सामर्थ्याभावान्न स्यात् ।
बहोर्वस्नसौ ॥२३॥१७॥ बन्योयुगमदस्मदोस्नस् इत्येतावादेशो भरतस्तास्वेव विभक्ती । ज्ञानं वो दीयते । शीलं नो दीयते । झानं को रचातु । शील नो रचातु । शानं वः स्त्रम् । शीलं नः स्वम् ।
एकस्य ते मे ॥१३॥१८॥ एकान्तयोयुष्मदस्मदोस्ते मे इत्येतावादेशौ भवतः । एक इति त्यः । "मग्रहणे यस्मात्स तदादेर्महणम्" [प० । शानं ते दीयते । शौल में दीयते । यो वक्ष्यति । जाने ते स्वम् | शीलं मे स्यम् ।
त्वामाविपः ॥५॥३१६॥ एकस्यति वर्तते । इबेकान्तयोथुमदस्मदोरूबा मा इल्वेताचादेशौ भवतः । ज्ञान त्वा रक्षतु । शीलं मा रक्षतु ।
न वाहाहवयोगे ॥१३॥२०॥ च या ह अह् एव इत्येतैयोंगे युष्मदस्मदोर्वाम्नावादयो न भवन्ति । शानं तुम मम च दीयते । युवाभ्यां आवाभ्यां च दीयते । युष्मभ्यं अस्मभ्यं च दीयते । शानं त्वा मां च रचतु ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ ० २१-२० युवा आवां च रक्षतु । युष्मान् अस्माश्च रक्षतु | ज्ञानं तव च स्वम् । ज्ञानं मम च स्वम् । युवयोः आक्योश्च खम् । युष्माकं पत्माकं च स्वम् । ज्ञान तुभ्यं मह्य वा दीयते । शानं तुभ्यं महल ह दीयते । ज्ञानं तुभ्यं मममह दीयते । ज्ञानं तुभ्यं मह्यमेव दीयते । इत्यादि योज्यम् । योग इति किम ! ज्ञानं च मे स्त्रम् | नात्र चादिभिर्युष्मदस्मदोर्योगः । किन्तईि ? ज्ञानस्य !
दृश्यथै श्चिन्तायाम् ॥२२॥ चिन्तायां वर्तमानैश्वर्याधुभिर्योगं युष्मदस्मदोबाम्नावादयो न भवन्ति । अत्र साक्षायोगे तद्युक्त वोगे च प्रतिषेधः । ज्ञानं तुभ्यं दीयमानं समीक्ष्यागतो जनः । ज्ञानं महवं दीयमानं समीक्ष्यागतः । साक्षायोगे ग्रामस्त्वां समीक्ष्यागतः । यामो मां समीक्ष्यागतः । ज्ञानं तव व समीक्ष्यागतः । शील मम स्व समीक्ष्यागतः । सन्दश्य संचिन्त्य निरूप्येति यावत् । दृश्यर्थरिति किम् ? ग्रामल्या मन्यते । अस्ति चिन्तार्थो मन् धुर्न तु दृश्यर्थः । चिन्तायामिति किम् ? ग्रामम्त्या पश्यति । अत्र चतुर्दर्शन रशिर्वनने ! तेन न प्रतिषेधः ।
वाऽनन्यादेशे ||५|३।२२॥ युष्मदस्मदोबाम्नासयो वा भवन्ति अनन्यादेशे । अादेशः कश्चनम् । अन्वादेशोऽनुकथनम् । नान्वादेशोऽनन्वादशः। तत्र विकल्पोऽन्वादेशे नित्यो विधिः । ज्ञान ते दीयते । ज्ञानं तुभ्यं दीयते । शानं मे दीयते । ज्ञानं महयं दीयते । इत्यादि योऽयम् | अनन्वादेश इति किम् ? अथो ज्ञानं ले दीयते । अश्रो शानं मे दीयते । पूर्व किञ्चिदादिश्य इदमादिश्यते इत्यन्बादेशोऽयम् ।
. सपूर्वाया घायाः ॥५२॥२३॥ विद्यमानपूर्वाद् वान्तात्परयोयुधपदस्मदोर्वा वाग्मायादयो भवन्नि | अनन्वादेशे सामान्येन सिद्धम | अन्वादशामिदम् । अथो आचार्यरण जानं ते दीयते । अशो आचाण जानं तुभ्यं दीयते । इत्यादि ।
वोध्यमसदयत् ॥शर४॥ बोध्यान्तं पदमसद्वद् भवति । योयमिति सम्बोधनलक्षणाया बाया अहणन् । असद्वद्भावे प्रयोजनम् । बोध्यान्सात्परयोर्युष्मदस्मदोरादेशनिवृत्तिः। देवदत्त नुय दीयते । देवदत्त मां दीयते । हत्यादि नेयम् । इह च देवदत्त ज्ञाने ते। देवदत्त ज्ञान मे । “सपूर्याया बायाः" [५५३।२३] इत्यन्यादेशे विकल्पो न भवति । वत्करणं स्त्र श्रुत्यनिवृत्यर्थं कार्य प्रत्यसद् भवति ।
नैकार्थे योध्ये सामान्यवचनम् ॥५२५॥ एकार्थ बोध्यान्ते परतः सामान्यवचनं वो यान्न नासद. भवति किन्तु सदूनेच भवति एकार्थः विशेषलक्षणो यस्य तदिदमेकार्थ विशेषवचनमिन्यर्थः । कथं ज्ञायते ! सामान्यवचनम् इति निर्देशात् । परस्य विशेषवचनत्वमपेक्ष्य सामान्यवचनत्वं भवति । क्षत्रिय अंणिक ते धों दीयते । क्षत्रिय श्रेणिक स्वाऽईनरक्षतु । क्षत्रिय श्रेणिक ते धर्मों वर्धताम् । एकार्थ इति किम् ? क्षत्रिय ब्राह्मण युवाभ्यां धो दीयते । बोध्य इति किम ! चात्रिय धनवान् मे त्वं देहि । पूर्वस्य सन्चे "सपूर्वाया वाया:" [५।३।२३] इत्येष विधिः प्रसज्येत । सामान्यवचनमिति किम् ? श्रेणिक क्षत्रिय तुभ्यं धर्मो दीयते ।
चा विशेषवचने बही १५३२६॥ विशेषवचने बोध्ये बह्वन्ते परतः सामान्मवचनं या बोभ्यान्तममद् भवति । देवाः शरण्या बो दीयते | देवाः शरण्या युप्मभ्यं दीयो । “नैकार्थे बोध्ये सामान्यवचनम्" ५३।२५] इत्यस्यायं विकल्पः । सामान्यवचनमिल्यनुवृत्तेः परस्य विशेषवचनमनुक्त सिद्धम् । ताकृतं स्पष्टार्थमुत्तरार्थ व ।
पूर्वप्रासिद्धम् ॥॥३॥२७॥ पूर्व इति असिमिति च एतदधिकृतं वेदितव्यम् आ शास्त्रापरिसमाप्तः । येयं चतुरध्यायी सार्धद्विपादाऽतिक्रान्ता तस्याम साद्विपादोऽसिद्धो भवति । इन उत्तरं च उत्तरोत्तरो योगः पूर्वत्र पूर्वत्रासिद्धो भवति । असिद्धवद्भवति । शास्त्रासिद्धत्वेन तदाश्रयं कार्य न भवतीत्यर्थः । अस्मा उद्धरति सिद्धा अत्र । असा श्रादित्यः । "न्योः खमू" [५४/५] इत्वत्य यवखशात्रस्याऽसिद्धत्वात् “प्रादेप"
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म. ५ पा० ३ ० २८] महावृत्तिसहितम्
३७५] "स्वेऽको दी: [४।३।८८] इति च न भवति । अमुष्मै | अमुप्मात् । अमुमिन् | उत्यशास्त्रस्यासियारमायादयो भवन्ति ।
शुष्किका अन् सुशर्माणः शामिमानौजितत् सुर्गाः ।
पक्वमाशीःषु गोलियमान कुर्वन्ति पिपठी: सुभुत् ॥ शुकिकेति "शुपि पचेः कचौ" [५।३।६७] इति कादेशः। टाप् । कुत्साद्यर्थे कः । पुनाटाप् । "केण" [५।२।१२५] प्रः । कत्वस्यासिद्धलात् "बातोऽधोयंकात्" [५/२५५] इति विकल्पो न भवति । "त्यस्थ क्यापी" [५/२।५०] इति नित्यमित्वम् । यन्निति स्फान्तवस्यासिद्धनान्मृदन्ननग्यं न भवति । सुशाण इति गस्यासिद्धत्वात् नोट: "धेऽकौ" [४]६] इति दीत्वम् । जै मै श्चये काः। " म" [५॥३॥६८] इति मत्वम् । क्षामोऽस्यास्तीति क्षामी । सोऽस्यासीति क्षामिमान् । मत्वस्यासिद्धयात् “ममोह भयो मतो;ऽयधादेः" [५।३।३३] इति मनोर्वत्वं न भवति । ऊठमाख्यत् णिचि लुङ्गि कचि च कृते "प्रचः' [४।३।२] इति द्वितीयस्ौकाचो द्वित्वे कर्तव्ये ढत्वादेरसिद्धत्वात हतिकारयोर्वृित्वम् । “हलोऽनादेः" [५।२।३६१] इति तखम् । हकारस्य चुस्वम् । औजितन् । ननु णौ च यहिखं तस्य स्थानिवदावाद्रिश्च्यते । अनक्ख इति प्रतिप्रधान सनीलं नास्ति । तत नौजनुत् इति भवितव्यमिति केचित् । तदयुक्तम् । जौ कृतं स्थानिवद् भवति । न च दिवं गो कृतम् । किन्तदीष्टे । ततो "वित्वेऽचि" [1111५६] इति स्थानिवद्भावात् सणेत्विम् । ननु च "पूर्वबासिद्धीयमद्विल्वें" इति वक्ष्यति । तत्कथमसिद्धत्वं दत्वादेः। न । "सर्वस्य ३" [५।३।१] इत्येतद्वित्वं तत्र गहूयते । तेन गलो गल इति लत्वं सिद्धम् । सिर्जनीसद्विान “लोकी [2] इति दीत्यम् । पमिति बल्त्रत्यासिद्धत्वात् झलि चोः कुल्वम् 1 प्राशी:वित्ति "रेश्च सुरि" [५/२।२४] इति सत्यस्यासिद्धत्वात् “इको दी बोहाः" [५।३।५] इति दीत्वम् । गोलिएमान् इति दृत्वस्यासिद्धनात् "मयः" [५/३१३.१] इति अत्वं न भवति । कुर्वन्ति इत्यनुस्वारपरस्यस्यासिद्धवाराणत्वं नास्ति । पिपठीरिति रित्वस्यासिद्धत्वाद्रित्वम् "परेऽनः पूर्ववियो" [१।११५७] इति श्रतः खस्य स्थानिवद्भाव इति चेत् ; न; पूर्वत्रासिद्ध न स्थानिवत्" इति । मुभूदिति जश्वस्यासिद्ध त्वान् झपन्तस्य वशो भष्भावः । वृक्षों हसतौति रेरसिद्धत्वेऽग्युत्वं वचनान्द भवनि | अपवादम्य परस्यापि वचननामाण्यान्नासिद्धत्वम् | वृक्ष इत्ति जश्त्वापबाटो रित्वम् । दोग्धा इति हत्यापवादो पत्वम् । काष्ठतडिति स्फान्तखापवादः स्कादिखम् । येऽत्र कानि शास्तानिर्देशा ईनिर्दशाश्च “रान्स" [1३१५२]। "स्कान्तस्य खम्" [५।३।४१] "झलो मलि" [५।३।४४] इत्यादयस्तेषाम् “ईकेयन्यवाय पूर्वपरयोः" [१०] “तास्थाने" [11१।४६] इति च नियम कर्तव्ये नासिद्धयम् । “कार्यकाल मंझापरिभाषम्' [40] इति पूर्वन्यं नास्ति | इस विस्फोटर्यम् अवगोयम् इत्येपं बाधित्वा परत्वेन "हल्यभकुर्छरः" [५।३।८६] मृति दीत्वं नास्ति | "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति स्पोऽसास्वादुसरस्य" । विशेषवचन इति वर्तते । विशेपे इदमसिद्धम् । तेन अनिदिष्टे विषये सिद्धत्रं भवन्ति । नादशः पवत्येविधियु सिद्धः । अन्यथा वृक्णः सृमणवान् इति झलौति पत्वं स्यात् । क्षीण तरति वीथिकः । यज्लनणटो न स्यात् । क्षीच इति वलादित्वादिष्ट स्यात् । ले कि पविधिः सिद्धः अग्नाई इ छत्रम् । पटा३ उ छत्रम। छ इति किम ? अग्निचीश्न् । चल्य जश्त्वनर्वमेत्यनुकोः सिद्धम् । बभणतुः । बभणुः । श्रादेशल्यासिद्धत्वादेवं प्राप्नोति । उचिछिपतीति चादेशस्यासिद्धत्वाच्छे नुक प्राप्नोति । यर्दूिले परस्वन्त्र सिद्धम् । सव्यतः । संवत्सरः । अल्लोकम् । तल्लोकम् । यर इति द्वित्वं न स्यात् । “सर्वस्य द्व" [41३1) इति द्वित्वे धबादयः सिद्धाः। द्रोग्या द्रोग्धा । द्रोढा द्रोहा । गरोगरः । गलोग इत्यादि । घरवादीनामसिद्धत्यान् । माहित्ये पश्चाद्वि कल्पे सति रूपवैषम्यं स्यात् । गरोगल इति ।
नखं सुविधिकृत्तु कि ॥२॥२८॥ सुपः श्वाने विधि सुपि च विधि कृति विहितं च नुक प्रति नखमसिद्धं भवति । विधीयते इति विधिः कार्यम् । ऐस्भावदीत्यादिः। सुपो विधिः सुन्निधिः एको विग्रहः सुवा
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प्र. ५ पा० ३ ० २६-३, श्रयो विधिरित्यर्थः । कृतस्नुक् कृत्तक । कृदाश्रयो हि तुक कृतलगच्यते । राजम्याम् | राभिः । “सुपि' [५।२।६७] इति दीलम् । “भिसो त ऐस्' [41] इति च न भवति । वृत्रभ्याम् । वृत्रहभिः । "पिति कृति नुक्" [३५] इति तुरन भवति । कृतीति किम् ? वृत्रहच्छत्रम् । छे तुगयम् । “सिद्ध सस्थारम्भो नियमार्थः" [१०] । एतयोरेव नखमसिद्ध नान्यत्र | हस्त्यश्वम् । राजीवति । राजाबला | कृत्त कीति न कर्तव्यम् । "सभिपातलक्षणो विधिरनिमिस' तद्विघातस्य' [१०] इति तुग्न भविष्यति । तत् क्रियते नापकार्यम् । "अश्यवनाशिनामतः खं न भवति' इति | अन्यथा तुकः प्राप्तिरत्र नास्ति । नखेतः त्रे च कृते प्रान्तत्वाभावात् । एवं च सुनमेति सिद्धम् । अय त्रय 'पय गतौ । पयतमनि कुते “पशि" [५/१/३१४] इतीटि प्रतिषिद्ध "वलि यो खम्" [३।५५] इति यन्ने कृतेऽतः खं न भवति । किं च सन्निपातपरिभाषाश्रयणे वृत्रहच्छत्रमिति तुग्न स्यात् । अथ “असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे" [१०] इत्येव सिद्धं कृत्तु कीति व्यर्थम् | अनित्यैषा परिभाषा । तेन एपा द्वे इति सिद्धम् । अत्रा:सरों आपि तव्य बोहराध सिद्धम् । पच नार्य इत्यत्र मृदवस्थाशमिमय । एकया च संज्ञया अनेक कार्य क्रियते इति लोप्रतिषेधो जश्शसोः “उरितः" [५/3138] उपि कृते टापः प्राप्तिनरियलिङ्गत्वात्यदार्थस्य । तेनेल्संज्ञाविधौ नएमसिद्ध न कर्तव्यम् ।
नमुटाविधौ ॥१३२६॥ नुभावो नामिद्ध सिद्ध एव सविधौ कर्तव्ये । य इत्यास्म म्याने या इत्येन स्मिंश्च यो विधिः स यायिधिसच्यते । अमुना । अदसू टा इति स्थिते त्यदायवे "दादुर्यो मोसोऽसे" [५१३३४ इति उत्वे मत्वे च कृसे मुभावस्याऽसिद्धत्वात् "पाको नाऽस्त्रियाम्" [५२।११३] इति मुलक्षणो नाभावो न त्यात् । सिद्धत्वाद् भवति । नाभावेऽपि कृते मुमारस्यासिद्धस्मात । "यज्यतो दीः" [५२।१६] "सुपि" [२७] इति टीचं प्राप्नोति । तच्च न भवति । टाविधाविति किम् ? इह अमुना नपि “सुपीकोऽचि" [५३५२] इगभावान्नुम्न भवति । नेति योगविभाग्गदिष्टसिद्धिः । तेन "हलुरू:" [ २३] इति नत्रे कर्तव्ये द्वयोः स्फसंज्ञामाश्रित्य स्फादिसख सिद्धम् | मग्नः । मग्नवानिति | "धुटः प्राप्ती श्चुत्वं सिबम्"। अट रच्योतति | अटतील्यद! जश्त्य डकारः । सकारश्त्रुत्वस्यासिद्ध त्वात् । "इना घट् सोऽश्व" [ ३] इति धुभ्याम् । श्च्योततिः सकारादिः पश्यते । तथा "अहो नखे कर्सच्ये रिरेफी सिद्धी"। अहोम्याम् । श्रोभिः । अर्गरच्छति । मृदन्तनन स्यात् । नत्र इति विशेषणादन्यत्रासिद्धत्वम् । दीर्घाहास्तत्रेति "मोकः" [ern५] “धेकौं" [४] इति दीत्वम् । अइन् । "रोऽसुपि" [५३/७५] इति बननं किविश्ये सावकाशम् । हे दीर्घाहोऽत्रेति । हे अहः ।
नखं मृदन्तस्याको ॥२३॥३०।। मृदन्तस्य नस्य खं भवत्यको परतः | पदस्पति वर्तते । किजिते स्वादौ पदस्थ योऽवयत्रो मृदन्तस्तस्य नस्व खं भवतीत्यर्थः । राज याम । राजभिः । राजत्वम् । राजता । राजतरः । राजतमः। मृग्रहणं किम् ! जिनेन्द्रान् बन्देश्न् । अस्ति पदस्थ नकारोऽन्ता न तु मृदः । किन्तु विभक्याः । अन्तस्योते किम् ? नयाभ्याम् । बनाभ्यान | अवं पदस्यावययो नकारो न तु मृदन्तः । पदस्येति किम् ? राजानी। राजानः । राजे | अस्ति मृदन्तो नकारो न तु पदसंज्ञकस्य । अकाविति किम् ? हे राजन् | अकावितीपदर्धे नम् । तेन "नपुसके वा प्रतिषेधः" । हे चर्मन् । हे चर्मेति । अकाविति नखप्रतिधवचनं ज्ञापकम् । त्यस्खे त्याश्रयन्याये. न कृधृनियमान्मृसंज्ञान निवर्तते । भसंज्ञा च न भवति । तेन राजेयत्र राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इत्यत्र च नखं सिद्धम् । “अनोखमम्बस्फास्' [ २२] इति भकार्य च न भवति । हे राजवृन्दारक इत्यादी क्यन्तयोरनभिधानाद्यससमुदायारिकः । उन उत्तरपदे नवं न वक्तव्यम् ।।
ममोङ भयो मतोर्योऽयवादेः ॥५॥३३३१॥ मकारान्तात् अयान्तान् मकारोड अवर्णोडो झयन्ताच्च यवादिवर्जिताम् उत्तरस्य मतोकारादेशो भवति । मृदो हि मनुविहितस्ततः “परस्यावेः" [11] इति बत्वम् | तुम्वान् । गुणवान् | विधांवान् | मोलः | शमीयान् | दाडिमीवान् | यशस्वान् | भास्वान् | भयः । मरु
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अ. ५ पा० ३ सू. ३२-३६] महावृतिसहितम् स्वान् । तडित्वान् । उदश्चित्वान् । “मत्व स्सी" [1111०८] इति भसंज्ञा । ममोझय इति किम् ? अग्निमान् | अयवादेरिति किम् ? यवमान् । ऊर्मिमान् | भूमिमान् । कृमिमान् । मोर इति । ककृमान् । गयत्मान् । हरित्मान् । झव इति | शिरिखमान् । इतुमती । द्रमनी । मधुमानाम गिरिः । "खो" [५।३।३२] इति प्रामः प्रतिपेधः । श्राकृतिगणोऽयम् | नृमत इदं नार्मतमिलि बहिरा आकारः । तेन यत्वाभावः । पदावयवस्य क्त्वम् | नतः शीलवतः शीलबभ्य इति च सिद्धम् ।
खो॥५४॥३२॥ युधिपये च मतोवों भवति । पीयती । पीवती 1 मुनीवती । “नयां मनुः" [३।२।३५] इति चातुरर्थिको मतुः। "मती बहरादेरनजिरादेः” [।३।२२२] इति दीत्वम् । अामन्दीशम्नाम ग्रामः | अासन्दीवदहिस्थलम | ग्रासनपाव अासन्दीशब्दोऽस्ति । तदुनाम्- औदुम्बरी राज्ञ श्रामन्दी भवति ।
चर्मण्वदष्ठीचच्चक्रीवत्कतीबद्र मण्यत् ॥१३॥३३॥ चर्मण्यत् अष्टवन् चक्रीवन कक्षीवन रुमण्वत् इत्यो शब्दा निपात्यन्ते खुविषये । चर्मणः परस्य मतोर्नुढागमो निपात्यते मृदन्नवम, । "अटकुप्वाइ च्यवाये" ५१९६] इति पत्यम् । चर्मण्वती नदी । चर्मवतीत्यन्यत्र | अनोऽटीभानो र निपात्यते । अष्ठीवानिति कायैकदेशसंज्ञा । अस्थिमानित्यन्यत्र । चक्रस्य ईत्वम् । चक्रीमान् । चक्रयानित्यन्यत्र । कक्ष्याया जिर्निपात्यः । "हलः" [२] इति दौत्यम् । कौवान् । कक्ष्यानित्यन्यत्र | लवप करण्भायो निरा. त्यो । रुमएवाशाम पर्वतः 1 लवण यानित्यन्यत्र । स्मन् इति शब्दान्तरं या मतोर्नु डथ निपातनम् ।
उदन्यानुदधौ ॥१३॥३४|| उदन्वानीति निपात्यते । उदकस्य उदन्मावो मतो निवारयते । पत्र प्रयोगो दृश्यते । उदन्वानुदधिः । उदन्वानाश्रमः | अयं तु विशेषः । यदा उदकमस्यास्तोनि उदकसम्बन्धमात्रविवक्षा तदा उदकवान् घटः । यदा तु उद श्रेयमस्मिन्नस्ति तदा उद्न्यान् वर इति ।
राअन्वान् सौराज्ये ॥५॥३॥३५॥ राजन्यानिति निपात्यले सौराज्ये गम्वे | राजाऽस्मिन्नस्ति प्रशंसायामथै मतुस्तस्येदनिपात्यते । राजन्वान्देशः । राजन्ती पृथिवी। मुराज्ञो भावः सौराज्यम् । शोभनेन गज्ञा सम्बन्धस्तदभावे राबवान् इति भवति ।
पोरी लोऽकृपादेः॥३३६॥ कृपे| रेफस्य लकारादेशो मवति कृपादीन् पवित्या । र इति यपि कृते यः केवलो रेफः वर्णेकदेशा वर्णग्रहणेन गृह्यन्ते इति यश्च ऋकारस्थः तयोरिह सामाभ्येन अहरणम् । कल्प्ता | कल्पिध्यते । कल्प्स्यति । क्लुप्तः । कर प्तवान् । “लुटि व क्लपः" [११२८] इत्यादि च सापकम् कारस्थस्यापि रेफल्य लश्रुतिर्भवतीति । अकृपारिति किम् ! कृपा । भिदादिल्यादछ । कृपणः । कर्पूरानय औरणादिकाः । ये तु प्रतिधं नारभन्ते क्रपः कृतजित्यस्य लाक्षणिकत्यादग्रहणमिति तेषां यानयौरने स्थान ।
गेरयतौ ॥५॥३॥३७॥ गेर्यो रेफस्तस्यायतिपरस्य लत्वम्। प्लायते । पलायते । मम चायतिपरत्वं रेफस्य न सम्भवति । “परेऽचः पूर्वविधी" [1111५७] इत्येकादेशस्य स्थानिवद्भावान् । बचनप्रामाण्याकेन व्यवधानमाश्रितम् । एवं च पल्ययते इत्यत्राऽन्यदोषः। समातेन पुनर्व्यवधानमेव प्रत्ययते इति । ननु वचनस्यावाशो निलयनं दुलयनमिति भविष्यति । न शक्यमेवम् “पूर्वत्रासितम्" [५।३।२] इति रेफस्यासिद्धस्वास्लवाभावः । निरयणम् | दुरयणमिति । यदि लवं दृश्यो कपिल कादिपु द्रष्टव्यन ।
ग्रो यडि ॥५॥३॥३८॥ गिरते रेफस्य ललं भवति । निगिल्यते । निगल्यने । निगल्यन्ते । "लुपसद' [२।११२१] इत्यादिना यङ् । नित्यत्वाच्च । "इको ही वोरुडः" [५।३१८५] इति दीत्यन् | विकरणान्तनिर्देशो गृणानिवृत्यर्थः । गीयते । अठीति किम् ? निगीयते ।
विभाषाऽचि ॥३३॥ गिरते रेफस्य विभाषया लत्वं भवति अजादी परतः । गिर्गत । गिलति । निगरणम् । निगलनम् । व्यवस्थितविभाग्यम् । “प्राण्यङ्गे नित्यं लस्वम्' [वा०] । गलः कण्ठः । “विषे न
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होगा-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू० ४०.४५ भवस्येव" [वा०] । गरः | निगार्यते । निगाल्यते इत्यत्र "परेऽचः पूर्व विधी" [11११५०] इति गणेः स्थानिवद् भावादादित्वम् । ननु "पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" (प०] इति प्रतिषेधः प्राप्नोति । “नेयं परिभाषास्फादि. खलवणत्वेषु न्याप्रियते"। अथवा वर्णाश्रयमन्तरगलनमगावयं बहिरङ्ग णित्रम् । इयमपाते विभाग। प्राप्त निल्यो विधिः । निजेगिलः । “घोः स्वरूपग्रहणे तस्य विज्ञानम्" [प०] इति मृदस्त्ये न भवति । गिगे गिर इति । विभापति योगविभागादिष्टे कपिलकादौ विकल्पः | कपिरकः । कपिलकः । तिथिरीकम् । तिथिटीकम् । रोमाणि । लोमानि । “संज्ञाछन्दसोः पूर्वो विधिः" [प०] । “उलयोः समानविषयत्वं स्मर्यते" [१०] । व्याडः । व्यालः । वारः । वालः । मूरम् । मूलम् । रघुः । लघुः । अरे । अले । अमुरः । असुलः । अहरिः । अहलिः ।
परेर्घाड्डयोगे ॥३॥४०॥ परे रेफस्य विभापया लत्वं भवति घशब्दे अ योग च परतः । पग्यिः । पलियः । “धनान्तर्घण" [२।३।६६] इत्यादौ परिघशब्दो निपातितः । पर्यः । पत्यक: । परियोगः । पलियोगः ।
स्फान्तस्य खम् ॥श३२४१॥ स्थान्तल्य पदस्य रवं भवति । गोमान् । कृतवान् । इह श्रेयान भूयान इनि रिस्वत्यासिद्धत्वानस्फान्तस्त्र स्त्रं भवति । इदापि तहि पयः शिर इति रित्यस्यामिद्धत्वाजश्न्यं प्राप्नोति । "येन नाप्राप्ते तस्य बाधनम्" [१०] इति रिवं जश्त्वस्य बाधकमेव | स्फान्तखे पुनः प्राप्ते चाप्राप्ते च रित्यमारभ्यते । दश्यत्र | मध्यति बहिरङ्गस्य यगादेशस्यासिद्धत्वाफा-तग्वं न भवति । मफ इति किम् ! याक् । अन्तग्रहण किमर्थम् ? आदौ मध्ये च पनावयवस्य स्कस्य रहो मा भूत् । “नालि विधिस्तदन्तायो।" १॥३॥६७] इति सिद्धे स्पष्टा चान्तग्रहणम् । पदस्पोते किन ? गोमन्तौ । गोमन्तः ।
रात्सः ॥५॥३॥४२॥ समान्तस्य 'पदस्य यो रेफरतस्मादुत्तरस्य सकारस्य खं भवति । "अन्तेऽलः" [११] इत्यन्तस्य | चिकीः । निधीः । विपि अतः खे च कृते पक्यासिनत्यान सत्रम् ! "पूर्वग्रासिखे च न स्वामित्रत्" [१०] इत्यजादेशस्य न स्थानिवद्भावः । एवं मानुः । पिनुः । “मत उत्" [३८] इत्युत्त्रम् । द्वयोरेकत्वम् । रन्तत्वम् । "सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थः" [१०] रेकनियमोऽयम् । गत्तरस्व सकार
दैव म्यं नान्यस्य | न्यमार्ट | कर्क । लहि क्वि:म च रूपम् । रादेव सकारस्य त कमान नियमः । व्याख्यानात् । उरःप्रभृतिषु पुमानित्यस्य कृतसरत्रस्य निर्देशाद्वा ।
घि ॥५॥३॥४३॥ धकारादौ च परतः सभ्य स्यं भवति । अाश्वम् । अाशाश्वम् । सकारस्य अश्त्वना-, प्येतस्मिध्येत् । श्रुतिकृतविदोषाभायादिति चेत् । इह दोपः स्यात् । अलविध्वम् । आबिद्वम् । “वेटः" [५४६४] इति वा धस्य दत्वा । यद्यत्र सन्त्रं न स्यात् । तदा से: पत्वे जश्त्वे च इकारे धस्य च दरवं दत्वाभावपक्षेऽपि धकासे न अ येत | चक्राधि पलितं शिरः इत्यत्रापि अविशेषेण सत्रं भवति । "दादेधः" [पा३।२६] इत्यती धुग्रहणं सिंहावलोकनेन संबध्यते । तेन धोहिते धीत्यभिसम्बन्धादिह न भवति । पयो धावति ।
भलो झलि ॥२३॥४४॥ झल उत्तरस्य सकारस्य झलि परतः स्त्रं भवति । अभित्त । अभित्थाः । "सिलिछ दे" [२११८५] इति किल्वादेप्रतिषेधः । अवात्तामिति बसतेस्तसस्ताम् । सखस्यसिद्ध त्यात "स्यगे सः" [५।२।१५१] इति तत्वम् । भाल इति किम् ? अमस्त । झलीति किम् ! अभैत्सम् ।
प्रादगोः ॥५॥४५॥ प्रान्तादगोरुत्तरस्य सकारस्य खं भवति झलि परनः | अन । अकृथाः । यहत । अहथाः । प्रादिति किम् ? अयोष्ट । अप्लोष्ट । गोरिति किम् ? अलाविष्टाम । अलाविष्टम् । अस्ति प्रादिटः परः सकारो न तु गोः। कलीति किम् ? अकृषातान् । अकृपत । "उ:" ८६] इति
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अ० ५ पा० ३ सू०१६-५२] महावृत्तिसहितम्
३६३ कियादेप्प्रतिपधः । सिंहावलोकनेन धोरिति किम् ? द्विष्टराम । द्विष्टमाम् । "द्वित्रिचनुभ्यः सुच्" [२।२५] तदन्लान् अनिशयिते तरतमो “किमेम्मिा झिात्" [ ४५२।२७ ] इत्यादिनाऽम् । “प्रात्यमिकस्ति" [५५४७३] पत्वम् ।
स्फादेः स्कोऽन्ते च ||॥४६॥ सकारस्य ककारस्य च स्फादेः झलि परतः पदान्ने च ग्वं भवति । झलि पदस्यावययः पदान्ते च यः स्फास्तदाद्यो स्कोः ख भवतीत्यर्थः । लग्नः । लग्नवान । साधुलक । नष्टः । तष्टवान् । काटतट । आचाटे मुनिर्धम्मम् । वास्यर्थः । शक्यर्थः । इत्यत्राजादेशस्य स्थानिवद्भावान्न स्मादिखम् | “पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" [५० ] इतीदं "स्फादिखलत्वगत्वेषु नास्ति" [प.] इत्युक्तम् । अथवा अहिरङ्गस्य अणादेशस्यासिद्धत्वान्न स्कादिनम् । काष्ठशक्स्यास्यत्र गोरधिकारात् सिंहावलोकनेन धोरिति वा न भवति । स्कादेरिति किम् ? भ्यस्तः । शस्तः | झलीदं ट्रष्टव्यम् । स्क इति किम ! नर्ति । अन्ते चेति किम् ? तक्षिता ।
चोः कु: ।।५३।४७॥ चनर्गस्य कवर्म प्रादेशो भवति झलि पदान्ते च । चक्ना । चक्नम् । वक्तव्यम् । याक् । "क्विपि ववि [शा१७ वा०) इत्यादिना विचाप दीत्वमजिस्वं च । पक्ता । पक्तम् । पक्तव्यम् । साधुपक । स्त्रत्यत्र अमुस्वारस्य परस्वत्वस्य चासिद्धत्वात् अकार एवं नास्ति । चकारे मलि कुत्वं न भवति | "युजिक्रुश्चः" [२२५७] इति निपातनान्नखं न भवति । रेफरहितस्य धोः कुञ्चिसमानार्यस्य नखं भवत्येव । निकुचितिरिति ।
हो ढः ॥५३॥४८॥ हकारस्य इकारादेशो भवति झलि पदान्ते च । मोटा । गोदुम् । सोटव्यः | हत्ये कृते परस्य "तथोोऽधः" [५।३।५] इति प्रत्वम् । हत्यम् । "हो हे खम्" [५४४१७] "सहिब्राहोऽस्यौः" [१1३।२१७] इल्योत्वम् । अन्ते । परिपट । सट् विचीदं रूपम् । अन्यथा “नहिवृतिबृपियधिरुचिसहितनिधु को" [३।२१६] इति दीत्वं स्यात् । एवं बोदा | बोदुन | गुणवत् । विनीट विपि जित् स्यात् । पृथग योगकरणमत्तरार्थम् ।
दादेधार्धः ॥५३९॥ दकारादेधोह कारस्व प्रकारादेशो भवति झलि पदान्ते च | दग्धा । दम्धुम् । दग्धव्यम् कर्मेन्धनम् | दोग्धा । दोग्धुम् । दोग्धव्यम् | गोधुक् । पदान्ते बवे कृते “एकाचो वशो" [५१३१५५] इत्यादिना झपन्तस्य वशो भल्वम् । धोरिति किम् ? दामलिट् । धुपाठे यो दादिः स दादेरिन्यनेन गृह्यते । तेन अधोक इत्पर अडागमेऽपि सति दादिय सिद्धम् । र च दामलिह्यतेः शिपि घत्वं न भवति । दामलिद्विति ।
वाद हमुहप्रणुहष्णिहाम् ।।५।३।५०॥ द्रह मुद्द ध्णुह भिए इत्येतेषां हकारस्य वा पायं भवति झलि पदान्ते च | द्रोग्धा । मित्रत्रक् । द्रोहा । मित्रध्रुट । उन्मोग्धा | उन्मुक्क् । उन्मोटा | उन्मुट । स्नोग्धा । उल्नुक् । स्नोटा । उत्स्नुट् । स्नेग्धा । चेलस्निक | स्नेदा । चेलस्लिम् । द्रः पूर्वगा प्राते इनरेपामनामे चिकल्पः ।
नही धः ॥५॥३॥५२॥ नहेईकारस्य धकारादेशो भवति झलि पदान्ते न | नद्धम् । नदन्यम् । उपानत् । “नहिति” [४:३।२१६] इत्यादिना दीत्वम् । “तयो|ऽधः" [१।३।५६] परस्य धत्वं यथा स्वादिनि श्रकारादेशः कृतः।
ग्राहस्थः ॥५॥३५२॥ श्राहो हकारस्य श्रकारादेशो भवति झलि परतः । धर्ममात्थ । नुग्चमात्य । "मुव प्राह" [१०] इति त्रुध श्राहादेशो लडादेशस्य च सिपस्थादेशः । अनेन हस्प थत्वम् । "खरि" [11/१३०] इति चयम् । श्राहस्तकारादेशेनैव सिद्धे यकारस्य "खरि" इति चर्व शापकम् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० ५ ० ३ सू० ५३-६०
हनग्रहणान् बबईमा भृत् । झलादिवचनाद् वा न भवति । पदान्तत्वं नास्ति । झलोश्च ।
३६४
हो ऋतुः । श्रतुः ।
·
सृज सृज यज्ञ राज आज मूलम्नुट् । एकादिसखम्। "प्रहिज्यावयि" माष्टी । कर्मपरिमृ । यष्टा । देवयद् ।
अश्चभ्रस्जसृजमृजयजराज भाजां पः || ५|३|१३|| इत्येषां चकारशकारयोश्च यो भवति झलि पदान्ते च । ब्रष्टा [४|३|१२] इत्यादिना जिल्वम् । भ्रष्टा । धानाय । स्रष्टा । तीर्थमृद् । बिचदं रूपम् । राजिभ्राजो तिरेव झलादिः । राष्टिः । भ्राष्टिः । सुराद् । सुभ्राट् । विश्रा । प्रष्टा । श्रप्रा । "क्रिषि व चिप्रच्छायतस्तु कट्जुप्रीणां दीरभिश्च" [ २।२।१५७ पा०] इति किप दीजिये | “छबोः शूङ् ङ े च” [४|४|१७ ] इत्ययं विधिवक्तः । लिशि | लेष्टा । धर्मलिए । विश | बेटा 1 स्वर्गवि । एकाच वश भव् भषः स्वोः || १३|१४|| घोरेकाचो पन्तस्य योऽवयवस्तस्य यथाम भावो भवति झलि सकारे ध्वशब्दे परतः पदान्ते च । भोत्स्यते । अभुद्भवम् । “सिलिङ ” [1111८५ ] इति किम् । धभूत् । श्रोच्यते । अनुग्धम् । गोधुक् । निघोच्यते । न्यधुध्वम् । मन्त्रमुर् | एकाच प्रति किम् ? महिमिच्छति दामलिह्यतेः किप् । दामलिट् । श्रसत्येकाज्यहणे षन्तस्य धोरवयवस्य वश भपू अत्रापि स्यात् । वश इति किन ? क्रोरस्यति । भवन्तस्येति किम् ? दास्यति । स्वोरिचि किम् ? बोद्ध | बोद्धुम् । धकारस्य वकारपरस्य ग्रहणं किम् ? दाददि । दध धारणे इत्यस्य यद्दपि लोटि "हुभ्यो हविः" [ ४/४६४] इति धिभावे रूपम् । श्रबुद्ध । श्रबुद्धाः इत्यत्र "झलो झति" [ ८३/४४] इति सखे कृते "त्यखे त्याश्रयम्" [ ९।२६३ ] इति कस्मान्न भवति । "वर्णाभये नास्ति त्यानयम् " [१०] इत्यदोषः 1
धः ॥ ५३५५ || श्री धान्तस्ववशो भर् भवति झलि परतः । धये । वत्स्य । धध्वे । 'वद्र्ध्वम् | धत्तः | धःथः । “पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" [१०] इति श्रजादेशस्य न स्थानिवद्भावः । वचन - सामर्थ्याद्वा अतिकृतमानन्तर्यमस्तीति भाषन्तता । धन्यापि त्वमायात्सिद्धम् । “प्रकृतिग्रह यह यन्तस्यापि ग्रहणम्” [१०] । धान्तः । धान्यः । भवन्तस्येत्येव । दधाति । दधासि । झलीत्येव | |
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तथोऽधः || ३५६ ॥ भवन्तादुत्तरयोः तकारयकारयोर्धकारादेशो भवत्याः । दोग्धा । द्रोग्धुम् | अदुग्ध | श्रदुग्धाः । चोद्धा । बोक्षुम् । श्रबुद्ध । श्रबुद्धाः | अभः इति किम् ? धत्तः । धत्यः | झलो जश् ॥ ५३॥५७॥ सलो जश भवति पदान्ते वर्तमानस्य । पदमध्ये “मला जरा कशि " [५४४ | १२८ ] इति वक्ष्यति । झलीति निवृत्तम् । ब्रायन | मधुलिङ । श्रग्निचिदत्र | झलीत्यस्य निवृत्तिः किम् ? वस्ता । वेष्टव्यम् ।
कः सि ॥ ५३१४८ ॥ प्रकारकारयोः वकारादेशो भवति सकारादौ परतः । वेदयति । तोति । द्वस्य । लेक्ष्यति । चदवति । सीति किम् ? पिनष्टि |
द्रास् तो नः पूर्वस्य दो मूर्किछमदाम् ||५|३|५६ || दकाररेकाभ्यां परस्य तस कस्य तकारस्य नकारादेशो भवति पूर्वस्य च दकारस्य मूर्छिमदो वर्जयित्वा । भिन्नः । भिन्नवान् । छिन्नः । छिन्नवान् । आस्तीर्णम् | अवगूर्णम् । द्रादिति किम् ? शक्तः । शक्तवान् । तसञ्ज्ञकस्येति किम् ? कर्त्ता । हर्त्ता । त इति किम् । मुदितम् | [रितम् । द्रादित्यनेन तकारो विशेष्यते । स चेत्तसज्ञ इति । तेनेटा व्यवधाने न भवति । पूर्व स्पेति किम् ? परस्य मा भूत् । भिन्नवद्भ्याम् । भिन्नवद्भिः । " श्रधिकृत्य कृते अन्थे” [ ३३३६१] इत्यादि निर्देशात् "इह वर्णैकदेशा वर्णग्रहणेन न गृह्यते” । तेन हुनम् कृतमित्यादि सिद्धम् । कृतस्यापत्यं कार्त्तिर्शित बहिरङ्गो रेफः | श्रमूच्छिमदामिति किम् ? प्रपूर्तः । मूर्तः । मत्तः ।
स्फादेरातो धोर्यरवतोऽध्यायः || ५|३|६० ॥ स्फादियों धुः आकारान्तः यत् तस्मात्यरस्य ततकारस्य नो भवति या ख्या इत्येती वर्जयित्वा | प्रद्राणः । प्रद्राणवान् । ग्लानः । म्लानः घ्या इत्येतस्य
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० ५ ० ३ ० ६१-६६ ]
महावृत्तिसहितम्
३६५
प्रतिषेधात् प्रतिपदोक्तपरिभाग नाश्रिता । स्फादेरिति किम् ? यातः । यातवान् । श्रात इति किम् ? च्युतः । प्लुतः । धोरिति किम् ? निर्यातः । दुर्यातः । यण्वत इति किन ? स्नातः । सातः | अभ्यास्य इति किम् ?
ध्यातः ख्यातः ।
वादेः ||५||३|११|| लू इत्येवमादिभ्य उत्तरस्य तत्तकारस्य नो भवति । लूनः । लूनत्रान् । लीनः | लोनवान् | लू इत्यतः प्रभृति वृदिति दूरपर्यन्तात्वादयः । तत्र स्तुमित्येवमादिभ्यो नत्वं पूर्वणैव सिद्धम् । केः ||५||६|| ऋकारान्तेभ्यो ल्वादिभ्यश्च परस्य संस्तकारस्य नो भवति । स्वादिभ्यो अन्ये ऋद्महृणं प्रयोजयन्ति । कीर्णिः । गीणिः । शीणिः । स्वादिभ्यः । वनिः । लीनिः । मृणिः । चूणिः । घूर्गः । इति त्र्यं चिन्त्यम् ।
ओदितः ॥५|३|१३|| श्रीकारेतश्च धोः परस्य ततकारस्य नो भवति । लग्नः | लग्नवान् | उद्विग्नः | उद्विग्नचान् | आपीनः । श्रापीनवान् "ध्यायः पी" [४।३।२३] "चाङ:" [४१३२४] इति पीभावः । प्रातिशिका: भार श्रीदियो वीड् वृणोत्यर्थे इत्येवमन्ता दैरादिकाः । सूनः । मूनवाग् । दूनः । दीनः । उडीनः इत्यादि ।
क्षीणः ||४/३/६४ || श्री इत्येतस्मात् कृतदीव्यात्परत्य ततकारस्य नो भवति । तपरकरणममन्देहार्थम् | प्रक्षीणः । प्रक्षीणवान् । "तेऽयये” [४ | ४|५६ ] इति दीत्यम् | यदा दीत्वं तदाऽनेन नत्वम् । क्षीखोऽसि नाम । "वा देन्याको” [४३४६० ] इति दीलम् । दीत्वनिदेशः किमर्थः ? क्षितोऽसि जाल्म ।
श्याश्चि विचोऽस्पर्शानपादानाजये || ५|३|६|| श्या अञ्चिदिव इत्येतेभ्यः परस्य तकारस्नो भवत्यस्पर्श अनपादाने अजये यथासक्यम् । शीनं घृतम् । शीनं मेदः । " द्रवघनस्पर्शयोः दय:" [ ४ | ३११६] इति जित्वम् | "हल:" [४१४२ ] इति दील्यम् । श्रजित्वपक्षे "स्फादेशतो" [ ५/३६० ] इति नत्यं सिद्धम् । अस्पर्श इति किम् ? शोतं वर्तते । शीतो वातः । शीतमुदकमित्यत्र स्पर्शामियानद्वारेणैव द्रव्ये वृत्तिः । तेन नत्वाभावो जित्यं सिद्धम् । स्पर्शो गुणो गृह्यते । ननु "स्पृश उपतापे" इत्येतस्य स्पर्शो रोगः । तत्र प्रतिशीनः | कथं ज्ञायते “द्ववधनस्पर्शयो: " [ ४|३|११ ] इति जिवे सिद्धं "प्रसे:" [४/३/२०] इति वचनात् । अञ्च, समनौ शकुनेः पक्षौ । अगपाशन इति किन ? उदक्तमुदकं कूपात् । व्यक्त इत्यः प्रयोगः । दिव । श्रादूनः । आनवान् | "डोः शुड [ ४|४|१७ ] इल्यूट | जय इति किम् ? द्यूतं । क्रीडायामयुपमाना द्विजि गीवा गम्यते ।
निर्माण
|| ५|३|६६ || निर्वाण इति निपात्यते श्रवाऽर्थे । यदि वथों वाताधारो न भवतीत्यर्थः । निःपूर्वाद्वाः परस्य ततकारस्य नव्यं निपात्यते । निर्वाणो मुनिः । निर्वाणों दीपः । "धिगत्यर्थाच्च" [२|४|५८ ] इति कर्तरि क्तः । अवात इति किम् ? निर्वातो वातः । निर्वातं वातेन । वातोऽत्र निर्वातिक्रियायाः आधार । निर्वाणो दोपो वासेनेत्यत्र दीपाधारो ध्वर्थी वातस्तु करणं तेन नत्वम् ।
शुषः कौ ॥५३॥६७॥ शुपि पचि इत्येताभ्यां परस्य तकारस्य ककारवकारादेशौ भवतः । शुकः | शुष्कवान् | पकः । पकवान् ।
मः || ५|३|६८ ॥
इत्येतस्मात्परस्य ततकारस्य मकारादेशो भवति । क्षामः । क्षामत्रान् ।
प्रत्यो वा || ४|३|६|| प्रपूर्वोत्त्यायतेः परस्य ततकारस्य मकारादेशो वा भवति । प्रस्तीमः । प्रतीम वान् | प्रस्तीतः | प्रस्तीतवान् । “मपूर्वस्य स्वः" [ ४|३|१८] इति जिः | "इल:" [४।४।२] इति दीत्वम् | यदा मत्त्रं न भवति तदा "स्फादेरातो घोर्येगवतः " [५/३/६० ] इत्यस्यासिद्धत्वात् पूर्व अ कृते विश्तनिमित्तत्या
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[अ० ५ पा० ३ सू० ७०–७४
न भवति । प्रग्रहणं किम् ? केवलादन्यगिपूर्वाच्च न भवति । स्त्यानः । संस्थानः । लै स्त्यै इन्यनयोः परस्य ग्रहणं पूर्वस्य सत्राभावात् ।
फुल्लः || ३५१३॥७०॥ फुल्ल इति निपात्यते । फुल्लः | फुल्लवान् । त्रिफला विशरण इत्यस्मात्परस्य ततकारस्य त्वं निपात्यते । “ति" [ ५।२।१६] इति उङ उत्त्वम् । कथं फलितः । फल्यन्यस्य सजातानीति द्रष्टव्यम् | अथवा फल नियत्तावित्यस्य इडभाव उङ उत्वं लत्वं च निपात्यते । फुल्ल विकसन इत्यस्य पचायन्त्रि रूपमिति चेत् नै फलेस्ते लक्ष्मन्त रेग प्रयोगः स्यात् ।
1
समुदः || ५|३|७१|| सम् जन् इत्येताभ्यां परः कुल्लो निपात्यते । सम्फुल्लः । सम्फुल्लवान् | उत्फुल्लः । उल्लवान् | "सिन्हें सत्यारम्भो नियमार्थः " [roj | समुद्रयामेव गेः । इह मा भूत् । प्रफुल्ला लता ।
श्रीकृशोलाघाः || ४|३|७|| क्षीर कृशः उल्लाघ इत्येते शब्दाः निपात्यन्ते । दोदयः क्तं कृते तक्रारस्य स्त्रं निपाऽयते | दृष्टि वा कृते इत्शब्दस्य | क्षीत्रः । कुशः। उल्लाघः । अचि गुडलक्ष के कृते सिद्धयेत् । किं कृते ते अनिष्टं स्यात् । लाघेर्गिपूर्वस्य ग्रहणं किम् ? अस्यैव निपूर्वस्य निपातनमन्यस्य मा भूत् । प्रक्षीचितः । परिकृशितः । दिति विशेषनिर्देशात् श्रन्यगिपूर्वस्य न भवति । प्रोधितः । परिकशक इत्यादिषु निपातितस्य शब्दस्य पश्चात् प्रादिविधिः । परितः कृशः परिवृशः | प्रगतः क्षीयः प्रतीयः | नाव गिसजा | यत्क्रियायुक्तास्तं प्रति गिसञ्ज्ञा भवन्ति ।
त्राग्राहीनुदोन्द विन्ते विभाषा ॥ ५३७३ ॥ श्राश्रा ह्री नुद उन्द विन्ति इत्येतेभ्यः परस्य तकारस्व विभाषया नत्वं भवति । त्रातः | त्रायाः । भातः । भागाः । ह्रीतः | होणः | नुत्तः । नुन्नः । समुत्तः । समुन्नः । वितः । निः । ह्री इत्येतस्याप्राप्ते इतरेषां प्राप्ते नत्थं विकल्पते । विन्तेरिति इनविकरणनिर्देशात् "विद विचारणे" [धा०] इत्यस्व ग्रहणम् । तदुक्तम्-
वेसेस्तु चिदिलो ज्ञ ेयो विद्यतेविंस इष्यते । विन्तेर्विन्नश्च वित्तश्च वित्त भोगे तु बिन्दतेः ॥
विभाषेति व्यवस्थितविभाषाविज्ञानम् । तेन
देवत्रात गो माह इतियोगे च सन्निधिः । मिथस्तेन विभाष्यन्ते गवाक्षः संशितव्रतः ।
इति सिद्धम् । देवैस्नातः देवनातः । सशायामपि चातेति भवति । प्राय गलः । विषे गर पत्र | नके ग्राहः । "विभाषा ग्रहः” [ २।१।११७] इति णः | आदित्यादिषु पचाद्यजेव ग्रहः । इतियोगे च सद्विधिन भवति वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । "लक्षयात्वोः क्रियायाः " [२|श१०४ ] इति शतृशानी न भवतः । "न वा साकारू है" [२१२१४] इयनो मकत्या विभाषानुवर्तते । अनितियोगे नित्यं भवतः । अर्जयन् वसति ] श्रधीयानो वसतीति । ननु चेतिशब्देनैव हेत्वर्थस्य द्योतितत्वात् वर्षतीत्यादौ कथं सद्विधिः १ इदं तर्युदाहरणम् “त्रिभाषा लुटः सत्” [२|३|१३] इत्यनेन करिष्यामीति जति क्रियायां तदर्थायामित्तियोगे लृटः सद्विधिर्न भवति । वान्तसमानाधिकरणे अनितियोगे च सद्विधिः । करिष्यन्तं पश्येति । चान्तसमानाधिकरणेऽपि विकल्प इति केचित् | करिष्यन् पुरुषः । करिष्यति पुरुषः । वातायने नित्यम् । गवाक्षः | प्राण्यङ्गे गोक्षम् । अन्यत्रोभयम् | गोग्रम् । गवाम् । प्रतविषये नित्यमित्यम् । शंसितनतः । विधिप्रतिषेधयोरुभयरूपेण विविधमवस्थितया विभाषया सर्व लभ्यते | आकृती पदार्थ सर्व लक्ष्यराशिमेकत्वमुपनीय विधिः प्रतिषेधश्चेति मुपदिश्यते । व्यक्त पदार्थों उभयमत्र भवतीति प्रतिपाद्यते ।
वित्तभित्तदून गूनपूनतिर्णानि ॥ ३७४॥ वित्तमित्त दून गृन पून सित ऋणइत्येते शब्दा निपात्यन्ते | वित्तमिति “विलृ लाभे" इत्यस्य मोगे प्रतीतौ च निपात्यते । भोगे विचमस्य । बहुवितः ।
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१० ५ पा० ३ ० ७५-७६] महावृत्तिसहितम् भुज्यत इति भोगो धनादिप्रतीतो वित्तोऽयं पुरुषः । चिन्नमन्यत् । भित्तमिति निपाल्पते शकलं चेत् । भिन्न खएमित्यर्थ: । उकच--
तस्वमभिधायक चेखकहास्यानर्थकः प्रयोगः स्यान ।
सकलेनाप्यभिहिते न भवति तत्वं निगमयामः ॥ मिदि क्रिया शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तम् । प्रवृत्तिनिमित्त तु शकलबजातिः । क्रियाभिधाने भिन्न शकन्दमित्यपि भवति । दुनः । गूनः । दुग्वोदीत्वं नत्वं च निपात्यते । पूभो विनाशे नत्वम् । पूना यवाः 1 विनाश इति किम् ? पूता यवाः । पूतं धान्यम् । सित इति सिनोले सकर्मक कस्य भवति । सितो प्रासः स्वयमेव । ग्रास इति किम् ? सिता पाशेन शकरी । कर्मकर्तृ कस्वति किम् ? सितो ग्रासो देवदत्तेन | ऋण इति ऋ हन्येतस्मात् उत्तमधिमर्णयो त्वम् | ऋणं ददाति । ऋणं धारयति । ऋतमन्यत् ।
कित्यस्य कुः ॥५॥३७॥ क्विल्यो यस्य तत्य धोः कवर्गोऽन्तादेशः पदान्ते । धृतस्यक | "स्पृशोऽनुदके किः" [२१२।५६] इति क्विः । एवं याक । ताहक । युङ् । नस्य कृत्वम् । त्यग्रहणपरिभाषया “क: कु." इति सिद्धे किल्यो यरवेति यसनिर्देशात् असत्यपि क्चौ क्विविधानेनोपलक्षितस्य विवचन्तस्यापि भवति । सहस्रगिति । इहापि तईि स्यात् । रज्जुसृड्भ्याम् । रज्जुसृभिः । लगिति निपातनान क्यन्तोपलक्षणं नास्तीत्यदोषः । “ना” [वा०] । जीवनक् । जीवनट | स्विपि विचि वा । अथवा जीवस्य नाशो जीवनइिति सम्पदादिल्याल्विम् ।
ससजुषो रिः ॥१३७६॥ सकारान्तस्य पदस्य सः इत्येतस्य च रिर्भवति । “अन्तेऽलः" [111४] इत्यन्तस्य | जश्त्वापवादोऽयम् । सर्वशः साधुभिरासेव्यते । सजः । सह जुषा वर्तते "सहेति तुल्ययोगे" [११३।११] यसः । “वा नीचा" [॥३॥ इति राहस्य को पारित . यदि जाते गि '
अहन् ॥५॥३७७॥ अन्नित्यस्य पदस्य रिर्भवति । अहोभ्याम् । अहोभिः। दोर्याहा काल: 1 हे दीघाहोऽत्र । अहन्निति विकृतनिर्देशात् रेरसिद्धत्वेन नत्रं न भवति ! वचनं तु हे दोघाहोऽत्रेति सावकाशम् । हन्तेलङि अहन्नित्यस्य लाक्षरिएकत्वान्न भवति । “अङ्को रिविधी रूपराश्रिरथन्तरेधूपसङ्खधानम्" [वा०) इति । रोऽसुपीत्यस्य बाधनार्थम् अहोरूपम् । अहोरात्रिः। एकदेशविकृतावादिहापि भवति । अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः । अहो रथन्तरम् अहोरथन्तरम् ।
रोऽसुपि ॥५॥७८॥ अहन्नित्येतस्य रेशादेशो भवत्वसुपि परतः । अहर्गच्छति । अहर्ददाति । अमुपीति किम् ? अहोभ्याम् । अहोभिः । ननु अर्द्धदातीत्यत्रापि "त्यखे त्याप्रयम्" [1111६७] इति मुस्ति । एवं तर्हि रेफविधानसामर्थ्यात् यो रविधौ उपि त्यलक्षणं न भवति । यत्र नु खे तत्र त्याश्रयेण रित्वम् । दीर्वाहा निदाघः । हे दीर्घाहोऽत्रेति ।
वसुलंसुध्वस्वनडुहां दः ॥१३७६॥ वस्वन्तस्य पदत्य नसु ध्वंसु अनडुङ् इत्येतेषां च दकारादेशो भवति । विकुलम् । विद्वद्याम् । विद्भिः । उखाया ससते उग्वाम्मत् । उखासदयाम् । उखानतिः । पर्णध्वत् ।। पर्णध्वनिः । स्वनडुत्कुलम् । अनझयाम् । अनहुदिः । पदस्येति किम् ? अनहुा । वस्वादीनामिलि किम १ पयोभ्याम् । अनड्डहो दत्त्वप्राप्तिरितरेषां रित्वम् । “ससजुषो रिः" [५।३।७६] इत्यतः सकारान्तग्रहणमनुवर्तते । तेन विद्वानिति नकारस्य न भवति । "येन नाप्राप्ते" इति न्यायेन रित्वस्य दत्वं राधकम् । स्कान्त प्राप्ते चाप्राप्ते च दत्वमतो विद्वानित्यत्र सान्तवस्य न बाधकम् । अनहो वचनसामर्थ्याद् ढत्वं न' भवति । नुमो दत्यं वचनसामर्थ्यान्न भवति । पदाधिकारादिद्दापि भवति । विद काम्यति । "नः स्य' [१।२।१०४] इति नियमाद् विद्वस्यतीत्यत्र भसज्ञा ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ २०८०-८७ तिपि धोः ॥५॥३८०॥ तिपि परतः धोः सकारान्तस्य पदत्य दकारादेशो भवति । अनकान्द्रवान् । अन्यशाद्भवान् । लङ् | “हल्ल्यापः" [४।३।५६] इति तिपः खम् । तिपीति किम् ? विपि चकाः । रिकापवादो योगः।
सिपि रिर्वा ॥५१॥ सिपि परतो थोः सकारान्तस्य पदस्य रिर्भवति इकारो या । अचकास्त्रम् । अधकात्वन् । अन्वशास्वम् । अन्य शास्वम् । दकारस्य विकल्पपदे रित्वं सिद्धमेव | रिग्रहणमुत्तरार्थम् । "दः" [५३८२] इत्यत्र पक्षे रिर्वधा स्यात् । तिपि सिपि च परतो धुरेव सम्भवति । धुग्रहणमप्युत्तरार्थम् ।।
वः ॥३२॥ धोकारान्तस्य पदत्य सिंधि परतो रिर्भवति दकारी वा । अभिनत्वम् । अभिनस्त्वम् । अजयोस्त्वम् | अजर्घत्वं । गृध इत्येतस्मात् यॉन् । द्वित्यादिकार्यम् । लङ सिप उङ एम् "एकाचः" [१।३।५४) इत्यादिना भाभावः | इल्डधापः स्त्रम् । जश्त्वं दकारः।
मो नः ॥१३३॥ धोर्मकारान्तस्य पदत्य नकारादेशो भवति । प्रताम्यतीति प्रतान् । प्रशान् | प्रदान । नत्वस्यासिद्धत्वान्न मृदन्तनखम् । न इति किम् ? विद । भिद् । धोरित्येन । इदम् । किम् । अन्योमकागे. संचारणत्यावकाशः इदामतीत्यादी नः क्ये" [२०४] इति पदयाभावः । पदस्थेत्येव | प्रशामी 1 प्रशामः ।
म्योः ॥५८४॥ धोर्मकारस्य मकाखकारयोश्च परतः नकारादेशो भवति । जङ्गन्यः । जङ्गन्मः । अपदान्तार्थ पारामः ।
इको दी चोरुः ॥२३८५|| रेफवकारान्तस्य धोः पदस्य उड़ा इको टीभवति । गीः। आशीः । भानुः पूर्वस्य शासोऽनुदात्तेतो ग्रहणादप्राप्तमित्वम् । "आशिषि" [२।४।१४] इति निपातनाद्भवति । धुर्वी । धूः । धुर्वः पदान्तस्य वकारस्य ऊठा भवितव्यमिति बग्रहणनुत्तरार्थम् । इक इति किम् ? अनिमर्भवान् । मकारे अकारस्त्र मा भूत् । वोरिति किम् ? भिद् । छिन् । उङ् इति किम् ? अधिभर्भवान् | चस्य वेर्मा भूत् । धोरिति किम ? साधुः । मुनिः । पदस्येत्येत्र । गिरी । गिरः |
हल्यभकुर्धरः ॥५॥३॥८६॥ हल्परौ यो रेफत्रकारी तदन्तस्य धोरुङ इको दीभवति मसंज्ञक कुखुरौ च वर्जयित्वा । अास्तीर्णंम् । अवपूर्णम् । दीव्यति । सीव्यति । श्रभकुछर इति किम् ! भस्य धुरं बहतीति थुर्यः । दिवि भवो दिव्यः । श्विबन्तत्येदं ग्रहणम् । कुर । कुर्यात् । कृमो विकृतनिर्देशात् चिकीर्घतीत्यत्र दीत्वं भवत्येव । छुर । कुर्वात् । अाशिष लिङ् । धोरिल्येव । चतुर इच्छति चतुर्यति | दिवमिच्छति दिव्यति 1 त्यस्येमा रेफ.व. कारौ । इक इत्येव । गव्यक्ति । "यि त्ये" [४।३।६७] हत्यवादेशः । हल्पराविति विशेषणं किम् ? भुर्मुरीयतीत्यत्र मा भूत् । अपदान्तार्थं वचनम् ।
उङि ॥३७॥ धोरुभूती यौ रेफवकारौ तयोरुड इकः दीभवति । कीर्तयति । हूर्छिता | मूर्छिता | त्रिता 1 पूर्विता । "प्रचो रहा ।" [५।४।२६] इत्यस्यासिद्धत्वादु भूतत्वम् । प्रतिदीना। प्रतिपूर्वाद्दिवः “कन् युषितक्षि" [उ० सू०] इत्यादिना कन् | “अनोऽखमम्बरफात्" [४|४|१२२] इत्यखम् । “न पदान्त' [११३५८इत्यादिना स्थानिवद्भावप्रतिषेधः | "प्रसिद्ध' बहिरङ्गमन्तरङ्गे" [प०] इत्यस्यानित्यत्वाच्च दौत्वम् । अथ बाऽत्र "इलि" [४।३।१२६] इति दौत्वम् । तस्य नेति प्रतिषेधः करमान्न भवति । रेफवकारान्तस्य सस्य [भस्य] स प्रतिषेधः । इह करमान्न भवति । री गतिरमणयोः । वी गतिप्रजनकान्यशनेषु । रितुः । [नियुः। विव्यतः । बिवसुः । यणादेशस्य] स्थानिधनावात् बहिरङ्गलक्षणत्वाद्वा असिद्धत्वमिति न भवति । चतुर्यितत्यत्र अतः खस्य बहिरङ्गत्वात् धोरुभूतो रेफो नास्तीति न दीत्वम् | गुणादीनामव्युत्पन्नत्वात् । जिनिः । कियो | गिोरिल्यादिषु "इलि' दो न भवति । व्युत्पन्नौ बहुलवचनात् । “जीतेः किरच ः" [उ.]। इति क्रिः । "त इन्दोः" [/१/७४] इतीत्वम् । रन्तत्वम् । रेफस्य बकारः । ( कराभ्यां ) "क ग प कुटिभिविभ्यरच" [३०] इति हः । उकोरिति प्राप्ते उडीति सौरो निर्देशः ।
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म. ५ पा० ३ ० ८८-१२] महावृसिसहितम्
दादुदों मोऽदसोऽसेः ॥५॥३८॥ अट्स: श्रसकारस्य दात्परस्य वर्णमात्रस्य उवर्णादेशो भवति दकारस्य च मकारः | अमुम् । अम । श्रमन् । अमुना। अमूभ्याम् । उत्वस्यासियत्वाप्राक् सन्धिकार्यम् । भाव्योपि वन्चिस्वं गृहणायन: । नतः "हातासम" m] इति विकाधमाविकयोमात्रिको द्विमात्रिकस्य द्विमात्रिक उकारो मवति । असेरिति किम् ? अदास्यति । "स्वेपः क्यच्" [
२६] | अमें रति काविद्यमानसकारयेत्युच्यते | अदः कुलम् । अदोऽत्र इत्यत्रापि स्यात् । एवं ताई यः सिस्मिन् सोऽयममिः । अकारीभूतः सियस्मिन्नित्यर्थः। तस्यासेरुत्वम् । तेन त्वदायत्वविषये विधिः । “विप्वग्देवयोश्च टेरवायची की" [ ३१] इति श्रद्र धादेशे कृते दर्शनभेदः । "अन्त्यषिकारेऽस्यसदेशस्य" [१०] इति परिभाष नाश्रिता तेषाम् “प्रदे सोद्रौ” परतः उत्वं भवति । मुद्रयङ् । “पृथक मन्वं केचिदिच्छन्ति लम्ववत्" | चीयते । क्लुप्तः । कल्पकः । इत्यत्र लाक्षणिकस्य रेफस्व कारस्य च लस्वम् । एवमन्यत्रापि । अमुमुबह । परिभाषा श्रवणे तु "केचिदम्त्यसवेशस्य" अदमुय । त्यदाद्यन्न विषय एच मुत्तम । “नेस्येके सेहि दृश्यते । अद्यकृिति चत्वारो भेदाः । दादिति किम् ? अमुया । अमुयोः । स्त्रियां टौमोः परतः त्यदायले गपि "आडि चापः" [५।२।१००] इति एवे अयादेशे च कृते "धन्तेऽल" [१४] इति यकारत्योत्वं मा भन ।
चहावीरेतः ॥३६॥ नहीं निमित्त निष्पन्नस्य अदसः दापरस्यः एतः ईकारादेशो भवन्ति । अमी। श्रमीभिः | श्रमाभ्यः । अमीषाम् । अमीषु । अथवा ग्रहात्रित्यर्थनिर्देशः । यहादर्थे वर्तमानस्य अदसः इति संयम् । पारिभाषिके हि श्रमी इत्यत्र परत्वासम्मवान्न स्यात् ।
वाक्यस्य देयः ॥५३१६०॥ वाक्यस्य टेः पो भवतीत्येषोऽधिकाशे बेदितव्यः । वक्ष्यति “दूरादते" [५/३।१२] अागच्छ भो देवदत्ता३ | वाक्यग्रहणं किम् ? अन्त्यस्य यथा स्यान् ! पदाधिकारान् सर्वेषां पदानां मा भूत् । टेरिति किन ? "यसश्च" [1१1१२] इति अनन्तस्याप्यचो यथा स्यात् । अन्यथा अचा वाक्ये विशेष्यमाणे हलन्तस्य न स्यात् । अचो विरोष्यावे सर्वषामन्त्रां स्यात् ।
प्रत्यभिचादेशद्रस्यसूयके ।।५।३३६२॥ श द स्त्री असूवक विषयवर्जिते प्रत्यभिवादे यदास्यं वर्तते तस्य टेः पो भवति । अभिवादये देवदत्तोऽहं भो३: । श्रायुष्मानेधि देवदत्ता३ । अत्राभिवाधमाने गुरुणा प्रयुक्तमाशीःपूर्वकं प्रियहितानं प्रतिवचनम् इत्यभिवादः । अशूद्रस्यसूत्रक इति किम् ? अभिवादये नुपजकोऽहम् । मो श्रायुष्मानधि तुषजक | शूद्रे पोन विहितः । अभिवादये गार्म्यहं भो । आयुष्मती मत्र गगि । त्रियां पोन भवति | अभिवादये स्थाल्यहं भो। आयुष्मानेधि स्थालिन् । अत्र दरिद्धबदसम्ज्ञाशब्दे पो न भवति । सज्ञाशब्दे भवत्येव । यदा तु बिहेठगिनुकामः सज्ञामसज्ञा च तस्य कथयति तदा असूयकोऽयमिनि ज्ञाते भिद्यस्व वृपल स्थालिन न त्वं प्रत्यभिवादमईसीयुच्यते । लोकव्यवहारत्मधाने कार्यसम्प्रत्ययाता नामान्तस्प गोत्रान्स्य च पविधिः । इह न भवति देवदत्त कुशल्यसि | देवदत्त अायुष्मानेधि । इन्द्रवर्मन् कुशल्यसि | सर्वः एवि. विर्वा भवतीति वक्ष्यति । सा च व्यवस्थितविभाषा | तेन "भोराजन्यविशां वा भवनि" । अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः । आयुष्मानेधि देवदत्त भो३ । श्रायुष्मानेधि देवदत्त भो । राजन्यः। अभिवादये इन्द्रवर्माऽहं भोः । श्रायुमानेधि इन्दधर्मश्न् । आयुष्मानेधि इन्द्रवर्मन । विशः । अभिवादये इन्द्रपालितोऽहं भोः। श्रायुधमानेधि इन्द्रपालिता ३ | आयुष्मानेधि इन्द्रपालित । भोशन्दत्वाप्राप्ते राजन्यविशोगोंत्रत्यारप्राप्ते विकरूपः ।
दूराद्धृते ॥१३॥२॥ दूराद्धृते आहाने वर्तमानस्य वास्यस्य देः पो भवति । आगच्छ भो देवदत्ता ३ । दूराद्धृत इति किम् ? श्रागच्छ भो जिनदत्त । प्रयत्नविशेपेण आहाने स्त्र शब्दः श्रूयते तदूरीमइ नास्ति । हूतग्रहणं सम्बोधनमात्रोपलक्षणम् । तेनेहापि पः सिद्धः । सक्तून् पित्र देवदत्ता३ इति । सूत्रे दुगदिनि "तेभ्य इषु च" [ ३] इति का।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [श्र० ५ पा० ३ मू. १३-१०१ हैहप्रयोगे हैहयोः ॥॥३६॥ है हे इत्येतयोः प्रयोग हैहयोः पो भवति दूराद्धृते । है३ जिनदन । जिनदत्त है३ । २३ जिनदत्त । जिनदत्त हे३ । पुनह योग हणं किम् ? अन्वस्य मा भूत् । हैहयोरेव यथा स्यात् । प्रथम हैहेग्रहणम अनन्तयोरपि यथा स्यात् । अन्यथा वाक्यस्य देः प्राप्नोति । सूत्रारम्भस्तु अगृतोऽनन्तस्येत्यादिवाधकः सम्भाव्येत । प्रयोगग्रहणादनकयोरपि भवति । श्रागच्छ भो मारमय हे३ देवदत्त इति ।।
अनृतोऽनन्तस्याप्येकैकस्य रोः ॥३६॥ ऋकारवर्जितस्य रोरनन्यस्यापि अन्यस्यापि दः एकैकस्म पो भवति । हेदेवदत्त । हे देवदत्त३ । अमृत इति किम १ कृष्णमित्रा३ । रोरिति किम् ! देवदत्तत्य वकारात्परत्र माभूत । एकैकग्रहां पर्यायार्थम् ।
ओमभ्यादाने १५३६५|| अभ्यादान प्रारम्भः । प्रोमि ये शब्दः श्रभ्यादाने पो भवति । यो३. मृषभ पवित्रम् | ओ३मपभमृगमगामिनं प्रगामत | अन्यादान इति किम ! यो मो ददाति । श्रवमोमशब्दः प्रतिश्रवणे वर्तते ।
या हे पृष्ठप्रत्युक्ती ॥५३॥६६॥ पृष्टमन्युको हेः पो भवति वा । अकार्षीः कट देवदन ! इनि पृष्ट: अकार्य ही३ | अकार्ष हि । अलावीः केदार देवदन ! अलाविषं ही३ । अलाविषं हि । हेरिति किम् ? करोमि ननु । पृष्टप्रत्युत्ताविति किम् ? देवदत्तः कं करिष्यति । प्रत्युक्तानिनि किम् ? देवदत्त कटमकार्षीहिं । बेति योगविभागः । तेन सर्व एव पविधिः साहसमनिम्छता वा प्रयोक्तव्यः ।
विचार्य पूर्वम् ॥१॥३६॥ विचार्य पूर्व पविधिमापयते । अहिर्नु ३ रजा । स्थाणुर्नु ३ पुरुषो नु । द्वयोहूनां वा वाक्यानां पूर्वल्य टेः पो भवति ।
प्रतिश्रवणे ॥५.३।६८ प्रतिश्रयणे च पायल्य देः पो भवति । प्रतिश्रवणं श्रवणाभिमान्य प्रतिज्ञानम अभ्युपगमश्चाविशेषेणा गृह्यते । अबणाभिमुख्य देवदत्त भी किमात्थ ३ इति । प्रतिज्ञाने तकः शब्दा भोः । एवं भवितुमर्ह ती३ । अभ्युपगमे भोज्यं मे देहि भोः । हन्त ते दास्यामी३ ।
प्रजिते ॥५॥३॥६६॥पूजिते न वाक्यस्य टेः पो भवति । शोभनः स्त्रल्यास अग्निभूना३ । एटाउ। कापि च कृते "पुचोऽदेः" [५।३।१०४]. इत्यादिना आकार इदुतौ च । अथवा शोमनः खल्वति देवदत्ता इत्युदाहरणम्।
चिदित्युपमार्थे ॥५॥३॥१००|| चिदित्येतस्मिन्नुपमार्थं प्रयुज्यमाने बास्यवः पो भवति । अग्निश्चिदाया३त् | राजाचित्रु या शत् । चिदिति किम् ? राजेव यात् | अग्निर्माणयको भायात् । इवशकदस्य प्रयोगाप्रयोगयोरुपमार्थोऽस्ति । न तु चिच्छन्दः । उरमार्थ इति किम् ? कथञ्चिद्वयीपि । छेत्र चिन्दः । इतिकरणं किम् ? चिच्छब्दस्व मा भूत् । वाक्यस्य टेर्यथा स्यात् ।
कोपाऽसयासम्मती म्रो वा ॥५३।१०१॥ कोपा असूवा सम्मति इत्येते व नौ परतः पो भवति वा । कोप्पे-माणवका३ | माणवक । अविनीतका३ । अविनीतक | इदानी जास्यमि जाल्मा३ । असूयायाम्-माणवका३ | माणवक | अभिरूपका३ । अभिरूपक । शोभनः खल्वसि माणवक । कुन्सनमसूबान्तभूतं तत्कायत्वात् । शाक्तोका३ । शाक्तीक । याष्टीका | याटीक रिक्ता ते शक्तिः। "वाक्यादेवाम्यस्य" [५३६] इत्यादिना द्वित्वम् | वेति व्यवस्थितविभाषा विज्ञानात् कोपकायें भर्त्मने च फ्यायेण पः । दौर। चौरा३ । वृषल । श्रपला३ । चौरा३ । चौर । वृारला३ । नृपल । पातयिापामि त्वाम । श्व यिाध्यामि त्वाम् | भसने च मिडः साकाङ्क्षस्याङ्गयुक्तस्य टेः पविधिरद्वित्वं च । न कुजा३ अङ्ग व्याद्ग३ इदानी ज्ञास्यसि जारूम 1 मिह इति किम् ? अङ्ग देवदत्त | साकाञ्जस्येति किम ? अङ्ग पच । नैतत्पर माकाक्षति । भर्सन इत्येव । अङ्ग पठ पुस्तक ते दास्यामि ।
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०पा० सू० १-३ ]
महावृतिसहितम्
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दियाशीःमधेषु मिङाकाम् ||५|३|१०२ ॥ चिया क्षेपः । इष्टाशंसनमाशोः । अमत्कारपूर्विका व्यापारणा मैत्रः । क्षियादिषु मिङन्तमाका पविधिं लभते । नियायाम् स्वयं ह श्थेन याती ३ उपाध्यायं पतिं गमयति । स्वयं ह ओदनं भुङ्क्ते३ उपाध्यायं सक्तून् पाययति । भुक्ता इति भिडन्तमा काङ्क्षकम् । श्राकाङ्क्ष्यमपि मिङन्तमाकाङ्क्षग्रहणसामर्थ्यात् । सुबन्ते सिद्धेवाकाङ्क्षा । श्राशिषि --- पुत्रांश्च लप्सीफा. प्ध व गहमागमस्य पविधिः । तात न चाध्ये. पीष्ठाः ३ जैनेन्द्र' च । षे त्वं ह पूर्वग्रामं गच्छा र देवदत्तो दक्षिणं ब्रजतु । आकाङ्क्षमिति किम् ? दीर्घमायुः रस्तु । मैप इत्यत्र "प्रादृहोदो७० वैष्येषु" [४।३।७६ वा०] इत्यनेन एङि पररूपापवादऐषु |
अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः || ५|३|१०३ ॥ प्रश्ने आख्याने च अनन्तस्यापि मिङन्तस्य अन्त्यस्यापि यस्य कस्यचित् पदस्य ः पो भवति । प्रश्ने - आगम: ३ पूर्वात् श्रमान् अग्निभूता इ । पा३ उ | आल्याने - आगमः ३ पूर्वान् ग्रामा३न् भोः । अत्र सर्वेषामपि पदानां पदान्ते केचित् पमिच्छन्ति ।
पत्रोऽदेः पूर्वस्यात्परस्येतौ || ५|३|१०४ || एचः श्रदिशकस्य परसङ्गे पूर्वस्यास्य श्राकारः पो भवति परस्य चास्य दुतौ भवतः । " एवोऽदेवदुत्परः" इति सिद्धे गुरुसूत्रकरणं किम् ? इदुतोः पो न भवति । प्रश्नान्तपूजितप्रत्यभिवादेषु पदान्तस्य च एचः पो भवतीति ज्ञापनार्थन् | प्रश्नान्ते अगः ३ पूर्वान्प्रामान् अग्निभूता । पाउ । पूजिते - शोभनः स्वल्वसि अग्निभूता३ । पय ३ड | प्रत्यभिवादे - आयु मामेधि अग्निभूता३३ । पटा३३ । परिगणनं क्रिम १ दस्यो दस्यो घातयिष्यामि त्वाम् । आगच्छ भो श्रग्निभूते । पदान्तस्येति वचनादिह न भवति । भद्रं करोमि गौरिति । पृखिते पः । आादिति किम् ? अपाक्ता३मोदनं कन्ये३ | प्रश्ने पविधिः ।
सिन्धी ॥ ४३।१०५ ॥ अश्वशाद्विभक्ती परिणामः । इदुतोचि परतः कारवकारादेशी भवतः रुन्धौ विवक्षिते । श्रा श्रध्यायपरिसमाप्तेः सन्धावित्यधिकारः । श्रग्नाविन्द्रम् । पटा३नकम् । सिद्धः पत्रिधिः सन्धाविति ज्ञापितं पुरस्तात् । तेन " अचीको यण्" [४/३/६५ ] इति यत्र यमादेशो नास्ति तदर्शमिदम् । चीति किम् ? अग्ना३द्द गतम् । पटा३ गतम् । सन्धाविति किम् ? अग्ना३६ इन्द्रम् । पयारेज उदकम् ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमावृत्तौ पश्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः 1
पुमः खय्यम्परे सोऽनुस्वारपूर्वः || ५|४|१ ॥ पुमित्येतस्याम्परे स्वयि परतः सो भवत्यनुखारपूर्वः । पुमिति पुंसः स्फान्तखे कृतेऽनुकरणम् । स्वयीति प्रत्याहारसाहचर्यत् श्रमोऽपि प्रत्याहारग्रहणम् । पुंस्कामा | पुची | पु'स्पुत्रा | स्कोकिलः । पुंसि कामोऽस्याः । मांसं चलयतीत्यादि ज्ञेयम् । सकारस्यासिद्ध त्वाद्वित्वं न | खीति किम् ? 'दासः । पुत्रः । अपर इति किम् ? पुं दौरः । अनुस्वार इति बिन्दोः सजा पूर्वैः कृता । पुड्स इत्यत्र पुशब्दस्यानर्थंकर वादग्रहणम् ।
नश्छुव्यप्रशान् ||५|४|शा नकारान्तस्य पदस्य श्रपरे छवि परतः सो भवत्यनुस्वारपूर्वः प्रशान्शब्द वर्जयित्वा । भवाँश्छादयति । भवाँष्ठकारीयति । भवस्थुडति । भवाँश्चरति । भवांष्टीकते । भवांस्तरति । वोति किम् ? भवान् करोति । श्रप्रशानिति किम् ? प्रशान् चिनोति । “मो नः" [३१] इति नत्वस्यासिद्धत्वाअखाभावः | अम्बर] इत्येव । भवान् त्सरुकः । त्सरौ कुशलः | "कदिः कः " [ ३।३।१७ ] इति कः |
भगवतो वा रिः काववस्यौः || ५|४|३|| भवत् भगवत् अभवत् इत्येतेषां को परतः वा या रस्ता शब्दत्यकारः रित्वं प्रति भवदादीनां स्थानार्थस्तानिर्देशः सोऽशब्दापेक्षा
रिर्भवति । ५१
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ધર
जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [अ० ५ पा० ५ स. ५-१२ यवार्थः सम्पद्यते । अस्येति निर्देशात् "नामकेऽन्तेऽहो विधिः" [१०] इति वा सर्वस्य स्थाने प्रोकारः । हे भोः। हे भवन् । हे भगोः । है भगवन् । हे अधोः। हे श्रघवन् । भवान्दो "भातरंचतुः" [उ० ०] इति डववन्तः । तेन विशेषयाचित्वात्सम्बोधनम् । “ग्रहो लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहा" [१०] हतीयं परिभाषा विभक्तीविषये नेष्यत इति स्त्रियां विधिन भवति । भवति । हे भगवति ! हे अघवनि | भो इनि मि. संज्ञकं शब्दान्तरमस्ति तस्यायं प्रयोगः । भो सुन्दरि । भो भो नरेन्द्राः सुखमाध्यम ।
ओवपूर्वस्य योऽशि ॥५॥४४॥ रिरिति यतमानो विपरिणम्यते । श्रोकारपूर्वस्यावर्णपूर्वस्य च रेः यकारादेशो भवति अशि परतः । भोयत्र | भगोयत्र । अघोयत्र | भोयादि । भगोयाहि । अघोयाहि । अवर्णपूर्वस्य-सर्वंशयास्ते । देवायासते 1 नरा गच्छन्ति । अनन्तरसूत्रेण निवर्तितस्य श्रोकारस्य ग्रहणादिह न भवति । गोरत्र | पटोरत्र । ओदपूर्वस्येति किम् ! मुनिरन | अशीति किम् ? वृक्षस्तत्र । छबीति सत्वस्यासिद्धत्वाद्यत्वं प्रसज्वेत । रेरित्येव | पुनरत्र ।
व्योः खं वा ॥५॥१५॥ वकारयकारयोरशि परतः खं भवति वा । पदस्थेत्यनेन विशेषणात्यदान्तयोयोः सञ्ज्ञातव्यम् । पर इहै । पटविहव वृक्षा अन्न | वृक्षावत्र । वकारमाहचर्यायकारस्याविशेषेण खम् । भो अत्र । भोयत्र । सर्तश प्रास्ते । सर्वंशयास्ते । देवा ग्रासते । देवायासते । ते आसते | तयासते ।
हलि ॥शक्षा अशीति वर्तते। न्योः खं भवति अशि इलि परतः । नित्यार्थ आरम्भः । देवा यान्ति । पाता वान्ति । वकारादौ "पलि न्योः खम्" [३।५५] इत्यनेन यखं नाशङ्कनीयम । तस्मिन कार• स्थासिकत्वात् । श्रशीत हलो किम् । वृक्षव करोतीक मा भून् । बनतीनि वृक्षवन् । वृक्षरनमाचण्टे गिन् । वृक्षवयतेः पुनः क्षिप् । "पूर्वत्रासिद्ध न स्थानियत्" [१०] इति गो: स्थानिवद्भावो नास्ति | अशि तु हलि खं भवत्येव । वृक्ष हसति ।
मोऽनुस्वारः ॥१४॥७॥ अशीति निवृत्तम् | मकारान्तस्य पदस्य अनुस्वारों भवति हलि परतः । व्रत रक्षति । धर्स शृणोति । अयं षडिकः । स्वर्ग साधयति । पादं हन्ति । हलीत्येव । इदमत्र । पदान्तस्ये येव । रन्यते।
नचापदान्तस्य झलि ॥शा नकारस्य मकारत्व चापदान्तस्यानुस्वारो भवति झलि परतः । यशांसि | तितांसति । अनुस्वारस्यासिद्ध त्वात् “सन्तस्फमहतोः" [४१३७] इति दीत्वम् । मकारत्य-स्यते । अधिजिगांसते । “सनि" [ ] "इक" [१1३1२०] इति गमादेशः। अपदान्तस्येति किम ? हे राजन् भवान् स्थास्यति । भलीति किम् ? राजन्यः । गम्यः ।
सम्राट् ॥५६॥ सम्राडिति निपात्रते क्च्यन्ते राजतौ परतः | समो मकारस्य मकार एव निपान्यते । "सत्सूद्विष" [२२५४] श्रादि सूत्रेण स्विप् | सम्राट् सगरः ।
हि म्परे पा ॥ १०॥ म इति वर्तते । हकारे मकारपरे परतः मकारस्य गनुस्वारो भवति । कि हालयति । किम्हालयति । कय झसयति । कथम्यस्यति । यल हुल झल चलन इत्यस्य गिचि "चलहुख झलनमामगे का" [ग. सू०] इति मित्सञ्ज्ञा । हीति किम् ? कयं स्मरसि । म्पर इति किम् ? किं उपलयति ! प्रापते विकल्पोऽयम् | बाग्रहणं बहुलार्थम् । तेन “यवसापरे हकारे मकारस्य वा यवला भवन्ति" | किंय यः । किं ह्यः । कि. इलायति । किं हलयति । किलहलादयति । किं हलादयति ।
नपरे नः ॥ ११॥ नकारपरे हकारे परतः मकारस्य वा नकारादेशो भवति । किन् हने । कि र ते । कथन्ह ते । कथं ते ।
अणोः कुषटुक्छरि ॥५॥॥१२॥ कारणकारयोः पदान्ते वर्तमानयोः वा कुछ टुक इत्येताचागमी मवतः शरि परतः । प्राङक छेते । प्राछोते | पदान्तामयः परस्य छत्वार्थ पूर्यान्तकरणम् । प्राङ्कण्डे । प्राङ्
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अं. ५ पा० ५ सू० ६३-२1] महात्तिसहितम्
४०३ पण्डे । प्रायसाये । प्राङ्माये । कुकः पूर्वान्तत्वान् परस्य "नाथम्से" [५४७३] इति पावप्रतिषेधः । टुक्-सुपट् शेते ! सुपण शेते। सुपण्ट पण्डे । सुरण पण्डे । सुपण्ट साये। सुपसाये। टुकः पूर्वान्तत्वं परस्य “पदस्य टोः" [५४१२] इत्यादिनियमात् तुत्वाभावः ।
[इनां धुट सोधः ॥५॥॥१३॥]
नश्शि तुक ॥५५॥१४॥ नकारस्य पदान्तर५ ।कारे परतो वा तुगागमो भवति । अत्रापि छत्वार्थ पूर्वान्तत्वम् । भवाञ्छते । भाशेते । भवाशेते ।
[मयो वोऽयुषः ॥५॥४१॥ ]
मो नित्यं मुट प्रात् ॥२॥१६॥ प्रात्परो यो गम् तदन्तात्परस्यायो नित्यं समुद् भवति । कुडास्ते । मुमरिण । कुर्वत्रास्ते | प्रादिति किम् ? प्राहस्ते । अचीत्येव । कुशेते । ननु परमदण्डिनावित्यत्र कस्मान भवति । अत्र हि "रयसे त्याश्रयम" [ १३] इत्यवयवविभक्तीमाश्रित्य पदान्तत्वमस्तीति चेत् : नायं दो-त्याश्रयलक्षणेन पदत्वमुत्तरपदे एव भवति नान्यत्र | कमिति चेत् , “भमद्भगवदधवतः" [4/३] इति निर्देशात् । अन्यथा अश्वत्तकारस्यापि जश्त्यं स्यात् । एवं च पीतपयसौ सुराजानावित्यत्र रित्वनम् न भवतः ।
दो दे खम् ॥१७॥ दकारस्य तुकारे परतः खं भवति । अदिः। गूढम् । लीदम् । पदान्ते दकारख्यासम्भवात् वचनात्यामध्ये विधिः । नन्विह सम्भवति मधुलिंदौकत इति । दत्वस्यासिहावा जश्त्वमन भविष्यति । ननु मध्येऽपि दुत्वस्यासिद्धत्वापरो टुकारो नास्ति तब यदि वचनाइदाखम् । पटान्तेऽपि स्यात् । पदमध्ये श्रुतिकृतमानन्तर्यमस्तीति भवति । पदान्ते न श्रुतिकृतं नापि शास्त्रकृतमानन्तर्यम् । जश्त्वस्य सिद्धत्वात् ।
रोरि ॥ १८॥ रेफस्य रेफे परतः खं भवति । नीरक्तम् । दूरक्तम् । अग्नीरथः । इन्दूरयः । पुना रक्त वासः | "निरनुबन्धकमहणे न सानुबन्धकस्य" [१०] इतीयं परिभाषा नेहाश्रीयते "रेश्च सुपि' [41४।२४] इसि ज्ञापकात् । तत्र रेरेव सुपीति नियमो वक्ष्यते । इह यदि निरनुबन्धकस्य रेफस्य ग्रहणं स्यात् इदमेव तत्रानुवर्तते । इति रे प्राप्त्यभावान्नियमोऽनर्थका स्यात् । इह पदस्यावयवो यो रेफः तस्य खं भवतीत्याश्रयणादपदान्तरत्यापि रेफल्य, खं भवति | अज; इति जाध् इत्यस्माद्ययन्ताल्लङ: सिए । “इस्पापः" [॥३॥५१] इति सिपः स्त्रम् । “युक" [५२।३] एप् । रन्तत्वम् । “मलो अर" [५॥३॥५७) इति धकारस्य दल्बम् | “सिपि रिर्षा" [१३] ":" [५३।२] इति दकारस्य रित्वादेशः । अत्र रो रीति पूर्वस्य खं परस्य विसर्जनीयः । एवं स्पयनन्तस्य अपास्याः । रो रीति निर्देशात् “रादिफः" [उ० ०] इति विधानमनित्यम् । “हो हे खम्" [५४४१७] इसि निर्देशात् "वर्यास्कारः" उ० म०) अप्यनित्यः ।
विरामे विसर्जनीयः ॥ १॥ विरामविषये रेफान्तस्य पदस्य बिसर्जनीयादेशो भवति । देवः । कविः । साधुः । स्वः । अत्तः । विराम इति किम् । अग्निरत्र | प्रातरत्र । वायुवाति 1 विरतिः वर्णस्यानुच्चारण बिरामः । विसर्जनीय इति अयोगबाहेषु बिन्दुदयस्य सञ्शा ।
शपरे खरि ॥॥४॥२०॥ शरपरे खरि परतः रेफान्तस्य विसर्जनीय नादेशो भवति । पुरुषःत्सरुकः । नरः सरति । "बवि" [५५२५] सत्वस्यायमपादः ।
कुप्योः ॥शा२१॥ शपरे खरोति वर्तते । वारे यो कुपू तयोः शर्परयोः परतः रेफस्य विसननीय आदेशो भवति | वासः क्षोमम् । अभिः प्सातम् । ननु पूर्वेण सिद्धे किमर्थमिदम् । अस्मिन्ननुष्यमाने स पुरस्तादपरादः सन् :क "पोरेव बाधकः स्यात् न छवि सत्त्वस्य | कुप्पोरित्यनेनाराम्भेण क:पयोधा । पूर्वण छवि सत्वस्येति ।
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४०४
जैनेन्द्र व्याकरणम् [म. ५ पा० ४ सू० २२-२८ क पौ ॥१४॥२२॥ शर्पर इति निवृत्तम् । खरीति वर्तते । इष्टत्वान् । परि यो कुप तयोः परतः रेफस्य : क: प इत्येताबादेशौ भवतः विसर्जनीयश्व । क: करोति । कः करोति । कः स्त्रनति । का खति । कः पचति । कः पचति । कः फलति । कः फलति । केवलौ जिह्वामूलीयोपच्यानीयात्रु-चारयितुमशक्यौ कारपकारा उच्चारणार्थों । इह वृकुरखो भवः नाकुख्यः । नृपतेरपल्यं नापत्य इति रेफस्य बहिरङ्गत्वान्नायं विधिः । ननु सति विसर्जनीये अन्तरङ्गेऽस्य प्रतिद्वन्द्वित्वाहिरङ्गत्वम् । विसनीयश्चासिद्धः । कथं तन्मलपरिभाषाव्यापारः । नैवः दोपः । ईपत्सिद्धमसिद्धं क्वचित सिमित्याश्रयणाद्विसर्जनीयः सिद्धः ।
शरि सश्च ॥ शहा२३॥ शरि परतः रेफरूप सकारादेशो भवति विसर्जनीयश्च । कश्शेते । कः शेते । कष्ष्वकते । कः वाकते । Rai I करते।
रेश्च सुपि शा२४|| सुपि परतः रेश्च सकारादेशो भवति विसर्जनीयश्न । बाग विसनीयानु कर्षणार्थः । शरीत्यनुवर्तते । सुपीति ईपो बहोहणम् । पयरसु । पयासु । सर्पिष्णु । सर्पिःषु इत्यत्र सत्वपक्ष "नुम्शय॑वाये" [५।४।३८] इति परस्व पत्वे कृते पूर्वस्य पदान्तस्यात् "नाद्यन्ते" [पा४/७६] प्रतिषेधे सति ष्टुत्वम् । यिसर्जनीयपक्षे परत्य षत्वम् अयोगवाहस्य शर्ग्रहणेन ग्रहणात् पूर्पण सिद्ध नियमार्थमिदम् । रेरेव सुपि सत्त्वविसर्जनीयौ नान्यस्य । गीर्षु । धूर्यु । मुप्येय रेरिति फरमान नियमः । “सस्ले घुस्थस्य" [५४।३३] इति सकारद्वयनिर्देशात् ।
छषि ॥शा२५॥ रोरीत्यतो रेफमात्रमनुवर्तते । विसर्जनीय इति निवृत्तम् । छवि परतः रेफरस सकारादेशो भवति । कश्लिनत्ति । कष्टकारीयति । करधुइति । कश्चरति । काष्टीकते । केस्तरनि । पुनश्चरति ।
कुप्वोस्त्ये ॥शक्षारक्ष|| स इति वर्गते । पदान्तरेफस्य सकारादेशो भवति कबर्गयवगादौ त्ये परतः । "पाशकापकाम्याः प्रयोजयन्ति" [वा०] | याप्यं पयः । पयस्पाशम् । अयस्पाशम् | "याप्ये पाशः" [11111०] इति पाशः । ईषदसिद्ध' पनः पयस्कल्पम् | अयस्कल्पम् । "आसिद्धौ देश्यदेशीयकरूपाः" [११२६] इति कल्पः | महोरस्कः । पयकम् । पयस्काम्यति । कुप्वोरिति किम् ? पयोम्याम् । नन्वत्रापि पर्गत्वात् प्राप्नोति । खरीत्यनुवर्तनाल भवति । त्य इति किम् ? अयः करोति । पयः पित्रति । "उन्ज अार्जवे" इत्यस्योपध्मानीयोङ्पन्चे कुत्यविध्ये "उपध्मानीयस्थ सत्वं वरुण्यम्, वित्यप्रतिवेधश्च" [वा०] श्रद्गः । समुद्गः । उजिजिपतीति । ट्कारोङ्पदे तु कुत्वादन्यत्र | प्रसिद्ध कागडे "व उद्गः" [वा०] इति वचनात् वत्वत्यासिद्धत्यान् “न स्फादौ न्द्रोऽयि" [४॥३॥३] इति द्वित्वप्रतिषेधः । उजिजिपति । "मत्रामिसम्झकस्येति वक्तव्यम्" [वा०] इह मा भूत् । प्रातःकल्पम् । मुहुः काम्यति । "मेरेव काम्ये धमध्यम्" [षा०] इह मा भूत् । गीः काम्यति । धूः काम्यति ।
इणः षः ॥१४॥२७॥ इण उत्तरस्य सकारस्य पकायदेशो भवति कवर्गफ्वर्गादौ श्ये परतः । सर्पिष्कल्पम् । मपिकः । सर्पिष्काम्यति । “कुप्रोस्स्ये" [५२६] इत्यनेन निवृत्तस्य सकारस्य पत्थमनेन विधीयते इति लक्षगमिदमत्रिकारश्च । इत ऊर्च यत्सत्यं विधीयते तस्य इण उत्तरस्य पत्वं भवतीत्येतदधिक्रियते ।
हदुदुजोऽत्यपुमुहुसः ॥५॥४॥२८॥ त्ये हि पूर्वेण सिझमत्यार्थोऽयभारम्भः । इकारोकारोकोः रेफस्य सकारादेशो भवति कुप्वोः परतः त्यपुम्मुहुसो वयित्वा । "निदुहिराविश्चतुःप्रादुषः प्रायः प्रयोजयन्ति' निष्कृतम् । निष्पीतम् | बहिष्कृतम् | बहिण्यौतम् । आविष्कृतम् | आविष्पीतम् । वनुष्कुण्डिका। मनुष्कण्टकः । चतुर्यु कण्टकेषु भवः इत्या | हृदऽर्थे रसे कृते "रस्योयनपत्ये" [१४] इत्यरण उप । प्रादुकृतम् । प्राप्पीतम् | सर्जन “इणः घ" [५।।२५] इत्यनुवर्तनात् षत्वम् । तपरकरणं किम् ? गीः करोति । अत्यपुग्मुहुस इति किम् ? मुनिः करोति तपम् | पटुः पठति । पुंस्कामा । मुहुःकामा। ननु पुंस्कामेत्यत्र रेफाभावात् प्रतिषेधोऽनर्थकः । लक्षणान्तरेण सत्वस्व विधानाच पत्वप्रतिषेधोऽव्ययुक्तः । नैष दोषः । उक्त हि भाष्ये अविशेषण सत्यमुक्या
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०५ ० ४ सू० २६-३४ ]
महावृतिसहितम्
४०५
"इणः षः” [५।४।३७] इति षत्वं विधीयते इति प्रातिरस्ति । इह मातुः करोति । पितुः करोतीति "रात्सः " [ ५१२१४२ ] इति सकारस्य खे कृते नायं यस्य रेफ इति कस्मान्न पत्वम् । कस्कादिषु भ्रातुष्पुत्रग्रहणं शापकमेका देशनिमित्तकस्य न भवति । नकुल्यम् । दौपुरुष्यम् । बही कृतम् इत्यत्र बहिरङ्गत्वादप्पत्रियोरसिद्धत्वात्वम् ।
नमःपुरसोस्योः || ५|४२॥ व्व इति निवृत्तम् । नमम् पुरम् इत्येतयोस्तिसंज्ञकयोः कस्य सकारा देशो भवति कुप्योः परतः । नमस्कर्ता । नमस्कतुम् । नमस्कर्तव्यम् । पुरस्कर्त्ता । पुरस्कर्तुम् | पुरस्कर्तव्यम् | नमः शब्दस्य "साचादादिः " [१/२/१४३ ] इति तिसंज्ञा वर्तते ।
तिरसो वा || ५|४|३०| तिरसो रेफस्य वा सकारादेशो भवति कुवोः परतः । तिरस्कर्ता । तिरस्कृत्य | तिरः कृत्य । " सिरोऽन्सदों" [ १२ १४० ], " वा कृत्रि” [ १।२।१४१ ] इति तिसा । दह तिरस्तिस विशेष विषयकारकम् । तेनान्तर्द्धां विषये " या कृमि" इति सञ्ज्ञाविरहेऽपि सत्यम् | तिरस्कृत्वा । तिरः कृत्वा । तिनकस्येति किम् ? तिरः कृत्या कारादं गतः । नात्रान्तर्द्धिः प्रतीयते । अन्तरेण कृत्वा गत इत्यर्थः । मीन्येन गच्छति ।
-
सुधः ५२४ ३१ ॥ सुजन्तस्य पदस्य यो रेफस्तस्य वा सकारादेशो भवति कुप्वोः परतः । द्विष्करोति । द्विष्पचति | त्रिष्करोति । त्रिष्पचति । चतुष्करोति । चतुष्पचति । अन्यस्मिन् पक्षे " पच" [५४२२] इत्येष विधिः । द्विःकरोति । द्विः करोतीत्यादि योज्यम् । द्वौ वारौ करोतीति विगृह्य “द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच्” [४२२५] इति मुच् । द्वित्रिभ्यां परस्य अत्यम्मुद्दसः इति प्रतिषेधादप्राप्तं चतुःशब्दस्य तु "दुदुः " [ ५४२८] इति प्राप्तं सत्यं विकल्प्यते । "इणः षः " [ ५४१२७] इत्यधिकारात्पत्वम् ।
सोः सामर्थ्यं ॥ ५|४|३२|| इस उस इत्येतयोरेक्स्य सकारादेशो भवति सामर्थ्ये सति कुम्बादिना । सर्पिष्करोति । सर्पिः करोति । सर्पिष्पवति । सर्पिः पित्रति । धनुष्करोति । धनुःकरोति । धनुष्यतति । धनुः पतति । सर्पिर्धनुःप्रभृतयः शब्दा इसुसन्ता व्युत्पाद्यन्ते इति दर्शने यस्य नेत्यप्राप्ते अव्युत्पत्तौ "दुदुङ:" [५/४/२८] इति प्राप्त विकल्पः । सामध्ये इति किम् ? तिष्ठतु सर्पिः पितु पयः । ननु पदाधिकारे समर्थपरिभाषा व्यापारात् सामर्थ्यग्रहणं किम् ? कवर्गेपवर्गादिना पुना व्यपेक्षा लक्षण एवं सामथ्र्य यथा स्यादित्येवमर्थम् । इह मा भूत् । सर्पिः कालकम् । यजुः पीतकमिति । सापेक्ष समर्थमिति नायं पन्नस्तत्र स्थितः । तेनेापि गमकत्वात्सत्वम् । देवदत्तस्य सर्पिष्करोति ।
सस्से स्थस्य || ५|४|३३|| सुसो रेकस्याद्युस्थस्य सकारादेशो भवति । सर्पिकुfeet | सर्पिष्पात्रम् । धनुष्कण्वः | धनुष्पतिः । पुनः सग्रहणं नित्यार्थम् । श्रस्थस्येति किम् ? परमसर्विः कुण्डिका । पूर्वेणान्यार्थीमात्रे विकल्पो न भवति । यदा तु व्यपेक्षा सामर्थ्यम् तदा स्थस्यापि पूर्वे विकल्पः | परमसर्पिष्करोति । परससर्पिः करोति । इदमेवास्थस्येति प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् " इसुसोः " [ ५४४३२] इत्यत्र " महणे यस्मात्स तदादेः " [ प० ] इति नियमाभावादधिकस्यापि ग्रहणम् ।
क्रूकमिकंसकुम्भकुशाकर्णी पात्रेऽतोऽः || ४|४|३४|| कृ कमि कंस कुम्भ कुशा कर्णी पात्र इत्येतेषु परतः अकारत उत्तरस्य रेफल्यावस्थस्य सकारादेशो भवति । कृकम्योः सर्वैत्यान्तयोर्ग्रहणम् । श्रयस्कारः । यशस्कारः । तपस्कामः । यशस्कामः । अयस्कान्तः । अयस्कंसः । पयस्कंसः । कंस इति कमेरव्युत्पचिप पृथग्ग्रहणम् । अवत्कुम्भः | “मृद्महये लिङ्गविशिष्टस्थापि” [ प० ] श्रयस्कुम्भी । पयत्कुम्भी । गौरादित्वान्ङी । श्रयस्कुशा । पयस्कुशा । अव कर्णावस्याः "मासिको दरौड ” [३।११४८ ] श्रादिना ङी । श्रकर्णी । पथस्कर्णी । शुनकस्तु "कस्कादी” [ ५४३६] । अयस्पात्रम् । पयस्पात्रम् । यस्पात्री । पयस्पात्री |
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५०६
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ श्र० ५ पा० ४ सू० ३५-४६
कुकम्यादिग्रहणं किम् ? पयःपानम् । श्रत इति किम् ? यीःकारः । धूःकारः । तपरकरणं किम् ? माः कामः । भास्कर इति " कस्कादी" । अमेरिति किम् ? प्रातःकारः । स इत्येव । यशः करोति । अवस्थ त्येत्येव | परमयशःकारः । कमेरङिन्तस्य सूत्रे निर्देशः किम् ? यस्कान्तः ।
शिरोऽधसोः पदे || ५|४|३५|| शिरस् अवस् इत्येतयोरेकस्य सकारादेशो भवति पद परतः । शिरस्पदम् । अवस्पदम् । मयूरव्यंसकादित्वात्सः । से दूत्येव । शिरसः पदम् । श्रथस्येव | परमशिरःपदम् ।
कस्का ||२५|४|३६|| करक इत्येवमादिषु रेफस्य सकारादेशो भवति । यथा के तत्रैव तेषां साधुत्वम् । करूकः । किमः वसन्तस्य वीप्सायां द्वित्वम् । कौतत्कुतः । समुदायस्यामृत्त्वेऽपि वचनात् तत आगतैऽर्थेऽस् । भानुष्पुत्रः । सेऽपि "ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धात्" [४।२।१३६ ] इत्यनुपू । “इणः षः" [ ५४।२७] इति त्वम् । शुनस्कर्णः असज्ञायां "ताया आक्रोश" [४।३।१३४ ] इत्यनुपू । सञ्ज्ञायां तु श्वकर्ण इति । मपरकालः | सबस्क्रीः | सम्पदादित्वात् क्विप् । तत्र भवः सः । तमकाण्डम् । स्काण्डम् | तपस्काण्डम् । मेदसिएड: । श्राकृतिगसोऽयमविद्दितलक्षणं सत्यमिति द्रष्टव्यम् ।
इकोः सः पः ॥ ५|४| ३| इणः कवर्गाच्चोत्तस्य सकारत्य पत्वं भवतीत्वेषोऽभिकारो वेदितव्यः 1 बदवति “त्यादॆशयोः” [५।४।३] । मुनिषु देवेषु | गर्छु । वशन्तु । प्राक्षु | उ । सिदेव | सुष्वाप । इएकोरिति किम् ? यास्यति । "क्षियात्रीः प्रपेषु" [५/३/१०२] इति निर्देशादिस्परेण गकारेण गृह्यते । स इति स्थानिनिर्देशो रेफस्य स्थानित्यनिवृत्त्यर्थः । पुनः ग्रहणं कुप्वोरित्यस्य निवृत्यर्थम् [५४७६] इति प्रतिषेधात् पदस्येत्येतदनुवर्तमानमिह विशेषणरूपेण सम्बन्ध्यते ।
उत्तरत्र "नाद्यन्ते "
।
नुम्शर्व्यवायेऽपि || ५ |४| ३८ || नुम्ध्यवावे शख्यवाये व्यवायेऽपि इसकोरुत्तरस्य सकारस्य प्रकारादेशो भवति । सपौषि । धनूंषि । अत्र नुमादेशी नुम् । तेनेह न भवति । पुंसु । शर्व्यवाये | सर्पिषु | धनुष्डु | रैः सत्वे कृते वरस्य पत्यम् ।
[ त्यादेशयोः || २४|३६|| शास्वस्त्रसाम् ||५|४|४०|| पणि वाणिस्तोरेव ॥ ५२४२५४१ ॥ सस्विदिस्वदिसः || ५|४|४२ || प्राक् सितादद्यापि || ५|४|४३|| स्थादेश्चेन चस्य ॥ ५२४४४ ॥ गेः सूञ्स्रुसोस्तुस्तुभः ॥५|४|४५॥ ]
• • • • • • • • • • • • •म इति पत्वे यमाश्रीयते । श्रमिष्यावित्यत्र चत्व टवर्गः स्यात् । चस्य च गः परस्य सत्त्वं भवतीदमपि नियमार्थं वचनम् । श्रभिषिपिक्षति | परिषिषिति । अत्र द्विः प्रयोगो द्वित्वं गोः मन इत्येव त्वं सिद्धम् । "सि सत्यारम्भो नियमाय ।" स्थादीनामेव वच्यमाणानां चस्य पत्वम् । चेन च व्यवायेनान्येषां सुनोत्यादीनाम् । अभिपति | अभिसिषासति । म्यादीनां चस्यैत्रेति न शङ्खघम् ....ये विधान
मनर्थं स्यात् ।
स्थासेनय से धसिचसज्जस्वाम् ||५|४|४६॥ गेरिति वर्तते । गेः परेषां स्था से नय सब स्वञ्ज इत्येतेषां सकारस्य पत्वं भवति । श्रभिध्यास्यति । परिष्टात्यति । श्रय न्यवाये - अभ्यष्ठात् । पर्यात् । चेन च व्यवाये - श्रभितष्ठ । श्रभिषेणयति । अभ्यश्रेणयत् । अतिविषेषयिषति । अत्रादेशसकाराभावादप्राविधिः । सेव इति सौत्रादिकस्य ग्रहणम् । अभिषेधति । निषेधति | अभ्यत्रेधत् । न्यषेधत् । चस्य च । अभिषिषेध | निषिषेध | अभिषिन्वति । श्रभ्यषिञ्चत् । चेन च व्यवाये - श्रभिषिषिक्षति | अभिषजति ।
१. प्रतिषु [ ] कोष्ठकान्तर्गतानां सूत्रायां वृत्तिस्त्रुदिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्र पञ्चाभ्यामनुसृत्या
निर्दिष्टानि ।
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प्रा० ५ पा० ४ सू० ४७-५५] महावृत्तिसहितम्
४०७ अभ्यषजत् । चेन र व्यवाये-अभिषिक्षति । अभिष्वजते । अभ्यष्वजत् । चेन च व्यवाये। अभिषिप्वङ क्षते । गेरित्येव । दधि सिञ्चति ।
सदोऽप्रतेः शयामा अप्रतगः परस्य सदेः सकारस्य घत्यं भवति | अभिषीदति । नियोति । अभ्यषीदत् । भ्यपीदत । चस्य । अमिषिपत्सति । अभिघसादेत्यत्र “सदिस्वज्योः परस्य बिटि" [५/ ४] इति धोः पत्वप्रतिपेथः । अप्रतैरिति किम् ? प्रतिसीदति ।
स्तम्भः ॥१४४|| गेरिणः परस्य स्तम्भः सकारस्य पत्वं भवति । अभिप्रश्नाति । प्रतिष्टभ्नाति । अभ्या: भ्नात् । पर्यष्टम्नात् । चेन च व्ययाये-अभिलष्टम्भ । प्रतिताष्टभ्यते । स्तम्मिा सौत्रो धुः । तस्य अशेपदेशत्यादप्रासे प्रतिषिद्धे या प्रत्वे सूत्रं प्रतिमङ्ग्रहार्थम् । उत्तरार्थं च पृथक्करणम् ।
श्रालम्यनाविदूरेऽवात् १४४६॥ अनिणर्थ आरम्भः । अयाद्गेहत्तरस्य स्तम्भः सकारस्य पत्य भत्रति श्रालम्बने विदरे चार्थे । श्रयष्टभ्य श्रास्ते । अवारम्नाति । बापन्नात् । अवतष्टम्भ । अविदूरे-अवष्टत्रे सेने | अवष्टब्धा शरत् । आलम्चनाविदूरे किन् ! अवस्तब्धो वृषभः । विदूरप्रतिषेधान्नानिदूरमामन्नं च सगृहीतम् ।
वेश्च स्वनोऽशने ॥५॥४॥५०॥ बेरवाञ्चोत्तरस्य स्त्रमः सकारम्य पल्वं भवन्यशनेऽथे । विष्वति | मशब्दमश्नातीत्यर्थः । अवाधणति | व्यवणत् । अयायणन् | चेन च व्यवाये -विप वाण | अपवाण । विषवण्यते । अशन इति किम् । विस्वनति । अवस्वनति मृदङ्गः । नात्राभ्यवहारविशेषः ।
परिनिधिभ्यः सेवसितसय १५॥ परि दिदि इत्यनेपाः राहा से गित मन इत्येतेषा सकारत्य पो भवति । सेव इति भौवादिकः सेवार्थों धुम्रयते । परिपेयते । निषेयते । वियते । पर्यचन । न्यपेवत । ध्यषेधत | चेन व्यवाये-परिषिविपते । परिपितः । निषितः । विधितः । पग्धिक । विपयः । विषयः । घिन बन्धन इत्यस्य तान्तस्याजन्तस्य च महशम् । केचित्तु-सह (योगाकरणान्नियमार्थमपा) अहमिच्छन्ति । एतेभ्य एव परस्य फलमिति । सेवादीनां खरितल्याभावाश्यासडल्य न भवति ।
मित्रुसहसदस्तुस्वजाम् ॥॥॥५२॥ पारेनिदिभ्यः परेषां सिव सह मुर स्नु, स्वज इत्येतेषां मकारस्थ पो भवति । परिषोन्यति । निषीवति । विसाव्यति । परिवहते । विवहते । निपढ्ते । मुट् परिमेय प्रयोजयति । परिकता । परिष्करोति । "संपर्युपास्कृमः सुट भूषे" [४।३.११०] इति सुट् । तत्याना देश वादप्राने इतरयोनाद्यन्त इति प्रतिनिद्धं पत्वे वचनम् । गैः परयोः पयसिद्धः स्तुस्वञ्जोहणमुत्तरार्थम् । अटो व्यवाय विकल्पो यथा स्यात् ।
वाटा श|५|| सिवादीनामटा व्यवाये या पो भवति । पर्शिनवेरिति कति । पर्यवीव्यत् । न्यग्रीव्यत् । पर्यसीव्यत् । न्यसीव्यतू । व्यपीव्यत् | पर्यषदत । व्यसीव्यत् । न्यषहत । व्यपह्त । पर्यसहत । न्यसहत । व्यसहत ] पर्यष्टोत् । न्यष्टोत् । व्यष्टोत् । पर्यस्तोत् । न्यस्तोत् । व्यस्तोत्। पर्यःवजत | स्थावजत । व्यवस्त । पर्यस्खजत । न्यस्वजत । व्यस्खजत । सिवुसहसयामप्राप्ते स्तुस्व प्राप्ते विभाषा |
निव्यभ्यनुपरे स्यन्वोजीवे ॥५४ा नि वि अभि अनु परि पन्यतेभ्यः परस्य स्यन्दैः सकारस्य वा पत्रं भवन्यजीवे । परिष्यन्दते । नियन्दते । विष्यन्दते । अभिष्यन्दते । अनुप्यन्दते । विस्यन्दते । अभि. स्यन्दते | परित्यन्दते जलम् । अजीव इति किम् ? अनुस्यन्दते मत्स्यः । अोव इति पर्यु दासोऽयम् । जीवा जीवसमुदायो जीवादन्यो भवतीति विकल्पः सिद्धः । अनुष्य-देते मत्स्योदके । अनुस्पन्देते । अमाप्ते विकल्पः ।
वे स्कन्दोऽते ॥१४॥५५॥ वेरुत्तरस्य स्कन्दः सकारस्य या पत्वं भवत्यने परतः । विपन्ना। विष्कअनुम् । विस्कन्ता | विस्कन्तुम् । अत इति किन ? विस्कन्नः । विस्कनवान् ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ ० ५ पा० सू० ५६-६५ पक्षात एक राकारस्य के पति । परिष्कन्ता । परिल्कन्ता | तराशकेsपि यथा स्वादिति योगविभागः । परिष्करणः | परिष्कन्नः ।
परिस्कन्दः प्राच्यभरतेषु || ५|४|५७॥ प्राच्यभरतेषु परिस्कन्द इति निपात्यते । पचाद्यचि पूर्वेण पक्षे प्राप्तस्य प्रत्यस्याभावो निपात्यते । परिस्कन्दो नर्शत | प्राच्यभरतैष्विति किम् ? परिष्कन्दः । परिस्वदः ।
४०=
स्फुरिस्फुल्योर्निनिवेः ॥ ५४४८ ॥ नि नि विइत्येतेभ्यः परयोः स्फुरि स्फुलि इत्येतयोः सकारस्य वा पारो भवति । शर्व्यवायेऽपि त्वम् । निःष्फुरति । निःस्फुरति । निष्कुति । निस्फुरति । विष्फुरति । विस्फुरति । निःफलति । निःस्कुलति । निष्फलति । निस्कुलति । विष्फुलति । विस्कुलति 1
वेः स्कम्भेः षः ॥५॥४॥५६॥ रुप्तरस्य स्कन्नाः सकारस्य षकारो भवति । विष्कम्नाति । विष्कम्भकः | पुनः ग्रहणं नित्यार्थम् | स्कम्भः सौत्रो धुः प्रोपदेशः |
इणः षीध्वं लुलिटां धो गोढः || ५२४१६०॥ इन्ताद्गोस्तरेषां पीलुलियां धकारस्य दकारादेशो भवति | च्योपीढ नुम् । 'लोबीयम् | अच्योवम् | अलोदवम् | "घि” [ ५।३।४३] इति सखम् । चट्वे । यवृदवे | "कृ" [५1१1११4] आदिने प्रतिषेधः । दण इति किम् ? कवर्गान्मा भूत् । पक्षीध्वम । यदीध्वम् ।
लुलियामिति किम् ? स्तुध्वे । स्तुध्वम् । लिति कर्तव्यं षीध्वमिति किम् ? अधीयीध्वम् । स्तुबोध्यम् इत्यत्र मा भूत् । ध इति किम् ? पीवमित्यत्र परस्यादेर्माभूत् । गोरिति क्रिम ! परिकेविषीध्वम् । अत्र धोः पकारस्य ईशब्दस्य च समुदायः पीयशब्दो न तु गोः परः । अर्थबहरापरिभाषा चानित्या । तेन “अनिनस्मन्ग्रहणाम्यर्थंबता चानर्थकेन" [५० ] इति सिद्धम् ।
बेटः || ४|६|| इन्तात्गोरुसरो यः इट् ततः परेषां पीलुलियां
दकारादेशो वा भवति । इय् प परत्वं श्रुतिकृतमाश्रीयते । लबिपीद्यम । लविषीध्वम् । इट इसग्रहणेन ग्रहणात् । पूर्वेण नित्ये प्रा'ते । श्रलवित्वम् । श्रलविभ्त्रम् 1 सेरिडागमो न लुङ इति तद्ग्रहणाभावाद् व्यवधानमस्तोत्यप्राप्ते लुलुविद्वे। लुवि । * लिट एवेागम इति प्राप्त विकल्पः । इयन्ताद्गोरित्येव । आसिनीध्वम् । उपदिदीयिध्वे इत्यत्र " is a " [४।४।६२ ] इति युटिं कृते इरान्ताद्गोरानन्तर्यमिटत्समुदायमतेन युटा चितमिति त्वं न भवति । तस्मान्न नित्यो विधिः । अस्ति यत्रेणन्ताद्गोहत्तरी हि तत्सम्बन्धी व यकारः । एवं तर्हि वेति व्यवस्थितविभाषा पूर्वमवलोकते । ततोऽत्रापि विकल्पः ।
I
सेलेः सः ||५||६२॥ अञ्जुले रुत्तरम्य सङ्गसकारस्य पत्वं भवति से । सङ्ग इत्यत्र " सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्टः " [५/२/११४] इति इस: स्थाने सुः । श्रङ्गुलिषो ददः । भङ्गलिङ्गा यवागूः । । भावे कर्मणि च । इत्येव अगुलेः सङ्गः । श्रङ्गुलिपदात्परस्य पदस्य पत्यारम्भाद्विभक्त्या व्यवधानेऽपि
I
प्रसज्यते ।
भीरोः स्थानम् ||५|४|१३|| मीरोदन्तरस्य स्थानसकारस्य पत्यं भवति से । भीरुष्ठानम्। सइत्येव । भीरोः स्थानम् | अधिकार युद्ध | पृथग्योगकरणं स्पष्टार्थम् ।
ज्योतिरायुषः स्तोमः ॥ ५४|४|१६४ || ज्योतिष आयुषु इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्तोमसकारस्य पो भवति । ज्योतिष्टोमः । आयुःष्टोमः । "शरि सरव " [ ५१४३२३] इति विसर्जनीयः सत्यं वा । तस्य त्वम्। ज्योतिः नोमस्य दाहकम् |
स्तुत्सोमा चाग्नेः || ५|४/६५ ॥ श्रग्नेरुत्तरयोः स्तुत् सोम इत्येतयोः स्तोमस्य कः सकारस्तस्य मे पो भवति । श्रनित् । चिन्तेन बाक्सः । ग्रग्नीषोमी । "गौण मुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् " [प०] इह न भवति । गुणसगुणी अग्निसमौ मनुष्यो । अत एवाग्नेरीत्वाभावः । अग्निष्टोमः । व्युत्पत्तिपत्रे "नाद्यन्ते" [६] इति प्रतिषेधः प्राप्तः ।
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अ० ५ पा० ४ सू० ६१-७२ ]
महावृत्तिसहित
be
मातृपितृभ्यां स्वसुः ॥५४॥६६॥ मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृमकारस्य यो भवति । मातृष्वसा । पितृष्वसा । श्रनादेशकारोऽयम् । स इत्येव । वाक्ये न भवति । मातुः स्वसा । पितुःस्वसा ।
वानुपि || ५|४|१६७॥ श्रनुषि से मातृपितृभ्यामुत्तरस्य स्वमकारस्य वा पो भवति । मातुःष्वसा । मातुःस्वसा । पितुःष्वसा । पितुः स्वसा । ताया अनुप् ।
frrige यच्यस्तः ॥ ५४६८ ॥ स इति निवृत्तम् । गेरिंगः प्रादुःशब्दाच्चोत्तरस्य अन्तेः सकारस्य यकारादी अजादौ च पत्वं भवति । श्रभिष्यात् । निध्यात् । प्रादुयात् । श्रभिवन्ति । निवन्ति । प्रादुपन्ति । भिप्रादुर्भ्यामिति किम् ? दधि स्थात् । मधु स्यात् । पचोति किम ? अनुवः । अनुमः । श्रस्तेरिति किम् ? केवलं सकारं क्रियावाचिनं प्रति गिसजायपत्यमत्र स्यात् । अनुसूते इति श्रनुमः । श्रनुवः श्रपत्यम् श्रानुसेपः } "चतुष्पाद्द्भ्यो ढल्” [३|१|१२३] इति दृञ | "ढेः खम् " [ ४|४|१३५] इति उकारस्व खम् । प्रादुःशब्दस्य तु कृभ्वस्तिष्वेव प्रयोगात् प्रत्युदाहरणं नास्ति |
निर्दुः सुपिसृतिसमाः ||५|४|६|| निस् दुस् सुत्र इत्यभ्यो विसुपितिसमानां सकारस्य यो भवति । निःशुप्तः । दुष्युतः । मुकुस | विदुः । निःवृत्तिः । दुतिः । सुतिः । निःश्रमः | दुःषमः | सुरमः । विषमः । “गिप्रकरणे सर्वत्र सुदुर्ज्या योगे पवं नेष्यते " इति वचनम् । “सुदुखो प्रतिषेधो नुं विधिनत्यमाषणध्येपु" इति वचनात् । सम इति सर्वादिषु पठ्यते । तस्य "सम टम वैकल्ये" [ धा० ] इत्यनेन व्युत्पत्तिपक्षेऽपि ग्रहणम् । सूतिरिति सूतेः सूयतेः मुक्तेश्च क्यन्तमेत्र रूपं समशब्दसाहचर्याद्गृह्यते । तेन विसृतमित्यादौ पत्वं न । सुपीति विकृतनिर्देशादिद मा भूतु विश्वन इति । agart तर्हि कस्मान्न भवति । "हलोऽनावे: ” [५।२।१६१] इति ले कृते पश्चाजिति सुपिरत्र नास्ति । नैत्र युक्तः समाधिः । हलोऽनादेः खात्मानिर्भवतीत्युक्तम् । एकदेशविकृतस्य चानन्यत्वात् सुपिरेवायमिति प्राप्नोति । स्थादीनामेव चस्य नान्येषामित्यपि नास्ति । सुनोत्यादिषु स नियमों निवर्तकः । एवमप्यनर्थकोऽयं मुधिः । द्विः प्रयोगेऽपि द्वित्वे समुदायस्यैवार्थवसा न केवलस्य धोर्नापि चत्य । चिषुपुनविपरित्यत्र "पूर्वत्रासिद्धीम” प० ] इति सुपिः पत्यभूतो द्विरुच्यते । रोरित्यत्र । निर्गता सूतिः निःसृतिः ।
विरामी परेः स्थलम् ||५||३|७० ॥ विकु शमी परि इत्येतेभ्यः परस्य स्थल सकारस्य पत्यं भवति । विष्टलम् | कुष्टलम् | विक यदि तिसौ तदा स्थलशब्देनान्तेन "तिकुप्रादयः " [१1३1८१] इति सः 1 श्रतिसञ्ज्ञा चेत्तासः । शमिष्टतमिति सज्जायां "वे दयापोः क्वचित् खौ " [४।३।१०३] इति परिष्टलम् |
श्रम्बाम्बगोभूमिसव्यापद्वित्रिकुशेकुशवगुमञ्जि पुञ्जिपरमेबहिर्दिव्यग्निभ्यः
स्थः
॥ ३५।४।७९ ॥ श्रम्बा अम्ब यो भूमि मध्य अप द्वित्रि कु शेकु शङ्कु अङ्ग मञ्जि पुजि परमे बहि दिन अग्नि इत्येतेभ्यः उत्तरस्य स्थासकारस्य यो भवति । अम्बालः | सज्ञायां तु "वे ङचापोः क्वचित्खी च " [४/३/१७३ ] इति प्रादेशे सत्यस्वष्टिः | अम्बष्ठः । गोष्ठः । गावत्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति कविधानम् । भूमिष्ठः । सन्वेंद्रः सारथिः । अपष्ठः । द्विष्टः । | कौ सितं तिष्ठतीति कुष्टः | शेकुष्टः | शकुष्ठः । अष्टः | मञ्जिष्टः । पुजिः । परमेष्ठः । वहिष्ठः । दिविष्टः । श्रग्निष्टः । सर्वत्र " सुपि" [शरा] “स्थः” [२] इति कः । स्य इत्यकारान्तो निर्देशः किम् ? गोस्थानम् । गोस्थितिः । अथ सत्येदा सारथिः । परमेष्ठी विधिः | "परमे कितु" [ उ० सू० ] इति इनि व कथं त्वम् ? मुषामादितौ द्रष्टव्यौ । "पे कृति बहुलम् [४।३।१३२] इतपोऽनुपू ।
सुपामादिषु च ॥ ५|४|७२ ॥ सकारस्य यो भवति । स्यतेर्मनि साम । शोभनं सामाऽस्व सुपामा । एवं निपामा | दुपामा । सुषेधः । निःषेधः । दुःषेधः | "सुः पूजायां न गिति" [११४१७ ] इति सः निर्युपोश्च क्रियान्तरचिपकत्वादगत्वमिति गिलक्षणं पत्यं नास्ति । गित्वेऽपि सेधते: “सेधो गर्ता” [५|४| ७६ ]
R
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जैनेन्द्र-व्याकरणम
४१०
[अ०५० सू०७३-७८
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इति प्रतिषेधो मा भूत् । सुवन्धिः । निःषन्धिः । दुःषन्धिः । श्रयमनादेशसकारः । सुष्ठु | दुष्ठु | तिष्ठतेरौणादिकः कुः । श्रत्र "नाथन्ते" [५२४७६ ] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । गौरिसक्थः । “असिसज्जियां मिथः " [ उ० सू० ] इति विथः । गौर्याः सवयीय सक्त्यि यस्येति चसे “स्वाङ्गाचि समनः " [ ४।२।११३ ] इति टः सन्तः सन | "मोसो इति” [४.३०] इति टिलए " स्थापोः " [४|३|१७३] इत्यादिना प्रादेशः । प्रतिष्णिका | प्रतिपूर्वात् स्नातेः " श्राती गौ" [२३] इति कः । टापू । तदन्तात् स्वार्थे कः पुनष्टाप् “केऽणः” [५/२/१२५] इति । प्रत्ववस्थेत्यादिनेत्वम् । नौवेदिका । दुन्दुभिमेयनम् | सपा | "पुति सन्ज्ञायामगकारात्" [ग० सू०] । हरिषेणः । साधुषेणः । एवीति किमर्थः १ दरिसन्धिः । सञ्ज्ञायामिति किम् ? पृथ्वी सेनाऽस्य पृथुसेनः । श्रगकारादिति किम् ? विश्वक्सेनः | इसको रित्येवा सर्वसेनः 1 "नक्षत्राचा एतिज्ञायामगकारात् " [ वा० सू० ]। रोहिणिपेणः । रोहिणिसेनः । भरणिपेणः । भरणिसेनः । अगकारादित्येव । शतभिषक्सेनः । श्रविहितलक्षणं पत्यमिह द्रष्टव्यम् ।
प्रात्यमिङस्ति ॥ ५४॥७३॥ प्रादुत्तरत्व अमिङ सकारस्य यो भवति तकारादौ हृति परतः । सर्पिष्टरम् | सर्पिष्टमन् | चतुष्टयम् । सर्पिष्ठा | सर्पिष्ट्वम् । सर्पिष्ठो विभेति । पदान्तेऽपि पत्वार्थमिदम् । प्रादिति किम् ? गीस्तरा । धूस्तरा । छतीति किम् ? सर्पिस्तत्र । अभिङ इति किम् ? मिन्युस्तराम् | हिन्दुस्तराम् | तकारादात्रिति किम् ? सर्विश्साद् भवति । पूर्वस्य मा भूत् । परस्य "सात्" [५४७७ ] इत्येव प्रतिषेधः सिद्धः ।
निसस्तपतावनासेवने || ५१४ ७४ ॥ निसः सकारस्य तपती परतः षो भवत्यनासेवनेऽर्थे | मुहुर्मुहुः क्रियायाः सेवनमा सेवनम् । निष्टतं सुवर्णम् । निस्तप्ता अरातयः । सकृत्तता इत्यर्थः । अनासेवन इति किम् ? निस्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः । मुहुर्मुहुस्तपतीत्यर्थः । इदमध्यन्ते विधानार्थम् । धुनिर्देशार्थस्तिपा निर्देशः ।
निष्णात नदीष्णात प्रतिष्णाताभिनिष्टानकपिष्ठलप्रष्ठधिष्टर विष्टार गधिष्ठिर युधिष्ठिराः ||५||७|| निष्णात नदीष्णात प्रतिष्णात श्रभिनिष्यन कपिष्टले प्रष्ट विष्टर विष्टार गविष्ठिर युधिष्ठिर इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । "निनदीभ्यां स्नातस्य कौशले पव्वम्" । निष्णातः काव्यकरणे | नदीष्णातः । नदीस्नाने कुशल इत्यर्थः । निस्नातनदी स्नाताचन्यत्र । योषि "सुपि" [२७] "स्थः " [२२] इति योगविभागात्के कृते नदीष्य इति । तस्य सुषामादिषु षत्वम् । प्रतिष्णातं भवति सूत्र चेत् । प्रतिस्नातमन्यत् । श्रभिनिःष्टानो भवति वर्णश्चेत् | अभिनियों परस्य स्तन ध्वन इत्यस्य कर्तरि घत्र रूपम् । श्रभिनिःस्तन्यत इति श्रभिनिटानी विसर्जनीयः | अभिनिःस्तानोऽन्यः । कपिष्ठलो भवति गोगशब्दश्चेत् । कपिष्ठलोऽपत्यं यस्य कापिष्ठलिः । आद्यः पुमानपत्यसन्ततेः प्रवर्तविता लोके गोत्रम् | ततोऽन्यः कपिस्थलम् । पृष्ठ इति प्रात् स्थस्य पत्यम ग्रामिण प्रतिष्टते इति प्रष्ठो देवदत्तः । प्रष्टो गौः । प्रस्थ इत्यन्यन्त्र | अग्रेग्रामिणीत्यत्र " कुमति" [ ५/४/१७] इति णत्वम् | "न भाभूपूज्क मिगमि " [ ५|४|११३ ] इति : कास्थस्य प्रतिषेधः । "तेः स्तरस्य वृक्षासनयोः
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म्" । विप्टरो वृक्षः । विष्टरमासनम् । त्रिस्तर इत्यन्यत्र । “वेः स्वारस्य छन्दोनाम्नि षत्यम्" । विष्टास पक्तिछन्दः । विष्टारः बृहती छन्दः | "इन्दः खौ” [ २।३।३२] इति घञ् । पदस्य विस्तार इत्यन्यत्र “गवियुधिपूर्वस्य स्थिरस्य सञ्ज्ञायां पश्वम्" । गविष्ठिरो युधिष्टिरो गोशब्दादहलन्तादपि निपातनादीपोऽनुप् । विरथ युधिस्थिर इत्यन्यत्र ।
नाधन्ते ||५|४|७६ ॥ पदस्य खादावन्ते च त्वं न भवति । दधि सिञ्चति । मधु सित | अग्निस्तत्र | वायुस्तत्र | "इएको” [५/४/३७] "ध्यादेशयोः " [५५४।३३] इति प्रत्वे प्राप्त प्रतिषेधः ।
सात् ||५|४|७७॥ सादित्येतस्य च पत्वं न भवति । श्रग्निसात् । मधुसात् ।
सिचो यङि || ४७८ ॥ सिचो यङि परतः षत्वं न भवति । सेसिच्यते । "स्वादेशयोः " [५४ ३६ ] इति प्राप्तिः । अथामिसेसिच्यते परिसेसिच्यते इत्यत्र गिलक्षणं षत्वं कस्मान्न भवति ? " येन
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म. ५ पा० ४ सू०७१-८६] महावृत्तिसहितम्
४११ नाप्राप्तन्यायेम" [१०] "नाचम्ते" [41५/७६] इत्यत्वैव प्रतिषेधस्य बाधकं गिलक्षणं न सिचो यतीत्यस्य । अथवा "पुरस्तादपवादा अनन्तरान विधीम् बाधन्ते नोत्तरान्" [१०] इति यङि सर्वत्र प्रतिषेधः । यसीति किम् ? परिषिषिक्षति ।
सेधो गतौ ॥ ७॥ सेधतेर्गत्यर्थस्य पत्वं न भवति । अमिसेवति । प्रतिरोधति गाः । "स्थापन यसेध" [५/५६] इत्यादिना प्राप्तस्य प्रतिषेधः । गताचिति किम ? प्रतिषेधति पापम् | निवारयत्तीत्यर्थः । ।
निस्तब्धप्रतिस्तब्धौ ॥८॥ निस्तब्ध प्रतिस्तब्ध इतीमौ शब्दौ निपातयते । निस्तब्धः । प्रतिस्तब्धः। ते परतः “स्तम्भः" [पाध॥४] इति प्राप्ते प्रतिषेधः ।
सोढः ॥शक्षा८॥ सह सोढभूतस्य षत्वं न भवति । परिसोढा । परिसोढम् । एवं निसोटा । विसोदा । परिनिविभ्यः “सिचुसहसुट्स्सुस्वक्षाम्" [५४५२] इत्यनेन प्रातिः। सोदभूतस्य ग्रहगं किम् ? परिघहते । निषहते । सोढ इति सहे। सोदभूतस्यानुकरणं हसा निर्दिष्टः।
स्तम्भुसियुस कचि ॥४/८२॥ स्तम्भु सित्रु सह इत्येतेषां कचि परतः पत्यं न भवति । अभ्यतस्तम्मत् । पर्यतस्तम्भत् । “सम्भः" [५४५४८] इयटा चेन च व्यवाये गिनिमित्तं प्रतिषिध्यते । सिंथुसहोस्तु परिनिविभ्यः परयोः “वाटा" [५।४।५३] इति विकल्पः प्राप्तः | पर्यसीषिवत् ! न्यसीधिवत् । पर्यसोपहन् । न्यसीषात् । सर्वत्र गिमुक्ताणिच् क्रियसै । गिलक्षणस्य इत्यस्यार्य प्रतिषेधो न तु "त्यादेशयोः' [41॥३६] इत्यनेन चादुत्तरस्य व्यवहितत्वात् ।।
सुजः स्यसनोः ॥५॥४ामा सुनोतेः सकारस्य स्य सन् इत्येतयोः परतः पत्यं न भवति । अभिसोप्यते । परिसोयते । अभ्यसोष्यत । पर्यसोध्यत | समि। सुसूपत्ति । नैतधुक्तम् । “परिण चाष्णिास्सोरेव" [५/१] इति नियमादत्राप्रातिः । इदंतहि अभिसुस । अमाप "स्माई यष धस्य" [५५५] इति नियमादप्रामिः । तत्रोक्तम् । गिनिमित्तं स्थादीनामेव षत्वं नान्यस्येति । स्विपि तांदाहरणम् । अभिसुरः । रित्वे विसर्जनीये च कृते "पणि" [५४४१] इति नियमाभावाच्चात्परस्य प्राप्त पत्वं प्रतिषिध्यते । स्यसनोरिति किम् ? सुपाव ।
सदिस्वज्योः परस्य लिटि शा४॥ सदि स्वनि इल्वेतयोलिटि परस्य पत्वं न भवति । अभिषसाद । निषसाद । अभिषस्वजे। निषस्वजे। “लिटि स्वङ्गवा न खं भवतीत्युपसंख्यातम्यम्" [बा०] अभिषण्वजे । विषष्धजे । सदेश्नेन व्यवाये “सदोऽप्रत्तेः' [५।३।४७] इति स्यओस्तु "स्यासेनय" [५४४६] इत्यादिना प्रत्ये प्राप्त प्रतिषेधः ।
यो नो णः समाने ॥४५॥ पदस्येति वर्तमानं समान इत्यनेन समानधिकरणं जायते । पकाररेफाभ्यामुत्तरस्य नकारस्य णकारादेशो भवत्ति समाने पदे चेनिमित्तानमित्तिनौ भवतः । कुष्णाति । मुम्मानि । आस्तीर्णम् । विस्तीर्णम् । समान इति किम् ? मुनि यति । साधुर्नयति स्वर्गम्। "धिन्विकृणम्योर " [२/११७५] इत्यत्र णत्वनिर्देशात् ऋकारादपि परस्य णत्वं भवति | तिसृणाम् । मातृणाम् । षकारग्रहणमुत्तरार्थम् । अव्यवाये घटुत्वेनापि सिद्धमेतत् ।
अटकुप्वाङ्ययायेऽपि ॥ ८६॥ अट् कु पु आर इतथ्यवाये अन्यवायेऽध्यनेन प्रकाररेफाभ्यामुत्तरस्य नकारस्य गो भवति । अट । वर्षण | वृषेण । गिरिणा | मेकणा | कु | निष्करण । शुकरण | अर्कण । मूर्खेण | कोण । दीर्येण | पु । पुष्पेण | सर्पण | दर्पण । रेफेण । गर्भण । दर्भेण | धर्मेण । ग्राङ 1 पर्याणम् निरागीतम् । अङ्ग्रहणेनैव सिद्धे पाङ्ग्रहणं "पदम्यवायेऽपि" [५११११६] अस्य बाधनार्थम् । अादिष्वेकेनाकेन च व्यवाये रगत्वं ज्ञातव्यम् । उभयथा वाक्यपरिसमाप्तेराश्रयणात् । यथा गर्गः सह न भोक्तव्यमेकेनाके. नेन च सह न भुज्यते । इह कथं एवम् हणम् । छहणीयम् । "राष्ट्र महू तुंह हिंसाः " । तूं हणम् । तृहणीयमिति । अनुस्वारस्यायोगवाहत्यादडग्रहणेन महामति गत्वम् । तदुक्तम्-"प्रयोगवाहो योष्टस्तत्र तत्र
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[ अ० ५ पा० ४ सू० ८०-६०
ता भवेत्" इति । "रिवि रवि गती" इत्यस्य । रिश्वनम् । रिएवनीयम् । झयरत्वाभावादनुस्वागे नास्तीति एत्वाभावः । तृम्पणम् | तृम्फणीयमित्यत्र परस्वत्वस्यासिद्धत्वादनुस्वारोऽस्तीति एत्वं भवति ।
पूर्वपदात् खावगः || ४७॥ खु इति वर्तते । पकारकचतः पूर्वपदात् गकारान्तात् उत्तरस्व नकारस्य णो भवति विषये । पुष्पणन्दी । श्रीणन्दी । श्रीनन्दिशन्दस्य सुम्नादिषु पत्थं निषिद्धम् । खरणमः 1 बाश्रीः । खाविति किम १ शुकनासिकः । दीर्घनासिकः । इति किम् ? गवनम् | क्षुम्नादिषु नृनमनतृप्नोतिशब्दयोः प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् ऋकारस्थाने फादजंशेन व्यवहितत्वात् पदस्य णत्वं भवतीति एचप्रातिः | नियमार्थोऽयं योगः । पूर्वपदस्वायेव नान्यत्र । अथ पूर्वपदादेव खाविति कस्मान्न नियमो भवति । एवं सति खु नियमः स्वात् । अनुविषये पूर्वेण त्वसिद्धेः "वाह्माद्वानम्" [५/४१२] इत्वाचारम्भोऽनर्थकः स्यात् । यत्र से कृते समुदायाच्या विभक्ती तथा समुदायस्यैकपदत्वे पूर्वेण प्राप्तिरस्तीति नियमों घटते । पूर्व तु माणाययवापेक्षम् । पूर्वपदशब्दश्व सम्बन्धिशब्दः । तेनोत्तरपदस्थस्य नकारस्य णत्वं नियमो निवर्तयति न पूर्वपदस्थस्य नापि त्यस्थस्य 1 करणप्रियः | खारपायणः । करणं प्रियमस्य । खरपस्यापत्यमिति विग्रहः । श्रग इत्यनन्तरस्य प्रतिषेधः प्राप्नोतीति चेत् तत्र को दोपः ? खौ चाखौ च पूर्वेण त्वं स्यात् । एवं तर्हि लग इति योगविभागः । तेन विधिनियमयोः प्रतिषेधः |
यनं पुरगामिश्रकासिद्ध काशारिका कोटराग्रेभ्यः ||५||८|| खाविति वर्तते । गा मिश्रका सिद्धका शारिका कोटरा म इत्येतेभ्यः परं वनं विनम्यते । विनाम इति प्रत्यययोः स पृग्गादणम् | मिश्रावणम् । सिकावणम् । शारिकावणम् । कोटरावणम् । तासे कृते पूर्वपदस्य “गिरिवने किंशुककोटरायोः खाँ” [४|३|२२०] इति दीलम् । वनस्याये श्रवणम् | "राजदन्त" [११३४६६] ग्रादित्यात्पूर्वनिपातः । "ईपोल:" [४।३।१२७] इत्यनुपू । “सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः” । एतेभ्य एव वनं विनम्यते नान्येभ्यः । मनोहरवनम् | अथ पुरगादिभ्यो वनमेव विनम्यते नान्यदिति कस्मान्न नियमः । एवं सति पुगादिनियमः स्यात् । वनं श्वनियतं तस्य स्त्रौ पूर्वणैव त्वं सिद्धमित्युत्तरत्रे सावपि प्रादिभ्यः परं वनं विनम्यत इत्यपिशब्दोऽनर्थकः स्वात् | शायते पुरगादिभ्य एव धनं विनवते इति नियमः । पुरगादीनां कृतदत्यानामुच्चारणं किम् ? य यथा स्यात् । इदमेव ज्ञापकर्मनित्यं को दीनमिति तेन लम्बकर्णः । वि । ि कमलरु इत्येवमादि सिद्धम् ॥
प्रान्तनिःशरे क्षुप्तताम्रकार्ण्यखदिरपीयूनाभ्योऽखावपि॥५४॥
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श्रन्त निम् शर इक्षु लक्ष आम्र का खदिर पीयूक्षा इत्येतेभ्यः परं वनं विनम्यते श्रखावपि खायपि च । प्रवणम् । अन्तगणम् । निर्वणम् । शरनशम् । इक्षुषाम् | 'लक्षवणम्। कार्यवगम्। खटिराम पक्षावणम । गतं चनभ.. श्रन्तर्गतं दनम्, निर्गतं वनमिति विग्रहः । शरणादिषु वासः । ये श्रोषनितिशा न भवन्ति तेभ्यः खो खौ च पूर्वाभ्यामप्राप्ते विधिः । औषधि वनस्पतिशब्देभ्यस्तु खात्रमा विधिः । अतरसूत्रेण विक प्राप्ते नित्यार्थी वचनम् । अपिशब्दस्य पूर्वसूत्रे प्रयोजनमुक्तम् ।
विभाषीषधिवनस्पतिभ्यः || ४|४|१०|| ओषधिवनस्पतिशब्देभ्यः परं वनं विभाषा विनम्यते । श्रीषधिभ्यः- दूर्वाचान् । दुर्भावनम् | बीहिवणम् । श्रीहिवनम् । वनस्पतिभ्यः - करीरवणम् । करोवनम् । आरकरणम् | आरुकवनम् । व्यवस्थितविभाषाऽऽश्रयणात् द्वयक्ष स्त्र्वक्षरयोविकल्पः । तेनेह न भवति भद्रदारुचनम् | “ईरिकादिभ्यश्च न भवति " [अ०] । ईरिकाधनम् । तिमिरवनम् । समीरवनन् । खौ पुरगादिभ्य एव वनं विनम्यते इत्यखाचियं विभाषा । खौ त्वसिद्धत्वान्नियमेन वाध्यते । यदि खापि प्रयोगोऽस्ति विभाषेति योगविभापान्नियमनाचा द्रष्टव्या । बहुत्वनिर्देशः पर्यायार्थः । यह वनस्पतिग्रहणे वृक्षाणामपि ग्रहणम् । यतः— "फती वनस्पतिर्ज्ञेयो वृक्षाः पुष्पकोपगाः ।”
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महावृतिसहितम्
४१३
०५० ४० ११ - २६ ]
पुष्पफले अन्यतरचोपगच्छन्ति ये ते वृक्षाः । तत्र यो वनस्पतिः स वृक्षो भवत्येव । वृक्षस्तु नावश्यं वनस्पतिरिति वनस्पतिग्रहणं कृतम् । एतेभ्य इति किम् ? शिरीपवनम् । शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः तस्य वनम् । “वरणादेः” [३१२।६२ ] इत्युप् । उषि कृते "युक्तवसि लिक्स रूये” [998 ] इत्यनेन लिसोरेवातिदेशो न वनस्पतित्वस्येति गत्वाभावः |
अतोऽङ्कः ॥५४॥६२॥ चकारान्तात्पूर्वपदादुत्तरस्य ब्रहृनो नकारस्य णत्वं भवति । पूर्वाह्णः । श्रप राहुः | "पूर्वापर प्रथम " [ ११३/५३ ] आदि सूत्रेण पसः । " राजाहः सखिभ्यष्टः " [ ४२३] इति टः । "भ्योऽऽङ्कः" [४१२११०] हत्वनादेशः । श्रत इति किम् ? निरहः । दुरह्नः । निर्गतमहः । दुधमहः । तपरकरणं किम् ? परावृत्तमहः पराहूनः । ग्रहून इति सूत्रे वृत्तिघटितैकदेशो वान्तः । “सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्टः” [५२११४] इति तास्थाने यानिर्देशाद् व्याख्येयः । अहून इति अकारान्तनिर्देशाद्दीर्घाहुना शरदित्यन भवति । दीर्घाण्यान्यस्यामिति यसे “बोड्खे” [३।११६१] इति वा डीविधिः ।
बाह्याद्वाहनम् ||५|४|६|| कालसामान्ये बौदव्यं वाह्यम् । वाह्यादुत्तरस्य वाहनस्य एवं भवति | ऊह्यतेऽनेनेति वद्दनम् । प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽस् । अतो वा निपातनादुदीत्वम् । इक्षुवाहणम् । शरवाह - गम् । कर्मणि तासः । बाह्यादिति किम् ? सुरवाहनम् । सुरस्वामिकमित्यर्थः । एवं नरवाहनः । नात्र बाह्यात्परं वादनम्, किन्तु वाहनात् । वाह्यवाहकसम्बन्धे त्वं भवत्येव । सुखाणम् | नरवाहणम् । खौ पूर्वणसिद्ध नरवाण इति ।
पानं देशे ॥५४६३॥ ननकार एवं मात देशे गम्ये । सर्वत्र पूर्वपदस्थानिमित्तादिति वर्तते । कंपायप्रोगाः गान्धारयः । क्षीरपाणाः आन्ध्राः । सौवीरपाणाः द्रमिणाः । सुरापाणाः प्राच्याः । श्रतिशयो गम्यते । तास्याताच्छन्द्यमिति मनुष्याभिधाने देशाभिधानम् । पीयते इति पानम् । “युद्ध्या बहुलम् " [२|३|६४] इति कर्मणि यु । कपाय पानमेरामिति कर्तरि ता । देश इति किम् ? दाक्षिपानम् । श्रीखाना गोपालकाः ।
चा भावकर || १४६४॥ भावे करणे च य: पादस्तकारस्य वा रात्वं भवति । भावे-क्षीरपागम् | क्षीरपानं वर्तते । करो- पीयतेऽनेनेति पानः । वारिमाण: 1 वारिपानः कंसः । वेति योगविभागाद्विरिनद्यादिषु वा त्यम् । चक्रगदी । चक्रनदी । चक्रणितम्या | चक्रनितम्या |
मृदन्तनुभक्त्याम् ||५|४|६|| मृदन्ते तुमि त्रिभक्त्यां च यो नकारः तस्य निमिनाद वा णत्वं भवति । मृदन्दरों भावाविण । माचापिनी । श्रीहिंयापिणी । श्रीहिवाविनी । "प्रामोऽभीये" [२६] इति णिन् । नुमिं । भाषवावारिश | मापापानि । “लश्चयप्रतिपदोक्कयोः प्रतिपदोकस्थैच" [५० ] इति नुमो मृदन्तप्रहणेनाग्रहणम् । विभक्त्याम् भाषवापेण । मापत्रापेन । ब्रीहिंत्रण | ब्रीहिवापेन । नियमादप्राप्त विकल्पः । पूर्वपदादिति वर्तते तेन सम्बन्धादुत्तरपदं यन्मृत्सम् तदन्तस्य विकल्पः । तेनेह न भवति । भगिनी गर्ग भगिनीति | वदा शु गर्गभगशब्दान्मत्वर्थीय छन् तदा त्वं भवत्येव । गर्गभगिणीति । "पूर्वपदाखागः" [५१४८७] इत्यनेनोत्तरपदस्थस्य नकारस्य णत्वं निवर्त्यते । न यस्यस्येत्युक्तम् । यथा मातृभोगीण इत्यत्र समुदायस्य समानपत्ये । पुरुवारिंगी इत्यत्र विकल्पस्य हिरङ्गत्वादसिद्धत्वाच्चादिसूत्रेण नत्वम् । मायवापिणा मानवापिना इत्यत्र पूर्वपदस्थान्निमित्तात्परस्य विधिरिति । मृदन्तत्वाद्विकल्पः । वेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तनादिह न भवति । श्राचार्यमूना | क्षत्रियना । प्रपक्कानि । परिपक्वानि । दीर्घाही शरदिति ।
एकाच राः ॥४४॥६६॥ एकाच श्री पूर्वपदस्थानिमित्तावरस्य मृदन्तनु विभकीनकारस्य कारो भवति । ब्राहणौ । वृत्रहणौ । क्षीरपाणि । तुरापाणि । क्षीरपेय । सुरापेण । " प्रातः कः '
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४९४.
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
[रारा३] इति कः । सुरायां वाचि वित्रतेः “सुराशीध्वोः पिवः " [२/१३१२ ]
निस्वार्थम् ।
[अ० ५
कुमति || ४|४|१७|| कार्गवति च यौ मृदन्तनु विभक्ती नकारस्य णत्वं करयुग | इक्षुयुगे । अनेकाध्वर्थं वचनम् । काविति सिद्धे कुमतीति मत्वर्थीयः घौ प्रापणार्थम् । अन्यथा "येनाखि विधि" न्यायेन कबर्गादावेव स्यात् ।
० ४ सू० १७-१०१
इति टक् । पुनग्रहणं
भवति । इच्छुयुगियो । किम् ? अकबर्गादावपि
गैरसेऽपि विकृतेः ॥ ५४॥६८॥ गेरुत्तरस्य सामर्थ्याद्धर्विकारस्यासेऽपि शो भवति । श्रसे । प्रणमति । परिणमति । सेायकः । परिणायकः । विक्रियते इति विकृतिः नकारः । अवयवविकारे समुदायस्य धोर्विकारो ययैकदेशाऽलङ्कारेऽलङ्कृतो देवरस इति । ततो विकृति प्रति क्रियायोगात् प्रादीनां गित्वम् । गेरिति किम् ? मुनिर्नयति स्वर्गम् | प्रगता नायका अस्माद्मासात् प्रनायको ग्रामः । अपिग्रहणं किम् ? से पूर्वपदात् खाविति नियमात् एत्वं न स्यात् । ननु गत्वस्यासिद्धत्वान्न नियमप्राप्तिः । इदमेवापिग्रहणं ज्ञापकम् 1 "न योगे योगोऽसिद्धोऽपि तु प्रकरणे प्रकरणमसिद्ध ं भवति । तेन निष्कृतं दुष्कृतमित्यत्र " इणः वः" [५४२७] इति त्वे क्रियमाणे " इदुङ: " [ ५४१२८] इति सत्वं नासिद्धम् । विकृतैरिति किम् ? प्रनृत्यति । नर्तकः । यमोपदेशिको नकारो न तु " यो नः" [ ४ | ३ | ५४ ] इत्यनेन विकृतः । " नृतिनन्दिन किनानाथदर्ज"
नशेः शः ॥ २४॥६६॥ नशेः शकार। न्तस्य णत्वं भवति । प्रणश्यति । परिणश्यति । प्रणाशकः । परिणाशकः । श इति किम् ! प्रनष्टः । प्रनष्यति । शकारस्यैवेति नियमात् त्वाभावः । नशेरेव शकारान्तस्येति कस्मान्न नियमः । अन्यस्य शकारान्तस्यासम्भवात् । सम्भवे वा एत्वोपदेशादेव व्यावृत्तिः । त्वोपदेशी हि " नः" [ ४ | ३ | ५४ ] इति विकृतिद्वारेण गत्वार्थः ।
नेर्गदनदपतपदभुमास्यति हन्तियातिवातिद्वातिप्लातिचपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु ||५|४|१०० ॥ मियानिमित्तात् परस्य गेर्नेर्नकारस्य णत्वं भवत्यसेऽपि गदादिषु परतः । प्रणिगदति । परिणिगदति । सेऽपि । प्रणिगदिता । परिणिगदिता । प्रणिनदति । प्ररिणिनदति । प्रणिनदिता । परिणिनदिता । प्रणिपतति । प्रणिपतिता । प्रणिपते । प्रणिपत्ता | सुसज्ञे प्रणिददाति । प्रखिदाता । प्रणिदधाति । प्रणिधाता । मा इति मामेोहम्। प्रणिमिमीते । प्रणिमाता | मेङः कृतात्वस्यैव ग्रहणम् । प्रशिभास्यते । प्रणिमाता । "मी हिंसायाम्" । "मिश् प्रचेपये" इत्यनवोः "मिम्मीन्दीको प्ये च" [४/३/४३ ] इति कृतात्वयोः " मा माने" इत्यस्य च न ग्रहणम् । अस्य शेषवेनोत्तरत्र वेति व्यवस्थितविभाषातः सर्वमिदं लभ्यते । प्रणिध्वति । प्रणिपाता । प्रणिहन्ति । प्रणिहन्ता । प्रणियाति । प्रशियाता । प्रणिवाति । प्रणवाता 1 प्रसिद्धाति । प्रणिदाता | प्रसाति । प्रणिसाता मणिवपति । प्रणिबप्ता । प्रणिवहति । ! प्रणिवोद्वा । प्रणिशाम्यति । प्रणिद्यमिता । प्रणिचिनोति । प्रणि चेता । प्रणिदेग्धि । प्रणिदेग्धा । गदादिभ्वी निर्देशादनन्तरस्य कार्यमित्यटा व्यवाये कथं णत्वम् । प्रण्यगदत् । परिएयगददिति । श्रडागमश्व गोविहितो विकरणान्तश्च गुरशक्यो गदग्रहणेन ग्रहीतुमिति । नैष दोषः । श्रव्यवाये इति मण्डूकप्लुत्या सम्बध्यते । तिवा निर्देशा यचन्तनिवृत्त्यर्थाः ।
यान्तेऽकखाद ||५|४|१०|| गोरिति वर्तते । अकारान्ते अककारखकारादौ धौ परतः गिरथानिमित्ताद्वा ने भवति । प्रणिपचति । प्रनिभवति । परिणिभिनत्ति । परिनिभिनत्ति । श्रपान्त इति किम् ? प्रनिपेष्टा । अन्तग्रहखानुपदेशार्थमिहापि न भवति । प्रनिपेक्ष्यति । प्रच्छेश्कारान्तत्वाद् भवति । प्रतिप्रष्टत वादाविति किम् ? प्रतिकरोति । प्रनिखादति । श्रचापि अक्खोरिति सिद्धे श्रादिग्रहणमुपदेशार्थम् । प्रनिचकार । प्रनिचखाद ।
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श्र० ५० ४ सू० १०२ - ११० ]
महावृत्तिसहितम्
४१५
हिम्योर्मुनोः ||४|४|१०२|| रि भी इत्येतयोर्यो दनौ तयो भवति निमितात् । प्रहिणोति । प्रतिः । प्रमीणाति । प्रमीणीतः । एवीवयोः कृतयोः एकदेशविकृतस्यानन्यत्वारणत्वम् ।
आनि || ५|४|१०३॥ श्रानीत्येतस्य भोः परस्य णो भवति । श्रानिं प्रति गित्वाभावादिष्ट गिग्रहणं श्रादिमात्रोपलक्षणम् । प्रचपाणि । प्रापयाणि । श्रर्थवद्ग्रहणपरिभाषाऽर्थवत एष नेहरणादिह न भवति । प्रवृद्धा वा येषां तानि पानि मांसानि । आनीत्यविभक्तीको निर्देशः ।
I
गोऽनितेः || ५|४|१०४ ॥ गेः परस्यानितकारस्य णो भवति । प्राणिति । पर्यगिति । श्रव्यवायेऽपि । पर्याणीत् । पुनग्रहणमपवादविषयेऽपि णत्वार्थम् । हे प्राण ? इति । कायन्तस्य चिः । " श्रन्तस्य " [५४११५] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । दिपा निर्देशो यङ्गयन्तनिष्वत्यर्थः ।
सचयोभौ ||४|४|१०५ ॥ सचस्त्रानिते सभी नकारी विनम्येते । गेरिति वर्तते । प्राणिणिषति । पराणिणिषति ! पराणिगत् । अत्र द्वित्वे कृते चरूपेण व्यवधानाङ्कोर्नकारस्य न प्राप्नोतीत्येवमर्थं सूत्रम् उभौग्रहणं किमर्थम् ? याचता पूर्वकारस्य पूर्वसूत्रेण णत्वं सिद्धम् । घोस्त्वारम्भसामर्थ्यान्नकारस्य व्यवधानेऽपि भवि यति । नापि द्वितीयस्य णत्वमुच्यमानं पूर्वस्यापवादः । सचस्येति यस निर्देशात् । अन्यथा चादित्येवोच्येत । नियमार्थं भौग्रहणम्-गेरनन्तरमुभयोरेव त्वं न तृतीयस्य । प्राणिणिपयतेः लुङि कोच च कृते पुनः कचिद्विवे सति प्राणिणिनिषत् । ननु च "पूर्वश्रा सिद्धीयमद्विस्खे " इति वचनान् कृतणत्वस्य द्वित्वे सति उभयोर्णत्वं लभ्यत इति नार्थोऽनेनेति उभौ महणार्थं तर्हि सूत्र कर्तव्यम् । नत्र "पूर्वया सिद्धीयमद्विवे" इतीदं सर्वायम् अन्यथा श्रजिददित्यत्र त्वधत्वखानामसिद्धत्वाभावात् हूति इत्येतस्य द्वित्वं न स्यात् ।
हन्तेरधः || ५|४|१०६ ॥ श्रवर्तिस्व हन्तेर्नकारस्य णो भवति । गेरिति वर्तते । प्रहृष्यते । परिहणनम् । अन्तःशब्दस्य गिसञ्ज्ञोक्ता । श्रन्तर्ह एयते । श्रन्तनम् । उत्तरत्र वेति व्यवस्थितविभाषावलोकनात देशविषये न भवति । अन्तर्हेननो देशः । श्रव इति किम् ? प्रध्नन्ति । प्राधानि । “घनान्वर्धण" [२/३/६१] आदि सूत्रे अन्तर्धणादीनां निपातनारणत्वम् | अघ इति योगविभागात् । हन्तेरपूर्वस्यैव गुलम् । तेनेट् न भवति । वृत्रघ्नति । सञ्ज्ञायां " पूर्वपदाखावगः " [ ४७ ] इति णत्वं प्राप्तम् । ग्रसज्ञा " एकाजू चौगः [५४६] इति ।
"
वा षोः ॥ ५२४ ९०७ ॥ मकारयकारयोः परतः हन्तेनैकारस्य वा भवं भवति । प्रहरवः । ग्रहन्वः | प्रहरमः | महन्मः । वाग्रहणं पूर्वविधीनां नित्यार्थम् ।
हृत्यचः || ५|४|१०८ || कृत्स्थो यो नकारः तस्याच उत्तरस्य णो भवति स चेन्नकारपशे भवति गियानिमित्तत । कृतीति नकारस्य विशेषणं नाचः । कृत्सच्शकाच्चाचः परस्य नकारस्य णवं भवतीत्यर्थः । प्रया. म् । प्रवणम् । प्रयायमाणम् । प्रयाणीयम् । श्रयान्ति ते नृप । प्रयादिणः । प्रहीणः । प्रहृोणवान | अन्तःशब्दस्य गित्वे अन्तर्याणम् । अन्तरयणम् । वेति व्यवस्थितविभाषाभिसम्बन्धादिह न भवति । अन्तरयनो देश इति । इहापि भवति । निर्विण्णः प्रान्नाजीदिति । च इति किम् ? प्रभुग्नः 1
शेर्पा ||४|४|१०६ ॥ एयन्तायो विहितः कृत्तस्थस्याच उत्तरस्य मकारस्य वा वं भवति । गेरिति वर्तते । प्रयापणम् | प्रापनम् । ननु प्रयाभ्यमाण इत्यत्र यता व्यवहितत्वात् कथं कृतो गत्वम् १ अङ्ग्व्यवाय इति वर्तते । एयन्ताद्विहितस्य कृतो व्यवायेऽपि णत्वं भविष्यति । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।
हलश्चेजुङः ||५|४|११०॥ इजुङः सर्वस्य हलन्तत्वात् हृत्प्रहणमादिविशेषणम् 1 हजादेरिजुडो घोः परस्य कृति नकारस्य वा त्वं भवति गेर्निमित्तात् । प्रकोपणम् । प्रकोपनम् । प्रमोहणम् । प्रमोहनम् । “कृत्यचः [५/४१०८ ] इति नित्ये प्राप्ते विकल्पः ।
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० . पा० ५ सू० १११-१२३ [संनुम इजादेः ॥२४।१११॥ निसनिपानिन्दो वा ॥२॥११॥ न भाभूपूकमिगमिथ्यायोवेपाम् ॥५॥१११३॥ घात् पदान्तात् ॥५॥४१३४॥ अन्तस्य ॥५॥१५॥ पदव्यत्रायेऽपि ॥९१६॥ ]
सुभ्नादिषु ॥५१४३१५७॥ तुम्ना इत्येवमादिषु शब्द नकारस्य गाकारादयो न भवति । तुभ | क्षुम्नाति । नृप । गप्नोति । इदमेव ज्ञापकम् । नृषिः स्वादावस्ति । एकदेशविकृतस्यानन्यवान क्षुम्नानः । हुम्नन्ति । हप्नु तः। तृप्नुवन्ति । त्रिकरणान्तनिर्देशः किम् ? जोपणम् । तागा म् । नन्दिा । जन्टन नगर इलेगां "पूर्वपदात्वावगः" [५/४/८७] इति एवं प्राप्तम । हरिनन्दी । हरिनन्दनः । गिरिनगरम् | नर्तन नदन गहन निवेश निवास अग्नि अनूप एतान्युत्तरपदानि सशायाम्च । परिनर्तनम् । परिनन्दनम् । भेरीनदनः । परिगहनम् । शनिवेशः । शरनिवासः । शराग्निः । दर्भानपन । अाचार्यभोंगीनः । "प्राचार्यादणर्च च' [ग० सू०] । ग्राचार्यानी । “चनुर्हायनी वणि द्रष्टय्या" वा] । “ईरिकादीनि च वनोसरपदानि सज्ञायाम्" [चा०] 1 ईरिका । तिमिर | ममीर । कुबेर । हरि | कौर । इति ईरिकादिः । प्राचार्य-यूना। क्षत्रिययूना। दाहिनी शरदिति । अभिहितलक्षणों सात्वमतिपेधः क्षुम्नादिषु द्रष्टव्यः ।
न नृतेर्यङि ॥५४॥९१८॥ नुनधि रात्रं न भवति । नशेनल्यो । नीनृत्य । नगैयन्ते । बा । त्याश्रयान् । नन । नरिनति | मरीनति ।।
स्तोः श्लुना श्युः ॥५॥४।११६॥ सकारतवर्गयोः शकारचधर्माभ्यां योगे शकार चव भवाः । अत्र स्थान्यादेशवोयथानंयम , स्यानिनिमित्तयोस्तु नेण्यते । “शार" [५४|१२३] इति सवर्गस्य चत्वं प्रतिनिधाज्जायते । सकारस्य शकारेण । जिनालयश्शोभते । तस्यैव चवर्मेण | धन्यश्निनोनि पुण्यभू | ओनश्च । तृश्चति पापा । मुनिश्छिनन्ति कर्मबन्धम । तवर्गस्य शकारे गए । अग्निविच्छते। त्वममिमिति शे तृत्वम । पूर्वण शकारेण । "शात्" [५/१२३] इति प्रतिबंध वक्ष्यति । तवर्गस्य चवर्गण । तच्चविचिनोति | तत्त्वयि छादयति । नायजयति! सरियः । भवानकारीयति । श्चाविति सिद्धे श्चुनेति निरंशः शादिति प्रतिषेधश्च ज्ञापनः । परस पूर्वेण च चुना योगे चुचमिति । तेन राज्ञः । याआ। “मस्जिनशोमलि" [५/१।३१] इति निर्देशान मजति । मुज्जती त्यत्र चुचे कर्तव्ये जश्वं नासिद्धम ।
टना ट्रः ॥ २०॥ सकारतवर्गयोः कारच्या या योगे पकारटका भवाः । अत्रापि "न तोः पि" [111१२२] इति प्रतिषेधात् स्थानिनिमित्तयोर्यथासमयाभावः । सकारस्य प्रकारेण । करपराई । तस्यैत्र नवगण | अश्वष्टीकते | Yषयति । रावर्गस्य प्रकारेण परेण प्रतिषेध वक्ष्यनि । पूर्वेण पेष्टा । पम । नवर्गस्य टकगंण । बृहट्टतः । अट अट्टते। तकारोपदेशः यिपि कान्तये च कृते श्रवणार्थः । महदावति । अड्डु | अद्यति । श्वाचिौकते । भवाणाकारोवति ।
पदस्य टोनाम्नवतिनगरी ॥५११२२पदस्य टोः परेषां नाम्ननि नगरी इन्यनेपां टुत्वं भवति । पण्णाम् । परणावनिः । घएणगर्यः । नियमार्थमिदम् । पदान्तोः परस्य नाम्नतिनगरीत्यस्यैव नान्यत्येति । तत्त्वामृतलिट् तरति दुरूम् । पदान्तस्यैव नियमादिहाप्रतिषेधः । ईड स्मृतौ । ई। पदन्येति वर्तमाने पुनः पदस्यति ग्रहणमन्नार्थम् । ननु तथापि नाम्नवतिनगरीषु परतः पूर्वस्व पदान्तवासद्धः पदस्थति किमर्थम् ! अतुल्यजातीयस्य सकारस्यापि परत्य प्टुत्वनिश्रुत्तिर्वथा स्यात् । मधुटिट् सीदति ।
न तोः पि ॥शा१२२॥ तन्वर्गस्य पकारे यदुनं तन्न भवति । टुल्यमुक्तम् । नीधा पोहशः । भवानपण्डः ।
१. प्रसिषु [ ] कोष्ठकान्तर्गसानां सूत्राणां वृत्तिः स्खण्डिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्याय:मनुसत्याग्न निर्मिशानि ।
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म. ५ पा० ४ सू० १२३-१३३] महावृत्तिसहितम्
शात् ॥शवा१२३॥ शकारात् पररव सवर्गस्य यदुक्तं तन्न भवति । किमुक्तम् ! चुत्वम् । प्रश्नः । विश्नः । पदान्तत्य शकारत्वाभावात् अपदान्ते प्रतिषेधः ।
खशः शी यो या ॥॥१२॥ यश इत्येतस्य शकारत्य यकारो भाति वा । आख्याता । श्राख्शाता | पर्याख्यानमिति यत्यस्यासिदत्वात् "कृत्यचः" 14181100] इति णाचं नास्ति । घेति योगविभागः । तेन चुना योगे “च उम्झेः" इति लब्धम् । उब्जिता । उब्जितुम् । उब्जितव्यम् ।
यरो डो विभाषा के ॥५॥४॥१२५।। पुनः पदत्येति सामर्थ्यात् पदान्त हनि लभ्यते । ५२: पदानस्य बिभाषया डादेशो भवति के परतः । सुवाइनयति । सुवाग नयत्ति | परमुत्रः | षड्मुखः । सन्नयनम् । सदृनयनम् । ककुम्मण्डलम् । कयूमण्डलम् । पदान्तस्येति किम् १ स | स्तम्नाति । वेत्यनुवृत्ती विभाषाग्रह व्यवस्थार्थम् । तेन स्खे नित्यं भवति । वाङ्मयम् । वामयम् । परणाम् | वाचो विकारः ] "नित्यं दुशरादेः" ३३३।०६] इति मयड् । त्वचः आगतं “हेतुमनुष्यादा रूपमः" [३।३।५५] । “मयट" ३।३।५६] इति भयट् ।
श्रयो रहा ३॥शा१२६॥ अन्न उत्तरौ यो रेफहकारी ताभ्यामुत्तरस्य यरो विभाषया द्वे रूप भवतः । अर्कः । अर्कः । तकः । तर्कः । ब्रह्मन् । ब्रहृान् । सद्धम् । सह्यम् । अच इति किम् । हुनु ते । विभा'त्यनुवृत्तेमवस्था | शरोऽचि द्वित्पन्न भयत्येव ! श्रादर्शः । वर्षति | तसम् । “रही मिमिनभूती द्वित्वस्य न च मिमितिकार्य निमित्तस्य" | तेनेह न भवति । भद्रहृदः ।
अनचि ॥५॥१२७।। रहादिति निवृत्तम् । अच इति वर्तते यर इति च । श्रच उत्तरस्य यो विभाषया वे भवतः अनचि । दद्धयत्र | दश्यत्र | मद्ध वन । मध्यत्र । अत्र यकारबकारी निमित्तम् । श्रनचीति यदि पर्युदासः इल्पदणं कर्तव्यम् । एवं तर्हि प्रसज्यप्रतिधोऽयम् । अचि नेति । तेन हल्यवसाने च द्विचम् | वाक्क् । बाक् | त्वक्क् । त्वक् । अच इत्येव । स्नातम् । 'सातम् । व्यवस्थितविभाषाधिकारात् "त्रिप्रभृतिषु न भवति" [वा० । इन्द्रः । राष्ट्रम् । “यणाः परस्य मयोऽचि विकल्पः" [वा०] । उल्क्का | उल्का । वाम्मीकः । वल्मीकः | "शर उत्तरस्य स्वयः" [वा०] 1 स्थाली । स्थाली । “खय उत्तरस्य शरोऽपि" [चा०] । अप्सरः । अप्सरः । “पुत्रादिनी त्वमसि पापे इत्यामोशे नेष्यते" [वा०] । “हिमात्रात्परस्यापि" [या०] : पात्रम् । सूत्रम् !
मला जश् झशि ॥५॥१२॥ मला वर्णानां जशादेशो भवति झशि परतः । कथा | दोग्धा । अबुद्धाः । अपदान्तार्थ प्रारम्भः | झीति किम् ! दध्महे ।
चे चत्वंम् ॥४॥२॥१२॥ चे वर्तमानानां झला चत्वं भवति जश्वं च । चित्रनिति । चिच्छेद । डिदशायिषति | तिष्ठासति । पम्फुल्यते । जिघत्सति । बुभुत्सते । डुदोके । दधौ । प्रकृतिचा प्रतिनरः प्रकृतिजशा प्रकृति जशो भवन्ति । अभिन्न रूपा इत्यर्थः । चिचीपति । टिटीके। ततार | पी। जिभिपते । युयुधे । हिडेप । ददौ । सर्वत्र "स्थानेऽन्तरतमः' [1111] इति व्यवस्था ।
खरि ॥५॥४|१३०|| भाला खरि परतः चर्भवति । भेत्ता | मेत्तुम् । बिभत्सति |
विराम वा ॥५॥४॥१३॥ बिरामें वर्तमानानां झलां वा च भवति । बाक् । वाग। मधुलिट् । मधुलिइ । तत्त्वभुत् । तत्वमुद् । ऋकुम् । ककुन् ।
यय्यनुस्वारस्य परस्त्रम् ॥शवा.३२॥ ययि परतः अनुस्वारस्य परत्वं भवति । शनिः । अश्वितः । हिण्डितः । शान्तः । अयन्तीत्यत्र त्यामेरसिद्धत्वादनुस्वारः । परस्यात्वम् । तत्कासिद्धत्वात्पश्चादापि गत्वाभावः। ययाति किम् ? रिसते ।
वा पदान्तस्य ॥॥१३३॥ पदान्तत्यानुस्वारस्य वा परत्वत्वं भवति यवि परतः । शुद्ध गनि । शुद्धङ्करोति । यमीत्येव । वं शेषे।
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४१८
जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ४ सू० १३४-१५० तोलि ॥२४१३४॥ तवर्गस्य लकारे परतः परस्वत्वं भवति । तडिल्लोला। भवॉल्लोकेशः । नकारस्य नासिक्यो लकारः । वेति नाधिकृतम् ।
स्थास्तम्भोः पूर्वस्योदः ॥१३॥ या स्तम्भ इत्येतयोमदः परयोः पूर्वस्य स्वं भवति । उत्थाता उत्थानुन् । लस्थातव्यम् । उत्ताम्भिता । उत्तम्भितुम् । उत्तम्भितव्यन् | उद इति कानिर्देशात् परस्यादेः घोषस्य सकारस्य लकारः। स्थास्तम्भोरिति किम् ? उत्स्विन्नः । पूर्वस्येति किम् ? परत्यनिवृत्त्यर्थम् । उद इति किम् ? संस्थितिः 1 उद इति योगविभागः कल्पनीयः । तेन स्कन्देरपि रोगे पूर्वस्वम् । उपन्टका नाम रोगः ।
भयो हः ॥५४१३६॥ झवः पदान्तादुत्तरस्य हकारस्थ पूर्वस्वं भवति । सुवाग्धसति । मधुलितति । थर्मविदितम् । याकुमसति । महाप्राणस्योमणः स्थाने तादृश एव पूर्वचतुर्थो भवति । “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य [inits: इति वाटे तेन विला: : मुगग द्वाति ! मलिइ हरनि । धर्मविद् हितम् । ककुछ हसति | कय इति किम् । प्राङ् हसति |
शश्छोऽटि ॥५११३७॥ झयः पदान्तादुत्तरस्य शकारस्य अटि परतश्छकारो भवति । बाक्लोभते । धर्मबिच्छेते । ककुपछोभते । पक्षे न भवति । वाक् शोभते । धर्मवित् शेते । ककुप्शोभते । केचित् शश्लोड मीति पठन्ति । तेन तच्छ्लोकः । तच्छ्वसनमिति ।
__हलो यमा यमि खम् ॥श१३८॥ हल उत्तरेषां यमा यमि परतः खं भवति । शम्या इत्यत्र "समज" [२२३८१] आदिसूत्रेण क्यपि अङि च कृते द्वौ यकारी । मजस्तृतीयः। मध्यमस्यानेन स्वम् । पक्षे न भवति । शय्या । आदित्य इत्यत्र अपत्यार्थे द्वौ वकारौ । "सास्य देवता" [
३ १] इति तृतीयः । क्रमजश्नतुर्थः । मध्यमस्य मध्य भयोवा खम् | हल इति किम् ? अन्नम् । यमामिति किम् ! अयं मधु । अघमर्हति । अर्धार्थं वा । “पाद्याध्य" [१॥२॥३२] इति निपातनन् | यमीति किम् ? शाङ्गम् । यथासंख्यविज्ञानादिह न भवति । पित्र्यम् ।
झरो झरि स्वे ॥२१३६॥ हल उत्तरस्य झरो भरि स्त्रे परतः खं भवति । प्रत्तमवत्तमित्यत्र "गे स्तोऽचः" [५/२०१४] इत्याकारस्य तकारे कृते त्रयस्तकाराः । कमजश्चतुर्थः । मध्यमस्य मध्यमयो एवं विकल्यावलोकनात् । मरुत्त इत्यत्र मरुच्छब्दस्य गित्वोपसंख्या सामर्थ्यादनजन्तादपि तकारे कृते चत्वा रस्तकाराः | क्रमजः पञ्चमः । मध्यमस्य मध्यमयोर्मध्यमानां वा खम् । झर इति किम् ? शाम् । झरीति किम् । पार्नोति । स्वे इति किम् ? तर्जा । याथासंख्यासिमिति चेत् । उझिता। शिफ्टि । पिण्दि इत्यत्र चतुर्थऽपि स्वे नृतीयस्य खं यथा स्यात् ।
चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ॥५॥१४० हायो ह इत्यादि चतुष्टयं समन्तभद्राचार्यस्व मतेन भवति नान्योपां मते | तथा चैवोदाहृतम् ।
इत्यभवनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पञ्चगस्याध्यायस्य चतुर्थः
पादः समाप्तः । समाप्तश्च पञ्चमोऽध्यायः ।
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अथ प्रशस्तिः जिनमतं जयताजितदुर्मतं सकलसत्वहितं सुमतिप्रदम् । नयथयाक्तिमिविशिष्टवाग्भवभयातपधारणवारिदम् ॥ १॥ पाणिनिमा ययुक्तं लपितं कृत्वाष्टकं मोहात् । तदिह निरस्त निखिलं श्रीगुरुभिः पूज्यपादाख्यैः ॥२॥ जगन्नाथ नाम्ना द्वितीयाभिधानात्सप्त वादिराजार्यमोपाख्यसाधोः । जनन्याः सुतेनापि वीराभिधायाः दयावानपूजादिसंशुन्दमूर्तेः ॥३॥ अनेम्वशवशास्त्र स्वोपक्रमती नरेन्द्रकीर्तिसुगुरोः । अन्ते लिखितं पठितं पाठितमपि भारतीभवल्या ॥४॥ जीवोऽस्त्रमगुरूवमेवमुशनाः काव्यालय भास्करो मित्रत्वं च बिषक्षण्वमगमन्निन्दुः सुधाधामताम् । गीर्वाणयमनम्तता सुरगणाः शेषो वृपा जिष्णुता जैनेद्रं समधीस्य शब्दविलयं श्रीपूज्यपादोदितम् ॥५॥ पूज्यपादापराख्याय नमः श्रीदेवनन्दिने । व्यधायि पञ्च येन सूनं जैनेन्द्रमूलकम् ॥६॥ महावृत्तिको तस्मै नमोऽस्त्वभवनन्दिने । यद्वाफ्यादभया धीराः शवविद्यासु सन्ततम् ॥७॥ स्रष्टा दृष्ट्वा सुसृष्टि स्तुतिमकृत मुखैश्चाथ जैनेन्द्रशाब्दी जिहाभूयस्वभावादुरगपतिरतोऽध्येति नात्येति पारम् । रीतां दुःखाचलीढा निलमदवशगाः प्रापुरिन्द्रादयोऽपि कृस्त्रमा देवनन्दी विविधसुरगणैः पूज्यपादादयोऽभूत् ॥८॥ प्रमाणमकलीनं पूज्यपादीयवकणम् । धानञ्जयं च सरकाम्यं रत्नत्रयमुदाहृतम् ॥६॥
इति प्रशस्तिः सम्पूणों शुभम्भवतु
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कथित
तीर
अ
भादुः
अकर्मको धिः
कामतकात् ४१३११३१ अतोऽम्
ऋगे श्रग्नौ चेः
अहि
अङ्गल्यादेष्ठ
अचः
अचश्च
अचि चित्तरस्तिनोट
श्रीको ऋण
अचो रहा है.
अनाद्यत्
अजाद्यतष्टाप
1
अजावियों थः
जीवे
जीवेऽदगणः
राहू
अणि
जैनेन्द्र सूत्राणामकारादिनमः
अतिक्रमे चातिः
छातैः
१६१२।१२१
२/३/१८६
श्रतोऽनादेषैः
५।१८८३ चनाष्यकः
११२२ श्रतोऽप्राच्यभगः ३१२/१५८८ श्रनाश्वाननूचानी
अनितावनुकरणम्
५। ११२६ ५११६६
१) १६८ अ
.
अनीचः
i
१|४|१०६; ४|४|१८ | अतो हमध्येऽनादेशादे ४|४|११० | श्रनुकम्पायाम् शब्द तो है: ४१४६४ | व्यतोऽह्नः
४१४६६
अनुक्तपुंस्कादाच्च
५६४/६१ अनुक्तं
४|१|१६२
यत्कायाः
५।६।२७ अनुयल गामां
३।४।१३८
अस्थान
५३१/४ अनुदात्तेतोऽपसूददीप- २२/२३१ ४|४|१२|अनुदातोपदेशवननि ४१४/१०
श्रवसोsar:
१११/१६ अनुपदेशेऽदः
११२/१३६ ५.१२२२५. ४२२६५ अनुतोऽनन्तस्याप्येकै ५/४/६४
२३३१७१ अनुशक्तिकादेः
२|२| ६०
अनोखमम्बरकात् ४|४|१२२
३२८
११२१४५
४/२११४७
३।३।३५.
२/४/५६
१/४ | ३
४ | ३ |२; ४/४११२५
१|१|१२
४ | ३१९८२
३/२२६६
४१६५
५/४ / १२६
अञ्चेः पूजायाम.
अचे
अश्च
अडवू बोपादेः
|
अणु भोः
अतः खम् भताभावस्वाशी
श्र
अदेशकाला
दो
अोऽनन्ते
अणुदित्वस्यात्मनो अणौ घेः प्राणिकर्तृकात्११२२८५ श्रण कुटिलिकायाः ३ ३११४१
TIA
अन् बाह्रादेरि
३११४४
अद्रौ त्रिककुद् श्रधिकरणे चाय
३१४/६
४१२ | १००
अधिकृत्य कृत्तै ग्रन्थे
४२७२ | अधिपरी अनर्थ को ५/१/१०१ अधीच्या राख्यानाम् ४|११६६ | अध
३।३१६१
श्रन्तस्य
५/४११९१३.
१/४ / १०
श्रन्तेऽलः
१।१/४९
१२/४/८१
श्रन्त्यादवष्टिः
१/१४६५
२१३१४२
श्रन्त्येनेतादिः
१११ ॥७३
४ | ३ |७८
श्रधुना
४|११८६८३ | अन्धूधसोः
૪૧૧
कुत्रापि ५/४१८६
प्रभु मृत्
११११५ | अन्यथैकथमित्थं
२|४|१३
४|१|१३६
४१२३२
श्रध्यायानुवाकयोर्यो ४|११६४ | अन्यपदार्थेऽनेकम ११३१८६ ४|१| ३० | श्रध्यायिन्यदेशकालात् ३।३।२८८ | अन्यत्यापि २१२२ श्रध्वर्युक्रतुरन १६४/८० श्रन्येभ्योऽपि I ४|२| ११५४|४|१५८ अम्बय्यानुलोम्ये
२/२/१५७
११/७२
अनः
राह
सौ
१|४|८|| अनऋक्लृप्त्यमंत्र श्रनश्नातू
२२१२३
I
अनचि
५/२/१०७ | श्रनयतने लड्
श्रशने लु
૪[૪૫૫,૦ ४/३/२०५ | श्रनन्तरस्यापि
नो
अन्तरदॆष्ठञ् अन्तरान्तरेण योगे
२२६२
२|३|१४
५ / ३ / १०३
५/११७० यपथम्
५४१२७
I
२/३/१२१
३|१८१०
I
५.१११७०
२२६०
१/२/१३३
३।१८१७
४१५/१३२
५/२/५३
११४८१
१६४/१०७
४२१५०
अपे क्लेशनमः
२२१४६
अपे च लषः
२१२२१२१
पो मातृभ्याम् ३।२।१२
अपादानेऽहीय हो:
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जैनेन्द्र-सुमारारामकारादिक्रमः
चाशिष्यायुषम- १/४ ७७
असंख्यं शि
प्राणिजातेः
प् तदर्थार्थलिहित १३३१ अभिवदनाभात् ११४/८२ ३।३/६४ अस्ताति
श्री
अस्तिब्रूझ भूची
अभिजनः अभिनिविदभृतोऽण ४ २७ अभिनिदिशश्च १/२/११९ श्रभिनिष्क्रामति द्वारम् ३/३/६० श्रमानिनीरस्वाङ्गात् ४।३।१५२ २/१/१०३
अमावस्या वा
श्रमेकाचम्बत् ४ | ३ | १७८ अम्बाम्नो भूमिसम्याप ५/४१७१ अद्यभिज्ञक्तौ लुट २/६३ यान्तावाव्येषु
४४१५५
अर्जुनाद्युन्
३३७३
श्रर्तिह्रीब्ती रोक्नूयीचमा ५/२/४१
श्रः
४|१|११०
तावच्च
वि
य आदेरः
श्रर्हः अलङ्कुनिराकृञ्
श्रल्पाख्यायाम्
अल्पान्तरम्
अल्पे
अवक्रयः
उ
१/४/६१
४|१|१०३
४|११५०
२१२/१७
२|२| ११४
ल
श्रश्नोतेः
अस्ल्यात्
अस्य चौ स्विदिस्वदिसद्देः
४/२/१३७
१|३ | १००
४/९/१४१
३२३३१७०
चाहतोः
५/२/१६
श्राङीय
श्रवारपारात्यन्तानु- २|४|१३६ ऋषिच्छेदे १।३।२६ श्रधूमाङोः श्रव्यक्तानुकरणादनेका ४१२/६१ यानी
आहवान्
अश्वत्थाग्रहायणीभ्यां ३ |२| १७
श्यादेः
३|१|६६ १|४|१०३
अश्वव पूर्ववत्
३ | ११६६
श्रश्वादेः फञ् पक्षसितंवधिः ४ / २ / १६ श्राभ्यश्र ५११/१८
भः
अहसक देशसंख्यात ४८६
ग्रहन्
५ / ३ / ७७
श्रा
श्रा
आकालोऽच् प्रदीपः
आक्रोशे नव्यनिः
आक्रोशे बन्यो छः
आकेः शील धर्मसाधु
५ । १ । १६५ आदितः |४|१११०४ आदे १४११२४ काचो द्वे २३८४ ! आगे
५. २११४१
अघतः
५|४|४६ | धमय चेनः १/४११०५ आघारोऽधिकरणः
नङ द्वन्द्वे
१।२३७४ | श्रतो भोः ४|४|११ । श्राथर्वणः
छाइने वृञः श्रज्ञायिनि
श्राङ:
श्राङ: स्पर्द्ध
श्राखि चापः श्राद्ध मियसिक्रीडि- २/२/१२५ श्राङि शीले २१२/१६ १/२/१४ आयामिना ५।२१११३ आह
श्राङदोऽव्यसने आङी नाऽस्त्रियाम् श्राने समनः
प्रातः
प्रातः कः
श्रतो गौ २२१४१०६ आतो गल नौः
३१३ | १७
श्रशधामीत्
१११११
श्रमपदम्
श्रबधे च
२१३/६३
२ / ३१४१
आमः
२२१११२ | आमीयुः
४३३२४
१/२ २६
४३११७२ १|४|१०० आ ४|४|१०७ ५/२/१७२ श्राश्रार्थवेदसत्यानाम् २/१/२३
२३१५०
४ | ३ | १२४
२४६०
રાય
श ५।२१३७
५. २/१०० ग्राम्बत् तत्कृञः
ધા
आनि श्राने मु
५ | १|१४१ आत्महतो जातीये च ४।३।१५८८
५|२| १५७
३।४।१३३
५३८
११४ | १४९
११२९४
२४ /७६
श्रामतः आम्यात् सर्वनाम्नः सुर् ५ ११३४
१/२/५६ आयनेयनीवियः फार श्रयस्थानेभ्य
४|४|११७
३।३३१०१
५/१३१२२
४ | ३ |७५
४/३/१
१३१२५
५/२१७०
१४७४
११२ ११६
आसितम्भक
ष
४३९३८८
५३४११०३
३३३४९
१।३११३
२।४११७
१२२३ | आलम्बनाविदूरेऽवान् ४/४/४६
३.१६४८
४ | ३|६२
२१३६० ३ | ४ | १११
श्रावख्यात् ३।१।५ श्रावश्यक धमर्ययोः २ | ३ | १४६
आवि
५।११४७
२२२२४३
श१११२३
१/४ ६२
আशष নাथ:
आशिषि लिङ्लो रौ
श्राशिषि हनः
श्राश्वयुज्या वुञ
आमदारच
श्री सर्वनाम्नः
४३३१६७
आसिद्धी देश्यदेशीय- ४११/१२६
२१४४६
२४७
३१३/२०
३१३८
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
श्राहस्थः
हि च दूरे
इकः प्रोऽस्याः
इस्तौ
इको दीव
वहेऽपीलोः
इगुङ: शलोऽनिट
इग्यणो निः
दङः
इडानं दः
इ
ते
|१|४११२०
इट्
as for:
इणः षः
इणः षीध्वं इलियं
कोसः
इतोऽनिञः इतो मनुष्यजातेः
इदम इशू दमदः सकोः
मोमः
इदमो वो घः
স্বछা
इच्छायें लिड लोटो २/३/१३३ इच्छोद्बोधेऽकच्चिति २|३|१२६ शरान्द ta:
इञः
इञो बचः प्राच्यभरतेषु १|४| १३७ | ईदासः ४१४१६३ ईदुदः
इष्टि चात्खम्
दमोहः
दमोह
दिम
दुखणेऽत्यमुमुहुः
वदुदुद्भ्याम्
इद्गोण्याः इदुदरिद्रः
टन्
नः स्त्रियाम् इन्हन्पूपाणाम्
५/३/५२ पाच प्राप्तापन्ने
१३३२०
I
४|१|१०१ इपि २|४|३८ ५ | १११४६ इच्छिताती पलित
१/३/२१
४ | ३ ३१७२ | इब्रेन
१६४१४०
१|१११७ प्रतिकृती कः ५३८५
४१३२२३
२१२१४०
१|१|४५
२३ २० |ई उत् |ई प्राथ्मोः
१/२ | १५१ २३८८३ | ईश्च गणः
५/४/२७
५४/६०
५/४१३७ (१/१११
३३ १९५५ ४/१/६६
५/१/६
५/१/१६६ ३ | ४११६१
४/९/७७
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
इष्टादेः
इसुसुक्तः कः
इस सामर्थ्य
५३१/६५ ईदूदेद् द्विर्दिः ई
१११ / ७६
४|४|१०४
ईटीट ईः स्वे
1
क्षु नित्यम्
४|१| ८२
ईयसश्च
ईशः
५। १ । ३७ ५१४/२८ ईश्वरः ५/२/१११ ईश्वरेऽधिना
१११११० ईप
४११६ 3:
४२११५२
उआचार्यः
४|४|१६ उगितश्च
पत्र:
ईपात्र बाकू
ईपि चोपपीरुधर्षः ईपोऽद्धलः
ईष्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः १२११६०
ईपूछोग है:
ईत्रधिकरणे च
त्रधिके
ईब्विशेषणे वे
ईमोविभाषा
उ
४ | ३ | १०७ ५/२/१४०
५२१६४
उगिदचां घेऽधोः
उगिद्न्मान्डी
४|१|१५०
४। ११२२
५|२|५२ । उच्चरोऽधेः
५/४/३२ उज्नुहोत्यादिभ्यः
i
२४
उच्चनीचाबुदात्तानुदात्तौ १|१|१३
११२२४६
११४११४५
११११२५
उणादयोऽन्यत्राभ्याम् २/४/६२ उणादयो बहुलम्, २२।१६७ उतस्त्यादस्फात् ४|४|१७ ४|४|२० उताप्योः पृष्टोक्ती लिहू २ १३ १२८ ५|१|१३६ · उत्करादेश्छः
३२७०
४ | ३ | ४९ | उत्तरपथेनाहृतं च
३२४८७३
१३३१०५
४|४|१२६ उत्तरपदं यु ४|४|१२३ उत्तराच्च १|१|२० उत्सादेर
४१११०२
३१२१७१
११२/६१
११२१९
४ |४१६४ उदः ४|११७६ उद २१६६ उदकस्योद्योश्च सौ ४।३।१६८८ २२४/३५ | उदन्वानुदधौ ५| ३ | ३४
४
| ३ | १२७ | उदिकूले रुजिवहोः
२३२३४
उदि ग्रहः
१/३/१५ | उदि पुयोतिचित्रः
१ | ४ |४४
उन्न्यो :
२१।४।१७
उपशातै
११३/१०१
१|४|१५३
४ |२| १५६
उकः
उङि
वोऽतः
५./१/१३७
३३४ ४२
१|४|१८
४।३।२११
५ | १ | ४९
३।११६
५९३७५
५१३८८७
उञ
२३३/३४
२/३/४५
२३३।२७
३१३८४
१२४ ६७
३१४] १५५
उपज्ञोपक्रमं तदायुको
उपत्यकावित्य के
उपदंशो भायाम्
२२४१३३ उपमानात् ४/२/६६; ४/२/१३८ उपय्यैध्यवसः सामीप्ये ५/३३५
उपर्युपरिष्टात्पश्चात् ४।१।१७
११२/१४२
३३३३६
उपाजेऽन्वाजे
उपाज्जानुनी विकर्णात्
२|१|८६
११२८१
उपात् ३४ |२| उपात्प्रतियत्नवैकृद- ४१३११२
४४३ | १५७
उपात्प्रशंसायाम्
५११४५
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपान्त्यालुङ् उपान्मन्त्रकरणे
उपेन
उपचोलादेः
उते
उपात्
उष्फले
उचिलः
उन्नुस्
उभात्खम्
उरः
३/४ | १६५
५ / २ / १६६
उरःप्रभृतिभ्यः कप् ४/२/१५१ | उत्
५।११२० ३२००
सोच
उरसोऽये
उषासोषसः
उष्ट्राद्ञ
उसभेदे
उसि
उसि भे
उसिलौ च देशे उस्मनुष्ये उपमेये
ऊ
१११/६६
शरा२०
१।४११६
३|१|१५६
३श३|१६
શર|૫૪
३ | ३|१२१
५/१/१६
१/१/६२
ऊधसः
सोऽन ऊम् (ॐ)
ऊतः
ऊरुचरित्रे
४१२९५ |
त्यताम् ऋणे व्यैः
४ | ३ | १४४
३/३।११६
जैनेन्द्र- सूत्राणामकाराधिक्रमः
ऋ
क्यूरधूःपथोऽनक्षे ४१२/७० ऋगयनादेश्चा
ऋचः शे
ऋचः सामयजुर्भ्याम्
ऋतः
ऋतः एकादेरेपू ऋत इद्धोः
|५|१|१०१; ५/२/१८६ एप् ५/२/१२२ एजेः खशः
५/११७४
एत ऐ.
४|३|९८
५/३/६२
ऋत उत्
तरच केः
ऋत
श्रुतो ि
तेती र्थोः
एत्येधत्यू सु
एधा
एप्यतोऽपदे
1 ન્યૂ ોનો દુઃ
एकः
ऋत्विग्दधृक्सग्दिगुणि २१२१५७ दुङोक्लुपिचृतेः २/११६२ | एगिंबाक्वाङोश्रदुशनस्पुरुदंशोऽनेह - ५/११७१
ए
महिष्यादेरण ३।३।१६९ ए
४/२/१५३
४१३/२३१
ऋतोरणू
ऋतो विद्यायोनि
ऋत्यकः
मोः
मित्रे
एकविभक्ति
३|१|१३ एकस्य ते में
४/२/१३२ एकस्य सकृत्
११/२६ एकाचोऽनुदात्तात्
२|१|५६
एकाच वश भ
३|१|५८
एकाच्च
ऊ रोऽनादेः
४|४|१५३
एकाच यौ एः .
ऊर्णा शुभ्यश्च यु ४ | ११६२ | एकादाकिंश्चासहाये ऊर्ध्वं शुषिपूः
२|४|३१
प
एकान्नः
एको वत्
एछि पररूपम् ३३३३४७ एङोऽति पदान्तात् | ४।३।१६६ एक प्राग्देशे ४ | २|७४
५|२| १२३
११३/३७
३ । ३ । ५२
५ / २ / १०५
३/४/९९
४/२/१३६
1
एतदः
एति ह
३२५. एकः
३३१/७६
४३८३
एकः किः २|४|५६ ११४ / ५३ एकगोपूर्वाञ नित्यम् ४ ११४४ |४|१|३२|एकदिकू ३२३२८१ ४/१/१५२ | एकविश्चैकशः ११२१९५५ ओतः श्ये
श्रोत्
|
एवात्कः
एचोडः पूर्वस्यात् परस्ये५ । ३ | १०४ एचोऽयवायावः
४ | ३३६६
एचोऽशित्वाः
४ | ३ ३८
११३३९४ ओदपूर्वस्य योऽशि
५३११८ श्रोदितः
४/२/२६ श्रोमभ्यादाने ५|१|११५
ओमाङोः
षः ५ / ३१५४ | श्रीरावश्यके
श्रोदेशे ठञ
४।१।१४९ ५/४१६६
श्रोषधेरजाती
४। ११११३
ओसि
४१३|१८८४
राज श्रौक्षम
ऐपीत्
श्रो
ओ: पुयज्ये
५।२।१७८
श्रोजः सहोम्भसा वर्तते ३३ | १५०
१११।२३
५/२/७१
श्री श्रापः
४८१ ४/३/६६ श्रीतः ११ | ७० यच्च सोः
कंशंभ्याम्
कंसाइन
श्र
४३७६
२२ ३२
२|४|७६
४|१|७१
५|२११५४
४|११७०
४३१७७
क
४११११०६
४|३|८४
४२६०
२१४१७३
४४७८
५/१८६३
२४१८१
४/१/१२६
४३१४९
४४
५/३६३
५।३।९५
४ | ३८२
२११११०१
३/२/६५
४२३४३
रा
४|४|१५६
५११/१५
४१४७६
५।२।१९२
४|१|६० ३४१२२
૩
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३|३|१११ | कर्तुः क्व सत्रं विभाषा
ક
कः खौ
ककुदस्यावस्थायां खन् ४ | २ | १४६ | कर्तृकरणे भा
ऋतरक्तमौ समर्थों
कतिः संख्या
कल्को ऽचि
कर्तरि क्रुञ
कर्तरि कृति कर्तरिक्तेन रिक्तियोः २१२११६४ | क
कर्तरि चारतः
कर्तरि ये
करिश कर्तरीबे
४ | ३ | १४ | कर्तृकर्मणेः कृति कर्तृकर्मणो भू ३|२|१११ | कर्तृत्थे कर्मभ्यमत
कनि कच्ाग्निवक्त्रयर्तयोः २ १०४ कच्छानः कटिनान्तप्रस्तारसंस्थानेषु ३/३/१८६ कम् कडङ्गरदक्षिणास्थाली- ३/४/६६ कर्त्रीजीवपुरुवयोर्न करोमनःश्रद्धाचाते १२/१६६ | कर्मदः २/ १२५ कर्मणि च ११३५८ कर्मणि चाल १/१/३३ | कर्माणि चै
कर्मणि ठी
कन्याञ
४ | ३ |२०० शरा७५ शश२०६
कर्मणि यत्पत्कङ्ग
कथादेष्ठ__
कर्मणि इनः
कद्र वो रोऽस्वयम्भुवः ४/४/१३४ कर्मणीन् विक्रित्रः कन्धापलदनगरग्राम- ३१२/२१८ | कर्मखोप्
कन्यायाः
कन्यायाः कनीनू च
३।२।१७ | कर्मणोपयः सम्प्रदानम्, ३|१|१०५ | कर्मण्यग्न्याख्यायाम् ५/४/२२
कपो
कर्म
३ | ४ | ११७ | कर्मस्यधिकरणे ३|१|१६ | कर्म
कपिशा कपित्रोधादाङ्गिरसे मृत्यो ङीय करणाधिकरणयोः करणे
२४१११ | कालाध्वन्यविच्छेदे
२११५.३
:
करणे यजः फर्कलोहिताहीऋण
काला मैत्रैः ३|४|९४ काले २१३७६ | कालेऽधिकरणे सुज १/४/६७ ३ | ३|१८८१ कालेभ्यः ३ | ४१७४ ११२/११७ कालेभ्यो भववत् श७६ | काश्यादेञियै
३१२४२९
कललाटभूषकः कर
३२/६२
हशिविदः २११२८ | कर्मण्याक्रोशे कृञः २३६६ कर्मण्यात्मनि २/४/२४ | कर्मवेषाद्यः २/२/७३ कर्मव्यतिहारे नः ४|१ | १६४ | कर्माध्ययने वृत्तम् ३३१४१ कर्मैधिशीङ्स्थासः १/४ १३३ कलापिनो कर्णे लक्षणस्यात्रिष्टा- ४१३१२१८ क्लाप्यश्वत्थययसाद् ३३३१२३ कानूगोणीभ्यां तर कतीरे १ | ३|७६ | कल्याण्यादीनामिनङ् ३३१/१२५ कास्यनेकाच्त्याल्लिटयाम् २।१।३१ ४ | ३३२१२ | किंकिलास्त्यर्थं लृट २/३११२२ २१११२ विसर्वनाम्नो ५४४३६ दो निर्धारणे श२।२० । किंयदत्तद्वद्दुनः ३।३।१२५ किंवृत्ते लिहूल ये | ११४ ३७ ३|१|१४५ Esser मर्यादावचने ११४१२०
४/१/१४५
२।४१५२
कच उष्णे
कष्टाय
४१४६६८
५१९८११३ | २१३७७ करका दौ
I
४|४|१४७
I
२२२८
२|३|१२०
किंवृत्ते लिप्सायाम्
२ /३१४
२/११६४ काकिनादेः कु
कितीणो दोः
५/२/१६९
શાક
किदन्तः
१|१|५.४
२१४५६ कांस्यपारशी
१।२८ | काऽपादाने
I
शह
२४/२६
६|४|६८
२३३१०५
१२३२
१२/१२०
1
काण्डाडादरः
काण्यात् क्षेत्रे
का पध्यक्षयोः
का भीभिः
काभ्यः
कायाः स्तोकादेः
२४१३०
३४६१५६ | कारके
कायास्तम्
२३३६८
२२७४
११३४७६ | कारे प्रायः
२३३१० कार्मः शीले २/४१३२ | कार्यार्थोऽप्रयोगोत् २२/२७
४|११३७
|३|१|२६
४|३|२१०
११३/३२
२१७
४ | ३ |१२१
४|११७३
११२/१०६
४|३|१२८८
४(४१ १६३ શર कार्षापणुसहस्रसुवर्णशत- ३।४।२७ कार्यापणाद् वा प्रतिश्च ३४२३ कालप्रयोजना रोगस्य ४ १३१६ कालविभागेऽनहोरात्रा- २३३११३ १४२ का समयवेलासु तुम २/३३१४३ १/२११११ | कालाः
२८०
१८३/२७.
२१२२७९ कालाच्य
४/२/१९
२१ | काला
३१२/१३१
२/३१७४ कालात् पुष्यत् पच्य २३८ २/४/१५ कालायः
३।४।१००
१६४/४ १२/६७
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-सूत्राणामकाराधिकमः किदाशिपि २।४१८५ । कुशययुक्तेन चासेवायाम श४|४८ कौरव्यामुरिमाएकात् ३।११२२ किमः ३।४।१६२ कुशाग्राच्छः ४।२१५६ । को घेतो
१२४ किमः का ५।१।१६२ । कुशिरजेः श्यो में वा १९६० - फौशल्येन्यः ३११११४२ क्रिमिदभ्यां थान १।६० | कुसीददशैकादशाहो ३।३।१५.४ कोशेण्या देण.. ३१११५ किमिदमोः कोश ४/३/१९६ , कुस्तुमधुरुगोप्यदा ४३११६ पिइति
१२९६ किमितिमादामध्ये ४/१२० | होश्चः २।१६४ ! किल्लनि वा ५.२।२ किमोड:
४|११७८ | कृमिकमकुम्भकुशा ५/४१३४ । तिहाचा त किरतेलो ४।३।११३ : कृयः करगो युट रारा५५ । तस्याधिकरण liisa किरतेहपजीविकाकुला- १२॥३३ कृञः श च
८२ | तादनत्यन्ते ४१२१२ किरश्च पञ्चभ्यः ||१३४ कृजो द्वितीयतृतीयशम्म- ४।२।६२ तादल्ये किसरादेष्ट ।३।१७२ जो मिथ्यायोगेऽभ्यासे १२१६७ क्तिचक्तौ ग्वी २।३।१५० कुक्यो तयोः ५११६३ कृतो ये च ४४|११ तेनाहोरात्रभेदार १1३1३६ कटारश्चावान ३१४५० करो हेतशीलानलोम्ये शरा२५ क्या कुटीशमीशुण्डाभ्यो रः ४।१।१४३ कृन ननादेशः २११६४ क्वि स्कन्दम्योः ४४।३० कुण्डगोएस्थलभाजनाग३।१।३७ कृतलब्धीतराम्भूताः ३।३।१४ : पटमानिनोः ४३१४८८ कुराइपाय्यतंचाव्य २।१११०५ कृति
११७१ क्यचि
५२।१४२ कुवा हुँयः ४।११४४ | कृले ग्रन्थे
२०६५ क्यव्यनादधृत्यापत्यत्व ४१४/१४१ कुत्साऽज्ञानयोः ॥१११३१ । कृत्वनः १४|१७. क्यो त्रा
शरा८६ कुव कुत्सनः १३१४८ | कृमि
२|१८० ! ऋतूक्याटिमूत्रान्ताहग रा२ कुस्यवन्तिकुरुभ्यः ३११११५७ । कृवृत्ताः
शश६ क्रमः ५४२१ अम्बतियोगेऽतत्तत्वे- ४१५५५ । क्रमः क्वि
४11१६ प्रार६ कृपो रो लेऽकृपाद: ५।३।३६ / क्रमादेवन
३२२५३ कुमति
५/४/६७ कृवृषिभूजां यशोभद्रस्य श१।९९ : मिदमो यह शरा१३४ कुमहद्भ्याम् ४११०७ कृसभ्रवस्तद्रन थुधो ५।१।११६ क्रमो में
५/ ७४ कुमारः श्रमणादिभिः १।३।६५ क धान्ये
२८ | ऋगः स्वार्थ ४१३१७१ कुमारशीपयोणिन् २४६ के कमित्रथुप्रलयानां ५२
ल्ये
शरा६१ कुमुदन हवेतमाहत् ३२६७ केऽणः
५२१२५ । नियामध्ये केपी
११४६ कुम्भपयादिः ।।१४१ केदागच्च ३।२।३५ क्रियायोगे
गिर।१३० कुरुयुगन्धरेभ्यो वा ३रा १०८ केनौ वि (चि क ३२४६५५३ ' क्रियासमनिहारे लोट तस्य २।४१२ ३२११३६ । केरेङः ४॥३॥५७ क्रीड-जे
४१३१४२ कुज्यन्धकवृपः ३।१।१०३ | केशाधो वा ४१।३५ कोडाजीविकयोनित्यम् ११३८० कुलटाया
वाद ।११६ । केशाश्त्राभ्यां बन्छी वा ३।२१४० बीडोऽनुपाड श१५ कुलल्यकोऽहोऽण. ३।३।१२६ | कोडोष्ण ३।२।११० कोतवपरिमाणात् ३।३२११४ कुलाइकन च ३।१।१२७ ' कोपास ग्राम-मतौ ॥३॥१०१ . क्रौतस्करगादेः ३६१।४३ कुलालादेथुन श८७ कोऽवियाबादेः रा ३५ | ऋधमण्डात्रा१३३ कुलिजाच्च ३/४/५४ | को
५।२।१०१ श्रीपादः
३शश६५ कुल्मापादा. ४।१।१५ | कौण्डिन्यागस्त्ययोः १।४३१४१ यादेः श्ना २१११७६ २।३।१५ । कौनिजलालिपटादश ३।३११०० । ग्लिशः
१२८१ ५४
कुम्वोत्ये
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
विव
४२६
जैनेन्द्र-व्याकरणम् क्लिशम्तक्त्योः ५.१६८ | खायन्यपदार्थ ११३।१८ | गारयजगाखौ ४।।१६ क्वणो वीणाशं च शश६८ खारटनः ४।३।२२७ गाथिचियिशिपगि ४१४|१५७ स्मित्वत्व कु: १३।७५ : खित्यः ४३३।१७६ | गावट:
रा६३ खेऽभ्वनः ४४१६. गिप्रादुन्या यऽध्यतः ५।४।६८ क्षत्राद्धः ३।१।१२५ खेयराजसूयसूर्वमृषोत्र २।११४ , गिरिनटीपौर्गमात्याग्रहा-४१२।११२ क्षियोः ४॥३॥६८ खोऽलं कर्मपुरुषात् ४१२।१५ ! गिरिधने किंशुलुककोटग ४१३।२२० क्षिप्रवचने लट् २।३।१०६ : सौ १।३।३८ २२४२६; गिरेश्छः शस्त्रजीविपु ३।३।६५ क्षियाशी ५३१०२ ३३१८६; ३।४।५.७; : गुणारसंख्यादेः २०६३ क्षियो दी
४|४५८ । ४१२।१५१, ५।३।३२ | गुग्गे श्रीदत्तत्यास्त्रियाम् १४१३४ क्षीणः
५३॥६४ । खौ कन्योशीनरेषु ११४१६६ गुणोक्तिबाझगादिभ्यः ३।४।११४ क्षीकृशोल्लाघाः ५३।७२ | स्लो मनमः ४३।१२३ | गुणोक्त स्तोऽस्वरूस्फो:३।१।३० श्रीगलवणयोलौल्वे ५१।३३ । खो विभाषा बुसा २।३।६० । गुणोक्त्येषत् ११३६६ क्षारहविपो शृतम् ॥३।२२ | खौ शरदो बुञ् ३।३।३ | गुपृधूपविच्छिपगि- २११२६ क्षीरामण ३२३१५ | खो श्रमणाश्वस्थाभ्याम् ३।१६ । गुपतिकिझ्यः सन् १३ चुतद्धगधेऽदानायो- ५।१४३ | ख्यत्यादतः ४।३।६ । गृष्टयादेः
३२१११२४ तुद्रजांधाः १४१५८४ शः शो यो वा ५४१२४ । गे:
४/२।११९ नद्राभ्यो वा ३।२।१२०
ग गेः काशे
४।३।२२४ क्षड्बसतेरिट ५/११०० । गत्यर्थवदन्छः ।।१३८ . गैः ग्वा नोः ५१४६ चन्धस्त्रान्नध्वान्तलग्न-५११२६ गवरः
रारा११७ गेः मुम सुमोग्नुन्नुमः ५:४।४५ तुम्नादिपु ५।४।११७ | गदमदचर नमोऽगः ||८७ गेत उत् ४|४|१00 तुर्भुवः २१३।३३ ' गबनावक्षेपसेवाऽन्याय- १/२१२७
शश६६ क्षेपाव्यथातिग्रहावकर्तृ- ४/५१ | गन्धस्येरुत्पूतिसुसुरभि- ४।२।१३६ | गेरध्वनः
४ाश क्षेप १३४१ | गनः रा२४५ गरयतो
५शि क्षेपे किमः १।३५९ | गमः क्वी
४|४|४१ गरसेऽपि विकृतेः क्षेमप्रियमद्रेऽण, च शरा४२ | गमहनजनखन
गेरूहः प्रः
पा।१३२ ५.३।६८ | गमिषुवमा छः . ५/२।७५ | 7 स्तोऽचः पा।१४९ क्सस्याचि खम्रा६६ गमेरिण में
१०६ गेहे कः
२१११११ गमो या ११ गोः
४|४|१ रव पादस्याहरूपादेः ४२११३६ | गम्भीरायः
गोखलरथात् खं पिचश्चत्येत् ५२१११७ । गम्यादिवस्येति
२।३१ ।
गोत्रावयवात् ख
६।१।१२८ । गर्ग देयंत्र ३४ | गोधावा गार: खचि
४१४/८८ | गर्तयुगहादिभ्यश्छः ३।:१४ गोषयसोपः । खन्नाऽक्रमे १३/२३ | गई २।३।१२५ गोऽपित
१११।७८ खमादेशे ५।१।१४६ गवाश्यादीनि च १४८७ गोब्रह्मवर्चसान खरि ५.४/१३० गष्टक
शरा ! गोयबाम्बपदाली ३।२।११३ लश्चात्मनः
शरा७१ | गायोः ५२।८१ ' गोरदुषि ४।२।१४ खारीकाकणीभ्यां कप ३।४।३० । गाङकुटादेरगिनिहत् १।१७५ । गोरिन्द्रय ४१३५१०१ खार्या या १०४ गालिदिश ।१२१ । गोणित्
५१६७
गे यक्
ख
...
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्रीहेः शक्रपुरोडा ३३३११३ घोवा
गोहे रूहः
गौणाशचारे
गौयुथको
गौ भोः कः
गौरादेः
गौ रुवः
શરા
गोष्टी नाश्वीनकोपीन ३|४|१४१
ग्रन्थान्तेऽधिके ४) ३ १८८७ हिज्यावयव्यभिवशि ४ | ३ | १२
ग्रहेः
मोऽलिदिदी: ग्रहोsवे वर्ष प्रतिवन्धे
मामकौटायां वक्ष्णः
ग्रामसहाय
ग्रामराष्ट्रयोर
ग्रामापर्यत्रो
ग्रामात्र
आमस्तुत्रः क्विन्
ग्रीवाभ्योऽन
श्रीमवसन्ताद्वा
श्रीमावरसमा म
ग्रोब
मोवात्
ग्लो
जैनेन्द्र-सुत्राणामकार॥ दिक्रमः
५२३११६
४४८३
२१८ मुद्रा तो द
२११/१२० २३७३
ङमो नित्य ङसिङसोः
३|१| २३ |ङसिङयोः
उसे:
घ
२|२| १३ | डि
स्वाती नुक ङिङस्वोरतः
११२ / ४७
२०३५७
ग्लामुनिस्थः वस्नुः २ ११५
ङितः मखम्
ङिति प्रश्च
डिन्दातः
५/१/२८
विलो विद्यति ४|४|१३
५/२/१८३
१११ |४३
५१८५
२३४७
४२६७
३।२।३७
(२/१२७ लौ परान्च
३।३।२० | डेरान् म्बाम्नीभ्यः ३१२/७४ डेयः i २१२/१५६ | मुरम् ३।३।३२ ङौ ३।३।२१
गोः कुकटुक शरि
३ | ३३२४ | इयादः
५। ३१३८८
११२६ प्रात् ५|४|११६
य
२४/१२९ चरेः ५२८३ चरेष्टः
चर्मणोऽत्र
२|४|१४
चर्मवदलीय चक्रीव ५३३३३
२|४|१७
११२१८८४
५१२१६०
४|४१७३
४ | ३ |१३
५२६०
१९१२/१२८
४|३|१६
२३शहर
૪૨૩૨
४३३२२८
२२३३१६६
३|१|१२|विदित्युपमार्थं ५|३|१०० चिन्तिपूजकथिकुम्भ २२३८७
४|३|४६
४१२६
२|४|१९
५.३४०
११२२१३२
५/२/१३५
४३३६७
५ | १|१३
६२५०
२|४|८०
११२६६
५.११।१४०
चर्मोदस्योः पूरे:
चल्यर्थात्
चरवात्र खम्
स्याऽस्वे
चस्पां लिटि
११४/१२५ ५/२०५६ ३।१।११७
चान्
चादिरसत्
नायः कीः चार्य द्वन्द्व
चि
चिते: कपि
४|३|१२६ ५/२/११० चिकुरोर्णी
५।१।११
चम् ५ | १ | २४ चेलेषु वनोपेः
१/२/३
५३४/१२
३|१|१
वक्षः शान
चोः कुधिएएयत्रोस्तै चटकाण्यैरः
चतुरनडुहो ५३१/७२ | छत्रादेः चतुश्शारेरत्रिकुन्तेः ४/२/१२२ छदिरूपधत्रले
वणि भावकरणे
४/४/२७ । चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ३३४ | १४० छन्दः खौ यमनुष्ये प्रायः ४ ३ २२६ | चम्पानिषाद- ४।३।११५ | छन्दसा निमिते धनान्तर्घणप्रत्रणप्रघाणो २/३१६९ चतुष्पाद् गर्मिशयाः
घस्लृलुङ्ङ्घञ्मनक्नु- १|४|१११ चतुष्पाद्द्भ्यो ञ घेर्दीः ५/२/१६१ | चरणानामनुको
२। ३१६१ ३|१|१२३ ११४१७६ ३२/२८८ छवि
बेलौ
चरणेभ्यो धर्मवत्
४। १ । १३५ ४|१/६६ घौ कच्यनक्खे सन्चत् ५ / २ / १६०
घोषान
३३१३२ लश्चाभ्यमित्रात्
चति चरफोरुच्चोडः
श्वायुधात्
५/२/१८५ २२/१२२ छादे
ध्यादेरिकः
घ्युङः
२१२।२१ छाया बहूनाम्
कुः
चित्रादिः
च्चों
छ
४२७
छः
३/२/२३
छकार केऽन्यस्य दुकू ४/३/२०४
छगलिनी दिनिए..
213150
३१३/१८०
११११२
२३३२
३/३/१९९
सो यः શરાજન छन्दोगक्कियाशिक ३/३/६७ छन्दो ब्राह्मणानि चात्रै
२/२/५६
५४२५
३|४|१४०
||૨ ૨૭
४|४|१०
१|४|१८
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________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
४।३।६१ । जीविकोपनिषदाचित्र १।।१४८ छेदादेनित्यम् ३।४।६२ | जुमि
५८. अइच
४।२।१२८ छोऽनुप्रवचनादेः ३१४१०४ | जप्पोऽत रास८५ अस्वरितेतः कत्राय फ १।२।६८ अयोः शुढे च ४।४।१७ | जनश्च क्तः५१।१०३ बान् स्त्रिगाम्र
र । श्विस्तम्भुनचुम्लुचु. २५० | जिकृती मुक ५।२।३८ अनित्यादयः ४१५ जा ४११९५; ४१३१२३४ | त्रिणमोर्टीमितान् ४४८६ जङ्गलधेनुवलजे पा२।३०
२०५३ 'त्रिणमोचीडगे ५११४८ जनपद उस् ३।२।६१ ज्ञाकृतीगङः कः ।१।१०८ | जिएयराजापा न्युग्यि- ११४१३० जनशो
४१४/३१ । शागम्पद्यर्थधेरणि कनी गौरा११२ मिनोऽरण ૪૨૨૭ जनसनखनाम् ४।४।४३ ज्ञाजनोजर्जा
पूरि७७ । भिन्नभिविधी
२।३१६ जनिबध्योः ५।२।४० । जीप्सास्थेयोती श।१८ जिडौं
२।११६२ जनेईः रारा ज्ञोऽगेः
रा७१ त्रिस्ते पदः 'जन्यनेनुष्यान्नवश्ववन्य-३।३।१६५ जोऽपहवे
रा४० प्रीतः क्तः शरा१६५ जयजमदहृदशमापशाम्५२।१८४ जो स्वार्थ करणे १४५८ अरपः । ४१४६५ जम्न्या बोश्च ३।३।१२३ | ज्यः ४।१।१२०४।३।३५ त्रिपचः पूरि।३ जम्पलभ्यकार्यमुकरम. ३।४।९२ । ज्यादेवसः ४/४१५२ ! द्धिदातविकारे ४।३।१५१ मासमा वासङ् ५।१।१६० ज्योतिगयुपः स्तोमः ५४६४ : अल्पभिक्षकुलुएट- २।२।१३८८ स्योतिरुद्गलावाडा वारा३६ टस्वोरेवाह्नः अश्शमोः शिः ५.१।१७ ज्योत्स्नातमिलाङ्गिणी- ४१४० टगमनुष्ये
शरापू जसः शी ५।२।१४। ज्वरत्वरस्त्रियविभवो वोडोः४४११८ याचि
३११६ जसि
५।२।१०४ 'लितिकान्तारण: रा११११३ : टिदागज टराटचरपः ३।१।१८ जागुः शश१३६ .
टिदादिः
श१५३ जागुरविक्षिणलडिति ५२
। रिटरे
२४६५ जातमहवृद्धादुक्षः ४२७८८ | झकारतनेकालेभ्यो वा ४।३।१३३ / टेः ४।४।१२६; ४।४।१४५ जातरूपेभ्यः परिमाणे १३।१०४ झयो हः ॥४|१३६ / टौसियेन देतदश्च ४।३।११९ जातिनाम्नः कः ४।१।१३७ | | झरूपकल्पचेलव' वगोत्र४।३।१५५ कण कापिश्याः ३।२७८८ नातिश्च ४१३।१५३ | झरो झरि
स्वे
४।१३६ | हिवतोऽथुः ॥३।७१ जानुययदायटी लिङ् २।३३१२३ || झलां जश झशि ५/४११२८ जातेरयोः ३।१।५३ झलिका
१८३ | टन कवचिनश्च ||२६ जातेात्
३११।४५ झलो जश ५.३।५७ ! दाइभस्त्रादेः ३।३।१३९ जातेश्को बन्धुनि ४।२।१८ | झलो सलि५ .३४४ | टण्डौ
शरा६४ जायापत्योल नणे शरा५१ | झल्यक्रिति सृष्टशोऽन् ४।३।५ टश्चायसि ३।४/१ आयाया नि ४।१।१३५ | भावनिष्टोक्तौ कृत्रः २।४।४४ । टयेक जासनिप्रङ्गनाटकाथ- १४६३ | भि विभक्य वासद्धार्थ -११३५ टाचि द्वितीयात्परोऽच:४।१।१३६ जिह्वामूलाङ्गलेश्चः ३।३।३८ | झिसर्वनाम्नोऽक्वाकरे:४।१।१३० टनाचनः जीवति श्ये युवाऽस्त्री ३११८१ ! मेर्जुस्
२।४।८८ | टोऽगारान्तात् ३३१८७ जीवाकृते प्रहिकृत्रा २१४१२१ मेस्तुद
३८१ जीविकार्थेऽपण्ये ४११५३ | झोऽन्तः
५।१।३ डा
स|४६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रह कः वयसि
डी:
हट्यात्मनः डीप्रमारयोर:
डाजस्तानतः
डालोहितात् क्ष् त्रिः त्रिः
३२४ | ४७
ड गुणतृतार्थ
१।३।७५
उतरादेः पञ्चकस्य टुकू ५११२२
बना घुट् सोश्चः
५/४/१३
४ | ३ |८५
२ /१/११
२३१७०
दू
दणि खम् दण् च मण्डूकात्
ः खम
हो हे खम्
द
जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः
४|११११
धुनुचौ
४|१ | ५३ | एवोर्व्याः
४ | ३ | १५०
गोत्री
श्री नः
गोऽनितेः
४ | ३|१२५ 'तः
४१२/११६
३|१|१२२
३ १११०८
४१४११३५. ५/४११७
पूर्वस्याणी: ४३३२१६
४२६
३१४ | १५ ३/३१५९
त
२|१|१०६ | तदस्यास्यस्मिन्निति मनुः ४ ११२३ २१८२ तस्यास्मिन्निति तद्गच्छति पथिदूतयोः ३१३१०२ २२८५ तदीयते नियुक्तम् ३/३/१८४ लः सेट प्रूशीस्विन १४३६२ तद्धरति बहत्यावदति २०४१४६ २१/७२ तद्युक्तात् कर्मणोऽण ४१२१४२ २३४८ तद्योजको हेनुः ११२/१२६ तद्वत् ४ २२७३ तद्वहतिरथ युगप्रासङ्गा-३ २३१६९ १९३२४० तद्वाचि धौ यदि २२३०१३९ ३।३।२ तद्वेयधीते
तज्ञः स्त्रार्थे
ततः श्रागतः
तती नु
५/२/१७१
ततो यूनि
३११८०
तत्र
३२५१
३४१८९ तनादिभ्यस्तथामोः
१|४|१४८
_४|४|४६
४|४|१५
तपः सहस्राभ्यां विनिनी ४११२६ तपस्तपःकर्मकस्य कर्मवत् २।१।६१
२११५६
४२८४
३४७६
४२२८१
तत्र नातः
तत्र दीयते भववत्
तत्र नियुक्तः
तत्र भवः
तत्र विदितः
तत्र साधुः तत्रेदमिति रुरूपे
तत्रैव
णम् चाभीये
गुरो बा गाविष्टवन्मुदः
४ | ३१४५
खिचः
४|४|१४६ ११२/७२
किमेः कर्तरि कन्नू २ | १ | ४३ गणेः २ | ३ |७७; ४|४|५३ भस्मेर्हेतुभये ११२/६४ ५|४|१०९ | तत्
४१३ | ५४ ५४ | १०४ गौ कन्युः प्रोशा ५/२/११५
लौ गनशाने
खौ मृगरमणे णौ सन्कचोः
३|१|११६ || तोमुत्रेभ्यः
३१
तत्प्रकृतोकी मग ४२२८ तमसो ऽयसमन्धात् ४तमीप लोमकूलात् ३ | ३ | १५१ तमेष्ठावतिशायने तथोर्थोऽचः
५/३/५६ तयोर्व्यक्कार्थः
तद्:
३/३/१८६ तनोतेरीके
३।३।२८
नोव
३४१४३
दीनोक्तौ
तदन्ता यः
तदर्थं विकृतेः प्रकृतौ
तदईलि
३।३।२०२
१२३८६ तपोऽनुताने च
१४/१०८६
तप्तान्ववाद्रह्सः
४१४५ तत
४/३/५९ तत्रक्रममकावेकार्थे १२६ ३|४|११
तमम इति
तानीयो
३ | ४ | ६०
३/४ १९०६ तदस्मिन्नधिकमिति ३|४|१६७ तदस्मिन्ननं माखौ ४ । १३१४ तदस्मिनस्तीति देश: खी शरा५७
तस्मन् युद्धं श्रोद्ध
३१२४८८ ३२४/४६
तदस्मिन् वृद्धाला
ग्यः
२ १/१०१
११४|११८ ४/४/२६ ११४|१२३ तदस्य पएम् ३।३।१७१ तदस्य ब्रह्मचर्यम्, ३४८७ तस्य संजातं तारका- ३ | ४ | १५७ तदस्य सोदम् तदस्यांशवस्नभृतयः
य आवश्यके ५।२।६५ एयासश्रन्थिमद्रिवन्दि २२३२८९ योऽतिथेः
४/२/३३
४|१|११४
२४|५.५.
२३३१३०
३।२।१२३
५११९५५
२११८३
३/३/८२
तस
तसाद
४/३/१४७
तसे:
४|१|७४
तस्मै प्रभवति सन्तापट ३४६५ तस्मै हितम्
३१४|४ ३।४११०६
तस्य
तस्य दक्षिणायज्ञाख्यात् ३४१८८
तस्य धम्
तस्य निवासाद्दूरभवो तस्यन्तिकस्य कादेः ३।३।२७ तस्य पूरणे बट ३२४|५५ | तस्य चापः
३|३|१६८
३२/५.६
४|४|१४२
४/१/१
३/४ | ३६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ता
४।३।२०६ , वेस्तु च
नृन
तेऽएये.
जैनेन्द्र-ज्याकरणम् तस्य विकारः ३।३।१०२ । सुन्दादेरिलः ।।४३ । लदादि
२६९ तस्य व्याख्यान इति च ३।३।४२ | तुभ्यमह यो यि ।।१।१५४ लदादरः ५११११६ तस्य शतृशानायबैकार्थ।२।१०२ | तुमर्थाद् भावे ।।४।२५ त्यदादो दृशोऽनलो के टक्चरारा.८ तस्य समूह
२२।३२ | तुमीच्छाया धोशेप १५ व्ययोश्च ५।१।१५७ तस्यापत्यम.
रा७७ तुकतुं के २।३१३४ त्यस्थे क्यापीदतोऽमुपो परापू० तस्येदम्
३।३८ तुरिझमेयस्सु ४|४|१४४ त्यादेशयोः ५४।२६
१।३।७० । नुहोस्तातशिपि ५।१।३० वपुजनुनोः पुक् ३३।१०६ ता नानादरे १४/४६ | तूदीवर्मतीभ्या दगा ३१३।६८ | त्रसिगृधिषिक्षिपः क्नुः २१।११६ ताऽतसर्थ त्येन १४१३९ | नाणीमि भन्नः २४१४८ बानाहीनदोन्द्रविन्ते- ५७३ तादी मा. ४२११७ | तुजकाभ्यां वोगे ३७८ | त्रिचनुरोः स्त्रियां तिम्-पा।१५८ ताया माकोशे ४।३।१३४ तुज्याश्चाहे २।३।१४५ | ः
३।३।१४४ ताया रूग्वश्च
पारा६० . न कस्याः ३।२।४४ ताया क्याश्रये
४/५३ नणे जाती
४1213 ता शेष १/४/५७
२।२।११३ त्वयः
५२५ | तृप्यत्वोः क्रियान्तरे तासरल्योः खम् ५।२।१५२ । ।
|४|४२ | ल्यमावेके
पूरि५६ । तृतपोः
४|४|११३ तासामापपरास्तद्धलचः शश?
२।४/२७ । तमोरये घन
स्वर्यपादाने तास्थाने ११।४६१
२१३।१०१ त्वामाविए:
५११६
४४५९ ता देती १।४।३५ :
त्याही मो ५.1१1१५३ ते द्रयः
४।२।९ ति शश१३१ ५२।१८६ तेन
ये ग्यापोः क्वचिल्लो ४।३३१७३ तिककितवादिभ्यो इन्द्रे १।४।१४०
तेन किन्यालये ४१०७ तिकादेः किन् ३।१।१४१
४१३१४ तेन क्रोतन, ३४३५ | तिकिरायेऽदो जग्धिः ११४५११० तेन दीव्यति खनति
२४ यविसेः
३।३।१२७ ' तिकुप्रादयः ३२८१
४/४११०३ तेन निवृत्तः शरा५८; ३१४७५ थानोरातः तिकुत्रतसिसुमरकसे-५।१।११६ तेन प्रोनम् ३३७६ । थस्य
४/३१३० तितिरिवरतानुस्खण्डि. ३।३।७८
तेन थाकथात्र मताभ्यां ३।४।११ | शस्य गे पित्यचि ५रा५ तिपि घोः लेन रक्तं रागात शशर थास: से
२।४।६६ तिरश्च्यपवर्ग २१४१४५ तेन वित्तश्चुचुचणौ ३।४।१४६ । यो न्य: तिरसस्तिर्यस्खे ४।३।२०० तेभ्य इपय ११४४३ तिरसो या
५/४/३० तेभ्यो भवति या
१३६ दंशसंजस्वजां शपि ४२४ निरोऽन्ती शा१४० तेरमंख्यादे तिलयवादखो ३।३।११२ ते विभक्त्या
शह दक्षिणादा
४/१११०० तिष्ठदम्बादीनि च १३१४ ते विशतेहिति ४|४|१२- दक्षिणापश्चात्पुरसस्वक् ३।२।७७ तिध्यपुनर्वसूनां भगन्द्र १११।६६ ते सेटि
४|४|१४ दक्षिणेमा लुप्रयोगे ४।२१३७ तिध्याययो गित ४४१३९ तोः सः सायनन्ले ५११६४ । दक्षिणोत्तराधगद्वान् ४८ तीवस्य डिति ४४ . तोलि
५४१३४ । दक्षि महोत्तराभ्यामनम् १६४ तीप्पसहलुभरुपरिषः ५११९६ । तौ सन्द्र २।१०५ : दण्डादः ३४६४ तुण्डिवतित्रमः ४११५६ ल्यः
२।११ दण्डिहस्तिनी के ४।४।१६४ तुन्दशोकयोः पीरमृजाप- रा२।१० | त्यखे स्वाश्रयम् शश६३ ' दध्नष्टक
॥२॥१३
५.
०
.
.
.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दन्तशिखाल्ली
दम्भ इन
यायासः
दस्ति
दाज़: दधाओ
जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिकमः
५/२११३४
प्रतिस्पतिमास्यां ति ४२१४४
२।१३११६
धावनुप्
४२१२०
३|१|१३१ याचानुभित्रीनुनाशी
३१२०
५१२/१६७
दुहानुरुधदुह २२१११८ बुतिस्याप्योर्जिः रारा त्पपादिलिन्नति ५|३|हर | द्युद्भ्यो लुि
दूरान्तिकार्थैस्ता व ११४/४२ द्युभ्यां मः
मोदी से
४|१|३६|दीरकृद्गे १५८ | दुन्योरगी
२१११३३ दुसो दृ ४ | ३/२२५
२२५
दुश्च
दूराद्धू
२|१|११२ ५३८८ ५३/४६
दादेर्घोर्घः
तिकुक्षिकल मिक्ल्य- ३।२३३१
दाधा स्वभित्
११६१२७ हतिनाथको पहुः १/२/३० योः
४१२९६५ | वो जमिन
१५१३११२६ यो वरुणस्य २२११८१ नयोः
दाट सिराददीरुः २२१४२ | इन्कारापुनर्वयोः४४० श्रोः सं चाऽजिनस्व दानीम् ४|१८४ हवत दान्तशान्तपूर्णदत्त ५३१२११२४ दृशुरेप् दामन्यादेशः ४२१५ दामहायनात् संख्यादेः ३ २ १४ दाग्नीशसयुयुजस्तु |२| १६० दोनों सम्प्रदाने २|५|६० दिक्छन्ान्यारादितर १४१३८ देन दिक्छन्यो वाम्यो ४६२ देयमृग दिक्संख्यं खौ
हद क्वि दृश्यश्चिन्तायाम् दृश्यन्तेऽन्यतोऽपि
५३१२१ द्रव्यं भव्ये
देङने दिगिलिये
१/३/४५ देवेना
४२१६०
दिगादेरखौ
दिगादेर्यः
३२८४ देवताद्वन्द्वे ४/३/१३९६ ५/२/२६ ३।३।२९ देवतान्तात्तादयः ४/२/३१ देवादिभ्यः ४१२/१५४ द्वन्द्वमनोज्ञादेः
३/२/१२६
दिगादेषु च दित्यदित्यादिस्वपतिद्योः २२११७० देवा
२/१६४७
इन्द्राग
दिवः कर्म
११२/११५ देवा
४१२३४ इन्द्राच्छ
३।२७
दिन उत् विश्रौत्
४ | ३११०८ | विकशिशपादीर्घसत्रश्रय- ५/२६ | द्रन्द्रान् रमैथुनको २३६३ ५४१/६१ | देविकुश गौ २२६२६ १।१।२६ ११४१६७ देशेऽनोः ४१२ २०३ द्वन्द्वे बल्लङ्गम् ११४/१०२ देहाङ्गात् ३श३/३० द्वन्द्वेमुः ११३/६= कान्यकिः काले ४९९/८० द्रोपताप्राणि- ४११५९
देवयशिशोचिवृक्षिसात्य ३२९२६६
दिवश्च दिवसश्च पृथिव्याम् ४/३/१४३ दिवादेः यः २११६५ दिवाविभानिशा भाभा शरा२६ ४/३/१४२ १३८ दो: प्राचाम् ५२ १८६ दो दभोः १/२३१०१ दोषो दोऽत्रिवति ४/४/६२ | दोष्ठ सौवीरेषु प्रायः ३ | १ | १३६
दो: करलोङः
४।३।७२ ve
दिवो घावा दिशोऽन्तराले
३२२/११७
३६६
द्वितीयेऽनुपालये ४१२३१-८
दिशोऽमद्राणाम्,
हिकुरुन वादकोश- ३।२।१५३
दी
द्वित्रिर्भ्यः सुन्
४/२/२५
दीपजनपूरिताया- २०११५२ दोश्छः
दीप्युपक्तिज्ञाने हवि- ११२२४३ दीरकितः
१९० १।२।२२ ४ | ३ ३६
द्मः
५/२११८१ । द्यः
४६१७६ ५/२/१२१ द्रिः
1
५।२।१४८
४४८४
युप्रापातीची झ
५/१५ दुः
२२
द्वान्तस्य तो नः पूर्व ५३
द्रोः
१८
१८३
४|१|३४
४३१
द्वयोरेक:
द्वारादेः
५|२| १५.
४११११३८
TRIE
५२२८
४४३९६
४११५८
४२११८
तेनैवात्रियान् ४|४|१३३
द्वित्रिभ्यां मनः डि.चिभ्यां वा
६|४|१४६
२३|१९९ पर्वत जीता वा ३१११६२
रहस्याद
५/३/१३
3181238
४२७७
द्वित्रिरुपादायुपः द्वित्रिचोनिवितात् ३४२
४।२।१९५
श४८१६७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२
द्वित्रिभ्यामञ्जलेः द्वित्रिभ्यामण् च
विषेर्धघ
द्विच
द्विदण्ड्यादिः
माती परे
द्विविभज्येतरेव
द्वेस्तीयः
द्रयचः
विपः
द्विपोरी
द्विस्तावा त्रिस्तावानुगमम्४ | २२८६
समु
३।२।१३०
४|१|६
३|१|११०
३ | ४ | १४३
चोऽः
३/३/४४
दूधजुचः द्वयज्यगधकलिङ्गसूर- ३११२५२ दूनगरीतपः ४४३५२०२ द्वष्टः संख्यायामबा६४ | ३ | १५६
धः
धनुषः
धन्वयोः
解
भात्रः
धात्रपोत्रे
४|२| १०५
धूमादेः
१२११०५
I
पेः ११२१२१ ११२३० : २११२१४१
३ | ४ | ३४ ४|१|१०८
कौ
४१४६
१|११५६ श्री क्रियासमभिहारे २।१।१९ ४/२/१२६ धोस्तस्मिन्नेव ४३७० १६४/६९ ध्याये रमपादानम् ११२ ११० | नदीभिश्र वाचः कर्मि
४|१|११६
२२४६२ | ध्यानैः
२२१०६ वादेः परसः
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
i
न
नः क्ये
न कपि
न ते नासिकायाः ौ ३/४/१५१
न थातू
५/११५६
न थाश्मदः
२६४।७१
नदण्डमा वान्तेवासि २३१६८ न पियादीनि
११४१६०
१।३११७
१४१२४ | नदीमानुपन्योऽभ्य- ३२१११०२ १२३४२ || नद्यादे
.३२७६
४/२/५३ नवाग्मतुः
३२४६५
नवयचः प्राच्यभरतेषु शराव्ह
नखे
शश१८
नन्दिग्रहिपचिभ्यो ल्यु २।१११०३
५|१|१६
१२११०४ ५/२/११६ नकंरात्रिमहोम्यो दिन ४/२/७६
नमः
नपः स्वमोः
५११२०
न किचिदशन कोहादिवचः
४ ४ ४० ३६१४६
५|४|११
न पदान्तविरेवलोप १११९२१५८ नपरे नः ५३३० | नमोऽफलः ५२८ नमो वा
५१५१
४ |२| १११
३|१|५१
ये
४१४६८८
१२३/७३
विस्ताचित कम्बल्यात् ३/११२७
१।११३७
४।२।११
*11*
ननं मृदन्तस्याओं
नवं मुविधि कृतुकि नन्नमुखाखौ
नौ
४|२| १५५
५।३।५५
११२६
१|४|१३८
न गतिहिंसार्थेभ्यः ४।२।१३३ नगराकुत्सादाच्ययोः ३/२/१०६ ३२६६ न गोपवनादेः धर्मं चरति ३ | ३ | १६२ नगो वाऽजीने धर्मयन्यायादनपेते ३३३१९८ न वाहवयोगे धर्मशीलवर्णान्तात् ४११६५५ न जौ जिः
४|३|१८८५ Ro
४१३/३१
श्रमत् केवलादन् ४२१२५ न तिलकखार्थनाम् ११४/७२
५१२|१४६ नज
२|३|६८
२।२।१६१ नत्रः
४/२/६७
५/२/२४
धान्यरोहणे व ३१४/१२७ नत्रः शुन्वीश्वरक्षेत्रज्ञधावृति गे: ४२३१७९ न से भारीः शत्र छणि २२२ १०८ | नमोऽन्
५२१११
४ | ३ | १८१
धारेरुत्तमः
नत्र दुमः सथि
११२ ११२ १५.१३।४३
नि
विगत्यर्थाच्च
४/२११२३ नत्र त्रिसूत्रभ्यश्चतुरः ४/२/७५ २४६५८ नत्र से चतुरसंगतलत्रण ३ | ४ | ११५ २११०५ नडशादात्ि २|४|१ तादेः कु २३१६२ | नाद क
चिन्त्रिकुण्भ्योर च
शरा६६
योगे त्याः
रो
I
न प्रतिपदम्
न ये
नव्याप्य आसम नभावे कः नामिनि११३ नभ्रान्नपान्नवेदानाय ४३ ११८३ नमः पुरसोल्योः
५४२६ १५८
नमः शप्नु
नमः स्वस्तिस्वाहास्वधा६१४।२६ न माङ्योगे
४/४१७१
न माहेरपत्येऽवर्मणः ४/४/१६१ नमिकस्म्यिजस्कमहिं २२
विधी ५८३/२० नमोवरिवश्चित्रः पच् २११११६ नस्तो वा
४३८६
नमु
नाका
३|२|७१
न कभः
३२८८ | नरे ख़ौ
२१४१९
२१२३४५
४१३१२३०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
नेच्यात्
जैनेन्द्र-सूधाणामकारादिक्रमः न ललुट् सामीप्याव्यु-२।३।१११ | नासिकाया नात्स्थू- ४।२।११८ | नीलपीतादक) शश न लिङि ५/१८८७ | नासिकोदरौष्ठजयादन्त-श४८ | नुमशळवायेऽपि ५/४/३८ नवचेती ५/२०६४ | नासिक्यो ङः ॥१४ | नुया।
Y४ न वर्जने १।४।१२६ 'नास्तिकास्तिकदैष्टिकाः ३।३।१७८ | नृतस्यशेर्युत्र. रा११२ न वा रुप्यमत्वरमयुषा ५।३।१२८ | निमनिक्षनिन्दो वा ५१४१५२ | नृतेहि
५।४।११E न रा श्वे ४।३।२७ | निः
शश१२७
४३६२ न या साकाइने रा६४ | निकटावसथे वसति ३।३।१९० नेट
५/7EY न विस्ताचितकम्बल्यात् ३।१।२७ निजामुच्येप ५।२।१.७४
५शद न बृहत्कोङ ४३४१४६ , नित्यं गतिविशेष राशर, नेन्द्रस्य
पा२।२७ न वृतादेः ५१०७ | नित्य दुशरादेः ३४३।१०४ | नेगदनदपतपदभुमा- ५११०० न यो लिटि ४३१३६ । नित्यम् ३३१४५ | नेविविसी । ३४१५२ ने शराइवादीनाम् ४४|११७ | नित्यवीप्सयोः ५.३।३ | नेल स्वनादः ३।१।८ नगःश
५४९९ ' निन्दहिंसक्लिशवाद- २१२।१२७ नकाचः ४१५४ नश्च पुंलि ४१३।६१ निपानमाहायः शश६१ | नैकायें वो ये सामान्य- ५ा।३५ नश्चापदान्तस्य झलि ५/४1८ | निमित्त संयोगोत्पादो ३४१३७ नोड़ा
४।४1. नश्छन्यप्रशान् ५४२ | निमूले कपः २४२२ : नोस्थफान्
क्वा५ नश्शि तुक ५।४।१४ नियोऽवोदोः २३१२५ । नोऽपुंसो हति ४।४।१३. न समाहारे ४।२।६१ | निरभ्योः पूल्लोः ॥२६ । नोमता गो
१९६४ न सांमः ४।२११३ निरेकाजनाङ् शश२२ | नोऽसे मट
४शि२ न सुदुभ्यां केवलाभ्याम् ५/११४७ | निदुस्सुत्रः मुपिसूतिसमाः५/४६६ / नौ गदनदापठस्वनः ३६७ न सेंटस्तासि मोऽवनि- ५/२१३६ । निर्धारण १२७४ / नौ णश्च
।।५४ न स्कादौ न्द्रोऽपि ४२३ | निर्वाणोऽवाते ५३६६ नौ दयचष्ठः ३३१३१ न स्वतिकिमः ४६६ निवृतेऽक्षयतादेः ३३१४२ | नौ धर्मविषसीताभ्यस्ता-३।३।१६७ नहिवृतिवृषियधिरुन्त्रि-४१३।२१६ | निवासचितिवारीरोपसमा २।३१३६ | नौ बुर्धान्ये २३।४४ नहो धः ५।५१ ' निविदाः
रा११ न्यग्रोधस्य केबलस्य ५२।१० नाञ्चेः पूजे ४४२६ निव्यभ्यनुपरेः स्यन्दोऽ- ५।४५४ | न्यवादः ५२५८ नाहीयन्व्योः स्वाङ्गे ४।२।१५८ : निशाप्रदोषाभ्याम् ३।२।१३४ | न्यायपरिणायपायः २।३।६६ नातोऽम् त्वकायाः १।४।१५२ निषेधेऽलखल्योः क्या ।४।४ नाद्यन्ते
५/४७६ निष्कान्छतसहस्रान्तात् ४||४५ | पक्षात्तिः ३।४१६४५ नाधार्थत्ये व्यर्थं २४४७ निकषः
१६४ | पक्षिमत्स्यमृगान् हन्ति ३।३।१५७ नानेकरोः ४।४।६१ निष्णातनदीपणातप्रतिगा।४१७५ पंक्तिविंशतित्रिशच्चत्वा ३।४५८ नानोः १५४ निवाणिः ४२११५६ | पलोः
३७ नाम्न्याऽदिशिग्रहः |४|४३ निसः श्रेयसः
स८२ | पञ्चदशती वर्ग वा ३।४५८ नाम्प्रतिसूचतसृ ४४३ निसस्तपता बनासेवने ५४३४ पणः परिमाणे २।३५५ नावो रात् ४।२११०२ : निसंध्युपाद
श२५ पणपादमापाद्यः ३२४३१ नाशः खम् श६१ निस्तब्धप्रतिस्तब्धौ ५४८० | पण्यावद्यवर्यावह्यायोपस- १८ नाशिष्यगोरसहले ४११६१ नीग्यचीसुध्वंसु सु-७।२।१८२ | | पतिः से शरा नासिकादी धेटमः २।३३ - नीती व तद्बुकात् ४१११३३ । पतिवन्यन्तवन्यौ ३।१।३१
५५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
पत्नी पत्यन्त पुरोहितादेर्ण्यः ३३३ | ११८
पत्रात्
पत्रादण
पथः कट्
पथ: पन्थः
पथिमयुभुक्षामात्
परिमुखम्
परिश्रुतो रथः
२/३/६
परिव्यय क्रियः
पोवा
५११६२ | परिषदो यः ३ २३१६५ ३ | ३२२०५ | पाठो वा ४१२६८ | परित्कन्दः प्राच्यभरतेषु ५/४/५७ ३।३।१६ परे: ५४५६
पात्रायें
पथो चुन पपया
११
पोकोविच
२२११९ १।११५७
पश्यतिथिवसतिस्वपते. ३।३।२०७ | परेऽचः पूर्वविधौ पदद्योगृह्णाति ३।३।१६० परेर्घायोगे पदरुजविशस्पृशी श्रञ् २।३।१५ | परेर्वर्जने पदव्यवायेऽपि ५|४|११६ परेव
पदस्य
५/३/१४ परोचे लिट्टू
पदस्य टोननवतिनगरी५/४११२१ परोऽचो मित् पदादपादादौ
५/३/१५
परोपात्
११४/६
परी निः
पदार्थसम्भावनानुज्ञा पायैरिवयवस्येषु २/१३९८ पशेवरपरंपरपुत्रपौत्र - ३/४११३५
पत्रे पौत्र
५२८८ परौ भुवोऽवज्ञाने
पद्ये पन्थो ण नित्यम्
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
५|२| ४४
३|१|३३: परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः २२३११९ परिमाणात्संख्यायाः सङ्घ- ३|४|५६
पातेर्लुक पात्राद् घश्च पात्रेसमिनादयश्च
३३४ | ६५
३३३।६१ परिमाणादुपि
३।१।२६
F/૪૨
३३/९०
३।३।१५२
पाद: पत्
४|४|११६
३।४।७१
३१२१८ पादम्याङ्यमाङ्यमापरि १४२/७३ १।२।१२ पादस्य पाज्यातिगोप - ४१३११६३
३१६/१५
४/२/३२
पानं देशे
५|४|६३
पापासके कुत्स्यैः ११३१४९ पाय्यसान्नाय्यनिकाय्य- २।९।१०४
परः
परकाले ककर्तृकातू
परम्
परम्परान्योन्येतरेतरे
परस्यादेः
परानुकृञः
पराचरयोगे
४१३ १६४ परी य
३१४/७२ परौ बादिचि परदः
५३४०
५३/४
४१३३७
पारायण तुरायण चन्द्राय ३३४ ६८ पारें मध्ये तया वा १/३/१५ पाशरूपवाल श्लोक २३११२२
३।२।४१
२४१७८
१४/१५४
४३५६
३ | ३ |५३
शरा३१
२३|५१ पितृव्यमानुलमातामह २/३/४३ | पिष्टात्
३१३३११०
२१२ १२८ पीलाया वा
j
३|१|१०७
पुंखौ घः प्राण
२१३/१००
४ | ३ | १५४
पुंयोगात् खोरगोपाल- ३।१।२८ ४| ११७५ पुंवद्यजातीय देशोये २१४५१ पुंसि चाचीः २३६२ पुंसोदोऽ ३।२।११६ |पुंसोऽमु
१४११८
५/९/१६९
५/१/६६
४२६ | पुच्छ माडीवराणि २ । १ । १७ १२८६ पुण्यसुदिवाभ्यां नप ११४/१०६ पुण्यैकाभ्याम्
४राहर
२२/६५
२ १/५५
१४२/३५
५३२
1
राष्ट्
२१३३ २|४|७ ! पर्यपादिवः कपा १/३/१०
११३६५
पर्यमिवाम् पतिवचनेऽलमर्थे
११२/१०
११११५१ पर्यायाई गोत्पत्तौ
१/२/७६ पर्वतात्
पाशादेयः
पिच्चास्मदः
पिटे चिः
पिति कृति लुक्
पितुर्यश्च
२|४|६|दे
परावराधमोत्तमादेः ३ २ १२५ पलल्यादेः
परिक्रयणम्
११२|११३ | पल्यराज हस्तिभ्यो वर्चसः ४ २८० परिखाया दम् ३।४११६ पशुध्वजः समुदोः २२३५६ परिणाऽशलाकासंख्याः १२३३८ | पाककपर्णपुष्पफलमल ३ | ११५४ परिनिविभ्यः सेवसितसयाम्५/४१५१ पाकमूले पीलुकर्णा- ३|४|१४४ परिपथं तिष्ठति ३।३।१५८ पात्राध्माट्शः शः २।१।११० परिभूनिदृक्षिविश्रराव- २।२।१४० पाप्राध्मास्याम्नादाण : ५/२/३६ | पुरायावतोर्लट् परिमाणस्याखुशाणे ५।२।२२ पाणिघताडघराजघाः २/२/५३ पुरि लुङ् बा परिमाणस्यानतोऽद्रा ५/२/३२ पाण्डोड्यं
पुत्राच्छ वा
पुत्रान्ताद्वा
३|४|४०
३११.९४६
पुत्रे वा
४ | ३ | १३५
पुमः सव्यम्परे सोऽनुस्खा - ५/४११
२/३/२ FRIES
३|१| १५५ पुरुषहस्तिनोऽच ३।४।१५९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र सूत्राणामकारादिक्रमः पुरुषाण, ३/४६ | पौत्रादि वृद्धम् ३॥११७८० | प्रयच्छति गहर्षम् ॥६।१५३ पुरुषात् प्रमाणे वा २: | प्यस्तिवाक्से क्वः ५॥१॥३१ प्रयोजनम् ४११०२ पुरुष वा ४३।२१२ | | प्यायः पो
४/३१२३ प्रवा
श२१७८ पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सुः ।।२३ | ये
४।४।३८ प्रवाहणस्य दं दस्य ५१२३३३ पुरोडाशाहम् ॥३/४५ | प्ये धिपूर्वान् ४|४|५६ प्रशंसायां रूपः ४।१।१२५ पुरोऽस्तं मिः श।१३७ प्येच
४१३१३४ प्रशंसेऽहैं
शरा११ पुवः स्त्री २।२।१६३ | प्रः ४/४/८७ ५/२।१६३ प्रशंसोक्त्या
११३१६२ पुवादुत्
प्रशस्यस्य श्रः ४|११११९ पुस्करादेशे १५.६ | प्रकारे
थार प्रश्ने चान्तर्युगे ।२।९७ पुष्यसिद्ध्यो भे २१६६ | प्रकारोक्तौ जातीयः ४।१।१२८ प्रसहनेऽधेः शरा२८ पूगाभ्योऽग्रामणीपूर्व त् ४ारा१ | प्रकृत्याऽचि दिपाः ४।३।१०३ । प्रसितोत्सुकाभ्यां भा च १४२ पूङ ५/११९६ प्रकृष्टे टा ३४११०१ ' पत्यो या
५.३६६ पूयजोः शानः ।२।१०६ | प्रकृयगहें मन्यकर्मण्य- १४२७ प्रस्थपुरवहान्तात् ।।१०० पूजाकुत्सयोय॑त्यवः ॥११८४ | अचये दा
२।४३ प्रस्यैप
पूारा१०३ पूजिते
५३६६ प्रजने वातेः ४|४७ प्रहरणम्
३१३१७६ पूतकतोरै च ३।१।३६ | प्रजने सुः २।३१५८ प्रहरणमिति क्रीडायां णः ||YE पूर्णाद् वा ४।२।१४६ प्रजामेधादस ४२११२४ प्रहासे मन्यवाचि युष्म-शश१५४ पूर्वकालै कसर्वजस्तू पुराण ११३१४४ : प्रज्ञादः
४२१४४ । प्रारणपश्छः पूर्व त्रासिद्धम्
२७ | प्रशाश्रद्धा वृत्तिभ्यो ए४।१।२८ | प्राक्तैर्वाऽसमः २।१८१ पूर्वपदारखावमः ५/४/८७ | प्रतिकण्ठललामार्थात् ३।३१६१ । प्राक्सितादापि ५/४|४३ पूर्वम्
११३६७ प्रतिजनादेः खम् ॥३२०३ प्रागदोरण शरा६८ पूर्वश्च
४/३१६ प्रतिझाने समः शरा४८ प्राग धोस्ते शरा१४६ पूर्वोत्
४१॥२०॥ प्रतिपदमेति ठश्च ३।३।१६३ | प्राग्याइए ३।३।१२६ पूर्वादवो नव ११४२ | प्रतियले कृतः श६० । प्राग्वतष्ठा
३१४/६१ पूर्वान्यान्येतरेतरापरावरो ४।१।८७ | प्रतियोगे कायास्तसिः ४२१४६ प्राचां कटादेः शरा११५ पूर्वापरप्रथमचरम ३१५३ प्रतिश्रवणे
प्राचां ग्रामाणाम् ५१६ पूर्वावरसदृशकलाहनिपुण १।३.२८ , प्रतः
४/३।१०. प्राचां नगरे
५शिरह पूर्वावराधराणां पुरव- ४।१।१०३ | प्रतेरस ईपः ४|१८५ प्राचामियोऽतौल्बलिभ्यः१।४।१३२ पूर्वाहणापराहणाऽऽमिल-३१३१५ | प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः ४।२/७१ प्राणितालादेः ३३।१०५ पूर्व कर्तरि
रा२४ प्रत्यभिवादेऽद्रस्यसूयकेाशह१ | प्राणितूर्यसेनानानां वन्द१४१७८ पूर्वोऽमि ४३३९४ प्रत्यभ्यतिक्षिपः ।।७७ | प्राणिन्युप ३४८६ पृथग्दिनानानाभिवी १४१४१ प्रत्याश्रयः शश५५ ! प्राण्यङ्गरथखलयवमापन-३।४/५ पृथ्वादेर्वेमन् ३।४।११२ प्रथने वावशब्दे ३१ प्राण्यङ्गादातो वाऽलः ४११।२४ पृषोदरादीनि यथोप द- ४।३२१४ ' प्रथमचरमतयाल्पा,कति-१।१५४१ ' प्राण्योषधिवृक्षेभ्योडक्यशश१०३ ४/३१६६ प्रपूर्वस्य स्त्यः ४३१८ प्रात्
४३१५८ पैलादेः १४|१३१ । प्रभवति
३।३१५७ प्रातनिःशरेचप्लक्षाम्र. ५/४/८E पोटायुवतिस्तोकशा६० | प्रमाणासयोः २।४।३६ | प्रांदारम्भ
श२१८ पोरदुखोऽपिपिरपि- २१८५ | प्रमाणे द्वयसपन. ३४१५८ | मादिः
११२।१२६
पेपमि
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
चले
४३६
जैनेन्द्र-व्याकरणम् प्राद्गो ५।३।४५ [ फेनादिलश्च ४११२६ : भक्तिः
३/३/ ० प्राद्धृत्यमिकस्ति ५।४।७३ | फैश्छ च ११३७ : भक्ष्यालाभ्यां मिश्रणव्य- ११३१३० प्राध्य बन्धे शरा१४७ |
भजो शिवः ॥१६५ प्रायश्चित्तिचित्तयोः ४।३।११७ बन्धोऽधिकरणे २।४।२८ भजभासमिदो चुरः ९१२११४४ प्राओऽनपत्येऽणीनः ४।४।१५५ | बन्धौ बे
भजेनौं
४।४।३२ मायो (4 आ) भीक्ष्रये २।२।६९ | चलादेमंतुी ५/१५७ भगात गत ३०१०१०० प्रावृप एण्यः ।।१३६ |
४।३।२२१ मक्तारण लसौ ३२०६१ प्रावृषष्ठः
३३१२ | बहावीरेतः । ५.३।८६ | भवति प्रियवशे पदः खन्न ।।३९ । बहुत्वेऽदोरपि ९२११०१ बजेर प्रिवस्थिरस्किरणदर ४/४.१४८ | बहुपूगगणसङ्घल्य ४१४ भवदभगवदधवनो वा रिः ५/४३ प्रसस्वः साधुकारिणि २।१।१२२ । बहुलं दौ ११४१२६ । भवद्वद्वा तत्सामाग्ये २५३११०७
शरा४ बहुल गुरुवृद्धतृप्रदीर्घ ४।४।१४९ : भव्ययप्रयचनीयो- २।४।३३ पेस्तु श्रवः २।३।२६ | बहुलापिन्यालाटी ४१४६ ' भसन्च्याइतुभ्योऽवा- ३।२११३७ प्रेलपसमयबदवसः २।२।१२६ / बहोधा वासत्तौ ४।२।२७ । भौषामासाद्वात्यानां ५२।७२ प्रेलिप्सायाम् ३४२ | चद्दोवलसौ ५३१७ | भस्य
४|४|११८ प्रेल्वाप्चतुरो नुट ।।१।३६ | बही झल्येत् ५।२६८ भस्य टेः म्बर ५११६५ में वणिजाम् २।३।४८ ! रखनो ग्धोवा टः ४२१११३४ | भागाद्यश्च
४ise प्रसूजोरिन् ।।१३६ | बहजादेष्ठः ३१३१२ मा गुणोक्याऽधनोनः १३१७ प्रघातिसर्गप्राप्तकाले २।३।१३६ | ब्रह्वल्पाच्छस्कारकाद्वा ४।२।४७ | भागे चानुपतिपरिणा १४२२
५।२।१७६ | बहादेः ३।१।३१ | भानुलोपमा नुल्यार्थः ।।४।७६ प्रो पिच
शरा | बहू वृचो बहुल लम ३१३।४३ | भादाविदमोऽन्वादेशे ४।३।११८ प्रो नथि
११११७ ! बाढ़ान्तिकयोः साधनेदौ४।२।१२२ | मादी वोक्तपुरकं ५५३ प्रोऽम्बार्थम्बोः ५।२।१०२ | चाहन्तकट्टकमए इस्तुभ्यः ३।१।३० । भायुक्तः कालः ३।२४ प्रोष्ठपदानो जाते ५।२।२३ | विभेतहेतुभये ४३४८. माया श्रीजन्सहो ४४३।१२२ प्रोष्टेण्यजास्पदः ४।२।१२१ | बिल्वकादेश्छस्य ४।४।१४३ | भायें
रा४।१४ 'लक्षादिभ्योऽण ३।३।१२२ | बुध्युनश्जनेप्रस्रोणेः १।२।८३ | भावकर्म डि: १२।३० प्वादेः प्रः ५/२१७८ बृहृतिका ४।१४ ' भावनाचिनः २३६
बोध्यमसवत् ५।३।२४ , भावादिमः ३१४३ कट ३।शर० ब्रह्मास्त्रः |४|१२६ । भावे
२३१७ फणा सप्तानाम् ४४|११६ | ब्रह्मणो राष्ट्रेभ्यः ४।२११०६ । भावेऽगौ
२।२।६२ फण फिलोजी ११६ | ब्रह्मणत्रे कित्रम् ।।७५ । भावे त्वन्तलौ ३१४११० फलिभजोः४|४|११२ | ब्राह्मणमाणयवाडान् शरा४२ मासे
पाश३८ फलेग्रह्मात्मभ्भरिकुनि- २।२।३१ । ब्राह्मोऽजाती ४।४।१६२ | भिक्षादेः फल्गुन्याष्टः ३।३९ ब्रुव आइश्च २१४/७० भिक्षासेनादाये शरा२२ फाण्टाढतेर्णः ।।१३८ | ब्रुच ईंट
रा९१ | भिद्यो यो नदे १६५ फाल्गुनीश्रत्रणाकार्तिकी ३।२।१८
भिन्नलिङ्गो नदीदेशी- ११४३ फिरदोः ३।१।१४७ | भक्तायः ३।३।२०४ भिवः कुक्लुको २।२।१५३ ५.३।७० ] भक्ताद्वाऽस् ३३११८५ मियो वा
४|४|१०५
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________________
भूयहत्ये
जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः
४३७ भिसोऽत ऐस् ५।१८ | मदजनहलाकररण- ३।३।२०१ , मानां णल्यमथाथुमणा. २४१६८ भोमादयोऽपादाने २१४६१ | मटेभ्योऽण. राम | माने क्या ३३१२२० भीशेः स्थानम् ५/४६३ | मधुबम्बोझण्कोशिकयो:३।१।६५' मान्यधदानशानभ्यो दोश्चरा ११४ मोहीमहुवामुज्वत् २०३५ | मधूपशुचिमुकादः ४११४३३ मालेपीकेटकानां भारि. ४।३।१७५ भुजप्रयाजानुबाजोकप्रयोज्य-५२।६८ मध्यान्ताद्गुरौ ३११३० मावधेः ५११५० भुजोऽदी
१।२।६३ । मध्शन्मः ३।१२८ मासाद् वयसि खा, ३१४/७ भुमास्थागापाहाक्सा ४/४/६५ ' मध्ये पदे निननने ११४५ मिङः
४|११२१५ भुवः स्वन्तरे श११५२ मवादे
३।२।६६ । मिडम्निशोऽस्मदाषा रा५२ भुस्थोरिः श६१ | मनः
श२७१ | मिडेकार्थे का श४४ भूतपूर्व घरट् ३५४४१४२ | मनस्युरनस्यनत्याधाने १२।१४४ | मिशिद्गः श ६३ सतबच्चाशंसायाम २।३।१०८ ' मनुष्यादिचरण्यात स१०७ मिमीत्रदीक्षां ये च ४३१.३ भुते ।।७२, २१३।११६ | मनो डाच
२१६ मितनखपरिमाणे पचः शश३६ २११।९० मनोरुश्चक्षुश्नेतोरहोर- ४।२।५६ मिटेरेप भवादयो धुः ।।१ | मनोरौ च ३९१ मिश्रित माना भूपाऽपरिग्रहेऽलमन्तः श२।१३५ । मनोर्जातो पुक चाऽऔ ३।१।१४८ मिावस्मममियतितसरा४।६४ मुग्वत्रिकुत्सबशिष्टगोत-१।४।१३६ मन्त्रेन्निवापु ४४९२ मुक्तातापोटापनितापर- १।३।३३ भृतां वाणामिः ५२।१७५ मन्थौदनसत्रिन्दुवज्र- ४।३।१७१ मुण्डमिश्रश्नक्षलवण १११८ मनोऽस्त्रौ १६३ मन्माभ्यो लौ ४११५८ मुन्गादग् ३१३१४८ भृतवृजिधारिसहि- २२।४४ मन्वन्कनिध्विनः क्यचित् ।।६२ मुमनः ४१३।१७७ भृशादश्च्यौ हलो भुवि २।१।१० मम्
श७५ 'मुपनहिरुदविदः संश्च १११२ भेभ्यो बहुलम् ३३।१३ | ममोङ्झयो मतो?:- ५/३१३१ मृगोत्तरपूर्वासनः ४२११०१ भेषनानन्तावसथेतिहाईव्या४।२।३० मवट
३१३५६ । मृजेरैप
वारा भौरिका कार्यादिभ्यो ३।२।४७ | भक्वै तयोरभक्षाच्छा- ३।३।१०८ , मृडमृदगुधकुथवदवस: १।११८० भ्यपः
५२११५० । मयूरव्यं सकादयश्च १।३६६ । मृदन्तनुविभक्याम् ५४५ भ्यसोऽभ्यम् ५।२६ मयो वोऽच्युअः ५/४/१५ , मृस्तिका ४२.४५ भ्रत्जोरसोरम्बा ४।४।४६ | मस्जिनशोभलि ५।११३६ | मृदो लुलिकोश्च ।।१७ भ्राजभासमापदीपनीव-५।२।११६ | महतोऽस खो ३११११३० , मुषः परेः
१७६ भ्रातरि च च्यामि ३११८२ | महाराजमोठपदाभ्यां ट।२।३० । मृपः स्वार्थ भ्रातुळश्च २११३३ | महाराजात्
३७२ मेघर्तिमये कृत्रः ।।४१ भ्रुवो बुक ३।१।११४ । महेन्द्राद् वाणी च ३।२।२४ | मेनिः ।
२|| भ्रौगइत्यधैवत्यसार- ४४१६६ माडि लुङ् २।३.१५१ | मो नः भदसोरेच्च व हो ४/४/१०१ | माको व्यतिहारे २४/५ ! मोऽनुस्वारः
५४३ माणवचरकात स्त्रत्र. ३।४।१०ी डाचि नित्यम. ४।३७ नड्छुकझर्भरावाऽण, ३।३.१७५ | मातरपितरौ वा ४३३१४५ ' म्योः ।
५/३/८ मतिबुद्धिपूजार्थाच्च २।२११६६ | मानुसत्संख्यासम्भद्रादेः ३।१११०४ : मत महच्छादेर- ४।३।२२२ । मातृपितृभ्यां स्वसुः ५/६६ का ३।४।७८; ५/१५१४८ मत्वर्थ स्ती १।२।१०८ माथधुपदव्यनुपदाकन्दं ३।३६१५६ | यः सौ
५/११६८ मत्स्योङयो ड्याम् ।।१३७ । मानपश्वनयोः कोपी ४|११११२ । यखावघ्वनः ३१४४१३९
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________________
४३८
जैनेन्द्र-व्याकरणम् यखौ वाऽसब्दे
राश६७ येनालि विधिस्तदन्तायाः१।१।६७ मग दुहः
२११५७ । यस्कादिभ्यो वृद्ध २४११३४ | योगां च द्वेषः शाश्वतिकः१४८५ वङि
५।२।१३६ यस्य यां च ४|४|१३६ | योगायश्च ३४६६ बडुडोरे ५/२।१८० यस्य वा ५१११२१ | योडो पोत्तमाद् वुत्र ३।४।१२२ योऽचि
१|४१४४ याचितापमित्यात्करा ३३२१४६ | योऽचोऽरासुयुवः २०१८४ यो वा
५.२३९२ । याजकादिभिः ११३/७२ | योजन याति ३४१७० यचि मः शरा१०७ | याडापः ५२।१०८ ! यो यड
रा१५५ यच्चयत्रयोः २।३।१२४ | यान्ये पाशः ४|११११० योऽर्थात्
१२।१२४ यजयाचयतविच्छनच्छ- २१३/७२ | यावति विन्दजीयः २४|१६ योऽसंख्यापरिमाणा- २४३८ यजिजपिवददशामकः २।२।१३५ | यावद्य थायधुत्यसादृश्ये २३।६ यौनमौखाद् बुञ् ३३५१ यबितजिप्रवचाम् ५२।६६ / यासुगा मो ङित् २४/८४ य्वाचि सन्धौ ५३।१०५ वज्ञविभ्यां धखनौ ३४/६७ | यि विकल्ययङ् पूरा१३१ , ग्रहगमोऽच् २।३१५२ यजेः स्तुवः २३/२३ | यि खम् ४१४।१०८ | थ्यौ व्याख्यो मुः ।।१२ यत्रः
पिट वर यभञोः १४४१३५ यित्ये
४॥३॥६७ यजिजाः ३।१]९० ' युक्तवदुसि लिसंख्ये १११६८ | र खम्
४४.१६ यस्यतो दोः ५शिक्ष६ युयं पत्रे
२२१११०० । रत्तो
४१२।१८ यगोल्योः ४।४/७७ युजाता
२।३११०६ रक्षत्युञ्छति ३।३।१५५ यतः प्रतिदाप्रतिनिधी १।४।२२ युजेरसे
५५० । रक्ष
३२७६ यतश्च निर्धारणम् १।४४९ युजोऽयज़पात्रे गेः श६० | रजःकण्यासुतिपरिषदो ११३८ यत्तदेतेभ्यः परिमाणे ३/४११६० । युट्
२।३६७ | रउजेः
४/४/२५ वल्पे तदादि गुः ।।१०२ | युध्या बहुलम् ।।१४ |
४।३।२०८ यत्समवाऽनुः श३१२ युवा स्खलतिपलितवलि- २३१६३ रथाद्यः
३१३१८६ यथात यवथापुरयोःक्रमेण/२/३५ युवाल्पयोः कन् वा ४१११२३
रघा
५४९३ ययालययोरसूयाप्रयुक्तो २।४।१४ युवानी दी
पू१९५१ रधिमभोर्सच
पा . यधामुखसम्मुखस्य ३४|१३१
श४८ यधासंपन्य समाः २१४ । युष्मदस्मदोः ५११४५ रनभेटः २४८६ यथास्य यथायथम् ५।३।१२ । युष्मदस्मदोऽकलञ् ३।२।१२१ । रभोऽशब्लिटोः धार।४२ यभावाद् भावगतिः ११४/४५ युष्मदस्मदो डसोऽश् ५।१।२३ रश्मी
।३४६ बमेऽश्ववृषभयोः क्यचि ५।११३२ युष्मदस्मदोऽविपतास्थस्य ५.३।१६ | रस्योबनपत्ये ३३।७४ यमः सन्निव्युपे च २।३।६६ यूतिजूतिसातिदेतिकीर्त यः २।३७८ | राजदन्तादौ ११३६६ यमः सूचने शशर यूनस्तिः
३।११६२ राजन्यादेवुन કારઃ यमरमनमातः स च ५१।१३२ यूनि
३।१।७५ । राजन्वान् सौराज्ये । ५/३३५ यव्यनुस्वारस्य परस्वम् ५/४।१३२ | यूयवयी असि १।१५२ । राजश्वशुराद्यः ३।१।१२६ यरो डो विभाषा डे ५४|१२५ | ये कडाराः ११३।१०४ , राजाइःसखिभ्यष्टः ४२१६३ यदुत्तरे
येऽडौ
४१४।१५६ | राज्ञः कच रा११६ यवयघकषष्टिकाद्यः ४१२६
__४|४|४५ | राशि युधि कृतः शराबर यश्चोरसः ३।३।८३ । येनाङ्गविकारेत्यम्भावी ११४३१ । राट् च ३१४५३
रथवदयोः
५/११
यमा
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________________
५.
राष्ट्र
ल्यादेः
५२।१३६ लियेत्
जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः रात् ३२५, ३४१७६ | लक्षणहेत्वोः ।।१०४ । लुल्ल रोबी १४१२२ रात्राही पुस १४१०४ | लक्षणेनाभिमुहयेऽभिप्रती १।३।११ तुरि च क्लपः शरार राः कृति प्रभाचन्द्रस्य ४२१८० लड़ो वा
२४६१ | लुटोऽन्यस्य डासैरसः १४१५४ राज्यहासंवत्सरात् ३/४/८४
श६६ लुपसदचरजमजमदह- १२१ रात्सः ५।३१४२ लमेः
पू११४३ | लूधूसूखनर्तिसहचरइत्रः२।१।१६२ रादुखी
३।४।२६ लभपतपटम्यायपाइन-रा२१३७
२३१११ राद् भूतबलेः ३२४ER
२२४६३ , लोकात् राधो वधे ५।२।१५६ लाक्षारोचनाशकसकर्दमा- ३।२।३ लोट
२।३।१३८ रायो हलि ३/२१४४ | लालाटिककोक्कुटिको ३।३।१६७ । लोटो लङ्वत् |४/७२ राष्ट्रवत्तद्बतां सर्व ३२३।७५
२।३११३५ | लोडर्थलक्षणे २६ राष्ट्र शब्दाद् राशोऽत्र ३।१।२५० लि सीयट ४८३ , लोमपामादिभ्यां शनी ४।१।२७ राष्ट्राध्योः श|१०२ । नामांसोती ३१११० | लो मम् १२।१५० राष्ट्रावारपाराद्धसो आ।७३
'लिडाशिषि
४।६६ । लोग्नोऽन्तर्दहिभ्याम् ४।२१११७ ३२२४५
| लियोनल्यसखम् ५/११३८ | लो वा लेहद्रवे ।११४५
५/२/५३ रोड्यगलिझे
३।२।१३० लिङ्ग चौर्च २।३।७२।३।१४० - लोहितादिसकलान्तात् ३।११२१ रीगृत्वतः
लिङयदि २१३२१४४ | लोहितान्मणों ४।।६६
५शिर रीतः
४१४६६
५/३६१ गरिको चोपि ५२१२
५/११३३
| लिङ्यतः रुचला गुं
पूशि० लिड्स्यो २२२२१३०
५७३ लिङदेतो लु क्रियावृत्तो२।३।११५ रुजश्च भाववाचिनोऽ-११४१६१ रुदादेगें ५.११३५
लिट्
२।४।६५
वक्त्यसुख्यातेर २०४५
श६७ ५।२।९४ | लिटसझयोरेशिरे
वचने गृधिवञ्चेः १२६५ रद्भ्योऽड्वाजः रधितुदादिभ्यां नम्शौ २१४७
'लिटि वा
१४११२ । चाचिस्वपियजादीनां. ४।२।११ रूहः पर
लिटि चेत्रो यः ४.३३२ | वचोऽशब्दखो
पू४ि६० लयद्योर्यः ३।२। ३ । लिटीटि रधेः ५१४१ | वञ्चिलुच्यत्तषि- ६
४।१४६ लिइस्फात् कित् श६ वतण्डात् ३९७ रेरशोः ४०. लिहुकचि धोः ___४।३७ । वत्तोरिथुक
४१५ रेवत्याष्ठण. ३११।१३४ | लिड्योः २ ६ | बतोर्वेट
३४२० रेश्च सुपि ५॥४२४ | लियत कृत्रि २॥३६ ' वत्साद्वा
३।३।१२ वितिकादेश्छः ३।३९६ । लिप्स्यसिद्धी १३५ / वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यस्त- ४४४१४६ रोगादपनये ४/२।५४ । लिक्यबिन्दधारिपारि- २११११११ , बदः मुपि क्या च | रोडीतोः प्राचाम् ।।१०१ | लियोऽधार्थसम्मानने च११।६६ / वदोऽपात्
१६९ रोऽच्यु ५||१५६
पू/२।४६ | वधे प्रतेश्र
४।३२११४ रोमन्थतपःशब्दवैरकल- २।१।१४ | लुङ
सस९१ | वधे राधेः
४|४|११४ सेरि ५।४।१८
१४१५१ । धन पुरगामिश्रकासिद्ध का मक रोऽपि
५३१७८
लुङयेत्योर्गाः ११४।११७ बनहिरण्ये कामे ६७ रौति मृगः
३३।२६ लुक्लङ्लङयद ४।४७०
वनाऽशो रश्च सः कर्मणि च भावे २४५४ | लुलिटोर्बु ४४१८१ | वन्याः
४|४|४२
५/२/४७ ।
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________________
૩૦
वयः शक्तिशोले
बबसि
वयसि दन्तस्य वन् वयस्तिलुताः
चयन्तुभ्यां सम्मित
वयस्यनन्त्ये
वाक्पाणि जात्यु
चरणादेः
कर्णे नित्ये
वञ चत्यवस्य
arratse
वर्षाप्रमाणे
वस्था भाविनि
वर्षाच
लास्येट
चलिन्योः सन्
वशि
२१२/१०७ या क्यस्य
२२११५
वाक्यस्य टेः पः ४/२/१४२ | वाक्यादेभ्यस्वासूर्या
४|१|६१
६३२२१६६
वरुणभवशवेन्द्र
वर्गान्तात्
३६ वाऽप्रथमपूर्व वर्जनेऽपपरिभ्याम् ६६४/२९ बादच्छाशासः वदृतादेष्टघणु च ३ | ४ | ११३ : वालुवोः वर्षा हु तो नस्तु ३|११३६ पायोग्यानाम् १ |४| ८८६
वसोर्जिः
यस्तै
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३|१|२४ | वागभिङ,
३|४|११६ | बागे
३।२।६२ वाऽगे:
३|१|४२ वाग
बाऽश्रः
या खौ
४|२|३७
वाहिश्योः वाचंयमा सूर्य पश्योपश्वा भादि वाचत्वारिंशदादी ३२६८ वाचस्तदर्थायाः विविकारे
४ | ३ | १६० बा मारकर खे ४१२२४१
१/४ १७३
४४५
२३३११२
बाचेः
५/२१६३
२|४|१८५ बाचो ग्मिन्
४११४८
५.२२१ त्रा जसि
१|१|४०
४|४|११५
४/२/१७
५/४/५३
३४८५ वा मुसाम् ५११८८४ नाचेरदिक स्त्रियान्
४ | ३ |५.५ वाऽदा
सुस्वाद: ५३७६कान्चितपाखः ३४५२
सोऽनूपायाः
११४८८ ४|१|५२
५/२/५१
१।१८३६
वस्नविपाः वस्नद्रव्याभ्यां cat वत्सदिणो वसुलिमम् राश
वहाने लिएः
१/२/११८ | वा तरुमृगतृणधान्याय४|४|१२० वातातीसाराभ्यां कुछ वाडको घोर्यकान्
४१ १ १ १५५
३।३।१३६
वा दिक्सवे
या दैन्याक्रोशे
बा श्रोः
३४/५०
नामावास्यायाः
वा मुचो घेरेप्
वा मोः
५६२१४ बाटय रोगशोके ४/३/१६२ त्रा मोः
I
४|४|५२
या निष्कोप मिश्रशब्दे ४ | ३ ३ १६७
५३६०
४१३६६०
बा नीचः ५३३३६ | वाऽनुदात्तस्यर्तुङः
४/३/५२
२११७१ वाऽनुपि
५।४।६७
४२१२४
१३८२
वाऽन्यस्मिन् मपि स्थ-३१८३ वाऽपः ४|४|५७ ; ५/२/१२७ २११२७ वा पदस्य ४ | ३ |६४ ११२१३९ वा पदान्तस्य५|२| १४२५४१३३
१४६६ वा परावराभ्याम् २२४६१० वा परे १|४|१४७ वाऽस्वदित २३२४६ ४|४|१२४. वा बहूनां जातिप्रश्ने
या पूर्वापरादनातू
|
वा
२।२।३५ १२२६५ १३६ वा कथमि लिङ् च २/३३११६ वा व्योः
वा घे
या काकः
२३१३
वाइनयतने हिं
१|४|१६
वा कृञधिः वा कृषि या को
१ |२| १४१ ५।२।१६५
वा भावारम्भयोः
वा नपः
बाइनन्यादेशे
वा नाम्नः
वाऽभ्यवात्
वाआश भ्लाशभ्रमुकभु.
वा मः
वाम
बाम्बोः खम,
वाभ्शसो...
वापिस क
बा रोगाः
वाइयें धो
४|४|६०
वालिटि
५/२/३१ वाइवरस्थ
वाचा
बाहािम् ५। ३१५०
शरार
२/१/४४
४|११८६
५/११५७ वाऽवृद्धाद्धोः ५३२२ वावेष्टिचेष्टयोः
११३७१ | बाशि
वाचात् बिपा
वा विशेषवचने यही
Tw
२।३३११४
४ | ३ ३१०६
३/२/१४०
४११११४८
१३:८४
५०४/१४
५।१११२२
४ | ३ |२१
२/१/६६
४/४१३६
३।२।१२०
३३१७
५२/१५८ ४१३ | १५६
५।४।१०७
४|४|१८
33134
३१२/२६
३।२।१३३
४१३२०६
१४४८१२७
४|१|१०५
११२|७४
३।३।१४०
११२१४६
५/३/२६
३३९ | १४४
५/२/१६३
५२६/११४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पा।१४३ , वे शालशङ्कयो
जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः
४४१ धाशिजियाशिनीः फे ३४|४११६५ | विनरमायामेधास्त्रजः ४१६४७ । पृद्ध कुञादिभ्यो ः ३।१८७ वाइशेषात् २१३।११७ ! विन्मवोरुप ५१।१२४ | वृद्धेऽभ्यनुप् ३।११७३ वाश्यावारोकात् ४/२११४४ | विपराजे
१२।१३ वृद्धोक्षोष्ट्रोरभ्रराजन्य- ३।२।३४ वाऽषान्तेऽकखादौ ५/४/१०१ | बियविनीयजित्या. २१६७ वृन्दारकनागकुञ्जरैस्तात् १॥३॥५७ वाष्पोफेनादलमे २१११३ त्रिपमपोतो दुः २।२।१५६ वृषभोपनहो त्र्यः ३४४१३ बा समीपे
| विभक्ती
रा१५७ । वृषाकप्यग्निकुसित- ३।११४० वाऽसुपि ४/३८० ११४५०
५१८६ या सुपो बहुः प्रास्त ४।१।१२७ विभक्त्यामाष्टनः वा से
३/१/२५ विभाषा ग्रहः २।१।११७ | वेः स्कन्दोऽते ५/४/५५ वाऽस्थ: स्फादः ४१४/६७ | विभाषाऽचि ५३३६ वे स्कम्भेः षः ५४९ या स्वरूपस्योः ४।३।१३७ | विमापाऽन्यत्र ४।३।१०२ धेः स्वार्थे
शरा३७ वाऽस्वाङ्गादेः ३६ | विमाषा लियो १४४ देखि
२४|११६ वा स्मरणम् ५,१६८ विभाषा लुटः सत् ॥३।१३ । वेशो वयिः १४११३ वाऽऽहिताग्न्यादौ १।३।१०३ । विभाषेकोऽस्ने प्रश्च ४।३।१०४ बेञ्च प्रश्नाख्याने २।३। बाहाकग्रामेभ्यः ११३ | विभाषोषधिवनस्पतिभ्यः ५४१६० | वेटः।
पू४॥६१ वा हेः पृष्टप्रत्युक्तौ ५३।१६ | विमुक्तादिभ्योऽणू श६५ | घेतनादेविति ३।३।१३५ वाह्याद् वाहनम् ५/५९२ | विरामे वा ५।४।१३१ | वेत्तेः सिद्धसेनस्य ५१७ विशंतिकारवः ३।४।२९ बिरामे विसर्जनीयः ५११६ | वेरितः
२११४९ विशतित्रिंशयां बुरखौ ३।४।२१ बिरोधि चानाश्रये ॥८६ | वेमकः
४१४६९ विशतेश्च ३।४।१६८ | विशिपतिपदिस्कन्दो- २४/४१ | घेवे स्थानान्तात् ४/२११६ शिल्यादेर्या ४।१।१० | विशेषणं विशेष्येणेति २।३।५२ ' वेश्च स्वनोऽशने ५४५० विकर्ण कुषीतकारका- ३।१।११३ | विश्वग्देवयोश्च टेर ४१३।१६८ वैकशालायाष्ठः । ४।२।१६३ विकणंशुजगलात्. ३।१।१०६ | विश्वजनात्मभोगान्तात् ३१४७ | वैकलि पूर्ये ४२१७० विकृशमीपरेः स्थलम् ५४७० विश्वस्य वसुरायोः ४।३।२२६ | वैकाथभुन् ४११३१०७ विचार्य पूर्वम् ५३३९७ विसमाप्तौ तोऽनञ् १।३।५५. | वैनोऽदूरेटकायाः ४१३६६ वित्तभित्तदूनगून- ५।३१७४ . विसारिणो मत्स्ये ४।२।२३ । वैशाखाबादपष्टिकैका- ३।४।१०३ विदांकुर्वन्नु या २।११३७ | वीप्सेस्थम्भूतलक्षणे- ४११ 'वैषमोह्यस्श्वसः ३।दर विदाभ्योऽमृष्यानन्तर्व. ३।१।६३ | बुञ्छणकठेन्नदएण्य- ३।२।६० ; बोकं न्यक २/६३ विदूराऊयः आपू- | चुनातुमी क्रियायां तदीया २।३।८ | बोले
३११२१ विदेः शनुर्वसुः ५/१।५५ 'बूकाटेण्यण् । ४।२१४ | वोदर्य
४।३।१०४ विदो रूटो बा २१४६९ । वृजिमदात्कः ३२।१०६ | वोदश्वित:
३१२।१४ विद्भिच्छिदः कुरः ।।१४५ | वृत्तिसगतावने क्रमः शरा३४ | | बोदितः
५/१४१०४ विधिनिमन्त्रणामन्त्र- २।३११३७ | वृद्धचरणाक्च्छलाघाs.३४।१२४ । दिडोभावारम्भयोःशपः१1१।६४ विध्यत्यकरणेम २।३।१६४ । वृद्धचरणायित् ३२९४ | वोपकादिभ्यः ११४|१३९ विध्वरुषोस्तुदः सखम् ||३७ दरानाख्येभ्यो ॥३७४ | योपदेशेऽत्वदजि -५।१।१०८ विनम्या नाभी न सह ३।४।१४७ वृद्धस्त्रिया क्षेपे यश्च ३३१४५ वोपयमे १९९० विनयादेष्ण ४।२।४० : वृद्धस्य ४१।१२१ | बोन्दुइदिइलिगुडो दे ५.२१७० विन्दिच्छू रा२।१५० वृद्धादश्यत् ॥३४ वोमोफत् ॥३॥११७
पू६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४४२
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
शक्ती
व्याः
घोणु ः ५।१।८२ | शकि सहश्च
|११८६ शास इत्
४।४।३३ वोkः शश७७ ; यारा | शकि हस्तिकवाटे शरा५२ शास्वस्पसान् ५/४/४० वोर्यात् ५।२।१३१ | शक्तियष्टेष्टीकरण ३।३।१७७ . शाही
४/४/३५ वो वा कित्ति ४।३।३३ :
४॥३॥६१ शिखाया बलः ३।२।६८ वो बिधूनने जुक् ५२१४३ ! शण्डिकादेः ३३६६ शिस्खाशालाशम्यूर्णाश्रियां ४RNE वोपनायविदात् ११३४ शतमानविंशतिसहस्रबस ३१४।२४ शित्सर्वस्य
शश५२ वोशीनरेषु ३।२।६४ ' शतादस्वार्थेऽसे टयौ ३।४।१८ शिध, यो कषविचलसकत्थ- २।२।१२० | मातादिमासार्धमाससंवत्स- ४१८ शिरोऽधसे पटे ५४१३५ ४|३|३६ ।। शताद्वा
३।४/३२ | शिलाया हा ४|११५५६ ध्यक्तवाक्समुक्तौ ।।४४ | गदेर्गात्
शश५६ ! शिल्पम्
३।३।१७४ व्यजोऽवज चोः श४१२८ शदोऽगतो तः ५।२।४६ | शिल्पिनि ः २।१२११९ व्यञ्ज नैरुपसित्ते ३३१४६ | शपोऽदादिभ्यः १४४१४३ | शिवादिभ्योऽण ३।१।१०१ व्यतुल्याख्या अजाल्या शश६४ शब्दकर्मणो चेः शरा२६ | शिशुक्रन्दयमसभवन्देन्द्र-३१३१६२ व्यथो लिटि ५२।१६८ शब्ददगुरं करोति ३।३।१५६ | शीडो गे ५।३।१३० व्यधमदजपोऽगौ ३१६४ | शब्दं च ।।१२३ । शीलोऽधिकरणे २।२।२० व्यवइपणीः सामर्थ्य ११४६४ | शमित्यामंदर्षिणिम् २२।११७ शीडोरुट
प्राश६ व्यस्य वा कर्तरि १४/७५ | शमियामदो दीः ५/७२ | शीम्योरात्
५. ८ २३२१४७ शमि धोः खौ ।२।१६ ' शीर्षच्छेदाद्यश्च च्याङश्च रमः शश८० शम्याष्टान ३३।१०७ । शीलम् व्याप्रैरुपमेयोऽतयोगे १५१ शरः खयि पाश१६२ । शुक्राद्घः
शश२५ व्यामिश्रः स्वरितः ॥१।१४ शरदरझुनक्रदर्भाद् शह१ । शुच्युन्ज्योभि ५/२।५७ व्युडोऽवो इलः संश्च १।१०९७ शरि सश्च
४।२३ । शुण्डिकादिभ्योऽण ३।३।५० व्युत्तपः
२२ शर्करादिभ्योऽण, ४।१।१६१ शुद्धावान्तशुभवृषव- ४१२।१४५, व्युदः काकुदान्तात् ४।२।१४८ शर्कराया वा ३॥६३ शुनोऽतः
४ाराह व्युपेशीडोऽन्त्ये रा३३७ शपरे खार ५.४२० शुभ्रादेः
३।१।११२ व्युष्टादेरण. ३४९० | शलालुनो वा ३२३०१७३ । शुषिपचे नौ ५।३।६७ च्यो वं वा
५/४/५. शश्छोऽदि ५।४।१३७ । शुष्कचूर्णभन्नेषु पिषः २।४।२० वजयजः क्या ।३।०
शर५ शूलोखाद्यः ३२११२ बजबदलोतः ५।१७६ । शसो नः
५।१।२५ शृङ्खलकोदरिकसस्यको ४|१११७ ते
राश६८ शनजीविसङ्घायऽवाही ४।२।३ , शृवन्द्योरारु स ।१५२ वश्चनजसृजमजयजरा ५३१५.३ | शाकलाद्वा
श६६ | शप्रां प्रो वा ५/स१२४ वातस्फादस्त्रियाम् शर शास्त्रायः ४।६।१५७ | शे मुनाम् बोहिशालेदंत्र ३४१५२८ शाच्छासालाव्याचेषां युक् ५।२।४२ | शेवलसुपरिचिशालः ४/१५१४० बीयादेः
शाच्छोर्विभाषा ५/रा१४५ . शेषाद्वा४ ।१५४ शाणात् ३/४३३
३।१२।३।२/७२ शकलादिभ्यो पृद्ध ३।२८७ | शात्
५.४१२३
स३३१२७ शकषज्ञाग्लामटरभ- २४५० | शालातुरकूचत्राराच्छुपयो३।३।६६ ' शेषोऽग एव २१४४९४ शकि लिङ्च २।३।१४८ | शालाद् गोखरात् ३।३।११ शेषौ गुणवचनादेवं ४।१।११८
तम
शसि
शरं
119२.
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________________
४४३
जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः
४/४११० । कृति बहलम् ४१३२ / साक्षिदध्यक्ष्णामन ५।१५४ शौनकादिभ्यश्छन्दसि ३।३७७ | प्रेऽङ्गालेभिसंख्यादेः ४१२०८८ ! सक्लेशे
२४४० श्नसः खम्
४|४|१०१ | ग्रे वस्य पुत्रपत्योजिः ४३।६ | सम्पशिश्वी ३११५२ श्नान्नखम् | पोऽनत्र्यः ११४६५ . सख्युरको
५१६६ श्नुधुवा य्वोरचीयुवौ ४|४७२ | कटुना ष्टुः ५।४।१२० | साङ्घाङ्कलक्षणघोष. २३६५ २१५. ५/५९ | धमाधम शिति ५।२१७३ | सङ्घऽनू २।३४० श्याऽञ्चिदियोऽस्पर्शापा-५/३१६५ | धणान्तेल १।१३४ ' सचस्योभी ५४१०५ श्यायधासुम्सुलिह- २११।११४ , योऽक्षु रूपान्त्ययो वृद्ध. ३।१।६३ सत्यागतातोः कारे ४/३११७९ श्यैनंपातातैलंपाता ३।२।५० | घी नो गाः समाने ५/४०५ | सत्सूद्विषद्रुश्युअविद- २१२५६ आद्ध मुक्त घोऽनेन ४१।१८ |
| सदासनादरयोः १।२।१३४ श्रा. शरदः ३।२।१३२ संदंगोः
शरा६२ : सदिस्वयोः परस्य लिटि५/४/८४ श्रिणीभुवोडगौ रा३२४ संख्यः
२०६ | सदोऽप्रतः ५/४१४७ श्रुवः
२११७० | संख्यादी रश्च १३४७ | सद्योोषमः परेयविपरु- ४११० भुवोऽनिटू रारा८९ | संख्यापरिमाणे अतिश्च ३१४१६३ | सनः क्तिचि खं च ४४४ अस्मृहशः सनः १।२।५२ | संख्याबाडोऽबहुगणात् ४।२।६६ | सनः पूर्ववत् ।।५८ श्रेण्यादि कृतैः ११३५४ । संख्यायाः कोऽतिशतः ३।४।२६ । स न
१।४।९३ ध्युका किति ५४१।११७ संख्यायाः पादशतेभ्यो ४।२।१० । सनाशसभिक्ष ः २।२।१४६
२।१।४१ | संख्यायाः संख्यासक्स- पाश२० | सनि १५४|११६, ४१४।४४ श्लिषशीस्थासवसज- २।४।५७ | | संख्याया अवयवे तयट् ३।४।१६४
५।११८ श्वगणाद्वा३३१३४ | | संख्याया गुणस्य नि. ३।४।२६६ | सनिमीमाधुरभलभ- ५२।१५५ श्वयुवमघोनोऽद्दति ४/४११२१ संख्याया ध्वभ्यावृत्ती कृत्व४।२।२४ | सनीड़ का
५. ८६ श्वसस्तु च
रा१३५ | संख्याया विधार्थे धा ४११४१०६ | सनीवन्तभ्रस्जदम्भु- ५२९७ श्वसो वसीयसश्च ४२८३ | संख्या वंश्थेन १३।१६ सनुमः इजादेः ५४|१११ श्वादेरावत: ५।२।१३ । संख्याविसायादेरहन् ४।३।२१५ | सन्कचोणी ४३२८ श्वाश्मचर्मणां संकोच- ४।४।१३२ , संख्ये संख्यया झ्यासन्ना १३६७ | सन्तस्फमहतोः श्वीदितस्ते ५१।१२० | संख्यकाद्वीप्सायाम् ४।२१४८ । सन्धौ
४१३१६० श्ब्यस्पवचोऽथुक् ५।२।१२८ । संशा खु: शश६ | सन्निविभ्योऽर्दै ५।१।१२७
संज्ञो भा १४२८ ! सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्ट १।३५६ षट्कतिकतिपय चतुर्रा थुक ४|११३ , संवत्सराग्रहायणीम्या ३।३।२५ । सन्योः
४१३८ षडोः कः सिः ५३५८ | संशयमापन्न: ३१४१६९ । सन्यतः
घा२।१७७ षणि चारिणस्तोरेव ५/४/४१ | संसृष्टे
३।३।१४७ | सन्लियो
५।२।६२ षणमासाएण्यश्च ३४८० | संस्कृतं भक्षाः ३।२।११ : सपल्यादौ
३११/३४ पत्येसद्वत्
४.३/७४ । संस्कृतम् ३।३।१२८ | सपूर्वात्
१।३।१६ ) संहारोद्यावानाया- २।३१०३ | सपूर्वाया वायाः५/३।२३ षष्ठाष्टमाद् मागेः ४१११११ । संहितशफलक्षणवामादेः ३१५६ | सब्रह्मचारी ४।३।२६३ षात् पदान्तात् ५४१११४ . स:
शश सब्रह्मचर्यादेः ४१४|१३१ पादिहन्धृतराज्ञोऽणि ४।४।१२३ | स एषां ग्रामणीः ४१।१२ | सभाऽराजामनुष्यात् ११४६९ पिद्भिदादिभ्योऽडू २३२८६ । सकृत्स्तम्बे वत्सबीयोरिः २१२।२९ | समः
२।१।६८
३ne
प्रम्
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्रा
जैनेन्द्र-व्याकरणम् समः समि ४३।१६६ | सरजसोबष्टीवपदष्टीघा- ४।२।७६ ; साधुनिपुणेना मीचप्रते ५१ समजनिषदनिपदमन- २।३।८१ . सरोरिजादेः २।११३२ | सान्ताः
४१२१६५ समयस्तदस्य प्राप्तम् ३३४९७ सरोऽनोऽश्यामायसः ४२१९६ | साम प्राकम् ५.१।२९ समयासपत्रानिष्पत्रा- ४।६४ सरोईला २१३।८५ सामान्येनोपमानम् ११३१५० समर्थः पदविधिः १।३।१ सर्वकलाभ्रकरीपेषु कषः ।।१० सामि
१३२४ समर्थात् प्रथमाद् वा ३।१५६७ | सर्वचर्मणः कृतः ३१४।१३० सायश्चिरंप्राह्ोप्रगे- ३।२।१३६ समवायात् समवैति ३।३।१६४ | सर्वत्राग्निकलिभ्यां दण् ३२२८ साल्वावयवप्रत्यनाथ- ३१११५४ समवाये ४३११११ ! सर्वनाम्नः स्मै ५.१।१२ | साल्वयगान्धारिभ्याम् ३३१४१५१ समां समां विजायते ३।४।१३७ । सर्वनाम्नः स्याट प्रश्च५।२।१०९ सावनेः ५/१४२३० समागरल राज्योतिर्म-४३॥९६२ | सर्वगाम्नो भा र ११३६ । सावनडुः
५११६० समानोदरे शयितः ३।३।२०८ | सर्वभूमिपृथिवीभ्यामरा ३।४]४१ : साम्मे
५/१/७७ समापनासादो ३४२ : सर्वस्य द्वे ५१३६१ | साऽस्मिन् पौर्णमासीति ३।२।१६ समायाः खः ३।४।१०५ | सर्वस्थ सो या
दिशः१ । साऽस्य देवता २०१९ समिचिजिबरः ।।१२४ , सर्वागणो वा ३४८ | सिकताशर्कराभ्याम् ४।१।३१ समि मुष्टौ २।३।३५ ३/४/४५ । सिचो यहि
पू/४७८ समियुद्र वः २।३।२२ सर्वादिः सर्वनाम ११११३५
सिति
११।१०५ समुदः
५१३१७१ सर्वान्नीनानुपदीनायान. ३।४।१३४ सिद्ध शुष्कपक्वबन्धैः ११३३६ समुदायमोऽमन्ये १।२७० सर्वैकाभ्यां खः ३६३।१६३. सिद्धिरनेकान्तात् १११११ समूले इनश्च २।५।२३ । ससजुषो वि ५.३७६
सिद्धी मा
१४/५ समूहबच्च बहुपु ४/२२६ | सस्थानक्रिय स्वम् ॥१॥२ सिध्मादेः
४|११२५ समोऽकूजे ११२।१६ ' सस्लो प्रशंसे ४२१४६
सिध्यतेरशाते ४१३१४२ समो गम्पच्छिस्वच्छि- १३।२४ | सस्मे लङ् च ३३१५२
सिन्ध्वपकरादण् ३३४ समो भया १५० | सस्सेऽद्युस्थस्य ५४३३
सिन्वादेरणा. सम्पदा चाभिविधी ४/५८ सहन विद्यमानाद् ३१५०
सिपि रिर्वा ५१ सम्पर्युपात्वनःसुइभूपे ४३३११० | सहस्य सः खो ४३११८६ सिलु कि
२।१३८ सम्पादिनि २४३ | सहस्य सधिः ४/३/२०१ ! सिलिङ्दे
सिलिङ्दे
शशब्यू २|११०१ सहार्थन
१४/३० सिघुसहसुट स्तुस्वजाम् ५/४५२ सम्प्रतैरस्मृती
२४२ | सहिवहोऽस्यौः ४३।२१७ सिस्यसीयुटतासौ हो ४।४।६१ सम्प्रत्यः ३।१।१२६ सहे
८३ सुः पूजाया न गिति १४७ सन्प्रदानेऽ५१ ।४२३ | सहेति तुल्ययोगे १।३।११। सुकर्मपाएमन्त्रपुण्ये कृञ् २।२।७६ सम्प्राजानुनो ज्ञ: ४।२।१३० । साक्षादादिः शरा१४३ सुस्वदुःखयो/ कृच्छे ५।३।११ सम्प्रोदश्च कटः ३४|४६ सात्
५/४/७७ सुखादेः
४४४ सम्बोचने ।।१०३ । सात्तविषयात' ४११६० | मुखाटेः स्वभोगे
२०६५ सम्बोधने बोध्यम् ४/५५ । सादेः
३।१।१२६ सुचः
५।४२१ सम्भवल्यवहरति पचति ३।४/५१ | सादा कारल्य ४||५७ | सुनः स्पसनोः ५४३ सम्भावनेऽस्लमि स्थानि २।३।१३० | साधकतमं करणम् ।।११४ सुनो यज्ञसंयोगे २१२१११० सम्माननोसजनोपनयन।।३१ | साधनं कृता बहुलम् १।३२६ । सुटि पूर्वस्वम् ४१३१८६ सम्राट ५४९ | साधने स्वार्थे १।१५३ | सुट तथोः
२/XEG
सम्प्रति
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुडनपः
१।११३२
सुधातुरकट् च
२ १/८६
सुपश्च
१२/१५६
सुपि
२१२७:५/२१६७
सुपि शीलेऽजाती छिन् २२२१६६
५। १६५२
११४/१५०
१/४ | १४२
४४४ ७६
१३३
२/२/५४ १२/१०३
२२८६
सुपीकोऽचि
सुपोः
सुपो धुमृदः
सुप्योः
सुप् सुपा
सुभगाद्यस्थूल पलित
सुम्मिन्तं पदम् जो निप् सुराशयोः पित्रः
मादिषु च
सुसंख्यादेः
सुर्याद्राष्ट्रस्य
५/२/१७
सुहरित सोमाज ४/२/१२६
सुहृददुई दौ मित्रा सूक्त सानोश्छः
२२११२
५/४/७२ ४। २ । १४०
स्थिरे
सेनले सतः
लेटि
जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः
सोद:
सोमवरुपोऽग्नेरोः
सोमायण
सोमे सुञः
सोडिति
सोऽस्य निवासः
सौ
सौ भे
५/४/८८९ | स्थानवादेशो ऽनल्विधौ १२ १२५६ स्थानेऽन्तरतमः
४ | ३ | १४०
२१११४७
३१२/२५
स्थाश्वेन चस्य
५/४/४४ स्वासेनयसेध सिन्चसज्ज ४/४/४६
२/२१७७
५/२/१०६ ३/३/६३
स्थास्तम्भोः पूर्वस्योदः ५/४१३५ स्थूलदूर युवहस्त्रक्षिप्र. ४/४/१४७ ४|४|११ स्थूलादिभ्यः प्रकायेतौ ४/२/११ ५१स्थेपिचभूम्यः सेमेँ १|४|१४६ २२११८ स्पेशभासपिसको वरः २।२।१५४ T ५/४८२ स्थोऽवविप्रान्च
१२/१७
२१४/२७
२।११७७ | स्नेहने पिपः ५४४८ स्नोर्दात्
स्तम्भः
स्तुते भ्रातुः
स्तुत् सोमौ चाग्नेः
४२११५७ | स्नोश्च मिश्च ५।४/६५ नुशासि शृटुजुषः स्यप्२ । १ । १९१
स्तुओ में
स्तेयसख्ये
५/१/१११ ३/४ | ११६ ५/४/११६ एकाइतोऽसुटः
स्तम्बेरमकरों जपो
स्तन्भुसिहां कचि
स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कु
स्तोः शचुनाश्चुः स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्र १/३३३४
४/२/१५० ४|११६३ स्तोके प्रतिना
३/२/५५ | स्त्रियाः
५/२/११४ स्त्रियां क्तिः
५/२६ | स्त्रियां खौ
३।४१२५ स्त्रियाम्
४|४|१३८ स्त्रियामुप्
स्थ छत् स्थागापापचो भावे
स्थायिडल:
स्पृशोऽनुदके
स्पृहगृहपतिदय
११२६०
स्पर्द्ध परम् स्पृशभृशपतृपपो वा २ | ११३९
२१२/५६
२/२/१४१
५ | १६१
५ | ३ | ४६ ५/३/६०
४४५
स्फादे: स्कोऽन्ते च १।३।७ | स्फादेशतो घोर्यएवतोऽ ४|४|७४ स्काद्य यरिस्फुरेप् २|३|७५ | स्फन्तिस्य खम् ४/२/१४३ स्फायः स्फीस्ते ३।११३ स्फायो वः
सूत्राcais :
सूत्रेऽस्मिन् सुब्बिधि
सूभवत्योर्मिकि
सूपा
सूर्यास्त्ययोश्छे च
सुघस्यदः कमरः
२२/१४३ स्त्री
११२३१००
जीनशः करम् २/२/१४६ स्त्रीगोनीचः सृजुज्वलगभशुत्रलष- २/२/१३२ स्त्रीधेनु वाग्दारात्पुंसनडु ४/२/७३
४ | ३३५०
२१३/१६ स्त्रीपुंसान्नुक्त्वात्
स्मे लोट
३११/७२ रिमपूज्वराः सनि ५।१११३३ ५/४१६२ स्त्रीभ्यो दण् ३|१|१०६ | स्मृत्वरप्रथमस्तु स्पशो-५/२१६२ ४|४|१११ स्त्रोऽयज्ञे २३१३० मे २।२।१०० धोगतो ५।४/७९ सयुक्त पुस्कादनूरेथार्थे ४ | ३ | १४६ सेनान्तलक्षणकारिभ्य २१६/१४० स्थः सेनाया वा ३/३/१६६ सेनासुराच्छायाशाला - ११४११०१ पिच्च २१४ /७४ सेवल सुपरिविशाल ४|१११४०
रारा |
स्थः का
सोः प्रातर्दिवाश्वसः ४/२/१२० स्थानान्ताद्दृष्
५/१/१११
२११५६
३|१|१८ स्फुरिस्फुयोर्धनि ११२/६३ स्फुरिस्फुल्योर्निर्निवेः १११८ स्फेड:
स्मि
२२|६४ स्य सः
│
५२ १३८
५३१४१
४३१७
५|२|४८
४३४e
५|४ | ३८
२१३३१४१ ददयेशा कर्मणि १२४१५६
५/२/१५१ २११।३०
५/२/११८ स्वतासी लृलुटोः २३७८ | स्यदादोदधौद्मप्रश्रहिम - ४४१२८ ३|२|१० | स्यसनोवृंदुभ्यः
शब्द
३ | ३|१०
स्यसौ कृतवृतच्छद. ५/१।१०५.
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________________
४४६
स्नान्डस्टाङसेः ५|१|१० प्लुङच्युडो वा ५२१७६ | इन्तेरचः
१ / २ / १२५ | हन्तेः
२/३/६५
२/२/१५२
स्वपिस्यमिनां य ि४ | ३ |१५
स्वयं तेन
स्वतन्त्रः कर्ता
स्त्र नसो
स्वपितृो
१।३१२२
त्वरतिषधू ल्यूदितः ५/१/६२
स्वरितेनाधिकारः
स्वस खि
स्वसुश्छः स्वसुरछणुः
स्वसृनप्तृष्ट
स्वागतादेः
स्वाङ्गाद्वे क्षिसक्छनः
हलन्तात् १/२१५ | हलश्चेजुङ: १२६७
इलसीराहण्
३।१११३२
३ | १११२१
४/४/८
५।२।१२
४।२।११३
स्वाङ्गानीचोsस्फोटः ३|१|४७
स्वाङ्गीतस्त्ये कृभुत्रः
२४१४६
स्वा
२२४/२९
स्वाङ्गेषु प्रसिते
४|१|१३
स्वादाव
१२/१०६
२|४|१२
छः हनः सि
हुनश्च वधः
इनस्तोऽञिणलोः
हनिगम्यत्रो सनि इतः स्ये
११६६
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
नोध लिि
इत्युत्सङ्गादे:
हरिताद्यभः
हरीतक्यादेः
हल:
१३३/४ ११११८८
हलामचः
हलि
स्वादुमि नम्
स्वादेः श्नुः स्वाभाविकत्वाभिधान- १|१|१०० स्वामीश्वराभिपति- ११४/४७ स्वायें २/११४२ ५/१/१०२ हल्
वार्थे लुभात् स्वीकृत पाथमः ११२ / ५१ स्त्रीषद् दुसिकृच्छा- २३|१०३
स्त्रको दी:
स्वेपः क्यन्त्र स्वेषु पुषः स्वोवाम स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिर्
हखिन्
लुङः विङत्यनिदितः
इलोऽनन्तराः एकः हलोऽनादेः
हलो यः
२/३/१०२ : ४/४/२ १|११८४
१|४|११४
इमकात्रित
५/४११०६ म्परे वा
४|४१३६ हिम्योर्नुनोः
इल्यैनुष्युतः
दविरपूपादेर्वा
दशश्वतोर्ल
३३३/१३८ |होने
३३१८९ हीयमानपापयोगात्
५. ।४१११०
३।३।६२ हृतः
५६७८
४|३|१२६ ५/४/६ ५१२७१
४/४/२३
१|१| ३ || ह्रद्युमहारे
२|३ | १२४ |हुभ्यो ि
४३८८
इश्च
२/१/६ २१४/२६ हस्तादाने चेरस्तेये
२|४| ७७
३११२
हस्ते पाणौ स्वीकृतो
हस्ते वति ह
हुस्त्रोर्गवः कोर्न बा
५/२/१६१
हृदु २४|४|११ हृष्टाचितौ
1
| हलो हृतो घाम्
हलो मां यमि खम् ५/४११३८ हसोब ४|४|१४० । हेडकाले
सुसित्य- ४ | ३ |५६ हेतावनुना
नुत्सेधे
| हल्य म कुर्कुरः
हल्यभोरी:
४|४|१०३ हेतुमति इल्यरसेः ५२६३ हृल्येतत्तदोरनञ्सेऽकोः ४|३|१०६ हेतौ
५१२८६
५२२८७
૩૪૩
२२/९६
१/४ ६४
इति चैका
इत्यचामादेः
सिन्धुभगे द्वयोः हृदयस्य इल्लेखदा
२।३।६३ हायनः
५/२/३६ हायनान्तयुवादिभ्योऽय : ३१४ १२० ४|४|१४ | हिंसार्थादेककर्मकात् २/३/३४ ५/११२९ | हितमस्मै भक्षाः
३|३|१८३
५/३/८६ | हेतुफलयोर्लिङ्
१६४/३२ २१२१३८
५२६१
४२ १०६
५/२/६३
हो दः
५३२४८८
२|३|१८
२४१२५
५/२/५९
होत्राभ्यश्छः ११२/१४६ हो हन्तोर्डिनि हो हलः श्नः शानः २११७८ २|४|२५ ४|४|१०६ अक्षरराश्वसजागृणि० ५।१।८१ ५|२| १४७ शन् १/४ | १५१ ३/३/३४
हाकः
हाकः क्वि
४|१३१४२
४४८६
२|१|४६
२१२/२
हेमन्तात्तम्
चि
हे शरदादेः
४ | ३४१६५
५४३१०
५/४ | १०२
१४ | १५
४/२/५२
४४६४
प्रयोग यो
ह्रस्वे
हूलादस्ते २/१११२१ सालिग्यिचः डावामः हो जि
XIYER
१।२११२४
१२/१४
३।१।६१
४ | ३ | १७४
५/२/५
५।२।२४ ४ | ३ | १६१
१।३।४६
१११६
२ १/२४
हेतुमतुष्याद् वा रूपः ३३३३५५
५।११५२५
२।१।११५
४/३/१८६
२/४/१३
२|३|१३२
४३३२९
हो जिन न्यभ्युपविषु २३३२५९
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________________
जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः
| अनौ कर्मणि वाच्यभिधानम्
रा२।४ अकाकारयोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम् श४७९ | अन्तशब्दस्य अ(सा)तिविधिणत्वेषु गिसशोका४।१२०२ अकृतसन्धीनां शेबलादीनामिति वक्तव्यम् ४।१११४० अन्तादिमो वक्तव्यः
श२।१३६ श्ररप्रकरणे तूष्णीमः काम् वक्तव्यः ४ा॥१३० अन्नन्तस्य नखं स्त्रियां वा वृत्तिः
१|४१३ अक्षादहिन्यामैश्वक्तव्यः
अन्यत्रापि श्यते
४३ अगेरस्त्यूस्पत्योर्वचनम्
२११४५ श्रन्यस्मिन्नपि वाचि दृश्यते कारकान्तरेऽपि च शशEY अग्नीधः शरणे घाच्चे रण. वक्तव्यो भसञ्ज्ञा च३३शद अन्यादेष्टण वक्तव्यः
३।२।१२६ अग्रग्रामाभ्यो नियो णत्वम् पाश११० श्रन्येभ्योऽपि भवतीति वक्तव्यम्
४२११४५ अनतम अाधादिभ्य उपसंख्यानम् २।२।२३ अपुरोति वक्तव्यम्
४|४२ श्रमपमानित ३।१६.१ मागायलादिति वक्तव्यम्
४|११५१ अजगात्रकएलेभ्यो वा प्रतिषेधः ३१४७ | अप्सध्य हल्यादावपि वक्तव्यः
४/३।१२७ अजातैरिति वक्तव्यम् श१८९८ : अप्सुमति चाखौ वक्तव्यम्
४।३।१२७ अविधौ भवादीनामुपसंख्यानं नपुंसक तादिनि- अभयाचेति वक्तत्यम्
રાર ૪૨ वृत्यर्थम
२३।३२ | अमितःपरितासमयानिकषाहाप्रतियोगेधूपसंख्यानम् श्राहाशीकाकोटापोटासोटापुष्टाभ्योऽपीति केचित् २।१३१४ अणिभोरण्याबामणगोत्रमात्राावत्यस्थोपसंख्यानम् ३।१।१३| अभ्यर्हितस्य च
२३३१०० अण प्रकरणे अग्निपदादिभ्य उपसंख्यानम्, अरण्याप्पणो वक्तव्यः
३।२११०० ३२४१९०६ ४११।१८ | अस: खं च ।
४|११३५ अणप्रकरणे ज्योरनादिभ्य उपसंख्यानम्
अर्थातिदेशाद्विशेषणानामपि तद्वत्ता सिद्धा शहर
अर्थाद्वाऽसन्निहिते वर्तमानादिन्यक्तव्यः ४१५६ अतन्निमित्तादपि समाहारलक्षणाद् रादु वक्तव्यः ३।४।२६ अर्धाच्चेति वक्तव्यम्
शहार अत्यन्तापहवे लिङ्ग वक्तव्यः
रारा६५ | अर्धे चोत्तरपदे केवलस्यार्धक्ष्य पश्चभावो वक्तव्या ४१२९७ अत्यादयः कान्ताद्यर्थ इपा
११३८१ | अर्थोत्तरपदस्य च दिक्छन्दस्य पश्चमावो वक्तव्यः४।१।६७ अत्र ग्रामग्रहणे नगरस्यापि ग्रहणम् ५।१६ | अहतो नुम् च
३४.११४ अत्राझिसज्ञकस्येति वक्तव्यम्
५४ २६ | अलाबूतिलोमामाभ्यो रजस्युपसंख्यानम् ३।४।१४६ अद्यर्थेषु अदिखायोः प्रतिषेधो बत्तव्यः । १।२।१२२ | अल्पाच्च मेधाया इति वक्तव्यम् ४१।१२४ अधर्माच्चेति वक्तव्यम् ३।३।१६२ अल्पोल्चादेरिति वक्तव्यम्
४।३।२२२ अधिकरणविचाले चेति वक्तव्यम् ४११११७६ अवयवयोगे प्रतिषेधो वक्तव्यः
श ३८ अधिकरयो प्यखे का वक्तव्या
११४:३७ वादयः कुशाग्रंथ भवा अनजादो द्वितीयादयः परस्व वा खं वक्तव्यम् ।।१३४ अवादिभ्यस्तनेरिति वक्तव्यम्
शश११४ श्रनमादौ वा बुखम्
५॥२५१ | अवाघयोः (अवोऽधसोः) सखञ्चेति वक्तव्यम् ३।२।१२८८ अनुबाह्मणादिन्वतन्यः
३।२२५३ | अवान्तरदीक्षादिभ्यो डिन्वताव्यः अनुबाकादयश्चेति वक्तव्यम्
३.२१५२ | अष्टनः क्रपाले हविष्यात्वं वक्तव्यम् ४१३१६० अनुसूलक्ष्यलक्षणेभ्यश्च ठण.. श१६५ अष्टनः कपाले हविषि वक्तव्यम्
४३॥२२७
च
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________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम् अष्टाचत्वारिंशतो इधुडिनौ च वक्तव्यौ ३४८ | उगिकार्य वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति अस्मिन्प्रकरणे तदाहेति माशब्दादिभ्य
वक्तव्यम्
श६७ ___ उपसंख्यानम् ३१३११५६ । उत्तानादिषु च कर्तृषु
२।२।२० अहो रिविधी रूपरात्रिरथन्तरेषूपसंख्यानम् उत्पातेन ज्ञायमानेऽन्वतच्या
१/४/२६ ४।२।८६, ५॥३१७७; । उदीच्यम्रामात् प्रस्थद्योरण वक्तव्यः ३१२१९०
उपध्मानीयस्य सखं वक्तव्यं द्वित्वप्रतिषेधश्च ५।४।२६ श्राख्यातमाख्यातेन सातत्ये
१।३६६ उपमानात् पक्षपुच्छाभ्यामिति वक्तव्यम् ३३१४८ आख्यामशब्दात्प्रतिषेधो बक्तव्यः राश२४ ' उपवस्त्रादिभ्य उपसंख्यानम्
३१४९९ आख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च ३।२१५२ उप स्थामान्तादजिनान्ताच्च वक्तव्यः ३।३।३५ आख्यानात् कृतस्तदाचष्ट इति कृदुष्प्रत्यापत्तिः उमयत आश्रयणे न तदभावः
४।७३ प्रकृतिवच्च कारकमिति
श२४ उमसर्वतसोः कार्यों त्रिगुपर्यादिषु त्रिपु] कृतद्वित्वेष्विश्रानिवृत्तिश्च कालात्यन्तसंयोगे मर्याशयाम् २।१२४ | पा योगस्ततोऽन्यत्रापि दृश्यते || आजपूर्वाद ः सुज्ञायां क्यवक्तव्यः २०६१ | उन्नदिलल्य च खं वक्तव्यम्
४।११३९ श्राचारे सर्वमृदयः क्विन्या भवतीत्येके
उसाख्यायिकाभु बहुलमिति वक्तव्यम् ३३३।६९
२११।६ ४३।१८० आचार्यादात्वं च
३।११४२ कारलकारयोः त्यसझा वनव्या
शश२ आदिभ्य उपसंख्यानम्
२४।४६
कागन्तल्वादिभ्यः तिस्तवद्भयतीति वक्तव्यम् २/३७५ अादेश्चेति वक्तव्यम्
मृणदशपनाकाबलनामनामो ४।३।७५ आपदादिपूर्वपदाकालान्ताद् ठमिठी वत्तव्यो ३।२।१२ | ऋतुनक्षत्राणां समानाक्षराणामानुपूयेण आर्यक्षत्रियाभ्यामपुंयोगे बेति वक्तव्यम् ॥१४२
चत्तव्यम्
१।३।१०. ते भासे
४/३/७६ इन उपसंख्यानमजात्यर्थ कर्त्तव्यम् ३३१५५, ३५१६६ इएवदिकः ५११०६
३।३।१६३ इन्प्रकरणे बलात्राहरुपूर्वादुपसंख्यानम्
एकधुराशब्दात्खस्योस्वक्तव्यः ४।१।५६
एकाक्षरपूर्वपदानां योःख वत्तव्यमधपः ४|१११३९ इन्सिद्ध बन्धातिस्य च न भवति ४।३।१३२
| एचो द्वितीयत्वे तदादेः खं वक्तव्यम् ४|१११३६ इवोपमानपूर्वस्य थुस्त्र वा
४३८१ इषोऽनिच्छायां युज वक्तव्यः
१।३।६६ इह तदस्मै दीयते इति वक्तव्यम्
३३४/४६ इह प्रकरणे राजसमानशब्दात् राष्ट्रात् तस्य राजन्य
ऐन्दौत्वाभ्यासमतः एवं पूर्वनिर्ण येन ४|४/५० पत्यवदिति वक्तव्यम् ३।१।१५५ |
ओ ईकण, च
३।११७० । भोजोऽप्सरसोनित्यं पयसस्तु विभाषया सत्रम २१ ईबुपमानपूर्वस्य थुखं वक्तव्यम्
१।३८६ | श्रोत्योष्ठयोर्या से पररूपमुपसंख्यास्यते ३।१।४८८४।३।१ ईयसो बसे पुंवद्भाववचनम् ४/२।१५६ श्रोदनशब्दातव्यः
३।३।१०२ ईयसो बसे प्रतिषेधो वक्तव्यः १।११८ | ओनवल्यादेः कम्प्रतिषेधो वक्ताच्यः
११४३ ईय॑तेस्तृतीयस्य द्वे भवत इति वकव्यम्
कण्वादीनां तृतीयत्यैकाचो द्वित्वं भवति ४१३।३ उगन्तादियेल्योः खं वक्तव्यम्
४।१।१३६ | कवरमणिशरविषेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम् १९४८
प.
४।२।१६ गलेचानियोगे पररूपम् २०३८६ | डीडादयोऽन्यपदार्थ ।
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________________
कम्बलश्चोप्रा कृणोऽर्थे (कम्याच प्राणोऽर्थे)
नित्यं यो वक्तव्यम्
करणादिति वक्तव्यम्, करणे स्तोकाल्पकृच्छ, कतिपयेभ्यो ऽसत्ववचनेभ्यो भाके वक्तव्ये
कर्म नाम्नो बहु कायामजातानभिधानम्
कायुक्तात्पशदध्वनो वा बेश्च वक्तव्ये फालभावाध्वगन्तव्याः कर्मसञ्ज्ञा कर्मणाम्
जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः
| गमयतेः कालहरणे
३ | ४ | ३ गमादीनां खमिष्यते ३ | ४ | ३५
कालभावाध्वभिः कर्मभिः सकर्मकवद्भवति किमो वा नौ 'कद्वक्तव्यः कुत्सायामर्थं योगों वक्तव्यः
कुत्सायामिति वक्तव्यम्
कुलकुचिप्रीयाभ्यो यथासख्यं श्वास्यलङ्कारेष्विति
वक्तव्यम्
ख
जय उत्तरस्य शरोऽपि
खलादिभ्य इन् वक्तव्यः
खुरखराभ्यां वा न वक्तव्यः
कुलिपि प्रतिषेधो वक्तव्यः केवलाभ्याञ्चेति वक्तव्यम् कृष्णोदकपा पूर्वाया भूमेरत्योऽयमिष्यते । गोदावश्व नद्याश्च संख्याया उत्तरे यदि । ४|२|७१ क्लृत्यर्थधुप्रयोगेऽवक्तव्या ११४४२६
११४/४४
訂
गच्छतौ परदारादिभ्य इप्समर्थेभ्यः
गजाच्चेति वक्तव्यम्
गणिकायाः यञ्च वक्तव्यः
गत्यर्थानां चेायामसम्प्राप्तमे
५.७
११४१४१
WHE
२२८४
२१४४४
स्वेन्विषयस्य कर्मणीबू वक्तव्या क्रियाविशेषणविवक्षायां भाके न भवतः कोशशतयोजनशतयोपसंख्यानम् ३।४।७० क्लिन्नस्य चिल्पिलौ लश्चक्षुषीति वक्तव्यम् ३२४ / १५४ क्वचिद्दष्टे सामनि जाते चायें योऽन्योऽ
विधीयते स च द्भिवतीति वक्तव्यम् क्विपिबचिप्रच्छायतस्तुकटमुश्रीणां दीरजिश्च २ |२| १५७ क्षुद्रजन्तूपतापाभ्यां वैष्यते
४११/२५.
।।પૂ
५२२२
४३०
४।३।१४७
१/४/३७ २१२३ | १५८ २|४|५८८
४/९/२३
४११३११
४ | ३ | २०७गेश्स्यत्यूयोर्वेति वक्तव्यम्
११२/२४
४१४९ | गोष्ठादवत्या स्थानादिषु पशूनामिति वक्तव्यम् ३ | ४ ११५० ग्रामाच्चेति वक्तव्यम्
शश८०
३१२/७५
राज्याहाम्यो निः स्त्रियां वक्तव्यः
२३७५
घ
५/२/६८५
गम्भीरवहिर्देवपञ्चजनेभ्य इति वक्तव्यम्
गवे च युक्ते
गवे च युक्ते श्रनः श्राखं वक्तव्यम् दिभ्यो वेति वक्तव्यम्
गुण क्रियाछायासादृश्ये इसो वक्तव्यः गुणवचनाच्वतलोः
गुणवचनेभ्यो मत्वर्थी यस्यो वक्तव्यः ग्रहणात्युचेति वक्तव्यम्,
कविधानम् | घञर्थं कविधानं स्थात्नापाव्यधिहनियुध्यर्थे
कर्त्तव्यम
१५६
३१२१३७
३२२३५
१/२/१११
ङ
यापदत्वं न स्थानिवत्
च
चतुरश्छ्न्यावाद्यक्ष रशु (स्य) खं चेति वक्तव्यम्.
३३२|७२ || चरणाद्धर्माम्नाययोः
चतुर्थादन्यः परस्य तं वक्तव्यम् | चतुर्मासारयो यज्ञे तत्रभवे वक्तव्यः चतुयनी वयसि द्रष्टव्या
चरणाद्वर्माम्नाययोरेवेष्यते चरेराङि वागुराविति वक्तव्यम्
चातुर्मास्यानां यखं च बुडिनौ च बतायौ
५|४|१२७ चित्रीकरणे च प्राध्वर्थे णिच् वक्तव्यः ३१२१४४ | चिरपत्परारिभ्यस्नो वक्तव्यः
४२११८
चीवरादर्जने परिधाने वा
चुलादेशश्व वक्तयः चूर्णादिन्वक्तव्यः
ज
४४६
१२१४
४/३/२१९
२/३/२३
४/३/२२७
४/३/१६०
३१४५
११३६
३५२
५२ १००
जटाघटा कालेभ्यः क्षेपे
जम्ब्वा हरीतक्यादिषु च उसमे उक्तवद्
भवति न वचनम्
४१११३
४११३१३६
३४८७
५२४|११७
३।२१३८
Ex
२११८७
३१४|८७
२|१|२४
३/२/१३६
२/१/१७
३१४/१५४
३।३।१४७
४४११२५
३३ | १२४
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________________
न
जैनेन्द्र-व्याकरणम् . जहिं कर्मणा बहुलमाभीदण्ये करिं चाभिदधाति १।३।६६ | तमे परतः तादेः कादेश्चान्तिकस्य स्खं वक्तव्यम् ।।४१९४२ जागत्तरशौ वक्तव्यो २१३१८३ | तलन्तस्य डिक्योरुभयम् ।
५।२।१२ जातान्तात्प्रतिषेधो वक्तच्या
३१।४५. / तसादिषूभशब्दस्य उभयादेशो वक्तव्यः ४११९१ जिज्ञासावैरूप्यावनिशानेषु यथाक्रम सन्निष्यते २।१।४ / खसि प्रकरणे आयादिभ्य उपसंन्यानम् ४॥२२४६ लिखाकात्यरितकात्ययो भवत्येव ११११७१ तस्य हत्य
३१४१२६, ३३१४ जीवितपरिणाम इति च वक्तव्यम् ३१४५६ ताभ्यामेव पितरि डामहः
३२२।३१ ज्योत्स्नातमिताभ्यां णिद् भवति पक्षे ४|११५० तीयान्तात्स्वाथे वा ईफण वक्तव्यः
तुरभुजयोश्च
राश शिसंख्यादेरिति वक्तव्यम्
११४।१०७ तृप्त्यर्थे तूपसंख्यानम्
११३७५ झिसंज्ञकस्य भमा टिस्खं च रक्तव्यं सायम्माति
तृप्त्यर्थ योगे उपसंख्यानम्
श२।३० काद्यर्थम्
४१४२ | तेन वाक्दिपश्यद्यो युक्तिदण्डहरेध्वनुप् ४३३१३३ मेर्ममात्रे टिखम् १४८५४२।१२०२NE | त्रिचतुर्यो हायनस्य गत्वमपि क्यसीष्यते ३।१११४
त्रिप्रभृतिषु न भवति
५/४/१२७ भियकोः प्रतिषेधे णिश्रन्थिन्थिमा दविधौ धीनां । चोपसंख्यानं कर्त्तव्यम्
शव | दाणश्च साचेबद्यऽशिष्टव्यवहारे इति वक्तव्यम् ११२१५० दिक्छब्दमात्रादयमेनो वक्तव्यः
४३१६
विपदत्य प.पर२५ पश्चनापी कम्यः is ठण छतोश्च
४१३/१४७ | दिग्धसहपूर्वाञ्च अत्यो भवति
२।२।२० ठण प्रकरणे तदस्मिन्यतते इति नवयज्ञादिभ्य उप
दुःशब्दे वाचि शासियुधिशिधृषिमृषिभ्यः युज् __ संख्यानम्
३३० भवन्ति
२।३१०६ ठेनोः समानकालग्रहणं वक्तव्यम्
इतक्षणिग्भ्यां यो बक्तव्यः
३/४/११६ दृष्टे सामनि वृद्धादवद्वक्तव्यम्
शरारं स्टो वा उवक्तव्य ४.११११ । देवत्य यत्रो
३२११७० डट् स्तोमे वक्तव्यः ३१४१५८ ! देवानां प्रियादिष्वनुप
४१३१३४ हुप्रकरणे मितनुप्रभृतीनामुपसंख्यानम् २|शश | देवासुरादिभ्यो बुनः प्रतिषेधो बक्तव्यः ३१६३
शुश्वोभवाद्वक्तव्यः
४२७ देऽपि क्यचिद् पुंवद्भावो वक्तव्यः १३/१४७ | द्वन्द्वे देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः ३२३१६२
वित्वे गोयुगः
३।४।२५० द्वित्रहन्ताच करणात्प्रतिषेधो वक्तव्या
३४.३५ णत्वविधौ गेर्नस उपसंख्यानम् ४।२।११९
५४१२७ मिश्रिश्रन्थिग्रन्थिबूजां दविधौ धौनाच शशक द्विमात्रात्परस्यापि
द्विषः शतुर्जा वचनम् ११३१७५ १४७२३।२।१०६
वयक्षरस्य पूर्वनिपातो वक्तव्यः १५३।१०० तः पर्वमयां मत्वर्थे
४|११५६ तच्चरतीति च महानाम्न्यादिभ्य उपसंख्यानम् ३२४७
४|१०८ ततोऽभिगमनमइति च वक्तव्यम्
घमुञन्तात् स्वार्थे डो बक्तव्यः ३।४।७३ |
३।।३६
धेनोर्न-पूर्वाया नेष्यते तदन्तादेति वक्तव्यम्
४|श५६ तनिपत्तिदरिद्धां बेट
५/२११५५ तपसो मञ्चेति वक्तव्यम् २।१५१४, नक्षत्रयोगे शाथै
२११२४
४।१।१९
Page #492
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________________
प
जैनेन्द्रवार्तिकानामकाराविक्रमः नमोऽनुभाचे क्षेपे मिङ्युपसंख्यानम् ४।३१८१ । पुरान्तात्प्रतिषेधो वक्तव्यः
३।३।३५ ननो पृष्टप्रतिवचने भूतमात्रे लट् वक्तव्यः ।२।१०० | पुरुषाद् वधधिकारसम्हनकृतश्चिति वक्तव्यम् ३१४९ नभोमिनुषां पत्युपसख्यानम् ११०७ पुष्पमलेष बहलम्
३३२१२४ मशब्दे नुशब्दे च बाचि पृष्ठ प्रतिवचने भूते वा | पूर्वपदस्य च ठाजादी अनजादौ च खं वक्तव्यम् ____ लट् वक्तव्यः ||१००
४।१।१३६ नाभि नमच
३४२ पूर्वप्रथमयोरतिशये द्वे भवतः पूर्वमासादण निन्दाक्षमारोगापनयेषु यथाक्रम सन्निध्यते ।११३ । वक्तव्यः
३२३० निमित्ताकर्मसंयोगे ईवक्तव्या
१४|४४ | पृच्छतो सुस्नातादिभ्य इएसमर्थेभ्यः ३।३।१५६ निमिमीलियां खाचोरात्वप्रतिषेधो वक्तव्यः ४।३।४३ ! पृथिव्या बाजी
३.श७० निरादयः कान्ताद्यय कया ८ १; १।४।१०२ पौनीपुत्रादिभ्यश्छो वक्तव्यः
३शस२३ निसो गत इति वक्तव्यम् ३।२।८५ , प्यख कर्मणि का वक्तव्या
१।४।३७ निसो देशे
२२४६ प्यादेशोऽन्तरङ्गस्यापि विधेर्चावका ४|४|१६ नप्रच्छिभ्यो च शरा१४ । प्रकृत्यर्थस्य घट्त्वे षड्गवः
३/४/१५० ननरयोश्च शरा२३ | प्रकृत्याके राजन्यमनुष्ययुबानः
३२४१२३ नेतुनक्षत्रे उपसंख्यानम्
४।२।११६ | प्रकृत्यादिभ्य उपसंरख्यानम् २४ir४।३।१२४; नर्भुव इति वक्तव्यम्
४।३।१२५
प्रथमाधिकार द्वितीयस्यापि वृद्धेऽच्यनुध्यक्तव्यः ३।३।६३ पञ्चजनशब्दादुपसंख्यानम् १७ | प्रभूतादिभ्यश्च
१३१५६ पद्मछान्दसा एतै शब्दास्तदत्रापि नस् वक्तव्यः ४।२।११८ | प्रमाणपरिमाणाभ्यां संख्यावाश्चापि संशये मात्रपरिचर्यापरिसर्यामृगयाणां निपातनं बक्तव्यम् २१३८३ । । वक्तव्यः
२४६१५८ परिपाश्वाच्चेति बक्तव्यम्
३।३।१५२ | प्रमाणशब्दा ये प्रसिद्धास्तेभ्यो यसद्वादीनां धंसनं परेवा २३८९ वक्तव्यम्
॥१५८ परोक्षे लोकविज्ञाते प्रयोक्तुः शक्यदर्शनत्वेन प्ररोहणे शाकटशाकिनी
३४१९५० दर्शनविषये लडवक्तव्यः श६२ | प्रश्नाख्यातयोश्च का वक्तच्या
१४४३७ पर्यादयो ग्ानायथें अपा २ ३८१४।२१५ ! प्राणिनीति वक्तव्यम्,
४२७६ पर्वा यस वक्तभ्यः ३१२।३६ प्राण्यके नित्यं लत्वम्
५।३।३६ पाणिग्रहीत्यादीनां गुर्वनुज्ञातेन डी बक्तव्यः ३११४५ प्रादयो गताद्यर्थे च धया १।३।८१; १ ८६ पाणी समवशब्दं च सृजेएयौ वक्तव्यः २११।६२, प्राडूहोटोळ्ये षैष्येषु
१७५ ।३।१०२ पात्रादिभ्यश्च प्रतिषेधः
१।४।९३ माड् वर्षाशरत्कालदिवां मेऽनुप ६१३२ पाशकल्पकाम्याः प्रयोजयन्ति
५।४।२६ पाशाद्विमोचने
२।११२२
| फलवाभ्यामिनः पिच्छादेश्चेति वक्तव्यम्
४१२६ फिलप्यत्र भवतीति वक्तव्यम्
३११३८ पिशाचाच्चेति वक्तव्यम्
४|११५२ पुंसाऽनुजो जनुषान्ध इत्यनुव्वक्तव्यः ४।३।१२४ पुच्छाम्चेति वक्तव्यम् ३१/४८ | बन्धे विधा
४१३२ पुष्टादुदसने पर्वसने वा रा११७ । बलादूलः
४११५६ पुण्याहवाचनादिभ्य उबक्तव्यः ३१४।१०५ | बसे कौ मातुरदन्तत्वं पुत्रश्लाघायाम् ५.२११०२ पुत्रादिनी त्वमसि पापे इत्याकोशे नेष्यते ५।४।१२७ । बहिषष्टिख सञ्च
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________________
४५
१|३|१००
३२७८
बहुष्वनियमः वायुर्दिश्चेति वक्तव्यम् बिनादिभ्यो नित्यनुम् न भवतीति वक्तव्यम् ३ २/४५ ब्रह्मचर्यमस्मिन्नर्थे महानाम्यादिभ्य उप
संख्यानम्
ब्रह्मणि वदेशिन वक्तव्यः ब्रह्मसादिभ्योऽपि वक्तव्यम्
भ
भक्षिरहिंसार्थः कर्मसंज्ञो न भवतीति वक्तव्यम् १ | ३|१२२
शरा४०
भगे दारेः खज वक्तव्यः भस्य इत्यदे
भाडासञ्चयने परिचयने चा भ्रातुश्च ज्यायसः
भ्रातृपुत्री स्वदुहितृभ्यां शिष्यत इति न
वक्तव्यम्
३ | ११२१, ३|१|६४ : ४|१ | १६१; ४ | ३ | १४७; ४] ३|१५३ ५।२११० २|१|१७ १/३ | १००
मणिप्रभृतिभ्य इति बक्तव्यम् मादिषु नेष्यते
मधुकमरिचयः स्वलपूर्वोदय् वक्तव्यः मध्यादयो वक्तव्यः
मध्यो मध्यन्दिनश्चास्मादुपस्थानी बि
नात्तथा
मरुच्छब्दस्योपसंख्यानम्
피
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
महाजनादृज्य कव्यः
महिषाच्चेति वक्तव्यम्
२४|८८७
२।५।६६
४ २८०
मूल्यादिति च वक्तव्यम्
मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्य भवतीशब्दस्य
उच्छसोः
मृदुद्महणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्
१|१|१००
मदत्या घासकारविशिष्टेषु व्यधिकरणत्येऽपि पुंवद्भावा
त्वे भवतः
४१३ १५
शश२०
३।४।७३ ३ | ३ ३५
३।४।७ ३ २१६७
રાર્ક
४/१/३५ रसादिभ्यो मतुर्वक्तव्यः
राच्च वसनं वक्तव्यम्
राजन्यादिभ्यो वा बुञ् उस्वक्तभ्यः २४५ राजाचार्याभ्यां भोगान्ताभ्यां नित्यमिति वक्तव्यम् ३१४/८ राष्ट्राभिधाने बहुत्वे स्वक्तव्यः
શાપૂ
२११।२२
५/४/३६
३३३३५ | रूपादर्शने १२/१३०
य
यत्रादीनामेकत्वद्वित्वयोर्वा तासे इति वक्तव्यम् ४ १४१३५
यः परस्य मयोऽचि विकल्पः
४२७
यतश्चाध्यकालपरिच्छेदस्ततः का वकण्या
यथेष्टं सुषु वक्तव्यम्
यमान्वेति वक्तव्यम्
यवनाचिप्याम्
३११४ ३ | ४|३५
यवाद
३११ ४२
यस्य प्रकरणे वातविस श्लेष्मसन्निपातेभ्यः शमन कोपनयोरुपसंख्यानम् ३/४/३६
येषां पाकनिमित्तः शोषः तेभ्यश्च उस् फले ३।३।१२४
र
रजकर जनरजत्सु नात्रे यत्नः कर्त्तव्यः रणिवशिभ्यामन्वक्तव्यः
मासाहित्यान्त पूर्वपदाक्तव्यः
मुखपावंत मोरीयः कुरजनस्य परस्य च ।
यः कार्योऽथ मध्यस्य मएमीयौ च तौ मतौ ॥ ३/३३२५ च उद्गेः
मूलविमुवादिभ्यः
मूलान्ताच्चाप्
ग्रहणे
४१४२०
२३५२
३३३॥१९७
सीतालेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरुपसंख्यातः शह रथसीतालेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरपौध्यते रप्रकरणे खमुखकुञ्जेभ्य उपसंख्यानन् रविधि पशुभ्याम्
४|१ | २३
३२६१
४|२| १५६
रेरेव काम्ये वक्तव्यम्
३ | ४|८८टकेभ्य इन्वक्तव्यः
१३४१३७
४/३३३
२२१/७०
३।११४२
ल
लिटि स्वजेर्वा न खं भवतीत्युपसंख्यानम् ५४/०४ लोम्नश्वापत्येषु बहुषु लेतिशब्दात्त्रीत्यस्य परत्वादनेन केन चाधनं
३/१/७०
बक्तव्यम्
वर्णानामानुपूर्व्येण वर्षक्षरशरच राज्जे द्विधा
४/१/३३
४|१|२३
३४/१५८८
व
४/२/३६
५/४/२६
४११११४
१|३|१००
४|३|१३२
बलप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते इति वक्तव्यम् ४ ११३८
वशेर्यङि प्रतिषेधो वक्तव्यः
४/३/१५. २११११८
वस्त्रात् समाच्छादने
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________________
जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः वा गोमयेविति वक्तव्यम्
३।२।१०७ । व्यासवरूडनिषादचण्डालबिम्बादीनामिति वा ठण छसोः [उक्छसोश्च ५२२२ वक्तब्यम्
शश६ वाततिलसार्धेषु अजतुदजातिभ्यः स्वश्वतन्यः २।२।३२ | प्रताद्मोजने तनिवृत्ती च
२।११८ वा तदन्तवालललाटानामूङ च
४र५ वातात्समूहे तन्न सहते इति च
४शपू६
शंसिदुहिगुहिभ्यो वेति वक्तव्यम् ११२६१ वा प्रियस्य
२१३०१०१ शकटादण वक्तव्यः
३१३११६१ घाबन्त इति वक्तव्यम्
१।४।९३ शकन्ध्यादिनु पररूपम्
४३८१ वामदेवाद्यो वक्तव्यः
३।२७२ शतकद्राद्धश्च
३शरार३ वायोरभयन प्रतिषेधः इष्यते
४।३।१३६ शतषष्टिम्या पथष्टिक:
३।२२ बारिजङ्गलस्थलकान्ताराजशङ्कपूर्वपदादिति
शन्शतोहिनिर्वक्तव्यः
રેશદાપૂ૭ वक्तव्यम्
३/४/७३
शप उपलम्भन इति च वक्तव्यम् शरा१५ वा लिप्सायामिति वक्तव्यम्
१२।२०
शयघासबासिष्वकालबाचिनो द्विधा ४।३।१३३ वा समर्थायाः संख्याया गुणस्य निमेये
पर बदर खा
१/४१२७ वर्तमानयोः
३/४११६९
शसिहिगुहिभ्यो वेति वक्तव्यम् ४२११६ विकारे स्नेहे तैल:
३।४।१५० शिक्षेर्जिशासायां दो वक्तव्यः
शरा१५ विद्यामाननक्षत्र (विद्या च नाङ्गक्षेत्र)
शीतोष्णनृतेभ्यस्तन्न सहत इत्यालुवक्तव्यः ४१५६ धर्मत्रिपूर्वा
Rા૨ા૨ शीर्षान्ना
४११०४२ विद्यालक्षणकाल्पसूत्रान्तादकल्यादेः ३।१५२
शीलादिप्रकरणे धान कस्जनिनदिभ्य इलिंद विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा वं वक्तव्यम् ४।२।१३६
वक्तव्यः
२।२११५५ विपरीताच्चेति वक्तव्यम्
३।४।१३६
शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमिभ्यो जो वक्तव्यः २१२११ विभाजयितुर्णिखश्च
३/३।११६ शोले को मखंच
४।१।१३० बिरोधेऽण् वत्तव्यः
३४१६४ : शुनः खौ शेफपुच्छलाङ्गयेषु
४।३।१३४ विंशतेश् ति वक्तव्यम्
३४/१५८ शुभिरुचिभ्यां प्रतिपेयो वक्तव्यः
२१११११ विशसितुरिटः खञ्च
३।३।१६६ शूद्राच्चामहत्पूर्वात् जातिश्चेत्
श१४ विशिपूरिपादिवहिप्रकृतैरनात्सपूर्वपदादुप
शृगवृंदावामारको वक्तव्यः
४१५६ संख्यानम्
३।४।१०४ | शृणाते युवायोघंच वक्तव्यः
२१३१२. विषेन भवत्येव
५/३/३६ शेषे विभाषा
११४/६९ विष्णोः प्रतिषेधो वक्तव्यः
४।३।१४१ श्रद्धादिभ्योऽण वक्तव्यः
३१४११०५. विस्तारे पटा
३१४/१५० अन्येश्चेति वक्तव्यम
४|४|११३ विदायसो विहंच
||४६ अविष्ठापादाभ्यां छापिति वक्तज्यम
३| विहायसो विद्यादेशः सच वा डिद्वक्तव्यः २/२/४५
श्रुयजीधिस्तुभ्यः स्त्रियां करणे युवाधनाथ वीप्सायां वा हसो वक्तव्यः
११३५ क्तिर्वक्तव्यः
२।३।७९ चीरातेजसि यः
३४|११४ वृद्धवदिति वक्तव्यम्
४२७
ष्ठीवतिषष्फतिष्टचायतीनां प्रतिषेधो वक्तव्यः ४/५३ वृद्धाश्चेति वक्तव्यम्
३।२।३४ वृद्धावृद्ध बदिति वक्तव्यम्
૪૨૭ (दू) द्वेष्टणि वृधुषिभावो वक्तव्यः ३।३।१५३ | संबोद्धः संवहितृभावश्च स्वे बक्तव्यः वे ख्यादेशो वक्तव्यः ४।२१११६ । संस्कृते शूल्यः
३३४|१५०
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________________
४५४
जैनेन्द्र-व्याकरण स एव डामहो मातरि वाच्यायां टिच ३।२।३१ । सुदुरोरधिकरणे डो वक्तव्यः
२।४६ सकर्मकादिति वक्तव्यम् ११२५४ | सु [२] नोजिर्वाचदीत्वम्
३१४२ सग्योश्च कछिद्र ह्योः
शरा११२ | सुब्धूनाच तृतीयस्यैकाचो द्वित्वं भवति ४३।३ सलथाप्रकृतेरिति वनव्यम्
२२।५५ | सुसद्धि दिक्छन्देभ्यो जनपदस्य सूत्रान्तादसमल्याया अल्पीयसो वाचिकायाः १1३।१०० कल्पादेरिष्यते
३२५२ सञ्ज्ञायामण्य, वत्तव्यः
३४८७ | सेनाङ्गफलक्षुद्रजीवितरुमृगतृणधान्यपक्षिणां सत्प्राक्काएबप्रान्तशतकेभ्यः पुष्पाटापू ३३१४ प्रकृत्यर्थबहुत्वे एकवद्भावः समसम्मधारणायां किम आक्षेपे द्वे भवतः ५३९ सेनाङ्गेषु बहुत्वे
११४/७८ समानाच्च तदादेश्च अध्यात्मादिषु चेष्यते । सौवीरेषु मिमतशब्दारण फिी वक्तव्यौ ३।२।१२८ अक़द्दमाच्च देहाच्च लोकोत्तरपदादपि ।। २।३।३५ ।
३४५६ समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम् शरा५८, ४१३२११५ | स्त्रियामपत्ये उब्धक्तव्यः
शश११७ समिधामाधाने टेन्यण, वक्तव्यः ३।३।८८ स्त्रीनपुंसकयोविभक्त्या वाऽम्भावो द्योऽस्तु ५१३९ समूहे कटः ३|४|१५० | स्वर्गादिभ्यो यो वक्तव्यः
३१४|१०५ सम्पदादिभ्यः विपि वक्तव्यः
२१३/७५ स्वाङ्गकर्मकादिति वक्तव्यम् १।२२१४, १।२।२२ सम्पूर्वाद ति बक्तव्यम् २११।९३ | स्वादोरेरिणोः
४।२७६ सम्भवाजिनशपिण्डेभ्यः फलाछाप् ३२११४ स्वार्थेऽत्रधार्यमाणेऽनेकस्मिन् द्वे भवतः ५३९ सम्भूयोऽम्भसोः सखं च
३।१।५ स्वाथै द्वयसन्मात्रटौ बहुलं वक्तव्यो ३१४१५८ सर्वजनाट्टण खश्चे वक्तव्यः
२।४/५ सर्वत्र मोरजादिप्रसंगे या ३।११७० हनो बा वध इति च बक्तव्यम्
राश८६ सर्वनामसंख्ययोः पूर्वनिपातो वक्तव्यः १।३।१०१ , इन्तीत्यपि वक्तव्यम्
३।३१५८ सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः श१३६ हन्तेहिंसाया जीभावो वक्तव्यः
५२।१३९ सर्वनाम्नो वृत्तिमात्र पूर्वपदस्य पुंषद्भावः शशा | हरतेतिताच्छील्ये
१२।१५ सर्वमर्थकार्यमदेर्न भवतीति वक्तव्यमधिकरणे
इलसीरा वक्तव्यः
३/३११ तविध मुक्त्वा
श२२१२२ । हलिकल्योरकारान्तता णिचा योगे निपात्यते २१०१८ सर्ववेदादिभ्यः स्वार्थ ३/४/११४ ' हायनाद्वयसि स्मृतः
३।११४ सर्वसादेरसाच्चो श२५२ . हितशब्दयोगे उपसंख्यानम्
११४/२६ सर्वादश्चेति वक्तव्यम् ४।१।५६ | हिमाच्चैलुः
४|१५६ सवच्च बहुलम् १।२।१० | हिमारण्ययोमहवे
६१४२ सहायाद्वेति वक्तव्यम् ३२४४१२२ | हृदयाच्चालुर्वा वक्तव्यः
४|११५६ सहितसहान्याञ्चेति वक्तव्य ३२१५६ | हवघोरप्रतिषेधो वक्तव्यः
धारा सुदिनदुर्दिननीहारेभ्यश्चेति वक्तव्यम् २।१।१४ | होत्रायाः स्वार्थे को [छो] वक्तव्यः ३४|१२५
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________________
जैनेन्द्रपरिभाषाणामकारादिक्रमः
अखौ हृद्युभ्यामियर्थे ईपू तस्याश्चानुब्यक्तव्यः गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तम् ४।४।६४ ४।४।१५२: ४/३११२७
५।२।३: ५ ।१३६ अनन्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य ४।३३१४|४|१०० | गोरधिकारे सदन्तस्य च ५।१४१८, ५/११३६ ___४|४|१२१; ४।४।१४७, ५१११६२, ५५३८८ गौणमुख्ययोमुख्य सम्प्रत्ययात्
1/४/६५ अनित्वमागमशासनम्
४।३।१६९ । अनिनस्मिन्ग्रहणेष्वर्थवता चानकेन च तदन्तविधिः चविकारेण्यपवादा प्र उत्सर्गान्न बाधन्तै ५१२१६६; ___३।१।६ ४।४।१२,५/१।१६४, ५,४६०
५२।१८१ अन्तर कानपि विधीन् बहिरङ्ग उब्बाधते ४३।१२७;
५.श१५७ बुलयोः समानविषयवं स्मर्यत
५।३।३९ अन्तरङ्गानपि विधान परिषः प्यादेशो बाधते
४|४|१८ गोऽयण कृतं भवति अभ्याभावेऽन्त्यसदेशस्य कार्यम् ५/२/७४ अन्यत्र धुमहणे ध्वादेः समुदायस्य ग्रहणम, ४।२।१९८० असिद्धं बहिरङ्गमन्तरले ११११५८; ४।३।५५; ४।३।६५;
सदागमास्तद्ग्रहणेन गृहयन्ते
पूरा८० तदादेशास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते ४/४/१७५/३/२८3५/३/E
पू||१०८ तन्मवारतितास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते ४।३.१०९
तिवाक्कारकाणां प्रारसुवुत्पत्तः कृभिः उभयत्त श्राश्रयणे न तद्वद्भावः ५१५८ ५२।१३२ ___ सविधिः ॥३-८२, ३।९।४३, ४।३।१६६
त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेः २१८, ५३९८ एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् ४/४५४, ५/१८
त्यग्रहणे चाकायः
४१३।१३३ ५।१।१६०; त्यात्यसंभवे त्यस्य ग्रहणम्
४।३।१६६ एकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गानपि जग्च्यादिविधीन् बहिरंगः । प्यादेशो बाधते
१/४|११० | धावित्यधिकारे त्यग्रहणं स्वरूपमहामेष ४३११३३ एकानुबन्धग्रहणे न द्वषनुबन्धकस्य २१६ वधिकारे त्यग्रहणं स्वरूपग्रहणं न
तदन्तविधिः
४/३११६१ कार्यकाल सभापरिभाषम् १५; राहत: | द्विद्ध सुबद्धं भवति
४|४|३७ પ્રારા ૨૭ कृद्महणे तिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम् १९।३१।२२ | धोरधिकारे तदन्तविधिरप्यस्ति
५.१५० १२।२६१।३।४१, २।३१७६, ३।१।१८ | घोः स्वरूपग्रहणात्तत्यविज्ञानमा२।१: ५।२१३६; क्यौ नष्टं न स्यानिवत् शि६३
पूशिर प्रामादाग्रहणेष्वविशेषः श४१४६,४३२६२,४।४/६५,
प्रा२।१४४, ५/२।१५५ . नजिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तपा इयर्थगतिः १।०६८
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________________
जैनेन्द्र-न्याकरणम् नानकेऽन्तेऽलोऽन्स्यविधिः ४।३।८५ ५।१।१७१; , येन नाट्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि ५१८३
५.४/३ नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम्
|४|५ नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः
शक्ष१३ लक्षण प्रतिपदोक्तयोः प्रपिपदोक्तस्यैव ५।१५२,५।४।९५ निरनुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य ४३१७४४/६४ ! लिङ्गमशिष्य लोकाश्रयत्वाल्लिजस्य ५२२०
५४।१८। निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ४|४|११६; ५२।१५१ . वर्णाश्रये नास्ति लाश्रयम् ४।३।९९; ४।४।३३;
४॥४१४१५/१५४ पुरस्तादपवादा अनन्तरान्वि/न् बाधन्ते नोत्तरान् । वार्णद्गावं क्लीयः ११११७८८; १।४।११३, ४।३१३३; २१११४१
४।४।१७; ५/१११३६ पर्व धर्मिना बुज्यते पश्चात्साधनवाचिना त्येन व्यघदेशिनद्भावो न मृदा ।
पू४ि ५२१२२; ५/२०१३८ पूर्वत्रासिद्धोयमद्वित्वे
५/४/६६ पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत् ५/३।३६,५।३।४६; । सकुाद्गते परनिर्रा ये विधि धितो बाधित एव
५।३।५५ ५.६४ ! १२.९०; ४।४!४३; Mxkx. ४/४ १९४; !!!:५५: प्रकल्प्यापवादविषय तत् उत्सगोऽमिनिविशते १।४।१२३
५११५७५/२।५ ।११० प्रकृतिग्रहणे यकुबन्तस्य ग्रहणाम् ५।११८५; ५३१५५ | सञ्ज्ञाछन्दसोः पूर्वो बिधिः
५/३१३९ प्रकृतिबदनुकरणं भवति __|४१४६ | सशानिधी त्यग्रहणात्तदन्तविधिनास्ति
२०६:
११:२०; २।२।२६ मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीम्याधन्ते नोत्तरान् श१।५३ | सत्यविधौ न तदन्तविधिः १।१।६७ ५।२०१६ २११११११, २।३।७६: ४।३।१७८; ४।४।७७; ! सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विधातस्य ११६४;
५२१५६ । ना११३२,५४१८ ५१२१, ५ास५५ ५२८ मृग्रहणे लिङ्ग विशिष्ट स्वापि ग्रहणम् १।३।६३; | सन्नियोगशिष्टानामन्यतरापाये उभवोरप्यभावः १।१।६; ४।२।६३, ४.३।१४८; ४|४|१२१ ५.४३ ५/४/३४
३।१।७४|४३१४३
सिरे सत्यारम्मो नियमार्थः ११६; ५३।२८ यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्तं विहन्यते न
५/३४२५३११ तदनित्वम् ५२० | कादिखलत्वरणत्वेषु नास्ति
५.३४६ येन नाप्राप्ते तत्य तयाधनम् ५।२।१५; ५।३।४१ । स्वार्थिका प्रकृतिलिङ्गसल्ये अनुवर्तन्ते ५२११२५
य
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________________
अक्षयूतादिः अङ्गुल्यादिः अजादिः अपूषादिः अरीहणादिः अर्धचादिः असंधादिः अश्मादिः अश्वपत्यादिः अश्वादिः
कुदिः
माहिता न्यादिः
इन्द्रजननादिः इटादिः
जैनेन्द्र-गणपाठसूची कर्णादिः ३१२।६० तिकादिः
सा११४१ कल्याश्यादिः ३।१।११५ ||
| तुन्दादिः
४१११४३ ४११६२ कस्कादिः ५/४।३६ नृणादिः
शरा६० ३।१४ ! काशादिः
३।६० । तौल्बल्यादिः १०९३२ ३।४।३ । काश्वादिः
राहत्य दादिः १।१।६९; ५।२।१६१ ३१।६० किसरदिः
३।३।१७२. ११४।१०८ कुनादिः ३।१।२७ दशादिः ४५० कुमुदादिः
३।२।६० दधिपमादिः १४६० ३।२।६० | कुम्मपद्मादिः ३रा दामन्यादि
३।३।२६ २०६६ ३।१।१३१ | दृदादिः
३|४|११३ १९६
कुलासादिः ३देवपादिः ४|१९५४
कृशाश्वादिः ३१६० । दारादिः १।३।१०३
| कौशल्यादिः ३१११४२ | द्विदण्क्यादिः ४२११२६ क्रोडादिः
३२१४६ कौड्यादिः ३।१।६५
श।१०५ ५|४|११७
नडादिः ३३८८ ३।२।७१ રીરિ गादिः ३।१।६३ ' नद्यादिः
३।७६ २।२।१६७ गवाश्वादिः
१९४७ ३।।७० : गहादिः ३।२।११४ ।
शर६० ३।३।१३८ राष्टयादि ३।१११२४ | पर्यादिः ३।१९७१ | गोपननादिः १।४।१३९ पश्चादिः
४/२६ ३१४|११६ | गोपालकादिः
३।११३८ पलद्यादिः १४१३९ गौरादिः
३१२३
पात्रेसमितादिः ११३१४३ ४२११५१
पामादिः
४१२७ घोषदादिः ४॥श६६ पारस्करादिः ४।३।११६ ।।१३२ .
पाशादिः
३।२।४१ . चादिः
२२।१२८ | पुरोहितादिः ३२४११८ ३।२०६०
| पुष्करादिः ४१११५६ ३/४/६२ । | पूर्वादिः
११११४२ ३।२।१११
पृथ्वादिः
३१४१११२ १।३।१०४ | तारकादिः ३।४।१५७ पैलादिः
१४।१३१ ३।२।७५ ! तालादिः ३३३११०५ | प्रजादिः
४|४४ ३।३१२.६ तिमकितवादिः १४११४० । प्रादिः
११३८१
४।१।२२ । तुम्नादिः
उगवादिः उणादि उत्करादिः उत्समादिः उत्सादिः उद्गात्रादिः उपकादिः उरः प्रभृति
ऊर्यादिः ऋश्यादिः
३६० .
छेदादिः
कच्छादिः कठारादिः कलयादिः . कथादिः
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________________
प्रेक्षादिः पलक्षादिः
१३३५
३।७७ पारा१३ १४३५४
चहादिः बाङ्गादिः बाहाणादिः भौयादिः
भर्गादिः मस्त्रादिः भिक्षादिः भौमादिः
जैनेन्द्र-व्याकरणम् शरा६० । रेवत्यादिः ३१३४ । शुभ्रादिः ३/३/१२२ | रैवतिकादिः ३।३।९९ । शौण्डादिः
शौनकादिः ३।१।३१
श्वादिः लोमादिः ४१२७ । श्रेष्यादि। लोहितादिः
३शर ३|४|११४ . ४|११४२
व
सख्यादिः वरणादिः
शश६२
सङ्काशादिः ३।१।१५८ बराहादिः
३।२।६०
सन्तापादिः ३।३११३६ | बलादिः ३२१६९: रा५७
सपत्न्यादिः श२।३३ वाकिनादिः ३।१११४५
सब्रह्मचार्या दिः २३४६१ बिदादिः
३।११६३ मार्गदिः विनादिः
४/२।४०
साक्षादादिः घिमुक्तादिः
४|११६५ ३/४११२३
सिध्मादिः वेतनादिः १/६६
३।३।१५५
सिन्भ्वादिः व्याघ्रादिः ३।३।१६९ ,
१।३।५१
सुखादिः सुतनमादिः
| सुषामादिः शकलादिः
३|| ११४|१३४ शण्डिकादिः
स्वतादिः ६६३७२ शरदादिः
४/२/२०६ |
स्वागतादिः ४।२।३५ शरादि
३३।१०६
४।११६१ शास्वादिः ४२५७ | हरितादिः श६९६ शिवादिक ३।११.१ | हरीतक्यादिः २।४६ . शुण्डिकादिः ३२३५० । इस्त्यादिः
३६० ३।४५ ३।९३४ ४१४१३१
शश३५ ११।१४३ ४।१।२५
मनोज्ञादिः मयूरख्यं सकादिः महिथ्यादि
४२११५४
यवादिः यत्कादिः याजकादिः यावादिः युवादिः
पू/४/७२ ४।२।११
३११८ ५ारा१२
३१४|१२० | शर्करादिः
राजदन्तादिः राजन्यादिः
३१८६ ३१३।१२४ ४।२।१३६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-संज्ञासूची
गतिः
___ घट !
तद्राजः
जैनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा | जेनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा । जैनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा अधिकरणः अधिकरणम | करणम् [१।२।११४] करणम् | तः [१।१।२८] । निष्ठा [१२११६]
फर्ता [११२।१२४] फर्ता | ता [१।२।१५८] पी अनुदात्तः अनुदात्तः । कर्म [१२।१२०] कर्म | ति [१।२।१३३]
[१।९।११२] | का [शरापू] पञ्चमी | स्यः [२।१।१] प्रत्ययः अन्याः [१२।१५२] प्रथमपुरुषः | किः [२।४।५६] सम्बुद्धिः अम् [१।।१५८] चतुर्थी
थः [४।३।३] अभ्यस्तम् अपादानम् अपादानम् [२।११०
खम् [२।१।६१] लोपः : अस्मद् [१।२।१५२] उत्तमपुरुषः
खुः [१।१।२६] ___संज्ञा | दः [शरा१५१] आत्मनेपदम्
| दिः [१।१।२०] प्रगृह्यम्
दो: [१।११११] दीर्घः इत् [१।२।३] इत् | गि [१।२।१३०] उपसर्गः
दुः [१६] वृद्धम् हप [शा१५ द्वितीया | गुः [शश१०२] अङ्गम् ॥१.५१ उत्तरपदम इल [१११।३४]
द्रिः [४ ] घि [११२१९९] लघु द्वन्द्वः [११२।६२] ईप [१।२।१५८]
द्विः [१।२।१५५] द्विवचनम् सप्तमी
3 [१।१।४] अनुनासिक
उपधा - ङिः [१।१।३०] उड़ [शश६६]
'धम् [१।१।३१] सर्वनामस्थानम् भाषकर्म
धिः [१।२।२] अकर्मका उज् [१११।६२] उदात्तः [१।१।१३]
पुः [११२।१] धातुः उदात्तः च [४।३।६] अभ्यासः उस् [१।११६२]
नप [नपुंसकलिङ्गस्य संग प्राचाम्] | निः [१११५] सम्प्रसारणम्
निः [५१२२] निपातः
न्यक् [१।३।१२] उपसर्जनम् एकः [१।१।१५५] एकवचनम् पप् [१।१११६] गुणः | मिः [१।१।७४] अध्ययम्
पः [१।११११]
| पदम् [११२।१०३] पदम् ऐप [११।१५] वृद्धिः । रि: [१११।६५] टिः | प्रः [१।११११]
पत्र
उपाशश६२]
छक
ज
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६०
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
समाप्तः
सत.
___ब्रिगुः
संख्या बम् [१।३।८६] बहुव्रीहिः । यः [१।३।४४]
संख्या [१।११३३
फर्मधारयः | बहुः [१।२।१५५] बहुवचनम् | युष्मद् [११२।१५२] मध्यमपुरुषः
सः [११।२] बोध्यम् [१।४।५५] सम्बोधनम् ।
सत् [२२२।१०५]
सम्प्रदानम् सम्प्रदान | रः [१२.३४०
[शश१९१] भः [१।२।१०७ भम् | सः [१।२।१००]
गुरु । स्वनाम [१११/३५] सर्वनाम मा [१।२।१५८ नृतीया
मुः [१।२।९७] भु [१।१।२७] बुवा [१।२।१५८) प्रथमा स्फः [१११३] संयोगः वाक् [२।१६] उपपदम्
स्वम् [१।१।२] सवर्णम् विभक्ती [१।२।१५७] विभक्तिः | स्वरितः [१११३१४] स्वरितः मम् [१।२।१५०] परस्मैपदम् मुः [१।२।९२] नदी
अव्ययीभावः मृत् [२।१।५] प्रातिपदिकम् पम् [१।३।१६] तत्पुरुषः । हृत् [३।१।६१] तस्तिम्
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________________
जैनेन्द्र और पाणिनि-व्याकरणकी तुलनात्मक सूत्र-सूची जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र- जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र- | जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र
संख्या संख्या । संख्या संख्या । संख्या संख्या ११११
११११२३
१।११६५ १|३३
११४६४ श१।२ ११।९
शश६६ श११३४ श।२४
२१११६५ श३ १११७
शिक्ष५२ शा३५ शश२७
शश६७
२११०२ १।१४ ११।३६ २|शरद
शश६८ श६।७३ १४ ४२३७ १।१२६
श६६ १।१९७४ ११११६ श२।४६ ११३८ श१३०
१९७० श६७५ श१७ श२४७ ११।३६ २१११३१
१।१७१ ११८ १।४८ ११४० श११३२
।१११६६ १९ शरा४६ शरा४१ ११३३
श१।७२
।११११७० श१।१० १/२।९० ६।१।४२ ११३४-३६ . १७३ १११११ शरा२७ १४४४३ ७१।१६ ११/७४ ११।३७ १११।१२ १।२८ ११/४४
११५ श२।१ १श१३ शरा२६,३०
शश४५ १९७६ पा२।२ ११११४ २।३१ ११४६ १९४६
श७७ १।२।३ १११११५
१।१४७ शश५०.
| १३१७८
१२।४ १।२६ शथर शश४८ ११५१ १७६ शरा १||१७ १४ १५२ शश।
१२७ श०१८ २०१४
११५० शक्ष५३ ११११ शरा१६ १।१५ ११ १।१।५४
११८२
रा शश२० १११११ १११२ १११५५
१९८३ राम १।११ शश।१२ १११५३।
१शमा १२।१०
११११४६ शश२२ ११/१४ । ११५४
शराब ११।११ श१२३ १११११५ १५५
१।१८६ ફા૨/૨ शश२४ श११६ १४१५६ ११५६
श।१३ १शश२५ ११११७ ११५७
११८ श।१४ १।१।२६ ११११८ शापून ११८
१२।१५ २२११२७ ११र० शश
१।११५९ २०६० ११२।१६ १॥शरद शश२६ १११४६० ११६६,६७ २।१।६१ शरा१७ १।१।२६
१।१६१ १९६० ११११२ शर८,१६ ११।३० १११६२ ६।१।६१
१२।२. श१।३१ १४२ श११६३ श१६२ राश६४ २२१ १४१३२ ११/४३
१९६३ ११५ शरा२२, २३
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
१।२७६ ११३४ ११३८९
११।३७
११३७८ १३७६ ११३८ १८. शश८२ ११३८३ ११३ ३५
१३
शश८६
११३९०
| राम
४६२
जैनेन्द्र-व्याकरणम् श१९६ १२।२४, २६ । १।२।३३
शरा७१ शश६७ शशरपू श२।३४ श६३८
शरा७२ १११११८ शरा५१ १२।३५ ४३।३६
शरा७३ ११६६
शरा६३ शरा३६ १३४० १२|७४ ११।१००
१३४१ | १२|७५ अध्याय १ पाद २ | ११३८ ११३१४२ । १२७६ शरा १४१ १२।३९ १|३|४३
। १।। शरा२ शरा४०
१२।७८ १२।३
११३२ शरा४१ शक्षा४५ १२/६ शरा४
श३।१० ૨૨૪૨ १६/४६ शराम. शरा श३.११ २।४३ ११३१४७
११२८१ शरा
२।२०१२ | १२१४४ ११३४८ १।२।८२ श १३।१३ | १२|४५ ११३/४९
शरा३ १शश
१२।१४ शरा४६ १/३१५० २२६ ११३१५ १।४७
श३५१
१२ १।।१० १।३।१६ शरा४८ १/२५२ १।२।११
XRIYE ११५३
। शरा शरा१२ १३.१८ |२/५० श३५४ श/१३
१.२२८६ शरा१४
१५२ २४३५७ २० शरा१५ १४३२१ शरा५३)
१५८ १२१६॥
शरा५४ । १।३२२
१/२०१२ रा१७
श२०५५
श३५४ | शरा६३ शरा१८ १।३।२३ शरा५६ श३६०
| शरा१४॥ श१६ २।३।२४ शरा५७
१२९५ शरा२० ३१२५ शरा- १३।६२ १२०१६ ११२।२१ शश६ शाह १।३६३ १७ शरार२ शक्षा२७ श६० १।३।६४ शर शरा२३ १।३।२८ ११२६१
शाह ११।२४ १.३।२६ श२०६२
श३६५
१।२।१०० शरा२५ १३।३० १।२।६३ शरा६६
शरा१०१ श।२६ १५३३१ १६४ २३६८
११२११०२ शरा२७
२३३२ १२।६५ १।३।६६ शर|१०३ १२।२८ १।३१३३ शरा६६
१।१०४ श२२६ ११३।३४
११३७१ ११२११०५ शरा३० १३१३५ शश६८
श।१०६ २।२।३१ १।३।३६
| |६९
११३/७३ शरा१०७ ३२ ११३३७ । १।१७० ६।३७५ शरा१०८
१/३२६२
१९१
१४३ १४४
१४/५
२१४६
१४८ १।४।१० १।४।११ १४|१२
११४४१४ १।४।१५ ११४१६ १/४/१० श४|१८ १४.१९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूची
१२।१०६ श।११० १२१११ ११।११२ शरा११३ शस११४ १२।११५ १२।११६ १२११७ श।११८ श।११६ ११।१२०
शश२८ २।१२६ २१११३० 1१1३१ २१११३२ २१३४, ३५ २१११३६ रा॥३७ २१११३८ २।१३९ शश. २११४१ २।१।४३ ૨ા૨/૪ २५ २११४६ २११।४७ २।१४२ २।१३४८ २।१४ ११५० २१११५१ २१११५२ २।१५३
१५४
१३३८
१४२३ १।२।१४७ १४]
शर १४|२४ १२११४८ १४४/७६
१।३।२६ श२।३२ १०२११४६ १४४५०
१।३।२७ १४॥३५ १२।१५० श४६६ २४३२८ १/४/४४ शर|१५१ १/४११००
१।३२९ १/४/४२ शरा१५२ श४।१०१ १४४३
१४११०५, १।३।३१
श२।१५३ १४५
१०७, १०८ | १३३२ १४४६
हा।१५४ १।४।१०६ ११३१३३ १४४८ शरा५५ ११४|१०२
१४१.३
श।१५६ ११४१४७
। १३३३३५ ११४४६
श२११५७ ११४।१०४ | १।३।३६ रा४।५.१ श११५८
१।३।३७ अध्याय १पाद३ ११४१५२
शश
११३।३६ २।३।६ ૪૨
१।३/४०
२०१३ । १३२
११३४.
११४ १५५
રાજર
२०१५ १/४५६
११३४३ १३ १/४५७
श६४४ १३६ २।११७८ श४/५८
१।३।४५ ११३७ २।११६
श१४६ १४५६
१८ २।१११० श६०
१६४७
२११११ १४६१
११३४ १३११० २११११२ रा४।६२
११३१४६ २।।१४ १।३।११ ११४६३ १।३।१२ २१११५
श५० १४४६४, ६५ १३१३ २।१११६ १४६६
२१३५२ श।१४ २१११७ शहा६७, ६८ १४३११५ २११८ १।४।६६
११५४
२१११६ । श१६ २१४/७०
शा५५ ११३।१७ २१४२० श४/७१
११३५६ ११३।१८ २११।२१ ૪.૭૨
१/३१५७ ११३।१६ २१११२२
शपूE १.४/७३
२१२४
१।३१५९ १/४१७४
१३॥२१॥ ११४१७५ । १२२२ .
१३६१ १/४/७६
राश२६ ११३।२३ १४/७७ १३१२४ २११२७ १३१६२
||१२२ । श२।१२३, १।२।१२४ १।२।१२५ शरा१२६ शश१२७ १२।१२८ शरा१२६ १४२११३० ४२११३१ श२।१३२ श।१३३
११३४ श२११३५ शश१३६ श२।१३७ ११२।१३८ १२।१३९ • श२।१४० १॥रा१४१ शरा१४२ १।२११४३ शरा१४४ १।१४५ श।१४६
स१५६ ૨ાા २।१५८
१५६ २१६० २१२४६१ २।१६२
श६५ २।११ २|श६६
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
२/३/६३
१/३/६४
१४३/६५
११३/६६
११३१६७
१|३ | ६८८
१।३।६९
११३१७०
१।३।७१
१/३६७२
११३ /७३
१/३/७४
१/३/७५
११३ /७६
१।२२७७
१३ / ७८८
२३२७६
१|३|८०
११३८८१
१/३३८२
१३८८३
११३८४
१३८८५
११३१८६
११३/८७
१३८
११३८९
१३ ६०
१ ३ ६१
१ | ३|१२
२३६२
११३/९४
२/२३३९५
२/३६६
११३१९७
११३३६८
१२३४६६
१।३३१००
२३१/६७
२|१|६८
२|११७०
२११/७२
२१२५
२/२/६
२२७
२२८
X
शरा
X
२१२/१०
२।२१११
रारा१४
२२/१५
२/२३१६
२।२।१७
२२|१८
२।२।१६
२/२/२०
२२/२१
शरार२
२२ २४
२२२५
१२/२६
२२२७
२१२१२८
२२ २६
१/२/४३
११२/४४
X
२१२/३१
२/२/२०
२/२१३२
રારા
२/२३४
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
१।३।१०१ २/२०१५
१/३/१०२ २||३६
१।३।१०३
२२।३७
१/३/१०४ २१३३८
१।३।१०५
X
अध्याय १ पाद ४
२२३११
२१३२
२३/४
२१३/५.
२३/६
२३७
: ११४/१
११४/२
११४३
१ | ४|४
१४५
१४१६
१ |४/७
फजल
१९४६
१/४/१०
१/४/११
१।४।१२
१/४/१३
१२४|१४
१/४ / १५
१ | ४|१६
१ | ४ | १७ १
११४/१८
१|४|१६
१०४/२०
११४/२१
| शर
१/४/२३
११४/२४
१/४/२५
१२४।२६
१|४| २७
११४/२८
११४८२६
१ | ४ ३०
११४ | ३१
| १४८३२
१९१४|६४
११९५,
१६४६६
११४|६३
X
X
२३१६
२३|१०
२|३|११
રાક
२/३/१४
२२३/१५.
२।३।१६
२।३।१७
२|३|२२
२|३|१८
२/३/१९
२३२०,२१
_२/३१२३
| १|४|१३
१|४|३४
રાજા"
१/४/३६
११४/२७
११४३८
११४/३९
१६४|४०
१।४।४१
१|४१४२
१|४|४३
११४|४४
१९४१४५
१४ |४६
||G
१९४४८८
१४/४९
१४१५०
१ | ४|५.१
१ | ४|५२
१२४१५३
११४५४
१९ / ४५५
१/४६५६
१४|५७
१४१५८
१२४|५६
११४|६०
११४।६१
१/४ ६२
१/४/६३
१|४|६४
१/४ ] ६५.
११४१६६
११४।६७
११४/६८
१४/६६
१/४ /७०१
२|४| ७१ )
२/३/२४
२३२५
२।३।२६
२/३/२७
२।३।२८
२२३३२६
રાશન
२।३।३१
२/३/३२
२१३३४
२/३/३५
२|३|३६
२।३।३७
२१३३८
२|३|३६
૨૦૪૦
२१३१४१
२३१४२
૧૦૪૨
२/३/४४
શાય
२/३/४६
२|३|४८
२|३|४९
२।३१५.०
२३१५१
२३५२
२३५३
२/३१५४
२/३/५५
२३५६
२।३।५७
२१३/५८
२३५६
२२३/६४
२१२६५
२२३/६६
२।३।६७,६८
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
४६५
२।३१६६
१।४।११०
२/२७०
१४|१११
२।७१ २३७२ २३/७३ २४२ २/४/३ २१४४
१४४/७२ ११४/७३ १/४/७४ । १४७५ १/४/७६ ११४/७७ १/४/७८ १/७१ ११४८० १४८१ १४/८२ १४४८३ ११४/८४ १८५ १।४।८६ १/४/८७ १४ १४१६ १४१६० १।४।११ १४|१२ १/४६३ श४।६४ ११४५ १४६६ १४/६७ २१४६८ १/४/ 8 ११४११०० १।४।१०१ १/४११०२ ११४११०३ ११४।१०४ १।४१०५ १४|१०६ १/४१०७ १/४/१०८ १/४१०६
*
१/४|११२ १।४।११३ |४|११४ श४|११५ श४|११६ १४४|११७ १।४।११८ ११४|११६
४१२०. १/४|१२१ ११४/१२२ १४४१२३ १/४|१२४ १४|१२५ १४|१२६ १/४|१२७ ११४१२८
४|१२६ १/४/१३० १४/१३१ १।४।१३२
४१३३ ११४।१३४ १११११३५ ११४|१३६
२४६ २४७ २|| २४६ २४११० २।४।११ २४/१२ २।४।१३
।४।१४ २४.१५ २।४।१६ २४.१७ २१४११८ २।११६ २४/२०
४२१ ૨૪૨૨ २॥४॥२३ श४/२४ રા|૨૫ २४२६ २४॥२७
२।४।३६ । १४१४७ २२४७८ ( ૨૪૭ ११११४८ २२४७९ २४१३८
१/४/१४६ Pir ? શ૪/૪
श४|१५०
२४/०२ २१४|४१
१४४१५१ |४|४२
१९५२ २४८३ ૨૪૪૨
१।४।१५३ २/४/८४ २|४|४४
१४|१५४२४१५ २४४५
अध्याय २ पाद १ २।४।४६ २श१
३११११ २४|४७
२।११२ शश२ २।४।४८ रा११३
शश५ |४|४६
२।१४ ३२११६ ४/५०
राश५ २।४/५१
शश६ २४५२, ५३ | २०१७
३।२९ २४/५४
साम शश९०
२|शह ३१११ रा४/५५
२।१२० ३१११२ २१४५६ २।१।११ २४५७
२।११२ રાજપૂત
२।१।१३ ३।१।१६ २४५९ २।१।१४
३१५ श६०,६१
३।१।१७ २१११५ २.४।६२
३३शरद २४१६३
२।११६ ३।१।१६
२।१।१७ ३२१४२० १४/६४
राश१८ २४:६५
३ श२१ २।१।१६ ३१श२२ २/४/६६ शक्ष२०
२३ |४|६७
२११२१ ३११२४ २४/६६
२|२२ । २/४/६८
३२५
राश२३ २/४/७०
'२११२४ ३॥श२६ २४१७१
सशरपू ३२०२० ૨૪૭૨
२१११२६ शश२८ १४/७४
Rારક शश३१ १४/७५
शशर, २४७७
१२८
1 ३१३०
૨૪૨૬,
१४/१३८ १४४१३६ १।४।१४० १४।१४१ १४१४२ १/४/१४३ १/४।१४४ १/४/१४५ श४१४६
x
|४/३० २४३१ દારૂછ્યું
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
२।।२६ २।१३०
श६६
२।१।३२ २।१३३ राश३४ २१।३५ रा।३६ २१११३७ २।११३८ राश३६ २९४० राश २२४२ २११४३ २२१४४ २११४५ २।१४६ २।१४७
३१३२ शश६७ ३॥श३३ २।१६८ शश३५ ३१११३६ ।१७० शश३७ २१११७१ ३१११३८ २।१२ ३|११३६ रा१७३ २११४० रा१४ ३३१४१ २।१७५ ३।१।४३, ४४ | २०१६
२।१।७७ ३२११४५
२१७८ ३।१४६
२११८० ३११४८ ३२११४१
राशER ३।११५२ ३११५३ ३।२।५४
| २|१८४ ३१५ ३।१/५६ | २|शप्पू ३।११५७
१८६ ३शश५८
रा१७ ३१।६०
रा१८८
२|१ ३।११६२
२११७६
२८३
२।१४८
३११७१ रा॥१०१ ३।१७२ २।११०२ ३।१११२५ शश७३ २११०३ ३।२१२२ ३।७४ २११०४ ३।१।१२१ ३।१/७५ २।१।१०५ ३१३०, श९७६
१३१, १३२ ३१११७७, ५८ | २।१।१०६ ६।१।१२३ ३७६ २२११७ ३।११३४ ३११८० २।११०८ ३३११३५ ३१११ ३।१२ २।१।११० ३११२७ ३शश६३ २११११
३||१३८ ३।२।१२ २१११११२ शश१३९ ३शश६३ २११११३
३१४० शह४ २।४२१४ रा१।११५ ।
शिश१४१ ३१शह५ ३।१६६ २।१।११६ ३३११४२ ३१३७
२१।११७ | ३११/१२६ २।१४११८
शह८ | १५११९ शश१२६ २१११२० ३।१११४६, ३२१ ३।२।१०॥ ११२१ ३YE शिश१०१
१११२२ शश१४६ शश१०६
२११२३ २ .५. ३।१।१०७,
अध्याय २ पान २
रा॥१ शरा ३११११.
२।२।२ शरार
૨૨૩ ३।१।११२ २।२।४]
३।२।६ ३।१।११४
श६ शरा
२।२।। ३११११६
रा२८) ३।१११७ ३।१११११
श।१० श२५ ३।१।११३,
२२।११ ३||
રા૨ા૨૨ २८ ३।११२१
[वा ]
| 1280
३।१५
रा११४६ २५०
राश५१ रापुर शश५३ श/५४ राश५५ २५६
२१५७ २११८ २।१५६ २१६० २।१६, २१११६२
१६३ २०६४ २११६५ २४१४६६
X.
श९० ३८
२१६१ २।१९२ २।१।९३ २११६४ २|शह५ २।११६
२०१७ | २|१९८
X
२।२18
३।११६७ ३/श६८ ३१२१६६ ३१७०
।१११००
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूच-सूची
૨ શારે
३१२१०४ शरा१०७,
१०८ ३।२।१०९ ३२.१० ३।२।१११ ३२।१२,
२।२।१४ २।२१५ रा२।१६ ।२।१० २|१८ रा२०१६ २।२।२० २१२१२१ रा२।२२ २१२१२३ शरा२४ २।२।२५ शरा२६ ।।२७ सरा२८ २।२।२६ २।२।३० २।३१ २२।३२
३।२।११४ ३१२१११५
रा११६ ३।२।१६७ ३।१२२
३२/१२८
३।२।९ । २।२।४६ ३||५१ २१२७ [वा]. शरा५०।
शरामद
३।२५२, ५३ ३।२।९ २।२।५१
शराबर ३।।१० २।२१२ श२/५४ रास२० शश११ ||५३ शरा५५ शरा१ ३।१२ शरपू४३६२५६ २।२।१२ ३२११३
शरा ३२५७ : २।२।९३ ३।२।१४ रा५६ ३||५८ ३।११५ शरापू शरसह २।२।४ रा१६
३।६० २||९५ ३।२।१७ २२५९ ३६१ २|श६ ३।२।१८ २।२१६० ३।२।६८ २।२।६७ ३।२।१६ २।२।६१ ३शश६६ २/राह८ ३शरा२० ૨ા૨૬૨ ३।२।७४ रारा है ३२१
२५
।।१०० ३।२।२२ सश६४ ३||७६ रारा.१
२।२।६५ ३॥६२ २।२।१०२ ३।२।२४ शरा६६ ३१७८ रारा१०३ शरार५. २।।६७ ३।२।७४ २२११०४ ३।२।२६ रा२।६८ श२० शरा१०५
३||RE रारा६६ ३१२८१ २।२।१०६ [ [२६
७० ३।२।२ २।२।१०७ ।३।३० Rારા
शराब ३।२।१०८ श।३१ २।२।७२ ३१।४ २।२।१०६ ३२२१३२ ૨૨૭૨ ३।२।८५ रारा११० ३।२।३३,३४ |२|७४ शरा६ २।२।१११ शरा३५ रापू ३।२८७ रा|११२ ३१२।३६, ३७
२।२।७६ ३२८९ शरा११३ दारा३८ २२७७ ३।२।६० २।२।११४ ३१२४२ २२७८ ३६१ । २।२।११५ शरा४३ २।२/७६ ३।२।२ रारा. शरा
२।१११६ ३।२५ રા ? ३।२।६४ २१२१११७ ३२/४६ शरार ३१२/१५ रारा११८१ ३१२१४७ राश८३ ३।२।६२
रारा११६ |४८ २।२८४ शरा
२।१२० રા૨/૪
२।२।८५ ३।२।१०२ २१२११२१ ३॥रा५०
२।२।१०३ २१२।१२२
शरा३३
३।२।११६ ३।२।१२४ ३।२११२५ शरा१२६ शस१२७ ३।२।१२८
।।१२९ ३।२।१३० श२११३१ ३।।१३२ श२११३३ ३१।१३४ ३।१३५ श२१३६ ३।२११३८,
२।२।३४ रारा३५ शरा३६ रारा३७ रारा३८ २।१३९ २२/४० २।२।४१ ૨૨૪૨ रा४६ २२१४४ रारा४५ २२२१४६ २।२।४ २२४८
३।२।१४०
२११४१
३।१४२
शरा१४३ ३।२।१४४ शरा१४२
Page #509
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________________
४६८
२/२/१२३
३२ । १४२
२/२/१२४
३।२।१४२
२/२३१२५
३/२/१४२
२११।१२६ ३१२१४५
२।२।१२७ ।
३|२|१४६
२।२।१२८
२२१२६
३३२।१४७
२१२४३० ३.२११४८
२/२/१३१ ३१२/१४९
२/२/१३२ ३/२३१५०
२/२/१३३ ३/२/१५१
२।२।१३४ ३१२/१५०
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३।२।१६६
२/२/१३६ ३/२/१६५
२/२/१३७
३/२/१५४
१२/१३८ ३/२/१५५
२२/१३६ ३/२/१५६
૨૦૨૫૪૦
२२|१५६ ३।२।१७७,
२/२/१५७
१७८८
२२/१५८
२२११५६
२२ १६०
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३१२१७६
३२२८०
३२ १८८१
२/२/१६१
! २१२१६२
श२/१६३
२/२३१६४
२।२।१६५
२२/१६६
२/२/१६७
२|३|१
२३ २
अध्याय २ पाद ३
૫૨
३/३/४
३/३/५
શાદ
३।३५७
शशद
३/३/९
३।३।१०
३/३/११
शशर
३/३/१३
३|३|१४
३२ / १५
३।३।१६
३।३।१७
३।३।१८
३/३|१६
શાર૰
३/३/२१
२/३/३
२|३|४
२१२/१४६
३१२/१५८
२/२/१४२ ३/२/१५६ २/२/१४३ २।२।१४४ ३।२।१६१
३।२।१६० २/३३१३
२।३।१४
२।२।१४३ ३।२।१६२
२।३।१५
२१२१४६ ३/२/१६३
२|३|१६
२/२/१४७ ३।२।१६४ २।३।१७
|२२|१४८
३।२।१६७ २|३|१८८
२१२/१४९
३।२।१६८ २/३/१६
२/२३१५० ३/२/१६९ २३१२०
२।२।१५१ ३२३१७२
२।३।२१
२२/१५२
३/२/१७३
२३२२
२।२।१५३ ३।२३१७४
२।३।२३
२/२/१५४ શાપૂ २३२४
२२/१५५ ३।२।१७६
२/३/२५
२३२६
२।३।२७
२२८
२/३/५
२/३/६
२/३/७
२३३८
રચાર
२०
२|३|११
२।३।१२
३१२११८१, १८३ २/३/३१
३।२।१८४ २३३२
૨૦૦૨
२/३/३४
२।३।३५
२।३।३६
२३।३७
२३३८
२/३/३९
શાય
२/३३४१
२१३४२
२।३।२९
२/३/३०
३।२।१८५
३१२१८६
३२३१८८७
३/२/१८८
२३३१
३/३.२२
३/३/२३
३/३/३१
३/३/२४
३।३।२६
२१३२८
३|३|२६
३|३|३०
३१३/२७
३/३/३२
२|३|४३
શાજ
२/३३४५
२/२२४६
२।३।४७
2017
२३२४६
२/३१५०
२१३५१
२/३३५२
રાપૂર
२३३५४
२२५५
२३४५६
રાક
२१३५८
२३५९
२३६०
२/३/६१
२३६२
२३६३
२|३३६४
२१३६५
२१३/६६
२|३|६७
३/३/३३
३।३।३४
३/३/१५.
३/३३३५
३।३।३६
३।३।२७,३८
३/३/३६
૧૪૪
३।२।४१
३१३।४२
२३४५
३१३/४६
૨૦:૪૭
३१३ |४८
२।३।४९
३ | ३१५०
२२३५९
THE
३१३५२
३/३/५४
३३३ / ५५
३३५६,
५७,५८८
ચાર
३/३/६०
३३३।६६
शश६६
३ | ३१७०
३।२।७१
३श३३७२
२।२/७३
३ । ३ । ७४
३ | ३७५
૨૦૦૬
३।२।६१
शश६२
३/३६३
૩૫૦૬૪
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूची
२।३६८ २।३१६६
२३६५ २।३।१०२ ३।३।६८८७७, २।३।१०३ ७८, ७६, ८०,
राश१०४ ८१, ८२,८३, २३।१०५ ८४, ८५,८६, । २।३।१०६
२।३।१०७ २१३१८८ २।३।१०८ ३२८९ ३१०६ ३११६०,६१ ३११॥ ३/३।१२ २।३।११६ ३।३।९३ २।३१११२ ३।३।६४ २।३।११३
२।३१७१ २।३।७२ २/१७३ २।३/७४ રારબ્ધ
३।३।४२
३१३९७
३।११५ २।३।११६ राशर २।३११८
२२७७ २/३७८ २३१७९ २।३८० स३८१ २३२ २१३१८३ २।३८४ २२३८५ २३८६ २३२७ २१३शप २|| २१३० २१३६१ रा२९२ शश६३ रा३/६४ रा३५ २।३१६६ २।३९७ २।३।६८ स २।३।१००
२४१
३।३।६६ ३।३।१०० ३।३।१०१ ३।३।१०२ ३।३।१०३ ३२३११०४ ३।३।१०५ ३।३।१०६ ३२३११०७ ३।३।१०६ ३१३३११० १३४११६ ३/३/११२ ३।३।११३ ३१३।११४
x ३।३११५ ३१३१९१६ ३।३।११७ ३१३२११८ ३/३।१२०
३।३।१२१ २।३।१४० ३/३/१६४ २३।१२२ २।३।१४१ ३।३१६५ ३३११२६ ! २२३३१४२ ३।३।१२७ राश१४३ ३/३१६७ ३१२१२८
३१३/१६८ ३।३।१३१ २।३।१४५ ३।३।१६६ ३।३।१३२ . १३/१४६ ३६१७०
२।३।१४७ ३३११७१ ३।३११३४ २।३।१४८ ३१३३१७२ ३।३।१३५ रा३।१४६ ३1३।१७३ ३।३।१३६ । श३१५० ३।३।१७४ ३।३।१३७ २०३१५१ ३।३।१७५ ३।३।१३८ । २।३१३२ ३३।१७६ ३३१३९
अध्याय २पाद ४
२१४११ ३४|१ २३१४१ ૨જાર ३४/२
२१४३ ३।३।१४३ २२४४ ३४२८ ३।३।१४४ २।४11 ३१४११६ ३/३/१४५ २।४१६ ३।३११४६ २०४७ ३।४।२१ ३।३।१४७
३।४।२२ ३।२।१४८ २४
३/४/२३ २४.१० ३।४।२४ ३।६।१५० २४४/११ ३२४/२५
|४|१२ ३/४/२६ ३३२१५२ २१११३ ३१७ ३/३।१५३ ||१४ ३१४२८ ३।३।१५४
३४२९ ३१३१५५ २४|१६ श४१३० ३।३।१५६ १४।१७ ३/४/३१ ३१३३१५७ २४१८ ३।४।३२ ३।३।१५८ २।४।१९ ३१४३३ ३।३।१५९ २१४२० ३।४।२५ ३।३।१६० २/४/२१ ३।४।३६ ३१३१६१ 1४/२२ ३/४/३४ ३।३।१६२ २।४॥२३ ३/४/३६ ३।३।१६३ ।।४।२४ ३४.३७
|३११२० शा१२१ २१३१२२ २।३।१२३ २१३१२४ ३२३३१२५
२१३१२६ | शश१२७
२।३१२८ २।३।१२६ २।३।१३० २।३१३१ रा३।१३२ २।३१५३३ २।३।१३४ २।३११३५ २।३।१३६ २।३११३७
शश१३८ | २।३।१३६
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
૨૪૨૫
३/४१३६
४/१३ ४।१।४ ४।१९७५
३२४१४१
३।४।७७ ३.४५८ ३/४/७६ ३४/ ३४१ ३४१८२ ३/४/८३
३१४१४२
३/४/८४
२४२७ रा४/२८ २४१२६ २१४/३० २।४।३१ २४/३२ २४३३
४॥३४ . २२४३५ २४३६ २/४|३७
४।३८ २।४।३६
३/४१४३ ३१४|४४ ३.४४५ ३|४|४६ ३१४/४८ ३४/४६ ३४५०,५१ ૨૪૫૨
४१।१० ४१११११ ४।१३१२ ४.४१३ ४.१०२९ ४|१२५ ४।१।२६,२७
२/४१६५ २।४/६६ २।४।६७ २।४।६८ २/४६६ २।४७० २||७१। ।४/७२ २।४।७३ २४/७४ २३४७५ २१४७६ २४/७७ २/४/35 २१४|१६ २/४/30 २४.८१ रामर २।४८३ २४८४ २४प्पू .२०४६
'३४८५
३/४/२६ ३४/८७ १४८९ ३/४१९०
३४/५४
४।१६ ४।।१४ ४।१।१५
३]४/५६ ३/४५७
३।९२ ३।४।९३ ३१४९६
३१३ ३।१४ ३।११५ ३१६ ३१७ शिश ३।११ ३१०१० २११११ ३।२।१२ ३१११३ ३।१।१४
१५ ३।१।१६ ३१११७ ३:१।१० ३/२०१६ ३।१२० ३।१२१ ३।१२२ ३११२३ ३२४ ३१२ ३१६२६ । ३।१।२७) ३.११२८ ३।१२६ ३।१।३० ३१११३१ ३११।३२ ३।१।३३ ३३१/३४ ३३१३५ |१३६ ३।१३५
२०४१४१ શાક|૪૨ श४४३
४१४४ २।४/४५ २१४४६ स४।४७ ૨૪/૪ २१४४ ।४।५० २१४५१ ૨૪૫૨ २४५३ २४/५४ २१४१५५ ४५६
४|१११७ ४|११८ ४११९ ४११४१ ४११०२० ४|११२१
३।४।१०१ ३।४।१०२ ३४११०३ २४|१०४ ३४.१०५
३/४/५६ ३।४।६० ३१४१६१ ३४६२ ૨૪/૬ ३/४/६४ २१४६५. ३१४०६६
२४८७ ३।४।१०७ २४
३।४।१०८ २१४६ ३।४।१०६ २१४६० ३|४|११० २१४६६ ३।४।१११ शा६२ ३१४/११२ २१४६३ ३४|११३ २।४।९४ ३|४|११४ रा४६५ ३।११५ २|४|१६ ३४।११६ अध्याय ३ पान १
४|१११ ३२ ४|११२
४१२३ ४|१२४ ४।१४ ४१५ ४१३२ ४१।३३ ४.१३५
३।४।६८ ३।४।६६
४५३६
२४५७ २४५८ २।४।५९ श४६० २१४६१ २४॥६२
३१४/७६ ३1४७३ ३४१७४ २।४७५
३११/३६
४३३१४८ ४१३६ ४११०३७
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
३११६४१
३/१/४२
२ / १६४३
३ | १६४४
३११/४५
३|१|४६
३|१|४७
२३|११४८
२1१/४६
३ | १९५०
३/१/५१
३।११५२
_३।११५३
३/१/५४
३। १५५
३ | १/५६
३११/५७
३११५८
३५
३|१|६०
३/१/६१
३/१६६२
३११४६३
३|१|६४
३।१/६५
३१११६६
३।१८६७
३/१६६८
३|१|६९
३११६७०
३ | ११७१
३/१/७२
३११/७३
३११६७४
३ | ११७५
३।११७६
३/१/७७
३१११७८
४|१ | ३८८
४|१/४६
४/१/५००
४८११५१
४] ११५.२
४|१|५३
४|१|५४
४११५५
४२११५६
४१५७
४१५८६८
४|११६२
४|१/६३
४१११६४
४|१ | ६५
४|११६६
४११/६८
४१२१६९
४११ / ७०
४११६७,७१
४|१|७६
४|११७७
४११७८
४ १७६
४|१८०
४|१८१
४१८२
४११८३
४) १८४
४१८८५
४|१|८६
४|१|=७
४|११८८९
४१शव्द
*]kl&
४११४६१
४११/६२
४|१|१६२
तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
४११६३
४१६४
४|१|१६३
४|१|१६४
४/१/१६५
४१ / १६६,
१६७
३/११७६
३।११८८०
३|११८१
३|१८८२
| L
३|१|८४
३/१८५
३|१|८६
३।११८७
३|१|८८
३११२८१
३।११९०
३।१।६१
३११/६२
३ | १ | ६३
२११४६४
३११९५
३|१|६६
श१/६७
३.६१९८
| ११६६
३१/१००
३|१|१०१
३१११०२
३१२११०३
શક્1‰°૪
| ३|१|१०५
३|१|१०६
३११।१०७
३२१२१०८
३११/१०९
३।११११०
३११/१११
३|१|११२
३|१|११३
૨૫૧૨૨૪
३।११११५
४११६५९६
४|१ | ९७
४१६८
४६१९९
४|१|१००
४११४१०१
४|१|१०२
४|१११०३
४|१११०४
४|१|१०५
४|१|१०६
४|१११०७
४|१|१०८
४|१११०६
४१६८११०
४।१।१११
४|११११२
४११/११३
४१११११४
४१३११५.
*४/१/११६
४|१ | ११७
४११११८८
४|१|११६
४११६११२०
४११८१२१
४|१११२३
४११/१२३
४|११ १२४
४|१११२५
४|१| १२६
३|१|११६
| ३१९/११७
३।१।११८
३|११११६
२११११२०
६११।१२१
T
1
I
३११/१२२
| ३|१|१२३
| ३११/१२४
| ३/१/१२५
३/१/१२६
३।१।१२७
२११/१२८
३|१|१२६ }
३११/१३०
३|१|१३१
३।१।१३२
३|१|१३३
३११/१२४
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| ३|१|१३७
| ३|११११८
३।१११३६
३|१|१४०
1
३११/१४१
| ३|१ | १४२
३११/१४२
३|१|१४४
३११।१४५
| ३|१|१४६
३ । १ । १४७
३|१|१४८
३|१|१४६
३ | १३१५०
।३।१ । १५१
T
४|१|१२७
|४|१ | १२८
४१११३०
४|१.१२९
४११११३१
४|१ | १३२,
१२४
४|१११३२
४|१|१३५
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४४१/१३६
४|१११४१
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४|१| १४४
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|४|१३१४८
४|१११४६
४|१११५०
४|१|१५१
४|१ | १५२,
१५.३
ક
૪૫૫૪
४|१११५५
४|१|१५६
४|१|१५७
४ १।१५८८
४|१|१५९
४११/१६०
४११११६१
४|१|१७४
४११/१६८
४११६६
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
३११५२ ३.श१५३
४|१५० ४।१।१७१,
१५२. ४।१।१७३
x ४।११७५ ४११।१०६ ४श१७०,
|११५४ ३१९५५ शशर५६ २२११५७ ३१५८
| ३२१२६
२२३० ३।२।३१ ३२२१३२ ३२/३३ ३।२३४ शरा३५. ३।२।३६ २२।३७ ३३८
| ३२६७
३||६८ २२।६६ ३२० ३।७१ ३।२|७२
४।२।३४ ४।२।३५ ४।२।३६ ૪૨ રૂ ४|| ४| ४२४० ૪૨૪૨ ४|४३ ४।४६ ४/२।४७ ४||YE ४।२।४६ ४२४२ ४२५० ४||५१ ४।२५२ ४/२५३ ४१२२५४ ४॥रापू६ ४ारा. ४२१८ ४/२५६
४॥२२८७ ४ाश ४ाराम ४२।६० ४१ ४/२०१२ ४।२।६३ ૪૨IE૪ ४ाह". ४| ४१२/६८
राह६ ४|११०० ४ारा१०१ ४।२।१०४ ४|१०५ ४।२।१०६ ४॥२।१०७ ४।२।१०८ ४।२११६०
अध्याय ३ पाद २ ३२१ ४१ शरार शरा३ ४१२२२ श।४ ४॥२।३ ३।२५ ४ारा ३१६ ४।२।५ ३।२७ ४ारा
४।२।१० રેરા
४|२|१४ ३।२।१० ४/२१५ ३।११ ४।२।१६ ३।१२ ४२११७ ३२१३ ४।२।२८ ३११४ ४२।१६ शरा५ જારા ३।२।१६ ३२१७ ४। २२ ३१२११८ ४।२।२३ शराक्ष ४२१२४ शरा. ४।।२५ ३।२१ ४/२२६ ३१२।२२ ४।२।२७
२१२३ ४१२२८ शा२४ ४।२।२९ ૩૨૨૫ ४।३० शरा२६ ४।२।३१ ३।२।२७ ४।२।३२ ३२।२८ ४२३३
३२|७४ शरापू ३।२।७६ ३२७७ ६२|७८ ३६
३१२८० ३८१ ३।रार शE३ शराम
श८५ शरा ३२२८७ ३रामद शरा८९ शराह ३।२ER शश६२ १२।६३ ३।२।१४ २२६५ शराह६ ३।२।९७ ३।२।९८
श९९ वारा१०० ३।२।१०२ ३।२।१०२ ३।२११०३ ३२११०४
३||४० ३२४१ ३।२४२ ३२४३ ३११४४ ३शना४५ ३।२।४६ शरा४७ ३।४८ ३४६ ३२.० ३।।५२ ३शरा५२ ३२।५३ ६२१४ ३५
३।२।५६ ३२५७ हारा५८ ३।२५९ शश६० शरा६१ शरा६२ ३।२।६३ शरा६४ शरा६५ ३।२१६६
४१२ ४२१११३ ४।।११४
हारा६५ ४।२।६४ ४/२।६५ ४/२६६ ४/१६७ ४१६८ ४२६६७० ४||
४११६ ४।११७ ४२।११८ ४।२।१२६ ४।२।१२० ४।।१०३ ४।२।१०४ ४ारा २२१ ४/२/१२२ ४२११२३ ४।२।१२४ ४२।१२५ ४२२६
४ारा८२ हारा८३ ४/२/७४ ४५ ४ारा८६
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०१०५.
३२ १०३
४२११२७
४१२१२५
३/२/१०७
४|२/१२६
३।२११०८ ४,२१३०
३/२/१००
४/२/१३१
३।२१११० કાર|૩૨
३।२।१११ ४|२१३३
३२/११२
४२११२४
३२|११३
૨૨૨ ૨૪
३|२| ११५
३ २ ११६
४|२| १३५,
१३६
३/२/१३०
३१२/१३१
३/२/१३२
३१२/१३३
३२. १३४
३/२/१३५.
३/२/१३६
३/२/१३७
३।२।१३८
३/२/१३६
૫૨૦૨૪૦
४१२/१३७,
१३८
४२१२३६
४१२१४०
४/२/१४१
३।२।११७
३२१११८ ४१२१४३
_३/२३११९
४१२/१४३
३।२।१२० ३.२११२१ ४१३३१
१२/१२२ ४/३/२
३२१२३ યારાર
३।२।१२४
४१३४
३१२१२५
४ | ३ |५
३।२११२६
१४|३४६
३।२।१२७
४ | ३ |७
३।२।१२८
४१३८
३/२/१२९
४१३६
४१३ १०
४।३।११
४१३।१२
४/३/१३
४ | ३ | १४
४ | ३ |१५
४ | ३ |१७
४|३|१६
४/३/२१
_४|२| २३
કારારજ
४|२| १४४
तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
अध्याय ३ पाद ३
४३३२५
४३२.६
४।३।२७
३/३/१
શાર
३।३।३
३३४ !
| ३१३५.
३।२२६
३१३१७
शशद ।
३३३६ ।
२/३११० ३।३।११५ | ३|३|१२
| ३।३।१२
|
३।३।१४ । २/३/१५.
३३११६
३।३।१७
| ३२३|१८
३/३/१६ ३३२०
| ३|३|२१
| ३/३/२२
२/३/२३
૨૪
३/३/२५
३।३।२६
३/३/२७
३।३।२८
२३२६
३/३/३०
३३१३९
३।३।३२
३३३२
રાજ
२/३/३५
_३/३/३६
1૨૦
३|३|३८
'શારદ
४१२।३०
४ | ३ | ३४
४/३/२५
४३३३६
४ | ३ | ३७
४|३३३८
४१३३९
X
४ | ३ |४३
४ | ३ | ४४
४|३१४५
૪||૪૬
४|२|४७
४|३|४८
४|३|४६
४ | ३ |५.०७
४१३५१
४१३५२
૪૬૨ ૧ ૨
४१३५४
૪||મ
४१३४५६
४ | ३ |५७
४ | ३ |५८
४ | ३ | ३५६
४ | ३ |६०
X
४ | ३|६१
४३६२
३।३/३९ શરાજ
| ३ | ३ | ४१
३।३।४२
२९४२
३/३/४४
३२३४५
३।२०४६
३ | ३ | ४७
३|३|४८
શબ્દ
३।३५०
३१३(५.१
३ | ३ |५.२
३/३/५.६
२२३/५४
|
३४३५५
३२३१५६
३३५७
२/३/५.८८
३२३१५.१
२/३/६०
३।३।६१
| ३|३|१२
३।३।६२
३१३/६४
| अश६५
३|३१६६
१/३/६७
३||६८ १
२३२६६
३|३|७०
| ३ | ३१७१
३।३२२७२
३/३१७३
३/३१७४
२३१७५
३४३ / ७६
'
४२१६३
४१३६४
४/३/६५
४/३/६६
૪૨૬૩
४ | ३७२
४ | ३ |७०
४१३ | ७१
_४।३।७३
४१३७४
४१३ | ७५
४१३ | ७६
४ | ३ |७७
४३ / ७८
૪] ૨૫૭૨
४१३८०
४३८१
४३८र
४३८८२
४३८६४
४ | ३ |८५
४३८६
४ | ३१८८७
४३८८
४ ३१८९
४ | ३६०
४१३६ १
४२३६२
४ | ३ |६३
४/३/९४
४३६५
४१३३६६
४|३१६७
४३६८
४१३/६६
४|३|१००
४।३।१०१
४७३
Page #515
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________________
४७४
१९८७७
२३७८
३१२२७९
३२३|८०
२३२८१
२३८२
३३३८२
३।३१८४
२२२३८५
३२३८८६
३३३८७
३३८८
२२३२८१
३३।६०
२। ३८६१
३ | ३|१२
३/२१९३
३/३/९४
३।३।१०१
३।३।१०२
३ | ३|१०३
३।३।१०४
२३|१०५
३। ।१०६
३।३।१०७
३|३|१०८
२।३।१०६
३/३/११०
३।३।१११
४१२१.
४ | ३११०२
४ | ३ |१०८
४१३ १०६
४१३ ११२
४ | ३ | ११२
४३११४
४१३ | ११५
४/३/११६
४|३११७
४ | ३ | ११८
४ ३३१२०
४१३ १२१
२१३ ११२
३ | ३|११३
४१३१२२
४।३।१२३
४|३|१२४
४/३/१२५
४१३ १२६
ICL
४|३|१२७
२।२।६६
४४३१२८
३/३/६७
४३११२६
३३२२६८८
૪૫૫૬૩૦
२२३१६९
४।३।१३१
३/३/१०० ४|३|१३२ | ३|३|१२७
४|३|१३३
३ | ३ | १३८
४|३|१३४
२२३|१३६
४१३/१३५
३|३|१५०
४/३११५३
२३३१४१
४/३/१५४
३१३/१४२
४/२/१३८
२।३।१४३
३ | ३|१४४ ३/३११४५
४१३ १४२
४ | ३ | १४२
४१३ | १४४
४|३|१४६
૪||૧૪૭
४ | ३ | १४८
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
४ | ३ | १४५,
१४८
२२.३६४
३।३।११५
३।३।११६
३|३|११७
३। २६११८
३।३।११९
३।३।१२०
| ३ | ३२१२१
३।३।१२२
३१३/१२३
३०३ | १२४
३।३।१२५
३|३|१२६
३१३|१२७
२.३/१२८
२३|१२६
३।३।१३०
३।३।१३१
३ | ३ | १३२
३/३/१३३
३।२।१३४
३ | ३ | १३५
२|३ | १३६
६१५६
४/३/१५६
४।३।१५७
४ | ३ | १५८
४।३।१६०
४|३|१६१
४ | ३ | १६२
४/३/१६३
४३२१६४
३१३ | १६०
૪૨૬૬પૂ ૬૨
४ | ३ | १६७
३८३/१६२
४/३/१६८
३।३।१६३
३।३।१६४
३।३।१६५
३।३।१६६
३।२।१६७
३/३/१६८
३।३।१६९
३/३११७०
४|४|१
४|४|१
४/४ १३
૪] ]¥
४/४/५
४|४|७
४४
४|४|१०
४|४|११
४२१२
४|४|१३
४|४|१४
४|४|१५
४|४|१६
४|४|१७
४|४|१८
४|४|१६
४१४|१० बा
४१४२०
શશ×ä
४/४/२१
३।३११४७ ४/४/२२
રારા૪૮ ४|४|२५
३|३|१४६
४|४|१६
३।३।१५०
४|४|२७
३/३/१५१
४१४२८८
| ३१३ | १५२
શાપૂર
३१२/१५.४
२२३१५५
३/२/१५६
I
३।३।१५७
| ३श३०१५८
३/३/१५६
|
૨૫૬
३।३/१७२
| ३१३१७३
३।३।१७४
| ३|३ | १७५
३/३/१७६
३।३।१७७
२३२१७८
४४/२९
४१४३०
४ | ४ | ३१
४ /४/३२, ३३
४|४|३४
४|४|३५
४१४/३६
४ ४१३७, ३८८
४|४|३६
४|४|१०
४१४१४१
४|४१४२
४४४३
४४९४४
४|४|४५
४४४६
४/४/४७
४|४|४८,४६
४१४|५०
४१४ | ५१
४ |४|५.३
४|४|५४
४/४/५५
४ |४| ५६
४१४५७
४४५६
૪ ૨ ૪ !૬ ૭
३३ १७६
४|४|६९
| २१३|१८०
४४१६२
३३२४१८१
४/४/६३
शश१८२
४४६४
३१३१८३ ४/४/६५
३३३१८४ ४|४१६६
३।३।१८५ ४|४|६८
३१३११८६ VIVISE
३।३।१८७
४/४/७०
३।३।१८
८१४/७१
३।३।१८९ ४|४|७२
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूची
५११८ ५२१ ५/१२२ ५/११२३ ५/१।२४ ५शरपू
५१५६ ५१५०५८
X ५११५६
રૂ|િ ३४५६ ३४५७ ३४५८ ३४५६ ३/४६० ३/४/६१ ३/४/६२ ३।४।६३ ३३१६४ ३१४१६५
पूश६१
५१२७ ५ ।२६ ५शिर ५१/२९, ५१६३०,३१ ५१३२ ५.१।३३
३ा६३४
३।३।१९० ४|४|७३,७४ | ३१४|१७ ३३१६१ ४|४७६ ३/४/१८ शश१६२ ४२१७७ ३४१६ ३।३।१६३ ४.४/७८,६ ३।४/२० ३।३।१६४ ४१४८३ ३/४/२१ ३।३११९५ ४/४/८२,८४ ३४॥२२
५,८६,८७ ३/४२३
८८६, ६० ३।४।२४ ३१३५१६६।
३४२५
४/४/88 ३१३।१९७ ।
३/४/२६ ४|४९२
३१४२७ ३२३।१६९ ४|४|१३
३४/२८ ३१३२०० ४/४६४
३।४।२६ ३/३/२०१ ४/४/६७
३/४/३० ।३।२०२ ४|४|१८
! ३।४।३१। ३।३।२०३ ४/४/६६
। ३/४/३२ ३।३।२०४ ४|४|१०० ३।३।२०५ ४|४|१०१
રૂ|િ૨૪ १।३।२०६ ४|४|१०२
३।४।३५ ४४|१०४
३।४।२६ ३/३१२०८ ४|४|१०५
३१४।३७ अध्याय ३पाद४
३२४|३८। ३.४१
५११ ३१४|३९ । ३४२ પૂર ३४४० ३।४।३ ५४६४
३१४१ ३१४४ ५ाश५
રાજ૪િ૨ ३१४५ ५/१/६,७
३/४४३ ५श
३४४४ ३/४१७ ५||
३/४४५ ३।४। ।
३/४/४६ घाश१० ३४६)
३४/४७ ३४१० ५।२।११ ३४४८ ३।४।११ ५/१२ ३/४/४६ ३/४|१२ ५।११३ ३४५०
५/२।१४ ३४५१ ३/४/१४
शापू२ ३१४१५ ५११६ ३।४।५३ ३/४/१६ ५२।१७ ।३४५४
५/१३५ ५।१।६६ ५१३७
५/१६४ ५।१६५ धावा ५९६८ पाश६६७० ५।१1३१ ५.१।७२ पू७ि३ ५।७४ पूाश७५. ५। ७६ ५१७ 121 ५।१६ पूर ५.११
। ३/४१६८
३४६६ ३४१७० ३/४/७१ ३४/७२ ३।४/७३ ३।७४ ३४ापू ३/४/७६ ३/४/७७
५/१।३८
३४/७८
५।१।८२
पू१४१ ५.११४२ ५।११४३
३४८० ३४८१
५११४
५/१/४४
८६
५/११४७ ५|४८
५शिद 11६६४
५१५० ५१५१
३।४८४ ३।४८५ ३१४८६ ३.४१ ३४ादन ३/४/८६ ३/४॥६० ३४९१ ३४२
पू९ि५३ ५।१५४
५/१६६ ५।१७ ५शि६८ ५१९३
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७६
जैनेन्द्र ज्याकरणम्
३/४/६४ ३२४६५ ३/४/६६ ३/४/९७ ३४६८ ३।४/९९ ३१४|१०० ३/४/१०१ ३४|१०२ ६।४।१०३ ३।४।१०४ ३१४|१०५ ३।४।१०६ ३१४|१०७ ३/४/१०८॥ २४१०६
५/१/8 पाश१०० पू/११०१ ।१।१०२ ५।१।१०३ ५।१०४ ५१०५ याश१०७ ५.१।१०८ था।१०६ ५/१११० .५/११११ ५।१।११२ ५/११११७ ५/१४१२५
पू९ि१६
X
३।४।१११ ३।४।११२ ३३४|११३ ३|४|११४ ३।४।२२५
५.११११६ ५/१।१२० ५.१।१२२ ५१११२३ ५शि१२४ ५।२११२१ ५।१२५,
३/४१३०
३|४|१६७ यू४ि५ ३|४|१३१ पूारा६ | ३/४|१६८ ५२१४६
३|४|१३२ ५२७ ३/४/१६९५२४७ : ३४४१३३ ।। ५/२।८ ___ अध्याय ४ पाद १ ३/४/१३४ ५।। १३, ४२१
Rાદક
४११२ ५।२।४६ ३१४/१३५ ५।१०
४ ।३ ५२।५१ ३/४११३६ ५।२।११
४।१४ पारा५२ ३|४१३७ पा।१२
४|११५
पाश५३ ३।४।१३८ पा२।१५
श६ पूराि५४ १४१३९ पूराि१६
४श
५/२/५५ ३१४।१४० पा।१७
४|१८ ५२१५७ ३।४।१४१ ५२।१८, १६
४११०९ ५.२५८ २०, २१, २२, २३
४१११० ५११५६ ३।४।१४२ ५३५३
४|११११ ५२७७ ३।४।१४३ ५/३।५४
४।१।१२ ४१४
४|१|१३ ३।४|१४५ शिर
४||१४ मास८२ ३/४/१४६ ५।२६
४|१५ ५।८३ ३१४/१४७ ५२।२७
४|१११६ ५.८१ ३४|१४८ ५शिर
४|११७ ४।।६७, ३।४।१४ पारा२६
६८, ६९, ७०, ७१, ७२, ३४/२५० या।३० ३१४|१५१ धारा३१
८०, ८४, ६०, ९१, ९२, ३/४|१५२ ५३२ ३/४११५३
पूरा ३४१५४ ३१४/१५५ ५।३४
४|१२६ ।
५२६६
४|११र०) ३२४/२५६ पूरि।३५ ३१४/१५७
४|१२१ यूारा३६
५.२८ २४/१५८ पूा।३०
४||२२ पूरि।३८
४॥श२३ ३|४|१५९
५.२६४ ३/४।१६० पारा३६
५।२।९६
४|११२४ ३२४१६१ ।
श२५ पशि६७ ५ोश४० ३।४१६२
४६१२६ पू/२०१६ ३/४।१६३ ५२१४१
॥श२७ धारा१०० ३|४|१६४ पा२।४२
४|११२८ ५२११०६ ३४.१६५ ५ारा४४ ४|११२९ ५/२।१०२ ६४।१६६ पू||४३ ४११।३० ५।१०३
३|४|११७ ३४|११८ ३/४/११६ ३४|१२० ३।४।१२१ ३४.१२२ ३.४/१२३ ३१४|१२४ ૨૪૨૨૬, ३।४१२६ ३।४।१२७ ३।४।१२८ ३४४१२६
५११२७
शि१२८ ५३१११२९ ५शि१३० ५।१३१ ५१११३२ ५.१।१३३ ५।२।१३४ ५१४१३५
श१३६ पू१ि१ पू२ि २ ५/२।३
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
५शिर પૂરિાર
५/३४४ ५/३४५ ५/३४६
४॥श६८ ४/२।६६ ४०
४/११७१। ४।१।७२) ४|१/७३
४/१११०७ ४।१।१०८ ४११।१०९ ४११० ४||१११ ४।१।२१२
५/३५
४|११३१ ४११०३२ ४।१।३३ ४|११३४ ४|११३५ ४|११३६ ४ाश३७ ४११३८ ४|१|३९ ४/१/४० ४११५४१ ४॥१/४२ ४|१|४३ ४|४४ ४११४५ ४/१/४६ ४१११४७
५७ ५३८ ५/३शह ५/३।१० पू३ि।११ ५।३।१२ ५.३।१४ ५/३/१५
५३५० ५।३।५१ ५१३५२ ५३५ ५३५६ ६।३५
X ५५८
५रा१०४ ५/रा१०५ ५।२१०७ ५।२।१०८ ५२।१०१ पा।११० ५२१११ ५२१११२ ५/२।११३ ५२।११४ ૫ ૨૨૫ पूा२।११६ पा२।११७ पूरि।२१८ पारा११६ ५२।१२० ५।२।१२१ पूरा१२४ ५।१२५ ५।२।१२७ ५।१२८ पू९ि।१२६ ५/२।१३० ५२।१३१ ५२।१३२ प्रा२।१३५ ५।।१३६ ५२।१३७ ५/२।१३९
४।१४११४ ४।१।११५ ४।२११६ ४|११११७ ४/२०११८ ४।६।११६
४।१।१२० | ४|११९२१
४।११२२ ४१२३
५/३३१६ ५।३।१७ ५३११८ ५३.१६ ५।३।११ ५/४/२२
५/३६१ ५।३।६२ ५/३१६३ ५।३।६४ ५१३३६५
४१४६ ४|१५० ४३१५१ ४६५२
४|१११२५ ४||१२६ ४.१११२७
५/३६८
४|| ४|११७६ ४|११७० ४११०८ ४|११७९ ४१८० ४१८१ ४।८२ ४श८३ ४॥८४ ४शव्यू ४|१८६ ४११८ x1lIEZ ) ४|श६ ४|११९० ४|१/६१ ४१६२ ४६१६३ ) ४|११९४ ४|१६५ ४|११६६ ४११६७ ४|१८ ४|११६६ ४।१।१०० ४|११०१ ४१११०२ ४।१।१०३ । ४११०४
५।३।२३ ५३२४, २५
X
४|१११२६ ४।१।१३०
५/३७
४१५४ ४|११५५ ४/१५६ ४|१५७
५.३७० ५।२।७१, ७२ ५/२/७३,७४ ५५३।७६ ५|| ५.३/७८ ५३७६ ५.३:५०
४|| ४|१६.। ४।१।६१। ४१२६२
५/३२८
४|१११३२ ५:३१२६
४।१।१३३
४।१।१३४ ५।३।३१, ३२ ४।१।१३५ ५३/३४ ५।३।३५ ५/३१३६
४|११३८ ५.३३७ ४।१।१३६ ५.३।३८
। ४१४० ५/३१३६
४१।१४१ पू/३४० अश१४२ ५/३.४१ ४|१९४३ ५/३४२ ४४११४४
५.३८२ यू/३/८३
५।२।१४०,
१२३ ५२/५९ ५।६० ५२६१ ५१६२ ५२।६५
४|११६४ ४१६५ ४.१६६ ४|११६७
पू३८५ ५/३८६ ५।३ ५३९
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________________
४
४११११४५
_४|१|१४६
४|१|१४७
४|१११४८
४|१११४९
४|१|१५०
४|१| १५१
४|१|१५२
४|१|१५३
४|११ १५४
४|११५५
४|१|१५६
४|१| १५७
४११११६३
४|१ | १६४
१५३/६७
५/३६८८
५३६६
५|३|१००
so
५/३/१०२
५/३/१०३
४|१|१५८
५/२११०४
४|१११५६
५३११०५
४|१|१६० ५३३१०६
४।१।१६१ ५।३।१०७
४११/१६२
५३/१०८
५/२३३१०९
પૂરા ૨ •
अध्याय ४ पाद २
४/२/१
४२१२
४२३
४२/४
જારામ
४/२/६
४२७
४१२८
४२६
४।२।१०
४२११
४२१२
४४२/१३
४।२।१४
४|३|१५
४२/१६
४|३|१७
५३६० | ४|३२|१८
५/३/६१
४।२।१९
शहर
४२१२०
३६२
४२२१
४।२।२९
४२१२३
४१२/१४
४१२२५
४/२/२६
જારામ
४२२८
४२२६
४/२/३०
४२/३१
५.१३।९४
५. ३१६६
५/३/११२
५/३१११३
५।३।११४
५।३|११५
५।३।११६
५।३।११७
५।३३११८८
५/३।११९
५।४।१, २
५४३
५|४|४
५/४१५
५/४१६
५/४/७
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
५|४|८
४ २/३२
४/२३३
४/२१३४
ફારાપૂ
४२।३६
૪૨૦૧૭
४३८
४/२०३६
४१२३४०
જારા ફ્
४१४२
४१२४३
४१२२४४
४१२२४५
४/२/४६
४२४७
४२४८
४१२२४६
४/२/५०
४२११५१
કારાર
કારપૂર્
४/२/५४
४२५५
ધાર
५.१४/१०
५/४१११
५४ १५
५|४|१४
५/४११६
કામ
५|४|१८
५६४/१९
५४१२०
५.१४/२१
५/४/२२
५४/२३
५४१२४
५४१२५
५।४।२६
५४२७
५/४१२८, २६
५/४१३०
५६४/११
५/४१३२
५/४१३३
५८४ | ३४
५३४३५
५|४|३६
५|४|३७
५|४|३८
५२४१३६
५४१४०
५।४।४२
५४४३
५१४४४
५।४।४५
५/४१४६
५१४४७
५१४ |४८
५४४६
५/४१५०
४१२५६
४/२१५७
४ २२५८
४/२/५९
४२६०
४२३६१
४२/५२
४/२/६३
૪૬૪
४२२६५
४२/६६
४१२६७
૪ર૬=
ફાદ
४।२१७०
४/२/७१
४/२/१२
४१२१७३
४२२७४
૪૨૦૭૪
४१२७६
४/२/७७
४२१७८
४/२७६
४२८०
४२१८१
४२८२
४२८३
४२८४
४२८५
४८६
४८७
१२८८
४२८६
४२१६०
४२२६१
हर
५|४|५१
५/४/५२
५१४|५३
५/४/५४
५४/५५
५/४१५७
५०४८
५४१५६
५४६०,६१,
६२, ६३,६४,६६,
६७,
५२४६८८
५।४।६६, ७०
५।४।७२
५/४/७२
५/४।७३
५४७४
५१४१७५
५/४/१७६
५३४ /७७
५/४१७८
५. ४३७९
५४८०
५४८१
하드
४४८३४
५४८५
५|४|८६
५२८७
५२
५४१८६
ધ્રોસિ
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूची
४७९
૪ રાઉં
५.४६१ ५/४/६२ ૧/૪/૬૩ ५४६४ ५/४६५ ५४६६
६९ ६ारा१३ ६।११४ ६।११५
४/३।१०
४२१२ ४१३३१३
५४७
४/१६३ ४ारा६४ ४ाश६५ ४२६६ ४२६७ ४/२६८ ४।२।९६ । ४।२।१०० ४।२।१०१ ४२११०२ ४।२।१०३ ४।२।१०४ ४।२।१०५ ४।२१०६ ४।१०७ ४|| ४।२।१०१ ४/२।११० ४ा२।१११ ४/२१११२
४/२३१३० ४।२।१३१ ४।२।१३२ ४१२/१३३ જ ૨૨ ૨૪ ४।२।१३५ ५।११३६ ४॥२॥१३७ ४|११३८ ४।२।१३९ ४/२०१४० ४।२।१४१ ४।२।१४२ ४/२११४३ ४॥२।१४४
५/४/१२६ ५.४/१३० ५/४१३१ ५/४/१३२ ५/४/१३३ ५४।१३४ ५/४/१३५ ५/४१३६ ५/४/१३७ ५/४|१३८ ५/४/१४० ५.४।१३६ १४१४१ ५४|१४३ ५.४/१४४
५४८ ५.४/६६ ५४|१०० ५।४।१०१ पू४ि११०२ ५/४/१०४ ५]४|१०५
६/११७ ६१८ ६.१११६ ६॥२१ ६।१।२२ ६२३ ६१२४ ६०२५ ६/११२६ ६।१२७
शरद
४/२।११३ ४२१११४ ४२।११५ ४/२/११६ ४।२।११७ ४।२।१२८ ४।२।११७ ४/२।१२० ४।२।१२१ ४/२।१२२ ४२११२३ ४॥२॥१२४ ४२।१२५ ४।२।१२६ ४।२।१२७ ४१२।१२८ ४२११२९
५.४११०७
शश१४६ ५।३।१४६ ५४|१०८ ४/२0१४० ५/४/१४७ ५]४११०६ ४।२।१४८ ५१४|१४८ ५/४/२१०, ४२११४१ થી ૨૪
१११, ११२ । ४।२।१५० ५/४/१५० ५४|११३ ४/२।१५१ ५।४।१५१ ५.४|११४ ४॥२२५२ ५/४/१५२ ५|४|११३ ४।२।१५३ ५/४१५३ ५/११६ ४२११५४ ५/४/१५४
४।१५५ ५|४|१५५ ५४|११८ ४२१५६ ५४|१५६ ५/४/११९ ४१२।१५७ ५/४/१५७
४।२।१५८ ५१४१५६ ५/४|१२० ४२।१५६५४|१६०
अध्याय ४ पाद ३ ५।४११२१ જરે
६।११ ५/४/१२२ ૪૨૨ ६ाशर ५४/१२४
६१२३ ५.४/१२५ ४३४ ६१५ ५/४११२६ ४|| ६११६ ५/४|१२७
६||४ ५/४|१२८
६.१८
| ४/३२१५
४/३१६ ४॥३३१७ ४३११८ ४१३३१६ ४/३२० ४।३।२१ ४१२२ ४/३/२३ ४३१२४ ४१३३२५ ४/३/२६ ४५३२७ ४२२८ ४/३।२६ ४|३।३० ४।३१३१ ४/३/३२ ४१३३ ४/३/३४ ४/३१३५ ४/३१३६ ४/३/३७ ४|११३८ ४।३।३६ ४/३१४० ४/३२१
१४२ ४१४३ ४१३४ ४॥३
६२१ ६।११३० ६।२१३१ ६।१३२ ६१३३ ६।१।३७ ६।१।३८ ६ाश३३ ६/१/४१ ६११४२ ६।१/४३ ६१४४ ६१/४५ ६।१।४६ ६/२/४७
६/११४६ ६० ६५१
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
६१५४ ६।९५५
x
४/३४७ ४/३४८ ४/३४९ ४६३३५० ४।२५१ ४।३५२ ४।३५३ ४३४
७/३]४० ६।११५७ ६। ८ ६५६ ६श६४ ६श६५ ६१॥६६ ६६८
४३५६ ४३५७ ४।३२८
६॥श६६
४।३३५९
६१७१ ६।१।७२ ६।१।५३ ६.१७४ ६१७५ ६।११७६ ६७७ ६२७८
४।३।६१ ४।३२६९ ४/३६३ ४।३।६४ ४१६५ ४।३।६६ ४।३६७ ४।३।६८ । ४३।६६। ४/३७० ४/३/७१ ४।२७२
४।२८४ ६१४९०
१५६,१५७ ४।३८५ ६१९८८ ४|११७ ४।३।८६ ६।०६९ ४।३।१२८ श३२ ४/८७ ६।१।१०० ४१३।११६ २४१३४ ४८८ ६/११०१ ॥३।१२० ६।३।१ ४। ८६ ।
४।३।१२१ ६३शर ६||१०२
४१३।१२२ ४।३।९२ ६।११०३ ४।३।१२३ ६३ ४।३।६२ ६।।१०४ ४.३।१२४ ४॥३६२
६१।२०५ ४।३।१२५ ६३६ ४।३।६ ६।।१०७ . ४/३।१२६ ४/ ५ ६।१०८ ४६१२७ ६३ ४१३६६ ६१।१०
४।३।१२८ ।
६।३।१० ४|श६७
४।३।१२६ । ४।३११८ ६।९।१११ ४३११३० ६।३।११ ४१३६९ ६।१।११२
६।३।१२ ४।३।१००६ ।११३,१६४४१३१३२ ४।१०१६।१।१२४ ४३।१०२ ६१।१२३
६। २१ ४।३।१०३ ६।११२५ ४।१६५ ६।३।२२ ४।३११०४ ६।१।१२७ ४६३६ ६।३।२३ ४|११०५ ६।१।१२८ ४।३।१३७ ४।३।१०६ ६।११२६ ४।३।१३८ दशरथ
४।३।१०७ ६।१।१३० ४|३१३६ ६।२६ | ४।३११७८
४।३।१४० ६।३।२७ ४|११०६ ६।११३२ ४।३।१४१ ६/१२८ ४|१११२ ६।११३७ । ४।३।१४२ ६।३।२६ ३।३।१११ ६।१।१६८ ४।३।१४३ ४।३।११२ ६।१।१३६ ४/३/१४४ ६३.३१ ४।६।११६ ६।१।१४० ४१३१४५ ६।३।३२
६३१४१४१ ४।३।१४६ ६।३।३४ ४।३।११५ ६।१९४२ ४१३।१४७ ६/१३५ ६।१११४३,
४।३।१४६ ६।६७
४।६।१५० ६।३।३८ १४८,१४६, ४।३।१५१ ६।३१३९ १५०,४५.२,
६।३।४. १५.३,१५४, ४१२।१५६ ६४.
६||८१
६।१०
६।१८४
४/३१७४ ४|७५ ४।३/७६ ४|१७७ ४।३१७८ ४३७९ ४३८० ४।३१ ४१३८२
६५६ ६१८ ६/थप्द ६शब्द ६ःश६० ६शहर ६||६२ ३।२।१४ ૬૨૫ ६।११६६
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ | ३ | १५४
४१३३५५५
४ | ३ | १५६
૪|મૂહ
*||E
४२११५६
४।३।१६०
४।२।१६९
४|३|१६२
४१३ १७१
४३ | १७२
४ | ३ |१७३
४|३|१७४
४ | ३ | १७५
४।३३१७६
४|३|१७७
४३१७८
६/३/५४
४।३।१६३
६।३।५२
४२१६४ ६१३/५.६
४|३|१६५
ધારીપૂ
४|३|१६६
६।३।५५
४।३।१६७
६६३/५.६
४/३/१६८
६५७
४ | ३ | १६६
६।६ | ५८
४३३१५०
६ । ३८५६
६|३|६०
६/३/६१
४/३/२१०
६/३/६३, ६४ | ४/३/२६१
६३३६२
४३२१२१२
६/३/६५
६/३/६६
६।३।६७
६३६८
६।३३७०
६।३३७२
४१३१७८
*||૮ન
४३९८१
४|३|१८२ |
४८३१८२
૪૫૪૪
४ | ३ | १८५
१८६
४१३ १८७
तुलनात्मक सूत्र- सूची
४/३/१६२
४१३ १६३
४२३२३१६४
४१३/१६५
TET
६८३१४७, ४८८ ४/३/१९७
६/६८४६
४१३१६८
६ | ३३५०
सादिद
४३१८६
४३|१६०
४२४१३ १६५
६/३१४२
६/३४३
६।३।४४
દ્વારા
६ |३|४६
६०३०२, ७४
६।३।७५
६ / ३ / ७६
६।३।७७
६१३२७८६
६३२७६
४|३|१९६
४|३३२००
१३।२०१
४१३/२०२
४|३|२०३
४८३।२०४१ ४|२| २०५ j
पार्श८०
६ ३८१
६/२८२ ६ | ३८८३
४३२०६
४।३।२०७
४३१२०८
| ४ ३३२०९
४ | ३ |२१३
४ | ३ |२१४
४ | ३ | २१५
४|३१२१६
४२२१७
४|३|२१८
४।३।२१९
४२२०
४३१२२१
४१३/२२२
४११२२३
४ | ३ |२२४
| ४ ३२२५
४३/२२६
४/३/२२७
४/३/२२८
६४८५४/३/२२६
६।३८६
६१३1८८
६३८६
६/३/६०
IC
६६३शहर
६/३/६३
६|३|६४
६।३६५
६/३३६७
६२१९८
६ । ३६६
६३६००
६।३।२०१
६/३।१०२
६/३/१०३
६।२।१०४
६ । ३ ॥१०५
६१३३१०६
६।३।१०७
६/३६१०६
६।३।११०
६।३११११
६|३|११२
६।३।११५
६/३/११६
६/३/१५७
६।३३११८
६|३|११६,
१२०
६|३|१२१ ६/३३१२३
$12.0
६।३।१२४
६११२२
६.२।१२५
ધારા ૭
६६३/१२=
४२२३०
६।३।१२९
४१३२३१
६१३/१३०
४।३।२३२
६।३।१३७
४१३२३३ ६३३|१३८
४३२३४
६१३१३६
1
अध्याय ४ पाद ४
६१४|१
६१४२
४|४|१
४४२
४४१३
| ४ | ४|४
४|४|
४|४|६
४|४|१
४|४|
४४६
४|४|१०
४|४|११
४|४|१२
४८४१३
४४११४
४|४|१५
४|४|१६
४४|१७
४|४|१८
४|४|१६
४४१२०
| ४|४|११
i
४/४/२२
४१४९२
४|४१२४
| ४४२५
४४२६
४|४|१७
४४२८
I
४४२६
| ४|४१३०
४|४|११
امام
६/४/२
६४१६
६/४/७
६१४६८
६ |४|१०
६ |४|११
६|४|१२
६१४|१३
६|४|१४
६/४/१५
६४१६
६६४।१७
६१४|१८
६।४१६
६/४/२०
६/४२१
GRIG
६६४/२२
६।४।२३
६६४।२४
६।४।२५
६।४।२६
X
६।४।२७
४८१
112 A
६/४/२८, २६ ६।४।३०
६।४।२९
६४४।३२
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
४|४|३३ ।
६/४/३४
४|४|३५
६१४७१ ६४/०४ ६४७७ ६४७८ ६/४/५६ ६४E
६/४/११७ ६४११: ६।४।११६ ६/४/१२० ६/४/१२१
६/४/३५ दा४।३६ ६४३७
४|४|१०७ ४१४/१०८ ४|४|१०६ ४।४।११० ४|४|१११ ४|४|११२।
६।४।१२२
६४१३८
४/४/७० ४१४/७१ ४/४/७२ ४/४७३ ४/४/७४ ४/४/७५ ४||७६ ४१४/७७ ४१४७८ ४/४/७१ ४/४/८० ४/४/८१ ४/४/८२ '४/४८३ ४/४/८४
४।४।११४ '४|४|११५
६।४३६ ६/४/४०
४/४/३० ४|४|३८। ४|४|३६ ४/४४० ४.४/४१ ४/४/४२ ४१४|४३ । ४|४|४४ ४|४|४५ ४/४/४६ ४|४|४७ ४|४|४८ XIXIYE ४|४/५०
४४४११६
६४|४२
६४८१ ६/४/८२ ६/४/८३ ६४८ ६४ ६४८७ ६४ ६/४९० ६४६१ ६/४/६२,६३
४।४।११८ ४|४|११६ ४|४|१२० ४|४|१२१ ४|४|१२२
६।४.१२३ ६४१२४ ६१४११२५ ६|४|१२६ ६४१२९ ६।११३० ६।१३१ ६।४।१३३ ६/४१२३४,
Halk|R 3312
६/४/९४
६/४|४३ ६/४/४४ ६।४४५ ६।४४४६ ६/४/४७ ६४४८ ६|४|४९ ६४० ६४५१ ६०४५२ ६/४/२५ ६४५६
& VIELE
४|४|१२३ ४|४|१२४ ४|४|१२५ ४|४|१२६ ४|४|१२७ ४।४।१२८ ४।४।१२६ ४/४/१३०
६/४६६
४॥रामद ४१४८९ ४४४६० ४४॥९१ । ४।४।९२ ४१४६३ ४|४|१४ ४।४।९५ ४|४६६ ४४७ ४४|१८ ४|४|९६
६४/६७ ६।४।९५८ ६|४१०१ ६।४।१०४
६४११३५ ६८४१३६ ६४११३८ ६४।१३६ ६/४/१४० ६४।१४२ ६|४|१४३ ६।४।१४४ ६४४१४४ वा ६।४।१४४ वा. ६४|१४५
४१४५२ ४१४:५३ ४४४५४ ४४/५५ ४१४१५६ ४/४/५७ ४[४५८ ४/४/५४ ४४४६० ४/४/६२ ४४/६२ ४।४।६३ ४/४६४ ४१४६५ ४/४/६६ ४/४/६७ ४/४/६८
६/४५६ ६/४/६०
६।४।१०६ ६/४/१७ ६/४/१०८
४/४११३३ ४१४११३४ । ४|४|१३५ ४|४|१३६
६४४१४७
६४/६२
६४१४८
६४११०
४|४|१३८
६११४
६।४।६४ ६४/६५ ६४।६६ ६।४।६७ ६/४६८ ६/४/६६
४|४|१०० ४|४|१०१ ४/४/१०२ ४|४|१०३ ४१४११०४ ४|४|१०५ ४|४१०६
४|४|१४० ४|४|१४२
६।४।११२ ६/४/११३ ६/४/११४ ६४११५
६।४।१५.० ६४१५१
१५२
४/४/१४२
11१४३
६|४|१५३
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
४|४|१४४
४|४|१४५
४|४|१४६
४|४|१४७
४|४|१४८
૪૪૫૨૪૨
४|४|१५.०
४|४|१५१
४|४|१५२
४|४|१५.३
४|४|१५४
६|४|१६३
४|४|१५५
६।५।१६४
४|४|१५६ ६/४/१७३
४|४|१५७
६६४११६५,
४|४|१५८
४|४|१५६
_४|४|१६०
४|४|१६१
४|४|१६२
४|४|१६२
४|४|१६४
४|४|१६५
४|४|१६६
६ |४| १५४
६|४|१५५
६/४/१५५
६ |४| १५६
६ |४| १५७
६|४|१५८
६|४|१५६
५/१११
५।१३२
५/१/३
५/१/४
५/१३५
५।११६
५।१/७
५।१८
५/१६
५/१११०
५।१।११
५१/१२
५११/१३
६ |४| १६०
६ |४| १६१
अध्याय ५ पाद १
२७/१११
७/१२
७|१३
७|११४
६/४/१६७
६ |४| १६८
६|४|१६९
६ |४| १७०
६|४|११७१
६|४|१७२
६/४११७४
७११/५
७|१|६
७१।७
७११४९
१६६
७११/११
७११।१२
७|१|१३
७११।१४
३|१|१५
तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
७|१|१७
७११/१८
७|१|१९
७|११२०
७१११२१
७११।२२
७/२१२३
७|१|२४
७/१२५
७११/२०
७१११२८
७११/२६
७११/३०
७११८३१
७|१|३२
७ ११३३
'७११ | ३५
७।१।२७
५।१/१४
५।१।१५
० ५|१|१६
५१/१७
५।१११८
५।१३९९
१५/१/२०
५।१/२१
१५१/२२
वा१२३
५१२४
५/१२५
| ५|१/२६
५/१/२७
५२२८
५।१/२९
५१३०
५।११३१
કાટાર |
५।१।३३
५/११३४
५।१।३५
५११/३६
५।१।३७
५|१|३८
५/१/३६
५३१/४०
५ | १ | ४१
५ | १ | ४२
५/१/४३
५११४४
१५.११४५
५|१|४६
५।१/४७
५|१|४८
५१२४६
५।१५०
५/१/५१
२७/१/५१
७१५२
७|१|५.३
७|११५४, ५५
७|१|५८
७ १ १/५६
७१११६०
७११ | ६१
शहर
७११/६३
७११/६४
७/१/६५
७|१|६६
७|११६७
७ ११६८
७१/६६
७१/७०
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शहर
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७|११६४
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७/२/१
७/१२, ३
२४
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७२।३७
७२३८
७/२/३६
२४०
७१२/४१
४८३
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ५सि
जैनेन्द्र-व्याकरणम् ५१४९० ७२४२, ।
२०,२१, २२, ५११६३७२।१०४,१०५ ५११५१ ७/२१४३
२३, २५, २६ . ५।१।२६४ ।२०६ पू१६२ ७२।४४ ५११११२७ ७|२४ ५.११६५ ७२।१०७ ५१६३ कारा४५ शि१२८ ७।२७ ५३१६६ ७०८ ५१४ शि४६ ५।१।१२९ ७२१७० ५।११६७ ७२।१०६ ५१६५ ७/२४७ ५/१११३०
५/श१६८ ७/२0११० पूशि६६ २/४८
७२/७२ ५२१६४ ७।११ ५/१६७ ७/२।४६ ५शि१३२ ७२।७३ ५।१।१७३ ७२।११२ ५शिस ७/२।५० ५।२११३३ ७/२१७४ ५/१/१७१ ७२११३ ७/१५१
अध्याप५ पार २ ५शि१०० ७२।५२
५.११३५ ७१७६ ५ ।१ ७/१२६४ ३।१।१०१ ७रा५३ ५१११३६ ७२।७८ ५. २ पू/११०२ ७/२/५४ ५.श१३७ ७२/७७ | ५/२६३ ७।१५ ५.१११०३ ७/२२५५. ५/११३८ ७।७१ ।५।२।४ ७/२।११६ ५१११०४ ७/२/५६ ५।१।१३९
८० ५/१५ ७२११११ ५.१।१०५ ७/२५७ ५।१।१४० ७/१८१ ५।२।६ ७/३/१ पू४ि१०६ श५८ ५।११४१ ७परामर
७.३२ ५।१।१०७ ७/२५९ पू|११४२
धारा ७३।३ ५/१५१०८ बारा६०, ५१२४३ ७२/४ पारा ६१, ६२ ५।१।१४४ ७/राच्यू
५/२०१० ७।३५ ५/२।१०६ ७/२।६३ पू/१/१४५ ७/२८६ पा२।११ ५।६।११० ७।६६ ५११४६ ७/२१८७ ५/२।१२ ७.३| २।३६ ५।११४७ ७/२।
५/२।१३ ५११११२x
पूशि१४८ ७रा ५।१४ ७१३१२ ५/१११३ । ५/११४६ ७२।९०
५/२।१५
७३।१० शि११४ ।
पाश१५० ७राह पा।१६ ७/३२११ पूरा११५ ७/२।१० ५/११५१ ७/राहर ५।२।१७ કાં રે ૧૨ ५.११११६ ७/राह
शिश१५२ ७/२६३ ५२।१८ ७१३११३ ७२।११ ५/१९५३ પરિ૬૪ ५२०१२ ७.३११४ ५/१११८ ७/१२ ५१११५.४ ७/राह५ सिर ७१३१५ ५१११६ ७२११३ ५।२।१५५ ७/६६ पारा२१ ५.श१२० ७/२।१४ ५/११५६ કા૨૨૭ पारा२२ ७३।१७ ५.१।१२१ ७/२०१५
७/१९८ ५।२।२३ ७३२१८ ५/१।१२२ |१६ ५१/१५८
धारा२४ ७।३।१९ ५/१११२३ ७/२।१७ ५/१/१५६ का२।१००
५ारा२५ ७।३।२० ५/१११२४ अश२७ ५३११६० ७२।१०१ ५।२६ ७३।२१ ५/१।१२५ ७२।२६,३० | ५/१११६१ ७२११०२ पूराि२७ ७.३१२२ ५२।१२६ ।१८,१६, | ५||१६२ ०२।१०३ . ५।२।२८ ७।३।२३
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सूत्र-सूची
४५
७/३।२४
यूशि६७ ५२।६८
७३।२५
७/३/२६, २७ । ५/२६६ ७/३/२८,२९ । ।२७० ७३।३० पारा७१
५ २६ ५।३०। ५।२।३१। पू/२।३२ ५/२१३३ ५२।३४ ५।३५ ५/२/३६ ५/२।३७ ५॥२॥३८ पूारा३९ ५२४० ५ारा४१ धारा४२ પૂJરાજ
७३।३२ ७१३१३४ ७/३/३३ ७/३३४ ७।३५ ७३/३६ ७३३० ७।३।३८
५२/७३ ५/२|७४ ५/२७५ ५/ ७६ ५।२१७७
५/१७६ ५२८०
५. ४५ ५२४६
पा२।४७ पूरान ५२४६ पारा ५१५१ ५/२।५२ ५[५३ ५२५४
ारा५५ ५रा५६ ५।५७ प्रा२।५८ ५।२।५६ ५६० पारा६१ पूराि६२ ५६३ ५/२०६४ २५ ५.२०६६
وا | او
७१३२६७ ५।१०४ ७३३३१०६ ७।३।६१, ६२ | ५२।१०५ ७२११०
६४, ६८ ५/२।१०६ ७३।१११ ७/३/७२ धारा१०७ ज/३११२ ७३/७३ प्रा२।१०८ ७।३।११३ ७/०७१ ५।२।१०९ ७/३३११४ ७३/७४ ५।११० ७/३१११६ ७/३१७५ • धारा१११ ७१३३९१७
धार।११२ ७१३२११८ ७३/७७
'५२।११३७३११२० ७३।७१ ५२।११४ X ७३८० धार।११५ ७१४२ ७| दर ५।२।११६ ७/४/३ ७/३८३ पूरा११७ Slyl
३८४ पूारा११८ ७/४/५ ७/शप्पू ५।२।११६ ७३
५।२।१२० ७/४/
सि१२१ '७/४६ ७/१८७ ५/२१२२ ७/४११० ७३शक या२।१२३ ७/४/११ ७/३१८६ ५२।१२४ ७/४।१२ ७१३४६० पा२।१२५ ४१३ ७/३६१ ५/रा१२६ ७।१४ ७१३।९२ ५२।१२७ ७४.१५ ७३।१३ ५।१२८ ७/४११७,१८ ७/३/९४
१६, २० ७३।९६ ५।२।१२६ ७.४.१६ ७३।९८,९९ ५.२।१३० ७/१२१ ७।३।१०० ५२१३१ ७.४॥२२ ७३।१०१ ५२१३२ ७।३।१०२ ५/१३३ ७/४.२४ ७/३/१०३ ५।२।१३४ ७/ २५ ७/३११०४ ५शि१३५ ७/४/२६ ७।३।१०५ ५।१३६ ७/४/२० ७३।१०६ ५।२।१३० ७४/२८ ७३१०७ ५/२११३८ ७/४/२६ ७३।१०८ ५/२।१३६ ७४।३०
५/२८२ ७.३६
५।५३ ७३।४३ ५/ ७३।४१ पूरा ७३।४२ शरा८६ ७/३/४३ ७.३४६ पाराय
५।२।८६ ७३८,४६ | पूरा. ७/३५० ५/२६१ ७/३५१ पारा ७३.५२ | ારા રે
.रा४ अश५३ घारा३५ ७१३१५४ ५/२४९६ ७३५५ ५.२।९७ ७।३१५६ ५/२६८
५२६ ७३/E ५२१०० ७३।६३ पू./२११०१ ७/श६५ ५/२।१०२
[५/२।१०३
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________________
दन्६
૫૨૫૬૪૦
५/२/१४१
५. २/१४२
७/४/३३
५/२/१४२
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५.१२/१४५.
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५। ३५.६
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८/२/७७,७६
दारा ७६
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८२८३
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तुलनात्मक सूत्र-सूत्री
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५।३।९५
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८३१८१
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X
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थः
प
वृद्धी
युत्छ
गाई ।
बाघ
। विथन । याचने वेशृङ
कौटिल्ये
| टीकृष्ट
। अधिद्दः । गल्याने
। कपिछ् ।
अथ जैनेन्द्रधुपाठः प्रप्रणम्य जिनं भक्त्या संसंश्रित्याभिधागमम् । उपोपपाद्यते धूनासुदुत्कृष्टा मया स्थितिः ॥ १॥
अर्धः सत्तायाम्
कुत्सिते शन्ने | यती प्रयत्ने
। औकृङ् संघर्षे
दीती प्रतिष्ठालिप्साजतद
| एक ग्रन्थेषु
मस्क प्रतीपाते
तो
तिके नाधृ । यायाशीरुप श्रथिङ् शैथिल्ये नाथइ । तापैश्वयेषु সখি दधै घारगो
काय
श्नाधायाम् बान बन्धने शी कृङ्
रविङ्
सेनने स्कुदि नामवणे
लोकड लोचने श्विदिछ शैत्ये
श्लोक संघाने यदि छ स्त्यनिवाइनयोः । इ !
शब्दोत्साहे भदिन प्रियसुखयोः
मविह कैत न मदिन स्तुतिमोदमदस्वप्न | रेकृट् ।
शंकायाम शकि
लाड स्पदिड् किंचिचलने अकिड लक्षणे
आवासेच विदिङ परिदेवने वकिल कौटिल्ये
कत्थने भर बने
सेसवाम् लौल्ये
लोचड दर्शने दहौङ् पुरीपोत्सगें कुकै ।
शचे
व्यक्तायां वानि चुदीतो
| श्वचै । कोडायान
चकै तृप्तिप्रतिवातयोः . श्वचिह्न । सेङः ।
बन्धने ने का
दीतोच माने
मचै
कल्कने धरणे
। मचिड़ शन्दे
पूजामुच हादीक
| पचिव गनीकरणो
श्लेकिङ् । प्वदै
प्रसाद
तिजोङ् आस्वादे
अमानिशानयोः | श्वकिङ स्वाद ।
गतिकुरसनयोः । किङ् ।
गतिमानोजने
सामर्द
गतिपु
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द्रावृद् | श्लाल
| मकिङ्
दाने
कै ।
गती
| कचे
। कपिङ
।
AN
श्लेका
धारणोछाय
अकि
। गो
सुन्त्रे
स्वद
ऋजै
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋजিङ् भीड़
एजुहू
जुङ्
भ्राजै
व
श्र
पौ
चे
गोहै
लोठे
हुडिङ्
पिडि
शि
हिडिह्
कुडिङ
ass
मडिहू
तडिङ्
} मञ्जने
ड
बाबुछू
द्राड़ छू
दीप्तौ
हिंसा विक्रमयोः
चने
विकखने
चेटावाम्
भडि
परिभाषायाम्
महि
शुद्धी
तोड़ने
तुटिङ् सुडिङ् मृतौ
fs कोपे
ताड़ने
}
संघाते
रुजावां
गत्यनादयोः
दादे
कडिङ् मदे
aise
मंथे
बेटने
अनादरे
आये
विशरणे
घाट्टङ्
शाडडू पडिङ ! गतौ
} गते
श्रठिङ्
वठिङ्
श्लाधायाम्
एकचर्यायाम्
मटिङ्
कठि
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
} शौके
भुटिङ्
एउ
गुपौड़
तिपुङ्
टेड्
ते
ब्रुङ्
डुटकू
फेट छू
वोटछू
लेटङ्
कपि
मे
रेड्ड
त्रभूत्रै
रेभृङ्
रभि
अभि
श्रचिङ्
| लबिङ्
जुभिहू
टभि
एक मिङ्
लुभु
गुप्तौ
} सुनौ
}
पलायने ( पालने) प
1
विचाधायाम्
कम्पे च
दैत्ये
चलने
।
गत
लजायाम
शब्दे
कवृङ
क्लीवृङ्
श्रीवृङ् मई
शीरृङ्
चौभु
शह
कलमै
गल्भै
जभि
श्रवत्र से
च
अधा च
कथने
भोजने
वा
त्रविना मे
स्तंभे
मानै
पनै
1
घूर्णे
s
घुणिङ्
| श्रृणि
भा
क्ष
कभुङ्ग्
अप्रै
南府府唯
প
उयीङ् पृयीङ्
मायीङ्
ताङ्
क्नूयड्
कले
कल्लै
कावी
श्रध्यायी f
बलै
बल्लै
गलै
मलै
मल्लै
पूजायाम्
स्तुतौ
व्यवहारे च
भ्रम
ग्रहणे
茶餅
सहने
मतौ
रक्षार्या
गतिदानदहनहिंसासु च
तन्तुसन्ताने
दुर्गन्धिविशरण्योः
विधूनने
वृद्धो
सन्तानपालन योः
संवृती
कंपे
धारणे
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६१
अत्यत्ते शब्दे
ल
जैनेन्द्रधुपाठः
कासन शब्दकुसायाम् दानहिंसापारमाषणेषु । णासृत शब्द कल्ले ____संख्याशब्दयोः ! मासे
रास दीप्तो देवने
काशृङ् देव
कौटिल्ये
गती
यसै
मये
शेवृद्ध केयुङ
आङःशसुङ इन्लायाम् असुङ् प्रमादे
नेवृङ्
सेवने
ग्रसुङ
।
रोपे च अविध्वंसने प्रतिदाने रक्षणे पालने
अदने
लसुङ ।
ग्लेचा
चेष्टायाम
पवने
पेवृद्ध
।
ब्लेवृछ ।
महिक
शैघ्रयच
मेवृङ्
वृद्धौ बन्धने विहारसा गतौ
सेवने
ग्लेख
कुत्सायाम्
धुझे धिक्ष
दीप्तौ
। संदीपनजीवनलेशेषु
प्राधान्ये
कृती
२. म १.६.* 4 4 4 4 4 4 2 2.4-3, 23 24*444 2.3 5
शिक्ष मिक्ष
परिभाषणाच्छाद
नहिंसासु
अभिप्रीतीच शिवता खरं प्रिमिङ् लिपिदाङ मोक्षे च
परिवृतीच
विद्योपादाने यामायाम् मौम्योपनयननियमयतादेशेज्यासु
दी
| वेहङ
।
जेहरू
ही
वाह
प्रयत्ने
गतिहिंसयोश्च
पतिधाते
क्लेश मात्र
। वडा ।
व्यक्तायां बाचि
द्राइङ्
संक्षोने हिंसायाम्
स्नेह अन्विच्छायाम्
ऊहै
निक्षेप वितक विलोडने ग्रहणे
गेषङ जेपङ रणे
अवलसे
भ्रंसुङ्
ध्वंमुङ्
गाह ग्लक पिडा स्मिष्ठ घुङ
झती
गतौ च विश्वाम
एछ । गती
ईषद्धसने
संमुङ् ऋतुङ्
वृत्ती
वृद्धी शब्दकुत्सायाम्
अहिङ्
कुछ
शब्दे
शृथुङ् स्यंदू
सामध्ये
रेषा
अध्यक्ते शब्दे
तुङ्
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२.
घट
व्यथैष्
प्रष्
प्र
मुदै
स्खदैघ्
ञित्वरा
वैधू
दै
ऋदिङ्
जि
दक्ष
कृपै
जबर
杯宿蒻死倻花和航行动动嗝时狮椅和两
गड'
वट
भट
नट
चक
करने
रंगे
लगे
हगे
अक अंग
कृष्ण
रण
चण
वण
श्रण
चेष्टायाम् चलभीत्योः
प्रख्याती
बिस्तारे
महे
खनने
संभ्रमे
वैक्लव्ये
गतिदानयोः
गतिहिंसायाम्
कृपायाम्
दितोऽमी
रोगे
सेचने
वेष्टने
परिभाषणे
नृत्तौ
लोटने
तृप्तौ च
हलने
शंकने
संजने
संवरे
कुटिलायां गतौ
तौ
दाने
मथ
कनभ
क्र.य
क्लथ
चण
हल
ਮਨ
ज्वल
स्मृ
श्री
चलि
छदिर
लडि
मदी
स्वनिर्
ध्वन
फस्त
ज्वल
चल
जल
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
स्यभु
स्त्रन
राजहू
दुभ्राशृङ्
दुम्भशृङ्
भ्राजै
ट
ट्वल
बुल
दल
वल
पुल
| कुल
.
हिंसायाम्
चलने
दोसो
श्राभ्याने
भये
नये
पाके
कम्पने
कर्बने
जिह्वोन्मश्र ने
हर्षग्लेनयोः
ने
शदे
गतौ
वृत् घटादिः
} शब्दे
डीसी
वृत्पुणादिः
दीसो
करने
धान्ये
} देखने
स्थाने
विलेखने
ཝཱ ཝཱ ཝཱ ལཱ ཤྲཱ ཤྲཱ ཨཱ སྠཽ ཤྲཱ
दाल
पथे
पहे
रमुहू
शद्लृ
पलु
कुचौ
कुच
हौ
कसू
बुध
| क्षत
चिती
कितौ
कृत
ज्यू तेर्
च्युतिर्
श्च्युतिर्
स्रुतिर्
कुथि
पुथि
लुधि
मथि
मंथ
प्राणधान्यावरोधयोः विधू
बिनु
महच्चे
संस्थान संतानयोः खाद्
गमने
}
हिंसायोश्व
निष्पचने
उदुगरणे
संचलने
मर्पणे
क्रीडायाम्
शातने
गतिविशरण यो
रोटनाहानयोः
चर्च कौटिल्य प्रतिस्तंभविलेखनेषु
जनने
गमने
वृत् ज्वलादिः
મુનિ
चोधने
सातत्याने
संज्ञाने
निवासे
गति घृणास्प
विभासे
क्षरणे
हिंसासंक्लेशयोः
शास्त्रमाङ्गल्ययोः
गतौ
भक्षणे
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
यद
खद
गद
रद
ञिविदा
गुद
प्रर्द
खर्द
अदि
इदि
त्रिदि
शिवि
नदि
यदि
कांद
ऋदि
लदि
क्लिदि
स्कंदरौ
शुध
उख
ल
वख
मख
रख
लख
रखि
लख
ख
ईलि
} शब्दे
वला
रगि
स्थैर्ये
हिंसायां च
व्यक्तायां वाचि
विलेखने
अव्यक्ते शब्दे
गतिया चनयोः
६३
हिंसायाम्
कुत्सिते शब्दे
दश
बन्धने
परमैश्वर्य
अवयवे
कुत्ते
समृद्ध
दीसिह्लादनयोः
चेष्टायाम्
श्राह्वानरोदनयोः
परिदेवने
गतिशोषणयोः
शुद्धी
गती
लगि
अमि
तगि
वगि
मगि
स्वगि
इगि
रिगि
लिगि
त्वगि
पुगि
जुगि
गि
दीव
लौघ
श्रो
रासृ
लघु
द्वा
शास्त्र
श्लाखु
要
लक
कक्क
गगना
तकि
चक
ल
लञ
लनि
तर्ज
लज
लाजि
| जज
जजि
जैनेन्द्रधुपादः
गतं
कम्पने च
वर्जने
पालने
शोषणे
आनं
शोषणालमर्थयोः
व्यासौ
नीचैर्गती
हसने
कृच्छ्रजीने
भर्त्सने
भर्जने
युद्ध
| तुज
तुनि
पिजि
गज
गुजि
गुज
सृजि
भृज
सृजि
रुज
तीज
गर्ज
गज
त्यजी
शुत्र
कुच
ऋच
लुंच अंच
宛 鹑啷想 阿骢啷囡 ņ丽明狩明丽积
चंचु
चु
मंचु
मुं
मुख
म्लुचु
चु
अनु
ग्लुचु
पंच
ध्वज
ध्वजि
शृज
भृजि
वज
| नजि
हिंसने
पालने व
शब्दे
माने च
त्यागे
पाके
उच्चैः शब्दे
कौटिल्यापी भावको
अपनयने
दिपूजनयोः
गतौ
गतो
४६३
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६४
ཡཱ ཝྰ ླ
होच्छ हु
मुच्छ
चर्च
म्लेच्छा
लछ
अखि
arfa
CÈLE E SEE
बुजु
स्फूर्च्छा
उछि
गुज
गुजि
कूज
तेज
खर्ज
ज
खज
खजि
शौट यौ
मे
ब्रेड
लोड
कदे
स्नैकरमध
लज्जायाम्
कौटिल्ये
पूजायाम्
अव्यक्तायां वाचि
लछणे
इच्छ्रायाम्
श्रायामे
मोह ययोः
विस्तृतौ
प्रमोदे
उञ्छने
अव्यक्ते शब्दे
सर्जने
व्यथने
भार्जने च
गतिक्षेपग्योः
एक
कंपने
टुओस्फूर्जी वज्रनिर्घोषे
पञ्जी
पालने
मंथने
गतिचैकल्ये
संगे
俏
उन्मादे
वर्षावरणयोः
I
! स्ट
મ
लट
शट
वट
खिट
षिट
शिट
회
भट
पिट
| भट
I
तट
नट
खट
हट
पट
हुड्ड
पठ
बठ
मठ
अल
लुट
चिट
| स्फुटिर्
| हेट
| कुटि
अर
पट
| इट
। किट
किटी
कठि
लुठि
अठ
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
परिभाष
बाच
रुजाविशरणगत्यवसादनेषु
वेष्टने
उत्रासने
अनादरे
संघात
शब्दे च
भृतौ
उच्छ्राये
नृत्तौ
कांक्षायाम्
तौ
दोती
अवयवे
विलोडने
परप्रेष्ये
विशश्खे
विद्याधायाम
वैकल्ये
व्यक्तायां वाचि स्थौल्ये
} मनिवास यो
1
i
!
|
T
1
| कटु
| क
I
य
भडि
| मुडि
ਕ
मुडि
दि
रुटि
। लुटि
S咁鹣丽丽F阿
阿
उठ
पिटि
श
शुक्र
लुि
शुठि
विड
अब
नड
रप
चुङ
गोड
जल्प
ल
क्रीड
तू
गुश्रू
धूप
जप
चप
षच
चुन
어
कृच्छ जीवे
स्तुतिशठत्वयोः
उपघाते
हिंसासंक्लेशयोः
कैतवे
गतिप्रतिघाते
आलस्ये
शोधणे
आकोशे
उद्यमे
विलासे
महे
कार्कश्ये
भावक र खे
श्रभियोगे
भूषायाम्
ਬਸਰੱਜੇ
अल्पभावे
खण्डने
विभाजने
स्तेये
मुखैकदेशे
विहारे
तोडने
रक्षणे
तपःसंतापे
व्यक्तायां वाचि
मानसे च
सावने
समवाये
मन्दायां गतौ
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्रनुपाठः
धम्
स्व
गण
तुंफ
श्रण
मूल
रुजायाम् निष्कर्ष संधाते प्रतिष्ठायान् नियती विकसने मात्रकरणे शैथिल्ये
फल
हिंसायाम्
स्तन
उन
الحر
चिल्ल
संभक्तो
बेलू
हानको वर्णगत्योः
कल
भाषणेच
खेलू
मैथुने
शोए श्रोण श्लोण पैण
बनेल.
जम
पंप
स्खल )
कनी
संघात गीतप्रेरणश्लेषणेषु दीसिकांतिगतिषु गीतभक्तिशब्देषु प्रहन्थे पादविक्षेपे
संक्ये
श्रम एमी
स्वल गल
अदने
* ***** Et sparekrutartitats ??**?*£v
क्रम
If
कील
बंधने
गतो
श्वल श्वल्ल । खोल धो त्सर कमर
आझुगमने गतिप्रतिधाते गति चातुर्य
छागतो
ईयार्थाः
हळुने
चम
सूर्य ।
हय ।
फेल
गम्ट
शेरा
हय्य चुच्यी মুল श्रल
गतिमात्योः अभिषवे भूषणपर्यासवारणे
वस्त्रसंयोगे
पतृ মাল चल्ल तिल्ल
दल
श्रण रण
निकल / विशरगो
ध्यभ्र
चण
मौल समील क्ष्मील
निमेषणे
म अन
मग
कण
शिवि
पील
प्रतिष्भे
ब
वर्ण
रिवि
मण
नील शील कुट
रवि
समाधौ श्रावरणे
धति
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र-व्याकरणम्
जर
मक्षणे
| वक्ष
महने च पृष्ठो च
क्षिनु ।
तक्ष
निरसने
वचने अनारे
त्रुि
जोव
प्राणुधारतो
पीव
कांक्षायाम्
सूक्ष काक्षि चाक्षि माक्षि द्राक्ष वाति
मीव णीव
स्थौल्ये
घोस्वासिते च
लुपु
तीय
संघर
तुर्थी
पाने
अलीक
थुवी
विलिवितो श्लेपको इनवोः
स्तेय
2 **** EFTTTT62848
हिंमने
जुनों मी
--
परिभाषपहिसाार्जन
भूष
प्रसवे अलंकारे जायाम्
श्रर्य
Mar
गु
उद्यमने
कप
शिप
प्रीणने
_...---
घर
दिषि दिवि धिचि कृषि अव
श
अप
हिसायाम्
मिश
रोपकानेच
मश ।
हिंसाविकरण योः गतिप्रीतितृष्टिदीप्तिशिकांत्यवत्यवगमन . प्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थ - पाचनक्रियेचालिंग - नहिसादनभायरक्षगणेष,
संघात ध्यासोच
गिाम शश दृशिरौ
मक्ष
तक्ष
दंशो
तनूकरगो
समानी लुगिनी प्रेक्षन दशने स्तुती मत्मीकरणे मनों परिकल्कने स्यांग
त्यक्ष
संघाते च
रन
पालने चुम्बने
भलने
स्तृन्न राक्ष शत्र रहि पिस
गतो
सेचने
शब्देन
पेत.
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६७
तुहिर, । अर्टने
है
जैनेन्द्रधुपाट:
वेष्टने चितायाम् वरणे
खनुज दान शाना शपौञ्
अवदारगे खंदने तेजने याकोश
पूजने
प्रसवैश्वर्ययोः
। श्रव
-~
गतो
चुप
।
दाने
पाने
| बसौ
चा
धमा
ना
मापणे
कौटिल्ये
पूर्वोपादाननिगतो शब्दोपतापयोः
रसनयोश्च
छपन हिंसायाम् स्थैवें च
प्रापणे च
चप
भुको अभिभावे
घामा । प्लवनतरणयोः
दास । टबोश्नि गतिवृद्धयोः • माह माने गंधोपादाने
निवासे
. गुहूत्र संवरणे शब्दाग्निसंयोगयोः
व्यक्तायां वाचि
भए । गतिनिवृत्ती एते मयंतः
अादानेच
जौष ।
झानदेवपूजाअभ्यासे
शि सेवायाम् संगतकरणेषु
हरणे | टुवपौञ् जीनतंताने शोधने
भृत् भरगो वहो इर्षक्षये
धारणे ततुमताने गावविनामे
करणे पाके न्यक्करणे
प्रापणे सेवायाम् स्वप्ने रंजीत्र रागे
पते मवंतः तृप्ती यावृज ।
इति ६१६ भूषाव्यो न्याय्यचते . याचने
धिकरणाः धवः।
दानादनयोः परिभाषणे मिमी संघाते पोज पाती
ल-नायाम् मित्र. मेधाहिंसाबाम्
पालनपुरणे खदेन संगमे च
गतो
ओहाक् त्यागे मोहञ् ।
| श्रोहाङ् गतो बुधुन बोधने
मार
माने बुंदियञ् निशामने
धारणपोषणयोः पूजायां च हुदा दाने
गतिचिन्ताज्ञाननि | वेणुञ्
डधाञ् धारयो च शेषगो
शामननादिग्रहरणेषु ! णिजियों शौचपोषणयोः
वेष व्ये भजौञ्
हीन्
---
चदेञ्
भये
---
मेन णिदृञ् ।
--
पाक
-~-~~
चायन
योः । शेषणे
यो
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद
पूरणे
विम
स्तुत्तो
दोही
जैनेन्द्र व्याकरणम् विजियो पृथकभावे
गतगंधनयोः
स्तुती विवियो क्यामी
दोहो
व्यक्तायां वाचि इति १४ हादयः उम्विकरणा धवः ।।
शौचे
इस्यदादयः ७० उब्धिकरण: अदो भत्तो
पाके
धवः शाने
कुत्सायां गतौ हमी हिंसागत्यो
भक्षणे
कोद्वाजयेच्छापणिअल
रक्षो
दातिगतियु मृज् शुद्धी
दाने ..
तंतुसंताने चो परिभाषनगे
श्रादाने
परिवेष्टने मदिर अश्रुविमोचने
लनने
क्षिप प्रेरणो विध्यपो शये
प्रकपने
पुष्प विकसने भन
प्राणाने श्वस ।
माने
टिम आभावे जन भश्चहसनयो:
હીમ
चर्करीतच वृत्
श्रीर चक्षौ व्यक्तायां वाचि
सजायाम् जागू निन्धक्षये
गती
गत्याम् दारिता दुर्गनी
शकले चकाम ईशै ऐश्वर्य
वृद्धावेच अनुशिौ
ताडने ग्राने उपवेशने
ग्यश्री वृत्
भारछादने
पुणे पुष्टी
शोषणे श्राम-शामुक इनलायाम् स्वप्ने कासि
तोपणे गतिमनानयोः
चितये कान्ती णिमिङ् चुंबने
रिलो आलिंगो अभिगमने णिजिल् शुद्धो
| शको | शिजिला
मारणे ऐवयनमवयों:
अव्या शब्दे
विदा गात्रप्रतारणे वृनहिंसापूरणेषु । पिचिङ्
| ऋध्यै कोपे पृजिल मपर्चने
बुभुक्षणे शब्द
शोघने प्रारिणगर्भविमोचने विधु संराध्ये नेजने शोह स्वप्ने
हिंसने च क्षरग अध्ययने
श्रदर्शने अपनयने
तूपू
प्रीणने मिश्नणे 'द्विपोज अनी तो दुहोवू करणे
जिघांसायाम् स्मरणे दिहो लेपे
मुह
चित्ये गतिपजनकात्यशने | लिहौ प्रास्वादने
उद्गिरणे प्रापणे । ऊपञ् अाच्छादने ष्णिद प्रीतो
हाम्
55L OF BELLES TE HTT***$$$ITEZE MEEEEEBI
मस्ति ।
। तूपौ
पृचोङ् ।
शु
स्तुती
है
मोहने च
गतो
दुह
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
असु
यसु
| शमु | दमु
। ।
दम
दाहे .
| दूझे.
विस
क्षये
-
कैस
-
| धो हो | मीको
-
-
मसी
-
-
उच
-
-
-
जैनेन्द्रधुपाठः
४९ क्षेपणे
। अनै प्रायने प्रयत्ने
उपशमने
| श्रनो रुघौङ् कामे मोक्षणे | तमु
कांक्षायाम् । युजीङ समाधी स्तंभ
| अमु क्लेशने | सृजोड् विसर्ग | भ्रम चलने | लिशौङ् अल्पे च | क्षम
। उधूलो
प्राणिप्रसवे | क्ल म ग्लाने
परिताप विभाग | मदी
| दीडो
म श्लेषणे उत्समें वयोहानी
अनादरे
हिंसायाम् खंडने
तनूकरणे । रीडो
आवरणे परिमाणे
| लीको
श्लेषगो बिलोहने
| नीचे
वृणोत्व समवाये अंतकर्माण
पाने अधःपतने पते मतः
गती | शनी प्रादुर्भाव वृक्ष घरगे कारौ ।
माने तनूकरणे दीपी । दीनौ
एते दितः पिपासायाम् पूरीङ्ग
तितिक्षायाम् नाग्याने
तूरी द्विय
| थूरीष ।
हिंसावयोहान्यो । रजो रागे को धे जूरी
। पौत्र आक्रोश गुप व्याकुले च
एते जितः गूग
गतिहिसयोः ।
' इति १२८ दिवादयः श्यविकरणा: विमोहने भूरीङ हिंसास्तंभयोः
धवः चूरीङ् दाहे तपै ऐश्वये का
। धुम् भभिपये गाय तुझ् वरग
बंधने तुम संचलने क्लिशै उपतापे
निशाने हिंसने चाशे शब्द
प्रक्षेपणे पादोङ गती
चयने आदमावे
स्नृत्र सत्तायाम्
आच्छादने मिमिदा स्नेह
खिदौ प्रिदिवदा मोक्षे च युधौङ् संपदारे
परणे वर्धने | बुधौ
कंपने अभिकांक्षायाम | रनौत शाने
एते भितः
। मृषौ
जितष हष
। शचिरी हिंसागतित्वरणयोः । णही
रोपे
पूतिभावे बंधने
धूरीः ।
रूप
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लुम
लिन् मित्र
णम
चिञ्
क्लिदू
| विदौङ्
कृष
हिंसायाम्
राधु
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________________
जैनेन्ट्र-व्याकरणम्
तुफ
1
तुम्फ ।
नृप्ती
उपतापे श्रवणे गतिवृद्धयोः प्रीती चलने च
हा
दृफ
उत्क्लेशे
व्यामो
निगरणे एते मयंता
अनादरे धृङ् स्थाने
जितावेती प्रच्छो ज्ञीप्सने
वृत् सूजी विस टोमस्जी ऊरुजी मंगे
कौटिल्ये
श्राद्ध शक्ल
ग्रंथने
शतो
मुम्फ नुभ
JE
पूरो
संसिद्धी
तुम्भ शुम
सा
शुद्धौ
शोभाथे
TH
तिक तिग
हिंशायाम्
भुजौ
एभी
सशौ ।
थे हिमायां च
हिंसने
जिधृषा
प्रागल्भ्ये
स्पर्श
गती
: शुन
गती
विधाने
विध पूड
नुवने
पृण
प्रवेशे वोट अवसातने छेदने
मृग
विवासे
पुरा
प्रीणने हिंसायाम् कौटिल्ये कर्मणि शुभे प्रतिज्ञाने शब्दोपकरणयोः हिमागतिकौटिल्येषु
मुगा
रिशी । दंमु दंगे ऋधु बर्द्धने
| स्पृशौ। एते भवंता
लिशो अशूङ् व्याप्ती विछो । टिघल साने ङितावेती
विद्यौ इति २७ श्नुविकरणाः धवः ।
णुदो
श्रोबश्चू तुदौज व्यथने | उच्छी दिशौज अतिसजैने ऋच्छ भ्रस्जौन. पाके क्षिवीज प्रेरणे
मिच्छ एते जितः कृती खिदी परितापे झम अवनवे स्वच
च उब्ज
उज्ज्ञ धारणे
लुम निवासगत्यो प्रेरणे प्राणत्यागे
ऋफ विक्षेपणे
ऋम्फ
इंद्रियप्रलयमूर्ति
भावयोः उक्लेश
कुण
द्र गए
चर्च
तुण
जज
परिभाषणे
भ्रमणे दीप्नैश्वर्ययोः
विश
विलेखने
वृत्
गती
संवरणे स्तुती आर्जवे उपसर्ग विमोहने अत्यनयुद्धनिंदाहिसादानेषु
संवेष्टने भीमाशब्दयोः
उद्यमने
रिफ
उदामने
तृन्ह
हिसार्थाः
हिंसायाम्
स्तह
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________________
इक्षु
मित्र
किल
तिल
चल
बिल
इल
विल
निल
જ્ઞ
ਸ਼ਿਲ
शिल
उचि
लिख
कुट
पुर
कुच
व्यच
गुज
गुड
लिप
छुर
त्रुट
छुट
त्रुट
स्फुट
मुट
लुट
जुड़
कट
लुट
तड
कुड
घुट
तुट
थुड
स्थुब
+
६४
इच्छायाम् स्पर्धायाम्
शैल्यको इनयोः
स्नेहने
विलसने
संचरणे
स्वप्न क्षेपयोः
भेदने
गहने
भावकरण
उच्छे
अक्षरविन्यासे
कौटिल्ये
संश्लेष
संकोचने
व्याजीकरणे
शब्दे
रक्षणे
क्षेपणे
छेदने
विकसने
आक्षेपप्रमर्दनः
कलह कर्मणि
बंधे
म
संश्लेपणे
घसने
बाल्ये च
प्रतिभाते
लोडने
संखरे
रुफर
स्कुर
लड
ब्रुड
मृड
तृड
स्फल
ताल
गू
कुछ
जैनेन्द्रधुपाठः
} स्फुरणे
उत्सर्गे
क़ूख़ू
गुरीहू
शृङ्
जुड्
विजीझे
लजीको
} शब्दे
उद्यमने
संघ
रमौ
उप्लव
निमज्जने
चलने
ਸਾਂ ਡਬੋ ਚ
रुचित्र
भिदिनों
छिदिनो॑
रिवियों
निचित्र
स्तवने
विधूनने
पुरीषोत्सर्गे
गतिस्थैर्ययोः
क्षुर्दिर्भो
थुजि
एते मतः
1 बीडे
लखुजीको
जौड़ संगे
वृत्
व्यायामे
राभस्ये
प्रती
ङितः
इति १४६ तुदाद्रयः शकिरणाः
धवः
प्रीतिसेवनयोः
भवचलनयोः
भावर रो
विदारणे
द्वैधीकरणे
विरचने
पृथग्भावे
संप्रेक्षणे
योगे
|
ļ
हृदि
वृदि
ञिइन्धी
विदो
विदो
कृती
शिप्लू
पिप्लु
उमंत्रो
भुजो
तृह
हिसि
सन्दी
श्रंजू
तंबू
कविजी
वृजी
पृची
तनुज
पशुञ
क्ष
क्षिणुञ्
ऋज्
दी सिटेचनयोः हिंसानादरयोः
नृणुश्रू
घृणुञ्
एते मितः
दो
} हिँसने
क्लेदने
हैन्ये
विचारे
भये
वर्जने
संपर्क
एते मतः
इति २५ रुथादयः श्नम् विकरमाः
धयः
बनुहू
मनुङ्
ङितः
ने
विशेषणे
संचूर्णने
श्रामने
रक्षाशनयोः
५०१
गतिव्यक्तिम्रक्षणेषु
संकोचने
विस्तारे
दाने
हिसायाम्
गतो
अदने
दी
ञितः
याचने
बोधने
ङितः
इति तनादय उबिकरणाः
धवः
Page #543
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________________
५०२
डुकी
मोबू
। कुल
। उत्क्षेपे
श्री
बंधा
मी पिजू
संदर्भ
कुज स्नूप
द्रव्यविनिमये तृसिदीयो पाके हिसायाम् बन्धने श्रामवणे शब्दे गौ उपादाने पवने श्राच्छादने हिंसायाम, वरणे नित:
वध
같이 যু
सुस्वने
का
स्तु
के म्
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
हिंसायाम् । ओलहि । अनमोधने बंधने
अपवारणे प्रतिहर्षविमोचन योः | पौद्ध गहने विलोडने
नट अवस्पंदने
| श्रथ प्रीतिहर्षे संक्लेश
संयभने पूरणे
छेदने च रोषे
चलप्राणनयोः निष्की
संचलने राम ।
प्रेरणे हिसायाम् तुम ।
विबंधने श्रा भोजने
सेब उंछ
अदने आभीक्ष्णे | विष विप्रयोग
छेदने पुष । स्नेहनसेचनसेत्रमपूरग्गेषु । | मुध स्तेये
कुत्सने च पुष्टी
अल्पीभावे खच भूतप्रादुर्भावे
अनादरे एते मवंत
श्वठ । दृन संभक्ती
गतिसंस्कारयोः
क्लिश
'
य
---
संबंधे
हिंसायाम
भ्रस
RA
पालनपूरणयोः बरणे मसने मये
चुद
नसे
वयोहानी गतो
उित्
शब्द एते भवन्तः
१६ क्रयादयः श्नाधिकरणा:
धवः
धूम
अपने
प्राय
तना
हिसाबलिदाननिकेतने सामप्रयोगे
पिश सांत्व
स्तै ये
जमा
भिती हानौ चरणे गती
चिलि
श्वल्क
यत्रि
भाषणे
बल्क।
* _8858**IT
। स्फुट
स्मरण चूर्णसंकोचने परिहासे अनृतभाषा उपसेवामा
रेपणे
स्लिप पथि
प्रश्लेषणे गतो
काटे
श्लेषणे
लब
पिंञ्च
कहने
वृत्
द
संबरो
चरणे
तिल . स्नेहने
तिल
श्रा
भये
आघाते
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________________
जैनेन्द्रधुपाठः
७३
घ
चलने संवरगो क्षये
भेदे
खाडि कडि वडि मडि
व्यय गृस्त
चन
तुम
संघाते
विभाजने भूषायाम कल्याणे बमने आदरानादयोः संचादन
पिष्टि
कगा
स्तुती रोपणे अध्ययने भापगे मगिराविष्करणे निमीखने नाशने श्राश्रवणे ताडने बंधने रोगे
पुस्त
जभि
पुंस
रक्रि
जन
नक्क धक
नाशने
अभिब ने बंधने कांतिकरण वर्गाने
पशि
घूम कीट
अम
पूजने
चट
ध्वथने
यालये शोपगो
हत्याः
नल
गुठि
घट
বন্ধ
शौचक्मणि प्रतिष्टाकरणे उन्माने
मार्ज गर्ज
तुल पुल
भने प्रतियत्ने विशब्दे
धू
समुच्चये
स्वबझे विस्तारे
༥.༣., , ༈ ཝཱ ༢ ༈ བྷ ཥ མ ལྔ ཝཱ ཙྩ བྷཱུ ཙྩ བྷཱ༈ བ ཚེ རྒྱུ བྷ བྷ ཎ ཤཱ ཉྙ༣ ༧ # ཝཱ ཨཱ མ R
४३५ 2 2 3 4 4 2 3 4 4 .३ ४ ५ . कृ. 1 2 3 4 5. ६.३ ३.५ ३.३ ३2.
घुष आठः
स्तुल
रोहरगे
पचि तिज्ञ
निशाने
लस
मूल डिप)
श्राख्याने छादने
कल
मोक्ष
शिल्यकोगे अलंकारे यसने पूजने नियोगे निकागेपस्कारयोः
अईने
मसि
als
কথা কাৰ
पल
प्रसहने
शुल्व
माने
सुठि
संचूर्ण ने
विभागाने स्नेहछेदापहरगणेषु मंचये सहने
मार्गसंस्कारयोः ।
'रुज
हिंसायान,
ब्रज ।
भावकारणे
कृषि
शपि जि
सेजने गत्वाम् क्षात्याम् कृच्छ्र जीवने गमने च
श्रमिकांक्षणे पूर्वनिकेतने
अंच लिग
श्रास्वादने विशेषणे चित्रमाणे
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________________
ईसायाम्
त्रस
स्मृह भाम सच
मुद संसर्ग
वारणे मुच प्रमोचने (आस्वदः सकर्मकात्)
धारणे दल विदारणे
क्रोधे पैशुन्ये भक्षणे
खेट
पुष
खोट
क्षेपे
पट
अंस
जि तुजि
जैनेनमारमा
अवमोचने
प्रसवणे रूक्ष पाष्ये
दर्शने
शैथिल्ये चित्र चित्रकरणे
कदाचिद्दर्शने च समाघाते संपर्चने कर्णभेदे हट्युपसंहारे दण्इनिपाते
लक्षणे अंग पदलक्षणे च
हरितभावे वर्णक्रिया विस्तार.
गुणत्रचनेषु कथ बदने
ईध्खायाम् गण संख्याने शठ
सम्यगवभाषणे श्वठ पद
ग्रंथे
अंध
विधि
दंड
गोम । कुमार যী साम वेल पल्यूल वास गवेष बास निवास माज सभाज ऊन
उपक्षेपे क्रीहने उपधारणे सांत्वने कालोपदेशे लवनपवनयोः गतिमुखसेवनयोः मार्गरणे उपसेवायाम् आच्छादने पृथक्करणे प्रौतिदर्शनयोः परिहाने
अक
मजि पिसि कुसि
STT
लसि त्रसि
कूट
ग्राम
भाषार्थाः
आमंत्रणे
कुण
स्लेन वधि
धूप विच्छ
चौ विभाजने प्रकाशने
लजि
तितिक्षायाम त्यागे देवशब्दे
स्तन
कर्मसमासो
श्लाघायाम्
पुष लोक
स्तोम सुख दुःख
तक्रियायाम
वृ
गतौ वा पष (अगिः) ॥ स्वर श्राक्षेपे
प्रतियने गतो परिकल्कने पूजायाम्
व्यय
रूप
आस्वादस्नेहयोः वित्तसमुत्सगे रूपक्रियायाम् द्वैधीकरणे प्रेरणे गाविचूर्णने एते मवंतः
लाभ
।
शैथिल्ये
पूर स्वद
शान्यायने संचरणे
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________________ जैनेन्द्रधुपाठः 505 श 17 चौक श्रामगो शाक वृत् अंध / संद स्तमे दशै दशने डिभै / गतो ग्रहणे उद्यमने कथ हिंसायाम् अन्वेषणे कुस्मै कुस्मृतो हिसि विस्मापने समै प्रथ बंधने न आलोचने विक्रांती अवक्षे परिवृहणे प्रतापने श्राः सद गतो आभंडने जुष परितर्पणे उपयाआयाम् प्रलंभने संदानक्रियायाम शक्तिबंधने ग्रंथ / माने तृप्ति योगे स्याल भने संग्रामै युद्धे परिकूजे श्रदोपदिमायाम नित संवितो ख्याननियासेषु गे: (गिपूर्वस्तनुः) देय संवरणे संदेशवचने युङ् जुगुप्सायान् पूजायाम् दर्शने च विज्ञापने विनिन्दने इंदिता अन्वेषगणे मंधाते लक्ष दर्शनांकनय: शोके कुटुम्बधारणे मित् शौचालंकारयो गुप्तभाषण संयमने प्रसहने पिच ग्रहणश्लेषणयोः एते मर्वनः पह तितिक्षायान संतर्जने क्षेपणे द्रवीकरणे भापती वृजी प्रर्दने वर्जने पूजायाम् गर्थे / क्योहानी हिसायाम् किष्कै हिसायाम् वियोजनसंपर्चनयोः / शुदै शोधने परिमाणे शिष असर्वोपयोगे इसायाम् | विपूर्वो (वि-शिष) ऽतिशये वो संकोचने प्रीणने कंपने संदीपने স্মাহমু अपवारणे त्रितः श्लाघावाम् इति 351 चुरादयो धव पूजायाम् / मी गती समाप्ताः / पाठप्रयोजनमनिविममिडविकल्प द्वेच्छप्रभृत्तिरव्यो निवागनेन। 2002 दोनत्वमिड्विकलता च यथाक्रमेण धूनां सुधाभिरधिगम्यमिता स्वराणाम् (?) पादाम्भोजानमन्मानवपतिमटानयमाणिक्यतारानीकासंसेदिताद्याविललितनखानीकशीतांशुधियः / दुर्धारानगवाणाम्बुरुहहिमकरोद्ध्वस्तमिथ्यान्धकारः शब्दममा स जीयाद् गुगनिधिगुणनम्वितीशस्सुसौल्यः // मर्षणे 1112333# 13 141222 दाहे ऐदितः तृप पूरमे तर्पणे . दुभी भये